गुरुवार, 27 जुलाई 2017

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

सरकारी बिजली कंपनियों की आड़ में निजी कंपनियों का 'पॉवर गेमÓ

10,000 गांवों की भूमि पर कंपनी का राज
नियमों को ताक पर रख हथियाई जा रही जमीन
भोपाल। देश में पॉवर हब के रूप में पहचान बना चुके मध्य प्रदेश में बिजली के उत्पादन, वितरण और विस्तार के खेल में जमकर घालमेल किया जा रहा है। आलम यह है की सरकारी बिजली कंपनियों की मनमानी, निजी बिजली कंपनियों की बेईमानी और अफसरों की कारस्तानी से जनता बेहाल और कंपनियां मालामाल हो रही है। मालामाल कंपनियों को और मालामाल बनाने के लिए सरकारी बिजली कंपनियों की आड़ में निजी कंपनियों का 'पॉवर गेमÓ चल रहा है। जिसके तहत अब बिजली लाईनों के विस्तार के नाम पर किसानों की भूमि पर कब्जा कर कंपनियां सरकार के साथ ही किसानों को भी आर्थिक क्षति पहुंचा रही हैं। वर्तमान में प्रदेश के 10,000 गांवों की भूमि पर कंपनी राज चल रहा है। दरअसल, प्रदेश में हर घर को 24 घंटे बिजली मुहैया कराने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा की आड़ में अफसरों, निजी बिजली कंपनियों और माफिया की मिलीभगत से पॉवर गेम खेल जा रहा है। जहां एक ओर मप्र में निजी कंपनियों और अधिकारियों के बीच बिजली उत्पादन, खरीदी और बिक्री का खेल चल रहा है। प्रदेश में जरूरत से अधिक बिजली उत्पादन और खरीदी कर सरकार को रोजाना 4,68,00,000 रुपए की चपत लगाई जा रही है। स्थिति इतनी विकट है कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए उनसे महंगी बिजली खरीदी जा रही है। उसे सस्ती दर पर दूसरे राज्यों को बेचा जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ कंपनियों की मिलीभगत से किसानों के खेत पॉवर हाउस में तबदील किए जा रहे हैं। जगह-जगह खेतों से होकर हाइटेंशन लाईन (उच्च दाब वाली विधुत लाइन) खींची गई है। किसानों के खेतों में जबरन टॉवर खड़े किए जा रहे हैं। प्रदेश में पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन और मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी के लगभग 300 कार्य चल रहे है। 10,000 गावों से निकल रही इन विद्युत लाइनों के लिए किसानों को न भूमि का मुआवजा दिया जा रहा है और न ही फसलों के नुकसान की भरपाई हो रही है। इससे किसानों को करोड़ों रूपए की हानि पहुंची है। मिलीभगत से हो रहा है खेल प्रदेश में पॉवर की आड़ में किसानों की जमीन हथियाने का यह खेल मप्र पावर मैनेजमेंट कंपनी, मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी, मप्र पावर ट्रांसमिशन कंपनी, मप्र पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी की मिलीभगत से हो रहा है। हाईपॉवर ट्रांसमिशन लाइन का टावर जिस खेत में स्थापित होता है उसके मालिक किसान को भारी नुकसान झेलना पड़ता है। इसलिए संबंधित किसान को मुआवजे के लिए कानूनी प्रावधान किए गए है लेकिन बिजली लाइन के लिए उपयोग की गई भूमि का कोई भी मुआवजा अभी पूरे मध्यप्रदेश में किसानों को नहीं दिया जा रहा है, जबकि इंडियन टेलीग्राफ एक्ट-1885 एवं भारतीय विद्युत अधिनियन 2003 के अनुसार किसानों को मुआवजा दिए जाने का प्रावधान है, और मध्यप्रदेश के सभी सीमावर्ती प्रांत जैसे छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि मे नियमानुसार क्षतिपूर्ति प्रदान की जा रही है। अफसरों ने हड़प ली मुआवजा राशि? विचार मप्र की कोर कमिटी के सदस्य विनायक परिहार, डा.ॅ चंदौरकर एवं महंत प्रीतम पुरी गोस्वामी ने बताया कि प्रदेश में वर्तमान में पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन और मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी के लगभग 300 कार्य चाल रहे हंै जिन की उच्च दाब विद्युत लाइन प्रदेश के लगभग 10,000 गावों से निकाली जा रही है। उन्होंने आरोप लगाया कि नियमानुसार जिन किसानों के खेतों में टॉवर लगाए जा रहे हैं उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए। इसके लिए अधिकारियों ने पूर्व में सर्वे के दौरान भी जानकारी दी थी। लेकिन मप्र सरकार किसानों की जमीन हथिया तो रही है लेकिन किसानों को मुआवजे की राशि नहीं मिल रही है। इसमें बड़े घोटाले की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। आरोप लगाया जाता है की कंपनियों के अफसरों ने ही मुआवजे की राशि हड़प ली है। बिजली विभाग में पदस्थ रहे एक पूर्व अधिकारी ने बताया कि उच्च दाब विद्युत लाइन एवं टावर निर्माण के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाता लेकिन किसान को हुई क्षति के लिए इंडियन टेलीग्राफ एक्ट-1885 की धारा 10 एवं धारा 16 तथा भारतीय विद्युत अधिनियन 2003 की धारा 67 एवं 68 के अनुसार किसानों को क्षतिपूर्ति दिए जाने का प्रावधानों है। इन अधिनियमों के अनुसार दी जाने वाले क्षतिपूर्ति को पुनरीक्षित करने केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 9-10 अप्रैल 2015 को देश के सभी प्रान्तों के ऊर्जा मंत्रियों एवं ऊर्जा सचिवों की संयुक्त बैठक अयोजित की थी जिसमे मध्यप्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सचिव ऊर्जा आईसीपी केसरी भी उपस्थित थे। इस बैठक की अनुशंसा पर भारत सरकार ने 15 अक्टूबर 2015 को उपरोक्त अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार क्षतिपूर्ति निर्धारित करने विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए। भारत सरकार के दिशा निर्देश के अनुसार, टावर निर्माण के लिए भूमि के बाजार मूल्य की 85 फीसदी क्षतिपूर्ति राशि संबंधित कंपनी द्वारा किसानों को भुगतान करनी होगी। मुआवजा निर्धारण, टावर के चारों पैरों के बीच के मूल क्षेत्र से किया जाएगा। साथ खेत के ऊपर से निकले तार के लिए तार की चौड़ाई और दो टॉवरों के बीच लंबाई के आधार पर क्षेत्रफल की गणना की जाएगी और इस भूमि पर बाजार मूल्य के 15 प्रतिशत की दर से क्षतिपूर्ति का भुगतान किया जाएगा। प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 765 केवीडीसी और 132 केवीडीसी की जो लाइने बिछाई जा रही हंै उसके लिए 67 मीटर एवं 27 मीटर की चौड़ाई निर्धारित की गई है। इसके अलावा निर्माण के दौरान होने वाली फसल क्षति का नुकसान वर्तमान नियमों के अनुसार दिया जाना है। नगरीय क्षेत्र में नगरीय निकाय द्वारा निर्धारित दर से क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है। लेकिन कंपनियों के अफसर आपसी सांठगांठ से किसानों का मुआवजा हड़प रहे हैं। जहां विरोध वहां दी जा रही क्षतिपूर्ति राशि वर्तमान में प्रदेश के करीब 10,000 गांवों में हाइटेंशन लाईन खींची जा रही है। लेकिन बिजली कंपनियों द्वारा केवल वहीं क्षतिपूति राशि दी जा रही है जहां विरोध हो रहा है। इसके तहत निर्माण कार्य के समय लगी हुई फसल की वास्तविक क्षति दी जा रही है। अधिकतर किसानों से तो कहा जा रही है की जनहित में इस प्रकार की निर्माण बिना मुआवजा दिए किए जा सकते हैं। विचार मप्र का आरोप है की किसानों से बिना अनुमति या पूछताछ के उनके खेतों की जमीन हड़पी जा रही है। जनता बेहाल, कंपनी मालामाल दरअसल, प्रदेश में बिजली के क्षेत्र में निजी कंपनियों के पॉवर के आगे सब पस्त हैं। एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने मध्य प्रदेश सरकार एवं विद्युत मंडल के साथ विस्तृत नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए मध्य विद्युत सुधार अधिनियम 2001 बनवाया था । जिसका उद्देश्य चरणबद्ध बिजली का निजीकरण कर विद्युत मंडल का विखंडन, विद्युत दरों का युक्तियुक्तकरण, विद्युत नियामक आयोग का गठन आदि करना था। इस कानून के कारण जहां बिजली के दाम हर वर्ष बढऩे लगे वही बिजली पर जनता और उसके द्वारा चुनी गई संस्थाओं का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। एक तरफ तो प्रदेश की आम जनता बिजली के मंहगे दरों से त्रस्त है वहीं दूसरी निजी पावर कंपनियां बिजली उत्पादन के लिए प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को खाक कर रही हैं। बिजली का क्षेत्र एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। एक ओर इससे करोड़ों लोगों को रोशनी मिलती है तथा दूसरी ओर खेती, धंधे, उद्योग भी काफी हद तक बिजली पर निर्भर है। आजादी के बाद संविधान निर्माता डाक्टर भीम राव अम्बेडकर ने इन्डियन इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 1948 की रचना की जिसका उद्देश्य था सभी को उचित दर पर बिजली उपलब्ध कराना। भारत मे आजादी के बाद बिजली की व्यवस्था के लिए विद्युत मंडलों का गठन किया गया। सन् 2002 तक इन मंडलों ने ही बिजली के उत्पादन, पारेषण एवं वितरण की जिम्मेदारी संभालते हुए जनता को बिजली उपलब्ध कराई। निजीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सभी क्षेत्रों की भांति बिजली (उर्जा) क्षेत्र में बहुत तेजी से बदलाव हुए। विश्व बैंक, आईएमएफ, एशियाई विकास बैंक तथा बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के दबाव मे तथाकथित उर्जा सुधारो को आगे बढ़ाया गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में कानूनी बदलाव विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के दबाव में केन्द्र सरकार द्वारा विद्युत अधिनियम 2003 बनाया गया। जिसमें विद्युत नियामक आयोग का गठन करने के साथ ही विद्युत मंडलों का विखंडन कर उत्पादन, पारेषण एवं वितरण कंपनियों के निजीकरण का रास्ता खोला गया। जहां 1948 का कानून उद्देश्य था कि सेवा क्षेत्र में रखकर सभी को उचित दर पर बिजली उपलब्ध कराना, वही इन कानूनों का उद्देश्य बिजली को लाभ (लूट) का धंधा बना कर रोशनी सिर्फ अमीरो के लिए रखना। मध्यप्रदेश में बिजली का निजीकरण एशियाई विकास बैंक ने मध्यप्रदेश सरकार एवं विद्युत मंडल के साथ विस्तृत नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए मध्यप्रदेश विद्युत सुधार अधिनियम 2001 बनवाया। जिसका उद्देश्य विद्युत मंडल का विखंडन, विद्युत दरों का युक्तियुक्तकरण, विद्युत नियामक आयोग का गठन आदि। इस कानून के कारण जहां बिजली के दाम हर वर्ष बढ़ाने होंगे वहीं बिजली पर जनता और उसके द्वारा चुनी गई संस्थाओ का कोई नियंत्रण नही होगा। इस कानून के प्रारूप पर विधानसभा मे भी कोई चर्चा अथवा सुझाव नही लिए गए। उर्जा विभाग के अनुसार 2007 से 2011 के बीच राज्य सरकार ने 91160 मेगावाट विद्युत उत्पादन के 75 अनुबंध निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों से कर रखे हैं। योजनाकारों ने सरकार के सामने बिजली की मांग मे अभूतपूर्व वृद्धि के आंकड़े प्रस्तुत कर गुमराह किया है और उसे इतने अधिक करार करने की राह पर डाल दिया है कि सरकारी बिजली संयंत्रो का अस्तित्व खतरे मे पड़ गया है। मांग के फर्जी आंकड़ों की वजह से ही सरकार ने आंख बंद कर बिजली खरीदी के करार किए और बिजली की दरे व समझौता शर्ते भी मान्य की, जिसमे निजी थर्मल कंपनियों का हित अधिक था। केन्द्र सरकार की टैरिफ पालिसी इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2006 के अनुसार निजी कंपनी के साथ प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार पर बिजली खरीदी होगी तथा सरकारी कंपनियों को इसमे पांच साल की छूट दी गई। परन्तु प्रदेश सरकार ने इस नियम के विरुद्ध 5 जनवरी 2011 को पांच निजी कंपनियों से 1575 मेगावाट विद्युत क्रय अनुबंध 25 साल के लिए किया जो पूरी तरह गैर कानूनी था। अनुबंध इन शर्तो के अधीन है कि बिजली खरीदे अथवा न खरीदे फिक्स चार्ज के रूप मे 2163 करोड़ रुपए देने ही होगे। बिजली की मांग नही होने के कारण बगैर बिजली खरीदे विगत तीन साल में नवंबर 2016 तक 5513.03 करोड़ रुपए निजी कंपनियों को भुगतान किया गया। 2016-17 मे जेपी पावर से 14.2 करोड़ यूनिट बिजली के लिए 478.26 करोड़ रूपए का भुगतान हुआ यानि प्रति यूनिट 33.68 रूपए तथा झाबुआ पावर प्लांट से 2.54 करोड़ यूनिट के लिए 214.02 करोड़ रुपए का भुगतान हुआ यानि 84.33 रूपये प्रति यूनिट की कीमत आय। विद्युत नियामक आयोग के विरुद्ध वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) ने 2013-14 में बिजली खरीदी मद से जो 1903.69 करोड़ रुपए अधिक चुकाए, उसकी एक वजह निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियां लेंको, बीएलए, जेपी बीना व सुजान से प्रति यूनिट 3.12 से 9.56 रूपए की उंची दर पर 460.92 करोड़ यूनिट खरीदी कर महज 2.96 रूपए प्रति यूनिट की दर पर 262.8 करोड़ यूनिट बाहरी प्रदेशों को बेचा। थर्मल, हाडड्रो पावर स्टेशन बदहाल मध्यप्रदेश में अब तक थर्मल पावर प्लांट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं लेकिन इसके बाद भी प्रदेश की 10 थर्मल पावर यूनिट बंद हो चुकी हैं। इनमें सारणी के थर्मल पावर प्लांट की छह के अलावा संजय गांधी थर्मल पावर स्टेशन की एक, अमरकंटक की दो और श्रीसिंगाजी की एक यूनिट ऐसी हैं जो पूरी तरह से ठप हो चुकी हैं और इनसे प्रदेश को बिजली उत्पादन नहीं किया जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, अगर इन थर्मल पावर प्लांट पर ठीक से काम किया जाए तो 4320 मेगावाट बिजली उत्पादन हो सकता है। लेकिन, अभी इन यूनिट्स से 15 प्रतिशत यानी 627 मेगावाट ही बिजली उत्पादन हो रहा है। प्रदेश में वर्तमान में सिर्फ विंड से बिजली प्रोडक्शन हो रहा है जबकि सोलर एनर्जी और बायोमास से बिजली के उत्पादन के मामले में स्थिति शून्य है। यह स्थिति सिर्फ थर्मल पावर प्लांट तक ही सीमित नहीं है। रिपोर्ट के आंकड़ों पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि प्रदेश के सभी 12 हाइड्रो पावर स्टेशन की हालत भी दयनीय हो चुकी है। जनवरी 2017 तक बीते 10 महिनों में प्रदेश के सभी बांधों में पर्याप्त जलराशी उपलब्ध रहने के बावजूद अपेक्षित बिजली पैदा नहीं कर सके। गौरतलब है कि बांधों से बिजली उत्पादन 38 पैसे प्रति यूनिट आती है जबकि निजी थर्मल पावर कंपनियों से सरकार 3.68 रूपए प्रति यूनिट की दर से खरीदती है। बांधो से बिजली उत्पादन नहीं होने से सरकार ने निजी कंपनियों से जो बिजली खरीदी, उसके लिए उन्हे 557 करोड़ का भुगतान करना पड़ा। इसी बिजली को यदि गांधीसागर, बरगी और बाणसागर से बनाया जाता तो इसकी लागत 57 करोड़ ही आती, यानि सरकार को 500 करोड़ रुपए की बचत होती। बढ़ता घाटा, बढ़ती देनदारियां मध्य प्रदेश पावर जनेरेटिंग कंपनी मे व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा एवं सिंगाजी पावर प्लांटो की कार्यक्षमता 40 प्रतिशत से भी कम हो गई है। कोयले की कीमत से ज्यादा परिवहन खर्च, काम की मूल लागत से कई गुना अधिक दर पर दिए गए ठेको, लाइजनिंग व कमीशन एजेंट के चलते कोयले के साथ आई करोड़ों रूपए की मिट्टी व पत्थर आदि पर होता है। अनाप-शनाप खर्च ने इनकी बिजली उत्पादन की प्रति यूनिट लागत अधिक होने के कारण मेरिट आर्डर डिमांड (सबसे कम बोली लगाने वाले) से बाहर हो गई है। पिछले चार साल मे मैनेजमेंट कंपनी को 9288 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है, जिसकी भरपाई बिजली दर बढाकर 1.35 करोड़ उपभोक्ताओ से की जा रही है। कंपनी के रसूख से रेट तय मध्यप्रदेश सरकार की नीति और नीयत सवालों के घेरे में है। वह अपने बिजली संयंत्रों को बंद कर निजी कंपनियों से बिजली खरीद कर सूबे में उसकी आपूर्ति कर रही है। इस खेल से सरकारी खजाने को करोड़ों का चूना लग रहा है और निजी कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो आई है। यही नहीं मप्र में स्थापित निजी विद्युत उत्पादन कंपनियों से बिजली खरीदी का कोई निश्चित मापदंड नहीं है। ऊर्जा विभाग कंपनियों के रसूख को देखकर रेट तय करता है। यही कारण है कि प्रदेश में ऊर्जा विभाग द्वारा निजी कंपनियों से जो बिजली खरीदी जा रही है वह प्रति यूनिट औसतन 7.80 रुपए पड़ रही है। लेकिन विभाग इसी बिजली को हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और पश्चिम बंगाल को औसतन 5.50 रुपए में बेच रहा है। ऐसे में विभाग को चपत लगना तय है। ज्ञातव्य है कि विभाग विभिन्न कंपनियों से अलग-अलग दरों पर बिजली खरीदी करता है। एटीपीसी से वर्ष 2015-16 में 2.89 रुपए में प्रति यूनिट बिजली खरीदी गई। इसी तरह एनपीसी से 2.78, सरदार सरोवर से 2.31, एनवीडीए से 4.52, दामोदर वैली कार से 3.63, टोरेंटो पीटीसी से 7.43, बीएलए से 3.63, जेपी बीना से 4.97, लेको से 3.10, सासन से 1.59, जेपी निगारी से 2.51, एमबी पॉवर से 3.46 और एमपी जनरेटिंग कंपनी से 4.00 की दर से बिजली खरीदी गई। इसी तरह राज्यों का जो बिजली बेची जा रही है उसमें भी असमानता है। विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि प्रदेश में बिजली खरीदी और बिक्री का गणित केवल कुछ अधिकारियों को ही पता है। वह कहते हैं कि खरीदी-बिक्री में सरकार को जमकर चूना लगाया जा रहा है। इसका उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि विभाग कहता है कि वह सिंगरौली जिले के सासन में रिलायंस समूह द्वारा स्थापित पॉवर प्लांट से 1.59 रूपए प्रति यूनिट बिजली खरीद रहा है, जबकि 22, 23 अक्टूबर को इंदौर में आयोजित ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में एडीएजी रिलायंस समूह के चेयरमैन अनिल अंबानी ने कहा कि मध्यप्रदेश को रिलायंस पावर प्लांट द्वारा मात्र एक रुपए 20 पैसे की प्रति यूनिट दर पर विद्युत उपलब्ध कराई जा रही है। उन्होंने कहा कि आगामी 25 वर्षों तक रिलायंस पावर प्लांट द्वारा मात्र एक रुपए 20 पैसे की प्रति यूनिट दर पर विद्युत राज्य को उपलब्ध कराई जा रही है। आखिर सरकारी आंकड़े और अंबानी के आंकड़े में 39 पैसे का अंतर क्यों है? विभाग के सूत्र बताते हैं कि शासन प्रोजेक्ट से जो सस्ती बिजली मिल रही है, उसमें घालमेल करके विभिन्न कारणों का हवाला देकर लगातार दरें बढ़वाई जा रही हैं। इसमें शासन प्रोजेक्ट के लिए रिलायंस ने अदालत में अपील दायर करके 20 साल तक निर्धारित दर फार्मूले में भी संशोधन कराया है। इसमें सरकारी बिजली कंपनियों का पक्ष कमजोर रहा। इसके तहत 2014-15 में जहां 70 पैसे प्रति यूनिट बिजली मिल रही थी, वहीं 2015-16 में 1.59 रुपए प्रति यूनिट बिजली मिली है। फिर भी यह बिजली दूसरी कंपनियों की तुलना में सस्ती है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब निजी कंपनियों से ही बिजली खरीदी जानी थी तब अरबों रुपये खर्च कर सरकार ने बिजली उत्पादन इकाइयों की स्थापना ही क्यों की? इनके रख-रखाव, देख-रेख व स्थापना-व्यय मद में जो रकम खर्च हो रही है, वह क्यों? बावजूद इसके सरकार का दावा है कि मध्य प्रदेश अब सरप्लस बिजली वाला स्टेट बन गया है। तब क्यों शहरी उपभोक्ता लगभग दस रुपए प्रति यूनिट बिजली खरीदने को मजबूर हैं? क्यों ग्रामीण इलाकों में वादे के विपरीत 15 से 20 घंटे की बिजली कटौती जारी है? ऐसे अनेक सवाल हैं जो दावों व हकीकत में भेद करते हैं। हर साल 2,000 करोड़ की चपत अपने संयंत्रों से उत्पादन बंद कर निजी कंपनियों से बिजली खरीदे जाने को लेकर सरकार की नीयत व नीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। आम आदमी पार्टी के आलोक अग्रवाल पहले ही यह आरोप लगाते रहे हैं कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की गरज से सरकार उपभोक्ताओं को मंहगी बिजली मुहैया करा रही है। मध्य प्रदेश शासन निजी विद्युत कंपनियों जैसे जेपी बीना पावर, जेपी निगरी, एमबी पावर, बीएमए पावर, लेंको अमरकंटक से बिजली को नियमानुसार प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार पर न खरीद कर महंगी बिजली खरीदी जा रही है। प्रदेश सरकार ने जेपी बीना पावर से साल भर पहले 1.35 करोड़ यूनिट बिजली करीब 52 करोड़ रुपए में खरीदी थी। इसी कंपनी को बीते साल मई, जून व जुलाई में बिना एक भी यूनिट बिजली खरीदे 150 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया गया। इस प्रकार इन कंपनियों से महंगी बिजली खरीद पर प्रदेश सरकार को दो हजार करोड़ रुपए प्रति वर्ष का नुकसान हो रहा है। आलोक कहते हैं कि दिल्ली और छत्तीसगढ़ राज्यों की अपेक्षा मध्य प्रदेश में बिजली की दर सबसे ज्यादा है। जबकि दूसरी ओर सरकार बिजली उत्पादन में सरप्लस स्टेट होने का दावा कर रही है। प्रदेश में इसलिए बढ़ रहा उत्पादन प्रदेश में बिजली उत्पादन के वैकल्पिक जरिए तेजी से विकसित हो रहे हैं। इंदौर-उज्जैन संभाग में भी सोलर एनर्जी, विंड एनर्जी, हाईड्रोलिक सिस्टम के जरिए निजी कंपनियां बिजली उत्पादन कर रही हैं। इन निजी कंपनियों की बिजली सरकारी प्लांट के मुकाबले काफी सस्ती है। हाईड्रोलिक बिजली उत्पादन भी इस समय भरपूर हो रहा है। प्रदेश में जितने भी निजी बिजली उत्पादक हैं, उनसे सरकार को कुल उत्पादन की छह फीसदी बिजली खरीदना अनिवार्य है। प्रदेश में जरूरत से अधिक बिजली खरीदी पर अफसरों का कहना है कि पिछले सालों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा क्षेत्र में प्रदेश में बहुत निवेश हुआ है। अभी 1300 मेगावाट तक (अधिकतम) बिजली इन गैरपरंपरागत क्षेत्रों से मिल रही है। ये बिजली पांच से आठ रुपए प्रति यूनिट पड़ती है। ग्रीन एनर्जी पैदा कर रही इन कंपनियों से अनुबंध के चलते महंगी बिजली खरीदना सरकार की बाध्यता है। मप्र पावर जनरेशन कंपनी के एमडी आनंद भैरवे कहते हैं कि जब रबी के सीजन में डिमांड बढ़ती है तब निजी क्षेत्र भी बिजली महंगी कर देते है। तब हम अपने पावर प्लांट पूरी ताकत से चलाएंगे और भरपूर बिजली देंगे और पैसा भी बचाएंगे। प्रदेश में एमबी पॉवर लिमिटेड नई दिल्ली ने अनूपपुर जिले के जैतहरी, बीना पॉवर सप्लाई लिमिटेड मुंबई ने सागर जिले के बीना, बीएलए पावर लिमिटेड मुंबई ने नरसिंहपुर जिले के गाडरवारा तहसील के निवारी में प्लांट लगाए हैं। इसी तरह जेपी निगरी नई दिल्ली द्वारा सिंगरौली जिले देवसर तहसील, झाबुआ पावर लिमिटेड नई दिल्ली द्वारा सिवनी जिले के घंसौर तहसील के बरेला और गोरखपुर में, सासन पावर लिमिटेड सिंगरौली द्वारा सिंगरौली में तथा एस्सार पावर लिमिटेड नई दिल्ली द्वारा सिंगरौली जिले के बैढऩ में बिजली यूनिट स्थापित कर विद्युत उत्पादन किया जा रहा है। राज्य सरकार द्वारा झाबुआ पावर और एस्सार पावर को छोड़ बाकी सभी निजी बिजली कंपनियों से बिजली की खरीदी की जा रही है। बिजली खूब, फिर भी मिल रही महंगी बिजली की किल्लत राज्य सरकारों की परेशानी का कारण बनी रहती है। लेकिन देश में एक राज्य ऐसा है जिसके लिए बिजली का अत्यधिक उत्पादन मुश्किलें खड़ी कर रहा है। इस मामले में एमपी गजब है। नदियों पर अंधाधुंध बिजलीघर बनाने का जो सिलसिला मध्यप्रदेश में 70 के दशक से शुरू हुआ, वह न्यूक्लियर, थर्मल और सोलर पावर के दौर में भी बदस्तूर जारी है। बिजलीघरों की उत्पादन क्षमता मांग को मीलों पीछे छोड़ चुकी है। फिर भी उपभोक्ताओं को महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है। फिलहाल मध्यप्रदेश में 17500 मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन की क्षमता है, जबकि गर्मियों में भी औसत मांग सिर्फ 7-8 हजार मेगावाट के आसपास रहती है। भरपूर बिजली उपलब्ध होने के बावजूद राज्य सरकार प्राइवेट बिजली कंपनियों से महंगी दरों पर खरीद के सौदे कर चुकी है। जबकि दूसरी तरफ मांग से अधिक उत्पादन क्षमता के चलते राज्य के कई बिजलीघर ठप पड़े हैं या फिर नाममात्र की बिजली पैदा कर रहे हैं। ऊर्जा के स्रोतों में निवेश और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बीच ऐसा भारी असंतुलन शायद ही कहीं देखने को मिले। मध्यप्रदेश में बिजली के नाम पर चल रहे गोरखधंधे उजागर होने लगे हैं। आम आदमी पार्टी की मध्यप्रदेश इकाई ने शिवराज सरकार पर प्राइवेट कंपनियों के साथ गैर कानूनी तरीके से बिजली खरीद के समझौते (पीपीए) कर सरकारी खजाने को करीब 50 हजार करोड़ रुपये के नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया है। आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल बताते हैं कि बिजली खरीद के बारे में सूचना के अधिकार के तहत कई चौंकाने वाली जानकारियां मिली हैं। राज्य सरकार ने 5 जनवरी, 2011 को एक ही दिन जबलपुर और भोपाल में छह बिजली कंपनियों के साथ बिजली खरीद के एग्रीमेंट कर लिए, जबकि भारत सरकार की बिजली खरीद नीति और राज्य सरकार के बिजली खरीद कानून के तहत ऐसे सौदे प्रतिस्पर्धी बोली के आधार पर ही किए जा सकते हैं। अग्रवाल के मुताबिक, इन समझौतों के तहत राज्य सरकार बिजली खरीदे या न खरीदे, उक्त कंपनियों को फिक्स्ड चार्ज के तौर पर 25 साल तक सालाना 2163 करोड़ रुपये का भुगतान करना ही पड़ेगा। आश्चर्यजनक है कि समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले दो अधिकारी गजराज मेहता और संजय मोहसे उस दिन संबंधित पद पर पदस्थ ही नहीं थे। तीन अधिकारियों एबी बाजपेयी, पीके सिंह और एनके भोगल ने एक ही दिन भोपाल और जबलपुर में समझौतों पर हस्ताक्षर किए। यह साफ बताता है कि समझौते फर्जी हैं। झाबुआ पावर से खरीदी गई 2.54 करोड़ यूनिट के लिए 214.20 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। यानी बिजली खरीद की दर 84.33 रुपये प्रति यूनिट आई। निजी कंपनियों से महंगी बिजली खरीदने के लिए खुद के बिजलीघरों को बंद रखने के आरोप भी शिवराज सिंह चौहान की सरकार पर लग रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इसे देश का सबसे बड़ा बिजली घोटाला करार दिया है। मध्यप्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि रीवा में बनने जा रहे एशिया के सबसे बड़े सोलर पावर प्लांट से दिल्ली मेट्रो को 2.97 रुपये प्रति यूनिट की दर पर बिजली मिलेगी, लेकिन प्रदेश की जनता बिजली के लिए 7.50 से 9.50 रुपये प्रति यूनिट चुकाने को मजबूर है। नरसिंहपुर निवासी किसान नेता विनायक परिहार कहते हैं कि जो राज्य दिल्ली तक सस्ती बिजली पहुंचा सकता है, वहां की जनता तीन गुना महंगी बिजली खरीदने के लिए बाध्य है। जबकि बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए मध्यप्रदेश के लोगों ने बड़ी कीमत चुकाई है। बिजली और सिंचाई के नाम पर नर्मदा घाटी में 277 बांध बन चुके हैं। यहां सरदार सरोवर जैसे छह हाइड्रो प्रोजेक्ट हैं। इन बांधों के निर्माण के लिए हजारों लोगों को उजाड़ा गया, लाखों हेक्टेयर भूमि डूब गई। लेकिन आज प्राइवेट सेक्टर को मौका देने के लिए सरकारी बिजलीघरों को ठप किया जा रहा है। अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा और सिंगाजी पावर प्लांट 40 प्रतिशत से भी कम क्षमता पर काम कर रहे हैं। परिहार पूछते हैं कि बिजली के नाम पर इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद आखिर क्या हासिल हुआ? बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के राजकुमार सिन्हा ने बताया कि 2007 से 2011 के बीच राज्य सरकार ने 91,160 मेगावाट विद्युत उत्पादन के 75 अनुबंध निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों से कर रखे हैं। इतने अधिक बिजली उत्पादन से सरकारी बिजली संयंत्रों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। बिजली की मांग नहीं होने के कारण नवंबर 2016 तक बगैर बिजली खरीदे 5513 करोड़ रुपये का भुगतान निजी कंपनियों को किया गया। जरूरत से ज्यादा बिजली होने के बावजूद मध्यप्रदेश में नए बिजलीघर बनाने की तैयारियां चल रही हैं। मध्यप्रदेश के चुटका में परमाणु विद्युत निगम (एनपीसीआईएल) द्वारा 1400 मेगावाट का परमाणु बिजली संयंत्र प्रस्तावित है। पिछले तीन दशक से इस परियोजना का भारी विरोध हो रहा है। लेकिन परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया जारी रही। नर्मदा किनारे खंडवा में सिंगाजी चरण एक, सिवनी में झाबुआ पावर और गाडरवारा में बी.एल.ए.पावर के बिजलीघर बन चुके हैं। इन तीनों बिजलीघरों से महंगी बिजली होने के कारण राज्य विद्युत नियामक आयोग के टैरिफ आदेश में इनसे बिजली खरीदने को मना कर दिया गया है। लेकिन एक यूनिट बिजली खरीदे बिना भी इन तीनों परियोजनाओं के लिए फिक्स्ड चार्ज राज्य सरकार को देना होगा क्योंकि ये समझौते 25 साल के लिए हैं। इन बिजलीघरों के अतिरिक्त नर्मदा किनारे तीन और बिजलीघर निर्माणाधीन हैं। अगले दो साल बाद एनटीपीसी के पावर प्लांट और रीवा सोलर पावर प्लांट से लगभग 4000 मेगावाट विद्युत प्रदेश को मिलने लगेगी। तब राज्य में बिजली उत्पादन क्षमता 20,000 मेगावाट से भी अधिक हो जाएगी। नए-नए बिजलीघर बनवाने और सरकारी पावर प्लांट बंद रखने को राजकुमार सिन्हा एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा मानते हैं। दूसरी ओर बिजली की अधिकतम उपलब्धता के बावजूद हकीकत यह है कि प्रदेश के 117 गांवों और 46 लाख घरों में बिजली नहीं पहुंची है। निजी संयंत्रों से विद्युत क्रय अनुबंध के कारण मध्यप्रदेश विद्युत मैनेजमेंट कंपनी को भारी घाटा हो रहा है। पिछले चार साल मे मैनेजमेंट कंपनी को 9,288 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। जिसकी भरपाई बिजली दर बढ़ाकर उपभोक्ताओं से की जा रही है। सब्सिडी में 4000 करोड़ का घोटाला आम आदमी पार्टी (आप) ने आरोप लगाया है कि प्रदेश में किसानों के नाम पर चार हजार करोड़ रुपए की बिजली की सबसिडी का घोटाला हुआ है। आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल ने आरोप लगाया है कि विद्युत नियामक आयोग ने 2017-18 में कृषि में इस्तेमाल आने वाले सिंचाई पंपों के लिए प्रदेश में 2075 करोड़ यूनिट बिजली का अनुमान बताया था। इतनी बिजली के लिए करीब 8400 करोड़ रुपए सबसिडी कंपनियों को दी गई। आप प्रदेश संयोजक का कहना है कि आयोग के निर्धारित मापदंडों के हिसाब से कृषि के लिए किसान तीन और पांच हॉर्स पॉवर के पंप व अस्थाई कनेक्शन में कृषि पंपों के माध्यम से वास्तव में 1519 करोड़ यूनिट बिजली का उपयोग करता है। मगर जून से सितंबर के बीच सिंचाई की जरूरत नहीं होती और अक्टूबर से मार्च की अवधि में सिंचाई पंपों पर वास्तव में 70 फीसदी बिजली की खपत होती है जो 1063 करोड़ यूनिट होता है। अग्रवाल ने कहा कि मप्र सरकार के केंद्र सरकार से समूह ट्रांसफार्मरों पर मीटर लगाने के अनुबंध के बाद भी 3.21 लाख समूह ट्रांसफार्मर में से 45 हजार ही लगे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि किसानों के नाम पर बिजली चोरी और सबसिडी घोटाला किया जा रहा है।

मंगलवार, 21 मार्च 2017

हाउसिंग बोर्ड ने उड़ाई 400 परिवारों की नींद

2,80,00,00,000 रूपए हड़पकर चैन की बंसी बजा रहा बोर्ड
भोपाल। मध्यप्रदेश सचमुच में अजब है गजब है। एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान करते फिर रहे हैं कि उनकी सरकार प्रदेश की धरती में जन्म लेने वाले हर एक उस व्यक्ति को जमीन देगी, जिनके पास रहने के लिए मकान नहीं है। पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव घोषणा करते हैं कि मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री (ग्रामीण) आवास योजना में अतिरिक्त लक्ष्य के अंतर्गत 6 लाख 33 हजार 351 आवासों का निर्माण किया जायेगा। प्रदेश में यह किसी भी आवास योजना में सर्वाधिक आवासों का निर्माण है। यह आवास निर्माण पूर्व में जारी ग्रामवार लक्ष्य के अतिरिक्त निर्मित किए जाएंगेे। दोनों घोषणाएं प्रदेश के आमजन के लिए खुशी का संदेश लेकर आई हैं। लेकिन क्या यह खुशी बरकरार रह पाएगी? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि सर्व सुविधायुक्त आशियाने का हवाई सपना दिखाकर मप्र हाउसिंग बोर्ड ने 400 परिवारों से 2,80,00,00,000 रूपए हड़प लिया है। प्रभावितों में आईएएस, आईपीएस, नेता, पत्रकार और अन्य रसूखदार हैं। रोटी, कपड़ा और मकान एक आम व्यक्ति की जररूत है। रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो वह जैसे-तैसे कर लेता है लेकिन, मकान एक बड़ी समस्या है। महंगाई के कारण शहरी इलाकों में तो मध्यमर्गीय परिवार के लिए स्वयं का मकान बनवाना मुश्किल होता जा रहा है। प्रदेश में आवासों की कमी की समस्या को हल करने के लिए वर्ष 1972 में हाउसिंग बोर्ड की स्थापना की गई थी। लेकिन बोर्ड में बाबू राज होने के कारण आज स्थिति यह हो गई है कि बोर्ड की आवासीय योजनाओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया है। बोर्ड के बाबू राज का खामियाजा राजधानी की सबसे महंगी आवासीय योजना कीलनदेव, महादेव और तुलसी टॉवर के आवंटी उठा रहे हैं। इनमें प्रदेश के दो डीजीपी नंदन दुबे और सुरेंद्र सिंह, कई जज और कई आईएएस, आईपीएस हैं। ज्ञातव्य है कि बोर्ड ऑफिस और तुलसी नगर में 2010 में हाउसिंग बोर्ड ने तीन प्रोजेक्ट लांच किए थे। कीलनदेव, महादेव और तुलसी टॉवर नाम से लांच परियोजना में बोर्ड द्वारा सर्व सुविधायुक्त आशियाने का सपना दिखाया गया और लोगों से 7 लाख पंजीयन शुल्क लेकर जल्द ही आवास मुहैया कराने का वादा किया गया। लेकिन बोर्ड के अधिकारी भू-माफिया की तरह लोगों से किस्त पर किस्त लेते रहे और उस रकम से ऐश करते रहे। आज छह साल बाद बोर्ड 400 लोगों से 70-70 लाख रूपए ले चुका है, लेकिन ये तीनों परियोजना अभी भी अधर में हैं। गलती किसी की दंड किसी को मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड में मकानों की कीमत बढ़ाने का दंडनीय अपराध तत्कालीन आयुक्त, अफसर और इंजीनियरों ने मिलकर किया लेकिन दंड मिला हितग्राहियों को-जिन्होंने 16 प्रतिशत से लेकर 22 प्रतिशत तक ब्याज भुगता और प्रोजेक्ट में देरी के कारण आज तक ब्याज भुगतते हुए बोर्ड के चक्कर काट रहे हैं। हाउसिंग बोर्ड में मकान बुक कराने वाले ज्यादातर सरकारी और प्राइवेट नौकरी वाले हितग्राही होते हैं। जिनकी आमदनी का स्रोत वेतन, जीपीएफ और लोन आदि है। हाउसिंग बोर्ड का प्रोजेक्ट लोन लेकर बुक कराया जाता है। जो लोन बैंक से लिया है उस पर तो ब्याज चढ़ता ही है, हाउसिंग बोर्ड भी किस्त समय पर न देने की स्थिति में 14 प्रतिशत ब्याज वसूलता है। वहीं हितग्राही के जमा पैसे पर 7 प्रतिशत ब्याज देता है, लेकिन हितग्राही की कमर उस वक्त टूटती है, जब ऊंची ब्याज दरों पर लोन चुका रहे हितग्राही को यह फरमान सुनाया जाता है कि कलेक्टर गाइडलाइन के कारण जमीनों के दाम बढऩे से प्रोजेक्ट की कीमत दोगुनी हो चुकी है। लेकिन वह हाउसिंग बोर्ड से टकरा नहीं सकता। क्योंकि हाउसिंग बोर्ड सरकारी भू-माफिया है क्योंकि कोई भी रियल स्टेट का धंधा घाटे का नहीं होता। तत्कालीन आयुक्त अफसरों की मिलीभगत से प्रोजेक्ट की बुकिंग तो ले ली परंतु आवश्यक अनुमतिया बगैर इस प्रोजेक्ट को चालू करना और आवंटियों से बुकिंग अमाउंट लेकर धोखाधड़ी हुई है। आवंटी कहते हैं कि यह चार सौ बीसी नहीं तो क्या है सरकारी एजेंसी समझकर हमने सरकार को पैसा दिया है और पैसे दिए हुए 7 साल हो गए हंै यह एक क्रिमिनल सजा के बराबर है। कीलनदेव और तुलसी में काम अधूरा शिवाजी नगर में विकसित हो रहे तुलसी टॉवर, कीलनदेव और महादेव में से महादेव परिसर मामूली कामों को छोड़कर पूर्ण हो गया है। जबकि कीलनदेव और तुलसी टावर में आधे के लगभग काम बचा हुआ है। तीनों परियोजनाएं बोर्ड ने 2010 में लांच की थीं। बोर्ड ने अपने विज्ञापन में 24 से 36 माह के बीच प्रोजेक्ट्स पूरे कर देने का भरोसा ग्राहकों को दिलाया था। बोर्ड ने 72 माह से ज्यादा समय में महादेव परिसर का काम पूरा किया। इस परिसर में 10 प्रतिशत के लगभग का काम अभी भी बाकी है। बोर्ड के वायदे के विपरीत 77 माह का वक्त दो अन्य परिसरों (कीलनदेव और तुलसी टॉवर) को लेकर बीत चुका है। ये कब पूरे हो पायेंगे? इसकी एक सुनिश्चित तारीख दे पाने में बोर्ड असमर्थ है। परिसरों में 400 के लगभग परिवारों ने अपने घर बुक किये। तुलसी टॉवर में 100 फ्लैट, कीलनदेव प्रोजेक्ट में 196, महादेव अपार्टमेंट में 96 फ्लेट्स हैं। आलम यह है कि वर्ष 2010 में लॉन्च यह प्रोजेक्ट तीन साल यानी 2013 में पूरा हो जाना चाहिए था। उस समय महादेव अपार्टमेंट के 96 फ्लैट्स की कीमत 28 से लेकर 60 लाख रुपये के बीच रखी गई थी। इसी तरह कीलन देव टॉवर में 196 फ्लैट्स की कीमत 35 से 70 लाख रुपये और तुलसी टॉवर में भव्य 100 फ्लैट्स की कीमत 65 से 85 लाख के बीच रखी गई थी। लेकिन 3 साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी उन्हें नहीं बताया जा रहा है कि आखिर कब तक उन्हें उनके आवास सौंपे जाएंगे। जबकि अनुमान से 40 प्रतिशत ज्यादा पैसे का भार उपभोक्ताओं पर थोपा जा चुका है। अपने घर का सपना प्रत्येक व्यक्ति देखता है। सपना देखने वाला जीवन भर की कमाई घर खरीदी में लगाता है। उपरोक्त प्रोजेक्ट में घर बुक करने वालों के साथ भी यही स्थिति है। घर का सपना देखने वाले बोर्ड द्वारा बुकिंग के वक्त तय की गई कीमत का पूरा अंश बोर्ड को जमा कर चुके हैं। बोर्ड ने घर देते वक्त महादेव अपार्टमेंट में 40 फीसदी के लगभग कीमतें बढ़ा दीं। कीमतों में अनाप-शनाप और तथाकथित नियमों का हवाला देकर बोर्ड द्वारा की गई वृद्धि ने लोगों के सपने को चकनाचूर कर दिया है। बोर्ड के फैसले के विरोध में महादेव परिसर के कुछ खरीददार कोर्ट गये हैं। बोर्ड की जो भी योजना शुरू होती है वह समय पर पूरी नहीं होती है। जब योजना पूरी होती है तो उपभोक्ताओं से तय मूल्य से 50 प्रतिशत से अधिक तक की वसूली भी की गई है। ऐसे कई मामले न्यायालय और बोर्ड के अधीन विचाराधीन हैं। रिवेरा का फैसला आते ही 10 साल से अधिक का समय लग गया। कीलनदेव टॉवर और तुलसी टॉवर के फ्लेटों में बुकिंग करने वालों को भी कीमतें बढ़ाने का आधा-अधूरा नोटिस बोर्ड भेज चुका है। कितनी कीमत बढ़ाई जा रही है? इसका खुलासा नहीं किया गया है। खरीददारों में हड़कंप और भारी निराशा का भाव है। 400 परिवार हो रहे परेशान प्राइवेट बिल्डर और भू-माफिया से ठगे जाने के डर से लोगों को हाउसिंग बोर्ड से काफी उम्मीद थी। सरकारी एजेंसी और मौके की जगह को देखते हुए प्रोजेक्ट में घर पाने के लिए जमकर होड़ मची थी। लॉटरी के जरिए आवंटन होना था। किस्मत ने जिसका साथ दिया उसे घर अलॉट हो गया। जिनके नामों की लॉटरी खुली उन्होंने भरपूर जश्न मनाया। जश्न मनाने वाले आज जार-जार आंसू बहा रहे हैं। दरअसल, छह सालों में हाउसिंग बोर्ड महज महादेव टावर का काम ही पूरा कर पाया है। हालांकि, कुछ काम आज भी महादेव परिसर में बचे हुए हैं। कुल 92 घरों में 2010 में घर बुक करने वाले चार-पांच लोगों ने ही सशर्त रजिस्ट्रयां कराई हैं। असल में महादेव परिसर में बुकिंग के वक्त की राशि में 40 फीसदी से ज्यादा दाम बोर्ड ने बढ़ा दिये हैं। लेटलतीफी खुद बोर्ड ने की और कीमतों में वृद्धि का बोझ ग्राहकों के सिर फोड़ा। प्रोजेक्ट लांच के वक्त तय की गई पूरी-पूरी कीमत चुका देने वाले कीलनदेव और तुलसी टावर के ग्राहकों के हाल बेहद बुरे हैं। असल में इन परियोजनाओं में अभी 50 फीसदी काम बाकी है। लेकिन 16 दिसंबर को निर्माण कंपनी एमबीएल का ठेका निरस्त होने से काम बीच में ही लटक गया है। हालांकि बोर्ड के सूत्रों का कहना है कि कंपनी ने फिर से काम शुरू करने की मंसा जाहिर की है। इस संदर्भ में अधिकारियों से चर्चा हो रही है। उपभोक्ताओं पर कई तरह के डाले गए भार उपभोक्ताओं का कहना है कि प्लाट या मकान का मूल्य निर्धारण सूची देखें तो यह साफ हो जाता है कि हाउसिंग बोर्ड की योजनाओं में प्लाट खरीदने वालों को कई और ऐसे भुगतान करने पड़ते हैं जिसके लिए वे सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं। उदाहरण के लिए योजनाओं में जो प्लाट या मकान अनबिके रह जाते हैं उनमें लगने वाले संपत्तिकर, ब्याज के भुगतान की वसूली तो दूसरे उपभोक्ताओं में समान रूप से वितरित कर ही दी जाती है। बड़ा हास्यास्पद तथ्य यह है कि योजनाओं के दौरान होने वाले कानूनी विवाद में हुए खर्च की भरपाई भी उस उपभोक्ता से ही की जाती है जिसका उस कानूनी विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। हाउसिंग बोर्ड जमीन अधिग्रहण से लेकर उसको विकसित करने के दौरान सुपरवीजन चार्ज की वसूली तो करता ही है कंटनजेंसी के नाम पर भी एक अच्छी खासी राशि का डाका उपभोक्ताओं की जेब पर डाला जाता है। लागत मूल्य का 30 से 40 प्रतिशत तक जहां पहले ही वसूल लिया जाता है। वहीं बोर्ड की योजना के विज्ञापन में लगने वाले भारी-भरकम खर्चे की वसूली भी उपभोक्ताओं से ही की जाती है। खामियाजा हम क्यों भुगतें तुलसी टॉवर, कीलनदेव और महादेव अपार्टमेंट के आवंटी विगत दिनों हाउसिंग बोर्ड के दफ्तर पहुंचे और बोर्ड चेयरमैन कृष्णमुरारी मोघे व कमिश्नर नीतेश व्यास को व्यथा सुनाई। इन्होंने पूछा कि जब प्रोजेक्ट का काम बोर्ड की गलती से पिछड़ा है तो इसका खामियाजा हम क्यों भुगतें? बोर्ड बैठक में कीलनदेव व तुलसी अपार्टमेंट की कीमत मौजूदा कलेक्टर गाइडलाइन पर फ्रिज करने का प्रस्ताव आना था, लेकिन विरोध के चलते इसे टाल दिया गया। संचालक मंडल की बैठक में तय हुआ कि बोर्ड अपनी महत्वपूर्ण योजनाओं में अब ग्रीन बिल्डिंग कंसेप्ट लागू करेगा। इसके लिए केंद्र सरकार की एजेंसी ग्रिहा से अनुबंध किया जाएगा। बैठक के बाद मोघे ने संचालक मंडल के अन्य सदस्यों के साथ अनौपचारिक चर्चा की। बोर्ड मेंबर आवंटियों की मांग से सहमत नजर आए, लेकिन हल नहीं निकल सका। तीनों अपार्टमेंट के आवंटी 2013 की गाइडलाइन पर रेट फ्रिज करने की मांग कर रहे थे। महादेव अपार्टमेंट आवंटी एसोसिएशन के चेयरमैन डॉ. अशोक चड्ढा और कीलनदेव एसोसिएशन के अमित जैन सहित करीब पचास आवंटी अपने परिवार के साथ बोर्ड मुख्यालय पहुंचे थे। आवंटियों ने मोघे से कहा कि 2010 में लॉन्च योजना के लिए 2012 में वर्क ऑर्डर जारी हुआ। साफ है कि इसे लेट होना तय था। उधर बोर्ड के अधिकारियों का कहना है कि महादेव अपार्टमेंट 2015 में ही बनकर तैयार हो गया था। सारी अनुमतियां 2015 में ही ले ली गईं थीं। नई गाइडलाईन के अनुसार महादेव अपार्टमेंट के लिए जो नीति तय की गई है उससे आवंटियों को 15 लाख रुपए की राहत मिली है। जबकि महादेव के संदर्भ में डॉ. अशोक चड्ढा ने आरटीआई में जानकारी मांगी तो 90 दिन हो गए, लेकिन अभी तक जानकारी नहीं दी गई है। अब 8 महीने बाद मिल पाएगा पजेशन इसके पहले आवंटी आयुक्त नीतेश व्यास से मिलने पहुंचे। उन लोगों ने पूछा कि आखिर हमें अपना मकान कब मिलेगा। इस पर व्यास ने कहा कि नई एजेंसी जल्द ही काम शुरू करेगी। इसके लिए टेंडर निकाला जा रहा है। लेकिन वे यह नहीं बता सके कि बोर्ड आवंटियों को उनके फ्लेट्स कब तक सौंपेगा। हाउसिंग बोर्ड के कीलनदेव और तुलसी टॉवर्स का जितना काम बचा हुआ है, उसे पूरा करने के अब फिर से टेंडर होंगे। दोबारा टेंडर फाइनल होने के 8 महीने के बाद ही बोर्ड लोगों को फ्लैट्स के पजेशन दे सकेगा। हाउसिंग बोर्ड ने टेंडर की प्रक्रिया शुरू कर दी है। दोनों टॉवरों का दोबारा मूल्यांकन हो चुका है। शार्ट टर्म में बोर्ड एक से अधिक कंपनियों को काम दिया जा सकता है। जिन्हें कम से कम 8 महीने के भीतर काम पूरा करना होगा। हाउसिंग बोर्ड के उपायुक्त एसके मेहर ने बताया दोबारा मूल्यांकन में प्रोजेक्ट की लागत में कोई अंतर नहीं आया है। पहले की लागत पर ही अगले ठेके के टेंडर डाले जाएंगे। काम भी जल्दी पूरा कराएंगे। सांसत में कीलनदेव और तुलसी के आवंटी हाउसिंग बोर्ड शिवाजी नगर में निर्माणाधीन महादेव अपार्टमेंट में 6 साल पहले की गई बुकिंग के मुकाबले चालीस फीसदी अधिक राशि वसूल रहा है। फ्लैट बुक करने वालों को नोटिस जारी किए गए हैं। बोर्ड का तर्क है कि रिवेयरा टाउनशिप के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए निर्देशों को आधार मानकर नई कीमतें तय की गईं हैं। बुकिंगधारियों का कहना है कि स्वतंत्र बंगलों व फ्लैट के लिए एक नीति कैसे लागू की जा सकती है। दरअसल, रिवेयरा टाउनशिप में बंगलों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के खिलाफ यहां के खरीदारों ने बोर्ड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक कानूनी लड़ाई लड़ी थी। बोर्ड प्रोजेक्ट पूरा होने पर उस वर्ष की कलेक्टर गाइड लाइन के आधार पर कीमत वसूलता था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खरीददारों को उनके द्वारा पूर्व में जमा राशि पर ब्याज का लाभ देने और बुकिंग वाले वर्ष की कलेक्टर गाइड लाइन से निर्माण वर्ष तक 10 प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज वसूलने की नीति तय की गई। महादेव आवंटी संघ के अध्यक्ष अशोक चड्ढा कहते हैं कि महादेव अपार्टमेंट के लिए रिवेयरा टाउनशिप की नीति लागू करना समझ से परे है। हमने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। हाउसिंग बोर्ड के अपर आयुक्त एसके मेहर का दावा है कि महादेव टॉवर में 20 खरीदारों ने रजिस्ट्री करा ली है। इसमें से 2 परिवार रहने भी पहुंच गए हैं। वहीं चड्ढा का कहना है कि महादेव टॉवर में बोर्ड ने बाद में पेंट हाउस बनाए है जिन्हें सीधी बोली के तहत बेचा गया। उन खरीदारों ने रजिस्ट्री कराई है। डॉ. चड्ढा ने कहा जब तक गाइड लाइन से हटकर बढ़ाई गई कीमत वाले मामले का निराकरण नहीं होगा। कोई खरीदार रजिस्ट्री नहीं कराएगा। उधर कीलनदेव अपार्टमेंट सोसायटी के अध्यक्ष अमित जैन ने कहा कि बोर्ड अपनी लापरवाही का पैसा भी हमसे लेने की तैयारी कर रहा है। मई 2010 में हुई लॉटरी के समय दावा किया गया था कि महादेव अपार्टमेंट 24 कीलनदेव 30 और तुलसी अपार्टमेंट 36 महीने में बन कर तैयार हो जाएंगे। लगातार देरी हो रही है। प्रोजेक्ट में हो रही देरी के लिए बोर्ड के अधिकारी और निर्माण एजेंसियां दोषी हैं, लेकिन सजा हमें भुगतनी पड़ रही है। 2013 में पूरा भुगतान लेने के बाद भी बढ़ा दी 40 फीसदी कीमत महादेव आवंती संघ के अध्यक्ष अशोक चड्ढा कहते हैं कि बोर्ड लोगों को सस्ती दरों पर आवास उपलब्ध कराने के लिए बना है, लेकिन वह अपने उद्देश्य से भटक रहा है। वह कहते हैं कि महादेव अपार्टमेंट के आवंटियों से बोर्ड ने 2013 तक फ्लेट्स के सारे भुगतान ले लिए थे, लेकिन उसके बाद भी अभी तक फ्लेट्स नहीं सौंपे गए हैं। उस पर 40 फीसदी कीमत की बढ़ोतरी कर दी गई है। वह कहते हैं कि एक तरफ जहां प्राइवेट बिल्डर बुकिंग के समय तय कीमत पर ही नियत समय के भीतर मकान सौंप रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बोर्ड जानबूझकर अपने उपभोक्ताओं को परेशान कर रहा है। बोर्ड की इस धोखाधड़ी से परेशान कुछ लोग कोर्ट चले गए हैं। वहीं हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष कृष्ण मुरारी मोघे कहते हैं कि बोर्ड सुप्रीम कोर्ट और कलेक्टर गाइड लाइन के बाहर नहीं जाएगा। जनता को 80 लाख का फ्लेट 60 लाख में मिल रहा है। बोर्ड यह भी कोशिश कर रहा है कि आवंटियों द्वारा समय पर पैसा नहीं देने पर लिया जाने वाला ब्याज भी कम किया जाए। वह कहते हैं कि सरकार का काम ठेकेदार की वजह से लेट हुआ है। एक आध साल में क्या फर्क पड़ता है। विलंब पर जवाबदेही तय होगी: माया सिंह नगरीय विकास एवं आवास मंत्री माया सिंह ने मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल की आवास परियोजना के निर्माण में विलंब होने और समय पर उपभोक्ताओं को आवास नहीं देने पर गहरी नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने इसके लिये मण्डल की जवाबदेही तय करने और निर्माण एजेंसी के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने को कहा। माया सिंह ने गत दिनों मण्डल की बोर्ड ऑफिस स्थित आवास परियोजना तुलसी, कीलनदेव और महादेव का निरीक्षण किया। उन्होंने तुलसी और कीलनदेव कॉम्पलेक्स का निर्माण अधूरा होने, कार्य की गति धीमी होने पर असंतोष व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि मण्डल की यह जिम्मेदारी थी कि वह निरंतर इन परियोजनाओं की प्रगति का आंकलन करे और तय समय पर लोगों को मकान मिलना सुनिश्चित करे। उन्होंने कहा कि इसमें कोताही की गयी है। श्रीमती सिंह ने इस संबंध में सभी जानकारियों के साथ मण्डल अधिकारियों को तलब किया है। उन्होंने कहा कि वे यह देखेंगी कि इन आवास इकाइयों के निर्माण में किस स्तर पर विलंब हुआ है। श्रीमती सिंह ने कहा कि ठेकेदार द्वारा अगर विलंब किया गया है, तो उसके खिलाफ समय रहते कार्यवाही की जाना चाहिये। मंत्री श्रीमती सिंह ने इस मौके पर उपस्थित आवास इकाइयों के उपभोक्ताओं को आश्वस्त किया कि उन्हें शीघ्र ही न्यायोचित आधार पर आवास का पजेशन दिलवाया जायेगा। नगरीय प्रशासन एवं आवास मंत्री मायासिंह कहती हैं कि मैंने तीनों प्रोजेक्ट का दौरा कर अधिकारियों से चर्चा कर एडीशनल कमिश्नर से रिपोर्ट मांगी थी जो मुझे अभी तक नहीं मिली है। जल्द ही जांच रिपोर्ट मंगाई जाएगी। आवंटियों की समस्या को देखते हुए बोर्ड अध्यक्ष और आयुक्त के साथ संयुक्त बैठक कर समस्या का समाधान निकाला जाएगा। हाउसिंग बोर्ड के कमिश्नर नीतेश व्यास कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के आधार पर ही नई नीति बनाई है। यह बात आवंटियों को बता दी गई है। नई नीति में उन्हें काफी राहत दी गई है। अवैध कालोनी की बुकिंग में फंसे 3000 हाउसिंग बोर्ड एक सरकारी ऐजेंसी है और लोग भरोसा करते हैं कि हाउसिंग बोर्ड की संपत्तियों में किसी भी तरह की गड़बड़ी नहीं होगी, लेकिन ऐसा हो गया। हाउसिंग बोर्ड ने बिना टीएनसीपी परमिशन के अवैध कालोनी का प्रोजेक्ट लांच कर दिया और लगभग 3000 ग्राहकों की बुकिंग भी कर ली। जिस जमीन पर यह प्रोजेक्ट लांच किया गया, हकीकत में वह रिहायशी नहीं बल्कि खेती की जमीन है। यहां मकान बनाना अवैध माना जाता है। समाचार लिखे जाने तक हाउसिंग बोर्ड के पास टीएनसीपी की परमिशन नहीं थी। भोपाल सहित अन्य शहरों में ऐसे ही नौ प्रोजेक्ट के 2873 ईडब्ल्यूएस और एलआईजी फ्लैट्स का निर्माण लैंडयूज में बदलाव की इजाजत लेने के फेर में फंस गए हैं। हाउसिंग बोर्ड ने राजधानी के बैरागढ़ चीचली में गौरव नगर प्रोजेक्ट लॉन्च किया है। इसके तहत 384 ईडब्ल्यूएस और 816 एलआईजी फ्लैट बनाए जाने हैं। इसके लिए करीब डेढ़ साल पहले बुकिंग भी कर ली गई थी, लेकिन अब तक यहां एक ईंट भी बोर्ड नहीं रख पाया। इसके अलावा बड़वानी, कटनी, छिंदवाड़ा, मंडला, मुरैना, रीवा, उमरिया और अनूपपुर में अटल आश्रय योजना के तहत फ्लैट का निर्माण होना है। इन सभी प्रोजेक्ट के लिए मिली जमीन का लैंडयूज अभी भी कृषि है, इसे आवासीय किया जाना है। जब तक लैंड यूज नहीं बदलेगा, तब तक निर्माण शुरू नहीं होगा। प्रोजेक्ट में देरी होगी तो यह समय पर पूरे भी नहीं हो पाएंगे। हाउसिंग बोर्ड के गौरव नगर प्रोजेक्ट के लिए बुकिंग की प्रक्रिया पिछले साल से चल रही है। पिछले साल इस प्रोजेक्ट को बोर्ड ने महाबडिय़ा कला में शुरू किया था। इसके तहत तीन बार आवेदन भी बुलाए गए थे, लेकिन लोगों ने यहां बुकिंग के लिए दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके बाद बोर्ड ने प्रोजेक्ट को बैरागढ़ चीचली में ट्रांसफर कर दिया। अभी इसमें बुकिंग चल रही है। पहले भी गलती कर चुका है बोर्ड हाउसिंग बोर्ड ने वर्ष 2009 में करोंद मंडी के सामने देवकी नगर प्रोजेक्ट लॉन्च किया था। इस प्रोजेक्ट के तहत एलआईजी मकान बनाए जाने थे। इनके लिए 150 लोगों ने बुकिंग भी करा ली थी। बुकिंग के बाद हाउसिंग बोर्ड ने लोगों को बताया था कि जिस जमीन पर प्रोजेक्ट है, वह यातायात लैंडयूज की है। इसके चलते बोर्ड को परमिशन ही नहीं मिल पाई। आखिरकार प्रोजेक्ट निरस्त हो गया। हाउसिंग बोर्ड का सुरम्य परिसर प्रोजेक्ट भी निरस्त हो चुका है। यह प्रोजेक्ट अयोध्या एक्सटेंशन में बनना था, इसमें सिर्फ छह बुकिंग हुई थी। बोर्ड ने प्रोजेक्ट को छह साल पहले लॉन्च किया था। इसके बाद इस प्रोजेक्ट को भी निरस्त कर दिया गया था। प्रोजेक्ट गलत तरीके से बना था। सफेद हाथी बन कर रह गए प्राधिकरण जहां हाउसिंग बोर्ड अपनी लेटलतीफी और लापरवाही के कारण उपभोक्ता परेशान हो रहे हैं वहीं प्रदेशभर के विकास प्राधिकरण भ्रष्टाचार की जद में हैं। प्रदेश के ज्यादातर शहरों के प्राधिकरण अब सफेद हाथी की तरह हो गए हैं। घोटालों से दागदार और कंगाल हो चुके प्राधिकरणों के अस्तित्व पर सवाल उठना लाजिमी है। इंदौर विकास प्राधिकरण (आइडीए) के पास धन की इतनी कमी है कि उसे बाजार से कर्ज लेने की नौबत आ गई है। आम जनता को सस्ती दर पर मकान मुहैया करवाने के लिए काम शुरू किया था लेकिन अचानक ही योजना को ठप कर दिया गया। अब यह जमीन निजी बिल्डरों के हाथ में है। आइडीए के खिलाफ ऐसे 11 मामलों की जांच चल रही है। घोटालों के मामले में भोपाल विकास प्राधिकरण (बीडीए) भी पीछे नहीं है। बागमुगलिया इलाके में बीडीए के अधिकारियों ने 125 एकड़ जमीन को गलत तरीके से अनापत्ति प्रमाणपत्र देकर कब्जा छोड़ दिया। बाद में यहां बिल्डरों ने शॉपिंग मॉल और आवासीय क्षेत्र विकसित करके करोड़ों रु। कमाए। इस मामले की जांच दबा दी गई। ग्वालियर विकास प्राधिकरण (जीडीए) तो अभूतपूर्व घोटालों को अंजाम दे रहा है। जीडीए ने आवासीय कॉलोनियां विकसित करने के लिए सरकारी जमीन का अधिग्रहण किया था। बाद में यह जमीन निजी कॉलोनाइजरों को दे दी गई। ऐसी दो दर्जन से ज्यादा गृह निर्माण समितियों का घोटाला जब सामने आया तो उनकी फाइलें जीडीए से गायब हो गईं। जीडीए ने अनुमान लगाए बिना ही कई इलाकों में मकान-दुकानों का निर्माण करवा दिया, लेकिन यहां इन्हें खरीदार ही नहीं मिल रहे। करोड़ों रु. खर्च करके बनाए गए शॉपिंग मॉल में कोई दुकान नहीं खरीद रहा है। ऐसे में प्राधिकरण की आर्थिक स्थिति लगातार खराब हो रही है। ग्वालियर के ही एक अन्य प्राधिकरण, विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण (साडा) ने 200 करोड़ रु. की लागत से 3,000 हेक्टेयर क्षेत्र में नया शहर बसाया है। लेकिन यहां भी उसे खरीदार नहीं मिल रहे। जबलपुर, उज्जैन और देवास के प्राधिकरण भी पैसे की कमी से जूझ रहे हैं और घोटालों के आरोपों से दो-चार हो रहे हैं। प्राधिकरणों की खस्ता हालत पर भोपाल के स्कूल ऑफ प्लानिंग ऐंड आर्किटेक्चर की प्रोफेसर सविता राजे कहती हैं, प्राधिकरण को निगम में मर्ज करने पर केंद्रीकृत काम होगा। अभी समन्वय नहीं होने से योजनाएं कई साल तक अटकी रहती हैं। संविधान के 74वें संशोधन के बाद प्राधिकरणों का अस्तित्व वैसे भी खत्म कर दिया जाना चाहिए था क्योंकि इसके तहत शहरों के विकास की जिम्मेदारी नगरीय निकायों को दी जा चुकी है। इधर आवास की गारंटी की तैयारी एक तरफ एमपी हाउसिंग बोर्ड और विकास प्राधिकरण अपने कर्तव्य में फेल हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सरकार मप्र में आर्थिक रूप से कमजोर और निम्न आय वर्ग के आवासहीन और जिनके पास आवासीय जमीन भी नहीं है, उनके लिए सरकार आवास गारंटी कानून लाएगी। कानून के दायरे में आने वालों को किफायती दर पर आवास या प्लॉट दिया जाएगा। कानून इसी साल लागू हो सकता है। इसके लिए नगरीय विकास विभाग ने कानून का मसौदा तैयार कर लिया है। इस योजना के लागू होते ही मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य होगा जहां आवास गारंटी योजना शुरू होगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर शुरू होने जा रही इस योजना का लाभ मध्यप्रदेश के मूल निवासियों (राज्य शासन की भेद परिवर्तन की परिभाषा के तहत) को इसका लाभ मिल पाएगा। इस योजना के तहत आवासों का आवंटन दो तरह से किया जाएगा। एक आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए और दूसरा निम्न आय वर्ग के लिए। आर्थिक रूप से कमजोर आय वर्ग वालों के लिए 30 वर्गमीटर में निर्मित तीन लाख रुपए की लागत से बना आवास दिया जाएगा। वहीं निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए 45 वर्गमीटर में 6 लाख रुपए की लागत से निर्मित आवास दिए जाएंगे। इस योजना का क्रियान्वयन ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों के माध्यम से तथा शहरी क्षेत्र में नगर निगम या नगर पालिका के माध्यम से किया जाएगा। इस योजना का प्राधिकृत अधिकारी डिप्टी कलेक्टर होगा। इस योजना के लिए पात्र हितग्राहियों की तलाश की जाएगी। इसके लिए समितियां बनाई जाएंगी। ये समितियां पात्र व्यक्तियों का पंजीयन करेंगी। पात्र परिवार मेंं पति-पत्नी और 25 साल से कम आयु के बच्चे शामिल रहेंगे। अगर परिवार में कोई विधवा या तलाकशुदा है तो उसे भी पात्र माना जाएगा। पात्र परिवार से सस्ती दर पर मकान या प्लॉट के लिए पात्रता के दस्तावेज लिए जाएंगे। ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इसके मसौदे को पूर्व मुख्य सचिव एंटोनी डिसा की अध्यक्षता वाली वरिष्ठ सचिव समिति ने मंजूरी दे दी थी। ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक सभी आवासहीनों को आवास देने की घोषणा की है। इसके मद्देनजर सभी राज्य सरकारें योजनाएं बना रहीं हैं, पर मध्यप्रदेश ने सबसे पहले मध्यप्रदेश आवास गारंटी कानून बना लिया है। इसमें 2022 तक केंद्र और राज्य सरकार की आवासीय योजनाओं के तहत मकान दिए जाएंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शुरू से मंशा रही है कि प्रदेश में हर व्यक्ति का अपना मकान हो। इसलिए प्रदेश में केंद्र और राज्य सरकार की तमाम आवास योजनाएं संचालित हैं। हर साल पात्र हितग्राहियों को आवास मुहैया कराए जाते हैं। लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर और निम्न आय वर्ग के व्यक्तियों के लिए सरकार ने यह पहल की है। इस योजना से अब शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों किनारे झोपड़े और कनात लगाकर रहने वालों को पक्के मकान मिलेंगे। सरकार की इस पहल को अभी से सराहा जा रहा है। निश्चित रूप से मप्र आवास गारंटी योजना अन्य राज्यों के लिए मिसाल बनेगी। इस योजना के तहत पात्र हितग्राहियों की खोज ग्राम उदय और नगर उदय अभियान के दौरान की जाएगी। इस अभियान के तहत दौरे पर जाने वाले अधिकारी इस बात की पड़ताल करेंगे कि उक्त क्षेत्र में कितने आवासहीन लोग हैं। साथ ही आवासों का वितरण भी इस अभियान के दौरान किया जाएगा। जानकारों का कहना है कि प्रदेश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आवासहीन परिवारों की संख्या दो लाख के करीब है। इसमें भी लगभग 65 हजार परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में झोपड़े या अन्य किसी व्यवस्था से रह रहे हैं। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि इस कानून का सबसे ज्यादा फायदा भोपाल और इंदौर जैसे शहरों में मिलेगा। यहां आज भी कई परिवार ऐसे हैं, जिनके अपने आवास या प्लॉट नहीं है। एक सर्वे में ग्रामीण क्षेत्रों में कानून के दायरे में आने वालों की संख्या 76 हजार और शहरी क्षेत्र में सवा लाख के आसपास आंकी गई थी। बताया जा रहा है कि जनगणना 2011 और सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर पात्र व्यक्तियों की पहचान की जाएगी। इनका बाकायदा सत्यापन भी करवाया जाएगा।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का हाल

19,000 करोड़ ठग ले गई बीमा कंपनियां
मध्यप्रदेश के 34 लाख किसानों के साथ फिर हुई धोखाधड़ी
भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आह्वान पर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत खरीफ 2016-17 में सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। अपने को सुरक्षित और नुकसान से बचाने की उम्मीद में मध्यप्रदेश में करीब 34 लाख किसानों ने 19 हजार करोड़ का बीमा कराकर खुद को सुरक्षित किया है। लेकिन हकीकत यह है बड़े-बड़े आश्वासन के बीच किसानों के साथ एक बार फिर ठगी हुई है। सरकारी बीमा एजेंसियां होने के बावजुद किसानों की फसलों का बीमा उन्हीं ठगोरी प्राइवेट कंपनियों से कराया गया है जो वर्षों से किसानों को ठगती आ रही हैं। यही कारण है कि मप्र के 98.8 लाख किसानों में से आधे ने भी बीमा नहीं करवाया। उल्लेखनीय है कि मप्र जितनी तेजी से कृषि उत्पादन में आगे बढ़ रहा है उसी तेजी से प्रदेश में नकली बीज, खाद का गोरखधंधा फैल रहा है। किसान जैसे-तैसे नकली बीज, खाद से बचते-बचाते खेती कर रहे हैं, लेकिन हर साल फसल बीमा के नाम पर उनके साथ ठगी की जा रही है। इसको देखते हुए इस बार देशभर में कई किसान हितैषी प्रावधानों के साथ प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू की गई है। केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में प्रीमियम राशि कम होने के कारण अधिकांश किसानों इस योजना के तहत फसलों का बीमा कराया है। इसी खरीफ सीजन में प्रदेश के 34 लाख 13 हजार किसानों (ऋणी किसान 30 लाख 24 हजार और अऋणी 3 लाख 88 हजार) ने बीमा कराया है। इन किसानों का कुल 18 हजार 969 करोड़ रुपए से अधिक का बीमा हुआ है। पिछले साल राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना में मात्र 276 अऋणी किसानों ने फसल बीमा करवाया था, जबकि इस खरीफ सीजन में यह आंकड़ा 3 लाख 88 हजार किसानों तक पहुंच गया है। प्रदेश का 73 लाख 43 हजार हेक्टेयर रकबा बीमित हुआ है। इसके लिए बीमित किसानों ने कुल 396 करोड़ का प्रीमियम जमा किया है। फिर ठगों के हाथ में किसानों का भविष्य मप्र सहित देशभर में सरकार ने बीमा का काम सरकारी कंपनियों की जगह इस बार भी निजी कंपनियों को दे दिया है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के आश्वासन पर किसानों ने बढ़-चढ़ कर बीमा तो करा लिया है, लेकिन सोयाबीन, कपास, ज्वार, धान और उड़द की फसल खराब होते ही कंपनियां गायब हो गई है। अब किसान मुख्यमंत्री से गुहार लगा रहे हैं। दरअसल, मानसून की मेहरबानी के बाद किसानों, सरकार और बीमा कंपनियों को इस बार बंपर उत्पादन की आस है। लेकिन मौसम में लगातार हो रहे बदलाव के कारण सोयाबीन की फसल बर्बाद होने लगी है। सरकारी कार्यालयों में कागजी खानापूर्ति पूरी करने के बाद भी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। किसान कभी कलेक्टर कार्यालय तो कभी बैंकों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं। किसानों का कहना है कि अफसर बीमा कंपनी से ही राशि आवंटित नहीं होने की बात कह रहे हैं। ऐसे में उनके पास सीएम हेल्पलाइन में शिकायत करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया है। किसान संगठनों का आरोप है कि फसल बीमा योजना का लाभ सरकारी बीमा कंपनियों के बजाय निजी बीमा कंपनियों को मिल रहा है। इस महत्वाकांक्षी योजना के पहले चरण में सरकारी बीमा कंपनी की उपस्थिति नाममात्र की है। दिलचस्प है कि भारत में बीमा क्षेत्र में भारी योगदान दे रही चार प्रमुख सरकारी कंपनियों को फसल बीमा योजना से नहीं जोड़ा गया। इससे किसानों का एक बड़ा तबका फसल बीमा योजना से नाराज है। किसान नेता विजय चौधरी कहते हैं कि प्रचार प्रसार में योजना के बहुत से लाभ बताए थे लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह बीमा योजना पुरानी बीमा योजना से भी बदतर है। इससे किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। वह कहते हैं कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पंजाब में इसी लिए लागू नहीं की गई है। जबकि पंजाब देश का एक बड़ा कृषि प्रधान राज्य है। पंजाब को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की कुछ शर्तों पर आपत्ति थी। उसे यह भी आशंका थी कि इससे किसानों को कम, बीमा कंपनियों को लाभ ज्यादा मिलेगा। कई राज्यों में इस योजना के प्रति उत्साह नहीं है। देश के कई हिस्सों में किसान नेताओं ने इस योजना को बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने वाली बताया। उनका आरोप था कि इस योजना से किसानों को नफा के बजाए नुकसान होगा। किसान संगठनों का एक आरोप यह भी है कि फसल बीमा योजना का लाभ सरकारी बीमा कंपनियों के बजाय निजी बीमा कंपनियों को मिल रहा है। इस महत्वाकांक्षी योजना के पहले चरण में जुड़ी बीमा कंपनियों में सरकारी बीमा कंपनी की उपस्थिति नाममात्र की है। सरकारी क्षेत्र की एग्रीकल्चर इन्श्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड को इस योजना से जोड़ा गया है। एक और कंपनी एसबीआई जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड आंशिक सरकारी कंपनी है, क्योंकि इसमें भारतीय स्टेट बैंक की हिस्सेदारी चौहत्तर फीसदी है। जबकि इस योजना से जुड़ी आइसीआइसीआई लोंबार्ड, एचडीएफसी अर्गो, इफ्को टोकियो, चोलामंडलम एमएस, बजाज अलियांज, फ्यूचर जेनराली, रिलायंस जनरल इंश्योरेंस, टाटा एआइजी आदि निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां हैं। दिलचस्प है कि भारत में बीमा क्षेत्र में भारी योगदान दे रही चार प्रमुख सरकारी कंपनियों- नेशनल इंश्योरेंस कंपनी, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी को फसल बीमा योजना से नहीं जोड़ा गया। प्रीमियम राशि को लेकर विरोध पिछले एक दशक से प्राइवेट बीमा कंपनियों की ठगी के बाद जब केंद्र की मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा शुरू किया तो किसानों को उम्मीद थी की अब यह योजना सरकार के नियंत्रण में रहेगी लेकिन फिर निजी कंपनियों के हाथों में आ गई है। बताया जाता है कि सरकारी बीमा कंपनियों ने इस योजना में शामिल होने के लिए काफी जोर लगाया लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम हो गर्इं। सरकारी बीमा कंपनियों के पास योजना में शामिल होने के मजबूत तर्क थे क्योंकि इनका नेटवर्क देश में सबसे ज्यादा है। पूरे देश में इनके पास हजारों कार्यालय हैं। लाखों बीमा एजेंट हैं। कई जगहों पर तो राजनीतिक दलों और किसान संगठनों ने इस योजना का विरोध किया। उनका विरोध प्रीमियम राशि को लेकर था। किसानों के बैंक खातों से जबर्दस्ती प्रीमियम राशि काटे जाने के कारण भी उनमें भारी रोष था। किसानों का आरोप था कि फसल बीमा योजना में धोखाधड़ी हो रही है। उनकी खाली पड़ी जमीन का भी बीमा कर प्रीमियम की राशि काट ली गई। जबकि कई जगहों पर आरोप लगाया कि उनके खेत में ज्वार की फसल को धान की फसल दिखा कर प्रीमियम काट लिया गया। मप्र में बीमा योजना की सफलता के लिए राज्य सरकार के मंत्रियों ने किसानों के बीच जागरूकता यात्रा भी निकाली थी। किसान संगठनों का कहना था कि फसल बीमा योजना आकर्षक होती, तो किसान खुद आगे आते, मंत्रियों को पदयात्रा की जरूरत नहीं पड़ती। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर सरकार उत्साहित है, क्योंकि यूपीए सरकार के समय तीन फसल बीमा योजनाएं लागू थीं और उनसे किसानों को अक्सर शिकायत रही। उस समय भी शिकायत थी कि बीमा कंपनियों ने भारी प्रीमियम राशि इक_ा की, लेकिन किसानों को मुआवजा देने के वक्त हेराफेरी की गई। कई किसान संगठनों ने इस पर सवाल उठाया है। किसान संगठनों का आरोप है कि 2016 के खरीफ सीजन से लागू इस योजना में किसानों को जितना मुआवजा नहीं मिलेगा, उससे कई गुना ज्यादा राशि बतौर प्रीमियम बीमा कंपनियों को मिलेगी। बीमा योजनाओं की ऑडिट की तैयारी सरकार देश में अभी तक लागू की गई फसल बीमा योजनाओं की ऑडिट की तैयारी कर रही है। यह स्वागत योग्य कदम है। ऑडिट में जो खामियां सामने आएंगी उनके आधार पर आगे फसल बीमा योजनाओं में सुधार किया जा सकता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने देश के सारे बैंकों को इस संबंध में दस्तावेज उपलब्ध कराने को कहा है। शुरू में देश के नौ राज्यों-मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना और महाराष्ट्र में फसल बीमा योजनाओं का ऑडिट कराने की योजना है। गौरतलब है कि इनमें मध्य प्रदेश कुछ राज्य किसानों की दुर्दशा के लिए जाने जाते हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और हरियाणा में किसानों की आत्महत्याओं की खबरें लगातार आ रही हैं। खेती की बढ़ती लागत ने जहां किसानों को परेशान किया है, वहीं बाढ़, बेमौसमी बरसात और सूखे ने खेती बर्बाद कर दी है। फसल खराब होने के बाद कर्ज में डूबे किसानों के पास आत्महत्या के सिवा कोई चारा नहीं होता। किसानों को राहत देने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू होने से पहले देश के अलग-अलग राज्यों में फसल बीमा योजना लागू थी। लेकिन लगातार यही आरोप लगते रहे कि इसमें किसानों के साथ छल किया गया। किसानों से प्रीमियम तो वसूला किया, लेकिन मुआवजे के नाम पर कंपनियां और सरकार धोखाधड़ी करती रही हैं। इन शिकायतों के बाद पूरे देश में एक ही फसल बीमा योजना- प्रधानमंत्री मंत्री फसल बीमा योजना- लागू की गई। पहले लागू हर फसल बीमा योजना में किसानों की एक आम शिकायत आ रही है कि बीमा कंपनियां प्रीमियम तो मोटा ले रही हैं, लेकिन मुआवजे के नाम पर पंद्रह रुपए से हजार रुपए तक पकड़ा रही हैं। किसान को नहीं, गांव को इकाई बनाया गया। अगर पूरे गांव में कम से कम पचहत्तर प्रतिशत फसल बर्बाद होगी, तो मुआवजा मिलेगा। इसका आकलन बीमा कंपनियों के साथ सरकारी पदाधिकारी करेंगे। फसल ऋण लेने वाले किसान के खाते से प्रीमियम की राशि जबर्दस्ती काटे जाने पर भी किसानों को आपत्ति है। किसानों का फर्जी फसल बीमा यूपीए के समय में लागू फसल बीमा योजना के प्रति किसानों का आरोप था कि प्रीमियम राशि तो कंपनियां जबर्दस्ती ले लेती हैं, लेकिन मुआवजा देते वक्त हेराफेरी करती हैं। यही नहीं, जिस जमीन पर खेती नहीं की गई, उस जमीन का भी फसल बीमा कर कंपनियों ने भारी हेराफेरी की है। 2014 और 2015 में बीमा कंपनियों की हेराफेरी के मामले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में सामने आए। लोगों का आरोप था कि फसल बीमा योजना लूट का माध्यम बन गई है। मप्र में तो किसानों ने आरोप लगाया कि उस जमीन पर भी प्रीमियम वसूल लिया गया है, जिस पर किसानों ने खेती ही नहीं की। यह हेराफेरी किसान के्रडिट कार्ड के माध्यम से की गई। लेकिन प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में भी ऐसी शिकायतें आ रही है। रतलाम जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक ने फसल बीमा योजना के तहत 53 हजार किसानों का फर्जी बीमा कर डाला। किसानों ने सोयाबीन की उपज के लिए बीज डाला है और बैंक ने टमाटर की फसल का बीमा कर दिया। किसानों के खातों से 10 करोड़ रुपए प्रीमियम के भी काट लिए गए। अब मामले ने तूल पकड़ लिया है। राज्य वित्त आयोग के अध्यक्ष हिम्मत कोठारी ने सहकारिता मंत्री विश्वास सारंग को पत्र लिखकर मामले की विस्तृत जांच कराने का आग्रह किया है। वित्त आयोग के अध्यक्ष हिम्मत कोठारी ने बताया कि, 53 हजार किसानों को नुकसान न हो इसलिए; विभाग को फसल बीमा की तारीखें आगे बढ़ाना चाहिए। कोठारी के इस पत्र के बाद जिले की राजनीति में भी उबाल आ गया है, क्योंकि जिला सहकारी केंद्रीय बैंक की बागडोर भाजपा के नेताओं के ही हाथों में है। अब इस पत्र के बाद भाजपा नेता सकते में आ गए हैं। वित्त कारी केंद्रीय बैंक के महाप्रबंधक पीएन यादव को भी हटाने की मांग के साथ अन्य दोषियों पर कार्रवाई की मांग की है। गौरतलब है कि रतलाम जिले में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में 53 हजार किसानों की सोयाबीन की जगह टमाटर की फसल का बीमा किया गया है, जिसकी 10 करोड़ की प्रीमियम राशि भी किसानों से खातों से काटी जा चुकी है। कांग्रेस नेता वीरेंद्र सिंह सोलंकी ने इस पूरे मामले का खुलासा किया है, जिसके बाद जिले की राजनीति में हड़कंप मच गया है। सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में करोड़ों रुपए का गोलमाल हुआ है। ज्ञातव्य है कि यूपीए के समय में लागू फसल बीमा योजना के प्रति किसानों का भी यहीआरोप था।दरअसल, किसानों के क्रेडिट कार्ड में किसानों की पूरी जमीन दर्ज है। जब किसानों ने खाद और बीज के लिए कर्ज लिया, तो उनके क्रेडिट कार्ड से बीमे का प्रीमियम वसूल लिया गया। लेकिन हद तो तब हो गई जब किसान क्रेडिट कार्ड के बहाने किसानों की खाली पड़ी जमीन का भी फसल बीमा कंपनियों ने कर दिया। झाबुआ जिले के एक किसान पार्वती का आरोप था कि उससे तेईस हेक्टेयर जमीन की प्रीमियम राशि वसूल की गई, जबकि उसने मात्र बारह हेक्टेयर जमीन पर खेती की थी। बालाघाट के एक किसान बैजनाथ के अनुसार उसने सिर्फ डेढ़ हेक्टेयर जमीन पर धान की रोपाई की, लेकिन उससे चौबीस हजार रुपए प्रीमियम वसूला गया। अब ऐसे ही मामले प्रधानमंत्री फसल बीमा में आ रहे हैं। किसान नेता शिवकुमार शर्मा कहते हैं कि देश और प्रदेश की सरकार किसानों को कमाई का जरिया मान बैठी है। देश में किसानों को हर कोई ठग रहा है। योजना में अब भी भ्रम में हैं किसान खरीफ और रबी फसलों में प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान की भरपाई अभी तक फसल बीमा योजना से किया जाता रहा है लेकिन अब प्रचलित योजना की कई कमियों को दूर कर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को नए सिरे से लागू किया गया है। इसमें किसान अधिसूचित फसलों की सूची और लाभ मिलने की स्थिति को लेकर भ्रम में हैं। हालांकि कृषि विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा कहते हैं कि पुरानी फसल बीमा योजना में केवल प्राकृतिक आपदा से फसलों को नुकसान होने की स्थिति में ही किसानों को बीमा कंपनी की ओर से क्लेम के तहत राशि देकर मदद करने का प्रावधान था। इस बीमा योजना में किसानों को 8 से 10 प्रतिशत तक प्रीमियम देना पड़ता था जिससे कई किसान पूरी प्रीमियम नहीं कर पाते थे और कीट व्याधि व अन्य बीमारियों से खराब हुई फसलों के नुकसान से किसान बीमा के लाभ से वंचित रह जाते थे। इतना ही नहीं कई किसान तो पूरा प्रीमियम भरने के बावजूद आपदा से फसल में नुकसान होने पर बीमा योजना का लाभ लेने के लिए अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर काटकर परेशान हो जाते थे। ऐसी तमाम कमियों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में दूर करने का प्रयास किया गया है। इसकी सीधी मानीटरिंग पीएम ऑफिस से की जाएगी। इस नई योजना में पुरानी योजना की परेशानियों को दूर करने के साथ प्रक्रिया को भी सरल बनाया गया है। उधर, विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि विभाग के पास प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत मिले गजट नोटिफिकेशन में सोयाबीन, अरहर और असिंचित धान को अधिसूचित फसलों में रखा गया है, जबकि एचडीएफसी जनरल इंश्योरेंस कंपनी के पास जो जानकारी है उसमें उड़द, मूंग, मूंगफली, तिल, सोयाबीन और असिंचित धान को अधिसूचित फसलों की श्रेणी में रखा गया है। अब किसानों में इस बात का भ्रम है कि उन्हें कृषि विभाग की जानकारी के अनुसार फसल बीमा का लाभ मिलेगा या फिर कंपनी को मिली सूची में लिखी गई अधिसूचित फसलों के हिसाब से योजना का लाभ दिया जाएगा। किसान नेता शिवकुमार शर्मा कहते हैं कि नई फसल बीमा पॉलिसी किसानों के साथ छलावा है। जंगली जानवरों से नुकसान की भरपाई नहीं फसल उगाने के लिए किसान जी जान लगा देते हैं। प्राकृतिक आपदा से नुकसान न हो, इसके लिए किसान कर्ज लेकर फसल का बीमा करवाते हैं। पांच बीघा क्षेत्र में भी यदि लाखों की फसल बर्बाद हो जाए तो किसान के हाथ में बीमे के तहत औसतन 100 रुपए आते हैं। यह सच है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का। यही कारण है कि केंद्र सरकार की इस योजना में किसानों अपनी फसलों का बीमा तो करा लिया, लेकिन अब वे पछता रहे हैं। दरअसल, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों का दर्द बांटने में नाकाम रही है। खेत में खड़ी फसल पर कुदरत का कहर बरपे तो ही बीमा रकम मिलेगी। यदि फसल को जंगली जानवर या बंदर चौपट कर जाते हैं तो इस तरह से बर्बाद हुई फसल के लिए बीमा कंपनी फूटी कौड़ी नहीं देगी। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना शुरू होने के बाद खरीफ की दूसरी फसल कवर हुई। उधर, किसानों का आरोप है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में बीमा कंपनियों ने बैंक के माध्यम से किसानों से लाखों की प्रीमियम राशि जमा करा ली है। अब जब फसल खराब हो गई है कोई सुन नहीं रहा है। शासन द्वारा दावा किया जा रहा था कि एक फोन पर कंपनी के अधिकारी किसानों की फसल का जायजा लेने आएंगे, यहां तो किसान कंपनी वालों को फोन लगा रहे हैं, लेकिन अधिकारी फोन ही नहीं उठा रहे। खरीफ फसल में नुकसान के बाद किसान रबी फसल की बोवनी की तैयारी करने जा रहे हैं। किसानों की खेत में खराब फसल में नुकसान का आकलन नहीं किया जा रहा जिससे किसान फसल बीमा क्लेम से वंचित रहे जाएंगे। प्रशासन भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रहा। इसी सिलसिले में श्योपुर जिले के किसानों की समस्याओं को लेकर किसान कांग्रेस ने रैली निकालकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नाम जिला प्रशासन को ज्ञापन सौंपा है। किसान कांग्रेस नेताओं ने किसानों को फसल का नुकसान कर बीमा क्लेम तत्काल दिलाने की मांग की है। बीमा कंपनियों को कोई नुकसान नहीं कृषि बीमा योजना के अंतर्गत एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी के पास किसानों का बीमा होता है। प्रदेश के जिला सहकारी बैंक और प्राथमिक सहकारी समितियों के जरिए जो किसान अल्पकालीन कृषि ऋण लेते है उनके ऋण की राशि को ही बीमा राशि मानते हुए उसका डेढ़ से साढ़े तीन प्रतिशत तक प्रीमियम राशि शुरूआत में ही काट ली जाती है। बीमा कंपनी केवल उस सीमा तक नुकसान की भरपाई करती है जितनी उन्हें प्रीमियम के रूप में प्राप्त हुई। दावे की राशि ज्यादा होने पर राज्य और केंद्र सरकार आधा-आधा वहन करती है। इस कारण बीमा कंपनी को इसमें कोई नुकसान नहीं होगा। बल्कि जिस वर्ष में ज्यादा प्रीमियम मिलता है और दावा भुगतान कम किया जाता है उस वर्ष उन्हें फायदा होता है। फसल बीमा योजना की सबसे बड़ी गड़बड़, योजना का स्वैच्छिक और अनिवार्य होना है। जो भी किसान बैंक या सहकारी संस्था से ऋण लेता है, बैंक उससे बिना पूछे अनिवार्य रूप से प्रीमियम काट लेता है। उसे कोई जानकारी, रसीद या पॉलिसी का कागज नहीं दिया जाता। जिसके चलते किसान को मालूम ही नहीं चलता कि उसकी फसल का बीमा हुआ भी है,या नहीं। मौसम आधारित फसल बीमा योजनाएं हमारे मुल्क में पश्चिम मुल्कों से आई हैं। और सब जानते हैं,कि इसमें विश्व बैंक की सिफारिशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बहुत बड़ा दबाव था। पश्चिमी मुल्कों और हमारे यहां की परिस्थितियों में यदि अंतर करके देखें, तो इसमें बुनियादी फर्क है। यूरोपीय मुल्कों में जहां सैंकड़ो-हजारों एकड़ जमीन के किसान और कंपनियां बहुतायत में हैं, तो हमारे यहां छोटे-छोटे काश्तकार हैं। एक बात और। वहां के किसान संतुष्ट होकर स्वेच्छा से अपनी फसल का बीमा करवाते हैं,लेकिन हमारी सरकारों ने इस बीमे को जबर्दस्ती किसानों पर थोपा है। किसान चाहे न चाहे,उसे बीमा करवाना ही पड़ेगा। आलम यह है कि हमारे यहां सभी फसल बीमा योजनाएं सरकार के अनुदान और सहयोग से क्रियान्वित हो रही हैं। उसके बाद भी तस्वीर कुछ इस तरह से है, पैसा किसान व सरकार का, मुनाफा कंपनियों का और नुक्सान सिर्फ व सिर्फ किसान का। कुल मिलाकर, सरकारों के तमाम दावों और वादो के बाद भी फसल बीमा योजना किसानों के लिए सिर्फ एक छलावा साबित हुई है। लगातार हो रही किसानों की आत्महत्याएं, फसल बीमा योजना की नाकामी को उजागर करती हैं। बीमा कंपनी द्वारा किसानों की फसल का बीमा व्यक्तिगत होता है। लेकिन फसल के नुकसान होने पर मुआवजा सामूहिक मिलता है। प्राकृतिक आपदा के बाद 3 और 5 साल के औसत उत्पादन के आधार पर नुकसान का आकलन होता है। अधिकांश फसल कटाई प्रयोग किसान के सामने नहीं होते। मौसम खराबी का आंकलन करने के लिए हर जगह पर्याप्त लैब और उपकरणों का अभाव है। अऋणी किसानों को नहीं मिल पाता बीमा योजना का लाभ। विडंबना की बात यह है कि एक तरफ किसानों को यहां फसल बीमा का फायदा नहीं मिला,तो दूसरी तरफ बैंक अधिकारी किसानों को कर्ज वसूली के लिए परेशान कर रहे हैं। किसानों पर दंड व ब्याज लगाया जा रहा है। 3 साल में 84 लाख किसानों के साथ ठगी मध्यप्रदेश में फसल बीमा की हकीकत क्या है इसका पता इसी से चलता है कि पिछले तीन साल में 83,75,105 किसानों से फसल बीमा योजना के अंतर्गत प्रीमियम लेने के बाद भी कंपनियों ने उन्हें एक रूपए का भी भुगतान नहीं किया। यह जानकारी राज्य सभा में केंद्रीय कृषि मंत्री ने दिग्विजय सिंह के एक सवाल के जवाब में दिया। केंद्रीय कृषिमंत्री के अनुसार मप्र में वर्ष 2011-12 में 33,74,706 किसानों का बीमा हुआ था लेकिन मात्र 6,61,779 किसानों को ही बीमा का लाभ मिल सका। इसी तरह वर्ष 2012-13 में 40,60,131 किसानों का बीमा हुआ था लेकिन लाभान्वित 4,34,642 ही किसान हो सका। 2013-14 में 24,10,937 किसानों की फसल का बीमा हुआ था लेकिन 14,70,666 किसानों को ही बीमा का लाभ मिला। यानी इन तीन सालों में 98,45,771 किसानों का बीमा हुआ लेकिन लाभ 14,70,666 किसानों को ही मिला। यानी 83,75,105 किसानों को एक धेला भी नहीं मिला। किसानों के साथ धोखा करने वाली कंपनियों में से भारतीय कृषि बीमा कंपनी लि., आईसीआईसीआई-लोम्बामर्ड, इफ्को-टोकियो, एचडीएफसी-इआरजीओ, चोलामंडलम-एमएस, टाटा-एआईजी, फ्यूचर जनरली इंडिया, रिलायंस, बजाज एलाइंज, एसबीआई और यूनिवर्सल सोम्पोस जनरल बीमा कंपनी शामिल हैं। यही कंपनियां इस बार भी किसानों की फसलों का बीमा कर रही हैं। अभी तक इन कंपनियों द्वारा किए गए बीमा की जो खामिया सामने आ रही हैं उससे किसान एक बार फिर डरे हुए हैं। किसानों की मदद या कोई और है मकसद? भारत सरकार समय समय पर किसानों की फसलों के लिए बीमा योजना लेकर आती रही है, लेकिन फिर भी लाख कोशिशों के बावजूद, सिर्फ 23 प्रतिशत एरिया ही बीमा योजना के तहत कवर किया जा सका। लेकिन अब भारत सरकार की कोशिश प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के जरिए अगले 2 साल में इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक ले जाने की है। इस साल भी किसानों से बीमा प्रीमियम वसूला गया है। फसलों पर एक बार फिर प्रकृति की मार पड़ती आ रही है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आजकल जहां भी जाते हैं, वहां अपनी सरकार की कुछ अहम योजनाओं में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का भी नाम लेते हैं। उनके मंत्रिमंडल के कई सहयोगियों को भी इस योजना को किसानों के लिए वरदान बताते हुए देखा जा सकता है। लेकिन जिन बीमा कंपनियों को मोदी सरकार ने अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना के पहले चरण को लागू करने का जिम्मा दिया है, उनमें सरकारी क्षेत्र की प्रमुख बीमा कंपनियों के नाम ही नहीं हैं। इन कंपनियों के अधिकारी दबी जुबान से ही सही सरकार पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्हें जानबूझकर इस बीमा योजना से दूर रखा गया है। प्रधानमंत्री की इस महत्वाकांक्षी योजना के पहले चरण से जिन 11 कंपनियों को जोड़ा गया है, उनमें से सिर्फ एक ही पूरी तरह से सरकारी है और दूसरे को आंशिक तौर पर सरकारी कहा जा सकता है। सरकारी क्षेत्र की जो कंपनी है उसका नाम है एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड। वहीं दूसरी कंपनी जिसे आंशिक तौर पर सरकारी कहा जा सकता है, वह है एसबीआई जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड। इस कंपनी में भारतीय स्टेट बैंक की हिस्सेदारी 74 फीसदी है और इंश्योरेंस ऑस्ट्रेलिया ग्रुप के पास इस कंपनी का 26 फीसदी स्वामित्व है। इसके अलावा जिन नौ कंपनियों को इस योजना के पहले चरण में शामिल किया गया है, वे निजी क्षेत्र की हैं। इन कंपनियों के नाम हैं: आईसीआईसीआई लोंबार्ड, एचडीएफसी अर्गो, इफ्को टोकियो, चोलामंडलम एमएस, बजाज अलायंज, फ्यूचर जेनराली, रिलायंस जनरल इंश्योरेंस, टाटा एआईजी और यूनिवर्सल सोंपो। हालांकि, कुछ लोग इस सूची में शामिल इफ्को टोकियो को लेकर यह दावा कर सकते हैं कि यह भी आंशिक तौर पर सरकारी है। क्योंकि इसमें दो जापानी कंपनियों के साथ-साथ सहकारी क्षेत्र की इफ्को की भी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लागू कराने के लिए भारत सरकार के कृषि मंत्रालय की ओर से राज्यों को जो दिशानिर्देश दिए गए हैं, उनमें इस बात का साफ तौर पर जिक्र है कि राज्य सरकारों को इसे अपने राज्य में लागू कराने के लिए इन्हीं 11 कंपनियों में से किसी का चयन करना होगा। कृषि मंत्रालय के अधिकारी भी अनौपचारिक बातचीत में यह मान रहे हैं कि इस योजना को लगभग पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हवाले कर देने के सरकार के कदम से सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनियों में असंतोष का माहौल है। जीवन बीमा निगम के अलावा अन्य क्षेत्रों में बीमा देने वाली चार प्रमुख सरकारी कंपनियां हैं - नैशनल इंश्योरेंस कंपनी, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी। इन कंपनियों में किसी को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में शामिल नहीं किया गया है। जबकि गैर जीवन बीमा क्षेत्र में जितने का कुल कारोबार होता है उनमें से तकरीबन आधे पर इन्हीं चार कंपनियों का कब्जा है। चूंकि इस योजना को मूलत: ग्रामीण क्षेत्रों में लागू कराना है इसलिए इस योजना को लेकर एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि सरकारी कंपनियों को इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना से बाहर रखने पर यह योजना लाभार्थियों तक कितना और किस रूप में पहुंच पाएगी। इन बीमा कंपनियों और कृषि मंत्रालय के अधिकारियों की मानें तो इन चारों कंपनियों ने पूरी ताकत लगाकर कोशिश की थी कि इन्हें भी इस योजना में शामिल होने दिया जाए। इन कंपनियों के पास इसके लिए मजबूत तर्क भी थे। इन चारों कंपनियों को मिला दें तो पूरे देश में इनके तकरीबन 9,000 कार्यालय हैं और इन चारों कंपनियों के कुल बीमा एजेंटों की संख्या तीन लाख के ऊपर है। इसके बावजूद इन कंपनियों को इस योजना में सरकार द्वारा शामिल नहीं किया जाना कई तरह के सवाल खड़े करता है। इन्हीं सरकारी कंपनियों में से एक के एक अधिकारी बताते हैं कि निजी कंपनियों की लॉबीइंग के आगे ये सरकारी कंपनियां टिक नहीं पाईं। ये अधिकारी दावा करते हैं कि सरकारी कंपनियों ने न सिर्फ कृषि मंत्रालय बल्कि वित्त मंत्रालय का दरवाजा भी बार-बार खटकाया लेकिन उन्हें कहीं से सकारात्मक जवाब नहीं मिला। इनका यह भी कहना है कि सरकारी कंपनियों को शामिल नहीं किए जाने से योजना से अपेक्षित नतीजों की उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि योजना में शामिल कंपनियों का नेटवर्क इसकी जरूरतों पर खरा नहीं उतरता। कंपनियों को लाभ पहुंचाने का आरोप मप्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि चूंकि इस योजना को मूलत: ग्रामीण क्षेत्रों में लागू कराना है इसलिए इस योजना को लेकर एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि सरकारी कंपनियों को इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना से बाहर रखने पर यह योजना लाभार्थियों तक कितना और किस रूप में पहुंच पाएगी। अगर सरकार की इस गलती की वजह से इस योजना का लाभ ठीक ढंग से किसानों तक नहीं पहुंच पाता है तो फिर इसे लेकर सरकार की नीयत पर भी सवाल उठेंगे। 2016-17 के बजट में इस योजना के लिए 5,500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। लेकिन बीमा क्षेत्र के जानकार बता रहे हैं कि इस योजना में चालू वित्त वर्ष पर तकरीबन 8,800 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। ऐसे में कुछ लोग सरकार पर यह आरोप भी लगा रहे हैं कि इस 8,800 करोड़ रुपये में से अधिक से अधिक निजी बीमा कंपनियों को मिल सके, इसलिए सरकार ने प्रमुख सरकारी बीमा कंपनियों को इस योजना से बाहर रखा है। जो लोग सरकार पर इस तरह के आरोप लगा रहे हैं, वे अपनी बातों के समर्थन में इस तथ्य को भी सामने रख रहे हैं कि इस साल न सिर्फ भारतीय मौसम विभाग ने बल्कि दूसरी एजेंसियों ने भी अच्छे मानसून की उम्मीद जताई थी। इस वजह से यह उम्मीद भी की जा रही है कि इस साल फसल अच्छी होगी और नुकसान कम होगा। इसका मतलब यह हुआ कि इस साल फसल बीमा देने वाली कंपनियां फायदे में रहेंगी। इन बातों की पृष्ठभूमि में अगर इस पूरे मामले को देखें तो उन लोगों की बातों में दम लगता है जो सरकार पर यह आरोप लगा रहे हैं कि इस योजना से जानबूझकर सरकारी बीमा कंपनियों को बाहर रखा गया है। किसानों को प्राकृतिक आपदा से उबारने के लिए बनी फसल बीमा योजना महज छलावा नजर आ रही है। हर साल बीमा कंपनियां फसल बीमा प्रीमियर के नाम पर किसानों से करोड़ों रुपए वसूल कर रही, जिसके एवज में किसानों को ऊंट के मुंह में जीरा जैसी रकम ही मिली है। इस साल भी बीमा कंपनियों ने विभिन्न बैंकों और जिला केंद्रीय सहकारी बैंक के माध्यम से खरीफ और मौसम आधारित फसलों के लिए 15 करोड़ से ज्यादा की प्रीमियम राशि वसूल की है। पिछले तीन सालों में बीमा प्रीमियम और क्लेम की रकम की तुलना की जाए तो किसान ठगाते ही नजर आ रहे है। सिर्फ 2014 में मौसम आधारित फसल बीमा योजना में ही किसानों को मिर्च की फसल के लिए डेढ़ करोड़ का क्लेम मिला था। जबकि 2014 में रबी और खरीफ की फसल दोनों ही प्राकृतिक आपदा की चपेट में आई थी। 2015 में भी दोनों ही फसलों पर प्रकृति की मार पड़ी थी, लेकिन किसानों को एक रुपए का क्लेम भी नहीं मिल पाया था। 9999999999999999

मप्र में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन

दलितों की 3,49,26,20,00,000 की भूमि रसूखदारों के कब्जे में
भोपाल। मध्य प्रदेश में 10 अक्टूबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वन अंचलों में निवासरत आदिवासियों और दलितों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करने के लिए दीनदयाल वनांचल सेवा की शुरुआत की। सरकार का दावा है कि इससे 24 हजार गांवों को फायदा होगा। लेकिन वन अंचलों में रहने वाले लोगों को सरकार की इस योजना पर विश्वास नहीं है। दरअसल, आज तक केंद्र या राज्य सरकार ने जितनी भी योजनाएं इनके लिए शुरू की हैं वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं। सुविधाएं मिलना तो दूर आदिवासियों को उनके मूल निवास यानी वनों से तो बेदखल किया ही जा रहा है उनको सरकार द्वारा दी जा रही जमीन को भी हड़पा जा रहा है। प्रदेश में पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह सरकार ने 1999 से 2002 के बीच प्रदेश के अनुसूचित जाति और जनजाति के 3 लाख 24 हजार 329 परिवारों को 6 लाख 98 हजार 524 एकड़ जमीन आवंटित की थी। जिसकी वर्तमान समय में कीमत करीब 3,49,26,20,00,000 रूपए है। लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद भी हाल यह है कि इनमें से 70 फीसदी लोग अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं। उनकी जमीन या तो किसी रसूखदार ने हड़प ली है या फिर वह कागजों में कैद है। दरअसल, मप्र में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन हो रहा है। जहां वन विभाग उनके सिर से छत छीन रहा है वहीं उनको आवंटित जमीन रसूखदारों द्वारा कबजाई जा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि आदिवासी या तो सड़क के किनारे या वन क्षेत्र के बाहर झोपड़ी लगाकर दिन काट रहे हैं। हालांकि शासन और प्रशासन की लगातार उपेक्षा से अब आदिवासी और दलित लामबंद होने लगे हैं और आंदोलन कर रहे हैं। सरकारी बदमाशी, बेबस आदिवासी करीब 15 साल प्रदेश में आदिवासियों और दलितों को पट्टा दिया गया था। उस समय ऐसा लगा जैसे दलितों के भाग्य ही बदल गया। लेकिन आज करीब 15 साल बाद भी दलित पट्टा लेकर दलित अपनी जमीन तलाश रहे हैं। वे जब भी अपने जिले के अधिकारियों के पास जाते हैं उन्हें फटकार ही मिलती है। आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी कहते हैं, कि प्रदेश के करीब सवा तीन लाख आदिवासियों और दलितों को सरकार द्वारा 15 साल पहले जो पट्टा दिया गया था, वह जमीन तो मिली नहीं। जिस जमीन पर आदिवासी काबिज हैं उससे भी बेदखल किया जा रहा है। वह कहते हैं कि बैतूल जिले के चिचौली क्षेत्र पश्चिम वन मंडल की सांवलीगढ़ रेंज में उमरडोह वनग्राम में रहने वाले आदिवासियों को बार-बार उनके आशियाने उजाड़ कर उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। यही नहीं उनकी फसल भी रौंद दी जाती है। पिछले साल तो इतनी बेरहमी से बेदखल की कार्रवाई की गई थी कि मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। लेकिन आज तक उन आदिवासियों को दोबारा बसने नहीं दिया गया। लगभग आधा सैकड़ा आदिवासी किसान परिवार जो वर्षों से उमरडोह वनग्राम में छप्पर बनाकर रह रहा था । वह यहीं खेती किसानी करते हैं और अपना परिवार पालते हैं। अनुराग मोदी कहते हैं, 'जिस जमीन पर ये परिवार दशकभर से अधिक समय से रह रहे हैं, वन विभाग उसे अपनी जमीन बताता है। इसलिए इन परिवारों को वहां से हटाना चाहता है। लेकिन अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी अधिनियम (वन अधिकारों की मान्यता), 2006 के तहत यह गैरकानूनी है। इस कानून में प्रावधान है कि वे आदिवासी जो 2005 के पहले से जिन वन क्षेत्रों में रह रहे हैं उन्हें वहां से हटाया नहीं जाएगा। पर वन विभाग वन अधिकार अधिनियम 1927 के पुराने कानून के तहत काम कर रहा है। यह गलत है।Ó उमरडोह वासियों के साथ ऐसा पहली बार भी नहीं हुआ। इससे पहले भी वन विभाग 2011 में एक ऐसी ही कोशिश कर चुका है। 2005 से ही वन विभाग के ऐसे प्रयास जारी हैं। पर हर बार वन विभाग के अमले के जाते ही ये लोग अपने छप्पर फिर से डालकर रहना शुरू कर देते थे। पट्टे मिलने लेकिन जमीन नहीं मिली 15 साल पहले जब दिग्विजय सरकार ने दलितों को जमीनों के पट्टे दिए तो लोग बहुत खुश हुए थे कि वे भी अब जमीन के मालिक बनेंगे। लेकिन कइयों की जमीन कागजों पर ही रह गई, कइयों को नदी-नालों और पहाड़ों में मिली और कइयों के साथ ऐसा हुआ कि इसे पाने की लड़ाई में उनके बर्तन तक बिक गए। आज आलम यह है कि अपनी जमीन के लिए अपना सब कुछ गंवा चके दलित-आदिवासी दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं। अपना और अपने घर वालों का पेट पालने के लिए इन्हें दूसरों के खेत में मजदूरी करनी पड़ रही है। ऐसे ही लोगों में देवास जिले के मोखा पिपलिया गांव में रहने वाले सिद्धूजी भी शामिल हैं। दूसरों के खेत में मजदूरी करते हुए उनकी कई पीढिय़ां गुजर चुकी हैं। जब सरकार ने उन्हें जमीन का पट्टा दिया था तो एक दलित परिवार के मुखिया सिद्धूजी ने सोचा कि देर से ही सही, उनके भाग जग गए। उनका ऐसा सोचना लाजमी था। उन्हें सरकार ने बाकायदा पट्टा लिखकर अपने ही गांव की पांच बीघा जमीन का मालिक करार दे दिया था। लेकिन सरकारी कागज मिलने के अगले ही दिन 60 साल के सिद्धूजी के सारे सपने तार-तार हो गए। उन्हें सरकार ने जो जमीन दी थी, वहां तो नदी बह रही थी। उन्हें समझ में नहीं आया कि वे बहती हुई नदी में खेती कैसे करें। तब से अब तक उन्होंने गांव से जिले तक सब तरफ कोशिश की, पर समस्या वहीं की वहीं है। प्रदेश में यह अकेले सिद्धूजी की कहानी नहीं है। प्रदेश के 30 से ज्यादा जिलों में रहने वाले करीब सवा दो लाख दलित और आदिवासी परिवारों का यही हाल है। 1999 से 2002 के बीच सरकार ने निर्धन भूमिहीन दलित-आदिवासी परिवारों को खेती के लिए जमीन के पट्टे बांटे थे। ये पट्टे उनके ही गांव की सरकारी जमीन में से दिए गए थे। सरकार ने भी मानी गलती 2003 में जब मप्र में सरकार बदली और दलित की बेटी उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं तो लोगों को लगा की जल्द ही उनको उनके पट्टे की जमीन मुहैया करा दी जाएगी। लेकिन पहले उमा भारती, फिर बाबूलाल गौर भी आदिवासियों और दलितों का दुख नहीं हर सके। 2005 में सत्ता संभलते ही शिवराज सिंह चौहान ने आदिवासियों और दलितों के उत्थान का खाका तैयार करवाया। उनके इस उपक्रम से ऐसा लगा की सरकार भूमिहीन दलित-आदिवासी परिवारों को खेती के लिए जमीन मुहैया करा देगी। लेकिन आलम यह है कि आज तक 70 फीसदी लोगों को सरकार उनके हिस्से की जमीन नहीं दिला सकी है। खुद सरकार ने विधानसभा में यह बात मानी है। फरवरी 2013 में तत्कालीन राजस्व मंत्री करण सिंह वर्मा ने कांग्रेस विधायक केपी सिंह के एक सवाल के जवाब में बताया था कि प्रदेश के कई जिलों में पट्टेधारकों को उनकी जमीन पर काबिज नहीं कराया जा सका है। हालांकि उन्होंने विधानसभा में इस आंकड़े को 60 प्रतिशत ही बताया था लेकिन, प्रदेश भर में सर्वे करने वाली संस्था भू अधिकार अभियान का दावा है कि यह 70 फीसदी है। यानी लोगों के हाथों में पट्टे के कागज तो हैं पर उनकी नियति वही है जो पहले थी। भू अधिकार अभियान के गजराज सिंह कहते हैं, कुछ लोगों को तो यह तक पता नहीं था कि सरकार ने उनके नाम कोई जमीन की है। सूचना के अधिकार से उन्हें अब इस बात का पता चल पा रहा है। कई लोगों को पट्टे तो मिल गए पर उन्हें आज तक कब्जा नहीं मिला। उनकी जमीनों पर आज भी दबंग या प्रभावी लोग ही खेती कर रहे हैं। गजराज कहते हैं कि कुछ को जमीन तो मिल गई पर उनकी जमीन तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं दिया गया। ऐसे में वे खेती नहीं कर पा रहे। कई जगह जंगल की जमीन आवंटित कर दी है, वहां वन विभाग खेती नहीं करने दे रहा। वहां राजस्व और वन विभाग के बीच दलित दो पाटन के बीच की तरह पीस रहे हैं। किसी को नदी-नालों पर ही पट्टे दे दिए। किसी को पहाड़ पर तो किसी को रास्ते पर। किसी को आधी तो किसी को चौथाई हिस्सा जमीन ही मिल पायी है। गजराज यह भी बताते हैं कि जब सरकार ने सारी कृषि जमीनों का विवरण कंप्यूटराइज्ड किया तब कई जिलों में पट्टे की जमीनों को कंप्यूटर रिकार्ड में चढाया ही नहीं गया। बाद में जब इसकी शिकायत हुई तो सुधार किया गया। ऐसे में प्रभावितों को शासकीय रिकार्ड कैसे मिलता? कुल मिलाकर कहें तो सरकारी अमले की निष्क्रियता से पूरी योजना ही मटियामेट हो चुकी है। रसूखदारों के लिए नियमों में बदलाव तत्कालीन दिग्विजय सरकार ने पट्टे दिए जाने वाले घोषणापत्र में स्पष्ट उल्लेख किया था कि ये अहस्तांतरणीय रहेंगे। लेकिन वर्तमान प्रदेश सरकार ने बीते साल जो आदेश किया उससे प्रभावितों की मुश्किलें और बढ़ गईं। 21 अगस्त 2015 को जारी राजपत्र में मप्र भू राजस्व संहिता के प्रावधानों में संशोधन करते हुए दलितों को दिए गए पट्टों को अहस्तांतरणीय से बदलकर दस सालों बाद हस्तांतरणीय कर दिया गया। इससे जमीन पर लम्बे समय से कब्जा कर रहे दबंगों को अप्रत्यक्ष रुप से फायदा मिलेगा। अब वे इन्हें डरा-धमकाकर या थोड़े पैसों का लालच दिखाकर इनकी पट्टे की जमीन को वैधानिक तौर पर अपने नाम करा सकेंगे। दिग्विजय सरकार ने घोषणापत्र में यह भी कहा गया था कि लोगों को अपनी जमीन पर काबिज करवाने का पूरा जिम्मा प्रशासन का होगा और जिला कलेक्टर इस काम की निगरानी करेंगे। इसके बावजूद प्रदेश में कहीं कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पा रही। सबसे बुरी स्थिति छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह, उज्जैन, देवास, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, विदिशा, सागर और इंदौर जिलों की है। शाजापुर जिले में नलखेडा तहसील के चांपाखेडा के कंवरलाल अब तक अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं। सीहोर जिले की इछावर तहसील के 14, आष्टा तहसील के 111, नसरुलागंज में बालागांव के 47 लोगों को अब तक कब्जे नहीं मिले। टीकमगढ़ जिले की बड़ागांव तहसील के कनेसनगर में 18 तथा नीमच की मनासा तहसील के कुंडला में 21 तो महागड में 10 लोगों की जमीन पर अब भी दबंगों का कब्जा है। देवास जिले में सोनकच्छ के धन्धेड़ा में तो अजीबोगरीब दलील दी गई कि राजस्वकर्मियों के पास गांव का सरकारी नक्शा ही नहीं है, इस वजह से अब तक यहां पट्टों की जमीन बताई ही नहीं जा सकी है। अभियान के सर्वे में मिली जानकारी के अनुसार प्रदेशभर में करीब दो लाख से ज्यादा लोगों को आज तक भी अपनी जमीनों पर कब्जा नहीं मिल सका है। अदालत पर भारी दबंगों की गुंडागर्दी छतरपुर जिले में महाराजपुर के सैला गांव में 55 वर्षीय अजोध्या अहिरवार ने पट्टे की जमीन पर दबंगों के कब्जे को लेकर न्यायालय में गुहार लगाई तो फैसला उनके पक्ष में आया। फैसले से उत्साहित अजोध्या ट्रैक्टर लेकर तिल्ली बोने अपने खेत पर गए तो वहां मौजूद दर्जनभर से ज्यादा दबंगों ने उनकी लाठियों से पीट-पीट कर हत्या कर दी। देवास जिले के बागली में बडियामांडू के 70 साल के दोलूजी से गांव के ही दबंग लोगों ने पट्टे की जमीन पर काबिज होने की बात पर दो बार खून-खराबा किया। आखिरकार परिवार सहित उन्हें गांव से भागना पड़ा। हालात इतने बुरे हैं कि पट्टे की जमीन पर बरसों से कब्जा जमाए दबंग अब किसी की सुनने को तैयार नहीं है। कई बार तो वे कब्जा दिलाने खेत पर पहुंचे सरकारी अमले पर भी हमला करने से भी बाज नहीं आते। कुछ समय पहले देवास जिले के खेड़ा माधौपुर में एक परिवार के लिए जमीन का सीमांकन कर उसे कब्जा दिलाने गए पटवारी विनोद तंवर, चौकीदार और कालू को 30-40 दबंगों ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। विनोद तंवर बताते हैं कि उन्हें सात दिन अस्पताल में रहना पड़ा। आरोपियों पर कोर्ट में मामला भी लंबित है। जिले के ही निपनिया हुरहुर, इस्माइल खेड़ी, राजोदा और सामगी गांव में भी यही हालात हैं। शाजापुर जिले के गांव खड़ी में भगवंता बाई दबंगों के साथ हुए टकराव में बंदूक के छर्रे लगने से जख्मी हो गई थीं। प्रदेश में कई जगह पट्टों की जमीन को लेकर दलितों का खून बहाया गया पर फिर भी कब्जे नहीं मिले। विधवा जसोदाबाई अपनी आपबीती सुनाते हुए फफक पड़ती हैं। सीहोर जिले में आष्टा के रामपुरा की 55 वर्षीया जसोदाबाई को पांच एकड़ जमीन का पट्टा मिला था। लेकिन इस पर काबिज दबंगों ने आज तक उन्हें कब्ज़ा नहीं दिया। वे परिवार में अकेली हैं और मजदूरी करके अपना पेट पालती हैं। उन्हें हर दिन काम की तलाश में दूसरों के खेत पर जाना पड़ता है। वे पूछती हैं, जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, तब तक तो ठीक पर उसके बाद किसका सहारा? कौन रोटी देगा और कौन इलाज़ कराएगा? थोड़ी सी जमीन मिल जाती तो बुढ़ापा सुधर जाता। दबंग उन्हें धमकाते हैं कि कहीं शिकायत की तो ठीक नहीं होगा। जसोदाबाई के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ नजर आती हैं। इसी गांव की रहने वालीं और विकलांग 50 साल की रेशमबाई की पांच एकड़ जमीन पर भी दबंग ही खेती कर रहे हैं। उज्जैन जिले की तराना तहसील के नांदेड गांव में मोहनलाल को जो जमीन मिली वह दबंगों के कब्जे में थी। मोहनलाल ने जमीन के लिए बहुत संघर्ष किया पर 2012 में जमीन का सपना लिए ही उनकी टीबी से मौत हो गई। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें जमीनें तो मिल गई हैं लेकिन, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इनका क्या करें। विदिशा जिले की लटेरी तहसील के गांव बांदीपुर में हरप्रसाद और जवाहरसिंह को सिंद नदी का ऊबड़-खाबड़ कराड़ (खाईनुमा) किनारा मिला है। लटेरी में ही रतनलाल अहिरवार को गोलाखेडा और बाबूलाल अहिरवार को आनंदपुर में नालों की जमीन का पट्टा मिला है। टीकमगढ़ के बक्सोई में प्रभुदयाल तनय को भी नाले की जमीन का पट्टा दे दिया गया। टीकमगढ़ जिले में बडागांव के अमरपुर में अमना तनय वंशकार को 0.5 हेक्टेयर पहाड़ी जमीन दी गई लेकिन, वहां चट्टानों के सिवा कुछ नहीं है। यहां मु_ी भर मिटटी ही नजर नहीं आती तो खेती की बात तो बहुत दूर की है। सीहोर जिले के इछावर ब्लाक में जमोनिया गांव के दलित अशोक कुमार बताते हैं कि उन्हें 2002 में जमीन का पट्टा मिला था। वे बताते हैं, कुछ सालों बाद कब्जा भी मिल गया लेकिन हमारी जमीन तक जाने के लिए रास्ता ही नहीं है। हमने दो बार फसल भी बोई लेकिन खेत के पड़ोसी ने दोनों बार नष्ट कर दी और कुल्हाड़ी लेकर हमें जान से मारने की धमकी देता है। अब हम खेत तक जाएं ही कैसे? अधिकांश प्रभावित यह लड़ाई लम्बे समय से लड़ रहे हैं। अब तो उनका धीरज भी जवाब देने लगा है। कुछ बुजुर्ग तो जमीन मिलने से पहले ही जिंदगी की लड़ाई हार चुके हैं तो कुछ इस फेर में जिले और तहसील के चक्कर लगाते-लगाते थक चुके हैं। कई परिवारों की पहले से बिगड़ी माली हालत और बदतर हो चुकी है। उनके बर्तन तक बिक चुके हैं। भू अधिकार अभियान नाम की संस्था बीते 10 सालों से प्रदेश के करीब 16 जिलों में जमीन की लड़ाई में इन परिवारों का हौसला बढ़ा रही है। संस्था के कार्यकर्ता पीडि़त परिवारों को कानूनी सलाह और परामर्श तो देते हैं ही, प्रशासन और पीडि़तों के बीच कड़ी का काम भी करते हैं। संस्था से जुड़े राजेन्द्र सिंह बताते हैं, हम कोशिश कर रहे हैं कि इन पीडि़तों की आवाज प्रशासन और सरकार तक पहुंचा सकें ताकि इन्हें न्याय मिल सके। प्रदेश की सरकार में काबीना मंत्री रामपाल सिंह भी मानते हैं कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जिस तरह पट्टों का वितरण किया गया उसमें कई तरह की विसंगतियां हैं। वे कहते हैं, हमने इन विसंगतियों की जांच करने के आदेश दिए हैं। जांच का काम प्रदेश में पूरा हो गया है हालांकि अब तक जांच रिपोर्ट नहीं मिल सकी है। जांच रिपोर्ट को विधानसभा में रखा जाएगा। सरकार दावे निकले खोंखले प्रदेश के बजट का करीब 22 प्रतिशत बजट आदिवासियों के नाम पर किया जाने लगा है, लेकिन बावजूद इसके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खाद्यान्न, भूमि सहित हर क्षेत्र में आदिवासियों का पिछड़ापन दूर नही हो सका। मध्य प्रदेश में तमाम लुभावने दावों के बावजूद आदिवासियों की स्थिति जस की तस है। आलम यह है कि बीते आठ साल में 217 अरब से ज्यादा की राशि आदिवासियों पर खर्च की गर्ई, फिर भी कहीं इलाज के अभाव में आदिवासी दम तोड़ रहे हैं तो कहीं जमीन से बेदखल होने की नौबत है। हर बार चुनाव के पहले लुभावने वादे जरूर होते हैं, लेकिन जीत के बाद कोई दल पलटकर नहीं देखता। राज्य सरकार के विभिन्न सरकारी विभागों में आदिवासियों के लिए सौ से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं चलती हैं, लेकिन आदिवासी उत्थान की र तार सुस्त है। विभिन्न विभागों के तहत आदिवासी उपयोजना में वर्ष 2004-05 से 2011-12 तक करीब 239 अरब रूपए का बजट आदिवासियों के लिए मंजूर हुआ, जिसमें से दिसंबर-2011 तक 199 अरब से ज्यादा खर्च कर दिए गए। वर्ष-2012-13 में आदिवासी उपयोजना के तहत अनुमानत: करीब 35 अरब का बजट है, जिसमें से करीब 18 अरब खर्च होने का अनुमान है। इस तरह करीब करीब 217 अरब रूपए आठ सालों में खर्च करने के बावजूद आदिवासियों की हालत सुधर नहीं सकी है। योजनाओं का ढेर आदिवासियों के लिए मुख्य रूप से आदिवासियों के सरकारी स्कूल, आवासीय छात्रावास, छात्रवृत्ति, रोजगार प्रशिक्षण, कपिलधारा योजना में सबसिडी, किसानों को स्वरोजगार अनुदान, रानी दुर्गावती स्वरोजगार योजना में उद्योग के लिए अनुदान, अधोसंरचना विकास और पुनर्वास योजना चल रही हैं। जमीन से बेदखल होने की नौबत- आदिवासियों की स्थिति जमीन के मामले में भी खराब है। वनाधिकार अधिनियम-2006 के तहत वनभूमि के पट्टे मिलने के दावे हकीकत के सामने खोखले नजर आते हैं। अगस्त-2012 तक प्रदेश में 4 लाख 60 हजार 947 आवेदन में से अनुसूचित जनजाति के लोगों को केवल 1 लाख 59 हजार 172 पट्टे दिए गए थे। वहीं 2 लाख 78 हजार 758 दावे खारिज कर दिए गए। करीब 4 लाख 50 हजार 619 दावे व्यक्तिगत थे, जबकि दस हजार 328 सामुदायिक दावे थे।

मध्य प्रदेश में खुदकुशी की खेती

सालाना 3 लाख करोड़ कमाई, फिर भी मौत नहीं रूक पाई
भोपाल। सरकारी आंकड़ों में मध्य प्रदेश में खेती की खूब बहार है। गेंहू, सोयाबीन और अन्य फसलों की हो रही बंपर पैदावार। सरकारी दावे के अनुसार, खेती-किसानी के मामले में मध्य प्रदेश बेहद समृद्ध राज्य बन गया है। राज्य की 74.73 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है और कृषि पर निर्भर है। कृषि से सालाना कमाई भी 3 लाख करोड़ के पार पहुंच गई है। इसलिए प्रदेश को लगातार चार कृषि कर्मण अवार्ड मिल चुके हैं। यानी मप्र खेती-किसानी में है सबसे खुशगवार। सरकारी दावों के इतर काश ऐसा होता। सरकार के तमाम दावों के बीच दुखद पहलू यह है कि पिछले एक दशक से मप्र के खेतों में खुदकुशी की खेती हो रही है। यानी मप्र में जैसे-जैसे फसलों की पैदावार बढ़ रही है वैसे-वैसे किसानों की खुदकुशी के मामले भी बढ़ रहे हैं। आलम यह है कि प्रदेश में रोजाना छह किसान मौत को गले लगा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ सरकार प्रदेश की खेती-किसानी को पर्यटन का केंद्र बनाने की तैयारी कर रही है। केंद्र और राज्य सरकार द्वारा कृषि विकास व किसानों की आमदनी दोगुनी करने के तमाम दावों के बावजूद नए साल की शुरुआत किसानों से संबंधित एक निराशाजनक खबर से हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने बताया है कि वर्ष 2015 में 12,602 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की। 'एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडियाÓ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मजदूरों की संख्या 6710 थी, वहीं 2015 में 8,007 किसानों ने जबकि 4,595 कृषि मजदूरों ने खुद को खत्म कर लिया। इस प्रकार देखें तो किसान-आत्महत्या के मामले में एक साल में बयालीस फीसदी का इजाफा हुआ, जो कि बेहद चिंताजनक है। हालांकि मजदूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 प्रतिशत की गिरावट जरूर दर्ज की गई है। मप्र में रोजाना 6 खुदकुशी अगर मप्र की बात करें तो लगातार हो रही धोखाधड़ी के कारण यहां किसानों के खुदकुशी के मामले बढ़े हैं। 2015 में रोजाना औसतन चार किसान जान दे रहे थे, जो 2016 में बढ़कर छह हो गए। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2015 में 1290 किसान-श्रमिकों ने जान दी। वहीं एक फरवरी 2016 से 15 नवंबर 2016 के बीच 1685 किसानों ने जान दी। यह जानकारी विधानसभा में शीतकालीन सत्र के दौरान गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने दी थी। इनमें डिंडोरी में सबसे ज्यादा 68 किसानों ने अपने प्राण त्यागे। वहीं सागर में 45, झाबुआ में 33, अलीराजपुर में 32, खरगौन में 30 किसानों ने खुदकुशी की। बड़े जिलों में भोपाल में एक, जबलपुर में 12, ग्वालियर में खुदकुशी के 2 मामले सामने आए। इस बीच इंदौर में एक भी घटना नहीं हुई। किसानों के मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ, उलटे खुदकुशी करने वाले किसानों की तादाद में इजाफा क्यों हुआ? इस सवाल का जवाब गहरे कृषि संकट में छिपा है। आय दोगुनी करने का रोड-मैप का क्या? 18 फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीहोर जिले के शेरपुर में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लागू करने के साथ ही किसानों की आय को वर्ष 2022 तक दुगना करने का संकल्प लिया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री को विदाई देने के चंद घंटे बाद ही एक उच्च-स्तरीय बैठक में किसानों की आय दोगुना करने का रोडमैप बनाने के दिशा-निर्देश दिए। इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया। मध्यप्रदेश देश में पहला राज्य बना जिसने किसानों की आय दोगुना करने का रोड मैप तैयार कर लिया। लक्ष्य यह है कि प्रधानमंत्री ने 2022 का जो समय निर्धारित किया है उसके एक वर्ष पूर्व ही उनका यह सपना प्रदेश में पूरा हो जाये। प्रदेश सरकार द्वारा तैयार कृषि रोड मैप किसानों को 360 डिग्री पर सहायता करने के उद्देश्य से बनाया गया है। इसमें किसानों को मौसम की प्रत्येक परिस्थिति के अनुरूप सुविधाएं तो उपलब्ध करवाई ही जाएगी। साथ ही कृषि संबंधी शोध, बीज, खाद, पर्याप्त बिजली-पानी, सरकार की योजनाओं, उत्पादन की लागत, मंडी के दामों इत्यादि को सरलता से किसानों तक पहुंचाया जाएगा। लेकिन हकीकत क्या है? टमाटर मुफ्त के भाव खरीदने वाले भी नहीं मिल रहे हैं, मटर 6-8 रूपए भी कोई नहीं पूछ रहा है, भाजी पशुओं को खिलाया जा रहा है। ऐसे में किसान की आय दोगुनी कैसे हो पाएगी? ऐसे में खेती लाभ का धंधा कैसे बन पाएगी? खेती-किसानी की यह दुर्दशा देखकर ऐसा लगता है जैसे सरकार की प्राथमिकता में खेती है ही नहीं। एक तरफ अधिकारियां-कर्मचारियों की सुख-सुविधाओं, वेतन-पेंशन आदि के लिए जो भी आयोग बनते हैं, जो भी नीति बनती है उसका क्रियान्वयन झट से हो जाता है, जबकि खेती को तो भगवान का भी सहारा नहीं मिल पा रहा है। अपनी फसल का वाजिब दाम नहीं मिलने पर या तो किसान मंडी में फसल छोड़ जा रहा है या मुफ्त में बांट रहा है। लेकिन ने तो सरकार और न ही मोटा-मोटा वेतन लेने वाले कृषि विभाग के अधिकारी यह सोच रहे हैं कि किसान ऐसे ही मुफ्त में अपनी उपज बांटने लगे या माटी मोल बेचने को मजबूर हो तो फिर वह जिंदा कैसे रहेगा? ऐसे में उसके सामने सल्फास, कीटनाशक या फांसी का फंदा नजर आते हैं? क्या करे, फिर वो बच्चों को क्या खिलाए, खुद क्या खाए? किसान की उपज की मार्केटिंग की व्यवस्था नहीं किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्का जी कहते हैं कि किसान की आय दोगुना करने के रोड मैप में उत्पाद को बाजार मुहैया करना मुख्य विषय है। लेकिन एक दशक से खेती को लाभ का धंधा बनाने का प्रचार करने वाली सरकार किसान की उपज की मार्केटिंग की कोई ठोस व्यवस्था नहीं बना पाई है? टमाटरों का कैचप बनाने के बड़े-बड़े वादों का कचमूर कैसे निकल गया? बाजार में अचानक टमाटर के भाव गिर जाने से किसानों की कमर टूट गई है। वर्तमान समय में टमाटर का मूल्य महज दो से पांच रुपए तक पहुंच गया है। इस कीमत में भी टमाटर के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। जिसके कारण टमाटर बेचने वाले किसानों की स्थिति काफी खराब हो गई है। बाजार में टमाटर का अंबार लगा हुआ है लेकिन किसानों को टमाटर के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। जिससे किसान खेतों में लगे टमाटर को खेत से तोडऩे की भी जहमत नहीं उठा रहे हैं। अब टमाटर खेत में ही बर्बाद हो रहे हैं। दरअसल, सरकार किसानों को उद्यानिकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित तो कर रही है लेकिन उनकी फसलों के लिए बाजार नहीं तैयार कर पा रही है। इसी का परिणाम है कि किसानों को उनके उत्पाद का भाव नहीं मिल पा रहा है। कक्का जी कहते हैं कि किसानों से बार बार कहा गया और अब भी कहा जा रहा है कि वे केवल पारंपरिक फसलों गेहूं, चना, सोयाबीन के भरोसे न रहे, फल, सब्जी, फूल इत्यादि की भी खेती साथ में करें। इसमें मुनाफा ही मुनाफा है। अब टमाटर और हरी सब्जियों के दाम दो कौड़ी के कैसे हो गए? और वे कैसे फिंक रहे हैं या मुफ्त बांटने की हैसियत वाले लग्जरी किसान मुफ्त बांट रहे हैं और असल किसान दो-दो आंसू रोने की स्थिति में है। खाद्य प्रसंस्करण के उद्योगों के सपनों का क्या हुआ? क्या होगा खेती के अलावा अन्य तरह की खेती की राहों का? क्यों करते हैं किसान आत्महत्या फसल की बर्बादी और ऋणों का बोझ किसानों को आत्महत्या के दहलीज पर पहुंचा देते हैं। 2015 में जितने किसानों ने आत्महत्या की उनमें से अधिकतर मामलों में कर्ज ना चुका पाना प्रमुख कारण था। मैग्सेसे अवार्ड विजेता पी. साईनाथ का कहना है कि मौसम की मार, ऋणों के बोझ सहित कई अन्य कारणों से किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या कर रहे किसानों का असल दर्द फसलों की बर्बादी से उपजी आर्थिक तंगहाली ही है। परिवार की जिम्मेदारी ना उठा पाने की ग्लानि भी उनमें रहती है। मप्र जहां एक तरफ अनाज उत्पाद में पिछले चार साल से कृषि कर्मण सम्मान पा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में किसान निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं। है न चौंकाने वाली बात। दरअसल, प्रदेश में किसान सरकार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिकार्ड अनाज उत्पादन तो करता है लेकिन इसके लिए उसे बड़ी राशि व्यय करनी पड़ती है। जब उत्पादित अनाज या समान का वाजिब दाम उसे नहीं मिलता है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर होता है। दरअसल प्रदेश में खेती-किसानी की आधारभूत नीति नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है। प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं किसान हैं और खेती-किसानी को लेकर वे निरंतर चिंतित रहते हैं। लेकिन अधिकारियों की नाफरमानी और लापरवाही के कारण स्थिति बिगड़़ रही है। प्रदेश में आंकड़ों की खेती हो रही है। वातानुकूलित दफतर में बैठे अफसर खेती-किसानी का खाका तैयार कर रहे हैं। नहीं मिल रहा वाजिब मूल्य प्रदेश में किसान बैंक, महाजन या अन्य स्रोतों से कर्ज लेकर खेती करता है ताकि फसल बेचकर वह चुकता कर देगा। लेकिन किसान की उत्पादित फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। इसका नजारा पिछले साल प्याज और अब टमाटर और आलू की फसल आने के बाद साफ दिख रहा है। आलम यह है कि किसान जब अपनी फसल लेकर मंडी पहुंच रहा है तो उसे अपनी फसल के बदले भाड़े तक की रकम नहीं मिल पा रही है। ऐसे में किसान के पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। गुलाबी तस्वीर लाल क्यों? सवाल है कि कृषिक्षेत्र की गुलाबी तस्वीर पेश करने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद ये आंकड़े घटने के बजाय बढ़ क्यों रहे हैं? दरअसल, किसान-आत्महत्या का यह सिलसिला दोषपूर्ण आर्थिक नीति का नतीजा है। एक ऐसी नीति जिसमें गरीब और गरीब हो रहे हैं, जबकि अमीर और अमीर। कृषि को व्यवस्थित तौर पर ऐसा बनाया गया है कि वह पुसाने लायक नहीं रह गई है, जिसके कारण किसान कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं। आजादी के समय जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान पचास फीसदी से ज्यादा था वहीं मौजूदा दौर में बीस फीसदी भी नहीं रहा। जरा सोचिए कि क्या कारण है कि एक किसान मंडी में टमाटर पचास पैसे प्रति किलो बेचने जाता है, लेकिन खरीदार पच्चीस पैसे प्रति किलो देने को कहता है और वह किसान एक ट्रैक्टर टमाटर को जमीन पर रौंद कर चला जाता है? किसानों की बदहाली और आत्महत्याओं के लिए सरकारों की दोषपूर्ण नीतियां जिम्मेदार हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि हालात ऐसे भी बुरे नहीं है कि सरकार इसे नियंत्रित ना कर पाए। लेकिन सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है। खेती छोड़कर अब नौकरी करने वाले सवाई सिंह परमार कहते हैं कि सरकारें किसानों के हित की बात तो करती हैं पर उनकी परेशानियों को नहीं समझतीं। किसानों के लिए जो सुविधाएं या सब्सिडी मिलती है वह काफी नहीं है। अक्सर सरकारी सुविधाओं का लाभ सिर्फ बड़े किसानों को मिलता है। समृद्ध किसानों की सब्सिडियों को रोक कर छोटे, मझोले किसानों को मदद देना होगा। बेहतर ऋण व्यवस्था, दोष मुक्त फसल बीमा और सिंचाई प्रणाली में सुधार लाकर सरकार किसानों की स्थिति में सुधार ला सकती है। मप्र में किसानों के लिए सिंचाई सबसे बड़ी समस्या है। सरकार का दावा है कि वर्ष 2003 में जहां सिर्फ सात लाख हेक्टेयर के आसपास सिंचित क्षेत्र था। वहीं जल संसाधन विभाग ने इसे तीस लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया है। नर्मदा घाटी विकास, पंचायत और अन्य विभाग की योजनाओं से बढ़े सिंचाई रकबे की गणना अलग है। आने वाले वर्षों में मध्यप्रदेश में साठ लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता पहुंच जाएगी। इसके विपरीत स्थिति यह है कि प्रदेश में किसानों की फसल सिंचाई के अभाव में सूख जाती है। खेती के लिए बिजली, पानी, खाद-बीज की जरूरत होती है। सरकार का दावा है कि वह किसानों को सारी सुविधाएं मुहैया करा रही है। जबकि हकीकत यह है कि सिर्फ कागजों पर ही किसानों को बिजली-पानी मिल रहा है। जहां तक खाद बीज का सवाल है तो वह तो किसानों की आत्महत्या के लिए सबसे बड़ा कारण है। दरअसल प्रदेश में किसानों को अमानक खाद बीज मुहैया कराया जाता है। किसान बैंकों से कर्ज लेकर खेती करता है और पूरे परिवार सहित रात दिन मेहनत करके सरकार के लक्ष्य की पूर्ति करता है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि पिछले चार साल में प्रदेश में रिकार्ड अनाज का उत्पादन हो रहा है। कृषि मजदूर भी त्रस्त प्रदेश में बीते एक दशक में खेतों में काम करने वाले मजदूरों की आत्महत्या के मामले भी तेजी से बढ़े हैं। पांच में से तीन मजदूर पारिवारिक वजहों और बीमारी के कारण खुदकुशी कर लेते हैं। हैरानी की बात यह कि देश में पारिवारिक वजहों से अपनी जिंदगी खत्म करने वाले लोगों की संख्या इन मजदूरों से कम है। यही नहीं, एनसीआरबी के आंकड़े कहते हैं कि किसानों के मुकाबले उनके साथ खेतों में काम करने वाले मजदूर पारिवारिक वजहों और बीमारी के चलते ज्यादा त्रस्त हैं। आंकड़ों के अनुसार, खुदकुशी करने वालों में 40.1 फीसदी कृषि क्षेत्र के मजदूर पारिवारिक वजहों से ऐसा कदम उठाते हैं। वहीं, साल 2015 में 1843 मजदूरों ने इन कारणों से अपनी जिंदगी समाप्त कर ली थी। वर्ष 2015 में 60 फीसदी कृषि क्षेत्र के मजदूर बीमारी के कारण मर गए। इनकी संख्या 4595 है। बीमारी से मरने वाले किसानों की तुलना में इनका आंकड़ा बहुत अधिक है। बता दें कि बीमारी से मरने वाले लोगों का औसत प्रतिशत करीब 43 फीसदी है। इसके अलावा हर साल समूचे देश में पारिवारिक वजहों के कारण 27.6 फीसदी और बीमारी के कारण 15.8 फीसदी आत्महत्या कर लेते हैं। इस लिहाज से कृषि क्षेत्र के मजदूर की खुदकुशी के मामले ज्यादा हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा खेती करने वाले मजदूर आत्महत्या करते हैं। साल 2015 में 1261 मजदूरों ने अपना जीवन समाप्त किया। इसके बाद खुदकुशी के मामले में मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर आता है। इस मियाद में यहां 709 मजदूरों ने आत्महत्या की। तमिलनाडु में 604, आंध्र प्रदेश में 400, कर्नाटक में 372, गुजरात में 244 और केरल में 207 मजदूरों ने खुदकुशी की। 80 प्रतिशत आत्महत्याओं के लिए बैंक जिम्मेदार प्रदेश में किसानों की आत्महत्या के मामले में स्थानीय साहूकारों को आम तौर पर विलेन की तरह पेश किया जाता है, लेकिन सरकारी आंकड़े इसके उलट एक अलग तस्वीर पेश करते हैं। आंकड़ों के अनुसार 2015 में 80 प्रतिशत किसानोंं ने बैंकों और पंजीकृत माइक्रो फाइनेंस संस्थानों से ऋण लेने और फिर दिवालिया होने के कारण आत्महत्याएं की। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किसानों की आत्महत्याओं से संबंधित डाटा के अनुसार 2015 में 3000 से अधिक किसानों ने बैंकों से ऋण लेने और फिर दिवालिया होने की वजह से ऐसा कदम उठाया। जिसमें से 2474 किसानों ने माइक्रो फाइनेंस संस्थानों से लोन लिया था। इनमें मप्र के करीब 870 किसान हैं। एनसीआरबी ने पहली बार किसान आत्महत्याओं को ऋण लेने और दिवालियापन के स्रोतों के आधार पर वर्गीकृत किया है। वहीं बैंकों और साहूकारों दोनों से ऋण लेने के कारण 10 प्रतिशत किसानों ने ही आत्महत्याएं की। जिसमें साहूकारों से लोन लेने वाले लोग 9.8 प्रतिशत हैं। बैकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से किसानों को बीज, खाद और सिंचाई के लिए पैसों की खातिर महाजनों और सूदखोरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह लोग 24 से 50 फीसदी ब्याज दर पर उनको कर्ज देते हैं। लेकिन फसलों की उपज के बाद उसकी उचित कीमत नहीं मिलने की वजह किसान पहले का कर्ज नहीं चुका पाता। वह दोबारा नया कर्ज लेता है और इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज के भंवरजाल में फंसती रहती है। आखिर में उसे इस समस्या से निजात पाने का एक ही उपाय सूझता है और वह है मौत को गले लगाना। योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन कहते हैं कि ज्यादातर किसान साहूकारों से ही ऋण लेते हैं। वे बैंकों व माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस की अपेक्षा लचीले होते हैं। इंस्टीट्यूशन ग्राहक से ऋण वसूली के लिए सामाजिक दबाव बनाते हैं। बस आंकड़ों की बाजीगरी प्रदेश के किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एनसीआरबी ने जो रिपोर्ट दी है वह आंकड़ों की बाजीगरी लग रही है। अब तक यही माना जाता रहा है कि किसानों की आत्महत्या का कारण खेती में नुकसान, कर्ज तले दबना ही है। जबकि हकीकत इससे जुदा है। एनसीआरबी की ओर से जारी 2015 की रिपोर्ट बताती है कि बताती है कि 2015 में खेती से जुड़े 1290 लोगों ने जान दी। इनमें से असल में किसान केवल 581 लोग ही थे। शेष तो कृषि से जुड़े मजदूर थे। मप्र में कर्ज के चलते छह किसानों ने आत्महत्या की है। जो कई राज्यों की तुलना में बेहद कम है। कर्ज के चलते किसानों की आत्महत्या के सबसे ज्यादा 1237 मामले महाराष्ट्र में सामने आए हैं। कर्नाटक में 787, तेलंगाना में 384 और पंजाब में 49 किसानों ने आत्महत्या की। गरीबी के चलते आत्महत्या करने वाले किसानों की सं या मप्र में तीन रही, जबकि दीवालिया घोषित किए जाने पर 13 किसानों ने आत्महत्या की है। मप्र में किसानों की आत्महत्या के मामलों में सबसे ज्यादा घरेलू विवाद वजह रहा। घरेलू विवाद के चलते 183 किसानों ने जान दी। इसके अलावा 24 ने वैवाहिक जीवन की परेशानियों के चलते खुदकुशी की। वहीं विवाहेत्तर संबंध भी चार किसानों की खुदकुशी की वजह बनी। दहेज प्रताडऩा के चलते भी छह महिला किसानों ने आत्महत्या की। 47 मामलों में किसानों की आत्महत्या की मूल वजह का पता ही नहीं चल पाया। समाज में इज्जत खोने के डर से भी दो किसानों ने मौत को गले लगाया। यही नहीं घरेलू विवाद के बाद आत्महत्या के बड़े कारणों में बीमारी भी एक वजह रही है। अपनी बीमारी से तंग आकर 300 से ज्यादा किसानों ने मौत को गले लगाया। इनमें 108 ने लंबी बीमारी से त्रस्त होकर जान दी। 42 किसानों के खुदकुशी करने का कारण उनकी मानसिक बीमारी थी। यही नहीं नशे और शराब की लत के कारण भी किसानों ने मौत को गले लगाया है। इसके कारण 74 किसानों ने आत्महत्या की है। रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में फसल न बिकने के चलते आत्महत्या का एक भी मामला सामने नहीं आया। अफसर बना रहे ख्याली पुलाव मध्यप्रदेश में अफसरशाही सरकार को स्वर्णिम खेती का सपना दिखा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि किसानों पर लगातार बोझ बड़ रहा है। किसानों पर बढ़ता बोझ देख मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल किसानों की प्याज खरीदवा ली थी। इसके पीछे अफसरों ने तर्क दिया था कि उसे कुछ दिनों बाद अधिक दाम पर बेंच दिया जाएगा। लेकिन अफसरशाही के तिकड़म में पड़कर सरकार ने प्याज तो खरीद लिया, लेकिन वह मंडियों में पड़े-पड़े सड़ गया। अफसरशाही के साथ ही किसानों को हर कोई लूट रहा है। चाहे वह पटवारी हो, बैंक, महाजन, बीज-खाद कंपनी, पटवारी, पुलिस, झोलाछाप डॉक्टर या चिटफंड कंपनी। यानी हर एक के निशाने पर किसान है। ऐसे में किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है। भारतीय किसान यूनियन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दीवान चन्द चौधरी का कहना है कि एक दशक से शिवराज सरकार और तीन साल से मोदी सरकार भी खेती को लाभ का धंधा बनाने का ढोल पीट रही है। इसके लिए योजनाएं, परियोजनाएं लाई जा रही हैं, लेकिन व्यवस्था नहीं बदली जा रही है। इस व्यवस्था से तो कृषि लाभ का धंधा नहीं बनने वाली। इस व्यवस्था ने आज खेती को इतना बदहाल कर दिया है कि किसान बंपर उत्पाद करके भी बेहाल है। टमाटर, प्याज और आलू पिछले कुछ सालों में अपनी ऊंची कीमतों के कारण ही चर्चा में रहे हैं। प्याज ने तो राजनीतिक दलों को वो दिन भी दिखाए थे कि चुनाव में हार जीत का मुद्दा बनी कई बार ये प्याज। इसी प्याज के नाम पर सियासी दलों ने आंसू भी बहाए। लेकिन उसी प्याज ने किसानों को सड़क पर ला दिया। सरकार के मुनाफाखोर अफसरों ने भी सरकार से प्याज खरीदवाकर बहती गंगा में हाथ धो लिया। टमाटर और हरी सब्जियों की इस रिकार्ड आवक का दोष यकीनन सरकार को नहीं दिया जा सकता। बाजार तो मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर चलता है। लेकिन सरकार की महती भूमिका तो यहां फिर भी है। भूमिका इस रुप में कि खेती को लाभ का धंधा बनाने का दम भरने वाली सरकार अगर चाहती तो किसान की मेहनत का टमाटर उसे मजबूरी में यूं फेंकना नहीं पड़ता और प्याज इस तरह से कौडिय़ों के मोल में नहीं बेची जाती। असल में यहां चिंता कोल्ड स्टोरेज की, की जानी चाहिए थी। यूं भी कोल्ड स्टोरेज में रखा टमाटर ही साल भर इस्तेमाल होता है। लेकिन फिलहाल प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज का कोई बंदोबस्त ही नहीं है जिसमें टमाटर और प्याज का स्टॉक सहेजा संभाला जा सके। आज किसान औने पौने दाम में अपनी मेहनत बेच रहा है इधर बाजार में उपभोक्ता को दस रुपए के किलो-डेढ किलो के हिसाब से टमाटर मिल रहा है। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुनाफा ना किसान के हाथ पहुंच रहा है ना फायदा उपभोक्ता के हाथ है। इस बंपर आवक का लाभ भी उठा रहा है तो तीसरा जो बिचौलिया है। जिस प्रदेश में सूखे और लाचारी से किसान खुद$कुशी कर रहा हो वहां उनकी मेहनत का इस तरह से बर्बाद होना शुभ नहीं है। ये आत्मावलोकन का सही समय हो सकता है सरकार के लिए। खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने के लिए यह जरूरी है कि कृषि के साथ-साथ उससे जुड़े अन्य घटकों जैसे पशुपालन, उद्यानिकी, मछलीपालन, डेयरी आदि गतिविधियों को आपस में जोड़ा जाए। इसके बगैर खेती को लाभ के व्यवसाय में परिवर्तित करना संभव नहीं है। खेती से जुड़ी इन सभी गतिविधियों का आपस में समन्वय स्थापित कराते हुए किसानों की आर्थिक उन्नति में सहायता की जा सकती है। किसान और कृषि के लिए संचालित विभागीय योजनाओं के समन्वय के साथ ही ग्रामीण विकास विभाग के सहयोग से कृषकों को उन्नतिशील किसान बनाने में मदद मिल सकती है, लेकिन सवाल वही कि क्या ऐसा करना संभव है? इसके लिए हमें योजनाबद्ध तरीके से कार्य करना होगा। हमें यह कोशिश करनी होगी कि किसान पुराने ढर्रे पर चल रही खेती के तरीके को बदले और नई जानकारी के अनुसार लाभ की खेती करें। इसके लिए प्रत्येक जिले में सौ-सौ किसानों का चयन कर उन्हें प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनके यहां इन सभी गतिविधियों का संचालन कराया जा सके। इससे होगा यह कि इन कृषकों से प्रेरणा लेकर अन्य किसान भी उन्नति कर अपनी आर्थिक स्थिति को और भी ज्यादा मजबूत करने आगे आएंगे। खेती में पढ़े-लिखे युवाओं की दिलचस्पी को बढ़ाना भी आवश्यक है ताकि वे व्यावसायिक उद्यानिकी फसलों के उत्पादन के साथ ही मसाला व औषधीय पौधों के उत्पादन में रुचि लें। देखा यह गया है कि पढ़े-लिखे लोग खेती में दिलचस्पी नहीं लेते, वे गांवों से पलायन कर रहे हैं। खेती को बचाना है और उत्पादन बढ़ाने के साथ खाद्य संकट से निपटना है तो पढ़े-लिखे लोगों को खेती से जोडऩे के लिए अभियान चलाना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोका जाए। इसके लिए कर्ज लेने वाले किसानों को कर्ज के उपयोग के बारे में प्रशिक्षित किया जाए। प्रशिक्षण में उन्हें खेती के आधुनिक तरीकों से भी अवगत कराया जाए ताकि मौसम की विपरीत परिस्थितियों में भी वे नुकसान में न रहें। राष्ट्रीय चिन्ह की तरह प्रत्येक गांव और जिले का अपना उत्पाद, फल, पशु-पक्षी और फूल हो और उस उत्पाद पर आधारित उद्योग स्थापित किए जाएं। साथ ही उन पहचान चिन्हों पर प्रमुखता से कार्य हो। क्योंकि गांवों की तस्वीर बदलेगी और गांव विकसित होंगे तभी देश और प्रदेश खुशहाल होंगे। कीमतें तय करना जरूरी कृषि विशेषज्ञों केअनुसार, विडंबना यह है कि बंपर फसल भी किसानों के लिए जानलेवा होती है और फसलों की बर्बादी भी। कपास और गन्ना जैसी नकदी फसलों के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है। लेकिन उपज से लागत भी नहीं वसूल हो पाती। यही वजह है कि आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं इन नकदी फसलों वाले राज्यों में ही होती हैं। फसल पैदा होने के बाद उनकी खरीद, कीमतें तय करने की कोई ठोस नीति और विपणन सुविधाओं का अभाव किसानों के ताबूत की आखिरी कील साबित होते हैं। तो आखिर इस समसया पर अंकुश लगाने का कारगर तरीका क्या है? विशेषज्ञों का कहना है कि प्राकृतिक विपदाओं पर काबू पाना तो किसी के वश में नहीं है। लेकिन फसल पैदा होने के बाद उनकी कीमतें तय करने की एक ठोस और पारदर्शी नीति जरूरी है ताकि किसानों को उनकी फसलों की उचित कीमत मिल सके। इसके अलावा विपणन सुविधाओं की बेहतरी और खेती के मौजूदा तौर-तरीकों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विभिन्न सहकारी कृषक समितियों के साथ मिल कर इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा। उसी हालत में किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकेगा। किसान विरोधी हैं मप्र सरकार की नीतियां मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अरुण यादव ने इस मामले में सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि मप्र सरकार की नीतियां किसान विरोधी हैं। लगातार प्रकृति की मार से किसान और कर्जदार हुआ है, लेकिन सरकार उन्हें सिर्फ आश्वासन ही दे रही है। परेशान किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं पर सरकार मानने को तैयार नहीं है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि 1995 से 3.18 लाख से किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बीते दो दशक में हर साल यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। नीतियां बनाने वालों के लिए ये बस आंकड़े हैं। मौत का ग्राफ बढ़ ही रहा है। किसानों की मौत का पर्यटन यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। कुछ इस तर्ज पर मप्र सरकार बदहाल किसानों को अपनी खेतीबाड़ी को कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र के रूप में तैयार करने की सलाह दे रही है। सरकार का कहना है कि कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र बनाकर किसान उपज के अलावा अतिरिक्त आय भी अर्जित कर सकते हैं। प्रदेश सरकार ने इसके लिए पिछले महीने ही विधिवत नोटिफिकेशन जारी किया है। जल्द ही इसे अमलीजामा पहनाने की कवायद शुरू की जाएगी। कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र स्थापित करने के लिए किसानों को विधिवत एनओसी लेना होगी। इन पर्यटन केन्द्रों में खेतीबाड़ी से जुड़ी गतिविधियां ही रहेंगी जिसमें सबसे अधिक उद्यानिकी फसलों को तवज्जो दी जाएगी। फल, फूल, मछली पालन, कला प्रदर्शनी से लेकर योगा जैसी गतिविधियां संचालित की जाएंगी। मनोरंज से जुड़ी सारी सुविधाएं उपलब्ध रहेंगी। इससे किसानों की आमदनी में इजाफा होने के अलावा दूसरे किसानों भी खेती के तौर तरीके सीखने का अवसर प्राप्त होगा। उद्यान विभाग के अफसरों का कहना है कि इस संबंध में दिशा निर्देश मिलने के बाद अमल शुरू किया जाएगा। कृषि पर्यटन सुविधा केन्द्र तैयार करने के लिए किसान के पास कम से कम 1 हेक्टेयर जमीन होना जरूरी है। नोटिफिकेशन जारी कर 1 हेक्टेयर में पर्यटन की दृष्टि से अलग-अलग उत्पादन और स्ट्रेक्चर तैयार करना होगा। इसके लिए जमीन भी निर्धारित की गई है। एक हेक्टेयर जमीन में ढलुआ छत सहित संरचना की अधिकतम ऊंचाई 7.5 मीटर रहेगी। सभी और न्यूनतम खुला क्षेत्र 7.5 मीटर होगा। भूखंड के लिए पहुंच मार्ग की चौड़ाई भी 7.5 मीटर होगी। कृषि फार्म, फूलोद्वान, फलोद्यान, मधु मक्खी पालन, पशुपालन, मछली पालन, सैरीकल्चर, कैंपिंग सुविधाएं, अस्तबल, कला प्रदर्शनी के लिए हॉल, पर्यटकों के लिए कॉटेज, रेस्टोरेंट, योगा हॉल, प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र, खेल सुविधा, रख-रखाव के लिए कर्मचारी आवास, स्वीमिंग पूल और केवल रहने वाले पर्यटकों के लिए मनोरंजन के लिए ओपन एरिया थिएटर भी रहेगा। अब सवाल यह उठता है कि प्रदेश के जिस किसान के पास खाद-बीज खरीदने के लिए पैसा नहीं होता है वह अपने खेत पर इतनी सारी सुविधाएं कहां से जुटाएगा। पूर्व विधायक सुनीलम कहते हैं कि किसानों की आड़ में सरकार यह सब कार्पोरेट घरानों और रसूखदारों के लिए कर रही है। दरअसल सरकार किसानों के खेतों को छिनने की तैयारी कर रही है। मुख्यमंत्री खेती को फायदे का धंधा बनाने की बात करते थे। करोड़पति कारोबारियों ने इस लाइन के नए अर्थ निकाले हैं। वो चाहते हैं कि मप्र के किसानों से उनके खेत लंबे समय के लिए लीज पर ले लिए जाएं। इसमें बीज से लेकर बिक्री तक का काम कारोबारी करेंगे। बदले में किसान को खेत का किराया नहीं देंगे, बल्कि फायदा हुआ तो किसान को भी एक हिस्सा दे देंगे। एक तरफ करोड़पति कारोबारियों के उच्च शिक्षित सीए दूसरी तरफ अनपढ़ किसान। लागत, भाव, बिक्री, खर्चेे, ह्रासमेंट सब काटपीट के कितना शुद्ध लाभ आया कैसे पता चल पाएगा। औद्योगिक घरानों के प्रस्ताव के अनुसार लीज अवधि में खेती से मार्केटिंग तक का अधिकार निवेशक के पास और जमीन का मालिकाना हक किसान के पास रहे। दोनों के बीच एक करार होगा जिसमें किसान को फायदे में भागीदार बनाया जाएगा। उद्योगपतियों के अनुसार यह मॉडल पंजाब में लागू है। 10 हजार करोड़ की सड़ जाती हैं फल व सब्जियां भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में खाद्य प्रबंधन की बदइंतजामी के चलते खेत से खलिहान और यहां से उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले ही लगभग 10 हजार करोड़ रुपये मूल्य के फल, सब्जियां और अन्य खाद्य वस्तुएं हर साल सड़कर नष्ट हो जाती हैं। खाद्य वस्तुओं के रखरखाव के लिए प्रदेश में कोल्ड स्टोर की संख्या जरूरत से बहुत कम होने की वजह से यह दिक्कत पेश आ रही है। पोस्ट हार्वेस्ट के बाद कच्ची वस्तुओं के खराब होने की दिक्कतें बहुत अधिक हैं। दरअसल इस बाबत कृषि और खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के सहयोग से कोल्ड चेन बनाने की योजना को मंजूरी मिली है। लेकिन इसके लिए व्यापक परियोजना नहीं बन पाई है, जिसके चलते यह पूरी तरह सफल नहीं हो पा रही है। किसान के खेत से उपज को सीधे खाद्य प्रसंस्करण उद्योग इकाइयों तक पहुंचाना और उसके बने उत्पादों को बाजार तक ले जाने की समग्र व्यवस्था का अभाव है। कृषि मंत्रालय ने इस नुकसान को रोकने के लिए कृषि प्रसार में सुधार की योजना तैयार की है। इसके तहत देश के 29 राज्य व तीन केंद्र शासित क्षेत्रों के 652 ग्रामीण जिलों को लिया गया है, जहां के किसानों को इसके लिए प्रशिक्षण, उनके समक्ष बचाव का प्रदर्शन, स्टडी टूर और स्कूलों में इसके बारे में विस्तार से जानकारी दी जाएगी। इस दौरान किसानों को भंडारण की आधुनिक व परंपरागत तरीकों से वाकिफ कराया जाएगा। इसके लिए प्रत्येक ब्लाक में किसान सलाहकार समिति का गठन किया जाएगा, जो किसानों को हर संभव सुविधा मुहैया करायेगी। फिलहाल देश में कोल्ड स्टोर बनाने का दायित्व व्यक्तिगत उद्यमी, उद्योग समूह, सहकारी संस्थाएं, स्वयं सहायता समूह, किसान उत्पादक संगठन, एनजीओ और सरकारी कंपनियों पर है। लेकिन फिलहाल कोल्ड स्टोर बनाने की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र ही निभा रहा है। संकट में रेशम कोषा उद्योग सरकार खेती को लेकर कितनी तत्पर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बालाघाट जिले में रेशम कोषा उद्योग दम तोड़ रहा है। मलबरी रेशम का धागा तैयार करने लगाई गई यूनिट बंद होने की कगार पर आ गई है। पिछले दो साल में तैयार हुआ धागा विभाग बेच नहीं पाया है। दूसरी तरफ सरकार ने कोकून के दाम घटा दिए हैं जिससे रेशम उत्पादन करने वाले किसान भी बरबादी की कगार पर आ गए हैं। तैयार कोकून किसान कम दाम में बेच नहीं पा रहे हैं जिससे रेशम के उत्पादन और धागा तैयार करने लगाई गई यूनिट करोड़ों के घाटे में नजर आ रही हैं। अन्य राज्यों में रेशम विभाग की धागा विक्रय नीति शासन के अधीन नहीं है। खुले बाजार आसानी से तैयार धागा बिक रहा है। जबकि मध्य प्रदेश में तय दरों पर धागा बिकने बनाई गई नीति इसके विक्रय में अड़चन पैदा कर रही है। मध्य प्रदेश में मलबरी धागे की दर 3100 से 3500 रुपये किलो निर्धारित की गई है। जबकि दक्षिण के राज्यों में खुले बाजार में रेशम का धागा बिक रहा है। इससे बाजार मांग और आपूर्ति प्रभावित नहीं हो रही है। दो वर्षों से रेशम विभाग में डंप पड़े धागे को बेचने सरकार ने आगे कदम नहीं बढ़ाए तो कोकून के दाम भी घट गए। धागे के कारोबार से जिले का किसान भी टूट गया है। शासन ने मलबरी कोकून के रेट 100 से 150 रुपए कम कर दिए हैं। मसलन, पहले जो मलबरी कोकून 100 रुपए से लेकर 350 रुपए कीमत तक में खरीदता जाता था। अब 100 से 250 रुपए प्रति किलो बिकेगा जिससे किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ रहा है। जिले में करीब 400 से 450 की संख्या में रेशम की खेती करने वाले किसानों के सामने मौसम के बाद रेट की समस्या खड़ी हो गई है। 2007 से रेशम की खेती कर रहे लालबर्रा क्षेत्र के किसान जगदीश बिसेन ने बताया कि पहले ही मौसम में परिवर्तन के कारण रेशम की खेती बिगड़ गई है। दूसरी ओर शासन ने रेट भी कम कर दिए हैं। इससे रेशम की लाभ की खेती अब घाटे का सौदा बन रही है। रेशम अधिकारी डीपी सिंह कहते हैं कि जिले में धागा बेचने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। धागा बिकने की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही कोकून के दामों में वृद्घि होगी। इससे किसानों को नुकसान नहीं होगा। गन्ना लील गया अरहर प्रदेश में खेती किस भेड़ चाल से चल रही है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के किसानों को सरकार जो भी सलाह देती है वह उनके लिए घातक बन जाती है। नरसिंहपुर जिले आज से एक दशक पहले अरहर की जमकर खेती होती थी। लेकिन मौसम की मार को देखते हुए सरकार ने गन्ने की खेती की सलाह दी। उसका परिणाम यह हुआ है कि गन्ना अरहर की खेती को ही लील गया है। जिले में वर्ष 2005-06 में 27 हजार हेक्टेयर में अरहर बोई गई थी। उस समय खरीफ मौसम में किसानों ने महज 13 हजार हेक्टेयर में ही गन्ना की बोवनी की थी। इस तरह गन्ने से दोगुने से ज्यादा रकबे में अरहर लहलहा रही थी। पर दस साल में तस्वीर पूरी तरह बदल गई। गन्ने की ओर किसानों का रुझान ऐसा बढ़ा कि गन्ने का रकबा पूरे पांच गुना बढ़ गया, जबकि अरहर का रकबा दोगुना भी नहीं हुआ। सन 2015-16 में गन्ने का रकबा बढ़कर 65 हजार हेक्टेयर पर जा पहुंचा जबकि अरहर का रकबा 43 हजार हेक्टेयर रहा। जाहिर है इन दस सालों में गन्ने ने दलहनों को मानो लील ही लिया। अरहर के रकबे और उत्पादन में अपेक्षानुरूप वृद्धि नहीं होने का सीधा असर दाल मिलों पर पड़ा। देशभर में अपनी क्वालिटी के लिए जानी जाती जिले की तुअर दाल का उत्पादन थम गया। कभी हमारी पहचान रहा दाल उद्योग सिमट गया। जिले में तीन दशक पहले छोटी-बड़ी करीब दो सौ दाल मिलें थीं। गाडरवारा में ही दाल मिलों की संख्या 123 तक पहुंच गई थी। अब यहां महज सात बड़ी मिलें बचीं हैं और दो-तीन छोटी मिलों में दाल उत्पादन हो रहा है। यह स्थिति कैसे आई? गाडरवारा के प्रमुख व्यवसायी नवनीत काबरा के पिता ने सन 1960 में शहर में पहली दाल मिल खोली थी। नवनीत बताते हैं कि एक समय था जब क्षेत्र के करीब सत्तर फीसदी हिस्से में दलहनें बोई जाती थी। यहां की अरहर के साथ ही चना की भी क्वालिटी बेमिसाल थी। दालों की देशभर से जबर्दस्त मांग आती थी। अस्सी के दशक के मध्य तक जिले का दाल उद्योग हजारों लोगों को रोजगार दे रहा था। ठीक उसी समय ने दाल आयात करने के नियम शिथिल कर दिए। सरकार की गलत नीति जिले के दाल उद्योग पर भारी पड़ गई। रही-सही कसर गन्ने ने पूरी कर दी। गन्ने का रकबा बढ़ता गया और दलहनों का रकबा और उत्पादन सिमटता गया। नरसिंहपुर के दाल मिल संचालक राकेश नेमा बताते हैं कि दालों की आयात नीति जहां मिल संचालकों के लिए घातक रही वहीं दलहनों में होता नुकसान किसानों के लिए तकलीफदेह रहा। दलहन उत्पादन मौसम के कारण बेहद प्रभावित रहा और किसानों को उचित दाम भी नहीं मिले। मजबूरन किसान गन्ने की ओर झुके जिससे दलहनों के साथ ही दाल उत्पादन भी थम गया। मंत्री का दावा: खेती-किसानी में समृद्ध होता मध्यप्रदेश एक तरफ फसल बर्बाद होने, कर्ज का बोझ बढऩे, फसल का बाजिब मूल्य नहीं मिूलने के कारण प्रदेश के किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, वहीं दूसरी कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है कि आज प्रदेश खेती-किसानी में समृद्ध हो रहा है। आज से ग्यारह वर्ष पूर्व सिंचाई सुविधा नहीं थी, उत्पादन और लागत में बड़ा अंतर था। कर्ज की ब्याज दर 13.14 प्रतिशत थी, बिजली नहीं थी और इस पर अगर प्राकृतिक आपदा आ गयी, तो किसान की तो कमर ही टूट जाती थी। खेती से जुड़े मजदूरों के सामने रोजी-रोटी की विकट समस्या हो जाती थी। लेकिन अब प्रदेश में खेती लाभ का धंधा बन रही है। खेती-किसानी पर आने वाली आपदा से पीडि़त किसानों को राहत देने में भी सरकार ने पिछले 11 साल में किसानों की हमदर्द बनने की जो मिसाल कायम की है वह बेमिसाल है। वर्ष 2005-06 से वर्ष 2015-16 तक किसानों को 11 हजार 262 करोड़ 16 लाख 90 हजार रुपये की राशि वितरित की गयी। यह एक इतिहास है। इससे प्रभावितों को न केवल राहत मिलीए बल्कि वे आपदा का भी सामना कर पाये। पिछले चार वर्ष में हमारी कृषि विकास दर 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष है। यह दर प्राप्त करने वाला मध्यप्रदेश देश का एकमात्र राज्य है। यही नहीं प्रदेश का सकल घरेलू उत्पादए जो 10.5 प्रतिशत हैए में कृषि का योगदान 5 प्रतिशत हैए यह भी देश में सर्वाधिक है। सरकार के प्रयासों से प्रदेश के कृषि क्षेत्र में भी पिछले ग्यारह वर्ष में वृद्धि हुई है। वर्ष 2004-05 में 1 करोड़ 92 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र था जो अब बढ़कर 2 करोड़ 37 लाख हेक्टेयर हो गया है। कृषि के क्षेत्र में इस दौरान 45 लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई है।