बुधवार, 30 जून 2010

वीपी की राह पर दिग्विजय?

राजा मांडा के बाद अब राजा राघोगढ़ भावावेश में आकर अपनी पार्टी की ऐसी-तैसी करने पर तूले हैं। जिससे लगता है कि दिग्विजय सिंह अब वीपी सिंह बनने के चक्कर में है। 10 जनपथ के सूत्रों की माने तो दिग्गी राजा इनदिनों सोनिया गांधी के सबसे करीबी नेताओं में शामिल है। फिर ऐसी क्या वजह है कि वे लगातार लोकतांत्रिक अंदाज में पार्टी पर अप्रत्यक्ष हमला कर रहे हैं।
ताजा मामला भोपाल गैस त्रासदी को लेकर मचे बवाल का है। अपने राजनीतिक संरक्षक अर्जुन सिंह की वकालत करते हुए दिग्विजय सिंह ने अप्रत्यक्ष रुप से राजीव गांधी पर हमला बोल दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि यूनियन कारबाइड के पूर्व चेयरमैन वारेन एंडरसन को अमेरिका के दबाव में छोड़ा गया था। उन्होंने खुलकर न बोलने के बजाए संकेतों में बोल दिया कि अमेरिका का दबाव सीधा मध्य प्रदेश सरकार पर तो नहीं आया था, पर अमेरिका ने भारतीय प्रधानमंत्री से ही बातचीत की होगी। इसकी पुष्टि मध्य प्रदेश सरकार के तत्कालीन एक अधिकारी ने भी की है कि रोनाल्ड रीगन ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी को फोन किया था, तभी वारेन एंडरसन छोड़े गए थे। दिग्विजय सिंह के इस हमले के बाद कांग्रेस हाईकमान सकते में है। क्योंकि यह दिग्विजय सिंह का लगातार दूसरा हमला है। इससे पहले नक्सल नीति को लेकर गृह मंत्री पी चिंदबरम पर उन्होंने हमला किया था। उन्होंने नक्सलियों से निपटने के तौर तरीके पर टिप्पणी की थी और चिंदबरम को एरोगेंट तक कह दिया था। इसके बाद फिर कांग्रेस में हलचल मची थी। दिग्विजय सिंह ने पी चिंदबरम से मिलकर अपने ब्यान पर लीपापोती का प्रयास किया था। लेकिन इन सारों के पीछे खेल क्या है उसपर चर्चा शुरू हो गई है। आखिर दिग्विजय सिंह भी कोई नादान, मूर्ख या बच्चा नहीं है। जो कुछ भी वे बोल रहे है उन्हें पता है वे क्या बोल रहे है और इसका प्रभाव क्या होगा यह भी उन्हें बखूबी पता है। इसके बावजूद वो बोल रहे है। दिग्विजय सिंह कांग्रेस में प्रभावी राजपूत नेता है। मध्य प्रदेश से संबंधित और लंबा राजनीतिक अनुभव है। लंबे अर्से तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे है। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से उनकी साम्यता काफी है। वे पिछले कुछ समय से दलित, आदिवासी, मुस्लिम और पिछड़ों के हितों में ब्यान देते नजर आ रहे है। ठीक वीपी सिंह के मुस्लिम प्रेम की तरह ही उन्होंने आजमगढ़ दौरा किया। वहां जाकर बाटला हाउस एनकाउंटर पर प्रश्न उठाया। साथ ही यह बोल दिया कि जल्द ही राहुल गांधी आजमगढ़ का दौरा करेंगे। जबकि राहुल गांधी के दौरे की जानकारी न तो कांग्रेस को थी न ही खुद राहुल गांधी को। दिग्विजय सिंह की वीपी सिंह से एक और साम्यता है। वे वीपी सिंह की तरह ही राजपूत है और उन्हीं की तरह एक रियासत के राजा भी। वीपी सिंह मांडा के राजा थे तो दिग्विजय सिंह राघोगढ़ के राजा है। अंतर बस यही है कि यह रियासत मध्य प्रदेश में है तो एक रियासत उतर प्रदेश में है। दोनों नेताओं को कांग्रेस के संगठन और प्रशासन का लंबा अनुभव है। दिग्विजय सिंह अगर मध्य प्रदेश मे लंबे समय मुख्यमंत्री रहे तो वीपी सिंह भी उतर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे और केंद्र में मुख्यमंत्री रहे। मुद्दों को लेकर भी दोनों नेताओं में साम्यता है। वीपी सिंह ने आर्थिक मुद्दों पर राजीव गांधी की सरकार को घेर लिया था और वे खुद उस सरकार में मंत्री थे। दिग्विजय सिंह भी संगठन में रहते हुए सरकार की आर्थिक नीतियों को ही घेर रहे है। जिस तरह से नक्सल अभियान पर सरकार की नीतियों को राजा ने घेरा है, वो एक तरह से पी चिंदबरम की प्रो कारपोरेट नीति का खुला विरोध है। अब भोपाल गैस त्रासदी के अभियुक्त एंडरसन को लेकर जिस तरह से दिग्विजय सिंह ने हमला बोला वह हमला सीधे राजीव गांधी पर है।
कांग्रेसी हल्कों में इस बात की जोरदार चर्चा है कि दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस के कई राजपूत नेताओं को अपने पाले में कर रखा है। हालांकि दिग्विजय सिंह वीपी सिंह की तरह फकीर की इमेज में नहीं है पर राजपूत नेताओं से उनकी प्रियता काफी है। दिग्विजय सिंह मृदुभाषी है और कहा जाता है कि दिग्गी राजा का काटा पानी भी नहीं मांगता। इसलिए दिग्गी राजा के इस ब्यान के कई अर्थ है, उनका ब्यान कोई नादानी है। उधर दिग्गी राजा के इस ब्यान के बाद कांग्रेसी ब्राहम्ण सोनिया गांधी को यह समझाने में लग गए है कि रियासती राजाओं को ज्यादा तव्वजो देना खतरे से खाली नहीं। कभी भी हमला हो सकता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी रियासती थे। राजीव गांधी को इस तरह से मारा कि सता में दुबारा नहीं आ पाए। अर्जुन सिंह रियासती थे, सोनिया गांधी के नियंत्रण में चलने वाली सरकार को पांच साल तक परेशान रखा। कभी ओबीसी आरक्षण को लेकर तो कभी अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर। दिग्विजय सिंह भी रियासती है। ये भी अल्पसंख्यक,ओबीसी, आदिवासी, नक्सल जैसे मसलों पर अपनी ही सरकार को घेर रहे है। आने वाले दिनों में अच्छे संकेत तो नहीं दिखते। अब देखना यह है कि ब्राहम्ण नेताओं की दिग्विजय के खिलाफ चलाई जा रही मुहिम क्या गुल खिलाती है।

मप्र को अंधेरे में धकेलने कीसाजिश

मध्य प्रदेश इन दिनों बिजली संकट दिन पर दिन गहराता जा रहा है। यहां कि विद्युत उत्पादन इकाईयों को केन्द्र सरकार द्वारा न तो समय पर और न ही अच्छी किस्म का कोयला मुहैैया कराया जा रहा है जिससे कई उत्पादन इकाईयां बंद पड़ी है। ऐसे में केन्द्र सरकार यहां बन रही महेश्वर नर्मदा जल परियोजना पर भी आंख तरेरे हुए हैं। केन्द्र सरकार की नीयत को तो देखकर ऐसा लगता है जैसे वह मध्यप्रदेश को अंधेरे में धकेलने की साजिश कर रही है।
महेश्वर नर्मदा जल परियोजना के निर्माण का मामला इतना तूल पकड़ गया है कि इसको लेकर केंद्र और मध्य प्रदेश सरकार में जमकर तनातनी चल रही है। यहां तक कि बिना सोचे समझे और तथ्यों को जाने बगैर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास को लेकर इस पर आगे काम बंद करने के निर्देश दे दिए थे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बाद में काम चालू करा दिया गया। लेकिन प्रधानमंत्री के इस दुस्साहस पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भड़क उठे हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को मध्यप्रदेश के विकास के प्रति अनुदार और संवेदनहीन बताया। लेकिन, सच्चाई मुख्यमंत्री को भी मालूम है। नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को सरकारी तंत्र की तुलना में इस क्षेत्र की समस्याओं की कहीं ज़्यादा अच्छी समझ है। वे इन समस्याओं के समाधान के व्यवहारिक तरीके भी जानते हैं, लेकिन भाजपा सरकार से उनके संबंध अच्छे नहीं हैं। इसीलिए सरकार उनकी सुनना नहीं चाहती है। आंदोलन की नेता मेधा पाटकर को तो मुख्यमंत्री एवं भाजपा के बड़े नेता प्रदेश और विकास विरोधी ठहरा चुके हैं, इसीलिए अब सरकारी अफसर उनकी बातों पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझते, लेकिन जनता को राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। उसे तो अपनी समस्याओं से मतलब होता है।
मध्य प्रदेश में बिजली और पानी का संकट है, इसीलिए राज्य सरकार अपने जल संसाधनों का भरपूर उपयोग करना चाहती है। वह नदी जल का उपयोग सिंचाई और बिजली दोनों के लिए करना चाहती है। फिर नर्मदा जल के उपयोग का भी सवाल है। नर्मदा प्राधिकरण के पंचाट के अनुसार, मध्यप्रदेश अभी तक अपने हिस्से के जल का उपयोग नहीं कर पाया है। सरकार की सुस्ती एवं लापरवाही के चलते अगले दस सालों में भी मध्य प्रदेश अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाएगा। ऐसे में गुजरात और महाराष्ट्र को नर्मदा के पानी के उपयोग का अधिकार मिल जाएगा।
गुजरात ने तो प्राधिकरण के फैसले के दिन से ही नर्मदा जल के अधिकतम उपयोग के लिए तैयारी शुरू कर दी थी और अब वह नर्मदा का पानी कच्छ के मरुस्थल तक ले जाने की स्थिति में आ गया है। फिर भी मध्य प्रदेश की ओर से नर्मदा जल के उपयोग के लिए अच्छी शुरुआत हो रही है, लेकिन जल्दबाजी में जो कुछ हो रहा है, उससे सरकार अपने लिए नई-नई समस्याएं पैदा कर रही है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर बताया है कि नर्मदा की महेश्वर परियोजना से प्रतिदिन 7.2 लाख यूनिट बिजली पैदा होगी, जबकि राज्य की औसत खपत 1,000 लाख यूनिट प्रतिदिन है। इससे स्पष्ट है कि महेश्वर से राज्य की बिजली खपत का एक प्रतिशत से भी कम अंश प्राप्त होगा। फिर भी इसे अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी बताया जा रहा है।
केन्द्र सरकार का आरोप है कि बिजली उत्पादन के लिए राज्य सरकार ने महेश्वर परियोजना से विस्थापित होने वाले 61 गांवों के 70 हजार से अधिक परिवारों के पुनर्वास कार्यों को पूरा कराने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि परियोजना से विस्थापित होने वाले ग्रामीण अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩे के लिए राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर कोई भरोसा नहीं कर रहे हैं। वे नर्मदा बचाओ आंदोलन के झंडे तले अपनी आवाज उठा रहे हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने चालाकी का परिचय देते हुए सरकार के लिए समर्थन जुटाने का भी प्रयास किया। उन्होंने कहा कि महेश्वर परियोजना से इंदौर शहर को प्रतिदिन 300 मिलियन लीटर पानी मिल सकेगा और 2024 तक की पानी की जरूरत इससे पूरी हो सकेगी, लेकिन विस्थापितों के पुनर्वास के बारे में मुख्यमंत्री खुलकर कुछ नहीं बोलते। या यूं कहें कि बोलने से बचना चाहते हैं।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता आलोक अग्रवाल एवं चितरूपा पालित ने एक नया गले उतरने लायक तर्क छोड़ा है कि मुख्यमंत्री परियोजना के निर्माण कार्य में लगे पूंजीपति ठेकेदारों के हितों की ज़्यादा चिंता कर रहे हैं। इसीलिए वह नर्मदा आंदोलन और यहां तक कि अपनी मर्यादा भूलकर देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ भी नासमझी भरे बयान खुलकर दे रहे हैं। आलोक एवं चितरूपा ने राज्य सरकार पर आम जनता की अपेक्षा निजी परियोजनकर्ता के हितों की चिंता किए जाने का आरोप लगाते हुए दावा किया कि परियोजनकर्ता को 400 करोड़ रुपये की गारंटी इस शर्त पर दी गई थी कि उसकी होल्डिंग कंपनी द्वारा मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम से लिए गए पैसे वापस करने होंगे। जबकि गारंटी मिलने के बाद कंपनी द्वारा दिए गए 55 करोड़ रुपये के 20 चेक बाउंस हो गए। निगम द्वारा कंपनी के खिलाफ 20 आपराधिक प्रकरण भी कायम किए गए। उन्होंने कहा कि इसके बावजूद कंपनी से न तो जनता का पैसा वापस लिया गया और न ही आज तक गारंटी रद्द की गई। चितरूपा पालित ने कहा कि परियोजनकर्ता ने विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की 130 करोड़ रुपये की संपत्तियों का पैसा पिछले 14 सालों में आज तक सरकार को नहीं दिया। परियोजनकर्ता के अनुसार, उक्त संपत्तियां अब उनके नाम पर हो गई हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार जवाब दे कि बिना पैसा लिए उक्त संपत्तियां परियोजनकर्ता के नाम कैसे हो गईं? उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय के आदेश का पालन करते हुए प्रभावितों का संपूर्ण पुनर्वास किए जाने, परियोजनकर्ता को दी गई गारंटी रद्द करने, विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की संपत्तियों का पैसा परियोजनकर्ता से वसूलने और विद्युत क्रय समझौता रद्द करने की मांग की है।
मध्य प्रदेश की महेश्वर, पेंच परियोजनाओं और कोयले के ब्लाक के दोहन पर रोक लगाने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने केंद्र सरकार पर और विकास विरोधी होने के आरोप लगाए हैं तथा इसे प्रदेश को अंधेरे में धकेलने की साजिश बताया। उनका कहना है कि कहा कि महेश्वर परियोजना के निर्माण कार्य पर रोक लगाने का कोई कारण नहीं है। इस बारे में वह पहले ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री को पत्र लिख चुके हैं। अब लगता है कि वन मंत्रालय कांग्रेस पार्टी और नर्मदा बचाओ आंदोलन के दबाव में काम कर रहा है। यदि महेश्वर परियोजना पर काम बाधित नहीं होता तो जून 2010 में जल विद्युत परियोजना की पहली इकाई शुरू हो सकती थी, लेकिन रोक लग जाने से प्रदेश में 400 मेगावाट बिजली की कमी होगी और इसके लिए केंद्र सरकार ही जिम्मेदार होगी। उन्होंने कहा कि पेंच की दो ताप विद्युत इकाइयों को पानी देने से रोका गया है, इससे भी बिजली उत्पादन में कमी आएगी।
कांग्रेसी मुख्यमंत्री की इन दलीलों को व्यर्थ बताते हुए कहते हैं कि महेश्वर परियोजना का काम वैसे भी धीमी गति से चल रहा है। फिर पुनर्वास कार्य में तो सरकार ने कोई सक्रियता दिखाई नहीं, जबकि परियोजना की शर्त यही थी कि निर्माण कार्य के साथ-साथ विस्थापितों के पुनर्वास का काम भी पूरा कर लिया जाएगा, लेकिन अभी तक केवल एक गांव में पुनर्वास पैकेज लागू हो पाया है। पांच गांवों में पैकेज मान लेने के बाद भी पुनर्वास कार्य शुरू नहीं हुए। यदि मुख्यमंत्री की बात मान ली जाए तो बिना पुनर्वास के यदि जून में महेश्वर की पहली इकाई चालू होती है, तो आगामी बरसात में परियोजना के डूब क्षेत्र में 50 से ज्यादा गांव बिना पुनर्वास के ही डूब जाएंगे, इसकी चिंता मुख्यमंत्री को नहीं है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी का कहना है कि मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार को यह भरोसा दिलाया था कि महेश्वर परियोजना से प्रभावित अंतिम व्यक्ति का पुनर्वास होने तक बांध में पानी का भराव नहीं किया जाएगा, लेकिन शायद वह अपनी बात भूल गए। उन्होंने विस्थापितों को उचित पुनर्वास देने का अपना वायदा पूरा नहीं किया और अब वह परियोजना को जल्द पूरा करके 60 गांवों में बसे 70 हजार से ज़्यादा परिवारों को भगवान भरोसे छोडऩा चाहते हैं। अपनी गलतियों और कमजोरियों के लिए केंद्र को जिम्मेदार बताना भाजपा की फितरत है।

रंगीन मिजाज़ विजय शाह

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी राजनैतिक मंडली को पाक-साफ बनाने और सुचिता का पाठ पढ़ाने का चाहें कितना भी जतन कर ले लेकिन अपनी रंगीन मिजाजी और
तानाशाही के कारण वे कहीं न कहीं कुछ ऐसा कर जाते हैं कि कुलीनों के कुनबे के साथ प्रदेश सरकार की अस्मिता भी तार-तार हो जाती है। सत्ता के मद में भले ही भाजपा के मंत्री और कुछ आला नेता भले ही न चूर हों पर उनके साहबजादों पर यह सर चढ़ कर बोल रहा है। नतीजतन उनके पिताओं के नसीब में सार्वजनिक बदनामी आ रही है। कुछ ऐसे भी हैं जो पुत्रों के कारण कानून की जद में भी आ गये हैं। कमल पटेल की जेल यात्रा उनके पुत्र के कारण ही है तो कई मंत्री और बड़े नेताओं की फजीहत भी पुत्रों के कारनामों से हो रही है। ऐसे बदनाम नेताओं की फेहरिस्त मेेंं आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह का नाम सबसे पहले लिया जाता है। यह हकीकत है या फसाना या फिर साजिश यह तो विजय शाह को ही मालूम होगा। इतना जरूर है कि अपने कुछ कदावर मंत्रियों की तथाकथित करतूतों से मुख्यमंत्री भी आजिज आ चुके हैं।
1990 के दशक में जब दिग्विजय सिंह कि सरकार थी तब पुलिस के डंडे खा कर विजय शाह राजनीति में चर्चा का विषय बने थे, लेकिन उसके बाद उनकी चर्चा हमेशा ऐसे ही ऊटपटांग मामलों को लेकर हुई हैं। विजय शाह की रंगीन मिजाजियों के किस्सों की फेहरिस्त इतनी लंबी हैं कि उसकी चर्चा कि जाये तो पूरा ग्रन्थ बन जायेगा। ताजा मामले में मंत्री के एक कर्मचारी की पत्नी ने आरोप लगाया है कि उसके पति ने उसको मंत्री के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए प्रताडि़त किया। यही नहीं, महिला ने थाने जा कर अपने पति और ससुराल वालो के खिलाफ दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आरोप भी लगाया है। महिला ने बताया कि वह अपने पति की दूसरी पत्नी है और जब से उसकी शादी हुई है पति विन्सू भालेराव, जो मंत्री की गैस एजेंसी में काम करता है, दहेज के लिए परेशान कर रहा था। जब उसकी मांग पूरी नहीं हुई, तो उसने महिला को मंत्री के साथ अनैतिक कृत्य करने के लिए दवाब बनाया। जब महिला ने इसका विरोध किया, तो जान से मारने की धमकी देने लगा। आखिर में महिला ने थाने पहुंच कर रिपोर्टे दर्ज कराई। चार माह पहले महिला ने नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या की कोशिश की थी और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। हालांकि, महिला ने यह भी स्वीकार किया था कि वह मंत्री से आज तक नहीं मिली है। महिला मंत्री से मिलकर अपने पति की शिकायत करना चाहती थी, लेकिन पति ने उसे नहीं मिलने दिया।
हालांकि इस मामले में विजयशाह का कहना है कि पूरा मामला पारिवारिक है। मुझे बेवजह इसमें बदनाम किया जा रहा है। इसके पीछे किसकी साजिश है यह खोज का विषय है। उधर इस मामले में पीडि़त महिला से मिलने गई मप्र कांग्रेस महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष अर्चना जायसवाल ने बताया कि पीडि़त महिला की शिकायत एकदम सही है। उन्होंने कहा कि उक्त महिला के प्रति मंत्री का झुकाव पहले से ही था और उन्हीं की पहल पर मंत्री के कर्मचारी विन्सू भालेराव से उक्त महिला की शादी डेढ़ वर्ष पहले हुई थी। यह महिला की भी और भालेराव की भी दूसरी शादी है। महिला का पहला पति गुजर चुका है, जबकि विन्सू भालेराव ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ कर इस महिला से शादी की थी। महिला का पहले पति से एक लड़का भी है।
हकीकत चाहे कुछ भी हो लेकिन कुंवर विजय शाह की पिछले कार्यकाल की कारगुजारियां किसी से छिपी नहीं हैं और अगर उनके सापेक्ष में देखा जाए तो इस घटना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने किस तरह से पिछले कार्यकाल में मंत्री पद का दुरुपयोग किया, इससे जुड़ी शिकायतों की फेहरिस्त भी काफी लंबी है। इस सबसे इतर उनका एक खास अवगुण किसी भी दिन शिवराज और समूची बीजेपी के लिए भारी सिरदर्द बन सकता है... खुद शिवराज से लेकर भाजपा के तमाम नेतागण जानते हैं।
अपनी उस आदत के लिए विजय शाह किस हद तक चले जाते हैं...उनके पिछले कार्यकाल में शिवराज देख चुके हैं। पर्दा नहीं डाला गया होता तो उस आदत को लेकर शाह पिछले कार्यकाल में ही न केवल एक्सपोज हो जाते, बल्कि उनका राजनैतिक कैरियर भी तबाह हो गया होता। यही नहीं शाह के विरुद्ध आदिमजाति कल्याण विभाग में कंप्यूटर और इनवर्टर खरीदी में घोटाले की जांच जारी हैं तथा वन विभाग में बंदूकों की खरीदी की भी ई. ओ.डब्ल्यू जांच जारी हैं।
शिवराज को जानने वाले कहते हैं कि वे भीं यह सब पसंद नहीं करते हैं, लेकिन वे बेचारे क्या करें उन्होंने दिल्ली के दबाव में इस मनचले व्यक्तित्व वाले शख्स को मंत्री बना दिया हैं, सो इसका खामियाजा भविष्य में पूरी भाजपा को भोगना पड़ेगा, क्योंकि खण्डवा में संत कि समाधि पर अधनंगी रूसी बालाओं को नचाकर उन्होंने भाजपा की सूचिता को तार-तार कर डाला था। संत की समाधी पर चल रहे जलसे में उमड़ी थी हजारों की भीड़। भीड़ के नायक थे मध्यप्रदेश के केबिनेट मंत्री कुंवर विजय शाह। इनके पोस्टर जगह-जगह लगे थे तभी एक रुसी बैले डांसर मंच पर आती हैं और एक-एक करके सारे झालर नुमा कपड़े उतार देती हैं। बचते हैं तो सिर्फ अंत:वस्त्र.... खंडवा के निमाड़ी ग्रामीणों की बोली में गोरी औरत नाची चड्डी बनियान में। मजे की बात यह हैं कि इस सब के आयोजक मध्यप्रदेश सरकार और उसके आदिमजाति कल्याण मंत्री विजय शाह थे। इन्हें विवादित विजय शाह कहा जाये तो ठीक होगा। क्योंकि इस तरह के घोषित अघोषित आयोजनों में इनका नाम आना लाजिमी सी बात हैं। यही वजह हैं कि विजय शाह को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आठ महीने के लिए उन्हें केबिनेट से बाहर तक कर दिया था। लेकिन शिवराज भी क्या करें हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे की तर्ज पर उन्हें मजबूरी में विजय शाह को मंत्री मंडल में शामिल करना पड़ा। दिल्ली का दबाव ऐसा था की शिवराज को न चाहते हुए भी विजय शाह को मंत्री बनाना पड़ा ।
इससे पहले भी आदिवासी वोट पाने के लिए विजय शाह ने चार साल पहले से दातार साहब की समाधि पर मालगांव उत्सव का आयोजन सरकारी पैसे से शुरू करवाया, पहले विजय शाह ने वहां संस्कृति के नाम पर बेडनियों का डांस करवाया था, तब उस मामले को दबा दिया गया। लेकिन जब इस बार विजय शाह ने विदेशी लड़कियों को संत की समाधि पर नचवाया तो बखेड़ा शुरू हो गया। संत की समाधि पर नंगा नाच हुआ यह सच हैं और इस पर विवाद भी स्वाभाविक हैं। सवाल साफ हैं कि क्या एक संत की समाधि पर अधनंगी लड़कियों का नाच जरूरी था क्या? क्या विजय शाह की इस करतूत से बीजेपी की रीति नीतियाँ मेल खाती हैं? बीजेपी क्या ऐसे ही आयोजनों के जरिये दूसरों से अलग होना चाहती हैं या उसे और उसके नेताओं को अपना जनाधार बनाए रखने के लिए अधनंगी विदेशी लड़कियों का सहारा लेना पड़ रहा हैं।
आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह जहां अपनी करतूतों के कारण हमेशा विवादों में फंसे रहते हैं वहीं उनके सुपुत्र भी उनसे कम नहीं है। इंदौर में एक उद्योगपति की बेटी के बेहोशी की हालत में एक फ्लैट के बाहर पड़े मिलने के बाद उनके बेटे पर आरोप लगे थे। आरोप था कि शराब के नशे में उनके बेटे ने इस छात्रा को कमरे से बाहर फेंक दिया था। तब यह बात भी सामने आई थी कि मंत्री पुत्र और छात्रा समेत उनके सभी साथी नशे में धूत्त थे और शराब ज्यादा हो जाने के कारण वे अपनी साथी को छोड़ भाग गये थे। हालांकि दोनों पक्षों ने पुलिस में इस बारे में कोई शिकायत नहीं की। इसी घटना के कुछ दिन बाद ही विजय शाह के पुत्र इंदौर के एक व्यस्त चौराहे पर तेज गाड़ी चलाते हुए एक्सीडेंट करने के मामले में झड़प के शिकार हुए। बताया जाता है कि मंत्री पुत्र के साथ गुस्साए लोगों ने हाथापाई भी की। इस मामले में भी राजनीतिक दबाव के चलते पुलिस ने मंत्री पुत्र के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
अपने पिछले कार्यकाल में भी अपनी विवादित टिप्पणी के कारण विजयशाह सुर्खियों में छाए रहे। ब्राह्मणों के खिलाफ की गई टिप्पणी के विरोध में कुछ युवकों का हुजूम उनके आवास पर मुंह काला करने पहुंच गया था। हाथ में काला रंग लिए युवक मंत्री तक पहुंचते इससे पहले ही पुलिस ने तीन युवकों को दबोच लिया था। ये युवक वन मंत्री की ब्राह्मणों के खिलाफ की गई टिप्पणी से नाराज थे और उन पर काला रंग पोतना चाह रहे थे। यही नहीं अभी कुछ दिन पूर्व ही एक सरकारी योजना में घपले की शिकायत की जांच करने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की अगुआई में शिवपुरी पहुंचे दल पर हितग्राहियों ने हमला कर दिया। विजय शाह करैरा के विधायक रमेश खटीक की शिकायत पर शिवपुरी जिले में सफाई कामगारों को एसआरएमएस योजना के तहत उद्योग एवं व्यवसायों के लिए वितरित किए गए लाखों रुपए के ऋण प्रकरणों की जांच करने यहां आए थे। रेस्ट हाउस में विधायक खटीक से चर्चा करने के बाद जब शाह का काफिला जांच दल में शामिल अफसरों के साथ गांधी कॉलोनी स्थित अजाक्स के पूर्व जिलाध्यक्ष कमल किशोर कोड़े के परिवार के सदस्यों के घरों पर पहुंचे तो मामला गरमा गया। मौके की नजाकत को भांपते हुए शाह हितग्राहियों के घरों में स्टील एवं अन्य प्लांट को देखने खुद नहीं गए और समीप ही भाजपा कार्यकर्ता के घर जाकर बैठ गए। जांच के लिए विधायक खटीक, पूर्व विधायक ओमप्रकाश खटीक, शिवपुरी विधायक माखनलाल राठौर के साथ विभाग के अफसर हितग्राहियों के घर पहुंचे। यहीं बात बिगड़ गई और शिवदास कोड़े के घर में हितग्राहियों और उनके परिवार के सदस्यों ने जांच दल पर हमला कर दिया। लोगों ने भाजपा कार्यकर्ता एवं मप्र सफाई कामगार संगठन के सदस्य महेशचंद्र डागौर को पटक-पटक कर पीटा गया। लोगों के हाथ विधायक खटीक की गिरेबां तक पहुंच गए। मारपीट होती देख खटीक मौके से भागे। जांच दल में शामिल अफसर भी भागकर मंत्री शाह के पास पहुंचे और मामले की जानकारी दी। इसके बाद शाह भी बिना जांच किए गाड़ी में बैठकर निकल गए।
स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना संजोए प्रदेश के विकास को गति देने में लगे मुख्यमंत्री की मंशा पर अगर इसी तरह उनके मंत्री पानी फेरते रहे तो प्रदेश की हालत क्या होगी यह तो भगवान ही बता सकता है।

सियासत में न डूब जाए आंसू

भोपाल में 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यिानी रात को विश्व की भीषणतम गैस त्रासदी में बीस हजार से अधिक लोग असमय ही काल कलवित हो गए थे, पांच लाख से ज्यादा प्रभावित या तो अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं या फिर घिसट घिसट कर जीवन यापन करने पर मजबूर हैं, पर जनसेवकों को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। लेना देना हो भी तो क्यों, उनका अपना कोई सगा इसमें थोड़े ही प्रभावित हुआ है। देश की जनता की जान की कीमत इन सभी जनसेवकों के लिए कीडे मकोडों से ज्यादा थोडे ही है। मोटी चमडी वाले जनसेवकों ने तो भोपाल हादसे में मारे गए लोगों के शवों पर सियासी रोटियां सेकने से भी गुरेज नहीं किया। छब्बीस साल तक गैस पीडित अपना दुखडा लेकर सरकारों के सामने गुहार लगाते रहे पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती ही साबित हुई है। अब जब फैसला आ गया है तब सारे दलों के लोगों का जमीर जागा है, वह भी जनता को लुभाने और दिखाने के लिए, अपना वोट बैंक पुख्ता करने के लिए।
भोपाल के साथ यह विडंबना रही है कि चुनावी राजनीति में वह कभी भी निर्णायक की भूमिका में नहीं रहा। ना ही भारत में, ना ही अपने राज्य में जिसकी वजह से राजनीतिज्ञ उनके मतभेदों की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। चार सप्ताह के अंदर भोपाल में आम चुनाव हुए थे, लेकिन 1984 में मतदाताओं के मन को इंदिरा गांधी की शहादत ने बदल दिया था। कांग्रेस मध्य प्रदेश के सारे सीट जीती और पूरे देश में लगभग यही आलम था। पांच साल बाद देश मंडल और राम मंदिर के साथ बोफोर्स घोटाले में व्यस्त हो गया। ऐसे में अगर यहां के वाशिंदों के आंसू सियासत की भेंट चढ़ जाते हैं तो हैरानी की कोई बात नहीं।
भारत गणराज्य में मानवीय मूल्यों पर निहित स्वार्थ पूरी तरह हावी हो गए हैं। कहने को तो भारत गणराज्य का प्रजातंत्र समूचे विश्व में अनूठा है, पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है। आज सत्ताधारी दल के साथ ही साथ विपक्ष ने अपने आदर्श, नैतिकता, जनसेवा पर अपने खुद के बनाए गए स्वार्थों को हावी कर लिया है। ''हमें क्या लेना देना, हमारे साथ कौन सा बुरा हुआ, हम क्यों किसी के पचडे में फंसें, जनता कौन सा खाने को देती है, कल वो हमारे खिलाफ खड़ा हो गया तो, हमें राजनीति करनी है भईया, हम उनके मामले में नहीं बोलेंगे तो कल वे हमारे मामले में मुंह नहीं खोलेंगे, आदि जैसी सोच के चलते भारत में राजनैतिक स्तर रसातल से भी नीचे चला गया है।
छब्बीस साल पहले देश के हृदय प्रदेश भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के बाद उसके लिए जिम्मेदार रहे अफसरान को न केवल उस वक्त केंद्र और सूबें में सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस ने मलाईदार ओहदों पर रखा, वरन जब विपक्ष में बैठी भाजपा को मौका मिला उसने भी भोपाल गैस त्रासदी के इन बदनुमा दागों को अपने भाल का तिलक बनाने से गुरेज नहीं किया। देश की सबसे बडी अदालत में जब जस्टिस ए.एस.अहमदी ने धाराओं को बदला तब केंद्र सरकार शांत रही। फिर उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद मोटी पेंशन देने के बाद भी उनके पुनर्वास के लिए उन्हें किसी निगम मण्डल, आयोग, ट्रस्ट का सदस्य या अध्यक्ष बनाने की अपनी प्रवृत्ति के चलते इनकी लाख गलतियां माफी योग्य हो जाती हैं।
इसी तर्ज पर जस्टिस अहमदी को भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट का अध्यक्ष बना दिया गया। क्या सरकार ने एक बारगी भी यह नहीं सोचा कि इन धाराओं को बदलकर जस्टिस अहमदी ने भोपाल में मारे गए बीस हजार से अधिक लोगों और पांच लाख से अधिक पीडि़त या उनके परिवारों के साथ अन्याय किया है। सच ही है राजनीति को अगर एक लाईन में परिभाषित किया जाए तो ''जिस नीति से राज हासिल हो वही राजनीति है।'' कांग्रेस या भाजपा को इस बात से क्या लेना देना था और है कि किन परिस्थितियों में धाराओं को बदला गया।
भोपाल में न्यायालय में मोहन प्रकाश तिवारी ने जो फैसला दिया उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि उन्होंने अपने विवेक से सही फैसला दिया है। जब प्रकरण को ही कमजोर कर प्रस्तुत किया गया तो भारतीय कानून के अनुसार उसके लिए जितनी सजा का प्रावधान होगा वही तो फैसला दिया जाएगा। चूंकि देश की सबसे बडी अदालत ने पहली बार आरोप तय किए थे, तो उससे निचली अदालत उसे किस आधार पर बदल सकती है। भारतीय कानून में यह अधिकार उपरी अदालतों को है कि वे अपने नीचे की अदालतों के फैसलों की समीक्षा कर नई व्यवस्था दें।
जब फैसला आ चुका है, देश व्यापी बहस आरंभ हो चुकी है, तब फिर पूर्व न्यायाधिपति को भोपाल मेमोरियल का अध्यक्ष बनाए रखने का ओचित्य समझ से परे है। सरकार को चाहिए था कि तत्काल प्रभाव से उन्हें इस पद से हटा देेते। मामला आईने की तरह साफ है। सबको सब कुछ समझ में आ रहा है कि दोषी कौन है, पर ''हमें क्या करना है'' वाली सोच के चलते जनता गुमराह होती जा रही है।
प्रधानमंत्री को भी लगा कि मामला कुछ संगीन और संवेदनशील होता जा रहा है। देश भर में इसके खिलाफ माहौल बनता जा रहा है तो उन्होंने भी मंत्री समूह के गठन की औपचारिकता निभा दी। इस मंत्री समूह में केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को भी रखा गया है। कमल नाथ अस्सी से लगातार संसद सदस्य हैं, चौरासी में भी वे संसद सदस्य थे। राजीव और संजय गांधी के उपरांत प्रियदर्शनी स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे कमल नाथ का यह पहला टेन्योर था सांसद के रूप में। वे मध्य प्रदेश के छिंदवाडा संसदीय क्षेत्र से चुगे गए थे। इसके बाद वे नरसिंहराव सरकार में वन एवं पर्यवरण तथा वस्त्र मंत्री रहे हैं। इसके बाद वाणिज्य उद्योग और अब भूतल परिवहन मंत्री हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि बतौर सांसद मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने के बाद भी कमल नाथ ने आज तक भोपाल गैस कांड के लिए क्या किया है!
इसका उत्तर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही आएगा। जब तीस सालों में उन्होंने अपने निर्वाचन वाले सूबे में भोपाल गैस कांड जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कुछ नहीं कहा और किया तो अब मंत्री समूह में रहकर वे क्या कर लेंगे। कमलनाथ ने वाशिंगटन में 28 जून 2007 को यूनियन कार्बाईड को खरीदने वाली कंपनी डाओ केमिकल की वकालत करते हुए कहा था कि हादसे के वक्त डाओ केमिकल अस्तित्व में नहीं थी इसलिए भोपाल त्रासदी की जिम्मेदारी इसकी नहीं है। वरिष्ठ राजनेता और तीस साल की सांसदी कर चुके कमल नाथ को डाओ केमिकल का पक्ष लेने के बजाए भोपाल गैस कांड के मृतकों के परिजनों और पीडितों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए था, जो उन्होंने किसी भी दृष्टि से नहीं दिखाया।
भोपाल कांड के मृतकों की कीमत पर डाओ केमिकल को देश में फिर से आमद देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह भोपाल गैस कांड के मृतकों और पीडितों को एक गाली से कम नहीं है। आज आरोप प्रत्यारोप के कभी न थमने वाले दौर आरंभ हो चुके हैं। भोपाल गैस कांड के फैसले से सियासी तंदूर फिर गरम होकर लाल हो चुका है। सभी जनसेवक अब अपने अपने हिसाब से इसमें अपने विरोधियों के खिलाफ तंदूरी रोटी सेंकना आरंभ कर चुके हैं। एक दूसरे के कपडे उतारने वाले राजनेता यह भूल जाते हैं कि मृतकों के परिजनों और पीडितों को उनके वर्चस्व की लड़ाई से कोई लेना देना चहीं है, वे तो बस न्याय चाह रहे हैं।
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर का जमीर भी अचानक जागा है। उन्होंने भी इस तंदूर में अपनी दो चार रोटियां चिपका दी हैं। गौर का कहना है कि 1991 में जब वे गैस राहत मंत्री थे तब उन्होंने 9 जुलाई 1991 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को पत्र भी लिखा था। बकौल गौर भोपाल के गैस प्रभावित 36 वार्ड के पांच लाख 58 हजार 245 गैस प्रभावितों में से महज 42 हजार 208 पीडितों को ही मुआवजा देने की बात कही थी उस समय के मंत्री समूह ने। गौर के इस प्रस्ताव पर कि शेष बीस वार्ड के पांच लाख 16 हजार 37 पीडि़तों को मुआवजा देने पर उस समय गठित मंत्री समूह के अध्यक्ष कुंवर अर्जुन सिंह सहमत थे। बाबूलाल गौर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, पर वे इस बात को बताने से क्यों कतरा रहे हैं कि उन्होंने विधायक रहते इस मामले को कितनी मर्तबा विधानसभा के पटल पर उठाया। वे भोपाल शहर से ही विधायक चुने जाते आए हैं, वे प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे हैं, फिर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने विधानसभा क्षेत्र के भोपाल शहर के गैस पीडि़तों के लिए क्या प्रयास किए। बाबू लाल गौर को इन बातों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
कानून के जानकारों की मानें तो मध्य प्रदेश सरकार के हाथ बांध दिए गए हैं। अपने चुनाव क्षेत्र के दो वार्ड बाबूलाल गौर गैस पीडि़तों की सूची में इसके बावजूद नहीं जुड़वा पाए क्योंकि फैसला तो केंद्र सरकार को करना था। अब दूसरी बार भारत सरकार का मंत्रिमंडलीय समूह तब जाकर जीवित किया गया जब भोपाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐलान कर चुके थे कि वे इस लड़ाई को हारने वाले नहीं हैं और सरकार की ओर से उच्च न्यायालय में अपील करेंगे। भोपाल की जनता को शिवराज सिंह से ज्यादा उम्मीद हैं। पी चिदंबरम नए समूह के अध्यक्ष बनाए गए हैं मगर अब यह उनके ऊपर है कि वे वारेन एंडरसन से पहले निपटना चाहते हैं या माओवादी कातिलों से।
कमाल की बात तो यह है कि मध्य प्रदेश के एडवोकेट जनरल रह चुके और अब भारत सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल विवेक तन्खा शिवराज सिंह चौहान की बनाई कमेटी में शामिल है। भारत सरकार को उनकी मदद लेने का ध्यान भी नहीं रहा। वैसे भी भारत सरकार में 29 ग्रुप ऑफ मिनिस्टर पहले से हैं और अब 30 हो गए हैं। उम्मीद की जा रही थी कि शर्म से ही सही, भोपाल को न्याय दिलवाने में अब केंद्र सरकार कामयाब होगी और अमेरिका के साथ रिश्ते बिगडऩे का रोना नहीं रोएगी। लेकिन चार दिनों तक चली बैठक के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर ने गैस पीडि़तों के जख्मों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की है जो मिर्च से कम नहीं है। क्योंकि सरकार ने 21 साल पुराने वर्गीकरण यानी 1989 में डाक्टरों द्वारा आनन-फानन में मरीजों का जो वर्गीकरण किया था उसके आधार पर मुआवजा देने का ऐलान किया है। गैस पीडि़त संगठन के नेता अब्दुल जब्बार कहते हैं कि केन्द्र सरकार ने भोपाल के केवल उन लोगों को ही मुआवजा देने की बात कही है जिन्हें एक मुश्त 50 हजार या उससे अधिक की रकम मिली है। जबकि इस मामले में तत्कालीन स्वास्थ्य अधिकारी एसएन मिश्रा का कहना है कि उस समय जल्दीबाजी में पीडि़तों का वर्गीकरण किया गया था। सही तो यह होता कि एक बार फिर से पीडि़तों की पहचान और वर्गीकरण किया जाता।
भोपाल गैस कांड पर केंद्र सरकार अपनी खाल बचाने में जुटी है। छब्बीस साल तक कुंभकर्णी नींद सो रही केंद्र सरकार को अब भोपाल गैस पीडि़तों की सुध लेने की सूझी। इस बात पर सहमति बनी कि सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन यानी सुधार याचिका दाखिल की जाएगी और वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की जाएगी। यह फैसला भी देश की आवाम को बरगलाने की एक कोशिश है। एंडरसन पर सिर्फ लापरवाही के आरोप हैं और अमेरिका की अदालत ने इस मामले में इंटेंट साबित नहीं हो पाने की वजह से प्रत्यर्पण की अर्जी खारिज कर दी है। अब भारत सरकार को इसके लिए एक लंबी कानूनी लड़ाई लडऩी होगी। प्रत्यार्पण के लिए अपने अनुरोध पत्र को बदलना होगा। एंडरसन नब्बे की उम्र पार कर चुका है और अमेरिकी कानून में प्रत्यर्पण के लिए आरोपी की उम्र को भी ध्यान में रखा जाता है। कुल मिलाकर यह एक ऐसी कोशिश है जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना लगभग तय है।
तकरीबन 20 हजार लोगों की मौत के बाद अचानक सरकार के सक्रिय दिखने की वजह कुछ और है। अदालत के फैसले के बाद केंद्र सरकार चौतरफ दबाव में थी। कांग्रेस अपने दामन पर लगे दाग को धोने और आरोपों के दलदल से निकलने के लिए बेचैन है। अदालती फैसले के बाद एंडरसन के भारत से भागने को लेकर जिस तरह से मीडिया ने सरकार को घेरा और उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर आरोप लगे उससे कांग्रेस सकते में आ गई। पार्टी नेताओं ने बचाव में अलग-अलग तर्क देने शुरू किए जिसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी में पहले भ्रम की स्थिति बनी। पार्टी के महासचिव और दस जनपथ के करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह ने एंडरसन के भारत से भगाने को लेकर राजीव गांधी को घेरे में ले लिया। पार्टी के एक और नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अलग राग अलापते हुए अर्जुन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए। मामला बिगड़ता देख पार्टी डैमेज कंट्रोल में जुटी और नेताओं को भोपाल मसले पर मुंह बंद करने का फरमान जारी कर दिया गया। अब पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी यह तर्क दे रहे हैं कि अगर वॉरेन एंडरसन को नहीं भगाया जाता तो देश की जनता उसे मार डालती। मनीष के तर्क बेहद लचर और तथ्यहीन हैं। अगर भोपाल की जनता में गैस लीक कांड को लेकर गुस्सा था और इस बात की आशंका थी वो हिंसक हो सकती थी तो तो एंडरसन को वहां से निकाल कर देश के किसी भी हिस्से में रखा जा सकता था। देश में इतने खुफिया ठिकाने हैं जिसमें से कहीं भी एंडरसन को रखा जा सकता था लेकिन उसे तो शाही ठाठ-बाट के साथ भारत से विदा किया गया।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह क्या सारे राजनेता इस बात को जानते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत ही कमजोर होती है। अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर या संसद पर हमला हो या फिर देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई पर हुए अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले की बात। हर मामले में जैसे ही घटना घटती है, वैसे ही चौक चौराहों, पान की दुकानों पर बहस गरम हो जाती है, फिर समय के साथ ही ये चर्चाएं दम तोड देती हैं। भोपाल गैस कांड में भी कुछ यही हो रहा है। मामला अभी गर्म है सो कुछ न कुछ तो करना ही है। मंत्री समूह का गठन कर जनता को भटकाना ही उचित लगा सरकार को।
क्या भाजपा के अंदर इतना माद्दा है कि वह केंद्र सरकार से प्रश्न करे कि गैस कांड के वक्त मुख्यमंत्री रहे कुंवर अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में 1991 गठित मंत्री समूह की सिफारिशें क्या थीं, और क्या उन्हें लागू किया गया, अगर नहीं तो अब एक बार फिर से मंत्री समूह के गठन का ओचित्य क्या है! क्या इसका गठन मामले को शांत करने और जनता का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाने के लिए है। हालांकि इस मामले में प्रदेश सरकार के हाथ बंधे हुए हैं।
गैस कांड में कानूनी फैसले के नाम पर जो अभूतपूर्व अन्याय हुआ है उसके पीछे की कहानियां अब सामने आती जा रही है। सीबीआई ने पहले सही धाराओं में मामला बनाया था। यह धारा 304 थी जिसका मतलब होता है कि अभियुक्त को पता था कि उसकी लापरवाही से व्यक्ति या व्यक्तियों की मौत हो सकती है और फिर भी सावधानी नहीं बरती गई। इस धारा में कम से कम दस साल और अधिक से अधिक उम्र कैद का प्रावधान है। भारत सरकार ने भोपाल आए यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को कैसे राजकीय अतिथि की मुद्रा में गिरफ्तार किया और कैसे दिल्ली से राजीव गांधी या पी नरसिंह राव या दोनों का फोन तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पास आया और तीन घंटे के भीतर वारेन एंडरसन को रिहा कर के सरकारी जहाज में दिल्ली पहुंचा दिया गया और वहां से वह अमेरिका उड़ गया। यह मेहरबानी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति और उसके पहले सीग्रेड फिल्मों के हीरो रह चुके रोनाल्ड रीगन के एक फोन के बाद हुई थी।
फिर भारत सरकार ने एक विशेष अध्यादेश जारी कर के भोपाल की लड़ाई लडऩे के लिए सिर्फ खुद को अधिकार दे दिया। भारत सरकार ने अमेरिका की एक अदालत में तीन अरब तीस करोड़ डॉलर का मुआवजा मांगने के लिए अमेरिका की अदालत में मामला दायर किया मगर अदालत ने कहा कि जुर्म भोपाल में हुआ है और मामला भी वहीं चलना चाहिए। सीबीआई तो धारा 304 के तहत दिसंबर 1987 में ही वारेन एंडरसन और यूनियन कार्बाइड की अलग अलग शाखाओं के अधिकारियों के खिलाफ चार्ज शीट भी दाखिल कर चुकी है और फरवरी 1989 में भोपाल के चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने एंडरसन के खिलाफ जमानत के दौरान किए गए वायदे के बावजूद अदालत में पेश नहीं होने पर गैर जमानती वारंट जारी कर दिया और इसको तामिल भी करवा लिया गया। मगर उसी महीने भारत सरकार को पता नहीं एंडरसन के प्रति दया का ऐसा दौरा आया कि तीन अरब तीस करोड़ डॉलर के बजाय सिर्फ चार करोड़ सत्तर लाख के मुआवजे पर सौदा कर लिया गया। भोपाल के लोग बहुत खफा थे और कई याचिकाएं और समीक्षा याचिकाएं भारत के सर्वोच्च न्यायालय मे डाली गई जिन्हें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अहमदी ने खारिज ही नहीं कर दिया बल्कि 1996 में तो फैसला दे दिया कि मामला 304 का नहीं बल्कि 304 ए और बी का बनता है जिनमें अधिकतम सजा दो साल की हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि जब यूनियन कार्बाइड ने भोपाल हॉस्पीटल ट्रस्ट लंदन में बनाया तो अहमदी साहब उसके अध्यक्ष बनाए गए। फरवरी 2001 में तो यूनियन कार्बाइड ने घोषित ही कर दिया कि भारत की फैक्टरी के लिए उसकी कोई देनदारी शेष नहीं हैं। अगले साल हुई एक शोध ने साबित किया कि यूनियन कार्बाइड प्लांट के आसपास रहने वाली मांओ के दूध में पारा पाया गया हैं। अमेरिकी सरकार कहती रही कि उसे एंडरसन का कोई पता नहीं हैं जबकि एक ब्रिटिश अखबार के संवाददाता उसके घर पहुंच गए और गोल्फ खेलते हुए उसके फोटो भी खींच लाए। अमेरिका के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि है मगर अमेरिका ने एंडरसन को कभी भारत सरकार को नहीं सौंपा।
भारत सरकार अपने तरीके से काम कर रही थी। भोपाल में हादसा हुआ था लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की कोई्र भूमिका नहीं रहने दी गई थी। सीबीआई के एक जांच अधिकारी ने आरोप लगाया है कि विदेश मंत्रालय ने बाकायदा संदेश भेज कर कहा था कि एंडरसन के प्रत्यर्पण पर ज्यादा जोर नहीं डाला जाए। उस समय पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे और विदेश मंत्री दिनेश सिंह बहुत बीमार थे इसलिए विदेश मंत्रालय के फैसले भी प्रधानमंत्री कार्यालय से होते थे। उस समय विदेश मंत्रालय में उप मंत्री रहे और अब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद का दावा है कि उन्हें इस तरह के किसी संदेश के भेजे जाने की जानकारी नहीं है और तो और न्यायमूर्ति अहमदी कहते है कि उन्हें तो किसी समीक्षा याचिका की याद ही नहीं है।
अब भारत सरकार भोपाल के हजारों निष्पाप लोगों का कानूनी श्राध्द करने में लग गई हैं। भोपाल गैस त्रासदी पर न्याय पाने के लिए भारत सरकार में मंत्रियों का एक समूह पहले से मौजूद था और यूपीए की पहली सरकार के दौरान ही बना लिया गया था। अर्जुन सिंह इस समूह के अध्यक्ष थे। भोपाल के फैसले के अगले ही दिन जब इस समूह को जीवित किया तो पता चला कि भारत सरकार का ऐसा समूह भी था। अगर यह समूह था और इसमें भारत सरकार के जिम्मेदार मंत्री मौजूद थे तो यह समीति इतने सालों से कर क्या रही थी? यह आश्चर्य खास तोैर पर इसलिए भी है क्योंकि इस समिति के अध्यक्ष खुद अर्जुन सिंह थे जिन्हें भोपाल गैस कांड के बारे मेंं दूसरों से ज्यादा पता था। अब भी जब इस मामले ने जोर पकड़ा है तो अर्जुन सिंह ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि एंडरसन को भगाने में उनका हाथ नहीं था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उनके सूबे से हजारों लोगों का कातिल राजकीय सम्मान के साथ, राजकीय विमान पर, राजकीय अधिकारियों की मौजूदगी में भोपाल छोड़ता है और मुख्यमंत्री को इसका पता ही नहीं।
हालांकि श्री सिंह ने एक और सगूफा छोड़ दिया है कि मैं अपनी जीवनी लिख रहा हूं। उसमें मैं इस बात का खुलासा करूंगा कि एंडरसन को भगाने का दोषी कौन है। अब तो इस बात का इंतजार करना पड़ेगा कि अर्जुन सिंह अपनी जीवनी कब तक लिखते हैं या... वह अधूरी ही रहेगी। लेकिन इतना तो जरूर है कि भोपाल त्रासदी के शिकार पीडि़तों के आंसू सियासत के शिकार हो ही जाएंगे।

क्या कर रहे हैं शिवराज

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने सिपहसलारों की सलाह पर स्वर्णिम मध्य प्रदेश बनाने का सपना संजोए जहां-तहां हाथ-पैर चला रहे हैं। इसके लिए वे विदेशों की खाक भी छान रहे हैं लेकिन प्रदेशवासियों को स्वर्णिम मध्य प्रदेश का सपना दिखा रहे मुख्यमंत्री को शायद मालूम नहीं है कि उनके सुशासन में मध्य प्रदेश देश के अन्य राज्यों की तुलना में कितना पीछे चला गया है। प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय के हिसाब से उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश, देश का सबसे कम आमदनी वाला राज्य है। अर्थात भारत में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय 42 हजार रुपये है, वहीं मध्य प्रदेश के नागरिक की यह आय मात्र 21 हजार रुपये है। साल 2001 में मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ राज्य ने इतनी तरक्की कर ली कि आज वहां प्रति व्यक्ति आय 33 हजार 500 रुपये वार्षिक है, लेकिन हम पहले से छोटे राज्य होने के बाद भी तरक्की नहीं सके। इसका मुख्य कारण है हमारी दिशाहीन नीति।
मप्र की भौगोलिक स्थिति जानने वालों की माने तो प्रदेश में खनिज,खेती,उद्योग और पर्यटन की आपार संभावनाएं हैं। अगर इनका उचित तरीके से दोहन किया जाए तो मप्र को किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत नहीं है। लेकिन हमने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया और विदेशों में संभावनाएं तलाशते फिर रहे हैं। अभी हाल ही में अपनी इसी मंशा से शिवराज ने तीन देशों जर्मनी, नीदरलैंड और इटली की यात्रा की। यात्रा से लौटने के बाद मुख्यमंत्री श्री चौहान ने इस बात पर संतोष जताया कि इस यात्रा में मध्यप्रदेश की संभावनाओं का दिग्दर्शन करवाने में उन्हें सफलता मिली। उन्होंने यात्रा के दौरान संपन्न इंडस्ट्री इंटरऐक्टिव मीट्स को भी उल्लेखनीय रूप से सफल बताया। मुख्यमंत्री ने यात्रा के उद्देश्यों की जानकारी देते हुए कहा कि उनकी इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य इन देशों के कामर्स तथा इंडस्ट्री चेंबर्स, प्रमुख उद्योपतियों तथा अंतरदेशीय संगठनों में मध्यप्रदेश में कृषि तथा खाद्य प्रसंस्करण, न्यू एंड रिन्यूएबल इनर्जी, सुरक्षित उन्नत खेती, इंजीनियरिंग तथा फैशन डिजाइनिंग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उद्योग-व्यवसायों की स्थापना के लिये उपलब्ध संसाधनों तथा संभावनाओं के बारे में जागरूकता पैदा करना था।
अब शिवराज को कोई यह कैसे समझाए की मप्र में निवेश करने की संभावना से उन्होंने जिन तीन देशों की यात्रा कि वे आर्थिक मंदी के इस दौर में बदहाल हैं। जर्मनी और इटली की स्थिति तो फिर भी कुछ अच्छी है जबकि नीदरलैंड तो खुद भारत की ओर आंखे फैलाए हुए है। यह हम नहीं बल्कि भारत में नीदरलैंड के राजदूत बॉब हाइन्स कहते हैं। नीदरलैंड में इस समय 80 से अधिक भारतीय कंपनियां कार्यरत हैं जो कि आईटी से लेकर फॉर्मा तक के क्षेत्रों में काम कर रही हैं। नीदरलैंड सरकार भारतीय कंपनियों से लगातार निवेश का आग्रह कर रही है। हाइन्स ने माना कि बीते दो साल में आर्थिक मंदी का असर नीदरलैंड पर पड़ा है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री के सलाहकार उन्हें ऐसे देश में निवेश की संभावना तलाशने ले जाते हैं। राज्य सरकार का सपना स्वर्णिम मध्यप्रदेश वास्तविकता के धरातल से काफी दूर है। लचर प्रशासन और कमजोर राजनीतिक इच्छा शक्ति के कारण यह कभी पूरा हो पाएगा, इसमें संदेह है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का स्वर्णिम प्रदेश का सपना मानवीय दृष्टि से उनकी भावनाओं को व्यक्त करता हुआ प्रतीत होता है, परंतु मुख्यमंत्री मौजूदा प्रशासन वर्ग के साथ जनहित योजना के क्रियान्वयन में कितने सफल हो पाएंगे यह संदेह के दायरे में ही रहेगा। अब तक मिले परिणामों पर गौर किया जाए तो हम पाते है कि बेहतर वित्तीय प्रबंधन का दावा करने वाली सरकार ने मध्य प्रदेश को 58000 करोड़ रूपये के कर्ज में डुबा दिया है। स्थितियां इतनी खराब है कि कर्जों की अदायगी न होने के कारण कर्ज के बराबर की ही राशि ब्याज के रूप में राज्य पर अतिरिक्त वित्तीय भार बनकर आ चुकी है। इस वित्तीय वर्ष में इस ब्याज की राशि कितनी बड़ी है इसका आंकलन अभी शेष है। सरकार को प्रतिवर्ष अभी तक 6500 करोड़ रूपये का ब्याज चुकाना है। यह राशि आने वाले दस वर्षों में भुगतान की जानी है। राष्ट्रीय कार्यक्रमों के प्रति राज्य सरकार का रवैया बहुत प्रभावशाली नहीं है। नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार की शिकायत आम हो चुकी है। राज्य सरकार द्वारा स्वयं कर्जे में डूबे रहने के बाद दूसरों को गारंटी देने की प्रवृत्ति राज्य को भीषण तंगी की ओर ले गई है। सरकार द्वारा इस तरह की गारंटी देने के बावजूद राज्य पर लगभग 60 करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है। सरकार ने 13000 करोड़ के खर्च पर बैंक गारंटी दे रखी है। यह गारंटी कुछ निजी कंपनियों के अलावा अद्र्ध शासकीय संस्थाओं और निगम मण्डलों की वजह से दी गई है। सरकार के 2009-10 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक सन 1999-2000 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का अंशदान 28 प्रतिशत था जो 2008-09 में घटकर 20.53 प्रतिशत रह गया है। सरकार लाख दावे करे, पर कृषि क्षेत्र में विकास दर कम हो रही है। कृषि क्षेत्र आर्थिक रूप से जर्जर हो रहा है, इसलिए रोजगार अवसर भी कम हो रहे हैं। प्रदेश की ग्रामीण, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त और बर्बाद हो गई है। जानकार कहते हैं कि मध्य प्रदेश में विकास की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन उनका दोहन अभी तक नहीं हुआ है। अगर सरकार की मंशा विकास की है तो उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है वह अपनी संपदाओं का उचित तरीके से दोहन कर के तो देखे।

मामा की 'मेहरबानियोंÓ को कलंकित करते अनूप

अटल बिहारी वाजपेयी की जिंदगी में विवाद और अपवाद तो बहुत आये मगर कलंक का सामना उन्हे अब करना पड़ रहा है। इस कलंक का नाम अनूप मिश्रा है। अनूप मिश्रा भाजपा के नेता हैं पार्टी के बड़े पदों पर रह चुके हैं और मामाजी का नाम जितना अनूप मिश्रा ने भुनाया है उतना तो और किसी ने नही भुनाया होगा। अटलजी के पूर्वजों और वंशजों में अनूप मिश्रा बहुत ताकतवर माने जाते हैं और अटलजी कहते हों या न कहते हों, अटलजी की परावर्तित आभा उनपर पड़ी हुई है इसलिए जब भाजपा को ताकत मिलती है तो उसमें अनूप मिश्रा की भागीदारी हमेशा हो जाती है।
अपना परिवार अटलजी ने कभी नहीं बसाया लेकिन उनकी बहुतों पर कृपा होती रही है। उनमें से कुछ पात्र थे और ज्यादातर अपात्र थे। अपात्रों की इस सूची में अचानक अनूप मिश्रा का नाम मेरिट लिस्ट में आ गया है। अनूप मिश्रा ने माल काटा, अपने आपको राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की, मामाजी प्रधानमंत्री बने तो अनूप मिश्रा नेहरू युवा केंद्र के उपाध्यक्ष के तौर पर केंद्र के उपमंत्री का दर्जा पाकर दिल्ली में विराज गये। यहां के उनके कामों पर इतना विवाद हुआ और हिसाब किताब में इतनी गड़बड़ हुई कि आखिरकार रजिस्टर ही गायब करने पड़े। जल्दी ही अनूप मिश्रा को एहसास हो गया कि उनके अंदर मामाजी यानी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेता और राजनायक बनने की क्षमता नहीं है। अगर अपने दम पर राजनीति करते तो शायद नगर निगम पार्षद भी नहीं होते। अब अटलजी का नाम जुड़ा है तो भाजपा और सत्ता जब भी करीब आते हैं तो अनूप मिश्रा की गाड़ी पर लाल बत्ती लग जाती है। यह जानने के लिए बहुत ज्ञानी होने की जरुरत नहीं है कि राजनैतिक प्रताप और महिमा बहुत क्षणभंगुर होती है। अनूप मिश्रा जैसे लोकल नेता भी इसे जानते हैं। अटल जी का परिवार में रहने का हमेशा से आग्रह रहा है और ग्वालियर की शिंदे की छावनी की तंग गलियों में प्रधानमंत्री रहने और उसके बाद भी उनका काफिला नहीं जा सकता था। इसलिए वे अनूप मिश्रा के यहां ही ठहरते थे। अनूप मिश्रा को इस बात ने भी बहुत ताकत दी। अब बूढ़े होने लगे हैं और कारोबार का शौक लग गया है। अनूप मिश्रा जानते हैं कि आज की तारीख में शिक्षा से अच्छा कोई कारोबार नहीं है। इसलिए उन्होंने एक बड़ा कॉलेज खोला और वह भी ग्वालियर के पास एक गांव में खोला।
अब कॉलेज को विश्वविद्यालय बनवाना था और इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के अनुसार ज्यादा जमीन चाहिए थी तो बेला गांव की जमीन पर कब्जा किया गया। गांव और कॉलेज के बीच से जो मुख्य रास्ता जाता है उस पर चाहरदीवारी बनने लगी और इसके लिए बड़ी-बड़ी मशीने आ गयीं। गांव के लोगों को पता लगा तो पूरा गांव विरोध करने के लिए जमा हो गया। तब जाकर अनूप मिश्रा के बेटे साले और भाई ने बताया कि उन्होंने तो पूरा गांव सरकार से लीज पर ले लिया है। गांव वाले मानने को तैयार नहीं थे। गांव के सारे लोग महिला पुरुष बच्चे और बूढ़े जमा हो गये थे और इनके आगे नेतृत्व करने के लिए बीस साल का बारहवीं क्लास का भीकम सामने आया और उसने महाबली अनूप मिश्रा के गिरोह से सवाल करने की हिम्मत की। पहले तो उसे धक्के मारे गये मगर फिर अचानक भीकम के माथे पर पिस्तोल अड़ा कर गोली दाग दी गयी। उसका भेजा जमीन पर बिखर गया। एक दिन बाद ही परिवार में शादी थी और अचानक शादी का माहौल शोक में बदल गया।
पहले गोलियां हवा में चलाई गयीं थी मगर गांव वाले जब नहीं डरे तो फिर जान लेने का फैसला किया गया। ज्ञान, चरित्र और एकता पर जोर देने वाली पार्टी के मंत्रीजी का पूरा खानदान शराब में धुत था। मौत आयी और इसके बाद भी पुलिस खामोश थी क्योंकि अब मारने वाले सीधे मुख्यमंत्री और भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी का नाम ले रहे थे।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उस समय लंदन से दिल्ली की उड़ान में थे। पुलिस वाले रिपोर्ट तक नहीं लिख रहे थे। लाश जमीन पर पड़ी थी। गांव वाले रो-रो कर थक गये थे। मुख्यमंत्री के आधी रात से कुछ पहले भोपाल उतरने के पंद्रह मिनट के भीतर एफआईआर दर्ज हो गयी। शिवराज सिंह चौहान स्वंयसेवक हैं और नाम की धौंस में नहीं आते। अनूप मिश्रा के परिवार ने इस बार जो किया वह तो अक्षम्य है ही, एनडीए की सरकार के दौरान तो अनूप ने बकायदा एक काउंटर खोल रखा था जहां केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से काम करवाने के बदले बकायदा वसूली की जाती थी। कम लोग जानते हैं कि बाबू लाल गौर को जब मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो अनूप मिश्रा भी मुख्यमंत्री बनने के दावेदारों में से थे। मगर अटलजी जानते थे कि उनके भांजे की असली औकात क्या है इसलिए उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। स्थिर मन वाले और काम करना जानने वाले शिवराज सिंह मुख्यमंत्री बने।
अटल जी की तबियत ठीक नहीं है मगर भोपाल और मध्यप्रदेश के दूसरे इलाकों में बहुत सारे लोग ऐसे मिल जाएंगे जिनके सामने अनूप मिश्रा अटल जी के दिल्ली के घर का नंबर लगाते हैं और उनके सचिव जिंटा से लंबी बात करके कहते हैं कि मैंने मामाजी से बात कर ली है। जो लोग दुनियादारी की असलियत नहीं जानते वो जरूर प्रभावित हो जाते हैं। अनूप मिश्रा की दुकानदारी चलती रहती है। वैसे आपकी जानकारी के लिए जनता को दवाइयों की आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार से जो कोष मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को गया था, उसके हिसाब में बड़ी गड़बड़ी है। स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा हैं जो अब शिक्षा के धन कुबेर होना चाहते हैं। अनूप मिश्रा ने जो किया और उनके परिवार के लोगों ने जो लाश गिराई, उम्मीद है कि अटलजी के जीवन इतिहास में यह बात हाशिए पर भी दर्ज नहीं की जाएगी। अटलजी का नाम इस्तेमाल करके बहुत लोगों ने दुकानदारी चलाई है मगर भांजे अनूप ने तो बाकायदा डाका ही डाल दिया।

मंगलवार, 22 जून 2010

मंथन-समीक्षा में डूबा 'शिवÓ राज

मध्य प्रदेश में वर्ष 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तो प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी में था और लोगों को इस सरकार से एक बड़े विकास की उम्मीद थी। लेकिन सत्ता संघर्ष में जहां दो मुख्यमंत्री उमा भारती और बाबूलाल गौर कुछ नहीं कर सके वहीं तीसरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके सलाहकारों ने कुछ करने नहीं दिया। ऐसा भी नहीं कि शिवराज विफल रहे लेकिन उन्होंने जिस अनुपात में घोषणाएं की थी उसे उस सीमा तक पूरा नहीं करा सके। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो इसके लिए मुख्यमंत्री को ही दोष देना उचित नहीं होगा क्योंकि तब उनमें प्रशासनिक अनुभव की कमी थी।
शिवराज की मंशा साफ थी यह बात जनता जान चुकी थी और शुक्र हो लाड़ली लक्ष्मी योजना का जिसने मामा को विकास पुरूष के रूप में स्थापित कर दिया था। फिर क्या था विरासत में मिली सत्ता को अपने दम पर दूसरी बार हथिया कर शिवराज ने अपना लोहा मनवा दिया। लेकिन अपने अदम्य कोशिशों के बावजुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने दूसरे कार्यकाल के 14 माह बीत जाने के बाद भी मप्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर न ला सके। एक तरफ प्रदेश को विकसित राज्य बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की विकास दर उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्य से भी कम है। क्योंकि इस बार भी उनके इर्द-गिर्द वही सलाहकारों की मंडली कब्जा जमाए हुए है जो पहली पारी में थी।
शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनाव के पहले मध्यप्रदेश को समृद्ध व विकसित राज्य बनाने का संकल्प लिया था। दोबारा सरकार बनाते ही उस संकल्प को पूरा करने के लिए रोडमैप तैयार किया गया। इसके लिए सात कार्यदल बनाए गए थे। कार्यदल की रिपोर्टो पर अलग-अलग चर्चा की गई। इसके बाद मंत्रियों तथा अधिकारियों के साथ सामूहिक चर्चा के बाद विभागवार चर्चा की गई। मंथन में कुल 940 अनुशंसाएं आई थी, जिसमें 852 मान्य की गई 88 को अमान्य कर दिया गया। अनुशंसाओं को तीन श्रेणी में बांटा गया है। पहली वह अनुशंसाएं जो तत्काल लागू हो सकती हैं, इस संबंध में सभी अधिकारियों को 15 मार्च तक आदेश जारी करने को कहा गया है। दूसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हें लागू करने के लिए नियमों मे बदलाव करना पड़ेगा। इसमें तीन से छह माह का समय लग सकता है। तीसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हे पूरा करने के लिए अतिरिक्त राशि की आवश्यकता पड़ेगी। अतिरिक्त राशि कहां से आएगी, इसके लिए भी कार्य शुरू कर दिया गया । मंथन समृद्धि व विकास का रास्ता खोजने के लिए था, जो खोज लिया गया, मंजिल भी तय हो गई,मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने के लिए बस उड़ान भरने की जरूरत थी। लेकिन पायलटों सलाहकारों ने जहाज को दूसरी दिशा में उड़ाना शुरू कर दिया। और मात्र 14 माह की अल्प अवधि में 50 फीसदी घोषणाओं को पूरा करने का दावा भी कर डाला जो हकीकत से परे है। अगर इस औसत से देखें तो अगले 14 माह बाद सरकार के पास कोई काम ही नहीं रहेगा यानी शिवराज सरकार बेकाम हो जाएगी।
ये बड़ी विचित्र स्थिति है कि जब पूरे प्रदेश की जनता अपने मुख्यमंत्री को गरम तवे पर बैठकर ईमानदार मानने को तैयार है, इसके बावजूद उनके मुख्यमंत्री जमीनी हकीकत को जानने की बजाय अपने सलाहकारों की सलाह और आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। या यूं कहें कि वे अपने सलाहकारों की आंकड़ेबाजी पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं
क्योंकि सरकार का खजाना खाली है। 58 हजार करोड़ का कर्ज ऊपर से है। विकास एजेंसियों का बजट कम कर दिया गया है। प्रदेशभर की विकास योजनाएं ठप पड़ी हैं। लाडली बेहाल है। कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है। पिछले कुछ सालों में यहां पड़े आयकर छापों से यह विदित हो गया है कि भ्रष्टाचार चरम पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गई है। इंदौर और फिर भोपाल में एसएसपी सिस्टम लागू करने के बावजूद अपराधों का ग्राफ बढ़ा है। ग्वालियर में डकैतों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है। हत्याओं के मामले में इंदौर तो लूट के मामलों में भोपाल नंबर वन है। सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक संवेदनशीलता के मामलों में मध्यप्रदेश नंबर वन है। दलित उत्पीडऩ में भी प्रदेश सिरमौर है। भू-माफियाओं के हौसले बुलंद हैं। सरेआम सरकारी जमीन हड़पकर बेचने के ढेरों मामले सामने आए हैं।
नौकरशाही बेलगाम हो गई। सरकार की उदासीनता से भ्रष्ट अफसरान करोड़ों में खेल रहे हैं। आयकर छापों में करोड़ों रुपयों के साथ अकूत संपत्तियों का भी खुलासा हो रहा है। भ्रष्टों पर सरकार की मेहरबानी का आलम यह है कि राज्य के मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) ने भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई न होने पर नाराजगी जताई है। मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) के सूत्रों की मानें तो सरकार ने भ्रष्टाचार के 2333 प्रकरण पेंडिंग रख रखे हैं। पीडब्ल्यूडी, पीएचई और जल संसाधन विभाग के इन प्रकरणों को दबाने के पीछे यह कारण पता चला है कि आला अफसरान ने उनसे साठगाँठ कर ली है। गृह राज्यमंत्री नारायण सिंह कुशवाह तो यहां तक कह चुके हैं कि कानून व्यवस्था को मुख्यमंत्री भी नहीं सुधार सकते। गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता स्वीकार चुके हैं कि आम जनता का पुलिस पर से भरोसा उठ रहा है। राजस्व राज्यमंत्री करणसिंह वर्मा विदिशा में चोरी की बढ़ती घटनाओं पर कहते हैं कि चोरों को गोली मार दो। मंत्रियों के ऐसे बयानों के बाद भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। अफसरान खाली बैठे तनख्वाह ले रहे हैं। उधर मुख्यमंत्री, अध्यक्ष, नेताप्रतिपक्ष और मंत्रियों का वेतन बढ़ा दिया गया है।
विद्युत मंडल घोटालेबाज के हाथों में है, जहां आम जनता को जमकर लूटा जा रहा है। पूरे प्रदेश में वन संरक्षण पर खर्च की राशि जितनी बढ़ रही है, उसी अनुपात में जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के अफसरान सिर्फ और सिर्फ कमीशनखोरी में लगे हैं। केंद्रीय अनुदान में सरकार को कहां चूना लगाया जाए, यही मौका ढूंढते रहते हैं। कुपोषण के मामले में उड़ीसा के बाद मध्यप्रदेश का ही नाम आता है। महिला बाल विकास में को फर्जीवाड़े का रोग लग गया है। प्रदेश के चार लाख अतिकुपोषित बच्चों को पोषणाहार देने का कार्यक्रम थर्ड मील फेल हो गया है। उन्हें रोजाना दो रुपए का आहार देना तय है और वह भी नहीं मिल पा रहा है। आंगनबाडिय़ों की सवा लाख कार्यकर्ताओं को इसकी जिम्मेदारी थी, जो अब छीन कर एक कंपनी को दे दी गई है। पूरे प्रदेश में शिक्षा माफिया छाया हुआ है, जो दोनों हाथों से छात्रों और उनके अभिभावकों को लूट रहा है। निजी मेडिकल कॉलेजों में हर साल 10 हजार करोड़ का कारोबार हो रहा है। सरकार द्वारा करोड़ों रुपए फूंकने के बावजूद पॉलीटेक्निक कॉलेज बदहाल हैं। 50 में से 45 मेडिकल कॉलेज में तो प्राचार्य तक नहीं है। परिवहन विभाग में भ्रष्टों की पूछपरख बढ़ गई है। सड़क परिवहन निगम को सरकार ने बंद कर दिया, किंतु केंद्र ने इस पर रोक लगा दी। इसके बावजूद सरकार इसे चालू नहीं कर रही है। इससे हजारों कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो मंत्रालय के ए एसी कमरे में बैठकर मुख्यमंत्री अफसरों के साथ जो कार्ययोजना बनाई थी वह पूरी तरह फेल हो गई है। यानी कुल मिलाकर देखा जाय तो शिवराज इस बार भी शासन और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सके हैं। शिवराज की शासन और प्रशासन पर पकड़ तभी बन सकती है, जबकि वह सरकारी तंत्र पर सतत निगरानी की कोई व्यवस्था बनाएं। यह तभी संभव है, जबकि वह अपने सचिवालय के कामकाज की बारीकी से समीक्षा करें और ऐसा सिस्टम विकसित करें, जिससे कि वह संदेश जाए कि प्रदेश के एकमात्र चीफ मिनिस्टर वहीं है और दूसरा कोई सुपर सीएम नहीं है।
प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐतबार करती है तो उनकी जिम्मेदारी पुरे तंत्र को भष्टाचार मुक्त बनाने की हैं इसकी शुरुआत योजनाओं के मूल से होना चाहिए। अफसर, राजनेता, ठेकेदार और बिचोलियों का गठजोड़ नई योजनाओ-पालिसियों पर कड़ी नजर रखता है। यह चिंतनीय और शोचनीय है। शिवराज सिंह चौहान भली भांति जानते है कि कौन भ्रष्ट है और कौन दलाल हैं, फिर भी वे मौन क्यों हैं?

मंथन-समीक्षा में डूबा 'शिवÓ राज

मध्य प्रदेश में वर्ष 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तो प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी में था और लोगों को इस सरकार से एक बड़े विकास की उम्मीद थी। लेकिन सत्ता संघर्ष में जहां दो मुख्यमंत्री उमा भारती और बाबूलाल गौर कुछ नहीं कर सके वहीं तीसरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके सलाहकारों ने कुछ करने नहीं दिया। ऐसा भी नहीं कि शिवराज विफल रहे लेकिन उन्होंने जिस अनुपात में घोषणाएं की थी उसे उस सीमा तक पूरा नहीं करा सके। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो इसके लिए मुख्यमंत्री को ही दोष देना उचित नहीं होगा क्योंकि तब उनमें प्रशासनिक अनुभव की कमी थी।
शिवराज की मंशा साफ थी यह बात जनता जान चुकी थी और शुक्र हो लाड़ली लक्ष्मी योजना का जिसने मामा को विकास पुरूष के रूप में स्थापित कर दिया था। फिर क्या था विरासत में मिली सत्ता को अपने दम पर दूसरी बार हथिया कर शिवराज ने अपना लोहा मनवा दिया। लेकिन अपने अदम्य कोशिशों के बावजुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने दूसरे कार्यकाल के 14 माह बीत जाने के बाद भी मप्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर न ला सके। एक तरफ प्रदेश को विकसित राज्य बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की विकास दर उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्य से भी कम है। क्योंकि इस बार भी उनके इर्द-गिर्द वही सलाहकारों की मंडली कब्जा जमाए हुए है जो पहली पारी में थी।
शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनाव के पहले मध्यप्रदेश को समृद्ध व विकसित राज्य बनाने का संकल्प लिया था। दोबारा सरकार बनाते ही उस संकल्प को पूरा करने के लिए रोडमैप तैयार किया गया। इसके लिए सात कार्यदल बनाए गए थे। कार्यदल की रिपोर्टो पर अलग-अलग चर्चा की गई। इसके बाद मंत्रियों तथा अधिकारियों के साथ सामूहिक चर्चा के बाद विभागवार चर्चा की गई। मंथन में कुल 940 अनुशंसाएं आई थी, जिसमें 852 मान्य की गई 88 को अमान्य कर दिया गया। अनुशंसाओं को तीन श्रेणी में बांटा गया है। पहली वह अनुशंसाएं जो तत्काल लागू हो सकती हैं, इस संबंध में सभी अधिकारियों को 15 मार्च तक आदेश जारी करने को कहा गया है। दूसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हें लागू करने के लिए नियमों मे बदलाव करना पड़ेगा। इसमें तीन से छह माह का समय लग सकता है। तीसरी वे अनुशंसाएं हैं, जिन्हे पूरा करने के लिए अतिरिक्त राशि की आवश्यकता पड़ेगी। अतिरिक्त राशि कहां से आएगी, इसके लिए भी कार्य शुरू कर दिया गया । मंथन समृद्धि व विकास का रास्ता खोजने के लिए था, जो खोज लिया गया, मंजिल भी तय हो गई,मध्यप्रदेश को विकसित राज्य बनाने के लिए बस उड़ान भरने की जरूरत थी। लेकिन पायलटों सलाहकारों ने जहाज को दूसरी दिशा में उड़ाना शुरू कर दिया। और मात्र 14 माह की अल्प अवधि में 50 फीसदी घोषणाओं को पूरा करने का दावा भी कर डाला जो हकीकत से परे है। अगर इस औसत से देखें तो अगले 14 माह बाद सरकार के पास कोई काम ही नहीं रहेगा यानी शिवराज सरकार बेकाम हो जाएगी।
ये बड़ी विचित्र स्थिति है कि जब पूरे प्रदेश की जनता अपने मुख्यमंत्री को गरम तवे पर बैठकर ईमानदार मानने को तैयार है, इसके बावजूद उनके मुख्यमंत्री जमीनी हकीकत को जानने की बजाय अपने सलाहकारों की सलाह और आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। या यूं कहें कि वे अपने सलाहकारों की आंकड़ेबाजी पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं
क्योंकि सरकार का खजाना खाली है। 58 हजार करोड़ का कर्ज ऊपर से है। विकास एजेंसियों का बजट कम कर दिया गया है। प्रदेशभर की विकास योजनाएं ठप पड़ी हैं। लाडली बेहाल है। कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है। पिछले कुछ सालों में यहां पड़े आयकर छापों से यह विदित हो गया है कि भ्रष्टाचार चरम पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गई है। इंदौर और फिर भोपाल में एसएसपी सिस्टम लागू करने के बावजूद अपराधों का ग्राफ बढ़ा है। ग्वालियर में डकैतों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है। हत्याओं के मामले में इंदौर तो लूट के मामलों में भोपाल नंबर वन है। सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक संवेदनशीलता के मामलों में मध्यप्रदेश नंबर वन है। दलित उत्पीडऩ में भी प्रदेश सिरमौर है। भू-माफियाओं के हौसले बुलंद हैं। सरेआम सरकारी जमीन हड़पकर बेचने के ढेरों मामले सामने आए हैं।
नौकरशाही बेलगाम हो गई। सरकार की उदासीनता से भ्रष्ट अफसरान करोड़ों में खेल रहे हैं। आयकर छापों में करोड़ों रुपयों के साथ अकूत संपत्तियों का भी खुलासा हो रहा है। भ्रष्टों पर सरकार की मेहरबानी का आलम यह है कि राज्य के मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) ने भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई न होने पर नाराजगी जताई है। मुख्य तकनीकी परीक्षक (सतर्कता) के सूत्रों की मानें तो सरकार ने भ्रष्टाचार के 2333 प्रकरण पेंडिंग रख रखे हैं। पीडब्ल्यूडी, पीएचई और जल संसाधन विभाग के इन प्रकरणों को दबाने के पीछे यह कारण पता चला है कि आला अफसरान ने उनसे साठगाँठ कर ली है। गृह राज्यमंत्री नारायण सिंह कुशवाह तो यहां तक कह चुके हैं कि कानून व्यवस्था को मुख्यमंत्री भी नहीं सुधार सकते। गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता स्वीकार चुके हैं कि आम जनता का पुलिस पर से भरोसा उठ रहा है। राजस्व राज्यमंत्री करणसिंह वर्मा विदिशा में चोरी की बढ़ती घटनाओं पर कहते हैं कि चोरों को गोली मार दो। मंत्रियों के ऐसे बयानों के बाद भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। अफसरान खाली बैठे तनख्वाह ले रहे हैं। उधर मुख्यमंत्री, अध्यक्ष, नेताप्रतिपक्ष और मंत्रियों का वेतन बढ़ा दिया गया है।
विद्युत मंडल घोटालेबाज के हाथों में है, जहां आम जनता को जमकर लूटा जा रहा है। पूरे प्रदेश में वन संरक्षण पर खर्च की राशि जितनी बढ़ रही है, उसी अनुपात में जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के अफसरान सिर्फ और सिर्फ कमीशनखोरी में लगे हैं। केंद्रीय अनुदान में सरकार को कहां चूना लगाया जाए, यही मौका ढूंढते रहते हैं। कुपोषण के मामले में उड़ीसा के बाद मध्यप्रदेश का ही नाम आता है। महिला बाल विकास में को फर्जीवाड़े का रोग लग गया है। प्रदेश के चार लाख अतिकुपोषित बच्चों को पोषणाहार देने का कार्यक्रम थर्ड मील फेल हो गया है। उन्हें रोजाना दो रुपए का आहार देना तय है और वह भी नहीं मिल पा रहा है। आंगनबाडिय़ों की सवा लाख कार्यकर्ताओं को इसकी जिम्मेदारी थी, जो अब छीन कर एक कंपनी को दे दी गई है। पूरे प्रदेश में शिक्षा माफिया छाया हुआ है, जो दोनों हाथों से छात्रों और उनके अभिभावकों को लूट रहा है। निजी मेडिकल कॉलेजों में हर साल 10 हजार करोड़ का कारोबार हो रहा है। सरकार द्वारा करोड़ों रुपए फूंकने के बावजूद पॉलीटेक्निक कॉलेज बदहाल हैं। 50 में से 45 मेडिकल कॉलेज में तो प्राचार्य तक नहीं है। परिवहन विभाग में भ्रष्टों की पूछपरख बढ़ गई है। सड़क परिवहन निगम को सरकार ने बंद कर दिया, किंतु केंद्र ने इस पर रोक लगा दी। इसके बावजूद सरकार इसे चालू नहीं कर रही है। इससे हजारों कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो मंत्रालय के ए एसी कमरे में बैठकर मुख्यमंत्री अफसरों के साथ जो कार्ययोजना बनाई थी वह पूरी तरह फेल हो गई है। यानी कुल मिलाकर देखा जाय तो शिवराज इस बार भी शासन और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सके हैं। शिवराज की शासन और प्रशासन पर पकड़ तभी बन सकती है, जबकि वह सरकारी तंत्र पर सतत निगरानी की कोई व्यवस्था बनाएं। यह तभी संभव है, जबकि वह अपने सचिवालय के कामकाज की बारीकी से समीक्षा करें और ऐसा सिस्टम विकसित करें, जिससे कि वह संदेश जाए कि प्रदेश के एकमात्र चीफ मिनिस्टर वहीं है और दूसरा कोई सुपर सीएम नहीं है।
प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐतबार करती है तो उनकी जिम्मेदारी पुरे तंत्र को भष्टाचार मुक्त बनाने की हैं इसकी शुरुआत योजनाओं के मूल से होना चाहिए। अफसर, राजनेता, ठेकेदार और बिचोलियों का गठजोड़ नई योजनाओ-पालिसियों पर कड़ी नजर रखता है। यह चिंतनीय और शोचनीय है। शिवराज सिंह चौहान भली भांति जानते है कि कौन भ्रष्ट है और कौन दलाल हैं, फिर भी वे मौन क्यों हैं?

सीमा फार्मूला में फंसे नौकरशाह

देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।

























'सीमा फार्मूलाÓ में फंसे नौकरशाह



देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।






















'सीमा फार्मूलाÓ में फंसे नौकरशाह



देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही को लेकर एक आम शिकायत आज भी बनी हुई है कि उसका चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है। मध्यप्रदेश में तो हालात और बदतर होती जा रही है। कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है।
वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है ताकि अपने बैंक के लॉकर भर सकें। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कुछ जांच एजेंसियों की रिर्पोट और आयकर विभाग के छापों से उजागर हुआ है। प्रदेश में कई नौकरशाहों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे के बाद देर से ही सही लेकिन दुरूस्त होकर जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जागे तो उन्होंने सभी आईएएस अधिकारियों को चल अचल संपत्ति सार्वजनिक करने का आदेश पारित कर दिया। परंतु पहले भी अधिकारियों द्वारा संपत्ति का ब्योंरा एक निर्धारित प्रपत्र में हर वित्तीय वर्ष में सामान्य प्रशासन विभाग को दिया जाता रहा है। परंतु उस प्रपत्र को देखने की फुर्सत किसको है, जो दिया वो सही। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदेश तो दे डाला पर इसकी मॉनीटरिंग क्या वह स्वयं करेंगे या किसी इमानदार नौकरशाह की नजरों सेेे जांच पड़ताल करेंगे। आदेश के बाद आंकड़ेबाज नौकरशाहों ने जब अपनी संतुलित संपति को सार्वजनिक किया तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित देश की राजधानी दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति का मामला सामने आया। एक बीमारू राज्य की नौकरशाहों द्वारा अकूत संपत्ति अर्जित करने की बात सामने आते ही केंद्र की खुफिया एजेंसियों ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दी है। खुफिया विभाग के सूत्रों के अनुसार वर्तमान में केंद्रीय जांच एजेंसियों के 5 अधिकारी गुपचुप तरीके से मप्र के नौकरशाहों की कमाई और करतूतों की फाईल खंगाल रहें है। आयकर विभाग तो यह देखकर हैरान है कि अधिकारियों की काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिए लगभग सभी बीमा कंपनियों ने अपना जाल बुना और सरकार को चूना लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सभी कंपनियों और अधिकारियों ने सरकार के उस नियम का जमकर फायदा उठाया जिसमें 50 हजार से अधिक के लेनदेन पर पेन नंबर देना अनिवार्य होता है। बीमा कंपनी के एजेंटों ने इस नियम का तोड़ निकालते हुए लोगों की काली कमाई सफेद करने वहीं तरीका अपनाया जो सीमा जायसवाल ने अपनाया था।
सीमा ने भी प्रदेश के कई भ्रष्ट अफसरों की करोड़ों रुपए काली कमाई को अपनी बीमा कंपनी आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल में निवेश कराया था। सीमा ने पचास हजार से कम के ड्राफ्ट आदि के माध्यम से बीमा पालिसी बनाई थी। ऐसे में आयकर विभाग को पता ही नहीं चल पाया कि कब लोगों के करोड़ों रुपए बीमा में निवेश के माध्यम से सफेद होते गए। उधर बीमा में निवेश को आयकर में छूट होने के कारण सरकार के पल्ले में कुछ भी नहीं आया। बताया जाता है कि आयकर विभाग अब सभी बीमा कंपनियों के रिकार्ड खंगाल रहा है। विभाग के पास इन बीमा कंपनियों में प्रदेश से किए गए निवेश की सूची आ गई है। इस सूची की पड़ताल में कई सफेदपोश नेताओं के अलावा अफसरों और कर्मचारियों द्वारा करोड़ों रुपए निवेश किए जाने का पता चला है। विभाग इनकी सूची तैयार कर रहा है।
आयकर विभाग के पास बजाज एलायंस, बिरला सन लाईफ, एचडीएफसी, टाटा एआईजी, एसबीआई लाईफ आदि इंश्योरेंस कंपनियों का रिकार्ड आ चुका है। विभाग के अधिकारियों ने अपने साफ्टवेयर के माध्यम से इस सूची में से प्रदेश के कई ऐसे नाम खोज निकाले हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए बीमा के माध्यम से निवेश किया है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई अफसरों के अलावा तृतीय वर्ग के कर्मचारियों ने भी लाखों रुपए की बीमा पालिसी ले रखी है। इसमें पुलिस विभाग के कई आरक्षक भी शामिल हैं जिन्होंने लाखों रुपए बीमा कंपनियों में निवेश किया है। जानकारों के अनुसार विभाग को वित्त मंत्रालय के अधीन कार्यरत फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट (एफआईयू) से बड़ी संख्या में संदेहास्पद लेन-देन की जानकारी मिली है। वर्ष 2004 में स्थापित फाइनेंशियल इंटलिजेंस यूनिट रिजर्व बैंक, बीमा नियामक प्राधिकरण (आईआरडीए) और सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया (सेबी) की मदद से काम करती है। यह यूनिट हर संदेहास्पद लेन-देन पर नजर रखे हुए है। विभाग के सूत्रों के अनुसार पचास हजार से कम राशि के नगद ड्राफ्ट पर भी संदेह होने पर यह यूनिट नजर रखती है।
विभाग को एफआईयू के साथ आल इंडिया रिपोर्टिग (एआईआर) सिस्टम से भी जानकारी मिल रही है। इसमें के्रडिट कार्ड से किए गए बड़े भुगतान व अन्य तरीकों से किए गए निवेश व खर्चो की जानकारी भी संबंधित आयकर अधिकारी तक पहुंच रही है। विभाग के सूत्रों के अनुसार बीमा कंपनियों से भी पचास हजार से व उससे अधिक प्रीमियम का भुगतान करने वालों की जानकारी बुलवाई गई है।
विभाग के सूत्रों के अनुसार कुछ लोग बंगलुरू, पुणे या अन्य शहरों में पढऩे वाले बच्चों को हर माह 25 से 50 हजार रुपए भेज रहे हैं, लेकिन इसकी जानकारी छुपाते हैं। राशि भोपाल मे जमा होती है और किसी अन्य शहर में निकासी होती है जबकि संबंधित व्यक्ति का दावा होता है कि उसने केवल पैसा जमा किया और निकाला खर्च नहीं किया। इसके अलावा किसी अन्य शहर में टूर पर जाते समय राशि निकालते हैं, वहां खर्च करते हैं और भोपाल आकर फिर पैसे जमा करा देते हैं। यह लोग भी तर्क देते हैं कि उन्होंने खर्चा नहीं किया। आयकर विभाग इन सभी के द्वारा बीमा कंपनी में किए गए निवेश की पूरी सूची तैयार कर रहा है। विभाग साथ ही इनके आयकर रिटर्न की भी पड़ताल कर पता लगा रहा है कि इन लोगों ने बीमा में किए गए निवेश का उल्लेख रिटर्न में किया है या नहीं। इसके बाद विभाग सभी को नोटिस भेज कर इनके द्वारा किए गए निवेश के आय के स्त्रोतों की जानकारी मांगेगा।
आयकर विभाग के छापों के बाद मप्र को बीमारु राज्य कहने वालों को इस विषय पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कारण प्रदेश में हर साल बढ़ते करोड़पति व्यापारियों के अलावा नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के यहां से मिल रही करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति को देखकर नहीं लगता कि प्रदेश बीमारु राज्य है। आयकर विभाग के छापों ने प्रदेश के कई लोगों की पोल खोली वहीं पिछले तीन साल में ही आयकर छापों में करीब छह सौ करोड़ की अघोषित संपत्ति सरेंडर की जा चुकी है। इसके अलावा करीब 130 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग जब्त कर चुका है। यही नहीं छापों में मिले दस्तावेज बताते हैं कि कुछेक अधिकारियों, मंत्रियों और उद्योगपतियों के बीच बने गठजोड़ ने शासकीय योजनाओं के माध्यम से अकूत संपदा जोड़ी है। आयकर सूत्रों की मानें तो प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रहे आय के स्त्रोतों में इन योजनाओं का भी एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। आयकर छापे में सरेंडर अघोषित आय या फिर जब्त संपत्ति के अलावा आयकर विभाग ने छापों में हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता लगाया।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालसा ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुडी हुई है।
सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंिडग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौड़ी है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेड़ पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।

शुक्रवार, 18 जून 2010

मध्य प्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच बढ़ रही दूरियों

मध्य प्रदेश भाजपा आंतरिक संघर्ष से रूबरू है. सत्ता और संगठन के बीच क्रमश: बढ़ रही दूरियों के कारण राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बढ़ता जा रहा है. प्रभात झा के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा के अंदर एक नए राजनीतिक ध्रुव का जन्म हुआ है. भारतीय जनता पार्टी सत्ता की दूसरी पारी में आंतरिक संघर्ष की ओर बढ़ती नज़र आ रही है. शिवराज सिंह चौहान ने भाजपा को राज्य में दूसरी राजनीतिक पारी खेलने का अवसर प्रदान किया है, परंतु राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिली विजय का कारण बहुत कुछ कांगे्रस का आंतरिक संघर्ष भी था. भारतीय जनता पार्टी सरकार की पहली पारी में जिस स्तर पर मंत्रियों के भ्रष्टाचार, प्रशासनिक निरंकुशता और भाजपा कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता के मामले सामने आए थे, उससे दोबारा विजय के संकेत तो नहीं ही मिल रहे थे.

मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में अब तक उपेक्षित रहे नरोत्तम मिश्रा को पिछले दिनों सरकारी प्रवक्ता का पद दिया गया. सरकार की ओर से जारी विज्ञप्ति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नरोत्तम मिश्रा विभिन्न विभागों के ज़िले के अधिकारियों से विभिन्न कार्यक्रमों और घटनाओं के बारे में सीधे जानकारी प्राप्त करने के लिए अधिकृत होंगे. यह माना जा रहा है कि संस्कृति कार्य विभाग के साथ आवास विभाग को जोड़कर नरोत्तम मिश्रा को मुख्यमंत्री के साथ एक समकक्ष स्थान दिया गया है.

भाजपा नेताओं का यह भी मानना है कि दूसरी पारी की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव की भी रही है. भाजपा के शासनकाल में सत्ता और संगठन के मध्य कभी कोई टकराव नहीं नज़र आता था, लेकिन पिछले दिनों राज्य सरकार की जो गतिविधियां रहीं, उनसे यह सा़फ संकेत मिलने लगा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने अस्तित्व-संरक्षण के लिए नई बिसात बिछाना चाहते हैं. भाजपा संगठन में प्रभात झा की ताजपोशी से यह संदेश मिला था कि पार्टी राज्य में अपनी बुनियाद मज़बूत करने और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए कुछ ज़मीनी प्रयोग करना चाहती है. प्रभात झा वास्तव में दल के लिए एक नई कर्मभूमि के निर्माण की कोशिश के लिए ही लाए गए थे. प्रभात झा ने हालांकि अभी तक अपनी टीम की घोषणा नहीं की है, पर ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि उनकी टीम में उन्हें ही स्थान मिल पाएगा, जिनका जनता और कार्यकर्ताओं से संपर्क बना हुआ है.

मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में अब तक उपेक्षित रहे नरोत्तम मिश्रा को पिछले दिनों सरकारी प्रवक्ता का पद दिया गया. सरकार की ओर से जारी विज्ञप्ति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नरोत्तम मिश्रा विभिन्न विभागों के ज़िले के अधिकारियों से विभिन्न कार्यक्रमों और घटनाओं के बारे में सीधे जानकारी प्राप्त करने के लिए अधिकृत होंगे. यह माना जा रहा है कि संस्कृति कार्य विभाग के साथ आवास विभाग को जोड़कर नरोत्तम मिश्रा को मुख्यमंत्री के साथ एक समकक्ष स्थान दिया गया है. भाजपा नेताओं का अंदाज़ा है कि नरोत्तम मिश्रा की सक्रियता बढ़ाने के पीछे शिवराज सिंह चौहान की प्रशासनिक कमजोरियों को पूरा करने का लक्ष्य है. मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में फिलहाल परिवर्तन के संकेत नहीं हैं, फिर भी मंत्रिमंडल के सदस्यों पर विभिन्न आरोपों का प्रमाणीकरण विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा कराया जा रहा है. केंद्र के साथ राज्य के संबंधों के प्रति शिवराज सिंह की लापरवाही ने कई केंद्रीय योजनाओं का धन आवंटन रुकवा दिया है. पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रियों द्वारा राज्य में दौरों के पूर्व राज्य सरकार से अनुमति लेने संबंधी सरकारी फतवा स्वयं शिवराज सिंह के लिए भारी पड़ गया है. बाद में मुख्यमंत्री को न स़िर्फ उक्त आदेश वापस लेना पड़ा, बल्कि केंद्रीय नेताओं के समक्ष अपनी स्थिति भी स्पष्ट करनी पड़ी. इधर शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की सुरक्षा में तैनात सशस्त्र पुलिस को वापस ले लिया है. यह कार्रवाई कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के साथ की गई, पर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के साथ नहीं. प्रशासन के ऐसे दोहरे मापदंड से मध्य प्रदेश सरकार के राजनीतिक-प्रशासनिक असंतुलन का पता चलता है.

प्रशासनिक अराजकता पर नियंत्रण पाने में राज्य सरकार खुद को सक्षम नहीं पा रही है. शासन के प्रचार-प्रसार का दायित्व संभालने वाला जनसंपर्क विभाग भी अराजकता का गढ़ बन गया है. विभिन्न केंद्रीय विभागों द्वारा भेजे गए जांच दलों की रिपोर्टें केंद्र द्वारा आवंटित राशि में भ्रष्टाचार के खुलासे का प्रमाण बनती जा रही हैं. भाजपा शासनकाल में ही उज्जैन विश्वविद्यालय में विद्यार्थी परिषद नेताओं द्वारा प्रो. अग्रवाल की कथित हत्या की गुत्थी सुलझाने में सरकार पूरी तरह असफल रही. आज तक पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह और कमल पटेल के विरुद्ध कायम किए गए आपराधिक प्रकरणों में भी सरकार बचाव का कोई मार्ग नहीं तलाश सकी. प्रशासनिक अराजकता की हद तब हुई, जब राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की पहल पर राज्य के मुख्य सचिव अवनि वैश्य के विरुद्ध बाक़ायदा वारंट जारी हुआ. राज्य सरकार की गतिविधियों पर संघ और संगठन दोनों की निगाह है. संगठन यह महसूस कर रहा है कि दूसरी बार सत्ता पाने के बाद आदिवासी क्षेत्रों में दल का आधार निरंतर कम होता जा रहा है. यही कारण है कि वर्ष 2011 के फरवरी माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिशानिर्देश पर मध्य प्रदेश के आदिवासी ज़िले मंडला में आदिवासी महाकुंभ की घोषणा की गई है.

इस महाकुंभ में बीस लाख आदिवासियों को एकत्र करने की योजना बनाई गई है. महाकुंभ को भाजपा और संघ के वरिष्ठ नेताओं द्वारा संबोधित किया जाना है. संघ की इस पहल पर आयोजन के एक वर्ष पूर्व राज्य सरकार सौ करोड़ रुपये से अधिक के अनुमानित व्यय का लक्ष्य बना चुकी है. वास्तव में भाजपा तीसरी बार सत्ता पाने के लिए परिवर्तन की लहर चलाना चाहती है. संगठन के पदाधिकारियों का मानना है कि यदि तीसरी बार भाजपा सत्ता पर क़ाबिज़ होती है तो मध्य प्रदेश को गुजरात की तरह सुरक्षित राज्य घोषित करने में परेशानी नहीं होगी. दूसरी ओर मध्य प्रदेश को केंद्र बनाकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी स्थायी सत्ता कायम रखी जा सकेगी. भाजपा ने इस कार्य के लिए अपने स्वयंसेवी संगठनों को भी सक्रिय करना शुरू कर दिया है. जन अभियान परिषद के माध्यम से मध्य प्रदेश के सुदूर आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में संघ समर्थित स्वयंसेवी संगठनों का एक बड़ा ताना-बाना तैयार किया जा रहा है. तीन वर्ष की अवधि में निर्धारित योजना के अनुसार सत्ता का लाभ भाजपा के छोटे से छोटे कार्यकर्ता तक पहुंचाना और उसे वित्तीय रूप से स्वावलंबी बनाना एकमात्र लक्ष्य नज़र आता है. भाजपा संगठन राजनीति में स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका से भलीभांति परिचित है. उसे मालूम है कि राजनीति की कमज़ोरियों को ढकने के लिए यदि मीडिया एक प्रभावशाली तंत्र है तो स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. एक अनुमान के अनुसार, इस समय मध्य प्रदेश में 1700 से अधिक स्वयंसेवी संगठन भाजपा एवं स्वयंसेवक संघ की रीतियों और नीतियों के तहत काम करने के लिए सक्रिय हो चुके हैं. राज्य के समस्त वित्तीय संसाधन इन स्वयंसेवी संगठनों के लिए खुले रहेंगे.

प्रभात झा के सक्रिय होने के बाद संगठन की सक्रियता अब सत्ता पर नज़र आने लगी है. कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से लेकर प्रशासनिक परिवर्तनों तक संगठन की भूमिका को नकार पाना अब शिवराज सिंह के वश की बात नहीं है. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सत्ता को स्वयंसेवक संघ की नीतियों के अंतर्गत संगठित रूप से संचालित करने के लिए अभी कई परिवर्तन नज़र आने शेष हैं. प्रभात झा की टीम के गठन के बाद यह स्पष्ट है कि भाजपा शिवराज पोषित रहेगी या अपने मूल सिद्धांतों पर कायम रहकर राज्य में एक स्थायी राजनीतिक आकार ग्रहण कर सकेगी.

कांग्रेस दौ़ड में ही नहीं देश में राजनीतिक रूप से कांग्रेस का अस्तित्व मृतप्राय है. कांग्रेस की गतिविधियां बताती हैं कि वह दौड़ में है ही नहीं. व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त राज्य के कांग्रेसी नेता भाजपा की किसी भी चाल का जवाब देने में असफल रहे हैं. मज़बूत संगठन शक्ति के प्रतीक समझे जाने वाले सुरेश पचौरी पिछले दो माह के दौरान केवल अपने राज्यसभा टिकट के लिए संघर्षरत दिखे. कांग्रेस के भविष्य को लेकर यह किंवदंती प्रचलित है कि जब भाजपा सरकार में बिना किसी रोक-टोक के व्यक्तिगत कमाई का रास्ता खुला हुआ है तो अपनी सरकार के लिए पहल करने की ज़रूरत ही क्या है. अपने-अपने राजनीतिक आकाओं को हाज़िरी देकर और हाईकमान के सामने मीडिया में छपे हुए तथ्यों का विश्लेषण करके राज्य कांग्रेस के नेता अपने राजनीतिक दायित्वों को पूरा कर रहे हैं. वे राजनीति से अधिक अपने व्यवसाय में व्यस्त हैं और कार्यकर्ता पूरी तरह उपेक्षित. कांग्रेस के लिए संभवत: मध्य प्रदेश अब प्राथमिकता सूची में नहीं है.

मध्य प्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच बढ़ रही दूरियों

मध्य प्रदेश भाजपा आंतरिक संघर्ष से रूबरू है. सत्ता और संगठन के बीच क्रमश: बढ़ रही दूरियों के कारण राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बढ़ता जा रहा है. प्रभात झा के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा के अंदर एक नए राजनीतिक ध्रुव का जन्म हुआ है. भारतीय जनता पार्टी सत्ता की दूसरी पारी में आंतरिक संघर्ष की ओर बढ़ती नज़र आ रही है. शिवराज सिंह चौहान ने भाजपा को राज्य में दूसरी राजनीतिक पारी खेलने का अवसर प्रदान किया है, परंतु राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिली विजय का कारण बहुत कुछ कांगे्रस का आंतरिक संघर्ष भी था. भारतीय जनता पार्टी सरकार की पहली पारी में जिस स्तर पर मंत्रियों के भ्रष्टाचार, प्रशासनिक निरंकुशता और भाजपा कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता के मामले सामने आए थे, उससे दोबारा विजय के संकेत तो नहीं ही मिल रहे थे.

मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में अब तक उपेक्षित रहे नरोत्तम मिश्रा को पिछले दिनों सरकारी प्रवक्ता का पद दिया गया. सरकार की ओर से जारी विज्ञप्ति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नरोत्तम मिश्रा विभिन्न विभागों के ज़िले के अधिकारियों से विभिन्न कार्यक्रमों और घटनाओं के बारे में सीधे जानकारी प्राप्त करने के लिए अधिकृत होंगे. यह माना जा रहा है कि संस्कृति कार्य विभाग के साथ आवास विभाग को जोड़कर नरोत्तम मिश्रा को मुख्यमंत्री के साथ एक समकक्ष स्थान दिया गया है.

भाजपा नेताओं का यह भी मानना है कि दूसरी पारी की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव की भी रही है. भाजपा के शासनकाल में सत्ता और संगठन के मध्य कभी कोई टकराव नहीं नज़र आता था, लेकिन पिछले दिनों राज्य सरकार की जो गतिविधियां रहीं, उनसे यह सा़फ संकेत मिलने लगा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने अस्तित्व-संरक्षण के लिए नई बिसात बिछाना चाहते हैं. भाजपा संगठन में प्रभात झा की ताजपोशी से यह संदेश मिला था कि पार्टी राज्य में अपनी बुनियाद मज़बूत करने और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए कुछ ज़मीनी प्रयोग करना चाहती है. प्रभात झा वास्तव में दल के लिए एक नई कर्मभूमि के निर्माण की कोशिश के लिए ही लाए गए थे. प्रभात झा ने हालांकि अभी तक अपनी टीम की घोषणा नहीं की है, पर ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि उनकी टीम में उन्हें ही स्थान मिल पाएगा, जिनका जनता और कार्यकर्ताओं से संपर्क बना हुआ है.

मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में अब तक उपेक्षित रहे नरोत्तम मिश्रा को पिछले दिनों सरकारी प्रवक्ता का पद दिया गया. सरकार की ओर से जारी विज्ञप्ति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नरोत्तम मिश्रा विभिन्न विभागों के ज़िले के अधिकारियों से विभिन्न कार्यक्रमों और घटनाओं के बारे में सीधे जानकारी प्राप्त करने के लिए अधिकृत होंगे. यह माना जा रहा है कि संस्कृति कार्य विभाग के साथ आवास विभाग को जोड़कर नरोत्तम मिश्रा को मुख्यमंत्री के साथ एक समकक्ष स्थान दिया गया है. भाजपा नेताओं का अंदाज़ा है कि नरोत्तम मिश्रा की सक्रियता बढ़ाने के पीछे शिवराज सिंह चौहान की प्रशासनिक कमजोरियों को पूरा करने का लक्ष्य है. मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में फिलहाल परिवर्तन के संकेत नहीं हैं, फिर भी मंत्रिमंडल के सदस्यों पर विभिन्न आरोपों का प्रमाणीकरण विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा कराया जा रहा है. केंद्र के साथ राज्य के संबंधों के प्रति शिवराज सिंह की लापरवाही ने कई केंद्रीय योजनाओं का धन आवंटन रुकवा दिया है. पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रियों द्वारा राज्य में दौरों के पूर्व राज्य सरकार से अनुमति लेने संबंधी सरकारी फतवा स्वयं शिवराज सिंह के लिए भारी पड़ गया है. बाद में मुख्यमंत्री को न स़िर्फ उक्त आदेश वापस लेना पड़ा, बल्कि केंद्रीय नेताओं के समक्ष अपनी स्थिति भी स्पष्ट करनी पड़ी. इधर शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की सुरक्षा में तैनात सशस्त्र पुलिस को वापस ले लिया है. यह कार्रवाई कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के साथ की गई, पर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के साथ नहीं. प्रशासन के ऐसे दोहरे मापदंड से मध्य प्रदेश सरकार के राजनीतिक-प्रशासनिक असंतुलन का पता चलता है.

प्रशासनिक अराजकता पर नियंत्रण पाने में राज्य सरकार खुद को सक्षम नहीं पा रही है. शासन के प्रचार-प्रसार का दायित्व संभालने वाला जनसंपर्क विभाग भी अराजकता का गढ़ बन गया है. विभिन्न केंद्रीय विभागों द्वारा भेजे गए जांच दलों की रिपोर्टें केंद्र द्वारा आवंटित राशि में भ्रष्टाचार के खुलासे का प्रमाण बनती जा रही हैं. भाजपा शासनकाल में ही उज्जैन विश्वविद्यालय में विद्यार्थी परिषद नेताओं द्वारा प्रो. अग्रवाल की कथित हत्या की गुत्थी सुलझाने में सरकार पूरी तरह असफल रही. आज तक पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह और कमल पटेल के विरुद्ध कायम किए गए आपराधिक प्रकरणों में भी सरकार बचाव का कोई मार्ग नहीं तलाश सकी. प्रशासनिक अराजकता की हद तब हुई, जब राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की पहल पर राज्य के मुख्य सचिव अवनि वैश्य के विरुद्ध बाक़ायदा वारंट जारी हुआ. राज्य सरकार की गतिविधियों पर संघ और संगठन दोनों की निगाह है. संगठन यह महसूस कर रहा है कि दूसरी बार सत्ता पाने के बाद आदिवासी क्षेत्रों में दल का आधार निरंतर कम होता जा रहा है. यही कारण है कि वर्ष 2011 के फरवरी माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिशानिर्देश पर मध्य प्रदेश के आदिवासी ज़िले मंडला में आदिवासी महाकुंभ की घोषणा की गई है.

इस महाकुंभ में बीस लाख आदिवासियों को एकत्र करने की योजना बनाई गई है. महाकुंभ को भाजपा और संघ के वरिष्ठ नेताओं द्वारा संबोधित किया जाना है. संघ की इस पहल पर आयोजन के एक वर्ष पूर्व राज्य सरकार सौ करोड़ रुपये से अधिक के अनुमानित व्यय का लक्ष्य बना चुकी है. वास्तव में भाजपा तीसरी बार सत्ता पाने के लिए परिवर्तन की लहर चलाना चाहती है. संगठन के पदाधिकारियों का मानना है कि यदि तीसरी बार भाजपा सत्ता पर क़ाबिज़ होती है तो मध्य प्रदेश को गुजरात की तरह सुरक्षित राज्य घोषित करने में परेशानी नहीं होगी. दूसरी ओर मध्य प्रदेश को केंद्र बनाकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी स्थायी सत्ता कायम रखी जा सकेगी. भाजपा ने इस कार्य के लिए अपने स्वयंसेवी संगठनों को भी सक्रिय करना शुरू कर दिया है. जन अभियान परिषद के माध्यम से मध्य प्रदेश के सुदूर आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में संघ समर्थित स्वयंसेवी संगठनों का एक बड़ा ताना-बाना तैयार किया जा रहा है. तीन वर्ष की अवधि में निर्धारित योजना के अनुसार सत्ता का लाभ भाजपा के छोटे से छोटे कार्यकर्ता तक पहुंचाना और उसे वित्तीय रूप से स्वावलंबी बनाना एकमात्र लक्ष्य नज़र आता है. भाजपा संगठन राजनीति में स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका से भलीभांति परिचित है. उसे मालूम है कि राजनीति की कमज़ोरियों को ढकने के लिए यदि मीडिया एक प्रभावशाली तंत्र है तो स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. एक अनुमान के अनुसार, इस समय मध्य प्रदेश में 1700 से अधिक स्वयंसेवी संगठन भाजपा एवं स्वयंसेवक संघ की रीतियों और नीतियों के तहत काम करने के लिए सक्रिय हो चुके हैं. राज्य के समस्त वित्तीय संसाधन इन स्वयंसेवी संगठनों के लिए खुले रहेंगे.

प्रभात झा के सक्रिय होने के बाद संगठन की सक्रियता अब सत्ता पर नज़र आने लगी है. कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से लेकर प्रशासनिक परिवर्तनों तक संगठन की भूमिका को नकार पाना अब शिवराज सिंह के वश की बात नहीं है. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सत्ता को स्वयंसेवक संघ की नीतियों के अंतर्गत संगठित रूप से संचालित करने के लिए अभी कई परिवर्तन नज़र आने शेष हैं. प्रभात झा की टीम के गठन के बाद यह स्पष्ट है कि भाजपा शिवराज पोषित रहेगी या अपने मूल सिद्धांतों पर कायम रहकर राज्य में एक स्थायी राजनीतिक आकार ग्रहण कर सकेगी.

कांग्रेस दौ़ड में ही नहीं देश में राजनीतिक रूप से कांग्रेस का अस्तित्व मृतप्राय है. कांग्रेस की गतिविधियां बताती हैं कि वह दौड़ में है ही नहीं. व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त राज्य के कांग्रेसी नेता भाजपा की किसी भी चाल का जवाब देने में असफल रहे हैं. मज़बूत संगठन शक्ति के प्रतीक समझे जाने वाले सुरेश पचौरी पिछले दो माह के दौरान केवल अपने राज्यसभा टिकट के लिए संघर्षरत दिखे. कांग्रेस के भविष्य को लेकर यह किंवदंती प्रचलित है कि जब भाजपा सरकार में बिना किसी रोक-टोक के व्यक्तिगत कमाई का रास्ता खुला हुआ है तो अपनी सरकार के लिए पहल करने की ज़रूरत ही क्या है. अपने-अपने राजनीतिक आकाओं को हाज़िरी देकर और हाईकमान के सामने मीडिया में छपे हुए तथ्यों का विश्लेषण करके राज्य कांग्रेस के नेता अपने राजनीतिक दायित्वों को पूरा कर रहे हैं. वे राजनीति से अधिक अपने व्यवसाय में व्यस्त हैं और कार्यकर्ता पूरी तरह उपेक्षित. कांग्रेस के लिए संभवत: मध्य प्रदेश अब प्राथमिकता सूची में नहीं है.

आज के आराध्य

आज के आराध्य वे हैं जो या तो हमारे दिलों में घुसकर हमें डरा सकें या हमारे दिल की हर मुराद पूरी कर सकें. कौन और कैसे हैं डराने और लुभाने वाले आज के दौर के हमारे ये आराध्य, बता रहे हैं अतुल चौरसिया

‘कोस-कोस पे पानी बदले सवा कोस पे बानी' वाली कहावत में बहुत आसानी-से अगला हिस्सा जोड़ा जा सकता है -‘दस कोस पे ध्यानी'. ध्यानी यानी भक्त.

हमारे देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज के आराधक और उनके आराध्य उतनी ही तेजी के साथ अपना चोला बदलते चलते हैं जितनी तेजी से यहां के लोगों की बोली. हर गांव-शहर-मुहल्ले के अपने आस्था के प्रतीकों का होना इस देश में उतना ही सहज है जितना जीने के लिए हवा-पानी. लमही के बेलवांबाबा, सरायमीर के अलीअश्कां बाबा, नरसिंहपुर के दुल्हादेव, लखनऊ के बाबा खम्मन पीर, रामदेवरा के रामदेव बाबा, मोकामा के चूहड़मल, छपरा की अंबा देवी से लेकर सुदूर दक्षिण भारत के अय्यप्पन तक स्थानीय देवी-देवताओं और श्रद्धा-उपासना के बिंबों की एक ऐसी अनवरत श्रृंखला है जिसका संबंध भारतीय पौराणिक संदर्भों से उतना गहरा या जुड़ा न भी हो तो भी सब के सब उसी परंपरा से प्रेरित-आस्वादित हैं जिसमें पहले से ही तैंतीस करोड़ देवी-देवता विद्यमान हैं.

आस्था के जो चार प्रतीक हमारे इन पारंपरिक आराध्यों से काफी आगे निकल गए दिखते हैं, वे हैं - शनिदेव, शिरडीवाले साईं बाबा, भैरवनाथ और विभिन्न पीरों-औलियाओं की मजारें
अगर बारीकी से नजर दौड़ाएं तो हिंदू समुदाय की आस्था के प्रतीक कोस बदलने पर ही नहीं, बल्कि हर कोस पर दिन-हफ्ते-साल और संगत बदलने पर भी बदलते हैं. फलां देवता मनोकामनाएं पूरी नहीं कर पाए तो कुछ हफ्ते बाद हमारी आस्था नई शरण ढूंढ़ लेती है. किसी जानने वाले की मनोकामना पूरी हो गई तो हमारी श्रद्धा उस दिशा का रुख कर लेती है. ‘परिवर्तन संसार का अकाट्य सिद्धांत है' वाली परिपाटी को हम भारतीयों ने अपनी आस्था के संदर्भ में भी उतना ही बड़ा सत्य मान लिया है.

धर्मभीरुता भारतीय समाज के मूल में है इसके बावजूद धर्म और आस्था के मामलों में छोटी-मोटी छूट लेने और नए-नए प्रयोगों से हमें कोई परहेज नहीं. ये छूट और प्रयोग धीरे-धीरे कब एक नए चलन का सूत्रपात कर देते हैं पता ही नहीं चलता. देखते ही देखते ये चलन किसी अलग ही मत, संप्रदाय या हमारी श्रद्धा के किसी जबर्दस्त प्रतीक का स्वरूप धारण कर लेते है. इसीलिए अब तक गुमनाम रहे कुछ आराध्य पिछले कुछ वर्षों में अचानक इतने लोकप्रिय हो गए हैं कि टीवी चैनलों से लेकर सड़कों पर दौड़ती बेशुमार कारों के शीशों तक पर दिख जाते हैं. रातों-रात धरती का सीना फाड़कर प्रकट हो जाने वाले मंदिर-मस्जिद-मजारों और उनके ऊपर दो-चार दिन के भीतर ही 'अतीव शक्तिसंपन्न, प्राचीन सिद्धपीठ' का बोर्ड लटक जाने की परंपरा का एक अक्खड़ बनारसी नमूना वरिष्ठ साहित्यकार डॉ काशीनाथ सिंह ने अपने मशहूर उपन्यास 'काशी का अस्सी' में कुछ यूं पेश किया है- ‘कंपटीशन शुरू हो गया है जीटी रोड के किनारे मंदिर, मस्जिद, मजार बनाकर जमीन हड़पने का. वे भी हड़प रहे हैं, लेकिन तुम्हारे मुकाबले वे कहीं नहीं हैं. मस्जिद खड़ी करने में तो समय लगता है, यहां तो एक ईंट या पत्थर फेंका, गेरू या सेनुर पोता, फूल-पत्ती चढ़ाया और माथा टेक दिया- जै बजरंग बली. और दो आदमी ढोलक-झाल लेकर बैठ गए- अखंड हरिकीर्तन! भगवान धरती फोड़कर प्रकट भए हैं..'

आस्था की इसी चादर तले तमाम अनर्गल चीजें अनजाने में ही समाज का हिस्सा बनती जाती हैं जिनका उस समय हमें एहसास नहीं होता जिसमें हम उन्हें स्वीकार रहे होते हैं, क्योंकि यह बदलाव बहुत दबे पांव हमारे बीच पैठ बनाता है. मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश इस प्रवृत्ति को हमारी पलायनवादी सोच का प्रतीक मानते हैं. उनके शब्दों में, ‘धर्म अपने साथ जिम्मेदारियां लेकर आता है. इसका मकसद होता है न्याय, सच्चाई और मानवता. लेकिन धर्म में जब विवेकशून्यता की स्थिति पैदा होती है तब यह पाखंड की ओर चल पड़ता है, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद को प्रतिबंधित कर दिया जाता है और धर्म और आस्था की आड़ में किसी भी सवाल-जवाब को अवैध घोषित कर दिया जाता है.' स्वामी अग्निवेश के विचारों को थोड़ा आगे ले जाएं तो इस स्थिति के बाद धर्म अपनी मार्गदर्शक वाली
मूल भूमिका से भटक कर कट्टरवाद की ओर बढ़ जाता है.

परंपरागत हिंदू देवी-देवताओं में भगवान विष्णु और उनके अवतारों की आराधना सबसे ज्यादा होती रही है. इसके अतिरिक्त शिवजी, गणेश, लक्ष्मी, दुर्गा आदि ऐसे देवी-देवता रहे हैं जिन्हें थोड़ी आसान भाषा में मुख्यधारा के भगवान कहा जा सकता है. तमाम स्थानीय देवी-देवताओं के साथ-साथ इनकी आराधना का ग्राफ कमोबेश पूरे देश में एक-सा रहता रहा है. किंतु विगत एक दशक के दौरान धर्मालुओं की पूजा-पाठ की शैलियों और व्यवस्थाओं में काफी बदलाव देखने को मिले हैं. कई अध्ययनों में भी इस तरह की चौंकाने वाली प्रवृत्तियां उजागर हुई हैं. साथ ही ये तथ्य कुछ और नई और रोचक परिपाटियों के गठन की ओर भी इशारा कर रहे हैं.

शनिदेव की लोकप्रियता का आंकड़ा पिछले चार-पांच सालों के दौरान गगनगामी हुआ है. इस तथ्य के साथ एक और सच्चाई ये भी जुड़ी है कि लगभग इसी समयांतराल के बीच हमारे देश में टेलीविजन मीडिया का विस्तार भी बहुत तेजी से हुआ है
भक्तों की धर्मभीरुता, पीर-पुजारियों के अलौकिक महिमामंडन और इन सबसे ऊपर मीडिया महाराज की कृपा से आराध्यों का एक नया समूह पिछले कुछ सालों में जबर्दस्त तरीके से उभरा है. परंपरागत देवी-देवता, भक्तों की संख्या और आराधना के मामले मे पीछे छूटते जा रहे हैं और मुख्य रूप से आस्था के जो चार प्रतीक हमारे इन पारंपरिक आराध्यों से काफी आगे निकल गए दिखते हैं, वे हैं - शनिदेव, शिरडीवाले साईं बाबा, भैरवनाथ और जगह-जगह दिखने वालीं विभिन्न पीरों-औलियाओं की मजारें. यहां पहले तीन तो आस्था के एक प्रकार से निश्चित रंग-रूप, हानि-लाभ और पूजा-पद्धतियों वाले प्रतीक हैं लेकिन मजारों के मामले में ऐसा नहीं है. घड़ी वाले से लेकर मटके वाले पीर तक की मजारें इस देश के अमूमन हर हिस्से में फैली हुई हैं. ये अलग-अलग लोगों की मजारें है, जिनके संदेश-उपदेश, और जियारत के तौर-तरीके एक-दूसरे के जैसे होते हुए भी अलग हो सकते हैं. मसलन हर जगह मजारों पर चादर तो चढ़ाई जाती है लेकिन इसके साथ कहीं पर घड़ी और कही मटका चढ़ाने का चलन भी है.

इस श्रेणी के धार्मिक प्रतीकों को अगर एक दर्जे में रखकर देखें तो इनकी शरण में आने वालों की संख्या बड़े-बड़े देवी-देवताओं के भक्तों को मात दे सकती है. अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग दरगाहों-मजारों की प्रतिष्ठा और हिंदू धर्म के नये-नये देवताओं के अचानक ही चलन में आने की क्या वजह हो सकती है? इस सवाल पर स्वामी अग्निवेश की राय है, ‘वक्त-वक्त पर लोग नए-नए प्रतीक गढ़ते हैं, फिर उनका भय दिखाकर लोगों का भयादोहन किया जाता है. धीरे-धीरे जब उनका असर कम होता है, तब यह तबका किसी नए प्रतीक को गढ़ने के लिए आगे बढ़ जाता है.'

महज कुछ साल पहले तक शनिदेव की छवि एक ऐसे देवता की थी जिनके न तो क्रोध की कोई सीमा थी और न ही कृपा का कोई पारावार. आमतौर पर भक्त उनके कोप से बचने की कोशिश में ही रहते थे. लेकिन हाल के कुछ वर्षो में टीवी और नए-नए बाबाओं के प्रचार-प्रसार ने इनकी लोकप्रियता को एकदम से आसमान पर पहुंचा दिया. महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित शिंगणापुर में शनिदेव का सबसे विशाल मंदिर है. एक आंकड़े के मुताबिक बीते पांच सालों के दौरान शिंगणापुर में शनिदर्शन के लिए आने वाले भक्तों की संख्या और चढ़ावे ने यहां से थोड़ी ही दूर पर स्थित शिरडी के सांईबाबा की महिमा को भी फीका कर डाला है. एसी नेल्सन के एक सर्वे के मुताबिक शनिदेव ने देवताओं की लोकप्रियता सूची के सभी पुराने समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है. वे बाकी तमाम देवी-देवताओं के साथ ही साईंबाबा और भैरवनाथ जैसे भक्तप्रिय अाराध्यों को काफी पीछे छोड़ चुके हैं. जहां परंपरागत देवी देवताओं की भक्ति के पीछे भक्तों की श्रद्धा काम कर रही होती है वहीं शनि भक्ति की लहर आने की मुख्य वजह है उनके प्रकोप से खुद को बचाने की मुराद और साथ ही उनकी कृपा से खुद को धनधान्य से भरपूर बनाने की लालसा. वरिष्ठ समाजशास्त्री डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘शनि मूलत: संकट के प्रतीक रहे हैं और इस संकट का निवारण भी उन्हीं की शरण में होने का प्रावधान है. और बीते दो दशकों के दौरान हमारे सामाजिक जीवन में जिस तरह से भौतिक आसक्ति बढ़ी है उससे लोगों की इच्छाएं भी बहुत बढ़ गईं. इस बढ़ी हुई लालसा से पैदा हुए संकट को दूर करने के लिए लोग शनि, भैरव आदि की शरण लेना कहीं ज्यादा मुफीद समझते हैं.' लोग शनिदेव के दर्शन तो करने जाते हैं पर उनसे नजरें चुराते हुए. शनिभक्ति की लहर शिंगणापुर से निकलकर भोपाल-दिल्ली के गलीकूचों तक फैल गई है. समय ने शनिदेव के पक्ष में पलटी खाई है और पिछले चार-पांच सालों के दौरान भोपाल में कदम-कदम पर शिंगणापुर वाले शनिदेव प्रकट हो गए हैं. हर नुक्कड़-बस्ती में उनके मंदिर दिख जाते हैं और शनिदेव की आस्था की लहर में हजारों एकड़ जमीन तमाम नियम कानूनों को धता बताकर शनिदेव को समर्पित हो गई है.

आजादी के तकरीबन 30 साल बाद तक सामान्य तीर्थस्थल रही वैष्णो देवी की गुफा रातोंरात सर्वदुखहर्ता तीर्थ के रूप में विख्यात हो गई. देखते ही देखते यहां पहुंचने वाले धर्मालुओं की संख्या एक साल में 10-10 लाख तक छूने लगीअगर इस तथ्य पर सावधानी से निगाह डालें तो हम पाएंगे कि शनिदेव की लोकप्रियता का आंकड़ा पिछले चार-पांच सालों के दौरान गगनगामी हुआ है. इस तथ्य के साथ एक और सच्चाई ये भी जुड़ी है कि लगभग इसी समयांतराल के बीच हमारे देश में टेलीविजन मीडिया का विस्तार भी बहुत तेजी से हुआ है. टीवी के इस विस्तार के साथ दाती मदन महाराज, आसाराम बापू, स्वामी रामदेव जैसे धर्म गुरुओं और संतों की पहुंच भी घर-घर में बढ़ी है. शनिदेव की बढ़ती लोकप्रियता में सबसे बड़ा योगदान हिंदी के एक बड़े 'समाचार' चैनल इंडिया टीवी और शनिदेव के परमभक्त दाती मदन महाराज का है. दाती महाराज शनिदेव की लोकप्रियता को अलग कोण से देखते हैं, ‘शनि शत्रु है, अमंगलकारी है, दुखदायी है, ये सब भ्रांतियां थी. अब समाज से भ्रम और भ्रांति का पर्दा उठा है तो लोगों को सच्चाई का अहसास हो गया है. मैं तो साधनमात्र था. टेलीविज़न ने मुझे आपसे जुड़ने का सुअवसर मुहैया कराया तो चुनौती थोड़ी आसान हो गई.'

डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल इसे टीवी इवेंजलिस्म की संज्ञा देते हैं जिसकी शुरुआत अमेरिका में हुई थी. उनका मत है, ‘जिस भी समाज में टीवी का विस्तार हुआ वहां धार्मिकता का प्रसार बहुत तेजी से हुआ है. अमेरिका में अकेले ईसाइयत के अलग-अलग पंथों के कम से कम पचास धार्मिक चैनल हैं. भारत में भी टीवी के विस्तार ने इस दुर्गुण को अपना लिया है. चैनलों और नए-नए बाबाओं के गठजोड़ ने धार्मिकता को बढ़ाया है और लोगों को उसके मूल उद्देश्य से भटका दिया है.'

समय-समय पर देश के लोकप्रिय माध्यमों ने भी देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा के संतुलन को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाई है. मसलन 70 के दशक में आई बहुचर्चित और सिनेमा की कमाई के आंकड़े की नई इबारत लिखने वाली फिल्म जय संतोषी मां ने घर-घर में उनकी प्राण प्रतिष्ठा की थी. हर शुक्रवार को संतोषी माता की व्रत कथा की लहर पूरे देश में उमड़ पड़ी थी. संतोषीमाता का अभ्युदय एक निम्न मध्यवर्गीय परिघटना थी. गणेश की पुत्री मानी जाने वाली संतोषी माता धन और सुख-समृद्धि की देवी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी. जाहिर-सी बात है जिस तबके को इन साधनों की सबसे अधिक इच्छा थी उन्हीं के बीच संतोषी माता की भक्ति का सागर उमड़ रहा था. कुछ ऐसी ही स्थितियां 80 के दशक में आई राजेश खन्ना की फिल्म अवतार और गुलशन कुमार के मातारानी के भजनों ने माता वैष्णो देवी के लिए पैदा की थीं. आजादी के तकरीबन 30 साल बाद तक सामान्य तीर्थस्थल रही वैष्णो देवी की गुफा रातोंरात सर्वदुखहर्ता तीर्थ के रूप में विख्यात हो गई. देखते ही देखते यहां पहुंचने वाले धर्मालुओं की संख्या एक साल में 10-10 लाख तक छूने लगी.
आस्था का यह ज्वार अभी थमा नहीं है, हां कालांतर में इसमें एक और आयाम जुड़ गया - भैरवनाथ. फिर कथा चली कि भैरवनाथ का दर्शन किए बिना वैष्णो देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है. भैरवनाथ का प्रसिद्ध मंदिर भी वैष्णो देवी की गुफा से कुछ दूरी पर ही स्थित है.

फिलहाल यही भैरवनाथ शीर्ष गति से बढ़ रहे चार देवताओं में शामिल हो गए हैं. पौराणिक कथाओं के मुताबिक भैरवनाथ एक तांत्रिक थे जिन्होंने वैष्णो देवी का पीछा करते हुए उस मार्ग की खोज की थी जिसके जरिए आज 13 किलोमीटर लंबी वैष्णो देवी की यात्रा संचालित होती है. कथा यह थी कि वैष्णो देवी ने भैरवनाथ का वध करने के साथ ही उन्हें माफ कर दिया था और उन्हें विद्वान की संज्ञा देते हुए अपने जितना ही पूजनीय होने का आशीर्वाद दिया था. शिव के परम भक्त भैरवनाथ का प्रभाव दो दशक पहले तक देश के विस्तृत मैदानी इलाकों की बजाय हिमालय की पहाड़ियों तक ज्यादा था. अल्मोड़ा में काल भैरव, बटुक भैरव, भाल भैरव, शैव भैरव, आनंद भैरव, गौर भैरव और खटकूनियां नाम के आठ प्राचीन भैरव मंदिरों का अस्तित्व रहा है और लोगों के पास इनकी महिमा की अनगिनत दंतकथाएं भी बताने को हैं. लेकिन वैष्णो देवी के प्रसार के साथ ही भैरवनाथ का दायरा भी दुर्गम पहाड़ियों से निकल कर समतल मैदानों में फैल गया. दिल्ली में पुराने किले के पास स्थित मशहूर भैरव मंदिर है जहां चढ़ावे के रूप में शराब चढ़ाने की परंपरा है. इतना ही प्रसिद्ध और भीड़भाड़ से भरा और खुद को पांडव कालीन बताने वाला भैरव मंदिर दिल्ली के वीआईपी इलाके चाणक्यपुरी में भी स्थित है. यह अलग बात है कि भक्तों को इसका ज्ञान महज़ दशक भर पहले हुआ है. इस मंदिर से जुड़ी एक दिलचस्प दास्तान वहां पिछले दस सालों से बिना नागा दर्शन करने आने वाली एक भक्त सरोज शर्मा सुनाती हैं- ‘दस साल पहले तक यहां इक्का दुक्का ही कभी कोई दर्शन के लिए आता था. हम यहां आते थे और घंटों तक शांति से बैठ कर ध्यान-मग्न रहते थे. मंदिर के पुजारी अक्सर बातचीत के दौरान निराश होकर कहा करते थे, 'बहनजी क्या कभी हमारे मंदिर में भी पुराने किले वाले भैरव बाबा के जैसी रौनक होगी?' आखिर भैरव बाबा ने उनकी सुनी और आजकल चाणक्यपुरी का भैरव मंदिर हर रविवार वैसे ही गुलजार रहता है जैसे पुराने किले के पीछे वाले किलकारी भैरव महाराज.
लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित बटुक भैरव मंदिर भी खुद के प्राचीन होने का दावा करता है. मगर यहां के महंत श्याम किशोर गिरि नितांत व्यावहारिक नजरिया रखते हैं- ‘मंदिर तो करीब सात सदी पुराना है लेकिन यहां लोगों की विशाल भीड़ पिछले सात-आठ सालों से आनी शुरू हुई है. यहां पंद्रह आने दुखी लोग आते हैं और सिर्फ एक आना भक्त आते हैं.'

सत्यनारायण भगवान की कथा की तरह ही मजारों की प्रतिष्ठा में भी भक्त के कायाकल्प का गुणगान तो पन्ना दर पन्ना होता है पर मूलकथा आज तक किसी को पता नहीं चल सकी है
भैरवनाथ की श्रद्धा के पीछे भी वही मानसिकता देखने को मिलती हैं जो कि शनिदेव के भक्तों की है. दंतकथा के मुताबिक अपने जीवन काल में भैरवनाथ एक अड़ियल गुस्सैल सिद्ध तांत्रिक थे. उन्होंने वैष्णो देवी को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. लेकिन लगे हाथ भैरवनाथ उतने ही पहुंचे हुए ज्ञानी भी थे. तमाम काली सिद्धियों पर उनका एकाधिकार था और उनके अनुयायियों पर कोई कुदृष्टि कभी हावी नहीं होने पाती थी. भैरवनाथ की आस्था और प्रभाव का एक जीता-जागता नमूना हाल ही में कश्मीर घाटी में देखने को मिला जहां सालों पहले पलायन कर गए हिंदुओं के बंद पड़े भैरव मंदिर को वहां के मुसलमानों ने दोबारा से खुलवाकर उन्हें कश्मीरी पंडितों के हवाले कर दिया.

कुछ साल पहले तक साईंबाबा का जिक्र आते ही लोग सीधे शिरडी का ध्यान करते थे. शिरडी में स्थित साईमंदिर की महिमा के तमाम किस्से सुनने-सुनाने को मिल जाते हैं. साईंबाबा काफी कुछ भारत में सदियों से चली आ रही रमता जोगी और बहता पानी वाली पंरपरा की ही एक कड़ी थे. फक्कड़पना उनके स्वभाव में था, संतई और ईमानदारी उनके चरित्र के गुण थे और लोगों को सत्संगत की सीख देना उनकी विशेषता थी. इस परंपरा से जुड़ी तमाम दूसरी दास्तानंे भी देश के अन्य हिस्सों में देखने सुनने को मिल जाती हैं मसलन कबीर या फिर देश भर में जगह-जगह फैली पीरों की दरगाह और मजारें. समय बीतने के साथ किस तरह से इनके दामन से चमत्कारवाद जुड़ जाता है यह बात किसी पीएचडी छात्र के लिए शोध का बढ़िया विषय हो सकती है. पहले इस परंपरा के साथ एक सुंदर प्रवृत्ति का घालमेल भी देखने को मिलता था जिसे सही मायनों में गंगा जमुनी तहजीब कहा जा सकता था - इनके भक्तों में हिंदू-मुस्लिम और सिख सभी शामिल होते थे - पर हाल के दशकों में इस प्रवृत्ति का लोप हुआ है. कुछेक दशकों के दौरान देश भर में अस्सी हजार के करीब साईं मंदिर अस्तित्व में आ गए हैं जहां करोड़ों रुपए चढ़ावा आता है. दिल्ली स्थित मशहूर इस्कॉन मंदिर के ठीक सामने साई बाबा का नया मंदिर बना है. सुबह-शाम आरती होती है और महीने में दो दिन साईं बाबा की गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है. देश के दूसरे हिस्सों में फैलाव के साथ-साथ इसकी पूजा पद्धतियों में भी धीरे-धीरे भटकाव आता गया है जिसके साथ ही शिरडी और देश के दूसरे हिस्सों में बने साईं मंदिरो में मुसलमानों की भागीदारी भी धीरे-धीरे खत्म हो गई है. उनकी पूजा-अर्चना का पूरी तरह से हिंदूकरण हो गया है, पौराणिक हिंदू देवी देवताओं की भांति ही फूल-माला, धूप-बत्ती से सराबोर साईं मंदिर अपने मूल स्वरूप से ही भटक गए से लगते हैं. शिरडी साईं संस्थानम ट्रस्ट के चेयरमैन जयंत ससाने मुसलमानों की साईं से दूरी की बात स्वीकार करते हैं लेकिन उनके पास इसकी वजह भी बताने को है- ‘मुसलमान साईं से इसलिए दूर हुए हैं क्योंकि उन्हें साईं की मूर्ति से परेशानी होती है. यह इस्लाम की मूल धारणा के खिलाफ है. इसके चलते साईं भक्तों में मुस्लिमों की संख्या घटी है.' साईं संस्थान ट्रस्ट ने इस संकट को देखते हुए अपनी वेबसाइट पर देश के दूसरे हिस्सों में स्थित साईं मंदिरों के पुजारियों के लिए एक 15 दिन के ट्रेनिंग कार्यक्रम की व्यवस्था की है. शिरडी स्थित साईं धाम में इन लोगों के प्रशिक्षण का इंतजाम किया गया है ताकि पूजा-पद्धति में आते जा रहे भटकाव को रोका जा सके. जिस पथ के पुजारी साईं बाबा थे उसी की अगली कड़ी के तौर पर हम देश भर में प्रचलित दरगाहों-मजारों को रख सकते हैं. देश का कोई भी इलाका नहीं होगा जहां दरगाहों मजारों पर शीश नवाने वाले हिंदू श्रद्धालु न हों.

अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, नई दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन ऑलिया और फतेहपुर सीकरी की शेख सलीम चिश्ती की दरगाह जैसी मिसालों को छोड़ दिया जाए तो काफी दरगाहों और मजारों पर शीश नवाने वाले जियारतमंदों को उनके अतीत के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है. सत्यनारायण भगवान की कथा की तरह ही मजारों की प्रतिष्ठा भी कायम है जिसमें भक्त के कायाकल्प का गुणगान तो पन्ना दर पन्ना होता है पर मूलकथा किसी को पता नहीं होती. लखनऊ के खम्मन पीर दरगाह में मन्नत मांगने आए मोहित मिश्रा से जब तहलका ने दरगाह की महिमा और खम्मन पीर की श्रद्धा के बारे में जानने की कोशिश की तो एक रोचक कारण सामने आया. मोहित ने बताया, ‘जब आपके काम नहीं बन रहे होते हैं तब आप मजहब की सीमाओं को पार कर जाते हैं.'

काफी हद तक वाचिक परंपरा या किस्सागोई की आदत की तरह महिमा की कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती हैं. स्वाभाविक है व्यक्ति दर व्यक्ति कहानियां परिष्कृत होती जाती हैं और समयातंर में एक बिल्कुल नई कहानी सामने आती है जिसमें चमत्कार, भय, आस्था, अपूर्ण इच्छा जैसे नवरसों का मिश्रण होता है.

किस तरह से कोई मजार समय के साथ सर्वशक्तिसंपन्न और हर ख्वाहिश को पूरी करने वाली पीठ बन जाती है इसकी एक दिलचस्प बानगी भगवानदास मोरवाल के उपन्यास रेत में है. एक वेश्या रतना जो कि उपन्यास की नायिका भी है, को एक बच्चे की लंबे समय से चाह है. एक दिन पुलिस से भागा हुआ भूरा उसके पास आता है जिसके संसर्ग में आने से रतना की यह मुराद पूरी हो जाती है. शराबी भूरा के देहांत के बाद रतना उसकी पक्की कब्र बनवा देती हैै. दो साल बाद कोई शरारतन कब्र के ऊपर 'भूरा पीर की मजार' लिख देता है और कुछ ही दिनों में वहां संतान की इच्छा रखने वाले जोड़े मन्नतें मांगने के लिए आने लग जाते हैं. इस कब्र पर जो बोर्ड लगा होता है उपन्यास में उसका जिक्र भी बड़ा दिलचस्प है.

दरगाह-ए -बाबा भूरा पीर.
सालाना उर्स- रबीउल अव्वल (जून की 25 तारीख)
भंडारा- हर महीने के अंतिम दिन
खादिम - मोहम्मद अमीन
‘यहां मर्द और औरत दोनों का शर्तिया इलाज होता है'
खुद मोरवाल के शब्दों में, 'उपन्यास का यह दृष्टांत मेरे निजी अनुभव पर आधारित है. जब मैं लिखने के सिलसिले में उस इलाके में शोध कर रहा था तब मुझे इस घटना के बारे में पता चला. मैंने जाकर देखा तो वहां उस मजार पर अगरबत्तियां जल रही थीं.'
स्वामी अग्निवेश धर्म के इस विकृत स्वरूप के विस्तार के लिए समाज में आते जा रहे दुर्गुणों की बात करते हैं. उनके शब्दों में, ‘धर्म के प्रति अंध रुझान की जड़ें वर्तमान समाज में बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार, गंदगी और अनैतिक क्रिया कलापों से जुड़ी हुई हैं. जब समाज गलत चीजों में लगा होगा तो स्वाभाविक है कि उसके अंदर एक तरह का भय, असुरक्षा और ग्लानिबोध रहता है. इस ग्लानिबोध से मुक्ति पाने के लिए व्यक्ति धर्म के चमत्कारिक पहलू की ओर झुकता चला जाता है.'

देखते ही देखते अनजानी मजारों और दरगाहों के साथ लोग दैवीय शक्तियों से परिपूर्ण, हर कामना की पूर्ति करने वाली, संतानहीनों को संतान और बेटी वालों को बेटे देने वाली जैसे विशेषण जोड़ते चले जाते हैं. एटा में सय्यद वाली गली के पीर से लेकर लखनऊ में लबे चारबाग रेलवे स्टेशन स्थित खम्मन पीर बाबा की मजार, दिल्ली में पुराने किले के पास दरगाह-ए-अबू बकर तूसी उर्फ मटके वाले पीर की दरगाह और हरियाणा के मलेरकोटला वाले पीर के आश्रम तक पूरे देश में दरगाहों की ऐसी ही एक अनवरत श्रृंखला देखी जा सकती है.
नई दिल्ली के प्रगति मैदान के पास स्थित मटके वाले पीर की दरगाह पर सालों से मटका चढ़ाने के लिए चांदनी चौक से यहां आने वाले साड़ियों के व्यापारी ईश्वरचंद गुप्ता को पीर के इतिहास के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता है. पूछने पर वे बस इतना ही बता पाते हैं कि किसी ने उनसे यहां मन्नत मानने के लिए कहा था. संयोग से उनकी मन्नत पूरी हो गई और गुप्ता जी की श्रद्धा भी अटल हो गई. उनके मुताबिक, ‘अपने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पूजा तो हम बचपन से ही करते चले आ रहे थे. इसके बाद भी हमारी मुश्किलें जब दूर नहीं हो रही थीं तो फिर पीर की मजार को आजमाने में क्या बुराई थी. मेरे तमाम परिचितों को यहां मुंहमांगी मुराद मिल चुकी है.'
साधकों की इस प्रकार की निष्ठा के पीछे विशिष्ट भूमिका होती है अंधश्रद्धा और तर्कवितर्क की क्षमता के अभाव की. पर इसकी अच्छाई की बात करें तो इन दरगाहों-मजारों पर शीश नवाने वालों में हिंदू-मुसलमान समान संख्या में होते हैं जो मौजूदा संवेदनशील, अस्थिर भारतीय समाज के नजरिए से एक बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है. यह अलग बात है कि एक बृहस्पतिवार को दरगाहों पर एक साथ सिर झुकाने वाले अगले शुक्रवार और मंगलवार को ही किसी मौलाना की तकरीर और पंडित के प्रवचन को गांठ बांधकर एक दूसरे को ललकारने से नहीं हिचकते.

अवध और लखनऊ के इतिहास की गहरी समझ रखने वाले डॉ योगेश प्रवीण इस चलन को दो स्पष्ट हिस्सों में बांटकर देखते हैं- ‘भक्त जब मंदिर-मस्जिद में जाता है तब उसके मन में श्रद्धा का भाव होता है जबकि वही भक्त जब किसी मजार पर जाता है तो उसके मन में कोई न कोई मुराद होती है.' इन मजारों में भी मस्ती, सूफियाना फक्कड़पन जैसी शानदार हिंदुस्तानी परंपरा धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है. लोग धर्म के कट्टरवादी स्वरूप की तरफ जाने-अनजाने बढ़े जा रहे हैं.

डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल इसे धार्मिक समूहों की मन:स्थिति में व्याप्त आत्मविश्वास की कमी से जोड़कर देखते हैं, ‘मस्ती और फक्कड़पना जो कबीर की विशेषता थी, असल में समाज के आत्मविश्वास से जुड़ी हुई चीज है. जब समाज में आत्मविश्वास की कमी होती है, असुरक्षा की भावना बढ़ती है तब वह इन चीजों से विमुख होकर कट्टरता, चमत्कार, अवतारवाद जैसी चीजों की तरफ चला जाता है. यह बात आज समाज के हर पहलू से जुड़ गई है चाहे वो पढ़ाई-लिखाई हो, रोजी रोटी हो नौकरी हो या फिर कुछ और.'

अच्छाइयों और बुराइयों की तुलना से इतर एक जरूरी प्रश्न यह उठता है कि यदि वास्तव में धर्म का स्वरूप समय सापेक्ष और परिवर्तनीय ही है तो आने वाले समय में भारत में इसका नया स्वरूप क्या उभरेगा? यह कबीर, कंबन, तुलसी, अकबर, विवेकानंद और गांधी के विचारों का सुंदर मिश्रण बनकर उभरेगा या तालिबानी तर्ज का कट्टरवादी प्रतीक या फिर आधुनिकता से ओत-प्रोत पूरी तरह अमेरिकी-यूरोपीय समाज की शक्ल ले लेगा?

वैसे तो संसार का कोई भी समाज या धर्म कभी भी इतना स्वाभाविक और व्यावहारिक नहीं रहा कि किसी समय में उसके नियम और परंपराएं हर किसी को स्वीकार्य रहे हों. हर समय के बीत जाने के बाद ही उसकी ठीक आलोचना की जा सकती है. बस देखना यह है कि भविष्य में हम आध्यात्मिक शांति के लिए ईश्वर की शरण में जाएंगे या बस मुरादें मांगने?

(हिमांशु बाजपेयी के योगदान के साथ)