शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

सरकारी धन व हथियारों से फैल रहा लाल आतंक

रायपुर। दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के पूर्व प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस ने एक सप्ताह में अभनपुर, भानुप्रतापपुर और रायपुर से आठ लोगों को धरदबोचा। अभनपुर और भानुप्रतापपुर से गिरफ्तार किए गए माओवादी समर्थकों से भारी मात्रा में एके-47 की गोलियां, जिलेटिन छड़ें, डेटोनेटर और इलेक्ट्रॉनिक सामान जब्त किया। बरामद गोलियां सरकारी हैं, क्योंकि ये गोलियां पुलिस और सशस्त्रबलों को ही मिलती हैं। वहीं, रायपुर से गिरफ्तार किए गए दो बिचौलियों ने यह खुलासा किया कि किस तरह खनन ठेकेदारों और सरकारी काम करने वाले ठेकेदारों से सुविधा शुल्क लेकर लाल आतंक मजबूत हो रहा है। मतलब साफ है कि माओवादी सरकारी पैसे और सरकारी हथियारों का इस्तेमाल ही खून-खराबे के लिए कर रहे हैं। अधिकतर हथियार सरकारी : सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार नक्सलबाड़ी आंदोलन के शुरूआती दिनों से ही संगठन हथियारों के लिए लूट पर निर्भर रहा है। पहले जमींदारों से लूटे हथियार। फिर सुरक्षाबलों से हथियार लूटकर पार्टी ने अपनी आर्मरी को मजबूत किया। वर्ष 2007 में तत्कालीन पुलिस प्रमुख विश्वरंजन ने स्वीकार किया था कि माओवादियों की सबसे प्रचलित राइफल एके-47 पुलिस से लूटी हुई है। यही नहीं, एलएमजी और रॉकेट लॉन्चर जैसे हथियार भी लूट के जरिए उन तक पहुंचे हैं। गोलियां बड़ी चुनौती : खुफिया सूत्रों का कहना है कि माओवादियों ने उन्नत किस्म के हथियार तो खूब इकट्ठे कर लिए हैं, लेकिन उनके सामने असल चुनौती गोलियों की है। भारत में विभिन्न राइफलों और मशीनगनों में इस्तेमाल होने वाली गोलियां सरकारी हथियार फैक्ट्रियों में ही बनती हैं, उनको देसी तरीके से नहीं बनाया जा सकता। इसी कारण वे लूटकर, सेंध लगाकर या अन्य तरीके से गोलियां एकत्र करते हैं। खुद का रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग : हथियारों की कमी पूरी करने और आत्मनिर्भर बनने के लिए माओवादियों खुद की रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग खड़ी कर ली है। 6-7 साल पहले इस विंग ने भोपाल और ओडिसा के राउरकेला में रॉकेट लॉन्चर और रॉकेट बनाने का कारखाना डालने की योजना बनाई थी, लेकिन योजना लीक हो गई। अब वे लॉजिस्टीक कमांड के जरिए हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं। बस्तर में इसकी कमान प्रभाकर नाम के माओवादी कमांडर के हाथ है। अन्य प्रदेशों में पकड़ा जा चुका है नेटवर्क : वर्ष 2011 उत्तरप्रदेश एसटीएफ ने 26वीं वाहिनी पीएसी (प्रोविंसियल आम्र्स कांस्टेबुलरी) के एक आर्मरर (शस्त्रागार प्रभारी) को गोरखपुर से और प्रदेश पुलिस के एक आर्मरर को बस्ती पुलिसलाइन से गिरफ्तार कर सरकारी गोलियों को माओवादियों तक पहुंचाने वाले गिरोह का खुलासा किया था। ये लोग गोलियों के रिकॉर्ड में हेरफेर कर उन्हें बेच देते थे। बिहार और झारखंड से भी ऎसे मामले सामने आ चुके हैं। झीरम घाटी हमले में भी इस्तेमाल हुई थीं सरकारी गोलियां झीरम घाटी में गत वर्ष 25 मई को हुए सबसे बड़े माओवादी हमले में भी सरकारी गोलियों का इस्तेमाल हुआ था। कॉर्टेज के खोखे पर मिले मार्क के आधार पर सीआरपीएफ के डिप्टी कमांडेंट अश्विन झा ने स्वीकार किया था कि यह आयुध फैक्ट्री वरणगांव (भुसावल, महाराष्ट्र) में बनी थीं। इनकी आपूर्ति केवल अर्द्धसैनिक बलों और प्रदेश पुलिस इकाइयों को ही की जाती हैं। स्वीकार चुकी एनआईए अगस्त 2012 में एनआईए ने कोलकाता की अदालत में माना था कि माओवादियों ने अबुझमाड़ में हथियार फैक्ट्री लगा ली है और तीन साल में वे लगभग पांच करोड़ के रॉकेट लॉन्चर व अन्य हथियार बना चुके हैं।

जंगल के भरोसे, "सुपरहीरो" का परिवार

जगदलपुर। छत्तीसगढ के जंगलों में प्रचलित कहानियों में सुपर हीरो जैसी ख्याति पाने वाले भूमकाल आंदोलन के नायक गुंडा धूर फिर एक बार चर्चा में आ गए हैं। गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में होने वाली परेड में गुंडा धूर की गाथाओं को झांकी के जरिए प्रदर्शित किया जाएगा। लेकिन कहानी का मर्म यह है कि एक ओर जहां इस जंगल की रक्षा करने वाले इस नायक की गाथा राष्ट्रीय राजधानी में गूंजेगी , तब उनका परिवार गांव में रोजी-रोटी की जुगत में ही लगा रहेगा। जिला मुख्यालय से करीब 35 किमी दूर नेतानार गांव में गुंडाधूर की तीसरी पीढ़ी आज भी निवासरत है। पत्रिका की टीम ने गहन पड़ताल के बाद गंुडाधूर के वंशजों को ढूंढ निकाला और उनकी व्यथा को जाना। गुंडाधूर का नाती जोगी धूर (85) अब इस परिवार का मुखिया है। नेतानार गांव में जब हमारी टीम पहुंची तो पूरा परिवार लांदा (आदिवासी पेय) की कुटाई में व्यस्त था। पास ही जोगी धूर गांव के कुछ लोगों के साथ चौपाल लगाए बैठे थे। दुभाषिए की मदद से हमने उनसे बात की तो वे अपने दादा की वीर गाथाएं सुनाने लगे। उनका परिवार पहले गेहूंपदर में रहता था। बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर दबाव बनाना शुरू किया तो उनके पिता आयता परिवार सहित पलायन कर गए। बाद में उनका परिवार चांयकुर मेें बस गया। जंगल का ही सहारा जोगी धूर ने बताया कि उन्हें शासन-प्रशासन से आज तक कोई सुविधा नहीं मिली है न कभी किसी सरकारी नुमाइंदें ने उनकी पूछ परख की। उनके परिवार सहित सभी गांव वाले अपनी आजीविका के लिए जंगल पर आश्रित हैं। जंगलों में शिकार से उनका पेट भरता है। वहीं जंगल से बांस लाकर वे टोकनियां और कड़गी बनाते हैं, जिन्हें बाजार में बेचकर अन्य सुविधाएं जुटाई जाती हंै। धान, कोसरा, मंडिया की फसल भी उगाते हैं। जोगी अब बने गुंडाधूर देव नेतानार इलाके में गुण्डाधूर व उनके परिवार को देव का दर्जा हासिल है। जोगी धुर को वर्तमान में गुण्डाधूर देव के नाम से जाना जाता है, इनकी पूजा भी की जाती है। उनके चाचा के पुत्र मंगडु ही उनके पुजारी हैं, जो उनकी नियमित पूजा करते हैं। नहीं है प्रमाणित फोटोग्राफ यह जानकर आpर्य होगा कि जिस गुंडाधूर की तस्वीर को भूमकाल आंदोलन के हीरो की तहर देश के सामने रखने की तैयारी है, उसके प्रमाणित फोटोग्राफ आज तक किसी के पास नहीं है। बस्तर के कलाकारों,रचनाकारों और इतिहासकारों ने जिस तरह से गुण्डाधूर की भूमिका और उनकी आकृति को पेश किया। इससे गुण्डाधूर एक वेताली कल्पना की तरह स्थापित हो चुके हैं। इस तरह नायक बने गंुडाधूर इतिहासकार डॉ केके झा का कहना है कि गुंडाधूर गेहूंपदर के पुजारी परिवार से संबंधित थे। ऎसा बताया जाता है कि वह तंत्र-मंत्र के भी जानकार थे। वह तत्कालीन राजा रूद्रप्रतापदेव के चाचा कालेन्द्र सिंह के दांहिने हाथ माने जाते थे। सन 1910 में अंग्रेजों ने जंगल काटने पर रोक लगा दी थी और जंगल पर आदिवासियों के अधिकार सीमित कर दिए थे। इससे आदिवासियों में आक्रोश था। कालेन्द्र सिंह ने अंगे्रजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और गुंडाधूर आंदोलन के नायक के तौर पर उभरे। तोकापाल से आंदोलन की शुरूआत हुई और मध्य बस्तर में यह आंदोलन तेजी से फैला। लेकिन अंग्रेजों ने आंदोलन को दबा दिया। गुण्डाधूर के साथी डेबरीधूर को फंासी दे दी गई, लेकिन गुण्डाूधर का आज तक पता नहीं चला।

मैं भोपाल - मर चुका हूं

मैं भोपाल - मर चुका हूं - मेरी अर्थी तीन दशक पहले उठी थी। 2 और 3 दिसंबर की रात उस सर्द रात जैसे ही शहर के घड़ियाल ने 12 बजाए। गहरे अंधेरे के बीच अपनी गोद में सोए लाखों लोगों को देखकर अचानक सिहरन दौड़ गई। पांच मिनट बाद ही मुझे चीरते हुए आई सायरन की तीखी आवाज। ये मेरी मौत का ऐलान था क्योंकि अब जो कुछ होने जा रहा था वो मैंने कभी नहीं देखा था, न कभी सुना था। वो वक्त जैसे थम गया - आज भी मेरी घड़ी जैसे रात 12 बजकर 05 मिनट से आगे बढ़ी ही नहीं क्योंकि सुबह की पहली किरण तक शहर की हर गली में, हर चौराहे पर, अस्पताल में, स्टेशन पर, ठेले पर, घर में मेरी लाश पड़ी थी।
रात के 12 बजकर पांच मिनट पर जागा शैतान
1984 के 2-3 दिसंबर की वो दरमियानी रात थी। धुंध भरे अंधेरे में शहर भोपाल के साथ-साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री भी सोई पड़ी थी। तकनीकी वजहों से पिछले कई दिनों से फैक्ट्री में प्रोडक्शन ठप था लेकिन फैक्ट्री के 610 टैंक में एक शैतान सांस ले रहा था। जी हां, इस टैंक में भरी थी बेहद खतरनाक, जानलेवा, जहरीली मिथाइल आइसोसायनाइड। मौके पर तैनात फैक्ट्री के सुपरवाइजर्स को रात 11 बजे ही इस टैंक में मची खलबली का अहसास होने लगा था लेकिन ये खलबली आगे कितनी खतरनाक होने जा रही थी किसी को इसका अहसास नहीं था। टैंक का बढ़ता तापमान सबकी पेशानी पर लकीरें खींच रहा था। हालात पर काबू पाने की मशक्कत जारी थी लेकिन जल्द ही कर्मचारियों को अहसास हो गया कि अब हालात उनके हाथ से निकल चुके हैं।
घबराए टेक्नीशियंस ने आखिरी कोशिश की और इस टैंक से जुड़ने वाली तमाम पाइप लाइंस काट दीं। अंदाजा था कि शायद इसी तरह टैंक में हो रही रिएक्शन थम जाए। लिक्विड का गैस बनना रुक जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ और धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व उड़ गया। अब अलार्म बजाने के सिवा कोई चारा नहीं था और आधी रात को ठीक बारह बज कर पांच मिनट पर यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से खतरे का सायरन बजा लेकिन जब तक सायरन की आवाज नींद में डूबे लोगों के कान तक पहुंचती शैतान जाग चुका था। उस मौके पर फैक्ट्री में तैनात रहे लोग भी मानते हैं कि इस शैतान को यूनियन कार्बाइड ने ही पाला था। वो तमाम सुरक्षा इंतजामात का उल्लंघन कर रही थी।
सर्द हवा पर सवार जहरीली मिथाइल आईसोसायनाइड गैस शहर के भीतर घुस चुकी थी। इस गैस का असर नींद में दुबके हुए लोगों पर हुआ। उनका दम घुटने लगा। बेचैनी सी महसूस हुई और आंख खोलते ही मिर्ची का धुआं सा लगा। नींद उचटने के बाद जो बाहर निकले वो सीधे गैस की चपेट में थे। हर सेकेंड के साथ एक नया आदमी गैस का शिकार हो रहा था और घंटे भर के भीतर पुराने भोपाल शहर में मौत सड़कों पर नाच रही थी। बदहवास लोग इस जहर के असर से बचने के लिए जितना भाग रहे थे, मौत उन्हें चुन-चुन कर मार रही थी। किसी को पता नहीं था कि हुआ क्या है। किसी को ये भी पता नहीं था कि मौत सिर्फ अकेले उसी का पीछा कर रही है या और भी लोग इसके शिकार हैं।
जहर का पता नहीं था, कैसे होता इलाज
रात के तकरीबन डेढ़ बजे जहर के शैतान ने भोपाल के मशहूर हमीदिया अस्पताल की इमरजेंसी पर दस्तक दी। बीमार घबराए और दहशत में डूबे लोगों के अस्पताल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। जब तक एक-दो लोग आए इमरजेंसी में मौजूद डॉक्टरों की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन जल्द ही ये तादाद दर्जनों में तब्दील हो गई और तब सरकारी अमले को गैस कांड की गंभीरता का अहसास हुआ। उस वक्त भोपाल के पुलिस कप्तान थे आईपीएस स्वराज पुरी। रात की गश्त पर निकले पुरी को सड़कों की हलचल से अहसास हो गया कि कुछ गड़बड़ जरूर है। उन्होंने उस ओर बढ़ने की कोशिश की जिधर से लोग भागे आ रहे थे लेकिन जल्द ही खुली जीप के भीतर उनका गला सूखने लगा। ये हवा के झोंके के साथ आ रही गैस का असर था। उस जहरीली रात स्वराज पुरी पूरे वक्त हालात से लड़ते रहे। कभी सड़कों पर तो कभी कंट्रोल रूम में।
सरकारी अमले के दिमाग में अब तक तस्वीर साफ हो चुकी थी। जहर की शक्ल में ये कहर यूनियन कार्बाइड की चिमनियों से बरसा था। लेकिन इस जहर का असर कहां तक था और कितना था इसका अंदाजा मुश्किल था। दहशत में डालने वाली शुरुआती खबरें हमीदिया अस्पताल से आनी शुरू हुईं। जहां लाशों की तादाद हर क्षण बढ़ती जा रही थी। जब तक प्रशासन अस्पताल का मोर्चा संभालने की रणनीति बनाता कप्तान स्वराजपुरी को पुराने शहर की पुलिस चौकियों से बिगड़ते हालात की खबरें मिलने लगीं। आखिरकार उन्होंने खुद मोर्चा संभाला। जहां से भी खबर मिलती वहां पर अधिकारियों को हालात संभालने के निर्देश दिए जाते लेकिन ये सारी कोशिशें बेमानी थीं। यूनियन कार्बाइड का शैतान लगातार जहरीली गैस उगल रहा था। रिटायर्ड आईपीएस स्वराज पुरी उन हालात को बयान करते हुए कहते हैं-वो मेरे पास आए। मैंने पूछा, कौन सी गैस है? उन्होंने कहा-पता नहीं। मैंने पूछा, इसके एंटीडोट्स क्या हैं? उन्होंने कहा-पता नहीं। मैंने कहा, तो फिर आप यहां आए क्यों हैं। गेट लॉस्ट।
सरकारी अमले को ये तो पता चल गया कि गैस की लीकेज यूनियन कार्बाइड से हुई है। लेकिन अब सामने खड़े थे दो बड़े सवाल। गैस का रिसाव बंद हो तो कैसे और जो गैस रिसी है वो क्या है ये जाने बगैर मरते लोगों की जान बचाना मुश्किल था लेकिन ये बताने वाला कोई नहीं था क्योंकि खुद यूनियन कार्बाइड ने तमाम सच छुपा रखे थे।
हमीदिया अस्पताल में बीमारों की तादाद बढ़ती जा रही थी। हालात का मुकाबला करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल भेजी गई। जूनियर डॉक्टरों को जगा कर ड्यूटी पर लगाया गया। लेकिन डॉक्टरों का सारा अमला लाचार था। उन्हें ये तो पता लग रहा था कि लाशों पर जहरीले केमिकल का असर है। बीमारों के लक्षण भी उन्हें जहर का शिकार बता रहे थे। मगर ये जहर है क्या ये जाने बगैर इलाज मुश्किल था। तब अचानक और पहली बार एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम। सायनाइड एक ऐसा जहर जिसे ईजाद करने वाला ही उसका स्वाद बताने के लिए जिंदा नहीं बचा लेकिन उस रात भोपाल में एक पूरी आबादी सायनाइड की सांस ले रही थी। मगर रात के अंधेरे में कौन, कहां किन हालात में था इसका अंदाजा ही नहीं लग रहा था। प्रशासन को केवल उनकी खबर मिल रही थी जो अस्पतालों तक आ रहे थे या सड़कों पर निकल रहे थे लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा था हालात बिगड़ते जा रहे थे। हमीदिया अस्पताल के कंपाउंड में लाशों की कतार लगी थी और सवाल था कि इतनी लाशों का किया क्या जाए। इन लाशों की फिक्र थी तो एक ऐसे शख्स को जिसे 3 दिसंबर 1984 के बाद सारा भोपाल डॉक्टर डेथ के नाम से जानता है। इस शख्स ने गैस की शिकार लगभग तीन हजार लाशों का पोस्टमॉर्टम किया। तमाम लावारिस लाशों की तस्वीरें खिंचवाईं और उनका रिकॉर्ड तैयार करके रखवाया ताकि आगे जाकर उनकी पहचान की जा सके। लाशों का पोस्टमॉर्टम ही ये तय करने वाला था कि मौत की वजह क्या है। इन लाशों का गुनहगार कौन है। जो जहर इतनी जिंदगियों को लाश बना गया वो आखिर आया कहां से। लेकिन इसी भोपाल शहर में एक शख्स ऐसा भी था जिसे यूनियन कार्बाइड में सोए शैतान की खबर थी। उसे अहसास था कि ये शैतान कभी भी जाग सकता है। इस शख्स का नाम है राजकुमार केसवानी।
उसे अफसोस है अपनी खबर के सच होने का
भोपाल के एक स्थानीय दैनिक में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड में खौलते जहर की तमाम खबरें दीं। मगर इन खबरों पर कान देने वाला कोई नहीं था। बेखबर सरकार चैन की नींद सोती रही। राजकुमार केसवानी लगातार खबरें लिखते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में भी कार्बाइड के कारनामे का खुलासा किया मगर भोपाल में बैठी सरकार ही कंपनी की निगहबान बनी बैठी थीं। खबरनवीस को अपनी लिखी खबर के सच होने का गुरूर होता है मगर राजकुमार केसवानी को गहरा अफसोस है। उन्होंने इस सीरीज में आखिरी खबर 8 अक्टूबर 1984 को बेहद गुस्से में लिखी थी। हेडिंग थी-अब भी सुधर जाओ वर्ना मिट जाओगे। एक सतर्क पत्रकार की चेतावनी को नजर अंदाज करने का नतीजा पूरा भोपाल भुगत रहा था। लेकिन हालात कितने भयावह हो चुके थे इसका अंदाजा तब हुआ जब भोपाल में 3 दिसंबर की सुबह सूरज निकला। भोपाल के रेलवे स्टेशन ने सारी रात जहर का असर झेला था। कंट्रोल रूम को स्टेशन के खराब हालात की खबर मिल रही थी। सुबह-सुबह भोपाल के आला अफसरों का अमला रेलवे स्टेशन पहुंचा। तकरीबन पांच बज रहे थे। बहैसियत कप्तान स्वराज पुरी भी रेलवे स्टेशन पहुंचे। वहां का जो वाकया वो बयान करते हैं वो रोंगटे खड़े कर देता है। लोग स्टेशन पर ऐसे पड़े थे जैसे सोए पड़े हों। हर तरफ लाशें ही नजर आ रही थीं। तीन दिसंबर की सुबह सूरज चढ़ता गया और चढ़ते सूरज के साथ भोपाल के आसमान में चीलें और गिद्ध मंडराने लगे। इनका मंडराना ही गवाही दे रहा था कि भोपाल की सड़कों पर कितनी लाशें बिछी हैं। इन लाशों में लोग तो थे ही, बड़ी तादाद में बेजुबान जानवर और मवेशी भी थे लेकिन जब इंसानों की लाशें उठाने वाला ही कोई नहीं था तो जानवरों की फिक्र कौन करता। भोपाल के कलेक्टर रहे मोती सिंह शहर और सड़कों के जो हालात बयान करते हैं वो दोजख से भी बुरा है। इंसान ही इंसानी लाशों को जानवरों की तरह उठा रहे थे। गाड़ियों में भर रहे थे। हर तरफ लाशों से उठ रही बदबू भरी थी। लेकिन वहां तो जिंदा इंसान भी लाशों में तब्दील हो गया था। जो बच गए थे उनके सारे अहसास ही जैसे मर गए थे।
एक डॉक्टर जिसे नया नाम मिला डॉक्टर डेथ
यूं तो सरकारी आंकड़ा साढ़े तीन हजार लाशों तक पहुंचा लेकिन गैरसरकारी आंकड़ा कहता है कि मरने वाले दस हजार से ज्यादा थे। जहर के असर से लोग आज तक मर रहे हैं और आगे भी मरेंगे लेकिन यूनियन कार्बाइड का शैतान टैंक नंबर 610 आज भी वहीं खड़ा है। इस टैंक का ढक्कन BHEL के इंजीनियरों ने बंद तो कर दिया लेकिन मिथायल आईसोसायनाइड का शैतान अब भी आजाद है और भोपाल की रगों में दौड़ रहा है। कहते हैं इसने अब तक 40 हजार जानें ली हैं। आगे और कितनी जानें लेगा कोई नहीं जानता। जो बेमौत मारे गए, जिनके अपने उनसे जुदा हो गए उन्हें आखिरी इंसाफ कभी मिलेगा भी या नहीं कोई नहीं जानता लेकिन तारीख के काले पन्नों में भोपाल की वो जहरीली रात हमेशा के लिए दर्ज रहेगी। शहर की सरजमीं पर बिछी थीं 4000 से ज्यादा लाशें। उन खौफनाक पलों के सबसे बड़े गवाह हैं डॉक्टर डेथ। भोपाल के लोग उनको इसी नाम से जानते हैं। उनके लिए भी उन दर्द के लम्हों को दोबारा जीना आसान नहीं, कलेजा चाहिए। वो बताते हैं कि कैसे पहले मानवता पर टूटा था एक गैस का कहर। उस रोज एक ही दिन में उन्होंने किया था सात सौ अस्सी लाशों का पोस्टमॉर्टम। एक हफ्ते में 3 हजार लाशों के साथ चीरफाड़ करने के बाद मौत नाचती थी उनकी आंखों के सामने। विभाग में तीन चार लोग थे। सरकार से परमीशन ली कि सबका पोस्टमॉर्टम नहीं करेंगे। वे ही वो शख्स हैं जिन्होंने पहली बार दुनिया को बताया था यूनियन कार्बाइड के किलर टैंक नंबर 610 का सच क्योंकि किलर टैंक नंबर 610 से निकली गैस का एनालिसिस किया गया तो उसमें से वो पदार्थ मिले जो लाशों पर भी पाये गये। मतलब गैस कहीं और से नहीं उसी टैंक से आई थी। आज भी दर्द का वो मंजर यादकर उनका कलेजा फट जाता है। इतना बड़ा हादसा था। एक मां एक छोटे बच्चे को गोद में लेकर पड़ी हुई है और मर गई है। एक बाप दो बच्चों को लेकर पड़ा है।