गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

नौकरशाही 'स्टैंड बाईÓ मोड में और जनता अधर में

नाखुश अफसरशाही ने बिगाड़ा सरकार का गणित
भोपाल। पिछले 13 साल से बेलगाम रही मप्र की नौकरशाही की सरकार ने लगाम क्या कसी वह स्टैंडबाई मोड में आ गई है। इस कारण योजनाएं और विकास कार्य अटक गए हैं। नौकरशाही के इस रवैए से सरकार भी असमंजस में है। हालांकि सरकार के चहेते अफसर नौकरशाही में पनपे असंतोष को शांत करने की कवायद में जुट गए हैं। लेकिन जानकारों का कहना है कि प्रदेश के अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच सरकार के प्रति वही भाव नजर आ रहा है जो 2003 में दिग्विजय सिंह की सरकार के प्रति था। यानी सरकार के खिलाफ अंदर ही अंदर आग सुलग रही है। दरअसल, संघ की भोपाल में हुई समन्वय बैठक और उसके बाद प्रदेश की नौकरशाही पर लगातार हो रहे प्रहार और अधिकारियों-कर्मचारियों पर कार्रवाई से अचानक प्रदेश में एक अलग माहौल नजर आने लगा है। प्रदेश की प्रशासनिक वीथिकाओं में सरकार के हर कदम पर संदेह होने लगा है। इसको लेकर कर्मचारी संगठन भी लामबंद होने लगे हैं। लेकिन प्रदेश की जनता के लिए इसका असर बहुत नकारात्मक और हानिकारक रहा है। इसके चलते प्रदेश में सरकारी कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है। नौकरशाही में इनदिनों यह चर्चा जोरों पर है कि जनता के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए सरकार और भाजपा नेताओं द्वारा कारिंदों को विलेन बनाया जा रहा है सूत्रों के मुताबिक बालाघाट में जिस तरह संघ प्रचारक की पिटाई हुई है, उससे प्रशासनिक व्यवस्थाओं को घेरने का एक और मुद्दा विपक्ष के साथ संगठन के नाराज लोगों को मिल गया। इसी तरह हाल ही में राजधानी में स्लॉटर हाउस, रिटेनिंग वॉल हो या खेत सड़क योजना, सरकार को इन मामलों में कदम वापस खीचनें पड़े हैं। इन सभी मामलों में अफसरों ने जनप्रतिनिधियों को भरोसे में लिए बिना ही मनमाने तरीके से काम किए, जिसके बाद बड़े विवादों की स्थिति बनी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को स्वयं सामने आकर मामलों को संभालना पड़ा है। यही वजह रही कि मुख्यमंत्री को नीति, सुशासन स्कूल में हुई अनौपचारिक कैबिनेट में मंत्रियों को प्रभार के जिलों में दौरे बढ़ाने, जिला योजना समिति की बैठक में शामिल होने से पहले संगठन पदाधिकारियों से बात करने जैसी हिदायतें देनी पड़ी है। इसके बाद मंत्रियों ने प्रभार के जिलों में दौरे तो बढ़ा दिए पर समन्वय की कमी अभी भी बनी हुई है। सूत्रों का कहना है कि कांफ्रेंस में मुख्यमंत्री अधिकारियों से निचले स्तर पर प्रशासनिक कसावट के साथ, समन्वय और समयसीमा में योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर बात करेंगे। एक साल से बिगड़े हालात मप्र सरकार को अफसरशाही और कर्मचारी फेंडली माना जाता है। जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अफसरों और कर्मचारियों के साथ सदाशयतापूर्ण व्यवहार रखते हैं उसे काफी पसंद किया जाता है। इससे शिवराज सरकार को लेकर आम जनता में धारणा बन गई है की वह नौकरशाही के शिकंजे से बाहर नहीं निकाल पा रही है। इसको लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी सरकार को अगाह किया। इसका परिणाम यह हुआ की सरकार जरा-जरा सी बात पर अधिकारियों पर एक्शन लेने लगी। इससे सरकार के खिलाफ एक माहौल बन गया है कि वह चिन्ह-चिन्ह कर अफसरों को निशाना बना रही है। करीब एक साल में एक सैकड़ा अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह इस कदर फेटा गया कि वे सरकार के खिलाफ हो गए हैं। प्रदेश के अधिकारियों-कर्मचारियों में आम धारणा हो गई है कि पॉवरफुल अफसरों पर नियम लागू नहीं होते हैं जबकि जिनकी पकड़ नहीं होती, सिर्फ उन पर ही त्वरित कार्रवाई होती है। इस कारण मप्र सरकार में नौकरशाह अलग-अलग गुट में बंटे हैं, यह कोई नहीं बात नहीं है। सरकार ने नेहरू गांधी परिवार की तारीफ कर मोदी सरकार पर कटाक्ष करने वाले आईएएस अधिकारी अजय गंगवार को ताबड़तोड़ कार्रवाई कर जिस ढंग से बड़वानी कलेक्टर पद से हटाया है, उससे अन्य अफसरों को सिविल सेवा आचरण नियम के दायरे में रहने का संदेश जरूर गया है, लेकिन इससे यह संदेश भी गया है कि जिन अफसरों की ऊपर पकड़ नहीं होती सरकार में वे जल्दी शिकार होते हैं। जबकि पहुंच वाले पॉवरफुल अफसरों पर सरकार मेहरबान ही रही है। एक नौकरशाह कहते हैं कि सरकार में कुछ अफसर ऐसे हंै जो भाजपा कार्यालय में जाकर नेताओं को प्रशिक्षण देते हैं और कुछ संघ के कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं, साथ ही केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ भी फेसबुक पर आग उगलते हैं। ऐेसे अफसरों पर भी सरकार मेहरबान है। सरकार की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट अफसरों की मानें तो सरकार भी अफसरों का रसूख देखकर काम कर रही है। वह कहते हैं कि 12 सितंबर को मनरेगा की समीक्षा बैठक में मुख्य सचिव अंटोनी डिसा के सामने ही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अपर मुख्य सचिव आरएस जुलानिया और मुख्यमंत्री के सचिव विवेक अग्रवाल आपस में भिड़ गए। दोनों में लंबी बहस हुई लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और दिसंबर 2015 में आदिवासी विकास आयुक्त रहते जेएन मालपानी का एक ऑडियो वायरल हुआ। मामला सीएम तक पहुंचा, तत्काल अपर मुख्य सचिव राधेश्याम जुलानिया को जांच सौंपी। जांच रिपोर्ट के आधार पर मालपानी को निलंबित कर दिया। ऑडियो में मालपानी अपने अधीनस्त अफसर से यह कहते हुए सुनाई पड़ रहे कि अकेले-अकेले खाओगे तो बदहजहमी हो जाएगी। वहीं तत्कालीन अशोकनगर कलेक्टर आरबी प्रजापति को इसलिए चलता कर दिया गया कि ट्रेनिंग से लौटते ही सीएम के सामने वीडियो कॉफ्रेंस में तत्कालीन पीएस ने राशन की दुकान पर कार्रवाई का सवाल पूछा तो वे उलझ गए। हडबड़ी में कुछ कह गए। बाद में कलेक्टर को जिले से चलता करवा दिया। कुछ ऐसे ही छोटे-छोटे कारणों के चलते तत्कालीन बड़वानी कलेक्टर अजय गंगवार, नरसिंहपुर कलेक्टर रहे सिबि चक्रवर्ती, मधुकर अग्नेय, तत्कालीन भिंड कलेक्टर, प्रकाश जांगरे तत्कालीन दतिया और कटनी कलेक्टर को हटाया गया। इससे नौकरशाही का एक वर्ग असंतुष्ट है। मुंह देख काम करने में सिद्धहस्त अफसर पिछले कुछ वर्षों में प्रदेश की नौकरशाही अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह देख कर काम करने में सिद्धहस्त हो चुकी है। सूबे की राजनीतिक शक्ति के केन्द्र को साधने में महारत रखने वाली नौकरशाही प्रदेश में अब तक की स्थिति में सहजता से काम कर रही थी। ज्यादातर चतुर खिलाड़ी अपनी सुविधा के हिसाब से अपनी-अपनी पसन्द के मुख्यमंत्री को साधते हुए 'मौजÓ कर रहे थे। लेकिन अब संघ की सक्ष्ती के बाद बनी नई स्थिति ने इन सबके लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। इसलिए सारे काम ठप हैं और अधिकारी अपने सारे काम छोड़ कर नई स्थितियों में अपने समीकरण साधने को प्राथमिकता दे रहे हैं। कुछ अफसरों के बारे में कांग्रेस के प्रभाव में काम करने की शिकायतें मिलीं हैं। निष्पक्ष होकर काम न करने वालों पर एक्शन होगा Ó बहुत से 'खासÓ अधिकारियों को आशंकित कर दिया है। इस कारण भी चतुर खिलाड़ी अपने लिए सुरक्षित ठिकाना तलाशने की जुगत में जुट गए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रदेश की नौकरशाही की इस दिनों कुछ ऐसी स्थिति हो गई है जैसी फेयरवेल पार्टी हो जाने के बाद कॉलेजों के हॉस्टलों की हो जाती है। अधिकारी कहते हैं, अब तो हमारे हाथ ही बंध गए हैं। सरकार की नीतियों को लागू कराने में ज्यादा मेहनत से काम करने पर गाज गिर सकती है। एक पूर्व आईएएस अधिकारी इस दलील को सही नहीं मानते। वे कहते हैं, तीन साल तक जिन्होंने नीतियां लागू करने में मेहनत नहीं की उनके लिए यह एक अच्छा बहाना हो सकता है क्योंकि सूबे में कुछ खास अधिकारियों ने तो इस पूरी अवधि में सिर्फ 'कमाई करनेÓ के लिए ही मेहनत की है। ऐसे में इन दिनों प्रदेश में प्रशासन की स्थिति यह है कि जो दागी हैं वे दाग छिपाने में जुट गए हैं, जो उपेक्षित थे वे दांव लगाने में जुटे हैं और जो काम कर रहे थे वे तटस्थ होकर यथास्थिति में बैठ गए हैं। ब्यूरोक्रेसी में कामकाज पूरी तरह ठप्प पड़ गया है। घी में आग का काम किया बालाघाट-इंदौर की घटना ने प्रदेश में अधिकारियों-कर्मचारियों की सरकार से नाराजगी को बालाघाट की घटना ने और बढ़ा दिया है। दरअसल, बालाघाट में पुलिस ने जो किया वह निंदनीय था। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव में सरकार की दो वरिष्ठ पुलिस अफसरों पर गाज गिरी है, उससे नौकरशाही खफा है। इस घटना के बाद बालाघाट के पुलिस महानिरीक्षक डीसी सागर और पुलिस अधीक्षक असित यादव का तबादला कर दिया गया है। गृहमंत्री के निर्देश पर बड़ी कार्रवाई करते हुए डीजीपी ऋषि कुमार शुक्ला ने एएसपी राजेश शर्मा, बैहर थाना के प्रभारी जिया उल हक और एसआई अनिल अजमेरिया को पहले ही निलंबित कर दिया था। उधर, इंदौर में भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के पीए रवि विजयवर्गीय की बिना नंबर की गाड़ी रोकने पर एएसआई बाबूलाल पंवार को सस्पेंड कर दिया गया। रवि विजयवर्गीय ने आरोप लगाया कि एएसआई नशे में था और उसने मारपीट की। मेडिकल रिपोर्ट में नशा करना नहीं पाया गया। जबकि पंवार का कहना था कि गाड़ी रोकने पर विजयवर्गीय ने उतरकर गाली-गलौच की। यह घटना बताती है कि कुछ नेताओं के रसूख को कायम रखने के कारण पुलिस का मनोबल गिराया जा रहा है। प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और पुलिस में टकराव लगातार बढ़ता जा रहा है। अब तक पांच आईपीएस अफसर इस टकराव में नप चुके हैं। जिन अफसरों पर गाज गिरी है उन्हें दूसरे जिले में काम करने का मौका नहीं मिल सका। इनमें एक हैं महिला आईपीएस टी अमोग्ला अय्यर। नीमच में संघ और तत्कालीन एसपी टी अमोग्ला अय्यर के बीच खींचतान हुई थी। यहां पर कुछ लोग एक धर्म स्थल के आसपास एकत्रित हो गए थे। इन लोगों को रोकने के लिए महिला आईपीएस अफसर अमोग्ला अय्यर ने खुद मोर्चा संभाला। इसके बाद उनका तबादला कर दिया। हालांकि बाद में उन्हें निर्वाचन आयोग ने भोपाल दक्षिण का एसपी बनाया, लेकिन कुछ महीने बाद सरकार ने उन्हें यहां से हटा दिया। अब वे प्रतिनियुक्ति पर चली गई है। आगर-मालवा जिले में भी संघ की नाराजगी के चलते यहां के एसपी को आज तक लूप लाइन में रहना पड़ रहा है। यहां पर दो पक्ष आमने-सामने आ गए थे। इस दौरान जिले में तनाव के हालात बन गए थे। तनाव को देखते हुए तत्कालीन एसपी आरआरएस परिहार खुद थाने पहुंच गए और मोर्चा संभाला। उन्होंने इस दौरान दोनों पक्षों से कई लोगों को गिरफ्तार किया। इससे संघ पदाधिकारी नाराज हो गए। करीब दो साल से वे लूप लाइन में है। तत्कालीन एएसपी महावीर मुजालदे को भी हटाया गया था। इस वर्ष जुलाई में रायसेन जिले के दीवानगंज के सेमरा गांव में दो समुदाए आमने-समाने आ गए थे। दोनों समुदाओं को खदेडऩे के लिए पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा। इससे संघ पदाधिकारी नाराज हो गए। नतीजे में यहां के एसपी दीपक वर्मा का तबादला कर दिया गया। वर्मा को भी जिला न देकर उन्हें 25वीं बटालियन में पदस्थ किया गया है। वहीं एसडीओपी मंजीत चावला को भी पुलिस मुख्यालय में पदस्थ किया गया है। और अब डीसी सागर और असित यादव संघ के खौफ की बलि चढ़े हैं। नेताओं के दबाव से नाराज हैं पूर्व डीजीपी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के अन्य नेताओं के दबाव में पुलिस पर हो रही कार्रवाई से कई पूर्व डीजीपी ने भी आपत्ति उठाई है। उनका कहना है कि आखिर हम पुलिस को किस दौर में ले जाना चाह रहे हैं। एक घटना होती है बालाघाट में और दूसरी इंदौर में और अफसरों को सस्पेंड कर दिया जाता है। दोनों मामले अलग हैं, लेकिन एक बात खास है कि दोनों राजनीतिक रसूख से जुड़े हैं। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि आखिर पुलिस पर बिना कसूर के राजनीतिक दबाव में कार्रवाई क्यों हो रही है? प्रदेश के पूर्व डीजीपी खुद सवाल उठा रहे हैं कि आखिर ऐसे सजा मिलेगी तो कैसे काम करेगी पुलिस? उनका सवाल तो यह भी है कि आखिर बैहर जैसे एक थाने की घटना पर इतने अफसरों पर कार्रवाई क्यों हुई, आखिरकार कोई बताएगा कि एएसपी, एसपी और आईजी की गलती क्या थी? पूर्व डीजीपी सुभाष चंद्र त्रिपाठी कहते हैं कि किसी भी अफसर को बिना प्रारंभिक जांच के निलंबित करना ठीक नहीं है। उसे सस्पेंड तब किया जाए जब उसका कृत्य इतना गंभीर हो कि बर्खास्त करना पड़े। यहां तो दो-दो सजाएं दी जा रही हैं। बगैर नंबर की गाड़ी रोकना पुलिस वाले का धर्म है। जो घटनाएं हो रही हैं, उससे पुलिस रक्षात्मक हो रही है। वहीं पूर्व डीजीपी डीसी जुगरान कहते हैं कि इस तरह के विवादों से पुलिस का मनोबल गिरता है। उसके काम पर प्रभाव पड़ता है। वैसे ही पुलिस की ड्यूटी कठिन है। पूजा से लेकर वीआईपी कार्यक्रम तक में उसे नौकरी करनी पड़ती है। अब हर किसी के ऊपर बिल्ला तो नहीं लगा रहता कि वह कौन है? ऐसे में पुलिस कैसे कार्रवाई करे? पूर्व डीजीपी एनके त्रिपाठी कहते हैं कि हर राजनीतिक दल पुलिस को अपने कब्जे में ही रखना चाहता है। ट्रांसफर और पोस्टिंग नेताओं के हाथ में है तो वह उसका उपयोग भी अपने हिसाब से करना चाहते हैं। अब बालाघाट को ही देख लें कि वहां बैहर में घटना होती है तो थाने पर कार्रवाई ठीक है पर जो आईजी उस दिन वहां था ही नहीं, उस पर कार्रवाई क्यों? रिटायर्ड एडीजी वीके वाते कहते हैं कि पहले जांच होना चाहिए थी। उसके बाद एक्शन लिया जाना था। अल्टीमेटम के दबाव में पुलिस में काम नहीं होता। निष्पक्ष जांच सीनियर अफसर से या जज से करवाना चाहिए थी। ऐसी घटनाओं से पुलिस के मनोबल पर असर तो पड़ता ही है। कुछ के घेरे में सरकार प्रशासन में सरकार के प्रति आक्रोश की एक वजह है सरकार में कुछ अफसरों का दबदबा। दरअसल, एक दशक पहले जो अधिकारी सीएम के करीब जाने में सफल रहे उनका मजबूत घेरा आज भी कायम है। ये अधिकारी अन्य किसी को सरकार के पास फटकने नहीं दे रहे हैं। चाहे फिर वो वल्लभभवन से लेकर मैदान में तैनात अधिकारी ही क्यों न हों। इसी को लेकर संघ भी नराज है। संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि संघ की विचारधारा से जुड़े अधिकारी चाहकर भी सीएम और मंत्रियों के नजदीक नहीं पहुंच पाए तो कांग्रेस की सरकार में मौज करने वाले अधिकारी शिव के राज में भी आगे बढ़ते चले गए। वल्लभ भवन से लेकर जिला स्तर पर नौकरशाही गुट विशेष के झमेले में उलझ गई है जिसका आभास अगले सीएस को लेकर जारी जोड़-तोड़ के बीच बिछाई जा रही बिसात से समझा जा सकता है। कुल मिलाकर एंटी इनकम्बैंसी और बिगड़ते जातीय समीकरण के बीच हावी होती नौकरशाही और कार्यकर्ताओं की नाराजगी का समय रहते समाधान निकालना टीम शिवराज के लिए जरूरी हो गया है। क्योंकि मध्यप्रदेश के नेता भोपाल से लेकर दिल्ली तक दबी जुबान में ये कहते सुने जा सकते हैं कि अधिकारी नहीं सुनते तो फिर कार्यकर्ताओं का भला कैसे संभव होगा और यदि ऐसा ही रहा तो फिर मतदाताओं का भरोसा जीतना आसान नहीं होगा। शिवराज के सामने चुनौतियों का पहाड़ मप्र में इस समय जैसी स्थिति नजर आ रही है उससे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने चुनौतियों की भरमार आ गई है। भाजपा के विभिन्न फोरमों और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या भाजपा की समन्वय बैठक हो, सभी का एक केंद्रीय स्वर यही है कि प्रदेश में नौकरशाही पूरी तरह हावी है और उस पर मंत्रियों का प्रभावी नियंत्रण नहीं है। इन सब से यही ध्वनि निकलती है कि भाजपा के नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच मनभेद गहरे तक हो गए हैं। यदि इन हालातों को नहीं संभाला गया तो फिर स्थिति उससे भी बद्तर हो जाएगी जो कांग्रेस शासनकाल में थी। कुल मिलाकर जो माहौल बन रहा है या बनाया जा रहा है उसको देखते हुए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कहीं दस साल तक प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने के बाद आखिरी के तीन सालों में जो परिस्थितियां तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में बनी थीं, वैसे ही हालात बतौर मुख्यमंत्री तीसरी पारी खेल रहे शिवराज सिंह चौहान के समय में होते जा रहे हैं, तो कहीं दिग्विजय सिंह की तरह नौकरशाही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार को तो नहीं ले डूबेगी। भाजपा की असली चिंता का कारण यही है कि 2018 के चुनाव के बाद ऐसी परिस्थितियां न आएं जिससे कि चौथी बार भी पूरी चमक-दमक के साथ प्रदेश के फलक पर भगवाई सूर्योदय होने में कोई कठिनाई पैदा हो। इन दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने जहां एक ओर नौकरशाही पर नियंत्रण रखना एक बड़ी चुनौती है तो वहीं दूसरी ओर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का परचम लहराने के लिए चिंतित पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को अभी उस रोडमैप का इंतजार है जिसके सहारे वह अगली सरकार बनाने का सपना अपनी आंखों में संजो रहे हैं, हालांकि उन्हें भी इस बात का अता-पता नहीं है कि रोडमैप कैसा होगा, कब आएगा या आयेगा ही नहीं। जहां तक योजनाओं के क्रियान्वयन और उनको जमीनी स्तर तक पहुंचाने का सवाल है दिग्विजय और शिवराज की कार्यशैली में कोई विशेष अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही अपनी योजनाओं के वांछित परिणाम के लिए पूरी तरह से केवल नौकरशाही पर निर्भर रहे हैं और पार्टी कार्यकर्ताओं की इसमें कोई सक्रिय सहभागिता नहीं है। लेकिन दोनों में एक अन्तर यह है कि दिग्विजय सिंह ने अंतिम तीन साल में जो उनके आसपास के कुछ नौकरशाहों ने सुझाया या सलाहकारनुमा लोगों ने दिखाया वैसी रुमानी कल्पना में वे बह गए और समय-समय पर जो कदम उठाए या जो बयान दिए उनसे कई वर्ग रुष्ट होते चले गए लेकिन वे अन्त तक उन पर पूरी तरह अड़े रहे। इसके विपरीत शिवराज लचीला रुख अपनाते हैं और जहां भी उन्हें लगता है कि कोई फैसला जनहित के विरुद्ध हुआ या लोगों में नाराजगी है तो वे इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाते और तत्काल अपने कदम वापस लेकर ऐसा माहौल बना देते हैं जैसे वे जन-भावनाओं के अनुरूप ही चलते हैं। उदाहरण के तौर पर चाहे भोपाल के शिवाजी नगर में स्मार्ट सिटी बनाने का मामला हो या स्लाटर हाउस के स्थल परिवर्तन का मामला हो, उन्होंने नौकरशाही या कुछ लोगों की सलाह को न मानते हुए वैसे फैसले किए जैसी कि लोगों के बीच से मांग उठ रही थी। इसके अलावा भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें उन्होंने अडिय़ल रुख न अपनाते हुए लचीला रुख अख्तियार किया। भ्रष्टाचार करेगा बंटाढ़ार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की सबसे बड़ी चिंता यह है कि अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार सरकार पर भारी पड़ सकता है। क्योंकि मध्यप्रदेश देश में महाराष्ट्र के बाद सबसे भ्रष्ट राज्यों की सूची में शामिल हो गया है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 1279 मामलों के साथ महाराष्ट्र टॉप पर है जबकि 634 मामलों के साथ मप्र दूसरे नंबर पर। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2015 के 634 मामलों और वर्ष 2014 के पेडिंग 465 यानी कुल 1099 मामलों में से 439 मामलों में ही पुलिस चार्जशीट पेश कर पाई। साल 2015 के अंत तक 340 मामले लंबित थे। भ्रष्टाचार से जुड़े 26 मामलों में 44 करोड़ 24 लाख रुपए जब्त हुए, जो कि देश में सबसे ज्यादा राशि थी। रिपोर्ट के मुताबिक भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी कर्मचारियों-अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन की अनुमति के देश में सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश में ही लंबित है। प्रदेश में ऐसे लंबित मामलों की संख्या 320 है। भ्रष्टाचार के मामलों में पिछले साल किसी भी आरोपी के खिलाफ मामले की पूरी जांच हो गई हो, ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया। अब तो भाजपा के पदाधिकारी भी यह कहने से नहीं चूकते कि भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है और कांग्रेस शासनकाल से भी बद्तर हालात हो गए हैं। कांग्रेसी शीर्ष यानी मंत्री स्तर से भ्रष्टाचार के फलने-फूलने का आरोप लगाते हैं तो भाजपाई यह कह रहे हैं कि नौकरशाही में व्यापक भ्रष्टाचार है। यदि एक बार उनका यह तर्क पूरी तरह मान भी लिया जाए तो उन्हें इसका उत्तर भी खोजना होगा कि इसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है क्योंकि जनता ने तो भाजपा पर अटूट विश्वास व्यक्त किया था। जहां तक नौकरशाही के हावी होने का सवाल है तो अलग-अलग स्तर पर जो चिंताएं व्यक्त की गई हैं तो उनमें नौकरशाही के स्तर अलग-अलग हैं। जहां तक मंत्रियों की शिकायत का सवाल है तो उसका आशय उस आला नौकरशाही से है जो सचिवालय में बैठती है और सीधे-सीधे निर्णयों में सहभागी बनती है। विधायक या अन्य कार्यकर्ता जिस नौकरशाही की शिकायत कर रहे हैं उसका आशय उन अधिकारियों-कर्मचारियों से है जिनका सीधे जनता या जनप्रतिनिधियों से वास्ता पड़ता है, जिनमें राजस्व, पुलिस, वन, शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग से जुड़ा वह अमला है जो गांव की चौपाल से लेकर जिला मुख्यालय तक प्रशासन का चेहरा होता है और जिसकी कार्यप्रणाली से आम जन-मानस में सरकार की छवि बनती है। जहां तक मंत्रियों की शिकायत का सवाल है कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते तो इसमें जितनी अधिक सीमा तक अधिकारी का दोष है उससे कम ही सही, लेकिन कुछ न कुछ मंत्रियों की भी जिम्मेदारी है जिन्हें विभाग पर नियंत्रण रखने का काम सौंपा गया है। यदि वे अपना ध्यान कानूनी कायदों और प्रक्रियाओं में लगायेंगे और अधिकारी से अधिक तर्कसंगत ढंग से अपनी बात सामने रख सकेंगे या फाइल में नोट लगायेंगे तो फिर एक बड़ी सीमा तक ऐसी शिकायतें दूर भी हो सकती हैं। इस प्रकार शिवराज को दो मोर्चों पर एक साथ भिडऩा होगा, पहला तो सचिवालय स्तर की नौकरशाही पर, मंत्रियों की पकड़ मजबूत बनाने और दूसरे जिला स्तर पर जो कुछ हो रहा है उन हालातों को बदलना और वहां जनप्रतिनिधियों का सम्मान कैसे बढ़े और हालातों में बदलाव न केवल नजर आये बल्कि लोगों को महसूस भी हो। कंफ्यूजन में ब्यूरोक्रेसी ब्यूरोक्रेसी में अब यह दम तो बाकी रहा नहीं कि वह अपनी अंतर्रात्मा की आवाज को सुन सके और अंतरात्मा की न सुन सके तो फिर उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह सरकार और पार्टी में किसकी सुने। इसको लेकर सचमुच 'बड़ा कंफ्यूजनÓ है। इसी कंफ्यूजन के चलते इस समय प्रदेश में प्रशासनिक मशीनरी ने हाथ बांध लिए हैं और खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में मुख्यमंत्री ने मैदानी अफसरों की कांफ्रेंस बुलाकर उन्हें साधने का मन बनाया है। इसी सिलसिले में शिवराज सिंह ने कलेक्टर-कमिश्नर कांफ्रेंस बुलाई है। भाजपा सरकार की तीसरी बार सरकार बनने के बाद ये पहला मौका है, जब कलेक्टर कमिश्नर कांफ्रेंस बुलाई गई। इसके पहले 2013 में चुनाव के पहले ये कांफ्रेंस बुलाई गई थी। 18-19 अक्टूबर को संभावित इस बैठक में सीएम शिवराजसिंह कलेक्टर-कमिश्नर से सीधी बात करेंगे। इस कांफ्रेंस में सीएम शिवराज सिंह उन योजनाओं की जमीनी हकीकत जानेंगे। जिन योजनाओं ने सीएम शिवराजसिंह को प्रदेश में खासा लोकप्रिय बनाया है। अरेरा हिल्स स्थित नर्मदा भवन में आयोजित हो रही इस बैठक की तैयारियां तेज कर दी गई है। माना जा रहा है कि शिवराजसिंह अब मिशन 2018 की तैयारियों में जुट गए हैं। दो साल बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं लेकिन मौजूदा स्थिति में सरकार के खिलाफ जमीनी स्तर पर माहौल बन रहा है। पिछले नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में भी भाजपा का प्रदर्शन ठीक-ठाक नहीं रहा है। चूंकि दो साल बाद फिर विधानसभा के आम चुनाव है इसलिए मुख्यमंत्री चाहते है कि जिलों में मैदानी तौर पर राज्य सरकार की योजनाओं का भलीभांति क्रियान्वयन हो। आम जनता की जिले वार जरुरतों और समस्याओं का आंकलन कर उनका निपटारा किया जाए। सभी कलेक्टरों को कलेक्टर-कमिश्नर कांफ्रेंस में यह बताना होगा कि पिछली कांफ्रेंस से लेकर अब तक जिलों में क्या प्रगति रही है। खास तौर पर पिछले एक साल के दौरान राज्य सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं लाड़ली लक्ष्मी, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सबके लिए आवास, किसानों को जीरो फीसदी पर कर्ज वितरण, खाद-बीज वितरण, मुख्यमंत्री युवा उद्यमी योजना और मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना से कितने लोगों को रोजगार दिया गया। इस कांफ्रेंस में समन्वय और प्रशासनिक कसावट पर जोर दिया जाएगा, हालांकि इसको लेकर सरकान ने जो एजेंडा घोषित किया है उसमें भले ही फ्लैगशिप योजनाओं का क्रियान्वयन और कानून व्यवस्था बताया है। इसके लिए सामान्य प्रशासन विभाग को समन्वय से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्ट बनाने के निर्देश भी दिए गए हैं। डैमेज कंट्रोल की जिम्मेदारी नौ-रत्न नौकरशाहों पर पिछले सालों में नौकरशाही के नकारेपन और अब नाखुशी के कारण जिस तरह के हालात निर्मित हुए हैं उसको कंट्रोल करने की जिम्मेदारी सरकार के नौ रत्नों पर है। दरअसल एक तरफ संघ से मिली रिपोर्ट के अनुसार भाजपा के 90 विधायकों के क्षेत्र में पार्टी की स्थिति बदतर है। इसमें आधा दर्जन मंत्रियों का भी क्षेत्र है। वहीं दूसरी तरफ सरकार की कार्यप्रणाली से विधायक, सांसद, पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं में असंतोष है। यही नहीं कुछ मंत्री भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नौकरशाही के रवैए से खफा हैं। यानी कुल मिलाकर प्रदेश में लगातार चौथी बार भाजपा की सरकार बनने में चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। लेकिन तमाम बाधाओं के परिलक्षित होने के बाद भी शिवराज सिंह चौहान के माथे पर शिकन नजर नहीं आ रही है। जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा संगठन संशय में है। दरअसल, शिवराज को अपनी प्रशासनिक क्षमता और अपने नौ-रत्न नौकरशाहों पर भरोसा है कि ऐन मौके पर वे अपनी रणनीति से मैदान मार लेंगे। शिव 'राजÓ के ये नौ रत्न हैं- राधेश्याम जुलानिया, दीपक खांडेकर, इकबाल सिंह वैश्य, मनोज श्रीवास्तव, मो. सुलेमान, अशोक वर्णवाल, एसके मिश्रा, विवेक अग्रवाल और पुलिस महानिदेशक ऋषिकुमार शुक्ला। प्रदेश की प्रशासनिक वीथिका में यह चर्चा जोरों पर है कि मुख्यमंत्री ने इन अफसरों को चुनावी रणनीति बनाने के लिए फ्री-हैंड दे दिया है। इस अफसरों को सरकार की लोक लुभावन नीतियों को जमीनी स्तर तक पहुंचाना है ताकि सरकार के प्रति जनता का विश्वास और मजबूत हो सके। वैसे देखा जाए तो शिवराज सिंह चौहान का कभी कोई निशाना खाली नहीं गया और हर सियासी फैसला सही साबित हुआ। इसलिए राजनीतिक और प्रशासनिक विशेषज्ञ शिवराज के इस कदम को दमदार बता रहे हैं। वहीं शिवराज के नौ-रत्नों में जिन अफसरों का नाम आया है उनमें से अधिकांश की कार्यप्रणाली से न तो संघ और न ही भाजपा संगठन संतुष्ट है। राधेश्याम जुलानिया: 1985 बैच के आईएएस अफसर जुलानिया को अखड़ और कड़क अफसर माना जाता है। अपने काम के प्रति मूडी जुलानिया हमेशा विवादों में रहते हैं। इसकी वजह है उनका अपने काम के प्रति समर्पण। सरकार से मिले दिशा-निर्देश का पालन करवाने के लिए वे कई बार तानाशाह बन जाते हैं। कई बार तो वे विभागीय मंत्रियों को भी दुत्कार देते हैं। इसलिए उन्हें विभागीय अफसर पसंद नहीं करते हैं, लेकिन जनता के बीच उनकी अच्छी छवि है। उन्हें ईमानदार और जनता के प्रति संवेदशील अफसर माना जाता है। वे जिस विभाग में रहते हैं उस विभाग में ईमानदारी और लगन से काम करने वाले अधिकारियों, कर्मचारियों और ठेकेदारों की खुब पूछ परख रहती है। हालांकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे, लेकिन कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई है। उन्होंने करीब 7 साल जल संसाधन विभाग की कमान संभाली। इन दौरान करीब 50 हजार करोड़ से ज्यादा का बजट खर्च किया। विभाग में अरबों रुपए के भ्रष्टाचार की शिकायत हुई। जांच किसी की नहीं कराई गई। अपने चहेते रिटायर अधिकारी को संविदा आधार पर लगातार 5 बार ईएनसी बनवाने में सफल रहे। नरोत्तम मिश्रा को विभाग मिलने के बाद संगठन के भारी दबाव में जुलानिया को हटाया गया और ग्रामीण विकास विभाग की काम सौंपा गया है। लेकिन उनके तेवर वही है। संघ के आरोप और मुख्यमंत्री की विभागीय समीक्षा के बाद वे और आक्रामक हो गए हैं। वे रोजाना किसी न किसी अफसर को फटकार लगाकार यह साबित करने में जुटे हैं की सरकार आम आदमी के प्रति कितनी संवेदनशील है। दीपक खांडेकर: 1985 बैच के ही आईएएस दीपक खांडेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विश्वास पात्र अधिकारी है। मुख्यमंत्री की किसी भी महत्वपूर्ण और गोपनीय बैठक में उनकी उपस्थिति सरकार में उनकी अहमियत को दर्शाती है। खांडेकर को मैदान के साथ ही विभागों की अच्छी जानकारी है। इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें अपने नौ-रत्न में जगह दी है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रदेश में हुए विकास कार्यों से आम जनता को अवगत कराने का व्यापक प्रचार अभियान चलाने के निर्देश दिए हैं। जन संकल्प, मंथन और दृष्टिपत्र के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 'सुशासन के 11 वर्षÓ पर जो फीडबैक लेना शुरू किया है, इसकी जिम्मेदारी खांडेकर को दी गई है। सीएम की अध्यक्षता में समिति की पहली बैठक में एसीएस खांडेकर ने वर्ष 2005 से 2016 के बीच प्रदेश में हुए आर्थिक और सामाजिक विकास की जानकारी दी। उन्होंने लोगों के जीवन सुधार पर भी बिन्दुवार बताया। समिति इसलिए गठित की गई है कि राज्य सरकार और विभाग के प्रमुख अधिकारी सुशासन पर फीडबैक ले सकें। इकबाल सिंह बैस: 1985 बैच के आईएएस इकबाल सिंह बैस शिवराज सिंह चौहान के प्रिय अफसरों में से एक हैं। उनकी ईमानदार और सख्त मिजाज अफसर की छवि है। शिवराज की मंशानुसार अफसरों की मैदानी जमावट में माहिर इस अफसर पर मिशन 2018 की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इकबाल पर शिवराज को इतना भरोसा है कि वे उन्हें हमेशा अपने पास रखते हैं। 2013 से पहले भी सीएच सचिवालय में रहे। दिल्ली से साल भर के भीतर प्रतिनियुक्ति से वापस लौटे और फिर सीएम सचिवालय में पदस्थ किए गए। संघ के भारी दबाव में बैस को सीएम सचिवालय से हटाया गया है। मुख्यमंत्री की प्राथमिकता वाले आनंद विभाग की जिम्मेदारी उन्हें दी गई है। आज भी मुख्य सचिव एंटानी डिसा के बाद पूरी प्रशासनिक व्यवस्था उनके हाथ में है। मनोज कुमार श्रीवास्तव: 1987 बैच के आईएएस मनोज कुमार श्रीवास्तव को शिव 'राजÓ का बौद्धिक शिल्पी कहा जाता है। यही कारण है की मनोज कुमार श्रीवास्तव हमेशा शिवराज की गुड बुक में रहते हैं। अफसरों में समन्वय, तालमेल, उत्साह और आत्मविश्वास भरने के साथ ही मंत्रालय में गण और तंत्र के बीच प्रशासनिक दूरी को समाप्त करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। मनोज श्रीवास्तव ने न केवल मंत्रालय को आम लोगों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में काम किया, बल्कि उनकी समस्याओं को सुनकर उनके यथासंभव समाधान का प्रयास भी किया। मनोज श्रीवास्तव कुशल प्रशासक और सरकार के बौद्धिक चिंतक बनकर उभरे हैं जो मुख्यमंत्री की टीम मध्यप्रदेश में हरफनमौला की अहम भूमिका से न्याय करते नजर आते हैं। विधानसभा चुनाव में भाजपा की लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करिश्माई व्यक्तित्व और लोकप्रियता को जाता है तो इसमें प्रशासनिक अधिकारियों का समन्वय और कड़ी मेहनत को नकारा नहीं जा सकता। मनोज श्रीवास्तव तो मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार की हैट्रिक के बाद आइडिया गुरु साबित हुए हैं। इंदौर कलेक्टर के रूप में अपनी धाक जमा चुके मनोज श्रीवास्तव वैसे रेवेन्यू के एक्सपर्ट माने जाते हैं। इंदौर-भोपाल सहित प्रदेश के कई बड़े भूमि घोटाले उजागर करने की बात हो या फिर सरकारी जमीन को अवैध कब्जों से मुक्त कराने का मामला ही क्यों न हो, श्रीवास्तव ने अपने कर्तव्य और दायित्वों को बखूबी अंजाम दिया। समाज के हर तबके को लाभान्वित करने की एक से बढ़कर एक योजनाएं बनाने में भी उनकी कुशाग्र बुद्धि और नेतृत्व का अहम योगदान रहा। यही नहीं, भाजपा सरकार की योजनाओं के प्रचार-प्रचार और उन्हें अमलीजामा पहनाया जिसने जन-जन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लोकप्रिय बना दिया। जबकि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रीद्वय अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा की जो इमेज सत्ता में रहते हुए तत्कालीन ब्यूरोक्रेसी ने बिल्डअप की थी उसने दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को आम जनता से दूर कर दिया था, ऐसा पब्लिक परसेप्शन माना जाता था। इसका विपरीत प्रभाव भी इन दोनों नेताओं के राजनीतिक कैरियर में देखा जा सकता है। लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस मामले में अपवाद साबित हो रहे हैं। प्रदेश की कमान संभालने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने खुद को मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि जनता का सेवक बताया था। प्रशासन ने शिवराज सिंह चौहान की उसी छवि को आगे बढ़ाया। उसी का परिणाम है कि भाजपा मध्यप्रदेश की सत्ता में हैट्रिक बना चुकी है और इसमें प्रशासनिक तंत्र की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि गढऩे को लेकर विपक्ष प्रशासनिक तंत्र पर गाहे-बगाहे निशाना साधता रहा है। बेटी बचाओ, मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन से लेकर मां तुझे प्रमाण देश में अपनी तरह की योजनाएं हैं जिन्हें लागू करने का श्रेय मध्यप्रदेश को मिला। इन योजनाओं के जरिए समाज के बड़े हिस्से को सीधे गवर्नेंस से जोड़ा गया। मुख्यमंत्री निवास को आम जनता के करीब लाने के उद्देश्य से पंचायतों का सिलसिला शुरू किया गया। सीएम हाउस में होने वाली समाज के हर तबके की पंचायतों का नया आइडिया भी मनोज श्रीवास्तव की देन रहा, जिसके चलते युवा, कोटवार, हाथ ठेला, केश शिल्पी और कामकाजी महिलाओं के साथ-साथ हर समाज वर्ग की पंचायतें मुख्यमंत्री निवास पर करवाई गईं। मध्यप्रदेश सरकार की तीर्थदर्शन जैसी अभिनव योजना की प्रशंसा तो पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सार्वजनिक रूप से कई कार्यक्रमों में कर चुके हैं। लोप्रोफाइल माने जाने वाले मनोज श्रीवास्तव की गिनती उन अफसरों में होती है जो नियमों की आड़ लेकर फाइलों को लंबे समय तक अटकाए रखने की बजाए समय-सीमा में उसका निराकरण करने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। कह सकते हैं कि श्रीवास्तव ही वे अफसर हैं जिन्होंने आम लोगों की समस्याओं को जाना, समझा जिसके बाद उनकी सुनवाई भोपाल में होने लगी। उन्होंने मुख्यमंत्री की जो तस्वीर जनता के सामने पेश की उसमें शिवराज सिंह आम आदमी ही नजर आते हैं। मनोज श्रीवास्तव ने मुख्यमंत्री की मंशा के अनुरूप नई और अनुपम योजनाओं का खाका तैयार किया और उनके क्रियान्वयन को भी संभव कर दिखाया। सरकार की लगभग सभी लोकलुभावन योजनाओं के शिल्पकार के साथ-साथ मंत्रियों, प्रशासनिक अधिकािरयों, मुख्यमंत्री और सरकार के प्रशासनिक संकटमोचक के रूप में मनोज श्रीवास्तव का नाम लिया जा सकता है। ब्यूरोक्रेसी द्वारा इम्प्लीमेंट की गई योजनाओं का ही नतीजा है कि शिवराज सिंह ने किसान, गरीब, दलित, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, युवा बेरोजगार, व्यापारी सहित अनेक वर्गों के लिए काम किया जिसमें सत्ता, संगठन और ब्यूरोक्रेसी का समन्वय देखने को मिला। प्रदेश में सरकार की हैट्रिक के पीछे जो बड़ा योगदान था वह मनोज श्रीवास्तव का ही था जिन्होंने मुख्यमंत्री द्वारा की गई घोषणाओं का क्रियान्वयन बड़ी तत्परता और मुस्तैदी से किया। मनोज श्रीवास्तव के आईक्यू ने ही जिलों के कलेक्टरों से लेकर पटवारी तक के लिए कार्यक्रम बनाए जिन्हें पूरा भी किया गया। मध्यप्रदेश की जनता के लिए मनोज श्रीवास्तव के पिटारे में अभी भी बहुत कुछ है, जिसको वे मिशन 2018 को फतह करने के लिए निकालेंगे। मोहम्मद सुलेमान: 1989 बैच के आईएएस मोहम्मद सुलेमान हमेशा सरकार के दमदार अफसरों में शामिल रहे हैं। प्रदेश सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं को उन्होंने क्रियान्वित किया है। ये कांग्रेस सरकार में भी पॉवरफुल रहे। प्रदेश में बिजली व्यवस्था को सुदृढ़ करने के बाद अब ये फरवरी 2014 से उद्योग विभाग की कमान संभाल रहे हैं। ये इतने रसूखदार हैं कि मंत्री यशोधरा सिंधिया से जब उद्योग विभाग छिना तब उन्हें यह टिप्पणी करनी पड़ी कि एक बाबू ने उनका विभाग बदलवा दिया। दरअसल, इसके पीछे मुख्यमंत्री की मंशा दिखती है। राज्य में यह सर्वविदित तथ्य है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अधिकारियों के माध्यम से अपने मंत्रियों पर नजर रखते हैं और उनका नियमित रिपोर्ट कार्ड भी बनवाते हैं। जो मंत्रियों को पसंद नहीं है। वैसे सुलेमान की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं लेकिन सरकार ने कभी उन सवालों को तरजीह नहीं दिया। अभी सुलेमान पर इन्वेस्टर्स समिट को ऐतिहासिक बनाने की जिम्मेदारी है। इसलिए वे मुख्यमंत्री और मंत्री के साथ निरंतर विदेशों का दौरा कर रहे हैं। अशोक वर्णवाल: 1991 बैच के आईएएस अशोक वर्णवाल एक दिन में ही इतने पावरफुल हो गए की कई अफसर उनसे जलने लगे हैं। वर्णवाल को मुख्यमंत्री का प्रमुख सचिव बनाया गया है।इकबाल सिंह बैस की जगह अशोक वर्णवाल जैसे आईएएस को मिलेगी यह शायद किसी ने कल्पना नहीं की होगी। वास्तव में मुख्यमंत्री के इस कदम ने साफतौर पर संकेत दिया है कि अच्छे काम के साथ मिलनसारिता और सबसे प्रमुख बात जनप्रतिनिधियों को प्राथमिकता देने की मानसिकता रखने वाले अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाएगी। यहां लिखने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अशोक वर्णवाल का जो स्वभाव रहा है वह इन बातों पर पूरी तरह खरा उतरता है। उन्होंने पीडीएस में बेहतर काम करके अपनी प्रशासनिक योग्यता को बखूबी सिद्ध किया है। इसके साथ वे मिलनसार होने के अतिरिक्त सहज व सरल स्वभाव के अधिकारी हैं। चूंकि सरकार ने अपना आधा कार्यकाल पूर्ण कर लिया है। आने वाले समय में मुख्यमंत्री सचिवालय में तैनात अधिकारी की कारगुजारी को लेकर जनप्रतिनिधि कोई शिकायत न करें। इस बात पर भी अशोक वर्णवाल खरे उतरेंगे ऐसी शायद मुख्यमंत्री की मंशा रही है। एसके मिश्रा: 1991 बैच के आईएएस एसके मिश्रा को मुख्यमंत्री का आंख-कान कहा जाता है। शिव 'राजÓ के सपनों को साकार करवाने में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एसके मिश्रा की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इंदौर, रायसेन, गवालियर, हरदा, रीवा, देवास, सिहोर, इत्यादि शहरों में प्रमुख पदों पर अपनी सेवाएं देने के कारण इनकी मैदानी पहुंच काबिले तारीफ है। वर्तमान में प्रमुख सचिव जनसंपर्क के रूप में कार्य करके प्रदेश की मीडिया को अपने परिवार का हिस्सा बनाकर मीडिया के हित में नीतिगत निर्णय लेकर चौथे स्तम्भ को स्वतंत्रता के साथ काम करने की ताकत प्रदान कर रहे हैं जो अपने आप में एक बड़ी बात है। साथ ही सरकारी योजनाओं की जानकारी जनता तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी इन पर है। उल्लेखनीय है कि 2013 के विधानसभा चुनाव के अवसर पर प्रदेश के हर जिले में विधानसभावार उम्मीदवारों की हैसियत तलाशी गई। यह सर्वे एसके मिश्रा की देखरेख में हुआ। इस सर्वे में उनकी पूरी मदद कर जिलों के कलेक्टर्स और एसपी ने किया। रिपोर्ट के आधार पर टिकट दिया गया था। इस बार भी सरकार उनसे ऐसा सर्वे करा सकती है। विवेक अग्रवाल: 1994 बैच के आईएएस विवेक अग्रवाल 2010 से सीएम सचिवालय में जुड़े हैं और एमपीआरडीसी, पीडब्ल्यूडी के पदस्थ रह चुके हैं। वर्तमान में आयुक्त नगरीय प्रशासन, सचिव, मेट्रो रेल कार्पोरेशन के एमडी और सचिव मुख्यमंत्री हैं। मुख्यमंत्री ने इन्हें स्मार्टसिटी और मैट्रो जैसी दो बड़ी योजनाओं की जिम्मेदारी सौंपी है। ये योजनाएं प्रदेश में विकास का मापदंड प्रदर्शित करेंगी। ऋषि कुमार शुक्ला: उपरोक्त आईएएस अफसरों के साथ ही पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला भी शिवराज सिंह चौहान के नौ रत्नों में शामिल है। 1983 बैच के आईपीएस अफसर ऋषि कुमार शुक्ला सर्विस रिकॉर्ड के मुताबिक अगस्त 2020 में रिटायर होंगे। यानी 2018 विधानसभा चुनाव संपन्न करवाने में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगा। प्रदेश में कानून-व्यवस्था को सुदृढ़ करवाने के साथ ही जनता के मन में सुरक्षा की भावना पैदा करवाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी इन पर है। मुख्यमंत्री में अपनी जमावट से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा संगठन को संदेश दे दिया है कि तथाकथित बेलगाम नौकरशाही पर उनकी पकड़ मजबूत है और इन्हीं के दम पर मप्र में लगातार चौथी बार भाजपा की सरकार बनेगी। अब भले ही भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की बात कही है, शिव काबिना के मंत्रियों ने नौकशाहों को निरंकुश बताया है, संघ पहले से ही मध्यप्रदेश में बिगड़ते हालत को लेकर चिंतित हो लेकिन शिवराज को लेसमात्र भी चिंता नहीं है। क्योंकि शिवराज नौकरशाहों को कसना जानते हैं।

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