गुरुवार, 27 जुलाई 2017

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

सरकारी बिजली कंपनियों की आड़ में निजी कंपनियों का 'पॉवर गेमÓ

10,000 गांवों की भूमि पर कंपनी का राज
नियमों को ताक पर रख हथियाई जा रही जमीन
भोपाल। देश में पॉवर हब के रूप में पहचान बना चुके मध्य प्रदेश में बिजली के उत्पादन, वितरण और विस्तार के खेल में जमकर घालमेल किया जा रहा है। आलम यह है की सरकारी बिजली कंपनियों की मनमानी, निजी बिजली कंपनियों की बेईमानी और अफसरों की कारस्तानी से जनता बेहाल और कंपनियां मालामाल हो रही है। मालामाल कंपनियों को और मालामाल बनाने के लिए सरकारी बिजली कंपनियों की आड़ में निजी कंपनियों का 'पॉवर गेमÓ चल रहा है। जिसके तहत अब बिजली लाईनों के विस्तार के नाम पर किसानों की भूमि पर कब्जा कर कंपनियां सरकार के साथ ही किसानों को भी आर्थिक क्षति पहुंचा रही हैं। वर्तमान में प्रदेश के 10,000 गांवों की भूमि पर कंपनी राज चल रहा है। दरअसल, प्रदेश में हर घर को 24 घंटे बिजली मुहैया कराने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा की आड़ में अफसरों, निजी बिजली कंपनियों और माफिया की मिलीभगत से पॉवर गेम खेल जा रहा है। जहां एक ओर मप्र में निजी कंपनियों और अधिकारियों के बीच बिजली उत्पादन, खरीदी और बिक्री का खेल चल रहा है। प्रदेश में जरूरत से अधिक बिजली उत्पादन और खरीदी कर सरकार को रोजाना 4,68,00,000 रुपए की चपत लगाई जा रही है। स्थिति इतनी विकट है कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए उनसे महंगी बिजली खरीदी जा रही है। उसे सस्ती दर पर दूसरे राज्यों को बेचा जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ कंपनियों की मिलीभगत से किसानों के खेत पॉवर हाउस में तबदील किए जा रहे हैं। जगह-जगह खेतों से होकर हाइटेंशन लाईन (उच्च दाब वाली विधुत लाइन) खींची गई है। किसानों के खेतों में जबरन टॉवर खड़े किए जा रहे हैं। प्रदेश में पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन और मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी के लगभग 300 कार्य चल रहे है। 10,000 गावों से निकल रही इन विद्युत लाइनों के लिए किसानों को न भूमि का मुआवजा दिया जा रहा है और न ही फसलों के नुकसान की भरपाई हो रही है। इससे किसानों को करोड़ों रूपए की हानि पहुंची है। मिलीभगत से हो रहा है खेल प्रदेश में पॉवर की आड़ में किसानों की जमीन हथियाने का यह खेल मप्र पावर मैनेजमेंट कंपनी, मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी, मप्र पावर ट्रांसमिशन कंपनी, मप्र पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी की मिलीभगत से हो रहा है। हाईपॉवर ट्रांसमिशन लाइन का टावर जिस खेत में स्थापित होता है उसके मालिक किसान को भारी नुकसान झेलना पड़ता है। इसलिए संबंधित किसान को मुआवजे के लिए कानूनी प्रावधान किए गए है लेकिन बिजली लाइन के लिए उपयोग की गई भूमि का कोई भी मुआवजा अभी पूरे मध्यप्रदेश में किसानों को नहीं दिया जा रहा है, जबकि इंडियन टेलीग्राफ एक्ट-1885 एवं भारतीय विद्युत अधिनियन 2003 के अनुसार किसानों को मुआवजा दिए जाने का प्रावधान है, और मध्यप्रदेश के सभी सीमावर्ती प्रांत जैसे छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि मे नियमानुसार क्षतिपूर्ति प्रदान की जा रही है। अफसरों ने हड़प ली मुआवजा राशि? विचार मप्र की कोर कमिटी के सदस्य विनायक परिहार, डा.ॅ चंदौरकर एवं महंत प्रीतम पुरी गोस्वामी ने बताया कि प्रदेश में वर्तमान में पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन और मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी के लगभग 300 कार्य चाल रहे हंै जिन की उच्च दाब विद्युत लाइन प्रदेश के लगभग 10,000 गावों से निकाली जा रही है। उन्होंने आरोप लगाया कि नियमानुसार जिन किसानों के खेतों में टॉवर लगाए जा रहे हैं उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए। इसके लिए अधिकारियों ने पूर्व में सर्वे के दौरान भी जानकारी दी थी। लेकिन मप्र सरकार किसानों की जमीन हथिया तो रही है लेकिन किसानों को मुआवजे की राशि नहीं मिल रही है। इसमें बड़े घोटाले की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। आरोप लगाया जाता है की कंपनियों के अफसरों ने ही मुआवजे की राशि हड़प ली है। बिजली विभाग में पदस्थ रहे एक पूर्व अधिकारी ने बताया कि उच्च दाब विद्युत लाइन एवं टावर निर्माण के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाता लेकिन किसान को हुई क्षति के लिए इंडियन टेलीग्राफ एक्ट-1885 की धारा 10 एवं धारा 16 तथा भारतीय विद्युत अधिनियन 2003 की धारा 67 एवं 68 के अनुसार किसानों को क्षतिपूर्ति दिए जाने का प्रावधानों है। इन अधिनियमों के अनुसार दी जाने वाले क्षतिपूर्ति को पुनरीक्षित करने केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 9-10 अप्रैल 2015 को देश के सभी प्रान्तों के ऊर्जा मंत्रियों एवं ऊर्जा सचिवों की संयुक्त बैठक अयोजित की थी जिसमे मध्यप्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सचिव ऊर्जा आईसीपी केसरी भी उपस्थित थे। इस बैठक की अनुशंसा पर भारत सरकार ने 15 अक्टूबर 2015 को उपरोक्त अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार क्षतिपूर्ति निर्धारित करने विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए। भारत सरकार के दिशा निर्देश के अनुसार, टावर निर्माण के लिए भूमि के बाजार मूल्य की 85 फीसदी क्षतिपूर्ति राशि संबंधित कंपनी द्वारा किसानों को भुगतान करनी होगी। मुआवजा निर्धारण, टावर के चारों पैरों के बीच के मूल क्षेत्र से किया जाएगा। साथ खेत के ऊपर से निकले तार के लिए तार की चौड़ाई और दो टॉवरों के बीच लंबाई के आधार पर क्षेत्रफल की गणना की जाएगी और इस भूमि पर बाजार मूल्य के 15 प्रतिशत की दर से क्षतिपूर्ति का भुगतान किया जाएगा। प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 765 केवीडीसी और 132 केवीडीसी की जो लाइने बिछाई जा रही हंै उसके लिए 67 मीटर एवं 27 मीटर की चौड़ाई निर्धारित की गई है। इसके अलावा निर्माण के दौरान होने वाली फसल क्षति का नुकसान वर्तमान नियमों के अनुसार दिया जाना है। नगरीय क्षेत्र में नगरीय निकाय द्वारा निर्धारित दर से क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है। लेकिन कंपनियों के अफसर आपसी सांठगांठ से किसानों का मुआवजा हड़प रहे हैं। जहां विरोध वहां दी जा रही क्षतिपूर्ति राशि वर्तमान में प्रदेश के करीब 10,000 गांवों में हाइटेंशन लाईन खींची जा रही है। लेकिन बिजली कंपनियों द्वारा केवल वहीं क्षतिपूति राशि दी जा रही है जहां विरोध हो रहा है। इसके तहत निर्माण कार्य के समय लगी हुई फसल की वास्तविक क्षति दी जा रही है। अधिकतर किसानों से तो कहा जा रही है की जनहित में इस प्रकार की निर्माण बिना मुआवजा दिए किए जा सकते हैं। विचार मप्र का आरोप है की किसानों से बिना अनुमति या पूछताछ के उनके खेतों की जमीन हड़पी जा रही है। जनता बेहाल, कंपनी मालामाल दरअसल, प्रदेश में बिजली के क्षेत्र में निजी कंपनियों के पॉवर के आगे सब पस्त हैं। एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने मध्य प्रदेश सरकार एवं विद्युत मंडल के साथ विस्तृत नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए मध्य विद्युत सुधार अधिनियम 2001 बनवाया था । जिसका उद्देश्य चरणबद्ध बिजली का निजीकरण कर विद्युत मंडल का विखंडन, विद्युत दरों का युक्तियुक्तकरण, विद्युत नियामक आयोग का गठन आदि करना था। इस कानून के कारण जहां बिजली के दाम हर वर्ष बढऩे लगे वही बिजली पर जनता और उसके द्वारा चुनी गई संस्थाओं का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। एक तरफ तो प्रदेश की आम जनता बिजली के मंहगे दरों से त्रस्त है वहीं दूसरी निजी पावर कंपनियां बिजली उत्पादन के लिए प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को खाक कर रही हैं। बिजली का क्षेत्र एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। एक ओर इससे करोड़ों लोगों को रोशनी मिलती है तथा दूसरी ओर खेती, धंधे, उद्योग भी काफी हद तक बिजली पर निर्भर है। आजादी के बाद संविधान निर्माता डाक्टर भीम राव अम्बेडकर ने इन्डियन इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 1948 की रचना की जिसका उद्देश्य था सभी को उचित दर पर बिजली उपलब्ध कराना। भारत मे आजादी के बाद बिजली की व्यवस्था के लिए विद्युत मंडलों का गठन किया गया। सन् 2002 तक इन मंडलों ने ही बिजली के उत्पादन, पारेषण एवं वितरण की जिम्मेदारी संभालते हुए जनता को बिजली उपलब्ध कराई। निजीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सभी क्षेत्रों की भांति बिजली (उर्जा) क्षेत्र में बहुत तेजी से बदलाव हुए। विश्व बैंक, आईएमएफ, एशियाई विकास बैंक तथा बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के दबाव मे तथाकथित उर्जा सुधारो को आगे बढ़ाया गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में कानूनी बदलाव विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के दबाव में केन्द्र सरकार द्वारा विद्युत अधिनियम 2003 बनाया गया। जिसमें विद्युत नियामक आयोग का गठन करने के साथ ही विद्युत मंडलों का विखंडन कर उत्पादन, पारेषण एवं वितरण कंपनियों के निजीकरण का रास्ता खोला गया। जहां 1948 का कानून उद्देश्य था कि सेवा क्षेत्र में रखकर सभी को उचित दर पर बिजली उपलब्ध कराना, वही इन कानूनों का उद्देश्य बिजली को लाभ (लूट) का धंधा बना कर रोशनी सिर्फ अमीरो के लिए रखना। मध्यप्रदेश में बिजली का निजीकरण एशियाई विकास बैंक ने मध्यप्रदेश सरकार एवं विद्युत मंडल के साथ विस्तृत नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए मध्यप्रदेश विद्युत सुधार अधिनियम 2001 बनवाया। जिसका उद्देश्य विद्युत मंडल का विखंडन, विद्युत दरों का युक्तियुक्तकरण, विद्युत नियामक आयोग का गठन आदि। इस कानून के कारण जहां बिजली के दाम हर वर्ष बढ़ाने होंगे वहीं बिजली पर जनता और उसके द्वारा चुनी गई संस्थाओ का कोई नियंत्रण नही होगा। इस कानून के प्रारूप पर विधानसभा मे भी कोई चर्चा अथवा सुझाव नही लिए गए। उर्जा विभाग के अनुसार 2007 से 2011 के बीच राज्य सरकार ने 91160 मेगावाट विद्युत उत्पादन के 75 अनुबंध निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों से कर रखे हैं। योजनाकारों ने सरकार के सामने बिजली की मांग मे अभूतपूर्व वृद्धि के आंकड़े प्रस्तुत कर गुमराह किया है और उसे इतने अधिक करार करने की राह पर डाल दिया है कि सरकारी बिजली संयंत्रो का अस्तित्व खतरे मे पड़ गया है। मांग के फर्जी आंकड़ों की वजह से ही सरकार ने आंख बंद कर बिजली खरीदी के करार किए और बिजली की दरे व समझौता शर्ते भी मान्य की, जिसमे निजी थर्मल कंपनियों का हित अधिक था। केन्द्र सरकार की टैरिफ पालिसी इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2006 के अनुसार निजी कंपनी के साथ प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार पर बिजली खरीदी होगी तथा सरकारी कंपनियों को इसमे पांच साल की छूट दी गई। परन्तु प्रदेश सरकार ने इस नियम के विरुद्ध 5 जनवरी 2011 को पांच निजी कंपनियों से 1575 मेगावाट विद्युत क्रय अनुबंध 25 साल के लिए किया जो पूरी तरह गैर कानूनी था। अनुबंध इन शर्तो के अधीन है कि बिजली खरीदे अथवा न खरीदे फिक्स चार्ज के रूप मे 2163 करोड़ रुपए देने ही होगे। बिजली की मांग नही होने के कारण बगैर बिजली खरीदे विगत तीन साल में नवंबर 2016 तक 5513.03 करोड़ रुपए निजी कंपनियों को भुगतान किया गया। 2016-17 मे जेपी पावर से 14.2 करोड़ यूनिट बिजली के लिए 478.26 करोड़ रूपए का भुगतान हुआ यानि प्रति यूनिट 33.68 रूपए तथा झाबुआ पावर प्लांट से 2.54 करोड़ यूनिट के लिए 214.02 करोड़ रुपए का भुगतान हुआ यानि 84.33 रूपये प्रति यूनिट की कीमत आय। विद्युत नियामक आयोग के विरुद्ध वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) ने 2013-14 में बिजली खरीदी मद से जो 1903.69 करोड़ रुपए अधिक चुकाए, उसकी एक वजह निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियां लेंको, बीएलए, जेपी बीना व सुजान से प्रति यूनिट 3.12 से 9.56 रूपए की उंची दर पर 460.92 करोड़ यूनिट खरीदी कर महज 2.96 रूपए प्रति यूनिट की दर पर 262.8 करोड़ यूनिट बाहरी प्रदेशों को बेचा। थर्मल, हाडड्रो पावर स्टेशन बदहाल मध्यप्रदेश में अब तक थर्मल पावर प्लांट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं लेकिन इसके बाद भी प्रदेश की 10 थर्मल पावर यूनिट बंद हो चुकी हैं। इनमें सारणी के थर्मल पावर प्लांट की छह के अलावा संजय गांधी थर्मल पावर स्टेशन की एक, अमरकंटक की दो और श्रीसिंगाजी की एक यूनिट ऐसी हैं जो पूरी तरह से ठप हो चुकी हैं और इनसे प्रदेश को बिजली उत्पादन नहीं किया जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, अगर इन थर्मल पावर प्लांट पर ठीक से काम किया जाए तो 4320 मेगावाट बिजली उत्पादन हो सकता है। लेकिन, अभी इन यूनिट्स से 15 प्रतिशत यानी 627 मेगावाट ही बिजली उत्पादन हो रहा है। प्रदेश में वर्तमान में सिर्फ विंड से बिजली प्रोडक्शन हो रहा है जबकि सोलर एनर्जी और बायोमास से बिजली के उत्पादन के मामले में स्थिति शून्य है। यह स्थिति सिर्फ थर्मल पावर प्लांट तक ही सीमित नहीं है। रिपोर्ट के आंकड़ों पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि प्रदेश के सभी 12 हाइड्रो पावर स्टेशन की हालत भी दयनीय हो चुकी है। जनवरी 2017 तक बीते 10 महिनों में प्रदेश के सभी बांधों में पर्याप्त जलराशी उपलब्ध रहने के बावजूद अपेक्षित बिजली पैदा नहीं कर सके। गौरतलब है कि बांधों से बिजली उत्पादन 38 पैसे प्रति यूनिट आती है जबकि निजी थर्मल पावर कंपनियों से सरकार 3.68 रूपए प्रति यूनिट की दर से खरीदती है। बांधो से बिजली उत्पादन नहीं होने से सरकार ने निजी कंपनियों से जो बिजली खरीदी, उसके लिए उन्हे 557 करोड़ का भुगतान करना पड़ा। इसी बिजली को यदि गांधीसागर, बरगी और बाणसागर से बनाया जाता तो इसकी लागत 57 करोड़ ही आती, यानि सरकार को 500 करोड़ रुपए की बचत होती। बढ़ता घाटा, बढ़ती देनदारियां मध्य प्रदेश पावर जनेरेटिंग कंपनी मे व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा एवं सिंगाजी पावर प्लांटो की कार्यक्षमता 40 प्रतिशत से भी कम हो गई है। कोयले की कीमत से ज्यादा परिवहन खर्च, काम की मूल लागत से कई गुना अधिक दर पर दिए गए ठेको, लाइजनिंग व कमीशन एजेंट के चलते कोयले के साथ आई करोड़ों रूपए की मिट्टी व पत्थर आदि पर होता है। अनाप-शनाप खर्च ने इनकी बिजली उत्पादन की प्रति यूनिट लागत अधिक होने के कारण मेरिट आर्डर डिमांड (सबसे कम बोली लगाने वाले) से बाहर हो गई है। पिछले चार साल मे मैनेजमेंट कंपनी को 9288 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है, जिसकी भरपाई बिजली दर बढाकर 1.35 करोड़ उपभोक्ताओ से की जा रही है। कंपनी के रसूख से रेट तय मध्यप्रदेश सरकार की नीति और नीयत सवालों के घेरे में है। वह अपने बिजली संयंत्रों को बंद कर निजी कंपनियों से बिजली खरीद कर सूबे में उसकी आपूर्ति कर रही है। इस खेल से सरकारी खजाने को करोड़ों का चूना लग रहा है और निजी कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो आई है। यही नहीं मप्र में स्थापित निजी विद्युत उत्पादन कंपनियों से बिजली खरीदी का कोई निश्चित मापदंड नहीं है। ऊर्जा विभाग कंपनियों के रसूख को देखकर रेट तय करता है। यही कारण है कि प्रदेश में ऊर्जा विभाग द्वारा निजी कंपनियों से जो बिजली खरीदी जा रही है वह प्रति यूनिट औसतन 7.80 रुपए पड़ रही है। लेकिन विभाग इसी बिजली को हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और पश्चिम बंगाल को औसतन 5.50 रुपए में बेच रहा है। ऐसे में विभाग को चपत लगना तय है। ज्ञातव्य है कि विभाग विभिन्न कंपनियों से अलग-अलग दरों पर बिजली खरीदी करता है। एटीपीसी से वर्ष 2015-16 में 2.89 रुपए में प्रति यूनिट बिजली खरीदी गई। इसी तरह एनपीसी से 2.78, सरदार सरोवर से 2.31, एनवीडीए से 4.52, दामोदर वैली कार से 3.63, टोरेंटो पीटीसी से 7.43, बीएलए से 3.63, जेपी बीना से 4.97, लेको से 3.10, सासन से 1.59, जेपी निगारी से 2.51, एमबी पॉवर से 3.46 और एमपी जनरेटिंग कंपनी से 4.00 की दर से बिजली खरीदी गई। इसी तरह राज्यों का जो बिजली बेची जा रही है उसमें भी असमानता है। विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि प्रदेश में बिजली खरीदी और बिक्री का गणित केवल कुछ अधिकारियों को ही पता है। वह कहते हैं कि खरीदी-बिक्री में सरकार को जमकर चूना लगाया जा रहा है। इसका उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि विभाग कहता है कि वह सिंगरौली जिले के सासन में रिलायंस समूह द्वारा स्थापित पॉवर प्लांट से 1.59 रूपए प्रति यूनिट बिजली खरीद रहा है, जबकि 22, 23 अक्टूबर को इंदौर में आयोजित ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में एडीएजी रिलायंस समूह के चेयरमैन अनिल अंबानी ने कहा कि मध्यप्रदेश को रिलायंस पावर प्लांट द्वारा मात्र एक रुपए 20 पैसे की प्रति यूनिट दर पर विद्युत उपलब्ध कराई जा रही है। उन्होंने कहा कि आगामी 25 वर्षों तक रिलायंस पावर प्लांट द्वारा मात्र एक रुपए 20 पैसे की प्रति यूनिट दर पर विद्युत राज्य को उपलब्ध कराई जा रही है। आखिर सरकारी आंकड़े और अंबानी के आंकड़े में 39 पैसे का अंतर क्यों है? विभाग के सूत्र बताते हैं कि शासन प्रोजेक्ट से जो सस्ती बिजली मिल रही है, उसमें घालमेल करके विभिन्न कारणों का हवाला देकर लगातार दरें बढ़वाई जा रही हैं। इसमें शासन प्रोजेक्ट के लिए रिलायंस ने अदालत में अपील दायर करके 20 साल तक निर्धारित दर फार्मूले में भी संशोधन कराया है। इसमें सरकारी बिजली कंपनियों का पक्ष कमजोर रहा। इसके तहत 2014-15 में जहां 70 पैसे प्रति यूनिट बिजली मिल रही थी, वहीं 2015-16 में 1.59 रुपए प्रति यूनिट बिजली मिली है। फिर भी यह बिजली दूसरी कंपनियों की तुलना में सस्ती है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब निजी कंपनियों से ही बिजली खरीदी जानी थी तब अरबों रुपये खर्च कर सरकार ने बिजली उत्पादन इकाइयों की स्थापना ही क्यों की? इनके रख-रखाव, देख-रेख व स्थापना-व्यय मद में जो रकम खर्च हो रही है, वह क्यों? बावजूद इसके सरकार का दावा है कि मध्य प्रदेश अब सरप्लस बिजली वाला स्टेट बन गया है। तब क्यों शहरी उपभोक्ता लगभग दस रुपए प्रति यूनिट बिजली खरीदने को मजबूर हैं? क्यों ग्रामीण इलाकों में वादे के विपरीत 15 से 20 घंटे की बिजली कटौती जारी है? ऐसे अनेक सवाल हैं जो दावों व हकीकत में भेद करते हैं। हर साल 2,000 करोड़ की चपत अपने संयंत्रों से उत्पादन बंद कर निजी कंपनियों से बिजली खरीदे जाने को लेकर सरकार की नीयत व नीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। आम आदमी पार्टी के आलोक अग्रवाल पहले ही यह आरोप लगाते रहे हैं कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की गरज से सरकार उपभोक्ताओं को मंहगी बिजली मुहैया करा रही है। मध्य प्रदेश शासन निजी विद्युत कंपनियों जैसे जेपी बीना पावर, जेपी निगरी, एमबी पावर, बीएमए पावर, लेंको अमरकंटक से बिजली को नियमानुसार प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार पर न खरीद कर महंगी बिजली खरीदी जा रही है। प्रदेश सरकार ने जेपी बीना पावर से साल भर पहले 1.35 करोड़ यूनिट बिजली करीब 52 करोड़ रुपए में खरीदी थी। इसी कंपनी को बीते साल मई, जून व जुलाई में बिना एक भी यूनिट बिजली खरीदे 150 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया गया। इस प्रकार इन कंपनियों से महंगी बिजली खरीद पर प्रदेश सरकार को दो हजार करोड़ रुपए प्रति वर्ष का नुकसान हो रहा है। आलोक कहते हैं कि दिल्ली और छत्तीसगढ़ राज्यों की अपेक्षा मध्य प्रदेश में बिजली की दर सबसे ज्यादा है। जबकि दूसरी ओर सरकार बिजली उत्पादन में सरप्लस स्टेट होने का दावा कर रही है। प्रदेश में इसलिए बढ़ रहा उत्पादन प्रदेश में बिजली उत्पादन के वैकल्पिक जरिए तेजी से विकसित हो रहे हैं। इंदौर-उज्जैन संभाग में भी सोलर एनर्जी, विंड एनर्जी, हाईड्रोलिक सिस्टम के जरिए निजी कंपनियां बिजली उत्पादन कर रही हैं। इन निजी कंपनियों की बिजली सरकारी प्लांट के मुकाबले काफी सस्ती है। हाईड्रोलिक बिजली उत्पादन भी इस समय भरपूर हो रहा है। प्रदेश में जितने भी निजी बिजली उत्पादक हैं, उनसे सरकार को कुल उत्पादन की छह फीसदी बिजली खरीदना अनिवार्य है। प्रदेश में जरूरत से अधिक बिजली खरीदी पर अफसरों का कहना है कि पिछले सालों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा क्षेत्र में प्रदेश में बहुत निवेश हुआ है। अभी 1300 मेगावाट तक (अधिकतम) बिजली इन गैरपरंपरागत क्षेत्रों से मिल रही है। ये बिजली पांच से आठ रुपए प्रति यूनिट पड़ती है। ग्रीन एनर्जी पैदा कर रही इन कंपनियों से अनुबंध के चलते महंगी बिजली खरीदना सरकार की बाध्यता है। मप्र पावर जनरेशन कंपनी के एमडी आनंद भैरवे कहते हैं कि जब रबी के सीजन में डिमांड बढ़ती है तब निजी क्षेत्र भी बिजली महंगी कर देते है। तब हम अपने पावर प्लांट पूरी ताकत से चलाएंगे और भरपूर बिजली देंगे और पैसा भी बचाएंगे। प्रदेश में एमबी पॉवर लिमिटेड नई दिल्ली ने अनूपपुर जिले के जैतहरी, बीना पॉवर सप्लाई लिमिटेड मुंबई ने सागर जिले के बीना, बीएलए पावर लिमिटेड मुंबई ने नरसिंहपुर जिले के गाडरवारा तहसील के निवारी में प्लांट लगाए हैं। इसी तरह जेपी निगरी नई दिल्ली द्वारा सिंगरौली जिले देवसर तहसील, झाबुआ पावर लिमिटेड नई दिल्ली द्वारा सिवनी जिले के घंसौर तहसील के बरेला और गोरखपुर में, सासन पावर लिमिटेड सिंगरौली द्वारा सिंगरौली में तथा एस्सार पावर लिमिटेड नई दिल्ली द्वारा सिंगरौली जिले के बैढऩ में बिजली यूनिट स्थापित कर विद्युत उत्पादन किया जा रहा है। राज्य सरकार द्वारा झाबुआ पावर और एस्सार पावर को छोड़ बाकी सभी निजी बिजली कंपनियों से बिजली की खरीदी की जा रही है। बिजली खूब, फिर भी मिल रही महंगी बिजली की किल्लत राज्य सरकारों की परेशानी का कारण बनी रहती है। लेकिन देश में एक राज्य ऐसा है जिसके लिए बिजली का अत्यधिक उत्पादन मुश्किलें खड़ी कर रहा है। इस मामले में एमपी गजब है। नदियों पर अंधाधुंध बिजलीघर बनाने का जो सिलसिला मध्यप्रदेश में 70 के दशक से शुरू हुआ, वह न्यूक्लियर, थर्मल और सोलर पावर के दौर में भी बदस्तूर जारी है। बिजलीघरों की उत्पादन क्षमता मांग को मीलों पीछे छोड़ चुकी है। फिर भी उपभोक्ताओं को महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है। फिलहाल मध्यप्रदेश में 17500 मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन की क्षमता है, जबकि गर्मियों में भी औसत मांग सिर्फ 7-8 हजार मेगावाट के आसपास रहती है। भरपूर बिजली उपलब्ध होने के बावजूद राज्य सरकार प्राइवेट बिजली कंपनियों से महंगी दरों पर खरीद के सौदे कर चुकी है। जबकि दूसरी तरफ मांग से अधिक उत्पादन क्षमता के चलते राज्य के कई बिजलीघर ठप पड़े हैं या फिर नाममात्र की बिजली पैदा कर रहे हैं। ऊर्जा के स्रोतों में निवेश और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बीच ऐसा भारी असंतुलन शायद ही कहीं देखने को मिले। मध्यप्रदेश में बिजली के नाम पर चल रहे गोरखधंधे उजागर होने लगे हैं। आम आदमी पार्टी की मध्यप्रदेश इकाई ने शिवराज सरकार पर प्राइवेट कंपनियों के साथ गैर कानूनी तरीके से बिजली खरीद के समझौते (पीपीए) कर सरकारी खजाने को करीब 50 हजार करोड़ रुपये के नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया है। आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल बताते हैं कि बिजली खरीद के बारे में सूचना के अधिकार के तहत कई चौंकाने वाली जानकारियां मिली हैं। राज्य सरकार ने 5 जनवरी, 2011 को एक ही दिन जबलपुर और भोपाल में छह बिजली कंपनियों के साथ बिजली खरीद के एग्रीमेंट कर लिए, जबकि भारत सरकार की बिजली खरीद नीति और राज्य सरकार के बिजली खरीद कानून के तहत ऐसे सौदे प्रतिस्पर्धी बोली के आधार पर ही किए जा सकते हैं। अग्रवाल के मुताबिक, इन समझौतों के तहत राज्य सरकार बिजली खरीदे या न खरीदे, उक्त कंपनियों को फिक्स्ड चार्ज के तौर पर 25 साल तक सालाना 2163 करोड़ रुपये का भुगतान करना ही पड़ेगा। आश्चर्यजनक है कि समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले दो अधिकारी गजराज मेहता और संजय मोहसे उस दिन संबंधित पद पर पदस्थ ही नहीं थे। तीन अधिकारियों एबी बाजपेयी, पीके सिंह और एनके भोगल ने एक ही दिन भोपाल और जबलपुर में समझौतों पर हस्ताक्षर किए। यह साफ बताता है कि समझौते फर्जी हैं। झाबुआ पावर से खरीदी गई 2.54 करोड़ यूनिट के लिए 214.20 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। यानी बिजली खरीद की दर 84.33 रुपये प्रति यूनिट आई। निजी कंपनियों से महंगी बिजली खरीदने के लिए खुद के बिजलीघरों को बंद रखने के आरोप भी शिवराज सिंह चौहान की सरकार पर लग रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इसे देश का सबसे बड़ा बिजली घोटाला करार दिया है। मध्यप्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि रीवा में बनने जा रहे एशिया के सबसे बड़े सोलर पावर प्लांट से दिल्ली मेट्रो को 2.97 रुपये प्रति यूनिट की दर पर बिजली मिलेगी, लेकिन प्रदेश की जनता बिजली के लिए 7.50 से 9.50 रुपये प्रति यूनिट चुकाने को मजबूर है। नरसिंहपुर निवासी किसान नेता विनायक परिहार कहते हैं कि जो राज्य दिल्ली तक सस्ती बिजली पहुंचा सकता है, वहां की जनता तीन गुना महंगी बिजली खरीदने के लिए बाध्य है। जबकि बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए मध्यप्रदेश के लोगों ने बड़ी कीमत चुकाई है। बिजली और सिंचाई के नाम पर नर्मदा घाटी में 277 बांध बन चुके हैं। यहां सरदार सरोवर जैसे छह हाइड्रो प्रोजेक्ट हैं। इन बांधों के निर्माण के लिए हजारों लोगों को उजाड़ा गया, लाखों हेक्टेयर भूमि डूब गई। लेकिन आज प्राइवेट सेक्टर को मौका देने के लिए सरकारी बिजलीघरों को ठप किया जा रहा है। अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा और सिंगाजी पावर प्लांट 40 प्रतिशत से भी कम क्षमता पर काम कर रहे हैं। परिहार पूछते हैं कि बिजली के नाम पर इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद आखिर क्या हासिल हुआ? बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के राजकुमार सिन्हा ने बताया कि 2007 से 2011 के बीच राज्य सरकार ने 91,160 मेगावाट विद्युत उत्पादन के 75 अनुबंध निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों से कर रखे हैं। इतने अधिक बिजली उत्पादन से सरकारी बिजली संयंत्रों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। बिजली की मांग नहीं होने के कारण नवंबर 2016 तक बगैर बिजली खरीदे 5513 करोड़ रुपये का भुगतान निजी कंपनियों को किया गया। जरूरत से ज्यादा बिजली होने के बावजूद मध्यप्रदेश में नए बिजलीघर बनाने की तैयारियां चल रही हैं। मध्यप्रदेश के चुटका में परमाणु विद्युत निगम (एनपीसीआईएल) द्वारा 1400 मेगावाट का परमाणु बिजली संयंत्र प्रस्तावित है। पिछले तीन दशक से इस परियोजना का भारी विरोध हो रहा है। लेकिन परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया जारी रही। नर्मदा किनारे खंडवा में सिंगाजी चरण एक, सिवनी में झाबुआ पावर और गाडरवारा में बी.एल.ए.पावर के बिजलीघर बन चुके हैं। इन तीनों बिजलीघरों से महंगी बिजली होने के कारण राज्य विद्युत नियामक आयोग के टैरिफ आदेश में इनसे बिजली खरीदने को मना कर दिया गया है। लेकिन एक यूनिट बिजली खरीदे बिना भी इन तीनों परियोजनाओं के लिए फिक्स्ड चार्ज राज्य सरकार को देना होगा क्योंकि ये समझौते 25 साल के लिए हैं। इन बिजलीघरों के अतिरिक्त नर्मदा किनारे तीन और बिजलीघर निर्माणाधीन हैं। अगले दो साल बाद एनटीपीसी के पावर प्लांट और रीवा सोलर पावर प्लांट से लगभग 4000 मेगावाट विद्युत प्रदेश को मिलने लगेगी। तब राज्य में बिजली उत्पादन क्षमता 20,000 मेगावाट से भी अधिक हो जाएगी। नए-नए बिजलीघर बनवाने और सरकारी पावर प्लांट बंद रखने को राजकुमार सिन्हा एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा मानते हैं। दूसरी ओर बिजली की अधिकतम उपलब्धता के बावजूद हकीकत यह है कि प्रदेश के 117 गांवों और 46 लाख घरों में बिजली नहीं पहुंची है। निजी संयंत्रों से विद्युत क्रय अनुबंध के कारण मध्यप्रदेश विद्युत मैनेजमेंट कंपनी को भारी घाटा हो रहा है। पिछले चार साल मे मैनेजमेंट कंपनी को 9,288 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। जिसकी भरपाई बिजली दर बढ़ाकर उपभोक्ताओं से की जा रही है। सब्सिडी में 4000 करोड़ का घोटाला आम आदमी पार्टी (आप) ने आरोप लगाया है कि प्रदेश में किसानों के नाम पर चार हजार करोड़ रुपए की बिजली की सबसिडी का घोटाला हुआ है। आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल ने आरोप लगाया है कि विद्युत नियामक आयोग ने 2017-18 में कृषि में इस्तेमाल आने वाले सिंचाई पंपों के लिए प्रदेश में 2075 करोड़ यूनिट बिजली का अनुमान बताया था। इतनी बिजली के लिए करीब 8400 करोड़ रुपए सबसिडी कंपनियों को दी गई। आप प्रदेश संयोजक का कहना है कि आयोग के निर्धारित मापदंडों के हिसाब से कृषि के लिए किसान तीन और पांच हॉर्स पॉवर के पंप व अस्थाई कनेक्शन में कृषि पंपों के माध्यम से वास्तव में 1519 करोड़ यूनिट बिजली का उपयोग करता है। मगर जून से सितंबर के बीच सिंचाई की जरूरत नहीं होती और अक्टूबर से मार्च की अवधि में सिंचाई पंपों पर वास्तव में 70 फीसदी बिजली की खपत होती है जो 1063 करोड़ यूनिट होता है। अग्रवाल ने कहा कि मप्र सरकार के केंद्र सरकार से समूह ट्रांसफार्मरों पर मीटर लगाने के अनुबंध के बाद भी 3.21 लाख समूह ट्रांसफार्मर में से 45 हजार ही लगे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि किसानों के नाम पर बिजली चोरी और सबसिडी घोटाला किया जा रहा है।