मंगलवार, 30 नवंबर 2010

आइएएस बनने के मंसूबे पर फिरा पानी

मध्यप्रदेश में गैर प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन का ख्वाब देख रहे अधिकारियों के मंसूबों पर इस बार भी पानी फिरता नजर आ रहा है। पहले विभागीय लेतलाली, फिर सामान्य प्रशासन विभाग की कार्यप्रणाली और अब राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के विरोध ने मामले को पेंचिदा बना दिया है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन के मामले को लेकर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी प्रशासनिक न्यायाधिकरण में मुकदमा करने की तैयारी कर रहे हैं। उनका कहना है कि गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नति हेतु कोई पृथक से कोटा नहीं हैं। इसे भारत सरकार द्वारा भी पूर्व में अन्य मुकदमों में स्वीकार किया गया है, जबकि प्रदेश में इसे कोटे के रूप में लिया जाने लगा है। उनका आरोप है कि राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी 22-23 वर्ष की सेवा के उपरांत भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नत नहीं हो पा रहे हैैं, जबकि 8 वर्ष की सेवा के उपरांत ही उन्हें पदोन्नति की पात्रता हो जाती है तथा पदोन्नति के सभी पद प्राथमिक रूप से राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के कोटे के अंतर्गत ही हैं। नियमानुसार गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में से भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नति की प्रक्रिया तब ही प्रारंभ हो सकती है, जब उस वर्ष विशेष परिस्थिति एवं विशेष प्रकरण मौजूद हों। विशेष परिस्थिति का निर्धारण राज्य शासन एवं संघ लोक सेवा आयोग के परामर्श के उपरांत केन्द्र सरकार को औपचारिक रूप से करना होता है। विशेष परिस्थिति के निर्धारण के समय लोकहित का होना भी आवश्यक है जबकि प्रदेश में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गई है। विशेष परिस्थिति के निर्धारण के उपरांत ही उस वर्ष गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन द्वारा भर्ती के लिये रिक्तियों की संख्या का निर्धारण रेग्युलेशन-3 आई.ए.एस. (अपाईटमेंट बाई सिलेक्शन) रेेग्युलेशंस 1997 के अंतर्गत किया जा सकता है। यह विशेष परिस्थिति निर्धारण के पूर्व ही कर ली गई।
इस बार गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के चयन द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति के लिए गैर पारदर्शी ढंग से नामांकन प्राप्त किये गये। लोक सेवाओं के अंतर्गत सभी पात्र व्यक्तियों से विज्ञापन अथवा राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशन के माध्यम से आवेदन आमंत्रित किए जाने चाहिए थे। इसके कारण चयन प्रक्रिया में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चयन समाप्त ही हो गया और विभाग के प्रमुख सचिव/सचिव तथा राजनैतिक प्रभाव के माध्यम से नामांकन किये जाने की परिस्थितियां निर्मित हुई। सभी पात्र गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों को आवेदन करने का अवसर ही नहीं दिया गया। यह पिक एण्ड चूज के अंतर्गत है। नियमानुसार नामांकन प्राप्त करने के पूर्व विशेष परिस्थिति का निर्धारण किया जाना रूल-4 (2) ए तथा रूल 8 (2) ए के अंतर्गत अनिवार्य है, क्योंकि विशेष परिस्थिति के निर्धारण के उपरांत ही गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन द्वारा नियुक्ति प्रक्रिया प्रारंभ हो सकती है, किन्तु विशेष परिस्थिति के निर्धारण किये बिना ही नामांकन प्राप्त करने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली गई।
इस मामले को लेकर पूर्व में भी विवाद हुए हैं लेकिन राज्य सरकार ने कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। जिससे विगत दो वर्षों की भांति इस बार भी अधिकारी अपनी योग्यता नहीं बल्कि जुगाड़ के बल पर इस सर्वोच्च प्रशासनिक पद को पाने की जुगत भिड़ाए हुए हैं। हालांकि इनमें से कुछ अधिकारी तो ऐसे हैं, जो वर्षों से आईएएस बनने की जुगत भिड़ा रहे हैं, लेकिन दांव नहीं लग पा रहा है। इस बार मप्र से गैर सिविल सेवा से आईएएस चयन के लिए यूपीएससी को भेजी गई सूची में कई ऐसे अधिकारियों के नाम भी शामिल हैं जो पूर्व में भी विवादों में फंसे थे। लेकिन राज्य सरकार के मुखिया और उनके अन्य मंत्री अपने चहेतों को आईएएस बनाने के लिए जिद पर अड़ सा गए है। सूत्र बताते हैं कि आईएएस चयन की इस पूरी प्रक्रिया में एक-एक अधिकारी से लाखों रुपए लिए गए हैं।
विभागीय सूत्रों की माने तो इस बार पांच पदों के लिए 20 अधिकारियों की अंतिम सूची बनाई गई है, लेकिन यह सूची चयन के लिए यूपीएससी को भेजी गई है कि नहीं इस बार भी असमंजस है। अगर यह सूची यूपीएससी को भेज भी दी गई होगी तो भी ऐसा नहीं लगता कि इस बार भी मध्यप्रदेश को पांच आईएएस अधिकारी मिल ही जाएंगे। क्योंकि बताया जाता है कि जो सूची तैयार की गई है उसमें कुछ नाम ऐसे भी है जो पंजाब हाईकोर्ट एवं सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय को दरकिनार कर शामिल किए गए हैं। क्योंकि प्रवीण कुमार विरुद्ध पंजाब राज्य के मामले में अभी हाल ही में पंजाब हाईकोर्ट एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से यह स्पष्ट हो गया हैै कि 01.01.2010 की स्थिति में आयोजित होने वाले सिलेक्शन कमेटी के लिए विचार क्षेत्र में आने वाले अधिकारियों की आयु सीमा का निर्धारण 01.01.2009 की स्थिति में 54 वर्ष किया जाना हैै, जबकि पूर्व में 01.01.2010 की स्थिति में उम्र 54 वर्ष निर्धारित की गई है। गैर राज्य सिविल सेवा अधिकारियों के नामांकन 01.01.2010 की स्थिति में चयन समिति की बैठक हेतु सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पूर्व की स्थिति के अनुसार 01.01.2009 की स्थिति में 54 वर्ष उम्र का निर्धारण कर मंगाये गये थे। ऐसी स्थिति में प्राप्त सभी नामांकन पंजाब उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के प्रवीण कुमार के मामले में दिये गये निर्णय के परिप्रेक्ष्य में विधि विरुद्ध हो जाने के कारण शून्यवत हो गए हैं।
उधर केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली का यह कथन भी आड़े आ सकता है जिसमें उन्होंने इस बात के संकेत दे दिए हैं कि आईएएस चयन के लिए डिप्टी कलेक्टर और गैर प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को एक राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा देनी पड़ेगी। अगर इस बार सूची में शामिल अधिकारियों के भाग्य का छींका नहीं टूटता है तो मामला अटका ही रह जाएगा। यहां बता दें कि वर्ष 2007 में मप्र केडर में एक पद था, लेकिन डिप्टी कलेक्टरों के हस्तक्षेप के कारण चयन नहीें हो सका। वर्ष 2008 में दो पदों के लिए राज्य सरकार ने दस अधिकारियों के नाम यूपीएससी को भेजे थे। यूपीएससी ने 19 सितम्बर 2008 को साक्षात्कार रद्द कर दिया। बीते साल भी ऐसा ही हुआ है। इस मामले को लगातार तीन वर्षों से पाक्षिक अक्स पत्रिका द्वारा ही उठाया गया था। अब देखना यह है कि यूपीएससी इस मामले को किस तरह लेता है।

भोपाल गैस त्रासदी न्याय व्यवस्था और राजनीति की त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी केवल गैस त्रासदी नहीं बल्कि यह न्याय, कानून, राजनीति और लूट-खसोट की मिली-जुली त्रासदी भी है जो इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक है जिसे कभी मिटाया न जा सकेगा। भोपाल के गैस राहत अस्पतालों में काम कर रहे चिकित्सकों की माने तो अब भोपाल में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का कोई प्रभाव बाकी नहीं है, लेकिन जब भी मुआवजे की बात उठती हैै तो अचानक मरीज भी पैदा हो जाते हैं। गैस त्रासदी का रौद्र रूप भले ही 2-3 दिसंबर 1984 की रात को सामने आया था लेकिन इसकी शुरूआत उसी समय हो गई जब नियमों को ताक पर रखकर धरमपुरी की जमीन पर यूनियन कार्बाइड को यहां स्थापित किया गया था। मंत्रियों और अधिकारियों ने जहां अपने सगे-संबंधियों को इस फैक्ट्री में लॉलीपॉप की तरह नौकरियां दिलवाईं, वहीं जहरीली गैस लीक होने की खबरे लगातार मिलते रहने के बाद भी सीबीआई अथवा स्थानीय सीआईडी द्वारा कभी इन तथ्यों की जांच नहीं कराई। जिसका परिणाम यह हुआ की दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना घटी जिसमें 27000 से अधिक लोग (सरकारी अधिकृत आंकड़ा 3000) मारे गये थे और करीब 6 लाख लोग प्रभावित हुए थे, यानी गैस पीडि़त विभिन्न स्तर की विकलांग जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो गए।
गैस त्रासदी ने जो जख्म दिए हैं उन्हें तो कभी भी नहीं भरा जा सकेगा, लेकिन जिस प्रकार राजनीतिक दलों, न्यायिक व्यवस्था की खामियों और भ्रष्ट अधिकारियों की लूट-खसोट और चंदाखोर स्वयंसेवी संगठनों ने गैस पीडि़तों के उन घावों को खरोंच-खरोंचकर अब नासूर बना दिया है जिनसे यह त्रासदी इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक बन गई है जिसे शायद ही कभी मिटाया जा सके।
गैस पीडि़तों की चिकित्सा, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं विधिक तथा प्रशासनिक समस्याओं के निराकरण के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने 29 अगस्त 1985 को पहले भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया और उसके बाद 17 अक्टूबर 1995 को भोपाल गैस राहत एवं पुनर्वास संचालनालय स्थापित किया। इन विभागों के माध्यम से राज्य सरकार ने 2009 तक गैस पीडि़तों पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार 538.17 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, लेकिन समस्याएं जस की तस है।
गैस पीडि़तों की तमाम समस्याओं की तहकीकात करने के लिए जब इस प्रतिनिधि ने राज्य सरकार द्वारा चिकित्सा पुनर्वास के तहत चलाए जा रहे अस्पतालों और डे-केयर यूनिटों की पड़ताल की और डॉक्टरों से विचार-विमर्श किया तो जानकारी में आया कि आज की स्थिति में इन अस्पतालों में एक सैकड़ा मरीज भी मौजूद नहीं है जो मिक गैस के दुष्प्रभाव से पीडि़त हो। गैस राहत अस्पताल के डॉक्टर ने तो यहां तक बताया कि अगर मुआवजे की लालच में चलने वाली कथित आंदोलन की कार्रवाई बंद हो जाए तो भोपाल में एक भी गैस पीडि़त सामने नहीं आएगा। उन्होंने बताया कि जिस तरह अन्य अस्पतालों और शहरों में मरीज इलाज के लिए आते हैं वैसी ही मौसमी बीमारियों से पीडि़त मरीज इन दिनों गैस राहत अस्पतालों में आ रहे हैं।
गैस पीडि़तों के लिए वर्षों से आंदोलनरत एक गैस पीडि़त संगठन के पूर्व पदाधिकारी ने बताया कि राजनीतिक दल वोट बैंक और स्वयंसेवी संगठन अपना हित साधने के लिए गैस त्रासदी का मुद्दा जिंदा रखना चाहते हैं। उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि एक बार दिल्ली से कुछ देशी और विदेशी प्रतिनिधि भोपाल गैस पीडि़त कालोनियों का दौरा करने आए थे तो यहां के स्वयंसेवी संगठन ने राजधानी और इसके आसपास के शहरों से विकलांग लोगों को लाकर बस्ती में हर दूसरे-तीसरे घर में बिठा दिया। जब विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने यह नजारा देखा तो वे भी दंग रह गए कि भोपाल में गैस पीडि़तों की स्थिति कितनी बदतर और दयनीय है। इस घटना के बाद उक्त प्रतिनिधियों ने उस गैस संगठन को इनके हित में काम करने के लिए करोड़ों रुपए की राशि चंदे अथवा अनुदान के रूप में दी। उन्होंने दावा किया कि गैस पीडि़तों के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन राज्य सरकार के लिए भी नाक के बाल बने हुए है। जब कभी गैस पीडि़त सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं सरकार केन्द्र से मिले अनुदान में से लाखों रुपए की सौगात उनको किसी भी नाम पर बांट देती है और उन संगठनों के कर्ताधर्ता अधिकारियों से रिश्वत का हिस्सा पाकर चुप हो जाते हैं।
जन-साधारण के साथ सरकारों के विश्वासघात के हजारों उदाहरण देश-दुनिया में देखने को मिलते रहते हैं परन्तु भोपाल गैस कांड को लेकर जिस तरह का विश्वासघात देश की पिछली तथा वर्तमान केन्द्र सरकारों और मध्यप्रदेश की कांग्रेसी अथवा भाजपा की राज्य सरकारों ने गैस पीडि़तों के साथ किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। भोपाल गैस त्रासदी तो फिर भी विश्व की अन्यतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में शामिल है, जिससे हुए शारीरिक आर्थिक नुकसान का दूर बैठकर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। अमरीका अथवा पश्चिम के किसी भी देश में किसी छोटी-मोटी औद्योगिक दुर्घटना तक में लापरवाही बरतने एवं श्रमिकों, जनसाधारण के हताहत होने पर सज़ा एवं मुआवज़े के जो कठोर प्रावधान हैं उनके आधार पर भोपाल गैस पीडि़तों के मामले में जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा के साथ-साथ कंपनी को जो आर्थिक मुआवजा भुगतना पड़ता उससे यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन को अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ सकता था। परन्तु गैस कांड के तुरंत बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने गैस पीडि़तों के हितों के नाम पर समस्त कानूनी कार्यवाही का अधिकार अपने हाथ में लेकर गैस पीडि़तों के हाथ तो काट ही दिए बल्कि गैस पीडि़तों की लड़ाई को इतने कमजोर तरीके से लड़ा कि ना इस नरंसहार के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की जिम्मेदारी तय हो पाई और ना ही पश्चिमी कानूनों मुताबिक भोपाल गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा ही मिल पाया। यूं कहे कि यदि अमरीकी मुआवजा कानून के तहत मुआवजा दिया जाता तो भोपाल के प्रत्येक गैस पीडि़त के हिस्से में लगभग ढाई-ढाई करोड़ रुपया मिलता। लेकिन अगर ऐसा होता तो राजनीतिक दलों के नेताओं को करोड़पति बनने का मौका कैसे मिलता?
एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी षडय़ंत्र के तहत भोपाल में मचाए गए मौत के इस तांडव के विरुद्ध सचेत राजनैतिक आन्दोलन के अभाव में गैस पीडि़तों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जाना तो आज छब्बीस साल बाद भी संभव नहीं है। लेकिन इन 26 वर्षों में इसे लेकर जो राजनीतिक व न्यायिक प्रक्रिया का रोचक और लोमहर्षक खेल खेला गया, वह और भी अधिक त्रासद और पीड़ादायक है।
दरअसल देखा जाए तो इस दुर्घटना के राजनैतिक सिग्नीफिकेन्स को दरकिनार रखकर गैस पीडि़तों की पूरी जद्दोजहद मुआवज़े के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही है जिसे लेकर केन्द्र एवं राज्य सरकार के अलावा गैस पीडि़त संगठनों की भूमिका भी बेहद निराशाजनक रही है। मुआवज़े के नाम पर जो भी रकम सरकार के खाते में आई है उसके सही खर्च और गैस पीडि़तों के हित में प्रबंधन करने की जगह उसे फुटकर रूप से गैस पीडि़तों में बांटकर अप्रत्यक्ष रूप से बाज़ार के मुनाफाखोर व्यापारियों की जेब में पहुंचा दिया गया है। गैस पीडि़तों ने अपनी शारीरिक हालत की गंभीरता के प्रति अन्जान रहकर मुआवज़े के रूप में मिले उस पैसे को अपने इलाज पर खर्च करने की जगह टी.वी. फ्रिज, मोटरसाइकिल और दीगर लक्जऱी आयटम्स की खरीदारी पर खर्च कर दिया। कुछ गैस पीडि़तों ने मुआवज़े की रकम से अपने झोपड़ों को पक्के मकानों में तब्दील कर दिया। मगर उनको पहुँचे गंभीर शारीरिक नुकसान के मद्देनजऱ उसका बेहतर से बेहतर इलाज कराया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए था और इसके लिए मुआवज़े की राशि को इस तरह न बाँटकर गैस पीडि़तों के लिए सर्व सुविधा युक्त आधुनिक अस्पतालों का जाल बिछाने के लिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए था ताकि उन्हें वैज्ञानिक पद्धति से उपयुक्त एवं सस्ता इलाज मुहैया हो पाता और वे डॉक्टरों की लूटमार से भी बच जाते। भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल अलबत्ता स्थापित किया गया मगर इसमें भी गैस पीडि़तों को इलाज मिलने के बजाय रईसजादों का ही इलाज होता है और गैस पीडि़त अपने हक से वंचित है। मगर अफसोस सरकारों ने इस दिशा में अभी तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया। उधर भोपाल गैस पीडि़तों की आवाज बुलंद करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को कटघरे में खड़ा करते हुए 62 वर्षीय आसमां बी कहती हैं कि गैस पीडि़तों को ठगने में किसी ने भी कोई कमी नहीं की है। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह पहले अब्दुल्ल जब्बार, आलोक प्रताप सिंह, बालकृष्ण नामदेव, सतीनाथ षडंगी, इरफान, रशीदा बी, हमीदा बी, चंपा देवी शुक्ला, साधना कार्णिक आदि की सम्पत्ति की भी जांच कराएं। क्योंकि त्रासदी से पहले इन सभी की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी। किसी के पास तो साइकल तक भी नहीं थी, लेकिन आज सभी के सभी लाखों रुपए की लग्जरी गाडिय़ों में घूम रहे हैं आखिर इनके पास इतनी रकम कहां से आई।
इसी बीच राज्य सरकार के गैस राहत मंत्री श्री बाबूलाल गौर ने कारखाने को जनता के लिए खोल देने की घोषणा करके ज़हरीले मलवे के मामले को साधारण बना दिया। गौर ने कहा कि जब लोग यहां आएंगे तो उनकी वह धारणा दूर हो जाएगी कि कारखाने में अभी भी खतरनाक रसायनों का असर मौजूद है। गौर ने एक प्रयोगशाला की जांच का हवाला देकर कहा कि कारखाने में खतरनाक ज़हरीले तत्व नहीं पाए गए। राज्य सरकार यहां पर एक स्मारक बनवाना चाहती है जिसकी अनुमानत लागत करीब 117 करोड़ बताई जा रही है। फिलहाल यह मामला टल गया है।
गैस पीडि़तों के इलाज के नाम पर बने भोपाल मेमोरियल हास्पिटल एवं रिसर्च सेंटर की गैस पीडि़त विरोधी कार्यप्रणाली पर कटाक्ष करते हुए गैस पीडि़तों के हकों की लड़ाई लडऩे वाले आल इंडिया मुस्लिम त्यौहार कमेटी के चेयरमेन डॉ. औसाफ शाहमीरी खुर्रम कहते हैं कि अस्पताल का प्रबंधन और संचालन जस्टिस अहमदी जैसे गैर गैस पीडि़तों के हाथों में होने की वजह से गैस पीडि़तों के दुख-दर्द का उन्हें कोई अहसास नहीं है।
भोपाल गैस कांड के बाद केंद्र सरकार की पहल पर यूनियन कार्बाइड से पीडि़तों को मुआवजा और राहत दिलाने के लिए 470 मिलियन डॉलर यानी लगभग 750 करोड़ रुपये की धनराशि का समझौता हुआ था. कंपनी ने यह राशि केंद्र सरकार को दे दी, लेकिन लगभग दो वर्षों तक मुआवजा वितरण प्रक्रिया तय न होने के कारण यह धन भारतीय रिजर्व बैंक में जमा रहा, जिस पर ब्याज मिलता रहा. 1989 में मुआवजा वितरण किस्तों में तय किया गया और एक बड़ी धनराशि बैंक में जमा रह जाने से सरकार को ब्याज की कमाई होती रही. 750 करोड़ रुपये की मूल राशि ब्याज मिलाकर 3000 करोड़ रुपये हो गई. सरकार ने लगभग 5.74 लाख लोगों को 1.549 करोड़ रुपये का नकद मुआवजा वितरण 15 वर्षों में किया। इसके अलावा लगभग 512 करोड़ रुपया पीडि़तों के इलाज पर खर्च होना बताया गया। आज भी लगभग 1000 करोड़ रुपया मुआवजा मद में बैंक में जमा है और उस पर लगातार ब्याज भी मिल रहा है। खैर, यह तो एक मुद्दा हुआ कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारी लोगों के बचाव में राजनीतिक नेताओं, सरकारों व अधिकारियों की किस तरह की भूमिका रही। बातें बहुत साफ हैं। सभी लोग खुले ढंग से अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं और राजनीति के वास्तविक चरित्र का अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु इस प्रकरण में इस देश के न्यायपालिका की भूमिका भी अत्यंत संदिग्ध रही है। इस देश के न्यायिक इतिहास में संभवत: ऐसा पहली बार हुआ जब किसी निर्णय पर केंद्रीय विधि मंत्री, कई न्यायविदों, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित पूरे देश के समाचारपत्रों ने अत्यंत तीखी टिप्पणी करते हुए इसे 'शर्मनाकÓ, 'दफन हुआ इंसाफÓ, 'न्याय नहीं सिर्फ फैसलाÓ जैसे विशेषणों के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। सामान्यतया निर्णय होने के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती क्योंकि न्यायालय की 'अवमानना कानून, 1971Ó में दी गई परिभाषा के अनुसार यदि कोई प्रकाशन इस तरह का हो जो किसी न्यायालय की या न्यायिक प्रशासन की छवि को धूमिल करने वाला हो, तो उसे न्यायालय की अवमानना माना जाता है। (निर्णीत मामले की सही आलोचना को छोड़कर) पर भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय एक अपवाद जैसा है जिसको लेकर न्यायालय, सरकार अभियोजन सभी को एक स्वर से इस बात के लिए दोषी ठहराया गया है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के लिए इन तीनों की मिली-भगत थी यह एक अभूतपूर्व एवं लोकतंत्र पर कलंक के स्वरूप की प्रतिक्रिया थी और आरोपों के दायरे से देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री अहमदी को भी बाहर नहीं रखा जा सकता।
मामले की वैधानिकता पर विचार करें तो कुछ और अत्यंत गंभीर तथा शर्मनाक पहलू सामने आते हैं। वास्तविक तथ्य इस प्रकार है कि प्रारंभ में सत्र न्यायालय में धारा 304 अर्थात् गैर इरादतन हत्या जिसमें आजीवन कारावास या दस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, इसका प्रकरण दर्ज हुआ था जिसके विरुद्ध प्रबंधन उच्च न्यायालय गया किंतु उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय की कार्यवाही की पुष्टि की किंतु जब प्रबंधन सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो वहां इस मामले को 'लापरवाही से हुई मौतÓ का दर्जा देकर धारा बदल दी गई। परिवर्तित धारा 304(ए) के अंतर्गत किए गए अपराध में मात्र दो वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड की सजा दी जा सकती है।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त आदेश पारित कर धारा को परिवर्तित किया था और सी.बी.आई. या मध्य प्रदेश सरकार इस आदेश से संतुष्ट नहीं थी तो उनके द्वारा इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन या वृहत्तर खडपीठ के समक्ष याचिका उसी समय प्रस्तुत क्यों नहीं की गई? दूसरी बात यह कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 पार्ट 2 को 304(ए) को परिवर्तित कर ही दिया था तब तत्काल उस आदेश को चुनौती न देकर आज केंद्र और म.प्र. सरकारों के द्वारा मंत्री समूह या विधि विशेषज्ञों की समिति बनाने और उनकी राय लेने का क्या अर्थ रह जाता है? इस तरह की कार्यवाहियां केवल राजनैतिक स्टंट ही लगती हैं और पुन: जनसाधारण के समक्ष एक दिखावा मात्र है। इस तरह के मामलो में अक्सर यही होता है कि सरकारें राजनैतिक वक्तव्य देकर अपने 'दागÓ धोने या छुपाने का प्रयत्न करती हैं और नेता, कुछ भी बेसिर पैर के वक्तव्य देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करता है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

बीहड़ से खत्म हो रहा डाकुओं का राज

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लिए हमेशा सिरदर्द रहे बीहड़ में धीरेधीरे डाकुओं का राज खत्म हो रहा है और यहां पर तोजी से हालात बदल रहे हैं। हालांकि दस्यु उन्मूलन के लिए अभी और समय लगेगा, किन्तु वषोर्ं तक आतंक का पर्याय रहे बुंदेलखंड और चंबल अंचल में विगत एक दशक से धीरेधीरे डकैत समस्या अंत की ओर ब़ रही है। बीहड़ में अपनी सत्ता चलाने वाले दस्यु सरगनाओं को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश पुलिस ने मार गिराकर जहां राहत की सांस ली है वहीं यहां के निवासियों की सोच में बदलाव देखा गया है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने डाकुओ की पनाहगाह चम्बल घाटी में निर्भय गुर्जर, शिवकुमार उर्फ ददुआ, जगजीवन परिहार, अंबिका पटेल उर्फ ठोकिया जैसे कुख्यात डाकुओं का सफाया किया है वहीं मध्य प्रदेश पुलिस ने भी ग्वालियरचंबल इलाके में करीब एक दशक तक आतंक मचाने वाले गडरिया गैंग का सफाया किया। इस गिरोह के मुखिया रामबाबू और दयाराम डकैत को शिवपुरी पुलिस ने मार गिराकर राहत की सांस ली है।

कहना न होगा कि ग्वालियरचंबल सहित बुंदेलखंड से धीरेधीरे खूंखार डकैतों के सफाये के बाद राहत की सांस ज्यादा दिनों तक रह सकी और अब उसके सामने सवोर्च्चता कायम करने को लेकर छोटेछोटे गिरोहों में मची होड़ ने एक और चुनौती खड़ी कर दी है। बुंदेलखंड और चंबल अंचल में वषोंर्ं तक आतंक का पर्याय रहे दस्यु सरगना निर्भय, ददुआ परिहार और ठोकिया को तो मार गिराया गया, मगर उसके बाद विगत दो वषोर्ं में उन्हीं बीहड़ों में कई छोटेछोटे गिरोह सिर उठा चुके हैं और ये गिरोह पूर्व में मारे गए डकैत सरगनाओं से आगे निकलने की होड़ मे लग गए हैं। हालांकि नए गिरोह जनशक्ति और हथियारों के मामले में पूर्व के दस्यु गिरोहों से बहुत पीछे हैं, किन्तु उनके इरादे आतंक का एकछत्र राज कायम करने के ही हैं। यूपी में करीब 36 गिरोह हैं, जो पुलिस के लिए अभी नहीं तो आगे चलकर बड़े सिरदर्द साबित हो सकत्ो हैं। वहीं मध्य प्रदेश में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दस्यु सरगना ठोकिया के मारे जाने के बाद इस गिरोह का विभाजन हो गया और गुटों में लड़ाई चल रही है कि ठोकिया का असली उत्तराधिकारी कौन है। अगर समय रहत्ो ऐसे गिरोहों पर अंकुश न लगा तो यह पुलिस के लिए बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है।

दस्यु प्रभावित क्षेत्र ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, भिंड, मुरैना, इटावा और आगरा में आजादी के 63 साल बाद भी विकास की बयार कहीं दिखाई नहीं देती। गांवों में न सड़कें है और न ही दूसरी बुनियादी सुविधाएं। उद्योग धंधे और रोजगार के अवसर तो न के बराबर हैं। खेती पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है। बिजली की समस्या की वजह से खेतों की सिचाई नहीं हो पाती है। व्यावसायिक शिक्षा की तरफ यहां सरकार ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। लोगों के पास सरकारी नौकरी खासकर फौज में भतीर होने के अलावा कोई चारा नहीं है। जमीन बेचकर लोग इसके लिए रिश्वत का इंतजाम करत्ो हैं, जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे अपहरण उद्योग में शामिल हो जात्ो हैं। यहां के युवा अपहरण कर डकैतों को सौंप देत्ो हैं। इसके बदले उन्हें फिरौती की रकम से एक हिस्सा मिल जाता है। यह हिस्सा 10 से 25 फीसदी तक होता है। अपहरण उद्योग से पुलिस को भी कमाई होती है। असलियत यह है कि पुलिस नहीं चाहती की दस्यु समस्या खत्म हो। भ्रष्ट पुलिस वालों के लिए दस्यु समस्या कमाई का जरिया बन हुआ है। पुलिस के कई लोग डाकुओं की मदद करत्ो हैं पुलिस भी मानती है कि उसके महकमें के लोगों द्वारा डाकुओं को मदद मिलती है। यही नहीं कई बार पुलिस की सूचनाएं डाकुओं तक पहुंच गई हैं और अभियान फेल हो गया। इसका सब मामले में कई पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई भी की गई है।

यहां की धरती पर कभी अंग्रेजों और सिंधिया स्टेट के अन्याय के खिलाफ हथियार उठाने वाले बागियों से लेकर मौजूदा समय में अपहरण को उद्योग बनाने वाले डाकुओं की कहानियां बिखरी पड़ी हैं। पुलिस की नजर में ये डकैत बर्बर अपराधी हैं, लेकिन वे अपने इलाके में रॉबिनवुड हैं। अपनी जाति के हीरों हैं, अमीरों से पैसा ऐठना और गरीबों खासकर अपनी जाति के लोगों की मदद करना इनका शगल है, लेकिन दुश्मनों और मुखबिरों के साथ ये ऐसा बर्बर रवैया अपनात्ो हैं कि देखने वालों के दिल दहल जाएं। पुलिस भी मानती है कि जिस जाति का व्यक्ति अपराध कर डाकू बन जाता है उसे उस विशेष जाति समुदाय के लोग अपना हीरो मानने लगत्ो हैं, उसके साथ नायक जैसा व्यवहार करत्ो हैं। यह परंपरा आज की नहीं है, जब से यहां डाकू पैदा हुए तब से चली आ रही है। यही कारण है कि मानसिंह से लेकर दयाराम गडरिया और ददुआ तक अपनी जाति के हीरो रहे। डाकुओं की पैदा करने में प्रतिष्ठा, प्रतिशोध और प्रताड़ना तो कारण हैं ही लेकिन सबसे अहम भूमिका पुलिस की होती है। चंबल के दस्यु सरगनाओं का इतिहास देखें तो डाकू मानसिंह से लेकर फूलन देवी तक सभी लोग अमीरों या रसूख वाले लोगों के शोषण के शिकार रहे हैं और इस शोषण में पुलिस और व्यवस्था ने इनकी बजाय रसूखवालों का ही साथ दिया। ऐसे में ये लोग न्याय की उम्मीद किससे करें। इसके कई उदाहरण है, जिनमें कभी चंबल में पुलिस की नाक में दम करने वाले पूर्व दस्यु सरगना मलखान सिंह भी शामिल हैं। कहा जाता है कि गांव के सरपंच ने मंदिर की जमीन पर कब्जा कर लिया और विरोध करने पर उन्होंने मलखान सिंह के खिलाफ फर्जी केस दर्ज कर जेल भिजवा दिया और फिर विरोध करने वाले मलखान सिंह के एक साथी की हत्या भी कर दी। सरपंच तब के एक मंत्री का रिश्तोदार था जिसके घर पर दरोगा और दीवान हाजिरी बजात्ो थे। ऐसे में वह किससे न्याय मागता। बंदूक उठाने के अलावा उसके पास कोई रास्ता ही नहीं था। जगजीवन परिहार को डकैत बनाने के लिए तो पुलिस ही जिम्मेदार थी। वह पुलिस का मुखबिर था, निर्भय गूजर को मारने के लिए पुलिस ने जगजीवन को हथियार मुहैया कराया और डाकू बना दिया। ऊपर से दबाव या फिर डाकू के पकड़े जाने पर भेद खुल जाने के डर से पुलिस वाले इनका इनकाउंटर कर देत्ो हैं और फिर एक दूसरा गैंग तौयार करवा देत्ो हैं। पुलिस भी मानती है कि इनकाउंटर स्पेस्लिस्ट लोगों की इसमें खास भूमिका होती है। ऐसे लोग जब एक गैंग को मार गिरात्ो हैं तो उनकी अनिरंग बंद हो जाती है। ऐसे में वे दूसरा गैंग तौयार कर देत्ो हैं।

चंबल में डकैत समस्या के पनपने के लिए कहीं न कहीं यहां की प्राकृतिक संरचना भी जिम्मेदार है। चंबल के किनारे के मिट्टी के बड़ेबड़े टीले डाकुओं की छुपने की जगह है, अगर सरकार इन्हें समतल कर लोगों में बांट दे तो इससे न केवल डाकू समस्या पर लगाम लग सकती है, बल्कि लोगों को खेती के लिए जमीन मिल जाएगी, लेकिन टीलों के समतलीकरण की योजना भ्रष्टाचार की वजह से परवान नहीं च़ पा रही है। यही कारण है कि डाकुओं के अलावा अब चंबल में नक्सली भी सक्रिय हो रहे हैं। पुलिस भी यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि नक्सलियों का प्रशिक्षण शिविर कहां चल रहा है। शोषण और बेरोजगारी ही दस्यु समस्या की तरह नक्सल समस्या की भी जड़ है, अगर इस समस्या से निपटना है तो गांवों में विकास की गंगा बहानी हागी। लोगों को शिक्षा के साथ ही रोजगार भी मुहैया कराना होगा, अन्यथा चंबल का दायरा घटने के बजाय पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लेगा और देशभर में ऐसे बागियों की जमात पैदा हो जाएगी, जो देश के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगी।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

ग़रीबी के ख़िला़फ कोई कारगर क़दम नहीं उठा सकी कांग्रेस

भारत के विकास की असली कहानी वहां से शुरू होती है, जब देश के राजनीतिक नेतृत्व में कांग्रेस का एकाधिकार ख़त्म होने लगा. इसके बाद ही सियासी गलियारों में पिछड़ी जातियों के लोगों की आवाज़ सुनी जाने लगी. समाज के मंडलीकरण को किसी सूरत में अच्छा नहीं माना जा सकता, लेकिन हिंदूवादी जाति व्यवस्था में कमज़ोर-पिछड़े वर्ग के लोगों को उनकी सही हैसियत दिलाने का यही एकमात्र तरीक़ा भी था, क्योंकि कांग्रेस ऐसा करने में नाकामयाब रही थी.
कांग्रेस के इतिहास का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि वह ग़रीबी के ख़िला़फ कोई कारगर क़दम नहीं उठा सकी. स्वतंत्रता के बाद के 63 सालों में से 50 साल तक वह सत्ता में रही है, लेकिन ग़रीबी के मोर्चे पर अपने ख़राब रिकॉर्ड को लेकर उसे कोई मलाल नहीं है. आज़ादी के बाद पहले 42 सालों में दो साल के जनता शासन को छोड़ दें तो देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कांग्रेस के हाथों में थी. फिर भी वह न तो आर्थिक विकास की गति को तेज कर पाई, न रोज़गार के अवसर पैदा करने में कामयाब हुई, न ही ग़रीबी को ख़त्म कर पाई, न भूमि सुधार के क्षेत्र में कुछ सार्थक पहल कर सकी, न ही आम लोगों में शिक्षा या स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करने की दिशा में कोई कारगर काम करने में सफल रही. इन असफलताओं को समाजवादी समाज की स्थापना का नाम दिया गया. इस बीच ताईवान और दक्षिण कोरिया तो क्या, मलेशिया और श्रीलंका जैसे भारत के पड़ोसी भी उससे आगे निकल गए. 1947 में भारत एशिया महाद्वीप का सबसे धनी और औद्योगीकृत राष्ट्र था (दूसरे विश्व युद्ध से पहले जापान काफी विकसित था, लेकिन युद्ध के बाद उसकी अर्थव्यवस्था कमज़ोर पड़ चुकी थी), लेकिन इसके बाद वह लगातार पिछड़ता चला गया. हमने सोवियत संघ को अपना आदर्श मान लिया और उसी की तर्ज पर बड़े-बड़े कारखाने बनाने लगे. विशालकाय मशीनों के निर्माण की बड़ी क़ीमत भारतीयों की कई पीढ़ियों को चुकानी पड़ी है.
आर्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ा बदलाव 1991 में आया, जब उदारीकरण की शुरुआत हुई. इसमें तीन बातें मददगार साबित हुईं. कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं था, प्रधानमंत्री नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ा नहीं था और वित्त मंत्री के पद पर ऐसा शख्स था, जो न तो पैदाइशी कांग्रेसी था और न ही राजनीतिज्ञ. इसका मतलब यह है कि मौजूदा दौर में भारत के लिए सबसे अच्छी संभावनाएं तब होंगी, जब कांग्रेस सत्ता में तो हो लेकिन उसके पास अपना बहुमत न हो और प्रधानमंत्री ऐसा हो, जो गांधी-नेहरू परिवार का न हो और जन्मजात कांग्रेसी भी न हो.


महात्मा गांधी को यह उम्मीद थी कि वह 125 सालों तक जिएंगे. काश कि ऐसा हो पाता. गांधी जी तो 1948 में ही काल कवलित हो गए, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसकी सेवा में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी तीस साल बिता दिए, आज अपनी उम्र के 125वें पड़ाव पर ज़रूर पहुंच चुकी है. भारत के साथ जो भी अच्छी या बुरी चीजें जुड़ी हैं, उनके लिए आज कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. विंस्टन चर्चिल ने एक बार घमंड में चूर होकर कहा था कि इतिहास उनके साथ अन्याय नहीं कर सकता, क्योंकि वह ख़ुद इतिहास लिखने की कूव्वत रखते हैं. आधुनिक भारत के इतिहास का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस के साथ जुड़ा है, लेकिन यह इतिहास इस तरीक़े से लिखा गया है कि देश की किसी भी छोटी-बड़ी उपलब्धि का सेहरा किसी दूसरे के सिर नहीं बंधता. इस इतिहास को पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे देश की स्वतंत्रता सिर्फ कांग्रेस पार्टी की ही देन है और इसमें किसी दूसरे समूह का कोई योगदान नहीं था. नया संविधान बनाकर देश को लोकतंत्र के रास्ते पर आगे ले जाने का काम भी इसी ने किया. इसके बाद इसने राष्ट्रीय राजनीति को एक धर्म निरपेक्ष स्वरूप दिया और अपने दुश्मनों के मुक़ाबले भारत को मज़बूती दी. बाद के वर्षों में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करके भारत को एक मजबूत आर्थिक ताक़त के रूप में खड़ा करना भी कांग्रेस की ही उपलब्धि है. लेकिन यह सत्य का विकृत स्वरूप है. कांग्रेस पार्टी ने निस्संदेह इस देश की बेहतरी के लिए कई काम किए हैं, लेकिन उसमें और लोगों का, समूहों का योगदान भी रहा है.
स्वतंत्रता से पहले कई ऐसे आदर्शवादी देशभक्त थे, जिन्होंने कांग्रेस की मध्यमार्गी अहिसंक रणनीति को स्वीकार नहीं किया और हथियार उठा लिए. वे अपने उद्देश्यों में भले नाकामयाब रहे हों, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके दुस्साहसी कारनामों का असर हुआ. संविधानवादियों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. आख़िरकार, देश के संविधान के अधिकांश हिस्से पर सबसे ज़्यादा प्रभाव गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 का ही है. इस क़ानून के निर्माण में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी, क्योंकि एक तो पार्टी पहले गोलमेज सम्मेलन में शामिल नहीं हुई थी और फिर जब यह क़ानून इंग्लैंड की संसद में पारित हुआ तो इसने उसे खारिज कर दिया था. हालांकि इसी क़ानून के अंतर्गत संविधान सभा के चुनाव हुए थे, जिसने कांग्रेस को यह मौक़ा दिया कि 1946 के बाद संविधान के बाकी हिस्सों के निर्माण में वह अपनी भूमिका निभा सके. भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप को निश्चित रूप से कांग्रेस की सबसे बड़े देनों में गिना जा सकता है. यदि जवाहर लाल नेहरू स्वाभाविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं होते तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में लोकतंत्र का वजूद क़ायम नहीं रह पाता. न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और न ही वामपंथियों ने इसके लिए कोई प्रयास किए थे, लेकिन नेहरू की मृत्यु और खास तौर पर 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद पार्टी ने लोकतांत्रिक परंपरा को तिलांजलि दे दी. इसकी देखादेखी दूसरी पार्टियों ने भी आंतरिक लोकतंत्र से ख़ुद को दूर कर लिया. आज की तारीख़ में किसी भी राजनीतिक दल का नेता चुना नहीं जाता, बल्कि उसका मनोनयन होता है. ऐसी राजनीतिक व्यवस्था, जिसमें नेता लोकतांत्रिक ढंग से चुने नहीं जाते, में लोकतंत्र भला ज़्यादा दिनों तक कैसे टिका रह सकता है.

सेना सो रही है, सरकार नशे में

आदर्श सोसाइटी घोटाले के तार लखनऊ से जुड़े हैं. मुंबई और लखनऊ के इस लिंक को अगर गहराई से खंगाला जाए तो मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाले से बड़ा घोटाला मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ में खुलेगा. आदर्श घोटाला प्रकरण को गौर से देखें तो आप पाएंगे कि घोटाला करने वाले अधिकारियों का लखनऊ से मुंबई-पुणे का तारतम्य लगातार बना है. इसे बनाए रखने में रक्षा संपदा सेवा (डिफेंस इस्टेट सर्विस) के महानिदेशक बालशरण सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अभी रिटायर होने के पहले तक वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. पुणे छावनी की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रैशेल कोशी को हटाकर उनकी जगह भेजे गए बी ए ध्यालन हों या ध्यालन को पुणे बुलाकर उनकी जगह लखनऊ में स्थापित की गई भावना सिंह हों या आदर्श सोसाइटी भूमि हस्तांतरण में चाबी की भूमिका अदा करने वाले आर सी ठाकुर हों, ये सब उसी थैली के चट्टे-बट्टे हैं, जो सेना की छवि पर बट्टा लगाते हैं.


मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ से लेकर दक्षिण कमान मुख्यालय मुंबई-पुणे तक रक्षा संपत्ति सेवा में तैनात अधिकारी लैंड ग्रैबर्स (जमीन हड़पने वाले) का काम कर रहे हैं. आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के अस्तित्व में आने से लेकर सोसाइटी का सदस्य बनाने तक की प्रक्रिया में जो अनियमितताएं हुईं, उनमें वही अधिकारी सक्रिय भूमिका में रहे, जो मध्य कमान मुख्यालय में रहते हुए सेना की अचल संपत्ति गिरवी रख चुके हैं. आदर्श सोसाइटी में बाहरी लोगों को सदस्यता देने पर बवाल मचा हुआ है, लेकिन मध्य कमान मुख्यालय का सैन्य क्षेत्र नेताओं, दलालों और संदेहास्पद किस्म के बाहरी लोगों को दे दिए जाने के बावजूद हर तऱफ चुप्पी सधी है. सेना के क्षेत्र में मॉल बन चुके हैं और असैनिक इमारतें बन रही हैं. यहां तक कि सैन्य क्षेत्र की प्लॉटिंग कर उसे आम लोगों के हाथों बेचा जा रहा है. सैन्य क्षेत्र की एक विवादास्पद कोठी को मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन पर गिफ्ट देने की तैयारियां चल रही हैं. जबकि प्रदेश की सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री ने सैन्य क्षेत्र की एक अन्य आलीशान कोठी पहले ही कब्जे में ले ली थी. बहरहाल, मध्य कमान की सैन्य संपत्ति का कबाड़ा करने की वीभत्स तस्वीर देखने से पहले हम यह देखें कि सेना मुख्यालय में डिफेंस इस्टेट सर्विस के डीजी बालशरण सिंह ने लखनऊ छावनी के सीईओ बी ए ध्यालन को पुणे पदस्थापित करने के लिए किस तरह सैन्य आदर्शों की ऐसी-तैसी कर दी. दरअसल सैन्य आदर्शों की फज़ीहत इसलिए की गई कि उलट-पुलट में माहिर ध्यालन के पुणे पहुंचने से आदर्श घोटाले में फजीहत होने से उन्हें निजात मिलने की उम्मीद थी. इंडियन डिफेंस इस्टेट सर्विस के अफसर बी ए ध्यालन ने पिछले महीने ही पुणे छावनी परिषद के सीईओ का पदभार ग्रहण किया.

ध्यालन को इस पद पर जबरन आसीन कराया गया. यह भी कह सकते हैं कि पुणे छावनी परिषद की सीईओ रैशेल कोशी को जबरन हटाया गया. महानिदेशक को इसकी भनक मिल चुकी थी कि आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का मायाजाल बिखरने वाला है, लिहाज़ा ध्यालन को पुणे लाना ज़रूरी है. रैशेल कोशी अपनी ईमानदार छवि के लिए जानी जाती हैं. कोशी के रहते हुए इस मामले में बचाव का कोई रास्ता नहीं मिलता. महानिदेशक बालशरण सिंह ने पांच अक्टूबर को रैशेल कोशी को हटाने और ध्यालन को लाने का आदेश जारी किया, जबकि कोशी का छह महीने का टेन्योर बाकी था. महानिदेशक को 31 अक्टूबर को रिटायर हो जाना था, लेकिन उन्हें रैशेल कोशी के वहां रहते हुए घोटाले में फंसने का अंदेशा सता रहा था, लिहाज़ा रिटायर होने के तीन दिन पहले उन्होंने ध्यालन को पुणे छावनी परिषद के सीईओ पद पर बैठाकर ही दम लिया. ध्यालन को मुंबई सर्किल में वर्ष 2007 में बेहतरीन सेवा के लिए सेना की तरफ से प्रशस्ति पत्र दिया जा चुका है. उसी काल में कोलाबा का आदर्श सोसाइटी घोटाला भी परिपक्व हो रहा था. ध्यालन पर घोटाले और अनियमितताओं के जो मामले चल रहे थे, उन्हें दरकिनार कर रक्षा संपदा सेवा शाखा उनका प्रशस्ति गान करती रही. ध्यालन को बेहतरीन सेवा के लिए प्रशंसा तब मिली, जब उन पर चंडीगढ़ के कार्यकाल के दरम्यान पंचायतों के सर्विस चार्ज में अनियमितता करने का मामला सामने आया. वित्तीय अनियमितता के गंभीर आरोपों की चार्जशीट इसी साल खारिज हुई और इसी साल आदर्श घोटाला भी उजागर हुआ. आरोप खारिज करने के पीछे तर्क यह दिया गया कि संबंधित राशि 30 लाख रुपये से कम है. ध्यालन के ख़िला़फ ऐसे कई मामले चल रहे हैं. एक स्टिंग ऑपरेशन में रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद ध्यालन काफी कुख्यात हुए. दक्षिणी कमान के किरकी सैन्य क्षेत्र में भी अनियमितताएं करने के कारण उनका काफी नाम है. आपका ध्यान दिलाते चलें कि ध्यालन के रहते हुए पुणे में सेना की जमीन पर मा़फियाओं का क़ब्ज़ा हुआ है और रक्षा संपत्ति सेवा के तीन अधिकारियों के ख़िला़फ सीबीआई की जांच भी चल रही है.

आप स्थिति की गंभीरता इस बात से ही समझ सकते हैं कि ध्यालन को पुणे छावनी परिषद के सीईओ पद पर लाने के खिलाफ दक्षिणी कमान के जनरल अफसर कमांडिंग इन चीफ (जीओसी इन सी) लेफ्टिनेंट जनरल प्रदीप खन्ना ने थलसेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह को पत्र लिखा और सख्त आपत्ति दर्ज कराई. किसी कमान के सेना कमांडर आम तौर पर रक्षा संपत्ति सेवा के प्रशासनिक मामलों में तब तक दखल नहीं देते, जब तक कोई अत्यंत गंभीर मामला न हो. लेफ्टिनेंट जनरल खन्ना ने सेनाध्यक्ष को लिखे पत्र में कहा है कि पुणे कैंटोंमेंट जैसे सबसे संपन्न छावनी क्षेत्र में संदेहास्पद चरित्र के व्यक्ति की इस तरह पोस्टिंग ग़लत इरादों से की गई. कोशी को हटाया जाना शीर्ष अधिकारी द्वारा अपने पद का बेजा इस्तेमाल है. पुणे छावनी के सीईओ को डिफेंस इस्टेट सर्विस का वरिष्ठतम अधिकारी माना जाता है, जो रियल इस्टेट के मामले निबटाने के लिए अधिकृत होता है. उल्लेखनीय है कि सेना के पास सात हज़ार वर्ग किलोमीटर से अधिक ज़मीन है. सेना के तीनों अंगों के पास कुल मिलाकर 17.3 लाख एकड़ ज़मीन है. कुल 17.3 लाख एकड़ भूमि में से 13.79 लाख एकड़ ज़मीन अकेले थलसेना के पास है. वायुसेना के पास महज़ 1.51 लाख एकड़ और नौसेना के पास 0.37 लाख एकड़ ज़मीन है. देश के 19 राज्यों की 62 छावनियों में ही दो लाख एकड़ ज़मीन है. इस ज़मीन के इस्तेमाल का अधिकार भी सेना के पास ही है, जिसका बेजा इस्तेमाल कर सुकना या आदर्श जैसे घोटाले किए जाते हैं. दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास के निकट वायुसेना के संतुष्टि शॉपिंग कॉम्प्लेक्स को लेकर जो अनियमितताएं की गईं, उन्हें महालेखाकार ने भी रेखांकित किया. यह घोटाला एयरफोर्स वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन ने किया था.

आदर्श घोटाले को अंजाम देने वालों ने लखनऊ में रहते हुए मध्य कमान की अचल संपत्ति का क्या कबाड़ा किया, उसकी बानगी देखिए. जब देश आज़ाद हुआ था, उस समय मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ के पास 13 कैंपिंग ग्राउंड थे. आज लखनऊ मुख्यालय के पास केवल सात कैंपिंग ग्राउंड रह गए. बाक़ी के छह कैंपिंग ग्राउंड कहां गए, इसका जवाब सेना के पास नहीं है. आधिकारिक तौर पर पूछें तो संवेदनशील सैन्य मसला बताता हुआ रटा-रटाया इंकार वाला जवाब मिलता है. लेकिन सेना के इस इंकार से ज़मीन का सत्य नहीं छिपने वाला. मध्य कमान मुख्यालय के छावनी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, बसपा नेता डॉ. अखिलेश दास, कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी (उनके समधी के नाम पर), सत्ता के खास नौकरशाह प्रदीप शुक्ला एवं उनकी पत्नी आराधना शुक्ला, समाजवादी पार्टी के नेता एवं विधायक रघुराज प्रताप सिंह, बसपा नेता एवं व्यापारी सुधीर हलवासिया समेत कई अन्य नेताओं, नौकरशाहों और दलालों को कैंट की बड़ी-बड़ी कोठियां और कोठियों के साथ ज़मीन के भव्य हिस्से कैसे मिले? सेना के किस क़ानून के तहत बाहरी लोगों को सैन्य क्षेत्र की ये कोठियां हासिल हुईं? इसका जवाब किसी के पास नहीं है. मुख्यमंत्री मायावती को कैंट में मिले घर को आलीशान बनाने के लिए सैन्य क्षेत्र के क़ानूनी प्रावधानों को ताक पर रखकर हरे पेड़ काटने और पत्थर लगवाने की इजाज़त क्यों और किसने दी? डिफेंस इस्टेट महकमा इस पर मौन है, लेकिन इसके पीछे किस तरह की डीलिंग हुई और सैन्य इलाक़े में नए-नए वाशिंदे कैसे आ गए, इसकी वजहें लोग जानते हैं.

अब तो प्रदेश सरकार के एक ताक़तवर मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी भी सैन्य क्षेत्र की एक विवादास्पद कोठी पर क़ब्ज़ा जमा चुके हैं और उसे 15 जनवरी को मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर गिफ्ट करने की तैयारियां कर रहे हैं. कैंट इलाक़े के 12 थिमैया रोड स्थित इस कोठी की कहानी भी कम रोचक-रोमांचक नहीं है. मध्य कमान के जीओसी इन सी रहते हुए लेफ्टिनेंट जनरल डी एस चौहान ने 2002-2003 में सेना के बूते इस कोठी पर ज़बरन क़ब्ज़ा जमा लिया था. सैन्य इतिहास में पहली बार किसी जीओसी इन सी की पत्नी श्रीमती मीरा चौहान, ब्रिगेड कमांडर संजीव मदान, ब्रिगेडियर ए के श्रीवास्तव समेत कई अन्य सैनिकों पर डकैती, दूसरे के मकान पर ज़बरन क़ब्ज़ा, आपराधिक घुसपैठ और साठगांठ का लखनऊ में मुक़दमा दर्ज हुआ था. लेफ्टिनेंट जनरल डी एस चौहान रास्ते से हट गए और रिटायर भी हो गए. उसी विवादास्पद कोठी को औने-पौने भाव में ख़रीद कर नसीमुद्दीन सिद्दीकी उसमें फिट होने की गुपचुप जुगत में लगे हुए हैं. क़ानून को ठेंगे पर रखकर चलने वाले इन नेताओं को यह भी पता है कि 12 थिमैया रोड स्थित उस कोठी का मालिकाना हक चौतऱफा विवाद के घेरे में है. बहरहाल, लखनऊ मुख्यालय के अतिरिक्त भी आप जहां कहीं देखें, सेना की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा है. कानपुर, गोरखपुर, मेरठ, वाराणसी, फैजाबाद, इलाहाबाद सब तऱफ सेना की ज़मीनों पर नेता, मा़फिया, दलाल या पूंजीपति काबिज हैं. सेना की ज़मीन पर बिल्डिंग्स, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स वग़ैरह ताल ठोके खड़े हैं तो सेना के अंदरूनी क्षेत्र में कोठियों की लूट मची है. लखनऊ में सेना के पास ट्रांस गोमती राइफल रेंज में 195 एकड़, अमौसी सेना क्षेत्र में 185 एकड़, कुकरैल राइफल रेंज में सौ एकड़, बख्शी का तालाब में 40 एकड़ और मोहनलालगंज क्षेत्र में 22 एकड़ ज़मीन है, लेकिन यह आंकड़ा केवल सेना के दस्तावेजों तक ही सीमित है. ज़मीनी असलियत भयावह है. इनमें से अधिकांश ज़मीनों पर अवैध क़ब्ज़ा है. सेना कहती है कि क़ब्ज़ा है, जबकि असलियत यह है कि इसके पीछे सेना एवं रक्षा संपदा सेवा के अधिकारियों का भ्रष्टाचार है. लखनऊ में सुल्तानपुर रोड पर सेना की फायरिंग रेंज के बड़े हिस्से की प्लॉटिंग हो गई और ज़मीनें बिक भी गईं. आवास विकास परिषद ने गोसाईंगंज थाने में प्रॉपर्टी डीलरों के ख़िला़फ 30 जुलाई 2010 को मुक़दमा भी दर्ज कराया, लेकिन दुस्साहस यह है कि ज़मीन से आवास विकास परिषद के उस बोर्ड को उखाड़ फेंका गया, जिस पर लिखा था कि यह सेना की फायरिंग रेंज की ज़मीन है. सेना के दस्तावेज बताते हैं कि लखनऊ में ट्रांस गोमती राइफल रेंज की 90 एकड़ ज़मीन और अमौसी में पांच एकड़ ज़मीन पर भूमा़फियाओं का क़ब्ज़ा है. कुकरैल में तो सेना की 23 एकड़ ज़मीन पर बाकायदा बड़ी इमारतें और दुकानें बन चुकी हैं. छावनी से बाहर सेना की क़रीब छह सौ एकड़ ज़मीन प्रदेश सरकार से विवाद में फंसी हुई है. कहीं पर आवास विकास परिषद से लफड़ा है तो कहीं सीधे सरकार से क़ानूनी भिड़ंत चल रही है. कानपुर में सेना की ज़मीन पर अलग-अलग इलाक़ों में छह बस्तियां बसी हुई हैं. कानपुर शहर के वार्ड नंबर एक में भज्जीपुरवा, लालकुर्ती, गोलाघाट, पचई का पुरवा जैसी कई बस्तियां बसी हैं. बंगला नंबर 16 और बंगला नंबर 17 की ओर जाने वाले दो इलाक़ों में पिछले साठ सालों से अवैध बस्तियां बसी हुई हैं, लेकिन उन्हें हटाने की किसी को फुर्सत नहीं है. इन बस्तियों में पक्के मकान तक बन चुके हैं. पक्की सड़कें हैं, बिजली कनेक्शन है और बाकायदा राशनकार्ड है. कानपुर छावनी क्षेत्र में बना आलीशान स्टेटस क्लब सैन्य संपत्ति की अनियमितताओं का क्रूर गवाह है. स्टेटस क्लब का स्टेटस आज एक भव्य होटल की तरह है. दो दर्जन से अधिक पंच सितारा सुविधाओं वाले कमरे, विशाल वातानुकूलित हॉल और क्लब के मालिक विकास मल्होत्रा की इससे हो रही अंधाधुंध कमाई किसके बूते पर हो रही है? सैन्य क्षेत्र में यह क्लब कैसे अस्तित्व में आया और इसकी एवज में किसने क्या-क्या पाया, इसका जवाब सामने आना तो अभी बाकी है. गोरखपुर में गगहा बाज़ार स्थित सेना के कैंपिंग ग्राउंड की 33 एकड़ ज़मीन में से क़रीब दस एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा हो चुका है. गोरखपुर के ही सहजनवा, महराजगंज ज़िले के पास रनियापुर और नौतनवां में सेना की ज़मीनों पर अवैध क़ब्ज़े हैं.

इलाहाबाद शहर में सेना के परेड ग्राउंड की क़रीब 50 एकड़ ज़मीन क़ब्ज़े में है. यहां अवैध बस्तियां आबाद हैं. 32 चैथम लाइंस, 6 चैथम लाइंस और न्यू कैंट में भी सेना की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़े हैं. मेरठ छावनी क्षेत्र तो मॉल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स एवं सिविल कॉलोनी में तब्दील हो चुका है. केंद्र सरकार ने यह फैसला किया है कि आदर्श सोसाइटी घोटाला प्रकरण की सीबीआई से जांच कराई जाएगी. सीबीआई तमाम कोणों से मामले की जांच करेगी. इस बात की भी जांच होगी कि सेना की ज़मीन सोसाइटी को कैसे मिल गई और फिर इसमें लखनऊ कनेक्शन उजागर होगा. रक्षा संपत्ति महकमे में कोलाबा डिवीज़न में काम करने वाले अधिकारी आर सी ठाकुर की आदर्श मामले में सक्रिय-संदेहास्पद भूमिका से पर्दा हटेगा और तब लोगों को यह भी पता चलेगा कि लखनऊ छावनी में तीसरे दर्जे के मामूली कर्मचारी की अप्रत्याशित विकास यात्रा कैसे और किन-किन रास्तों से पूरी हुई. तब यह भी पता चलेगा कि लखनऊ छावनी की मौजूदा सीईओ भावना सिंह पुणे से लखनऊ कैसे आईं, कानपुर में स्टेटस क्लब कैसे बना, किन अधिकारियों के कार्यकाल में बना, इलाहाबाद छावनी में विवादास्पद भर्तियां कैसे हुईं, बरेली इंजीनियरिंग कॉलेज से किस अधिकारी के क्या संबंध हैं, सेना के इलाक़े में कुकुरमुत्ते की तरह नेता-दलाल कैसे आबाद हुए, विजिलेंस एवं अन्य एजेंसियों में जो दर्जनों जांचें साजिशी कोशिशों से रुकी पड़ी हैं, उनका क्या हुआ… वग़ैरह-वग़ैरह…

आदर्श घोटाले पर कौन रहा है मौन?
मध्य कमान मुख्यालय में सैन्य संपत्ति की किस तरह लूट मची है, उसकी छोटी, लेकिन भयावह तस्वीर दिखाई है चौथी दुनिया ने. इस पर भी रक्षा मंत्री बोलेंगे कि उन्हें मध्य कमान में चल रहे घोटालों के बारे में कुछ नहीं पता. आपको यह भी बता दें कि रक्षा मंत्री ए के एंटनी को दो महीने पहले ही आदर्श सोसाइटी को लेकर हुए घोटाले की जानकारी दे दी गई थी, लेकिन घोटाला सार्वजनिक तौर पर उजागर होने के बावजूद रक्षा मंत्रालय यही कहता रहा कि उसे इस मामले की कोई भनक नहीं थी. दरअसल मुंबई के आरटीआई एक्टिविस्ट योगाचार्य आनंद जी ने दो महीने पहले ही रक्षा मंत्री को पत्र लिखकर आदर्श सोसाइटी घोटाले की जानकारी दे दी थी और उनसे कुछ ज़रूरी जानकारियां भी मांगी थीं. योगाचार्य को रक्षा मंत्री ने कोई जानकारी तो नहीं दी, बल्कि उल्टा चुप्पी ही साध गए. आदर्श घोटाला योगाचार्य आनंद जी के कारण उजागर हुआ. मीडिया ने उनसे ही सारी सूचनाएं लीं, पर उन्हें ही हाईलाइट नहीं किया. सब अपने-अपने स्वार्थों में लगे रहे. आनंद जी सूचना के अधिकार के ज़रिए जुहू के आईपीएस अफसर हाउसिंग सोसाइटी घोटाले का पता कर रहे थे. उसी दरम्यान एक अधिकारी ने आदर्श घोटाले के बारे में उन्हें भनक दे दी. बस फिर क्या था, योगाचार्य आदर्श के पीछे पड़ गए. सूचना के अधिकार के तहत दस्तावेज हासिल करने में उन्हें एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा और महीनों जद्दोजहद करने के बाद उन्हें कामयाबी हासिल हुई. मीडिया ने उनसे सूचनाएं लेकर मामला तो उजागर किया, लेकिन योगाचार्य को हाशिए पर रख दिया. बहरहाल, आदर्श सोसाइटी घोटाले का लब्बोलुबाव यह है कि करगिल युद्ध के शहीदों के परिवार और उनकी विधवाओं के पुनर्वास के बहाने खड़ी की गई आदर्श सोसाइटी घोटाले का केंद्र बन गई. कोलाबा की यह ज़मीन सेना ने शांताक्रूज़ राइफल रेंज की ज़मीन के बदले में ली थी. राइफल रेंज की ज़मीन 1950 में ही वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे बनाने के लिए दे दी गई थी. उसके बदले सेना को कोलाबा की ज़मीन हासिल हुई थी. आदर्श सोसाइटी के चीफ प्रमोटर आर सी ठाकुर और रक्षा संपदा सेवा के अधिकारियों ने इसके जरिए घोटाले का रास्ता खोलने में सक्रिय भूमिका अदा की और जिस क्षेत्र से भी विरोध खड़ा हो सकता था, उसके अलमबरदारों को सोसाइटी का सदस्य बनाकर मुंह बंद कर दिया गया. ऐसे मुंह बंद सैन्य अधिकारियों, नौकरशाहों, नेताओं एवं दलालों की सूची देखने में लंबी जरूर है, लेकिन आदर्श अपार्टमेंट की 31 मंजिली ऊंचाई से कम है. महाराष्ट्र सरकार की अधिसूचना और महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव सोसाइटी एक्ट-1960 के मुताबिक, जिन लोगों की डोमिसाइल न बदली हो, उन्हें सोसाइटी का सदस्य नहीं बनाया जा सकता. यानी मुंबई में कम से कम 15 साल की लगातार रिहाइश. लेकिन इस नियम की खूब धज्जियां उड़ाई गईं और बाहरी लोगों को फ्लैट एलॉट किए गए. पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल एन सी विज और जनरल दीपक कपूर ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. विज और कपूर दोनों ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पत्र लिखकर आदर्श सोसाइटी में सदस्य बनाए जाने का आग्रह किया. विज का पत्र 18 जून 2008 को लिखा गया और कपूर का पत्र 19 जून 2008 को. जनरल कपूर ने तो अपने ऑफिशियल लेटरहेड (नंबर- 17622/डीके/डीओ) का इस्तेमाल करने से भी परहेज नहीं किया. जनरल विज ने भी नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के ऑफिशियल लेटरहेड पर अपना पत्र (नंबर-13710/एनसीवी/डीओ) लिखा. इन दोनों पत्रों को पहले तो खारिज कर दिया गया, लेकिन 17 दिसंबर 2008 को दोबारा आग्रह पत्र भेजा गया. और इस बार स्पेशल केस मानते हुए इजाज़त मिल गई. ऐसा ही कई अन्य सेनाधिकारियों, नेताओं, उनके रिश्तेदारों, नौकरशाहों और दलालों के लिए हुआ. सोसाइटी में घर पाने के लिए सब एक ही लाइन में खड़े हो गए.

जनरल कपूर का दागदार इतिहास और लखनऊ
आदर्श हाउसिंग सोसाइटी में अपने लिए फ्लैट बुक कराने वाले पूर्व थलसेना अध्यक्ष जनरल दीपक कपूर जब वर्ष 2005 में नॉर्दर्न कमांड में जीओसी इन सी थे तो सेना के अंडे, कपड़े एवं अनाज वगैरह बेचकर खा गए थे. उनके बाद जीओसी इन सी बने लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग ने कपूर के घोटाले की जांच शुरू की तो उनका तबादला लखनऊ कर दिया गया. घोटालेबाज़ों का यह लखनऊ प्रेम महज संयोग नहीं है. किसी ईमानदार अधिकारी को शंट करना हो तो उसे लखनऊ भेज दिया जाता है और किसी भ्रष्ट अधिकारी को तरक्की देकर लखनऊ से प्राइम पोस्टिंग पर भेज दिया जाता है. लेफ्टिनेंट जनरल पनाग को सेनाध्यक्ष बनने से रोक दिया गया और ध्यालन को प्रशस्ति पत्र दे दिया गया. जूनियर कमीशंड अफसर की बेटी से बलात्कार करने वाले अधिकारी मेजर रैना को जेल से छुड़ाकर उसे न केवल सेना में बहाल कर दिया जाता है, बल्कि तरक्की देकर उसे बाहर पोस्टिंग दे दी जाती है. सेना में भर्ती के लिए आए 55 बच्चों के सीवर में डूबकर मरने के बावजूद प्रभारी मेजर को कुछ नहीं होता, क्योंकि उसका पिता आतंकियों को हथियार सप्लाई करने के मामले में आरोपी होता है.

कहां लापता हो गया शहीद स्‍थल
यह जो आप कॉलोनी की तस्वीर देख रहे हैं, यह सेना की ज़मीन थी और इस पर शहीद स्थल बना था. शहीद सैनिकों की स्मृति में यहां स्तंभ बन चुका था, शिलालेख वगैरह भी लग गए थे, सौंदर्यीकरण का कुछ काम बाक़ी था, लेकिन अचानक काम थम गया. लोग यहां शहीदों को श्रद्धांजलि देने की बाट ही जोहते रह गए. अचानक एक दिन शहीद स्तंभ ध्वस्त कर दिया गया. शिलालेख वग़ैरह ग़ायब कर दिए गए और सेना की इस ज़मीन पर कॉलोनी शक्ल लेने लगी. फिर कुछ दिनों के बाद गेट पर गोमती इन्क्लेव का बोर्ड भी लग गया, फ्लैट्स भी बन गए और लोगों को एलॉट भी हो गए. यह आदर्श घोटाले जैसा घोटाला है कि नहीं?

भावना के पर कतरे, डीजी का लखनऊ दौरा स्थगित
आदर्श घोटाले की सीबीआई जांच की सरगर्मी यह है कि रक्षा संपदा महकमे के नए महानिदेशक अशोक हरनाल ने सबसे पहले मध्य कमान मुख्यालय लखनऊ की छावनी परिषद की सीईओ भावना सिंह के पर कतर डाले. महानिदेशक की इस कार्रवाई से ही आदर्श घोटाले का मुंबई टू लखनऊ लिंक जाहिर हो गया. भावना सिंह को हालांकि लखनऊ में रक्षा संपदा का उप निदेशक बनाया गया है, लेकिन सीईओ और उप निदेशक के अधिकार में जो फर्क है, उसे सेना के अधिकारी से लेकर आम कर्मचारी तक जानते हैं. विशेष ध्यान देने की बात यह है कि रक्षा संपदा के महानिदेशक अशोक हरनाल लखनऊ आने का कार्यक्रम भी बना चुके थे, लेकिन अचानक उन्होंने भावना सिंह को सीईओ के पद से हटाकर लखनऊ दौरे का अपना कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया.

सोमवार, 22 नवंबर 2010

इनका दर्द न जाने कोए...



आश्चर्य,रहस्य,उपहास और उपेक्षा को समेटे हुए मानव का तीसरा रुप यानी किन्नर आज अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत है। भारत में इनकी संख्या करीब आठ लाख मानी जाती है। जिंदगी और इसकी व्यवस्था की अलग सोच रखने वाली यह धारा भारतीय समाज में एक मजबूत सांस्कृतिक प्रवाह लिए हुए है। मानवीय मूल्यों के इस ऐतिहासिक धरोहर को आज भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं और इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है। लोगों को दुआएं देकर अपना पेट भरने वाले देश के लाखों किन्नरों के दुख-दर्द को बांटने की बात तो दूर इन्हें समझने तक की कोशिश नहीं करते हैं हम।
अपनी कमी को ही वरदान मान कर किन्नर समाज आज देश की मुख्यधारा से जुड़ गया है और संवैधानिक पदों पर आसिन है। किन्नरों की दुनिया से लोग आगे निकल रहे हैं और कुछ राज्यों में तो उन्होंने सक्रिय राजनीति में कामयाबी भी पाई है। शबनम मौसी मध्य प्रदेश में विधायक चुनी गईं थी। बावजुद इसके अब भी इस समाज को उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। हमारी खुशियों में अपनी अदाओं और दुआओं से अपना पेट भरने में जुटे किन्नरों से शायद ही कोई अपरिचित हों लेकिन इंसानों के इस वर्ग के दुख-दर्दों से बहुत कम लोग ही वाकिफ होंगे। इनसे हास-परिहास करने या शुभ घड़ी में इनकी दुआओं से बेहतरी की कामना करने वाला हमारा समाज बस इनके दुख-दर्द में शरीक होने को तैयार नहीं है। जाहिर है, इन्हें अपने गम अपनी ही जमात में बांटने होते हैं।
किन्नर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में एक कौतूहल का विषय हैं। इनके नाजो-नखरे देख अक्सर लोग हंस पडते हैं, तो कई बेचारे घबरा जाते हैं कि कहीं सरे बाजार ये उनकी मिट्टी पलीद ना कर दें। मगर किन्नर बनते कैसे हैं? इनका जन्म कैसे होता है? अगर आप इनकी जिदगी की असलियत जान ले तो शायद न किसी को हंसी आए और न ही उनसे घबराहट हो। यह अगर बुधवार के दिन किसी जातक (स्त्री-पुरुष, बच्चे) को आशीर्वाद दे दें तो उसकी किस्मत खुल जाती है। ज्योतिष के अनुसार संचित,प्रारब्ध और वर्तमान मनुष्य के जीवन का कालचक्र है। संचित कर्मों का नाश प्रायश्चित और औषधि आदि से होता है। आगामी कर्मों का निवारण तपस्या से होता है किन्तु प्रारब्ध कर्मों का फल वर्तमान में भोगने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है। इसी से प्रारब्ध के फल भोगने के लिए जीव को गर्भ में प्रवेश करना पडता है तथा कर्मों के अनुसार स्त्री-पुरुष या नपुंसक योनि में जन्म लेना पडता है।
प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ जातक तत्व के अनुसार किन्नरों के बारे में कहा गया है-
मन्दाच्छौ खेरन्ध्रे वा शुभ दृष्टिराहित्ये षण्ढ:।
षण्ठान्त्ये जलर्क्षे मन्दे शुभदृग्द्यीने षण्ढ:।।
चंद्राकौ वा मन्दज्ञौ वा भौमाकौ।
युग्मौजर्क्षगावन्योन्यंपश्चयत: षण्ढ:।।
ओजर्क्षांगे समर्क्षग भौमेक्षित षण्ढ:।
पुम्भागे सितन्द्वड्गानि षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ खेषण्ढ:।
अंशेकेतौमन्द ज्ञदृष्टे षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ शुभ दृग्धीनौ रंन्घ्रगो षण्ढ:।
चंद्रज्ञो युग्मौजर्क्षगौ भौमेक्षितौ षण्ढ:।।
अर्थात् पुरुष और स्त्री की संतानोत्पादन शक्ति के अभाव को नपुंसकता अथवा नामर्दी कहते हैं। चंद्रमा, मंगल, सूर्य और लग्न से गर्भाधान का विचार किया जाता है। वीर्य की अधिकता से पुरुष (पुत्र) होता है। रक्त की अधिकता से स्त्री (कन्या) होती है। शुक्र शोणित (रक्त और रज) का साम्य (बराबर) होने से नपुंसक का जन्म होता है।
ग्रहों की कुदृष्टि
1. शनि व शुक्र अष्टम या दशम भाव में शुभ दृष्टि से रहित हों तो किन्नर (नपुंसक) का जन्म होता है।
2. छठे, बारहवें भाव में जलराशिगत शनि को शुभ ग्रह न देखते हों तो हिजडा होता है।
3. चंद्रमा व सूर्य शनि, बुध मंगल कोई एक ग्रह युग्म विषम व सम राशि में बैठकर एक दूसरे को देखते हैं तो नपुंसक जन्म होता है।
4. विषम राशि के लग्न को समराशिगत मंगल देखता हो तो वह न पुरुष होता है और न ही कन्या का जन्म।
5. शुक्र, चंद्रमा व लग्न ये तीनों पुरुष राशि नवांश में हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
6. शनि व शुक्र दशम स्थान में होने पर किन्नर होता है।
7. शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में शनि होने पर नपुंसक जन्म लेता है।
8. कारकांश कुंडली में केतु पर शनि व बुध की दृष्टि होने पर किन्नर होता है।
9. शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो अथवा वे ग्रह अष्टम स्थान में हों तथा शुभ दृष्टि से रहित हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
कमजोर बुध होता बलवान
अगर कोई भी बालक, युवक, स्त्री-पुरुष की कुंडली में बुध ग्रह नीच हो और उसे बलवान करना हो तो बुधवार के दिन किन्नर से आशीर्वाद प्राप्त करने से लाभ मिलता है। बुध ग्रह कमजोर होने पर किन्नरों को हरे रंग की चूडियां व वस्त्र दान करने से भी लाभ होता है। कुछ ग्रंथों में ऐसा भी माना जाता है कि किन्नरों से बुधवार के दिन आशीर्वाद लेना जरूरी है। जिससे अनेक प्रकार के लाभ होते हैं।
तमिलनाडु में एक गांव है कूवगम जिसे किन्नरों का घर कहा जाता है। इसी कूवगम में महाभारत काल के योद्घा अरावान का मंदिर है। हिन्दू मान्यता के अनुसार पांडवों को युद्घ जीतने के लिए अरावान की बलि देनी पडी थी। अरावान ने आखिरी इच्छा जताई कि वो शादी करना चाहता है ताकि मृत्यु की अंतिम रात को वह पत्नी सुख का अनुभव कर सके। कथा के अनुसार अरावान की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने स्वयं स्त्री का रूप लिया और अगले दिन ही अरावान पति बन गए। इसी मान्यता के तहत कूवगम में हजारों किन्नर हर साल दुल्हन बनकर अपनी शादी रचाते हैं और इस शादी के लिए कूवगम के इस मंदिर के पास जमकर नाच गाना होता है जिसे देखने के लिए लोग जुटते हैं। फिर मंदिर के भीतर पूरी औपचारिकता के साथ अरावान के साथ किन्नरों की शादी होती है। शादी किन्नरों के लिए बड़ी चीज होती है इसलिए मंदिर से बाहर आकर अपनी इस दुल्हन की तस्वीर को वह कैमरों में भी कैद करवाते हैं। किन्नर सभी समाज को लोगों को आदर देते हैं। किसी के बच्चा हुआ या शादी-विवाह सभी को आशीर्वाद एवं बधाई देने जाते हैं। अनेक त्योहारों पर भी यह बाजार से चंदा एकत्रित करते हैं। देश के किसी न किसी कोने में हर साल इनका सम्मेलन होता है जो इनके लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है ।
अपनी अलग दुनिया में जीने को मजबूर ये लोग न तो हिंदू देवी-देवताओं को पूजते हैं और न ही अल्लाह की बंदगी करते हैं। इनकी आराध्य होती हैं - बुचरा माता, जिनका मंदिर गुजरात के महसाणो जिले में है। दिल्ली-अहमदाबाद रेल लाइन पर महसाणो जंक्शन से सड़क मार्ग द्वारा 40 किलोमीटर और अहमदाबाद से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मंदिर के दूर से चमकने वाले गुंबद मोह लेते हैं। एक प्रसिद्ध किंवदंती के मुताबिक बुचरा माता की तीन अन्य बहनें - नीलिका, मनसा और हंसा थीं। सबसे बड़ी बुचरा हिचड़ा बन गईं तो शेष बहनों को भी उन्होंने अपने जैसा ही बना दिया। इनकी संतानें नहीं थीं तो इन्होंने लड़कों को गोद ले लिया। लेकिन इसी बुचरा माता के मंदिर में आज निस्संतान दंपति संतान मांगने आते हैं। जिनकी मुराद पूरी हो जाती है वे मंदिर में मिट्टी का मुंड चढ़ाते हैं । मंदिर के परिसर ऐसे मुंडों से भरे पड़े हैं।
देश में किन्नरों के 450 से अधिक धाम हैं। जहां उनके गुरु बसते हैं। बुचरा और उनकी तीन बहनों के आधार पर ही किन्नरों की चार शाखाएं हैं। बुचरा की शाखा में पैदाइशी, नीलिका शाखा में जबरन बनाए तो मनसा शाखा में इच्छा से बने किन्नर होते हैं। चौथी और अंतिम शाखा हंसा में उन्हें जगह दी जाती है जो किसी शारीरिक खराबी के कारण किन्नर बनते हैं। एक अन्य विभाजन के तहत नीलिका शाखा के किन्नर गाने और ढफली बजाने का काम करते हैं तो मनसा शाखा का काम किन्नर बनाने वाले व्यक्ति के लिए सामान इक_ा करना है। जब बुचरा किसी को किन्नर बना रहे होते हैं तब हंसा के जिम्मे सफाई का काम आता है। साथ ही कब्र खोदने और उसमें शव डालने का काम भी सिर्फ हंसा शाखा के किन्नर ही करते हैं, हालांकि शवों पर पहली मिट्टी डालने का काम बुचरा शाखा के लोग करते हैं। किन्नर के मरने के बाद उसे खूब गालियां दी जाती हैं, कब्र पर थूका जाता है। पूरे देश में किन्नरों को सात घरों में बांटा गया है। हर घर का एक मुखिया होता है जिसे नायक कहते हैं। नायक के नीचे गुरु होते हैं फिर चेले। इनकी जमात में गुरु का दर्जा मां-बाप से कम नहीं होता। हर किन्नर को अपने गुरु को अपनी कमाई का एक हिस्सा देना होता है। उम्रदराज उस्ताद का काम हिसाब-किताब रखना होता है। इन्होंने अपने कामकाज के तौर-तरीके कुछ इतने दिलचस्प ढंग से बांट रखे हैं कि देखते ही बनता है। मसलन, खुशियां मनाते हुए नाचते-गाते समय किन्नर सिर्फ अपनी उंगलियों का प्रयोग करते हैं। अंगूठे का इस्तेमाल अंग-प्रदर्शन में होता है। इनमें एक समर्थ पुरुष को पति मानने का भी रिवाज है। इसे गिरिया कहते हैं। कई मामलों में रईस पुुरुषों को गिरिया के रूप में खरीदने का भी चलन मिलता है। किन्नर अपने को गिरिया का कोती कहते हैं। पुरुष वेशभूषा में रहने वाले किन्नर को कड़े ताल और स्त्री वेश के रहने वाले किन्नर को सात्रे कहा जाता है। कामुकता से कोई किन्नर को देखता है तो दूसरे किन्नर उस किन्नर को चामना कहकर सतर्क करते हैं। किसी को भगाना हो तो ये पतवाई दास बोलते हैं। किसी जजमान का अपमान करना हो तो वह एक-दूसरे को जजमान के खिलाफ उत्तेजित करने के लिए बीली कूट शब्द का इस्तेमाल करते हैं लेकिन अगर बात मोहब्बत से निपटानी हो तो ये आपस में चिस्सेरेवाल शब्द का प्रयोग करते हैं। अपने इलाके में गाकर कमाने वाले किन्नरों को पनके कहा जाता है लेकिन जो घुसपैठ करते हैं उन्हें खैर गल्ले कहते हैं। बड़े लड़कों को इनकी भाषा में टुलना और लड़कियों को टुलनी कहा जाता है। जबकि नवजात शिशुओं को टेपका और टेपकी बोलते हैं । सौ रुपए के नोट को बड़मा, पचास के नोट को आधा बड़मा, दस रुपए के नोट को एक पान की और बीस रुपए के नोट को दो पान की कहा जाता है।
प्रकृति के अन्याय से पीडि़त किन्नर आपस में भाई-बहन और दोस्ताना संबंध तो बना लेते हैं लेकिन पति-पत्नी के रूप में उनका रिश्ता नहीं बन सकता है इसलिए वे गुरु को ही अपना पति मानते हैं। भोपाल के मंगलवारा क्षेत्र की किन्नर नंदिनी तिवारी ने बताया कि लोग समझते हैं कि किन्नर भी समलैंगिकों की तरह जोड़े के रूप में आपसी संबंध बनाते हैं लेकिन हमारे बीच ऐसा कोई संबंध नहीं होता है। हालांकि, किन्नर समाज में भी पुरुष और स्त्री किन्नर का वर्गीकरण होता है। नंदिनी बताती है कि हम अपने गुरु को ही पति मानते हैं। कई किन्नर इसीलिए मांग में सिंदूर भी भरते हैं और माथे पर बिंदी लगाते हैं। सुहाग के प्रतीक के रूप में पैरों में बिछिया और पायल भी पहनी जाती हैं। यानी पूरा सुहागन वाला रूप धारण किया जाता है।
किन्नर नंदिनी कहती है कि जिस तरह गोपियां भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं उसी तरह किन्नर गुरु को यह दर्जा देते हैं। उत्सव विशेष पर पति गुरु की पूजा भी होती है और नाच-गाकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। इतना ही नहीं गुरु के निधन पर किन्नर किसी विधवा स्त्री की तरह कुछ दिन तक श्वेत साड़ी पहनकर शोक भी जताते हैं। नए गुरु की नियुक्ति पर उसे पति परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है।
मूल रूप से वाराणसी की रहने वाली किन्नर नंदिनी ने बताया कि होश संभालने के बाद जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि प्रकृति ने उसे क्या रूप दिया है तो वह बहुत दुखी हुई। जब सात-आठ साल की थी तब माता-पिता को मजबूर होकर उसे किन्नर समुदाय को सौंपना पड़ा। पिछले करीब तीन दशकों से वह भोपाल के किन्नर समुदाय की सदस्य है। बचपन की स्मृतियों में जाते हुए नंदिनी की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसका कहना है कि माता-पिता और भाई-बहनों की बहुत याद आती है। उनसे मिलने को मन व्याकुल रहता है लेकिन एक बार घर छूटा तो फिर छूट ही गया। दीपावली और होली जैसे त्यौहारों पर घर के सदस्यों से फोन पर जरूर बात हो जाती है।
सजल आंखों से नंदिनी कहती है कि कुछ महीने पहले पिता का निधन हो गया और यह खबर मिलने पर मन वहां जाने के लिए बहुत तड़पा लेकिन जाना संभव नहीं था। अगर वह जाती तो उसके परिवार का रिश्तेदारों के सामने मजाक बनता। लरजती आवाज में वह कहती है पिता अपने जीते जी साल में एक बार भोपाल आते थे और उसे साड़ी भेंट कर दुखी मन से वापस लौट जाते थे लेकिन अब यह सिलसिला भी खत्म हो गया।
उत्तर पदेश,बिहार और प.बंगाल में किन्नरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी और बेचारगी का दंश झेलते ये किन्नर, समाज में विभिन्न संगठनों द्वारा नाच गाने के प्रदर्शन के लिए संचालित होते हैं। पारंपरिक गीतों के साथ किसी भी खुशी के अवसर को अपने आशीर्वाद से ये पूर्ण करते हैं। बिहार के बक्सर में एक नाच पार्टी में नाचने वाली सुरैया किन्नर कहती है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में नाच का अच्छा खासा प्रचलन है और मैं छह महिने के अंदर इतना कमा लेती हूं कि उससे साल भर आराम से बैठकर खाया जा सकता है। वह बताती है कि नाच पोग्राम के दौरान कई बार ऐसी स्थिति भी बन जाती है की हमें बंदुक की गोलियों के बौछार के बीच नाचना पड़ता है। उतर प्रदेश के बलिया के किन्नर सलमा कहती है कि उनकी जिंदगी आज पूरी तरह से समाज और उनके गुरुजी को समर्पित है। जैसी आज्ञा होती है वे उसका तहे दिल से पालन करते हैं। अपने परिवार,माता-पिता,भाई-बहन किसी की उन्हें याद नहीं है। उनका कहना है कि जब वे काफी छोटे थे तभी उनको इस शारीरिक स्थिति की वजह से काफी तकलीफ उठानी पड़ती थी, अत: भगवान बुद्ध की तरह गृह त्याग दिया और गुरु जी की शरण में आ गए। वे अहसानमंद हैं अपने गुरु के जो स्वयं भी किन्नर ही होते हैं जिनके शरण में जा कर उन्हें समाज में जीने का एक रास्ता मिलता है। एक अन्य किन्नर माधुरी का दर्द भी अमूमन यही है। उन्हें भी अपने परिवार के बारे में चर्चा करना अच्छा नहीं लगता है। परिवार की याद तो उन्हें है लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को वे याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर डबडबायी आंखों और भर्राए गले से माधुरी किन्नर बताती हैं कि मेरे और भी भाई-बहन हैं जो सामान्य इंसानों की तरह हैं परन्तु मेरा उनसे मिलना-मिलाना नहीं होता। मैं भी उन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहती, मैं अपनी इसी दुनिया में मस्त हूं। जब ईश्वर ने ही हमारे साथ इंसाफ नहीं किया तो फिर दूसरों से कैसी शिकायत।
अपनी नाच-गानों की परिपाटी और अपने गुरु द्वारा दिए गए परिवार में ही वे मगन हैं। उन्होंने बताया कि महिलाओं के रिश्तों के प्रत्येक बंधन उनके परिवार की श्रृंखलाबद्ध शक्ति है। मसलन एक गुरु के सारे चेलों को प्रत्येक छह लोगो में विभाजित कर दिया जाता है जिसमें सभी जेठानी-देवरानी (गोतनी) के रिश्तों में बंधे होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है और पीढिय़ां बदलती जाती है, इनका पद उपर बढ़ता जाता है। बढ़ती उम्र के साथ ये गुरु के पद पर पहुंच जाएंगी तो इनके चेलों दर चेलों के साथ इनका रिश्ता सास-बहू का बन जाएगा। तीसरी पीढ़ी के संबंध स्थापित होते ही ये दादी भी बन जाएंगी। किन्नर होते हुए भी इनका रुप स्त्री का ही होता है। महिलाओं के लिबास,उनकी भाव-भंगिमा और नाज-नखरे इनका आभूषण होते हैं।
पूरे संगठन के प्यार व्यवहार तथा अपनापन को देखकर ऐसा लगा मानों इनसे संबंधित जितनी भी भ्रांतियां लोगो के मन में है उसका कोई औचित्य नहीं है। इनकी शारीरिक बनावट जैसी भी हो उनके सीने में धड़कने वाला दिल एक आम इंसान का ही है। हृदय को छू जाने वाली इनकी कहानी और किसी के दुख में इस्तेमाल किए जाने वाले इनके कोमल शब्द,खुशी (खासतौर से बेटे के जन्म पर) में बड़ी रकम के लिए इनकी नाराजगी तथा रुठने-मनाने का दौर फिर परिस्थितियों के अनुकूल इनका मान जाना एक अलग ही अनुभूति देता है।
इंदौर में रहने वाली चंचल मासूम आंखों में घुली उदासी के साथ जब पूछती है अगर साथ वाले बच्चों को ऐतराज न हो तो मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं। 17 साल की किन्नर चंचल का यह सवाल बिना जवाब के ही अधर में टंगा रहता है। वो मानती हैं कि उसकी ङ्क्षजदगी आधी अधूरी है लेकिन फिर भी इस ङ्क्षजदगी से कोई शिकायत नहीं है। चंचल का कहना है कि ऊपर वाले ने उसे जैसा बनाया उसे मंजूर है। लेकिन सखह साल के इस शरीर में छिपा किशोर मन कभी कभी स्कूल जाने के लिए मचल उठता है। पांचवी तक पढी चंचल और पढना चाहती है ् लेकिन उसे डर है कि कहीं स्कूल के दूसरे बच्चे उसके साथ पढने से इंकार न कर दें।फिर भी हौंसला थका नहीं है। कहती है अगर मौका हाथ लगा तो जरूर पढूंगी। चंचल ने कहा कि उसके पिता की मृत्यु करीब दो साल पहले हुई। पिता हभमाल थे। मां लोगों के घरों में बर्तन मांजती है।चंचल जब छोटी थी तब वह भी मां के साथ काम करने जाती थी। उसका एक बर्डा भाई और छोटी बहन है और दोनों सामान्य हैं। बेहद गरीबी के बीच किसी तरह ङ्क्षजदगीगाड़ी चल रही है। इंदौर की निवासी ज्योति किन्नर ने चंचल को अपना लिया है। चंचल ने भी ज्योति किन्नर को अपना गुरू बना लिया है। ज्योति ने उसे किन्नर ं के तौर तरीके मसलन ताली बजाना और नृत्य इत्यादि सिखाना शुरू कर दिया है। अब चंचल ताली बजा-बजाकर दुआएं देना ् लानत भेजना और नृत्य करना सीख चुकी है।

चौराहे पर खड़ा हमारा लोकतंत्र

हमारा प्रशासनिक राजनीतिक ढांचा चरमरा रहा है। प्रशासनिक सुधार आयोगों की रिपोर्टे असली मर्ज को पहचानने की कोशिश भी नहीं करतीं। राजनीतिक नेता और नौकरशाही का मकड़जाल देश के लोकतंत्र को घुन की तरह खा रहा है। नौकरशाह देश को चूसने वाले गिद्ध बन गए हैं और राजनीतिक नेता उन पर नकेल कसने के बजाय छोटे-छोटे स्वार्थो के लिए उनके हाथों का खिलौना बन गए हैं। कई मुख्यमंत्रियों को निजी बातचीत में यह कहते सुना है कि ब्यूरोक्रेसी से काम लेना आसान नहीं। ब्यूरोक्रेसी (जिनमें खासकर आईएएस-आईपीएस अघिकारी) तब तक किसी राजनेता के पांव नहीं जमने देती, जब तक राजनेता उन्हें संरक्षण का वायदा नहीं करते। जब वे आपस में घुल-मिल जाते हैं, तो एक-दूसरे के काले कारनामों में मददगार हो जाते हैं।

रूचिका गिरहोत्रा का मामला देश में पहला नहीं है। इससे मिलते-जुलते सैकड़ों मामले मिल जाएंगे। जहां ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं ने समाज पर अत्याचार किए और कोई कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। देश की राजधानी दिल्ली के पुलिस थानों में बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। मुंबई के पुलिस बूथ में बलात्कार की घटना हुई थी। चौदह साल की रूचिका के साथ जैसी छेड़छाड़ पुलिस इंस्पेक्टर जनरल एसपीएस राठौर ने की, ऎसी घटनाएं हर जिले-तहसील में आए दिन होती हैं। उन्नीस साल पहले 1990 में चंडीगढ़ में स्वतंत्रता दिवस से तीन दिन पहले राठौर ने रूचिका को अपने दफ्तर में बुलाया। वह इंस्पेक्टर जनरल के साथ-साथ हरियाणा लान टेनिस एसोसिएशन का अध्यक्ष भी था। रूचिका लान टेनिस की खिलाड़ी थी। शासन क्यों इजाजत देता है पुलिस और प्रशासनिक अघिकारियों को खेल संघों में सक्रिय होने और दखल देने की। खेल संघों के पदाघिकारी बनने की होड़ क्यों मची है प्रशासनिक अघिकारियों और राजनेताओं में। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और आईएसएस, आईपीएस, आईएफएस अघिकारियों पर खेल संघों और क्लबों के पदाघिकारी बनने पर रोक लगना चाहिए। ऎसे प्रभावशाली लोगों के कारण खेलों और सामाजिक क्लबों का वातावरण दूषित हो रहा है, इनकी बेजा दिलचस्पी से खेल संघों और क्लबों में देह शोषण को बढ़ावा मिल रहा है।

क्या हमारा लोकतंत्र सफल हो रहा है। जब अपराधी और अपराघियों को संरक्षण देने वाले चुनाव जीत रहे हों, तो लोकतंत्र को सफल कैसे कहा जा सकता है। नारायणदत्त तिवारी के सेक्स स्कैंडलों के किस्से पिछले 30 साल से हर किसी की जुबान पर थे, लेकिन इन तीस सालों में उन्होंने क्या हासिल नहीं किया। वह तीन बार मुख्यमंत्री, दो बार केंद्र में मंत्री और राज्यपाल बने। जब तक उनका स्टिंग ऑपरेशन नहीं हुआ, कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका। उत्तरप्रदेश के मंत्री राजा भैया के कारनामों पर कोई कानून उनका क्या बिगाड़ सका। उन्होंने अपनी प्रेमिका मधुमिता शुक्ला की हत्या करवा दी और बाद में एक-एक करके गवाहों को निपटा दिया। यह सब करने के बाद भी राज्य सरकार में मंत्री बन गया। उत्तरप्रदेश के ही होनहार बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या दिनदहाड़े हुई थी। सैयद मोदी की हत्या से पहले अनीता का संजय सिंह से प्रेम शुरू हो चुका था।

अनीता मोदी बाद में दो बार एमएलए और उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री भी बनीं। संजय सिंह को भी कोई कानून चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कहां रोक सका। शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के उन चार सांसदों में से एक थे, जिन्हें नरसिंहराव की सरकार बचाने के लिए मोटी रकम मिली थी। रिश्वत की यह राशि अदालत में साबित हो गई थी, लेकिन उन्हें बार-बार सांसद बनने, केंद्र में मंत्री बनने और अब तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने से कौन रोक सका। सुखराम के घर से उनके बाथरूम और गद्दों में काले धन की गçaयां मिली थीं। यह काला धन उन्होंने नरसिंहराव सरकार में मंत्री होते हुए देशभर में टेलीफोन का जाल बिछाते कमाया था। कोई कानून उन्हें इसके बाद चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कब रोक सका। हम लोकतंत्र की सफलता का ढिंढोरा पीटना चाहें तो चाहे जितना पीटें। हमारी प्रशासन और राजनीति के शुद्धिकरण में जरा दिलचस्पी नहीं है। प्रशासनिक अघिकारियों और राजनीतिक नेताओं का गठजोड़ लोकतंत्र को मजबूत होने देना नहीं चाहता। अगर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होतीं, तो ऎसे कैसे हो सकता था कि एक आईपीएस अफसर पूरे पुलिस प्रशासन को अपनी अंगुलियों पर नचाता। पुलिस ने छेड़छाड़ की शिकायत दर्ज नहीं की थी। रूचिका के पिता ने जब गृहमंत्री संपतसिंह को शिकायत की तो उन्होंने डीजीपी आरआर सिंह को तीन दिन में जांचकर रिपोर्ट सौंपने को कहा था। आरआर सिंह ने जांच के बाद इंस्पेक्टर जनरल राठौर के खिलाफ केस दर्ज करने की सिफारिश की थी, लेकिन संपतसिंह ने केस दर्ज नहीं करवाया।

तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला कैसे कह सकते हैं कि वह बेदाग हैं। वही मुख्यमंत्री थे उस समय। पचहत्तर साल के रिटायर डीआईजी आरआर सिंह अभी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि तत्कालीन सरकार में कौन राठौर की मदद कर रहा था। जिस चौटाला सरकार ने राठौर को राष्ट्रपति पुलिस मैडल की सिफारिश की, वह अपने हाथ कैसे धो सकते हैं। रूचिका का मामला जोर पकड़ा, तो आईपीएस अघिकारी की पूरे पुलिस महकमे ने मदद की। उनके इशारे पर रूचिका के भाई आशू पर चोरी का झूठा मुकदमा बनाया गया। नंगा करके उसके घर के पास घुमाया गया। राठौर की मौजूदगी में पुलिस उसकी पिटाई करती थी। राठौर ने रूचिका कोे स्कूल से निकलवाकर उसकी पढ़ाई बंद करा दी। रूचिका ने आत्महत्या कर ली तो भी पुलिस राठौर की मदद करती रही। पोस्टमार्टम में आत्महत्या का तरीका बदल दिया गया, यहां तक कि नाम बदल दिया गया, पिता का नाम भी बदल दिया गया। डॉक्टर और अस्पताल भी राठौर के प्रभाव में उनके इशारों पर काम कर रहे थे। सीबीआई कोर्ट ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करने की सिफारिश की, तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने राठौर को राहत दे दी। जिस सीबीआई अफसर आरएम सिंह ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला जोड़ने की सिफारिश लिखी, उसे सीबीआई के डायरेक्टर और सीबीआई के कानूनी सलाहकार ने हटवा दिया। बताएं प्रशासन और न्याय तंत्र का कोई ऎसा कमरा बचा है, जो बेदाग हो। एक आईपीएस अफसर पूरे तंत्र को अपनी अंगुलियों पर नचा रहा था। स्कूल, अस्पताल, पुलिस थाना, सीबीआई, मुख्यमंत्री, न्यायपालिका सबको चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है एक आईपीएस अफसर ने।

शिक्षा का मंदिर स्कूल, न्याय का मंदिर अदालत, इंसाफ दिलाने की जिम्मेदार सीबीआई और इन सब पर निगाह रखने वाली चुनी हुई सरकार- सब चरमरा कर गिर गए हैं। क्या केंद्र की तत्कालीन चंद्रशेखर से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक की सरकारों के गृहमंत्री कटघरे में खड़े नहीं होना चाहिए, जिनके तहत देशभर के आईपीएस अफसर काम करते हैं। क्या चौटाला, बंशीलाल, भजनलाल कटघरे में नहीं खड़े होेना चाहिए, जो इतने बड़े अपराध पर आंखें मूंदे हुए थे। किसी एक मुख्यमंत्री ने राठौर को निलंबित करने की जहमत नहीं उठाई। इसीलिए राठौर छह महीने मात्र की सजा सुनकर मुस्कराता हुआ कोर्ट से बाहर निकला, क्योंकि उसे अब भी उम्मीद है कि जैसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने पहले उसकी मदद की, इस बार भी करेगी।

रूचिका से ज्यादा अलग नहीं है राजस्थान की आदिवासी महिला का मामला। जिसका राजस्थान के डीआईजी मधुकर टंडन ने तेरह साल पहले बलात्कार किया था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह तब से भगौड़ा है, लेकिन पुलिस अब भी उसकी मददगार बनी हुई है। वह कानून की नजर से लगातार बचा रही है अपने फरार डीआईजी को। डीआईजी बार-बार उस महिला और उसके पति को उठाकर पुलिस थाने ले जाता है और समझौता करने का दबाव बनाता है।
पुलिस तंत्र, प्रशासनिक तंत्र और लोकशाही में आमूलचूल परिवर्तन ही देश को लोकतंत्र की सही पटरी पर ला सकता है। पुलिस को हर शिकायत की एफआईआर दर्ज करने की हिदायत ही काफी नहीं। पुलिस से टॉर्चर करने के सारे अघिकार वापस लेने होंगे। पुलिस रिमांड का कानूनी प्रावधान खत्म करना होगा। पुलिस न्यायिक हिरासत में ही पूछताछ करे। प्रशासन में बैठे भ्रष्ट और बेईमान अफसरों को फैसले करने वाले पदों से हटाना होगा। चुनाव लड़ने के नियम ज्यादा कड़े करने होंगे। जिन नेताओं के खिलाफ तीन चार्जशीट पर अदालत संज्ञान ले चुकी हो, उन्हें चुनाव लड़ने या कोई भी राजनीतिक पद ग्रहण करने से वंचित करना होगा। ये सब कदम भी काफी नहीं हैं, लोकतंत्र को पटरी पर लाकर देश में सुशासन की स्थापना करने के लिए। जैसी जागृति जेसिका लाल, नीतिश कटारा, प्रियदर्शनी मट्टू के अदालती फैसलों के बाद देश की जनता ने दिखाई है, ऎसी जागृति हमेशा कायम रहे, तभी कानून के रक्षकों को भक्षक बनने से रोका जा सकेगा।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

फजीहत में भारतीय फौज





शौर्य,पराक्रम,जिंदादिली,अनुशासन और ईमानदारी के आख्यानों से भरी भारतीय सेना की गाथा में भ्रष्टाचार रूपी खलनायक कुछ इस तरह घुस गया है कि हमारे जवानों के बलिदान व्यर्थ नजर आने लगे हैं। यौन उत्पीडऩ, बलात्कार, भ्रष्टाचार और भेदभाव जैसे अस्वीकार्य शब्द जो अब तक पुलिस और अन्य महकमों में नजर आते थे अब फौजी वर्दी के साथ भी जुडऩे लगे हैं. हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि फौज की ईमानदारी को पुलिस या अन्य विभाग के साथ तौलकर नहीं देखा जा सकता. फौज में जहां अनैतिक कृत्यों के एक-दो मामले सामने आते हैं. वहीं अन्य विभागों में ऐसी लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है, लेकिन फिर भी सच यही है कि कायदे-कानून की अभेद समझे जाने वाली दीवार में दरारें पडऩे लगी हैं. सवाल यह भी है कि महज कुछ साल पहले तक भारतीय गणतंत्र के सबसे भरोसेमंद संस्थान का रुतबा रखने वाले इस खंभे में दिख रही यह दरार सिर्फ ऊपरी है या फिर यह खोखलापन भीतर तक घर कर गया है? अगर सेना में भ्रष्टाचार का खेल इसी निर्लज्जता से चलता रहा तो सेना का मनोबल और साथ ही देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी.
सेना जैसे अतिप्रतिष्ठित संस्थान, जहां 2002-03 तक मेजर जनरल के ओहदे वाले अफसरों के कोर्ट मार्शल के बारे में सोच पाना भी बेहद दुर्लभ हुआ करता था, लेकिन 2010 तक कई पूर्व जनरलों के नाम घोटालों में सामने आ चुके हैं. यदि पिछले पांच साल के दौरान मीडिया की सुर्खी बनी रही इन खबरों को छोड़ दें तो भी सेना के लगभग हर विभाग में कई और घोटाले भी होते रहे हैं. चाहे वह आपूर्ति विभाग हो या सेना आयुध उत्पादन विभाग, ऊंचे ओहदे पर आसीन अफसर पैसों के हेर-फेर में लगे रहे।
जब कभी सेना के किसी जवान या अफसर की अपराध में संलिप्तता की खबरें आती हैं तो हमें उसमें षडय़ंत्र की धुंध दिखाई देने लगती है. इसका सबसे ताजा उदाहरण आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला है. सेना को हम ऐसी संस्था के रूप में देखते हैं जहां केवल देश पर मर मिटने का जज्बा जगाया जाता है. जहां भ्रष्टाचार, विलासिता जैसे शब्दों के लिए कोई जगह नहीं होती. आपात स्थितियों में सेना जिस फरिश्ते की सी भूमिका में सामने आती है उसे हमारा दिमाग कभी भूलने को तैयार नहीं होता. लेकिन हकीकत अक्सर बिल्कुल वैसी नहीं होती जैसी हम कल्पना करते हैं, सेना पर भी ये बात लागू होती है. पिछले कुछ वक्त में सेना की वर्दी पर जितने दाग लगे हैं वो यह साबित करने के लिए काफी हैं कि अनुशासन की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है.
भ्रष्टाचार से लेकर शोषण जैसी कुरुतियां वहां अपनी पैठ बना चुकी हैं. आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले में सेना प्रमुख (पूर्व) दीपक कपूर और सेना से जुड़े कई वरिष्ठ अधिकारियों के नाम सामने आने के बाद सारा देश स्तब्ध है. सेना एक ऐसा संस्थान है जिस पर देश की जनता को पूरा भरोसा रहा है. मगर अब उसी जनता को संशय सता रहा है कि भ्रष्टाचार का यह पैमाना देखते हुए क्या देश की सीमाओं को वास्तव में पूरी तरह सुरक्षित कहा जा सकता है?
सेना में भ्रष्टाचार ऊपरी स्तर पर किस कदर फैल चुका है आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला मामला इसकी बानगी भर है. कैग भी अपनी रिपोर्ट सेना में तेजी से फैलते भ्रष्टाचार का खुलासा कर चुका है. कैग की रिपोर्ट में ही यह सच सामने आया था कि किस तरह से कुछ बड़े सैन्य अधिकारी सिक्किम और सियाचिन में तैनात जवानों की जिंदगियों का सौदा अपनी जेबें भरने के लिए कर रहे थे. जूतों की खरीद में अनियमितताओं के इस मामले को कैग ने 328 जवानों की मौत की वजह भी ठहराया था. 2005 में सौदा निरस्त करने के बाद भी सेना सालों तक इटली की एक कंपनी से खराब जूते खरीदती रही, यह जानने के बाद भी कि वो-15 डिग्री तापमान के बाद काम करना बंद कर देते हैं. ऐसे ही पेट्रोल की जगह पानी सप्लाई के मामले ने भी सेना में स्वार्थता और भ्रष्टाचार की परतों को उजागर किया था. घाटी में तैनात एक बिग्रेडियर लंबे समय तक सियाचिन में तैनात जवानों को पेट्रोल की जगह पानी की सप्लाई करता रहा. जब जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस गोरखधंधे से पर्दा उठाया तो सेना में भूचाल आ गया, लेकिन थोड़े ही वक्त में सबकुछ ऐसे शांत हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो. सेना के संगठनात्मक ढांचे में भ्रष्टाचार का बहाव न तो ऊपर से नीचे की ओर है और न ही नीचे से ऊपर की ओर. यह केवल ऊपरी सतह पर अपनी पकड़ बनाए हुए है. निचले स्तर पर न तो इतने अधिकार होते हैं और न ही इतनी हिम्मत की वो ऐसे-वैसे काम में हाथ डाल सकें. कई सैन्य अधिकारी खुद इस बात को दबी जबान से स्वीकार करते हैं कि कभी-कभी उन्हें आलाधिकारियों के ऐसे काम भी करने पड़ते हैं. जो आर्मी मैन्यूअल के खिलाफ हैं क्योंकि ऐसा न करने की दशा में उन्हें अनुशासनहीनता का तमगा लगाकर बाहर का रास्ता दिखाए जाने का डर होता है.
भ्रष्टाचार के साथ-साथ महिला मुद्दे पर भी सेना जब तक कठघरे में खड़ी दिखाई देती है. मेजर जनरल स्तर तक के बड़े अधिकारी पर भी र्दुव्यवहार के आरोप लग चुके हैं. जम्मू-कश्मीर के लेह जिले में तीसरी इन्फैंट्री में तैनात मेजर जनरल एके लाल पर कैप्टन नेहा रावत ने दुव्र्यवहार का आरोप लगाकर सेना को हिलाकर रख दिया था. यह पहला मौका था जब इतने बड़े अफसर को ऐसे मामले ने जांच का सामना करना पड़ा हो. महिला अधिकारी ने योग की एक कक्षा के दौरान वरिष्ठ अधिकारी के व्यवहार पर आपत्ति जताई थी. योग कक्षा का आयोजन मेजर जनरल लाल ने ही किया था. वायुसेना की एक महिला अफसर ने भी ऐसी ही शिकायत की थी लेकिन उसे इसकी कीमत अपनी नौकरी से हाथ धोकर चुकानी पड़ी. सेना में महिला अधिकारियों से र्दुव्यवहार और शोषण के कई मामले सामने आ चुके हैं. जम्मू में तैनात कैप्टन मेघा राजदान की रहस्यमय परिस्थितियों से हुई मौत को इसी नजरिये से देखा गया था. उनके पिता ने हत्या की आशंका जाहिर करते हुए वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों पर उंगली उठाई थी. एक अन्य महिला अफसर सुष्मिता चक्रवर्ती की मौत को भी उनके परिवार ने हत्या करार दिया था. बावजूद इसके सैन्य अधिकारी बेहतर चैनल सिस्टम की दुहाई देते नहीं थकते.
अनुशासन की दीवार फांदकर सामने आए इन चंद मामलों के अलावा सेना के लिए सबसे घातक साबित हो रहा है बाहरी तौर पर उसकी धूल-धूसरित होती छवि. सैन्य अफसरों पर न सिर्फ बलात्कार जैसे संगीन आरोप लग रहे हैं बल्कि साबित भी हो रहे हैं. कश्मीर में सेना की छवि को मेजर रहमान हुसैन की करतूतों ने खासा प्रभावित किया था. रहमान पर तीन महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप था. जिसे लेकर बड़े पैमाने पर घाटी में विरोध प्रदर्शन भी हुए थे. सेना ने पहले तो सभी आरोपों को खारिज कर दिया था लेकिन बाद में उसे जांच का आदेश देने के बाद कोर्ट मार्शल की कार्रवाई शुरू करनी पड़ी. अपनी छवि को सुधारने के लिए 15 सालों में यह पहली बार था जब सेना ने किसी अफसर के खिलाफ कोर्ट मार्शल का इतना प्रचार किया. पिछले कुछ सालों से सेना में स्थितियां लगातार खराब होती जा रही हैं. अधिकारियों की कमी से जूझने के साथ-साथ उसे ऐसे मोर्चों पर भी जूझना पड़ रहा है जिनसे कभी उसका वास्ता नहीं रहा. तरक्की के लिए फर्जी मुठभेड़ के जो आरोप पुलिस को परेशान करते रहे थे वो अब सेना का भी हिस्सा बन गये हैं. जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से मौलवी शौकत नाम के शख्स को घर से उठाकर फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने के बाद उसे पाकिस्तानी चरमपंथी अबू जाहिद बताना और उसके शव को श्रीनगर से 50 किलोमीटर दूर दफन कर देना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि सेना भी पुलिस की राह पर चल निकली है. इस मामले ने पूरी घाटी में सेना के खिलाफ व्यापक माहौल तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी. सेना में वैसा कुछ भी नहीं चल रहा है जैसा अब तक हम सोचते आ रहे हैं.
भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान जिसमें राजनेता, नौकरशाह, और सैन्य नौकरशाह शामिल हैं, के लिए इस दिशा में आगे बढऩा यानी भ्रष्टाचार पर अंकुश इसलिए भी जरूरी है कि एक अनुमान के मुताबिक 2015 तक भारत सरकार रक्षा क्षेत्र पर 2.21 लाख करोड़ रुपए खर्च करने वाली है. कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी के मुताबिक इस समयावधि में भारत दुनिया के कुछ सबसे बड़े रक्षा खरीद सौदे करेगा. रक्षा उत्पादन से जुड़ी दुनिया की शीर्ष कंपनियां अभी से दिल्ली में डेरा डालने पहुंच रही हैं. कई भारतीय कंपनियों को उम्मीद है कि तकरीबन 44,299 करोड़ रुपए के ठेके उन्हें मिल सकते हैं. इन स्थितियों में भारी रिश्वत और भ्रष्टाचार की संभावना को नकारा नहीं जा सकता.
तीन महीने पहले सिंगापुर की रक्षा उत्पादन फर्म एसटी काइनेटिक्स के मुख्य मार्केटिंग अधिकारी पैट्रिक चॉय ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान एक बयान दिया था जो भारत में काम कर रही विदेशी रक्षा उत्पादन फर्मों की तल्ख हकीकत बयान करता है. उनका कहना था, 'हम ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते जहां चीजें कैसे हो रही हैं इसका कुछ अंदाजा ही न लग पा रहा हो.Ó कहा जाता है कि कपूर के कार्यकाल में 155-एमएम गन खरीद के लिए 13,289 करोड़ रुपए के सौदे के लिए एसटी काइनेटिक्स की प्रतिस्पर्धा बीएई सिस्टम्स से थी. लेकिन एसटी काइनेटिक्स को काली सूची में डालकर इस दौड़ से बाहर कर दिया गया था.
फिलहाल कपूर, पूर्व और वर्तमान सैनिकों के लिए शर्मिंदगी का प्रतीक बने हुए हैं. इसकी वाजिब वजहें भी हैं. कहा जाता है कि उन्होंने न सिर्फ कुछ रक्षा सौदों में रिश्वत ली है बल्कि सेना प्रमुख के कार्यालय को नेता, ठेकेदार और नौकरशाहों की भ्रष्ट तिकड़ी का एक आश्रय स्थल बनाने के लिए भी वे ही जिम्मेदार हैं. ऐसा उन्होंने राजनीतिक हलकों में यह संकेत देकर किया कि उनके साथ दूसरे काम करना भी सहज है. हालांकि कुछ विश्लेषक उनके पूर्ववर्ती एनसी विज को इस परंपरा की शुरुआत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं.
सेना में रक्षा उपकरणों की खरीद में हमेशा ही आर्थिक भ्रष्टाचार के मौके रहे हैं. देश भर में सैन्य बलों के अधिकार क्षेत्र में कीमती जमीन भी है. पिछले कुछ सालों से रिहायशी जमीन की कीमत में अचानक तेजी आने के बाद रियल एस्टेट माफिया सेना की जमीनों पर नजर गड़ाए हुए हैं. इन माफियाओं को नेताओं का वरदहस्त भी प्राप्त है. आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला इसी की एक मिसाल है. सेना के अधिकारियों में इस घटना पर काफी रोष है. घोटाले पर दुख जाहिर करते हुए मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जीडी बक्शी कहते हैं, 'यह देखकर बहुत पीड़ा होती है.Ó इस गगनचुंबी इमारत को जब महाराष्ट्र सरकार ने अनुमति दी थी तो 2003 में नौसेना की पश्चिमी कमान के कमांडर वाइस एडमिरल संजीव भसीन ने लिखित में इस पर आपत्ति जताई थी. उनका कहना था कि इमारत की ऊंचाई से नजदीकी नौसेना अड्डे की सुरक्षा को खतरा है. भसीन ने इस मामले में शामिल प्रोमोटरों और अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की भी मांग की थी.
कपूर और विज दोनों कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी कि आदर्श सोसायटी के फ्लैट कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए जवानों के परिवारों को आवंटित होने हैं. मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एससीएन जटार कहते हैं, ' सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी कह रहा है कि उसे जानकारी नहीं कि फ्लैट शहीद हुए जवानों की विधवाओं के लिए हैं? यह बकवास है. यदि ऐसा है तो वे अपने पद पर रहने लायक ही नहीं थे.Ó जटार का गुस्सा बेवजह नहीं है. इस बात की पुष्टि तथ्य भी करते हैं. कपूर ने 2005 में जब सोसायटी के फ्लैट के लिए आवेदन किया था तब पात्रता नियमों के मुताबिक आवेदक के लिए यह अनिवार्य था कि वह पिछले 15 सालों से मुंबई में रह रहा हो. शर्त का तोड़ खोजने के लिए उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पत्र लिखा. देशमुख ने उनके लिए एक मूलनिवास प्रमाण पत्र बनवा दिया. आवेदन के साथ कपूर की सैलरी स्लिप भी जमा हुई थी. इसमें उनकी मासिक आय मात्र 23 हजार 450 रुपए दर्ज थी. आज वे खुद इस बात पर हैरानी जताते हैं कि सैलरी स्लिप में यह आंकड़ा कैसे आ सकता है.
कपूर के भ्रष्टाचार में शामिल होने को लेकर कुछ तथ्य तब भी सामने आए थे जब पिछले अगस्त तृणमूल कांग्रेस की सांसद अंबिका बनर्जी ने रक्षा मंत्री को एक पत्र लिखकर सूचना दी थी कि पूर्व सेना प्रमुख ने आय से अधिक संपत्ति जमा की है. इस पत्र के मुताबिक कपूर के पास एक फ्लैट द्वारका के सेक्टर 29, तीन फ्लैट गुडग़ांव के सेक्टर 23, एक फ्लैट गुडग़ांव के सेक्टर 42/44, एक फ्लैट गुडग़ांव के फेज 3 और एक घर मुंबई के लोखंडवाला में है. इस घटना के बाद कपूर ने एके एंटनी से मिलकर इन सभी आरोपों का खंडन किया था.सेना के एक पूर्व मुखिया पर एक के बाद एक लगातार आरोप लगने से पूर्व थलसेना प्रमुख वीपी मलिक स्तब्ध हैं. वे कहते हैं, 'जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इस हालिया घोटाले ने सेना का अब तक का सबसे बड़ा नुकसान किया है.Ó
एक मामला सुखना भूमि घोटाले से भी संबंधित है. कहा जाता है कि इस मामले में दीपक कपूर ने आरोपित लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश के प्रति नरमी बरतने की कोशिश की थी. प्रकाश उस समय सेना प्रमुख के सैन्य सचिव थे. यह मामला दार्जिलिंग के सुखना में तैनात सेना की 33वीं कोर से जुड़ा है. यहां एक निजी शिक्षा संस्थान, गीतांजली एजुकेशनल ट्रस्ट को कोर की तरफ से 70 एकड़ जमीन खरीदने की अनुमति दी गई थी. जांच बताती है कि लेफ्टिनेंट जनरल रथ, लेफ्टिनेंट जनरल हलगली और प्रकाश सहित सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने एक बिल्डर को फायदा पहुंचाने की गरज से जमीन खरीद की अनुमति दी थी. सुखना घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रथ जल्दी ही उप थल सेना प्रमुख बनने वाले थे और प्रकाश सेना प्रमुख के आठ सैन्य सचिवों में से एक थे. इस पद पर रहते हुए उनके पास पदोन्नति और पोस्टिंग जैसे अधिकार होते थे. वर्तमान थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह उस समय पूर्वी कमान जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ (जीओसी-सी) थे और इन चारों अधिकारियों के खिलाफ गठित कोर्ट ऑफ इंक्वायरी (सीओआई) के मुखिया भी. सीओआई ने जांच के बाद अधिकारियों को दोषी पाया था और प्रकाश को नौकरी से बेदखल करने की सिफारिश की थी. लेकिन इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कपूर ने सिफारिश की कि प्रकाश के खिलाफ सिर्फ प्रशासनिक कार्रवाई होनी चाहिए. इसके बाद मामले ने तूल पकड़ लिया और खुद रक्षा मंत्री एके एंटनी को सेना प्रमुख को पत्र लिखकर कोर्ट मार्शल की कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए कहना पड़ा.
कपूर के भ्रष्टाचार से जुड़े होने की कहानी और पीछे तक भी जाती है. 2006 में ऑर्डनेंस कोर के मेजर जनरल मल्होत्रा ने 16 करोड़ रुपए की लागत से टेंट खरीदने का एक प्रस्ताव दिया था. इसमें कहा गया था कि टेंटों की भारी कमी को देखते हुए सेना के एरिया कमांडर के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल करके टेंट खरीदे जाने चाहिए. इसके बाद यह फाइल उत्तरी कमान के मेजर जनरल, जनरल स्टाफ (एमजीजीएस) के पास गई. उनकी इस फाइल पर टिप्पणी थी, 'क्या हम थलसेना के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल उन टेंटों को खरीदने के लिए करने वाले हैं जिनकी आपूर्ति ऑर्डनेंस विभाग से होनी चाहिए?Ó इस सारे घटनाक्रम से जुड़ी सबसे हैरानी की बात यह है कि प्रस्ताव पर सहमति न मिलने के तीन महीने बाद भी मल्होत्रा ने दोबारा प्रस्ताव बनाकर भेजा कि टेंटों की कमी से सैनिकों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. इस बार एमजीजीएस ने फाइल चुपचाप आगे बढ़ा दी. कपूर भी इस प्रस्ताव पर सहमत थे.
कुछ समय बाद कपूर थल सेना मुख्यालय में बतौर उप-थल सेना प्रमुख नियुक्त हो गए और उनकी जगह लैफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग उत्तरी कमान के कमांडर नियुक्त हुए. पनाग को अज्ञात स्रोत से टेंट घोटाले के बारे में जानकारी मिली. जांच में पाया गया कि टेंट खरीदने की जरूरत ही नहीं थी. मामले पर कार्रवाई के लिए मेजर जनरल सप्रु के अधीन कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन हुआ और पाया गया कि मल्होत्रा ने 1.6 करोड़ रुपए का घोटाला किया है. इसके बाद पनाग ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत मल्होत्रा की भविष्य में होने वाली पदोन्नतियों पर रोक लगनी थी.
लेकिन पनाग को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि अनजाने में उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. तब तक कपूर सेना प्रमुख बन चुके थे और उन्होंने पनाग के दो साल के कार्यकाल के मध्य में ही उनका स्थानांतरण मध्य कमान में कर दिया. पनाग इस मसले पर कपूर से मिले, लेकिन उनसे कहा गया कि यह सेना प्रमुख का विशेषाधिकार है. इस पर पनाग एंटनी के पास गए. नाम न छापने की शर्त पर सेना के एक सेवानिवृत्त अधिकारी कहते हैं, 'यह साफ था कि कपूर को उनसे परेशानी थी लेकिन एंटनी के सामने सेना प्रमुख और कमांडर में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिला तो उन्होंने सेना प्रमुख को तरजीह देना बेहतर समझा.Ó
किसी सेना कमांडर के बीच कार्यकाल में उसका स्थानांतरण बेहद असामान्य माना जाता है. कहा जाता है कि इस घटना ने सेना में असंतोष पैदा कर दिया था. इन घटनाओं के अलावा मार्च, 2007 में जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट आई तो उसमें भी आरोप लगाया गया था कि उत्तरी कमान के कमांडर ने सेना की परिचालन संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग किया था.
आखिर ऐसा क्या है जिसने इतने कम समय में कई वरिष्ठ अधिकारियों को भ्रष्टाचार की सीमाएं तक लांघने को प्रेरित करता है? सेवानिवृत्त हो चुके मेजर जनरल अफसर करीम के अनुसार, 'इस तरह की चीजें तभी मुमकिन हैं जब शीर्ष नेतृत्व कमजोर और भ्रष्ट हो. सब अपने ऊपर के अधिकारी को देखते हैं. अगर वह ईमानदार है तो नीचे वालों की कुछ गलत करने की हिम्मत नहीं होगी. लेकिन ऊपर बैठा अफसर ही अगर ईमानदार न हो, भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता. इसलिए चाहे युद्ध हो या शांति, ऐसे अफसर सेना के लायक नहीं है. वे एक-दूसरे की मदद करते हैं, ऊपर वाले नीचे वालों को प्रोमोशन दिलवाते हैं, तमगे दिलवाते हैं और इस वजह से इन सबकी जांच नहीं हो पाती और भ्रष्ट अफसरों का एक बहुत बड़ा जाल तैयार हो जाता है.Ó सेना के कई वरिष्ठ लोग मानते हैं कि एक जनरल तब भ्रष्ट नहीं बनता जब उसे वह ओहदा मिल जाता है. बुनियादी सवाल यह है कि आखिर एक अधिकारी जो भ्रष्ट है, उस ओहदे तक पहुंचता कैसे है ?
दरअसल, सेना में पदोन्नति की नीति में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है. अधिकारी के आगे बढऩे की संभावना ज्यादातर सेना और राजनीति में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की मरजी और पसंद पर आधारित होती है. करीम कहते हैं, 'जो ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है उसे आगे बढऩे के मौके तब ही मिल पाते हैं जब तक कि ऊपर बैठे अधिकारी उसे नोटिस न करें या सरकार इसमें कोई भूमिका न निभाए. अगर आप चालाक और बेईमान हैं तो आपके पास आगे बढऩे के मौके उनसे ज्यादा हैं. सरकार आम तौर पर उसकी हां में हां मिलाने वाले को बड़े ओहदे पर पहुंचाना चाहती है और जिस आदमी के पास छिपाने को बहुत-कुछ है वह हमेशा जी हुजूरी करता है.Ó सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी तहलका के इस संदेह की पुष्टि करते हैं कि आदर्श और सुखना भूमि घोटाले तो जमीन में छिपे एक विशाल बरगद की फुनगी भर हैं. वे कहते हैं, 'असली घोटाले तो सरकारी खरीद में होते हैं. इसमें पहले आता है सेना का आपूर्ति विभाग. हमारे पास कुल 13 लाख जवान हैं. अब अगर हम एक जवान के खाने पर 50 रुपए भी खर्च करें तो बजट 6.5 करोड़ पहुंच जाएगा. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रोक्योरमेंट डिपार्टमेंट में कितना पैसा है और यहां हेर-फेर की कितनी गुंजाइश होती है.Ó इसके बाद सैनिकों के लिए मोजे से लेकर हथियारों तक की आपूर्ति करने वाला आयुध उत्पादन विभाग आता है. इसका सालाना बजट 8,000-10,000 करोड़ रुपए है. 2009 में इस विभाग के पास कोई प्रमुख नहीं था क्योंकि इस पद के काबिल तीनों अफसरों पर रिश्वत लेने के आरोप थे. मेजर जनरल एके कपूर (आरोपपत्र के अनुसार) जब 1971 में सेना में शामिल हुए थे तो उनके पास कुल 41,000 रुपए थे. 2007 में अब उनके पास 5.5 करोड़ की अचल संपत्ति है, दिल्ली, गुडग़ांव, शिमला और गोआ में कुल 13 अचल संपत्तियां हैं.
कॉलेज ऑफ मेटेरियल मैनेजमेंट, जबलपुर के ऑफिसिएटिंग कमांडेंट रहे मेजर जनरल अनिल स्वरूप को भी संयुक्त राष्ट्र्र के शांति अभियान में भेजी गई यूनिट के लिए की गई सरकारी खरीद में अनियमितता बरतने का दोषी पाया गया था. उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले की तर्ज पर कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर लिखीं- जो जेनरेटर बाजार में 7 लाख रुपए में उपलब्ध हैं, उन्हें 15 लाख में खरीदा गया, जो केबल 300 में मिल सकते हैं उन्हें 2,000 रुपए में खरीदा गया. लगभग 100 करोड़ रु की यह लूट 2006 से 2008 तक जारी रही. आपूर्ति और आयुध विभाग के बाद बारी आती है मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विस की. यह थल सेना के अलावा वायु और जल सेना के लिए भी काम करती है. इसका सालाना निर्माण बजट कम-से-कम 10,000 से 12,000 करोड़ रु है. इस बजट का 10 प्रतिशत कमीशन के रूप में वैध माना जाता है. इस तरह के सारे घोटाले बिना रक्षा मंत्रालय और वित्तमंत्रालय के कर्मचारियों की सांठ-गांठ के नहीं हो सकते. मेजर जनरल जीडी बख्शी बताते हैं, 'सैन्य नेतृत्व प्रेरणादायी होना चाहिए. मैं एक जवान से यह नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें 5,000 रुपए बोनस दूंगा, सीमा पर जाओ और मरो. लेकिन वह अपनी 5,000 की सैलरी में ही लडऩे और मरने को तैयार रहता है क्योंकि यह उसके देश, उसकी यूनिट के सम्मान से जुड़ा है.सेना के एक बड़े अधिकारी आगे जोड़ते हैं, अगर आप सरकारी खरीद विभाग या छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो कर्नल के नीचे रैंक वाले अफसरों में भ्रष्टाचार नहीं है, जैसे-जैसे लोग स्वतंत्र और शक्तिशाली होने लगते हैं, उनकी उठ-बैठ अपने बॉसों के साथ होने लगती है. यही वह वक्त होता है जब इस दलदल में उनके पैर धंसने शुरू हो जाते हैं..Ó
बहुत सारे अफसरों का मानना है कि सेना में आई इस सडऩ से निपटा जा सकता है, लेकिन इसके लिए सेना को सभी दोषियों के साथ सख्ती बरतनी होगी. सुखना भूमि घोटाले की तरह. मेजर जनरल जटार कहते हैं, 'मेरे हिसाब से इन सबके ओहदे छीन लिए जाने चाहिए. वे इस लायक नहीं कि उन्हें जनरल या पूर्व थल या जल सेना-प्रमुख कहकर पुकारा जाए. निचले ओहदे वाले अधिकारी को जरूर दिखना चाहिए कि पूर्व सेना-प्रमुखों तक को नहीं बख्शा गया है.Ó

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

मनोरंजन की आड़ में बलात्कार

बलात्कार शब्द सुनते ही हमारे जेहन में क्र ोध,घृणा और आवेश का संचार हो जाता है लेकिन सूचना एंव संचार के क्षेत्र में आई ज़बरदस्त क्रांति ने टेलीविजऩ पर मनोरंजन के नाम पर बलात्कार परोसने का जो सिलसिला शुरू हुआ है उससे हमारे मूल्यों के साथ व्याभिचार के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है।
समय के आगे बढऩे के साथ साथ टेलीविजऩ के तमाम नए-नए चैनल्स ने अपना कारोबार शुरू किया है। तमाम ऐसे चैनल अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं जो किसी विषय विशेष पर आधारित हैं। उदाहरण के तौर पर अपने देश में तमाम चैनल ऐसे हैं जो 24 घंटे तथा सप्ताह के सातों दिन निरंतर समाचार प्रसारित करते रहते हैं। जबकि कुछ ऐसे चैनल भी हैं जो विज्ञान, अविष्कार, इतिहास तथा अन्य ज्ञान संबंधी विषयों पर आधारित हैं। चूंकि मनुष्य के जीवन में मनोरंजन का भी एक अहम स्थान है, इसलिए आम लोगों की इस ज़रूरत को भी महसूस करते हुए टी.वी चैनल संचालकों ने मनोरंजन संबंधी भी कई चैनल संचालित कर रखे हैं। इनमें हर समय नाटक, फिल्में गीत, कार्टून फिल्में तथा विभिन्न प्रकार के पारिवारिक व मनोरंजन संबंधी धारावाहिक चलाए जाते हैं। परंतु टेलीविजऩ के क्षेत्र में आई निजी चैनल्स की इस भरमार के बाद अब इनमें दर्शकों को अपने चैनल की ओर आकर्षित करने को लेकर अर्थात टेलीविजऩ रेटिंग प्वाइरंट (टी आर पी) को मद्देनजऱ रखते हुए प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में न केवल मसाला परोसने का चलन बढ़ गया है बल्कि कुछ धारावाहिक, कार्यक्रम अथवा रियालिटी शो तो भारतीय संस्कृति एंव संस्कार की सभी हदों को लांघते हुए अश£ीलता के प्रदर्शन पर उतारू हो गए हैं।
मनोरंजन की भूख को सेक्स, प्यार, धोखे, फरेब, क्रोध और लिप्सा के मसाले में लिपटा कर उसे रियलिटी शो कह कर जनता के सामने परोसना न सिर्फ वैचारिक व्याभिचार है बल्कि हिन्दुस्तानी टेलीविजन चैनलों की तंगहाली का भी जीता जागता नमूना है। जिनके पास या तो कहानियों के नाम पर रोटी, कलपती, धोखा खाती और बार बार बिस्तर बदलती महिलाएं हैं या फिर पैसे, प्रसिद्धि और ग्लैमर को ढूंढते कम नामचीन या फिर गुमनाम लोगों को कथित तौर पर अवसर प्रदान करते रियलिटीज शोज। शायद कुछ लोग नाम कमा भी लेते हों, पैसे भी बना लेते हों, मगर अफ़सोस हर बार समूह हारता है। इन धारावहिकों और रियलिटीज शोज के माध्यम से मनोरंजन के जिस माडल का निर्माण हो रहा है उसका खामियाजा पूरा दर्शक वर्ग सामाजिक, मानसिक और चारित्रिक तौर पर भुगत रहा है।
इन अश£ील एंव भोंडे कार्यक्रमों को संचालित करने व प्रदर्शित करने वालों तथा इनमें भाग लेकर अपनी रोज़ी रोटी चलाने वालों का यह अजीबो गऱीब सा तर्क है कि जिन कार्यक्रमों में दर्शकों को अश्लीलता महसूस होती हो उन दर्शकों को ऐसे कार्यक्रमों को देखने से परहेज़ करना चाहिए। परंतु साथ ही साथ वे ऐसे अश£ील,भौंडे तथा देश की नई युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने व उत्तोजित करने वाले कार्यक्रमों को प्रसारित न किए जाने के पक्ष में हरगिज़ नहीं हैं। हालांकि टी.वी. पर बेतुके, वाहियात तथा बेसिर-पैर के तथा कथित मनोरंजनपूर्ण कार्यक्रमों के प्रसारण का सिलसिला भारतीय टी.वी. जगत के लिए कोई नया विषय नहीं है। परंतु इन दिनों दो अलग अलग टी.वी. चैनलों द्वारा दिखाए जा रहे बिग बॉस एंव राखी का इंसाफ नामक तथाकथित रियालिटी शोज़ को लेकर पूरे देश के सभ्य समाज में इतना हंगामा हुआ कि सरकार को भी इसमें दख़ल देना पड़ा।
इसमें कोई शक नहीं कि सभ्यता, संस्कृति एंव मान्यताओं को लेकर पूरे विश्व में काफी टकराव की स्थिति है। तमाम बातें ऐसी हैं जो कई पश्चिमी देशों के लिए बिल्कुल ही महत्व नहीं रखती परंतु वही बातें हमारे व हमारे जैसे कई देशों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण समझी जाती हैं। तमाम इसी प्रकार के मतांतर खाने पीने व पोशाक को लेकर भी हैं। बोलचाल व भाषा को लेकर भी ऐसी तमाम बातें सामने आती हैं। हमें किसी भी कार्यक्रम को जनता के मध्य प्रसारित करने से पूर्व इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि हमारी अपनी संस्कृति व सभयता हमें क्या सिखाती है तथा हमें उसे कितना महत्व देना है। जऱा गा़ैर फरमाइए कि हम अपने देश की नवयुवतियों के समक्ष कभी तो सीता जी, रानी लक्ष्मीबाई, कलावती, मीराबाई, कल्पना चावला, सुनीता विलियम, इन्दिरा गांधी, सरोजिनी नायडू्, लक्ष्मी सहगल जैसी महिलाओं को आदर्श महिलाओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं। तो दूसरी ओर राखी सावंत जैसी अर्धनग्न सी दिखाई देने वाली बदज़ुबान एवं असयंमित भाषा का प्रयोग करने वाली महिला टेलीवीजऩ के रियलिटी शोज़ में इंसाफ किए जाने का जि़म्मा सौंप देते हैं।
संभव है अगले कुछ दिनों में सुहागरात लाइव या बाथरूम लाइव जैसे भी कार्यक्रम भी आयें, हमें इनके लिए तैयार रहना चाहिए। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ ये परेशानी रही है कि वो वो इलेक्ट्रानिक माध्यमों को लेकर अभी तक कोई स्पष्ट निति बनाने में नाकामयाब रहा है या फिर जानबूझ कर ऐसा करने से बचता रहा है। ये संभव है कि इस पलायन के पीछे बाजार से जुडी जरूरतें हो, जो आर्थिक उदारीकरण की सफलता के लिए जरुरी हैं ,मगर ये नहीं होना चाहिए कि आर्थिक आधार उदार भारत चरित्र ,सामाजिक मूल्यों और संस्कृति के प्रति भी ईमानदार हो। समाज में जो चीजें सहजता से मौजूद हों उनका निस्संदेह स्वागत किया जाना चाहिए, मगर माध्यमों को वो भी पूरी तरहसे आर्थिक आधार पर संचालित किये जानेवाले माध्यमों को, मनोरंजन और खबरों के नाम पर समाज माइंड वाश किये जाने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
जऱा सोचिए कि जो राखी सावंत मात्र शोहरत और प्रसिद्धि की खातिर कैमरे के समक्ष चाहे जैसा वस्त्र पहन लेती है तथा असंयमित भाषा का जब और जैसे चाहे प्रयोग कर लेती है। राखी का स्वंयवर नामक कार्यक्रम में जिसने एक युवक से विवाह का नाटक रचकर उसे जीवन को भी बर्बाद कर दिया तथा चंद दिनों तक भी उसे साथ पति पत्नी के रूप में नहीं रह सकी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसी महिला को रियलिटी शो के माध्यम से आम लोगों को इंसाफ दिलाए जाने की कोशिश के तहत राखी का इंसाफ नामक रियालिटी शो पेश किया जा रहा है। और आिखरकार इसी कार्यक्रम में शिरकत करने वाले एक युवक को अपनी जान तक देनी पड़ी। क्योंकि राखी ने शो के दौरान सार्वजनिक रूप से उसे नामर्द कह कर संबोधित किया था। राखी द्वारा उस युवक का किया गया अपमान वह सहन नहीं कर सका और उसने आत्महत्या कर डाली।
यदि हम राखी सावंत के भौंडे प्रदर्शन को भी दरकिनार कर दें तो भी उसका व्यक्तिगत जीवन जिसे विषय में वह स्वयं कई बार टी. वी. पर ही चर्चा कर चुकी है, वह भी हमारे देश की युवतियों को प्रेरणा देने वाला हरगिज़ नहीं है। हमेशा विवादों एवं आलोचनाओं से घिरी रहने वाली यह अदाकारा अपने कुछ विशेष शुभचिंतकों द्वारा कभी फिल्मों में तो कभी टी. वी. शोज़ में अपने इसी विशेष एवं विवादस्पद अंदाज़ में उछाली जाती रही है। राखी सावंत को प्रोत्साहित करने वाले व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोग यह भली भांति महसूस करते हैं कि उसे लिबास तथा उसे बोलने की बिंदास शैली को भी दर्शक देखना चाहते हैं। और राखी के इसी अंदाज़ को चैनल संचालकों तथा कार्यक्रम निर्माताओं द्वारा भुनाया जा रहा है। इन व्यवसाइयों को इस बात की कतई परवाह नहीं है कि राखी जैसी अदाकारा का लिबास,अंदाज़ तथा शैली हमारी युवा पीढ़ी पर कितने बुरे प्रभाव छोड़ रही है। उन्हें इस बात की भी कोई फिक्र नहीं है कि किसी परिवार का कोई युवक राखी की बद्तमीज़ी व बदकलामी के परिणामस्वरूप अपनी जान से हाथ धो बैठा है।
ठीक इसी प्रकार बिग बॉस नामक रियाल्टी शो में तमाम तरह की अीलताएं परोसी जा रही हैं। गाली-गलौच, मारपीट तथा एक-दूसरे को अपमानित करना तो इस रियालिटी शो का एक अहम हिस्सा बनकर रह गया है। अब तो अमेरिकी अभिनेत्री पामेला एंडरसन भी इस विवादित शो बिग बॉस में अपने जलवे बिखेरने भारत पहुंच चुकी हैं। अर्थात जिस प्रकार के वस्त्र हमारे देश की अभिनेत्रियां पहन कर रियालिटी शोज़ में भाग नहीं ले सकती वैसे नग्न वस्त्र धारण कर पामेला एंडरसन अपने शरीर का प्रदर्शन कर कार्यक्रम की टी आर पी में इज़ाफा करेंगी। गोया नंगापन परोसने के बाद अब कार्यक्रम संचालकों द्वारा महानंगापन परोसने की तैयारी कर ली गई है। और इसे नाम दिया जा रहा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का। और वह भी मनोरंजन के नाम पर। अभी ज़्यादा समय नहीं बीता है जबकि स्वर्गीय प्रमोद महाजन के 'होनहारÓ पुत्र राहुल महाजन को भी भुनाने की कोशिश टी.वी. चैनल्स द्वारा की गई। राखी की ही तरह उसने भी अपना स्वयंवर रचा था। राहुल ने भी टी.वी. पर अपना स्वयंवर ऐसे समय में रचाया था जबकि वह पहले ही शादीशुदा था तथा उसे बर्ताव से तंग आकर उसकी पत्नी श्वेता सिंह उसे छोड़कर जा चुकी थी। नशीली सामग्री के सेवन तथा इसे रखने के आरोप में राहुल महाजन जी पुलिस की गिरफ्त में भी आ चुके हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि अब राहुल व राखी जैसे विवादस्पद लोग ही हमारे देश के युवकों व युवतियों के मनोरंजन का साधन बन रहे हैं। ज़ाहिर है जब कार्यक्रम निर्माता इन्हें अपने कार्यक्रमों में शामिल कर जनता के समक्ष पेश कर ही रहे हैं, ऐसे में दर्शक आिखर कब तक अपना बचाव कर सकते हैं। लिहाज़ा सरकार व मंत्रालय के साथ-साथ कार्यक्रम निर्माताओं की भी यह जि़म्मेदारी बनती है कि वे अपने देश की संस्कृति व सभ्यता को मद्देनजऱ रखते हुए ऐसे अदाकारों को कार्यक्रमों में आमंत्रित करें जो देश की भावी पीढ़ी के समक्ष अच्छे आदर्श प्रस्तुत करें तथा अीलता, नग्न्ता, भौंडेपन आदि को हमारी युवा पीढ़ी से दूर रखें।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

भ्रष्टाचार में भी हममहाशक्ति

हमारी लोकत्रांत्रिक शक्ति, तरक्की के चर्चे फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में भले ही कितने क्यों न हो रहे हों, लेकिन इसके इतर एक बात यह भी सच है कि हम भ्रष्टाचार में भी महाशक्ति हैं। भ्रष्टाचार आज हम भारतीयों का स्वीकृत आचार बन चुका है। क्षमा चाहूंगा, मैं यहां हम भारतीयों पर जोर डालना चाहता हूं। क्योंकि, आज एक-दो आदमी या संस्था नहीं, हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हैं। आज अगर कोई खुद को ईमानदार कहता है तो मुझे लगता है कि या तो उसे घोटाला करने का अवसर नहीं मिला है और अगर मिला है तो वह कर नहीं पाया है। तभी, वह खुद को इमानदार कह रहा है। पूरे देश को महंगाई डायन न केवल खा चुकी है, बल्कि पूरा लील चुकी है। करों के तिहरे बोझ से आदमी तिहरा से चौहरा हो चुका है। ऊपर से भ्रष्टाचार का सावन है कि बरसता ही जा रहा है। (पहले क्या कम बरसा था कि इसकी बाढ़ से हमारा मटियामेट हो चुका है।) हालांकि भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई।
यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका द्वारा भारत को महाशक्ति कहने के दूसरे ही दिन देश में भ्रष्टाचारियों पर गाज गिरनी शुरू हो गई है। महाराष्ट्र्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे के बाद सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भ्रष्टाचारियों की असल पोल खुलेगी या नहीं और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा। क्योंकि ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87वें स्थान पर पहुँच गया है। जबकि, 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है। संस्था के सदस्यों का कहना है कि राष्ट्र्रमंडल खेलों में उजागर हुई अनियमितताओं से भारत की छवि खराब हुई है। इस सूचकांक में भ्रष्टाचार को नीचे की ओर गिरता हुआ दिखाया गया है। उस पर कारगिल के शहीदों के नाम पर बन रहे आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी से जुड़े घोटाले ने भारत की नाक कटवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
अनेक ताजा महाघोटालों में नामजद नेताओं, बाबुओं और पूर्व सैन्य अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने महाराष्ट्र के मुख्यमत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के घोटाले ने महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उनकी सरकार के नौकरशाहों ने भ्रष्टाचार के सारे मानदंड तोड़ दिए थे। इस सोसाइटी का निर्माण और इसके फ्लैटों का आवंटन जिस तरह हुआ, वह साधारण भ्रष्टाचार नहीं है। इसमें भ्रष्टाचारियों ने कारगिल के नायकों के परिवार वालों के लिए बने प्रमुख स्थान के फ्लैटों को हथियाने के लिए सभी नियमों की धज्जियां उड़ा दी। इस तरह यह मामला एक व्यवस्थागत सड़ांध को उजागर करता है। ऐसे कुछ और घोटाले भी हैं, जहां पर व्यावसायिक, राजनीतिक और नौकरशाही तबकों के बेहिसाब भूख, भ्रष्टाचार की भयावहता सभी मापदंडों को पार कर गई है। पिछले एक दशक में हमने प्रसिद्ध केतन पारिख घोटाले, मधु कोड़ा घोटाले, चारा घोटाले, आईपीएल घोटाले, सीडब्ल्यूजी, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, घोटाले देखे हैं और यह सूची बढ़ती ही जा रही है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार और योग्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भी जाने जाते हैं, इसलिए जब वह प्रधानमंत्री बने थे तो यह उम्मीद की गई थी कि राजनेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर देश की छवि को सुधारेंगे, लेकिन उनके राज में एक के बाद एक घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार के कांडों ने सरकार की छवि को भारी क्षति पहुंचाई है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार के कई मामलों के उजागर होने के बाद अब आदर्श सोसाइटी घोटाले ने सरकार की साख पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। इस घोटाले में महाराष्ट्र के कई नेताओं, नौकरशाहों और सेना के बड़े अधिकारियों ने मामूली कीमतों पर जिस तरह से फ्लैट हथिया लिए, उसकी मिसाल खोजनी मुश्किल है। अचरज की बात तो यह है कि जिन नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों पर इस घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी थी, वे भी उसमें शामिल हो गए। किसी को शर्म नहीं आई कि वे कारगिल शहीदों के आश्रितों के लिए बनवाए गए फ्लैट को हड़प रहे हैं। देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी नौ फीसदी विकास दर के दावे के साथ भले ही गर्व का अनुभव कर रहे हों, लेकिन हमारी गिनती आज भी दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। पिछले एक साल के दौरान भारत ने भ्रष्टाचार का नया रिकार्ड कायम किया है। यूपीए की सरकार ने जनता से भ्रष्टाचार रोकने और नौकरशाही के सुधार का वादा किया था, लेकिन पिछले छह सालों के दौरान इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। आधे-अधूरे मन से सूचना के अधिकार का कानून लागू किया लेकिन सूचना नहीं देने वालों को दंडित करने का कोई कड़ा प्राविधान नहीं बनाया। फिर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने चहेते अधिकारियों को बैठाकर भी जनता को उसके हक से वंचित करने का प्रयास किया। यही कारण है कि भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पा रही है। यह जानने के लिए कि भारत में कितना भ्रष्टाचार है, किसी एजेंसी के सर्वे की जरूरत नहीं है। यहां रहने वाला हर आदमी जानता है कि जब भी किसी सरकारी विभाग से उसका पाला पड़ता है तो उसकी जेब खाली हो जाती है।
केंद्र से लेकर राज्यों तक फैला धुंआधार भ्रष्टाचार हमारे राजनेताओं के राज चलाने की अक्षमता को ही उजागर करता है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की जितनी भी कोशिशें अब तक हुई हैं, उनसे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय और बढ़ा है। कई मामलों में भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों की साठगांठ उजागर हो चुकी है। कोई योजना और कार्यक्रम ऐसा नहीं बचा है, जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। लेकिन सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होने के बजाय बड़े-बड़े पदों पर उनकी तैनाती कर दी जाती है। जाहिर है कि सरकारी योजनाओं की धनराशि हड़पने की क्षमता उनकी तरक्की और उन्नति का आधार बन गई है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार दूसरे देशों में नहीं है, लेकिन जहां भी भ्रष्टाचार का मामला सामने आता है तो कार्रवाई होती है। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी जेल गए हैं। चीन में तो भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दे दी जाती है, लेकिन हमारे यहां भ्रष्टाचार की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन उसे मिटाने की कोशिशें शायद ही कार्रवाई तक पहुंच पाती हैं। देश के बड़े-बड़े महानगरों में हमारे नौकरशाहों, माफिया और राजनेताओं की बनी बड़ी-बड़ी कोठियां और तमाम नामी-बेनामी संपत्तियां किस बात का प्रमाण हैं? यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कानून इन लोगों के लिए बनाए ही नहीं गए हैं। उसकी गिरफ्त में लाचार और कमजोर आदमी ही आता है। नहीं तो काले धन का लगातार संचय शहरों में जमीन और बिल्डिंग माफिया के तेजी से विकास, संगठित अपराध के उभार और सार्वजनिक घोटालों की बरसात की क्या व्याख्या की जा सकती है। भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई। 1200 करोड़ के दूरसंचार घोटाले में सिर्फ 5 करोड़ 36 लाख रुपये ही जब्त किए जा सके। इन घोटालों में देश के 22,371 करोड़ रुपये डूब गए। इनकी जांच पड़ताल करने में करोड़ों रुपये अलग से खर्च हुए। इन घोटालों के सूत्रधार वे लोग हैं, जिनकी शासन सत्ता तक ऊंची पहुंच है। आर्थिक अपराधी अर्थव्यवस्था को खोखला करते रहें और राज्य व्यवस्था असमर्थ बनी रहे तो इसका अर्थ हुआ आर्थिक लोकतंत्र नहीं, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार और अपराध का अराजक वातावरण है। यह ध्यान रखने की बात है कि राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं होता, जब तक उसमें आर्थिक लोकतंत्र न हो, लेकिन अब तक घोटालों का यह इतिहास बताता है कि जनता के धन को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई और इस लूट में राजनेता और नौकरशाह दोनों शामिल रहे हैं। भ्रष्टाचार और लूट-खसोट की होड़ में सभी दलों के नेताओं ने अपनी तिजोरियां भरी, विदेशी बैंकों के खातों में भारी रकम जमा की, घोटाले पर घोटाले किए, अपनी भावी पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित किया और जब देश विदेशी दिवालियेपन के कगार पर आ खड़ा हुआ तो अपने खर्चे और ऐशो आराम कम करने के बजाय राष्ट्र की अस्मत को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिकी आकाओं के हाथों गिरवी रख दिया। अपने विशाल बाजार को ही विदेशी कंपनियों द्वारा उपभोग की सामग्रियां बेचने और शोषण करने के लिए मुक्त कर दिया। देश की संप्रभुता की तिलांजलि दे दी और देश को कर्ज के बोझ के नीचे दबा दिया। जनता की स्वराज्य की मांग के पीछे विदेशी आक्रांताओं द्वारा आर्थिक शोषण के विरोध की बलवती भावना थी, लेकिन देश चलाने वालों ने देश को विदेशी दया पर आश्रित कर दिया। फिर इस दया के रूप में जो धनराशि उधार के रूप में मिलती है, उसमें भी भारी लूट-खसोट हो रही है। सांसद और विधायक निधि भी भ्रष्टाचार का माध्यम बन जाए तो हमारी राज चलाने की क्षमता पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाने चाहिए। कुल मिलाकर माफिया संगठनों का एक तंत्र देश में समानांतर सरकार चला रहा है और उसने राज्य के उपकरणों को अप्रासंगिक बना दिया है। देश के सही सोच के प्रत्येक नागरिक को यह चिंता होने लगी है कि अपार प्राकृतिक संपदा और मानवीय संसाधनों के होते हुए भी आखिरकार हमारे देश की यह दशा कैसे हो गई।
देश के प्रधानमंत्री बहुत सज्जन व्यक्ति भले हों, पर आज देश में अपने गठजोड़ के कलंकित सदस्यों के प्रति उनकी विदेह राजा जनक जैसी उदासीनता (काठ की मिथिला जल भी जाए तो मेरा क्या?) को उनकी दार्शनिक गहराई का प्रमाण मानकर संतुष्ट होने वाले बहुत लोग नहीं मिलेंगे। मजबूत विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ठुकराकर देश मध्यावधि चुनाव से नई पार्टी को नहीं चुन सकता और कांग्रेस स्पष्टत: मझधार में अपने गठजोड़ के घोड़े बदलने की इच्छुक नहीं दिखती, अश्वमेध तो दूर की बात है। लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे के बाहर हर समय लुआठी लिए अरुंधती राय या गिलानी सरीखे लोगों के घरफूंक विकल्प भी कोई समझदार लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता। घूम-फिरकर इस उम्मीद पर भारत की जनता कायम है कि मनमोहन सिंह की सरकार ही कुछ कठोर फैसले लेगी। दलीय प्रवक्ताओं, समीक्षकों को तो पार्टी अध्यक्षा द्वारा सादगी और त्याग के गुणों को कांग्रेस द्वारा अपनाने के ताजा आग्रह में एक किस्म की दृढ़ता के संकेत मिल भी रहे हैं, जो सरकार की चिरपरिचित विनम्रता को कड़े फैसले लेते वक्त सत्ता रीढ़ का सहारा आदि दे सकती है। खैर, यह तो बातें हैं बातों का क्या?