हमारी लोकत्रांत्रिक शक्ति, तरक्की के चर्चे फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में भले ही कितने क्यों न हो रहे हों, लेकिन इसके इतर एक बात यह भी सच है कि हम भ्रष्टाचार में भी महाशक्ति हैं। भ्रष्टाचार आज हम भारतीयों का स्वीकृत आचार बन चुका है। क्षमा चाहूंगा, मैं यहां हम भारतीयों पर जोर डालना चाहता हूं। क्योंकि, आज एक-दो आदमी या संस्था नहीं, हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हैं। आज अगर कोई खुद को ईमानदार कहता है तो मुझे लगता है कि या तो उसे घोटाला करने का अवसर नहीं मिला है और अगर मिला है तो वह कर नहीं पाया है। तभी, वह खुद को इमानदार कह रहा है। पूरे देश को महंगाई डायन न केवल खा चुकी है, बल्कि पूरा लील चुकी है। करों के तिहरे बोझ से आदमी तिहरा से चौहरा हो चुका है। ऊपर से भ्रष्टाचार का सावन है कि बरसता ही जा रहा है। (पहले क्या कम बरसा था कि इसकी बाढ़ से हमारा मटियामेट हो चुका है।) हालांकि भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई।
यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका द्वारा भारत को महाशक्ति कहने के दूसरे ही दिन देश में भ्रष्टाचारियों पर गाज गिरनी शुरू हो गई है। महाराष्ट्र्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे के बाद सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भ्रष्टाचारियों की असल पोल खुलेगी या नहीं और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा। क्योंकि ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87वें स्थान पर पहुँच गया है। जबकि, 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है। संस्था के सदस्यों का कहना है कि राष्ट्र्रमंडल खेलों में उजागर हुई अनियमितताओं से भारत की छवि खराब हुई है। इस सूचकांक में भ्रष्टाचार को नीचे की ओर गिरता हुआ दिखाया गया है। उस पर कारगिल के शहीदों के नाम पर बन रहे आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी से जुड़े घोटाले ने भारत की नाक कटवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
अनेक ताजा महाघोटालों में नामजद नेताओं, बाबुओं और पूर्व सैन्य अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने महाराष्ट्र के मुख्यमत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के घोटाले ने महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उनकी सरकार के नौकरशाहों ने भ्रष्टाचार के सारे मानदंड तोड़ दिए थे। इस सोसाइटी का निर्माण और इसके फ्लैटों का आवंटन जिस तरह हुआ, वह साधारण भ्रष्टाचार नहीं है। इसमें भ्रष्टाचारियों ने कारगिल के नायकों के परिवार वालों के लिए बने प्रमुख स्थान के फ्लैटों को हथियाने के लिए सभी नियमों की धज्जियां उड़ा दी। इस तरह यह मामला एक व्यवस्थागत सड़ांध को उजागर करता है। ऐसे कुछ और घोटाले भी हैं, जहां पर व्यावसायिक, राजनीतिक और नौकरशाही तबकों के बेहिसाब भूख, भ्रष्टाचार की भयावहता सभी मापदंडों को पार कर गई है। पिछले एक दशक में हमने प्रसिद्ध केतन पारिख घोटाले, मधु कोड़ा घोटाले, चारा घोटाले, आईपीएल घोटाले, सीडब्ल्यूजी, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, घोटाले देखे हैं और यह सूची बढ़ती ही जा रही है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार और योग्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भी जाने जाते हैं, इसलिए जब वह प्रधानमंत्री बने थे तो यह उम्मीद की गई थी कि राजनेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर देश की छवि को सुधारेंगे, लेकिन उनके राज में एक के बाद एक घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार के कांडों ने सरकार की छवि को भारी क्षति पहुंचाई है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार के कई मामलों के उजागर होने के बाद अब आदर्श सोसाइटी घोटाले ने सरकार की साख पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। इस घोटाले में महाराष्ट्र के कई नेताओं, नौकरशाहों और सेना के बड़े अधिकारियों ने मामूली कीमतों पर जिस तरह से फ्लैट हथिया लिए, उसकी मिसाल खोजनी मुश्किल है। अचरज की बात तो यह है कि जिन नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों पर इस घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी थी, वे भी उसमें शामिल हो गए। किसी को शर्म नहीं आई कि वे कारगिल शहीदों के आश्रितों के लिए बनवाए गए फ्लैट को हड़प रहे हैं। देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी नौ फीसदी विकास दर के दावे के साथ भले ही गर्व का अनुभव कर रहे हों, लेकिन हमारी गिनती आज भी दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। पिछले एक साल के दौरान भारत ने भ्रष्टाचार का नया रिकार्ड कायम किया है। यूपीए की सरकार ने जनता से भ्रष्टाचार रोकने और नौकरशाही के सुधार का वादा किया था, लेकिन पिछले छह सालों के दौरान इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। आधे-अधूरे मन से सूचना के अधिकार का कानून लागू किया लेकिन सूचना नहीं देने वालों को दंडित करने का कोई कड़ा प्राविधान नहीं बनाया। फिर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने चहेते अधिकारियों को बैठाकर भी जनता को उसके हक से वंचित करने का प्रयास किया। यही कारण है कि भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पा रही है। यह जानने के लिए कि भारत में कितना भ्रष्टाचार है, किसी एजेंसी के सर्वे की जरूरत नहीं है। यहां रहने वाला हर आदमी जानता है कि जब भी किसी सरकारी विभाग से उसका पाला पड़ता है तो उसकी जेब खाली हो जाती है।
केंद्र से लेकर राज्यों तक फैला धुंआधार भ्रष्टाचार हमारे राजनेताओं के राज चलाने की अक्षमता को ही उजागर करता है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की जितनी भी कोशिशें अब तक हुई हैं, उनसे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय और बढ़ा है। कई मामलों में भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों की साठगांठ उजागर हो चुकी है। कोई योजना और कार्यक्रम ऐसा नहीं बचा है, जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। लेकिन सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होने के बजाय बड़े-बड़े पदों पर उनकी तैनाती कर दी जाती है। जाहिर है कि सरकारी योजनाओं की धनराशि हड़पने की क्षमता उनकी तरक्की और उन्नति का आधार बन गई है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार दूसरे देशों में नहीं है, लेकिन जहां भी भ्रष्टाचार का मामला सामने आता है तो कार्रवाई होती है। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी जेल गए हैं। चीन में तो भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दे दी जाती है, लेकिन हमारे यहां भ्रष्टाचार की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन उसे मिटाने की कोशिशें शायद ही कार्रवाई तक पहुंच पाती हैं। देश के बड़े-बड़े महानगरों में हमारे नौकरशाहों, माफिया और राजनेताओं की बनी बड़ी-बड़ी कोठियां और तमाम नामी-बेनामी संपत्तियां किस बात का प्रमाण हैं? यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कानून इन लोगों के लिए बनाए ही नहीं गए हैं। उसकी गिरफ्त में लाचार और कमजोर आदमी ही आता है। नहीं तो काले धन का लगातार संचय शहरों में जमीन और बिल्डिंग माफिया के तेजी से विकास, संगठित अपराध के उभार और सार्वजनिक घोटालों की बरसात की क्या व्याख्या की जा सकती है। भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई। 1200 करोड़ के दूरसंचार घोटाले में सिर्फ 5 करोड़ 36 लाख रुपये ही जब्त किए जा सके। इन घोटालों में देश के 22,371 करोड़ रुपये डूब गए। इनकी जांच पड़ताल करने में करोड़ों रुपये अलग से खर्च हुए। इन घोटालों के सूत्रधार वे लोग हैं, जिनकी शासन सत्ता तक ऊंची पहुंच है। आर्थिक अपराधी अर्थव्यवस्था को खोखला करते रहें और राज्य व्यवस्था असमर्थ बनी रहे तो इसका अर्थ हुआ आर्थिक लोकतंत्र नहीं, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार और अपराध का अराजक वातावरण है। यह ध्यान रखने की बात है कि राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं होता, जब तक उसमें आर्थिक लोकतंत्र न हो, लेकिन अब तक घोटालों का यह इतिहास बताता है कि जनता के धन को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई और इस लूट में राजनेता और नौकरशाह दोनों शामिल रहे हैं। भ्रष्टाचार और लूट-खसोट की होड़ में सभी दलों के नेताओं ने अपनी तिजोरियां भरी, विदेशी बैंकों के खातों में भारी रकम जमा की, घोटाले पर घोटाले किए, अपनी भावी पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित किया और जब देश विदेशी दिवालियेपन के कगार पर आ खड़ा हुआ तो अपने खर्चे और ऐशो आराम कम करने के बजाय राष्ट्र की अस्मत को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिकी आकाओं के हाथों गिरवी रख दिया। अपने विशाल बाजार को ही विदेशी कंपनियों द्वारा उपभोग की सामग्रियां बेचने और शोषण करने के लिए मुक्त कर दिया। देश की संप्रभुता की तिलांजलि दे दी और देश को कर्ज के बोझ के नीचे दबा दिया। जनता की स्वराज्य की मांग के पीछे विदेशी आक्रांताओं द्वारा आर्थिक शोषण के विरोध की बलवती भावना थी, लेकिन देश चलाने वालों ने देश को विदेशी दया पर आश्रित कर दिया। फिर इस दया के रूप में जो धनराशि उधार के रूप में मिलती है, उसमें भी भारी लूट-खसोट हो रही है। सांसद और विधायक निधि भी भ्रष्टाचार का माध्यम बन जाए तो हमारी राज चलाने की क्षमता पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाने चाहिए। कुल मिलाकर माफिया संगठनों का एक तंत्र देश में समानांतर सरकार चला रहा है और उसने राज्य के उपकरणों को अप्रासंगिक बना दिया है। देश के सही सोच के प्रत्येक नागरिक को यह चिंता होने लगी है कि अपार प्राकृतिक संपदा और मानवीय संसाधनों के होते हुए भी आखिरकार हमारे देश की यह दशा कैसे हो गई।
देश के प्रधानमंत्री बहुत सज्जन व्यक्ति भले हों, पर आज देश में अपने गठजोड़ के कलंकित सदस्यों के प्रति उनकी विदेह राजा जनक जैसी उदासीनता (काठ की मिथिला जल भी जाए तो मेरा क्या?) को उनकी दार्शनिक गहराई का प्रमाण मानकर संतुष्ट होने वाले बहुत लोग नहीं मिलेंगे। मजबूत विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ठुकराकर देश मध्यावधि चुनाव से नई पार्टी को नहीं चुन सकता और कांग्रेस स्पष्टत: मझधार में अपने गठजोड़ के घोड़े बदलने की इच्छुक नहीं दिखती, अश्वमेध तो दूर की बात है। लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे के बाहर हर समय लुआठी लिए अरुंधती राय या गिलानी सरीखे लोगों के घरफूंक विकल्प भी कोई समझदार लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता। घूम-फिरकर इस उम्मीद पर भारत की जनता कायम है कि मनमोहन सिंह की सरकार ही कुछ कठोर फैसले लेगी। दलीय प्रवक्ताओं, समीक्षकों को तो पार्टी अध्यक्षा द्वारा सादगी और त्याग के गुणों को कांग्रेस द्वारा अपनाने के ताजा आग्रह में एक किस्म की दृढ़ता के संकेत मिल भी रहे हैं, जो सरकार की चिरपरिचित विनम्रता को कड़े फैसले लेते वक्त सत्ता रीढ़ का सहारा आदि दे सकती है। खैर, यह तो बातें हैं बातों का क्या?
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