बुधवार, 10 अगस्त 2011


अगला प्रधानमंत्री कौन?
2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव का भूत राजनीतिक दलों को अभी से सताने लगा है. कांगे्रस और भाजपा के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियां अपनी जीत की संभावनाओं के साथ ही अगले प्रधानमंत्री की तलाश में जुट गई हैं. उनका यह कदम उनक. लिए ही घातक न हो जाए इस लिए वे अंदर ही अंदर मंथन कर रही हैं. यूपीए में अगले संभावित प्रधानमंत्री के दावेदारों में मनमोहन सिंह,राहुल गांधी,प्रणव मुखर्जी,एके एंटनी और पी चिदम्बरम का नाम लिया जा रहा है तो भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी के साथ ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम उछला है. वहीं बसपा सुप्रीमों मायावती भी कतार में है. इन सब के अलावा करीब आधा दर्जन और नेता अपनी गोंटी बिछा रहे हैं.
यूपीए जब से सत्ता में आई है, तभी से यह सवाल थोड़े-थोड़े अंतराल पर बार-बार पूछा जाता रहा है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा. कांग्रेस के कुछ 10 जनपथी नेताओं द्वारा ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, मानो जनता इस बात का इंतजार कर रही है कि राहुल गांधी कब प्रधानमंत्री बनेंगे. ऐसा लगता है जैसे एक दिनचर्या तय कर ली गई हो. समय-समय पर किसी कांग्रेसी नेता का कोई सोचा-समझा बयान आ जाता है. प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चौहान- सभी मौके-बेमौके बयान देकर ऐसी अटकलों को हवा देते रहे हैं कि मनमोहन सिंह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिए कभी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ सकते हैं. राहुल गांधी के 41वें जन्मदिन पर जब उनके करीबी समझे जाने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जब यह कहा कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का समय आ गया है, तो उसमें कुछ भी नया नहीं था लेकिन सारे टीवी चैनल इस विश्लेषण में जुट गए कि क्या मनमोहन सिंह, राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद छोडऩे जा रहे हैं?
कांग्रेस के सूत्र स्वीकार करते हैं कि इन सात सालों में कई मौके ऐसे आए, जब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की बात जोरदार ढंग से उठाई गई. हाईकमान ने उस बात को गंभीरता से लिया, लेकिन अव्वल तो खुद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने में बहुत रुचि नहीं दिखाई और दूसरी बात यह कि हालात भी डॉ. मनमोहन सिंह के पक्ष में रहे. हाल में कांग्रेस के आंतरिक विचारमंथन में, बशर्ते इसे सचमुच विचारमंथन कहा जाए, पार्टी इस नतीजे पर पहुंची कि 2014 के आम चुनावों में नए नेतृत्व और नए नारे के साथ उतरा जाए. नए नेतृत्व के तौर पर राहुल गांधी का नाम सामने आया.
चुनावों से पहले राहुल गांधी को नेतृत्व थमाने का मतलब है कि पार्टी संकट की घड़ी में काम आ सकने वाले अपने तुरुप के इक्के को बेवजह पहले ही खेल जाए. पार्टी अपने उस इक्के को महंगाई और भ्रष्टाचार की आंच में नहीं झोंकना चाहती, जो 2014 में उसे सत्ता की कुर्सी दिला सकता है. मध्य प्रदेश के एक बड़े कांग्रेसी नेता का कहना है कि राहुल साझा सरकार का नेतृत्व करना बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे, लेकिन मौजूदा हालात में और कोई रास्ता भी नहीं बचता. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस में इस बात को लेकर किसी के मन में कोई संशय नहीं है कि अगर कांग्रेस 2014 के चुनावों में राहुल पार्टी का नेतृत्व करते हैं और पार्टी चुनाव जीत जाती है तो राहुल ही प्रधानमंत्री होंगे. लेकिन कुछ ऐसे कांग्रेसी भी हैं, जो दबी जुबान से ही सही, लेकिन अपना दावा ठोक रहे हैं. प्रधानमंत्री पद पर नजर रखने वालों की सूची में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, गृह मंत्री पी. चिदंबरम और रक्षा मंत्री एके एंटनी का नाम शामिल है. इन सभी लोगों की बात की जाए तो चिदंबरम के बारे में कांग्रेसियों का मानना है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए वह भाजपा तक से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे. साफ है कि कांग्रेस उनके तमिल मनीला कांग्रेस (टीएमसी) के दिनों को अभी भूली नहीं है. तीन दावेदारों में से प्रणव मुखर्जी को सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा है. ऐसा सिर्फ कांग्रेस के लोग ही नहीं मानते, बल्कि सी-वोटर के सर्वे में भी लोगों ने ऐसा ही माना है. हालांकि उन्होंने यह साफ कर दिया है कि वह रिटायरमेंट लेना पसंद करेंगे, ताकि युवाओं को आगे आने का मौका मिल सके. उनकी इस बात से यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि उनकी नजर राष्ट्रपति की कुर्सी पर है और उम्र के इस पड़ाव पर यही उनके लिए सबसे अनुकूल रहेगा. बहरहाल, उन्हें इस पद के लिए सबसे तगड़ी चुनौती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल रही है, जो प्रतिभा पाटिल के अगले साल रिटायर होने के बाद राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार बनना चाहते हैं. इनके अलावा कई दूसरे नाम भी सामने आ रहे हैं, लेकिन उनका दावा बहुत कमजोर है. इस सूची में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार और राहुल गांधी के विश्वासपात्र दिग्विजय सिंह के नाम शामिल हैं.
जहां तक राजग की बात है तो बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन की भारी-भरकम जीत के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में उछला था लेकिन उन्होंने उसी समय यह कह कर तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं हूं. अब इस कतार में लालकृष्ण आडवाणी,लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं. पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी रिटायर होने के मुकाम पर आ पहुंचे हैं. अस्सी पार आडवाणी यूं तो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही यह कह चुके हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में वह उम्मीदवार नहीं होंगे. लालकृष्ण आडवाणी भले ही उपप्रधानमंत्री के पद पर रह चुके हों, लेकिन पार्टी का कोई भी नेता उन्हें एक अच्छा प्रधानमंत्री नहीं मानता है. पार्टी में आडवाणी की छवि एक कट्टरवादी नेता की है, जो किसी भी परिस्थिति में झुकने को तैयार नहीं होता. राजनेताओं का कहना है कि लोकतंत्र के लिए यह बेहतर संकेत नहीं है और वह भी ऐसी दशा में जब, सरकार जोड़तोड़ कर बनाई जाए. भाजपा नेता यह मानते हैं कि देश की सत्ता में आने के लिए उसे कई अन्य दलों का साथ लेना होगा, जिसके लिए बहुत संयम रखना पड़ता है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए पार्टी चाहती है कि प्रधानमंत्री पद के लिए ऐसा नाम चयन किया जाए, जो सभी घटक दलों में सामंजस्य बनाकर देश चलाए.

ऐसे में पार्टी में एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज में संभावनाएं देखता है तो कोई गठबंधन राजनीति के लिहाज राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली को बेहतर मानता है. यहां यह बता दें कि 2009 में लोकसभा चुनाव में भी पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने बीच चुनाव में मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री बताकर भाजपा के भीतर विवाद खड़ा कर दिया था. जबकि पार्टी के भीतर भी अहमदाबाद के दंगों में मोदी सरकार की भूमिका को लेकर एक वर्ग लगातार उंगलियां उठता रहा है. वैसे, आडवाणी ने सुषमा स्वराज को अपना उत्तराधिकारी बनाते हुए लोकसभा में विपक्ष का नेता बनाया तो स्वाभाविक रूप से यह सवाल सुषमा स्वराज से भी पूछा जाने लगा है कि क्या वह अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी?
इस आधार पर सुषमा को अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रबल उम्मीदवार माना जा सकता है लेकिन सुषमा को सिर्फ लोकसभा में विपक्ष का नेता होना ही उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की कतार में खड़ा नहीं करता बल्कि सुषमा के पास भाषण की वह कला है जिसके कायल खुद आडवाणी हैं. आडवाणी सार्वजनिक रूप से सुषमा की भाषणकला की प्रशंसा कर चुके हैं. सुषमा को वाजपेयी की तरह भाजपा में भाषण कला में माहिर माना जाता है. विरोधी भी सुषमा की इस भाषण कला को मानते हैं. सुषमा कई भाषाओं में भाषण देती हैं. दक्षिण में कर्नाटक के बेल्लारी संसदीय सीट से लेकर हिंदी भाषी मध्य प्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र तक से चुनाव लड़ चुकी हैं. सुषमा देश की आधी आबादी यानी महिला मतदाताओं को लुभाने की कला जानती हैं इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर खासी मुखर रहती हैं. फिर सुषमा स्वराज की छवि कट्टर हिंदूवादी नेताओं के बजाय ऐसी महिला नेत्री की है जो भारतीय संस्कारों और संस्कृति के साथ विकास के एजेंडे को लेकर राजनीति करती हैं. लेकिन पुरुषों के वर्चस्व वाली पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर पाएंगे, कहना मुश्किल है. दूसरे नंबर पर अरुण जेटली हैं, जिनके समर्थन में राजनाथ सिंह पहले ही तैयार हो चुके हैं. राजनाथ सिंह का प्रयास होगा कि उनके समर्थक जेटली के पक्ष में हामी भरें.
जहां तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का सवाल है तो भारत का बहुसंख्यक वर्ग उनमें सरदार वल्लभभाई को देखता है. भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी से जब यह सवाल पूछा गया कि क्या मोदी भाजपा के अगले पीएम इन वेटिंग हैं? तो गडकरी ने यह कहने में जरा भी देर नहीं लगाई कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में देश का प्रधानमंत्री बनने की अपार क्षमता और संभावनाएं है. आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है, तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है. वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं, लेकिन भीड़ को बांधकर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है. मुहावरे वे गढ़ लेते हैं. जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते. नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं, मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिलाकर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं.
लेकिन बिहार में नीतीश कुमार ने जिस प्रकार भाजपा के उदारवादी हिंदुत्व के चेहरों को तो स्वीकार किया लेकिन नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने दिया उससे तो यही लगता है कि नीतीश का यह विरोध नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन सकता है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने पर भाजपा अड़ी तो जदयू जैसे दल किस हद तक जाएंगे यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन इतना लगभग तय है कि नीतीश कुमार मोदी के विरोध में खड़े होंगे. क्या भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर राजग गठबंधन को दांव पर लगाने का साहस दिखाएगी? वह भी तब जब देश गठबंधन राजनीति के दौर से गुजर रहा है. मोदी को भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवाणी, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का खुला समर्थन प्राप्त है. आरएसएस का एक बड़ा हिस्सा भी मोदी के साथ खड़ा है लेकिन एक हिस्सा मोदी की राजनीति को नहीं पचा पा रहा. यह बात अलग है कि विरोधी दलों को ही नहीं, भाजपा में अपने विरोधियों को भी किनारे लगाने में मोदी माहिर माने जाते हैं. लेकिन यह भी सच है कि देश की राजनीति और राजग में ही नहीं भाजपा में भी मोदी विरोधियों की कमी नहीं है. उधर, मुरली मनोहर जोशी भी अपने समर्थन में वोट जुटाने का प्रयास कर रहे हैं. पार्टी में फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती भी लौट आईं हैं, लेकिन आलाकमान उन पर भरोसा करने की गलती नहीं करेगा. यानी उपरोक्त नेताओं के भरोशे इस गठबंधन की राजनीति के दौर में सत्ता का ख्वाब तो देखा जा सकता है, लेकिन पाना मुश्किल होगा.
ऐसे में पार्टी को एक ऐसे नेता की तलाश है, जो पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की तरह सभी वर्गों को ग्राह्य हो. उसमें नाम आता है मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का. शिवराजसिंह चौहान ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी छवि अपने राज्य में जितनी दमदार है, उतनी ही केंद्र में भी. सच तो यह है कि भारत में कुछ राजनेता ऐसे हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में नहीं हैं, लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के आसपास घूमती रहती है. ऐसे नेताओं में शिवराजसिंह चौहान का भी नाम है और भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व शिवराज को तराशकर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है. केंद्रीय नेतृत्व को यह बात भलीभांति मालूम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने केंद्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है.
रामनामी ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी भाजपा अपनी सांप्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है, इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है, इसके लिए उसे शिवराज सिंह चौहान के सेकुलर चेहर की जरूरत जरूरत है. भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, मरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, उमा भारती, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी आदि जितने कदावर नेता हैं, इन सबकी सांप्रदायिक छवि है. जब भाजपा हिंदू पार्टी थी. जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था, तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गों ने अपनी पहचान हिंदू की मानी थी. तब, जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी. उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती. आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिंदू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है. इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है. पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है. ऐसे में पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सेकूलर छवि बनाने के लिए प्राणपण से जुट गई है. मुस्लिम वोटो को पटाने की कोशिश हो रही है.
दिल्ली के सियासी गलियारों में तो इनदिनों यह बयार बह रही है कि जहां लालकृष्ण आड़वाणी राजग के घोषित पीएम इन वेटिंग हैं तो शिवराज सिंह चौहान में अघोषित पीएम इन वेटिंग. मप्र के दिल्ली में पदस्थ आला अफसरान शिवराज सिंह चौहान को पीएम मैटेरियल बताने से नहीं चूक रहे हैं. गौरतलब है कि लगभग नौ साल पूर्व मप्र की एक महिला अधिकारी द्वारा राजा दिग्विजय सिंह को दिल्ली के सियासी गलियारों में पीएम मेटेरियल बताया जा रहा था. उस वक्त राजा दिग्विजय सिंह पीएम तो नहीं बन पाए अलबत्ता उन्हें सक्रिय राजनीति से दस साल का सन्यास अवश्य ही लेना पड़ा था. उधर भाजपा के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो बाहर से लाकर थोपे गए एक नेता के द्वारा शिवराज सिंह के मुलाजिमों के माध्यम से ही इस तरह का कैंपेन चलवाया जा रहा है ताकि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भाजपा के आला नेताओं के रडार पर लाया जा सके. वैसे भी उमा भारती की भाजपा में वापसी के बाद शिवराज सिंह चौहान के तेवर कुछ ढीले पड़ते दिख रहे हैं. कहा जा रहा है कि इसके पहले शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते ही मप्र के एक ताकतवर भाजपा नेता ने दिल्ली में अपनी पसंद के अधिकारियों की तैनाती करवाकर फील्डिंग मजबूत करवा दी थी.
दरअसल भाजपा लीडरशिप सिर्फ वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल की याद में खोई हुई है. जिन्हें प्रधानमंत्री बनना है, वे भाजपा के रणनीतिकार है. और ये सत्ता का मूल मंत्र वाजपेयी की कथित स्वीकार्यता का मानते हंै. ऐसा था नहीं. भाजपा जिन 180 सांसदों की ताकत से सत्ता में आई थी, उसकी वजह हिन्दू लहर थी. मंदिर आंदोलन था. 180 सांसदों की जीत के पीछे दलित, जाट, किसान, फारवर्ड, बैकवर्ड का अलग-अलग मैनेजमेंट नहीं था बल्कि हिन्दू नारा था. इस कोर ताकत से 180 सांसद आए तो उसके बाद सरकार बनाने के लिए जरूरी 273 सांसदों की संख्या याकि 94 सांसदों वाले जयललिता और चंद्रबाबू जुड़ गए. पहली वजह भाजपा का 180 सांसदों का हिन्दू वोट बैंक था. उसी से भाजपा धुरी बनी. उस धुरी की तरफ पार्टियां खिंची चली आई. तब किसी ने यह नहीं कहां कि भाजपा जैसी कम्युनल पार्टी के साथ कैसे सत्ता साझेदार हो सकते हैं?
हिन्दू मूल के चाल,चेहरे और चरित्र की 180 सीटों की उस ताकत को भाजपा ने आज गंवाया हुआ है. उसकी भरपाई के लिए वह कभी दलित वोट जोडऩे, कभी किसान वोटों की राजनीति या कभी मुस्लिम को नाराज नहीं करने की उधेड़बुन में रहती है. मतलब भाजपा में 180 सीटों के बजाय बाद के 94 सांसदों के जुगाड़ वाले एलायंस पर फोकस है. अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि सभी मान कर चल रहे ह़ै कि सन् 2014 में 180 सीटें अपने आप आएगी. इसलिए प्रधानमंत्री बनने के लिए ज्यादा जरूरी बाकी 84 सांसदों के एलायंस पर पूरा फोकस बनाना है. अपनी स्वीकार्यता बनाना है. इन सबका फोकस पार्टियों और नेताओं को पटाने, मीडिया में वाजपेयी छाप इमेज बनवाने और मीडिया से जिम्मेवार पार्टी प्रचारित करवाने पर है. यह एप्रोच व्यक्तिवादी सोच से उपजी है. सेल्फ प्रमोशन की कारस्तानी है. सेल्फ प्रमोशन, मैनेजमेंट और सुविधा की राजनीति में भाजपा ऐसी ढ़ल गई है कि नागपुर से आए नितिन गडकरी को भी दिल्ली में यह तर्प जंचा है कि नरेंद्र मोदी, वरुण गांधी, उमा भारती, डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसों को उतारना महंगा पड़ेगा. इसलिए इनदिनों सबकी नजर शिवराज सिंह पर है.
भाजपा में हर कोई प्रधानमंत्री बनने के ख्याल में खोया हुआ है तो वजह यह सोच है कि सन् 2014 तक कांग्रेस पूरी तरह बर्बाद होगी. पर ये यह नहीं सोच रहे है कि कांग्रेस के बरबाद होने से भाजपा कहां आबाद हो रही है? भाजपा ले दे कर मप्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक हिमाचल, जैसे सात-आठ राज्यों की 140 सीटों वाली पार्टी है. भाजपा का 2014 का लोकसभा चुनाव महज सवा दो सौ सीटों का बनता है. इसमें भी आधी से ज्यादा सीटों पर उसे एंटी इनकंबेसी का सामना करना पड़ेगा. पर यह रियलिटी गडकरी, जेटली, सुषमा को दिखलाई नहीं देती है. इसलिए कि इनका फोकस मैनेजमेंट और इस जोड़-तोड़ पर है कि नीतिश कुमार, जयललिता, चंद्रबाबू या जगनमोहन या ममता या प्रफुल्ल महंत या मायावती से एलायंस बना सकने के लिए क्या किया जाएं? भाजपा की टॉप लीडरशिप का पूरा फोकस सन् 2014 में जैसे- तैसे प्रधानमंत्री पद के जुगाड़ का है. प्रधानमंत्री पद और सत्ता की आकांक्षा होना गलत बात नहीं है. पर आकांक्षा यदि मुंगेरी लाल के सपने जैसी हवाई हो तो उसमें क्या कुछ बन सकता है? भाजपा के तमाम नेता यह सोच कर बल्ले-बल्ले है कि कांग्रेस से हालात नहीं संभल रहे हैं इसलिए उनका अवसर है. पर क्या ऐसा है? यह तो उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में लग ही जाएगा.
उधर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बसपा सुप्रीमो मायावती भी दावेदारी की हर तरह की संभावनाओं में आगे-आगे हैं. गठबंधन की राजनीति में अगर समीकरण ने साथ दिया तो सत्ता की बागडोर उनके हाथों में आ सकती है.

भारत-रत्न दिलवाने की जिद


2 जनवरी 1954 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जब कला, साहित्य, विज्ञान और सार्वजनिक सेवा में उल्लेखनीय योगदान करने वालों को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने के लिए भारत रत्न की स्थापना की थी तब यह सोचा भी नहीं होगा की भविष्य में यह विवाद का केंद्र बनेगा। भारत रत्न का विवाद अब एक ऐसे मोड़ पर आ गया है जहां इस सर्वोच्च सम्मान को राजनीति का मुद्दा बना लिया गया है और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपने मनपसंद को यह सर्वोच्च सम्मान दिलाने की जिद कर रहे हैं।
आज भारत-रत्न ऐसा सम्मान बन गया है जिसे पाने या दिलाने के लिए अभियान चलाया जाता है। सबसे पहले भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने की मांग की। भाजपा के इस क़दम के बाद तो दावेदारों की गोया झड़ी सी लग गई। मायावती ने काशीराम को भारत रत्न के लिए सबसे उपयुक्त दावेदार बताया तो चौधरी अजीत सिंह अपने पिता पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के लिए भारत रत्न का दावा पेश करने से नहीं चूके। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह ने आचार्य नरेन्द्र देव का नाम भारत रत्न के लिए प्रस्तावित किया। कोई रतन टाटा कहता है तो कोई सचिन तेंदुलकर तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अटल से बिमुख होकर अब ध्यानचंद का गुण गा रहे हैं।
हालांकि भारत रत्न के उपरोक्त प्रस्तावक दल अथवा प्रस्तावक नेता अपने दावों के समर्थन में कुछ भी बखान क्यों न करें परन्तु भारत रत्न सम्मान चयन समिति के विचार भी प्रस्तावकों के विचारों से मेल खाते हों, यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के तौर पर नि:सन्देह अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति पर पांच दशकों तक निरंतर छाए रहने वाले एक बड़े राजनैतिक क़द का नाम है। सत्ता पक्ष में रहे हों अथवा विपक्ष में अपनी कुशल राजनैतिक सूझबूझ का उन्होंने हमेशा ही परिचय दिया है। राजनैतिक जीवन से सम्मानजनक बिदाई के रूप में उनके लिए भारत रत्न से अच्छा उपहार और हो भी क्या सकता था? परन्तु वाजपेयी के आलोचकों द्वारा उन्हीं के राजनैतिक जीवन के खाते में कारगिल घुसपैठ, संसद पर हुआ आतंकवादी हमला तथा कंधार विमान अपहरण कांड में कुछ दुर्दान्त आतंकवादियों को बाइज्जत दिल्ली से कंधार पहुंचाया जाना व उन्हीं के शासनकाल में हुए गुजरात दंगे भी शामिल हैं। ऐसे में भारत रत्न जैसे सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान को तराज़ू के किस पल्ले पर रखा जा सकता है। ऐसी ही परिस्थितियां कांशीराम व चौधरी चरण सिंह के नामों को लेकर उत्पन्न होती हैं। इन बातों से तात्पर्य यही निकलता है कि भारत रत्न जैसा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ऐसे उच्चकोटि के व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जो सर्वमान्य हो, आलोचनाओं का शिकार न हो तथा वास्तव में अपने महान व्यक्तित्व की बदौलत भारत के एक आकर्षक रत्न के रूप में चमकता हुआ दिखाई दे। परन्तु दु:ख की बात यह है कि अब शायद इस देश में ऐसे लोग चिरांग लेकर ढूंढने से भी नहीं मिल सकेंगे जो कि किसी न किसी कारण किसी न किसी व्यक्ति की आलोचना का केंद्र न हों। इसका सबसे बड़ा कारण है समाज में विभिन्न स्तरों पर तेंजी से बदलती जा रही विचारधारा और इसी वैचारिक बदलाव के कारण भारत रत्न जैसे अलंकरण को भी ग्रहण लगता जा रहा है।
अगर भारत रत्न प्राप्त करने वालों की बात करें तो उनके अलावा भी कुछ ऐसे लोग थे जो भारत रत्न पाने के हकदार थे,लेकिन उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया,इसका जवाब तो निरधारित करने वाली कमेटी के पास भी नहीं होगा। जिनको भारत रत्न मिलना चाहिए था वह नाम आज भी इसी इन्तजार में हैं जैसे इन नामों में महात्मा गांधी,सुभाष चन्द्र बोस,भगत सिंह,चन्द्रशेखरआजाद,राजगुरु, सुखदेव,अशफाकउल्ला खां इत्यादि। अगर गम्भीरता से इन नामों पर विचार किया जाए तो क्या ये लोग भारत रत्न पाने के हकदार थे या नहीं? इन्होंने ने जो भारत माता की सेवा की क्या उससे बढ़कर भी कोई सेवा की जा सकती थी। क्या सुभाष चन्द्र बोस भारत रत्न पाने के योग्य नहीं थे कि उनका नाम भारत रत्न के लिया घोषित करके भी वापस ले लिया गया। लेकिन जातिवाद,क्षेत्रवाद और पार्टीवाद के इस दौर में इन महान विभूतियों को दरकिनार कर अपनी पसंद के नाम को उछाला जा रहा है।
पहले तो गनीमत थी कि पार्टियां कम से कम पब्लिक के बीच उछालकर भारत रत्न नहीं मांगा करती थी लेकिन अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि भारत रत्न इस तरह से पार्टियों द्वारा मांगा जा रहा है जैसे मजदूर अपनी मजदूरी मांगने की बात कर रहा हो। अगर इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत रत्न का महत्व भी एक आम दिये जाने वाले पुरस्कार के समान हो जायेगा।
भारत रत्न एक ऐसा सम्मान है जिसे पाने के बाद पाने वाला अपने आप को गौरवन्ति महसूस करता है,भारत रत्न भारत वर्ष में दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार है। और भारत रत्न पाने के लिये किसी जाति,देश या प्रदेश जैसी कोई योग्यता नहीं केवल योग्यता चाहिए तो वह यह कि वह भारतकी नि:स्वार्थ सेवा करने वाला हो। लेकिन आज बिना सेवक बने ही भारत रत्न पाने की होड़ में भारत रत्न पर भी राजनीति की जाने लगी है। आज के राजनेताओं ने अपनी राजनीति को चलाने के लिये भारत रत्न जैसे पवित्र और निष्पक्ष पुरस्कार को भी नहीं बख्शा है।
एक अरसे से सचिन तेंदुलकर को भारत-रत्न दिए जाने की बात की जा रही है। ग्वालियर में जब उन्होंने वनडे के इतिहास में पहला दोहरा शतक जड़ा तो इस मांग ने और जोर पकड़ा। इसके बाद हाल ही में विश्वकप जीतने के बाद मानो अगला लक्ष्य सचिन तेंदुलकर को भारत-रत्न दिलाना ही हो गया है। सचिन तेंदुलकर निस्संदेह आज के दौर के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं। लेकिन उन्हें उनके अवदान का श्रेय देने में इतनी अति बरती जाती है कि अन्य खिलाडिय़ों का बेहतर प्रदर्शन हाशिए पर ही चला जाता है। खेद यह है कि मीडिया और क्रिकेट मैचों के प्रायोजक बाजार के चलते जानबूझ कर खिलाड़ी को भगवान का दर्जा देने की स्थिति बनायी गई। हिटलर के सलाहकार गोएबल्स की उक्ति ध्यान आती है कि एक झूठ को इतनी बार बोलो कि वह सच लगने लगे। सचिन अच्छे खिलाड़ी हैं, उन्हें क्रिकेट प्रेमियों का प्यार वैसे ही भरपूर मिल रहा है। लेकिन अगर वे भगवान बन जाते हैं, तो इससे उन उत्पादों की बिक्री और आसान हो जाती है, जिसका वे विज्ञापन करते हैं। उन मैचों को ज्यादा प्रायोजक मिल जाते हैं, जिसमें उनके किसी विशेष रिकार्ड पर ज्यादा से ज्यादा सट्टा लगता है। ऐसे में उन्हें भारत-रत्न दिए जाने की मांग राजनीतिक दलों द्वारा किया जाना भी आश्चर्यजनक नहीं लगता। अभी तक भारत रत्न दिए जाने के लिए खेल को कोई श्रेणी नहीं बनाया गया था। लेकिन अब कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुस्ती दिखाने वाली केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर अभूतपूर्व तेजी दिखाई। सरकार ने देश के खिलाडिय़ों को सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का रास्ता प्रशस्त कर दिया। सरकार की इस पहल से मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाजने की क्रिकेट प्रशंसकों की मांग पूरी हो सकती है।
इधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मांग की है कि सचिन के पहले हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को भारत-रत्न दिया जाए। शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि सचिन भी बेमिसाल खिलाड़ी हैं लेकिन मेजर ध्यानचंद ने भी पूरी दुनिया में देश का मान बढ़ाने का काम किया है। लिहाजा ध्यानचंद को मरणोपरांत खेलों के क्षेत्र में भारत रत्न दिया जाना चाहिए। सचिन को भारत रत्न देने के नाम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की टिप्पणी पर इंदौर शहर काग्रेस अध्यक्ष प्रमोद टंडन कहते है कि मुख्यमंत्री खेल के नाम पर ओछी राजनीति कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सचिन तेंदुलकर के सामने मेजर ध्यानचंद का नाम लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री माहौल खराब कर रहे हैं। सचिन देश के महान खिलाड़ी हैं और वो भारत रत्न के हकदार हैं। पूरी दुनिया में सचिन ने देश का नाम रोशन किया है और पूरी दुनिया सचिन को जानती है। ऐसे में सचिन भारत रत्न के हकदार हैं। मेजर ध्यानचंद और कई बड़े खिलाड़ी देश में हुए हैं। जिनको देश कभी नहीं भूल सकता। फिलहाल जब सचिन की बात हो रही है तो मुख्यमंत्री को अपनी मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए। टंडन ने कहा कि राजनीति करने के कई मुद्दे हैं, ऐसे में खेल को कम से कम बख्श देना चाहिए।

शिवराज की इस मांग में भले राजनीति छिपी हो, लेकिन उनकी बात सही है। हाकी इस देश का राष्ट्र्रीय खेल है और ध्यानचंद इसलिए हमारे अनमोल रतन हैं। उन्होंने तीन बार ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक दिलवाया है। क्या यह क्रिकेट का विश्वकप जीतने से बड़ी उपलब्धि नहीं है। अगर खेल के क्षेत्र से ही भारत-रत्न दिया जाना है, तो फिर सचिन के पहले कई योग्य दावेदार हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि क्या एक व्यक्ति को भारत का सर्वोच्च सम्मान दिया जाना क्या इतना आवश्यक हो गया है कि उसके लिए पुरस्कार के मानदंडों में ही बदलाव किया जाए। निजी चैनलों और बाजार के प्रभाव में भावुक जनता आए, यह तो समझ में आता है। किंतु क्या सरकार को भी इस दबाव में आना चाहिए। अथवा उन नियमों, नीतियों व कानूनों की समीक्षा में अपना अमूल्य समय लगाना चाहिए, जिससे व्यापक समाज का, जनता का सीधा हित जुड़ता है।
मेजर ध्यानचंद को भले ही भारत रत्न दिए जाने की मांग तेज हो गई हो लेकिन उनके बेटे अशोक कुमार का मानना है कि हॉकी की दुनिया के दिग्गज को इस सम्मान की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, ध्यानचंद को भारत रत्न की जरूरत नहीं है लेकिन हॉकी को है, क्योंकि ऐसा होने से इस खेल के हालात सुधर जाएंगे। अशोक कुमार स्वयं हॉकी के बड़े खिलाड़ी रहे हैं। अगर वे इस तरह के तर्क दे रहे हैं तो उसमें हॉकी की दुर्दशा का दर्द साफ झलक रहा है। पहली बात तो यह है कि हांकी हमारा राष्ट्रीय खेल होने के बावजुद भी दोयम दर्जे की शिकार है। इस लिए अशोक कुमार की बात में दम दिखता है कि हॉकी को सम्मान मिलेगा तो खिलाडिय़ों का मनोबल ऊंचा उठेगा। लेकिन इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि सचिन को सम्मान नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अपने मन पसंद को भारत रत्न दिलाने का प्रहसन चल रहा है वह ठीक नहीं है।

मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए घातक न बन जाएं उसी के मोहरे...?



मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में अभी लगभग ढाई साल का समय शेष है, लेकिन मिशन-2013 के लिए सत्तारुढ भाजपा सहित प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने अपनी अपनी बिसात बिछानी शुरु कर दी है और प्रदेश में चुनावी समर की तैयारी होने लगी है। अभी तक हर मोर्चे पर कांगे्रस की कमजोरी को देखकर लगातार तीसरी बार सत्ता का सपना देख रही भाजपा के लिए उसके ही मोहरें घातक सिद्ध हो सकते हैं।
ये मोहरें वे हैं जिन्होंने अपनी पार्टी,नीति,रीति,चरित्र और चेहरे को त्याग कर 2008 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा में आए और जिनके दमखम और सहयोग से भाजपा सत्ता में आ गई लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा के रहनूमा इन्हें भूल गए। उसके बाद भी कई नेता बड़े अरमान के साथ भाजपा में आए लेकिन उन्हें भी कोई तव्वजो नहीं दी गई,जिसके कारण वे प्रवासी नेता और कार्यकर्ता अपने आपको ठगा महसूस करने लगे हैं, क्योंकि जो नेता उनकी पूछ-परख करते थे, वे किनारा करने लगे। ऐसे में कुछ नेता तो घर बैठ गए और कुछ अभी भी आस लगाए बैठे हैं।
चुनाव तक भाजपा में शामिल होने वाले हर नेता तथा कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान का पूरा ध्यान दिया गया। उन्हें चुनाव में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी दी गई। प्रवासी भाजपाइयों की मेहनत का नतीजा ही था कि मुरैना संसदीय क्षेत्र से भाजपा नेता नरेन्द्र सिंह तोमर विजयी हुए। यह महज एक उदाहरण मात्र है। कई विधानसभा क्षेत्रों में भी प्रवासी भाजपाइयों की बदौलत ही भाजपा को जीत हासिल हुई। चुनाव में विजयश्री मिलने के बाद से पार्टी में लगातार प्रवासी भाजपाईयों की उपेक्षा होने लगी है। जिसके कारण ये नेता एक बार फिर से अपनी मूल पार्टी या किसी अन्य पार्टी में जाने की योजना बना रहे हैं।
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के नेताओं ने तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र लिखकर अपनी पीड़ा से अवगत कराया है। दरअसल, मामला संगठन से जुड़ा हुआ है, किन्तु मुख्यमंत्री श्री चौहान को पत्र इसलिए लिखा, क्योंकि उन्हें उन पर विश्वास था कि वे उनके साथ पूरा इंसाफ करेंगे। उनका विश्वास अब टूटता नजर आने लगा है। प्रवासी भाजपाइयों को न तो लालबत्ती मिली और न ही संगठन में उन्हें सम्मानजनक पद दिया गया। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से भाजपा में शामिल हुए पूर्व प्रवक्ता विष्णु शर्मा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लिखे पत्र में कहा है कि महाकौशल, विंध्य क्षेत्र और बुंदेलखंड में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का पर्याप्त जनाधार रहा है। गोंगपा के बिखराव के बाद उसके नेता और कार्यकर्ता अपनी नीति एवं आस्था के हिसाब से राजनीतिक दलों से जुड़ते गए। इसी कड़ी में गोंगपा के पांच-छह सौ से अधिक नेता और कार्यकर्ता भाजपा से भी जुड़े। इन नेताओं और कार्यकर्ताओं का वजूद सिवनी, मंडला, डिंडोरी, बालाघाट, छिंदवाड़ा, शहडोल, उमरिया, कटनी, जबलपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, सिंगरौली-सीधी, दमोह, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, भिंड, मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी और गुना जिले में है।
पत्र में श्री शर्मा ने लिखा है कि यदि आदिवासी समाज में पार्टी का दस प्रतिशत वोट बढ़ाना है, तो यह काम केवल गोंगपा से आए हुए कार्यकर्ता ही कर सकते हैं, क्योंकि उनकी आदिवासियों के बीच खासी पैठ है। उन्होंने पत्र में कहा है कि कांग्रेस ने अपने पुराने आदिवासी वोट बैंक की खातिर कद्दावर आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाया है। शर्मा ने मुख्यमंत्री चौहान से आग्रह किया है कि आगामी समय में आदिवासी समाज को कांग्रेस की ओर जाने से रोकना है, तो गोंगपा से भाजपा में आए कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान प्रदान करें और उन्हें संगठन अथवा कोई और दायित्व सौंपे। गोंगपा के इस पूर्व प्रवक्ता ने पत्र में यह भी लिखा है कि आपने(शिवराज सिंह) जैसे हम्माल पंचायत, चर्मकार पंचायत, मजदूर पंचायत, किसान पंचायत बुलाई थी, ठीक उसी तरह से गोंगपा से भाजपा में आए कार्यकर्ताओं का सम्मेलन बुलाएं, ताकि उन्हें पार्टी में तवज्जो एवं तरजीह मिल सके। वे लिखते हैं कि भाजपा के नेताओं एवं पदाधिकारियों की फितरत बन गई है कि दूसरे दलों से आए नेताओं का चुनावी मोहरे के रूप में इस्तेमाल करें और जब काम निकल जाए, तब उन्हें हाशिए पर धकेल दें। आज भाजपा में यही हो रहा है। अब यह सभी नेता और कार्यकर्ता भाजपा में घुटन महसूस कर रहे हैं और वे किसी नए राजनीतिक आसरे की तलाश में हैं।
वैसे तो प्रवासी भाजपाइयों की लंबी फेहरिस्त है। इनमें कुछ बड़े नाम भी हैं जैसे- फूलसिंह बरैया, भुजबल अहिरवार, एनपी शर्मा, बालेन्दु शुक्ल, प्रेमनारायण ठाकुर, सतेन्दु तिवारी, अशोक गौतम, नवाब ठाकुर, रामस्वरूप यादव, अवधराज मसकुले, राजपाल सिंह, अतरसिंह राजपूत, केशव सिंह गुर्जर, दिलीप सिंह भूरिया, असलम शेर खां इत्यादि। इनमें से समता समाज पार्टी के फूल सिंह बरैया और भुजबल अहिरवार को भाजपा ने मुरैना संसदीय क्षेत्र और एनपी शर्मा को विदिशा लोकसभा सीट से चुनाव जीतने के लिए ही पार्टी में शामिल कराया था। शुरुआती दिनों में इन नेताओं की खूब पूछ-परख हुई, पर उसके बाद से उनकी लगातार उपेक्षा हो रही है। उपेक्षाओं के चलते फूल सिंह बरैया ने तो भाजपा से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बहुजन संघर्ष दल का गठन कर लिया है।
फूल सिंह बरैया कहते हैं कि दूसरे दल से आए नेताओं पहचान की भाजपा में केवल चुनावी मोहरे के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है। भाजपा और कांग्रेस दोनों बड़ी पार्टियां नहीं चाहती हैं कि मध्यप्रदेश में कोई तीसरी राजनीतिक शक्ति का उदय हो। यही कारण है कि ये दोनों दल छोटे दलों को तोडऩे में जुट जाते हैं। यह पूछे जाने पर आप वरिष्ठ राजनेता हैं और भाजपा के झांसे में कैसे आ गए? वे जवाब देते हैं-मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सांसद नरेन्द्र सिंह तोमर के बहकावे में आ गया था। पार्टी में आने के बाद मैं भाजपा नेताओं की हकीकत से वाकिफ हुआ। मुझे पार्टी की नीति निर्धारण के लिए बुलाई जाने वाली बैठकों में नहीं बुलाया जाता था। वैसे भी मेरा पूरा कुनबा (दलित) भाजपा में सेट नहीं हो पा रहा था, इसलिए मैंने भाजपा छोड़कर बहुजन संघर्ष दल का गठन किया। फिलहाल मैं अपने संगठन को मजबूत करने में जुटा हुआ हूं। श्री बरैया ने तो भाजपा से नाता तोड़ लिया, पर भुजबल अहिरवार और एनपी शर्मा जैसे वरिष्ठ हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। भुजबल अहिरवार कहते हैं कि वे अभी भाजपा के साधारण कार्यकर्ता हैं। पार्टी की तरफ से आश्वासन मिला है। उसी का इंतजार कर रहा हूं। कांग्रेस के सहकारिता नेता एनपी शर्मा भी भाजपा में जाने के बाद राजनीति में गुम-से हो गए हैं। उपेक्षाओं के चलते ही उनका दिल भी भाजपा से ऊब गया है। इसके पहले आदिवासी नेता दिलीप सिंह भूरिया और अल्पसंख्यक नेता असलम शेर खां का भी भाजपा में जाने का अनुभव ठीक नहीं रहा है। अंतत: असलम शेर खां और दिलीप सिंह भूरिया ने भी उपेक्षाओं के चलते बहुत पहले भाजपा को अलविदा कह दिया था। यह बात अलग है कि दिलीप सिंह भूरिया का इस्तेमाल कर भाजपा ने कांग्रेस के गढ़ झाबुआ में सेंध लगा लिया है। कांग्रेस से भाजपा में आए प्रेमनारायण ठाकुर विधायक तो बन गए, किन्तु पार्टी में उनकी भी पूछ-परख नहीं हो रही है। कांग्रेस में आने के उनके मार्ग बंद है, इसलिए भाजपा में रहना उनकी विवशता है।
उधर बताया जाता है कि कांग्रेस ने उन नेताओं की लिस्ट बनानी शुरू कर दी है जो भाजपा में उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। मौका मिलते ही पार्टी इन नेताओं को आगामी चुनाव में विधायकी का प्रलोभन देकर कांग्रेस में बुला लेगी। अगर समय रहते भाजपा ने अपने मोहरें नहीं संभाले तो वे उसके लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं।

आदिवासियों में असंतोष
भारतीय जनता पार्टी की सिंगरौली में हुई प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ही अगले चुनाव लड़़े जाने के संकल्प से आदिवासी नेतृत्व को तगड़़ा झटका लगा है। पार्टी के सिंगरौली मंथन ने ये साफ कर दिया है कि पार्टी के आदिवासी नेताओं को अभी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लंबा इंतजार करना पड़़ेगा।
बैठक में आदिवासी वोट बैंक को पार्टी की ओर मोड़ऩे के लिए संगठन ने कई अभियान चलाने का ब्यौरा तो दे दिया लेकिन साथ ही ये भी स्पष्ट कर दिया कि केवल आरक्षित सीटों पर ही उनके दावों पर विचार किया जाएगा। आदिवासियों को लुभाने के लिए किसी आदिवासी नेता को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी देने का भी फार्मूला नहीं बना। पार्टी के एक युवा आदिवासी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि मंडला में आयोजित नर्मदा कुंभ के बाद यदि पार्टी सिंगरौली में किसी आदिवासी नेता को उपमुख्यमंत्री के लिए प्रोजेक्ट करती तो शायद आदिवासी समाज के लोगों का पार्टी पर और ज्यादा विश्वास बढ़़ता। हालांकि उन्होंने संगठन के फैसले पर किसी तरह की टीका टिप्पणी करने से साफ मना करते हुए कहा कि इस संबंध में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार हाईकमान को है। हम अपनी भावनाओं से उन्हें अवगत भी करा चुके हैं। बहरहाल, सिंगरौली मंथन से आदिवासी नेतृत्व का नेजा संभालने वाले इस तबके को करारा झटका लगा है।