सोमवार, 30 सितंबर 2013

विधानसभा चुनाव में न मोदी फैक्टर न ही राहुल फैक्टर

जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं, उनमें खास कर चार बड़े राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली की स्थितियां अलग-अलग हैं. मुद्दे अलग हैं, लेकिन एक साझी बात यह है कि इन राज्यों में मुकाबला दो प्रमुख दलों के बीच है. इन चुनावों में न तो मोदी फैक्टर काम करता हुआ दिखेगा और न ही राहुल फैक्टर. मोदी की सभाएं जरूर बड़ी होंगी, भीड़ भी जुटेगी, लेकिन इससे विधानसभा चुनावों में भाजपा को कितनी ताकत मिलेगी, यह संशय का विषय है. भारत में चुनावों की प्रकृति बदल रही है. विधानसभा के चुनाव भी राष्ट्रपति प्रणाली की तरह अपना मुख्यमंत्री चुनने के लिए हो रहे हैं. राज्यों के चुनाव अब मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के चेहरों के इर्द-गिर्द लड़े जा रहे हैं. वर्ष 2012 में हुआ गुजरात और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तो इसका हाल का उदाहरण है. और भी कई ऐसे उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है. थोड़ा पीछे पलट कर देखें, तो 1971 से एक दो अपवादों (आंध्र प्रदेश) को छोड़ कर अब तक धीरे-धीरे एक पैटर्न-सा बन गया है. 1971 में पहली बार इंदिरा गांधी ने सिर्फ लोकसभा का चुनाव अलग से कराया. 1967 तक सभी राज्यों की विधानसभाओं और आम चुनाव साथ-साथ होते रहे थे. 1972 के बाद से लोकसभा चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव साथ-साथ नहीं होते. अब चुनाव के तौर-तरीके बदल गये हैं. दृष्टि बदली है, राजनीति बदली है. इस बदली हुई राजनीति का विश्लेषण करें, तो कह सकते हैं कि विधानसभा का चुनाव अलग धरातल पर, अलग नेतृत्व में आयोजित किया जाता रहा है. देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां, इन चुनावों में कई बार शोभा की वस्तु मात्र नजर आती हैं. विधानसभा चुनाव दो स्तरों पर लड़े जाते हैं. यह राज्य आधारित विशेष मुद्दों पर और स्थानीय माहौल पर आधारित होता है. राज्य स्तर पर मतदाताओं की निगाहें मुख्यमंत्री और इस पद के दावेदारों पर होती है. विधानसभा क्षेत्र के स्तर पर वह प्रत्याशी विशेष को प्राथमिकता देता है. मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों को देखते हुए मतदाता अपने प्रतिनिधियों को चुनता है. जिन पांच राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं, उनमें खास कर चार बड़े राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली की स्थितियां अलग-अलग हैं. मुद्दे अलग हैं, लेकिन एक साझी बात यह है कि इन राज्यों में मुकाबला दो प्रमुख दलों के बीच है. अगर मध्यप्रदेश को देखें, तो वर्ष 2003 से पहले कांग्रेस की लगातार 10 वर्षो तक सरकार थी. 1993 में बाबरी मसजिद गिराये जाने के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश की सरकार बर्खास्त कर दी गयी. 1993 के नवंबर में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह जीते और उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. 1993-98 तक चली सरकार में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का दखल रहा. प्रत्याशियों के चयन में उसका हस्तक्षेप रहा. लेकिन, 1998 के चुनाव में दिग्विजय सिंह दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पास लिस्ट लेकर आये और उनसे यह कहते हुए इस सूची पर सहमति ली कि आप इजाजत दें, हम जीत हासिल करेंगे और सरकार बनायेंगे. अर्थात, उन्होंने चुनाव जीतने का आश्वासन देकर प्रत्याशियों की अपनी सूची पर सोनिया की रजामंदी ले ली. इस तरह प्रत्याशियों का चयन आलाकमान ने नहीं, मुख्यमंत्री ने किया. आज ज्यादातर राज्यों में यही हो रहा है. पिछले वर्ष गुजरात में चुनाव हुआ. गुजरात के उदाहरण को लें, तो वहां के मुख्यमंत्री सूची लेकर आये और संसदीय बोर्ड ने इस पर अंतिम मुहर लगा दी. इस लिहाज से यह भारतीय राजनीति का एक नया पैटर्न है. लेकिन पांच राज्यों के आगामी चुनाव में कांग्रेस ने एक नया प्रयोग किया है. यह संभवत: राहुल गांधी की राय पर या उनके दिशा-निर्देश में किया गया हो सकता है. मध्य प्रदेश में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली से सुरेश पचौरी को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में भेजा गया. इस बार राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश कांग्रेस की मांग पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को वहां का चुनाव प्रभारी बना कर भेजा है. भाजपा ने वर्ष 2003 में उमा भारती को मध्य प्रदेश चुनाव का प्रभारी बना कर भेजा था. वही रास्ता इस बार कांग्रेस ने अपनाया है. कांग्रेस को ज्योतिरादित्य में सबको एकजुट करने का माद्दा दिखता है. वर्तमान मध्य प्रदेश तीन हिस्सों में बंटा हुआ है. ग्वालियर जबलपुर, और सागर. सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से प्रमुख इन तीन क्षेत्रों की राजनीति अलग-अलग है. ग्वालियर राजघराने से जुड़े होने के कारण ग्वालियर क्षेत्र में सिंधिया का प्रभाव पहले से है. वे भाजपा को जबरदस्त टक्कर देंगे. भाजपा के मुकाबले कांग्रेस जो कल तक बिखरी हुई नजर आ रही थी, उसे नया चेहरा मिला है. दिग्विजय हाशिये पर डाल दिये गये हैं. ऐसी खबरें आ रही हैं कि सिंधिया की प्रेसवार्ता में दिग्विजय को प्रवेश नहीं करने दिया गया. उनके मंच पर दिग्विजय को आने की इजाजत नहीं है. इससे उनके समर्थकों में निश्चित रूप से निराशा होगी, लेकिन इस निराशा का फायदा भाजपा को कितना मिल पाता है, यह बाद में ही पता चलेगा. मध्य प्रदेश के संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि यह पहला राज्य है जहां शुरू से ही गांव-गांव में जनसंघ और कांग्रेस दोनों का ही प्रभाव रहा है. शुरू के दिनों से ही मध्य प्रदेश में दोनों दलों के बीच कमोबेश बराबर की लड़ाई रहती है. उम्मीदवारों का चयन, सरकार का प्रदर्शन, मुख्यमंत्री का प्रत्याशी मायने रखता है. शिवराज सिंह चौहान अब तक अपने स्वभाव, व्यवहार और नीतियों से लोकप्रिय नेता प्रतीत होते हैं. आंकड़ों में राज्य सरकार का प्रदर्शन भी बेहतर दिखता है. लेकिन, जिस तरह से 2003 में दिग्विजय के खिलाफ बिजली, सड़क, पानी का मुद्दा उभरा और भाजपा जीत गयी, उसी तरह अगर इस बार कोई नया मुद्दा आता है, तो हिसाब-किताब बिगड़ भी सकता है. मध्य प्रदेश को खेती के क्षेत्र में देश में शीर्ष स्थान प्राप्त है. कृषि में 14 फीसदी की वृद्धि उसकी बड़ी उपलब्धि रही है. यह वोट में कन्वर्ट होता है या नहीं, यह देखने वाली बात होगी. अगर राजस्थान की स्थिति देखें, तो कई लोगों का मानना है कि यहां वसुंधरा राजे का पलड़ा भारी है. लेकिन, अशोक गहलोत के कामकाज को कमोबेश संतोषजनक माना जाता रहा है. हालांकि, हाल के दिनों में कांग्रेस के मंत्रियों पर जिस तरह से गंभीर आरोप लगे हैं और उन्हें जेल जाना पड़ा है, उससे जनता में सरकार की छवि खराब हुई है. वसुंधरा राजे ने 2003 में जब अशोक गहलोत को पराजित किया था, उस समय उनकी सरकार काफी अलोकप्रिय थी. प्रदेश सरकार ने किसानों, आदिवासियों पर गोलियां चलवायी थीं. जाट व गुज्जर समुदाय के लोग गहलोत के खिलाफ खड़े हो गये थे. उस वक्त की तुलना में 2013 में होनेवाले विधानसभा चुनाव के बारे में यह तो कहा ही जा सकता है लोगों में इस वक्त उतना गुस्सा नहीं दिखता. सरकार का कामकाज भी ठीक ही रहा है. लेकिन, आम धारणा है कि वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा प्रदेश में बेहतर करेगी. अगर छत्तीसगढ़ की बात करें, तो यहां कांग्रेस पूरी तरह से नेतृत्वविहीन है. अजीत जोगी प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता हैं, लेकिन कांग्रेस में ही जोगी की स्वीकार्यता को लेकर समस्या है. कांग्रेस नेतृत्व इस समस्या का समाधान नहीं कर पा रहा है. इसका प्रभाव आनेवाले विधानसभा चुनाव में दिख सकता है. वहीं छत्तीसगढ़ में भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह अपने कामकाज से लोकप्रिय हैं. केंद्र सरकार जो खाद्य सुरक्षा कानून लेकर आयी है, उसे रमन सिंह छत्तीसगढ़ में पहले से ही सफलतापूर्वक चला रहे हैं. वहां जनता को ज्यादा मात्र में व सस्ता अनाज मुहैया कराया जा रहा है. खाद्य सुरक्षा कानून को अब राष्ट्रीय स्तर पर पास किया गया है, लेकिन इससे कांग्रेस का जनाधार कितना बढ़ेगा, कांग्रेस के पक्ष में कितनी हवा बनेगी, इसका अंदाजा लगाना कठिन है. जहां तक दिल्ली का सवाल है, तो यहां भाजपा शीला दीक्षित के मुकाबले में काफी कमजोर दिख रही है. राजनाथ सिंह जब दोबारा भाजपा अध्यक्ष बने थे, उसी दिन लोगों ने अंदाजा लगा लिया था कि प्रदेश में भाजपा अध्यक्ष किसे बनाया जायेगा. विजय गोयल अध्यक्ष बनाये गये. उनका राजनीतिक कौशल बड़ा है. वे मुद्दे खड़े कर सकते हैं, अभियान छेड़ सकते हैं. वे विभिन्न तरह के मुद्दों को उठा भी रहे हैं. लेकिन, गोयल शीला के मुकाबले अपनी पार्टी में कमजोर हैं. उनकी छवि विवादास्पद है और वे दिल्ली भाजपा के सर्वमान्य नेता नहीं हैं. डॉ हर्षवर्धन की छवि सर्वमान्य नेता की है. जनता उन्हें शीला दीक्षित के मुकाबले देखना भी चाहेगी, लेकिन भाजपा नेतृत्व हर्षवर्धन के मामले में साहस नहीं दिखा पा रहा है. हालांकि, भाजपा ने नितिन गडकरी को दिल्ली का प्रभारी बनाया है. दो सह-प्रभारी भी नियुक्त किये गये हैं. उनके प्रभारी बनने से कार्यकर्ताओं में काफी उम्मीद जगी थी. इसके बावजूद विजय गोयल हटाये नहीं गये. न हर्षवर्धन प्रभारी बनाये गये. हर्षवर्धन को चुनाव अभियान का प्रभारी बनाया जाता, तो भाजपा के संभलने की उम्मीद की जा सकती थी. इस कमजोरी के बीच भाजपा महंगाई को लेकर जनता की नाराजगी का कितना फायदा कितना उठा पायेगी, कहना मुश्किल है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के कार्यकर्ता काफी सक्रिय हैं. वे जनता से जुड़े मुद्दे, उनको प्रभावित करनेवाले बुनियादी सवालों को उठा कर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि ‘आप’ इस चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करेगी. लेकिन, ‘आप’ कांग्रेस का खेल बिगाड़ती है या भाजपा का, देखना दिलचस्प होगा. इन चुनावों के मद्देनजर कराये गये सर्वेक्षणों और उनके नतीजों की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं. सर्वेक्षणों की साख कम हुई है. सवाल वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्ठता का है. एक अंगरेजी अखबार द्वारा कराये गये सर्वे को लेकर दावा किया गया है कि यह जाति के आधार पर कराया गया है. उक्त अखबार को खुद भी अपने सर्वे पर भरोसा नहीं है. उसमें जिस दल की बढ़त दिखायी गयी है, उस दल के नेता भी दबे स्वर में सर्वे के निष्कर्षो पर शंका जता रहे हैं. दरअसल, हमारे देश में सर्वे के लिए अभी बहुत लोक-प्रशिक्षण नहीं हो पाया है. मतदाता इस लिहाज से उतने जागरूक नहीं हैं. वैसे भी हमारे देश में गुप्त मतदान की व्यवस्था है और इसके तहत सर्वे की थीसिस को ही खारिज किया जाता रहा है. खिचड़ी तो पक नहीं रही है कि एक चावल को देख कर पूरी हांडी का पता चल जाये. अगर सर्वे के जरिये यह पता लगाने की कोशिश होती कि मतदाताओं के समक्ष इस चुनाव में कौन से प्रमुख मुद्दे हैं, वे इस चुनाव में किस मुद्दे को प्राथमिकता देंगे, तो सही सूचना निकल कर आती. आमतौर पर ऐसा नहीं किया जाता है. जहां तक राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रभाव का सवाल है, विधानसभा चुनावों पर इसके असर को बहुत ज्यादा करके नहीं आंका जा सकता. राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के कामकाज का मूल्यांकन नहीं होगा. हालांकि, मंहगाई केंद्र सरकार की नीतियों की देन है, इसलिए यह संभव है कि यह चुनाव में प्रमुख मुद्दा बने. इसका प्रभाव अगली सरकार पर पड़ सकता है. इस चुनाव में न तो मोदी फैक्टर काम करता हुआ दिखेगा और न ही राहुल फैक्टर. मोदी की सभाएं जरूर बड़ी होंगी, भीड़ भी जुटेगी, लेकिन इससे विधानसभा चुनाव में भाजपा को कितनी ताकत मिलेगी, यह संशय का विषय है. राज्यों के विधानसभा चुनाव मुख्य तौर पर स्थानीय मुद्दों और नेतृत्व से ही प्रभावित होते रहे हैं, और इस बार इससे अलग कुछ होगा, मुङो ऐसा नहीं लगता.

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

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News Today: 6 साल...2000 करोड़ स्वाहा... कुपोषण जस का तस

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6 साल...2000 करोड़ स्वाहा... कुपोषण जस का तस

मप्र में 68,000 से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित भोपाल। प्रदेश में कुपोषण दूर करने के लिए मप्र सरकार ने 6 साल में 2000 करोड़ रूपए खर्च कर दिए हैं,लेकिन कुपोषण जस का तस है। हालात यह है कि सरकार कुपोषण दूर करने का जितना प्रयास कर रही है कुपोषण उतना ही फैल रहा है। वर्तमान में प्रदेश में कम वजन वाले बच्चों की तादाद दोगुनी हो गई है। वहीं 68 हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित हो गए हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछले कुछ समय से राज्य भर में जन आशीर्वाद यात्रा जैसे अभियानों के जरिए अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में लगे हैं। लेकिन दूसरी ओर उनकी सरकार को खुद यह स्वीकार करना पड़ा है कि राज्य में हजारों बच्चे कुपोषण और दूसरी वैसी बीमारियों की जद में आकर जान गंवा रहे हैं, जिनसे उन्हें आसानी से बचाया जा सकता है। ये चौंकाने वाले आंकड़े वर्ष 2007 से 2013 तक केंद्र और राज्य एकीकृत बाल विकास परियोजना के पूरक पोषण आहार कार्यक्रम की हकीकत बयां करते हैं। कार्यक्रम के छह साल के आंकड़ों की पड़ताल में सामने आया कि प्रदेश में 15 लाख बच्चे कुपोषित हैं। करीब सवा लाख मासूम मौत के मुहाने पर हैं। ताजा स्थिति ने प्रदेश के माथे पर लगा कुपोषण का कलंक और गहरा दिया है। जमीनी हकीकत बताती है कि कुपोषण इसलिए बढ़ा, क्योंकि यहां पोषण आहार बनाने से लेकर बांटने तक की पूरी प्रक्रिया भ्रष्ट तंत्र और माफिया के कब्जे में है। सालाना 400 करोड़ होता है खर्च केंद्र और राज्य एकीकृत बाल विकास परियोजना के पूरक पोषण आहार कार्यक्रम में 6 माह से 3 साल के बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए सालाना लगभग 400 करोड़ रूपए खर्च किया जाता है, लेकिन वजनदार कोई दूसरा हो रहा है। प्रदेश में अभी 1.19 लाख बच्चे अति कुपोषित हैं। वर्ष 2007 में 6.79 लाख वजन किया गया था। इनमें से करीब 50 हजार बच्चे अति कुपोषित मिले थे। जबकि 2013 में 6.98 लाख बच्चों का वजन किया गया। इनमें अति कुपोषित 1.19 लाख मिले। यानी 68 हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित निकले। श्योपुर में बीते साल अगस्त-सितम्बर में 23 मासूमों ने कुपोषण से दम तोडा था। घटना से आहत एशियाई मानवाधिकार आयोग ने आपत्ति जताते हुए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कड़ा पत्र लिखा था। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने दौरा भी किया था, लेकिन नौनिहालों की सेहत के लिए सरकार प्रभावी कदम नहीं उठा पाई। व्यवस्था पर ठेकेदार हावी सरकार के उपक्रम एमपी स्टेट एग्रो के पास पोषण आहार की जिम्मेदारी थी। इसके बाद वर्ष 2005-06 में एग्रो कॉर्पोरेशन ने संयुक्त उपक्रम से दो कंपनियों (ठेकेदार) को ठेका दे दिया, जो आहार सप्लाई करती हैं। यह उस प्रदेश की हालत है, जहां कुपोषित बच्चों के संरक्षण के लिए केंद्रीय योजनाओं के अलावा, मध्यप्रदेश में भी बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य की दृष्टि से 30 योजनाएं चल रही हैं। जिनका मकसद मां और बच्चे की जीवन-रक्षा के लिए उत्तम सेवाएं देना है। लेकिन ये दावे कितने कागजी हैं, इसकी तसदीक खुद स्वास्थ्य मंत्री ने कर दी है। गरीब के लाचार व मासूम नौनिहाल उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तकनीकी तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। एक साल में 21000 बच्चों की मौत जनवरी 2012 से 31 दिसंबर 2012 तक मरने वाले बच्चों की यह संख्या 21,418 है। इन मौतों में 6 साल से कम के 20,086 और 6 से 12 आयु वर्ग के 1332 बच्चे शामिल हैं। कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों से प्रदेश में औसतन 58 बच्चे रोजाना प्राण गंवा रहे हैं। कुपोषण की सहायक बीमारियों में निमोनिया, हैजा, बुखार, खसरा, तपेदिक,डायरिया, रक्तअल्पता और चेचक शामिल हैं। ये हालात पिछले पांच साल से बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। प्रदेश में सबसे बद्तर स्थिति सतना जिले में है। जबकि यहां यूनिसेफ द्वारा चलाए जा रहे सीक न्यूबोर्न केयर यूनिट में ही 2010 में केवल चार माह के भीतर 117 नवजात शिशु मौत की गोद में समा गए थे। पिछले साल इस जिले में कुपोषण से 2001 बच्चों के मरने का सरकारी आंकड़ा आया है। जाहिर है, हालात सुधरने की बजाय विकराल हुए हैं। सतना के बाद दूसरे नंबर पर बैतूल जिला है, जहां इसी अवधि में 1071 बच्चे मरे। इसके बाद तीसरे नंबर पर छतरपुर जिला आता है, जहां 1012 बच्चों की मौतें हुईं। 60 फीसदी बच्चे कम वजन के मध्यप्रदेश, कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या में ही अव्वल नहीं है, औसत से कम वजन के बच्चे भी यहां सबसे ज्यादा हैं। यहां पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं। जबकि ऐसे बच्चों का राष्टीय औसत 425 फ़ीसदी है। प्रदेश के अनुसूचित जाति के बच्चों का तो और भी बुरा हाल है। ऐसे 71 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं, जबकि ऐसे बच्चों का राष्टीय औसत 545 प्रतिशत है। प्रदेश के शहरी इलाकों में ऐसे बच्चों की संख्या 513 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 627 प्रतिशत है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ की ओर से लोकसभा के इसी बजट-सत्र में पेश किए गए ये आंकड़े प्रदेश के नौनिहालों का हाल बयान करने के लिए काफी हैं। यह जमीनी हकीकत, राष्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तृतीय की रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों से सामने आई है। ये हालात तब हैं, जब प्रदेश में ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग के सहयोग से, उसी की मर्जी के मुताबिक करीब ढाई सौ पोषण पुनर्वास केंद्र चल रहे हैं। इसके अलावा नवजात शिशुओं को कुपोषण मुक्ति के लिहाज से प्रदेश के छह जिला चिकित्सालयों में यूनिसेफ की मदद से एसएनसीयू चलाए जा रहे हैं। जल्दी ही यह सुविधा प्रदेश के आो जिलों में विस्तार पाने जा रही है। गैर सरकारी संगठन भोजन का अधिकार अभियान और स्पंदन के सर्वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण के हालात दिन-प्रतिदिन खतरनाक होते जा रहे हैं। कुपोषित बच्चों की यादा संख्या उन जिलों में है, जो आदिवासी बहुल हैं और जो आसानी से शोषण का शिकार हो जाते हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव, बड़े बांध और वन्य-प्राणी अभयारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंश झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख की गिरफ्त में हैं। इस कारण इनकी आबादी घटने के भी आंकड़े 2011 की जनगणना में सामने आए हैं। सरकार अकसर हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से बहाना बनाती है कि ये मौतें कुपोषण से नहीं बल्कि खसरा, डायरिया अथवा तपेदिक से हुई हैं। लेकिन ये बेतुकी दलीलें हैं। कुपोषण और कुपोषणजन्य बीमारियां अल्पपोषण से ही शिशु-शरीर में उपजती हैं। यहां गौरतलब यह भी है कि राय में आज भी करीब 4225 आदिवासी बस्तियों में लोग समेकित बाल विकास योजना के लाभ से वंचित हैं। इस पर भी हैरानी यह है कि यादातर आदिवासी बस्तियों में मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य व आंगनबाड़ी पोषण-आहार केंद्र महीनों खुलते ही नहीं हैं। यही हाल प्राथमिक और मायमिक विद्यालयों में बांटे जाने वाले मयान्ह भोजन का है। इस पर भी विसंगति है कि स्वास्थ्य के मद में सरकार एक व्यक्ति पर साल भर के लिए महज 125 रुपए खर्च करती है। इन जिलों की हालत खराब जिला गंभीर बच्चे कम वजन वाले बच्चे भोपाल 21.0 55.80 प्रतिशत सतना 26.40 67.10 प्रतिशत बड़वानी 35.50 65.10 प्रतिशत उमरिया 25.60 66.60 प्रतिशत अलीराजपुर 29.50 60.80 प्रतिशत डिंडोरी 24.20 61.70 प्रतिशत मंत्री का अलग राग कुपोषण सामान्य बच्चों में 60 से घटकर 52, कुपोषित में 21 से 19.4 और अति कुपोषित बच्चों में 16.6 से घटकर 8.3 प्रतिशत हुआ है। मैं अभी प्रगति से असंतुष्ट हूं। लगातार प्रयास जारी हैं। पूरक पोषण आहार के वितरण की व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है। - रंजना बघेल, महिला एवं बाल विकास मंत्री

घोटालों की भेंट चढी 24 घंटे बिजली सप्लाई योजना

एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान कहते ​िफर रहे हैं कि प्रदेश में विगत 60 वर्षो में कांग्रेस जो विकास कार्य नही कर पायी उसे प्रदेश की भाजपा सरकार ने मात्र 8 वर्षो में कर दिखाया है। उनका दावा है कि कांग्रेस के शासनकाल में बिजली व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। आज 24 घंटे बिजली दी जा रही है। जबकि हकीकत यह है कि बिजली संकट झेल रहे मध्यप्रदेश में बिजली केवल राजनैतिक लाभ का मुद्दा है। भाजपा शासन की स्थापना ही बिजली संकट के कारण हुई थी, लेकिन 10 साल बीत गये राज्य में बिजली संकट कम नहीं हुआ है, बल्कि पहले से ज्यादा गंभीर हुआ है। एक ओर तो बिजली संकट है, तो दूसरी ओर बिजली संकट दूर करने के नाम पर बिजली खरीद और आपूर्ति में भारी घोटाले हो रहे हैं। भाजपा सरकार ने प्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बिजली खरीदी का किया है। 6 साल में 20 हजार करोड़ रुपए की बिजली खरीदी गई लेकिन यह कहां गई, कोई बताने वाला नहीं है। लैंको ने लगाया 83.63 करोड़ की चपत निजी बिजली कंपनी लैंको पावर ट्रेडिंग लिमिटेड गुडग़ांव ने प्रदेश की पावर ट्रेडिंग कंपनी को 83.63 करोड़ की चपत लगा दी। तीन साल पहले हुए गड़बड़झाले का खुलासा ऑडिट रिपोर्ट में हुआ है। ऑडिट आपत्ति के बाद पावर ट्रेडिंग कंपनी ने लैंको पावर की 5 करोड़ रूपए की सुरक्षा निधि जब्त की। इसके बाद कंपनी विद्युत नियामक आयोग में प्रकरण दायर किया। ये है मामला लैंको पावर ट्रेडिंग लिमिटेड ने मई 2010 में मध्यप्रदेश पावर ट्रेडिंग कंपनी से 100 मेगावाट बिजली खरीदने का करार किया। अनुबंध में ये शर्त थी कि यदि लैंको पावर बिजली खरीदने में असफल होती है तो वह पावर ट्रेडिंग कंपनी को क्षतिपूर्ति राशि अदा करेगी। लैंको पावर ने जुलाई 2010 से मार्च 2011 तक बिजली नहीं खरीदी। इसके एवज में मध्यप्रदेश पावर ट्रेडिंग कंपनी ने 83.63 करोड़ रूपए की क्षतिपूर्ति की मांग की, लेकिन लैंको पावर ने क्षतिपूर्ति देने से इनकार कर दिया। ऐसे हुई लापरवाही अनुबंध के अनुसार पावर ट्रेडिंग कंपनी को लैंको से एक माह की बिजली बिल के बराबर यानी 65.51 करोड़ रूपए की सुरक्षा निधि जमा करानी थी। मप्र पावर ट्रेडिंग कंपनी के अधिकारियों ने केवल 5 करोड़ रूपए बतौर सुरक्षा निधि जमा कराए। इसकी वजह से कंपनी क्षतिपूर्ति राशि वसूल नहीं कर पाई। पावर मैनेजमेंट कंपनी के कमर्शियल डायरेक्टर केसी बड़कुल कहते हैं कि लैंको पावर से क्षतिपूर्ति वसूली के लिए विद्युत नियामक आयोग में प्रकरण दायर किया गया है। वर्तमान में प्रकरण नियामक आयोग में विचाराधीन है। पहले ब्लैकलिस्टेड, फिर बिजली खरीदी लैंको पावर ने वर्ष 2007 में पावर ट्रेडिंग कार्पोरेशन के जरिए मध्यप्रदेश पावर ट्रेडिंग कंपनी को 2.19 रूपए प्रति यूनिट की दर से 300 मेगावाट बिजली देने का करार किया था। वर्ष 2009 में लैंको पावर ने बिजली देने से इनकार दिया। इस मामले में मध्यप्रदेश पावर ट्रेडिंग कंपनी अदालत में भी गई, लेकिन राहत नहीं मिली। इसके बाद राज्य शासन ने लैंको पावर को ब्लैकलिस्ट कर दिया। वर्ष 2012 में राज्य सरकार ने लैंको पावर को ब्लैकलिस्ट की सूची से बाहर करते हुए फिर से बिजली खरीदी करने का करार कर लिया। उल्लेखनीय है कि लैंको इन्फ्रा टेक लिमिटेड की सहायक कंपनी लैंको अमरकंटक पावर लिमिटेड (एलएपीएल) को समझौते के अनुसार बिजली की आपूर्ति न करने पर मध्य प्रदेश में ब्लैक लिस्ट किया गया था। मध्य प्रदेश पॉवर ट्रेडिंग कंपनी नें एलएपीएल से वर्ष 2006 में मध्य प्रदेश को 2.28 रुपये प्रति यूनिट पर 300 मेगावाट बिजली की बिक्री करने का पॉवर पर्चेज एग्रीमेंट किया था। लेकिन बाद में कंपनी ने इसको नकारते हुए केवल 150 मेगावाट बिजली ही सप्लाई करने पर सहमति जताई। जिसे राज्य सरकार ने अस्वीकार कर दिया। खरीद समझौते की अवधि समाप्त हो गई है। राज्य सरकार अवधि समाप्त होने के बाद 150 मेगावाट लेने को तैयार हो गई थी लेकिन कंपनी इतनी भी सप्लाई देने से मना कर दिया है।उसके बाद ही राज्य सरकार ने इस मामले पर विचार करने के लिए राधवजी की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया था। कमेटी ने सिफारिश की थी कि यदि कंपनी समझौते के अनुसार बिजली की आपूर्ति नहीं करती है तो कंपनी को ब्लैक लिस्ट कर दिया जाए और उसके बाद कंपनी को ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया था। कांग्रेस ने गिनाए भ्रष्टाचार नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का कहना है कि मध्यप्रदेश में भाजपा ने अपने इस कार्यकाल में प्रदेश की संपदा को जिस बेरहमी से लूटा है, उसकी ऐसी मिसाल पहले कभी भी देखने को नहीं मिली। जिन क्षेत्रों में और जिन कार्यों में भाजपा के सत्ताधारियों ने घोटाले करते हुए प्रदेश को चूना लगाया है, उनमें से कुछ की बानगी देखते ही बनती है। इन घोटालों में सत्ता प्रमुख भी किसी मंत्री, अफसर या कार्यकर्ता से पीछे नहीं रहे। घोटालों की सूची पर एक नजऱ :- 1. डम्पर घोटाला, 2. सिंहस्थ घोटाला 3. पेंशन घोटाला, 4. भूमि घोटाला, 5. भाजपा पार्षदों का घोटाला, 6. दवा खरीदी घोटाला, 7. डी-मेट घोटाला, 8. नर्सिंग घोटाला, 9. स्वास्थ्य विभाग में घोटाला, 10. पोषण आहार घोटाला, 11. रिलायंस फ्रेश को मुख्यमंत्री ने मंजूरी क्यों दी। 12. सर्वशिक्षा अभियान घोटाला, 13.इंदौर नगर निगम घोटाला, 14. नगर सुधार न्यास रतलाम घोटाला, 15, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला भाजपा सरकार का काला कानून, 16.लोकायुक्त को कमजोर करने की साजिश, 17. भ्रष्टाचार के सवालों का जवाब नहीं, 18. विदेश यात्रा घोटाला, 19. भ्रष्टाचार को संरक्षण का एफीडेविट घोटाला, 20.ब्लड बैंक घोटाला, 21. आते-जाते पकड़ाये रुपये 22.बाढ़ राहत घोटाला, 23.चंदा न देने पर ट्रांसफर, 24.भाजपा नेताओं के अधिकारियों के फोन, 25. बिजली खरीदा और वितरण में घोटाला, 26. माइनिंग घोटाला, 27. रोजगार गारन्टी योजना में घोटाला, 28, यूनिफार्म घोटाला, 29, गाय बैल खरीदी घोटाला, 30, भर्ती घोटाला, 31, हरियाली और तालाब घोटाला, 32, पुस्तक खरीदी घोटाला,33, ऋण वितरण घोटाला, 34,मधयान्ह भोजन घोटाला, 35,प्रधानमंत्री सड़क घोटाला, 36.सिंचाई घोटाला, 37.तबादलों में घोटाला, 38.इन्श्योरेन्स घोटाला, 39, सड़क निर्माण में घोटाला, 40,चंदा घोटाला,41, सार्वजनिक वितरण प्रणाली घोटाला, 42,परिवहन घोटाला, 43,आंगनबाड़ी भर्ती घोटाला, 44 पुरस्कार घोटाला, 45. बी.टी. कॉटन घोटाला, 46,यूरिया घोटाला, 47. ड्रिप स्प्रिकलर अनुदान घोटाला, 48. दूधा घोटाला, 49,श्रेय घोटाला, 50. पदोन्नति घोटाला, 51.परीक्षा घोटाला, 52.मंदिर में घोटाला, 53.रेत घोटाला, 54.गौ-शाला अनुदान घोटाला, 55,टेक्स घोटाला, 56.तकनीकी घोटाला, 57. वृक्षारोपण घोटाला, 58. नर्मदा घाटी में घोटाला, 59, माईनिंग घोटाला, 60. शस्त्र घोटाला, 61. यौनशिक्षा घोटाला, 62.पुरानी विधानसभा परिसर जमीन घोटाला, 62, तौल कांटा घोटाला, 64, मंदिर कमाली ट्रस्ट घोटाला, 65. कम्प्यूटर खरीदी घोटाला, 66. विज्ञापन घोटाला, 67. सड़क घोटाला, 68, कम्प्यूटर खरीदी घोटाला, 66. विज्ञापन घोटाला, 67. सड़क घोटाला, 68, टोल टेक्स घोटाला, 69, स्वास्थ्य विभाग में भर्ती नियुक्ति घोटाला, 70. यंत्र खरीदी घोटाला, 71.अभियोजन की स्वीकृति नहीं दिये जाने का घोटाला, 72.नलकूप खनन घोटाला, 73.बच्चों की खरीदी बिक्री में घोटाला,74. एनकाउन्टर घोटाला, 75. आदिवासी क्षेत्रों में क्ल्स्टर योजना घोटाला, 76.साईकिल घोटाला, 77. तकिया, गद्दा घोटाला, 78. फर्नीचर घोटाला, 79, पत्रकारों के नाम पर अफसरों द्वारा सत्कार एवं टैक्सी घोटाला।

रातापानी अभयारण्य से बेदखल होंगे नौ गांवों के लोग!

बाघों को संरक्षण देने वन विभाग ने उठाए कदम भोपाल। लगातार हो रही बाघों की मौत के बाद सरकार चेती है। आगे बाघों का शिकार न हो इसके लिए अभयारण्यों में मौजुद गांवों को बाहर किया जा रहा है। रायसेन जिले के रातापानी अभयारण्य में बसे गांवों को खाली कराने के लिए केंद्र सरकार ने नई योजना बनाई है। योजना के मुताबिक अभयारण्य क्षेत्र मेे बसे 32 गांवों में से नौ गांवों के निवासियों को प्रति यूनिट 10 लाख रूपए दिए जाएंगे। एक व्यक्ति को एक यूनिट मानकर राशि का वितरण किया जाएगा। इसमें पति, पत्नी को एक यूनिट माना जाएगा। तथा बालिग व्यक्ति को ही यूनिट माना जाएगा। योजना के तहत कलेक्टर के मार्गदर्शन में सारी कार्रवाई की जाएगी। रातापानी अभयारण्य के अधिकारियों ने 32 में से नौ गांव जो अभयारण्य में अंदर की ओर बसे हैं, उन्हे ही खाली कराने का प्रस्ताव केद्र सरकार को भेजा था। योजना में राशि देने के अलावा एक और प्रस्ताव दिया जा रहा है, जिसमें ग्रामीणों को दस लाख रूपए की जगह उसी कीमत में मकान और जमीन भी देने की योजना है। ग्रामीण जिस प्रस्ताव पर राजी होंगे, उसे अपनाया जाएगा। इसमें भी खास बात यह है कि गांव खाली तभी कराए जाएंगे, जब एक गांव के सभी लोग राजी हों। इसमे किसी तरह की जोर जबरदस्ती नहीं की जाएगी। टाइगर प्रोजेक्ट घोषित कराने की प्रक्रिया शुरू वर्ष 1972 में रातापानी अभयारण्य बनाया गया था। इससे पहले से ये गांव वहां बसे हैं। यहां ग्रामीणों के कच्चे-पक्के मकानों के साथ खेतिहर जमीन भी हैं, जिन पर खेती कर वह गुजर-बसर करते हैं। वन विभाग ने अभयारण्य को टाइगर प्रोजेक्ट घोषित कराने की प्रक्रिया भी शुरू की है। प्रदेश सरकार का यह प्रस्ताव केद्र सरकार के पास लंबित है। इसी सिलसिले में गांवों को खाली कराने की प्रक्रिया शुरू की जा रही है। केद्र सरकार के प्रस्ताव को वन विभाग के अधिकारी-कर्मचारी ग्रामीणों के बीच ले जा रहे हैं। इस तरह तय होगी राशि केंद्र सरकार ने योजना में प्रति यूनिट दस लाख रूपए देना तय किया है। इसमे हर बालिग महिला या पुरूष को एक यूनिट माना जाएगा। पति-पत्नी को अलग-अलग यूनिट न मानकर एक यूनिट माना जाएगा। इस तरह परिवार की यूनिट तय कर उसे प्रति यूनिट दस लाख रूपए दिए जाएंगे। यदि परिवार रूपए नहीं लेकर मकान और जमीन चाहेगा तो उसकी यूनिट के मान से बनी राशि की कीमत में ही उसे मकान और जमीन दी जाएगी। ग्राम सभा सेे लेंगे प्रस्ताव वन अधिकारी अभी ग्रामीणों को योजना की जानकारी दे रहे हैं। उन्हे नफा-नुकसान सहित केद्र की इस योजना को समझाया जा रहा है। यदि ग्रामीण राजी होते हैं तो फिर उन्हें पंचायत की ग्राम सभा में इसका सहमति प्रस्ताव तैयार करना होगा, जो कलेक्टर को सौंपा जाएगा। इसके बाद ग्रामीणों को राशि का वितरण या दूयरी योजना के अनुसार जमीन और मकान के इंतजाम किए जाएंगे। ये गांव शामिल प्रस्ताव में वन विभाग ने रातापानी अभयारण्य में बसे कुल 32 गांवों में से नौ गांव झिरी, बहेड़ा, जावरा, मलखार, मथार, दांतखोह, नीलगढ़, धुंधवानी, कड़ी चौका को खाली कराने की योजना बनाई है। ये गांव अभयारण्य मे बहुत अंदर बसे हैं। हजारों ग्रामीण होंगे प्रभावित अभयारण्य में बसे गांवों को खाली कराने की चर्चा सालों से चल रही है। अभी तक नीति और गांवों की संख्या स्पष्ट नहीं हुई थी, जिससे ग्रामीणों में हमेशा यह डर रहता था कि न जाने कब वन विभाग उन्हें गांव छोडऩे का आदेश थमा दें। प्रस्ताव के बाद राशि केद्र शासन की नई नीति के तहत तय नौ गांवों को खाली कराने की तैयारी है। पहले ग्रामीणों को योजना समझाई जा रही है। उनके तैयार होने के बाद ग्राम सभा के प्रस्ताव के बाद राशि का वितरण किया जाएगा। राघवेंद्र सिंह, अधीक्षक रातापानी अभ्यारण्य बाक्स सेटेलाइट से होगी बाघों की निगरानी विभाग ने भोपाल जिले में सेटेलाइट से बाघों की निगरानी की योजना बनाई है। प्रस्ताव को बाद्य संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के मंजूरी की देरी भर है। ऐसा होता है तो मप्र देश का दूसरा राज्य होगा, जो इसका उपयोग करेगा। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में सेटेलाइट से वन्य प्राणियों की निगरानी की जा रही है। प्रथम चरण में भोपाल जिले के वन क्षेत्र में सेटेलाइट स्थापित किए जाएंगे। सफलता मिलने पर प्रदेश के अन्य वन क्षेत्रों में इसे लागू किया जाएगा। भोपाल जिले में 24 घंटे निगरानी के लिए वन विभाग सेटेलाइट इलेक्ट्रॉनिक आईÓ की मदद लेगा। राजधानी से सटे जंगल कलियासोत से लेकर रातापानी अभयारण्य तक पांच अलग-अलग स्थानों को चिन्हित किया है। इन स्थानों पर टॉवर लगाए जाएंगे। सेटेलाइट से निगरानी के लिए भोपाल फॉरेस्ट सर्किल ने प्रस्ताव बना एनटीसीए को भेजा है। विभाग ने इसे जल्द मंजूरी मिलने की उम्मीद जताई है। पांच कैमरों से नजर राजधानी में इस पूरे प्रोजेक्ट पर 3.50 करोड़ रुपए खर्च होंगे। भोपाल वन वृत्त के सीसीएफ एसएस राजपूत ने बताया, इलेक्ट्रॉनिक आई एक प्रकार का सर्विलांस वाइल्ड लाइफ ट्रैकिंग सिस्टम है। इसमें एक कैमरा होता है, जो सेटेलाइट व इंटरनेट से जुड़कर सीधे बाघ पर नजर रखेगा। राजपूत ने बताया असंरक्षित वन क्षेत्र के लिए पहली बार इस तरह का प्रस्ताव बनाया गया है। रातापानी अभ्यारण में बाघों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यहां बल कम है, इस लिहजा से सिस्टम लगाने की योजना है।

10 साल में 200000 लाख करोड का अवैध खनन

भोपाल। शिवराज के राज में माइनिंग माफिया ने बेल्लारी की लूट के रिकॉर्ड भी तोड़ दिए हैं। बीते 10 साल में मध्य प्रदेश में करीब 2 लाख करोड रूपए की कीमत का अवैध उत्खनन किया गया है। अकेले ग्वालियर और मुरैना में 25 हज़ार करोड़ रुपए की पत्थर और रेत की अवैध खुदाई का रिकॉर्ड सामने आया है। ग्वालियर के तत्कालीन मुख्य वन संरक्षक ने अपनी चिटठी में इसका खुलाशा किया है। दरअसल मध्य प्रदेश में अवैध खनन माफिया ने लूट के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और इसमें वो अफसर भी शामिल हैं, जिन पर इसे रोकने की जिम्मेदारी है। इसका खुलासा खुद एक आईएएस ने किया है। जिसे जुबान खोलने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। मुख्य वन संरक्षक आजाद सिंह डबास ने सरकार को माफिया-अफसर गठजोड़ से आगाह किया। लेकिन सरकार ने इस पर कार्रवाई तो दूर, खुद डबास को ही निलंबित कर दिया। ग्वालियर वनमंडल में बीते 10 सालों में लगभग 10 करोड़ घनमीटर पत्थर का अवैध खनन हुआ है। कुल 15 हज़ार करोड़ रुपए के पत्थर का अवैध खनन हुआ। ज्यादातर उत्खनन ष्ठस्नह्र दिलीप कुमार के समय में हुआ है। मुरैना वनमंडल में बीते 5 साल में ही करीब 10 हजार करोड़ रुपए के पत्थर और रेत का अवैध खनन हो चुका है। रेत माफिया पर 263 करोड़ का जुर्माना मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के राज में नदियों से जमकर रेत की अवैध खुदाई चल रही है। हालात यह है कि भिंड में कलेक्टर ने अवैध रेत खनन पर 263 करोड़ का जुर्माना किया है। इसके पहले शिवराज के गृह जिले सीहोर में एक कंपनी को 490 करोड़ की रेत अवैध तरीके से निकालने के लिए नोटिस दिया गया था। ये हाल तब है जब कुछ दिन पहले ही ग्रीन ट्रिब्यूनल ने नदी के किनारे बिना लाइसेंस रेत निकालने पर रोक लगा दी थी। जुर्माने की सजा झेलने वाले रवि मोहन नाम के शख्स का लाइसेंस 7 महीने पहले ही खत्म हो चुका था और बावजूद इसके उसका खनन का कारोबार चालू था। हैरानी की बात ये है कि खनन विभाग कलेक्टर की कार्रवाई पर पीठ ठोकने के बजाय सवाल उठा रहा है। भिंड के जिला दण्डाधिकारी सीबी चक्रवर्ती के मुताबिक जांच रिपोर्ट में रवि मोहन त्रिवेदी को नोटिस देने के बाद ज्यादा रेत पाई गई। इसलिए 263 करोड़ का नोटिस दिया गया है। जबकि माइनिंग कॉर्पोरेशन अध्यक्ष रामेश्वर शर्मा का कहना है कि अगर वास्तव में स्टोर करने वाला दोषी है तो उसपर जो जुर्माना है कलेक्टर ले। लेकिन अगर सिर्फ वाहवाही और सुर्खियां बटोरने का धंधा अगर अधिकारी कर रहे हैं तो इसके खिलाफ भी कार्रवाई की जाए। गौरतलब है कि ये कहानी महज भिंड तक सीमित नहीं है। जबलपुर, होशंगाबाद, सीहोर और देवास जिलों में भी रेत माफिया का राज है। सीहोर जिले में रेत निकालने वाली कंपनी शिवा कॉर्पोरेशन पर डेढ़ साल पहले नसरूल्लागंज के एसडीएम और खनिज अधिकारी ने शिवा कॉर्पोरेशन को अवैध रेत खनन के चलते 490 करोड़ रुपए का नोटिस दिया तो उनका तबादला कर दिया गया। साल भर पहले मुख्य वन संरक्षक आजाद सिंह डबास ने मुरैना में 25,000 करोड़ की पत्थर और रेत की अवैध खुदाई का खुलासा किया, लेकिन शिवराज सरकार ने उक्त अधिकारी को ही सस्पेंड कर दिया था। हालांकि केन्द्र सरकार ने निलंबन को गलत करार दिया था। इसी तरह प्रधान मुख्य वन संरक्षक रमेश के दवे ने सतना में उंचेहरा और नागौद इलाकों में करोड़ों के अवैध खनन की रिपोर्ट बीजेपी सरकार को दी लेकिन दो साल बीत जाने के बाद भी कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं की गई। वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बुदनी विधानसभा के नसरूल्लागंज में नर्मदा नदी के किनारे लाइसेंस ना होने के बावजूद यहां धड़ल्ले से रेत निकाली जा रही है। ये इलाका विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा भी है। लिहाजा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ-साथ सुषमा स्वराज भी विपक्ष के निशाने पर हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के मुताबिक सुषमा स्वराज को पता नहीं ये अवैध खनन का? बेल्लारी में रेड्डी ब्रदर्स और यहां बुदनी में चौहान ब्रदर्स, खूब अवैध खनन कर रहे हैं। जबकि हाल ही में नोएडा में अवैध खनन को लेकर दायर याचिका पर फैसला देते हुए ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया था कि बिना लाइसेंस नदियों के किनारे खनन ना किया जाए और देशभर की सरकारों को ये सुनिश्चित करने के लिए कहा गया था। मगर मध्य प्रदेश में ये आदेश कब और कैसे लागू होगा प्रशासन फिलहाल इस पर कुछ कहने की हालत में नहीं है। 10 हजार करोड़ का घोटाला! मैग्नीज की खदान के दम पर करोड़ों कमाकर सत्ता के गलियारों में दखल बनाने वाले भाजपा नेता सुधीर शर्मा और उनके भाई ब्रजेंद्र शर्मा उर्फ चुन्नू शर्मा के खिलाफ एक मामला अब अदालत की दहलीज पर पहुंच गया है। कोर्ट को कांग्रेस नेता और फरियादी केके मिश्रा ने बताया कि "झाबुआ की कजली डोंगरी में मौजूद मैग्नीज की खदान में 10 हजार करोड़ रूपए का घोटाला हुआ है। यह घोटाला कर्नाटक के बेल्लारी के खनन घोटाले से भी बड़ा है। वहां मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने खदानें आवंटित की थी और यहां फर्जी दस्तावेज तैयार करके सरकार ने खदान आवंटित करवा दी। अब जब मामला सामने आ गया है तो पुलिस इसे दबाने में लगी है। यही वजह है कि कोर्ट की शरण में आना पड़ा।" मिश्रा ने कोर्ट को बताया, "गुजरात हाई कोर्ट ने इस खदान पर वर्ष 2003 में समापक तैनात कर दिया था और इसके बाद इस खदान को हथियाने के लिए शर्मा बंधुओं ने फर्जी और कूटरचित दस्तावेज तैयार किए। ये दस्तावेज वर्ष 2002 में बनाए गए।" विशेष न्यायाधीश डीएन मिश्र के सामने आए इस मामले में परिवाद के क्षेत्राधिकार पर भी सुनवाई हुई। फरियादी की ओर से एडवोकेट मनोहर दलाल ने कोर्ट को बताया कि खदान आवंटन को लेकर दस्तावेज इंदौर में तैयार किए गए। स्टांप की खरीदी भी इंदौर जिला कोर्ट से ही हुई है, लिहाजा, यह मामला इंदौर कोर्ट के न्याय क्षेत्र में आता है। कोर्ट ने पक्ष सुनकर फैसले के लिए 7 अगस्त की तारीख तय की है। मिडडे मील में 500 करोड़ का घोटाला बिहार में मिड डे मील खाने से 22 बच्चों की मौत के बाद मिड डे मील बांटने में लापरवाही, भ्रष्टाचार सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं बल्कि एमपी में हालात बदतर हैं। सुशासन का दम भरने वाले शिवराज सिंह चौहान के इस राज्य में मिड के मील के नाम पर 500 करोड़ रुपये बोगस कंपनियों को दे दिये गये। ये हाल तो तब है कि मध्य प्रदेश में लगभग 80 लाख बच्चे कुपोषित हैं। इनमें से 52 फीसदी ग्रामीण इलाकों से हैं। फर्जी कंपनी का सच मप्र एग्रो इंडस्ट्री डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन ने तीन संयुक्त वेंचर बनाए। कॉर्पोरेशन ने खाना बनाने और स्पलाई करने की जिम्मेदारी ली। कॉर्पोरेशन ने इन वेंचर में 11 फीसदी की हिस्सेदारी रखी। इसमें से एक वेंचर फर्जी दस्तावेज से बना था। सितंबर 2008 में राज्य कृषि उद्योग विकास निगम ने अखबार में एक टेंडर आंमत्रित किया था। इस टेंडर के मुताबिक निगम ने भोजन बनाने और सप्?लाई करने के लिए एक एससी, एसटी पाटर्नर की मांग की थी। इसमें इंदौर की एक कंपनी अनिल उद्योग को चुना गया लेकिन बाद में यह पता पड़ा कि कंपनी का मालिक तो राहुल जैन है। कंपनी के मालिक के पास फर्जी दस्तावेज एमपी एग्रो-न्यूट्रो फूड्स लिमिटेड कॉरपोरेट मंत्रालय में भी दर्ज थी, लेकिन जांच के बाद यह पता चला कि इस कंपनी का ऑफिस वहां से ऑपरेट होता है जहां अनिल इंडस्ट्री का ऑफिस है। कॉरपोरेट मंत्रालय से पाए गए दस्तावेजों से यह साफ होता है कि राहुल जैन की पहुंच मंत्रियों तक है तभी वह मिड डे मील भोजन की योजना में घालमेल करने में सफल हुआ है। नमक खरीद में करोड़ों घोटाला हुआ मध्यप्रदेश में नमक की खरीदी में करोड़ों रुपए के घोटाले का आरोप लगाते हुए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मप्र नागरिक आपूर्ति निगम की वर्तमान दोषपूर्ण नमक खरीदी प्रक्रिया को तत्काल निरस्त किए जाने की मांग की है। सिंह ने मुख्यमंत्री को लिखे एक पत्र में दावा किया कि पिछले वर्ष नागरिक आपूर्ति निगम द्वारा आईएसआई मार्का नमक की खरीदी 6700 रुपए प्रतिटन के आधार पर की गई थी, जबकि यह नमक गुजरात में 3300 प्रति टन के भाव से आसानी से उपलब्ध था। उन्होंने कहा कि इससे साबित होता है कि लगभग दुगने से भी अधिक दाम पर की गई, इस खरीदी में करोड़ों रुपए का भ्रष्टाचार हुआ है। सिंह ने आरोप लगाया कि अपनी चहेती कंपनियों को आदेश दिये जाने के लिए निगम द्वारा निविदा में जानबूझकर ऐसी शर्ते डाली जा रही हैं, जिससे खुले बाजार में कंपनियां भाग ही नहीं ले पाएं। उन्होंने कहा, ''सरकारी खरीदी प्रक्रिया की पहली और अनिवार्य शर्त यह होती है कि वह पूरी तरह पारदर्शी, निष्पक्ष और साफ सुथरी हो, जिससे कि कोई उस पर उंगली नहीं उठा सके। लेकिन जो प्रक्रिया नमक खरीदी के लिए अपनाई जा रही है उसमें एक नहीं दर्जनों उंगलियां एक साथ उठ रही हैं।ÓÓ सिंह ने मुख्यमंत्री से मप्र नागरिक आपूर्ति निगम की वर्तमान दोषपूर्ण खरीदी प्रक्रिया को तत्काल निरस्त करने और व्यवहारिक एवं औचित्यपूर्ण शर्ते शामिल करते हुए पुन: निविदा जारी करने की मांग करते हुए कहा कि इससे वास्तविक क्षमता वाली कंपनियां खुली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सकें और प्रदेश भी सरकारी खजाने पर संभावित करोड़ों रुपए की हानि से बच सके।

2 साल में 1500 करोड़ की काली कमाई सरेंडर

भोपाल। मप्र में लगातार काली कमाई और टैक्स चोरों का आंकड़ा बढ़ रहा है। प्रदेश में वर्ष 2011-12 में आयकर छापे की कार्रवाई में काली कमाई सरेंडर का आंकड़ा 390 करोड़ रुपए था। यह वर्ष 2012-13 में 720 करोड़ पहुंच गया है। वहीं लोकायुक्त और इओडब्लयू ने दो वर्ष में करीब 400 करोड की अवैध कमाई का भंडाफोड किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय परिदृश्य में सार्वजनिक मंचों पर भाजपा भले अण्णा हजारे के सुर में सुर मिलाती नजर आए लेकिन उसके अपने राज्य मध्य प्रदेश में यह लाइलाज नासूर बन चुका है। पार्टी अपने मंत्रियों और पदाधिकारियों को तो लगातार सबक दे रही है कि वे कोटा-परमिट, मकान-दुकान, खदान से दूर रहें पर नौकरशाही की मुश्कें कसना राज्य सरकार के लिए भी बेहद मुश्किल भरा साबित हो रहा है। भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है। मध्य प्रदेश में आयकर, लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू ने पिछले दो सालों में करीब दो सौ से ज्यादा जगह छापे मारे और करीब 1500 करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। आयकर अन्वेषण महानिदेशक मप्र-छग अमरेंद्र कुमार तिवारी के अनुसार इस साल मप्र-छग में कुल 720 करोड़ रुपए छापे की कार्रवाई में सरेंडर हुए हैं। इस आंकड़े में और इजाफा भी हो सकता है। कई मामलों में अभी जांच जारी है। इस रकम में सबसे ज्यादा 320 करोड़ रुपए रियल एस्टेट के कारोबारियों से सरेंडर हुए हैं जिनमें इंदौर और भोपाल के कारोबारियों पर हुई कार्रवाई शामिल है। तिवारी ने बताया कि इस वित्तीय वर्ष में मप्र-छग के 16 ग्रुप पर विभाग ने छापे की कार्रवाई को अंजाम दिया था। जहां से 17 करोड़ की नकद रकम को सीज किया गया है वहीं 8.75 करोड़ के जेवरात भी बरामद किए गए हैं। इसके साथ विभाग ने कार्रवाई में 26 करोड़ की संपत्ति भी जब्त की है। इसके अलावा विभाग ने आयरन सेक्टर से 250 करोड़ और शराब कारोबार से 100 करोड़ सरेंडर कराया है। तिवारी ने बताया कि कुछ मामलों में अभी जांच चल रही है जिससे आने वाले दिनों में यह राशि का ग्राफ बढ़ सकता है। भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है। लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 203 रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहाँ छापामार कार्रवाई कर 103 करोड़़ की संपत्ति जब्त की है। इन सरकारी आंकड़ों से मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिसे लेकर विपक्ष ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर हमले तेज कर दिये हैं। सूबे में लोकायुक्त पुलिस और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने भ्रष्टाचार की शिकायतों के मद्देनजर पिछले दो साल में 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों पर छापे मारकर करीब 348 करोड़ रुपये की काली कमाई जब्त की। इन कारिंदों में चपरासी, क्लर्क, अकाउन्टेन्ट और पटवारी से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के बड़े अफसर शामिल हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इंदौर के क्षेत्र क्रमांक एक के भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता के विधानसभा में उठाये गये सवाल पर यह जानकारी दी थी। गुप्ता ने मुख्यमंत्री के हालिया जवाब के हवाले से बताया कि प्रदेश में पिछले दो साल के दौरान लोकायुक्त पुलिस ने 52 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापे मारे। वहीं ईओडब्ल्यू ने 15 अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापेमारी की। उन्होंने सरकारी आंकड़ों के आधार पर बताया कि दोनों जांच एजेंसियों के छापों में इन 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों से करीब 348 करोड़ रुपये की रकम जब्त की गयी। भाजपा विधायक गुप्ता ने पूछा कि प्रदेश सरकार भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे इन कारिंदों के खिलाफ क्या कार्रवाई कर रही है तो मुख्यमंत्री ने बताया कि शासन के निर्देश हैं कि लोकायुक्त संगठन और ईओडब्ल्यू के छापों के बाद संबंधित लोक सेवक को मैदानी तैनाती (फील्ड पोस्टिंग) से हटाकर कहीं और स्थानांतरित किया जाये या महत्वपूर्ण दायित्वों से मुक्त किया जाये। उधर, प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की मानें तो लोकायुक्त पुलिस और ईओडब्ल्यू की कार्रवाई से बड़े मगरमच्छ अब भी बचे हुए हैं। प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नरेंद्र सलूजा ने कहा, सूबे में क्लर्क और पटवारी जैसे अदने कर्मचारियों के ठिकानों पर इन जांच एजेंसियों के छापों में करोड़ों रुपये की मिल्कियत उजागर हो रही है। इससे बड़े नौकरशाहों और मंत्रियों की काली कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है।Ó उन्होंने दावा किया, 'वर्ष 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश की भाजपा सरकार के इशारे पर छोटे कर्मचारियों के ठिकानों पर लगातार छापेमारी की जा रही है, ताकि बड़े अधिकारियों में भय का माहौल बनाया जा सके और उनसे मोटा चुनावी चंदा वसूल किया जा सके। प्रदेश के लोकायुक्त पीपी नावलेकर कहते हैं कि लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 203 रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहाँ छापामार कार्रवाई कर 103 करोड़़ की संपत्ति जब्त की है। संगठन की नजरों में कोई भी बड़़ा या छोटा नहीं है। शिकायत मिलने पर सभी श्रेणी के अफसर व कर्मचारियों पर कार्रवाई की जा रही है। प्रदेश में कर्नाटक जैसे मामले सामने नहीं आए हैं। उन्होंने कहा कि छोटे स्तर के अधिकारियों पर कार्रवाई करने का मतलब यह नहीं है कि प्रथम श्रेणी के अफसरों पर कार्रवाई नहीं होती है। आम आदमी निचले स्तर के अफसर व कर्मचारी द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार से परेशान है। यही शिकायतें भी अधिक आती हैं। प्रारंभिक स्तर पर परीक्षण के बाद ही कार्रवाई की जाती है। मध्यप्रदेश गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। राज्य के नौकरशाह से लेकर पटवारी तक किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार की परिधि में आकर खड़े हो चुके है। पिछले दिनों उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के घर मिली करोड़ों की संपत्ति और अब मंदसौर के एक सब इंजीनियर के घर बरामद हुए करोड़ों रू. सरकार के इतिहास को बयान कर रहे है। लूट का यह सिलसिला वर्ष 1998 के बाद से बहुत तेजी से आगे बढ़ा है। सरकारी योजनाओं की सभी कमजोरियों का पहले लाभ उठाकर हर स्तर पर कमीशन खोरी का धंधा तेजी से जारी है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल दे तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यो के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नही रहेगी। आम आदमी पर प्रतिदिन लगने वाले टैक्स और सरकारी खजाने में प्रतिदिन पड़ रही डकैती का अनुपात कुछ ऐसा है कि विकास की गतिविधियां सिर्फ कागजों तक सीमित होकर रह गई है। प्रदेश में केंद्र और राज्य के बजट से अरबों की योजनों और कार्यक्रम चल रहे हैं, विश्वबैंक और डीएफआइडी पोषित योजनाओं ने भी सरकारी विभागों के खजाने भर रखे हैं। तीन सालों में आयकर विभाग उन सभी स्त्रोत और माध्यमों का खुलासा कर चुका है जहां ब्लैक से व्हाइट का खेल चलता है, लिहाजा अब उन स्त्रोतों और माध्यमों को छोड़कर किसी दूसरे तरीके से इसे ठिकाने लगाने के लिए मंथन में यह गठजोड़ जुटा है। यह गठजोड़ अब तक पैसा कमाने के नए-नए तरीकों को खोजने में व्यस्त रहता था लेकिन अब इसे बचाने की जुगत में जुटा हुआ है। आयकर विभाग की आंखों में धूल झोंकने के नए-नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं। करोड़पति चपरासी और क्लर्को के राज्य में आला अधिकारियों के हाल यह है कि उनके यहां छापा मारने पर पैसा गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियों ने पिछले तीन साल के दौरान करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। इन विभागों के छापों से यह बात सामने आई है कि सरकारी दफ्तरों का सारा अमला भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के पास नगदी और सोना रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की एक-एक कहानी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। राज्य सरकार के सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों के पास से करोड़ो रूपये की बरामदगी का सिलसिला जारी है। राज्य के प्रमुख सचिव से लेकर पटवारी तक सरकारी कर्मचारी इन दिनों करोड़पति बन चुके है। अनुमान के अनुसार पिछले दस वर्षो के दौरान मध्यप्रदेश में पचास हजार करोड़ से अधिक की हेराफेरी सरकारी खजाने में की गई है। मध्यप्रदेश को एक सुशासन देने का दावा करने वाली सरकार इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफल रही है। इंदौर में परिवहन विभाग के एक मामूली बाबू रमण धूलधोए के यहां छापा मारने पहुंची ईओडब्लू की टीम की आंखें तब फटी की फटी रह गईं, जब उसे करोड़ों की बेनामी संपत्ति मिली। इंदौर में परिवहन विभाग के एक मामूली बाबू रमण धूलधोए के यहां छापा मारने पहुंची ईओडब्लू की टीम की आंखें तब फटी की फटी रह गईं, जब उसे करोड़ों की बेनामी संपत्ति मिली। क्लर्क रमण धूलधोए के यहां से 75 करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर हुई। इसमें एक किलो सोने के जेवरात, पचास बीघा जमीन पर आलीशान फार्म हाउस समेत कई और मकान और लक्जरी गाडिय़ां शामिल हैं। 15 दिसंबर को मंदसौर के सब इंजीनियर शीतल प्रसाद पांडे के विकानों पर मारे गए लोकायुक्त के छापे में बारह करोड़ की काली कमाई सामने आई। उज्जैन नगर निगम का चपरासी नरेन्द्र देशमुख पंद्रह करोड़ रुपये का मालिक निकला। देशमुख भले ही चपरासी के पद पर कार्यरत हो, लेकिन उसने जमीन में करोड़ों रुपये निवेश कर रखे थे। वह जलगांव में एक होटल में बराबर का भागीदार भी पाया गया। इसके अलावा 12 नवंबर को हरदा के सब-रजिस्ट्रार माखनलाल पटेल के इंदौर के तीन ठिकानों पर मारे गए छापे में तीन करोड़ की काली कमाई का खुलासा हुआ। उज्जैन में परिवहन विभाग के एक इंस्पेक्टर सेवाराम खाडेगर के यहां दस करोड़ की संपत्ति का पाया जाना भी पुलिस टीम को चकरा देने वाला था। परिवहन ऐसा कमाऊ विभाग है जिसमें सिपाही तक की नियुक्ति मुख्यमंत्री सचिवालय की मंजूरी के बगैर नामुमकिन होती है। भ्रष्टाचार की यह कथा अंतहीन है। पिछली 31 दिसंबर को आयकर महकमें ने अनुपातहीन संपत्ति के मामले में कुछ आइएएस अफसरों और कॉलेज चलाने वाले शिक्षा संस्थानों को नौ सौ करोड़ रुपये टैक्स वसूली के नोटिस जारी किए हैं। लोकायुक्त में लंबित प्रकरण मुख्यमंत्री, राज्य के मंत्रीगण, विधायक सहित पटवारी स्तर तक के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को अपने गिरफ्त में ले रहे है। इसके बाद भी सरकार का दावा है कि भ्रष्टाचार से दूर स्वच्छ प्रशासन देने के उसके प्रयास कामयाब रहे है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन चोर अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल दे तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यो के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नही रहेगी। आम आदमी पर प्रतिदिन लगने वाले टैक्स और सरकारी खजाने में प्रतिदिन पड़ रही डकैती का अनुपात कुछ ऐसा है कि विकास की गतिविधियां सिर्फ कागजों तक सीमित होकर रह गई है। करोड़पति चपरासी और क्लर्को के राज्य में आला अधिकारियों के हाल यह है कि उनके यहां छापा मारने पर पैसा गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियों ने पिछले तीन साल के दौरान करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। इन विभागों के छापों से यह बात सामने आई है कि सरकारी दफ्तरों का सारा अमला भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के पास नगदी और सोना रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक मप्र-छग में पिछले एक साल में सौ कंपनियों के नाम सामने आए हैं जिन्होंने सात हजार करोड़ से अधिक रुपए को ब्लैक मनी से व्हाइट में बदल दिया है। ये कंपनियां बड़े ग्रुप की काली कमाई को कैश में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। विभागीय अधिकारियों का मानना है कि इनसे कई गुना अधिक मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। यदि किसी रियल इस्टेट ग्रुप को अपनी सौ करोड़ की काली कमाई बिना आयकर चुकाए वैध करनी है तो वे शहर में फायनेंस, इन्वेस्टमेंट,मार्केटिंग के नाम पर चल रहे ग्रुप ऑफ कंपनीज से संपर्क करते हैं। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर ड्रायवर,चौकीदार जैसे लोगों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। रियल इस्टेट ग्रुप से सौ करोड़ रुपए कैश में लेकर कई कागजी कंपनियों के माध्यम से उतनी कीमत के कई अकाउंट पेयी चैक रियल इस्टेट ग्रुप को दे दिए जाते है। यह चैक रियल इस्टेट ग्रुप खाते के माध्यम से कैश करा लेता है। बुक्स ऑफ अकाउंट में इसकी इंट्री लोन के रुप में दर्शायी जाती है जिससे उस पर आयकर की देनदारी नहीं होती। कमीशन के रूप में रियल इस्टेट को दो करोड़ रुपए कर्ताधर्ताओं को देने पड़ते है लेकिन उनके आयकर के तीस करोड़ रुपए बच जाते है। अग्रवाल कोल कॉपरेरेशन ने अपनी कमाई में शामिल हिंदुस्तान कॉन्टिनेंटल व ऑप्टीमेट टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज कंपनियों के शेयर केपिटल गेन से इनकम टैक्स में छूट मांगी। विभाग को शक होने पर दोनों कंपनियों को उनके दिए गए पते इंदौर, मंदसौर, मुंबई और जबलपुर में ढूंढा। न तो कंपनी मिली और न ही नोटिस की तामीली हुई। इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल ने आखिरकार यह माना कि दोनों की कंपनी बोगस है और कोल कॉरपोरेशन ने गलत ढंग से शेयर केपिटल गेन के माध्यम से खुद की ही काली कमाई को वैध करने का प्रयास किया है। 496 भ्रष्ट अधिकारियों पर लोकायुक्त कार्रवाई की तलवार मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की एक-एक कहानी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। राज्य सरकार के सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों के पास से करोड़ो रूपये की बरामदगी का सिलसिला जारी है। राज्य के प्रमुख सचिव से लेकर पटवारी तक सरकारी कर्मचारी इन दिनों करोड़पति बन चुके है। अनुमान के अनुसार पिछले दस वर्षो के दौरान मध्यप्रदेश में पचास हजार करोड़ से अधिक की हेराफेरी सरकारी खजाने में की गई है। मध्यप्रदेश को एक सुशासन देने का दावा करने वाली सरकार इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफल रही है।

मध्यप्रदेश मनरेगा में 2083 करोड़ का भ्रष्टाचार

भोपाल। केंद्र सरकार की महात्मा गांधी राष्टीय रोजगार योजना में खुलकर भ्रष्टाचार किया गया है। केवल कागजों पर कुओं,तालाब और स्टॉप डैम का निमार्ण हुआ है। प्रारंभिक आंकलन में मध्यप्रदेश में 2838 करोड़ का गोलमाल किया गया है। इतनी बडी रकम के भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बडे अधिकारियों तक की मिलीभगत है। कागजों पर ही कुआ खुदा मध्यप्रदेश में शुरू हुई कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 2.5 लाख कुओं में से ज्यादातर कुएं खोदे ही नहीं गए। प्रस्तावित स्थलों का जब जांच के दौरान मुआयना किया गया तो वहां कागजों में कपिलधारा योजना के तहत कुओं का निर्माण पूर्ण बताया गया है। लेकिन जांच अधिकारी यह देखकर चौक गए कि कागजों में खुदे कुएं, खेत में थे ही नहीं। 53 लाख झूठे जॉबकार्ड यहां भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मनरेगा के तहत मध्य प्रदेश में 53 लाख झूठे जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इस बात की आशंका केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल पूर्व में ही जता चुके थे। मनरेगा के तहत बने झूठे जॉबकार्ड का हवाला देते हुए उन्होंने कहा था कि 53 लाख झूठे जॉबकार्ड बने हैं, मगर किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है। इससे नुकसान किसका और फायदा किसे हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है. करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं भेजा गया मनरेगा योजना में भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है। केंद सरकार द्वारा 2006 में लागू की गई इस योजना में मप्र में शुरू से ही भ्रष्टाचार के मामले सामने आते रहे हैं। ताजा मामला सीएजी की संस्था महालेखाकार (एजी) की रिपोर्ट से हुए खुलासे का है, जिसमें एजी कार्यालय ने प्रदेश में करोड़ों के भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक व्यय में मनमानी सहित केंद्र से मांगी गई राशि को खर्च नहीं कर पाने का खुलासा किया है। साथ ही उपयोगिता प्रमाण पत्र के नाम पर भी किए गए भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को नहीं भेजी गई, वहीं कुछ मामलों में वास्तविक खर्च से अधिक राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र भेजी गई है। यह खुलासा आरटीआई के तहत प्राप्त एजी रिपोर्ट के बाद हुआ है। यह रिपोर्ट वर्ष 2011 -2012 की है। इस निरीक्षण प्रतिवेदन को तैयार कर ग्वालियर कार्यालय ने फरवरी 2013 में उचित कार्रवाई के लिए मप्र मनरेगा परिषद को भेजा था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। रिपोर्ट की मानें तो मप्र में मनरेगा की स्थिति काफी बदहाल है। यही नहीं इसको लेकर प्रदेश सरकार और निगरानी के लिए कार्यरत मनरेगा परिषद की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े हुए हैं। रिपोर्ट में सामने आए भ्रष्टाचार के नमूने -रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा परिषद ने योजना की उचित मॉनिटरिंग नहीं की, जिस कारण मजदूरों को योजना का लाभ नहीं मिला। 8 जिलों में मजदूरी और सामग्री के लिए निर्धारित अनुपात में व्यय का पालन न करते हुए सामग्री पर 40 प्रतिशत से ज्यादा राशि 16263.27 लाख रुपए खर्च की गई। -मनरेगा परिषद ने उचित बजट प्रस्ताव न बनाते हुए केंद्र सरकार से करोड़ों की राशि की और उसे खर्च ही नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार परिषद् द्वारा बनाया गया बजट तथ्यों पर आधारित न होकर अवास्तविक और आधारहीन रूप से तैयार किया गया था। इसके कारण वर्ष 2011-12 के अंत तक करीब 191492.51 लाख रुपए की राशि शेष रही। -मनरेगा योजना के तहत मजदूरी का भुगतान बेहद विलंब 90 दिनों के बाद 7 लाख 37 हजार 688 मजदूरों को रुपए 85887.91 लाख रुपए किया गया। -मनरेगा परिषद ने शासकीय और अशासकीय संस्थाओं को विशेष प्रयोजनों के लिए 64.37 लाख रुपए की जो राशि अग्रिम दी थी, उसका समायोजन नहीं किया। परिषद ने इन संस्थाओं से उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं लिया। -वर्ष 2011-12 में 30 जिलों ने प्रशासनिक व्यय 6 प्रतिशत से अधिक किया, जो की करीब 3850.21 लाख रुपए ज्यादा खर्च किया। रिपोर्ट के अनुसार इस कारण योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका। -मनरेगा परिषद ने वर्ष 2011-12 का वास्तविक उपयोग से अधिक राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र सरकार को जारी कर दिया। यह राशि 11903.89 लाख रुपए थी। -ग्रामीण विकास मंत्री और मनरेगा आयुक्त के गृह जिलों में बुंदेलखंड पैकेज की राशि का सदुपयोग नहीं हुआ। अनावश्यक सरकारी धन को अवरुद्ध रखा गया, जिससे गरीब हितग्राहियों का पलायन नहीं रुका। इससे अन्य जिलों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 5 साल से नहीं हुई गवर्निंग बॉडी की बैठक प्रदेश में मनरेगा परिषद की गवर्निंग बॉडी की बैठक पिछले पांच सालों से नहीं हुई। बॉडी के अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री हैं, जबकि प्रदेश के मुख्य सचिव परिषद् की कार्यकारणी सभा के प्रमुख हैं और उन्होंने कभी भी उपरोक्त अनियमितताओं पर रोक नहीं लगाई। 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं प्रदेश में अब ताजा मामला मजदूरों को समय पर मजदूरी नहीं देने का है। इसमें 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर मजदूरी देने की बात सामने आई है। ये आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर जिलों मे मजदूरों को भुगतान बहुत ही कम हो रहा है। आलम यह है कि भिंड में तो मात्र 1 प्रतिशत ही मजदूरी का भुगतान हुआ है। विभाग की लापरवाही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण मनरेगा के समस्त कार्य ठप हैं। इसका कारण सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2013 से मनरेगा योजना के तहत सभी भुगतान के लिए इलेक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) लागू किया था।यह व्यवस्था बहुत अच्छे उद्देश्य के तहत पारदर्शिता के लिए लायी गई है, लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों के षडय़ंत्र के कारण इस योजना को लागू होने के फौरन बाद यह चौपट हो गई, जिससे प्रदेश के लाखों गरीब मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में कई मजदूरों के घरों में चूल्हें नहीं जल पा रहे हैं। फिर भी नहीं की कार्रवाई बताया जाता है कि मनरेगा के तहत ईएफएमएस से मजदूरी भुगतान का कार्य ठप होने की जानकारी विभागीय अमले की थी, लेकिन फिर भी विभाग द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई और सिस्टम की खामी को दूर करने का प्रयास नहीं किया गया। मंत्री बने मजदूर! मनरेगा ने गरीबों को फायदा पहुंचाया हो या नहीं, लेकिन भ्रष्टाचारियों की कमाई का रास्ता जरूर खोल दिया है। मध्यप्रदेश के रीवा में मनरेगा के मजदूरों की लिस्ट में कई राज्यों के मुख्यमंत्री और कई दिग्गज लोग शामिल हैं यानी मजदूरों के नाम और किसी की तस्वीर लगा कर दलालों ने करोड़ों का फर्जीवाड़ा किया। शायद आपको भरोसा ना हो, लेकिन रीवा में बने मनरेगा के स्मार्टकार्ड बता रहे हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी रीवा में मनरेगा के तहत मजदूरी कर रहे हैं। इतना ही नहीं पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह का भी यहां जॉब कार्ड है। राजनेता विद्याचरण शुक्ल और उद्धव ठाकरे के नाम से भी यहां मनरेगा मजदूर के लिए जॉब कार्ड बना है। मनरेगा के ये जॉब कार्ड होश उड़ाने वाले हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों का क्या, तस्वीर नेता की और नाम किसी मजदूर का। ये कारनाम एक जॉब कार्ड बनाने वाली एक निजी एजेंसी का है। इस घोटाले को लेकर संदेह के घेरे में फीनो नाम की एक निजी एजेंसी है। करोडों रुपए का फर्जीवाड़ा हो गया, लेकिन रीवा के जिस यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के जरिए इसका भुगतान हुआ, उसे कानों-कान इसकी खबर नहीं हुई। अब बैंक के अधिकारी इस मामले में सारा दोष फीनो एजेंसी पर डाल कर पल्ला झाड़ते नजर आए। अधिकारियों को कहना है कि उनके पास जॉब कार्ड मुंबई से बनकर आते हैं, उनका इसमें कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि बैंक अधिकारियों का ये तर्क गले से नीचे नहीं उतरता। लेकिन यह साफ है कि मनरेगा योजना पर पलीता लगाते हुए ग्रामीण विकास और फिनो के एजेंटो ने जमकर राशि डकारी है। अब जब यह महा घोटाला सामने आया है, तो प्रशासन ने भी चुप्पी साध ली है। सरकार को सीबीआई से जांच करानी चाहिए प्रदेश में मनरेगा की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहां पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार चल रहा है। सबसे गंभीर बात यह है कि मनरेगा परिषद जिस पर निगरानी और कार्रवाई का जिम्मा है, जब वह ही उदासीन है, तो मनरेगा में भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है। एजी की रिपोर्ट में बड़े खुलासे हुए हैं। अब सरकार को इसकी सीबीआई से जांच कराना चाहिए। -अजय दुबे, सदस्य, राज्य स्तरीय विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग समिति, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, मप्र शासन

नए मतदाताओं ने बिगाड़ा माननीयों का गणित

कम वोट से जीत वाले विधानसभा सीटों पर मिल सकती है कड़ी चुनौती भोपाल। विधानसभा चुनाव के लिए वोटरों की नई लिस्ट जारी होते ही माननीयों (विधायकों)के होश उड़ गए हैं। पिछले एक साल से मतदातों का हिसाब-किताब लगा रहे नेताओं का इस लिस्ट के आने से गणित गड़बड़ा गया है। नई वोटर लिस्ट आने के बाद पाक्षिक मालव समाचार ने इंदौर की विधानसभा सीटों का आंकलन किया,तो पाया कि जिन इलाकों में जीत का अंतर पांच हजार वोटों के आसपास रहा, वहां मौजूदा विधायक के लिए नए वोटर बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं। जहां जीत का फर्क बड़ा है, वहां भी राह आसान नहीं। प्रदेश भाजपा संगठन ने आसन्न विधानसभा चुनावों के लिए प्रत्याशी चयन और 'टिकटÓ के दावेदारों के नाम काटने की कवायद शुरू कर दी है. वोटर लिस्ट के अंतिम प्रकाशन के मुताबिक, जिले में 21.76 लाख वोटर हैं। यह संख्या 2008 विधानसभा चुनाव से 6.50 लाख अधिक है। बढ़ोतरी को क्षेत्र के हिसाब से देखें तो मौजूदा विधायक अश्विन जोशी, महेंद्र हार्डिया, जीतू जिराती और तुलसी सिलावट की राह मुश्किल दिखती है। वहीं सुदर्शन, रमेश मेंदोला, मालिनी गौड़, कैलाश विजयवर्गीय और सत्यनारायण के इलाकों में विपक्षी मेहनत कर चुनाव को रोमांचक बना सकते हैं। विधानसभावार यह है समीकरण इंदौर एक-------- विधायक : सुदर्शन गुप्ता, भाजपा 8183 जीत का अंतर (कांग्रेस के संजय शुक्ला को हराया) 6.86 प्रतिशत वोटों का अंतर 100133 वोट बढ़े वर्तमान हालात-इस विधानसभा क्षेत्र विधायक सुदर्शन गुप्ता से भाजपा की ही पूर्व विधायक उषा ठाकुर समर्थक अब हिसाब बराबर करने के मूड में है। उनका विधायक सुदर्शन गुप्ता के खिलाफ हल्लाबोल आयोजन जारी है। पहले आपसी बैठक, फिर क्षेत्र के नेताओं के साथ बातचीत के बाद मामला पार्टी कार्यालय भी पहुंच गया। विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-1 में पार्टी विधायक सुदर्शन गुप्ता के अलावा पूर्व विधायक उषा ठाकुर और महापौर परिषद सदस्य सपना निरंजन चौहान टिकट के दावेदारों की दौड़ में हैं। उमाशशि शर्मा और सत्यनारायण सत्तन के समर्थक भी सक्रिय हैं। इंदौर दो विधायक : रमेश मेंदोला, भाजपा 39937 जीत का अंतर (कांग्रेस के सुरेश सेठ को हराया) 33.47 प्रतिशत वोटों का अंतर 95318 वोट बढ़े वर्तमान हालात- भले ही विधानसभा चुनाव अभी दूर हों, लेकिन ऐसा लगता है दावेदारों ने अभी से मैदान पकडऩा शुरू कर दिया है। यहां के विधायक मेंदोला नजर क्षेत्र क्रमांक-3 पर लगी हुई है। यहां के सभी वार्डों में हर गली-मोहल्ले में अपने पक्के समर्थकों की सूची बनाकर उनके अनुसार कार्यक्रमों को अंजाम देना शुरू कर दिया है। इसकी भनक लगते ही तीन अन्य दावेदार ललित पोरवाल, गोपी नेमा, गोविंद मालू में हड़कंप मच गया है और वे भी अपने-अपने समर्थकों की सूची बनाने में लग गए हैं। ऐसी चर्चाएं सरगर्म हैं कि क्षेत्र क्रमांक-2 की सीट विधायक रमेश मेंदोला, मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र आकाश विजयवर्गीय के लिए खाली करने जा रहे हैं और 3 नंबर से इस बार वे हाथ आजमाने की इच्छा रखते हैं। इंदौर तीन विधायक : अश्विन जोशी, कांग्रेस 402 जीत का अंतर (भाजपा के गोपीकृष्ण नेमा को हराया) 0.42 प्रतिशत वोटों का अंतर 45791 वोट बढ़े वर्तमान हालात- पार्टी प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के खिलाफ दिल्ली में आवाज उठाकर जोशी ने संगठन गाइड लाइन का उल्लंघन किया है। लेकिन अभी तक यहां उनके खिलाफ कांग्रेस की तरफ से कोई नाम सामने नहीं आया है। इंदौर चार विधायक : मालिनी गौड़, भाजपा 28043 जीत का अंतर (कांग्रेस के गोविंद मंगानी को हराया) 27.28 प्रतिशत वोटों का अंतर 72179 वोट बढ़े वर्तमान हालात- मौजूदा जिला अध्यक्ष शंकर लालवानी क्षेत्र-4 से टिकट हासिल करने के लिए लंबे अर्से से जमावट कर रहे हैं। इस क्षेत्र के अलावा विकल्प के रूप में क्षेत्र-3 पर भी खास निगाह है। समर्थकों को लगता है कि दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद क्षेत्र-4 से टिकट नहीं मिलता है तो हारी हुई क्षेत्र-3 की सीट से पार्टी उम्मीदवार जरूर बना सकती है। मधु वर्मा वर्मा क्षेत्र-4 के पुराने दावेदार रहे हैं। वहीं महापौर मोघे के समर्थकों की निगाह इस सीट पर भी बनी हुई है। इंदौर पांच विधायक : महेंद्र हार्डिया, भाजपा 5264 जीत का अंतर (कांग्रेस की शोभा ओझा को हराया) 4.16 प्रतिशत वोटों का अंतर 105943 वोट बढ़े वर्तमान हालात-विधायक व स्वास्थ्य राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया को उम्मीद है कि पार्टी उन्हें फिर से चुनाव लड़वाएगी। फिर भी यहां के लिए 26 लोगों की सूची बनी है। अंजू माखीजा और अजयसिंह नरूका की भी दावेदारी मानी जा रही है। राऊ विधायक : जीतू जिराती, भाजपा 3821 जीत का अंतर (कांग्रेस के जीतू पटवारी को हराया) 3.80 प्रतिशत वोटों का अंतर 83709 वोट बढ़े वर्तमान हालात-यहां से विधायक जीतू जिराती के अलावा मधु वर्मा, दिनेश मल्हार के नाम भी दावेदारों में शामिल हैं। यहां के लिए जो सूची बनी है, उसमें अन्य क्षेत्रों की तुलना में सबसे कम नेता-कार्यकर्ता शामिल किए गए हैं। देपालपुर विधायक : सत्यनारायण पटेल, कांग्रेस 9491 जीत का अंतर (भाजपा के मनोज पटेल को हराया) 7.62 प्रतिशत वोटों का अंतर 46543 वोट बढ़े वर्तमान हालात-देपालपुर से सत्यनारायण पटेल वर्तमान विधायक हैं। क्षेत्र में मजबूत पकड़ के कारण विधानसभा और कांग्रेस की ओर से लोकसभा के उम्मीदवार। विडम्बना है कि शहरी राजनीति से पराए हो चुके इस विधायक को देहाती मतदाता भी अपनाने से कतरा रहे है। उधर भाजपा के मनोज पटेल ने भी इनके खिलाफ अपनी तैयार पूरी कर ली है। महू विधायक : कैलाश विजयवर्गीय, भाजपा 9791 जीत का अंतर (कांग्रेस के अंतरसिंह दरबार को हराया) 7.51 प्रतिशत वोटों का अंतर 54368 वोट बढ़े वर्तमान हालात-महू विधानसभा को लेकर केवल औपचारिकता निभाई जाएगी, क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के नाम का ऐलान कर चुके हैं। उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का कहना है कि वे इस बार महू क्षेत्र से ही चुनाव लड़ेंगे लेकिन अगर पार्टी कहीं और से लडऩे के लिए निर्देश देती है तो मैं वहां से भी चुनाव लड़ूंगा और जीत कर ही आऊंगा। सांवेर विधायक : तुलसी सिलावट, कांग्रेस 3417 जीत का अंतर (भाजपा की निशा सोनकर को हराया) 2.84 प्रतिशत वोटों का अंतर 46843 वोट बढ़े वर्तमान हालात-सांवेर से तुलसी सिलावट वर्तमान विधायक हैं और बेहतर छवि व ज्योतिरादित्य सिंधिया की भक्ति में लीन हैं, लेकिन अजीत बोरासी (प्रेमचंद गुड्डू पुत्र) ने वहां से दावेदारी प्रस्तुत कर एक नया पेंच फंसा दिया है, क्योंकि गुड्डू भी सिलावट के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं।

1 रूपए में दे दी अरबों की जमीन!

10 साल में रसूखदारों को सरकार ने बांटी बेशकीमती जमीनें भोपाल। मध्यप्रदेश को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के नाम पर राज्य में पिछले 10 साल में जमीनों की जमकर बंदरबाट की गई है। सरकार ने अपनों के साथ-साथ उद्योगपतियों को प्रदेश की बेशकीमती जमीनों को कौडिय़ों के भाव बांट दिया है। यही नहीं प्रदेश के मंत्रियोंं, प्रभावशाली आईएएस अधिकारियों और सत्ता साकेत के रसूखदारों को उनकी निजी संस्था के लिए सरकार ने अरबों की जमीन एक रूपए में दे दी है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की रसूखदारों और उद्योगपतियों के प्रति प्रेम इस बात से भी झलकता है कि प्रदेश में बनने वाले बांधों से विस्थापित हुए लोग दो गज जमीन के लिए जल समाधि लेने को मजबुर हैं और सरकार उनकी सुध लेने की बजाय सरकारी जमीन चहेतों को बांट रही है। प्रदेश में जमीनों की बंदरबांट में नियम-कायदे और मर्यादाएं कैसे तार-तार किए गए, इसका नमूना है-भोपाल का महावीर इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एण्ड रिसर्च। कैबिनेट मंत्री जयंत मलैया, वरिष्ठ आईएएस अफसर देवेंद्र सिंघई, अनुराग जैन, आईपीएस आरके दिवाकर, पवन जैन और रसूखदार डॉक्टर राजेश कुमार जैन समेत कुछ अन्य द्वारा श्री दिगंबर जैन सर्वोदय विद्या ज्ञानपीठ नाम से गठित निजी समिति को 100 करोड़ रूपए से अधिक कीमत की 25 एकड़ जमीन कई अफसरों के विरोध के बावजूद महज एक रूपए में दे दी गई। निजी मेडिकल कॉलेज गठित करने के नाम पर रचे गए ताने-बाने में समाज का चोला ओढ़ा गया। जमीन हासिल करने व चंदे के लिए आचार्य विद्यासागर जी जैसे पूज्य संत तक के नाम का इस्तेमाल किया गया। भोपाल में राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विवि के नजदीक ग्राम बड़वई स्थित 373/1/1 खसरे की 25 एकड़ भूमि मिलने के बाद संत का नाम हटा दिया गया। सात साल में मेडिकल कॉलेज के नाम पर कुछ पिल्लर और एक अधूरा ढांचा ही खड़ा है, लेकिन सरकार इन रसूखदारों पर हाथ नहीं डाल रही। वार्ड तक नहीं बना तो क्यों नहीं छीन रहे भूमि वर्ष 2005 में भोपाल की श्री दिगंबर जैन सर्वोदय विद्या ज्ञानपीठ समिति को निजी मेडिकल कॉलेज बनाने के लिए सरकार ने 25 एकड़ जमीन देने की घोषणा की। उस वक्त इस समिति के उपाध्यक्ष पद पर वरिष्ठ आईएएस सिंघई और तत्कालीन डीजी जेल दिवाकर काबिज थे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के सचिव पद पर तैनात आईएएस अनुराग जैन और आईजी पवन जैन इसके सदस्य थे। सरकार ने पहले चरण में इस समिति को तीन एकड़ जमीन वर्ष 2006 में इस शर्त के साथ दी कि वह दो साल में पहले 300 बिस्तर का अस्पताल बनाकर व एक साल में इसे संचालित कर दिखाए, तब बाकी भूमि पर कब्जा मिलेेगा। शर्त थी कि इस अवधि में अस्पताल नहीं खुला तो सरकार यह जमीन वापस ले लेगी। लेकिन एक साल तो दूर की बात है, तीन वर्ष तक कुछ नहीं हुआ तो भी सरकार ने जमीन वापस नहीं ली। उलटे वर्ष 2009 में संस्था को फिर इसी शर्त के साथ छूट दी गई कि तीन साल में वह अस्पताल बना ले। यह अवधि भी बीत गई है। कुछ अफसरों के विरोध के बावजूद हर बार रियायत का नया प्रस्ताव सीधे कैबिनेट से मंजूर करा लिया जाता है। रिटायर्ड आईएएस अधिकारी डीएस राय व विधि विशेषज्ञों के मुताबिक कोई अफसर या मंत्री अपनी निजी संस्था के मसले पर अपने दस्तखत से प्रस्ताव आगे कैसे बढ़ा सकता है। यह हितों के टकराव (कान्फ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट) का मामला भी है। इस समिति को जमीन देने के लिए कैबिनेट प्रस्ताव देवेंद्र सिंघई के दस्तखत से तैयार हुआ। सिंघई तब प्रमुख सचिव (राजस्व) थे और समिति के उपाध्यक्ष भी। वर्ष 2010 में कैबिनेट मंत्री जयंत मलैया ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि इस निजी मेडिकल कॉलेज को जमीन बंधक रखकर कर्ज लेने की छूट दी जाए, इसके लिए कैबिनेट से प्रस्ताव पास कराया जाए। उस वक्त मलैया इस निजी समिति के अध्यक्ष हो गए थे। सरकार ने यह छूट भी उन्हें दे दी। समिति के सचिव डॉ. राजेश कुमार जैन कहते हैं कि आवंटन नियमों के अनुसार ही हुआ है, टीएनसीपी और अन्य विभागों की मंजूरी में देरी के कारण अस्पताल निर्माण नहीं हो सका। समिति उपाध्यक्ष देवेंद्र सिंघई कहते हैं कि संस्था में उपाध्यक्ष पद पर हूं, लेकिन अब ग्वालियर में पदस्थ हूं इसलिए जानकारी नहीं है। आर्थिक अनियमितताओं की जानकारी मुझे नहीं हैं, सचिव से बात करें। समिति के पूर्व सदस्य, पुुलिस महानिदेशक प्लानिंग, भोपाल पवन जैन कहते हैं कि मैं कुछ समय समिति सदस्य रहा, लेकिन वर्तमान में जुड़ा नहीं हूं। बाकी बातें सचिव ही बता सकते हैं। उद्योगपतियों को 71 हजार एकड़ जमीन बांटी यही नहीं प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार ने प्रदेश में उद्योगों को स्थापित करने के नाम पर 40 उद्योगपतियों को 71 हजार एकड़ से ज्यादा सरकारी जमीन बांटकर उपकृत कर चुकी है। यह जमीन औद्योगीकरण के साथ-साथ गैर वन पड़त भूमि के विकास के बहाने भी दी गई है। अद्योसंरचना विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हुए इस जमीन आवंटन से सरकार के खजाने में चंद रुपयों से ज्यादा कुछ जमा नहीं हो पाया है। लंबी अवधि की लीज पर सिर्फ एक रुपए के न्यूनतम लीजरेंट पर जमीनों का आवंटन भी हुआ है। यह जमीनें पिछले सालों के दौरान बांटी गर्इं हैं। पिछले तीन चार सालों में सबसे ज्यादा जमीनें आवंटित हुई हैं। प्रदेश में उद्योग लगाने के नाम पर बीते साल नवंबर तक देश भर के और कुछ विदेशों के 3096 निवेशकों ने सरकार के सामने जमीन आवंटित के आवेदन प्रस्तुत किए थे। इनमें निजी निवेश के लिए भूमि आवंटन के लिए 1594 आवेदन आए जिसमें से चुनिंदा 40 उद्योगतियों को 71 हजार 385.98 एकड़ (28889 हेक्टेयर) गैर वन पड़ भूमि आवंटित की है। दो हेक्टेयर की सीमा में कृषि परिवर्तनीय भूमि के आवंटन के लिए सरकार को 1502 आवेदन मिले, जिसमें से 22 आवंटितियों को 1667.95 एकड़ (675 हेक्टेयर) जमीन दी गई। प्रदेश में 4 लाख 74 हजार 78 हेक्टेयर गैर वन पड़त भूमि चिन्हित की गई है जिमसें से 92 हजार 465 भूमि परिवर्तनीय रूप में वर्गीकृत की गई है। राजस्व विभाग के अनुसार मध्यप्रदेश को स्वर्णिम बनाने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की परिकल्पना में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करने के लिए भूमि उपलब्ध कराना प्रमुख है। इस दृष्टि से विभाग ने प्रदेश में स्थापित होने वाले लगभग सभी वृहद, मध्यम एवं लघु उद्योगों को भूमि उपलब्ध कराई है। विभाग का कहना है कि इस काम को विभाग ने उच्च प्राथमिकता और विशेष तत्परता से किया है। अद्योसंरचना निर्माण में लोक प्रयोजन के लिए भूमि उपलब्ध कराना उसका लक्ष्य रहा है। भू-अर्जन समिति की बैठकों के माध्यम से विभाग द्वारा जमीन आवंटन करके औद्योगीकरण को गति प्रदान की गई है।जमीन बांटने के मामले में राज्य सरकार हिंडाल्को और रिलायंस समूह के अलावा जयप्रकाश एसोसिएट्स पर जमकर मेहरबान है। इन तीनों औद्योगिक समूहों को ही सरकार साढ़े तीन हजार एकड़ से ज्यादा जमीन बांट चुकी है। राज्य सरकार ने हिंडाल्को कंपनी के विभिन्न प्रोजेक्ट के नाम पर कुल 1847.64 एकड़, रिलायंस इण्डस्ट्रीज को 1344.615 एकड़ और जयप्रकाश एसोसिएट्स को 333.34 एकड़ जमीन आवंटित कर चुकी है। हिंडाल्को ने प्रदेश में छह परियोजनाओं के नाम पर इतनी जमीन ली है तो रिलायंस इण्डस्ट्रीज के सासन पॉवर प्रोजेक्ट के लिए आठ बार अलग-अलग जमीन आवंटित की गई हैं। इसके अलावा रिलायंस कंपनी ने प्रदेश में अपना निजी हवाई अड्डा बनाने के लिए भी सरकार से जमीन ली है। जयप्रकाश एसोसिएट्स (जेपी ग्रुप) भी ने पॉवर, सीमेंट, मिनरल्स सहित अन्य आठ प्रोजेक्ट के नाम पर जमीन हथियाई है। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहते ही प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के लिए राजधानी में 1.18 एकड़ जमीन केवल एक रुपए के लीज रेंट पर दी गई थी। इसके बाद भाजपा ने अपने कार्यालय के लिए जमीन मांगी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के समय पार्टी से एक लाख रुपए जमा करने को कहा गया। वोरा के बाद सीएम बने अर्जुन ने यह कहते हुए भाजपा को भी एक रुपए किराए पर 1.50 एकड़ जमीन अलाट की कि कांग्रेस को मिल सकती है तो भाजपा को क्यों नहीं। उनके कहने पर भाजपा ने पचास साल के लिए एकमुश्त 50 रुपए किराया जमा कर जमीन हासिल की। बाद में पटवा ने भाजपा कार्यालय की भूमि का स्थान बदला। किसे कितनी भूमि अधोसंरचना निर्माण के लिए कंपनी आवंटित भूमि (हेक्टेयर) हिंडाल्को कंपनी 23.77 सासन पॉवर लिमिटेड 28.43 महेश्वर हाईड्रल पॉवर कार्पो. 0.462 न्यू जोन इंडिया लिमि. 476.788 एसजेके पॉवरजोन 30.960 सासन पॉवर लिमिटेड 44.48 मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी 0.539 महेश्वर हायड्रल पॉवर कार्पो. 4.67 जय प्रकाश एसोसिएट्स 34.231 हिण्डाल्को कंपनी 25.96 ग्रासिम इंडस्ट्रीज लिमि. 7.681 पॉवर ग्रिड कार्पो. 25.50 आर्यन कोल एमपी लिमिटेड 12.800 महेश्वर हायड्रल पॉवर कार्पो. 136.954 औद्योगिकीकरण के लिए सासन पॉवर लिमिटेड 128 हिंडाल्को 547 महेश्वर हाईड्रल पॉवर परि. 12.2 ईरा इन्फ्रा लिमिटेड उमरिया 126 सासन पॉवर सिंगरौली 198 झाबुआ पॉवर सिवनी 19.4 जेपी मिनरल्स, सिंगरौली 36.7 महान कोल 5.4 जेपी सीमेंट 1.96 मोजरबेयर अनूपपुर 70.2 झाबुआ पॉवर 69.2 सांघी इंडस्ट्रीज 230 एस्सार पॉवर 186 आर्यन कोल 10.92 महेश्वर हायड्रल पॉवर 12.204 जेपी पॉवर वेंचर्स 0.720 महान कोल लिमिटेड 2.68 सासन पॉवर लिमिटेड 9.749 हिंडाल्को कंपनी 74.96 छिंदवाड़ा प्लस 242.019 एसईसीएल 14.450 सांघी एनर्जी 133.981 आर्यन कोल लिमिटेड 45.13 न्यू जोन इंडिया लिमिटेड 39.776 जयप्रकाश पॉवर वेंचर्स 25.500 जयप्रकाश पॉवर वेंचर्स 28.303 रिलायंस हवाई अड्डा हेतु 63.951 हिंडाल्को कंपनी 62.86 सासन पॉवर लिमिटेड 3.65 मप्र सैनिक कोल माइंस लिमि. 31.48 सासन पॉवर लिमिटेड 11.290 जय प्रकाश पॉवर वेंचर्स 4.047 एस्सार पावर लिमिटेड 1.09 रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड 3.529 सासन पॉवर लिमिटेड 53.070 हिंडाल्को लिमिटेड 13.17 एसकेएम लिमिटेड 101.076 एक रुपए में बंटी करोड़ों की जमीनें इन्हें मिला बंटरबांट का लाभ मिशनरी आफ चेरिटी भिलाई, कांग्रेस कमेटी भोपाल, मिशनरी ऑफ चेरिटी रायपुर, जन विकास न्यास ग्वालियर, मिशनरी ऑफ चेरिटी इंदौर, ओम श्री श्री माता आनंदमयी आश्रम इंदौर, भृगु समाज भोपाल, महावीर चेरिटेबल मेडिकल एण्ड आर्गनाइजेशन दमोह, अंजुमन इस्लामिया मुस्लिम ट्रस्ट अंबिकापुर, झरनेश्वर महादेव मंदिर बाणगंगा भोपाल, अंध बालिका विद्यालय देवास, एसओएस चिल्ड्रन विलेज भोपाल, महावीर ट्रस्ट इंदौर, ताजुल मसाजिद भोपाल, श्री रामकृष्ण सदिच्छा भजन मंडल भोपाल, श्री रामकृष्ण आश्रम जबलपुर, आनंदमयी तपोभूमि आश्रम खंडवा, श्री रामकृष्ण आश्रम भोपाल, रामकृष्ण आश्रम ग्वालियर, भारतीय जनता पार्टी, बाल निकेतन संघ इंदौर, सत्यानंद योग आश्रम बैतूल, उज्जैन चेरिटेबल ट्रस्ट हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर, गहोई समाज भोपाल, मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल, परमानंद पब्लिक ट्रस्ट अंबिकापुर, वर्किंग वूमेन एसोसिएशन भोपाल, पीतांबरा पीठ दतिया, झरनेश्वर मंदिर बाणगंगा भोपाल,संत आशाराम आश्रम इंदौर, आचार्य श्री विद्यासागर गौ संवर्धन केंद्र सागर, क्षेत्रीय माली सैनी समाज भोपाल, नाना साहेब स्मृति धर्मार्थ चिकित्सालय रायपुर, मिशनरी ऑफ चेरिटी भोपाल, मिशनरी ऑफ चेरिटी रायपुर, राजपूत समाज ट्रस्ट इंदौर, दाताबंदी छोड़ गुरुद्वारा समिति ग्वालियर, श्री दिंगबर जैन पुष्पदंत श्रवण संस्कृति न्यास इंदौर, कबीर स्मारक लुनियाखेड़ा उज्जैन, रामकृष्ण आश्रम जशपुर, हबीब तनवीर नया थियेटर भोपाल, श्री दिगंबर जैन सिद्ध क्षेत्र सोनागिरी दतिया, अध्यक्ष भोपाल किरार क्षत्रिय समाज, अध्यक्ष बघेलखण्ड समाज विकास समिति, पुरुषोत्तम सूरदास रामायणी मानस मंडल, मंदसौर इंस्टीट्यूट टेक्नॉलाजी मंदसौर,अखिल भारतीय पाल महासभा भोपाल, मीना समाज सेवा संगठन भोपाल।

5,000,000,000,000 की जमीन पर रसूखदारों का अवैध कब्जा

भोपाल। मध्य प्रदेश में रसूखदारों ने पचास खरब रुपए (5,000,000,000,000)की सरकारी जमीन पर अवैध रूप से हड़प ली है। कहीं-कही तो हजारों एकड़ जमीन एक ही व्यक्ति के कब्जे में है। इस बात का खुलासा सरकार की जांच में सामने आया है। सरकारी अधिकारियों की सांठ-गांठ से कबजाई गई इन जमीनों को रसूखदारों के कब्जे से निकालने के लिए सरकार हाथ-पांव तो मार रही है,लेकिन उसे सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है। उल्लेखनीय है कि जब सरकार को इन भूमि घोटालों की खबर लगी तो,मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2009 में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव (वर्तमान में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव)के नेतृत्व में समिति बनाकर प्रदेश में चल रहे भूमि घोटालों को उजागर करने का जिम्मा दिया था। समिति ने बड़े भूमि घोटालों की 14 रिपोर्टें राज्य सरकार को सौंपीं। इन रिपोर्टों से खुलासा हुआ कि भोपाल, ग्वालियर, धार, होशंगाबाद, हरदा और अशोक नगर जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में सौंप दी गई।
नदी और कब्रिस्तान पर पूर्व विधायक के परिवार का कब्जा प्रदेश के धार जिले के सरदारपुर कस्बे में मध्य प्रदेश के जमीन गोरखधंधे का सबसे दिलचस्प मामला सामने आया। मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट कहती है, यह अद्भुत प्रकरण है जिसमें एक नगर की लगभग संपूर्ण भूमि एक ही परिवार के हाथों आ गई। यह वह प्रकरण है जिसमें एक परिवार एक नदी (माही), कब्रिस्तान, श्मशान, डाक बंगला, जेलखाना, शासकीय कन्याशाला, विजय-स्तंभ, टीआइ बंगला, कलेक्टर कोठी सहित कई सार्वजनिक जमीन पर पुराने पट्टों के आधार पर हक जमाता है और कलेक्टर पट्टों की प्रामाणिकता पर संदेह करने की बजाए दावेदार को जमीन का अधित्यजन (दान) करने का मौका देता है और कुछ जगह अधित्यजन कराकर खुश होता है। असल में, 1995 में कलेक्टर के एक गलत आदेश के जरिए 1,471 बीघा जमीन नगरपालिका और प्रदेश शासन से लेकर निजी पक्षकार के हक में कर दी गई। बाद में एक दूसरे कलेक्टर ने यह आदेश गलत पाया और जमीन को सरकार के कब्जे में लाने के लिए राजस्व मंडल (रेवेन्यू बोर्ड) से मामले पर दोबारा गौर करने की इजाजत मांगी। मंडल ने जमीन को सरकार के कब्जे में लाने का आदेश खुद ही दे दिया, जो कि हाइकोर्ट से खारिज हो गया। कोर्ट ने छानबीन की इजाजत दी। रिपोर्ट बताती है कि तमाम कानूनी प्रक्रिया के बाद 5 जून, 2007 को कलेक्टर के आदेश के जरिए कुछ जमीन लेकर बाकी निजी पक्षकार को दे दी गई। मजे की बात यह है कि नदी, पहाड़ और कब्रिस्तान जैसी जमीन छोडऩे के लिए भी कलेक्टर ने निजी पक्षकार को पुचकारा। रिपोर्ट में कलेक्टर के आदेश को गैरकानूनी बताया गया पर कार्रवाई की सिफारिश किसी के खिलाफ न हुई। यह मामला सरदारपुर के प्रतिष्ठित शंकरलाल गर्ग परिवार से जुड़ा है। गर्ग 1952 में यहां के विधायक रहे। मामले की पैरवी कर रहे उनके पुत्र 78 वर्षीय लक्ष्मी नारायण कहते हैं, पालिका का दावा निराधार है। आजादी से पहले पालिका के दावे के खिलाफ ग्वालियर स्टेट कोर्ट में भी हम जीते थे। दो गांवों की जमीन बेचकर गायब भोपाल से सटे दो गांवों चांचेड़ और गनियारी में एस.के. भगत के नाम पर तहसीलदार ने करीब 450 एकड़ जमीन कर दी। यह भी न सोचा कि सीलिंग आदेश के बाद किसी के पास इतनी जमीन कैसे हो सकती है। मामला आजादी के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की भारत में जमीन से जुड़ा है। भगत नाम के व्यक्ति ने दोनों गांवों में 1962 और 1963 में यह जमीन दिए जाने का दावा किया है। पर समिति के मुताबिक, कब्जे के कागजात 1994 में तैयार किए गए और उन्हें 1962/1963 की तारीखों में दिखाया गया। रिपोर्ट में मजेदार टिप्पणी है, राजस्व आज्ञापत्र पर कुछ मार्किंग्स जिस तरह के पेन से हैं, वे 1963 में चलन में भी नहीं आए थे। पूरे मामले में गैरकानूनी, धोखाधड़ी और शरारतपूर्ण कार्रवाई को देखते हुए इसमें म.प्र. भू राजस्व संहिता की धारा 115 के तहत कार्रवाई की जाए। पर भगत परिवार तो तकरीबन सारी जमीन बेच एक दशक पहले ही यहां से जा चुका है। भगत के पुराने मकान में रह रहे फूल सिंह बताते हैं, वे तो 10-12 साल पहले ही जमीन बेचकर जा चुके हैं। भेल की 200 एकड़ जमीन पर माफिया का कब्जा मध्य प्रदेश सरकार ने 27 नवंबर, 1957 को भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (बीएचईएल) को भोपाल 6,000 एकड़ से अधिक जमीन दी। इसमें से 200 एकड़ जमीन पर माफियाओं का कब्जा है। श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, यह जमीन भेल को एक कंपनी के तौर पर दी गई। इसमें कोई औपचारिक ट्रांसफर डीड नहीं हुई। लिहाजा भेल प्रशासन या केंद्र सरकार को इस जमीन पर मालिकाना हक जताने का कोई अधिकार नहीं। अधिग्रहण के बाद से करीब 2,000 एकड़ जमीन भेल के पास फालतू पड़ी है। रिपोर्ट में 1998 के प्रदेश के राजस्व मंत्रालय के एक सर्कलर का हवाला दिया गया है। सर्कलर कहता है राज्य शासन ने फैसला किया है कि प्रदेश में लगे केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को दी गई जमीन में से जो जमीन उनके तय मकसद के लिए काम में नहीं ली जा रही, उसे फौरन वापस लिया जाए। इसी आधार पर भेल की खाली पड़ी 2,000 एकड़ जमीन वापस लेने की सिफारिश की गई। रिपोर्ट तो कहती है कि भेल अपनी ही जमीन की देखभाल नहीं कर पा रहा और अब तक 200 एकड़ जमीन पर भूमाफिया ने कब्जा जमा लिया है। इस 200 एकड़ का ज्यादातर हिस्सा अब रियल एस्टेट के लिहाज से खासा अहम हो गया है। भोपाल में बन रहे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सामने की भेल की जमीन पर भी अवैध कब्जा हो चुका है और वहां मकान बन रहे हैं। एम्स के यहां आने की वजह से जमीन की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। भेल के वरिष्ठ प्रबंधक (प्रचार और जनसंपर्क) विनोदानंद झा इस संस्था का पक्ष रखते हैं, भेल को जमीन दिए जाने के मामले में सारी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। हां, भेल की 150 एकड़ जमीन पर अवैध बस्तियां बनी हैं। इन्हें हटाने के लिए राज्य सरकार से लगातार चि_ी-पत्री हो रही है। एम्स के पास हो रहे नए अवैध निर्माण पर भेल प्रशासन नजर रखता है और इसे समय-समय पर तोड़ा जाता है। ग्वालियर में 200 करोड़ की जमीन पर अवैध कब्जा ग्वालियर शहर में पूर्व ग्वालियर राजघराने द्वारा स्थापित ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को फायदा पहुंचाने के लिए 47 हेक्टेयर जमीन दे दी गई,जबकि कायदे से यह जमीन राज्य शासन के पास होनी चाहिए। इस मामले में निजी पक्षकार को 2008 में राजस्व मंडल के एक ऐसे आदेश के चलते जमीन हासिल हो गई, जिसमें 1991 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अनदेखी कर दी गई थी। मौजूदा बाजार भाव पर इस जमीन की कीमत करीब 200 करोड़ रु. है। इस बारे में कंपनी के मालिक के.सी. जैन कहते हैं कि ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को शहरी क्षेत्र में 1516.96 एकड़ जमीन पूर्व ग्वालियर रियासत की ओर से 4 जून, 1942 को 25 साल के पट्टे पर दी गई थी। तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने इस कंपनी को बनाया और उसमें उनके सरदार माधवराव फालके और सरदार देवराज कृष्ण जाधव (डी.के. जाधव) के अलावा रियासत के प्रभावशाली लोग कंपनी में शेयर होल्डर थे। 25 साल के पट्टे की मियाद खत्म होने के बाद अप्रैल, 1979 में अपर जिलाध्यक्ष के आदेश के जरिए जमीन सरकार ने वापस ले ली। इसके बाद कंपनी की जमीन का बड़ा हिस्सा सरकारी विभागों ने कब्जे में ले लिया। 20 मार्च, 2008 को राजस्व बोर्ड ने चौंकाने वाला आदेश देते हुए जमीन पर कंपनी का अधिकार मान लिया। बोर्ड के आदेश पर गंभीर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट साफ कहती है, राजस्व बोर्ड ने 1981 के हाइकोर्ट के जिस आदेश को आधार बनाया है, उस आदेश को 1991 में ही सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका था। दूसरे, बोर्ड में सुनवाई के दौरान शासन के वकील खड़े होकर पूरी तरह शासन के खिलाफ और आवेदक के पक्ष में बोल रहे हैं। ग्वालियर डेयरी को फायदा पहुंचाने के लिए पूरा प्रशासनिक पक्ष लामबंद था। सरकार को जो जमीन मिली भी है, वह कुछ इस तरह जैसे कि कंपनी उसे दान में दे रही हो। हालांकि इसमें एक खतरा है। कंपनी कल को चुनौती दे सकती है कि जब सरकार इस जमीन को कंपनी की नहीं मानती तो दान किस आधार पर करा रही है। जंगल की 7,987 एकड़ जमीन पर आश्रम हरदा जिले के टिमरनी के पास जंगल की 7987.80 एकड़ जमीन राधास्वामी सत्संग सभा के पास है। यहां राजाबरारी एस्टेट की इस जमीन पर विवाद है, जो पूरी की पूरी संरक्षित वन क्षेत्र में आती है। इस मामले में राधास्वामी सत्संग सभा का दावा है कि मध्य प्रदेश भूराजस्व अधिनियम के तहत उसके पास लीज के सभी अधिकार और सुविधाएं हैं। सभा के मुताबिक सरकार के साथ उसका मूल करारनामा 1953 में और फिर 1956 में पूरक करारनामा हुआ। सभा यहां राधास्वामी ट्रेनिंग, एम्पलायमेंट और आदिवासी उत्थान संस्थान भी चलाती है। रिपोर्ट के मुताबिक,लीज का 1953 और 1956 में पंजीयन होना था। हुआ नहीं। लीज 1953 और 1956 में स्टांपित ही नहीं थी। सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसके तहत, जमीन के गैरवानिकी मकसद से प्रयोग की इजाजत नहीं थी। रिपोर्ट कहती है कि ऐसे में वन भूमि घोषित होने के बाद लीज मान्य नहीं होगी। लीज रद्द की जाए। लेकिन सभा के सचिव गुरमीत सिंह कहते हैं, सारे आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं। सभा के काम की तारीफ उच्च अधिकारी और कैबिनेट स्तर के मंत्री तक कर चुके हैं। मामला राजस्व बोर्ड में विचाराधीन है। वैसे भी राज्य सरकार का अधिकारी सरकार के शीर्ष स्तर के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता। नजूल की जमीन की धड़ाधड़ रजिस्ट्रियां होशंगाबाद जिले के इटारसी शहर में ऐसे 114 मामलों का खुलासा हुआ है जहां 1985 से अक्तूबर, 2010 के बीच नजूल की जमीन रजिस्ट्री कर बेची गई। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, इटारसी शहर में नजूल शीट नंबर 6 और 3 के प्लॉट नंबर 3/1 रकबा 1,41,935 वर्ग फुट जमीन एच.ए. राजा और ए.ए. सैफी के नाम दर्ज है। राजा की मौत वर्षों पहले हो चुकी है लेकिन नजूल रिकॉर्ड में उनके वारिसों के नाम दर्ज नहीं हैं। हातिम अली के बेटे जमीन पर नाम चढ़ाए बगैर फर्जी तरीके से जमीन की रजिस्ट्री कर शासन की कीमती जमीन बगैर हस्तांतरण के बेच रहे हैं, जबकि पट्टा निरस्त हो चुका है। इटारसी में इस अवैध जमीन को खरीदने वालों में भोपाल के कुछ राजनीतिक परिवार शामिल हैं। नजूल प्रकरण पर वे कहते हैं, पूरे प्रदेश में नजूल की जमीन को अवैध तरीके से बेचने के मामले सामने आ रहे हैं। इसके लिए पूरे प्रदेश में व्यापक गाइडलाइन तैयार करनी होगी। जालसाज और अफसरों पर कार्रवाई नहीं प्रदेश में चल रहे जमीन के गोरखधंधे की परतें सामने आने के बाद भी सरकार दोषी अफसरों और जालसाजों पर कार्रवाई नहीं कर रही है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रते हैं कि समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद से 1,5000 एकड़ जमीन वापस ली जा चुकी है। सीहोर में हाल ही 5,000 एकड़ वापस ली। हालांकि प्रतिवादी अब कोर्ट में चला गया है। वह कहते हैं कि भेल की 2,000 एकड़ खाली पड़ी जमीन भी वापस करने की मांग मैंने खुद प्रधानमंत्री के सामने रखी है। फिर से केंद्र के सामने इसे उठाऊंगा।

5 करोड़ की जमीन के लिए चौधरी ने छोड़ी थी कांग्रेस

भोपाल। जब भिंड विधायक चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी ने 5 करोड़ की जमीन के लिए कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा था। इस बात का खुलासा इंदौर विकास प्राधिकरण द्वारा चौधरी को भूखंड आवंटन से हुआ है। जब चौधरी ने कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव को भंड किया था तब ही कांग्रेसियों ने उन पर भाजपा के हाथों करोड़ों रुपए में बिक जाने के आरोप लगाए थे। अब चौधरी की कांग्रेस से बगावत का राज खुल गया है। भाजपा शासन ने इंदौर विकास प्राधिकरण द्वारा एबी रोड पर आवंटित और पांच साल पहले निरस्त हुए चौधरी राकेश सिंह के भूखंड को दोबारा उनके नाम पर आवंटित कर दिया है। 14 लाख 88 हजार रु. के इस भूखंड की कीमत आज 5 करोड़ रु. से ज्यादा हो चुकी है।
दरअसल, सांसद-विधायकों को प्राधिकरण की योजनाओं में भूखंड आरक्षित कर आवंटित किए जाते हैं। लिहाजा प्राधिकरण की एबी रोड से लगी पटेल मोटर के पास की योजना 114 भाग (2) में भूखंड क्रमांक 90 विधायक कोटे से सितंबर 2003 में राकेश सिंह चौधरी को आवंटित किया गया था। 372 वर्ग मीटर यानी 4000 स्क्वेयर फीट के इस भूखंड की दर उस वक्त मात्र 4000 रु. प्रति वर्ग मीटर यानी 400 रु. स्क्वेयर फीट की थी, इस हिसाब से यह भूखंड मात्र 14 लाख 88 हजार में आवंटित किया गया। मगर भिंड के ही तत्कालीन विधायक रहे नरेंद्र सिंह कुशवाह ने प्राधिकरण में शिकायत की कि चौधरी राकेश सिंह ने गलत शपथ पत्र देकर प्राधिकरण से भूखंड आवंटित करवाया है, जबकि वे पूर्व से ही विधायक कोटे के अंतर्गत एमआरएस इनक्लेव ग्वालियर में एचआईजी भवन अगस्त 2003 में और भोपाल में रीवेरा टाउनशिप में डुप्लेक्स भवन क्रमांक 47 आवंटित करवा चुके हैं। यानी चौधरी राकेशसिंह के पास दो-दो भवन विधायक कोटे के अंतर्गत पूर्व से ही आवंटित हंै और उन्होंने इंदौर विकास प्राधिकरण से भूखंड असत्य शपथ पत्र देकर आवंटित करवा लिया। जबकि आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय की गाइड लाइन स्पष्ट है कि सांसद-विधायक या आरक्षण कोटे के भूखंडों को वे ही व्यक्ति ले सकते हैं, जिनके अपने या पत्नी, अव्यस्क संतान के नाम पर पूरे मध्यप्रदेश में कहीं पर भी कोई भूखंड अथवा भवन न हो। इस आशय का शपथ पत्र प्राधिकरण द्वारा भी निर्धारित प्रारूप में मांगा जाता है, लिहाजा इस शिकायत के बाद इंदौर विकास प्राधिकरण के बोर्ड ने संकल्प क्रमांक 348, दिनांक 29.09.2008 के जरिए भूखंड के आवंटन की प्रक्रिया को रोकते हुए राकेश सिंह को कारण बताओ सूचना पत्र जारी किया और उनसे जानकारी मांगी गई। मगर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पांच साल पहले प्राधिकरण ने नोटिस दिया, जिसका कोई जवाब चौधरी राकेश सिंह ने नहीं दिया? अलबत्ता, प्राधिकरण की ओर से इसके पश्चात 20 सितंबर 2008, 15 दिसंबर 2008, 24.12.2008, 9 जनवरी 2009, 23 जनवरी 2009 और 16 अगस्त 2010 को आधा दर्जन से अधिक कारण बताओ नोटिस भिजवाए जाते रहे। हालांकि, प्राधिकरण ने जो भूखंड चौधरी राकेश सिंह को आवंटित किया था, उसकी रजिस्ट्री उन्होंने 19 सितंबर 2006 को ही करवा ली थी, चूंकि शिकायत बाद में मिली, लिहाजा नोटिस देने और जवाब मांगने का सिलसिला चलता रहा। मगर पिछले दिनों चौधरी राकेश सिंह भाजपा में शामिल हो गए, लिहाजा उनसे संबंधित फाइल का मूवमेंट तेजी से भोपाल में भी शुरू हो गया। आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ताबड़तोड़ 22 जुलाई 2013 को इंदौर विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यपालन अधिकारी को पत्र लिखा, जिसमें चौधरी राकेश सिंह के संबंध में की गई शिकायत और मार्गदर्शन का हवाला देते हुए विधि विभाग का अभिमत संलग्न किया गया। इतना ही नहीं चौधरी राकेश सिंह के लिए प्रमुख सचिव विधि द्वारा अनुमोदित अपर सचिव विधि राजीव आप्टे ने 4.7.2013 को अपनी राय दी और यह कहा कि चूंकि इंदौर विकास प्राधिकरण का भूखंड लेने व उसकी रजिस्ट्री करवाने तक चौधरी राकेशसिंह ने मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल से भूखंड का आवंटन नहीं करवाया था, सिर्फ आरक्षण ही हुआ था, लिहाजा वे इंदौर विकास प्राधिकरण को दिए गए शपथ पत्र की अधिरोपित शर्त को आवंटन दिनांक को पूरा करते थे। यानी इसका मतलब यह हुआ कि प्राधिकरण अपना कारण बताओ नोटिस निरस्त कर दे। लिहाजा, आज होने वाली बोर्ड बैठक में शासन का पत्र और विधि विभाग की राय को रखा गया है, जिससे पांच साल पहले और बाद में प्राधिकरण द्वारा दिए गए आधा दर्जन से अधिक कारण बताओ नोटिसों को नस्तीबद्ध किया जा सके। इतना ही नहीं, चौधरी राकेश सिंह ने पांच साल तक तो प्राधिकरण के आधा दर्जन नोटिसों का कोई जवाब नहीं दिया और जब भोपाल से उनका प्रकरण क्लीयर होने आया, तब उन्होंने पिछली 12 जून 2013 को प्राधिकरण में अपना 4 पेज का जवाब भिजवाया। इसमें उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि ग्वालियर में सुपरडीलक्स एचआईजी आवास का पंजीयन उनके द्वारा करवाया गया, जो 17 नवंबर 2006 को निष्पादित हुआ। इसी तरह भोपाल के रिवेरा टाउनशिप में भवन का आधिपत्य उन्हें 17.10.2011 को मिला, जबकि इंदौर विकास प्राधिकरण का भूखंड वे 19 सितंबर 2006 को ही रजिस्ट्री के जरिए ले चुके थे। लिहाजा, उस दिनांक तक उनके पास मध्यप्रदेश की किसी भी नगर पालिक सीमा के अंतर्गत कोई आवासीय भूखंड या भवन नहीं था। भोपाल-ग्वालियर में पहले से हैं संपत्तियां चौधरी राकेश सिंह ने 12.6.2013 को इंदौर विकास प्राधिकरण को दिए गए नोटिसों के जवाब में स्वीकार किया है कि उनके पास दर्पण एनक्लेव, खातीपुर, ग्वालियर में एचआईजी सुपर डीलक्स आवास गृह हंै, जो उन्होंने स्ववित्त योजना के अंतर्गत विधायक अंश के आवेदन पर पंजीयन करवाया और हाउसिंग बोर्ड ने इसका पट्टा 17 नवंबर 2006 को निष्पादित किया। साथ ही भोपाल की रिवेरा टाउनशिप में भी सांसद और विधायकों को आवास देने की योजना के तहत उनके द्वारा आवंटन करवाया गया और 9.4.2007 को हाउसिंग बोर्ड ने उक्त आवासीय भूखंड की लीज डीड उनके पक्ष में निष्पादित की और भवन का आधिपत्य 15.10.2011 को सौंपा। चौधरी राकेश सिंह का तर्क यह है कि इंदौर विकास प्राधिकरण का भूखंड लेने और उसकी रजिस्ट्री करवाते वक्त उनके पास भोपाल-ग्वालियर के भूखंड या भवन नहीं थे, तब उन्होंने इनका सिर्फ आरक्षण करवाया था। बाहरी ने कबाड़े इंदौर में भूखंड प्रदेश में चूंकि सबसे महंगी जमीन इंदौर में ही है, लिहाजा प्रदेशभर के सांसद-विधायकों ने इंदौर विकास प्राधिकरण के करोड़ों-अरबों के 50 भूखंड आवंटित करवा लिए हैं। योजना 134, 140 और ,एबी रोड से लगी योजना 114 पार्ट (2) में बाहरी विधायकों, सांसदों ने बड़ी संख्या में भूखंड लिए हैं, जिनमें भीकनगांव, हाट पीपल्या, पेटलावद, सरदारपुर, अलीराजपुर, चाचौड़ा, खातेगांव, बैतूल, जोबट, शाहपुर, छिंदवाड़ा, उज्जैन, धार से लेकर तमाम गांवड़ों के जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं, क्योंकि उन्हें वहां पर तो सस्ता भूखंड मिलता, लिहाजा उन्होंने इंदौर में करोड़ों रुपए के भूखंड हासिल कर लिए। मात्र 20 रु. ज्यादा पर विधायक को भूखंड अभी थोड़े दिन पहले ही सोनकच्छ के भाजपा विधायक राजेंद्र वर्मा ने भी प्राधिकरण की चर्चित और महंगी योजना 140 में भूखंड कबाड़ लिया। मजे की बात यह है कि प्राधिकरण ने जहां सामान्य वर्ग के 4000 रु. मूल्य से अधिक के टेंडरों को निरस्त कर दिया और अनुमान लगाया कि इससे अधिर दर मिलेंगी, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं टेंडरों के साथ आए सोनकच्छ विधायक राजेंद्र वर्मा के भूखंड को मात्र निर्धारित गाइड लाइन से 20 रु. अधिक के टेंडर पर मंजूर कर दिया। प्राधिकरण ने भूखंड क्रमांक 33 के लिए न्यूनतम दर 35251 रु. वर्गमीटर निर्धारित की थी और इससे 20 रु. ज्यादा 35271 स्क्वेयर फीट की दर वर्मा ने भरी, जिसे बोर्ड ने मंजूर भी कर भूखंड का आवंटन कर डाला। दिग्विजय ने मांगे दस्तावेज कांग्रेस से बगावत करने का इनाम प्राधिकरण के पांच करोड़ी भूखंड के रूप में मिलने के खुलासे पर कांग्रेस के महासचिव और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने इस मामले के पूरे दस्तावेज मंगवाए हैं, ताकि कांग्रेस की ओर से हमला बोला जा सके।ं नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी चुटकी ली कि अब यह राज खुल रहा है कि चौधरी राकेश सिंह को भाजपा ने इस तरह खरीदा।

उम्र 65 पार, फिर भी कुर्सी से प्यार

भोपाल। भारत दुनिया का सबसे युवा देश है, पर इसकी बागडोर विश्व के सबसे बुजुर्ग नेताओं के हाथों में है। यही नहीं, हमारी जनसंख्या की उम्र घटी है और हमारे नेताओं की उम्र बढ़ रही है। देश के हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश में भी ऐसे बुजुर्ग नेताओं की कमी नहीं हैं जिनकी उम्र बढऩे के साथ इनकी राजनीतिक हसरतें भी बढ़ रही हैं। प्रदेश में मतदाताओं और नेताओं के बीच बढ़ते जनरेशन गैप, उसके अंजाम और सुधार के सुझावों पर प्रस्तुत है पाक्षिक मालव समाचार की रिपोर्ट। मध्य प्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में युवा मतदाताओं की अहम भूमिका रहने वाली है,क्योंकि कुल मतदाताओं में 35 फीसदी युवा हैं। लेकिन प्रदेश के चुनावी समर में बुजुर्ग नेता एक बार फिर युवाओं से विधानसभा टिकट पाने को कदमताल कर रहे हैं। न भाजपा के बुजुर्ग दावेदार पीछे हैं और न कांग्रेस के। युवाओं से आगे की पंक्ति में दोनों दलों के बुजुर्ग नेता हैं। इनमें से 5 दर्जन से ज्यादा वे नेता हैं जो वर्तमान में विधायक हैं और जिनकी उम्र 65 से 84 वर्ष के बीच है। यानी सरकार चाहे जिस पार्टी की बने, स्थितियां मौजूदा विधानसभा से अलग नहीं होंगी। क्योंकि दोनों ही दलों में दावेदारी करने वाले एक तिहाई कद्दावर बुजुर्ग नेता हैं, जिनके टिकट पार्टी चाहकर भी नहीं काट पाएगी।
मंत्रिमंडल की औसतन उम्र 60 वर्ष मौजूदा शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल में 35 मंत्री शामिल हैं। मंत्रिमंडल में शामिल नेताओं की औसतन उम्र लगभग 60 वर्ष है। इनमें से 8 मंत्री ऐसे हैं जिनकी उम्र 65 के पार पहुंच गई है। युवा नेताओं में इसे लेकर रोष भी है। हालांकि दोनों पार्टियां गाहे-बगाहे कहती रही हैं कि चुनाव में 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति को टिकट नहीं दिया जाएगा। लेकिन हर बार युवाओं को दरकिनार कर दिया जाता है। इस बार भी उम्रदराज नेताओं की सक्रियता और राजनीतिक पकड़ के कारण युवाओं को टिकट मिलना मुश्किल लग रहा है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के एक अध्ययन के मुताबिक साल 2020 में देश की औसत उम्र 29 साल होगी। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की आबादी में 65 साल से ज्यादा के सिर्फ 5.5 फीसदी लोग हैं। लेकिन आबादी के आंकड़ों से ठीक उलट, भारत के कैबिनेट मंत्रियों की औसत उम्र 65 साल, मुख्यमंत्रियों की 62 साल और अलग-अलग राज्यों में तैनात राज्यपालों की औसत उम्र 74 साल है। साफ है, नौजवान देश की दिशा तय करने वाला नेतृत्व बूढ़ा होता जा रहा है। सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसर आशीष नंदी का कहना है, 'सभी दलों के बुजुर्ग नेता, नए चेहरों को जगह देने के लिए तैयार नहीं हैं। नतीजतन, 70 पार के नेताओं का दबदबा कायम है। ऐसे हालात में युवाओं के उन सवालों को अहमियत नहीं मिल पाएगी, जो रोजगार, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े हैं।Ó प्रो. नंदी की बात से इत्तेफाक रखने वालों की कमी नहीं। चार्टर्ड एकाउंटेंट अर्पित जैन कहते हैं, 'अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों की तरह हमारे यहां भी यंग लीडर देश की कमान क्यों नहीं संभालते? मैं तो चाहता हूं कि देश में ऐसे युवा चेहरे नेतृत्व संभालें, जो यंगिस्तान से जुड़े मसलों को हल करने की पहल का माद्दा रखते हों।Ó राजनीतिक दल मानने को तैयार नहीं दरअसल, बहुमत की ताकत के बूते नेतृत्व कर रहे बुजुर्गवार नेता राजनीति की चौसर के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। राजनीतिक पटल पर इनके खिलाफ कोई कुछ नहीं बोल पाता, जो स्वाभाविक भी है। मध्य प्रदेश की मंदसौर लोकसभा सीट से कांग्रेस की 40 वर्षीय युवा सांसद मीनाक्षी नटराजन कहती हैं, 'देश के नौजवानों के सपने सिर्फ युवा नेतृत्व से ही पूरे नहीं हो सकते। अनुभव की अनदेखी नहीं की जा सकती।Ó कुछ इसी तरह की बात भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष अमरदीप मौर्य भी कहते हैं। उनके मुताबिक, 'जो लोग समाजसेवा के जरिए राजनीति में आते हैं, जमीनी स्तर पर काम करते हैं, संघर्ष करके आते हैं, उनकी उम्र हो जाती है।Ó यवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कुणाल चौधरी भी नटराजन और मौर्य से अलग नहीं है। चौधरी कहते हैं, 'यह जरूरी तो नहीं है कि सिर्फ युवा ही देश हित के बारे में बेहतर तरीके से सोच सकते हैं। हम अपने बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं का लाभ लेते रहेंगे। हमारी पार्टी में युवाओं को भी सरकार और संगठन में पर्याप्त अवसर मिलते हैं।Ó जाहिर है, उम्रदराज नेताओं के अनुयायी या पार्टी के जूनियर उनकी प्रासंगिकता के मुद्दे पर अपने हाथ नहीं जलाना चाहते। तमाम राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सभी पार्टियां अपने बुजुर्ग नेताओं के स्थान पर नए और ज्यादा ऊर्जावान नेताओं को अहमियत नहीं दे पातीं। पूर्व मुख्यमंत्री और गोविंदपुरा विधानसभा क्षेत्र से रिकार्ड 9 बार जीत दर्ज करने वाले बाबूलाल गौर करीब 84 बरस के होने के बावजूद सियासत का मैदान छोडऩे के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे ही पूर्व विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी किसी समारोह में जाकर ऊंघने लगते हैं, पर रिटायर नहीं होना चाहते। सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट प्रताप भानू मेहता कहते हैं, 'इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता कि हमारे यहां तेजतर्रार नेताओं को पार्टी संगठन और सरकार में अहम पद मिलें। लेकिन, मैं अपने मौजूदा युवा नेताओं के प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं हूं। उनके पास देश के विभिन्न मसलों को लेकर विजन का अभाव ही दिखता है।Ó समाजशास्त्री और काउंसिल फॉर सोशल स्टडीज के फेलो मनोरंजन मोहंती कहते हैं, 'हमारे सियासी दलों के खाने के और दिखाने के दांत अलग होते हैं। ये सभी नौजवानों को आगे लाने का वादा तो करते हैं, पर अपने बेटे, बेटी, बहू वगैरह को ही युवा मानते हैं।Ó वयोवृद्ध होना कुशल नेतृत्व की शर्त नहीं है। फिर भी युवा नेतृत्व की एकतरफा वकालत बेमानी है। भारतीय राजनीति में तन से बुजुर्ग, लेकिन मन से जवान कई मिल जाएंगे, जिनके काम में उम्र कभी आड़े नहीं आई। भाजपा के उम्रदराज विधायक नाम विधानसभा सीट माखनलाल राठौर - शिवपुरी रामकृष्ण कुसमारिया- पथरिया जयंत मलैया-दमोह नागेन्द्र सिंह-गुढ़ सुंदर सिंह- जयसिंह नगर मोती कश्यप-बड़वारा भैयाराम पटेल-तेंदूखेड़ा राघवजी भाई-विदिशा कन्हैयालाल अग्रवाल-बामोरी ईश्वरदास रोहाणी-जबलपुर केंट गिरिजाशंकर शर्मा-होशंगाबाद सरताज सिंह-सिवनी मालवा बाबूलाल गौर-गोविंदपुरा रामदयाल अहिरवार-चंदला मानवेंद्र सिंह-महाराजपुर शांतिलाल धबाई-बडऩगर शिवनारायण जागीरदार-उज्जैन दक्षिण बृजमोहन धूत-खातेगांव रंजीत सिंह गुणवान-आष्टा चेतराम मानेकर-अमला जगन्नाथ सिंह-चितरंगी श्री रामचरित-देवसर नागेन्द्र सिंह-नागौद जुगुल किशोर बागरी-रैगांव कांग्रेस के उम्रदराज विधायक नाम विधानसभा सीट प्रभुदयाल गेहलोत-सैलाना महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा-जावरा मूल सिंह-राघोगढ़ मेर सिंह चौधरी-चौरई गंगाबाई उरैती-शहपुरा मध्य प्रदेश में 35 फीसदी मतदाता युवा मध्य प्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में युवा मतदाताओं की अहम भूमिका रहने वाली है, चूंकि कुल मतदाताओं में 35 फीसदी युवा हैं। आधिकारिक तौर पर मिली जानकारी के अनुसार, प्रदेश में युवा मतदाताओं की संख्या में तेजी से बढ़ी है। प्रदेश के कुल चार करोड़ 64 लाख 42 हजार 852 मतदाताओं में लगभग 35.06 प्रतिशत संख्या 18 से 29 साल के युवाओं की है। इनकी संख्या एक करोड़ 62 लाख से अधिक है। राज्य के मतदाताओं में 20 से 29 साल के बीच मतदाताओं की संख्या एक करोड़ 40 लाख 25 हजार 514 है। इनका प्रतिशत 30.20 है। वहीं 18-19 वर्ष के 22 लाख 59 हजार 243 मतदाता हैं। आयु के हिसाब से युवा मतदाताओं को देखें तो 18-19 वर्ष के मतदाताओं की सर्वाधिक संख्या एक लाख 10 हजार 707 धार जिले में है। इसी तरह शिवपुरी जिले में 87 हजार, बड़वानी जिले में 77 हजार, सागर जिले में 76 हजार, खरगौन जिले में 72 हजार , रीवा जिले में 63 हजार और छिन्दवाड़ा जिले में 63 हजार से अधिक मतदाता हैं। इसी तरह 20 से 29 आयु वर्ग के सबसे अधिक मतदाता इंदौर जिले में हैं। यहां इनकी संख्या 6 लाख 43 हजार है। इसी तरह जबलपुर में पांच लाख 24 हजार, भोपाल में पांच लाख 18 हजार, धार में पांच लाख 2 हजार, सागर में चार लाख 72 हजार, सतना में चार लाख 41 हजार, रीवा में चार लाख 27 हजार, छिन्दवाड़ा में चार लाख 25 हजार और मुरैना में चार लाख 21 हजार से अधिक मतदाता 20 से 29 वर्ष की आयु के हैं। भाजपा के लिए मुसीबत बनते रहे हैं उम्रदराज नेता संघ की पाठशाला में उम्र भर त्याग, तपस्या, बलिदान, समर्पण और राष्ट्रवाद के पाठ पढऩे वाले भाजपा के नेता आखिरकार उम्र के एक खास मुकाम पर पहुंचते ही इनसे ठीक उलटी मिसाल क्यों पेश करने लगते हैं? खुद को व्यक्ति पूजा से दूर, सिद्धांत आधारित संगठन बताने वाली इस पार्टी के अंदर कोई भी सत्ता परिवर्तन इसके नेता क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते? लालकृष्ण आडवाणी के ताजा कदम के बाद अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि कहीं पार्टी संगठन के डीएनए में ही तो कोई गड़बड़ी नहीं। भाजपा में मदन लाल खुराना से लेकर सुंदर सिंह भंडारी, किशन लाल शर्मा, कल्याण सिंह, केशुभाई पटेल और येदियुरप्पा जैसे तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर पार्टी को खास ऊंचाई दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन, एक उम्र पर पहुंचने और सत्ता का स्वाद चखने के बाद इनको बदलते भी देर नहीं लगी और ये नेता खुद ही पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल बने। इसी तरह राज्यों में हर सत्ता परिवर्तन भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद साबित हुए हैं। कर्नाटक में पांच साल के कार्यकाल में भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री बदले। मध्य प्रदेश में उमा भारती हों, उत्तराखंड में बीसी खंडूड़ी या रमेश पोखरियाल निशंक और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह व रामप्रकाश गुप्त, हर बार नेतृत्व परिवर्तन ने भाजपा को चोट पहुंचाई है।