शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

यह भी दलित वह भी दलित

हमारे देश में दलित शब्द ऐसा हथियार बन गया है जो मौके की नजाकत को देखकर इस्तेमाल किया जाता है। मध्यप्रदेश में इनदिनों दो दलित चर्चा का विषय बने हुए हैं। पहला है गुना के विधायक राजिंदर सिंह सलूजा का। जिन्होंने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर दलित वर्ग का सर्टिफिकेट बनवाया और अब विधायक बन कर शेखी बघार रहे हैं कि समाज में अपमान होने के डर से यह जाहिर नहीं करते थे कि वह दलित हैं। सिर्फ इसीलिए उन्होंने अनुसूचित जाति वर्ग को प्राप्त होने वाले लाभ लेने की चेष्टा भी कभी नहीं की। हालांकि राज्य स्तरीय छानबीन समिति ने इस तर्क को नहीं माना और पूरी पड़ताल करने के बाद पाया कि सलूजा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर गलत सर्टिफिकेट दिया था। उनकी जाति अनुसूचित वर्ग में शामिल नहीं है।
वहीं दूसरा उदाहरण है देश के जानेमाने गीतकार और मप्र के 93 बैंच के आईएएस अधिकारी रमेश थेटे का। लोकायुक्त प्रकरण में अभियोजन की अनुमति मांगी जाने के आधार पर पदोन्नति से वंचित किए जाने के आरोप में आईएएस अफसर रमेश थेटे ने आत्महत्या की धमकी दी है। मुख्य सचिव अवनि वैश्य और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव दीपक खांडेकर को दिए नौ पेज के आवेदन में थेटे ने कहा कि शासन को करोड़ों रुपए की हानि पहुंचाने के आरोपी आठ सवर्ण अफसरों को अभियोजन की मंजूरी लंबित होने के बावजूद पदोन्नति दी गई, लेकिन दलित होने के चलते मुझे पदोन्नति नहीं दी जा रही। वर्तमान में एनवीडीए, इंदौर में संचालक के पद पर पदस्थ थेटे ने आवेदन की प्रति राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पूनिया को भी भेजी है। ये दोनों उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि जब अपना हित साधना होता है या फिर संकट की घड़ी आती है तभी लोगों को दलित शब्द याद आता है।
यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई व्यक्ति नाजायज़ तरीक़े से अपनी जाति, धर्म, रंग, इलाके को लेकर अपना बचाव करने लगे। अभी हाल ही में यूपीए सरकार ने डीएमके की ओर से मनोनीत मंत्री ए. राजा पर दूरसंचार नीलामी में भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें तिहाड़ की हवा खानी पड़ी तो डीएमके के मुखिया एम. करूणानिधि ने दिल्ली में राजा का बचाव करते हुए कहा कि राजा पर ये आरोप इसलिए लग रहे हैं क्योंकि वे दलित हैं। बहुत पहले की बात है जब मोहम्मद अजहरूद्दीन पर मैच फि़क्सिंग के आरोप लगे थे और उन्होंने अपने बचाव में कहा थी कि अल्पसंख्यक होने के कारण उन पर यह आरोप लग रहे हैं। बाद में वे आरोप सही साबित हुए और अजहर का क्रिकेट करियर ख़त्म ही हो गया। इसके बाद इस देश में अपने ऊपर सबसे अधिक ख़र्च करने वाली आत्ममुग्धा और महत्वोन्मादी मायावती ने बात-बात में अपने आपको दलित की बेटी कहना शुरू किया और इसके एवज़ में उन्होंने अपनी तमाम करतूतों पर जान बख़्शी चाही जो गऱीबों का पेट काट-काटकर प्रतिमाएँ लगा-लगाकर मायावती कर रही थी और अपने आपको भारतीय राजनीति के इतिहास में प्रतिमायावती बना रही थी।
हम मानते हैं कि दलित समाज शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके अनेक कारणों में मुख्य कारण हैं उसका अशिक्षित होना। लेकिन इसके साथ ही दलित विमर्श की लिखित एवं वाचिक परंपराओं का भी तीव्र विकास हुआ है। दलित वर्ग सदैव से संघर्षशील समाज का अविभाज्य अंग रहा है। आदिकाल से आज तक दलित दशा पर यदि विचार करें तो, अनेक परिवर्तनों के बावजूद उसका मूल संघर्ष आज भी यथावत है। अगर हम दलित समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जननायकों के जीवन को देखें तो पाते है कि उन्होंने दलित शब्द को कभी भी हीन नहीं समझा। बल्कि इस शब्द को अपनी ताकत बनाया और समाज के पथ प्रदर्शक बनें। दलित मसीहा डॉ भीम राव अंबेडकर ने किसी नेता का वेश धारण नहीं किया, उनका पाखंड में विश्वास नहीं था। वे स्वयं उदाहरण बनकर अपने समाज के उत्थान में लगे रहे। जननेता के रूप में बाबू जगजीवन राम ने भारतीय राजनीति के शीर्ष पर रह कर दलितों को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का एहसास कराया। जगजीवन राम ज्यादा ही विश्वसनीय दलित नेता के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर चमके। वह राष्ट्रीय नेता थे। दलित समाज के साथ ही उन्होंने समूची भारतीयता को प्रभावित किया। इसी क्रम में सन् 1964 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद रिपब्लिकन पार्टी, बामसेफ डीएस 4 और बहुजन समाज पार्टी तक के सफर में कांशीराम ने दलितों को एकताबद्ध कर, अत्याचारों का प्रतिरोध करने तथा उन्हें समाज में न्यायोचित स्थान बनाने के लिये जोरदार ढंग से प्रेरित किया।
सन् 1973 में स्थापित बामसेफ को बाबा साहब अंबेडकर के जन्म दिन 6 दिसम्बर को सन् 1978 में पुन: सशक्त बनाने का प्रयास किया गया। बामसेफ से कांशीराम ने दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का संगठन मजबूत बनाया। सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की गई,जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश मेंं सत्ता में है। भीमराव अंबेडकर,जगजीवन बाबू और कांशीराम भी दलित थे लेकिन उन्होंने समाज में अपमान होने के डर से इस बात को कभी नहीं छुपाया की वे दलित हैं और ना ही समाज में दोहरी व्यवस्था से तंग आकर कभी मरने-मारने की बात कही।
भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव आंबेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, फूड सरप्लस हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, पूरी तरह शहरी हो, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। ये सपने जगजाहिर हैं, पर उनका एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें। वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें, नौकरी देने वाले भी बनें।
बात 29 अक्टूबर 1942 की है जब डॉ. आंबेडकर ने तत्कालीन गवर्नर जनरल को दलित समस्याओं से संबंधित एक ज्ञापन सौंपा। डॉ. आंबेडकर गवर्नर जनरल की एग्जेक्यूटिव काउंसिल के सदस्य थे इसलिए यह ज्ञापन पूरी तरह गोपनीय था। डॉ. आंबेडकर के लेखों और भाषणों के संग्रह के दसवें खंड में इसे पृष्ठ संख्या 404-436 पर पढ़ा जा सकता है। उक्त मेमोरेंडम में एक सेक्शन है जिसमें सीपीडब्ल्यूडी में दिए जाने वाले ठेकों का जिक्र है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार सीपीडब्ल्यूडी द्वारा दिए गए कुल 1171 ठेकों में मात्र एक ठेका दलित को मिला है। वे दलितों को और ठेके देने की व्यवस्था की मांग करते हैं और इस बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि हिंदू, मुसलमान और सिख ठेकेदार प्रॉफिट बना रहे हैं जबकि दलित मजदूर उनके यहां नौकरी कर रहे हैं।
वर्ष 1942 में यानी आज से 69 वर्ष पूर्व डॉ. आंबेडकर सीपीडब्लयूडी के ठेकों में दलितों की भागेदारी की मांग कर रहे थे। तब शायद कुछ ही दलित इतने पैसे वाले रहे होंगे कि ठेकेदार बनने की स्थिति में पहुंच सकें। बावजूद इन सीमाओं के, डॉ. आंबेडकर का एक प्रबल सपना था कि दलितों में मोटा पैसा बनाने वाला एक तबका जरूर पैदा हो। दुर्भाग्यवश डॉ. आंबेडकर को मानने वाले दलित उनके इस सपने को ज्यादा तवज्जो न दे सके। गैर दलित समाज ने तो इस सपने को भूल जाने में ही समझदारी समझी। अलबत्ता सुखद बात यह है कि बगैर किसी आंदोलन, बगैर किसी बड़ी मुहिम और बगैर किसी सरकारी सहयोग के आंबेडकर के सपनों की एक नई दलित पीढ़ी तैयार हो रही है। इसे दलित पूंजीवाद की संज्ञा देना गलत नहीं होगा। इसी पीढ़ी का पहला नाम है-राजेश सरैया। ये नाम टाटा, बिड़ला, अंबानी की तरह भले ही बहुचर्चित ना हो, लेकिन इनकी महत्ता किसी भी मायने में इनसे कम नहीं हैं। ये नाम उस वंचित, शोषित समाज के मेहनतकश बिरादरी के लिए गौरवान्वित करने वाला है, जिनमें हुनर तो है लेकिन उनकी पहचान एक कारीगर या दिहाड़ी मजदूर तक सीमित करके रखा गया है। जिनकी प्रतिभा को जातिगत चश्मे से नाप-तौल कर सफलता-असफलता की मुहर लगा दी गई है। लेकिन 400 मिलीयन डॉलर के मालिक के साथ देश के पहले दलित अरबपति राजेश सरैया की सफलता वर्षो पुराने उस कुंठित मानसिकता को झुठलाने के लिए काफी है।

कर्ज लेकर मौज कर रही शिवराज सरकार

विनोद उपाध्याय

कर्ज लेकर घी पीने की कहावत इनदिनों मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार चरितार्थ कर रही है। मध्यप्रदेश सरकार का न सिर्फ खजाना खाली है, बल्कि वर्तमान में उस पर 69,259.16 करोड़ का कर्ज भी है। इस कर्ज पर सरकार 5051.83 करोड़ रुपए ब्याज चुका रही है यानी बजट से ज्यादा ऋण राशि चुकाने में खर्च किया जा रहा है। विभिन्न संस्थाओं की आउट स्टैंडिंग पर 3,000 करोड़ की गारंटी दे रखी है। कुल जमा सरकार पर 77,990.02 करोड़ का दायित्व है। प्रदेश में आम आदमी की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उसकी औसत सालाना आय 27,250 रुपए रह गई है जबकि गोवा जैसे छोटे से राज्य की औसत आय 1,32,719 रुपए है। ये आंकड़े शिवराज सिंह के शासनकाल की हकीकत बयां कर रहे हैं,लेकिन इन आंकड़ों से सबक लेने की बजाय सत्कार के नाम पर हर साल करोड़ों रूपए फूंके जा रहे हैं। व्यर्थ के सम्मेलनों और अपनी पार्टी के नेताओं की आवभगत में सरकार का कोष लुटाया जा रहा है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में इस तथ्य का खुलासा हुआ है। यह तो सर्व विदित है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आयोजन प्रिय हैं। लेकिन पिछड़े राज्यों में शुमार होने के बावजूद मध्यप्रदेश के निवासियों की गाढ़ी कमाई से वसूले गए कर को राज्य सरकार बड़े नेताओं की आगवानी, अफसरों की आवभगत एवं अन्य मामलों में नियमों को दरकिनार कर लुटा रही है।

आडवाणी पर बेहिसाब खर्च

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार 31 मई 2010 को वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी,पत्नी कमला और पुत्री प्रतिभा भोपाल आए थे। भोपाल में आडवाणी मुख्यमंत्री निवास में ठहरे थे, जबकि उनके निज सहायक को जहांनुमा पैलेस में ठहराया गया था। आडवाणी के साथ उनकी पत्नी और बेटी भी आई थी। अगले दिन वे पचमढ़ी गए, जहां दो दिन तक ठहरे। उन पर कुल 4.20 लाख रुपए खर्च करना बताया गया,जबकि आडवाणी के सुरक्षाकर्मियों पर 22 हजार रुपए खर्च किए गए। उन्हें शराब परोसी गई और उनके मनोरंजन के लिए नाच-गाना भी कराया गया। नियमानुसार राजकीय अतिथि को सर्किट हाउस या वीआईपी गेस्ट हाउस में ही ठहराया जा सकता है। फिर आडवाणी मुख्यमंत्री निवास में क्यों ठहरे? उनके सुरक्षाकर्मियों को भी उनके साथ होना था, जबकि ऐसा नहीं किया गया और तमाम नियमों को धता बताते हुए निज सहायक को जहांनुमा पैलेस में ठहराया गया। आडवाणी को स्टेट हेंगर में चाय-नाश्ता दिया गया, जो सुरक्षा की दृष्टि से अनुचित था। उसी दौरान आडवाणी की बेटी प्रतिभा की डाक्यूमेंटरी फिल्म दादाÓ का प्रदर्शन भी किया गया था। इसका आयोजन संस्था नवलय ने किया था लेकिन खर्च किसने उठाया, यह अब तक पता नहीं चला है।

नियमों का उल्लंघन

शिवराज सरकार ने अपनों को उपकृत करने के लिए नियमों का उल्लंघन भी किया। प्रोटोकाल अधिनियम 1958, म.प्र. पेड गेस्ट रूल के अनुसार प्रोटोकाल मद में सिर्फ पांच प्रकार का ही खर्च किया जा सकता है, जिसमें राजकीय अतिथि के आने, ठहरने, खाने, घूमने और वापस छोडऩे का प्रावधान है। इसमें यह शर्त भी है कि ये सुविधाएं सिर्फ राजकीय अतिथि को ही उपलब्ध कराई जा सकती है। राज्य सरकार ने 25 जनवरी 2011 को इस अधिनियम में कुछ संशोधन किए और मनमाने खर्च का रास्ता खोल दिया।


भोज की राजनीति

मुख्यमंत्री निवास पर वर्ष 2010 में रोजा अफ्तार, क्रिसमस और मंत्रियों को भोज देने के नाम पर बीस लाख रुपए फूंक डाले गए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 6 सितंबर 2010 को अपने निवास पर अफ्तार पार्टी आयोजित की थी जिसमें 687 लोगों को खाने पर आमंत्रित किया था। इस का खर्च कुल 5,84,817 रुपए हुआ, यानी प्रत्येक व्यक्ति 850 रुपए। इस पूरे व्यय को मुख्यमंत्री निवास पर आयेाजित होने वाले व्यय के विशेष कोष से आहरित किया गया। इस विशेष कोष से राशि सिर्फ मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा सदस्यों, उनके परिवारजनों के भोजन के लिये ही खर्च की जा सकती है। इसी प्रकार एक अन्य पार्टी 12 मई 2010 की मुख्यमंत्री निवास पर आयोजित की गई जिसमें 491 व्यक्ति शामिल हुए थे जिन पर कुल 5,11,873 रुपए खर्च हुए थे। यानि प्रति व्यक्ति भोजन का खर्च 1042 रुपए आता है। इसी प्रकार 28 जुलाई 2010 को विधयकों एवं उनके परिवारजनों के लिए एक पार्टी आयेाजित की थी जिस पर 4,43,161 रुपये खर्च किये गये थे। क्रिसमस का त्यौहार मनाने के लिए मुख्यमंत्री निवास ने 4,36,720 रुपए खर्च किए।
यही नहीं मुख्यमंत्री द्वारा 16 अगस्त 2008 से 23 जुलाई 2009 की अवधि में कुल छह भोज दिए गए। इसमें 25 जुलाई 2009 को नवनिर्वाचित विधायकों और 4 जुलाई 09 को लोकसभा अध्यक्ष के सम्मान में भोज दिए गए, जिनके लिए मुख्यमंत्री को पात्रता थी। शेष तीन भोज उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए दिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह दिए गए भोजों में रक्षाबंधन पर दिए गया भोज उल्लेखनीय है। मुख्यमंत्री निवास में रक्षाबंधन पर राखी बांधने आईं बहनें 2,56,425 रुपए का भोज कर गईं। जन्माष्टमी के अवसर पर सीएम हाउस में फलाहारी भोज का आयोजन किया गया। जिस पर 4,82,662 रुपए खर्च हुए। उपरोक्त पांच भोजों की कैटरिंग होटल पलाश द्वारा की गई। इसी प्रकार होटल रंजीत की कैटरिंग में 4 जुलाई 09 को दिए गए भोज पर 7,19,688 रुपए खर्च आया। इन छह भोजों पर कुल 1 करोड़, 86 लाख, 534 रुपए व्यय हुआ।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार अप्रैल 2004 से मार्च 2009 तक मुख्यमंत्री निवास में आगंतुकों के सत्कार पर 32,48,172 रुपए खर्च किए गए। गौरतलब तथ्य यह है कि इस अवधि में सीएम हाउस के हाउसकीपर ने समय-समय पर खरीदी की, इसके बावजूद इंडियन कॉफी हाउस, होटल पलाश, पर्यटन निगम, मनोहर डेरी, होटल द मार्क, सह्याद्रि किराना, होटल रंजीत, अजमेरा स्टोर्स, सांची पार्लर, प्रियदर्शिनी, होटल राजहंस, होटल मानसरोवर, लल्लन डेरी, जहांनुमा पैलेस, मोटल शिराज, छप्पनभोग, ब्रज इंटरप्राइजेस की सेवाएं लेकर उनका भुगतान किया गया। खर्च के ब्यौरे के अनुसार 28 मई 2007 को 16510 रुपए का दूध-घी खरीदा गया। इसी दिन में लल्लन डेरी से 13680 रुपए की खरीदी की गई। एक दिन में 30190 रुपए की डेरी सामाग्री खरीदी जाना क्या संदेहास्पद नहीं लगता? आखिर इस दिन सीएम हाउस में ऐसे कितने अतिथि आए, जिन पर इतनी बड़ी धनराशि सिर्फ डेरी मद में खर्च की गई?

सम्मेलन की नौटंकी

शिवराज सरकार के राज में प्रोटोकाल मद का दुरुपयोग करने का नया रास्ता खोजा गया है और वह है सम्मेलन करना। होली मिलन, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस आदि पर्वों के नाम पर सम्मेलन किए जाते हैं। इसका पूरा खर्च प्रोटोकाल मद से किया जाता है, उसी दौरान देशभर के लोकायुक्तों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। खास बात यह है कि लोकायुक्तों को स्टेट गेस्ट का दर्जा नहीं दिया गया फिर भी उन पर प्रोटोकाल मद से सारी खर्च की गई। इतना ही नहीं लोकायुक्त की पत्नी को सिल्क के कपड़े भी खरीद कर दिए गए थे, जो जन-धन का खुला दुरूपयोग है, गत दो साल से राज्य सरकार लोकायुक्त सम्मेलन, चीफ जस्टिस सम्मेलन, विधायक सम्मेलन आदि पर प्रोटोकाल मद का पैसा फूंक रही है।

क्या कहते हैं नियम?

मप्र स्टेट गेस्ट रूल्स 1958 के अनुसार यदि मुख्यमंत्री निवास में कोई राजकीय अतिथि आता है तो उस पर सरकारी मद में सत्कार पर खर्च किया जा सकता है। इसी नियम में यह भी कहा गया है कि किसी भी निजी कारण से मिलने आने वाले पर सरकार सत्कार मद में कोई राशि खर्च नहीं करेगी। इसी नियम में यह भी प्रावधान है कि मुख्यमंत्री निवास में आने वाला व्यक्ति सरकारी टेलीफोन का उपयोग नहीं कर सकेगा और यदि वह ऐसा करता है तो रजिस्टर में इसका पूरा ब्यौरा भी देगा।

नौकरशाह भी पीछे नहीं

जब मुख्यमंत्री निवास अपने आगंतुकों पर धन लुटाने में लगा रहा तो नौकरशाह भला पीछे कैसे रहते। विभागीय अधिकारियों और मंत्रियों की राज्य मंत्रालय में होने वाली बैठकों के खर्च का ब्यौरा देख कर भी आश्चर्य होता कि ये लोग मंत्रालय में बैठ कर सरकारी कामकाज निपटाते हैं या चाय-नाश्ता ही करते रहते हैं। राज्य मंत्रालय में 1 फरवरी 2009 से 31 अगस्त 2009 तक की गई विभिन्न बैठकों में मंत्रियों-अधिकारियों के चाय-नाश्ते पर 3 करोड़, 80 लाख, 716 रुपए खर्च किए गए। मात्र सात माह में हुई बैठकों पर इतनी बड़ी धनराशि खर्च होना अपने आप में आश्चर्य का विषय है।

मुख्य सचिव को मंहगी पड़ी दावत

अपनी ईमानदार छवि के लिए नौकरशाहों के बीच ख्यात प्रदेश के मुख्य सचिव अवनि वैश्य तो एक पार्टी का आयोजन करके ऐसे फंस गए हैं कि उनके खिलाफ लोकायुक्त में जांच शुरू हो गई है।
दरअसल मुख्य सचिव भोपाल में स्थित आईएएस अफसरों के क्लब अरेरा क्लब में 8 अक्टूबर 2010 को प्रदेश भर से आए आईएएस अफसरों के लिए दारु और दावत का आयोजन किया गया था। दावत मुख्य सचिव ने अपनी ओर से दी थी और इसका 1 लाख 43 लाख का बिल भी मुख्य सचिव अवनि वैश्य के व्यक्तिगत नाम से आया था। लेकिन मुख्य सचिव ने निजी बिल का भुगतान मंत्रालय की सामान्य प्रशासन की सत्कार शाखा से करा दिया। इसकी भनक लगते ही आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी निकलवाई और 18 मई 2011 को लिखित शिकायत लोकायुक्त से कर दी। उन्होंने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि मप्र जैसे राज्य में जहां कुपोषण सबसे ज्यादा है और गरीबों को समय से भोजन नहीं मिल रहा, वहां के मुख्य सचिव सरकारी धन का दुरूपयोग अफसरों के भोज व उनकी दारु पार्टी के लिए कर रहे हैं। उन्होंने मुख्य सचिव व राज्य के शिष्टाचार अधिकारी संजय मिश्रा जिन्होंने गलत तरीके हुए इस भुगतान को किया था के विरुद्ध भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत कार्रवाई की मांग की। लोकायुक्त संगठन ने इस शिकायत के आधार पर अजय दुबे को 23 जुलाई 2011 को पत्र भेजकर उक्त शिकायत शपथ पत्र के साथ देने को कहा। दुबे ने शपथ पत्र के साथ दूसरी शिकायत भी भेज दी। इस शपथ पत्र के आधार पर लोकायुक्त संगठन ने मुख्य सचिव के विरुद्ध शिकायत क्रमांक 232/11 दर्ज करते हुए जांच शुरू कर दी है। संगठन ने अजय दुबे को इसकी लिखित सूचना भी भेज दी है।

कर्ज का गणित

मुख्यमंत्री एक तरफ स्वर्णिम मध्यप्रदेश का ख्वाब दिखा रहे हैं वहीं प्रदेश की काया पलटने के नाम पर प्रदेश को विश्व बैंक,एडीबी तथा डीएफआई के हाथों गिरवी रख दिया है। पिछले पांच सालों में बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर इन विदेशी संस्थाओं से 11,577करोड़ का कर्ज लिया गया। इसी तरह सड़कों के विकास के लिए एडीबी से 1640 करोड़ का कर्ज लिया गया है, तो शहरी जलप्रदाय एवं पर्यावरण सुधार कार्यक्रम पर पहले चरण में एडीबी से 1269.70 करोड़ तथा दूसरे चरण के लिए 443.75करोड़ रुपए कजऱ् लिया गया है। एमपी अर्बन सर्विसेस फॉर द पुअर प्रोग्राम पर डीएफआईडी से 310 करोड़, ग्रामीण आजीविका परियोजना के लिए डीएफआईडी से 336 करोड़ ऊर्जा क्षेत्र में पुनर्संरचना कार्यक्रम के लिए 44 करोड़, स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधाार के लिए 432 करोड़, शासकीय कार्य प्रबंधान के सुदृढ़ीकरण के लिए 26 करोड़ का कजऱ् लिया गया है।
तेजस्विनी ग्रामीण महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम के लिए आईफाड से 41 करोड़ का कर्ज लिया गया है। इसी तरह इंदिरा गांधाी गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए विश्व बैंक से 550 करोड़ तथा 521 करोड़ का कजऱ् लिया गया। जल क्षेत्र पुनर्संरचना के नाम पर विश्व बैंक से 1919 करोड़ रुपए कजऱ् लिया जा रहा है। इसके अलावा राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के लिए विश्व बैंक से 24.67 करोड़ का कर्ज लिया गया।
कर्ज में बाजार कर्जा 21620.30 करोड़ रुपए, क्षतिपूर्ति एवं अन्य बांड 2494.82 करोड़ रुपए, वित्तीय संस्थाओं से कर्जे 3680.43 करोड़ रुपए, केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय अल्प बचत निधि को जारी विशेष प्रतिभूतियां 14666.25 करोड़ रुपए, केन्द्र सरकार से कर्जे और पेशगियां 10378.95 करोड़ रुपए तथा अन्य कर्ज 8591.24 करोड़ रुपए हैं।
31 मार्च 2003 की स्थिति में 20,147 करोड़ रुपये का कर्ज था।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011


विनोद उपाध्याय को आइसना राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान

भोपाल । लघु और मध्यम समाचार पत्रों में राष्ट्र की मूल छवि देखने को मिलती है इन समाचार पत्रों को जन जागरण का अभियान चलाना चाहिए क्योंकि यह दौर संघर्ष का है जिसमें हम कमजोर हो रहे है। उक्त उद्गार है राष्ट्रीय एकता परिषद के उपाध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा के। श्री शर्मा राजधानी में आल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान समारोह को संबोधित कर रहे थे। आइसना द्वारा स्थानीय रवीन्द्र भवन में आयोजित इस गरिमामय समारोह में पांच ख्यातिनाम पत्रकारों को राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान आठ वरिष्ठ पत्रकारों को विशिष्ट पत्रकारिता सम्मान तथा प्रदेश के 10 नामचीन पत्रकारों को राज्य स्तरीय पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत किया गया। समारोह को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार दिनेश चन्द्र वर्मा ने कहा कि आज पत्रकारिता की कोई परिभाषा नहीं रह गयी है। उन्होंने कहा कि जुगाड़ू लोग जिन्हें एक लाइन लिखना नहीं आता आज वे अच्छे पत्रकारों की बिरादरी में घुस आये हैं। श्री वर्मा ने कहा है कि समाज के हर स्तर पर नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है तो पत्रकारिता इससे अछूती कैसे रह सकती है। समारोह को संबोधित करते हुए प्रखर वक्ता एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्र पाल सिंह ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में पत्रकारिता के वर्तमान परिवेश और चुनौतियों को रेखांकित किया। इस अवसर पर आइसना के प्रांतीय अध्यक्ष अवधेश भार्गव ने वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय आलोक तोमर की स्मृति में 25 हजार रुपये के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की।
राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान से स्वर्गविभा मुंबई की डा. तारा सिंह, प्रेसपालिका जयपुर के डा. पुरूषोत्तम मीना ''निरकुंशÓÓ भड़ास फोर मीडिया डाट कॉम दिल्ली के यशवंत सिंह, डेट लाइन इंडिया दिल्ली की सुप्रिया राय, दैनिक स्वतंत्र वार्ता निजामाबाद के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव को भी सम्मानित किया गया। विशिष्ट पत्रकारिता सम्मान से 10 पत्रकारों को जिसमें जय श्रीवास्तव इण्डिया न्यूज, भरत सेन स्वतंत्र पत्रकार, राम विलास शर्मा चंबल सुर्खी, त्रयम्बक शर्मा कार्टूनिस्ट, सुनील गुप्ता दैनिक जागरण, डॉ. शशि तिवारी सूचना मंत्र, स्व. सुरेश खरे को मरणोपरांत, लक्ष्मीनारायण उपेन्द्र स्वतंत्र पत्रकार, कुंदन अरोरा स्वतंत्र पत्रकार, सम्मानित किये गये।
साथ ही 11 पत्रकारों प्रान्तीय पत्रकारिता सम्मान में विनोद उपाध्याय दैनिक अग्रिबाण, रामकिशोर पवांर दैनिक पंजाब केसरी, अनिल बिहारी श्रीवास्तव ई.एम.एस., लोकेन्द्र सिंह राजपूत भारत समाचार, सुरेन्द्र सिंह अरोरा दैनिक फ्री प्रेस, विवेक श्रीवास्तव दैनिक नई दुनिया, सीताराम ठाकुर दैनिक राज एक्सप्रेस, अनिल दीक्षित पीपुल्स समाचार, शालिगराम शर्मा स्टार समाचार, ओम सरावगी टी.ओ.सी.न्यूज कटनी, अमर नौरिया विज्ञापन की दुनिया को चुना गया है को सम्मानित किया जावेगा। इस प्रकार 26 पत्रकार बंधुओं का आइसना सम्मान कर रही है।
समारोह में मुख्य रूप से आइसना के राष्ट्रीय अध्यक्ष एसएस त्रिपाठी, राष्ट्रीय संगठन सचिव सी व्ही मजूमदार, राष्ट्रीय सचिव सुश्री आरती त्रिपाठी, आइसना के प्रांतीय अध्यक्ष अवधेश भार्गव, महासचिव विनय जी. डेविड, उपाध्यक्ष लोकेश दीक्षित, आरएस शर्मा, गुड्डू मालवीय, सुभाष शर्मा, रवीन्द्र निगम, सलीम खाड़ीवाला, चन्द्रशेखर भालसे, आरएम चौबे, प्रवीण मिश्रा व बलराम सेन सहित कई सैकड़ा पत्रकार साथी उपस्थित थे।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ऐसे कैसे बनेगा स्वर्णिम मप्र



विनोद उपाध्याय

शिवराज सिंह चौहान ने जिस दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया उस दिन से आज तक कहते आ रहे हैं कि मैं एक बहुत ही सामान्य परिवार से हूँ और गरीब व गरीबी दोनों को मैंने बहुत ही करीब से देखा है। मैंने अपने जीवन की प्रारंभिक संघर्ष की अवधि में कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं मुख्यमंत्री बनूँगा। .... मैं इस गरीबी के राक्षस को जड़ से समाप्त करना चाहता हूँ और गरीबी के कारण जो सामाजिक दर्द का वातावरण बना है उसको भी दूर करना चाहता हूँ। यही नहीं वे अपने ब्लाग blog.shivrajsinghchouhan.in में भी लिखते हैं कि ऐसे गरीबी के माहौल में, कोई भी परिवार एक लड़की को बोझ न समझे इसलिए मैने लाड़ली लक्ष्मी योजना बनायीं। गरीबी पढ़ाई में बाधा न बने और गरीबी के कारण कोई मृत्यु न हो, खुशहाली का वातावरण हो ऐसे स्वर्णिम मध्यप्रदेश की मेरी कल्पना है और विश्वास दिलाना चाहता हूं कि स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना एक दिन अवश्य साकार होगा।
करीब सात साल से मप्र की सत्ता की कूंजी अपने हाथ में लेकर शिवराज सिंह चौहान ने न जाने कितने जतन कर लिए लेकिन स्वर्णिम मध्यप्रदेश कहीं नजर नहीं आ रहा है। बावजुद इसके मुख्यमंत्री ने विकास का नया फार्मूला अपनाते हुए आओं मध्यप्रदेश बनाएं का अलाप शुरू कर दिया है। हालांकि प्रदेश में विकास की गंगा बहाने की ललक शिवराज सिंह चौहान में हमेशा से रही है लेकिन उन्हें कभी सही दिशा नहीं मिल पाई है। मुख्यमंत्री की विकास की ललक में सबसे बड़ी बाधा है भ्रष्टाचार। प्रदेश से भ्रष्टाचार पर तब तलक अंकुश नहीं लग पाएगा जब तलक जांच एजेंसियों को और अधिक अधिकार तथा फ्री हैंड न दिया जाए।
प्रदेश सरकार ने स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने के लिए सात संकल्प, सात कार्यदल बना रखे हैं और यह संयोग ही है कि सात किस्म के माफिया प्रदेश के विकास की राह में रोड़ा बने हुए हैं। प्रदेश में जमीन, शराब, वन, ड्रग, खनिज, गोवंश और गरीबों को मिलने वाले केरोसिन और अन्य सामग्री को पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचने देने वाले जैसे सात तरह के माफिया सक्रिय हैं। सात किस्म के माफियाओं की सक्रियता को खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और मैदानी आला अफसर स्वीकार कर रहे हैं। बावजुद इसके इन पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।
आखिर लगे भी कैसे? राज्य सरकार ने प्रदेश में लोकायुक्त संगठन, ईओडब्ल्यू, सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल आयोग और विभागीय जांच आयोग जैसी संस्थाओं को लगभग पंगू बनाकर रख दिया है। यह संस्थाएं आम आदमी को राहत दे सकें, ऐसी व्यवस्था ही नहीं हैं। इन संस्थाओं में पदाधिकारियों व कर्मचारियों के पद से वर्षों से खाली पड़े हैं। संस्था प्रमुख के लगभग हर सुझाव को राज्य सरकार रद्दी की टोकरी में फेंक देती है। जिन अशासकीय व्यक्तियों अथवा रिटायर व्यक्ति की नियुक्ति इन संस्थाओं में की जाती हैं इनके मुंह सिल दिए जाते हैं, वे इन नाकामियों को ढंकने के अलावा कुछ नहीं करते।
मध्य प्रदेश मेें एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जांच एजेंसियों को फ्री हैंड देने का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ प्रदेश की शीर्ष संस्थाएं अपने अहं को लेकर टकरा रही हैं। नतीजतन उनके कामकाज पर तो बुरा असर पड़ ही रहा है, उनकी छवि पर भी बट्टा लग रहा है। पिछले कुछ वर्षों में मप्र में भ्रष्टाचार के जितने मामले उजागर हुए हैं और जांच एजेंसियों के छापों में जितनी बेतहासा काली कमाई सामने आई है,उससे ऐसा लगने लगा है जैसे प्रदेश भ्रष्टाचार का गढ़ बन गया है। बावजुद इसके यहां के भ्रष्टाचारियों में लोकायुक्त,आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो,न्यायपालिका,शासन और प्रशासन का खौफ रति भर भी नहीं है। इसकी वजह है मध्य प्रदेश में शक्ति के विभिन्न केंद्रों के बीच अहं टकराव। कभी लोकायुक्त बनाम प्रदेश सरकार की जंग, तो कभी लोकायुक्त बनाम विधानसभा की तीखी तकरार। कभी न्यायपालिका और प्रशासन आमने-सामने होते हैं, तो कभी राज्य सूचना आयोग और लोकायुक्त में भिडं़त हो जाती है। इस तनातनी के खेल में कामकाज प्रभावित हो रहा है।
सबसे पहले बात करते हैं लोकायुक्त की। मप्र सहित देश भर के लोकायुक्त के अधिकारों का विश£ेषण करें तो हम पाते हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ नाम मात्र के 'अधिकारीÓ हैं। भ्रष्टाचार के मामले में जब वे शिकायत मिलने पर किसी मंत्री या अफसर के खिलाफ जांच करते हैं, तो जांच के जरूरी संसाधनों के लिए भी वे सरकार पर निर्भर हैं। एक लंबा समय जांच शुरू होने में ही बीत जाता है। मध्य प्रदेश में फरवरी 1982 में अस्तित्त्व में आये लोकायुक्त संगठन से ये आशा बंधी थी कि हो सकता है कि आगे आने वाले समय में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ कारगर साबित हो, लेकिन आधिकार विहीन लोकायुक्त की स्थिति बिना आँख नाक के पुतले से अधिक कुछ भी नहीं है। हालत यह है कि इस महत्त्वपूर्ण संगठन की भूमिका मात्र रिपोर्ट लेने और जांच के लिए विभाग तक भेजने की ही रह गयी है।
लोकायुक्त जस्टिस प्रकाश प्रभाकर नावलेकर कहते हैं कि यहां संगठन तो है, लेकिन कुछ ऐसे अधिकारों की जरूरत है जिससे भ्रष्टाचारियों पर जल्दी और सख्त कार्रवाई हो सके। अभियोजन स्वीकृति में देरी, सरकारी वकीलों की व्यस्तता, छापों के लिए कोर्ट की मंजूरी जैसे कई विषय हैं, जिनके कारण लोकायुक्त की कार्रवाई में देरी होती है और बाद में ये मामले लंबी कानूनी प्रक्रिया में फंस जाते हैं। इससे भ्रष्टों को समय पर सजा नहीं मिल पाती। लोकायुक्त नावलेकर कहते हैं कि वैसे तो अन्य राज्यों से बेहतर संगठन और अधिकार मप्र में हैं, लेकिन कई ऐसे अधिकार हैं जिनकी जरूरत महसूस की जा रही है।
वे कहते हैं कि मौजूदा कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। इसके लिए एक निश्चित समय सीमा होना चाहिए। इसके बाद लोकायुक्त संगठन बिना अनुमति के भी चालान पेश कर सके। दूसरा, संगठन को भ्रष्ट नौकरशाहों की संपत्ति जब्त करने का अधिकार मिलना भी जरूरी है। छापे के लिए अदालत की अनुमति खत्म कर इसके अधिकार लोकायुक्त को मिलें तो काम में आसानी होगी। वे कहते हैं भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी वकीलों पर निर्भरता खत्म होनी चाहिए। लोकायुक्त संगठन के अपने वकील और भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई के लिए अलग अदालत होने से मामलों का निपटारा जल्दी हो सकेगा। अभी सरकारी वकीलों के पास दूसरे मामले भी होते हैं। फैसलों में देरी से भ्रष्टों के खिलाफ समाज में समय पर संदेश नहीं जा पाता।
सरकार भले ही प्रदेश में भ्रष्टाचार कम करने और खत्म करने तक के दावे करे लेकिन हकीकत कुछ और ही है। लोकायुक्त द्वारा जिन मामलों में जांच किये जाने के लिए विभागों को सिफारिश की गयी है उनमें से अधिकतर में तो कार्यवाही ही नहीं हुई है और यदि कार्यवाही हुई भी है तो वो मात्र चार्जशीट सौंपे जाने तक ही सीमित है। इनमें से कई मामले तो 10 साल से भी अधिक पुराने हैं। जाँच की प्रक्रिया के दौरान ही कई अफसर तो रिटायर हो चुके हैं और कुछ की मृत्यु तक हो चुकी है। हालात यह हैं कि लोकायुक्त संगठन द्वारा अनुशंसा किये गए प्रकरणों को विभागीय जांच शुरू करने में ही दो से तीन साल लग रहे है। कई विभागों के हालात तो इतने खराब हैं कि आरोप पत्र दिए ही वर्षों बीत गए हैं लेकिन आज तक आरोपी अफसर का जवाब ही अप्राप्त है। लगभग दो दर्जन मामलों में तो जांच असाधारण विलम्ब होने से आरोपी अफसर के रिटायर या मृत्यु होने पर मामले को खत्म लगाया गया है।
लोकायुक्त संगठन द्वारा मई 2011 तक के जारी आंकड़ों से यह साबित होता है कि लंबे समय से विभागीय जांच की प्रतीक्षा करना इस संगठन का भाग्य बन गया है। लोकायुक्त संघटन के द्वारा कार्यवाही के लिए भेजे गए 33 मामले दस सालों से भी अधिक समय से कार्यवाही की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इनमें 59 मामले वे हैं जो पांच साल से भी अधिक समय से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं। जांच को लटका कर रखने में सबसे ऊपर लोकनिर्माण विभाग है जिसमें 2011 तक कुल 71 मामलों को लटका रखा है। जिनमें से 43 मामलों को 5 से 15 सालों तक लटका रखा है। दुसरे नंबर पर जलसंसाधन विभाग है जिसमें 28 मामलों पर कार्यवाही को रोक रखा है।
प्रदेश में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए बनाया गया लोकायुक्त संगठन कई मामलों में जांच आगे नहीं बढ़ा पा रहा है। प्रदेश के लोकायुक्त जस्टिस पीसी नावलेकर के अनुसार प्रदेश के एक पूर्व मंत्री समेत दस मंत्री लोकायुक्त की जांच के घेरे में हैं। इनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति व अन्य मामलों में जांच चल रही है। इसके अलावा 49 आईएएस,7 आईपीएस, 7 आईएफएस कैडर के अधिकारियों के खिलाफ जांच चल रही है। उन्होंने बताया कि जून 2009 में उन्होंने लोकायुक्त का पद संभाला था, उस दौरान 1521 शिकायतें लंबित थीं, उनके कार्यकाल में 6065 नई शिकायतें प्राप्त हुई हैं, इनमें से 7160 शिकायतों का निराकरण हो चुका है। 426 शिकायतों की जांच पूरी हो चुकी है और कार्रवाई शेष है। इस दौरान लोकायुक्त द्वारा 48 शिकायतें आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने,36 शिकायतें अधिकार क्षेत्रों का दुरुपयोग करने व 106 अधिकारियों द्वारा रिश्वत लेने की मिली थीं, जिन पर कार्रवाई की गई। वहीं लोकायुक्त में दर्ज कई मामले विभागीय जांच आयुक्त के पास होने के कारण अटके हुए हैं।
उधर विभागीय जांच आयुक्त सुशील कुमार गुप्ता कहते हैं कि मेरे द्वारा विभाग से जो कागजात मांगे जाते हैं वह विभाग द्वारा समय पर नहीं दिए जाने के कारण बार-बार पेशी लगाई जाती है। मेरे दफ्तर में सिर्फ चार लोगों का स्टॉफ है दो स्टेनों एक यूडीसी और एक भृत्य, ऐसे में मुझे पूरे मध्यप्रदेश के विभागों की जांच करनी है।
सच तो यह है कि राजनैतिक दबाव और इसके सियासी इस्तेमाल के चलते लोकायुक्त का खौफ अब उतर चुका है। प्रदेश में लोकायुक्त संगठन के गठन का श्रेय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को जाता है। उन्होंने वर्ष 1975 से धूल खा रहे इस आशय के विधेयक को न केवल पुन: पेश कराया था बल्कि 1982 में इसे प्रभावशील भी करा लिया था। जानकारों के अनुसार लोकायुक्त की अवमानना का सिलसिला दिग्विजय सिंह की सरकार में तब शुरू हुआ जब मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जबलपुर के बहुचर्चित मढ़ातालभूमि घोटाले में अपने दो कैबिनेट मंत्रियों बीआर यादव और राजेन्द्रकुमार सिंह के खिलाफ लोकायुक्त की सिफारिशों को मानने से इंकार कर दिया। यह वही मामला है जिसके चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और तब के राज्यपाल भाई महावीर के रिश्तों में खटास आ गई थी। आरोप है कि रही-सही कसर भाजपा की मौजूदा सरकार की पहली पारी में पूरी हो गई। यह वह दौर था जब लोकायुक्त ने न केवल मंत्रिमंडल पर शिकंजा कसा वरन तत्तकालीन लोकायुक्त जस्टिस रिपुसूदन दयाल की दो शीर्ष पदाधिकारियों से सीधे ठन गई। यह भी सच है कि सरकार किसी की भी रही हो लेकिन लोकायुक्त को ताकत देने में सब ने परहेज किया। नतीजा यह है कि लोकायुक्त संगठन में प्रतिनियुक्ति से पुलिस के अफसर तो अफसर कर्मचारी भी खौफ खाते हैं। आमतौर पर इसे लूप लाइन समझा जाता है। प्राय:प्रतिनियुक्ति के दौरान पुलिस के छोटे कर्मचारी को अपने बड़े अधिकारी के खिलाफ जांच करनी होती है।
मप्र विभागीय जांच आयोग
नाम के अनुरूप तय है कि राज्य सरकार ने इस आयोग की स्थापना सरकार के विभिन्न विभागों में पदस्थ अफसरों व कर्मचारियों के कारनामों की विभागीय जांच के लिए की है। इस आयोग का दफ्तर सतपुड़ा भवन के तीसरे तल पर छोटे से दो कमरों में बना है। आयुक्त के रुप में जिला जज स्तर के अधिकारी सुशील कुमार गुप्ता को तैनात किया गया है। गुप्ता के बैठने के लिए जो कुर्सी टेबल दी गई है, वह किसी भी विभाग के क्लर्क की टेबल कुर्सी से भी बदतर है। मप्र के सभी विभागों में यह तय है कि जिस जांच में किसी अधिकारी कर्मचारी को निपटाना उसकी फाइल विभागीय जांच आयोग को भेज दी जाती है, वर्ना विभाग स्वयं ही जांच करके निष्कर्ष जारी कर देता है। जैसे मप्र के करोड़पति आईएएस अधिकारी अरविन्द जोशी व टीनू जोशी की विभागीय जांच आयोग से कराने के बजाय रिटायर आईएएस अधिकारी निर्मला बुच से कराई जा रही है। आयोग को केवल पांच कर्मचारियों के पद स्वीकृत किए हैं, इनमें से भी एक खाली है। आयुक्त के एक विशेष सहायक, एक हेड क्र्लक, एक क्र्लक और दो चपरासी। एक क्र्लक का पद खाली है और दो चपरासियों में से एक आयुक्त के निवास पर काम करता है। यानि आयोग में आयुक्त के अलावा केवल तीन लोग काम करते हैं। आप अंदाज लगा सकते हैं कि केवल एक विशेष सहायक, एक हेड क्र्लक और एक चपरासी के जरिए विभागीय जांच आयुक्त कैसे अपना काम कर पाते होंगे? बताते हैं कि कई जांचें ऐसी भी हैं जिनमें कई अधिकारियों व कर्मचारियों पर आरोप होते हैं और गवाही के लिए एक साथ दर्जनों लोगों को बुलाना पड़ता है। इस पूरे कार्यालय में इतनी भी जगह नहीं है कि गवाही देने आए लोग एक साथ खड़े भी हो सकें।
प्रदेश की एक और जांच एजेंसी आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) में भ्रष्टाचार संबंधी मामलों की शिकायतें लगातार बढ़ रही हैं। अधिकतर मामले सरकारी विभागों द्वारा जानकारी न दिए जाने से बीच में ही खत्म हो जाते हैं। सरकार ने अब जाकर थोड़ी सजगता दिखाई है और प्रदेश के सभी सरकारी विभागों को भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच में जरूरी जानकारी आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो और लोकायुक्त को अनिवार्य रूप से देने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही ईओडब्ल्यू मुख्यालय के सर्वर को वित्त विभाग से जोड़ा जाएगा, जिससे कोषालय से निकलने वाली धनराशि की जानकारी ब्यूरो के पास भी पहुंच जाएगी। ईओडब्ल्यू आर्थिक अपराध से जुड़ी 150 से अधिक शिकायतों की जांच कर रहा है। इसके अलावा लगभग 900 शिकायतें ऐसी भी हैं, जो कि प्रारंभिक जांच में हैं।
मप्र को स्वर्णिम बनाने का संकल्प लेने वाली प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार के आधा दर्जन से ज्यादा मत्रियों के कामकाज पर सवाल उठ रहे हैं। खुद को प्रदेश की सात करोड़ जनता का हमदर्द बताने वाले इन मंत्रियों ने दोनों हाथों से लूट-सी मचा रखी है। कोई राज्य की योजनाओं को चूस रहा है तो किसी ने केंद्रीय योजनाओं पर बट्टा लगाने की ठान ली है। ऐसे मंत्रियों के भरोसे मुख्यमंत्री ने जनता को स्वर्णिम मप्र का सपना दिखाया है। सरकार की प्राथमिकताएं और संकल्प चाहे जो हों, लेकिन विभागों में इन्हीं का एजेंडा का काम कर रहा है। किसी ने विभाग में अपने ठेकेदार छोड़ रखे हैं, तो किसी ने तबादलों को ही अपना व्यापार बना रखा है। ऐसे में स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना बेमानी लगता है।
लोक सेवा गारंटी कानून का लागू होना स्वर्णिम मप्र बनाने की दिशा में प्रमुख कदम है। यह कानून बनाकर लागू करने वाला मप्र पहला राज्य है। नियम बनाए जाते हैं और इन नियमों को लागू भी किया जाता है, लेकिन उनका सही क्रियान्वयन होना जरूरी है। इस कानून की धज्जियां नहीं उडऩा चाहिए। यदि कहीं पर भी शिकायत आती है तो दोषी अधिकारी, कर्मचारी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
मध्यप्रदेश सरकार का न सिर्फ खजाना खाली है, बल्कि वर्तमान में उस पर 69259.16 करोड़ का कर्ज भी है। इस कर्ज पर सरकार 5051.83 करोड़ रुपए ब्याज चुका रही है यानी बजट से ज्यादा ऋण राशि चुकाने में खर्च किया जा रहा है। इसी दिवालिया सरकार ने विभिन्न संस्थाओं की आउटस्टैंडिंग पर 3,000 करोड़ की गारंटी दे रखी है। कुल जमा सरकार पर 77,990.02 करोड़ का दायित्व है। प्रदेश में आम आदमी की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। प्रदेश में आम आदमी की औसत सालाना आय 27,250 रुपए रह गई है। यहां गोवा जैसे छोटे से राज्य के आम आदमी की औसत आय का जिक्र करना भी जरूरी है जो 1,32,719 रुपए है। ये आंकड़े शिवराज सिंह के तथाकथित स्वर्णिम मध्यप्रदेश की हकीकत बयान कर रहे हैं।
यह तो हुई प्रदेश की आर्थिक स्थिति की बात, अब प्रदेश के विकास पर भी एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए। मप्र को स्वर्णिम प्रदेश बनाने की तैयारियों में जुटी सरकार यहां के भविष्य को सुरक्षित करना ही भूल गई। लगभग हर जिले में भूख, कुपोषण और बीमारी से बच्चों की मौत दर्ज की जा रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही प्रदेश में औसतन 71 बच्चे रोजाना दम तोड़ रहे हैं, लेकिन इस ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं। बच्चों के मामा होने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी तमाम योजनाओं की घोषणा के अतिरिक्त उनकी जीवन रक्षा के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। वर्ष 2009 में इंटरनेशनल फूड पॉलिसी संस्थान ने भी भारत के 17 राज्यों में कुपोषण और भूख के मामले में मप्र की स्थिति को चिंताजनक बताया था। 39 लाख बच्चों के कुपोषित होने की बात खुद महिला बाल विकास मंत्री विधानसभा में स्वीकार कर चुकी हैं, जबकि नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे रिपोर्ट की मानें तो 60 फीसदी कुपोषण के चलते 60 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। भाजपा के शासन में कुपोषण के पिछले सात सालों में 56603 मामले सामने आए हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश में भोजन के अधिकार को लेकर नियुक्त आयुक्त को उनके मप्र के सलाहकार ने हाल ही में सौंपी अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि मप्र न केवल कुपोषण में देशभर में अव्वल हो गया है, बल्कि उसने भूख के मामले में देशभर में अव्वल रहे उड़ीसा को भी पछाड़ दिया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि यह करिश्मा कोई रातोरात नहीं हो गया बल्कि इसमें पूरे पांच साल लगे हैं। तब कहीं यह उपलब्धि हासिल हुई है। इन पांच सालों में एक महीने में राज्य में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की खपत ग्यारह किलो से घटकर नौ किलो रह गई है। यह मात्रा भुखमरी से सबसे ज्यादा प्रभावित उड़ीसा से भी कम है जहां खाद्यान्न की खपत प्रति माह प्रति व्यक्ति 11 किलो पर स्थिर है।
खैर, यह तो हुई आम लोगों की बात।
मध्यप्रदेश में प्रति हजार पर शिशु मृत्युदर 67 है, जो देश में सर्वाधिक है। मातृ मृत्युदर के मामले में भी मध्यप्रदेश देश में अव्वल है, जहां प्रति एक लाख महिला पर 335 महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। दलितों के प्रति अत्याचार और किसानों की आत्महत्या के मामले में मध्यप्रदेश देश में पांचवीं पायदान पर है। चोरियों के मामले में मध्यप्रदेश महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर है। मध्यप्रदेश में पुलिस अत्याचार इतना अधिक बढ़ गया है कि 15,903 शिकायतों के साथ प्रदेश देश में अव्वल है। अपराधों के मामले में 26 हजार से ज्यादा मामलों के साथ मध्यप्रदेश देशभर में पहली पायदान पर है। महिलाओं और बच्चों के साथ अत्याचार में भी मप्र देश में शिखर पर है।
जिस प्रदेश की यह हालत हो, उस प्रदेश की सरकार पंचायतों, महापंचायतों, औद्योगिक सम्मेलनों, वनवासी यात्रा, मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा, कार्यकर्ता गौरव दिवस, अंत्योदय मेलों आदि पर सरकारी धन खुलकर फूंक रही है। धनाभाव में सरकारी निर्माण एजेंसियों का बजट 40 से 50 फीसदी तक कम कर दिया गया है। नतीजन विकास कार्य तो ठप हैं ही, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को बैठे-बिठाए मुफ्त की तनख्वाह देना पड़ रही है। एक ओर प्रदेश का विकास लगातार गर्त जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अफसरानों से लेकर बाबुओं तक की तिजोरियां आयकर के छापों में धन उगल रही हैं। ,

मध्यप्रदेश में अफसर से लेकर मंत्री तक ने दबंगई के साथ भ्रष्टाचार किया है और कर रहे हैं। बेईमान अफसरों के खिलाफ लोकायुक्त से लेकर आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो में मामला पंजीबद्ध है। नौकरशाहों ने भ्रष्टाचार के मामले में राजनेताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। बेईमानी साबित होने के बाद भी नौकरशाहों पर नकेल नहीं कस पा रही है जिससे जनता परेशान है बावजूद इसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने का दावा कर रहे हैं। मध्यप्रदेश की जनता मान चुकी है कि नेता और अफसर आम तौर पर भ्रष्ट हैं, सरकारी खजाने के लुटेरे हैं। केवल कानून के जरिए इन पर नकेल नहीं कसी जा सकती, इसलिए कि सरकार भी कहीं न कहीं भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ है। लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के पास हर साल बढ़ते भ्रष्टाचारियों की सूची इस बात का प्रमाण है कि मध्यप्रदेश में बेईमान अफसरों का राज चलता है। भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ जांच और कार्रवाई की गति बहुत धीमी होने की वजह से नौकरशाह भ्रष्टाचार करने से डरते नहीं हैं। यही हाल राजनेताओं का है। देश में हुए बड़े घोटालों में शामिल कई राजनेता जेल में हैं लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं है। यह अलग बात है कि आज देश अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तत्पर है। पर मध्यप्रदेश में लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो की सूची देखने से पता चलता है कि नौकराशाहों ने सारी हदें पार कर दी हंै। भ्रष्टाचार का यह आलम है कि मध्य प्रदेश में मामूली सरकारी अफसरों के पास से बरामद होनी वाली संपत्तियों से ऐसा लगता है कि वो उद्योगपति हैं।
अन्ना हजारे ने नीतिश कुमार और नरेन्द्र मोदी की तारीफ की तो मध्यप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा की भृकुटी तन गई। वो अपने अंदाज में कहते हैं, '' शिवराज सिंह चौहान को किसी से ईमानदारी का सार्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं है। सभी जानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान कितने ईमानदार हैं और स्वर्णिम मध्यप्रदेश के लिए क्या कर रहे हैं''। प्रभात झा भले शिवराज की प्रशंसा में कसीदे गढ़ते हों लेकिन पूरा मध्यप्रदेश जानता है कि डंपर कांड में किस तरह शिवराज सिंह चौहान बच निकले हैं? लोकायुक्त के अफसरों ने उन्हें किस तरह बचाया। पैसों पर पलने वाली राजनीति में राजनीतिज्ञ कितने ईमानदार हैं यह तो लोकायुक्त में प्रदेश के राजनेताओं के खिलाफ दर्ज मामले से पता चलता है।
मध्यप्रदेश में ऐसे कई नेता हैं, अफसर हैं जिन पर भ्रष्टाचार का न केवल आरोप लगा है बल्कि उनके घर से नकदी बरामद हुई है, फिर भी ऐसे लोग अपने आप को ईमानदारी की कसौटी पर खरा बताने से नहीं चूकते। सूबे में कई आईएएस अफसर भ्रष्टाचार के फंदे में फंसे लेकिन उनकी उतनी चर्चा नहीं जितनी कि अरविंद और टीनू जोशी दंपति की हुई। प्रवर्तन निदेशालय ने विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के उल्लंघन का नोटिस भेजा। इसके बाद आयकर विभाग ने भी एक रिपोर्ट दाखिल की है, जिसमें जोशी दंपति की कुल संपत्ति 350 करोड़ रूपये से भी अधिक बताई गई है। जोशी दंपति के घर से बिस्तर के नीचे तीन करोड़ की नकदी मिलने की घटना से वो सुर्खियों में आये।
सूबे में भ्रष्टाचार करने वाले अफसरों के घरों में छापा मारने पर अकूत संपत्तियंा मिलीं, फिर भी वो निलंबित होकर मजे कर रहे हैं, शासन से 75 फीसदी वेतन ले रहे है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मामूली सरकारी अफसरों के घरों से मिलने वाली संपत्तियां बैंकों को भी लज्जित कर रही हैं। आइये देखते हैं कि किस-किस तरह के भ्रष्ट लोगों का चेहरा सामने आया हैं। ऐसे लोगों ने जनता को पद मे रहते समय खूब परेशान किया और उनकी पसीने की कमाई को जी भर लूटने के बाद भी चैन से हैं।

विवाद का दूसरा नाम बिसेन


विनोद उपाध्याय
इसे विडम्बना कहे या दुर्भाग्य की कभी भारतीय राजनीति में अपने चाल चरित्र, अनुशासन की पहचान रखने वाली भारतीय जनता पार्टी पर सत्ता का मद इस तरह चढ़ा की उसकी नैतिकता स्वाहा हो गई और वह भी कांग्रेस के उसी ढर्रे में चल रही है जिसके लिये वह कांग्रेस को दिन रात कोसती रहती है। एक दौर थी जब आरोपों से ही मंत्री अपने पद से त्याग पत्र दे दिया करते थे परन्तु एक दौर आज का है जहां सार्वजनिक रूप से एक समाज विशेष के प्रति नकारात्मक नजरिये प्रस्तुत करने और सरकार की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिये जमीनी स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी को सरेआम बेइज्जत किया जाता है फिर भी श्रेष्ठ अनुशासन की बात करने वाली भाजपा उस मंत्री का बाल बांका भी नहीं कर पाती।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भले ही सहज और व्यवहार कुशलता के लिये प्रख्यात हो परन्तु पार्टी के भीतर वह एक बेबश असहाय मुख्यमंत्री की हैसियत रखते है। क्योंकि उनके पास इतना अधिकार नहीं है कि जो मंत्री उनकी सरकार को अपने कामों से जनता के बीच में थू-थू करवा रहा है। उसके खिलाफ कुछ कर सके। हर काम के लिये केन्द्र की सरकार को कोस कर अपने दामन को पाकसाफ बताने की सरकारी नीति को प्रदेश की जनता अब असानी से समझने लगी है। क्योंकि मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार उनके लोग कर रहे है ना कि केन्द्र में बैठे लोग।
शिवराज मंत्रीमंडल के विवादास्पद मंत्रियों की सूची का एक नाम सहकारिता एवं लोक स्वास्थ्य विभाग के मंत्री गौरीशंकर का भी है। जिन्होंने मंत्री पद पर आने के बाद हर एक-दो माह में ऐसा कुछ जरूर किया है जिसकी वजह से पार्टी को जनता के बीच में सफाई देनी पड़ी या फिर दुर्भाग्यजनक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। देखा जाए तो मंत्री गौरीशंकर बिसेन लोकप्रियता में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बाद दूसरे नंबर पर आते हैं,परन्तु अपनी बयान बाजी को लेकर वे हमेशा विरोधियों के निशाने पर रहते है। अभी ताजा मामला पन्ना के कोऑपरेटिव बैंक अध्यक्ष संजय नगाइच से जुड़ा हुआ है जिस मामले को निपटाने के लिए कुछ बीजेपी नेता पन्ना पहुंचने वाले हैं। मंत्री गौरीशंकर बिसेन से जुड़े विवादों के विपरीत अगर देखे तो वे लोकप्रियता में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बाद दूसरे नंबर पर है। इसका कारण हैं प्रदेश भर में अपने विभाग पर पकड़। अगर प्रदेश में दौरों को लेकर देखा जाए तो सबसे ज्यादा दौरे करने में सीएम शिवराज के बाद उनका दूसरा नंबर है। और इस दौरान हुए विवादों को हम पीछे मुड़कर बिसेन से जोड़कर देखते है इनमें कहीं न कहीं सिस्टम सुधारने की झालक हमें दिखती है।
ताजे मामले को ही हम ले जो पन्ना कोऑपरेटिव बैंक अध्यक्ष संजय नगाइच से जुड़ा हुआ है। सूत्र बताते है कि नगाइच की मनमानी, नियम विरूद्ध काम से बैंक को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। वहां का स्टाफ भी इनके सामने मुंह बंद करने को मजबूर है इसी आवाज को बिसेन ने खोला है। सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने कहा कि पन्ना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष संजय नगाइच ने कार्रवाई से बचने के लिए झूठा आरोप लगाया है। उन्हें हटाने पर फैसला एक सप्ताह में ले लिया जाएगा। वहीं, नगाइच का कहना है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने जांच कमेटी बनाई है। हम अपना पक्ष कमेटी के सामने रखेंगे। दरअसल, पूरा विवाद भाजपा में गुटबाजी की वजह से माना जा रहा है।
उधर ब्राह्मण एकता अस्मिता सहयोग व संस्कार मंच ने अध्यक्ष राकेश चतुर्वेदी की मौजूदगी में डाक भवन के सामने बिसेन का पुतला फूंक कर भाजपा को सबक सिखाने की बात कही गई। ब्राह्मण समाज उत्थान संस्थान एवं भारतीय ब्राह्मण मंच ने मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के नाम ज्ञापन सौंपा। दूसरी तरफ, अभा क्षत्रिय महासभा के महासचिव कीर्ति सिंह चौहान ने बिसेन को ईमानदार बताते हुए कहा कि उनके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। वहीं, प्रदेश कांग्रेस चुनाव प्रबंधन एवं दौरा कार्यक्रम प्रभारी संजय दुबे ने भी राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा।
सहकारिता मंत्री बिसेन और जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष नगाइच के बीच उठे विवाद के पीछे भाजपा की अंतर्कलह को जिम्मेदार माना जा रहा है। नगाइच को पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव एवं पूर्व मंत्री कुसुम मेहदेले का समर्थक बताया जा रहा है। जबकि बिसेन के साथ कृषि राज्य मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह और पन्ना जिला भाजपा अध्यक्ष जयप्रकाश चतुर्वेदी व अन्य पदाधिकारी हैं। बताया जाता है कि बिसेन के सामने ही भार्गव और नगाइच जिंदाबाद नारे लगाए जाने से भी बिसेन नाराज हो गए थे। नगाइच का कहना है कि सहकारिता मंत्री क्यों नाराज हैं मैं नहीं जानता। वे मुझे निशाना बनाने का मन बनाकर आए थे। मेरे ऊपर आरोप की बात है तो कोई भी जांच हो जाए, अनियमितता मिली तो पार्टी छोड़ दूंगा। नगाइच के खिलाफ चल रही जांच सहायक पंजीयक अखिलेश निगम कर रहे हैं।
इस मामले में जब प्रदेश भाजपा ने जांच की घोषणा की तो राजनीतिक हलकों में आश्चर्य जाहिर किया गया। लेकिन इसके पीछे कारण यह है कि पार्टी इस मामले में वरिष्ठ मंत्रियों और नेताओं के जुड़े होने से चिंतित है। यही वजह है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा ने आनन-फानन में जांच की घोषणा कर दी। पन्ना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष को कथित तौर पर पंडित तू चोर है कहने वाले सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने फिलहाल अपने दौरों पर रोक लगा दी है। राजनीतिक क्षेत्रों में उनके अचानक ब्रेक लगाने की वजह तलाशी जा रही है। भाजपा सूत्रों का कहना है कि पार्टी ने उनसे कहा है कि कुछ दिनों के लिए वह जिलों का दौरा बंद कर दें, मगर खुद बिसेन इससे इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है, च्मंत्री अपने विवेक से काम करता है। पार्टी या सरकार का उस पर कोई दबाव नहीं होता।
दरअसल, पन्ना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष संजय नगाइच को चोर कहकर संबोधित करने के मामले के तूल पकडऩे के बाद से बिसेन बैकफुट पर हैं। उन्होंने इस घटना के बाद से ही अपने दौरों पर रोक लगा दी है। कहा जा रहा है कि पार्टी के आदेश पर उन्होंने ऐसा किया है। वह पिछले छह दिनों से कहीं नहीं गए हैं। इस बीच, उनकी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व संगठन महामंत्री अरविंद मेनन से जरूर मुलाकातें हुई हैं। यह पूछने पर कि पार्टी ने उनके दौरों पर क्या रोक लगा दी है, बिसेन ने कहा कि ऐसा नहीं है। कुछ ब्रेक जरूर दिया है पर वह जल्द ही दौरा प्रारंभ करेंगे। उन्होंने बताया कि राज्य विधानसभा का मानसून सत्र खत्म होते ही वह जिलों के दौरों पर निकल गए थे, और लगभग एक माह में 27 जिला सहकारी बैंकों के कार्यक्रमों में जा चुके हैं। ग्यारह जिले शेष हैं, जहां का कार्यक्रम अगले माह बनेगा। बिसेन के ये दौरे किसानों को क्रेडिट कार्ड बांटने के सरकारी कार्यक्रम को गति देने के लिए हो रहे थे। इस दौरान उन्होंने सहकारिता विभाग के साथ-साथ बैंकों के कामकाज की समीक्षा भी की। लेकिन सिवनी, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद व बड़वानी जिलों में अपनी टिप्पणियों के कारण वह विवादों में घिर गए।
सूत्रों का कहना है कि हाल में पन्ना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष के साथ हुए विवाद को बिसेन पार्टी की सियासत की देन बता रहे हैं। उन्होंने पार्टी नेतृत्व को पन्ना के उस रात्रि भोज की सीडी भी सौंपी है, जहां के घटनाक्रम को आधार बनाकर बिसेन की घेराबंदी की जा रही है। जानकारों के मुताबिक बिसेन ने दोनों नेताओं से कहा है कि संजय नगाइच के खिलाफ अनियमितता के एक मामले की जांच में आरोप सही पाए गए हैं, लिहाजा कार्रवाई से बचने के लिए वह उन पर दबाव बनाने में लगे हैं। बिसेन के नजदीकी लोगों के अनुसार भाजपा के सहकारिता प्रकोष्ठ से जुड़े कुछ बड़े नेता सहकारिता विभाग से उनकी छुट्टी कराना चाहते हैं।
मंत्री बिसेन अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के कारण अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। भाजपा नेता कमलाकर चतुर्वेदी के साथ भी उनका इसी तरह का विवाद हुआ था। जून, 2009 में बिसेन ने कमलाकर के लिए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया था। हाल में एक आदिवासी पटवारी से कान पकड़कर उठक-बैठक लगाने के मामले ने तो इतना तूल पकड़ा कि प्रदेश भर के पटवारी हड़ताल पर चले गए थे। इससे पहले बिसेन ने अपने जन्मदिन कार्यक्रम में भी खुलेआम फायरिंग कराई थी, तब भी विवाद खड़ा हुआ था। हाल ही में घटित सिवनी जिले के एक गांव में पटवारी को सार्वजनिक रूप से जनता के सामने उठक-बैठक लगवाना, माफी मंगवाने और जाति सूचक शब्द के उपयोग करने की घटना ने पूरे प्रदेश में एक नया आंदोलन को जन्म दिया है। इस प्रकार के सार्वजनिक अपमान के प्रकरण अपनी जन अदालतों में करते है जहां पर वह जनता की ओर जिस व्यक्ति की शिकायत करते है उसको सभी के सामने प्रताडि़त करते है या माफी मंगवाते है। इस पूरे मामले में चूंकि कांग्रेस प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और उनका प्रदेश अध्यक्ष भी आदिवासी है इसलिये मुद््दों के अभाव में भटकती कांग्रेस को सहकारिता मंत्री ने एक ऐसा नाजूक मुद पकड़ा दिया है जिसका दूरगामी राजनीतिक प्रभाव मध्यप्रदेश की राजनीति में निश्चित रूप से देखने मिलेगा। कारण यह है कि भारतीय जनता पाटी के आदिवासी मंत्री, सांसद और विधायक भी खुलकर गौरीशंकर के कदम का समर्थन नहीं कर पाये और मौन साधे बैठे है।
मध्यप्रदेश की राजनीति की दिशा तय करने में आदिवासी वोटों का बहुत बड़ा महत्व है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। मध्यप्रदेश में संभवत: पहला अवसर था जब कलेक्टर को छोड़कर उससे नीचे के सारे अधिकारी विशेष कर राजस्व से जुड़े अधिकारियों ने गौरीशंकर के कदम के विरोध स्वरूप एक दिन का अवकाश लिया। चूंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लगता है विधानसभा चुनाव को अभी बहुत दिन है। इसलिये आदिवासी समाज से जुड़ा यह मुद्दा ज्यादा प्रभावी नहीं कर पायेगा पर इतिहास गवाह है भारतीय मतदाता चुनाव में हमेंशा वह परिणाम देता है जिसकी कल्पना नहीं की जाती। पटवारी कांड विधान सभा चुनाव 2013 पर भाजपा के लिये धीमा जहर साबित होगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आदिवासियों को खिलौना समझ कर कोरे आश्वासनों का झुनझुना पकड़ा कर उनकी उन्नति व विकास की बातें करने वाली भाजपा ने जितने हल्के स्तर पर पटवारी कांड को लिया है उसका उन्हें कहीं न कहीं राजनीति नुकसान जरूर उठाना पडेगा।
उधर जानकार बताते हैं कि सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन विवाद के जरिये सुर्खिया में रहकर प्रदेश की राजनीति में अपनीे पैठ व पहचान बनाने के लिये लगातार प्रयासरत है। वह जानबूझकर वह सब करते है जिसको मीडिया में ज्यादा जगह मिले। लगातार विवादों में रहने के बाद भी मुख्यमंत्री द्वारा उन पर नकेल न कसा जाना यह दर्शाता है कि शिवराज पर गौरीशंकर पूरी तरह भारी है। इस बात में कोई शक नहीं कि राजस्व विभाग में निचला तबके का कर्मचारी पटवारी की कार्यप्रणाली हमेेशा से ही विवादों का विषय रही है। परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जिनके खूद के घर शीशे को उन्हें दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिए। जो आज भाजपा कर रही है। प्रायोजित ढंग से पटवारियों को विरोध करने के लिये जो किसान आज सड़कों पर आये वह अब कहां सोये पड़े थे। पटवारी वर्ग का गुस्सा भले ही बाहरी रूप से ठंडा दिखाने दे रहा हो पर आन्तरिक तौर पर वह प्रदेश के भीतर अपमानित जरूर महसूस कर रहे है। अतीत के पन्ने पलटाया जाये तो हमने देखा है कि 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक मुद्दा उछाला कि तत्कालिन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कहते है कि कर्मचारी वोट नहीं देगा तो हमें कोई फर्क नहीं पडेगा। ये बात दिग्गी राजा ने कहां कही, किसके सामने कही इसकी तथ्यात्मक पुष्टि आज तक नहीं हो पाई। परन्तु एक अफवाह की बयार चली और उसमें कांग्रेस को भारी कीमत चुनाव में चुकानी पड़ी। जबकि सहकारिता मंत्री ने जो कुछ कहा और जो कुछ करवाया वह सब लाखों आंखों ने टी.व्ही. पर नजारे को देखा है। वैसे भी पहली बार मंत्री बने गौरीशंकर के पास अच्छे राजनीतिक सलाहकर की कमी है। इसके नकचढ़े स्टाफ के भ्रष्टाचार भी भाजपा के कार्यकर्ताओं पर चर्चा का विषय बने हुए है। इन विषम परिस्थितियों में गोरीश्ंाकर अच्छा करने के चक्कर में वह कर जाते है जो उनके खुद के पार्टी के लिये सिर दर्द बन जाता है। जहां तक गौरीशंकर के विभागों की बात है तो उसमें इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि मध्यप्रदेश के भ्रष्टतम विभागों में सहकारिता विभाग व पी.एच.ई. विभाग का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। व्यक्तिगत तौर पर गौरीशंकर भले ही सहज जनप्रतिनिधि माने जाते हैं पर एक मंत्री के रूप में वह अवसरवादियों से घिरे हुए है और भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि विवादों के रथ पर सवार होकर राजनीति करने वाले जनप्रतिनिधियों को एक समय के बाद जनता नकार देती है। आर्थिक सम्पन्नता के बल पर चुनाव जीतने की कल्पना भारतीय राजनीति में दिवास्वप्न है। एक मंत्री के रूप में दुर्भाग्यजनक बात यह है कि गौरीशंकर अपने विधान सभा क्षेत्र से बाहर नहीं निकल पा रहा हैं। जब इन्हें मंत्री बनाया गया था तो यहीं कल्पना थी कि एक लंबे संघर्ष के बाद मंत्रीमंडल में पहली बार स्थान मिला है तो जरूर ये अपने कामों से एक अच्छे राजनेता की छवि निर्मित करेगें। परन्तु इनकी छवि एक विवादास्पद जनप्रतिनिधि के रूप में ही बन पायी है, जो इनके उज्जवल राजनैतिक भविष्य की ओर संकेत नहीं करती। राजनीति में महत्वकांक्षाएं होना अच्छी बात है पर अति महत्वकांक्षा व्यक्ति को ह्रास की ओर ले जाती है ।
विवादों से बिसेन का पुराना नाता है। सहकारिता मंत्री बनने के बाद जून 2009 में उन्होंने भोपाल में आयोजित बैठक में सतना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष कमलाकर चतुर्वेदी को पोंगा पंडित कह दिया था। लोकसभा चुनाव के दौरान बिसेन घडिय़ां बांटने के आरोप में आचार संहिता के उल्लंघन के दायरे में आए थे। बीते माह होशंगाबाद में सहकारी बैंक के महाप्रबंधक आरके दुबे से सार्वजनिक मंच पर माफी मंगवाई। सिवनी जिले के छिंदा गांव में उन्होंने आदिवासी पटवारी को सार्वजनिक रूप से उठक-बैठक लगवाई तथा कथित तौर पर जाति को इंगित कर टिप्पणी भी की थी।

शनिवार, 3 सितंबर 2011

खदाने खत्म कर रहीं जंगल


विनोद उपाध्याय
मप्र सरकार की दोहरी नीति तेजी से प्रदेश के जंगल लील रही है। इसमें एक तरफ तो जंगल बचाने और बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इन्हीं जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जंगल कैसे बचेंगे और बढ़ेंगे? मप्र में तीन साल यानी (2008-09 से 2010-11 के बीच 369 खदानों के लिए 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन परिवर्तित कर दी गई यानी हर साल जंगलों की 11 हजार 196 हेक्टेयर भूमि पर औसतन 123 खदानें शुरू की गईं। जबकि इन्हीं 3 सालों में प्रदेश शासन ने जंगलों के विकास और वन्य गतिविधियों के लिए 15 योजनाओं पर 61966.80 लाख रुपए खर्च किए हैं। यही नहीं, केंद्र सरकार (केंद्र प्रवर्तित योजनाओं के तहत) ने भी प्रदेश के जंगलों के विकास, संरक्षण और प्रबंध आदि मदों के लिए इस अवधि में 60496.25 लाख रुपए आवंटित किए। इसमें से भी मप्र शासन ने 12126.96 लाख रुपए खर्च किए हैं। इसके बावजूद अब इन्हीं जंगलों को खदानों के लिए नष्ट किया जा रहा है।
मप्र सहित देश के कई राज्यों में यही परिस्थिति है। इनमें मप्र तीसरे स्थान पर है। हैरानी की बात तो यह है कि खदानों के लिए जंगलों को खत्म करने पर राज्य सरकारों की तरफ से भेजे जा रहे प्रस्तावों पर केंद्र सरकार भी बेहिचक मुहर लगा रही है। यह प्रचलन पिछले 5-6 साल में और बढ़ गया है। इंडियन फॉरेस्ट एक्ट- 1927, फॉरेस्ट एक्ट (कंजर्वेशन)- 1980 जैसे कठोर नियम-अधिनियम होने के बावजूद सालों पुराने जंगल की जमीन पर खदानें चलाने की अनुमतियां जारी करना। राज्य सरकार सबसे बड़ी दुश्मन है। जंगल में गैर वानिकी गतिविधियों के प्रस्ताव इन्हीं के जरिए भारत सरकार को भेजे जाते हैं। राज्य सरकारों के कुछ जिम्मेदार अफसर इन प्रस्तावों को खदान माफियाओं के अनुरूप तैयार करते हैं। राज्य सरकारों की अनुशंसा के आधार पर ही भारत सरकार भी प्रस्तावों पर मुहर (क्लीयरेंस देना) लगा देती है।
मध्य प्रदेश के जंगल गंजे यानी विरल होते जा रहे हैं। सख्त वन नीति के बाद वन भूमि तो नहीं घट रही है लेकिन सघन वन तेजी से विरल वनों में तब्दील हो रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2005 में 41 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है।
भारत की धरा पर सबसे ज्यादा वन भूभाग वाले मध्य प्रदेश में जंगल बेहद खतरनाक हालात में जा पहुंचे हैं। उन्हें गंजेपन का कोढ़ खाए जा रहा है। 31 फीसदी जमीन पर जंगल की हकीकत सिर्फ कागजों पर ही है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
1956 में जब मध्य प्रदेश बना था तो 1 लाख 91 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में जंगल पसरे थे लेकिन 1990 तक जंगल की साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि (लगभग साठ लाख हेक्टेयर जमीन) बांट दी गई। इसके बाद बचे कोई 1 लाख 30 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल में से मध्य प्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन भूमि बची है। सख्त होते वन कानूनों के बाद कहने को वन भूमि नहीं घट रही है लेकिन किसी झबरे व्यक्ति (घने बाल वाला) के सिर से तेजी से झड़ते बालों की तरह मध्य प्रदेश में जंगल सघन से बिरले होते जा रहे हैं। 1995 तक जहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल था वहीं 2005 में यह घटकर 41 घनमीटर रह गया। अगली रपट में यह कितना घटेगा यह सोचकर ही वन अफसर घबरा रहे हैं।
करीब 95 लाख हेक्टेयर के इस वन क्षेत्र में दस नेशनल पार्क और 25 अभयारण्य इलाके ही सही सलामत बचे हैं लेकिन यह इलाका मात्र दस हजार वर्ग किलोमीटर (दस लाख हेक्टेयर) का ही है लेकिन इसके भी साठ फीसदी इलाके करीब छह हजार 700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही घने जंगल बचे हैं। इसके बाद थोड़ा बहुत जंगल 58 हजार किलोमीटर में फैले-पसरे आरक्षित वन में से 18 हजार वर्ग किलोमीटर (करीब 18 लाख हेक्टेयर) क्षेत्र में बचा है। बाकी संरक्षित वन का इलाका है जिसका कोई माई-बाप नहीं है। संरक्षित वन में से वनवासियों को निस्तार के लिए लकड़ी ले जाने से लेकर लघु वनोपज एकत्र करने की छूट है। इसका सदुपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। सरकार ने इसी वन भूमि में से डेढ़ लाख लोगों को उनके जंगल की जमीन पर अधिकार को मान्यता देते हुए करीब तीन लाख हेक्टेयर जमीन पर पट्टे दे दिए हैं। तीन लाख लोगों के वन भूमि पर दावे के आवेदन अब भी विचाराधीन हैं। हालांकि इससे कागजों पर वन भूमि का रकबा नहीं घटेगा लेकिन देश की आजादी के बाद से सात मर्तबा वन भूमि को बांटने और उसे वन भूमि से अलग करने का काम 1990 तक हुआ है। मध्य प्रदेश के विरल वन में सैलानी मध्य प्रदेश के विरल वन में सैलानीकेंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश में जंगलों में प्रबंधन की कमी का रोना रोया लेकिन प्रबंधन के लिए जरूरी धन के नाम पर वह बगलें झांकते दिखे। मध्य प्रदेश में कायदे से कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में साढ़े तीन फीसदी की भागीदारी जंगल की होनी चाहिए लेकिन यह 2.37 फीसदी है। जबकि वनों को सहेजने के लिए मिलने वाली रकम 0.03 से 0.09 फीसदी के बीच ही होती है। 35 हजार करोड़ की जरूरत है पर हर साल दो सौ से सवा दो सौ करोड़ से ज्यादा राशि वन संरक्षण और संवर्द्धन पर खर्च हो रही है। इसमें केंद्र की हिस्सेदारी 25 से 30 करोड़ की ही है। सबसे बड़ी चुनौती तो जंगलों पर पड़ते आबादी के दबाव को रोकने और बिगड़े वनों को उनकी गरिमा वापस लौटाने की है। लेकिन यह काम कैसे हो? मध्य प्रदेश के वन विभाग के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉ. रमेश कुमार दवे कहते हैं, 'बिगड़े वनों को सुधारने के लिए प्रति हेक्टेयर साठ से सत्तर हजार रुपए का खर्च आता है लेकिन पचास लाख हेक्टेयर जमीन को फिर पेड़ों से ढंकना हो तो सैकड़ों अरब खर्च होंगे। इतनी रकम भला कहां से मिलेगी? कौन देगा इसको?Ó
जंगलों पर सरकारी परियोजनाओं के नाम पर जो प्रहार हो रहे हैं, उसकी जगह नए जंगल लगाने (क्षतिपूर्ति वनीकरण) के नाम जमा रकम भी केंद्र सरकार राज्य को देने में आनाकानी करती है। केंद्र के पास मध्य प्रदेश का 800 करोड़ जमा है लेकिन बार-बार किए आग्रह के बावजूद उसने मात्र 53 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जंगलों के रखरखाव के नाम पर बीते साल के दौरान तो केंद्र ने फूटी कौड़ी तक नहीं दी। इसके पहले के दो सालों में उसने क्रमश: 23 और 25 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जहां तक राज्य के वन विभाग की कमाई का सवाल है तो उसकी सालाना कमाई मात्र एक हजार करोड़ रुपए के आसपास ही है। अब ऐसे में जंगल कहां से बढ़ेंगे और कैसे बढ़ेंगे? मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन साला बुंदेलखंड पैकेज के नाम छह जिलों के बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर 107 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। इलाके के वन क्षेत्र की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो यह रकम मात्र बारह हजार रुपए प्रति हेक्टेयर बैठती है। बुंदेलखंड के हालात सबसे ज्यादा भयावह हैं। इस इलाके के छह जिलों में कोई 11 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में से सत्तर से अस्सी फीसदी वन बिगड़े हुए हैं। वहां न तो जंगलों की सुरक्षा के चाक-चौबंद प्रबंध हैं और न जंगलों को सहेजने लायक पानी है।
एक आला वन अफसर ने कहा कि बुंदेलखंड के हालात तो प्रदेश के आदिवासी जिलों से भी ज्यादा बुरे हैं। संयुक्त वन प्रबंधन और वन विकास अभिकरण के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक रवींद्र नारायण सक्सेना भी मानते हैं कि बुंदेलखंड पैकेज के तहत मिली रकम इलाके के सूरते हाल के लिहाज से नाकाफी है लेकिन फिर भी जो पैसा मिला है उसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। जंगलों को बचाने के लिए भी हमने वनवासियों की आर्थिक सेहत सुधारने की योजनाएं जमीन पर उतारी हैं। जंगलों की कटाई की समस्या सिर्फ बुंदेलखंड की नहीं है। प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के किनारे जंगलों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ है।
वन भूमि नहीं घट रही पर वृक्ष कम होते जा रहे है ंवन भूमि नहीं घट रही पर वृक्ष कम होते जा रहे हैं वन माफिया सरेआम बुधनी के जंगलों को नंगा कर रहे हैं। रातोरात नर्मदा नदी में ही नाव के सहारे यह लकड़ी होशंगाबाद की ओर आरा मशीनों पर पहुँचाई जाती है। एक तरफ जंगल कट रहे हैं तो दूसरी ओर सवाल वनीकरण के दौरान लगे पौधों को बचाने का भी है। भोपाल जैसे शहर में तो नब्बे फीसदी तक नए पौधे जीवित रह जाते हैं लेकिन जंगलों में तो पेड़ों की बचे रहने की दर बीस फीसदी भी नहीं है। इसी के चलते 2009 में जारी स्टेट ऑफ रिपोर्ट में भोपाल को छोड़कर प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल को छोड़कर प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल में भी यह मात्र डेढ़ फीसदी ही बढ़ा है लेकिन यह वन भूमि पर बढ़ी हरियाली के आंकड़े नहीं है बल्कि शहर के आसपास और झील किनारों पर किए गए वृक्षारोपण के आंकड़ें हैं। वन विभाग के एक अफसर स्वदेश बाघमारे कहते हैं कि प्रदेश में असली जंगल सात-आठ फीसदी से ज्यादा नहीं बचे हैं। लेकिन भोपाल में राजधानी परियोजना क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक अतुल श्रीवास्तव आंकड़ों के पचड़े में पडऩे के बजाए कहते हैं, 'वनों के हालात चिंतनीय है लेकिन आबादी का दबाव कम किए बगैर कुछ नहीं हो सकता।Ó यह कैसे घटेगा? बिगड़े वन कैसे फिर संवरेंगे इसका पुख्ता हल शायद किसी के पास नहीं है।
भारत भौगोलिक क्षेत्रफल 32 लाख 87 हजार 263 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 7 लाख 69 हजार 512 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। यह पूरे क्षेत्रफल का 23.41 फीसदी बैठता है। जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है तो उसका क्षेत्रफल 3 लाख 8 हजार 245 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन का क्षेत्र है। यानी 30.71 फीसदी वन क्षेत्र पूरे देश के जंगल क्षेत्र के औसत के मुताबिक मध्य प्रदेश का यह औसत काफी अच्छा है। लेकिन जब मध्य प्रदेश के वन की हालत पर नजर डालें तो वे चिंताजनक है। राज्य में अति सघन जंगल का क्षेत्र मात्र 6 हजार 647 वर्ग किलोमीटर है यानी महज 7 फीसदी। जबकि सघन वन 35 हजार 7 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं यानी 37 फीसदी हिस्से में वहीं विरल जंगल का क्षेत्र 36 हजार 46 वर्ग किलोमीटर है अर्थात 38 फीसदी वैसे कुल वनाच्छादित क्षेत्र 77 हजार 700 वर्ग किलोमीटर है यानी 82 फीसदी खुला क्षेत्र 16 हजार 989 वर्ग किलोमीटर यानी 18 फीसदी है। वर्ष 1995 तक प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल हुआ करता था लेकिन 2005 में प्रति हेक्टेयर 41 घनमीटर जंगल था। एक अनुमान से फिलहाल प्रति हेक्टेयर 35 घनमीटर जंगल ही मौजूद हैं।
प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह का मानना है कि जंगलों की मुख्यत: जो समस्याएं हैं, उनमें पहली तो वनों की अवैध कटाई से जंगलों को हो रहे नुकसान की है। दूसरी चुनौती जंगलों में घुसपैठ और वनभूमि पर अतिक्रमण की तथा तीसरी वन क्षेत्र में अवैध उत्खनन की है। फिर समस्या उन वनवासियों की भी है जो सदियों से जंगलों में रहते आए हैं।
सिंह कहते हैं कि यदि वनवासियों को जंगल में ही रोजगार के वैकल्पिक साधन मिल जाएं तो वे वन माफियाओं के कहने पर जंगलों को निशाना नहीं बनाएंगे। यह बात कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जंगलों में रहने वाले डेढ़ करोड़ वनवासियों में से आधे के पास राशन कार्ड तक नहीं है। सिंह मानते हैं कि प्रदेश में अवैध कटाई दो तरह से हो रही हैं, एक तो रोजगार की कमी के चलते निस्तारी काम के लिए लकडिय़ां कटती हैं। यह दिखने में छोटा अपराध लगता है लेकिन जंगलों की तरक्की रोकने में सबसे बड़ी बाधा यही है। वे पेड़ बढऩे के पहले ही काट देते हैं। लेकिन वन माफिया द्वारा कराई जा रही कटाई भी कम गंभीर नहीं है। सिंह का दावा है कि उनके द्वारा विभाग की कमान संभालने के बात संगठित वन अपराधियों के खिलाफ बरती गई सख्ती के कारगर नतीजे सामने आए हैं।

संघ में 'मिशन भागवत की छटपटाहट ...!




विनोद उपाध्याय
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पद संभालते ही क्रांतिकारी निर्णय लिये एक राष्टï्रीय स्तर पर पहली बार भाजपा में नागपुर के छोटे से कार्यकर्ता नितिन गडकरी को अध्यक्ष पद दिलवा कर। दूसरा अपने घर (भाजपा) से दूर चली गई उमा भारती की पार्टी में वापसी करवाई और अब तीसरा नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं। बेशक! भागवत को सफल होने देंगे। उज्जैन की चिंतन बैठक में यही चिंता हुई कि कैसे मिशन भागवत पूरा हो -
राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ की मुश्किल ये है कि न तो यह पूर्ण अराजनैतिक संगठन बन पाया और न ही समाज से सीधे जुड़ पाया। 1925 से लेकर आज तक कभी जनता पार्टी कभी जनसंघ और अब भाजपा का रिमोट कंट्रोल ही बना रहा। संघ के सुप्रीमो से लेकर नीचे तक के कार्यकर्ता सत्ता की मलाई से परहेज तो नहीं करते हैं, मगर स्वीकारने में जरूर शर्माते हैं।
बात चाहे मध्यप्रदेश की करें या देश की जहां भी भाजपा की सरकार रही है संघ ने उअपना एजेंडा मनवाने की ही कोशिश की, फिर चाहे इसमें सिद्घांतों की बलि ही क्यों न ले ली गई हो। इन दिनों संघ परिवार में बिलकुल ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। संघ के प्रमुख डॉ. मनमोहन राव भागवत अपने मिशन में जुटे हुए हैैं। तो उनके मातहत सुरेश सोनी, भैया जी जोशी, मदनदास देवी, राम माधव अपने-अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। यानी संघ में संगठन नहीं दिख रहा। इस बिखराव की चिंता में डूबे संघ परिवार ने पिछले दिनों इंदौर उज्जैन (मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी) को अपनी चिंतन बैठक के लिए चुना। बाबा महाकाल के दरबार में भस्म आरती के बहाने अपनों पर लगे बदनामी के दाग धोने की कोशिशें कीं।
चिंतन बैठक पूरी तरह चिंता बैठक बनी रही, भाजपा के आला नेताओं में से अधिकांश नदारद रहे। जो थे वे भी अनमने मन से बैठक में दिखे, कारण ये कि संघ में मोहन भागवत ने आते ही दिग्गजों को किनारे करने की मुहिम छेड़ी थी, जिसके चलते लालकृष्ण आडवाणी, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, सरीखे नेताओं के बीच नए नवेले और छोटे कद के कार्यकर्ता नितिन गडकरी को राष्टï्रीय अध्यक्ष जैसा बड़ा पद दिलवा दिया। यही नहीं इन तमाम बड़े नेताओं को नियंत्रित करने का काम अपने संगठन के सुरेश सोनी को सौंप दिया। सोनी ने दिल्ली में कम रूचि दिखाई और मध्यप्रदेश को टारगेट कर यही रम गए। भोपाल में प्रभात झा को अध्यक्ष बनवा कर भाजपा और संघ के बीच की दूरियां कम करने की जगह और बढ़ा दी।
यही कारण हैै कि गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरांचल में सबसे ज्यादा भाजपा की बदनामी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। यानी मिशन 2014 की दिशा में मोहन भागवत का अभियान दम तोड़ता दिख रहा है। भाजपा संघ में तालमेल नहीं है। पार्टी के नेता राष्टï्रीय अध्यक्ष व प्रदेश अध्यक्ष के पद पर संघ की ओर से थोपे गए निर्णय को हजम नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह है कि चिंतन बैठक में राष्टï्रीय मुद्दों पर काम चिंता जताई गई। अपने कुनबे की हालत पर ज्यादा दुख जताया गया। अन्ना हजारे के जन आंदोलन के आगे भी संघ बौना दिख रहा है, क्योंकि अभी तक चाहे जेपी आंदोलन हो या, राममंदिर का जन आंदोलन संघ के स्वयं सेवकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। भागवत के फार्मूले को संघ अपना नहीं पा रहा है। संगठन चाहे संघ का हो या भाजपा का बिखराव दोनों में तेजी से आ रहा है, मगर मजबूरी में एक दूसरे का साथ दे रहे हैं। यही वजह है कि भाजपा शासित राज्य गुजरात को छोड़कर कहीं भी अच्छी स्थिति में नहीं है। संध की इस बैठक में पूरे 5 दिन चिंतन-मनन हुआ, अगले लोकसभा चुनाव 2014 की भावी रणनीति के प्रस्ताव पर चर्चा हुई। मंदिर निर्माण में संघ की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। केन्द्र की यूपीए सरकार में भ्रष्टïाचार पर खुलकर चर्चा हुई, अन्ना हजारे के आंदोलन को समथर्थन देने पर भी बात चली, और अंत में आडवाणी के स्थान पर नरेन्द्र मोदी को पीएम प्रोजेक्ट करने पर मंथन हुआ।
पहले नितिन गडकरी को भाजपा का राष्टï्रीय अध्यक्ष बनवाकर और अब नरेन्द्र मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनवा कर मिशन भागवत पूरा हो जाएगा? या इस मिशन की सफलता के लिए जो छटपटाहट अभी हैै आगे भी ऐसी ही देखी जाएगी कह पाना मुश्किल है। फिलहाल चिंता बैठकों से संघ को बाहर निकलना जरूरी है, तब वह तय कर पाएगा कि इसे सत्ता की मलाई खाना है या देश की भलाई में जुटना है।
कभी संघ की मुख्यधारा में रह कर बड़े-बड़े फैसलों में अहम भूमिका निभाने वाले गोविन्दाचार्य कहते हैं कि देश में जन आंदोलनों के उभरते नये दौर में आरएसएस कहां है? रामदेव का सत्याग्रह हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की गई मुहिम, राजनीतिक या सामाजिक तौर पर आरएसएस की क्या भूमिका है? गोविन्दाचार्य की बातों में दम तो दिखता है।
देश में आज सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं, सांप्रदायिकता भी एक बड़ी समस्या के तौर पर परेशानी का सबब है। सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां भी देश के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे वक्त में संघ निश्चित रूप से अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रयासरत है। उज्जैन में संघ और उससे जुड़े संगठनों ने एक जगह आकर इस बारे में विचार विमर्श भी किया लेकिन क्या संघ की स्थिति ऐसी है कि वह इन चुनैतियों को अपने लिए अवसर में तब्दील कर पाएगा? संघ के लिए तो यह सिद्ध करना भी कठिन हो गया है कि वह समाज का संगठन है, न कि समाज में संगठन है।
सन् 1925 में शुरु हुआ संघ आज राष्ट्र-जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रभावी है। धर्म, अर्थ, राजनीति, कृषि, मजदूर आदि क्षेत्रों में संघ का व्यापक हस्तक्षेप जाहिर है। लेकिन यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या देश के सामने खड़ी चुनौतियों के लिए संघ की शक्ति निर्णायक है? अमरनाथ श्राईन बोर्ड मामले में आम जनता का आंदोलन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने संघ को सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्या कारण है कि पिछले कई वर्षों से अयोध्या-मंदिर जैसा आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। संघ उन कारणों की पड़ताल करना चाहता है कि उसके संगठन किसी भी मुद्दे पर जन-आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे। सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े संगठन विकसित करने के बावजूद ये संगठन आमजनता का संगठन क्यों नहीं बन पा रहे हैं। तमाम समविचारी संगठन जननेता क्यों नहीं पैदा कर पा रहे।
समविचारी संगठनों के आपसी हित न टकराएं यह भी जरूरी है। पिछले दिनों भारतीय किसान संघ और भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ और लघु उद्योग भारती तथा भाजपा सरकार से स्वदेशी जागरण मंच और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के हितों का टकराव बार-बार सामने आता रहा है। संघ के लिए उसके समविचारी संगठनों में चेहरा, चाल और चरित्र की चिंता भी स्वाभाविक है। संघ के वरिष्ठ अधिकारी और सरसंघचालक रहे बाला साहब देवरस कई बार अपने बौद्धिकों में यह बताते थे कि फिसलकर गिरने की संभावना कहीं भी हो सकती है, लेकिन बाथरूम में यह अधिक रहती है। राजनीति का क्षेत्र बाथरूम के समान ही फिसलनवाला हो गया है। वहां अधिक लोग फिसलकर गिरते हैं। इसलिए वहां कार्य करने वाले स्वयंसेवकों को स्वयं न फिसलने की अधिक दृढ़ता रखनी चाहिए। जहां सत्ता है, धन है, प्रभुता है वहां-वहां फिसलने की संभावना अधिक होती है। संघ को पता है कि समय के साथ फिसलन वाले क्षेत्र का लगातार विस्तार हो रहा है। सिर्फ भाजपा ही नहीं, कई और संगठनों में सत्ता, धन और प्रभुता बढ़ी है। इसलिए कार्यकर्ताओं में सावधानी पहले से ज्यादा जरूरी हो गई है। संघ और संघ से इतर संगठनों में स्वयंसेवक का स्वयंसेवकत्व स्थिर रखना भी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए जो तंत्र विकसित किया गया है उसके सतत अभ्यास के लिए संघ का जोर है। यह समन्वय बैठक इस अभ्यास प्रक्रिया को पुख्ता करता है।
यह आम धारणा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई संगठनों का पितृ या मातृ संगठन है। इन संगठनों के विस्तार के साथ-साथ इनके गुणात्मक विकास की जिम्मेदारी भी अंतत: आरएसएस की ही है। हितों के आपसी टकराव की स्थिति में संगठनों के साथ बीच-बचाव का काम भी संघ का ही है। संघ यह सब काम बखूबी करता भी रहा है। संघ लाखों स्वयंसेवकों, हजारों कार्यकर्ताओं, सैंकड़ों प्रचारकों और दर्जनों संगठनों के बीच व्यक्तित्व निर्माण से लेकर उनके बीच समन्वय का काम वर्षों से करता रहा है। उज्जैन में हुई पांच दिवसीय बैठक संघ की समन्वय बैठक अर्थात् समविचारी संगठनों की बैठक थी। यह संघ की प्रतिनिधि-सभा बैठक और कार्यकारी-मंडल बैठक से सर्वथा भिन्न थी। कयासबाज इस बैठक से कई कयास निकालेंगे। लेकिन संघ को निकट से जानने वाले जानते हैं कि संघ ऐसी बड़ी बैठकों में व्यक्ति के बारे में नहीं विषयों के बारे में चर्चा करता है। इतना तो पक्का है कि संघ ने इस समन्वय बैठक में न तो किसी पदाधिकारी के दायित्वों में किसी भी फेरबदल के बारे में चर्चा की होगी और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोई रणनीति बनाई होगी। इसीलिए मीडिया के कयासों पर संघ ने न तो कोई टिप्पणी की और न ही खबरों का खंडन किया।
इस समन्वय बैठक के औपचारिक समापन के बाद आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश जोशी और प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पत्रकारों से चर्चा में साफ-साफ कहा कि एक ही उद्देष्य से प्रेरित राष्ट्र एवं समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता 3-4 वर्षों के अंतराल से परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान और विचार-विमर्ष के उद्देष्य से एकत्रित होते हैं। उज्जैन में यह समन्वय बैठक वर्तमान सामाजिक परिस्थिति पर भी चिंतन हुआ है। संघ ने परंपरानुसार मुद्दों और संगठनात्मक विषयों पर चर्चा की। देश की राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर भ्रष्टाचार, कालाधन, सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक प्रमुख मुद्दों के रूप में चिन्हित हुआ। इन स्थितियों में संगठनों ने अपनी ताकत और व्यापकता के साथ अपनी कमियों के बारे में भी अन्त:निरीक्षण किया, यह आत्मनिरीक्षण अधिक महत्वपूर्ण है। अपनी कमियों और दोषों की पहचान एक कठिन काम है। निश्चित ही इस समन्वय बैठक में इस कठिन कार्य को भी अंजाम दिया गया होगा।
मुद्दा चाहे कोई भी हो, कालेधन की वापसी, भ्रष्टाचार की समाप्ति या सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा नियंत्रण अधिनियम का विरोध, सभी संगठन मिलकर चलें और समाज को साथ लेकर चलें यह आवष्यक है। मुद्दों पर चिंता सिर्फ संघ या समविचारी संगठन ही न करें, चिंता सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। आंदोलन और अभियान महज खानापुरी मात्र कार्यक्रम बनकर न रह जाये। संघ की मूल चिंता यही है कि आंदोलन चाहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का हो या भारतीय किसान संघ का या फिर विश्व हिन्दू परिषद् का उसे सिर्फ संगठन का नहीं समाज का आंदोलन बनना चाहिए। संगठन चाहे जितना बड़ा हो जाये अगर वह जनांदोलन खड़ा नहीं कर पाता तो उसका प्रभाव निर्णायक नहीं होगा।