लंबे समय से बदलाव की मांग के मद्देनजर केंद्र सरकार ने केंद्रीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा के प्रारूप में बदलाव कर दिया है। इसके तहत संघ लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव किए गए हैं। लेकिन व्यवस्था की जरूरत के हिसाब से इस बदलाव का औचित्य कितना सही है, इसका आकलन बेहद जरूरी है।
प्रशासनिक व्यवस्था का असली मकसद आम लोगों को फायदा पहुंचा कर समाज का विकास करना होता है। इस सच्चाई पर गौर करें तो सरकार की इस नीयत का पता चलता है कि उसे आम आदमी की समस्याओं की कोई चिंता नहीं है। इससे देश के अमीर और गरीब लोगों के बीच की खाई और भी गहरी हो जाएगी। सरकार यदि वास्तव में प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार के लिए इच्छुक होती और उसे आम लोगों का हितैषी बनाने का पक्षधर होती तो उसके पास इसके लिए आधारों की कोई कमी नहीं थी। 1974 में आई कोठारी कमेटी की रिपोर्ट हो या 1988 में आई सतीश चंद्रा कमेटी की रिपोर्ट या फिर 2001 में आई वाई के अलग कमेटी की रिपोर्ट, इन सभी में परीक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए तमाम तरह के सुझाव दिए गए हैं, लेकिन सरकार ने इन्हें नजरअंदाज कर जो परिवर्तन किए हैं, वे प्रशासनिक व्यवस्था को कारपोरेट कल्चर के अनुरूप ढालने की एक कोशिश भर हैं। यह अंग्रेजों के शासन के उस दौर की याद दिलाते हैं, जब जिले के मुखिया को कलेक्टर कहा जाता था और उसका मुख्य काम कर की उगाही करना था। सामाजिक न्याय या आम जनता की समस्याओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता था। ताजा बदलावों से प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार की उम्मीद तो दूर, उसके और पीछे चले जाने का खतरा हो सकता है। वाई के अलग कमेटी ने पहले भी इस परीक्षा के प्रारूप में बदलाव की जरूरत महसूस करते हुए कई सुझाव दिए थे, जिनमें इस परीक्षा के जरिए प्रशासनिक सेवा में आने वाले अधिकारियों से देश की आबादी का जो हिस्सा सबसे ज्यादा प्रभावित होता है, उसे ध्यान में रखा गया था। लेकिन सरकार द्वारा किए गए इस बदलाव से आम आदमी और प्रशासनिक अधिकारियों को दूर करने की साजिश साफ नजर आती है। प्रशासनिक सेवा की प्री परीक्षा में अनिवार्य बनाया गया दूसरा प्रश्नपत्र प्रबंधन कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षा से प्रेरित है, जिसका न तो जनता की जरूरतों में किसी तरह का योगदान हो सकता है और न यह प्रशासनिक व्यवस्था में कोई खास फर्क लाने का काम कर सकता है।
गौरतलब है कि इस परीक्षा में बिहार, उत्तर प्रदेश एवं उड़ीसा जैसे राज्यों के विद्यार्थियों की भागीदारी सबसे ज्यादा होती है और उनकी सफलता का अनुपात भी सबसे ज्यादा होता है। इन राज्यों की शिक्षा व्यवस्था में माध्यमिक स्तर तक अंग्रेजी शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता, लेकिन अंग्रेजी विषय को अनिवार्य करने से इन राज्यों के प्रतिभावान छात्रों के भविष्य पर ग्रहण लग सकता है। इसके ठीक उलट देश के मेट्रो शहरों के बच्चे अंग्रेजी तालीम हासिल करने की वजह से इस परीक्षा में ज्यादा बेहतर कर पाएंगे। लेकिन यह गौर करना जरूरी है कि बड़े शहरों के बच्चे, जिन्होंने देश के आम आदमी का जीवन नहीं देखा, क्या वे आम आदमी की समस्याओं को समझ पाएंगे? उनकी समस्याओं के समाधान के लिए उपाय तलाश कर पाएंगे? क्या इन बदलावों से सरकारी महकमों के नुमाइंदों, जिन्हें हम स्टील फेम कहते हैं, को अपनी जिम्मेदारियों का बेहतर तरीके से निर्वाह करने में मदद मिलेगी या फिर ये बदलाव उन छात्रों को मायूस करेगा, जो वर्तमान में यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं? यूपीएससी ने बदलाव तो किए हैं, लेकिन ये बदलाव कैसे हैं, किनके लिए हैं और क्या इस बदलाव से एक बेहतर प्रशासन की उम्मीद जो हम लगाए बैठे हैं, पूरी हो सकती है? यह संभव होता नहीं दिखता, क्योंकि ये बदलाव मनमाने ढंग से किए गए हैं।
इसका आधार यह था कि समाज के आम वर्ग के लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में बदलाव किया जाए। लेकिन सरकार ने उसके सुझावों की अनदेखी कर दी और जो बदलाव किए हैं उनसे अधिकारियों के मानसिक दृष्टिकोण में अहं आ जाना स्वाभाविक है। जहां देश की बहुसंख्यक जनता अंग्रेजी भाषा से अनजान है, वहीं अपने अंग्रेजी ज्ञान के बल पर प्रशासनिक सेवा में चुने गए इन अधिकारियों को एलिट वर्ग से जुड़े होने की गफलत हो सकती है। इससे उनके पदों और जिम्मेदारियों का उद्देश्य ही खत्म हो जाने का खतरा हो सकता है। प्रशासनिक अधिकारी पहले तकरीबन 20 साल किसी जिले के अधिकारी आदि होते हैं। ये जिले देश के किसी भी कोने में हो सकते हैं, लेकिन खुद को एलिट समझने वाले अधिकारी ऐसे जिलों में जाना कितना पसंद करेंगे, यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। वहां काम करना उनके लिए और भी ज्यादा मुश्किल होगा, क्योंकि वे वहां की जमीनी हकीकत से अनजान होंगे। सच्चाई यह है कि प्रशासनिक सेवा परीक्षा में किया गया यह बदलाव प्रशासन के मशीनीकरण की तैयारी है. उसे मानवीयता और मानवीय मूल्यों से और ज़्यादा दूर करने की तैयारी है. सरकार अपने हिसाब से बदलाव कर रही है, लेकिन देश की बहुसंख्यक गऱीब जनता की समस्याएं क्या हैं और उन समस्याओं का निदान कैसे हो, सरकार को इसकी सही समझ ही नहीं है. तभी तो प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य किया गया है. सवाल यह है कि अंग्रेजी के महारथी क्या कालाहांडी की भूखी जनता का दर्द समझ पाएंगे, कोसी की बाढ़ में हर साल बहते सीमांचल के लोगों के आंसुओं की धार को रोक पाएंगे? नहीं, क्योंकि सरकार का यह मक़सद नहीं है, सरकार का असली मक़सद तो प्रशासनिक व्यवस्था को बाज़ारवाद और नव उदारवाद के ढांचे में ढालना है. इस व्यवस्था से पैदा हुए प्रशासक नए ज़माने के सामंत होंगे, जो शेयर बाज़ार के उतार- चढ़ाव को तो समझेंगे, लेकिन अशिक्षित और गऱीब जनता की धड़कनों को महसूस नहीं कर पाएंगे.
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