बुधवार, 22 दिसंबर 2010

मंत्री नाम के, अफसर काम के

मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार मंत्रियों की दुर्दशा के लिए हमेशा याद की जाएगी। मंत्रियों के रूप में जो भाजपा नेता लालबत्ती का 'सुख' भोग रहे हैं, उनसे ज्यादा दु:खी मंत्री शायद ही किसी सरकार में अब तक रहे हों। दरअसल कुछेक नौकरशाहों के इशारों पर चल रही इस सरकार में मंत्री होने के मायने बदल गए हैं। मंत्री होने का मतलब मुख्यमंत्री के सहयोगी होने के अलावा किसी विभाग के मुखिया होने का भी है, जो अपने विभाग की नीतियों, कार्यक्रमों के निर्माण के साथ-साथ इनका क्रियान्वयन भी कराता है। मौजूदा सरकार में भी यही सब हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद अधिकतर मंत्री परेशान हैं। मंत्री पद सरकार में जो रुतबा इन मंत्रियों का रहा है, अब उसके लिए दिग्गज कहे जाने वाले मंत्री भी तरस रहे हैं। सुशासन के लिए विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था की बात करने वाली शिवराज सरकार में उच्च स्तर पर सत्ता केंद्रीकृत होती जा रही है। चार-पांच मंत्रियों को छोड़कर किसी मंत्री को फ्री हैण्ड नहीं है। विभागों के प्रशासनिक मुखिया यानी प्रमुख सचिव और सचिव, अपने मंत्री को बगल में रखकर सीधे मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के अफसरों से डील कर रहे हैं। करें भी क्यों न, मुख्यमंत्री को भी मंत्रियों के बजाए सीधे अफसरों से मुखाबित होना जो रास आता है। 'मंत्री नाम के और अफसर काम के' के फण्डे पर काम कर रही शिवराज सरकार में मंत्री वाकई सिर्फ नाम के रह गए हैं। अभी तक यह पीड़ा सिर्फ राज्यमंत्रियों की थी, लेकिन अब कई कैबिनेट मंत्री भी इसे भोग रहे हैं, जिन्हें थोड़ी-बहुत तवज्जो मिली हुई उनके सामने 'यस बॉस' का राग अलापने की शर्त या कहें मजबूरी है।
शिवराज सरकार में मुख्यमंत्री के अलावा 19 कैबिनेट, 3 राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 9 राज्यमंत्री हैं। इनमें सबसे वरिष्ठ और अनुभवी मंत्री नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर हैं। शिवराज से पहले मुख्यमंत्री की संभालने वाले गौर को इस सरकार का सबसे दबंग मंत्री माना जाता था और वे अपने हिसाब से मंत्रिपरिषद की बैठकों सहित बैठकों और आयोजन में जाया करते थे, लेकिन इन दिनों उनकी हालत भी खराब है। उनके पर भी धीरे-धीरे कतरने की तैयारी की जा रही है। अब यह देखा जा रहा है कि अब तक मुख्यमंत्री से मिलने उनके कक्ष में जाने से बचने वाले गौर साहब अब आए दिन मंत्रालय की पांचवीं मंजिल पर स्थित मुख्यमंत्री के कक्ष में आते-जाते देखे जाते हैं। हालांकि दूसरे कैबिनेट मंत्रियों की तुलना में वे अभी भी बेहतर स्थिति में हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री ने अब तक उनके विभाग के कामकाज में सीधे हस्तक्षेप शुरू नहीं किया है। नगरीय प्रशासन एवं विकास की योजनाओं और कार्यक्रमों की समीक्षा अब तक गौर साहब ही कर रहे हैं और अपने हिसाब से इन्हें क्रियान्वित करवा रहे हैं।
बस खुश रहो, क्योंकि मंत्री हो
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने मंत्रिमंडल में जिन भाजपा विधायकों को शामिल है वे मंत्री पद की शपथ लेते वक्त काफी खुश और खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे, लेकिन इन्हें क्या पता था कि उन्हें कागजों पर मंत्री बनाया जा रहा है। नौकरशाहों के भरोसे और उसी के मार्गदर्शन में काम कर रहे मुख्यमंत्री चौहान ने मंत्रियों को पंगु सा बना दिया है। मंत्री सिर्फ इस बात से खुश रह सकते हैं कि उनके नाम के आगे मंत्री शब्द लिखा जा रहा है। सरकारी बंगला, लालबत्ती कार, 10-15 लोगों का स्टाफ मिला हुआ है और बाबू-चपरासियों पर हुक्म चलाने की आजादी है। इससे ज्यादा सोचने की किसी मंत्री को इजाजत नहीं है। चार-पांच ही ऐसे मंत्री हैं, जिन्हें अपने हिसाब से कामकाज करने का फ्री हैण्ड मिला हुआ है, लेकिन ये भी एकतरफा नहीं है। मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के साथ बेहतर तालमेल, समन्वय और 'सेटिंग' के कारण वे फिलहाल अपने विभागों के राजा बने हुए हैं। बाकी किसी कैबिनेट मंत्री को इतनी आजादी नहीं है कि वह अपने विभाग में कोई फैसला अपने आप ले ले। मजेदार बात यह है कि पहले तो सरकार ही मंत्री को इतना आगे नहीं बढऩे देते कि वह इस तरह की कोई बात भी कर पाए। यदि किसी ने ऐसा कर भी लिया तो होशियार अफसर पहले ही मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के अधिकारियों के कान फूंक देते हैं। इसके बाद मंत्री की हिम्मत नहीं होती कि वह अपनी जुबान खोले।
ऐसे हैं मंत्रियों के हाल
राघव जी : राघव जी के पास वित्त, योजना एवं आर्थिक सांख्यिकीय, बीस सूत्रीय क्रियान्वयन और वाणिज्य कर विभाग हैं। मुख्यमंत्री के साथ इनकी पटरी इसलिए बैठी हुई है कि ये विभाग काफी बड़े होते हुए भी इनमें बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं है। वित्त विभाग साल भर बजट बनाने और बांटने में लगा रहता है। योजना एवं आर्थिक सांख्यिकीय तथा बीस सूत्रीय क्रियान्वयन बेदम विभाग है और वाणिज्यिक कर विभाग तय फारमेट में काम करता है। इसलिए मुख्यमंत्री और उनके
सचिवालय ने इन विभागों को राघवजी के भरोसे ही छोड़ रखा है। वही इनकी कभी-कभार समीक्षा कर लेते हैं। हालांकि इन विभागों में से वित्त और वाणिज्यिक विभाग के अधिकारी सीधे मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के संपर्क में रहते हैं, इसलिए कई मामलों में इन्हें भी मंत्री जी की जरूरत नहीं होती।
जयंत मलैया : जयंत मलैया को फ्री हैण्ड मिला हुआ है, लेकिन इसके लिए उन्हें भी मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के अधिकारियों के सामने 'यस बॉस' कहना जरूरी है। शायद इसी शर्त पर मुख्यमंत्री और उनके अधिकारियों ने अब तक उनके विभागों में ज्यादा हस्तक्षेप शुरू नहीं किया है। सैकड़ों इंजीनियरों वाले जल संसाधन विभाग में इंजीनियरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग फिलहाल मंत्री जी के इशारों पर ही रहे हैं। आवास एवं पर्यावरण विभाग जैसे विभाग को भी मलैया ही पूरी तरह डील कर रहे हैं। उनको मिली इस स्वतंत्रता के पीछे कहा जाता है कि वे समय-समय पर मुख्यमंत्री और उनके अफसरों से तालमेल बैठाते रहते हैं। मुख्यमंत्री को विश्वास में ले रखा है, इसलिए मुख्यमंत्री उन पर मेहरबान हैं।
कैलाश विजयवर्गीय : इस सरकार के सबसे दबंग और तेजतर्रार मंत्री माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय भी अब 'न्यूट्रल' हो गए हैं। अब तक 'शिवराज भाई' कहकर मुख्यमंत्री को संबोधित करने वाले कैलाश की भी अब पलट गई है। मुख्यमंत्री को खुश रखना कितना जरूरी है, ये उन्हें भी समझ में आ गया है। खजुराहो ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट की सफलता के बहाने उन्होंने मुख्यमंत्री को अपने बंगले पर बुलाकर उन्हें रात्रि भोज कराया। यह सिर्फ भोज नहीं था, बल्कि शिवराज को कैलाश का सेल्यूट भी था। इसे सेल्यूट के बाद मुख्यमंत्री ने उनके प्रति और नरमी दिखाई है। उनका रुतबा फिलहाल बरकरार है। लेकिन इतना जरूर है कि अब तक एकतरफा विभाग चलाने वाले कैलाश भी अब ठण्डे पड़े हैं। मुख्यमंत्री और उनके अधिकारियों को खुश रखना कितना जरूरी है, ये वे भी समझ गए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री के अधिकारियों से वे दोस्ताना व्यवहार रखते हैं, लेकिन उनके नजदीकी बताते हैं कि इसी दोस्ती ने उनके पर कतरने से बचाए हैं।
गोपाल भार्गव : पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव को मुख्यमंत्री का सबसे विश्वस्त माना जाता है। इसलिए उन्हें उनके विभाग में कामकाज के पूरी तरह से छूट मिली हुई है। इस विभाग में करीब आधा दर्जन आईएएस अधिकारियों की टीम है, लेकिन ये टीम अपने मंत्री को साइट लाइन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। मुख्यमंत्री आवास मिशन और मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना जैसे प्रमुख योजनाओं का जिम्मा इसी विभाग पर है, लेकिन इसके बावजूद मुख्यमंत्री भार्गव के कामकाज में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करते। विभाग की समीक्षा बैठकें भी बिना मंत्री के नहीं होती। भार्गव ने मुख्यमंत्री को साध रखा है और वे उनकी गुड लिस्ट में हैं।
सरताज सिंह : भाजपा के वरिष्ठ नेता और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे सरताज सिंह को भी मुख्यमंत्री ने सम्मान दे रखा है। वन विभाग की कमान उनके हाथ में है और ज्यादातर काम वे अपने हिसाब से करते हैं। हालांकि कुछेक मामलों में मुख्यमंत्री सचिवालय का सीधा हस्तक्षेप है, लेकिन इसमें भी मंत्री की नाराजगी जैसी कोई बात नहीं है। आईएफएस अधिकारियों के तबादलों के दौरान उन्हें पूरी तवज्जो दी जा रही है और इससे वे खुश भी हैं। हालांकि उनकी गलतबयानी को लेकर मुख्यमंत्री ने नाराजगी जताई, लेकिन इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया।
नरोत्तम मिश्रा : संसदीय कार्य विभाग के बाद आवास विभाग का जिम्मा मिलने के बाद मुख्यमंत्री ने नरोत्तम मिश्रा को थोड़ा महत्व दिया। नरोत्तम भी 'यस बॉस' कहते-कहते मुख्यमंत्री की गुड लिस्ट में शामिल हो गए हैं और उन्हें सरकार का अधिकृत प्रवक्ता बनाकर काम से लगाया गया। वैसे उनके दोनों विभागों में ज्यादा करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन नरोत्तम की वफादारी को देखते हुए सरकार में उन्हें तवज्जो मिल रही है। प्रवक्ता होने के नाते सभी विभागों को आदेश जारी कर कहा गया कि वे जो जानकारी मांगें उन्हें तुरंत उपलब्ध कराई जाए। इस सीमित भूमिका में भी वे खुद मुख्यमंत्री के सामने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाह रहे हैं, ताकि आगे चलकर उन्हें अच्छे विभाग के साथ फ्री हैण्ड भी मिल सके।
विजय शाह : पूरी तरह से मुख्यमंत्री के रहमोकरम हैं। 'यस बॉस' करते-करते यह भी सिर्फ मंत्री पद का सुख भोग रहे हैं। आदिम जाति कल्याण और अनुसूचित कल्याण विभाग तो वैसे ही इस सरकार में हाशिये पर हैं, लेकिन केंद्र से मिलने वाला करोड़ों का बजट और राज्य का बजट मिलाकर यह विभाग मलाईदार हो गया है। इसलिए मुख्यमंत्री सचिवालय इसके कामकाज पूरी निगाह रखता है। वनवासी सम्मान यात्रा और अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत वन निवासी अधिनियम के क्रियान्वयन में मंत्री को व्यस्त रखा गया है।
उमाशंकर गुप्ता : सरकार में मुख्यमंत्री के बाद गृह मंत्री को दूसरा सबसे ताकतवर माना जाता है, लेकिन गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता इस सरकार में बहुत कुछ होते हुए कुछ भी नहीं हैं। वे अपने विभाग में सिर्फ नाम के मंत्री हैं। गृह विभाग में उनके कहने और चाहने पर कुछ भी नहीं होता। इस विभाग को पूरी तरह से मुख्यमंत्री और उनके अधिकारियों ने अपने नियंत्रण में ले रखा है। इसके लिए मुख्यमंत्री सचिवालय में आईपीएस अधिकारी सरबजीत सिंह को सचिव बनाकर बैठाया गया है। आईपीएस अधिकारियों के तबादलों और प्रमोशन में मंत्री की रत्ती भर भी नहीं चलती। इस विभाग में मंत्री के साथ ही प्रमुख सचिव भी सिर्फ नाम के हैं। हाल ही में विभाग के प्रमुख सचिव राजन एस. कटोच इन्हीं सब परिस्थितियों के चलते केंद्र में जा चुके हैं। उनकी जगह खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग के प्रमुख सचिव अशोक दास को प्रमुख सचिव बनाकर सरकार ने सबको चौंका दिया है। दास को शांत और सौम्य व्यवहार का अफसर माना जाता है, जबकि गृह विभाग ऐसे अफसरों के बस की बात नहीं है। गृह मंत्री की उपेक्षा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्हें अपनी पसंद के अधिकारी को अपना निज सहायक बनवाने के लिए एक साल का समय लग गया।
नागेंद्र सिंह : नागौद के राजपरिवार से आने वाले नागेंद्र सिंह को लोक निर्माण विभाग में काम करने के लिए फ्री हैण्ड मिला है, लेकिन इस हकीकत को खुद मंत्रीजी ही बयां कर चुके हैं। 16 नवंबर को सतना में एक आमसभा में उन्होंने साफ कह दिया कि वे अपने इस विभाग और इसके अधिकारियों से खासे परेशान हैं। अफसर उनकी सुनते नहीं हैं। दरअसल इस विभाग में जितने भी अफसर रहे उन्हें मुख्यमंत्री के चाहने पर ही कुर्सी मिली। इसलिए इनकी प्रतिबद्धताएं अपने मंत्री से ज्यादा मुख्यमंत्री के प्रति है। चूंकि नागेंद्र सिंह पढ़े-लिखे और तेजतर्रार अफसर हैं, इसलिए वे थोड़ा-बहुत काम अपने हिसाब से कराने में सफल हो गए। वरना उनकी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। इस बात को उन्होंने खुद स्वीकार कर लिया है।
गौरीशंकर बिसेन : तेजतर्रार लोक स्वास्थ्य एवं सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन अपने विभागों में अपने हिसाब से काम कर रहे हैं। उन्हें इस सरकार का खुशकिस्मत मंत्री कहा जा सकता है, जिनके मामले में न तो मुख्यमंत्री और न ही उनके अधिकारी ज्यादा दखल देते हैं। हाउंसिंग सोसायटी के घपलों के मामलों में जरूर मुख्यमंत्री ने सहकारिता विभाग के अफसरों को तलब किया, लेकिन इसमें भी मंत्री को पूरी तवज्जो दी गई। हालांकि अपनी सक्रियता से बिसेन ने भी मुख्यमंत्री को खुश कर रखा है, इसलिए उन्हें फ्री हैण्ड दिया गया है।
देवड़ा, जगन्नाथ, पारस : जेल एवं परिवहन मंत्री, जगदीश देवड़ा, श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह और खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार पारस चंद्र जैन सिर्फ नाम के मंत्री हैं। देवड़ा का परिवहन विभाग सीधे मुख्यमंत्री संभालते हैं और जेल की तरफ कोई देखना नहीं चाहता। यही हाल श्रम विभाग का है, इसलिए मंत्री लालबत्ती में बैठकर खुश हो लेते हैं। नागरिक आपूर्ति विभाग पर मुख्यमंत्री सचिवालय का सीधा नियंत्रण है, पारस चंद्र जैन भी राजधानी में कम ही दिखाई देते हैं।
अर्चना, रंजना : स्कूल शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस विभाग में अपने अंदाज में काम करती हैं, लेकिन सर्वशिक्षा अभियान और माध्यमिक शिक्षा अभियान जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के कारण मुख्यमंत्री विभाग की समीक्षा कभी-कभी खुद भी कर लेते हैं। शिक्षकों और अध्यापकों की लंबी फौज वाले इस विभाग में वैसे मंत्री को फ्री हैण्ड है, लेकिन इसके लिए उन्हें भी मुख्यमंत्री को विश्वास में लेना पड़ा। महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार रंजना बघेल तो पूरी तरह से मुख्यमंत्री के रहमो करम हैं। यही वजह है कि वे चाहते हुए भी काई काम खुद नहीं करती। हर छोटे-बड़े निर्णय लेने से पहले मुख्यमंत्री को अवगत कराकर वे अपनी वफादारी का परिचय देती हैं। अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले और घपलेबाजों को बचाने के लिए मुख्यमंत्री को भी सहमत कर लेने की कला उनमें है।
राजेंद्र शुक्ला : खनिज एवं ऊर्जा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) राजेंद्र शुक्ला भी 'यस बॉस' कहते हुए अपना काम चला रहे हैं। कहने को उनके पास खनिज और ऊर्जा जैसे अहम विभाग हैं, लेकिन मुख्यमंत्री ने इन दिनों दोनों विभागों में अपने विश्वस्त और होशियार अफसरों को बैठा रखा है, जो मंत्री को दाएं-बाएं देखने तक नहीं देते। खनिज विभाग के सचिव एसके मिश्रा हैं और ऊर्जा सचिव मो. सुलेमान। ये दोनों अफसर मुख्यमंत्री के बेहद करीबी हैं। मंत्री की बजाय सीधे मुख्यमंत्री से ही मुखातिब होते हैं।
हार्डिया की लॉटरी लगी : सरकार के 9 राज्यमंत्रियों में लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया की लॉटरी लगी हुई है। वे एकमात्र ऐसे राज्यमंत्री हैं, जिनके पास करने के लिए कुछ काम है। अनूप मिश्रा के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री ने इस विभाग में किसी कैबिनेट मंत्री की नियुक्ति करने की बजाए इसे अपने पास रखा। हार्डिया राज्यमंत्री होने के नाते फिलहाल अधिकांश काम संभाल रहे हैं। बाकी के 8 राज्यमंत्री फुर्सत में हैं।

विरासत के लिए सिंधिया घराने में जंग

ग्वालियर के जयविलास पैलेस स्थित रानी महल में प्रवेश करते ही माधवराव सिंधिया की बड़ी-सी तस्वीर देख आपको हैरत नहीं होगी, लेकिन जब आपको कोई बताए कि ये तस्वीर इस महल में रहने वाली माधवराव की छोटी बहन यशोधरा ने लगवाई है तो आपको आश्चर्य हो सकता है। इसे देख लोगों को लगने लगा था कि शायद स्व. विजयाराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया के निधन के बाद दोनों ओर घुली कड़वाहट साफ हो चुकी है। लेकिन आप गलत सोच रहे हैं। आजादी के बाद भी ग्वालियर को खुद की जागीर समझने वाला सिंधिया घराना, इसी ग्वालियर और यहां की बदौलत देशभर में बनाई अपनी जागीरों को लेकर फिर आमने-सामने आ गया है। पहले बड़े सिंधिया यानी माधवराव सिंधिया और विजयाराजे सिंधिया में दशकों तक विभिन्न कारणों से अबोला रहा। इन अबोले और रंजिश की एक बड़ी वजह सिंधिया खानदान की पैतृक संपत्ति भी थी। अब इतिहास खुद को दोहराता दिख रहा है। अब एक ओर हैं माधवराव के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरी ओर हैं उनकी बुआ यानी माधवराव की बहन और नेपाल के शमशेर जंग बहादुर राणा की पत्नी उषा राजे सिंधिया, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में विधायक वसुंधरा राजे सिंधिया और ग्वालियर से सांसद यशोधरा राजे भंसाली (सिंधिया)। दांव पर लगी है ग्वालियर सहित देशभर में फैली करीब 20 हजार करोड़ की संपत्ति।
ताजा झगड़ा तब शुरू हुआ, जब सिंधिया ने अपने कब्जे वाली कुछ संपत्ति को बेचने के लिए सौदा करना शुरू किया। इसकी भनक लगते ही उनकी तीनों बुआ एक हो गईं और ग्वालियर में अतिरिक्त सत्र एवं जिला न्यायाधीश (एडीजे) की अदालत में एक अर्जी दायर कर सौदे पर रोक लगवाने की मांग की। इस पर उन्होंने स्टे भी ले लिया। सिंधिया घराने के पास ग्वालियर में छोटे-बड़े महल, हवेली हैं। इनकी कीमत आज की तारीख में सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है। इसी तरह मुंबई, दिल्ली और पुणे में भी इस घराने के पास हजारों करोड़ की संपत्ति है। एक नामी टेक्सटाइल्स कंपनी में भी भारी भरकम निवेश है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ज्येष्ठाधिकार के तहत खुद को सिंधिया परिवार का एकमात्र वारिस होने का दावा पेश कर चुके हैं। लेकिन 2001 में विजयाराजे की मौत के बाद उनके विश्वस्त और तत्कालीन निज सचिव संभाजी राव आंग्रे ने एक वसीयत पेश की है। इसमें उन्होंने अपने बेटे माधवराव सिंधिया और पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया को बेदखल कर दिया था। इसके अलावा इस वसीयत में उन्होंने अपनी दो तिहाई संपत्ति अपनी बेटियों को देने और एक तिहाई संपत्ति 1975 में बनाए एक ट्रस्ट को दान में देने की घोषणा कर दी थी। विजयाराजे के ही वकीलों ने 2001 में मुबई में एक और वसीयत पेश की। इसमें भी उन्होंने अपने बेटे-पोते को संपत्ति से वंचित कर दिया था। उन्होंने अपने नियंत्रण वाली सारी संपत्ति अपनी बेटियों को दे दी थी। हालांकि ये दोनों वसीयत कानूनी झमेले में फंसी हैं। अब दोबारा संपत्ति के लिए शुरू इस जंग पर दोनों पक्ष मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं।
पुराना नाता है विवादों से
- सिंधिया परिवार में संपत्ति को लेकर विवाद नई बात नहीं है। 1971 में प्रिवीपर्स की समाप्ति के बाद सिंधिया परिवार ने संपत्ति का मौखिक बंटवारा कर लिया था। 1989 में उन्होंने इस दावे को अदालत में चुनौती दी। ये मामला पुणे की अदालत में विचाराधीन है।
- ग्वालियर की जिस हिरण वन कोठी में सरदार आंग्रे रहते थे, वहां माधवराव सिंधिया के निर्देश पर स्थानीय गुंडों ने तोडफ़ोड़ की। इस दौरान आंगे्र और राजमाता लंदन में थे। इस मामले में सिंधिया और उनके समर्थकों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सही ठहराया। मामला अभी अदालत में विचाराधीन है।
- ग्वालियर किला परिवार में स्थित सिंधिया स्कूल को लेकर भी विवाद जारी है।

मप्र के राजाओं पर मेहरबानी क्यों

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2 जी स्पैक्ट्रम मामले में कंट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (कैग) की जिस रिपोर्ट ने केंद्र सरकार को वर्तमान कार्यकाल के अब तक के सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है, इसी तरह की रिपोर्ट कैग हर साल मप्र सरकार के घपले-घोटालों पर भी देता रहा है। लेखों के विश्लेषणों पर आधारित इस आलोचनात्मक रिपोर्ट को परिपाटी मानकर न तो सरकार ने कभी घोटालों के दोषियों पर कोई कार्रवाई की और न ही विधानसभा में विपक्ष पार्टियों ने कभी इस मुद्दे पर सरकार को घेरा। पिछले साल 31 मार्च 2009 को आई कैग की रिपोर्ट में केवल वाणिज्यिक कर, राज्य उत्पादन शुल्क, मोटर वाहन कर, मुद्रांक शुल्क एवं पंजीयन फीस, भू-राजस्व के 2 लाख 96 हजार 745 प्रकरणों में 2 हजार 342 से अधिक की गड़बड़ी उजागर की गई थी।
राज्य विधानसभा के बजट सत्र में हर साल कैग की रिपोर्ट रखी जाती है। इस रिपोर्ट का पटल पर रखा जाना, प्रदेश में महज औपचारिकता बनकर रह गया है। रिपोर्ट में उजागर की जाने वाली अनियमितताओं पर सरकार यह कहकर बचती रही कि यह रिपोर्ट एक सामान्य प्रक्रिया है और सरकार ने गड़बडिय़ों की गुंजाइश नहीं छोड़ी है। जबकि हकीकत यह है कि हर साल रिपोर्ट में घपले-घोटालों की राशि बढ़कर सामने आती है। राज्य में विभिन्न विभागों खासकर राजस्व वसूली विभाग करारोपण और जुर्माने की वसूली में हर साल सरकार को करोड़ों का चूना लगा रहे हैं। सालों पुरानी वसूली की फाइलें धूल खा रही हैं और ब्याज के साथ अब रकम हजारों करोड़ तक पहुंच गई है। अफसरों की एक नहीं कई लापरवाहियों का फायदा व्यापारियों ने उठाया और कर अपवंचन करके करोड़ों की चपत लगाई।
यहां भी हावी अफसशाही
कैग ने अपने प्रतिवेदनों में बार-बार इस बात को साफ किया है कि विभागों के प्रमुख सचिव और सचिव ऑडिट आपत्तियों पर कोई जवाब नहीं देते। कैग की टिप्पणियों से साफ होता है कि बार-बार रिमाइंडर के बाद भी अफसरों के कान पर जूं नहीं रेंगती। कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि कमियों, चूकों और अनियमितताओं में सुधार के लिए कार्रवाई करने में अधिकारी विफल रहे हैं। कैग ने यह भी सिफारिशें की कि निरीक्षण प्रतिवेदनों और कंडिकाओं का उत्तर नहीं भेजने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए और इन्हीं से राजस्व हानि की वसूली भी हो। हर साल कैग की इस तरह की ढेरो सिफारिशें आती हैं, लेकिन सरकार रिपोर्ट को ठीक से पढ़ती तक नहीं है। प्रदेश में अधिकारी भी बेखौफ होकर इसलिए भ्रष्टाचार कर रहे हैं कि रिपोर्ट का कोई माई-बाप नहीं है।
बजट के साथ बढ़ा भ्रष्टटाचार
कैग की पिछले पांच सालों की रिपोर्ट से यह भी साफ होता है कि जिस तरह से राज्य सरकार का बजट हर साल बढ़ता जा रहा है उसी तरह भ्रष्टाचार की रकम भी बढ़ रही है। वर्ष 2003 से सरकार का बजट महज दस हजार करोड़ के आसपास होता था। तब भ्रष्टाचार के इतने अधिक मामले सामने नहीं आए, लेकिन इसके बाद से लगातार हर साल लगातार बजट बढ़ता चला गया है। मौजूदा वित्तीय वर्ष में सरकार का बजट 50 हजार करोड़ का आंकड़ा छू चुका है। हर साल बढ़ रहे बजट से भ्रष्टाचार की रकम बढ़ी और यही कारण है कि मौजूदा सरकार में भ्रष्टाचार के आए दिन एक से बढ़कर एक मामले सामने आ रहे हैं। कैग की रिपोर्ट में उन गड़बडिय़ों की तरफ ध्यान दिलाया गया है, जो तीन चार साल पहले हुई हैं। हाल ही में हुई गड़बडिय़ों पर जब कैग अपनी रिपोर्ट देगा, तब रिपोर्ट के आंकड़े वाकई में चौंकाने वाले होंगे। हो सकता है कि सुशासन और पारदर्शी प्रशासन की बात करने वाली सरकार के लिए भ्रष्टाचार के इन आंकड़ों का सामना करना मुश्किल हो जाए।
वसूली और निर्माण में सबसे ज्यादा गड़बड़
तीन सालों की कैग की रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश में राजस्व वसूली और निर्माण कार्य करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा गड़बडिय़ां हैं। वसूली विभाग उचित करारोपण नहीं करते हुए सरकार को चूना लगाते हैं तो निर्माण कार्य विभाग दोगुनी लागत काम कराने को आतुर रहते हैं। सिंचाई परियोजनाओं, बांधों और भवनों के निर्माण में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार सामने आया है। कई मामलों में रिकार्ड ही संधारित नहीं हुआ तो कई जगह तय सीमा से ज्यादा खर्च कर किया गया। कर वसूली वाले विभागों में एक नहीं अनेक तरह की गड़बडिय़ां सामने आती हैं। सबसे ज्यादा लापरवाही बकाया वसूली होने में बरती जाती है।
नाम की लोक लेखा
विधानसभा की सबसे सशक्त लोक लेखा समिति पर कैग की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों पर काम की जवाबदारी है, लेकिन मप्र विधानसभा में लोक लेखा समिति केवल नाम मात्र की ही रह गई है। समिति का अध्यक्ष विपक्ष के किसी वरिष्ठ सदस्य को बनाया जाता है। तेरहवीं विधानसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक डॉ. गोविंद सिंह इसके अध्यक्ष हैं। विधानसभा का दो साल कार्यकाल बीत चुका है, लेकिन समिति ने कैग की किसी रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया। सैकड़ों लंबित कंडिकाओं की सुनवाई और इनके निराकरण के लिए समिति ने कभी उचित पहल नहीं की।
रिपोर्ट पर बहस की परंपरा भी बंद
नियमानुसार विधानसभा में कैग की रिपोर्ट आने के बाद इस पर बहस होनी चाहिए, लेकिन मप्र विधानसभा में हर साल आने वाली रिपोर्ट पर सालों से कोई बहस नहीं हुई। आमतौर पर कैग की रिपोर्ट के आधार पर विपक्ष सरकार से सवाल-जवाब करता है, लेकिन मप्र में कमजोर और गुटबाजी में बंटे विपक्ष ने कभी रिपोर्ट को खोलकर नहीं देखा।
भ्रष्टटाचार के मुद्दे में भी रिपोर्ट नहीं
तेरहवीं विधानसभा में विपक्ष शिवराज सरकार को मुख्यत: भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरता रहा है, लेकिन इसमें कैग द्वारा उजागर की गई वित्तीय खामियों और गड़बडिय़ों का कभी विपक्ष ने सहारा नहीं लिया। कैग की रिपोर्ट सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी है, लेकिन विपक्षी पार्टियां खुद रिपोर्ट पर ज्यादा गंभीर नहीं है। इससे साबित होता है कि प्रदेश में अपार भ्रष्टाचार के बीच भले ही चाहे इस मुद्दे से सदन को गूंजा दिया जाए, लेकिन हकीकत में सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।
जनवरी 10 में जारी रिपोट बची राशि नहीं दी वापस
नियमानुसार व्यय करने वाले विभागों को बचत के प्रत्याशित होने पर तुरंत अनुदानों/विनियोगों अथवा उसके भागों को वित्त विभाग को समर्पित करना चाहिए। लेकिन विभिन्न विभागों ने 47 मामलों में 2344.09 करोड़ रुपए समर्पित नहीं किए। 45 अन्य मामलों में 2490 करोड़ समर्पित नहीं किए।
ये हैं कर वसूलने वाले विभागों के घपले
ऐसे लगाया सरकार को चूना
वाणिज्यिक कर विभाग
- व्यावसायियों द्वारा प्रतिभूति जमा करने के लिए वैधानिक प्रावधान की कमी के परिणामस्वरूप 2.18 करोड़ की हानि।
- 15.70 लाख रुपए की राशि के इन्वेन्टरी रिबेट तथा इनपुट टैक्स क्रेडिट का गलत लाभ लिया।
- फेब्रिक, शक्कर, तंबाकू उत्पादों पर कर के अनारोपण के कारण 50.73 लाख रुपए के राजस्व की हानि हुई।
- कम कर विक्रयों से 5.57 करोड़ कर कर तथा 6.61 लाख के ब्याज नहीं मिला।
- कर मुक्त विक्रय की गलत कटौती से 1.80 करोड़ की कर हानि।
- कर मुक्ति की गलत छूट से 1.09 की हानि।

उत्पाद शुल्क
- विदेशी शराब, बीयर, स्पिरिट के निर्यात, परिवहन के सत्यापन प्रतिवेदन नहीं मिलने से 13.47 करोड़ का शुल्क नहीं मिला।
- आरक्षित मूल्य के गलत निर्धारण से 3.03 करोड़ रुपए की हानि।
- स्पिरिट तथा विदेशी मदिरा का निवर्तन न किए जाने से 1.28 करोड़ की हानि।

वाहनों पर कर
- 4851 वाहनों पर 7.46 करोड़ रुपए का जुर्माने सहित 18.59 करोड़ के कर का भुगतान न वाहन स्वामियों ने किया, न ही विभाग ने मांगा।
- ऑल इंडिया परमिट वाहनों से 47.22 लाख का टैक्स और 25.65 लाख का जुर्माना नहीं वसूला।
- विलेखों को उन पर आरोपणीय उचित शुल्क के निर्धारण के लिए लोक अधिकारियों को प्रस्तुत नहीं किए जाने से 5.59 करोड़ का स्टाम्प शुल्क कम मिला।
खनिज में गड़बड़ी
वर्ष 2008-09 में खनिज राजस्व से जुड़े रिकार्ड की जांच में 333.73 करोड़ की गड़बड़ी सामने आई। 9 जिलों में अक्टूबर 2008 से 2009 के बीच पता चला कि 65 खनिज पट्टों के मामलों में सड़क विकास कर का निर्धारण नहीं करने से 93.56 करोड़ की वसूली नहीं हुई। अनूपपुर में मार्च 2009 में पता चला कि साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लि. सोमना, जमुना कोतमा, गोविंदा, मीरा और भद्रा क्षेत्रों में अप्रैल 2007 से मार्च 2008 में 2.76 करोड़ कम मिले। इसी तरह के कई मामलों में जिलों में खनिज अधिकारियों ने वसूली नहीं की और पट्टाधारकों पर जुर्माना लगाने से भी बचते रहे।
2009 का वित्तीय प्रतिवेदन
गड़बड़ी और कैग की राय
- वर्ष 2008-09 तक कल 21486.13 करोड़ के अनुदानों तथा ऋणों के उपयोगिता प्रमाणपत्र राज्य सरकार द्वारा जारी करना अपेक्षित था। संबंधित इकाइयों तथा राज्य सरकार को मामले की सूचना के बाद भी 47 निकायों ने लेखा की प्रस्तुति में विलंब किया। मार्च 2009 तब 8.45 करोड़ रुपए के सरकारी धन के दुर्विनियोग, गबन आदि के कुल 966 प्रकरण मुख्य रूप से सरकार से वसूली अथवा अपलेखन के आदेश प्रतीक्षित होने के कारण लंबित थे। कैग के मतानुसार इन सभी कमियों से विभागों के अंतर्गत आंतरिक नियंत्रण में कमी तथा राज्य सरकार प्रभावी नियंत्रण सामने आया।
- वित्त प्रबंधन एवं बजटीय नियंत्रण के मामले में कैग ने कहा कि वर्ष के दौरान 8352 करोड़ रुपए की बचत, कुल बजट प्रावधान का 17 प्रतिशत थी, तथापि राज्य सरकार द्वारा दोषपूर्ण बजट तैयारी, अप्रभावी वित्तीय प्रबंधन तथा व्यय पर अप्रभावी बजट नियंत्रण प्रकट हुआ। वर्ष के दौरान प्राप्त 4628 करोड़ रुपए का एक अनुपूरक प्रावधान 8352 करोड़ रुपए की बचत की दृष्टि से आवश्यक नहीं था। वित्तीय नियमों तथा राज्य सरकार के अनुदेशों का उल्लंघन कर जारी किए गए 287.44 करोड़ रुपए के समर्पण/पुनर्नियोग की मंजूरियां दोषपूर्ण थीं।

पिछले साल 1070 करोड़ की चपत
वित्तीय वर्ष 2007-08 में कैग ने अपनी रिपोर्ट में मध्यप्रदेश सरकार की कर और शुल्क वसूली में एक साल में करीब 1070 करोड़ रुपए की कर हानि का खुलासा किया था।
कैग ने मुद्रांक एवं पंजीयन शुल्क तथा खनिज मामलों की पांच साल की समीक्षा भी की। खनिज में 395 करोड़ रुपए की हानि हुई। रिपोर्ट में खनिज उत्खनन के आंकड़ों का अन्य विभागों के साथ प्रति सत्यापन न होने पर प्रतिकूल टिप्पणी की गई।
महालेखाकार मौसुमी रॉय भट्टाचार्य ने बताया था कि मप्र में खनिज राजस्व के मामले में काफी कमियां सामने आई हैं। रायल्टी का पांच प्रतिशत सड़क विकास के लिए जमा कराना होता है, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। उन्होंने रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए बताया कि इसमें कर, ब्याज, शास्ति आदि के अनारोपण ओर कम आरोपण से संबंधित दो समीक्षाओं समेत 55 कंडिकाएं शामिल हैं, जिनमें 623.43 करोड़ रुपए की राशि शामिल है।
रिपोर्ट में क्या था खास
- वर्ष 2006-07 के 25,694.28 करोड़ की तुलना में वर्ष 2007-08 में कुल राजस्व प्राप्तियां 30,688.73 करोड़ रुपए, इसमें 48 फीसदी राज्य कर राजस्व 12,017.64 करोड़ तथा कर के अलावा राजस्व 2738.18 करोड़ रुपए वसूले, शेष 52 प्रतिशत केंद्र सरकार से राज्यांश 10,203.50 करोड़ रुपए तथा सहायता अनुदान 5,729.41 करोड़ रुपए मिले, 2007-08 के दौरान 4,48,574 मामलों में 1,079.85 करोड़ रुपए के राजस्व का अवनिर्धारण।
कम आरोपण और हानि
वाणिज्यिक कर
- पात्रता प्रमाण पत्र निरस्त न किए जाने से बंद इकाइयों से 75.34 करोड़ रुपए कर वसूली नहीं हुई।
- कर न लगाने और कम लगाने से 43.36 लाख राजस्व और 6.46 लाख रुपए ब्याज नहीं मिला।
- गलत छूट देने से 6.20 करोड़ रुपए की हानि। पंजीयन न करने से 2.07 करोड़, गलत दर के कारण 2.26 करोड़ रुपए कम मिले।
- प्रवेश कर में 36.28 लाख का नुकसान।

उत्पाद शुल्क
- विदेशी मदिरा का निर्यात सत्यापन वक्त पर न होने तथा अन्य वजहों से 6.30 करोड़ नहीं मिले।
वाहनों पर टैक्स
- 4228 वाहनों पर 26.37 करोड़ रुपए का भुगतान न तो किया गया न विभाग ने मांगा।
- लाइफ टैक्स की बाकी राशि नहीं वसूलने से 54.92 करोड़ का नुकसान।
- वाहन मालिकों ने गलत दर से टैक्स दिया, विभाग को 63.98 करोड़ रुपए कम मिले।
- अन्य राज्यों के वाहनों पर टैक्स न लगाने से 25.53 लाख रुपए की कम वसूली।
मनोरंजन शुल्क
- केवल संचालकों तथा होटल मालिकों से वसूली नहीं करने से 32.57 लाख राजस्व नहीं मिला।
- सिनेमाघरों पर टैक्स नहीं लगाने से 20.49 लाख रुपए का नुकसान।
भू-राजस्व : डायवर्शन लगान नहीं वसूलने, कुर्की का निराकरण न करने आदि से 5.4 करोड़ रुपए राजस्व नहीं मिला।
वन : इमारती लकड़ी के कम उत्पादन से 73.02 लाख रुपए राजस्व हानि।
विद्युत शुल्क : निरीक्षण फीस नहीं वसूलने और नियम तोडऩे वालों पर दंड न लगाने से 1.77 करोड़ रुपए का नुकसान।
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति : कर्ज भुगतान न किए जाने से 21.15 लाख रुपए के राजस्व की हानि।
ये हैं पांच साल की समीक्षा का नतीजा :
- मुद्रांक शुल्क एवं पंजीयन फीस में 82.8 करोड़ रुपए का नुकसान।
- खनिज प्राप्तियों में 394.81 करोड़ रुपए की हानियां।
बचत पत्र डाकघर से वसूल नहीं किए गए
पिछले साल जुलाई में जारी हुई रिपोर्ट में प्रदेश की योजनाओं के क्रियान्वयन सहित लेखा-जोखा वर्ष 2007-08 को लेकर सीएजी ने अपनी रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट में बच्चों के पोषण स्तर में सुधार के लिए लागू की गई मध्यान्ह भोजन योजना को पूरी तरह फेल बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि योजना के तहत प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को आकर्षित नहीं किया जा सका है। इसके अलावा जरूरी 3.68 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं हो पाना भी योजना की असफलता का कारण बताया गया है।
सीएजी ने और कहां जताई आपत्ति
सीएजी ने प्रदेश की जिन और योजनाओं पर आपत्ति जताई है, उनमें प्रमुख रूप से जल ग्रहण विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन, आदिवासी उपयोजना के तहत अधोसंरचना का विकास, नर्मदा, ताप्ती कछार में सिंचाई सुविधाएं, महिला व बाल विकास विभाग में आंतरिक नियंत्रण प्रणाली सहित पीएचई, शालेय शिक्षा विभाग, नर्मदा घाटी विभागों की प्रमुख योजनाएं भी हैं।
मनरेगा के अमल में खामी
भोपाल। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में देश में सबसे आगे होने का दावा करने वाली मध्यप्रदेश सरकार की पोल भी कैग की रिपोर्ट ने खोली। रिपोर्ट में इस योजना में अनेक खामियां गिनाते हुए कहा गया कि सभी पंजीकृत परिवारों को एक सौ दिन का जहां रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जा सका, वहीं अवयस्कों को भी जाब कार्ड में शामिल कर लिया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दो फरवरी 2006 से 18 जिलों में लागू इस योजना के तहत सभी पंजीकृत परिवारों को सौ दिन का रोजगार उपलब्ध नहीं कराया गया। अपात्र कार्यों को क्रियान्वित करने से कार्य अपूर्ण पड़े थे, निधियों को जारी करने में देरी और मजदूरों में भुगतान में देरी करने के प्रकरण भी सामने आए। रिपोर्ट के अनुसार कुछ प्रकरणों में जाब कार्ड पर परिवार के सदस्यों के फोटो चिपकाने में देरी हुई थी, जबकि अवयस्कों को भी जाब कार्ड में शामिल कर लिया गया। रोजगार देने के लिए कोई वार्षिक कार्ययोजना अलग से तैयार नहीं की गई। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रोजगार मांग एवं रोजगार प्रदाय पंजी या तो संधारित नहीं की गई अथवा अपूर्ण रूप से संधारित की गई थी, जिसके कारण वास्तविक रूप से रोजगार की मांग एवं रोजगार प्रदाय का पता नहीं किया जा सकता था। मस्टर रोलों की समीक्षा में पाया गया कि जाब कार्ड में अवस्यकों को रोजगार दिया गया था।
मुख्यमंत्री के खिलाफ टिप्पणी भी कर चुका है सीएजी
पिछले साल विधानसभा में पेश सीएजी की रिपोर्ट में पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ टिप्पणी की गई है, जबकि अमूमन गड़बडिय़ों पर टिप्पणी सरकारी विभागों या अफसरों पर होती हैं। सीएजी की सिविल रिपोर्ट में बाण्ड बीओटी के तहत निजी क्षेत्र को दिए गए कटनी बायपास के बारे में कहा गया कि ठेकेदार ने गलत स्थान पर टोल नाका स्थापित किया, जिससे बायपास का उपयोग न करने वालों को भी टोल टैक्स देना पड़ा। इस बारे में जनता ने मुख्यमंत्री को शिकायत की, परंतु टोल नाके के स्थान पर कोई बदलाव नहीं किया गया।
लाड़ली लक्ष्मी योजना में भी गड़बड़ी
(जुलाई 2009)
सीएजी ने मप्र सरकार की सबसे पॉपुलर लाड़ली लक्ष्मी योजना के नाम पर मची लूट को भी रेखांकित किया था। सीएजी अपनी रिपोर्ट में योजना में गंभीर वित्तीय अनियमितताओं सहित अपात्र हितग्राहियों को मदद पहुंचाने का खुलासा कर चुका है। रिपोर्ट के अनुसार बच्ची की जन्मतिथि में हेराफेरी सहित परिवार नियोजन सुनिश्चित किए बगैर करीब एक करोड़ आठ लाख रुपए का भुगतान कर दिया गया।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

दया के पात्र हैं दिग्विजय



कॉग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अपने उटपटांग बयानों के कारण हमेशा से विवादों में बने रहते हैं। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती कहती हैं कि दिग्विजय सिंह सिर्फ दया के पात्र हैं। वर्ष 2003 में वे मध्यप्रदेश से बेदखल कर दिए गए थे। इस बेदखली में संघ को दोषी मानते हैं। बकौल सुश्री भारती दिग्विजय सिंह को लगता है कि मध्यप्रदेश से कांग्रेस और उनको बेदखल करने में संघ की ही भूमिका थी। इसीलिए वे हर बात में संघ का नाम घसीटते हैं। दिग्विजय सिंह ने हमेशा ही संघ को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है। हिन्दू आतंकवाद का नारा उछालने और संघ को आतंकी संगठन सिद्ध करने के लिए उन्होने हर संभव कोशिश की।
उमा कहती हैं कि राहुल ने दिग्विजय सिंह को अपना गुरू बना लिया है लेकिन इन दोनों पर यह कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है लोभी गुरू लालची चेला- दोनों नरक में ठेलमठेला। उन्होंने कहा कि गांधी एक बड़े राजनीतिक घराने से हैं इसलिए उन्हें दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिज्ञों से बचना चाहिए। दिग्विजय सिंह पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि दिग्विजय सिंह को इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान देने का शौक है। राहुल मुझसे सीखें और आरएसएस का इतिहास पढ़ें। कश्मीर में जवाहर लाल नेहरू ने भी आरएसएस की मदद मांगी थी। यहां तक कि गणतंत्र दिवस के मौके पर परेड में भी आरएसएस को शामिल किया गया है। राहुल को यह सब पढऩा चाहिए। हालांकि दिग्विजय सिंह का दामन स्वयं ही दागदार है। कुछ दिन पहले ही माकपा-माओवादी के केन्द्रीय समिति सदस्य तुषारकांत भट्टाचार्य ने एक साप्ताहिक पत्रिका को बताया था कि दिग्विजय सिंह ने पिछले साल अगस्त में उनकी पार्टी से संपर्क साधा थाा। यह कोशिश हैदराबाद के एक कांगेेसी नेता के जरिए की गई थी। भट्टाचार्य के मुताबिक उस वक्त वह वारंगल जेल में था। गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह ने गृहमंत्री चिदंबरम की नक्सल विरोधी नीति की आलोचना की थी।
दिग्विजय सिंह का ताजा बयान यही बयां करता है कि उन्होंने देशभक्ति का कोई सबक नहीं सीखा है, बल्कि इसके उलट वे अंग्रेजो से लेकर आतंकियों और देश विरोधियों के समर्थक के तौर पर उभरे हैं। अब यह सच भी उजागर होन लगा है कि उन्हीं के राज में सिमी, नक्सली गतिविधियां, बांग्लादेशी घुसपैठ और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिला, बल्कि अरुंधती राय जैसी देश विरोधी बुद्धिजीवियों को भी शह मिला। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि दिग्विजय सिंह के पुरखे अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। अब अखबारों में यह दर्ज हो रहा है कि दिग्विजय सिंह ने आर.आर खान से लेकर अजमल कसाब तक की रहनुमाई राजनीति कैसे की। इन सब से कांग्रेस और दिग्विजय की धर्मनिरपेक्ष छवि को कितना बल मिला या उनके वोट बैंक में कितना इजाफा हुआ यह तो नहीं मालूम, लेकिन तब प्रदेश का और अब पूरे देश का नुकसान जरूर हो रहा है।
राजनीतिक समीक्षक कहते हैं दिग्गी दूसरे दलों में अपने समर्थक पैदा करते हैं और अपनी पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को पैदा नहीं होने देते, अगर पैदा हो गए तो उन्हें बढऩे नहीं देते, अगर इक्का-दुक्का विरोधी बढ़ भी गए तो उनका तत्काल खात्मा करते हैं। मध्यप्रदेश और देश की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। दिग्विजय सिंह सामंती स्वभाव के राजेनता माने जाते हैं। मध्यप्रदेश में अपने 10 वर्षों के राज में वे जनता को कुशासन देने के रूप में जाने जाते हैं। अपने जमाने में उन्होंने नारा दिया - चुनाव विकास से नहीं, प्रबंधन से जीते जाते हैं। उन्होंने एक पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा था कि जब लालू बिना बिजली और सड़क के तीसरी बार सत्ता में आ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। हालांकि 2003 में उनका चुनावी प्रबंधन बुरी तरफ फेल हो गया था। अपने राज में उन्होंने प्रदेश में सांप्रदायिकता का हौव्वा खड़ा कर दिया था। एक तरफ वे हिन्दुओं का दमन करते रहे वहीं ईसाइय-मुसलमानों को शह देते रहे। गौरतलब है कि 22 दिसंबर, 1998 को झाबुआ के नवापाड़ा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ था तब भी दिग्विजय सिंह ने हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों पर ही आरोप मढ़ दिए थे। लेकिन बाद में बलात्कार के कई आरोपी मतान्तरित ईसाई ही पाए गए थे। विपक्ष सहित कई पार्टियों की मांग और राज्यपाल द्वारा सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखने के बाद भी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पूरे मामले से मुह मोड़ लिया था। वे सिर्फ घटना का राजनैतिक लाभ उठाना चाहते थे। दिग्विजय सिंह ने झाबुआ नन बलात्कार कांड के एक आरोपी को कांग्रेस का टिकट भी दिया था।
अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जब उन पर सोम डिस्लरी से घूस लेने का आरोप लगा और वे विपक्ष के आक्रामक तेवरों से घिर गए तो अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा करने लगे। वे अचानक ही राजग की शिक्षा नीति के प्रशंसक बन गए। ज्योतिष को विज्ञान मान लिया। लेकिन जब-जब उनको मौका हाथ लगा हिन्दुत्व पर आक्रमण करने से कभी नहीं चूके। महाराष्ट्र एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे की आतंकी हत्या को लेकर दिए गए बयान पर दिग्गी बुरी तरह घिर गए हैं। अपनी किरकिरी होते देख कांग्रेस ने भी उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन विपक्ष कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम से दिग्विजय के बयान पर उनकी प्रतिक्रया पूछ रहा है। कांग्रेस में अलग-थलग पड़े दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद जगदंबिका पाल के बयान से एक और झटका लगेगा। दिग्गी जिस प्रदेश के प्रभारी हैं उसी प्रदेश के कांग्रेसी नेता अब उनके खिलाफ हो गए हैं। जाहिर है दिग्विजय की ओछो राजनीति से कांगेस का धर्मरिपेक्षता का राग भी कमजोर पड़ता दिख रहा है। कांग्रेसी सांसद जगदंबिका पाल ने एक कार्यक्रम में कहा कि दिग्विजय सिंह का बयान गैर जरूरी था। मुम्बई हादसे के बाद गृहमंत्री ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया, उस पर ऐसे बयान से प्रतिकूल असर पड़ेगा। दरअसल अपने बड़बोलेपन से वे कई बार पूरी पार्टी को संकट में डाल चुके हैं। हो सकता है दिग्विजय सिंह का बयान रूवयं को पार्टी में स्थापित करने या अपना कद बढ़ाने के लिए हो। यह भी संभव है कि वे अपने बयानों से पार्टी का भला करना चाहते हों। लेकिन उनके बयानों से हर बार पार्टी को नुकसान ही होता रहा है। ऐसे में पार्टी के भीतर भी वे आलोचना और निन्दा के पात्र बनते हैं। अंतत: उनके स्वयं का नुकसान भी होता है। लेकिन दिग्विजय सिंह है कि अपनी करनी से बाज नहीं आते।
मध्यप्रदेश की राजनीति में 'बुआजीÓ के नाम से चर्चित और वर्तमान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रही जमुना देवी ने वर्ष 1995 में कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बारे में टिप्पणी की थी, '' मैं आजकल मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं।ÓÓ इन्हीं बुआजी ने एक बार कहा था - मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने सलाहकार और वामपंथी विचारधारा के समर्थक संगठनों को विशेष महत्व दे रहे हैं, जिससे नक्सली गतिविधियां फल-फूल रही हैं।
जानकारों के मुताबिक राघोगढ़ ने हमेशा ही अंग्रेजों का साथ दिया। राजा अजीत सिंह के दरम्यान राघोगढ़ के ब्रिटिश राज के ही अधीन रहा। 1904 में राघोगढ़ सिंधिया राज के अधीन हो गया। राघोगढ़ के तब के राजा सिंधिया को नजराना दिया करते थे। राघोगढ़ के राजा बहादुर सिंह भारतीय राजाओं में अंग्रेजों के सबसे वफादार थे। इनकी इच्छा थी कि वे प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए मारे जायें। अंग्रेजों की इस वफादारी के लिए राघोगढ़ राजघराने को वायसराय का धन्यवाद भी मिला। इतिहास के पन्नों में इस बात का उल्लेख है कि राघोगढ़ सामंत ने अपने क्षेत्र अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की हर आवाज को दबाया। 1857 के गदर के दौरान भी यह राजघराना भारतीयों की बजाए अंग्रेजों के ही साथ था। दिग्विजय सिंह को यह अवसर मिला था कि वे राघोगढ़ पर लगने वाले आरोपों का जवाब देते, लेकिन उन्होंने न तो अपने 10 वर्षों के अपने शासन में और न ही अब ऐसा कोई प्रयास किया। बजाए इसके वे लगतार ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे आतंवादियों और उनके पोषक शक्तियों को ही मदद मिल रही है। मामला चाहे बटला हाउस का हो या आजमगढ़ जाकर आतंकियों के परिजनों से मुलाकात का, हर बार दिग्विजय सिंह पर आतंकियों की मदद करने का आरोप लगा।
मध्यप्रदेश भाजपा ने दिग्विजय सिंह और खूखंार अपराधियों के गठजोर को केन्द्र में रखकर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। 'एक संदिग्ध मुख्यमंत्रीÓ नाम से प्रकाशित इस पुस्तिका में मालवा क्षेत्र के खूंखार अपराधी खान बन्धुओं और दिग्विजय के संबंधों को उजागर किया गया था। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 15 अगस्त, 1995 को स्वतंत्रता दिवस पर भेापाल में बोलते हुए कहा कि ''यहां अल्पसंख्यक असुरक्षा की भावना से पीडि़त होते हैं, और इसीलिए वे हथियारों का जमाव करते हैं।ÓÓ दरअसल दिग्गी अपने उपर लगे आरोपों को ही जायज ठहरा रहे थे। भाजपा ने उन पर संगीन आरोप लगाए थे। गौरतलब है कि 1994-95 में जब गुजरात पुलिस ने मालवा के उज्जैन जिले से पप्पू पठान की गिरफ्तारी की तब विदेशी हथियार कांड का भांडा फूटा। यह भी पता चला कि इसमें रतलाम नगर पालिका निगम का पार्षद भी शामिल है जो दिग्विजय सिंह के पैनल से चुनाव लड़ा था। इस पार्षद का नाम आर.आर खान बताया गया। महिदपुर निवासी पप्पू पठान की जानकारी के आधार पर आर.आर खान के छोटे भाई महमूद खान के पास से कार्बाइन सहित अनेक विदेशी हथियार बरामद हुआ। पकड़े गए आरोपियों का संबंध तस्कर छोटा दाउद और सोहराब पठान से भी पाया गया। पुलिस की तफतीश में यह भी पता चला कि इन सभी आरोपियों को दिग्विजय सरकार के कई मंत्रियों और स्वयं मुख्यमंत्री तथा अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष इब्राहीम कुरैशी का संरक्षण भी प्राप्त है। मीडिया और विपक्ष ने दिग्विजय सिंह द्वारा मेहमूद खान और उसके बड़े भाई आर.आर खान के बचाव में दिए गए बयान को खूब उछाला था। यह भी आरोप लगा कि इंदौर स्थित खंडवा रोड पर मालवा फार्म हाउस, जहां से देशी-विदेशी हथियारों का जखीरा पकड़ा गया था, तत्कालीन दिग्विजय सरकार के मंत्रीमंडल के कई सदस्यों द्वारा अय्याशी के लिए उपयोग किया जाता था। यह गठजोड़ न सिर्फ अखबारों की सुर्खियों में आया, बल्कि मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी गूंजा।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

मौत का मार्ग बना गुटखा



कभी कपड़ा उद्योग फिर चमड़ा निर्यात के क्षेत्र में दुनिया के मानचित्र पर अपनी जगह बनाने वाला कानपुर शहर आज पान मसाला, गुटखा और तंबाकू के कारोबार के लिए देश भर में जाना जाता है। साठ के दशक में बादशाही नाका, हालसी रोड निवासी चुन्नी लाल शुक्ला ने देश के अंदर पहला ब्रांडेड पान मसाला बादशाह पसंदके नाम से शुरू किया। इसको खाने वाले और पुराने जानकार बताते हैं कि इसकी गुणवत्ता इतनी श्रेष्ठ थी कि दो दाना खाने के बाद पूरे दिन केवड़़ा रूह, चंदन और इलायची की सुगंध मुंह से आती रहती थी। गुटखा कारोबार पर तकरीबन बीस साल तक बादशाह पसंद का एकछत्र राज्य रहा। जानकार बताते हैं कि चुन्नी लाल शुक्ल गुणवत्ता के लिए इतने जागरूक थे कि कभी भी मुनाफे के लिए समझौता नहीं किया। कंपनी को लगातार घाटा होता रहा और अंतत: वह बंद हो गई। आज उनका परिवार भुखमरी के दिन झेल रहा है।
बादशाह पसंद कंपनी के बंद होने के बाद पान बहार, दिल पसंद, डनहिल, पान पराग, कुमार, कमला पसंद, सर, गोवा, श्याम बहार, राजश्री, विमल और शिखर सरीखे कई छोटे उत्पाद बाजार में आ गए। 1988-89 तक पान मसाला 100 ग्राम के टीन के डिब्बे में आता था। उस समय तक इसमें तंबाकू नहीं मिली होती थी। आज भी पुराने ब्रांड का पान मसाला खाने वाले अलग से तंबाकू मिलाकर उसे खाते हैं। यही नहीं, कुछ कंपनियों ने तो पान मसाले के पाउच के साथ ही छोटा सा तंबाकू का भी पाऊच जोड़़कर मार्केटिंग शुरू की । वर्ष 1989-90 में पहली बार गुटखा के रूप में एक रुपए वाला पाऊच कुमार के नाम से बाजार में आया। पाऊच में आने के बाद ही इस उद्योग में क्रांति आ गई। मुनाफे को पंख लग गए। जेब में रखने और खाने में सहूलियत होने के नाते कुमार के बाद पान पराग और उसके बाद सबने अपनी पाउच पैकिंग बाजार में उतार दी। इस क्रांति का श्रेय यू-फ्लैक्स के मालिक अशोक चतुर्वेदी को दिया जा सकता है। वही पहली बार सिंगापुर के व्यापार मेले से पाउच बनाने की मशीन लाए थे। कुमार पान मसाला वालों को पाउच बनाकर उन्होंने ही दिया था। इस पाउच के आने के बाद इस उद्योग को ऐसे पंख लगे कि आकाश की ऊंचाई भी कम पड़ऩे लगीं क्योंकि पाउच के आने के बाद गुटखा गरीब की जेब के भीतर पहुंच गया। वर्ष 1989-90 से आज तक अशोक चतुर्वेदी इस उद्योग के बेताज बादशाह बने हुए हैं। इनकी बिना मर्जी के इस उद्योग और केंद्रीय एक्साइज विभाग में पत्ता भी नहीं हिलता है।
इस उद्योग में अशोक चतुर्वेदी की दखल इससे भी समझी जा सकती है कि जब सेंट्रल बोर्ड फॉर एक्साइज एंड कस्टम के चेयमरैन एस.के. सिंहल ने 2007 में गुटखा बनाने पर कंपाउंड लेवी लगाई और एक मशीन पर गुटखा उत्पादों को साढ़़े बारह लाख की ड्यूटी देनी पड़़ी तो गुटखा उत्पादकों ने अशोक चतुर्वेदी की ही शरण गही। पहले मशीन की एमआरपी पर तकरीबन साठ फीसदी यानी 30 से 35 फीसदी गुटखा उत्पादक प्रति गुटखा एक्साइज ड्यूटी लगाया करते थे। इस दर से एक मशीन पर 25 हजार से दो लाख तक की ड्यूटी बनती थी जो बढ़़ कर साढ़़े बारह लाख जा पहुंची। इससे ऊबरने में अशोक चतुर्वेदी गुटखा मालिकों के तारनहार बने। मिल बैठ कर यह तय किया गया कि भले ही सरकार ने कंपाउडिंग कर दी हो लेकिन अधिक पाउच बनाने वाली मशीनें लगाकर मुनाफा बढ़़ाया जाए। ऐसी मशीनें लाई गईं जो एक मिनट में साढ़़े छह सौ पाउच बनाने लगीं जबकि पहले की मशीनें एक मिनट में सिर्फ 87 पाउच ही बना सकती थीं। नतीतन, केंद्र सरकार की साढ़़े बारह लाख ड्यूटी लगाकर इस कारोबार पर अंकुश लगाने की योजना फ्लाप हो गई। पर सरकार चुप बैठने वाली नहीं थी। नतीजतन, पाउच लैमिनेटरों के यहां डीआरआई ने छापेमारी शुरू की। छापेमारी में इस कारोबार का नया गणित उनकी समझ में आया। पता चला कि यहां सारा का सारा कारोबार दो नंबर में होता है। न कोई एक्साइज ड्यूटी, न कोई वैट। लैमिनेटरों के यहां छापे के बाद सच्चाई सामने आते ही पान मसाला उत्पादकों के यहां ताबड़़तोड़़ छापेमारी हुई। करोड़़ों के उत्पाद शुल्क की चोरी का खुलासा हुआ। करोड़़ों की ड्यूटी लगाने के बाद इन्हें जेल भेजा जाने लगा। डीआरआई की इस कार्रवाई से पान मसाला उद्योग में हड़़कंप मच गया। इससे बचाव व गुटखा कारोबार पर अपनी पकड़़ बनाए रखने के लिए देश के दस बड़़े पान मसाला उत्पादकों ने जी-10 नाम से एक संगठन बना डाला। भरोसेमंद सूत्रों की मानें तो 90 के दशक में जब इस कारोबार पर किसी की नजर नहीं थी तब गुटखा उत्पादकों ने अपनी अकूत कमाई जमीन के धंधे में लगाई। काले धन को ठिकाने लगाने के लिए जमीन का कारोबार सबसे मुफीद माना जाता है। जब भारत में जमीन के कारोबार में उछाल आया तो गुटका कारोबारियों की हैसियत भी खूब बढ़़ी। शायद ही ऐसा कोई बड़़ा शहर हो जहां गुटखा कारोबारियों की कोई अचल संपत्ति न हो। सूत्र बताते हैं कि कई गुटखा कारोबारियों की पांच-सात करोड़़ रुपए सालाना की आमदनी सिर्फ किराए से है। जमीन की बढ़़ी कीमतों ने इनमें से कई कारोबारियों को सौ से हजार करोड़़ रुपए तक का मालिक बना दिया। गुटखा कारोबारियों ने किस तरह अकूत कमाई की है यह इनके रहन-सहन से साफ उजागर होती है। इनके परिवार के कई सदस्य एनआरआई बन बैठे। साल के सौ दिन दुबई और तमाम यूरोपीय देशों में गुजारना इनकी जीवनशैली का हिस्सा है। घूमने की इनकी पसंदीदा जगह फिलीपींस है जहां यौन संबंधों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इनके यहां होने वाली शादियों व अन्य उत्सव स्वप्नलोक जैसे हैं। बालीवुड की मशहूर फिल्म अभिनेत्रियां इनके छोटे-छोटे उत्सवों की मेहमान होती हैं। कैटरीना कैफ, रवीना टंडन, प्रियंका चोपड़़ा को अपने यहां उत्सवों में बुलाने के लिए गुटका कारोबारी करहसुप्रीम कोर्ट ने गुटखा और पान मसाला की प्लास्टिक पाउच में बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का फैसला सुनाया है। फैसला स्वागत योग्य है लेकिन इससे तंबाकू के उपयोग, उससे होने वाली स्वास्थ्य हानि और बढ़़ते खतरनाक रोगों में कोई कमी आ जाएगी ऐसा नहीं लगता। सर्वोच्च न्यायालय ने कागज के पैकेट में बेचे जाने वाले सिगरेट को अपने इस फैसले से बाहर रखा है। जाहिर है इससे यह सवाल उठेगा कि प्लास्टिक ज्यादा खतरनाक है या तंबाकू?
आजादी की लड़़ाई के दौरान नशाबंदी को सबसे अहम मुद्दा मानने वाले महात्मा गांधी और अन्य समाजकर्मियों की लगातार कोशिशों का नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला। पूर्ण नशाबंदी लागू नहीं हो पाई और निकट भविष्य में ऐसी कोई संभावना भी नहीं दिखती। सर्वोच्च न्यायालय के इस ताजा फैसले का निष्कर्ष यह है कि तंबाकू को प्लास्टिक पाउच में न बेचा जाए बेशक उसे कागज के पाउच में बेचें। सिगरेट लॉबी चूंकि ताकतवर है इसलिए इसके गिरेबान तक किसी कानून का हाथ नहीं पहुंचता। शराब की तो बात ही न करें। तथाकथित सभ्य समाज में स्टेट्स सिंबल बन चुके सिगरेट और शराब अब एक अलग इज्जत प्राप्त कर चुके हैं।
बहरहाल तंबाकू के खतरे को नजरअंदाज करना न सिर्फ भयानक होगा बल्कि आत्मघाती भी होगा। तंबाकूजनित कुछ आंकड़़ों पर भी गौर कर लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन का आंकड़़ा कहता है कि 1997 के मुकाबले वर्ष, 2005 तक तंबाकू निषेध कानूनों के लागू करने के बाद वयस्कों में तंबाकू सेवन की दर में 21 से 30 प्रतिशत की कमी आई थी, लेकिन इसी दौरान हाईस्कूल जाने वाले 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में तंबाकू का सेवन 60 प्रतिशत बढ़़ गया था। अमेरिकन कैंसर सोसायटी का आंकड़़ा है कि प्रत्येक 10 तंबाकू उपयोगकर्ता में से 9 महज 18 वर्ष की उम्र से पहले तंबाकू का सेवन शुरू कर चुके होते हैं। दुनिया में होने वाली हर 5 मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से होती है। तंबाकू जनित रोगों में सबसे ज्यादा मामले फेफड़़े और रक्त से संबंधित रोगों के हैं जिनका इलाज न केवल महंगा बल्कि जटिल भी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2050 तक 2.2 अरब लोग तंबाकू या तंबाकू उत्पादों का सेवन कर रहे होंगे। इस आकलन से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तंबाकू के खिलाफ कानूनी और गैर सरकारी अभियानों की क्या गति है और उसका क्या हश्र है। प्रत्येक 8 सेकेंड में होने वाली एक मौत तंबाकू और तंबाकू जनित उत्पादों के सेवन से होती है। फिर भी तंबाकू के उपभोग में कमी न होना मानव सभ्यता के लिए एक गंभीर सवाल है। तंबाकू के बढ़़ते खतरे और जानलेवा दुष्प्रभावों के बावजूद इससे निपटने की हमारी तैयारी इतनी लचर है कि हम अपनी मौत को देख तो सकते हैं लेकिन उसे टालने की कोशिश नहीं कर सकते। यह मानवीय इतिहास की एक त्रासद घटना ही कही जाएगी कि कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका की सक्रियता के बावजूद स्थिति नहीं संभल रही। क्या तंबाकू के खिलाफ इस जंग में हमें हमारी नीयत ठीक करने की जरूरत नहीं है?आज गुटखा माउथफ्रेशनर के लिए एक आम नाम बन गया है। इसमें तंबाकू, सुपारी के साथ कई अन्य खतरनाक पदार्थों को बारीक कर प्लास्टिक पाउच में बेचा जाता है। गुटखे के सेवन से मुख कैंसर के अलावा एक और गंभीर बीमारी होती है जिसे ओरल सबम्यूकस फायब्रोसिस कहते हैं। इस बीमारी में मुंह में तंतु एक फीते की तरह बढ़़ता है, जिससे म्यूकस अपना लोच खो देता है और मुंह खोलने की क्षमता कम हो जाती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि मुंह पूरी तरह बंद हो जाता है जिसे बाहरी युक्ति द्वारा खोला जाता है। कैंसर को मुंह में पनपने के लिए यह बीमारी बहुत ज्यादा जिम्मेदार होती है लेकिन इस बीमारी के बारे में जानकारी कम ही है। गुटखा न चबाने वालों की तुलना में गुटखा लेने वाले लोगों में इस बीमारी का खतरा 400 गुणा ज्यादा होता है।
भारत में पान मसाला का उपयोग माउथ फ्रेशनर की तरह होता है। पान मसाला में मुख्य रूप से सुपारी, खैर, इलाइची, चूना और कई तरह के खूशबू देने वाले कुदरती पदार्थ मौजूद होते हैं। गुटखा पान मसाला का ही एक रूप है जिसमें तंबाकू को पान के फ्लेवर के साथ चबाया जाता है। भारत में पान को लोग भोजन के बाद खाते थे। ऐसा माना जाता था कि इसमें पाचनकारी गुण पाए जाते हैं लेकिन बदलते जीवनशैली के साथ पान की जगह गुटखा ने ले ली है जो स्वाभाविक रूप से एक आदत सी बन जाती है। पान मसाला की पैठ 8.6 प्रतिशत की दर से शहरों में और 6.6 फीसदी की दर से ग्रामीण इलाकों में बढ़़ रही है।
तंबाकू में मौजूद निकोटिन का असर पूरी बॉडी पर पड़़ेगा। इससे पेट और गले का कैंसर हो सकता हैआपकी सेहत का राज छिपा है आपके दांतों में। अगर आपके दांत तंदुरुस्त नहीं हैं तो समझिए बॉडी भी तंदुरुस्त नहीं। युवाओं में गुटखा खाने का चलन बढ़़ता जा रहा है जिसका नतीजा दांतों और मसूढ़़ों को भुगतना पड़़ता है। लगातार गुटखे के सेवन से सबम्यूकस फाइब्रोसिस हो जाता है जिससे मुंह खुलना बंद हो जाता है। मुंह नहीं खुलेगा तो दांतों और मसूड़़ों की सफाई कैसे होगी। मुंह नहीं खुलना कैंसर से ठीक पहले के लक्षण हैं।
आजकल युवा 12 से 13 साल की उम्र में गुटखा खाना शुरू कर देते हैं जिससे उनके दांत अध़ेड़ लोगों की तरह घिस जाते हैं। दांतों पर लगा इनेमल घिस जाता है और दांत संवेदनशील बन जाते हैं। दांतों के पेरिओडोंटल टिश्यू (दांत की हड्डी) क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और दांत ढीले हो जाते हैं। भारत में 70 फीसदी लोग तंबाकू का सेवन करते हैं। दांतों की गंदगी और नियमित साफ-सफाई न होने के कारण 700 तरह के बैक्टीरिया खून में पहुंच जाते हैं जो दिल की बीमारी का कारण बनते हैं। लगातार तंबाकू के इस्तेमाल से दांत का रंग भी काला हो जाता है। तंबाकू को लगातार मुंह में रखने से गाल का वह हिस्सा गल जाता है जहां तंबाकू रहता है। तंबाकू में मौजूद निकोटिन और चूना गाल के टिश्यूज को जला देता है यह टिश्यू जलकर कैंसर का कारण बन जाते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर युवाओं पर गुटखेका असर सबसे ज्यादा पड़़ता है। संतुलित खान-पान न होने से गुटखा इन युवाओं में जहर का काम करता है। लगातार गुटखे के सेवन से दांतों के जरिए युवाओं में मुंह का कैंसर, पेट का कैंसर और दिल की बीमारी हो जाती है।सुप्रीम कोर्ट ने प्लास्टिक के छोटे-छोटे पाउचों में गुटखे और पान मसाले की बिक्री पर अगले मार्च से रोक लगाने का फैसला सुनाकर देश की गुटखा और पान मसाला लॉबी को जोरदार झटका दिया है। कभी अपने स्वाद और गुणवत्ता के जरिए लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने वाले पान मसाला उत्पादों की पहचान अब इन छोटे पाउचों तक सिमट कर रह गई है। 20 वर्ष पहले जो पान मसाला टिन के छोटे डिब्बों में देश के अमीरों की शान था वह अब इन पाउचों की बदौलत देश के गरीबों की जेब तक पहुंचा और महज 20 वर्षों में इसके अधिकांश कारोबारी अरबपति बन बैठे। बताया जाता है कि पूर्व नौकरशाह नीरा यादव के साथ भूमि घोटाले में जेल में बंद कारोबारी अशोक चतुर्वेदी प्लास्टिक पाउच निर्माण के बादशाह हैं।
ओरल सबम्यूकल फायब्रोसिस का खतरा 400 गुणा ज्यादा
सुप्रीम कोर्ट ने प्लास्टिक के छोटे-छोटे पाउचों में गुटखे और पान मसाले की बिक्री पर अगले मार्च से रोक लगाने का फैसला सुनाकर देश की गुटखा और पान मसाला लॉबी को जोरदार झटका दिया है। कभी अपने स्वाद और गुणवत्ता के जरिए लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने वाले पान मसाला उत्पादों की पहचान अब इन छोटे पाउचों तक सिमट कर रह गई है। 20 वर्ष पहले जो पान मसाला टिन के छोटे डिब्बों में देश के अमीरों की शान था वह अब इन पाउचों की बदौलत देश के गरीबों की जेब तक पहुंचा और महज 20 वर्षों में इसके अधिकांश कारोबारी अरबपति बन बैठे। बताया जाता है कि पूर्व नौकरशाह नीरा यादव के साथ भूमि घोटाले में जेल में बंद कारोबारी अशोक चतुर्वेदी प्लास्टिक पाउच निर्माण के बादशाह हैं।
तंबाकू उत्पादित पदार्थों
से होने वाले खतरे
दांतों पर असर
लकवा की आशंका
सभी तरह के कैंसर
महिलाओं में समय से पहले बुढ़़ापा और प्रजनन शक्ति का ह्रास
पुरुषों में इरेक्टाइल डिसफंक्शन
पेप्टिक अल्सर
डिपेंशिया
लगातार गुटके के इस्तेमाल से दांत समय से पहले ढीले व कमजोर हो जाएंगे
पेरिओडोंटल टिश्यू क्षतिग्रस्त होंगे जो कैंसर का कारण बने सकता है
तंबाकू के इस्तेमाल से बैक्टीरिया दांतों में अपनी जगह बना लेंगे जिससे दांत गल सकते हैं

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

भारत में 100 में 54 लोग भ्रष्ट,

घूस लेने में पुलिस नंबर-1
भारत में भ्रष्टाचार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। एक सर्वे से खुलासा हुआ है कि इस देश में रहने वाले 100 में 54 लोग बेईमान हैं। ये खुलासा हुआ है गैर सरकारी संगठन ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की रिपोर्ट से। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल यहां हर दूसरे शख्स ने अपना काम कराने के लिए अधिकारियों को रिश्वत दी। वहीं खुलासा हुआ है कि पुलिस रिश्वत लेने के मामले में नंबर वन है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के खुलासे से साफ हो गया है कि 100 में 80 ना सही लेकिन देश में भ्रष्टाचार का आंकड़ा इससे कम भी नहीं। देश में 100 में 54 लोग भ्रष्ट हैं। जो अपना काम करवाने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। फिर चाहे इसके लिए वो घूस दें या घूस लें।
संयुक्त राष्ट्र संघ की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल की 7वीं रिपोर्ट इंटरनेश्नल एंटी करप्शन डे के मौके पर जारी की गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल भारत में अपना कोई न कोई जरुरी काम करवाने के लिए 54 फीसदी लोगों ने रिश्वत दी। यानि देश का हर दूसरा शख्स रिश्वत देने में यकीन रखता है। सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पुलिस डिपार्टमेंट में है। सर्वे में भारत को इराक और अफगानिस्तान सहित सबसे भ्रष्ट देशों में गिना गया है।
यही नहीं, रिपोर्ट में लोगों की राय लेने के बाद ये भी लिखा गया है कि भारत के करीब 74 फीसदी लोगों के मुताबिक पिछले 3 सालों में देश में रिश्वतखोरी काफी बढ़ी है। मालूम हो कि भारत में टू जी स्पेक्ट्रम जिसने देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का चूना लगाया। भ्रष्टाचार की मुंबई में आदर्श इमारत भी इसी बात को दर्शाती है। कॉमनवेल्थ में सैकड़ों करोड़ का घोटाला भी इसी की तस्दीक करता है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल के आंकड़े चौकाने वाले हैं, इसमें भारत के अलावा दुनिया भर में बढ़ते भ्रष्टाचार की भी बात की गई है। अगर दुनिया के दूसरे देशों की बात करें तो रिपोर्ट में और कई चौंकाने वाले आंकड़े पेश किए गए हैं। इस सर्वे में 86 देशों में 91,000 लोगों से बात की गई। 2010 के ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर के मुताबिक पिछले 12 महीनों में दुनिया के हर चौथे आदमी ने घूस दी। घूस लेने वालों में शिक्षा, स्वास्थ्य और टैक्स विभाग के अधिकारी सबसे आगे हैं।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल 2003 से करप्शन पर रिपोर्ट जारी कर रही है। यह उसकी 7वीं रिपोर्ट है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल की 7वीं रिपोर्ट के आंकड़ों ने दुनियाभर में फैल रहे भ्रष्टतंत्र के दावों पर मुहर तो लगाई ही है। साथ ही भारत में फैल रहे भ्रष्टाचार के कैंसर को भी बेपर्दा किया है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार यानी नेताओं-नौकरशाहों का गठजोड़


खुली अर्थव्यवस्था और उदारवादी नीतियों को कानूनी आधार देते वक्त इनकी वकालत करने वालों का दावा था कि इन नीतियों में उदारता व शिथिलता बरती जाती है तो प्रशासन पारदर्शी बनेगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। कायदे-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए प्रशासनिक अमले में मनमाने ढंग से काम करने की प्रवृत्ति पनपी। नौकरशाहों ने या तो राजनीति से प्रेरित होकर कार्यो को अंजाम दिया या फिर निरंकुश भ्रष्टाचार के लिए फाइलों को गति दी। नौकरशाही प्रशासनिक नीतियों के क्रियान्वयन तक ही सीमित न रहकर संसद और विधायिका के नीति निर्धारण में न केवल संपूर्ण हस्तक्षेप करती है, बल्कि उन्हें ऐसा मोड़ देती है कि उनकी न तो कोई जवाबदेही सुनिश्चित हो और न ही कार्य की समय-सीमा का निर्धारण हो? लिहाजा, देश में जब-जब घोटालों, महा-घोटालों का पर्दाफाश हुआ है, उसमें राजनेता तो कठघरे में खड़े हुए हैं, लेकिन नेता की परछाई में कुटिल बुद्धि के चालाक नौकरशाह साफ-साफ बच निकलते हैं। लिहाजा, पीजे थॉमस जैसे नौकरशाह पामोलिन तेल निर्यात घोटाले में नामजद होने के बावजूद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त जैसे गौरवशाली पद पर सिंहासनारूढ़ हो जाते हैं। उन पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी शामिल होने का आरोप है। सीबीआइ ने जिस आवास ऋण घोटाले से पर्दा उठाया है, जिसमें बरते गए भ्रष्टाचार में बैंकों और भारतीय जीवन बीमा आवास निगम ऋण योजना के आला अफसर लिप्त हैं, की बाबत योजना आयोग ने बड़ी सहज सरलता से कह दिया कि यह रिश्वत से जुड़ा मामूली मामला है। इससे बैंकिंग व्यवस्था के बंटाधार हो जाने का कोई खतरा नहीं है, जबकि गौरतलब यह है कि अमेरिका में मंदी की शुरुआत आवास ऋण बैंकों द्वारा कर्ज वसूली नहीं कर पाने के कारण ही हुई थी। वैसे भी भ्रष्टाचार बड़ा हो या छोटा, यदि हम उसे प्रोत्सोहित करेंगे तो भ्रष्टाचार की पैठ गहरी होगी और उसके विस्तार में व्यापकता आएगी। वर्तमान में हमारे देश में घोटालों के परत दर परत खुलते जाने का सिलसिला जारी है। यहां तक कि सुरक्षा और विदेश सेवा तंत्र से जुड़ी माधुरी गुप्ता और रविंदर सिंह जैसे अफसर देश की गोपनीयता भंग कर राष्ट्रघाती कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। मुबंई विस्फोटों में इस्तेमाल किया गया आरडीएक्स घूस का ही दुष्परिणाम था। आंतकवादियों और माओवादियों के पास से भी सेना व पुलिस के जो हथियार बरामद किए गए हैं, उससे जाहिर होता है कि भ्रष्टाचार सरकारी अधिकारियों की रक्त धमनियों में सिर से पैर तक दौड़ रहा है। भ्रष्टाचार के ऐसे भयावह परिप्रेक्ष्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही ही कहा है कि भ्रष्टाचारी ऐसे दु:स्वप्न बन चुके हैं कि वे राष्ट्र निर्माताओं के सपनों पर ही कुठाराघात नहीं करते, बल्कि देश को भी तोड़ देने वाला खतरा साबित हो सकते हैं। बीते तीन-चार महीनों के भीतर ही राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और आवास ऋण से जुड़े घोटाले सामने आए हैं। इनमें राजनेता, नौकरशाह और कुछ मामलों में सैन्य अधिकारियों की साठगांठ व लिप्तता भी साफ हो चुकी है।
उत्तर प्रदेश का खाद्यान्न घोटाला हो या फिर नोएडा में भूमि आवंटन घोटाला या फिर देश का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला। साठगांठ के इस खेल में कहीं नीरा राडिया हैं तो कहीं नीरा यादव। भ्रष्टाचार और घोटालों के हर खेल में नौकरशाह, नेता और बड़े औद्योगिक घरानों या कारोबारियों की मिलीभगत का खुलासा होता है। नोएडा भूमि आवंटन घोटाले में गाजियाबाद स्थित सीबीआइ की विशेष अदालत ने प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव और फ्लैक्स उद्योग समूह के मालिक अशोक चतुर्वेदी को मामले में दोषी ठहराकर 50-50 हजार रुपये जुर्माना और चार साल की सजा सुना दी। अदालत के इस फैसले ने नौकरशाहों और कारोबारियों के बीच की साठगांठ को कुछ कमजोर तो जरूर किया है, लेकिन पौने दो लाख करोड़ रुपये के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद साठगांठ के इस खेल में कई और नए किरदारों के चेहरे से परदा उठ गया है। नीरा राडिया के साथ मिलकर हाई प्रोफाइल दलाली के खेल में साठगांठ का जो नया गठजोड़ सामने आया है, उसमें मीडिया के कुछ लोग भी शामिल हैं। साठगांठ का यह नया गठजोड़ वाकई देश के लिए बेहद खतरनाक है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सत्ता की सबसे बड़ी दलाली के खेल की भनक प्रधानमंत्री कार्यालय को काफी पहले ही लग चुकी थी, लेकिन उसके बाद भी देश में इतना बड़ा घोटाला हो गया। नवंबर 2007 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने दूरसंचार मंत्रालय से साल 2001 के स्पेक्ट्रम आवंटन मूल्य पर नए सिरे से विचार करने की सलाह भी दी थी, लेकिन दलाली के इस खेल में प्रधानमंत्री कार्यालय की सलाह को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया और इस घोटाले का खुलासा होने के कई दिनों बाद तक खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संचार मंत्री रहे ए राजा का बचाव करते रहे। आयकर विभाग ने 300 दिनों तक नीरा राडिया के नौ टेलीफोन टैप किए और इनमें से कुछ लीक हुए टैप से जो भी बात सामने आई हैं, उनसे सत्ता की दलाली के साठगांठ के खेल में नए खिलाडि़यों का भी खुलासा होता है। कारपोरेट घरानों की दलाली के इस खेल में नौकरशाह और राजनेता तो पहले से ही शामिल थे, लेकिन अब मीडिया की बड़ी हस्तियां भी खुलकर इस साठगांठ में शरीक हो गई हैं। सवाल देश की न्यायपालिका में शामिल कुछ लोगों को लेकर भी उठ रहे हैं, लेकिन इन सबके बावजूद देश की जनता की सबसे ज्यादा उम्मीद अब भी न्यायपालिका पर ही टिकी है। देश की जनता के मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि अगर साठगांठ का यह खेल ऐसे ही चलता रहा तो क्या हमारा देश विकास के रास्ते पर जाने के बजाय पिछड़े देशों की कतार में आकर नहीं खड़ा हो जाएगा? क्या देश की यूपीए सरकार और दूसरे दल वाकई भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर हैं? या इसे सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों को घेरने का एक जरिया बना दिया गया है। आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि दलाली के खेल की इस खतरनाक साठगांठ को कैसे पूरी तरह खोल दिया जाए? 10 जनवरी 2008 को दिल्ली के संचार भवन में जिस तरह से 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए प्रेस रिलीज जारी कर दी गई और यह कह दिया गया है कि एक घंटे के भीतर 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस जारी कर दिए जाएंगे और उसके बाद लाइसेंस लेने वाले ऐसे ऑपरेटर जो साठगांठ के खेल में शामिल नहीं थे, के सामने मुसीबतों को पहाड़ टूट पड़ा था। कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्हें इस बारे में पहले से ही जानकारी थी और उन्होंने सारी कागजी प्रक्रियाओं को पूरा करके ये लाइसेंस हासिल कर लिए। घोटाले की बानगी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस कंपनी को 1658 करोड़ रुपये में इसका लाइसेंस मिला, उसने इसका 27 फीसदी हिस्सा तुरंत एक जापानी कंपनी को 12,924 करोड़ रुपये में बेच दिया। बात सिर्फ संचार मंत्रालय भर की ही नहीं हैं, देश में तमाम मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों में कामकाज का तरीका अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है, जिसमें नौकरशाहों की तानाशाही चलती है। देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत में हमने तमाम नियम प्रक्रियाओं को सरल बनाने की बात कही थी, लेकिन आज भी देश के सरकारी कामकाज में कागजी कार्यवाही इतनी जटिल है कि कोई भी अदना-सा सरकारी बाबू आपके कामकाज में अडं़गा डाल सकता है। अंग्रेजों ने ऊंचे ओहदे पर बैठे नौकरशाहों को जरूरत से ज्यादा अधिकार दिए हुए थे, क्योंकि इन पदों पर या तो वे खुद बैठे हुए थे या फिर उनकी चापलूसी करने वाला कोई दूसरा शख्स। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनका बनाया नौकरशाही का ढांचा अब भी देश पर राज कर रहा है। राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत से सरकारी प्रक्रियाओं की जटिलताओं का फायदा खुद की जेब भरने के लिए उठाया जाता है। अपने फायदे के लिए इनके बीच तालमेल भी बेहतर बन जाता है और प्रशासनिक गलियारों में ऐसे नौकरशाह खुद को राजपूत यानी जिसका राज, उसका पूत बताते हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो दलाली के खेल में सरकार के साथ मिलकर अपने काम को अंजाम देते हैं। भारतीय ऑडिट एंड एकाउंट सर्विसेज की पूर्व अधिकारी रुनू घोष को आय से अधिक संपत्ति के मामले में अदालत दोषी ठहरा चुकी है। इस अधिकारी के तत्कालीन दूरसंचार मंत्री सुखराम से नजदीकी किसी से छिपी नहीं थी। हालांकि नौकरशाहों की फौज में चंद बेहतर लोग भी हैं, जो ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन अक्सर ऐसे लोगों को ईमानदारी का इनाम नहीं, बल्कि उसकी सजा भुगतनी पड़ती है। किरण बेदी जैसी महिला अधिकारी को वरिष्ठता के बाद भी दिल्ली पुलिस का कमिश्नर नहीं बनाया जाता, क्योंकि कुछ लोगों को यह डर सताता है कि कहीं इस वजह से हमारी अपनी साठगांठ न खुल जाए। देश में ऐसे तमाम काबिल और ईमानदार आइएएस और आइपीएस अफसर हैं, जिन्हें अहम जिम्मेदारियां देने के बजाय हाशिए पर डाल दिया जाता है, क्योंकि ऐसे अफसर बड़े राजनेताओं की अनुचित मांगों के आगे घुटने टेकने से इनकार कर देते हैं। मौजूदा समय में उन्हीं अफसरों की पूछ है, जो राजनेताओं के साथ कदमताल करते नजर आएं। दरअसल, राजनेताओं, नौकरशाह, कारोबारियों की इस साठगांठ को तोड़ने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत दफ्तरों में सरकारी कामकाज की प्रक्ति्रयाओं को सरल और पारदर्शी बनाने की है। खासतौर से आर्थिक मामलों से जुड़े हर मामले में पारदर्शिता का सबसे ज्यादा ध्यान रखे जाने की जरूरत है। देश के विकास से जुड़ी योजनाओं में कोई धनराशि कब और कैसे खर्च की जा रही है, इससे जुड़ी पूरी जानकारी जनता को पता होनी चाहिए, तब सत्ता के गलियारों का बड़े से बड़ा दलाल भी किसी खास कारपोरेट की मदद के लिए नियमों को ताक पर रखकर सरकार से कोई फैसला नहीं करवा सकेगा। इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि भ्रष्टाचार के खेल में शामिल लोगों को बड़े पदों पर नियुक्त करने की बजाय उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने के बाद आम जनता अब यह जानना चाहती है कि सरकार भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने से क्यों पीछे हट रही हैं? जनता यह भी जानना चाहती है कि हर बार की तरह इन घोटालों की भी बरसों तक जांच चलती रहेगी या फिर दोषियों को जल्द से जल्द कड़ी सजा दी जाएगी? यूपीए सरकार भले ही इस पूरे मामले को लेकर झुकने को तैयार नहीं दिख रही है, लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी छवि की वजह से यूपीए-2 को देश की जनता ने एक मौका दिया था और अब यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह भ्रष्टाचार की इस सबसे बड़ी साठगांठ को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाए। अदालत जब तक नीरा यादव जैसे तमाम नौकरशाहों को सलाखों के पीछे नहीं डालेगी, तब तक देश के खतरनाक बन चुके इस गठजोड़ को नहीं तोड़ा जा सकता। आज जरूरत इस बात की है कि देश के लिए खतरा बन चुकी इस साठगांठ को खत्म करने के लिए जनता भी भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर आवाज बुलंद करे।

गांधी के नाम पर मेट्रोपॉलिटन कांग्रेस



कॉग्रेस की स्थापना देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के उद्देश्य से हुई थी,लेकिन आजादी मिलते ही इसके नेताओं का सत्ता का ऐसा चस्का लगा की पार्टी अपने मूल से भटक गई और आज इस स्थिति में पहुंच गई है कि देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी केवल एक परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। मोहनदास करमचंद गांधी के नाम को आगे कर गठित की गई इस पार्टी ने सियासत के दांवपेच, सत्ता के औजार, उसकी खूबियां और खामियां आजाद हिंदुस्तान को दी हैं जिससे कॉगे्रस मेट्रोपॉलिटन पार्टी बनकर रह गई है। इस मायने में सभी पार्टियां कांग्रेस की ऋणी हैं। अपने चरित्र में पूरी सियासत आज भी अंदर से कांग्रेसी है। इसीलिए उन्हें कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए।
इस साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 125 साल हो रहे हैं। सवा सौ साल की इस पार्टी से आज आपको क्या उम्मीदें हैं। शायद कोई नहीं। ज्यादा से ज्यादा आप ये तमन्ना करेंगे कि सत्तालोलुपों और चाटुकारों का ये संगठन जल्द से जल्द सियासत के रंगमंच से विदा हो जाए। और सवा सौ साल की कांग्रेस को खुद से क्या उम्मीदें हैं। यही कि वो उस खोई हुई विरासत को वापस पा ले, जिसके अब कई दावेदार हैं। उस गांधी नाम का करिश्मा फिर हासिल कर सके, जिसमें अब गांधीवादी भी भरोसा नहीं रखते। उस परिवार को फिर प्रतिष्ठित कर पाए, जिसकी नींव नेहरू ने रखी थी और जिसमें आज खुद कांग्रेसियों को भरोसा नहीं। सवा सौ साल की कांग्रेस आज अखिल भारतीय सत्ता के उपभोग का स्वप्न देख रही है, पर वो नहीं जानती कि 21वीं सदी के हिंदुस्तान में 1947 का करिश्मा लौटना आसान नहीं रह गया है।
कांग्रेस का चरित्र शुरू से ही मेट्रोपॉलिटन रहा। उसका सरोकार शहरी मध्यवर्ग था क्योंकि खुद कांग्रेस के पितामह नेहरू विदेशों में पले-बढ़े। हिंदुस्तान की मिट्टी से उनका कोई नाता न था। आजादी के बाद नेहरू का परिचय जिस हिंदुस्तान से हुआ, उसके लिए उनके पास शासन का कोई मॉडल नहीं था। मोहनदास करमचंद गांधी के सत्ताविकेंद्रित और खुदमुख्तारी के मॉडल पर वह देश को ले जाना नहीं चाहते थे। मगर गुलाम देश में गांधी कांग्रेस के लिए मजबूरी थे क्योंकि उनकी पकड़ हिंदुस्तान के ग्रामीण और शहरी समाज दोनों पर थी। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस आजादी की तरफ बढ़ी, गांधी उसके लिए असंगत होते गए। क्योंकि वो कांग्रेस में पैदा हो रही सत्ताकेंद्रित सोच का समर्थन नहीं करते थे। फलत: आजादी से ऐन पहले पार्टी ने अपने नायक को बिसरा दिया।
गांधी ने 1947 में कहा था कि कांग्रेस का काम पूरा हो चुका है, उसे भंग कर देना चाहिए। इसकी जगह लोकसेवक संघ बनना चाहिए। मगर नेहरू समेत दूसरे कांग्रेसियों को लगा कि गांधीजी सठिया गए हैं। जिस पार्टी ने उन्हें गुलामी के समंदर में नैया बनकर आजादी के तट पर उतारा, उसी को त्याग दें। उधर, गांधी की हत्या हुई और इधर, कांग्रेस गांधी के नाम पर कुंडली मारकर बैठ गई, ताकि उससे संजीवनी हासिल कर सके। पार्टी अब सत्ता सुख भोगना चाहती थी।
गांधी नाम में बड़ा जादू था और कांग्रेस इसे नहीं बिसराना चाहती थी। इसलिए आजाद भारत में कांग्रेस ने गांधी को मंत्र बना लिया। हिंदुस्तानी कांग्रेस को गांधी की पार्टी की बतौर देखते थे। हालांकि ये बात अलग है कि गांधी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से 1934 में ही इस्तीफा दे चुके थे। इसी गांधी नाम के साथ राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर कांग्रेस सफाई के साथ क्षेत्रीय आवाजें दबाने में कामयाब रही। इसलिए दशकों तक क्षेत्रीय सियासी पार्टियों का वजूद सिमटा रहा या न के बराबर रहा। कांग्रेस बहुमत एन्ज्वाय करती रही। सो, क्षेत्रीय दल काफी वक्त बाद नई दिल्ली के सियासी गलियारों में पहुंच सके। कांग्रेस की इसी चाल की वजह से क्षेत्रीय राजनीति जब केंद्र और राज्यों में पहुंची तो अपने वीभत्स रूप में, क्योंकि पहले उसका प्रतिनिधित्व नकार दिया गया था। इसीलिए आज क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता से बदला चुका रही है, वो भी सिर्फ कांग्रेस की वजह से।
कांग्रेस नामक सत्तालोलुपों के गिरोह ने गांधी नाम का जमकर इस्तेमाल किया। बेशक ओरिजिनल गांधी से इस कांग्रेस का कोई ताल्लुक नहीं, लेकिन सिर्फ नाम का जादू देश को 40 साल तक घसीटता रहा। एक परिवार गांधी का नाम लेकर आगे खड़ा था और उसके पीछे थी पूरी पार्टी। इस परिवार की नींव में थे जवाहरलाल नेहरू जो उसी बरतानिया में पढ़े थे, जिसने देश को गुलाम बना रखा था। फिरंगियों से आजादी की सौदेबाजी में वो आगे रहे थे। इसीलिए जनता उन्हें आजादी के नायक के बतौर देखती आई थी।
अगर कांग्रेस का मकसद सिर्फ जनसेवा होता, तो शायद उसे और 63 साल की जिंदगी हासिल न होती। विभिन्नताओं से भरे इस देश की जनता का ध्रुवीकरण कर उसे आजादी के रास्ते पर लाने वाले गांधी की सोच साफ थी। उनकी दृष्टि साफ थी कि अगर कांग्रेस बची, तो सत्ता उसे गंदे तालाब में बदल देगी। इसीलिए उन्होंने इसका रिप्लेसमेंट सोच लिया था।
कांग्रेस का लक्ष्य तो 1907 में ही तय हो गया था, जब वो नरम और गरम दल में टूटी थी। 1947 में वह वयोवृद्ध थी। इसलिए आज जिसे हम कांग्रेस के नाम से जानते हैं, वो सवा सौ साल का ऐसा संगठन है, जिसकी आत्मा निकल चुकी है और जिसे उसके कर्णधार आज तक ढो रहे हैं। यह वही कांग्रेस नहीं, जिसे एओ ह्यूम ने 1885 में इसलिए जन्म दिया था ताकि वह हिंदुस्तानियों के बीच प्रैशर कुकर का काम करे। उनके अंदर पनपने वाले गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे। गोखले, तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं ने इसका इस्तेमाल ब्रिटिशविरोधी भावनाओं के लिए किया था, जिसमें गांधी और बाद में नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी आहुतियां डालीं।
आखिर यह वही पार्टी थी जिसने दो देशों की आजादी में अपनी भूमिका निभाई। अगर आप मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम का हवाला लें, तो पता चलेगा कि आजादी के सेनानी इतने थके, अधीर और मायूस हो चुके थे कि अब वो इसका तुरंत प्रतिफल चाहते थे। उन्हें जल्द से जल्द सत्ता पर काबिज होने के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। चाहे जिस कीमत पर मिले उन्हें फिरंगियों से मुक्ति पानी थी और फिरंगी हुकूमत भी इस बात को समझती थी। सत्ता की बागडोर ज्यादा वक्त तक थामे रखना उसके लिए भारी हो चुका था। इसलिए जब फिरंगी हुकूमत ने अपनी न्यायप्रियता का सबूत दो देशों को बांटकर दिया, तो अधीर कांग्रेसियों ने उसे भी मंजूर कर लिया, 35 करोड़ की आबादी के प्रतिनिधि के बतौर (ये विवाद का विषय है कि क्या कांग्रेस ही आजादी पाने की अकेली उत्तराधिकारी थी?)।
कांग्रेसी मानते थे कि वही सत्ता के असल वारिस हैं। भरमाई जनता ने उस कांग्रेस को जनादेश दिया, जिसने आजादी की लड़ाई में भागीदारी की थी। उसे नहीं, जिसने देश का बंटवारा मंजूर कर लिया था। कोई विकल्प या रास्ता भी नहीं था। पार्टी के कर्णधार अच्छी तरह जानते थे कि वो इस विरासत को अगले कई सालों तक भुनाने में कामयाब रहेंगे और यही हुआ भी।
नेहरू के बाद आननफानन में उनकी बेटी इंदिरा को नायकत्व सौंप दिया गया, क्योंकि नेहरू के बाद वही परिवार की सर्वेसर्वा थीं। उनके पिता ने अपने रहते उन्हें कुछ हद तक सियासत में दीक्षित किया था, लेकिन इंदिरा का भी सीधे जनता से कोई सरोकार नहीं था। उनके कार्यकाल को देखें तो लगता है कि मानो वो शासन के लिए ही पैदा हुई थीं। वही उन्होंने किया भी, इसीलिए 20वीं सदी की 100 सबसे ताकतवर नेताओं में उन्हें भी गिना जाता है। पिता के नाम और निरंकुशता की वजह से पूरी कांग्रेस उनके आगे पलक-पांवड़े बिछाए रही। मगर यही वो वक्त था, जब कांग्रेस की विरासत पर सवाल खड़े होने लगे थे। विकल्पों की मांग उठ रही थी, प्रयोग हो रहे थे, मगर तजुर्बा और रास्ता अब भी किसी के पास नहीं था। कांग्रेस यूं देश पर परिवार के शासन का हक छोडऩे को तैयार न थी और सत्ता छीनने की ताकत किसी में थी नहीं।
इंदिरा के बाद उनके दोनों बेटे गांधी के नाम और इस परिवार के करिश्मे को ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रख सके। इसकी दो वजहें थीं। न तो वो अपने पूर्वजों की तरह उतने करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे और न वो क्षेत्रीयता का उभार रोकने में कामयाब थे। गांधी को गांधीवाद में बदलकर कोने में खिसका दिया गया। अपनी मां की मौत से मिली सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव सत्ता में आए, मगर उन्हीं की पार्टी में परिवारविरोधी स्वर उठने लगे थे।
कांग्रेस का तिलिस्म बिखर गया था और नई दिल्ली की कुर्सी पर एक के बाद एक गैरकांग्रेसियों की ताजपोशी होने लगी। देश को पहली बार ये अहसास हुआ कि असल में उनके साथ धोखा हुआ था। एक परिवार और पार्टी को माई-बाप मानकर उसने भारी गलती की थी। सियासत की गंदगी गांधी नाम के कालीन के नीचे से बाहर निकल आई थी।
दुर्भाग्य इस परिवार को जकड़ चुका था। पहले नेहरू की बेटी, फिर नेहरू के दोनों पोते, नफरत और साजिशों के शिकार बन गए। पार्टी मातम में थी क्योंकि सत्ता के केंद्रों का विघटन हो चुका था। कोई सैकेंड लाइन नहीं थी। परिवार ने इसकी गुंजाइशें ही खत्म कर दी थीं (हालात आज भी वही हैं)। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह भी एक दिलचस्प हकीकत है कि ज्यों राजशाही में मुखिया के बाद उसके परिवार के सबसे बड़े सदस्य को सत्ता सौंपी जाती है, उसी तरह कांग्रेस में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा। आखिर इंदिरा की बहू को राजसत्ता मिली, जिनका इस देश की भाषा और हिंदुस्तानी जनजीवन से कोई ताल्लुक नहीं रहा था। चूंकि पार्टी 1947 से लेकर आज तक राजवंशी ढांचे पर चली थी, इसलिए इस च्राजवंशज् से बाहर किसी व्यक्ति पर भी पार्टी को भरोसा नहीं रहा। पार्टी को यहां तक भ्रम हो चुका है कि इस देश में जो कुछ अच्छा है, इस परिवार की बदौलत ही है। इसलिए परिवार और पार्टी एक दूसरे में इतना घुलमिल गए कि कांग्रेस का मतलब ही है गांधी परिवार (इसमें गांधी कितना फीसद है, ये आप जान ही गए होंगे)।
आज कांग्रेस सवा सौ साल की है। आजादी के बाद 63 साल और। तो कांग्रेस की विरासत क्या है? कैसे पहचानेंगे इसे आप? आजादी के बाद इस पार्टी ने देश को क्या दिया है? असल में, इस पार्टी ने देश को वो दिया है, जिसे शायद ही कोई नकार सके। मसलन.. एक नाम, नेता जैसा जैनरिक और घृणित शब्द, सत्तालोलुपों का एक गिरोह, खुशामदपसंदों से घिरा एक परिवार, दो-तीन अदद पवित्र नाम (जिनमें से एक अब माता इंडिया कही जाती हैं) और इन नामों पर खड़ी इमारतें-सड़क-चौराहे, मु_ी में सत्ता दबोचकर रखने की हामी सोच, कुलीन-शहरी और अमीरी से भरपूर सियासत, जुर्म को पनाह देने वाला सियासी काडर, घोटालों से खोखला प्रशासन और इसे छिपाने के लिए नेहरू टोपी, खादी की जैकेट और सफेद कुर्ता-पाजामा।

दागदार हो रहा समाजवाद

समाजवाद एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द सोशलिज्म का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। लेकिन आज के दौर में समाजवाद के पहरूओं की कार्यप्रणाली देखकर ऐसा लगता है जैसे व्यक्तिवाद के बिना समाजवाद की कल्पना ही बेमानी है।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति कर रहे हैं लेकिन उन्होंने और उनके समर्थकों के समाजवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़ दी है कि स्वर्ग में बैठे उनके गुरू
राम मनोहर लोहिया भी आहें भर रहे होंगे। समाजवाद के नाम पर मुलायम ने अपनी महत्वकांक्षाएं पूरी करने के लिए वह सब कुछ किया जिसकी कभी लोहिया ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज वही सब मुलायम के लिए परेशानी का सबस बन गया है। समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने आप को स्थापित करके रखना मुश्किल-सा नजर आ रहा है। जो चेहरे कभी समाजवादी पार्टी की पहचान हुआ करते थे, पिछले कुछ समय में एक-एक कर सपा से दूर हो गए. इनमें अमर सिंह भी शामिल हैं जो खुद इनमें से कई की विदाई का सबब बने और अंतत: खुद भी विदा हुए. जमे-जमाए नेताओं के जाने से सपा के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती रही हैं.
'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम थाÓ, दो-ढाई वर्ष पहले जब समाजवादी पार्टी के मुख्यालय के गेट के बाहर यह नारा लगा रहे नौजवानों के एक झुंड को कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की और सही नारा - 'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम हैÓ, लगाने को कहा तो नाराज नौजवानों ने जवाब दिया, 'नहीं हम तो यही नारा लगाएंगे. या फिर नेता जी अमर सिंह के आगे अकारण झुकना बंद करें.Ó हालांकि यह घटना बहुत छोटी-सी थी, मगर इससे समाजवादी पार्टी के भीतर अमर सिंह की भूमिका और अमर सिंह के कारण समाजवादी आंदोलन को हो रहे नुकसान का अंदाजा लगाया जा सकता था. हालांकि तब तक कार्यकर्ताओं को तो इस बात का एहसास हो गया था कि अमर सिंह के क्या मायने हैं और उनका नफा-नुकसान क्या हैं, लेकिन जमीनी राजनीति के धुरंधर मुलायम सिंह यादव पर अमर सिंह का जादू कुछ इस तरह चढ़ा हुआ था कि वे सब कुछ जानते हुए भी इस हकीकत से अनजान बन रहे थे कि 'अमर प्रभावÓ का घुन समाजवादी आंदोलन को लगातार खोखला करता जा रहा है.
समाजवादी पार्टी को खोखला करने में 'अमर प्रभावÓ ने दो तरह से काम किया. एक ओर इसने समाजवादी पार्टी को अभिजात्य चेहरा ओढ़ाकर अपना चरित्र बदलने के लिए उकसाया तो दूसरी ओर पार्टी में जमीन से जुड़े नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा शुरू हो गई. मुलायम के केंद्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए जब 1997 में लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक एक पांच सितारा होटल में आयोजित की गई तो आलोचना करने वालों में मुलायम के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के आम नेता और कार्यकर्ता भी थे. मुलायम सिंह के खांटी समाजवाद का यह एक विरोधाभासी चेहरा था. लेकिन इसके बाद तो यही सिलसिला शुरू हो गया. पार्टी समाजवादी सिद्धांतों और जमीनी राजनीति को एक-एक कर ताक पर रखते हुए 'कॉरपोरेट कल्चरÓ के शिकंजे में फंसती चली गई. नेतृत्व में एक ऐसा मध्यक्रम उभरने लगा जिसे न समाजवादी दर्शन की परवाह थी और न समाजवादी आचरण की चिंता.
समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी हैसियत बचाए रखना इतना मुश्किल कभी नहीं रहा. सिकुड़ती राजनीतिक ताकत, लगातार साथ छोड़ते पुराने साथी, कुछ अपनी उम्र पूरी कर चुकने की वजह से तो कुछ पार्टी में अपनी उपेक्षा के कारण. एक ओर विधानसभा में मायावती का प्रचंड बहुमत और दूसरी ओर लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेसी उलटफेर के चलते राज्य में तीसरे स्थान पर सिमटने का खतरा, एक ओर पिछड़ी जातियों पर कमजोर पड़ती पकड़ और दूसरी ओर मुसलिम वोट बैंक पर नजर गड़ाए प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल, बसपाई चालों के चलते सहकारी संस्थाओं और ग्रामीण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से नियंत्रण खोते जाने का एहसास और छात्रसंघों की राजनीति पर मायावती का अंकुश, केंद्र में महत्वहीन स्थिति और इन सबसे ऊपर, पार्टी पर मुलायम के घर की पार्टी बन जाने की अपमानजनक तोहमत. ऐसी न जाने कितनी वजहें एक साथ समाजवादी पार्टी के हिस्से आई हैं कि कुछ समय पहले तक तो यह भी समझा जाने लगा था कि समाजवादी पार्टी अब उत्तर प्रदेश में तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन गई है. कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने तो इसे गुजरे जमाने की कहकर इतिहास की किताबों में दर्ज रहने के लिए छोड़ देने की बातें तक कह डाली थीं. राजनीति के बारे में यह कहा जाता है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं होता. उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी इन दिनों यह एक बड़ा सवाल है कि क्या सपा अपने दामन के धब्बों को कभी धो पाएगी और क्या उसका ग्रहण काल अब खत्म होने जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में नवंबर की शुरुआत के साथ ही जाड़ों के सर्द मौसम की शुरुआत हो जाती है, लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए इस बार का नवंबर सर्दियों में गरमी का सा एहसास लाने वाला साबित हो रहा है. इस महीने में हुई तीन बड़ी घटनाओं ने 'एक थी समाजवादी पार्टीÓ में कुछ नई ऊर्जा का संचार किया है. इनमें पहली घटना मोहम्मद आजम खान की घर वापसी की है तो दूसरी उत्तर प्रदेश विधानसभा के दो उपचुनावों के नतीजे. तीसरी घटना बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में है. इन तीनों घटनाओं ने सपा में नई जान फूंकने का काम किया है. कम से कम पार्टी से जुड़े लोगों का तो यही मानना है.
मुलायम के पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता माने जाते थे, उन्हें तक साइड लाइन करने की कोशिशें इसी दौरान शुरू हो गई थीं. उन दिनों लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में सपा के एक विधायक सीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा पर आए दिन पार्टी हितों और पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए टेलीविजन कैमरों के सामने खड़े दिखाई देते थे. तब भी हर कोई यह जानता और मानता था कि इस सबके पीछे सीधे अमर सिंह का हाथ है. समाजवादी लोगों को तब इस सबसे काफी पीड़ा होती थी लेकिन समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने वाली इस रस्साकशी पर मुलायम हमेशा खामोश ही रहे. हालांकि आज न सीएन सिंह समाजवादी पार्टी में हैं, न अमर सिंह और न ही बेनी प्रसाद वर्मा, मगर इन तीनों के रहने और तीनों के न रहने के बीच समाजवादी पार्टी ने काफी कुछ खो दिया है. जो ज्यादा चालाक थे, मौका परस्त थे, उन्होंने तो मौके का फायदा उठाते हुए अपने लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम की सरकार के अंतिम दौर में ही सुरक्षित नावें ढूढ़ ली थीं. मगर बहुतों को बिना तैयारी असमय पार्टी से किनारा करना पड़ा. 'अमर प्रभावÓ से प्रताडि़त, पीडि़त और उपेक्षित-अपमानित होकर सपा से विदाई लेने वालों में राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहम्मद आजम खान सबसे प्रुमख रहे. गौरतलब है कि ये तीनों ही अलग-अलग कारणों से सपा के लिए महत्वपूर्ण थे. राज बब्बर जहां पार्टी के पहले सिने प्रचारक थे, भीड़ जुटाऊ चेहरे थे, वहीं बेनी जमीनी जोड़-तोड़ के माहिर और उत्तर प्रदेश के एक खास इलाके में कुर्मी वोटरों के जातीय नेता. आजम की तो राजनीतिक पैदाइश ही अयोध्या विवाद से हुई थी और इस लिहाज से वे अल्पसंख्यकों की हिमायती पार्टी के सर्वाधिक प्रभावशाली फायर ब्रांड नेता थे. इन तीनों की रुख्सती समाजवादी पार्टी के लिए जोर का झटका रही जिसका असर भी जोर से ही हुआ.
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक मानते हैं, राजनीति में विचारधारा के आधार पर साथ छूटना एक अलग बात होती है. ऐसा तो होता ही रहता है, लेकिन समाजवादी पार्टी में तो कई बड़े नेताओं को जबरन बेइज्जत करके बाहर किया गया. इसका सीधा-सीधा असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ा. सितंबर, 2003 में जब मुलायम ने उत्तर प्रदेश विधान सभा में बहुमत साबित किया था तो समाजवादी पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर थे. लेकिन साढ़े तीन साल की अपनी लंबी पारी में मुलायम पार्टी के हौसले के इस ग्राफ को ऊपर नहीं ले जा सके. वह नीचे ही गिरता गया और इसकी सबसे बड़ी वजह थी अमर सिंह का प्रभाव. इसके साथ ही इन साढ़े तीन वर्षों में जिस तरह का प्रशासन मुलायम सिंह ने चलाया उसने रही-सही कसर पूरी कर दी.
इस दौर में ऐसी भी स्थितियां हो गई थीं कि समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले, मुलायम के भाई रामगोपाल यादव तक राजनीतिक एकांतवास में चले गए थे. पार्टी के वैचारिक तुर्क जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह हाशिए पर थे और लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे गैरराजनीतिक समाजवादी चिंतक दूर से तमाशा देखकर अरण्य रोदन करने पर मजबूर हो चुके थे. समाजवादी पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता यह महसूस करते हैं कि उस दौर का खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है. जिस सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर मायावती ने उत्तर प्रदेश फतेह कर लिया उसकी जड़ें मजबूत करने में सपा का दबंग राज, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की बेलगाम गुंडागर्दी और सरकार का जनसमस्याओं से हटता ध्यान जैसे कारक तो जिम्मेदार थे ही 'अमर प्रभावÓ भी काफी हद तक जिम्मेदार था. अमर सिंह के खास सौंदर्यबोध की चकाचौंध ने धरतीपुत्र को ऐसा मंत्र मुग्ध कर दिया कि वे जमीनी हकीकत से रूबरू हो ही नहीं सके. जिस मुलायम के जनता दरबार एक दौर में खचाखच भरे रहते थे उन्हीं मुलायम से मिल पाना आम आदमी या आम कार्यकर्ता तो दूर विधायकों अथवा अन्य नेताओं के लिए भी मुश्किल हो गया. अमर सिंह हमेशा छाया की तरह मुलायम के साथ होते, उनके एक-एक कदम की नाप जोख कर अमर के चश्मे से होती. सैफई को बॉलीवुड बना देने की चाहत, जया प्रदा के लिए जिद, कल्याण सिंह से एक बार अलगाव के बाद दूसरी बार उनके घर जाकर उन्हें दोस्त बनाने का नाटक, अनिल अंबानी की दोस्ती और दादरी पावर प्लांट जैसे जो तमाम काम मुलायम ने किए उनका पछतावा मुलायम को अब हो रहा होगा और कल्याण से दोस्ती के मामले में तो मुलायम गलती को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके माफी भी मांग चुके हैं. हालांकि अमर सिंह अब सपा के लिए 'गुजरा जमानाÓ हो चुके हैं, लेकिन इस गुजरे जमाने ने समाजवादी पार्टी के प्रभा मंडल की ओजोन परत में इतना बड़ा छिद्र कर डाला है कि मायावती सरकार के तीन साल के जनविरोधी शासन के बावजूद उससे होने वाला विकिरण पूरी तरह रुक नहीं सका है.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक वाजपेयी कहते हैं, हमें अब उज्वल संभावनाएं दिख रही हैं. मौजूदा बीएसपी सरकार से जनता में जबर्दस्त असंतोष है. लेकिन यह सरकार इतनी बर्बर है कि जनता अपने असंतोष को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है. सपा ही इस असंतोष को स्वर दे सकती है. उत्तर प्रदेश का संघर्ष अब मायावती सरकार के अंधेर और समाजवादी पार्टी के सिद्धांतों के बीच ही होगा.
इन उज्वल सम्भावनाओं की तह में नवंबर की वही तीन घटनाएं हैं जिन्होने समाजवादी पार्टी को नई उम्मीद दी है. आजम खान की वापसी समाजवादी पार्टी की अपने बिखरे कुनबे को फिर से बटोरने की कोशिश तो है ही, इसने अल्पसंख्यकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बहाल करने की उम्मीद भी पार्टी के भीतर जगा दी है. हालांकि कुछ विश्लेषक इसे एक सामान्य घटना ही मान रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि आजम खान अयोध्या मुद्दे की उपज हैं. जब तक वह मुद्दा जिंदा था आजम की आवाज में दम था. अब जब हाईकोर्ट के फैसले ने अयोध्या मुद्दे की ही हवा निकाल दी है तो यह उम्मीद कैसे की जाए कि उस मुद्दे को लेकर चर्चा में रहने वाले आजम मुसलमानों के बीच कोई बड़ा गुल खिला पाएंगे? उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय की बात की जाए तो मोटे तौर पर यह माना जाता है कि किन्हीं खास लहरों को छोड़कर सामान्य चुनावों में उनका वोट 1967 में चौधरी चरण सिंह के बीकेडी बनाने के बाद से ही कांग्रेस से अलग होने लगा था. 4 नवंबर, 1992 को जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाकर अपनी अलग राजनीति शुरू की तो बाबरी मस्जिद पर उनके रुख की वजह से यह मुसलिम वोट एक तरह से उन्हें मिल गया. पिछले विधानसभा चुनाव तक मुसलिम मतदाता के पास समाजवादी पार्टी के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव में सपा की कल्याण से जुगलबंदी के चलते कांग्रेस के रूप में उसे एक विकल्प मिल गया. अब अगर मायावती भी मुसलिम आरक्षण जैसा कोई ब्रह्मास्त्र छोड़ती हैं तो उसकी चुनौती भी सपा के सम्मुख खड़ी हो सकती है. फिर भी इतना तो माना जा सकता है कि आजम खान की घर वापसी के बाद समाजवादी पार्टी के पास एक तीखा और प्रभावशाली वक्ता और बढ़ जाएगा जो अल्पसंख्यक मामलों में खुलकर और प्रभावशाली तरीके से उसका पक्ष रख सकेगा. लेकिन कल्याण सिंह से दोस्ती की कड़वी हकीकत अब भी पार्टी के दामन पर चस्पा है. हालांकि सांप्रदायिक समझे जाने वाले पवन पांडे और साक्षी महाराज जैसों को भी मुलायम अपने साथ ला चुके हैं, लेकिन कल्याण से उनकी दोस्ती मुसलिम मानस पचा नहीं पाया है. मुलायम के इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से माफी मांग लेने के बाद भी उनके प्रति पैदा हुआ संदेह खत्म नहीं हुआ है. आजम खान इस संदेह को पूरी तरह खत्म कर पाएंगे इसमें शक है. फिर भी आजम की घर वापसी समाजवादी पार्टी के लिए एक उम्मीद की वापसी तो है ही.
उपचुनावों के नतीजे भी निश्चित तौर पर समाजवादी पार्टी के लिए उत्साहवर्धक हैं. बीएसपी के इन उपचुनावों में वाकओवर दे देने के कारण इन उपचुनावों में मुख्यत: कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को एक-दूसरे की तुलना में अपनी हैसियत आंकने का अवसर मिला था और समाजवादी पार्टी ने इसमें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है. वैसे तो एटा जिले की निधौली कलां और लखीमपुर दोनों की ही सीट समाजवादी पार्टी के विधायकों के निधन से खाली हुई थीं और सहानुभूति लहर का लाभ भी उसे मिलना तय था लेकिन कांग्रेस की इन दोनों ही सीटों पर जिस तरह की दुर्गति हुई उसने समाजवादी पार्टी का सीना चौड़ा कर दिया है. खास तौर पर लखीमपुर सीट पर कांग्रेस सांसद के पुत्र सैफ अली की जमानत भी न बच पाने से समाजवादी पार्टी के लिए यह मानना आसान हो गया है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुआ कांग्रेसी खुमार अब उतार पर है.
बिहार चुनाव के नतीजों ने समाजवादी पार्टी की इस धारणा को और भी पुख्ता कर दिया है. जिस तरह से वहां सोनिया और राहुल का जादू बेअसर होने की बात कही जा रही है उसने समाजवादी पार्टी को बेहद उत्साहित कर दिया है. खासकर बिहार में मुसलिम मतदाताओं की कांग्रेस से दूरी ने सपा को जबर्दस्त राहत दी है. जिस तरह बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष महबूब अली स्वयं सुरक्षित समझी जाने वाली सिमरी बख्तियारपुर सीट से हार गए, वह भी समाजवादी पार्टी को मुसलिम मतों के अपने पक्ष में बने रहने की आश्वस्ति दे रहा है. इससे सपा को अब फिर से यह लगने लगा है कि उत्तर प्रदेश में वही सत्ता की प्रमुख दावेदार है. समाजवादी पार्टी के एक पुराने नेता यह स्वीकार करते हैं कि पार्टी के अंदर अमर सिंह के दिनों की संस्कृति अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है. वे जिस तरह मुलायम सिंह से अपनी हर बात मनवा लेते थे उसका खामियाजा अब तक सभी को भुगतना पड़ रहा है. लेकिन अब अच्छे दिन वापस हो रहे हैं और सबसे अच्छी बात यह है कि अब मुलायम फिर से खुद सारे निर्णय करने लगे हैं.इस बदलाव की एक झलक पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के उस पत्र से भी मिलती है जो उन्होंने 30 अक्टूबर को प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को लिखा है. इस पत्र में कहा गया है कि पार्टी के किसी भी नेता को अगर कोई होर्डिंग लगानी है तो केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष का ही चित्र उस पर होना चाहिए. मुलायम की सरकार के दिनों में हर चौराहे पर मुलायम की तस्वीरों के साथ छुटभय्ये नेताओं की तस्वीरें लगे होर्डिंग दिखाई देते थे और नेता जी के साथ अपनी इस 'निकटताÓ का फायदा उठाने में ये नेता कोई कसर नहीं छोड़ते थे. ऐसे लोगों के कारण पार्टी को तब बहुत बदनामी मिली थी. अब मुलायम ने इसे एकदम बंद करने को कहा है. मतलब साफ है कि वे पार्टी को अब फिर से कड़े अनुशासन में रखना चाहते हैं. समाजवादी पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि मुलायम सिंह यादव अब फिर से सक्रिय प्रतीत होने लगे हैं.
हालांकि मुलायम पहले कई बार यह साबित कर चुके हैं कि वे एक जबर्दस्त फाइटर हैं. अगर ऐसा न होता तो वे 1989 में 'हिंदुओं का हत्याराÓ, 'राम विरोधीÓ और 'मौलाना मुलायमÓ की चिप्पियां लगने के बाद भी सत्ता में वापसी कैसे कर पाते? मगर यह भी सच है कि तब और अब की स्थितियां बिलकुल अलग हैं. बकौल आजम खान, सपा के जहाज को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को बाहर कर मुलायम ने अपने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव अभी काफी दूर हैं. फिर अभी बीएसपी, कांग्रेस और बीजेपी सभी को अभी अपने-अपने तरकश से तीर निकालने हैं. मायावती के इस बार के अब तक के और मुलायम के पिछले कार्यकाल की तुलना करें तो जनआकांक्षाओं पर खरा उतरने के मामले में दोनों में 19-20 का ही फर्क है. लेकिन मायावती के पास अभी भी काफी समय बाकी है. यह मायावती के लिए लाभ की स्थिति है. जबकि मुलायम को इसी अवधि में अपने सभी पुराने पाप धोकर जनता के सामने नई उम्मीदों के साथ पेश होना होगा. और यह काम भी बहुत आसान नही है प्रो. एचके सिंह के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सफलताओं के नये अध्याय लिखना मुलायम के लिए काफी मुश्किलों का काम है. ऐसे में मुलायम के लिए अभी भी लखनऊ बहुत दूर है. उनके लिए राहत की बात यह है कि वे भी अब लखनऊ की दौड़ में शामिल हैं.
राज बब्बर
समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लगातार यह कहते रहे हैं कि भले ही उन पर पार्टी में फिल्मी सितारों को लाने का आरोप लगाया जाता रहा हो लेकिन इसकी शुरुआत खुद मुलायम सिंह ने 1994 में राज बब्बर को पार्टी में लाकर की थी. अमर सिंह की यह बात तथ्य के रूप में भले ही सही हो लेकिन इसके संदर्भ बिलकुल ढीले हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र राज बब्बर का एक लंबा फिल्मी करियर रहा है, लेकिन इससे यह बात कहीं से नहीं भुलाई जा सकती कि राज बब्बर अगर आज भारतीय राजनीति में टिके हैं तो सिर्फ अपने राजनीतिक दम-खम की बदौलत, न कि अपने सिनेमाई ग्लैमर की वजह से. वे अपने कॉलेज के दिनों से ही समाजवाद और लोहिया में आस्था रखने वाले छात्र नेता के रूप में पहचाने जाते थे और अस्सी के दशक के अंत में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थन में जबर्दस्त सभाएं की और संघर्ष किया. सिनेमा से इतर उनकी राजनीतिक पहचान इसी दौर में बन चुकी थी. नब्बे के दशक की शुरुआत होते-होते राज बब्बर वीपी सिंह से दूर होकर समाजवादी पार्टी में आ गए और 1994 में पहली बार राज्यसभा से सांसद बने. यह राज बब्बर पर मुलायम सिंह का भरोसा ही था कि उन्होंने राज बब्बर को 1996 में लखनऊ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लोकसभा चुनावों में उतारा. राज बब्बर लखनऊ से तो हार गए लेकिन अगले दोनों लोक सभा चुनावों में उन्होंने अपने शहर आगरा की सीट समाजवादी पार्टी को दिला दी. इसी दौरान पार्टी में अमर सिंह का दबदबा लगातार बढ़ रहा था और बब्बर पार्टी में असहज हो रहे थे. अंतत: वे ऐसे पहले व्यक्ति बने जिन्होंने अमर सिंह के खिलाफ मोर्चा लेने की हिम्मत दिखाई. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमर सिंह के लिए दलाल जैसे शब्दों का प्रयोग किया. इसके बाद तो पार्टी में एक ही रह सकता था. हुआ वही. अमर रहे और राज बब्बर गए. सपा से बाहर जाने के बाद राज बब्बर लगातार पार्टी के लिए मुश्किलें ही पैदा करते रहे. पहले 2007 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले उन्होंने किसानों के मुद्दे पर दादरी परियोजना के विरोध में एक बार फिर वीपी सिंह के साथ मिलकर जन मोर्चा के तले एक जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. दादरी प्रोजेक्ट मुलायम सिंह के तत्कालीन दोस्त अनिल अंबानी का था. राज बब्बर के आंदोलन से मुलायम सिंह के खिलाफ जो माहौल बना उसने बसपा को बहुत फायदा पहुंचाया. इन चुनावों में जन मोर्चा खुद तो कोई सीट नहीं जीत पाया लेकिन उसने कम से कम 50 सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचाया. लेकिन बब्बर सपा के लिए इससे बड़ी मुसीबत 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में साबित हुए. मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के छोडऩे से खाली हुई इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से लड़ते हुए उन्होंने मुलायम सिंह की बहू डिंपल यादव को हराकर अपनी राजनीतिक हैसियत सिद्ध कर दी. इस हार को डिंपल की नहीं बल्कि मुलायम सिंह और सपा की हार के रूप में देखा गया क्योंकि फिरोजबाद सीट पर यादव, लोध और मुसलमान वोट बड़ी संख्या में हैं जिसे सपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. राज बब्बर के दिए इस घाव को सपा शायद ही कभी भुला पाए.
बेनी प्रसाद वर्मा
तकरीबन दो दशक तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए बेनी प्रसाद वर्मा जब तक समाजवादी पार्टी में थे, उनकी गिनती प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में होती थी. राज्य और केंद्र दोनों की सरकारों में वे काबीना मंत्री बन चुके थे. जातियों में उलझी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी दूसरी पार्टी के पास कुर्मी लीडर के तौर पर वर्मा की काट नहीं थी. बाराबंकी से लेकर बहराइच और लखीमपुर तक के कुर्मी वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी. मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा की दोस्ती पुरानी थी लेकिन इतनी गहरी दोस्ती होने के बाद भी बेनी वर्मा के साथ वही हुआ जो सपा के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ हुआ. जैसे-जैसे पार्टी में अमर सिंह का कद बढ़ा, बेनी उपेक्षितों की कतार में चले गए. मुलायम सिंह के साथ उनकी निर्णायक लड़ाई 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले शुरू हुई. इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बहराइच सीट से वकार अहमद शाह को टिकट दिया जो सपा की सरकार में श्रम मंत्री रह चुके थे. बेनी ने शाह को टिकट दिए जाने का खुला विरोध किया. क्योंकि बेनी के मुताबिक शाह उनके एक कट्टर समर्थक राम भूलन वर्मा की हत्या में शामिल थे. बेनी इससे पहले भी इसी मुद्दे को लेकर वकार अहमद शाह को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग कर चुके थे. लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने ऐसा नहीं किया तब बेनी बाबू ने इसे कुर्मी स्वाभिमान का मुद्दा बनाते हुए पार्टी छोड़ दी और समाजवादी क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली. उनके बेटे राकेश वर्मा, जो सपा की सरकार में जेल मंत्री थे, ने भी समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पिता जी की पार्टी से उन्हीं की कर्मभूमि मसौली सीट से चुनाव मैदान में उतरे. इससे बेनी बाबू को कोई फायदा तो नहीं हुआ (चुनाव में समाजवादी क्रांति दल को एक सीट भी नहीं मिली), लेकिन उन्होंने सपा को खासा नुकसान पंहुचाया. बेनी बाबू की वजह से ही बाराबंकी सीट पर लंबे समय बाद कांग्रेस का कब्जा हुआ और पीएल पुनिया जीते. हालांकि इन दिनों बेनी वर्मा का भविष्य कांग्रेस में भी उज्जवल नजर नहीं आ रहा है और सूत्रों की मानें तो बेनी प्रसाद भी आजम खान की तरह सपा में वापस आ सकते हैं.
आजम खान
हालांकि आजम खान की सपा में वापसी तय हो चुकी है लेकिन फिर भी यहां उनका जिक्र जरूरी है. पिछले कुछ समय में पार्टी को आजम खान से भी महरूमी का सामना करना पड़ा है और इससे उसे बड़ी मुश्किल भी हुई है. आजम खान की सपा से विदाई का मुख्य कारण अमर सिंह और उनकी ही वजह से कल्याण सिंह रहे. अमर सिंह के मोह की वजह से समाजवादी पार्टी ने अपने जिन नेताओं को खोया उनमें आजम सबसे अहम थे. इसीलिए शायद हाल में आजम की पार्टी में वापसी से पहले मुलायम सिंह ने कहा कि अगर आजम चाहेंगे तो विरोधी दल के नेता का पद उन्हें दिया जाएगा.
अमर सिंह ने अपने मैनेजमेंट और सितारा संस्कृति से समाजवादी पार्टी में जो जगह और दबदबा कायम किया था उससे पुराने समाजवादी नेता एकदम उपेक्षित हो गए थे. आजम भी इन्हीं में थे. अमर सिंह और आजम के बीच की खाई उस वक्त जग जाहिर हो गयी जब आजम के न चाहते हुए भी सपा ने जया प्रदा को रामपुर से लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया. रामपुर सदर से 7 बार के विधायक आजम का कहना था कि जया प्रदा को रामपुर से कोई सरोकार नहीं है ऐसे में उन्हें टिकट क्यों दिया गया. लेकिन अमर सिंह के दबदबे के आगे उनकी नहीं सुनी गयी. जया चुनाव लड़ी और जीत भी गईं. आजम खान की दूसरी नाराजगी मुलायम सिंह के कल्याण सिंह से हाथ मिलाने को लेकर भी थी. इन्हीं दोनों मुद्दों पर नाराज आजम खान को अंतत: पार्टी से बाहर जाना पड़ा. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सपा को आजम खान की अहमियत का एहसास हो गया. अमर सिंह के सपा से जाते ही इस बात की अटकलें तेज हो गईं कि आजम की सपा में वापसी हो सकती है. लेकिन आजम खान बराबर यह कहते रहे कि पहले मुलायम कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के लिए सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी मांगें तभी वापसी पर कोई विचार किया जा सकता है. चूंकि सपा को आजम खान की अहमियत समझ में आ चुकी थी, इसलिए मुलायम ने खुद मुसलमानों से माफी भी मांग ली. इसके बाद उनका निष्कासन भी वापस ले लिया गया.
अमर सिंह
जिन हालात में अमर सिंह को पार्टी से निकाला गया, ऐसा लगा जैसे वे खुद यही चाहते हों क्योंकि राम गोपाल यादव से उनके शुरुआती विवाद के बाद ही सपा की तरफ से इसे सुलझा लेने का बयान आया लेकिन अमर सिंह की जुबान नहीं रुकी. अमर सिंह गए तो उनके साथ सपा का फिल्मी सितारों वाला ग्लैमर भी चला गया. जया प्रदा को निकाल दिया गया. मनोज तिवारी और संजय दत्त ने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया. जया बच्चन जब सपा में ही बनी रहीं तो अमर सिंह के साथ बच्चन परिवार के रिश्ते भी खट्टे हो गए. समाजवादी पार्टी ने उनके जाते ही उनकी जगह एक और क्षत्रिय नेता मोहन सिंह को महासचिव और प्रवक्ता बनाकर सामने ले आए. मोहन सिंह पुराने समाजवादी हैं. उन्होंने आपातकाल में 20 महीने जेल में भी गुजारे थे, लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे सपा में अमर सिंह के चलते हाशिए पर चले गए थे
1995 में पार्टी में आने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को एकदम बदल दिया. उन्होंने देश के सबसे चमकदार फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों को समाजवादी पार्टी की चौखट पर ला दिया. वे शाहरुख़ खान से अपनी तकरार और कुछ फिल्मी अभिनेत्रियों से अपनी बातचीत को लेकर भी चर्चा में रहे. न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को समर्थन देने के पीछे अमर सिंह का ही दिमाग था. कल्याण सिंह को सपा में लाने की जमीन भी इन्होंने ही तैयार की थी. पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लोक मंच बनाकर हर मंच से चिल्लाते रहे है कि मुलायम धोखेबाज हैं और अगर उनमें हिम्मत है तो किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएं.
जनेश्वर मिश्र एवं अन्य
इस साल की शुरुआत में समाजवादी पार्टी को अपने एक और वरिष्ठ नेता जनेश्वर मिश्र को भी खोना पड़ा. हालांकि इसकी वजह सियासी न होकर कुदरती थी. 22 जनवरी को लंबे समय से बीमार चल रहे जनेश्वर मिश्र ने इलाहाबाद के एक अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. जनेश्वर मिश्र पुराने समाजवादी नेता थे. उन्हें लोहिया के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जाता था इसीलिए उनका लोकप्रिय नाम छोटे लोहिया भी था. धुरंधर समाजवादी नेता राज नारायण से उनके करीबी संबंध थे और राज नारायण के निधन के बाद वे समाजवादियों के बीच सबसे सम्मानित नेता की हैसियत रखते थे. चार बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे जनेश्वर मिश्र की राजनीतिक सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गंभीर रूप से बीमार होने के बाद भी उन्होंने अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले 19 जनवरी को सपा के महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रदेश व्यापी जनांदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व किया था. अमर सिंह की विकसित की गयी सितारा संस्कृति के दौर में समाजवादी पार्टी के अंदर समाजवाद की जो थोड़ी-बहुत महक बाकी रह गई थी उसका केंद्र जनेश्वर मिश्र ही थे. अगर उनकी जगह कोई और होता तो शायद वह भी अमर सिंह की भेंट चढ़ गया होता लेकिन यह जनेश्वर मिश्र का अपना कद और मुलायम सिंह से उनकी नजदीकी ही थी कि सपा में अंत तक उनकी हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ा.
इसके अलावा पिछले कुछ समय में समाजवादी पार्टी से आजम खान के अलावा जो मुसलमान नेता बाहर गए उनमें सलीम शेरवानी, शफीकुर्रहमान बर्क और शाहिद सिद्दीकी भी शामिल हैं. भले ही ये नेता पार्टी छोडऩे के लिए कोई वजह बताएं लेकिन इसके लिए उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही ज्यादा जिम्मेदार रहीं.