शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

पुलिस सड़क पर नहीं होती, इसलिए बढ़ती है बदमाशों की हिम्मत

भोपाल। बाबूलाल गौर जब से गृहमंत्री बने हैं, उनका अंदाज कुछ जुदा-जुदा नजर आ रहा है। आजकल वे पूरी तरह फिट नजर आ रहे हैं और जहां भी जाते हैं, पैंट-शर्ट पहनकर तनकर चलते हैं। जब उनसे इसकी वजह पूछा जाता है, तो वे कहते हैं कि पुलिस में जो आ गया हूं। बुलडोजर मंत्री के रूप में विख्यात गौर इन दिनों मप्र पुलिस का कायाकल्प करने की दिशा में काम कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने केंद्र सरकार से 200 करोड़ रुपए की मांग की है। गृहमंत्री के तौर पर उनकी प्राथमिकताएं क्या होंगी और प्रदेश में अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए विभाग की आगामी योजनाएं क्या होंगी, इन विषयों पर अग्निबाण ने गौर से चर्चा की, तो उन्होंने दावा किया की मप्र पुलिस को देश की सबसे बेहतर पुलिस बल बनाएंगे।
प्रदेश में अपराधों की रोकथाम के लिए क्या प्रयास किया जा रहा है?
< पुलिस की मौजूदगी सड़कों पर अधिक नजर आना चाहिए। आईपीएस अधिकारियों को गांवों में भ्रमण और रात्रि विश्राम करने को कहा गया है। मेरा मानना है कि पुलिस के अधिकारी-कर्मचारी अस्पताल के स्टाफ की तरह सेवा कार्य करें। टीआई से लेकर आरक्षक स्तर के पुलिसकर्मी थानों पर कम और मैदान में ज्यादा नजर आएं। पुलिस की सड़कों पर मौजूदगी नहीं होने से ही असामाजिक तत्वों के हौसले बुलंद होते हैं। पुलिस सड़कों पर होगी तो ट्रैफिक जाम, छेड़छाड़, चोरी, लूट जैसे मामलों पर अंकुश लग जाएगा। सरकार इस व्यवस्था को प्रदेशभर में लागू करने जा रही है। इसके साथ ही अमला बढ़ाने के लिए इस बार पांच हजार पुलिसकर्मियों की भर्ती की जाएगी। वहीं पुलिस को फिट रखने फिटनेस सेंटर खोलने की योजना बना रहे हैं। गौर ने स्वीकार किया कि प्रदेश में फिलहाल 1 लाख 5 हजार का पुलिस बल स्वीकृत है और राष्ट्रीय औसत के आधार पर 90 हजार पुलिसकर्मियों की आवश्यकता है। पिछले दस वर्षों में राज्य शासन ने 30 हजार पुलिसकर्मियों की भर्तियों की सहमति दी थी। 25 हजार की भर्ती हो चुकी है, जबकि 1993 से 2003 के बीच दस सालों में 8 हजार पुलिसकर्मी ही भर्ती हुए। पिछले वर्षों में 10 हजार 500 मकानों की स्वीकृति दी गई। ढाई हजार मकान बन भी चुके हैं।
पुलिस सुधार के लिए कई कमीशन बने, लेकिन स्थिति जस की तस क्यों है?
< प्रदेश की आमदनी कम है। हम केवल पुलिस के लिए ही बजट का बड़ा हिस्सा नहीं रख सकते, इसलिए हम धीरे-धीरे सुधार कर रहे हैं। पुलिस की मूलभूत सुविधाओं में भी इजाफा करने की तैयारी की जा रही है। हमारे यहां पुलिसकर्मियों के लिए पर्याप्त आवास उपलब्ध नहीं हैं। उनका आवास भत्ता भी कम है। निश्चित रूप से हमारे पुलिसकर्मी दयनीय स्थिति में रहते हैं। बजट में पुलिसकर्मियों के लिए आवास भत्ता बढ़ाने आदि का प्रावधान किया जाएगा। हालांकि कुछ राज्यों की तुलना में हमारी पुलिस अच्छी स्थिति में है। पुलिस बल के लिए दो सौ करोड़ रुपए मांगे थे, लेकिन केंद्र ने हमेशा की तरह पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रखा है।
ट्रांसफर बोर्ड बनाने के बाद भी नेताओं की चिट्ठी पर तबादले क्यों हो रहे हैं?
< इस बारे में सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार की ओर से निर्देश मिले हैं। फिलहाल सभी जगह बल पर्याप्त नहीं है, इसलिए पूरे सुझाव अपनाना संभव नहीं, लेकिन फिर भी हम प्रयास कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा सुझावों को अपनाया जाए। और उस पर अमल किया जाए। प्रदेश की जेलों के सुधार के लिए क्या करेंगे?
< प्रदेश की जेलों में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था और बंदी कल्याण पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। हमने अधिकारियों को निर्देशित किया है कि बंदियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से होने वाली आय का एक हिस्सा उनके कल्याण पर खर्च किया जाए। जेलों में बंदियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से लगभग ढाई करोड़ की सालाना आय होती है। इस आय का एक हिस्सा बंदियों के कल्याण पर खर्च करने के संबंध में विभाग प्रस्ताव तैयार करेगा। साथ ही जेल प्रहरियों को पुलिस विभाग के समान विशेष वेतन एवं अवकाश की सुविधाएं प्राप्त हों। जेल में बंदियों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी कारगर प्रयास होंगे। जेलों में नियुक्त प्रहरियों द्वारा बिना अवकाश के की जा रही सुरक्षा ड्यूटी को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि जेल प्रहरियों को भी पुलिस विभाग के समान वर्ष में एक माह का विशेष वेतन और अवकाश प्राप्त हो। इस संबंध में महानिदेशक जेल को प्रस्ताव तैयार करने को कहा है।
क्या राज्य सरकार मामूली अपराधों के केस वापस लेने जा रही है?
< वर्षों से कोर्ट में लंबित मामूली अपराधों से जुड़े केसों को राज्य सरकार वापस लेने जा रही है। कौन से अपराध मामूली हैं, किन केसों में पीडि़त पक्ष के साथ अन्याय की स्थिति नहीं बनेगी, ऐसे प्रकरणों की सूची तैयार करने के लिए हर जिले में कलेक्टर, एसपी और लोक अभियोजक की कमेटी बना दी गई है। मामूली केसों को कोर्ट से वापस लेने की प्रक्रिया मार्च माह से शुरू होगी। हर जिले में बनाई गई कमेटी को निर्देश दिए गए हैं कि इस माह केसों की छानबीन कर सूची तैयार कर ली जाए। महिलाओं और भ्रष्टाचार से संबंधित केस वापस नहीं होंगे। इसके अलावा गंभीर अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए आदतन अपराधियों के खिलाफ कोर्ट में चल रहे केसों में जल्द फैसला कराने के प्रयास किए जाएंगे।
नक्सल प्रभावित जिलों के लिए क्या योजना है?
< हमने केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे से मुलाकात करके प्रदेश के नक्सल प्रभावित दस जिलों की जानकारी देते हुए वहां सुरक्षा आदि के लिए 200 करोड़ रुपए मुहैया कराने की मांग की है। राज्य के नक्सल प्रभावित जिलों में तैनाती के लिए दो हेलीकॉप्टर केंद्रीय गृह मंत्री से उपलब्ध कराने का अनुरोध किया गया। नक्सली समस्या से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर विचार-विमर्श के लिए ही यह बैठक भोपाल में आयोजित करने का विचार किया गया, जिसमें नक्सल प्रभावित राज्यों छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मप्र के वरिष्ठ अधिकारी शामिल होंगे।
यूपी-बिहार से आगे है हमारी पुुलिस
गौर ने कहा कि प्रदेश की पुलिस उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों से तो आगे है, लेकिन दक्षिण के राज्यों से काफी पीछे है। वहां तुरंत कार्रवाई होती है और पीडि़त को न्याय मिलता है। हालांकि वहां जनसंख्या कम और फोर्स भी अधिक है। उन्होंने विभिन्न सवालों के जवाब में बताया कि दुष्कर्म पीडि़ता से महिला पुलिस अधिकारी अथवा पुलिस ही पूछताछ करेगी। जनता और पुलिस के बीच दूरी मिटाने का काम पुलिस पर ही है। उन्होंने लंबित मामले भी जल्दी निपटाने के निर्देश दिए। गौर ने पुलिस थानों की कार्यप्रणाली पर असंतोष जाहिर करते हुए कहा कि थानों को अस्पताल की तरह होना चाहिए। जिस भी मर्ज का पीडि़त पहुंचे, उसे तुरंत राहत उपलब्ध करवाई जाए। जब मैं विधायक था तो लोग आकर कहते थे- थाने फोन कर दीजिए, ताकि रिपोर्ट लिख ली जाए। गृहमंत्री ने कहा कि दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं के बयान अब महिला पुलिसकर्मी ही लेंगी। इसके लिए थानों में महिला कक्ष भी बनाए गए हैं।
राजनीतिक प्रकरण भी होंगे वापस
गृहमंत्री गौर ने प्रदेश सरकार ने विभिन्न न्यायालयों में लंबित करीब साढ़े पांच लाख मामले वापस लेने का निर्णय लिया है। चार सदस्यीय कमेटी दिसंबर-2007 तक के मामूली अपराधों की श्रेणी में आने वाले मामलों की छटनी कर उसे सरकार के पास भेज देगी। इससे न्यायालयों का बोझ 65 फीसदी तक कम हो जाएगा। गौर ने बताया कि वर्तमान में सभी न्यायालयों में 8 लाख 57 हजार 922 मामले लंबित हैं। इनमें से करीब 65 फीसदी (5 लाख 57 हजार 649) बहुत ही मामूली किस्म के हैं। इनके न तो फरियादियों का पता है और न ही आरोपियों का। उनकी तलाश में पुलिस और न्यायालय का काफी समय बर्बाद हो जाता है। इससे न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या बढऩे से काम का बोझ अधिक हो गया है। यही कारण है कि पुलिस और न्यायालय गंभीर प्रकरणों पर भी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। इसी को देखते हुए निर्णय लिया गया है कि 31 दिसंबर, 2007 से पहले के पुलिस एक्ट, जुआ एक्ट, नाप-तौल, मोटर व्हीकल्स और तीन साल से कम सजा वाले असंज्ञेय प्रकरणों को वापस लेने का निर्णय लिया गया है। ऐसे मामलों की पहचान के लिए चार सदस्यीय टीम (जिला न्यायाधीश, जिला कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और अभियोजन अधिकारी) बनाई गई है। यह अपने-अपने जिलों के ऐसे मामलों की छटनी कर उसे सरकार के पास भेज देगी। सरकार जांच के बाद इन पर न्यायालय से राय लेकर उनकी अनुमति से इन्हें वापस ले लेगी। गौर ने बताया कि पुलिस राजनीतिक मामले भी वापस लेने पर निर्णय ले रही है। लेकिन जिन मामलों में तोडफ़ोड़ और शासकीय तथा निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया है, उन्हें इसमें राहत नहीं दी जाएगी।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

कोई भी हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकताः राम माधव

भोपाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रवक्ता राम माधव ने गरुवार को यहां कहा कि किसी भी तरह से कोई भी हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। आरएसएस प्रवक्ता ने संवाददाताओं से अनौपचारिक रुप से बातचीत में कहा,'एक हिंदू को आतंकवादी कहना अपने आप में एक बहुत बड़ा विरोधाभास है और यह इसलिए कहा जाता है, ताकि संघ (आरएसएस) की छबि खराब की जाए।' माघव ने कहा, '2008 से कुछ हिंदुओं को आतंकवाद से जुड़े हुए पांच मामलों में गिरफ्तार किया गया है। लेकिन इनमें से किसी भी मामले में अभी तक आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया है, जिसके कारण गिरफ्तार व्यक्तियों को जमानत नहीं मिल रही है।' जब उनसे यह पूछा गया कि क्या उनकी नजर में आरएसएस एक सफल संस्था है, तो उन्होंने कहा कि यह (आरएसएस) देश की एकता के लिए काम कर रही है और जब तक इसे प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक इसका काम अधूरा ही रहेगा। आरएसएस प्रवक्ता ने कहा कि 1966 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस गजेन्द्र गड़कर और 1994 में एक अन्य सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेएस वर्मा ने हिंदुत्व के बारे में बहुत विस्तार और लंबे निर्णयों में कहा था कि यह जीवन का एक तरीका है। माधव ने बताया कि यह मामला मार्च में सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यीय पीठ के सामने फिर से आने की संभावना है और वह (सात सदस्यीय पीठ) भी हिंदुत्व के बारे में चर्चा करेगी। उन्होंने दावा किया कि गड़कर और वर्मा के निर्णय इतने विस्तृत थे कि यह संभव है कि सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ के पास हिंदुत्व के बारे में कहने के लिए और नया कुछ भी न रह जाए। माधव ने कांग्रेस नेताओं से कहा है कि वे पहले वे सरदार पटेल को पढ़ लें और फिर कोई टिप्पणी करें। वे यहां विश्व संवाद केंद्र में आयोजित एक संगोष्ठी में शामिल होने के लिए आए हैं। राम माधव ने कहा कि कांग्रेस नेता सरदार पटेल को समझे बिना ही टिप्पणियां कर रहे हैं। सरदार पटेल को पहले उन्हें पढ़ना चाहिए। सरदार पटेल ने आरएसएस पर बैन जरूर लगाया था लेकिन उन्हीं पटेल ने आठ महीने बाद इस बैन को हटा दिया था। इसलिए कांग्रेस नेता बिना पढ़े और समझे इस तरह की कोई बात नहीं करें। आरएसएस सह संपर्क प्रमुख ने असीमानंद के ट्रेन ब्लास्ट की जानकारी आरएसएस प्रमुख को होने के बयान को कांग्रेस पर षड़यंत्र करार दिया है। उन्होंने कहा कि आरएसएस प्रमुख का कभी भी इस तरह की गतिविधियों से कोई सरोकार नहीं रहा है।

अटल का रेकॉर्ड तोड़ सकते हैं मोदी

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी लहर का बीजेपी को साफ फायदा होता दिख रहा है। कांग्रेस अब तक की सबसे करारी हार का सामना करती दिख रही है। उसका तीन अंकों का आंकड़ा छूना भी मुश्किल नजर आ रहा है। यह बात टाइम्स नाउ, सी वोटर और इंडिया टीवी के राष्ट्रव्यापी ताजा सर्वे में सामने आई है। सर्वे में दिखाए गए वोट शेयर को देखें तो बीजेपी को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में लड़े गए चुनावों से भी ज्यादा वोट मिल सकते हैं। यानी नरेंद्र मोदी वाजपेयी का रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं।
सर्वे के मुताबिक आज की तारीख में एनडीए को देशभर में 227 सीटें मिल रही हैं। यूपीए के खाते में सिर्फ 101 सीटें ही आ रही हैं जबकि अन्य को 215 सीटें मिलने का अनुमान है। पिछले साल अक्टूबर में एनडीए को 186, यूपीए को 117 और अन्य को 240 सीटें मिलने का अनुमान था। मतलब, अन्य और कांग्रेस दोनों की कीमत पर बीजेपी और एनडीए ने छलांग लगाई है। आम आदमी पार्टी का लोकसभा चुनाव में कोई खास प्रभाव अभी नहीं दिख रहा है। आप को केवल 7 सीटें मिलने का अनुमान है। इस सर्वे के मुताबिक, दिल्ली में पिछली बार सातों सीटें जीतने वाली कांग्रेस का इस बार डिब्बा गुल लग रहा है। यहां बीजेपी को 4 और आम आदमी पार्टी को 3 सीटें मिल सकती हैं। यूपी की 80 सीटों में से सबसे ज्यादा 34 सीटें बीजेपी को मिलने की संभावना है। 2009 के चुनाव में उसे 10 सीटें मिली थीं। बीएसपी को 21 और समाजवादी पार्टी को 20 सीटों मिल सकती हैं। कांग्रेस पिछली बार के 21 के मुकाबले इस बार 4 पर ही अटक सकती है। आरएलडी को एक ही सीट मिलने का अनुमान है। आप का यूपी में खाता खुलना मुश्किल लग रहा है। उत्तराखंड में कांग्रेस को पिछली बार पांचों सीटें मिली थीं, इस बार ये सभी बीजेपी के खाते में जाने का अनुमान है। हरियाणा की 10 सीटों में से बीजेपी को 6 और कांग्रेस, आईएनएलडी, आप और हरियाणा जनहित कांग्रेस को एक-एक सीट मिलने की संभावना है। बिहार की 40 सीटों में से बीजेपी को 21, लालू यादव की आरजेडी को 12, नीतीश कुमार की जेडीयू को 5, एलजेपी और कांग्रेस को एक-एक सीट मिलने का अनुमान है। बाकी राज्यों में भी कांग्रेस को काफी नुकसान हो रहा है, बस असम और कर्नाटक में वह थोड़ा ठीक कर रही है, लेकिन मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का उफान साफ दिखता है। देशभर का अनुमान यूपीए : 101 (-158) कांग्रेस : 89 (-117) एनडीए : 227 (+68) बीजेपी-202 (+86) अन्य : 215 (+90) दिल्ली में कांग्रेस का सूपड़ा साफ? कांग्रेस : 0 (-7) बीजेपी : 4 (+4) आप : 3 (+3) *फरवरी 2014 में किया गया सर्वे गठबंधन 2009 2014 रेंज UPA 259 101 91-111 NDA 159 227 217-237 अन्य 125 215 205-225 कुल 543 543 देखिए, सभी राज्यों का पूर्वानुमान... राज्य पार्टी 2009 में सीटें 2014 अनुमान दिल्ली कांग्रेस 7 0 बीजेपी 0 4 आप 0 3 गोवा कुल सीटः 2 कांग्रेस 1 1 बीजेपी 1 1 गुजरात कुल सीटः 26 कांग्रेस 11 4 बीजेपी 15 22 हरियाणा कुल सीटः 10 कांग्रेस 9 1 बीजेपी 0 6 एएपी 0 1 इनेलो 1 1 एचजेसी 1 1 हिमाचल कुल सीटः 4 कांग्रेस 1 1 बीजेपी 3 3 छत्तीसगढ़ कुल सीटः 11 कांग्रेस 1 3 बीजेपी 10 8 आंध्र प्रदेश कुल सीटः 42 कांग्रेस 33 6 टीडीपी 6 10 टीआरएस 2 10 AIMIM 1 1 YSR कांग्रेस 0 13 जम्मू कश्मीर कुलः 6 नैशनल कान्फ्रेंस 3 1 कांग्रेस 2 1 बीजेपी 0 2 निर्दलीय 1 0 अरुणाचल कुल सीटः 2 कांग्रेस 2 1 बीजेपी 0 1 असम कुल सीटः 14 कांग्रेस 7 7 बीजेपी 4 5 AUDF 1 1 एजीपी 1 0 बीपीएफ 1 1 बिहार कुल सीटः 40 जेडी(यू) 20 15 बीजेपी 12 21 आरजेडी 4 12 एलजेएस 0 1 कांग्रेस 2 1 निर्दलीय 2 0 कर्नाटक कुल सीटः 28 बीजेपी 19 11 कांग्रेस 6 14 जेडी(एस) 3 2 एएपी 0 1 केरल कुल सीटः 20 कांग्रेस 13 7 बीजेपी 0 1 लेफ्ट फ्रंट 4 9 केरल कांग्रेस (एम) 1 1 IUML 2 2 मध्य प्रदेश कुल सीटः 29 बीजेपी 16 24 कांग्रेस 12 5 बीएसपी 1 0 झारखंड कुल सीटः 14 बीजेपी 8 8 जेएमएम 2 2 कांग्रेस 1 1 जेवीएम 1 2 निर्दलीय 2 1 महाराष्ट्र कुल सीटः 48 कांग्रेस 17 8 शिवसेना 11 15 बीजेपी 9 15 एनसीपी 8 5 आरपीआई 0 2 एमएनएस 0 1 बीवीए 1 0 स्वाभिमान पक्ष 1 1 निर्दलीय 1 0 आप 0 0 मणिपुर कुल सीटः 2 मणिपुर कुल सीटः 2 कांग्रेस कांग्रेस मेघालय कुल सीटः 2 कांग्रेस 1 1 एनसीपी 1 0 एनपीपी 0 1 मिजोरम कुल सीटः 1 कांग्रेस 1 1 अन्य 0 0 नगालैंड कुल सीटः 1 एनपीपी 1 1 कांग्रेस 0 0 ओड़िशा कुल सीटः 21 बीजेडी 14 12 कांग्रेस 6 7 बीजेपी 0 2 सीपीआई 1 0 पंजाब कुल सीटः 13 कांग्रेस 8 6 एसएडी 4 5 बीजेपी 1 2 राजस्थान कुल सीटः 25 कांग्रेस 20 4 बीजेपी 4 21 अन्य 1 0 सिक्किम कुल सीटः 1 एसडीएफ 1 1 कांग्रेस 0 0 तमिलनाडु कुल सीटः 39 डीएमके 18 5 AIADMK 9 27 कांग्रेस 8 1 सीपीआई 1 1 सीपीआई(एम) 1 1 एमडीएमके 1 1 डीएमडीके 0 2 वीसीके 1 1 त्रिपुरा कुल सीटः 2 सीपीआई(एम) 2 2 कांग्रेस 0 0 उत्तर प्रदेश कुल सीटः 80 एसपी 23 20 कांग्रेस 21 4 बीएसपी 20 21 बीजेपी 10 34 आरएलडी 5 1 अन्य 1 0 उत्तराखंड कुल सीटः 5 कांग्रेस 5 0 बीजेपी 0 5 पश्चिम बंगाल कुल सीटः 42 टीएमसी 19 24 लेफ्ट फ्रंट 15 14 कांग्रेस 6 2 बीजेपी 1 1 एसयूसीआई 1 0 अन्य 0 1 केंद्र शासित प्रदेश कुल सीटः 6 बीजेपी 3 3 कांग्रेस 3 1 अन्य 0 1 आप 0 1

2000 करोड़ स्वाहा, कुपोषण जस का तस

भोपाल। मध्य प्रदेश में कुपोषण दूर करने के लिए मप्र सरकार ने 6 साल में 2000 करोड़ रूपए खर्च कर दिए हैं,लेकिन कुपोषण जस का तस है। हालात यह है कि सरकार कुपोषण दूर करने का जितना प्रयास कर रही है कुपोषण उतना ही फैल रहा है। वर्तमान में प्रदेश में कम वजन वाले बच्चों की तादाद दोगुनी हो गई है। वहीं 68 हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित हो गए हैं। ये चौंकाने वाले आंकड़े वर्ष 2007 से 2013 तक केंद्र और राज्य एकीकृत बाल विकास परियोजना के पूरक पोषण आहार कार्यक्रम की हकीकत बयां करते हैं। कार्यक्रम के छह साल के आंकड़ों की पड़ताल में सामने आया कि प्रदेश में 15 लाख बच्चे कुपोषित हैं। करीब सवा लाख मासूम मौत के मुहाने पर हैं। ताजा स्थिति ने प्रदेश के माथे पर लगा कुपोषण का कलंक और गहरा दिया है। जमीनी हकीकत बताती है कि कुपोषण इसलिए बढ़ा, क्योंकि यहां पोषण आहार बनाने से लेकर बांटने तक की पूरी प्रक्रिया भ्रष्ट तंत्र और माफिया के कब्जे में है।
सालाना 400 करोड़ होता है खर्च केंद्र और राज्य एकीकृत बाल विकास परियोजना के पूरक पोषण आहार कार्यक्रम में 6 माह से 3 साल के बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए सालाना लगभग 400 करोड़ रूपए खर्च किया जाता है, लेकिन वजनदार कोई दूसरा हो रहा है। प्रदेश में अभी 1.19 लाख बच्चे अति कुपोषित हैं। वर्ष 2007 में 6.79 लाख वजन किया गया था। इनमें से करीब 50 हजार बच्चे अति कुपोषित मिले थे। जबकि 2013 में 6.98 लाख बच्चों का वजन किया गया। इनमें अति कुपोषित 1.19 लाख मिले। यानी 68 हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित निकले। श्योपुर में बीते साल अगस्त-सितम्बर में 23 मासूमों ने कुपोषण से दम तोडा था। घटना से आहत एशियाई मानवाधिकार आयोग ने आपत्ति जताते हुए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कड़ा पत्र लिखा था। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने दौरा भी किया था, लेकिन नौनिहालों की सेहत के लिए सरकार प्रभावी कदम नहीं उठा पाई। व्यवस्था पर ठेकेदार हावी सरकार के उपक्रम एमपी स्टेट एग्रो के पास पोषण आहार की जिम्मेदारी थी। इसके बाद वर्ष 2005-06 में एग्रो कॉर्पोरेशन ने संयुक्त उपक्रम से दो कंपनियों (ठेकेदार) को ठेका दे दिया, जो आहार सप्लाई करती हैं। यह उस प्रदेश की हालत है, जहां कुपोषित बच्चों के संरक्षण के लिए केंद्रीय योजनाओं के अलावा, मध्यप्रदेश में भी बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य की दृष्टि से 30 योजनाएं चल रही हैं। जिनका मकसद मां और बच्चे की जीवन-रक्षा के लिए उत्तम सेवाएं देना है। लेकिन ये दावे कितने कागजी हैं, इसकी तसदीक खुद स्वास्थ्य मंत्री ने कर दी है। गरीब के लाचार व मासूम नौनिहाल उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तकनीकी तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। एक साल में 21000 बच्चों की मौत जनवरी 2012 से 31 दिसंबर 2012 तक मरने वाले बच्चों की यह संख्या 21,418 है। इन मौतों में 6 साल से कम के 20,086 और 6 से 12 आयु वर्ग के 1332 बच्चे शामिल हैं। कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों से प्रदेश में औसतन 58 बच्चे रोजाना प्राण गंवा रहे हैं। कुपोषण की सहायक बीमारियों में निमोनिया, हैजा, बुखार, खसरा, तपेदिक,डायरिया, रक्तअल्पता और चेचक शामिल हैं। ये हालात पिछले पांच साल से बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। प्रदेश में सबसे बद्तर स्थिति सतना जिले में है। जबकि यहां यूनिसेफ द्वारा चलाए जा रहे सीक न्यूबोर्न केयर यूनिट में ही 2010 में केवल चार माह के भीतर 117 नवजात शिशु मौत की गोद में समा गए थे। पिछले साल इस जिले में कुपोषण से 2001 बच्चों के मरने का सरकारी आंकड़ा आया है। जाहिर है, हालात सुधरने की बजाय विकराल हुए हैं। सतना के बाद दूसरे नंबर पर बैतूल जिला है, जहां इसी अवधि में 1071 बच्चे मरे। इसके बाद तीसरे नंबर पर छतरपुर जिला आता है, जहां 1012 बच्चों की मौतें हुईं। 60 फीसदी बच्चे कम वजन के मध्यप्रदेश, कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या में ही अव्वल नहीं है, औसत से कम वजन के बच्चे भी यहां सबसे ज्यादा हैं। यहां पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं। जबकि ऐसे बच्चों का राष्टीय औसत 425 फ़ीसदी है। प्रदेश के अनुसूचित जाति के बच्चों का तो और भी बुरा हाल है। ऐसे 71 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं, जबकि ऐसे बच्चों का राष्टीय औसत 545 प्रतिशत है। प्रदेश के शहरी इलाकों में ऐसे बच्चों की संख्या 513 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 627 प्रतिशत है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ की ओर से लोकसभा के इसी बजट-सत्र में पेश किए गए ये आंकड़े प्रदेश के नौनिहालों का हाल बयान करने के लिए काफी हैं। यह जमीनी हकीकत, राष्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तृतीय की रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों से सामने आई है। ये हालात तब हैं, जब प्रदेश में ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग के सहयोग से, उसी की मर्जी के मुताबिक करीब ढाई सौ पोषण पुनर्वास केंद्र चल रहे हैं। इसके अलावा नवजात शिशुओं को कुपोषण मुक्ति के लिहाज से प्रदेश के छह जिला चिकित्सालयों में यूनिसेफ की मदद से एसएनसीयू चलाए जा रहे हैं। जल्दी ही यह सुविधा प्रदेश के आो जिलों में विस्तार पाने जा रही है। गैर सरकारी संगठन भोजन का अधिकार अभियान और स्पंदन के सर्वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण के हालात दिन-प्रतिदिन खतरनाक होते जा रहे हैं। कुपोषित बच्चों की यादा संख्या उन जिलों में है, जो आदिवासी बहुल हैं और जो आसानी से शोषण का शिकार हो जाते हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव, बड़े बांध और वन्य-प्राणी अभयारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंश झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख की गिरफ्त में हैं। इस कारण इनकी आबादी घटने के भी आंकड़े 2011 की जनगणना में सामने आए हैं। सरकार अकसर हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से बहाना बनाती है कि ये मौतें कुपोषण से नहीं बल्कि खसरा, डायरिया अथवा तपेदिक से हुई हैं। लेकिन ये बेतुकी दलीलें हैं। कुपोषण और कुपोषणजन्य बीमारियां अल्पपोषण से ही शिशु-शरीर में उपजती हैं। यहां गौरतलब यह भी है कि राय में आज भी करीब 4225 आदिवासी बस्तियों में लोग समेकित बाल विकास योजना के लाभ से वंचित हैं। इस पर भी हैरानी यह है कि यादातर आदिवासी बस्तियों में मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य व आंगनबाड़ी पोषण-आहार केंद्र महीनों खुलते ही नहीं हैं। यही हाल प्राथमिक और मायमिक विद्यालयों में बांटे जाने वाले मयान्ह भोजन का है। इस पर भी विसंगति है कि स्वास्थ्य के मद में सरकार एक व्यक्ति पर साल भर के लिए महज 125 रुपए खर्च करती है। इन जिलों की हालत खराब जिला गंभीर बच्चे कम वजन वाले बच्चे भोपाल 21.0 55.80 प्रतिशत सतना 26.40 67.10 प्रतिशत बड़वानी 35.50 65.10 प्रतिशत उमरिया 25.60 66.60 प्रतिशत अलीराजपुर 29.50 60.80 प्रतिशत डिंडोरी 24.20 61.70 प्रतिशत

सफेद बाघ की मांद में डायनामाइट के धमाके

भोपाल। कभी सफेद बाघ की जन्म स्थली रहे विंध्य पर्वतमाला के कैमोर पहाड़ (छुईया घाटी) का अस्तित्व संकट में है। समूचा कैमोर पहाड़ उद्योगपतियों को पट्टे पर दे दिया गया है। इसकी कोख में डायनामाइट के धमाके हो रहे हैं। क्योंकि इसके पेट में उच्चस्तरीय लाइम स्टोन है, जिससे हाईग्रेड की सीमेन्ट बनेगी। सरकार ने समूचे कैमोर पहाड़ को टुकड़ों में एक हिस्सा जेपी घराने के नाम लिख दिया। एक हिस्से पर अम्बानी घराने की नजर है। बिड़ला और एसीसी पहले से ही यहां खदानें चला रहे हैं। एक बड़ा हिस्सा पिसकर सीमेंट बन चुका है और उसकी कमाई सत्ता -उद्योगपति -नेता और नौकरशाहों के गठजोड़ में बंट चुकी है। एक तरफ प्रदेश की शिवराज सरकार रीवा के गोविंदगढ़ किले के निकट मांद संरक्षण क्षेत्र में एक चिडिय़कघर, एक बचाव केंद्र तथा विलुप्त हो रहे सफेद बाघों के प्रजनन केंद्र को शुरू करने की तैयारी कर रही है। यह वही जगह है जहां सफेद बाघ मोहन को 1951 से 1970 में इसकी मौत होने तक रखा गया था। वहीं दूसरी तरफ इसके आस पास के वन्य और पहाड़ी क्षेत्र को खनन के लिए कंपनियों को दे दिया गया है। यहां रोजाना डायनामाइट का ब्लास्ट किया जा रहा है। इससे कैमोर पहाड़ी धंसक रही है। प्रसिद्ध छुहिया घाटी में बड़े पैमाने पर लैण्डस्लाइडिंग शुरू हो गई है। इसी की तराई पर जेपी का बड़ा सीमेंट प्लांट लगा है और कुछ दूर से ही लाइम स्टोन की खदानें शुरू हो जाती हैं। इसी सीमेंट प्लांट का पेट भरने के लिए कैमोर पहाड़ का 500 एकड़ का रकबा खदान के लिए पट्टे पर दे दिया गया है। आंदोलनकारियों को भेजा जेल क्षेत्र में खनिज संसाधनों की बंदरबाट और पर्यावरण एवं प्राणियों के अस्तित्व को उत्पन्न होने वाले खतरे को देखते हुए छुईया घाटी के आसपास के गांवों के लोगों ने जब आंदोलन शुरू किया तो उसे दबाने के लिए खनन एजेंसियों ने प्रशासन के साथ मिलकर दबाने का प्रयास किया। लेकिन जब सीधी और सतना जिले के दर्जनों गांवों के लोगों पर्यावरण प्रेमी उमेश तिवारी के टोको,रोको,ठोको क्रांतिकारी मोर्चा तथा समाजसेवी अनुसुईया प्रसाद शुक्ला के छुईया घाटी बचाओं संघर्ष मोर्चा के साथ जंगल के वृक्षों की कटाई को रोकने के लिए उनसे लिपटकर चिपको आंदोलन चलाया तो कुछ दिनों के लिए कटाई रोक दी गई। लेकिन एक बार फिर से कटाई शुरू हो गई है। इसको देखते हुए गामीण एक बार फिर से आंदोलन को तेज करने लगे तो 25 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर सीधी जेल में डाल दिया गया है। आंदोलनकारियों का नेतृत्व कर रहे अनुसुईया प्रसाद शुक्ला कहते हैं कि विंध्य क्षेत्र में धीरे-धीरे घुसपैठ करने वाला माफिया और खनन कारोबारियों ने अब यहां अपना साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया है। प्रदेश में गुजरने वाले कैमोर पठार का हिस्सा बनी छुईया घाटी खनन माफिया की काली करतूत व प्रशासन की मिली भगत के चलते खोखली होती जा रही है। प्रदेश में खनिज संसाधनों की खुली लूट जारी है। शासन-प्रशासन के इशारे पर पर्यावरण एवं प्राणियों के अस्तित्व को उत्पन्न होने वाले खतरे पर चिंतन किए बगैर निजी स्वार्थों को साधते हुए सघन वनांचल में भी धड़ल्ले से खनन की अनुमतियां जारी की जा रही हैं। खनिज संपदा की लूट के इस मामले में सबसे अधिक खेदपूर्ण स्थिति यह है कि एक -दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने वाले भाजपा-कांग्रेस के नेता भी एक सुर में राग अलाप रहे हैं। ऐसे में प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण पर करोड़ों खर्च कर चलाई जा रही योजनाएं व्यर्थ साबित हो रही हैं और पर्यावरण विनाश के चलते तेज बरसात में पहाड़ों से भूस्खलन होने पर तलहटी में स्थित गांवों की हालत उत्तराखंड की बर्बादी की दास्तान यहां भी दोहरा सकती है। शुक्ला कहते हैं कि छुईया घाटी (कैमोर पहाड़ी) के सघन वन क्षेत्र में प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार ने पर्यावरण और वन्य प्राणियों की क्षति का आंकलन किए बिना कुछ अधिकारियों की तथ्यहीन रिपोर्ट के आधार पर एक बड़ी निजी कंपनी को खनन अनुमति जारी कर दी है। शासन और प्रशासन से गुहार लगाने के बाद भी छुईया घाटी क्षेत्र में सतना जिले की 200 और सीधी जिले की 300 एकड़ जमीन पर उत्खनन हो रहा है। घाटी में हो रही ब्लास्टिंग से वनक्षेत्र के पटना,सरदा,मझगवां,करियाझार,मलगांव,पिपरांव, धौरहरह,बघवार,गुढ़हाटोला,चौडगढ़़ी,हिनौती आदि गांवों के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। इस तरह मिली अनुमति अनुसुईया प्रसाद शुक्ला कहते हैं कि गत वर्ष जेपी समूह के जेपी सीमेंट मझगवां को पर्यावरण नियमों की अनदेखी करते हुए खनन की अनुमति दे दी गई थी। वर्षांत में भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा दिनांक 12 नवंबर 2012 को जारी पत्र क्रमांक 8-66/2007- एफसी तथा मध्यप्रदेश शासन के वन विभाग भोपाल द्वारा दिनांक 24 नवंबर 2012 को जारी पत्र क्रंडी- 3274/3298/2012/10-3 के माध्यम से सीधे जिले के मझगवां ब्लॉक रेंज के 1121 नंबर कम्पार्टमेंट के 54.825 हैक्टेयर रकबे में जयप्रकाश ऐसोसिएट लिमिटेड रीवा के चूना पत्थर उत्खनन को स्वीकृति दे दी गई। जबकि इसी तरह उक्त तिथियों में भारत सरकार के वन और पर्यावरण तथा मप्र सरकार के वन विभाग द्वारा जारी पत्रों द्वारा बुढगौरा ब्लॉक के कम्पार्टमेंट क्रमांक 1119 एवं बधवार के गुडहा टोला के 66.945 हैक्टेयर रकबे पर भी उक्त कंपनी को चूना पत्थर उत्खनन को स्वीकृति दे दी गई। इसके अलावा स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की तथ्यहीन और गलत जानकारियों के आधार पर बनाई गई रिपोर्ट के आधार पर शासन और केंद्र ने छुईया घाटी के सतना जिले के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र मेें भी खनन को मंजूरी दे दी। अरबों के सागौन वन स्वाहा अनुसुईया प्रसाद शुक्ला कहते हैं कि अधिकारियों-जनप्रतिनिधियों को प्रभाव में लेकर जयप्रकाश ऐसोसिएट लिमिटेड ने खनिज अनुमति लेने के साथ ही वृक्षों की कटाई शुरू कर दी गई। वह कहते हैं कि इस वन क्षेत्र में सागौन के पेड़ लगे हुए हैं। वन विभाग के अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से अब तक अरबों रूपए के सागौन के वृक्ष काटे जा चुके हैं। यह वही क्षेत्र है जहां कृष्ण मृग,चीतल,सांभर आदि रहते हैं। घाटी के आसपास के लोगों का कहना है कि उनका आंदोलन तब तक चलेगा जब तक वनक्षेत्र में खनन और कटाई पूर्णत: बंद नहीं हो जाता। जेपी के जहर से जहरीली हुई नहर सिंगरौली में जेपी द्वारा सीमेंट प्लांट स्थापित करने के लिए भू-अजर्न हेतु फर्जीवाड़ा व पर्यावरण नियम को ताक पर रखकर प्राप्त अनापत्ति प्रमाण पत्र को एक आरटीआई कार्यकर्ता द्वारा जबलपुर उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका के बाद न्यायालय ने एक माह के अंदर जे पी प्रबंधन व वन विभाग से जवाब तलब किया है। ज्ञात हो कि बीरेंद्र पाण्डेय आरटीआई कार्यकर्ता के दायर याचिका में चीफ जस्टिस एएम खान विलकर व केके लाहोटी की खंड पीठ ने प्रस्तुत तथ्यों को सही व प्रभावी मानते हुए याचिका कर्ता के याचिका को स्वीकार कर जेपी प्रबंधन व वन विभाग राज्य शासन से 1 महीने के अन्दर जवाब मांगा है। बता दें कि याचिका में 250 मी. वन सीमा के अन्दर प्लांट लगाने, माईनिंग लीज स्वीकृत करने व पर्यावरण को जहरीला बनाने वैज्ञानिकों की जांच रिपोर्ट में ये पाया गया था कि जेपी कंपनी की वजह से आस-पास के नहर का पानी जहरीला हो गया है, जिससे जानवरों की आए दिन मौत हो रही है। उक्त पानी से फसल भी जहरीली हो रही हैं। साथ ही सोन घडिय़ाल के सीमा के नियमों की भी अनदेखी की गई है। याचिका में जेपी प्रबंधन द्वारा स्थानीय लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार न देने व भू-दाताओं को अन्यत्र कंपनी में नौकरी देने के मसले पर भी सवाल उठाया गया है। वहीं वन विभाग द्वारा जेपी को पूरा वन दे देने के विषय को भी गंभीरता से लिया गया है। गौरतलब हो कि अगस्त 2008 में तत्कालीन कलेक्टर ने पाया था कि कंपनी को जमीन का कुछ हिस्सा नियम विरुद्घ तरीके से जारी किया गया है तथा कलेक्टर ने सिफारिश की थी कि करीब 80 हेक्टेयर जमीन वापस ली जाये। इसके बाद भी ग्राम धौरहरा, बुढग़ौना, करीयाझर व मझगवां के किसानों की जमीनों को अवैध तरीके से अधिगृहित किये जाने को लेकर लगातार की गई शिकायतों पर कोई कार्यवाही न होने पर यह याचिका दायर की गई है। आरटीआई कार्यकर्ता का आरोप है कि राज्य सरकार खुद नियमों का उल्लंघन करके जेपी सीमेंट को जमीन लीज पर दे रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि उक्त जमीन गोविंदगढ़ रिजर्व फॉरेस्ट से जीरो किमी की दूरी पर है। याचिकाकर्ता ने वनजीवों की सुरक्षा व खतरे के विषय में अवगत कराते हुए सख्त कार्यवाही की मांग की है।

3 साल में 1953 करोड़ बंदरबाट

बुंदेलखंड में विकास के लिए केंद्र से फिर मांगे 1200 करोड़ भोपाल। बुंदेलखंड के विकास के लिए मिले 1953 करोड़ रूपए 3 साल में पानी की तरह बहा दिया गया,लेकिन आलम यह है कि आज भी वहां लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। विकास के लिए मिली इस रकम की पंचायत स्तर से लेकर ऊपर तक जमकर बंदरबाट की गई है। फर्जी वाउचर, बिलों के भुगतान में अफसरों ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर से काम कराने के नाम पर स्कूटर, स्कूटी, आटो रिक्शा इंडिका जैसे वाहनों के नाम पर लाखों का भुगतान कर दिया। जांच रिपोर्ट में जिन आईएफएस तथा एसीएफ अफसरों को इस भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाया गया, उन्हें बचाते हुए वनमंत्री सरताज सिंह ने डिप्टी रेंजर और वनरक्षकों को निलंबित कर अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर ली। इसके बावजूद राज्य सरकार केंद्र से फिर 1200 करोड़ की राशि बुंदेलखंड पैकेज के लिए मांग रही है। प्रदेश के बुंदेलखंड में कुछ वर्षो से सूखे के चलते केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में तीन सालों के लिए मप्र को 1953 करोड़ की राशि स्वीकृत की थी। इस योजना पर टीकमगढ़, दमोह, पन्ना, छतरपुर, सागर तथा दतिया को शामिल करते हुए कृषि को बढ़ावा देने, सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण, पशुपालन, मछली पालन, पेयजल तथा मनरेगा के तहत हितग्राहियों को मोटर पंप कनेक्शन दिए जाने तथा डेयरी उद्योग, दुध का उत्पादन बढ़ाने पर काम किया जाना था। राज्य सरकार द्वारा इसके लिए भेजे गए कृषि के लिए 270 करोड़, सिंचाई परियोजनाओं के लिए 610 करोड़, ग्रामीण विकास के लिए 210 करोड़, पशुपालन के लिए 50.34 करोड़, वन विभाग को स्वाइल कंजरवेशन, वाटरशेड निर्माण आदि के लिए 107 करोड़ तथा पेयजल के लिए पीएचई विभाग के 100 करोड़ के प्रस्तावों के बदले केंद्र ने मप्र को 1425 करोड़ की राशि रिलीज की थी। इन कामों की आड़ में गाय, बकरी, सांड बांटने, सिंचाई विभाग द्वारा बांधों का निर्माण करने, ग्रामीण विकास द्वारा किसानों को मोटर पंप खरीदकर प्रदाय करने के गड़बड़झले सामने आए। किसानों को दी गई गाय, बकरी तथा सांडों की बीमारी के चलते मौत हो गई, तो फर्जी किसानों को मोटर पंप वितरित कर दिए गए। राशि खर्च का सरकार ने केंद्रीय योजना आयोग द्वारा कई बार पत्र लिखने पर भी उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं भेजा, परंतु जब अतिरिक्त राशि लेने का मामला सामने आया, तो उपयोगिता प्रमाण पत्र भेज दिया। ऐसे हुआ फर्जीवाड़ा वाटर शेड खर्च राशि अनियमितता संदिग्ध फर्जी अधिक व्यय भुगतान भुगतान क्रमांक-1 21.14 00 2.86 2.30 00 क्रमांक-2 111.33 12.25 4.62 1.88 3.52 क्रमांक-3 103.75 00 2.96 6.16 2.00 क्रमांक-4 33.56 46.25 1.09 5.07 0.88 क्रमांक-5 56.03 7.21 9.50 15.16 2.57 क्रमांक-6 108.42 30.73 00 45.25 2.00 क्रमांक-7 49.92 11.04 2.41 6.10 3.70 क्रमांक-8 49.94 11.86 00 10.65 0.92 क्रमांक-9 70.32 29.80 00 08.27 2.75 कुल खर्च 604.41 149.14 23.44 100.84 26.43 (कुल फर्जीवाड़ा 2 करोड़ 99 लाख 85 हजार) नगद भी हुआ भुगतान जांच रिपोर्ट में खुलासा किया है कि यदि कोई कार्य 70 हजार का था, तो भुगतान एक लाख का फर्जी व्हाउचर के माध्यम से किया गया। वाटरशेड परकोलेशन पिट के 4 कक्षों के निर्माण में 3 लाख 18 हजार का भुगतान फर्जी पाया गया, कई व्हाउचरों में राशि प्राप्त करने वालों के हस्ताक्षर ही नहीं थे। यानी फॉरेस्ट अफसरों ने स्वयं ही यह राशि निकाल ली। 20 हजार से अधिक का भुगतान बिना चेक नहीं किया जाता, लेकिन जांच में 20 हजार से अधिक का भुगतान नकद बांट दिया गया। कक्ष क्रमांक-443 में तालाब निर्माण पर एक लाख 2 हजार 944 का फर्जी भुगतान मिला। वाटरशेड के कक्ष पी 445 में तालाब निर्माण के कार्य पर 7 लाख 36 हजार का फर्जी भुगतान कर दिया गया। कक्ष- 429 में केवल 2 परकोलेशन टेंक स्वीकृत थे। स्थल के अनुसार 2 टेंक पाए गए, लेकिन इनके व्हाउचर नहीं मिले। व्हाउचर के परीक्षण में पता चला कि फर्जी परकोलेशन टेंक क्रमांक 10, 12 एवं 13 का निर्माण दर्शाकर 2 लाख 15 हजार का फर्जी भुगतान प्राप्त कर लिया गया। इस गड़बड़ी में दोषी डीएफओ, एसीएफ तथा रेंजर का बचाते हुए डिप्टी रेंजर तथा वनरक्षकों को निलंबित किया गया। बुंदेलखंड पैकेज के नाम पर केंद्र सरकार से मिली 1425 करोड़ की राशि में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ दिए गए हैं। अकेले पन्ना जिले में निर्मित कराए गए 9 वाटरशेड के निर्माण पर 6 करोड़ का व्यय दर्शाया गया, लेकिन इसमें से तीन करोड़ का भ्रष्टाचार कर डाला। यह हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि जीएडी द्वारा सीटीई से कराई गई जांच रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। भ्रष्टाचार के तरीके भी नायाब ट्रैक्टर, जेसीबी के नाम कार, स्कूटी और स्कूटर तथा आटो जैसे वाहनों के नंबर पर किया भुगतान क्र दोषी फॉरेस्ट अफसरों पर कार्यवाही करने की अपेक्षा वन मंत्री उन्हें बचाने में लगे पन्ना जिले में सबसे अधिक घोटाला बुंदेलखंड पैकेज के तहत सबसे बड़ा घोटाला पन्ना जिले में फॉरेस्ट विभाग द्वारा कराए गए वाटरशेड निर्माण में सामने आया है। वैसे सिंचाई विभाग द्वारा निर्मित कराए गए एक दजर्न बांध भी पहली बारिश में बह गए, लेकिन पन्ना में हुए घोटाले की जांच के लिए राज्यसभा सदस्य सत्यव्रत चतुव्रेदी ने केंद्रीय योजना आयोग के सीईओ डॉ. जेएस सामरा को पत्र लिखा था। इस पत्र के पश्चात जीएडी ने इस घोटाले की जांच के लिए मुख्य तकनीकी परीक्षक सतर्कता (सीटीई) की अध्यक्षता में एक जांच दल गठित किया। इस जांच दल को एक पखवाड़े में जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी, लेकिन अधिकारियों द्वारा सहयोग न करने से सीटीई ने अपनी रिपोर्ट जीएडी को देरी से सौंपी। जांच में पाया गया कि 6 वाटरशेड निर्माण के लिए ट्रैक्टर तथा जेसीबी मशीन के नाम पर स्कूटर, स्कूटी, ऑटो रिक्शा तथा इंडिका वाहनों का भुगतान किया गया। यानी वाउचर भुगतान में जिन वाहनों के नंबरों का उपयोग किया गया, वह आरटीओ के यहां इन वाहनों के नाम पर दर्ज थे।

5000 गांवों के लोगों ने नहीं देखी बिजली

लो फिर आ गए चुनाव , पर बिजली नहीं आई
-2003 और 2008 विधानसभा चुनावों में यह बड़ा मुद्दा भी बनी
भोपाल। एक तरफ भाजपा सरकार प्रदेश में 24 घंटे बिजली पहुंचाने का बखान गाती फिर रही है,वही दूसरी तरफ आलम यह है कि 55,392 गांवों वाले मध्य प्रदेश के 5,000 गांव ऐसे हैं जहां आज भी बिजली नहीं है। इसके अलावा करीब 3,000 गांव ऐसे हैं जहां बमुश्किल दस फीसदी घरों में बिजली पहुंचती है। यह तथ्य मध्य प्रदेश योजना आयोग की एक रिपोर्ट में सामने आई है। विकास के लिए पर्याप्त बिजली अनिवार्य शर्त है। इसीलिए देश और प्रदेश की राजनीति में बिजली को लेकर हमेशा से हलचल रही है। 2003 और 2008 विधानसभा चुनावों में यह बड़ा मुद्दा भी बनी। और अब, तीसरे चुनाव में यदि स्थिति सुधरी है तो श्रेय को लेकर राजनीति हो रही है। उधर लोगों का कहना है कि विधानसभा चुनाव तो फिर आ गए लेकिन बिजली नहीं आई। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे खराब स्थिति पन्ना और सीधी जिले की है। इनके अलावा कुल 9 अन्य जिले रीवा, शहडोल, शिवपुरी, भिंड, सतना, गुना, विदिशा, झाबुआ और रायसेन के हजारों गांवों में बिजली नहीं पहुंची हैं। हालांकि भोपाल, हरदा, नीमच, इंदौर, शाजापुर, देवास, उज्जैन, सीहोर, मंदसौर, ग्वालियर और राजगढ़ जिलों के लगभग हर गांव में बिजली उपलब्ध है। अटल ज्योति योजना कितनी अटल विधानसभा 2013 का चुनावी बिगुल बज चुका है। स्वर्णिम मप्र की तस्वीर बताकर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश हो रही है। इसी तस्वीर की एक झलक है अटल ज्योति योजना। 24 घंटे बिजली देने वाली यह योजना प्रदेशवासियों के लिए बड़ी राहत की उम्मीदें लेकर आई है। कहीं झूठ तो कही सच नजर आ रही ये योजना भविष्य में कितना अटल रहेंगी? यह सवाल भी अब उठने लगा हैं। असल में मप्र सरकार ने गुजरात मॉडल की नकल करके अटल ज्योति अभियान को शुरू किया है। भविष्य में भी 24 घंटे की सप्लाई लोगों को मिलती रहें इसके लिए मप्र सरकार ने गुजरात की तरह विद्युत उत्पादन बढ़ाने में अपनी अकल नहीं चलाई। सजग प्रकोष्ठ ग्वालियर के अध्यक्ष डॉ. प्रवीण अग्रवाल कहते हैं कि अटल ज्योति योजना अच्छी होती अगर इसे प्लानिंग और मॉनीटरिंग के साथ शुरू किया जाता। तब हमें इस योजना को अटल कह सकते थे। चुकि यह योजना शुरू हो चुकी है इसलिए इसे सफल बनाने के लिए बिजली कंपनी,पुलिस प्रशासन और जिला प्रशासन को संयुक्त रूप से और पूरी इच्छशक्ति के साथ काम करना होगा। 16 जून को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने डबरा से अटल ज्योति योजना का शुभारंभ किया था। अपने हाइड्रल पावर प्रोजेक्ट(पनबिजली परियोजना) और फ्यूचर सौदे की दम पर अटल ज्योति योजना को शुरू किया गया है। मप्र सरकार का दावा है कि अटल ज्योति योजना के तहत प्रदेश के 50 जिलों, 476 शहरों और 54903 गांवों में 24 घंटे बिजली की सप्लाई रहेगी। बिना किसी ठोस प्लानिंग के शुरू की गई इस योजना के दावे अभी से ही झूठे नजर आने लगे हैं। प्रदेश की भाजपा सरकार का दावा है कि उसने 24 घंटे बिजली देकर लोगों के जीवन में उजाला ला दिया है। उसने प्रदेश में न केवल बिजली उपलब्धता को वर्ष 2003 की तुलना में 7000 मेगावाट बढ़ाकर 10,000 के पार पहुंचाया, बल्कि हर घर को बिना किसी बाधा के बिजली दे रहे हैं। शिवराज सरकार की ये दलील विपक्षी पार्टी कांग्रेस सिरे से खारिज करती है। उसके दावे हैं कि प्रदेश में आए लगभग सभी पावर प्लांट की नींव तो दिग्विजय सरकार के नेतृत्व में ही रखी गई थी। उस समय 4500 मेगावाट के संयंत्रों की दिशा में हुए काम का फल शिवराज ने खाया है। इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, सरदार सरोवर के महत्व को समझ कर ही दिग्विजय सिंह ने इस दिशा में तेजी से काम किया था। केन्द्र की यूपीए सरकार ने भी प्रदेश को सेंट्रल सेक्टर से मिलने वाले बिजली शेयर में 1400 मेगावाट की बढ़ोत्तरी की है। केन्द्र सरकार की नई कोल नीति बनने के बाद मध्यप्रदेश में 22 कोल ब्लॉक्स का आवंटन किया गया। इसमें सीमेंट, इस्पात और बिजली के लिए अलग-अलग कंपनियों को मध्यप्रदेश सरकार की अनुशंसा पर आवंटन किया गया। मप्र माइनिंग कार्पोरेशन को व्यावसायिक उपयोग के लिए 7 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए। ज्यादातर कोयला खदानें सिंगरौली जिलें में दी गईं। ये आवंटन जनवरी 2006 से जुलाई 2007 के बीच हुए। इसके अलावा बिजली बनाने के लिए निजी कंपनियों में रिलायंस, एस्सार, हिंडाल्को और पावर फाइनेंस कार्पोरेशन सासन को भी दिए गए। इनका निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है। सूत्र बताते हैं कि मध्यप्रदेश माइनिंग कार्पोरेशन ने अपने कोटे के कुछ कोल ब्लॉक भोपाल और रीवा की तीन कंपनियों को दे दिए हैं। इसमें से अभी कुछ प्रोजेक्ट में बिजली उत्पादन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। सीधी, शहडोल और सिंगरौली जिले में चारों ओर कोल माइनिंग और पावर प्लांट लगाने की गति तेज है। वहां लोग विस्थापन की समस्या से भी जूझ रहे हैं। जो लोग विस्थापित हुए हैं, उन्हें बिजली नहीं मिल रही। कांग्रेस विधायक प्रद्युम्न सिंह तोमर कहते हैं कि अटल ज्योति योजना से 24 घंटे बिजली देने का मुख्यमंत्री का दावा झूठा है। अभी भी ग्वालियर समेत प्रदेश के 5000 से अधिक गांव अंधेरे में डूबे हैं। जबकि मध्यप्रदेश में यही आंकड़ा चौंकाने वाला है। सीएम की यह योजना सिर्फ चुनावी योजना है। पूर्व ऊर्जा मंत्री और कांग्रेस नेता एनपी प्रजापति कहते हैं कि इंदिरा सागर, सरदार सरोवर, ओंकारेश्वर, बाणसागर, गांधी सागर से बिजली उत्पादन की नींव हमने रखी थी। बिरसिंहपुर में 500 मेगावाट की इकाई के लिए काम शुरू किया था। एनटीपीसी के साथ विंध्याचल पावर प्रोजेक्ट के लिए काम किया। अमरकंटक, चचाई में नई यूनिटों के लिए स्वीकृति दी थी। वर्तमान में शिवराज सरकार केवल बिजली उपलब्ध करा रही है। केन्द्र सरकार के कोटे की बिजली को भी अपनी बताई जा रही है। पिछले पांच साल में 32 हजार करोड़ रुपये की बिजली खरीदी। इसमें से 14 हजार करोड़ रुपये की बिजली बिना टेंडर के खरीदी गई। कोयले का रोना रोने और उस पर घोटाले का आरोप लगाने वाली प्रदेश सरकार यदि चाहती तो उसे मिले 22 कोल ब्लॉक्स में से कुछ का उपयोग बिरसिंहपुर, सारणी और चचाई के पावर प्लांट के लिए कर सकती थी। कहां गई 20,000 करोड़ की बिजली नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह कहते हैं कि बिजली..बिजली का रट लगाते हुए भाजपा सरकार के 10 साल बीत गए लेकिन राज्य में बिजली संकट कम नहीं हुआ है, बल्कि पहले से ज्यादा गंभीर हुआ है। एक ओर तो बिजली संकट है, तो दूसरी ओर बिजली संकट दूर करने के नाम पर बिजली खरीद और आपूर्ति में भारी घोटाले हो रहे हैं। भाजपा सरकार ने प्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बिजली खरीदी का किया है। 6 साल में 20 हजार करोड़ रुपए की बिजली खरीदी गई लेकिन यह कहां गई, कोई बताने वाला नहीं है। निजी बिजली कंपनी लैंको पावर ट्रेडिंग लिमिटेड गुडग़ांव ने प्रदेश की पावर ट्रेडिंग कंपनी को 83.63 करोड़ की चपत लगा दी। तीन साल पहले हुए गड़बड़झाले का खुलासा ऑडिट रिपोर्ट में हुआ है। बिजली देने से छग की ना हमारे पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में बिजली का उत्पादन बड़ी मात्रा में होता हैं। हांलाकि इस उत्पादन में मप्र का भी हक है, लेकिन मप्र से अलग होने के बाद भुगतान नीति के चलते छत्तीसगढ़ से हमें सीधे बिजली नहीं मिलती। यही कारण है कि मप्र को पंजाब, हरियाणा जैसे दूसरे राज्यों और पॉवर कंपनियों से करीब 3000 मेगावाट बिजली खरीदनी पड़ रहीं हैं। कंपनीकरण के बाद हर साल बढ़ी दरें मप्र में विद्युत मण्डल का कंपनीकरण हुआ। इसके बाद से हर साल विद्युत नियामक आयोग ने बिजली की दरों मे इजाफा किया। आयोग और कंपनी मामूली वृद्धि बताते हैं। फैक्ट फाइल -मप्र में तीन वितरण कंपनियां हैं। इन पर मप्र पावर मैनेजमेंट कंपनी का होल्ड हैं। -मप्र में बिजली का उत्पादन करीब 4000 मैगावाट हैं। -6000 मैगावाट बिजली की जरूरत हैं। -अटल ज्योति योजना के बाद 1000 मैगावाट बिजली एक्स्ट्रा चाहिए। -कृषि कार्य के लिए बिजली की डिमांड करीब 1500 मैगावाट होगीं। तीनों कंपनियां करीब 11 हजार करोड़ के कर्ज में डूबी हैं। इसे घाटे से उबारने के लिए सरकार पहले से परेशान। अटल ज्योति से अब घाटा और भी बढ़ रहा है। ये हैं हमारे पावर प्रोजेक्ट हाईड्रल पावर- इंदिरा सागर, बाण सागर, सरदार सरोवर, ओंकारेश्वर, राणा प्रताप सागर,राजघाट, पेंच,चंबल, नाथा आदि। थर्मल पावर-वीरसिंहपुर, सारंणी, अमरकंटक, सिंगाजी व सीधी में दो प्रोजेक्ट। खुल रही पोल मप्र में ये प्लांट आए 20 साल में संजय गांधी थर्मल पावर प्लांट बिरसिंहपुर में 210 मेगावाट की नंबर एक यूनिट 1993 में, 210 मेगावाट की दो नंबर यूनिट वर्ष 94 में, 210 मेगावाट की तीन नंबर यूनिट वर्ष 99 में और 210 मेगावाट की चार नंबर यूनिट वर्ष 2000 में आई। इसी प्रोजेक्ट में 500 मेगावाट की यूनिट वर्ष 2008 में आई। अमरकंटक ताप विद्युत गृह चचाई में 210 मेगावाट की यूनिट वर्ष 2009 में आई। सतपुड़ा ताप विद्युत गृह सारणी में 250 मेगावाट की एक यूनिट 2012 में आई। इंदिरा सागर हाइड्रल पावर प्रोजेक्ट से 1000 मेगावाट बिजली 2004 से मिलना शुरू हुई। सरदार सरोवर हाइड्रल पावर प्रोजेक्ट (जिसकी क्षमता 1450 मेगावाट है) से 826.50 मेगावाट बिजली वर्ष 2005 से मिलना शुरू हुई। ओंकारेश्वर हाइड्रल पावर प्रोजेक्ट से 520 मेगावाट बिजली वर्ष 2008 से मिलना शुरू हुई। सिलपरा हाइड्रल पावर प्रोजेक्ट से 20 मेगावाट बिजली वर्ष 2002 में, देवलोन से 60 मेगावाट बिजली वर्ष 01-02 के बीच, झिन्ना से 20 मेगावाट बिजली वर्ष 2006 से, राजघाट से 45 मेगावाट बिजली वर्ष 1999 से, मणिखेड़ा से 60 मेगवाट बिजली 2006-2007 के बीच मिलना शुरू हुई। प्राइवेट सेक्टर में 90 मेगावाट के बीएल पावर नरसिंहपुर से 32 मेगावाट बिजली वर्ष 12 से, 500 मेगावाट के जेपी पावर बीना से 320 मेगावाट बिजली 2012 से मिलना शुरू हुई। प्रदेश सरकार की कंपनी मप्र विद्युत उत्पादन कंपनी जेनको की सिंगाजी ताप बिजली उत्पादन परियोजना से 600 मेगावाट की इकाई बिजली उत्पादन के लिए तैयार हो चुकी है। इसके अलावा सारणी में 250 मेगावाट की भी एक और यूनिट से बिजली उत्पादन के सारे परिक्षण हो चुके हैं। मप्र में बिजली उत्पादन की प्रगति वर्ष 1993 में बिजली उपलब्धता कुल बिजली 4837.66 मेगावाट जल विद्युत 724.66 मेगावाट ताप विद्युत 2757.50 मेगावाट केन्द्रीय शेयर 1355.8 मेगावाट वर्ष 2000 में बिजली उपलब्धता कुल बिजली 6322.55 मेगावाट जल विद्युत 867.16 मेगावाट ताप विद्युत 3387.50 मेगावाट केन्द्रीय शेयर 2067.89 मेगावाट वर्ष 2003 में बिजली उपलब्धता कुल बिजली 4707.19 मेगावाट जल विद्युत 822.17 मेगावाट ताप विद्युत 2147.50 मेगावाट केन्द्रीय शेयर 1682.52 मेगावाट बाहरी कंपनियों से एग्रीमेंट बेस बिजली 55 मेगावाट वर्ष 2013 में बिजली उपलब्धता कुल बिजली 10859.69 मेगावाट जल विद्युत 915.17 मेगावाट ताप विद्युत 3057.50 मेगावाट दूसरी कंपनियों से मप्र का समझौता 655 मेगावाट प्राइवेट बिजली उत्पादन 912 मेगावाट

भूमाफिया के चंगुल में फंसा सहकारिता विभाग

भोपाल।जमीन की जंग को अब असली जंग लग चुकी है और जितने भी भूमिगत भूमाफिया थे वे फिर सीना ठोंककर गृह निर्माण संस्थाओं की जमीन के खेल में जुट गए हैं, जिस सहकारिता विभाग की मिलीभगत के चलते मुख्यमंत्री ने इंदौर सहित प्रदेशभर में संस्थाओं की जमीनों के महाघोटालों को पुलिस प्रशासन की सहायता से उजागर करवाया था, अब वही सहकारिता विभाग एक बार फिर भूमाफिया के चंगुल में फंस गया है। धड़ाधड़ एनओसी के साथ नगर तथा ग्राम निवेश से अभिन्यास मंजूर होने लगे। बिजलपुर मेें इंदौर क्लॉथ मार्केट गृह निर्माण की साढ़े 8 एकड़ जमीन तैय्यबी रियल एस्टेट के हवाले हो गई। संस्था के 185 भूखंडों की इस डाकेजनी में 100 करोड़ की हेराफेरी की गई। तीन साल पहले जोर-शोर से गृह निर्माण संस्थाओं के फर्जीवाड़े की जांच पड़ताल पुुलिस प्रशासन ने शुरू की थी और कई चर्चित भूमाफिया जेल भी गए, क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का लगातार दबाव बना हुआ था। मगर जैसे ही यह दबाव समाप्त हुआ और प्रशासन के साथ-साथ पुलिस पर मिलीभगत के आरोप लगे, इस अभियान ने दम तोडऩा शुरू कर दिया। पिछले एक साल से तमाम भूमिगत हुए भूमाफिया फिर सक्रिय हो गए और तमाम गृह निर्माण संस्थाओं की जमीनों की अफरा-तफरी पहले की तरह शुरू हो गई और हजारों भूखंड पीडि़त अब फिर अपनी शिकायतों को लेकर चप्पलें घिस रहे हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण इंदौर क्लॉथ मार्केट का है, जिसकी ग्राम बिजलपुर में साढ़े 8 एकड़ जमीन थी। खसरा नंबर 13/1, 13/6, 12/2, 13/5, 13/7 की ये जमीनें संस्था के सदस्यों की आवास समस्या हल करने के लिए मूल जमीन मालिक जगजीतसिंह व हरजिंदरसिंह से 1996 में खरीदी। बाद में यही जमीन नाकोड़ा और नवभारत गृह निर्माण को भी बेच दी गई। कुछ समय पूर्व नवभारत संस्था के कर्ताधर्ताओं ने यह जमीन तैय्यबी रियल एस्टेट प्रायवेट लिमिटेड के मोहम्मद पिता अब्दुल खम्बाती को बेच डाली, जबकि इंदौर क्लॉथ मार्केट संस्था के 185 सदस्यों को 1500 स्क्वेयर फीट के भूखंड इस साढ़े 8 एकड़ जमीन में से प्राप्त होना थे। 3 हजार रुपए स्क्वेयर फीट से अधिक वर्तमान में इस जमीन का मूल्य है और 185 भूखंडों पर सीधे-सीधे डाका डालते हुए 100 करोड़ रुपए की हेराफेरी कर दी गई। मजे की बात यह रही कि इंदौर क्लॉथ मार्केट गृह निर्माण संस्था के अध्यक्ष सीताराम पिता देवकिशन व्यास ने स्थायी लोक अदालत के माध्यम से मूल जमीन मालिक हरजिंदरसिंह, जगजीतसिंह से लेकर सत्यनारायण बजाज, पॉवर अटॉर्नी लेने वाले मदनलाल पिता छोगालाल जैन के अलावा नाकोड़ा गृह निर्माण और नवभारत गृह निर्माण के साथ तैय्यब अली रियल एस्टेट के मामले में समझौता करते हुए 31-8-2013 को अवॉर्ड पारित करवा लिया। इसकी भनक इंदौर क्लॉथ मार्के ट गृह निर्माण के मूल 185 सदस्यों को लगी ही नहीं और फर्जी बनाए गए सदस्यों के माध्यम से बुलाई गई साधारण सभा में लिए गए निर्णय और ठहराव-प्रस्ताव को प्रस्तुत कर स्थायी लोक अदालत जिला न्यायालय में राजीनामा कर लिया गया। इस राजीनामे में यह कहा गया कि सदस्यों द्वारा जमा की गई राशि 12 प्रतिशत ब्याज के साथ तैय्यबी रियल एस्टेट द्वारा लौटाई जाएगी और इस संबंध में जमीन पर विकास कार्य करने, भूखंडों को विक्रय करने और अपनी इच्छानुसार उपभोग, उपयोग व्ययन के अधिकार भी तैय्यबी रियल एस्टेट को रहेंगे। इतना ही नहीं इसके पूर्व एक अनुबंध लेख भी तैय्यबी रियल एस्टेट और नाकोड़ा गृह निर्माण संस्था के अध्यक्ष निलेश पिता जसवंतलाल शाह और क्लॉथ मार्केट संस्था के संरक्षक अमित पिता ब्रजमोहन के बीच हुआ, जिसमें 7.44 एकड़ जमीन के सौदे के फलस्वरूप प्रतिफल राशि 13 करोड़ रुपए तय की गई और बतौर बयाने के 1 लाख रुपए लेना बताए गए और शेष 12 करोड़ 99 लाख की राशि भूखंडों के विक्रय पश्चात तैय्यबी रियल एस्टेट द्वारा प्रदान की जाएगी। इतना ही नहीं 50 लाख रुपए की राशि अमित पिता ब्रजमोहन को पूर्व में अदा करना बताई गई। इस लोक अदालत में मंजूर अवॉर्ड और अनुबंध के आधार पर तैय्यबी रियल एस्टेट ने सहकारिता विभाग से एनओसी भी प्राप्त कर ली। उपायुक्त सहकारिता जगदीश कनोजे द्वारा इस तरह की एनओसी कई संस्थाओं को दे दी गई, जबकि पूर्व के उपायुक्त ने ऐसी तमाम एनओसी पर न सिर्फ रोक लगाई थी, बल्कि पुलिस प्रशासन की जांच में यह तमाम एनओसी अवैध पाई गई, जिसके चलते सहकातिा विभाग के कई अफसरों और निरीक्षकों के खिलाफ विभागीय जांच शासन ने शुरू करवाई, मगर इंदौर क्लॉथ मार्केट गृह निर्माण की बिजलपुर स्थित साढ़े 8 एकड़ जमीन अब पूरी तरह तैय्यबी रियल एस्टेट के हवाले हो गई, जिस पर नगर तथा ग्राम निवेश से पिछले दिनों नक्शा मंजूर करवा लिया गया। अब संस्था के मूल 185 सदस्य संघर्ष समिति के माध्यम से अपने हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं और कलेक्टर से लेकर अदालत और सहकारिता विभाग के संयुक्त पंजीयक न्यायिक के समक्ष भी याचिका प्रस्तुत की है। 185 भूखंडों की इस डाकेजनी में सीधे-सीधे 100 करोड़ रुपए की हेराफेरी की गई और इसमें भी शहर के तमाम चर्चित भूमाफिया शामिल हैं। जमीन सीलिंग प्रभावित, संस्था के नाम से हटी तो सरकार की.... बिजलपुर में इंदौर क्लॉथ मार्केट ने 1995 में जो साढ़े 8 एकड़ जमीन खरीदी वह सीलिंग प्रभावित थी और उसे सीलिंग से मुक्ति के लिये ही नाकोड़ा गृह निर्माण ने नवभारत गृह निर्माण से समझौता किया था, क्योंकि नाकोड़ा गृह निर्माण संस्था नई होने के कारण उसे सीलिंग मुक्ति की पात्रता नहीं थी। संस्था के नाम किए जाने पर उसे सरकार ने धारा 20 से विमुक्ति आदेश यानी सीलिंग मुक्त किया। अब यदि जमीन किसी निजी व्यक्ति के नाम पर होती है तो वह फिर सीलिंग प्रभावित होकर सरकार की हो जाएगी। लेकिन इस जानकारी के अभाव में उक्त जमीन का नामंतरण निजी नाम से हो गया है। जांच अधिकारी अब इस मामले की जांच कर उक्त भूमि पर शासन का नाम चढ़ा सकते हैं। नगर तथा ग्राम निवेश से नक्शा भी मंजूर पहले इंदौर क्लॉथ मार्केट के कर्ताधर्ताओं ने तैय्यबी रियल एस्टेट को जमीन बेची और फिर नाकोड़ा तथा नवभारत के साथ अनुबंध भी कर लिया। इसके आधार पर स्थायी लोक अदालत से अभी पिछले दिनों 31-8-2013 को अवॉर्ड पारित करवा लिया गया और इसमें जो राजीनामा मंजूर हुआ उसके आधार पर सहकारिता उपायुक्त जगदीश कनोजे ने एनओसी तैय्यबी रियल एस्टेट के पक्ष में हांसिल कर ली गई और नगर तथा ग्राम निवेश से इसी एनओसी के आधार पर अभिन्यास पिछले ही दिनों मंजूर करवा लिया गया। संयुक्त संचालक नगर तथा ग्राम निवेश संजय मिश्र ने बिजलपुर की इस संस्था की जमीन पर मंजूर किए गए। अभिन्यास की पुष्टि करते हुए बताया कि चूंकि लोक अदालत का राजीनामा और उसके आधार पर सहकारिता विभाग की एनओसी मिली जिस पर अभिन्यास मंजूर करना पड़ा। कलेक्टर ने बनाई जांच कमेटी संघर्ष समिति की ओर से इंदौर कलेक्टर आकाश त्रिपाठी को भी मयप्रमाण शिकायत सौंपी गई, जिसमें भूमाफियाओं के हाथों सदस्यों की जमीनों के विक्रय के प्रमाण भी दिए गए। नतीजतन कलेक्टर ने एक कमेटी बनाकर इसकी जांच शुरू करवाई, जिसमें अपर कलेक्टर रवीन्द ्रसिंह और सहकारिता विभाग के संयुक्त पंजीयक न्यायिक अनिल कुमार वर्मा शामिल हैं। संस्था पर व्यास परिवार का कब्जा इंदौर क्लॉथ मार्केट संस्था पर शुरु से ही व्यास परिवार का कब्जा रहा है। संघर्ष समिति के विशाल शर्मा का आरोप है कि पूर्व अध्यक्ष सीताराम व्यास ने अपने सगे साले अश्विन कुमार हीरालाल को अध्यक्ष बनाया और अपनी बेटी श्रीमती करुणा पति रामकुमार शर्मा को उपाध्यक्ष। अपने सगे भाई गोपाल देवकिशन व्यास को संचालक, अपने साले देवकीनंदन रामचंद्र तिवारी को भी संचालक और एक अन्य सगे भतीजे अमित राधेश्याम व्यास को भी संचालक और बहन पुष्पा को भी इसी तरह निर्वाचित करवाया और वर्तमान अध्यक्ष अश्विन कुमार बरमोटा भी पूर्व अध्यक्ष व्यास के ही साले हंै। सदस्यों के हित डेढ़ करोड़ में बेचे इंदौर क्लॉथ मार्केट के कर्ताधर्ताओं ने 185 मूल सदस्यों को अंधेरे में रखकर फर्जी सदस्यों की बोगस आमसभा 21-7-2013 को आयोजित की और उसमें यह प्रस्ताव भी पारित कर दिया कि संस्था यह स्वीकार करती है कि सदस्यों की अमानत राशि 87 लाख 2 हजार 950 रुपए तथा 1-4-1998 से 31-12-2009 तक 4 प्रतिशत ब्याज और फिर 1-1-2010 से 31-3-2012 तक 12 प्रतिशत की ब्याज राशि 64 लाख 40 हजार 184 रुपए होती है। इस तरह कुल 1 करोड़ 51 लाख 43 हजार 134 रुपए तैय्यबी रियल एस्टेट द्वारा दिए जाएंगे, ताकि यह राशि सदस्यों को लौटाई जा सके। यानी 185 सदस्यों के 100 करोड़ रुपए कीमत के भूखंडों के हितों को बोगस आमसभा के जरिए मात्र डेढ़ करोड़ रुपए में बेच डाला। नाकोड़ा और नवभारत भी इस फर्जीवाड़े में शामिल बिजलपुर में साढ़े 8 एक ड़ जमीन इंदौर क्लॉथ मार्केट संस्था द्वारा खरीदी गई और 8 हिस्सों में इसकी रजिस्ट्री करवाई गई, लेकिन 8 महीने बाद ही संस्था के तत्कालीन अध्यक्ष ओमप्रकाश व्यास ने यह जमीन नाकोड़ा गृह निर्माण को बेच डाली। वहीं नाकोड़ा के चेक तक बाउंस हो गए। बावजूद इसके संचालकों ने कोई कार्रवाई नहीं की और मदनलाल जैन ने आम मुख्त्यार बनकर यही जमीन नवभारत गृह निर्माण संस्था को बेच डाली और फिर त्रिपक्षीय अनुबंध 8 दिसम्बर 1999 को इंदौर क्लॉथ मार्केट, नाकोड़ा और नवभारत के बीच किया गया, जिसमें नवभारत को क्लॉथ मार्केट के सदस्यों को भूखंड उपलब्ध कराना तय किया गया। इस पूरे घोटाले में इंदौर क्लॉथ मार्केट के नाकोड़ा और नवभारत का फर्जीवाड़ा भी शामिल रहा। संघर्ष समिति की याचिका पर अब जारी हुए नोटिस इंदौर क्लॉथ मार्केट संस्था के मूल 185 सदस्यों ने संघर्ष समिति गठित की और सहकारिता उप पंजीयक न्यायिक के समक्ष याचिका भी दायर की।

आप इफेक्ट के चक्कर में फंसी मप्र सरकार

5 माह में 500 करोड़ का करंट लगेगा कंपनियों को
1 करोड़ उपभोक्ता बिजली के झटके से बचे
भोपाल। 15,000 करोड़ रूपए के घाटे में चल रही बिजली कंपनियों को आगामी पांच में 500 करोड़ रूपए का फटका लगने वाला है। दरअसल,दिल्ली की आप सरकार ने बिजली की दरें जिस प्रकार से कम की है उसको लेकर अब हर प्रदेश में ऐसी ही मांग उठ रही है। कहीं बिजली की दरों को लेकर प्रदेश में बवाल न मच जाए और लोकसभा चुनाव के गणित कहीं उल्टे न पड़ जाए इसलिए प्रदेश सरकार ने अपने लिए गए निर्णय से चार कदम पीछे हटकर विद्युत नियामक आयोग के सामने यह कहा कि बिजली की दरे यथावत रखी जाए। इससे जून तक तीनों बिजली कंपनियों को करीब 500 करोड़ रूपए का घाटे का करंट लगने वाला है। हालांकि इससे प्रदेश के 1 करोड़ उपभोक्ताओं को कुछ महिनों के लिए राहत जरूर मिल गई है। इस साल नहीं बढ़ेंगी बिजली की दरें सरकार ने वित्तीय वर्ष 2014-15 में बिजली दरें न बढ़ाने का निर्णय लिया है। यही वजह है कि 21 जनवरी को नियामक आयोग को जो टैरिफ भेजा गया है उसमें बिजली दरों में कोई बदलाव नहीं किया गया। इसके पीछे बिजली कंपनी जो कारण बता रही हैं उसके अनुसार सासन पॉवर प्लांट से उन्हें सस्ती दर में 235 मेगावॉट बिजली मिल रही है। इसके अलावा आगामी कुछ महीनों में यहा 235 मेगावॉट के चार नए प्लांट शुरू होने जा रहे हैं। वहीं बिजली कंपनियों का कहना है कि उन्होंने लाइन लॉस काफी मात्रा में कम कर लिया और अन्य प्रदेशों को महंगी दरों पर बिजली बेचकर भी फायदा कमाया है। कंपनियों का कहना है कि वर्ष 2013-14 में उन्हें करीब 2000 हजार रुपए का घाटा हुआ है जो आगामी वित्तीय वर्ष में कम कर लिया जाएगा। इसी वजह से इस साल घरेलू या व्यवसायिक बिजली में बढ़ोत्तरी का प्रावधान नहीं किया गया। जबकि हकीकत यह है कि अगले कुछ माह में लोकसभा चुनाव होना है। यदि बिजली कंपनी बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी करतीं तो यह चुनावी मुद्दा बन सकता था इस वजह से भी टैरिफ में कोई बदलाव नहीं किया गया।
हर यूनिट पर 1.34 रुपए मुनाफा फिर भी 2000 करोड़ का घाटा प्रदेश में बिजली बनाने के लिए हर यूनिट पर 3.56 रुपए खर्च होते हैं। उत्पादन में 2.56 रुपए और डिस्ट्रीब्यूशन व ट्रांसमिशन पर एक रुपए। लेकिन उपभोक्ताओं को ((100 यूनिट महीने की खपत)) पर एक यूनिट बिजली के लिए कंपनी को 4.90 रुपए चुकाने होते हैं। यानी हर यूनिट पर बिजली कंपनी हमसे 1.34 रुपए मुनाफा कमा रही है। इसके लिए उपभोक्ताओं से कई तरह के चार्ज भी वसूले जाते हैं। बावजुद इसके पिछले वित्तीय वर्ष में बिजली कंपनियों को करीब 2000 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा। ऊर्जा सलाहकार डी. राधेकृष्णा कहते हैं कि तीनों ही कंपनियां शुरू से घाटे में हैं। कंपनियों के लगातार घाटे में बने रहने की मुख्य वजह इनकी वितरण हानियां और बिलिंग की समस्या है। तीनों कंपनियों के लिए मध्य प्रदेश नियामक आयोग ने, जो हानियों की दर तय की है, वे पूर्व क्षेत्र के लिए 24 फीसदी, पश्चिम क्षेत्र के लिए 22 फीसदी और मध्य क्षेत्र के लिए 26 फीसदी है। इन तीनों कंपनियों की वितरण हानियां इन दरों से तीन-चार फीसदी अधिक है। इसके अलावा बिल संकलन भी तीनों कंपनियों का 70-80 फीसदी के बीच में होता है। इसी के चलते कंपनियों का घाटा लगातार बना हुआ है। हालांकि नियामक आयोग लगातार टैरिफ में बढ़ोतरी कर रहा है। इसके अलावा ईधन के दामों में हुई बढ़ोतरी को हर तिमाही टैरिफ में शामिल करने की अनुमति भी कंपनियों को दी गई है। इसके बावजूद कंपनियों की स्थिति में जल्द ही कोई बड़ा बदलाव देखने नहीं मिलने वाला है। मध्य प्रदेश की वितरण कंपनियों की हानियों में सुधार बहुत धीमी गति से हो रहा है। इसके अलावा बिल संकलन के मामले में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। यही वजह है कि घाटा लगातार बना हुआ है। तीनों कंपनियों की वितरण हानियां निर्धारित लक्ष्य के मुकाबले तीन-चार फीसदी ज्यादा है। देश में अन्य राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों के समान ही मध्य प्रदेश की बिजली वितरण कंपनियों की भी वित्तीय हालात बेहद खराब है। वित्त वर्ष 2010-11 में तीनों कंपनियों का कुल घाटा 2157 करोड़ रुपए था। वित्त वर्ष 2011-12 में घाटा 2141 करोड़ रहा,जबकि 2012-13 यह घाटा 2096 करोड़ था। इसके अलावा तीनों कंपनियों पर कुल कर्ज करीब 15,000 करोड़ रुपए का है, जिसमें बड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश सरकार से मिले लोन का है। 15 फीसदी तक कम की जा सकती हैं बिजली की दरें मप्र विद्युत मंडल के पूर्व चेयरमैन पीएल नैने कहते हैं कि बिजली कंपनियां बिजली की दरें 15 फीसदी तक कम कर सकती हैं। घाटे की दुहाई व तरह-तरह के शुल्क लगाकर हर साल बोझ बढ़ाया जाता है। ब्याज की अवधि कम करके भी बिजली की दरें कम की जा सकती है। उधर,प्रदेश के पूर्व ऊर्जा मंत्री एनपी प्रजापति का कहना है कि प्रदेश में मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी लिमिटेड के सतपुड़ा ताप विद्युत गृह, सारणी एवं संजय गांधी ताप विद्युत गृह बीरसिंहपुर में पर्याप्त रखरखाव नहीं होने से कम विद्युत का उत्पादन हुआ, जिससे कंपनी को पिछले तीन सालों में सात हजार करोड़ का नुकसान हुआ। सबसे महंगी बिजली मध्यप्रदेश में ही मिल रही भाजपा के तमाम राज्यों की तुलना में सबसे अधिक महंगी बिजली मध्यप्रदेश में ही दी जा रही है, जबकि 10 साल पहले सरकार बनाते वक्त जितनी बिजली उतने दाम का नारा दिया था, लेकिन हर साल बिजली कंपनियां नियमाक आयोग के साथ सांठगांठ कर दरें बढ़वाती रही हैं। मध्यप्रदेश में 500 यूनिट से अधिक की खपत पर 5 रुपए 55 पैसे से अधिक की दर है, जो कि छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान की तुलना में अधिक तो है ही वहीं अन्य मदों में भी अधिक राशि वसूल की जाती रही है। प्रदेश में फ्यूल चार्ज के नाम पर बिजली की दरों में चाहे जब इजाफा किया जा रहा है। एक जनवरी से एफएसी (फ्यूल एडस्टमेंट कास्ट) के नाम पर 8 पैसे प्रति यूनिट की बढ़ोतरी कर दी गई। इतना ही नहीं हर तीन माह बाद एफएसी के नाम पर बिजली की दरों में बढ़ोतरी की जा रही है। जुलाई से सितंबर 2013 की तिमाही में 16 पैसे प्रति यूनिट दाम बढ़ाए गए थे। इसी तरह पावर मैनेजमेंट कंपनी (पीएमसी ) ने अक्टूबर से दिसम्बर 2013 की तिमाही में 5 पैसे प्रति यूनिट एफएसी के नाम पर बढ़़ाए जाना प्रस्तावित किया था, लेकिन विधानसभा चुनाव के चलते राज्य सरकार ने उक्त फ्यूल चार्ज को बिल में नहीं बढ़ाया। पीएमसी ने विद्युत नियामक आयोग को जनवरी से मार्च तक के लिए 8 पैसे और विधानसभा चुनाव के दौरान प्रस्तावित 5 पैसे प्रति यूनिट की बढ़़ोतरी का प्रस्ताव भेजा था। जिस पर आयोग ने केवल 8 पैसे बढ़ोतरी की अनुमति दी। अक्टूबर से दिसंबर तक का एफएएसी 5 पैसे बढ़ाने के प्रस्ताव पर याचिका के देने को कहा। मप्र के बिजली अधिकारियों का कहना है कि थर्मल पावर में उपयोग होने वाले कोयले एवं तेल आदि फ्यूल की दामों में बढ़ोतरी होने की वजह से दाम बढ़़ाए जाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि प्रदेश में जनरेशन पावर कंपनी (जेनको) के 2932 मेगावाट के थर्मल पावर प्लांट हैं। वहीं गुजरात में 3270 मेगावाट के थर्मल पावर प्लांट हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि गुजरात को कोयले का परिवहन अधिक लगने से उसे अन्य राज्यों की तुलना में कोयला अधिक दामों पर पड़ता है। इसी तरह राजस्थान में 4420 मेगावाट के थर्मल पावर प्लांट होने से उनके यहां कोयले की खपत मप्र से कहीं ज्यादा है। उसके बावजूद वहां पर मप्र से सस्ती बिजली दी जा रही है। उल्लेखनीय है कि अपीलेट ट्रिब्यूनल फॉर इलेक्ट्रिसिटी के आदेश पर सभी राज्यों में बिजली कंपनियां फ्यूल एडजस्टमेंट कॉस्ट बिजली बिलों में जोड़ रही हैं। 23 प्रतिशत दर बढ़ाने का लिया था प्रस्ताव जनवरी माह में प्रदेश की तीनों बिजली कंपनियों द्वारा नियामक आयोग के समक्ष हर साल याचिकाएं दायर की जाती हैं जिन पर उपभोक्ताओं से सुझाव तथा आपत्तियां लेते हैं और सुनवाई का ढोंग भी किया जाता है, मगर घाटे का हवाला देकर हर साल बिजली की कीमतें बढ़ाने की अनुमति आयोग देता रहा। इस साल भी बिजली कंपनियों ने 23 प्रतिशत दरों में बढोतरी के प्रस्ताव तैयार किए थे, मगर लोकसभा चुनाव और दिल्ली सरकार के निर्णय के कारण निर्णय लिया गया कि 23 प्रतिशत की बढोतरी के प्रस्ताव को बदलवाया जाए और घरेलू तथा व्यावसायिक दरों में कोई वृद्धि न करने का निर्णय लिया गया। बिजली की दरें नहीं बढ़ाने के पीछे की कहानी हर साल ये बिजली कंपनियां नियामक आयोग के समक्ष घाटे का हवाला देकर बिजली की दरें बढ़वा लेती हंै। प्रदेश की मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी,पश्चिमी क्षेत्र विद्युत वितरण और पूर्वी क्षेत्र वितरण कंपनी लगभग 15 हजार करोड़ रुपए के घाटे में चल रही हंै, क्योंकि बिजली चोरी और पारेषण क्षति के कारण घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए ये कंपनियां हर साल नियामक आयोग के माध्यम से बिजली की दरेंं बढ़वा लेती हैं और प्रदेश के ईमानदार बिजली उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकाना पड़ती रही। यहां तक कि आयोग के अध्यक्ष का पद भी शासन ने बड़ी होशियारी से बदल दिया। पहले जहां सेवानिवृत्त हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अध्यक्ष हुआ करते थे उसकी जगह शासन ने सेवानिवृत्त नौकरशाहों खासकर मुख्य सचिव को बैठाना शुरू कर दिया, जो शासन की कठपुतली के रूप में काम करते रहे और आम उपभोक्ताओं को राहत देने की बजाय बिजली कंपनियों और शासन का ही पक्ष लेते रहे। मगर नई दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी ने बिजली के मुद्दे को ही जोरदार तरीके से भुनाया और सरकार बनाने के बाद बिजली के दामों में कमी तो कर दी, वहीं पहली बार तमाम बिजली वितरण कंपनियों का ऑडिट कराने का भी निर्णय लिया। अब लाख कांग्रेस, भाजपा आप पार्टी की आलोचना करे, मगर उसके इफेक्ट के चलते तमाम राज्य सरकारों को कई जनहित के फैसले लेना पड़ रहे हैं, उसी कड़ी में शिवराज सरकार ने भी बिजली के दाम नहीं बढ़ाने का फैसला किया और जब से इन कंपनियों का गठन हुआ है उसके बाद यह पहला मौका है जब दरों में कोई इजाफा नहीं किया जा रहा है। दरअसल अभी लोकसभा चुनाव है और कांग्रेस जोर-शोर से दिल्ली की तर्ज पर इस मुद्दे को यहां भी उठाने की तैयारी में थी और आप पार्टी ने भी इस मुद्दे को हथियार बनाना तय किया था। लिहाजा घबराई शिवराज सरकार ने कंपनियों को निर्देश दिए कि वह इस बार दरों में बढोतरी का प्रस्ताव नियामक आयोग को नहीं सौंपें। इस संबंध में मध्यप्रदेश बिजली प्रबंधन कंपनी की सफाई यह है कि चूंकि अच्छी बारिश के कारण बिजली का उत्पादन बढ़ गया, वहीं शासन सहित अन्य निजी बिजली उत्पादन संयंत्र चालू हो गए हैं, जिसके चलते एक हजार मेगावाट से अधिक सस्ती बिजली प्रदेश को मिलने लगी है। यह बात अलग है कि अभी भी ये सारी बिजली कंपनियां करोड़ों रुपए के घाटे में है और दिल्ली की तर्ज पर इन कंपनियों का भी ऑडिट करवाने की बात जोर पकडऩे लगी है, क्योंकि साल में एक बार नियामक आयोग से दरें बढ़वाने के अलावा एक प्रावधान और कर रखा है कि सिविल कास्ट में बढोतरी के चलते हर तीन-तीन माह में ये कंपनियां बिजली की दर खुदबखुद बढ़ा सकेंगी, इसके चलते पिछले ही दिनों प्रति यूनिट बिजली की दर में कुछ इजाफा हो गया। मगर फिलहाल तो इस साल उपभोक्ताओं को महंगी बिजली के झटके से राहत मिल गई है। कहीं शुरू होने के पहले ही न उड़ जाए मालवा पॉवर प्रोजेक्ट का फ्यूज मध्यप्रदेश में बढ़ती हुई बिजली की खपत के लिए लगाए जाने वाले श्री सिंगाजी थर्मल पावर प्रोजेक्ट के द्वितीय चरण की महत्वाकांक्षी परियोजना के प्रारंभ होने से पहले ही प्रदेश सरकार की परेशानी बढ़ गई है। मालवा में प्रथम चरण की परियोजना में 2&600 मेगावॉट की यूनिटें स्थापित करने के बाद मप्र जनरेटिंग कंपनी को द्वितीय चरण में 2&660 मेगावॉट की यूनिटें लगाने की जिम्मेवारी सौंपी गई थी। मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी ने इस काम के लिये अगस्त के पहले हफ्ते में टेन्डर भी खोले थे। भारत सरकार के ऊर्जा विभाग ने किसी भी ऐसी विद्युत परियोजना को प्रारंभ करने के जो नियम बनाये हैं उसमें अनेक विभागों की स्वीकृति लेनी पड़ती है। वन एवं पर्यावरण विभाग की अनापत्ति एवं कोल लिन्केज के लिये पूर्व स्वीकृति होना अनिवार्य होता है। परन्तु उपर्युक्त परियोजना हेतु इन दोनों ही स्वीकृति के पहले ही टेन्डर आमंत्रित कर लिये गये । सितंबर माह में विधानसभा चुनाव के पूर्व इस परियोजना के विधिवत उद्घाटन की तैयारी थी। सियायत इस तरह गर्माई कि कांग्रेस द्वारा केन्द्र में ऊर्जा विभाग की कमान थामे राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश में चुनाव अभियान की कमान सौंप दी गई। चुनाव उद्घाटन की घोषणा कहीं मुद्दा न बन जाए इसलिये आनन-फानन मप्र शासन के वित्त विभाग के उच्च अधिकारियों द्वारा लगाई गई आपत्ति के कारण न तो मप्र पावर जनरेटिंग कम्पनी और न ही मध्य प्रदेश शासन का ऊर्जा विभाग इस पर कोई निर्णय ले सका। अब भोपाल में लगभग 5000 करोड़ रु. के इस प्रोजेक्ट में शीघ्र आदेश देने के लिये लॉबिंग चल रही है। एलएंडटी कंपनी इस ऑडिट को शीघ्र लेना चाहती है। प्रदेश सरकार में ही अधिकारियों की दो लॉबी काम कर रही हैं। एक तरफ ऊर्जा विभाग के कुछ अधिकारी इस परियोजना को केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन विभाग की स्वीकृति एवं बिना कोल लिंकेज के चालू करने पर जोर दे रहे हैं, वहीं कुछ अन्य अधिकारी जिसमें वित्त विभाग के महत्वपूर्ण अफसर भी हैं, चाहते हैं कि परियोजना का आर्डर देने से पहले सभी विभागों से आवश्यक स्वीकृति ले ली जाए, ताकि यह योजना निर्बाध गति से चल सके। इन अधिकारियों का मानना है कि यदि वन एवं पर्यावरण विभाग ने स्वीकृति नहीं दी और कोयले का लिंकेज नहीं मिला तो प्रदेश सरकार की बड़ी रकम फंस जाएगी और प्रदेश सरकार पर अक्षमता और भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे। दक्षिण के राज्यों को बिजली बेचने की प्लानिंग बिजली दूसरे राज्यों में बेचने का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। प्रदेश सरकार दक्षिण के राज्यों को सबसे बड़ा ग्राहक मान रहा है। जहां बिजली की डिमांड अधिक है। जल्द ही उप्र और आंध्र के बाद कर्नाटक में बिजली बेचने का टेंडर भरा जाएगा। बिजली कंपनी अकेले इन्हीं स्टेट से करीब 500 करोड़ का मुनाफा एक साल के अंदर कमाएगी। प्रदेश में बिजली का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। सरकार अब जरूरत से अधिक बिजली को दूसरे राज्यों में बेचने में जुट गई है। ताकि मुनाफा कमाया जा सके। शुरूआत उत्तरप्रदेश से हुई। जहां अगस्त में 450 मेगावाट और जुलाई में लगभग 750 मेगावाट सप्लाई देना है। आंध्रप्रदेश में मई 2014 से मई 2015 तक 200 मेगावाट बिजली आपूर्ति करना है। यदि सबकुछ ठीक हुआ तो 500 करोड़ को बिजली बेचकर कंपनी को मुनाफा होगा। पॉवर मैनेजमेंट कंपनी प्रबंध संचालक मनु श्रीवास्तव के मुताबिक फरवरी माह में कर्नाटक में भी टेंडर डाला जाएगा। हमारे पास फिलहाल बिजली पर्याप्त है। उनके मुताबिक आय बढ़ाने के लिए साउथ की स्टेट में अधिक संभावना है। उन्होंने बताया कि ग्रिड की कनेक्टिविटी होने के कारण आसानी से बिजली की सप्लाई हो सकती है। बिजली टैरिफ पर सरकार का फोकस लोकसभा चुनाव में कहीं महंगी बिजली झटका न दे दे...इसको लेकर प्रदेश सरकार चिंतित है। बिजली टैरिफ को लेकर बिजली कंपनियों द्वारा नियामक आयोग को भेजे जाने वाले प्रस्ताव सिर्फ इसलिए फाइनल नहीं हो पा रहे, क्योंकि उनमें काट-छांट कर जनता को राहत देने का फॉर्मूला तय नहीं हो पा रहा। पूरी एक्सरसाइज करने के लिए कंपनियों को एक्स्ट्रा समय की जरूरत है। ऊर्जा मंत्री ने अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार किया कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी बिजली टैरिफ को लेकर गंभीर हैं। पूरा फोकस इस बात पर है कि उत्पादन और वितरण के खर्च को कम किया जा सके ताकि जनता को सस्ती बिजली उपलब्ध कराना संभव हो। उन्होंने कहा कि सरकार सब्सिडी बढ़ाकर राहत देने के पक्ष में नहीं क्योंकि यह उपाय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नहीं। वैसे भी प्रदेश सरकार बिजली पर 3 हजार करोड़ की सब्सिडी पहले से ही दे रही है।

टाइगर के बाद अब पैंथर भी गायब

वन्य प्राणियों की गणना में सामने आया तथ्य
भोपाल। प्रदेश में 20 से 27 जनवरी तक चली वन्य प्राणियों की गणना में प्रारंभिक तौर पर जो तथ्य सामने आए हैं वह चौकाने वाले हैं। अभी तक जो जानकारी आई है उसके मुताबिक अभयारण्यों में बाघ(टाइगर) के होने के तो बहुत सबुत मिल रहे हैं,लेकिन तेंदुए(पैंथर) के पगमार्क बहुत कम मिल रहे हैं। इससे वन अधिकारियों के होश उड़े हुए हैं। अब तक मिले संकेतों के आधार तेंदुए के अलावा अन्य कई मांसाहारी प्राणियों की संख्या घटने का अंदेशा है,जबकि शाकाहारियों की संख्या में ईजाफा देखने को मिल रहा है। गिनती के बाद सारी जानकारी और डाटा देहरादून स्थित वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को भेजा जाएगा। वहां से आधिकारिक तौर पर प्रदेश में के वन्य प्राणियों की संख्या की जानकारी जारी होगी। मांसाहारी वन्य प्राणियों की गणना के अंतिम दिन तक जो आंकड़े सामने आए हैं, उसने वन विभाग की नींद उड़ाकर रख दी है। अभी तक की गणना में जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे प्रदेश के जंगलों से तेंदुओं की बादशाहत खत्म होने की संभावना बलवती हो गई है। वन विभाग के तीन दशक पूर्व के आंकड़ों पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो वर्ष 1990 तक प्रदेश में बाघ का राज्य कायम रहा। बाघ की बादशाहत खत्म होने के बाद तेंदुओं की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ और बाघ के बाद तेंदुओं ने जंगल की कमान सम्हाल ली। वर्ष 2008- 2009 में की गई वन्य प्राणियों की गणना में 912 तेंदुए पाए गए थे। 2011 के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश 1,010 तेंदुए थे। मध्यप्रदेश छहों टाइगर पार्क कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान के अलावा प्रदेश के अन्य वन क्षेत्रों में बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर, जंगली सुअर, भालू, काला हिरण, उडऩ गिलहरी, मूषक मृग, नील गाय, चिंकारा, जंगली कुत्ता इत्यादि बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन 20 से 27 जनवरी तक वन्य प्राणियों की गणना में तेंदुओं के पगमार्क, मल आदि ऐसे कम चिन्ह नहीं मिले हैं जो तेंदुओं की मौजूदगी का अहसास करा रहे हों। संचालक बांधवगढ़ क्षेत्र सुधीर कुमार कहते हैं कि तेंदुओं की असली संख्या वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के बाद ही बताया जा सकता है। इस बार 20 जनवरी से शुरू हुई वन्य प्राणियों की गणना में अभी तक इंदौर में 6,देवास में 27,रतलाम में 2,मंदसौर में 10,भोपाल में 4 तेंदुए के होने के संकेत मिले हैं। वहीं झाबुआ,नीमच,उज्जैन,शाजापुर,चित्रकूट, मझगवां सतना, नागौद, उचेहरा,सिंहपुर और बरौंधा में तेंदुए के पगमार्क नहीं मिले हैं लेकिन ग्रामीणों ने देखने की पुष्टि की है। हालांकि वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि हो सकता है कि बारिश की वजह से पगमार्क और अन्य चिन्ह मिट गए हों। तेंदुओं की संख्या में कमी हो सकती है लेकिन मौजूदगी होने के पूरे चान्स हैं। वन्य प्राणियों की गणना से जो रुझान अब तक प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक मांसाहारी वन्य प्राणियों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है तो वहीं शाकाहारी जीव जन्तु प्रदेश के जंगलों में बहुतायत मात्रा में दिखाई दे रहे हैं। सतना, मैहर,नागौद और सिंहपुर, नागौद,बरौंधा,चित्रकूट में बंदर,जंगली सुअर,सांभर,नीलगाय,खरगोश,हिरण,चिंकारा,भेड़की आदि शाकाहारी के मौजूद होने की जानकारी गणना कार्य में लगे कर्मचारी दे रहे हैं। बताया जाता है कि इस क्षेत्र में भालू को स्पष्ट रूप से तो नहीं देखा गया है लेकिन पेड़ों और जमीन पर खुरचने के निशान मिले हैं जिससे संभावना जताई जा रही है कि यहां पर भालू मौजूद है। गणना के मापदंड पंजे के निशान। पेड़ पर खरोंच के निशान। जंगल कितना घना है, जहां बाघ या तेंदुए रह सकते हैं। हिरण या मवेशियों की संख्या, जिनको खाकर वह जीवित रहता हो। गाय या भैंस के मारने के प्रकरण, आदि जानकारी देहरादून भेजी जाती है। वैज्ञानिक तरीके से पता लगाया जाता है कि क्षेत्र में कितने बाघ या तेंदुए हो सकते हंै। इस तरह की गणना 2005, 2008 में और अब 2014 में हुई है। हर माह दो तेंदुओं की मौत मध्यप्रदेश के वनों से बाघ की घटती संख्या से चिंतित सरकार को अब तेंदुए की कम होती संख्या ने परेशानी में डाल दिया है। प्रदेश में हर माह औसत दो तेंदुओं की मौत हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष-2002 से लेकर 2012 तक के दस सालों में मध्यप्रदेश में 155 तेंदुओं की मृत्यु रिकॉर्ड की गई, जिनमें से 98 अवैध शिकार के खाते में गए। केवल 2011 में 43 तेंदुए मरे, जिनमें से 21 तस्कर-शिकार के घाट उतर गए। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, अंतरराष्टीय स्तर पर तेंदुओं की खाल और हड्डियों की भारी मांग है। चीन में बाघ की हड्डियों का इस्तेमाल पारंपरिक दवाइयों में किया जाता है। इस समय बाघ संरक्षित जीव है, इसलिए इसकी हड्डियों को पाना काफी मुश्किल है। दूसरी तरफ, तेंदुआ आसानी से उपलब्ध हो जाता है। तेंदुए और बाघ की हड्डियों में अंतर बता पाना काफी मुश्किल होता है। अंतर सिर्फ इतना है कि तेंदुए की हड्डियां छोटी होती हैं, इसलिए अवैध शिकारी इन्हें बाघ के शावक की हड्डियां कहकर बेचते हैं। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक वर्ष 2010 में अवैध शिकार के चलते देश में 180 तेंदुओं की मौत हुई थी। डब्ल्यूपीएसआई के मुख्य परिचालन अधिकारी टीटो जोसफ कहते हैं कि इंसान के साथ हुए संघर्ष के बाद हुई मौतों के आंकड़े को भी जोड़ लें तो यह संख्या 328 तक पहुंच जाती है। इस साल के पहले 6 महीनों में अभी तक अवैध शिकार के चलते 79 मौत हो चुकी हैं, जबकि आबादी में घुसने के कारण 90 तेंदुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। सरकार की उदासीनता दुर्भाग्य से सरकार को इनकी कोई फिक्र नहीं है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत तेंदुआ एक संरक्षित प्राणी है। इसके बावजूद बाघों की तुलना में सरकार ने तेंदुओं के संरक्षण के लिए कोई कार्यक्रम तैयार नहीं किया है। डीएसपी मेरिल लिंच के पूर्व चेयरमैन और अब वाइल्डलाइफ कंजरवेशन ट्रस्ट चला रहे हेमेंद्र कोठारी कहते हैं, हम पहले से ही बाघ परियोजना चला रहे हैं। तेंदुओं की सुरक्षा के लिए भी यही सिद्धांत अपनाया जाना चाहिए। एक अलग परियोजना के बजाय हमें जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। तेंदुओं का लगातार मारा जाना चिंता का विषय है लेकिन सरकार के पास देश में कुल तेंदुओं से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं है। बाघों की गणना के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हर 4 साल में अभियान चलाया जाता है, लेकिन तेंदुओं की गणना के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जाता है। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक बीते 10 साल में 1 बाघ की तुलना में 6 तेंदुओं का अवैध शिकार हो रहा है। इसके बावजूद तेंदुओं की अनदेखी हो रही है। तेंदुए के शिकार के 160 मामले लंबित मप्र की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मप्र के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। इन मामलों में अब तक फैसला नहीं तेंदुए के शिकार का सबसे पुराना प्रकरण 40 वर्ष पूर्व नौ जुलाई 1973 को प्रदेश के शिवपुरी जिले में दर्ज किया गया था, जो अब तक निर्णय के लिए अदालत में लंबित है। प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 39 वर्ष पूर्व 14 फरवरी 1975 से एक और तेंदुए के शिकार का मामला अदालत में अब तक चल रहा है। बाघों के लिए अच्छी खबर पन्ना में बाघों की पुनर्बसाहट के अच्छे परिणामों के बाद मध्यप्रदेश को 'टाइगर स्टेटÓ का खोया राष्ट्रीय दर्जा लौटाने की मुश्किल चुनौती का सामना कर रहे वन विभाग के लिए ये ताजा संकेत बेहद अहम हैं। महकमे को प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जंगलों में वन्य प्राणियों की गिनती के दौरान कम से कम चार बाघों की मौजूदगी के निशान मिले हैं। इंदौर रेंज के मुख्य वन संरक्षक (सीसीएफ) आर ओखंडियार ने बताया, जंगली जानवरों की गिनती के दौरान हमें रेंज में कम से कम एक बाघ की उपस्थिति के संकेत मिले हैं। उन्होंने बताया कि वन विभाग कोशिश कर रहा है कि बाघ की मौजूदगी के ज्यादा से ज्यादा सबूत जमा किए जाएं, ताकि रेंज के जंगलों में इस प्राणी की बसाहट की तसदीक करने में आसानी हो। उज्जैन रेंज के सीसीएफ पीसी दुबे ने बताया कि वन्य प्राणियों की गणना के वक्त नजदीकी देवास जिले के उदय नगर क्षेत्र के जंगलों में कम से कम तीन बाघों की मौजूदगी के पुख्ता सबूत मिले हैं। दुबे ने कहा, इनमें से दो बाघों को तो वन विभाग के कर्मचारियों ने अपनी आंखों से देखा है, जबकि एक अन्य बाघ के पदचिन्ह पाए गए हैं। उन्होंने बताया कि उदय नगर क्षेत्र में बाघ की मौजूदगी के बारे में वन विभाग को ग्रामीणों से सूचनाएं प्राप्त होती रही हैं। क्षेत्र में बाघ द्वारा ग्रामीणों के मवेशियों के शिकार के सबूत भी मिले हैं। सीसीएफ ने बताया कि उज्जैन रेंज में बाघों की मौजूदगी के नये संकेतों के मद्देनजऱ वन विभाग इस प्राणी के संरक्षण के लिये नये सिरे से योजना बना रहा है। भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) की एक रिपोर्ट में मध्यप्रदेश के इंदौर और देवास वन क्षेत्रों में करीब सात बाघों की मौजूदगी का अनुमान पहले ही लगाया जा चुका है। डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट 'स्टेटस ऑफ टाइगर्स, को प्रेडटर्स एंड प्रे इन इंडिया-2010Ó के शीर्षक से जारी की गयी थी।

मास्टर से मास्टरमाइंड बन बैठे त्रिवेदी बंधु

एसटीएफ के बाद लोकायुक्त ने भी कसा शिकंजा भोपाल। कुछ साल पहले तक कॉलेजों में पढ़ाने वाले पंकज और पीयूष त्रिवेदी देखते ही देखते मप्र की शिक्षण व्यवस्था के नीति निर्धारक बन बैठे। इन दोनों भाईयों के रसूख का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है की बिना उचित योग्यता के ही पंकज त्रिवेदी व्यावसायिक परीक्षा मंडल के सर्वेसर्वा बन बैठे,वहीं उनके भाई पीयूष त्रिवेदी राजीव गांधी प्रद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति बन बैठे। दोनों भाईयों ने अपने-अपने संस्थान को भ्रष्टाचारियों का चारागाह बना दिया। एसटीएफ ने व्यापमं में हुए फर्जीवाड़े का खुलाशा करके पंकज त्रिवेदी की हकीकत सामने ला दिया है। वहीं अब लोकायुक्त के छापे के बाद पीयूष त्रिवेदी की किताब भी खुलेगी,क्योंकि अब आयकर विभाग ने भी तहकीकात में जुटा हुआ है। लेक्चरर से करोड़पति तक का सफर पंकज त्रिवेदी ऐसे अफसर निकले हैं, जो दूसरों की तुलना में पैसे कमाने में सबसे आगे थे। लोकायुक्त की टीम ने जब जांच की, तो यह बात सामने आई कि त्रिवेदी का सफर आट्र्स एंड कॉमर्स कॉलेज में बतौर लेक्चरर के रूप में हुआ था। पंकज जो कभी शिक्षक थे बच्चों को नैतिक गुण सिखाया करते थे आज अनैतिकता की सारी सीमा लांघी। राजनीतिक पहुंच और तिकड़म से व्यापमं के डायरेक्टर बने। नियमों को बदलकर इनको परीक्षा नियंत्रक के साथ-साथ डायरेक्टर भी बनाया गया और करोड़ों में खेलने लगे। अपने कार्यकाल के दौरान 60 से अधिक प्रवेश एवं भर्ती परीक्षाओं में जमकर घोटाला किया। उनके खिलाफ नियुक्तियों और पीएमटी घोटाले के मामले में छह प्रकरण भी दर्ज हुए हैं। आज वे जेल में हैं और बाहर रोजाना उनकी करतूतों का एक न एक खुलासा हो रहा है। अभी तक एसटीएफ ने पंकज त्रिवेदी की कमाई का खलासा किया था उससे सब हैरान थे कि इन्होंने इतनी कमाई किस तरह कर ली। अब लोकायुक्त के छापे में कई खुलासे हुए हैं और कई सामने आने वाले हैं। छापे में लोकायुक्त पुलिस को पंकज त्रिवेदी के इंदौर स्थित मकान से 53 हजार रुपए नकद, 2.25 लाख रुपए के गहने, 1 प्लॉट और दो मकान, एलआईसी की 55 हजार रुपए की पॉलिसी और 3 लाख रुपए के एफडी के कागजात मिले हैं। यह संपत्ति करीब 3 करोड़ रुपए की बताई जा रही है।भोपाल के शाहपुर में बैंक ऑफ बड़ौदा की शाहपुर ब्रांच में एक लॉकर में सोने और चांदी की चीजें मिलीं हैं। इन सब के अलावा कई बेनामी संपतियों के दस्तावे मिले हैं। फाइलों में फर्जीवाड़े की कहानी लोकायुक्त के छापे में पंकज और पीयूष त्रिवेदी के ठिकानों से कई फाइलें मिली हैं जिनमें व्यापमं फर्जीवाड़े की कहानियां छिपी हैं। प्रारंभिक जांच में यह तथ्य सामने आया है कि मेडिकल घोटाले के लिए गड़बडिय़ों दो स्तरों पर हुईं। एक तो व्यापमं के स्तर पर और दूसरी पीएमटी के परीक्षा नियम बनाने के लिए जिम्मेदार मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग के स्तर पर। नियम यह था कि निजी मेडिकल कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटें राज्य सरकार के कोटे से भरी जाएंगी, लेकिन निजी कॉलेजों को सारी सीटें चाहिए थी, इसके लिए उन्होंने डॉ. जगदीश सागर, संजीव शिल्पकार, सुधीर रॉय और आईएएस अधिकारी के रिश्तेदार तरंग शर्मा जैसे दलालों का हाथ थामा और दलाल अपने मनचाहे छात्रों को पास करवाने के लिए यूपी, बिहार, राजस्थान से जिन 'स्कोररÓ को लेकर आते थे, उनका उपयोग करना शुरू किया। ये 'स्कोररÓ जिन मुन्ना भाइयों को नकल करवाते थे वे तो सरकारी कॉलेजों में प्रवेश ले लेते थे और स्कोरर अच्छे नंबर आने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ निजी कॉलेजों में सीटें ब्लाक कर लेते थे तथा प्रवेश की अंतिम तारीख को अपना नाम वापस ले लेते थे। खाली हुई सीटों पर निजी मेडिकल कॉलेज संचालक तगड़ा डोनेशन लेकर मनचाहे छात्रों को प्रवेश दे देते थे पर यहां समस्या यह खड़ी हुई कि कई स्कोरर ऐसे थे जिनकी उम्र 25 वर्ष से ज्यादा थी। देशभर की सारी परीक्षाओं में मेडिकल के लिए अधिकतम प्रवेश सीमा 25 वर्ष है। यहां पर काम आए चिकित्सा शिक्षा विभाग के जिम्मेदार नेता, अधिकारी जिन्होंने पीएमटी के जरिए प्रवेश के लिए न्यूनतम उम्र सीमा 17 वर्ष तो रखी लेकिन अधिकतम उम्र सीमा 25 वर्ष करने का नियम नहीं बनने दिया। नतीजा यह हुआ कि निजी मेडिकल कॉलेज सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत सीटों की सीमा के बजाए वास्तविक रूप से 80 प्रतिशत सीटों तक पर कब्जा करने लगे। 54 परीक्षाएं संदेह के घेरे में व्यावसायिक परीक्षा मंडल के पूर्व परीक्षा नियंत्रक डॉ. पंकज त्रिवेदी के कार्यकाल में हुई करीब 79 चयन व भर्ती परीक्षाओं में से 54 संदेह के घेरे में आ गई हैं। इनमें ज्यादातर अलग-अलग विभागों के लिए हुई भर्ती परीक्षाएं शामिल हैं। पीएमटी के साथ ही पांच अन्य परीक्षाओं में गड़बड़ी का खुलासा करने के बाद स्पेशल टास्क फोर्स बाकी परीक्षाओं की भी जांच शुरू करने जा रही है। जानकारी के अनुसार प्री-पीजी, फूड इंस्पेक्टर, दुग्ध संघ, सूबेदार-उप निरीक्षक, प्लाटून कमांडर व पुलिस आरक्षक भर्ती परीक्षा के अभी तक मिले 143 आरोपियों के अलावा एसटीएफ ने इन्हीं परीक्षाओं में शामिल बाकी परीक्षार्थियों की भी ओएमआर शीट जब्त करने की तैयारी कर ली है। जांच में एसटीएफ को गलत तरीके से परीक्षा पास करने वाले और भी परीक्षार्थियों के सामने आने की उम्मीद है। इन पांच परीक्षाओं में शामिल कुल परीक्षार्थियों की संख्या 4 लाख 91 हजार 323 है। अभी तक दस परीक्षाएं संदेह के घेरे में आ चुकी हैं। जिनमें से सात का खुलासा एसटीएफ ने कर दिया है। बाकी तीन परीक्षाओं के रिकॉर्ड व्यापमं से मांगे गए हैं। एआईजी एसटीएफ आशीष खरे के अनुसार रिमांड पर चल रहे आरोपियों से पूछताछ में अभी और भी परीक्षाओं में गड़बड़ी की बात सामने आ सकती है। त्रिवेदी के कार्यकाल में हुईं महत्वपूर्ण भर्ती परीक्षाएं वनरक्षक भर्ती परीक्षा, एमपी स्टेट टूरिज्म डायरेक्ट बैकलाग, पुलिस कांस्टेबल, जेल डिपार्टमेंट भर्ती परीक्षा, सब इंजीनियर (सिविल) भर्ती परीक्षा, स्टॉफ नर्स भर्ती परीक्षा, पैरामेडिकल स्टॉफ के लिए आयुष डिपार्टमेंट भर्ती परीक्षा, कंबाइंड असिस्टेंट ग्रेड तीन, एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर, खेल विभाग असिस्टेंट ग्रेड तीन भर्ती परीक्षा, फॉरेस्ट गार्ड भर्ती परीक्षा, कंबाइंड सब इंजीनियर भर्ती परीक्षा, आबकारी आरक्षक भर्ती परीक्षा। ट्रांसपोर्ट भर्ती परीक्षा, मत्स्य विभाग के लिए भर्ती परीक्षा, पब्लिक वर्क डिपार्टमेंट के लिए भर्ती परीक्षा तथा पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के लिए भर्ती परीक्षा। व्यापमं द्वारा आयोजित पीएमटी परीक्षा में सनसनीखेज फर्जीवाड़े के खुलासे के बाद आयकर विभाग ने उन अभिभावकों पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया है, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों के दाखिले के लिए 75 से 80 लाख रुपए बतौर घूस खर्च किए थे। साथ ही व्यापमं के अधिकारियों की संपत्ति की भी पड़ताल की जा रही है। पीयूष त्रिवेदी की शैक्षणिक योग्यता से लेकर कार्यप्रणाली तक पर सवाल राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर लंबे समय से पंकज त्रिवेदी के भाई पीयूष त्रिवेदी विराजमान हैं। इनकी शैक्षणिक योग्यता से लेकर कार्यप्रणाली तक पर सवाल उठे पर जब सत्ता और सत्ता के दलालों का वरदहस्त हो तो फिर क्या। बात 1978 की है जब लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) केटी सतारावला को जबलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्ति किया गया था तब उन्होंने कहा था कि मध्यप्रदेश के किसी विश्वविद्यालय में कुलपति बनने से बेहतर है किसी होटल का मैनेजर बनना। सतारावला ने यह बात किस नजरिए से कही थी यह तो वही जाने लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पीयूष त्रिवेदी एवं वहां के अन्य प्रशासनिक पदों पर आसिन लोगों की योग्यता कुछ यही दर्शा रही है। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्रा कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक और उपकुलसचिव प्रशासन एवं अन्य पदाधिकारी अपात्र होते हुए भी इन पदों पर आसीन है। ऐसे में यहां सरकारी कायदे- कानून को ताक पर रखकर शैक्षणिक गतिविधियों की जगह मनमानी की पाठशाला चलाई जा रही है। कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी राजभवन और राज्य सरकार से बिना अनुमति लिए ही पदों का सृजन कर उन पर अपने चहेतों को बिठा रहे हैं। ऐसा भी नहीं की विश्वविद्यालय में व्याप्त इस भर्राशाही की खबर राजभवन और तकनीकी शिक्षा विभाग को नहीं है लेकिन शासन मौन तो देखे कौन की तर्ज पर यहां सब कुछ चल रहा है। उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सशक्त भारत का सपना देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री ने जो सपना देखा था उसे साकार करते हुए प्रदेश में तकनीकी शिक्षा युक्त मानव संसाधन की बदलती आवश्यकताओं को देखते हुए राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना मध्यप्रदेश विधानसभा एक्ट 13 के तहत 1998 में भोपाल में की गई। विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि शिक्षा एवं शिक्षा संसाधन की गुणवत्ता में वृद्धि हो, कंसलटेंसी, सतत शिक्षा, शोध एवं विकास गतिविधियों के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाए,इंडस्ट्री के साथ परस्पर लाभ हेतु मजबूत संबंध बने, छात्रों में स्वरोजगार की भावना का विकास किया जाए और भूतपूर्व छात्रों में सतत् संपर्क एवं उनके प्रायोजित विकास प्रोग्राम बनाया जाए लेकिन विश्वविद्यालय में छात्रों का भविष्य तय करने वाले ही जब अपात्र हैं तो राजीव गांधी का सपना कैसे सकार होगा यह शोध का विषय है। बात करते हैं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी की। विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति (गवर्नर) द्वारा राज्य सरकार के बिना हस्तक्षेप के की जाती है। धारा 12 (1) विश्वविद्यालय की उपधारा (2) या (6) के अंतर्गत गठित समिति द्वारा तैयार तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात कम से कम तीन व्यक्तियों के पैनल में से किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति कुलपति के रूप में कुुलाधिपति द्वारा की जाती है लेकिन तात्कालिक गवर्नर बलराम जाखड़ से अपने नजदीकी संबंधों और गवर्नर हाउस के कुछ अधिकारियों की मेहरबानी से प्रोफेसर त्रिवेदी कुलपति बनने में सफल रहे। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए प्रौद्योगिकी या तकनीकी क्षेत्र का प्रोफेसर होना चाहिए जबकि प्रो. त्रिवेदी फार्मेसी के प्राध्यापक है। अत: नियमों के तहत देखा जाए तो इनकी नियुक्ति पूर्णत: गलत है। नियुक्तियों में फर्जीवाड़ा राजीव गांधी प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढांचे को देखा जाए तो हम पात हैं कि यह विश्वविद्यालय प्रभारी अधिकारियों के हवाले है। आरजीपीव्ही में कुल सचिव- रजिस्ट्रार, अधिष्ठाता छात्र कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक, उप कुलसचिव प्रशासनिक सभी अधिकारी प्रभारी हैं। कोई लगभग चार वर्ष से तो कोई दस वर्षों से इन पदों पर प्रभारी के रूप में नियुक्त है। आरजीपीव्ही एक तकनीकी विश्वविद्यालय है किंतु कुलपति सहित इसके शीर्ष पदों कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्र कल्याण आदि पदों पर गैर तकनीकी अधिकारी पदस्थ हैं। जबकि विश्वविद्यालय अधिनियम में भी तकनीकी योग्यता प्राप्त अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान है। कुलपति पीयूष त्रिवेदी की पत्नी श्रीमती वंदना त्रिवेदी टीच फार इंडिया सोसाइटी की सदस्य सचिव हैं। जिसके 5 विभिन्न कॉलेज आरजीपीव्ही के अंतर्गत हैं। अब लोकायुक्त के छापे के बार सरकार लोकायुक्त बिल में बदलाव करें शिवराज: नावलेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भ्रष्टाचार पर जीरो टालेरेंस की बात करते आए हैं। लेकिन राज्य के लोकायुक्त पी पी नावलेकर का कहना है कि लोकायुक्तों के पास भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के भरपूर अधिकार नहीं हैं। जिससे मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम नहीं लग सकती है। उन्होंने कहा कि शिवराज को केंद्र सरकार के लोकपाल बिल की तरह राज्य के लोकायुक्त कानून में बदलाव लाने चाहिए। लोकायुक्त पी पी नावलेकर ने कहा कि मध्य प्रदेश का एक्ट स्टेट के हिसाब से काफी पावरफूल है क्योंकि हमने उस एक्ट से चार साल काम करके दिखाया है। लेकिन जो कांग्रेस सरकार का लोकपाल बिल आया है, उसका अध्ययन करने के बाद हमने पाया कि लोकायुक्त को कुछ पावर दी जा सकती हैं। अगर लोकायुक्त को वो पावर दी जाती हैं तो भ्रष्टाचार निवारण में लोकायुक्त ज्यादा कारगर होगा। पीपी नावलेकर ने कहा कि एमपी के लोकायुक्त एक्ट में अभी एमएलए, राज्यसभा सदस्य शामिल नहीं है। जबकि लोकपाल में एमएलए, राज्यसभा सदस्य को शामिल किया गया हैं। जिससे लोकपाल भ्रष्टाचार संबंधी कोई शिकायत मिलने पर उनकी जांच कर सकेगा। वैसे ही एमपी के लोकायुकत एक्ट में एमएलए को शामिल होना चाहिए क्योंकि सरकार विधायकों को लोगों के हित में कार्य करने के लिए फंड देती है।

अजिता पर इतनी मेहरबानी क्यों...?

अफसर भ्रष्ट हैं तो क्यों बचा रही है शिवराज सरकार?
भोपाल। इनदिनों देश में मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए अभियान चल रहा है ताकि लोकायुक्त बड़े भ्रष्टाचारी अफसरों को सलाखों के पीछे पहुंचा सके। वहीं मध्य प्रदेश में पारदर्शिता का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लोकायुक्त को कई आईएएस अफसरों के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने की इजाजत नहीं दे रहे हैं। इससे करोड़ों रूपए घोटाले के दागी अधिकारी अपने रसूख के कारण जमकर मलाई खा रहे हैं और छोटी-छोटी गलतियां करने वाले अधिकारी-कर्मचारी व्यवस्था की शूली चढ़ रहे हैं। ऐसे रसूखदार अधिकारियों की तो लंबी सूची है,लेकिन इनदिनों चर्चा में हैं अजिता वाजपेयी पांडे। हालांकि केंद्र सरकार से अनुमति मिलने के बाद लोकायुक्त ने अजिता के खिलाफ 8 जनवरी को लोकायुक्त कोर्ट में पूरक चालान पेश कर दिया गया है। विशेष न्यायाधीश लोकायुक्त वीपी शुक्ल की अदालत ने सुनवाई आगे बढ़ा दी है। 18 साल बाद मामला फिर सुर्खियों में अजिता पांडे वाजपेयी को अपर मुख्य सचिव (तकनीकी शिक्षा एवं कौशल)विभाग से हटा कर उन्हें अब योजना आयोग का सदस्य बनाया गया है। लेकिन उनका रसूख हमेशा ही कायम रहा है। उनके रसूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन पर तथा पांच और अधिकारियों पर कांग्रेस के शासनकाल में 1998 और 2003 में बिजली के मीटर को ऊंची दर पर खरीदी कर विद्युत मंडल को लगभग साढ़े छह करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाने का आरोप था। अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने बिना निविदा के मीटर की खरीदी का प्रस्ताव तैयार किया, इससे मंडल को नुकसान हुआ। शिकायत लोकायुक्त के पास पहुंची। 2004 में प्रारंभिक जांच में लोकायुक्त ने अनियमितता पाई और प्रकरण दर्ज करने के बाद न्यायालय में चालान पेश किया। 16 जून, 2007 को इस मामले में एक और आरोप पत्र पूर्व राज्य बिजली बोर्ड के अध्यक्ष एसके दासगुप्ता, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अजिता वाजपेयी पांडे और चार अन्य लोगों के खिलाफ लोकायुक्त पुलिस द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उसके बाद दिसंबर 2011 में मामले की सुनवाई के बाद न्यायाधीश प्रद्युम्न सिंह ने फैसले में पांच पूर्व अधिकारियों को दोषी बताया गया है। फैसले में कहा गया कि मंडल के नियमानुसार एक करोड़ से ज्यादा की खरीदी निविदा से होनी चाहिए, इसके बाद अधिकारियों को खरीदी के विशेष अधिकार दिए गए थे, लेकिन अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। न्यायाधीश ने पूर्व अध्यक्ष दासगुप्ता और अन्य एनपी श्रीवास्तव, प्रकाशचंद्र मंडलोई, बसंत कुमार मेहता व मोहन चंद को तीन-तीन वर्ष की सजा सुनाई है। साथ ही पांचों पर एक लाख एक हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया। लेकिन केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ होने के कारण केंद्र सरकार से अनुमति नहीं मिलने के कारण अजिता वाजपेयी पांडे का कहीं नाम नहीं आया। अजिता वाजपेयी पांडे पर भ्रष्टाचार का आरोप भले की कांग्रेस सरकार में लगे लेकिन उन्हें बचाने के लिए भाजपा सरकार ने भी उनकी खुब मदद की है। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लेकिन विडंबना यह देखिए की केंद्र से मंजूरी मिलने के बावजूद राज्य सरकार ने निर्णय पर पुनर्विचार की मांग करने के लिए लिखा है। 6 करोड़ का चूना लगाया था विद्युत मंडल को आईएएस अफसर श्रीमती पांडे पर ऊर्जा विभाग में रहते हुए मीटर खरीदी घोटाले का आरोप लगा था। उस समय वे विभाग में बतौर सदस्य वित्त के रूप में कार्यरत थीं। मामला वर्ष 1998 और 2003 का है, इस दौरान 70 हजार मीटर बिना टेंडर किए खरीदे गए थे। उस दौरान एक मीटर की कीमत 714 रुपए बताई गई थी, जबकि मीटर की वास्तविक कीमत 302 रुपए थी। इस मामले की शिकायत 2003 में लोकायुक्त में की गई थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए तत्कालीन चेयरमैन एसके दास गुप्ता पर मामला दर्ज किया गया था, लेकिन केंद्र सरकार की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण मामला लंबित था। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लोकायुक्त पुलिस श्रीमती पांडे सहित छह लोगों पर प्रकरण दर्ज करेगी। चार आरोपियों को हो चुकी है सजा- मामला मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल में वित्त सदस्य रहने के दौरान बहुचर्चित इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले में गड़बड़ी के आरोप से संबंधित है। अभियोजन के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले के जरिए सरकार को लगभग 6 करोड़ रुपये का चूना लगाया गया था। इस मामले में 2011 में चार आरोपियों को लोकायुक्त कोर्ट से सजा हो चुकी है। आपत्ति के कारण नहीं लिया संज्ञान सीनियर आईएएस अजिता बाजपेयी पाण्डेय के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति देर से मिलने के कारण 8 जनवरी को पूरक चालान पेश किया गया। हालांकि कोर्ट ने आपत्ति के मद्देनजर पूरक चालान पर संज्ञान नहीं लिया था। आपत्ति में कहा गया था कि लोकायुक्त ने नोटिस दिए बगैर एकपक्षीय तरीके से कार्रवाई को अंजाम दिया है। विधिवत अभियोजन मंजूरी ली इधर दूसरी ओर लोकायुक्त का कहना है कि इस मामले में कार्मिक विभाग नई दिल्ली से विधिवत अभियोजन स्वीकृति हासिल करने के बाद ही पूरक चालान पेश करने की प्रक्रिया पूरी की गई है। आरोपी अजिता वाजपेयी पांडे इन दिनों अपर मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं। दागी-दागी भाई-भाई प्रशासन तंत्र में बैठे आला दागीअफसर कैसे एक-दूसरे को नवाजते हैं। इसका खुलासा राज्य विधानसभा में दी गई एक जानकारी से हुआ। कांग्रेस विधायक आरिफ अकील के लिखित प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि जांच एजेंसी ईओडब्ल्यु व लोकायुक्त ने जिन अफसरों के खिलाफ चालान की अनुमति मांगी थी उन्हें चालान पेश होने से पहले ही पदोन्नत कर दिया गया। इनमें अपर मुख्य सचिव अजीता वाजपेयी पांडे भी शामिल हैं। श्रीमती पांडे पर मप्र राज्य विद्युत मंडल पर पदस्थापना के दौरान इलेक्ट्रानिक मीटर खरीदी में गोलमाल किए जाने का आरोप है। श्रीमती पांडे को पिछले साल सरकार ने पदोन्नत कर अपर मुख्यसचिव बना दिया। मुख्यमंत्री ने बताया कि लोकायुक्त की ओर से चालान पेश करने संबंधी अनुमति मांगे जाने का प्रस्ताव 28 जुलाई 2011 को राज्य शासन को मिला था। इसे 15 दिसंबर 2011 को केंद्र सरकार को भेजा गया। राज्य सरकार अजिता वाजपेयी पांडे को बचाने के लिए किसी भी कसर नहीं छोड़ नहीं है। आम तौर पर, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जैसे ही लोकायुक्त उन के खिलाफ आरोपपत्र प्रस्तुत करता है उन्हें निलंबित कर दिया जाता है, लेकिन पांडे अपवाद बन कर सामने आई हैं। 56 के खिलाफ चल रही जांच लोकायुक्त दफ्तर से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश के 34 आईएएस, 15 आईएफएस और 6 आईपीएस अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में जांच चल रही है। यहीं नहीं भ्रष्टाचार में मामलों में घिरे करीब 35 अफसर अब तक सेवानिवृत्त हो चुके हैं जिनके खिलाफ प्रकरण दर्ज हुए थे । सरकार कह रही है कि अब इन अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। बताया जाता है कि आरोपों की जांच पड़ताल के बाद लोकायुक्त ने इनके खिलाफ कार्रवाई के लिए सरकार को पत्र भी लिखा है लेकिन कार्रवाई तो दूर राज्य सरकार इनके खिलाफ लिखे गए पत्रों को पढऩे का वक्त तक नहीं निकाल पाई है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार की चुप्पी देख विपक्ष ने उसकी नीयत पर सवाल उठाए हैं। 10 फीसदी में ही प्रकरण दर्ज हो पाते लोकायुक्त संगठन में पहुंचने वाली शिकायतों में से जांच के बाद 10 फीसदी मामलों में ही आपराधिक प्रकरण दर्ज हो पाते हैं। फिर यह मामला नौकरशाहों का हो तब तो प्रकरण दर्ज होना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। लोकायुक्त संगठन के शिकायतों में तीन तरह की कार्यवाही होती है। जांच के लिए प्रकरण दर्ज किए जाते हैं, शिकायत विशेष स्थापना पुलिस को प्राथमिक जांच के लिए सौंपी जाती है या छापा मारने के बाद एफआईआर दर्ज की जाती है। जांच प्रकरणों में से जिन मामलों को केस दर्ज करने योग्य समझते हैं,उनमें एफआईआर दर्ज की जाती है। आईएएस के सुरेश भी घेरे में भ्रष्टाचार के मामले में वर्ष 1982 बैच के आईएएस के सुरेश के खिलाफ भी केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय द्वारा सीबीआई को अभियोजन की अनुमतिदिए जाने के संकेत हैं। इससे सुरेश की मुश्किलें बढ गई हैं। मध्यप्रदेश कॉडर के अधिकारी श्री सुरेश वर्तमान में यहां सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव हैं। उन पर भ्रष्टाचार का मामला उनके चैन्नई पोर्ट टस्ट के अध्यक्ष व सेतु समुद्रम परियोजना का मुख्य कार्यपालन अधिकारी रहते हुए दर्ज किया गया था। मामला वर्ष 2004 से 2009 के बीच का है। उक्त परियोजना में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने सुरेश के आवास व कार्यालय में छापा डाला था। सीबीआई ने छापे के दौरान जो दस्तावेज बरामद किए उनमें बडे पैमाने पर आर्थिक गड़बड़ी सामने आई थी। इस पर सुरेश को प्रथम दृष्टया दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण क्रमांक 18 ए /2011 दर्ज किया गया था। जांच के बाद सीबीआई ने केंद्र सरकार से इस मामले में करीब छह माह पूर्व अभियोजन की अनुमति चाही थी। बताया जाता है,कि हाल ही में केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने सीबीआई को अभियोजन की स्वीकृति दे दी है। इस मामले में राज्य शासन पहले ही अपनी ओर से अनुमति दे चुकी है। उनके खिलाफ चालान पेश होने पर उनका निलंबन तय माना जा रहा है। सुरेश को छग सरकार ने भी बचाया उक्त मामला उजागर होने के बाद मध्यप्रदेश वापस लौटे सुरेश को मप्र सरकार ने ही नहीं नवाजा बल्कि छत्तीसगढ सरकार भी उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में अभयदान दे चुकी है। यह मामला वर्ष 1997 का है तब सुरेश अविभाजित मप्र के बिलासपुर जिले में पदस्थ थे और अपनी पदस्थापना के दौरान उन पर साक्षरता अभियान की पुस्तकें छपवाने में गोयनका प्रिंटर्स इंदौर को नियमों के विरुद्ध करीब ढाई लाख रुपए का भुगतान कर उपकृत किए जाने का आरोप लगा था। यह मामला आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो में दर्ज किया गया। ब्यूरो ने वर्ष 2010 में इस प्रकरण में खात्मा लगा दिया। बाद में राज्य सरकार ने साक्ष्य नहीं मिलने का तर्क देकर सुरेश के साथ ही आईएएस अधिकारी आईएन एस दाणी, एमके राउत समेत चार अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण वापस ले लिया था। इस पर वहां विपक्ष के नेता रवीन्द्र चौबे ने सवाल उठाया था,कि जब आरोपी अधिकारी ही अपने मामलों की जांच करेंगे तो साक्ष्य कैसे मिलेंगे। ब्यूरोक्रेट की करतूतें परेशानी का सबब प्रदेश में ब्यूरोक्रेट की करतूतें न सिर्फ सरकार के लिए परेशानी का सबब बनीं, बल्कि इस सर्वोच्च सेवा की मान-सम्मान मर्यादा और गौरव की धज्जियां भी उड़ा दीं। यहां तक कि मप्र कैडर के कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की पूरे देश में हो थू-थू को देखते हुए पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने तीन मार्च 2010 को प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव अवनि वैश्य को पत्र लिखकर मप्र कैडर की करतूतों पर दु:ख जताया। वे इतने आहत थे कि उन्होंने प्रदेश के नौकरशाहों को फिर से न सिर्फ उनकी ड्यूटी याद दिलाई, बल्कि सेवा में आने के समय ली जाने वाली कसमें-वादे भी याद दिलाए।