गुरुवार, 9 जुलाई 2015

कोयला खदानों की नीलामी : कालिख ही कालिख

मप्र को खोद 12 लाख करोड़ कमाएगा कंगाल जेपी और दगाबाज रिलायंस
कोल ब्लॉक के ई ऑक्सन में करोबारी घरानों की सांठगांठ
कोल ब्लॉक आवंटन में ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्ति दरकिनार
किस राज्य को कितनी होगी आमदनी
राज्य आमदनी (करोड़ रुपए में)
राज्य वार्षिक 30 साल
मध्य प्रदेश 842.27 35,587.52
महाराष्ट्र 67.47 1,601.12
पश्चिम बंगाल 350.58 11,203.03
छत्तीसगढ़ 1,971 33,679.33
झारखंड 486.3 12,622.02
ओडिशा 143.4 515.52
भोपाल। यूपीए के शासनकाल में कोयले की कालिख से खरबों रूपए कमाने वाली कंपनियों ने एनडीए सरकार को भी अपने फांस में ले लिया है। इस बार भी कोयले ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सारे आवंटन रद्द कर दिए जाने के बाद अब दोबारा से उन कोयला खदानों की नीलामी शुरू हो गई है। कोयला खदानों के आवंटन से लाखों करोड़ रुपए मिलने की बात की जा रही है। यह सही भी है। कई सारी खदानों की नीलामी सफलतापूर्वक हो चुकी है, खूब सारा पैसा भी मिल रहा है। लेकिन कोयला तो आखिर कोयला है, सो विवाद यहां भी पैदा हो गया है। दरअसल, कई खदानों की नीलामी में ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिसमें कंपनियों और अधिकारियों की मिलीभगत से कोयला खदानों का आवंटन किया गया है। जहां तक मप्र का सवाल है तो यहां 90,000 करोड़ के कर्ज में डूबा जेपी ग्रुप और इंवेस्टर्स समिट में 50,000 करोड़ के निवेश की घोषणा करने के बाद भी निवेश नहीं करने वाला रिलायंस समूह अब यहां की धरती को खोदकर अपना खजाना भरेंगे। इसके लिए ये दोनों और कुछ अन्य कारोबारी घरानों ने आपसी तालमेल से मप्र की कोल ब्लॉक को हथियाने में सफलता पाई है। मप्र की 29 कोयला खदानों सहित देशभर की 214 कोयला खदानों की 30 वर्ष के लिए ई-नीलामी हो रही है। मप्र सरकार को अपनी 25 कोयला खदानों के लिए प्रति वर्ष करीब 842.27 करोड़ रूपए मिलेंगे। इस तरह 30 साल में प्रदेश सरकार को 35,587.52 करोड़ रूपए की आय होगा। वहीं एक अनुमान के अनुसार कंपनियां इन 30 साल में इन कोल ब्लॉक से करीब 12 लाख करोड़ कमाएंगी। हालांकि अभी कोल ब्लॉक आवंटन की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन जिस तरह की विसंगतियां आवंटन में सामने आ रही हैं, उससे लगता है की एक बार फिर से आवंटन रद्द हो जाएगा।
देश के सबसे बड़े घोटाले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जिन 214 कोल ब्लॉक के आवंटन रद्द कर दिए थे, केंद्र सरकार ने एक बार फिर से उनकी नीलामी शुरू कर दी है। देश में कोल ब्लॉक के आवंटन के लिए ई-नीलामी प्रक्रिया अपनाई जा रही है। इसके पीछे सरकार का तर्क है कि इससे नीलामी की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी होगी। लेकिन कोयला मंत्रालय के अधिकारियों से सांठगांठ कर कारोबारी घरानों ने अपनी पसंद के कोल ब्लॉक आपस में बांट लिया है। कारोबारी घरानों ने केंद्र सरकार की इस पारदर्शी प्रक्रिया को अपना हथियार बना लिया है और आपसी सामंजस्य से अपनी पहुंच और सुविधा के अनुसार कोल ब्लॉक की बोली लगा रहे हैं और उन्हें पा रहे हैं। सरकार को अब तक हुई 67 कोयला ब्लॉक की नीलामी से चार लाख करोड़ रुपए मिलने का अनुमान है। इनमें नीलामी राशि, रॉयल्टी राशि व अपफं्रट भुगतान शामिल हैं।
कोल ब्लाकों का लेने के लिए बड़े-बड़े औद्योगिक घराने बोली लगा रहे हैं। नए प्रावधान के तहत मप्र की 29 कोयला खदानों की नीलामी से राज्य सरकार को रॉयल्टी और नीलामी प्रक्रिया के जरिए 35,587.52 करोड़ रुपए का रेवेन्यू मिलेगा। 35,587.52 करोड़ रुपए देकर कंपनियां मप्र को मनमाने ढ़ंग से खोदने की तैयारी में लग गई हैं। केंद्र सरकार का दावा है कि नीलामी से होने वाला रेवेन्यू का फायदा या तो राज्यों को मिलेगा या फिर सस्ती बिजली की दर के रूप में भारत की जनता को मिलेगा। मध्यप्रदेश का नंबर कोल आवंटन व लाभ की सूची पांचवे स्थान पर है। कोयला मंत्रालय 31 मई तक 83 कोल ब्लॉकों की नीलामी या आवंटन कर देगी। इनमें से 40 ब्लॉकों की नीलामी की जाएगी, जबकि 43 ब्लॉकों का आवंटन होगा। इन 83 ब्लॉकों में से 56 ब्लॉक पावर सेक्टर के लिए रिजर्व रखे गए हैं, जबकि शेष ब्लॉक आयरन, स्टील, सीमेंट जैसे अन्य सेक्टरों को मिलेंगे।
गौरतलब है कि केंद्र सरकार रद्द हुए 214 कोल ब्लॉकों की ई-नीलामी में दो तरह की रणनीति है। इसमें पावर कंपनियों के लिए रिजर्व ऑक्शन की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। जबकि आयरन, स्टील और सीमेंट सेक्टर के लिए ब्लॉक का आवंटन फारवर्ड बिडिंग के जरिए किया जा रहा है। कोयल मंत्रालय को उम्मीद है कि 214 ब्लॉकों की नीलामी से प्राप्त होने वाला राजस्व पहले के 7 लाख करोड़ रुपए के अनुमान के पार चला जाएगा। हालांकि, विशेषज्ञों ने कोल ब्लॉक हासिल करने के लिए कंपनियों की ओर एग्रेसिव बिडिंग पर चिंता जताई है। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 214 कोल ब्लॉक आवंटन को निरस्त करने का फैसला सुनाए जाने के बाद प्रदेश को लगभग 1500 करोड़ का फटका लगा। इसमें राज्य खनिज विकास निगम ने अपनी ज्वाईंट वेंचर कंपनियों के साथ मिलकर 10 कोल ब्लॉक को डेवलप करने में लगभग 1000 करोड़ रूपए खर्च किए थे। ऐसे में सरकार को लगभग 400 और ज्वाईंट वेंचर कंपनियों (जेपी सीमेंट, एसीसी सीमेंट, मॉनिट और सैनिक कंपनी) को 600 करोड़ का झटका लगा। वहीं एस्सार और हिंडाल्कों को ज्वाईंट वेंचर प्रोजेक्ट महान कोल ब्लॉक और अन्य कंपनियों के आवंटन निरस्त होने से लगभग 500 करोड़ का फटका लगा है। अब कोल ब्लाक के आवंटन की नई प्रक्रिया शुरू होने से एक बात तो यह है की मप्र को जो 1500 करोड़ का फटका लगा है उसकी भरपाई नहीं हो सकती है।
मप्र की खदानों पर जेपी, रिलायंस, अडानी, एस्सार, की नजर
देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है। इसलिए मप्र की 29 खदानों के लिए जेपी, रिलायंस, अडानी, एस्सार, जीएमआर, वेदांत और आदित्य बिड़ला ग्रुप प्रयासरत हैं। बताया जाता है की अपनी प्राथमिकता और सहुलियतों के आधार पर इन औद्योगिक घरानों ने अपने में ही खदानों का वितरण कर लिया है। ताकि ई-नीलामी प्रक्रिया में न तो अधिक रकम की बोली लगानी पड़े और न ही किसी तरह की अन्य असुविधा हो। इसी प्रक्रिया के तहत मप्र की पहली कोयला खादान रिलायंस का मिली। अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस सीमेंट को मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में सियाल घोघरी कोल ब्लॉक मिला है। हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड (एचजेडएल) और ओसीएल आयरन एंड स्टील को पछाड़ उसने यह ब्लॉक हासिल किया है। ब्लॉक में 2.93 करोड़ टन का भंडार है। इसी तरह जेपी सीमेंट कॉर्पोरेशन को भी मध्य प्रदेश में कोयला खान हासिल हुई है। कोयला ब्लॉकों की नीलामी के दूसरे चरण में जेपी सीमेंट को अमलिया नार्थ और मंडला साउथ कोयला खदान मिली है। अमलिया नार्थ कोयला ब्लॉक अनुमानत: 2,473 करोड़ रुपए में मिला है। पहले यह कोयला ब्लॉक एमपी सीमेंट माइनिंग कॉर्पोरेशन को आबंटित किया गया था। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में मांडला साउथ ब्लॉक के लिए आंध्र सीमेंट्स, गोदावरी पावर ऐंड इस्पात लि., हिंदुस्तान जिंक लि., जेपी सीमेंट कॉर्पोरेशन व रिलायंस सीमेंट कंपनी दौड़ में थीं। इस ब्लॉक में 1.33 करोड़ टन के भंडार का अनुमान है। जयप्रकाश सीमेंट कॉर्पोरेशन कोयला खदान नीलामी के मांडला साउथ कोल फील्ड के लिए सफल बोलीदाता रहा। बताया जाता है कि मप्र की अधिकांश खदानों के लिए जेपी और रिलायंस ने अपनी दावेदारी मजबूत की है। इसलिए अन्य कारोबारी घराने इनके लिए कम बोली लगाएंगे। इसके पीछे एक वजह यह भी बताई जा रही है कि प्रदेश के कोल ब्लॉक में निजी कंपनियां 30 करोड़ टन कोयले के भंडार को दबाकर बैठी हैं। भारत सरकार के कोयला मंत्रालय ने पूर्व में रिलायंस, जेपी, प्रिज्म सहित आधा दर्जन कंपनियों को नोटिस जारी कर पूछा था कि उनके द्वारा लिए गए कोल ब्लॉक में कोयले का उत्पादन कब शुरू किया जाएगा। इस पर कंपनियों ने कोई जवाब नहीं दिया था। उसके बाद वर्ष 1993 से 2009 के बीच भारत सरकार के कोयला मंत्रालय द्वारा आवंटित 29 कोल ब्लॉकों में से 25 का आवंटन रद्द हो गया था। तभी से इन कोल ब्लॉक में कोयला दबा कर रखा गया है, जिसका सरकार के पास कोई रिकार्ड नहीं है। इनमें से तीन कोल ब्लॉक रिलायंस के अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट सासन के भी शामिल हैं।
जेपी पर कई नेताओं और अधिकारियों का हाथ
करीब 90,000 करोड़ के कर्ज में डूबे होने के बाद जेपी समूह ने अपने कई मुनाफे वाले प्रोजेक्ट बेचकर जैसे-तैसे बैंकों का मुंह बंद किया है। अभी भी ग्रुप की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। ऐसे में ग्रुप द्वारा कोल ब्लॉक के लिए बोली लगाना सवाल खड़े कर रहा है। जब इसकी पड़ताल की गई तो यह बात सामने आई है कि जेपी ग्रुप में केंद्र और राज्य के कुछ मंत्रियों और अधिकारियों का पैसा लगा है। इनसे मिली राशि के आधार पर ही ग्रुप प्रदेश की लगभग आधे से अधिक कोल ब्लॉक के लिए नीलामी प्रक्रिया में शामिल हो रहा है। उल्लेखनीय है कि सरकारों की मेहरबानी और बैंकों से कर्ज के दम पर जेपी ग्रुप जितनी तेजी से सीमेंट, इंफ्रा, रियल एस्टेट, पावर कोराबार में उभरा अब उतनी ही तेजी से यह ग्रुप कंगाल हो रहा है। ऐसे में ग्रुप को नेताओं और अफसरों का साथ मिला है। मप्र खनिज विकास निगम से सांठगांठ कर 38 हजार करोड़ से अधिक के कोल ब्लॉक हथियाने वाली कंपनी जेपी एसोसिएट का रसूख सरकार के सभी विभागों पर भारी पड़ता रहा है। गौरतलब है कि अफसरों की लापरवाही के कारण प्रदेश के खनिज विभाग को पिछले सात वर्ष में अरबों रूपए से अधिक का झटका लगा है। यह खुलासा नियंत्रक महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी हुआ है। रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि खनिज साधन विभाग द्वारा रॉयल्टी निर्धारण के मामलों की जांच और रॉयल्टी की कम वसूली, अनिवार्य भाटक व ब्याज के अनारोपण के कई मामले प्रकाश में आए हैं। ज्ञातव्य है कि जेपी गु्रप और एसीसी सीमेंट पर 150 करोड़ से अधिक खनिज राजस्व बकाया है। इसके बाद भी मप्र सरकार के उपक्रम राज्य खनिज विकास निगम ने 50 हजार करोड़ के कोयला भंडार वाले सात कोल ब्लॉकों का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट कर लिया था। इस खुलासे के बाद सरकार से लेकर कार्पोरेट हलकों तक हड़कंप मचा गया था। लेकिन धीरे-धीरे यह मामला शांत हो गया और फाइलों में दब गया।
ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्ति दरकिनार
कोल ब्लॉक आवंटन में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण स्वीकृति में गड़बड़ी को लेकर कुछ कोल ब्लॉक के लिए आपत्ति लगाई थी, लेकिन उन्हें भी कोल ब्लॉक आवंटन के योग्य मान लिया गया है। 'छत्तीसगढ़ बचाओÓ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने बताया कि एनजीटी ने जिन कोल ब्लॉक की पर्यावरण स्वीकृति पर आपत्ति की है, पर केंद्र सरकार कोल ब्लॉक की नीलामी के लिए 10 फीसदी राशि भी जमा करा चुकी है। ऐसे में यदि कोल ब्लॉक की नीलामी हो जाएगी तो सरकार को पर्यावरण स्वीकृति दिलानी पड़ेगी। इस बार कोल ब्लाक का आवंटन 12 दिसंबर, 2014 को लोक सभा में पारित कोयला खनन विशेष (विशेष प्रावधान) बिल 2014 के आधर पर किया जाएगा। यह बिल कोयला खनन (विशेष प्रावधान) अध्यादेश 2014 के स्थान पर लाया गया है जिसे केन्द्र सरकार ने अक्टूबर 2014 में प्रस्तुत किया था, ताकि रद्द किए गए कोयला ब्लाक की बोली लगाई जा सके। विदित है कि वह अध्यादेश 24 सितंबर 2014 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लाया गया था, जब संप्रग और राजग सरकारों द्वारा पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न पूंजीपतियों और कुछ सार्वजनिक कंपनियों को आवंटित किए गए 214 कोयला ब्लाक को रद्द कर दिया गया था।
राज्यों पर अंकुश...निजीकरण को बढ़ावा
केद्र सरकार द्वारा नए अध्यादेश के तहत किए जा रहे कोल ब्लाक आवंटन की प्रकिया से पिछले 30 वर्षों से कोयला ब्लॉकों की बंदरबाट का सिलसिला अब अंतत: खत्म हो गया है। कोयला मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक कोयला ब्लॉकों के आवंटन में अभी तक सबसे बड़ी भूमिका राज्य सरकारें निभाती थीं। बड़ी कंपनियों को कोयला ब्लॉक देने की सिफारिश राज्यों की तरफ से आती थी। उस पर विचार-विमर्श के बाद केंद्र मुहर लगाता था। केंद्र के स्तर पर यह भी नहीं देखा जाता था कि उस कोयला ब्लॉक की जरूरत वहां है या नहीं। इस वजह से कुछ राज्यों के पास उनकी जरूरत से कई गुना ज्यादा कोयला ब्लॉक मिल गए थे। दूसरी तरफ कुछ राज्यों को उनकी जरूरत के मुताबिक भी कोयला ब्लॉक नहीं मिलते थे। इस खाई को पाटने के लिए मोदी सरकार ने हर राज्य में अगले 30 वर्षों के दौरान कोयले की जरूरत का अध्ययन करने का फैसला किया है। यह अध्ययन कोयला मंत्रालय के तहत गठित की गई एक उच्चस्तरीय समिति करेगी। इस अध्ययन के आधार पर ही राज्यों को उनकी मांग के मुताबिक कोयला ब्लॉक दिया जा रहा है। कोयला ब्लॉक आवंटन की नीति अभी तक कोयला उत्पादन करने वाले राज्यों के पक्ष में हुआ करती थी। लेकिन, कोयला मंत्रालय ने जो अध्ययन करवाया है उससे हर राज्य को उसकी जरूरत के मुताबिक ही कोयला मिलेगा। रॉयल्टी मिलने से कोयला उत्पादक राज्यों को सर्वाधिक फायदा होने का रास्ता पहले ही सरकार साफ कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से रद्द किए गए कोयला ब्लॉकों की खुली निविदा से नीलामी करने के फैसले के बारे में सरकार पहले ही कह चुकी है कि जो भी राशि प्राप्त होगी, वह पूरी तरह से राज्यों को जाएगी। देश में कोयला का खनन सीएमएन अधिनियम और एमएमडीआर अधिनियम के तहत किया जाता है। 1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी की सरकार ने कोयला खनन के काम को पूंजीपतियों से लेकर, अपने हाथों में ले लिया था, तो उस समय सीएमएन अधिनियम को लागू किया गया था। एमएमडीआर अधिनियम के तहत, खनन करने के अधिकार को आवंटित करने के प्राधिकरण राज्य सरकारें हैं। 1972 में कोकिंग कोयला खदानों का राष्ट्रीकरण हुआ, उसके बाद 1973 में गैर कोकिंग कोयला खदानों का राष्ट्रीकरण हुआ। कोयला खदान राष्ट्रीकरण अधिनियम (सी.एम.एन.), जो 1976 में लागू हुआ, उसके तहत लोहा और इस्पात का उत्पादन करने वाले पूंजीपतियों को छोड़कर, बाकी पूंजीपतियों के लीज रद्द कर दिए गए। लोहा और इस्पात का उत्पादन करने वाले पूंजीपतियों को सिर्फ उस काम के लिए कोयला का खनन करने की इजाज़त दी गई। कोयला खनन के निजीकरण की प्रक्रिया 1992 में शुरु हुई, जब कोल इंडिया और सिंगारेनी के लिए कोलियरीज के 143 कोयला ब्लाक, जिनका प्रयोग नहीं हो रहा था, निजी पूंजीपतियों को अपने प्रयोग के लिए खनन करने के उद्देश्य से सौंपे गए। लोहा और इस्पात के अलावा, बिजली के उत्पादन को भी अंतिम उद्देश्य में शामिल करते हुए, इस अधिनियम को 1993 में संशोधित किया गया। मार्च 1996 में सीमेंट तथा जुलाई 2007 में कोयला गैस उत्पादन व कोयला तरलीकरण को भी निर्धारित अंतिम में जोड़ा गया। फरवरी 2006 में इन सभी अंतिम उद्देश्यों के साथ, कोयला खनन में 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष पूंजीनिवेश की इजाजत दी गई। एमएमडीआर अधिनियम का सितंबर 2010 में संशोधन किया गया, ताकि सभी खनिजों के खनन के लिए बोली लगाई जा सके। फरवरी 2012 में संप्रग सरकार ने कोयला खदानों की बोली लगाने की सूचना दे दी। बीते दिनों में जब-जब सीएमएन अधिनियम में संशोधन करने के प्रयास किये गए थे, तब-तब लोगों ने तथा कोयला खनन मजदूरों ने उसका सख्त विरोध किया था। अप्रैल 2000 में सीएमएन अधिनियम को बदलने के लिए एक बिल राज्य सभा में पारित किया गया था परन्तु उसे पास नहीं किया जा सका।
इस समय, कोयला क्षेत्र का निजीकरण दो तरीकों से किया जा रहा है। कोल इंडिया के शेयर क्रमश: बड़े पूंजीपतियों को बेचे जा रहे हैं। मोदी सरकार ने हालही में कोल इंडिया के और शेयर बेचे हैं। दूसरी ओर, निजी क्षेत्र की कंपनियों को पहली बार अपने प्रयोग के लिए कोयले का खनन करने की इजाजत दी जा रही है, और इस नए 2014 के बिल के कानून बन जाने से, निजी कपंनियों को अपने प्रयोग के लिए तथा दूसरों को बेचने के लिए, खनन करने की इजाजत मिल गई है। कोयला, पेट्रोलियम, गैस, इत्यादि, ये हमारे देशवासियों के लिए ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं। हमारे देश में बिजली उत्पादन का अधिकांश भाग कोयले पर आधारित है। मेहनतकश लोगों की बड़ी संख्या आदि जैसे खाना पकाने, घरेलू उपभोग के लिये कोयले का इस्तेमाल करती है। पेट्रोलियम और गैस क्षेत्र को पहले ही बड़े पूंजीपतियों के मुनाफों के लिए खोल दिया गया है। अब कोयला क्षेत्र को भी खोला जा रहा है, जिससे कोयला व बिजली की कीमतें अवश्य बढ़ेंगी। कोयला मंत्रालय ने कोयला खदानों की बोली लगाने के लिए कोयला खदान (विशेष प्रावधान) नियम, 2014 की घोषणा कर दी है। कोयला खदान के मजदूर और ट्रेड यूनियन कोयला क्षेत्र के निजीकरण का विरोध कर रहे हैं। 24 नवंबर को हड़ताल करने का प्रस्ताव तब वापस लिया गया था क्योंकि केन्द्र सरकार ने यह आश्वासन दिया था कि बिल को संसद में लाने से पहले ट्रेड यूनियनों के साथ वह सलाह-मशविरा करेगी। परन्तु सरकार ने मजदूरों के प्रतिनिधियों से कोई बातचीत नहीं की और लोकसभा में अपने बहुमत के बल पर, इस बिल को पास करवा दिया। इसके विरोध में मजदूरों और ट्रेड यूनियनों ने कोयला क्षेत्र के निजीकरण और विराष्ट्रीकरण का विरोध कर करते हुए 6 से 10 जनवरी तक हड़ताल भी की।
इस तरह हो रहा है कोल ब्लॉक नीलामी का खेल
देश में कोयले की खदानों की नीलामी का खेल किस तरह हो रहा है, इसका एक मामला छत्तीसगढ़ में सामने आया जो इस बात का संकेत है कि कोयले की कालिख ही ऐसी है कि लाख चतुराई करें, तो भी एक-दो धब्बे लगने तय हैं। इस बार भी कोयले ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। कोयला तो आखिर कोयला है, सो विवाद यहां भी पैदा हो गया है। मामला गारे पाल्मा खदान के आवंटन और फिर उसे रद्द करने का है। यह आवंटन जिंदल पॉवर को हुआ था। कारण बोली कम लगना है, लेकिन यह सरकारी तर्क है। इसे दूसरे नजरिए से देखें, तो कई तथ्य ऐसे हैं, जिन पर गौर करने की जरूरत है। कई ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब अभी तक नहीं मिला है। और, अगर जवाब मिल जाए, तो शायद भ्रष्टाचार के नए तरीके और नए पन्ने एक बार फिर देश की जनता के सामने आएंगे।
छत्तीसगढ़ की गारे पाल्मा 4/2-3 कोयला खदान की नीलामी रद्द की जा चुकी है। 19 फरवरी, 2015 को इस खदान की सबसे बड़ी बोली जिंदल पॉवर लिमिटेड ने लगाई थी। बाकायदा जिंदल पॉवर लिमिटेड को इस खदान का आवंटन भी हो गया, लेकिन इस बीच इस आवंटन को लेकर कुछ सवाल शुरू हो गए। मसलन, जहां अन्य कंपनियों ने इस तरह की कोयला खदानें 1,000 रुपए प्रति टन की बोली लगाकर ली थीं, वहीं जिंदल को गारे पाल्मा 4/2-3 खदान बेस प्राइस 100 रुपए से मात्र आठ रुपए अधिक पर मिल गई। इस तथ्य को थोड़ा और सरल तरीके से समझने की जरूरत है। शिड्यूल-2 में शामिल कोयला खदानों की बोली लगाने के लिए सरकार ने प्रति टन 100 रुपए का बेस प्राइस रखा था। यानी कोई भी कंपनी इससे कम की बोली नहीं लगा सकती थी। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी ध्यान में रखने लायक है कि कोयले की यह खदान अनुसूची-दो (शिड्यूल-2) में शामिल थी। यानी इसका इस्तेमाल बिजली उत्पादन के लिए किया जाना था। अब इस अनूसूची में शामिल कोयला खदानों की नीलामी जीतने वाली कंपनियों के मूल्य पर ध्यान दें। तोकीसुड उत्तरी खदान एस्सार पॉवर एमपी लिमिटेड ने 1,010 (प्लस 100 रुपए बेस प्राइस) रुपए की बोली लगाकर हासिल की यानी कोयला का मूल्य हुआ 1,110 रुपए प्रति टन। ट्रांस दामोदर खदान दुर्गापुर प्रोजेक्ट्स लिमिटेड ने 840 रुपए प्रति टन की बोली लगाकर हासिल की। जेपी वेंचर्स लिमिटेड ने अमेलिया उत्तरी खदान 612, जीएमआर छत्तीसगढ़ ने तालाबीरा-1 खदान 378 रुपए और सीईएससी ने सरिसाटोली खदान 370 रुपए प्रति टन की बोली लगाकर जीती। लेकिन, सबसे अहम और दिलचस्प बोली लगी गारे पाल्मा 4/2-3 खदान की। इसे मात्र आठ रुपए प्रति टन (प्लस 100 रुपए बेस प्राइस यानी मात्र 108 रुपए प्रति टन) की बोली लगाकर जिंदल पॉवर लिमिटेड ने हासिल कर लिया।
अब सवाल है कि गारे पाल्मा मामले में ऐसा क्या हुआ कि मात्र आठ रुपए प्रति टन की बोली लगाकर जिंदल पॉवर ने उक्त खदान हासिल कर ली? जाहिर है, यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर विवाद होना तय था। सो हुआ। मीडिया में रिपोर्ट आई, तो सरकार ने इस पर कदम उठाने की बात कही। अंत में कदम यह उठाया गया कि तत्काल प्रभाव से सरकार ने गारे पाल्मा 4/2-3 का आवंटन रद्द कर दिया। यह अलग बात है कि जिंदल ने सरकार के इस कदम का विरोध करते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। अदालत ने अभी इस मामले में स्टे भी दे दिया है। कोयला मंत्रालय ने आवंटन रद्द करने के बारे में यह कहा कि इस कोयला खदान की बोली कम थी। फिर सवाल पैदा होता है कि यह बोली कम थी या फिर बोली जानबूझ कर कम लगाई गई थी और अगर जानबूझ कर, सोच-समझ कर बोली कम लगाई गई थी, तो इसके लिए दोषी कौन है? सवाल यह भी है कि नीलामी में शामिल अन्य कंपनियों ने बोली लगाई भी या नहीं या सिर्फ जिंदल ने ही बोली लगाई और बाकी कंपनियां चुपचाप बैठी रहीं? बोली न लगाने वाली कंपनियां कौन हैं? क्या सरकार ऐसी कंपनियों से भी पूछताछ करेगी? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं, जिनका जवाब सामने आना चाहिए। वैसे इन सारे सवालों पर सरकार अब तक चुप है।
108 बनाम 1,110 रुपए की असली कहानी
वैसे यह जानना दिलचस्प होगा कि 108 रुपए प्रति टन कोयले की असली कहानी क्या है? यह संभव कैसे हुआ और क्यों हुआ? पूरी कहानी कुछ यूं है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जि़ले में गारे पाल्मा कोयला खदान है। कोयला मंत्रालय ने पावर यूज के लिए शिड्यूल-2 में छह कोयला खदानें शामिल की थीं। इनमें गारे पाल्मा 4/2-3 के अलावा तालाबीरा-1, सरिसाटोली, ट्रांस दामोदर, अमेलिया उत्तरी और तोकीसुड उत्तरी शामिल हैं। इन सभी कोयला खदानों की ई-नीलामी समय पर हो गई। तालाबीरा खदान 478, सरिसाटोली खदान 470, ट्रांस दामोदर खदान 940, अमेलिया उत्तरी 712, तोकीसुड उत्तरी 1,110 और गारे पाल्मा 4/2-3 108 रुपए प्रति टन की अंतिम बोली पर नीलाम हो गई। अब आप खुद अंदाजा लगाइए कि एक ही काम यानी बिजली उत्पादन के लिए एक ही शिड्यूल में शामिल खदानों के मूल्य में कितने का अंतर है। 108 रुपए बनाम 1,110 रुपए। यानी एक ही तरह का कोयला कहीं 1,110 रुपए प्रति टन बिका, तो कहीं 108 रुपए। ध्यान देने की बात है कि 108 रुपए प्रति टन कोयला गारे पाल्मा 4/2-3 का बिका, जिसे जिंदल पॉवर लिमिटेड ने खरीदा। 19 फरवरी, 2015 को गारे पाल्मा खदान की नीलामी हुई। इस खदान की नीलामी में हिस्सा लेने के लिए छह कंपनियां क्वॉलीफाइड हुई थीं। इनमें भी अकेले जिंदल पॉवर लिमिटेड के तीन बिड थे। तीन अन्य कंपनियां थीं, अडानी पॉवर महाराष्ट्र लिमिटेड, जीएमआर छत्तीसगढ़ एनर्जी लिमिटेड और जिंदल इंडिया थर्मल पावर लिमिटेड। लेकिन, इस खदान के लिए बोली लगाई सिर्फ एक कंपनी ने। वह कंपनी थी, जिंदल पॉवर लिमिटेड। अडानी पॉवर महाराष्ट्र लिमिटेड ने इनिशियल प्राइस ऑफर (आईपीओ) में 501 रुपए प्रति टन का प्राइस कोट किया था, लेकिन उसने बोली में हिस्सा नहीं लिया। जीएमआर छत्तीसगढ़ एनर्जी लिमिटेड ने आईपीओ में कोई प्राइस कोट नहीं किया और न नीलामी में बोली लगाई। जिंदल इंडिया थर्मल पॉवर लिमिटेड ने आईपीओ में 505 रुपए का प्राइस कोट किया था, लेकिन अंत में वह भी बोली लगाने की प्रक्रिया से अलग रही।
इस तरह पूरी बोली प्रक्रिया में बचे केवल तीन बिड। यानी जिंदल पॉवर लिमिटेड (64849), जिंदल पॉवर लिमिटेड (65465) और जिंदल पॉवर लिमिटेड (65476)। इनमें जिंदल पॉवर लिमिटेड (65465) ने आईपीओ में 452 रुपए का प्राइस कोट किया था, वहीं जिंदल पॉवर लिमिटेड (65476) ने आईपीओ में 451 रुपए का प्राइस कोट किया था, लेकिन अंत में इन दोनों ने भी बोली में हिस्सा नहीं लिया। अब बची जिंदल पॉवर लिमिटेड (64849)। इसने आईपीओ में 450 रुपए प्रति टन का प्राइस कोट किया था। 19 फरवरी को जब नीलामी शुरू हुई, तब बाकी कंपनियों ने बोली नहीं लगाई और अकेले जिंदल पॉवर लिमिटेड (64849) ने बोली लगाते हुए 108 रुपए प्रति टन (इसमें बोली सिर्फ आठ रुपए की ही लगी, क्योंकि 100 रुपया बेस प्राइस था) के हिसाब से यह खदान हासिल कर ली। गौरतलब है कि गारे पाल्मा 4/2-3 खदान का रिजर्व अधिक है (कोयला अधिक है)। फिर भी इसके लिए इतनी कम बोली लगी और बाकी की अन्य कंपनियों ने बोली ही नहीं लगाई। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह कि 19 फरवरी को सुबह 11 बजे इसकी नीलामी प्रक्रिया शुरू हुई और 12 बजकर 21 मिनट पर खत्म भी हो गई। यानी यह नीलामी दो घंटे से भी कम चली। दूसरी ओर तालाबीरा-1 जैसी खदान के लिए सुबह 11 बजे से रात आठ बजे तक नीलामी प्रक्रिया चली और उसे ओजीएमआर छत्तीसगढ़ ने 100 रुपए बेस प्राइस पर 378 रुपए की बोली लगाकर कुल 478 रुपए प्रति टन के हिसाब से हासिल किया था। आखिर गारे पाल्मा मामले में ऐसा क्या हुआ था कि नीलामी प्रक्रिया महज दो घंटे में खत्म हो गई। जाहिर है, इस सवाल के पीछे कोई न कोई कहानी तो जरूर छिपी हुई है। अब इसका जवाब कब सामने आता है, यह देखने वाली बात होगी।
कंपनियों में आपसी सांठगांठ
ध्यान देने की बात यह है कि इस बार पॉवर सेक्टर की कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया काफी आक्रामक थी। एक-एक खदान के लिए कई-कई कंपनियों ने घंटों तक बोली लगाई। ऐसे में गारे पाल्मा 4/2-3 के लिए सिर्फ एक कंपनी द्वारा बोली लगाना संदेह तो पैदा करता ही है। यह समझ से परे है कि आखिर बाकी कंपनियों ने बोली क्यों नहीं लगाई? छोटे रिजर्व वाली खदानों से जहां सरकार को ज़्यादा से ज़्यादा पैसा मिला है, वहीं गारे पाल्मा 4/2-3 (जिसका रिजर्व बहुत अधिक है) के लिए इतना कम पैसा क्यों मिला? तालाबीरा-1 खदान जीएमआर छत्तीसगढ़ को मिली और यह खदान उसकी कोयला जरूरत को 5.45 फ़ीसदी ही पूरा करती है, लेकिन जीएमआर ने गारे पाल्मा 4/2-3 के लिए इनिशियल प्राइस ऑफर में शून्य रुपया प्राइस कोट किया था और वह नीलामी प्रक्रिया में भी शामिल नहीं हुई। सवाल है कि क्या उसे और कोयले की जरूरत नहीं थी? क्या गारे पाल्मा जीएमआर छत्तीसगढ़ के लिए महत्वपूर्ण नहीं थी? अगर उसे गारे पाल्मा खदान मिल जाती, तो उसकी कोयला जरूरत आसानी से पूरी हो सकती थी, लेकिन फिर भी उसने नीलामी प्रक्रिया से बाहर रहना क्यों जरूरी समझा?
इसी तरह गारे पाल्मा 4/2-3 खदान की नीलामी में अगर अडानी पॉवर महाराष्ट्र लिमिटेड ने हिस्सा लिया होता और उसे यह खदान मिल जाती, तो उसकी कोयला जरूरत का 93 फीसदी हिस्सा पूरा हो सकता था। और, अगर जिंदल इंडिया थर्मल पॉवर लिमिटेड ने नीलामी में हिस्सा लिया होता, तो उसकी कोयला ज़रूरत का 98 फीसदी हिस्सा पूरा हो सकता था। अब सवाल है कि ऐसा क्या हुआ कि इन कंपनियों ने अपनी जरूरत पूरी करने के बजाय जिंदल पॉवर लिमिटेड के लिए यह कोयला खदान छोड़ दी? वह भी ऐसा तब हुआ, जब इन कंपनियों को मालूम था कि नीलामी प्रक्रिया में हिस्सा न लेने पर उनकी जमानत राशि, जो करोड़ों में थी, जब्त हो जाएगी। सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए इन कंपनियों के बीच अंदरखाने कोई समझौता हुआ था? वैसे सरकार ने अब तक यह तो नहीं कहा है कि इस सबके पीछे ऐसा कुछ हुआ है, जो कायदे से नहीं होना चाहिए था। लेकिन, सरकार ने यह जरूर माना कि इस मामले में उचित कार्रवाई की जाएगी। फिलहाल तो सरकार ने आवंटन रद्द कर दिया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या उस राज से पर्दा उठेगा कि आखिर जिंदल पॉवर लिमिटेड के अलावा बाकी तीन कंपनियों ने अपनी जरूरत को दरकिनार रखते हुए नीलामी प्रक्रिया में हिस्सा क्यों नहीं लिया? जाहिर है, अगर सरकार इस मामले की पूरी जांच कराए, तो ऐसे कई राज खुल सकते हैं, जो भ्रष्टाचार के नए तरीकों को सामने लाएंगे। ऐसे तरीके, जो एक ईमानदार प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद भी भ्रष्टाचार के नए रास्ते बना देते हैं। इस मामले के सामने आने के बाद एक बार फिर से कई अन्य खदानों की नीलामी की जांच शुरू हो गई है। इसमें मप्र की भी पांच कोयला खदानें हैं।
बिजली के नाम पर खदानों का औने-पौने दामों में आवंटन
जिन कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया शुरू हुई है, उनमें से अब तक कई खदानों का आवंटन किया जा चुका है। छत्तीसगढ़ की गारे पाल्मा 4/2-3 खदान जिंदल पॉवर लिमिटेड (जेपीएल) ने 108 रुपए प्रति टन की सबसे कम बोली पर हासिल की। पॉवर सेक्टर के लिए सुरक्षित खदानों की बोली कम इसलिए है, क्योंकि सरकार ने उनकी अंतिम विक्रय सीमा निर्धारित कर दी थी। उसके पीछे सरकार ने यह दलील दी थी कि अगर इन सुरक्षित कोयला खदानों की अंतिम विक्रय सीमा निर्धारित नहीं की गई, तो बिजली उत्पादन का खर्च बढ़ जाएगा और बिजली महंगी हो जाएगी। लेकिन, जिंदल पॉवर लिमिटेड (जेपीएल) को आवंटित की गई खदान सरकार के इस दावे को संदेह के घेरे में ला खड़ा करती है और कई सवालों को भी जन्म देती है। पहला यह कि क्या बिजली के नाम पर राष्ट्रीय संसाधनों को औने-पौने दामों में बांटने के बावजूद जनता को सस्ती बिजली मिल रही है? दूसरा यह कि गारे पाल्मा 4/2-3 खदान केवल 108 रुपये प्रति टन की बोली पर क्यों नीलाम हुई, जबकि उससे कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित गारे पाल्मा 4/5 खदान अब तक की सबसे महंगी बोली पर नीलाम हुई और अन्य सुरक्षित खदानों पर भी इससे काफी ऊंची बोली लगी है, जैसे तोकीसुड उत्तरी खदान 1,110 रुपए प्रति टन की बोली पर नीलाम हुई और एस्सार पॉवर लिमिटेड को मिली। जेपीएल को मिली गारे पाल्मा 4/2-3 की कुल क्षमता 155 मिलियन टन है, जो नीलामी के लिए रखी गई किसी भी खदान से अधिक है। वहीं गारे पाल्मा खदानों का कोयला सबसे उत्तम गुणवत्ता वाला है, तो उसे पॉवर सेक्टर के इस्तेमाल के लिए ही क्यों सुरक्षित रखा गया? क्या पॉवर सेक्टर के लिए कम गुणवत्ता वाली खदानों को नहीं रखा जा सकता था? साथ ही इन खदानों के दो अन्य दावेदारों अडानी पॉवर और ओजीएमआर का बोली से हट जाना भी संदेह पैदा करता है।
अल्ट्रा मेगा पावर प्रॉजेक्ट से जुड़े एक कोल ब्लॉक रद्द
इसी तरह एक और विवादित कोयला खदान का आवंटन रद्द कर दिया गया है। 8 मई को सरकार ने अनिल अंबानी ग्रुप के मप्र के सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रॉजेक्ट से जुड़े एक कोल ब्लॉक को रद्द करने का फैसला किया है। सरकार का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उस विचार के मुताबिक होगा जिसमें अन्य प्लांटों के लिए इस प्रकार की यूनिटों से अधिक कोयले के कमर्शियल इस्तेमाल पर लगाम लगाने के लिए कहा गया है। इस विचार में अन्य प्लांटों के लिए 4,000 मेगावाट प्रॉजेक्ट के अन्य खानों के कोयले के उपयोग करने पर भी मना किया गया है। इस आदेश में रिलायंस पावर के सासन प्रॉजेक्ट को शूरू में दी गई खास व्यवस्था को भी खत्म किया गया है। इससे रिलायंस को 21,000 करोड़ रुपए के अपने चित्रांगी पॉवर प्रॉजेक्ट को आरंभ करने में मदद मिली है। सरकारी सूत्रों ने बताया कि कोयला, बिजली एवं ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने सासन के तीन खानों में से एक के आवंटन को अस्वीकृत करने और शेष खानों से अतिरिक्त कोयले के इस्तेमाल की अनुमित समाप्त करने को भी मंजूरी दी। एक सरकारी अधिकारी ने बताया, सरकार का नजरिया है कि इस निर्णय में संलिप्त पक्षों पर ध्यान न देकर राष्ट्रीय हित के लिए नियमों का सख्ती से पालन किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष 25 अगस्त को व्यवस्था दी थी कि यूएमपीपी को जो कोयला भंडारों का आवंटन किया गया है उसका इस्तेमाल सिर्फ यूएमपीपी के लिए ही किया जाएगा और कोयला मंत्रालय के एक सीनियर अधिकारी ने बताया कि यह फैसला पिछले वर्ष अगस्त में सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के मद्देनजर लिया गया है। सरकार ने अतिरिक्त कोयले के इस्तेमाल के लिए रिलायंस पावर को दिए गए अधिकार को वापस लेने का फैसला किया है। छत्रसाल कोयला भंडार के आवंटन को रद्द कर दिया क्योंकि यह सरप्लस है और मोहर एवं मोहर अमलोहरी कोयल भंडारों में कोयला का इस्तेमाल सासन युएमपीपी तक ही सीमित रहेगा।
गड़बड़ी की छाया 8 की नीलामी रोकी
मोदी सरकार ने इतनी सावधानी बरती, फिर भी कोयला ब्लाकों के आवंटन में कुछ न कुछ गड़बड़ी निकली जा रही है। कोयला ब्लॉक नीलामी प्रक्रिया में भी कुछ अनियमितता के संकेत मिले हैं। लिहाजा केंद्र ने आठ कोयला ब्लॉकों में नीलामी प्रक्रिया को फिलहाल स्थगित कर दिया है। इनमें से कुछ ब्लॉकों का आवंटन दोबारा रद किए जाने के भी आसार हैं। कोयला मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक कुछ कोल ब्लॉकों की नीलामी प्रक्रिया की जांच नए सिरे से की जा रही है। सूत्रों के मुताबिक सरकार को आठ कोयला ब्लॉकों को लेकर संदेह इसलिए हुआ है कि इनके लिए निर्धारित सीमा से महज दो रुपए प्रति टन ज्यादा की बोली लगा कर इन्हें हासिल किया गया है। इसमें झारखंड स्थित तारा माइंस का आवंटन भी शामिल है। इस ब्लॉक को जिंदल पावर ने हासिल किया था। लेकिन अब सरकार पूरी प्रक्रिया की छानबीन के बाद ही इसके आवंटन पर फैसला करेगी।
सूत्रों के मुताबिक शिड्यूल-3 के 5 ब्लॉक्स की बोलियों की भी दोबारा समीक्षा की जाएगी। इस बात का ध्यान रखा जाएगा की बोलियां किस भाव पर और किस वक्त लगाई गईं थी? 5 कोल ब्लॉक्स में तारा कोल ब्लॉक शामिल है, जिसकी बोली जिंदल पावर ने 126 रुपए प्रति टन पर जीती थी। इसमें वृंदा, सासाई कोल ब्लॉक भी शामिल, जिसे ऊषा मार्टिन ने 1,804 रुपए प्रति टन पर जीता था। सरकार मेरल कोल ब्लॉक की भी समीक्षा करेगी जिसे तिरुमला इंडस्ट्रीज ने 727 रुपए प्रति टन पर जीता था। साथ-साथ डुमरी कोल ब्लॉक की समीक्षा की जाएगी। यह ब्लॉक हिंडाल्को ने 2,127 रुपए प्रति टन पर जीता था। समीक्षा में मंडला कोल ब्लॉक भी शामिल होगा, जिसे जेपी सीमेंट ने 1,852 रुपए प्रति टन पर जीता था। ----------------------

ईस्टर्न बाघ परियोजना को भूली मप्र सरकार

भोपाल। नौ दिन चले अढ़ाई कोस यह कहावत इन दिनों बालाघाट जिले में अंतरराज्यीय ईस्टर्न बाघ परियोजना पर सटीक बैठ रही है। 7 साल बीत जाने के बाद भी यह योजना अमल में नहीं आ पाई है। खास बात ये है कि इस योजना को लेकर सीएम शिवराज सिंह ने जोर-शोर से घोषणा की थी, लेकिन अब उन्हीं की सरकार इसमें रुचि नहीं ले रही है। इस योजना को अब तक प्रदेश सरकार की ओर से हरी झंडी नहीं मिल पाई है। गत वर्ष बालाघाट प्रवास के दौरान जयंत मलैया ने ईस्टर्न बाघ परियोजना की जानकारी नहीं होने की बात कही थी। साथ ही इसे पूरी जानकारी लेकर पूरा करने का वादा भी किया था। लेकिन अब तक इसकी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पाई है। दरअसल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सरकार की इस साझा योजना पर प्रदेश सरकार की अरूचि के कारण संकट गहरा गया है। खास बात यह है कि योजना को लेकर सीएम शिवराज सिंह ने भले ही घोषणा कर वृहद सिंचाई परियोजना को पूरा करने का वादा किया हो वहीं उनके कैबिनेट के जल संसाधन विभाग के मंत्री जयंत मलैया के अनभिज्ञता जाहिर करते एक बयान ने सीएम की घोषणा और उसके पूरे होने की आस पर अटकलें बढ़ा दी हैं। सर्वे रिपोर्ट तक अटकी योजना जानकारी के मुताबिक ईस्टर्न बाघ परियोजना का लाभ महाराष्ट्र सरकार को मिलना है। इसमें करीब 4 हजार हेक्टेयर का जंगल मध्य प्रदेश का डूब में जा रहा है। इसके चलते इस योजना पर सहमति नहीं बन पाई है। हालांकि 6 मई 2011 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लांजी प्रवास के दौरान इस योजना का सर्वे कार्य शीघ्र कराने के आदेश दिए थे। अप्रैल माह में परियोजना का सर्वे तो करा लिया गया, लेकिन अब तक सर्वे रिपोर्ट तैयार नहीं हो सकी है। क्या है योजना छत्तीसगढ़ राज्य की ईस्टर्न बाघ नदी पर बांध बनाकर करीब 14 हजार हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के लिए पानी एकत्रित करने वृहद सिंचाई परियोजना बनाई गई है। ईस्टर्न बाघ परियोजना से करीब 14 हजार हेक्टेयर में से 8 हजार हेक्टेयर रकबे के लिए पानी का सिंचाई के लिए उपयोग किया जाना है। जबकि शेष पानी महाराष्ट्र सरकार पाइप लाइन के जरिए आपूर्ति के लिए चाह रही है। यह एक मप्र, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ राज्य की अंतरराज्यीय परियोजना है। जिसके डूब क्षेत्र में मप्र एवं महाराष्ट्र का वनक्षेत्र 460 हेक्टर आता है। जिससे 65 मिलियन घ.मी. प्राप्त यील्ड से म.प्र. का 75 प्रतिशत तथा महाराष्ट्र का 25 प्रतिशत क्षेत्र में महाराष्ट्र को 25 प्रतिशत क्षेत्र में पानी दिया जा सकेगा। जिससे म.प्र. का 7637 हेक्ट. एवं महाराष्ट्र का 3022 हेक्ट. में सिंचाई की जा सकेगी। म.प्र. एवं छ.ग. राज्य के जल संसाधन विभाग की उच्चस्तरीय बैठक दिनांक 15.12.2006 स्थान छत्तीसगढ़ शासन मंत्रालय रायपुर में संपन्न बैठक में लिये गये निर्णय अनुसार म.प्र. महाराष्ट व छत्तीसगढ़ राज्य को लिखे वचन पत्र दिये जाने की कार्यवाही प्रक्रियाधीन है। बांध के जलग्रहण क्षेत्र में से छ.ग. राज्य का अंश छोड़कर योजना बनाने के लिये छ.ग. राज्य की सहमति ली जाना है। तीनों राज्य की सहमति उपरांत ही योजना का क्रियान्वयन संभव होगा। वर्तमान में इस योजना के कमाण्ड क्षेत्र का अधिक कमाण्ड क्षेत्र पूर्व से संचालित बाघ कम्पलेक्स परियोजना एवं खराड़ी मध्यम योजना से सिंचाई हो रही है। कार्या. ज्ञाप क्र. 2210/कार्य/दिनांक 31.10.2014 को अधीक्षण यंत्री जल संसाधन मण्डल को अवगत कराया जा चुका है। अत: कमाण्ड क्षेत्र के आंकलन में यह योजना साध्य नहीं है। लाभान्वित होंगे किसान इस योजना से जिले के पहुंच विहीन क्षेत्रों में करीब 352 हेक्टेयर रकबे में कृषि कार्य की संभावनाएं बढ़ जाएगी। करीब 200 किसान सिंचाई का लाभ ले सकेंगे। लांजी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में पहुंच विहीन गांवों में इस परियोजना के पूर्ण होने से किसानों को लाभ मिलेगा। क्यों अटकी योजना योजना के जरिए महाराष्ट्र सरकार पानी ले जाना चाह रही है, तो वहीं मध्य प्रदेश सरकार अपना जंगल बचाना चाह रही है। दोनों ही सरकारों के मंसूबे अलग-अलग होने के कारण इस योजना पर सहमति नहीं बन पा रही है। हालांकि जानकारों का मानना है कि अंतर्राज्यीय ईस्टर्न बाघ परियोजना मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य सरकार के दस्तावेजों में उलझी हुई है। भू-अर्जन में परेशानी परियोजना के अमल में आने के बाद विभागीय अधिकारियों को भू-अर्जन की समस्या का सामना करना पड़ेगा। विभागीय सूत्रों के अनुसार योजना में 14 हजार हेक्टेयर में से लगभग 8 हजार हैक्टेयर भूमि की ही सिंचाई हो पाएगी। वहीं विभाग के कार्यपालन यंत्री एसएस गहरवार का कहना है कि सर्वे का प्रतिवेदन प्राप्त नहीं हुआ है। परियोजना की स्थिति पिछले पांच साल से यह परियोजना केवल कागजों में ही स्वीकृति के लिए दफ्तरों में भटक रही है। पूर्व में सचिव स्तर के अधिकारियों की बैठक 17 अप्रैल 2007 को हुई थी। अब तक परियोजना के विस्तृत परियोजना प्रस्ताव (डीपीआर) के लिए दोनों राज्यों की सहमति नहीं बन पाई है। वहीं महाराष्ट्र शासन से परियोजना का शीर्ष कार्य का डीपीआर और 30-35 वर्ष पुराने आवश्यक आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। सरकार नहीं ले रही रुचि मप्र सरकार शिवराज सिंह चौहान की घोषणा के बाद भी इसे लेकर रुचि नहीं दिखा रही है। जबकि महाराष्ट्र सरकार हर कीमत पर इस योजना को पूरा करना चाह रही है। जानकारी के मुताबिक ईस्टर्न बाघ परियोजना का लाभ महाराष्ट्र सरकार को मिलना है। इसमें करीब 4 हजार हेक्टेयर का जंगल मप्र का डूब में जा रहा है। इसके चलते इस योजना पर सहमति नहीं बन पाई है। हालांकि 6 मई 2011 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लांजी प्रवास के दौरान इस योजना का सर्वे कार्य शीघ्र कराने के आदेश दिए थे। अप्रैल माह में इस परियोजना का सर्वे तो करा लिया गया है, लेकिन अब तक सर्वे रिपोर्ट तैयार नहीं हो पाई है। ये है योजना छत्तीसगढ़ राज्य की ईस्टर्न बाघ नदी पर बांध बनाकर करीब 14 हजार हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के लिए पानी एकत्रित करने वृहद सिंचाई परियोजना बनाई गई है। ईस्टर्न बाघ परियोजना से करीब 14 हजार हेक्टेयर में से 8 हजार हेक्टेयर रकबे के लिए पानी का सिंचाई के लिए उपयोग किया जाना है। शेष पानी महाराष्ट्र सरकार पाइप लाइन के जरिए आपूर्ति के लिए ले जाना चाह रही है। इस योजना से जिले के पहुंचविहीन क्षेत्रों में करीब 352 हेक्टेयर रकबे में कृषि कार्य की संभावनाएं बढ़ जाएगी। करीब 200 किसान सिंचाई का लाभ ले सकेंगे। लांजी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में पहुंचविहीन गांवों में इस परियोजना के पूर्ण होने से किसानों को लाभ मिलेगा। जिले में लगभग 8 हजार हेक्टेयर कुल रकबा सिंचाई का होगा। हालांकि सर्वे रिपोर्ट के बाद अधिकारी सिंचाई रकबा तथा परियोजना की क्षमता के आकलन को आधार मान रहे हैं। क्यों अटकी योजना इस योजना के जरिए महाराष्ट्र सरकार पानी ले जाना चाह रही है तो वहीं मप्र सरकार अपना जंगल बचाना चाह रही है। दोनों ही सरकारों के मंसूबे अलग-अलग होने के कारण इस योजना पर सहमति नहीं बन पा रही है। सरकारी पेंच में उलझी ईस्टर्न बाघ परियोजना पर संकट गहरा गया है। जानकारों के अनुसार अंतरराज्यीय ईस्टर्न बाघ परियोजना मप्र और महाराष्ट्र राज्य सरकार के दस्तावेजों में उलझी हुई है। इस योजना को मप्र सरकार से स्वीकृति नहीं मिल पाई है। भू-अर्जन में परेशानी खास बात तो यह है कि परियोजना के अमल में आने के बाद विभागीय अधिकारियों को भू-अर्जन की समस्या का सामना करना पड़ेगा। विभागीय सूत्रों के अनुसार इस अंतरराज्यीय परियोजना तैयार होने के बाद 14 हजार हेक्टेयर में से लगभग 8 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि में ही सिंचाई हो पाएगी। उक्त क्षेत्र में वृहद सिंचाई के लिए विभाग के पास पर्याप्त भूमि नहीं है। जिसके चलते वृहद सिंचाई योजना पर कार्य नहीं हो पा रहा है। जबकि इस मामले में विभाग के कार्यपालन यंत्री एसएस गहरवार का कहना है कि ईस्टर्न बाघ परियोजना के लिए कराए गए सर्वे का प्रतिवेदन प्राप्त नहीं हुआ है। फिलहाल शासन स्तर पर इस परियोजना के लिए सहमति नहीं बन पाई है। मप्र का अधिकांश मात्रा में जंगल डूब में आ रहा है। जिसके चलते कार्रवाई प्रभावित हो रही है। स्वीकृति के उपरांत भू-अर्जन की समस्या भी सर्वे के दौरान सामने आई है। फिलहाल सर्वे रिपोर्ट के उपरांत ही इस मामले में कुछ कहा जा सकता है। परियोजना की स्थिति परियोजना की स्वीकृति के लिए दोनों ही राज्यों के अधीक्षण यंत्री स्तर के अधिकारियों की बैठक भी हो चुकी है। जिसमें सहमति नहीं बन पाई है। पिछले पॉंच साल से यह परियोजना केवल कागजों में ही स्वीकृति के लिए दफ्तरों में भटक रही है। पूर्व में सचिव स्तर के अधिकारियों की बैठक 17 अप्रैल 2007 को हुई थी। जिसमें दोनों राज्यों से सहमति बनाए जाने का निर्णय लिया गया था। अब तक परियोजना के विस्तृत परियोजना प्रस्ताव (डीपीआर) के लिए दोनों राज्यों की सहमति नहीं बन पाई है। महाराष्ट्र शासन से परियोजना का शीर्ष कार्य का डीपीआर और 30-35 वर्ष पुराने आवश्यक आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। इस परियोजना में दाई तट नहर निर्माण के लिए 3056.71 लाख रुपए का प्राक्कलन तैयार किया गया है, जो प्रमुख अभियंता जल संसाधन विभाग भोपाल के पास स्वीकृति के लिए वर्ष 2009 में भेजा गया है। परियोजना के बनने के बाद क्षेत्र के 14 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई की जा सकेगी। इनका कहना है ईस्टर्न बाघ परियोजना के बारे में जानकारी ली जा चुकी है। इसके लिए पर्याप्त जमीन उपलब्ध नहीं है योजना की गतिविधि को बढ़ाने और हितग्राहियों को लाभांवित कराने योजना बनाई जाएगी। सिंचाई परियोजना के काम को बावनथड़ी की तर्ज पर आगे बढ़ाया जाएगा। जयंत मलैया प्रभारी मंत्री बालाघाट

10 साल तक भूखंड खाली तो हजार रु. रोज जुर्माना

एक जून से भवन निर्माण न करने वाले बीडीए के भूखंड मालिकों को झटका, जुर्माने की दरें भी तय
भोपाल। शासन के निर्देशानुसार अब बीडीए अपने भूखंडों पर भवन निर्माण नहीं करने वाले लीजधारकों से तगड़ा जुर्माना वसूल करेगा। 10 साल तक जितने भी भूखंडों पर किसी तरह का कोई निर्माण नहीं किया गया, उनसे अब एक जून से हजार रुपए रोज की दर से जुर्माना लिया जाएगा। भोपाल विकास प्राधिकरण की संपदा शाखा द्वारा ऐसे तमाम लीजधारकों की योजनावार सूची बनाई जा रही है, जिन्हें नोटिस थमाए जाएंगे। साथ ही 4 वर्ष के भीतर निर्माण न करने वालों के लिए भी सालाना जुर्माने की राशि तय की गई है। शासन ने लगभग दो साल पहले प्राधिकरणों के लिए नए व्ययन नियम बनाकर लागू किए, जिसमें भूखंडों के आवंटन की शर्तों को और कड़ा कर दिया, जिसमें लॉटरी या पहले आओ, पहले पाओ की प्रक्रिया को भी समाप्त कर दिया गया और अब आवंटन सिर्फ टेंडर या खुली नीलामी के जरिए ही किया जा सकता है।
वहीं जुर्माने यानी कंपाउंडिंग के लिए भी शासन ने प्राधिकरण को निर्देश दिए थे कि वह बोर्ड संकल्प इस संबंध में पारित कर सकता है। लिहाजा जब प्राधिकरण में राजनीतिक बोर्ड काबिज नहीं था और अफसरों का बोर्ड था, तब कम्पाउंडिंग की राशि निर्धारित की गई थी, जिसे संकल्प के जरिए पारित कर शासन को भिजवाया गया। अभी पिछले दिनों आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसकी मंजूरी प्राधिकरण को दे दी, जिसके अनुसार अब लगभग 10 साल तक आवंटित भूखंड पर किसी भी तरह का निर्माण न करने पर जुर्माने की राशि आरोपित की जा सकेगी, जो कि एक हजार रुपए रोज रहेगी और आगामी एक जून से यह दर लागू कर दी जाएगी। इस दर के अनुसार महीने में 30 हजार रुपए और साल के 365 हजार यानी 3 लाख 65 हजार रुपए तक भारी-भरकम जुर्माना आवंटिती को चुकाना पड़ेगा।
प्राधिकरण का कहना है कि चूंकि वह भूखंड इसलिए आवंटित करता है, ताकि समयसीमा में निर्माण हो सके, लेकिन शहर में प्राधिकरण की संपत्तियां कई लोग निवेश के लिए भी खरीदते हैं। यही कारण है कि कई योजनाओं में सैकड़ों की संख्या में अभी भी भूखंड खाली पड़े हैं। इसके साथ ही प्राधिकरण ने यह भी तय किया है कि भूखंड का कब्जा देने के 4 साल के भीतर अगर भवन निर्माण स्वीकृत मानचित्र के अनुसार नहीं किया जाता है तो इसके लिए भी आवंटन निरस्त किया जा सकता है या फिर बदले में सालाना जुर्माने की राशि वसूल की जाएगी। इसके लिए प्राधिकरण ने कमजोर आय वर्ग यानी ईडब्ल्यूएस के भूखंडों पर सालाना 3 हजार रुपए, अन्य आवासीय भूखंडों पर 5 हजार रुपए और व्यावसायिक एवं अन्य उपयोग के भूखंडों जिनमें पीएसपी, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य अथवा मास्टर प्लान में निर्धारित अन्य उपयोग शामिल हैं, के भूखंडों पर 10 हजार रुपए साल का जुर्माना वसूल किया जाएगा। साथ ही जिन भूखंडों की लीज डीड हो चुकी है और उसके भी 6 साल बाद तक निर्माण नहीं किया गया है, यानी भूखंड के कब्जा देने के 4 साल बाद और लीज डीड के 6 साल बाद यानी कुल 10 साल तक अगर कोई निर्माण नहीं किया गया तो फिर हजार रुपए रोज के हिसाब से जुर्माना वसूल किया जाएगा। एक जून से यह जुर्माना लागू हो जाएगा। लिहाजा ऐसे तमाम आवंटितों की सूची तैयार की जा रही है और योजनावार संबंधित अधिकारियों से इन आवंटनों की रिपोर्ट भी मांगी जा रही है, ताकि जुर्माना राशि की वसूली शुरू की जा सके।
कानूनी तौर पर गलत है निर्णय
जिन आवंटनों में निर्माण कार्य शुरू करने की अवधि निर्धारित नहीं है, उन आवंटनों के विरुद्ध प्राधिकरण का यह निर्णय गैर कानूनी रहेगा। यहां तक कि प्राधिकरण के स्वयं के पास ही योजना के अनेक भूखंड खाली पड़े हैं और अधिग्रहण नियम के अनुसार योजनाओं का संपूर्ण होना और प्लॉटों की बिक्री आवश्यक है, लेकिन प्राधिकरण ने भी उन प्लॉटों की बिक्री नहीं की। यहां तक कि प्राधिकरण अपने खाली प्लॉटों पर निगम को संपत्ति कर नहीं चुका रहा है, जबकि नगर निगम पूरे शहर में खाली भूखंडों का संपत्ति कर वसूल कर रहा है।
हाईराइज कमेटी के साथ एनओसी का झमेला होगा दूर
वहीं दूसरी तरफ चौपट पड़े रियल एस्टेट कारोबार को पटरी पर लाने के लिए मुख्यमंत्री ने एक बार फिर कॉलोनाइजरों-बिल्डरों को आश्वासनों का झुनझुना थमाया है। हाईराइज कमेटी को खत्म करने के साथ ही नजूल, सीलिंग व प्राधिकरण की एनओसी का झमेला भी समाप्त होगा और ये एनओसी वेबसाइट में दर्ज रिकॉर्ड के आधार पर आसानी से दी जाएगी। 30 मीटर तक ऊंची इमारतों के लिए दो एफएआर के प्रावधानों का महीनों से अटका आदेश भी जल्द जारी होगा और पूर्व इंदौर कलेक्टर द्वारा जारी किया गया मिसल बंदोबस्त का फरमान भी मुख्यमंत्री ने गलत माना, जिसमें 1959 से पहले के भी रिकॉर्ड जमीन मालिक से मांगे जा रहे थे। अब नगर निगम द्वारा मंजूर किए जाने वाले नक्शे भवन अधिकारियों के डिजिटल सिग्नेचर से ही मंजूर होंगे।
राजधानी सहित पूरे प्रदेश का रियल एस्टेट कारोबार जबर्दस्त मंदी का शिकार है। मध्यप्रदेश सरकार की अडिय़ल और बेतुकी नीति के चलते कारोबारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और कई मर्तबा मुख्यमंत्री से लेकर विभागीय मंत्री तमाम आयोजनों में रियल एस्टेट कारोबार को राहत देने की घोषणाएं कर चुके हैं। इसी कड़ी में कल क्रेडाई के बैनर तले हुए आयोजन में फिर बिल्डरों और कॉलोनाइजरों को मुख्यमंत्री ने उनकी सभी लम्बित मांगों को जल्द पूरा करने का भरोसा दिलाया है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने भोपाल में ही इज ऑफ डुइंग बिजनेस के सेमिनार में यह घोषणा की थी कि हाईराइज कमेटी को विलोपित किया जा रहा है, मगर अभी तक इस आशय के आदेश जारी नहीं किए गए। कल मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कहा कि जल्दी ही इसके आदेश जारी कर दिए जाएंगे। अब हाईराइज कमेटी में संभागायुक्त नहीं रहेंगे, बल्कि निगमायुक्त उसके अध्यक्ष होंगे और प्राधिकरण के सीईओ को भी शामिल किया गया है।
वेबसाइट पर देखी जा सकेगी एनओसी
इसी तरह नजूल, सीलिंग से लेकर प्राधिकरण की एनओसी बार-बार मांगी जाती है। इसके लिए आवेदक को सारे दस्तावेज राजस्व विभाग द्वारा ही जारी किए जाते हैं और प्रदेश सरकार 1996 में ही सीलिंग समाप्त कर चुकी है और इसकी अंतिम सूची वर्ष 2000 में तैयार कर ली गई थी। लिहाजा राजस्व विभाग सीलिंग और नजूल की जमीनों की सूची, खसरे नंबर और क्षेत्रफल के साथ वेबसाइट पर प्रकाशित कर दे तो सीधे ही इसे देखा जा सकता है
30 मीटर की उंचाई पर दो एफएआर का प्रावधान शीघ्र
इसी तरह पिछले दिनों 30 मीटर तक ऊंचाई वाले हाईराइज यानी बहुमंजिला इमारतों के लिए ये प्रावधान किया था कि बिना हाईराइज कमेटी में जाए 30 मीटर तक की अनुमति सीधे निगम अथवा पंचायत से मिल जाएगी, मगर इसके लिए दो एफएआर लागू नहीं किया और पिछले कई महीनों से यह आदेश अटका पड़ा है। इस पर मुख्यमंत्री के साथ-साथ मौजूद प्रमुख सचिव और आयुक्त ने आश्वस्त किया कि दो एफएआर का आदेश जल्द जारी कर दिया जाएगा,
नजुल एनओसी के लिए नहीं देखेंगे बंदोबस्थ रिकार्ड
इधर पूर्व इंदौर कलेक्टर ने मिसल बंदोबस्त का भी एक आदेश जारी किया था, जिसमें बंदोबस्त रिकार्ड 1925 से दस्तावेजों की छानबीन करने की बात कही, जबकि नियमों में ही स्पष्ट है कि 1959 से पहले के दस्तावेजों को नहीं मांगा जा सकता है। इस विसंगति का खुलासा अग्निबाण ने ही प्रमुखता से किया था। इस पर मुख्यमंत्री ने भी सहमति जताई कि 1959 से पहले के दस्तावेजों को नहीं मांगा जाना चाहिए।
निगम की लीज का मुद्दा जल्द हल होगा
इसी तरह एक मुद्दा नगर निगम की लीज से संबंधित भी उठाया गया। 2010 से सभी तरह के भूखंडों की लीज के नामांतरण और नवीनीकरण के प्रकरण अटके पड़े हैं। कई मर्तबा शासन को प्रतिवेदन दे दिया बावजूद इसके स्थानीय अधिकारियों द्वारा एक भी प्रकरण नहीं किया गया। इस पर निगम नगरीय प्रशासन आयुक्त विवेक अग्रवाल ने स्पष्ट कहा कि लीज की नई पॉलिसी जल्द प्रकाशित की जा रही है।
एफएआर बढ़ा दें तो सस्ते हो जाएंगे आवास
क्रेडाई के राष्ट्रीय अध्यक्ष गीतांबर आनंद ने कहा कि एफएआर ही अत्यंत कम है, जिसके चलते इंदौर-भोपाल जैसे प्रमुख शहरों में अभी भी निर्मित मकानों या फ्लैटों की कीमतें ज्यादा हैं, क्योंकि जमीन की कीमतें लगातार बढ़ रही हंै। जिस तरह गुडग़ांव-नोएडा जैसे शहरों में सरकार ने तीन एफएआर कर दिया, जिसके कारण कीमतों में कमी भी आई, उसी तरह यहां भी एफएआर बढ़ाया जाना चाहिए, जिससे वर्टीकल ग्रोथ भी शहरों को मिलेगी। इंदौर में ही मास्टर प्लान में अधिकतम दो एफएआर का प्रावधान है, जिसे बढ़ाकर कम से कम तीन एफएआर किया जाना चाहिए, जिससे फ्लैटों की कीमतें और कम हो जाएंगी।
डिजिटल सिग्नेचर से ही मंजूर होंगे नक्शे
शासन ने सिंगल विंडो सिस्टम भी लागू किया है, जिसके चलते नगर तथा ग्राम निवेश में आवेदन लेना बंद कर दिए और यह काम नगर निगम के कॉलोनी सेल को सौंप दिया है। वहीं नगर निगम द्वारा ऑनलाइन नक्शों की मंजूरी का दावा तो किया जाता है, मगर जोड़-तोड़ के लिए सारा काम मैन्युअल ही होता है। आयुक्त विवेक अग्रवाल ने स्पष्ट कहा कि अब इंदौर नगर निगम में भी डिजिटल सिग्नेचर से ही नक्शे मंजूर होंगे और इसकी तैयारी लगभग पूरी कर ली गई है। सभी भवन अधिकारियों के डिजिटल सिग्नेचर तैयार करवाए जा रहे हैं और अब वाकई ऑनलाइन नक्शे मंजूर होंगे ताकि इसमें होने वाले भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सके। अभी शासन ने 2400 स्क्वेयर फीट तक के नक्शे बिना निगम के आर्किटेक्ट की सहायता से मंजूर करवाने का आदेश जारी किया है, अब उसी तर्ज पर सभी तरह के बड़े नक्शे भी ऑनलाइन ही मंजूर होंगे।
तय भू उपयोग में डायवर्शन की जरूरत नहीं
मध्यप्रदेश भू राजस्व संहिता 1959 की धारा 172 में भूमि के उपयोग में परिवर्तन के अधिकार अनुविभागीय अधिकारी राजस्व को दिए गए थे, मगर मास्टर प्लान आने के बाद यह तय हो गया कि जिस जमीन का भू उपयोग निर्धारित किया गया है, उसी के अनुरूप अनुमति मिलेगी। इस संबंध में 2008 के बाद 2013 में भी राजस्व विभाग ने सभी कलेक्टरों को यह आदेश दिए थे कि डायवर्शन के लिए अलग से कोई अनुज्ञा अपेक्षित नहीं है। बावजूद इसके डायवर्शन जारी है, जबकि निर्धारित भू उपयोग के मुताबिक आवेदक को सिर्फ लिखित सूचना दी जाना चाहिए ताकि निर्धारित दर के अनुसार भू व्यपवर्तन शुल्क का निर्धारण हो सके और वह राशि उसके द्वारा जमा कराई जा सके। डायवर्शन की जगह आवेदक को सिर्फ लैंड यूज सर्टिफिकेट ही लगाना होगा, जिसके आधार पर प्रीमियम व कर का निर्धारण संबंधित एसडीओ द्वारा किया जाएगा। --------------

सस्ती बिजली का सपना दिखा मप्र को 1147 करोड़ के घाटे में डाला रिलायंस पॉवर ने

कंपनी ने 7 राज्यों को लगाया 3058 करोड़ का चूना
राज्यों को इस तरह हुआ घाटा
राज्य एमयू घाटा (करोड़ में)
मध्यप्रदेश 2868 1147
पंजाब 1147 459
उत्तरप्रदेश 956 382
दिल्ली 860 344
हरियाणा 860 344
राजस्थान 765 306
उत्तराखंड 191 76
कुल घाटा 7647 3058
भोपाल। मप्र में जिन कंपनियों के बलबुते मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 24 घंटे बिजली देने का वादा किया था, वहीं अब मप्र में अंधेरे का कारण बनने लगी हैं। उनमें से एक रिलायंस पावर ने तो ऐसा खेल खेला है कि न केवल मप्र में बल्कि अन्य छह प्रदेशों को भी अरबों रूपए का चूना लगाया है। मप्र सहित कई राज्यों में महंगा बिजली उत्पादन और महंगी बिजली के खेल के पीछे रिलायंस पॉवर है। रिलायंस पावर लिमिटेड ने मध्यप्रदेश स्थित सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट (यूएमपीपी)के प्लांट को ठप रखकर 7 राज्यों को चूना लगाया गया है। सब कुछ जानते हुए सरकारों का मौन समझ से परे है। सासन पॉवर प्लांट से बिजली नहीं मिलने के चलते मप्र, पंजाब, उप्र, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड को महंगी बिजली खरीदना पड़ रही है। दूसरे सासन के नाम पर आवंटित कोयले को रिलायंस अपने चितरंगी प्रोजेक्ट में ले जाना चाहता है, जहां से वह महंगी बिजली बेच सकेगा। अगस्त 2013 से अब तक प्रदेश 1147 करोड़ का घाटा उठा चुका है। ऑल इंडिया पॉवर इंजीनियर्स फेडरेशन ने इस मामले को पूरे देश के सामने लाने का फैसला किया है, जो जल्दी ही बड़े आंदोलन के रूप में दिखेगा।
7 राज्यों को हुए नुकसान का मुद्दा उठाया
ऑल इंडिया पॉवर इंजीनियर्स फेडरेशन ने केंद्रीय ऊर्जा मंत्री को लिखे पत्र में रिलायंस पॉवर के सासन प्लांट से कम उत्पादन के चलते 7 राज्यों को हुए नुकसान का मुद्दा उठाया है। गौरतलब है कि सासन प्लांट की पहली इकाई में अगस्त 2013 में कमर्शियल ऑपरेशन शुरू हुआ था। तब से अभी तक इसकी एक भी इकाई सतत् 95 प्रतिशत क्षमता पर नहीं चलाई गई। आरोप है कि ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, ताकि बाद में बचे कोयले को चितरंगी के मर्चेंट पॉवर प्लांट में उपयोग में लाया जा सके। अधिक मुनाफा कमाया जा सके। जानकारी है कि इस कंपनी को भारत सरकार द्वारा आवश्यकता से अधिक क्षमता का कोल रिजर्व आवंटित किया जा चुका है।
अब तक लगभग 3058 करोड़ रुपए का नुकसान
इस गड़बड़ी के चलते 7 राज्यों को अब तक लगभग 3058 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है, क्योंकि उक्त बिजली न मिलने से ये राज्य अन्य स्रोतों से महंगी बिजली खरीद रहे हैं। इसमें मप्र को सबसे ज्यादा 1147 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। इस पत्र के माध्यम से ऑल इंडिया पॉवर इंजीनियर्स फेडरेशन ने मांग की है कि क्षमता का 95 प्रतिशत उत्पादन करने के लिए उक्त फर्म को नोटिस दिया जाए और 95 प्रतिशत उत्पादन न कर पाने की स्थिति में शेष कोयले का आवंटन कोल इंडिया को दिया जाए। साथ ही पूरे प्रकरण पर ऑल इंडिया पॉवर इंजीनियर्स फेडरेशन द्वारा श्वेत-पत्र भी जारी किया गया है। उल्लेखनीय है कि सरकार के दबाव और औद्योगिक जगत में छिछालेदर के बाद आखिरकार 22 अप्रैल 2015 को रिलायंस पावर ने 3960 मेगावाट क्षमता वाले सासन पावर प्रोजेक्ट की छठी यूनिट भी शुरू हो गई। इसके साथ ही 3960 मेगावाट क्षमता वाले इस प्लांट ने कॉमर्शियल आपरेशन भी शुरू कर दिया। कंपनी ने दावा किया है कि पावर परचेज अग्रीमेंट के अनुसार तय हुई अवधि से एक साल पहले प्लांट ने कॉमर्शियल आपरेशन करना शुरू कर दिया। कंपनी ने इसे अपनी उपलब्धि बताया है। अब रिलायंस पॉवर लिमिटेड कुल क्षमता बढ़कर 5945 मेगावाट हो गई है, जिसमें 5760 मेगावाट थर्मल और 185 मेगावाट रिन्यूअबल एनर्जी पर आधारित है। सासन अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट विश्व की सबसे बड़ी इंटीग्रेटिड पॉवर प्लांट और कोल माइन प्रोजेक्ट है और इसमें कुल 27000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। लेकिन इस कंपनी ने जिस तरह समय-समय पर अपने प्लांट को ठप कर सरकारों को चूना लगाया है, उसके खिलाफ किसी भी सरकार ने अभी तक कोई भी कड़ा कदम नहीं उठाया है।
जानबूझकर कम बिजली उत्पादन कर रहा रिलायंस
बिजली संकट से जूझते कई प्रदेश को और संकट में डालने के लिए जिम्मेदार मानते हुए ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने रिलायंस पावर की सासन परियोजना के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली के मुख्य मंत्रियों को पत्र लिखकर फेडरेशन ने दावा किया है कि रिलायंस जानबूझकर सासन परियोजना से कम बिजली का उत्पादन कर रहा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है जिससे सभी सरकारें बिजली संकट से बचने के लिए रिलायंस के दूसरे पावर प्लांटों से महंगी दरों पर बिजली खरीदें। मप्र के अलावा यूपी को सासन से कम बिजली मिलने के चलते लगभग पांच सौ करोड़ की चपत लगी है। ऐसे में इस नुकसान की वसूली रिलायंस से की जानी चाहिए और सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। दरअसल, सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट प्रतिस्पर्धात्मक बिडिंग के जरिए रिलायंस को दिया गया था। 16 अगस्त 2013 को सासन की पहली परियोजना चली। फेडरेशन के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे का कहना है कि 16 अगस्त 2013 से 31 मार्च 2015 तक मात्र 65.42 फीसदी प्लांट लोड फैक्टर पर यह परियोजना चली, जबकि एनटीपीसी और अन्य समान प्लांट 95 फीसदी पीएलएफ पर चल रहे हैं। ऐसे में 95 फीसदी से कम पीएलएफ के चलते राज्यों को 7,647 मिलियन यूनिट कम बिजली मिली। फेडरेशन ने दावा किया कि कम बिजली मिलने के कारण मध्य प्रदेश, पंजाब, यूपी, दिल्ली राजस्थान, हरियाणा और उत्तराखंड को लगभग तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। इतने भारी नुकसान के बावजूद किसी भी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मामले में आपत्ति नहीं की। फेडरेशन ने अब राज्य सरकारों से प्रभावी कदम उठाने की मांग की है जिससे बिजली संकट से ग्रस्त प्रदेशों को राहत मिल सके।
1.19 प्रति यूनिट की दर पर मिलनी है बिजली
सासन परियोजना से 1.19 रुपए प्रति यूनिट की दर पर राज्यों को बिजली मिलनी है, जिसमें पहले वर्ष की दर मात्र 70 पैसे प्रति यूनिट है। फेडरेशन के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे कहते हैं कि इतनी सस्ती दर पर बिजली मिलने पर राज्यों को ज्यादा बजट अतिरिक्त बिजली खरीद के लिए नहीं खर्च करना पड़ेगा। लेकिन सासन में कम उत्पादन और सप्लाई की वजह से राज्यों को लगभग पांच रुपए प्रति यूनिट की दर पर बाजार से बिजली खरीदनी पड़ रही है। कम उत्पादन की वजह से राज्यों को करीब 7,647 मिलियन यूनिट कम बिजली मिलने के कारण राज्यों को तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक की क्षति हुई है। करार के अनुसार, सासन बिजली घर से पैदा होने वाली कुल बिजली में मप्र को 37.5 फीसदी, पंजाब को 15 फीसदी, यूपी को 12.5 फीसदी, दिल्ली को 11.25 फीसदी, हरियाणा को 11.25 फीसदी, राजस्थान को 10 फीसदी और उत्तराखंड को 2.5 फीसदी बिजली मिलती है। 16 अगस्त 2013 से 31 मार्च 2015 तक यूपी को 95 फीसदी से कम बिजली मिलने के कारण 955.88 मिलियन यूनिट का नुकसान हुआ, जिसका मूल्य 382 करोड़ रुपए है।
महंगी दरों पर खरीदनी पड़ रही बिजली
रिलायंस के सासन पावर प्लांट से सस्ती दरों पर बिजली नहीं मिल पाने की वजह से यूपी को रिलायंस की ही रोजा परियोजना से लगभग छह रुपए प्रति यूनिट पर बिजली खरीदना पड़ रही है। यदि इसे आधार माना जाए तो सासन से 70 पैसे प्रति यूनिट की बिजली नहीं मिल पाने पर होने वाली क्षति पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक की है। ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने मांग की है कि केन्द्र सरकार रिलायंस को नोटिस दे कि यदि 95 फीसदी पीएलएफ पर प्लांट न चलाया गया तो कोयला ब्लॉक का आवंटन घटा कर शेष कोयला कोल इंडिया लिमिटेड को सरकारी बिजली घरों के उपयोग के लिए दे दिया जाएगा। फेडरेशन ने यह भी मांग की है कि सातों राज्यों का एक मॉनिटरिंग ग्रुप बनाया जाए, जो सासन से जानबूझ कर किए जा रहे कम उत्पादन की जांच करे और रिलायंस से दंड वसूलने का प्रस्ताव दे।
रिलायंस के चलते हो रहा बिजली संकट
आल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने मध्य प्रदेश की सासन परियोजना से कम बिजली मिलने से होने वाली क्षति की भरपाई रिलायंस से कराने की मांग की है। साथ ही कठोर कार्यवाही के लिए सरकारों से प्रभावी हस्तक्षेप करने की अपील की है। फेडरेशन ने आरोप लगाया है कि कम टैरिफ होने से रिलायंस जान-बूझकर सासन बिजलीघर की इकाई नहीं चला रहा है जो अत्यंत गंभीर मामला है। पत्र में बताया गया है कि करार के मुताबिक बिजली न मिलने से प्रदेश को महंगी दर से बिजली खरीदनी पड़ी। इससे अकेले उत्तर प्रदेश को 41 करोड़ रुपए की चपत लगी है। फेडरेशन के सेक्रेटरी जनरल शैलेंद्र दुबे ने पत्र लिखकर प्रभावी हस्तक्षेप की अपील की है। पत्र में उन्होंने लिखा है कि रिलायंस की सासन परियोजना से यूपी, एमपी, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड को बिजली मिलनी है। करार के अनुसार पहले वर्ष में मिलने वाली बिजली का मूल्य मात्र 69.80 पैसे प्रति यूनिट है। सासन की पहली इकाई चार माह विलंब से 16 अगस्त, 2013 को चली है। आंकड़ों के अनुसार 16 अगस्त से 24 अक्तूबर तक सासन की इकाई से 27.72 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) पर मात्र 288.922 मिलियन यूनिट बिजली पैदा हुई। जबकि 100 प्रतिशत पीएलएफ पर इकाई चलाने से 1042.272 मिलियन यूनिट बिजली पैदा होनी चाहिए थी। दुबे ने बताया कि कम उत्पादन होने से प्रदेशों को इस अवधि में आवंटन से कम बिजली मिली है।
प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले लग चुका है 1252 करोड़ का चूना
रिलायंस पावर के स्वामित्व वाले सासन पावर लिमिटेड के सासन प्रोजेक्ट के शुरू होने से पहले ही मप्र सरकार को 1252 करोड़ का चूना लग चुका है। भारत के महालेखा परीक्षक ने भी गत वर्ष रिलायंस पावर के स्वामित्व वाले सासन प्रोजेक्ट के लिए अवांछित सहयोग देने पर पर्यावरण मंत्रालय की खिंचाई की थी। अब कैग ने बताया है, कि इस प्रोजेक्ट को 15 माह देरी से प्रारंभ किए जाने के कारण मध्यप्रदेश को 1252 करोड़ रुपए अधिक चुकाकर बिजली खरीदनी पड़ी है।
मध्यप्रदेश की जमीन पर सासन प्रोजेक्ट बनाया जा रहा था उस वक्त कैग ने कई कमियां निकाली थीं और बताया था कि किस तरह वन संरक्षण नियम 1980 का उल्लंघन इस 1384.96 एकड़ प्रोजेक्ट को स्थापित करने में किया गया था। अब नए सिरे से कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि जो बिजली इस प्रोजेक्ट से 70 पैसे प्रति यूनिट मिल सकती थी। उसे 3.50 रुपए प्रति यूनिट की दर से लगातार 15 महीने खरीदकर उपभोक्ताओं को दिया गया। इस प्रकार 447.14 करोड़ यूनिट बिजली पर प्रति यूनिट 2.80 पैसे का अधिक भुगतान करना पड़ा। जिससे 1252 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
20 हजार करोड़ रुपए के इस प्रोजेक्ट की क्षमता 3960 मेगावाट बिजली उत्पादन की है, इसमें 6 इकाईयां लगी हुई हंै और प्रत्येक इकाई 660 मेगावाट बिजली पैदा करने में सक्षम है। इसमें से मप्र को प्रत्येक इकाई से 247 मेगावाट बिजली मिलती है और कुल 1482 मेगावाट बिजली वर्ष 2012 से ही मिलनी थी, लेकिन यह बिजली अगस्त 2013 से तकरीबन 15 माह विलंब से मिली और घाटा हो गया। हालांकि पावर मैनेजमेंट कंपनी इसे घाटा नहीं मानती। कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि पहले यह इकाई मई 2012 में चालू होने का अनुमान था, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा जमीन आवंटन में विलंब होने के कारण उत्पादन में देरी हुई इसलिए प्रोजेक्ट पिछड़ गया। महंगी दर पर बिजली खरीदने के अलावा प्रदेश सरकार के पास कोई विकल्प नहीं था। याद रहे कि सासन प्रोजेक्ट अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले समूह ने बनाया है। पहले यह पावर फाइनेंस कार्पोरेशन की पूर्णता स्वामित्व वाली सब्सिडरी हुआ करता था, बाद में इसे रिलायंस पावर लिमिटेड को ट्रांसफर किया गया। वन अधिनियम 1980 के अनुसार इस तरह के प्रोजेक्ट बनाने के लिए जो वन भूमि अधिग्रहित की जाती है। उसके एवज में उतनी ही गैर वन भूमि वन विभाग को देनी पड़ती है ताकि वहां जंगल फिर से लगाया जा सके। उस समय मप्र के प्रमुख सचिव ने एक सर्टिफिकेट जारी करते हुए कहा था कि सीधी जिले में सरकार के पास कोई गैर वन भूमि नहीं है। इस सर्टिफिकेट को आधार बनाकर सासन पावर लिमिटेड अधिग्रहित भूमि के एवज में गैर वन भूमि देने से बच गया। कैग ने इस करतूत को उस समय ही पकड़ लिया था, लेकिन लीपापोती कर दी गई। देखा जाए तो इस प्रोजेक्ट के कुछ किलोमीटर के दायरे में ही वह भूमि दी जानी चाहिए थी, जिस पर वृक्षारोपण किया जा सकता है। कैग का कहना है, कि न तो सरकार न ही मंत्रालय ने वन अधिनियम के प्रावधानों को लागू करवाने में कोई रुचि दिखाई जिसके चलते इस प्रोजेक्ट में भूमि का घालमेल हुआ। बहरहाल देरी किसी भी कारण से हुई हो, सासन प्रोजेक्ट में समय पर बिजली न मिल पाने के कारण प्रदेश सरकार को जो राजस्व हानि हुई है, उसकी वसूली क्या संभव है देखा जाए तो इसमें किसी को भी दोषी नहीं ठहराया जाएगा, क्योंकि सभी अपना गला बचाने में माहिर हैं। जहां तक रिलायंस जैसी कंपनियों का प्रश्न है, उन्हें शासन का वरदहस्त पहले से ही प्राप्त है इसलिए उनका कुछ बिगड़ता नहीं है।
21 माह तक महंगी बिजली खरीदना पड़ा मप्र को
अगस्त 2013 से लेकर 22 अप्रैल 2015 तक प्रोजेक्ट की 5 इकाईयों से उत्पादन हो रहा है। इसका मतलब यह कि लगभग 660 मेगावाट बिजली मप्र सरकार को महंगे मोल की खरीदनी पड़ी। यह पहला अवसर नहीं है जब मप्र में रिलायंस की यह परियोजना विवादों में आई है, इससे पहले भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने छत्रसाल कोल माइन से कोयला निकालने के रिलायंस पावर के निर्णय को चुनौती दी थी। जिस जल्दबाजी में बिजली प्राप्त करने के लिए ऐसे बड़े प्रोजेक्ट्स को मानकों का उल्लंघन करते हुए अनापेक्षित सहयोग प्रदान किया जा रहा है। उससे प्रदेश का अहित ही होता है। इतना होने के बावजूद भी निर्धारित कोटे की बिजली भी प्रदेश को नहीं दी जाती है।
इधर, सेंट्रल ट्रिब्यूनल ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम (एकेवीएन) की अपील खारिज करते हुए सेज इकाइयों को 42 करोड़ की राशि वापस लौटाने के आदेश दिए हैं। यह राशि एकेवीएन द्वारा वर्ष 2010 से 2012 के बीच इकाईयों से बिजली के बिलों में वसूली गई थी। पीथमपुर स्थित विशेष आर्थिक प्रेक्षत्र की बिजली व्यवस्था एकेवीएन द्वारा देखी जाती है। इसके लिए एकेवीएन को निर्धारित कोटे के अनुसार बिजली रियायती दरों पर दी जाती है। एकेवीएन को प्रतिवर्ष बिजली की दरें विद्युत नियामक आयोग से तय करवाना होती है। निगम अफसरों द्वारा दो वर्षों तक औसत आधार पर दरें बढ़ा कर बिलिंग की जाती रही। इसके बाद एआरआर आयोग के समक्ष पेश की गई। सुनवाई के बाद आयोग ने अधिक वसूली गई राशि वापस लौटाने के आदेश दिए।
परचेस एग्रीमेंट का उल्लंघन
पावर रेगुलेटर सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन (सीईआरसी) ने कहा था कि यह प्रोजेक्ट ऑपरेशनल नहीं है। उसके मुताबिक, इसने 2013 तक तय टेस्टिंग मानकों को पूरा नहीं किया था। सासन यूएमपीपी 4,000 मेगावाट कैपेसिटी वाला प्लांट है। इसकी 600 मेगावाट की पहली यूनिट कमर्शियल तौर पर ऑपरेशनल है। इसे इंडिपेंडेंट इंजीनियर (आईटी) ने 30 मार्च 2013 को सर्टिफाई किया था। इसे प्रोक्योरर और सासन पावर ने अप्वाइंट किया था। इसे सभी 14 प्रोक्योरर ने लिखित में माना था। वहीं, रेगुलेटर ने कंपनी को यूनिट की नए सिरे से टेस्टिंग के लिए कहा है। उसका कहना है कि तभी इस प्लांट को फॉर्मल तौर पर ऑपरेशनल घोषित किया जाएगा। रेगुलेटर के मुताबिक, कंपनी ने पावर परचेज एग्रीमेंट की शर्तों के हिसाब से काम नहीं किया है। रेगुलेटर ने अपने ऑर्डर में कहा है कि यह पता चला है कि सासन पावर लिमिटेड (एसपीएल) ने डब्ल्यूआरएलडीसी की ईमेल (30 मार्च 2013) में पावर परचेज एग्रीमेंट (पीपीए) के तहत सुझाए गए वाजिब कदम उठाने के बजाए 31 मार्च 2013 को एक यूनिट का कमर्शियल ऑपरेशन शुरू कर दिया। उल्लेखनीय है कि सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट को लेकर कैग ने पर्यावरण मंत्रालय की कड़ी खिंचाई की थी। कैग का कहना था कि पर्यावरण मंत्रालय ने रिलायंस पावर लिमिटेड के इस प्रोजेक्ट को गैर वाजिब रियायतें दी हैं। कैग ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मुख्य सचिव द्वारा जारी एक अनुचित सर्टिफिकेट के आधार पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने रिलायंस पावर को 1,384.96 हेक्टेयर गैर-वनीय भूमि मुहैया न कराने की छूट दे दी थी। हालांकि, रिलायंस पावर ने कैग के इस अवलोकन से असहमति जताई थी। इस कंपनी ने कहा था कि 4,000 मेगावाट के सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के लिए वन भूमि अधिग्रहीत करते वक्त उसे कोई भी रियायत नहीं दी गई थी।
एक कोल ब्लॉक को रद्द किया
सरकार ने अनिल अंबानी ग्रुप के सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रॉजेक्ट से जुड़े एक कोल ब्लॉक को रद्द करने का निर्णय लिया है। सरकार का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के अनुसार है जिसमें अन्य प्लांटों के लिए इस प्रकार की यूनिटों से अधिक कोयले के कमर्शल इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए कहा गया है। इस निर्णय में अन्य प्लांटों के लिए 4,000 मेगावाट प्रॉजेक्ट के अन्य खानों के कोयले के इस्तेमाल से भी मना किया गया है। इस आदेश में रिलायंस पावर के सासन प्रॉजेक्ट को आरंभ में दी गई खास व्यवस्था को भी समाप्त किया गया है। इससे रिलायंस को 21,000 करोड़ रुपए के अपने चित्रांगी पॉवर प्रॉजेक्ट को शुरू करने में मदद मिलती।
हाल ही में कंपनी ने 36,000 करोड़ रुपये के तिलैया प्रॉजेक्ट को भी रद्द कर दिया जबकि कृष्णपट्टम प्रॉजेक्ट पर कोयल के निर्यात मूल्य के बहुत ही ज्यादा बढ़ जाने के कारण कोई खास प्रगति नहीं हुई है। एक सरकारी अधिकारी ने बताया, सरकार का नजरिया है कि इस निर्णय में संलिप्त पक्षों पर ध्यान न देकर राष्ट्रीय हित के लिए नियमों का सख्ती से पालन किया जाए। संसद की पीएसी ने भी अतिरिक्त कोयले के इस्तेमाल के बारे में उल्लेख किया था। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 25 अगस्त को व्यवस्था दी थी कि यूएमपीपी को जो कोयला भंडारों का आवंटन किया गया है उसका इस्तेमाल सिर्फ यूएमपीपी के लिए ही किया जाएगा और कोयले के कमर्शल इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई कंपनियों को आवंटित कोयला खानों को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था ने कोयला मंत्री को यूएमपीपी से जुड़े खानों पर फिर से गौर करने के लिए प्रेरित किया।
कोयला मंत्रालय के एक सीनियर अधिकारी ने बताया, यह निर्णय पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के मद्देनजर लिया गया है। सरकार ने अतिरिक्त कोयले के इस्तेमाल के लिए रिलायंस पावर को दिए गए अधिकार को वापस लेने का निर्णय किया है। छत्रसाल कोयला भंडार के आवंटन को रद्द कर दिया क्योंकि यह सरप्लस है और मोहर एवं मोहर अमलोहरी कोयल भंडारों में कोयला का इस्तेमाल सासन युएमपीपी तक ही सीमित रहेगा।
मप्र में अपना कारोबार समेटने में जुटी रिलायंस इंडस्ट्री
मध्यप्रदेश को उद्योग के सब्जबाग दिखाकर रिलायंस गु्रप चंपत होने का प्रयास कर रहा है। केंद्र सरकार ने कोल ब्लॉक आवंटन निरस्त कर दिए तो रिलायंस सरकारी खजाने में जमा 9.51 करोड़ की धरोहर राशि वापस लेने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। फाइल सीएम सचिवालय से चलकर रैवेन्यू विभाग तक पहुंच चुकी है और रिलायंस के कर्मचारी बार-बार सीएम सचिवालय से लेकर रैवेन्यू विभाग तक फाइल के बारे में पूछताछ कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में कुछ भी हो सकता है।
मध्यप्रदेश में अरबों लगाने का झांसा देकर सरकार से जमीन लेने वाली रिलायंस इंडस्ट्री अब अपना कारोबार समेट रही है और सरकार के पास जमा पैसा भी वापस चाहती है। रिलांयस ने सिंगरौली जिले के ग्राम मोहर अमरोटी में 125 हैक्टेयर जमीन कोयला उत्खनन के लिए ली थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने कोल ब्लॉक आवंटन निरस्त कर दिया, अब यह जमीन रिलायंस के किसी काम की नहीं है। इसलिए रिलायंस सरकार को यह जमीन लौटाना चाहती है पर सवाल यह उठता है कि रिलांयस से जमीन वापस लेना तभी संभव है जब वहां कोई सरकारी प्रोजेक्ट आ रहा हो।
मध्यप्रदेश सरकार तो वैसे भी निजीकरण को बढ़ावा दे रही है इसलिए वह इस प्रोजेक्ट में हाथ नहीं डाल सकती। रिलायंस को जमीन से मतलब नहीं है, जमीन उसे मिले तो उसका लैंडबैंक मजबूत ही होगा लेकिन रिलायंस की चालाकी यह है कि वह सरकारी खजाने में जमा 9.51 करोड़ की धरोहर राशि वापस लेना चाहती है। इसके लिए रिलायंस के कर्मचारी मंत्रालय के चक्कर काट रहे हैं। रिलायंस का मकसद दोनोंं होथों में मिठाई रखने का है- रुपया वापस मिल जाए और जमीन भी सुरक्षित रहे। अब देखना यह है कि रिलायंस को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार अपने ही नियमों को ताक में रखती है अथवा नहीं। वर्ष 2007 में जब अगस्त माह में रिलायंस पावर लिमिटेड ने सासन पावर लिमिटेड का अधिग्रहण किया था, उस समय केंद्र में यूपीए सरकार ने बिना आवश्यक प्रक्रिया अपनाए कई बड़े औद्योगिक घरानों को कोल ब्लॉक आवंटित कर दिए थे। रिलायंस जो 4 हजार मेगावॉट का विशाल पावर प्रोजेक्ट मध्यप्रदेश के शासन में चला रहा है, उसके लिए कोयले की आपूर्ति हेतु उसने भी बोली लगाई थी लेकिन अब जिस खदान के लिए बोली लगाई गई उसमें 5 इकाइयों से 3 हजार से अधिक मेगावॉट के करीब विद्युत उत्पादन हो रहा है। ऐसी स्थिति में प्लांट को अधिक उत्पादन के लिए कोयले की जरूरत कोल ब्लॉक से ही पूरी हो सकती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद कोयला मिलना संदिग्ध हो गया है। इसलिए रिलायंस सिंगरौली में ली गई जमीन में रुचि नहीं दिखा रही। दरअसल रिलायंस की 4 हजार मेगावॉट बिजली में से कुछ बिजली मध्यप्रदेश को अत्यंत रियायती दरों पर मिल सकती है। इसीलिए मध्यप्रदेश में रिलायंस को इतनी रियायत दी जा रही है। लेकिन यह रियायत राज्य सरकार को महंगी पड़ सकती है।
धीरूभाई अंबानी यूनिवर्सिटी बनाने से इंकार
भोपाल के अचारपुरा गांव में बनने वाली धीरूभाई अंबानी यूनिवर्सिटी से अचानक इंकार करने पर इसे अनिल अंबानी का सरकार के साथ धोखा बताया जा रहा है। राज्य सरकार ने मात्र तीन करोड़ रूपए में लगभग पचास करोड़ रुपए की जमीन धीरूभाई अंबानी न्यास को दी थी। अंबानी के कहने पर सरकार ने एयरपोर्ट से अचारपुरा तक पांच किलोमीटर सड़क भी बना दी, लेकिन अब अंबानी न केवल यूनिवर्सिटी खोलने से मना कर रहे हैं, बल्कि इस प्रोजेक्ट पर खर्च दस करोड़ रुपए भी मांग रहे हैं। राज्य सरकार के आमंत्रण पर 2008 में अनिल अंबानी भोपाल पहुंचे थे। उन्होंने मुख्यमंत्री निवास पर सीएम के साथ नाश्ता करते - करते धीरूभाई अंबानी ट्रस्ट की ओर से अचारपुरा में विश्वविद्यालय खोलने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये थे। पत्रकारों और अफसरों की उपस्थिति में अनिल अंबानी को 110 एकड़ जमीन के कागजात सौंपे गए। अंबानी ने भी वायदा किया कि अगले दो तीन साल में यूनिवर्सिटी शुरू कर देंगे।
अंबानी ने जमीन का आधिपत्य लेते ही वहां जैसे ही बाउंड्रीवाल का काम शुरू किया तथा राज्य सरकार ने अचारपुरा से एयरपोर्ट तक सड़क बनाना शुरू की तो अचारपुरा और मणीखेड़ी में दस लाख रूपए एकड़ की जमीन चालीस से पचास एकड़ तक पहुंच गई। शिक्षा व्यावसाय से जुड़े कई संस्थानों ने भी अंबानी को देखते हुए वहां एजूकेशन हब में धड़ाधड़ जमीनें आबंटित करा ली। अंबानी ने इसी माह राज्य सरकार को पत्र भेजकर इस प्रोजेक्ट से हटने की सूचना दी है। अंबानी के इस पत्र को मंत्रालय के अधिकारी धोखे के रूप में देख रहे हैं। चर्चा है कि भोपाल में पहले से जो कॉलेज चल रहे हैं उन्हे ही छात्र नहीं मिल रहे हैं, ऐसे में अंबानी को यूनिवर्सिटी की सफलता पर संदेह होने लगा था। प्रदेश में महर्षि योगी विश्व विद्यालय के लगभग फेल हो चुका है। यह भी चर्चा है कि अंबानी प्रदेश में चल रहे अपने अन्य प्रोजेक्टों में अनुमतियों को लेकर सरकार की टालने वाली नीति से दुखी है। इसी कारण उन्होंने यूनिवर्सिटी से हाथ खीचा है।
अब स्नैपडील भी दिखा रही है सुनहरे सपने
जानी-मानी ऑनलाइन कम्पनी स्नैपडील भी अब मप्र को सुनहरे सपने दिखा रही है। कंपनी के सीईओ कुणाल बहल अभी 20 मई को भोपाल में आयोजित शिवराज सरकार के युवा उद्यमी पंचायत में ना सिर्फ शामिल हुए बल्कि उन्होंने शासन के साथ एमओयू भी साइन किया। स्नैपडील के मामले में चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि महाराष्ट्र सरकार के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने कुणाल बहल सहित अन्य निदेशकों के खिलाफ गैर जमानती धाराओं में पनवेल थाने पर एफआईआर दर्ज करवाई है। यह एफआईआर स्नैपडील डॉट कॉम द्वारा आपत्तिजनक दवाइयां बेचने के मामले में दर्ज हुई है, जिसकी पुलिसिया जांच शुरू हो गई, जिसके चलते संभव है कि स्नैपडील के कर्ताधर्ताओं की गिरफ्तारी भी हो सकती है। स्नैपडील देश की दूसरी सबसे बड़ी ऑनलाइन सामान विक्रेता कंपनी है। इसके सीईओ कुणाल बहल व्हार्टन के स्नातक हैं। उन्होंने 2010 में इस कंपनी की स्थापना की थी।
यह पहला मौका नहीं है जब ऑनलाइन कम्पनी की इस तरह की गड़बड़ी सामने आई है। पूर्व में भी कुछ बड़ी कम्पनियों के खिलाफ इसी तरह के प्रकरण दर्ज हुए, जिसके बाद केन्द्र सरकार ने ऐसी ई-कॉमर्स वाली कम्पनियों पर निगाह भी रखना शुरू किया है। इसी कड़ी में स्नैपडील का भी नाम सामने आया है। अभी पिछले दिनों ही महाराष्ट्र सरकार के खाद्य एवं औषधि प्रशासन यानि एफडीए ने चिकित्सकों के पर्चे पर बेची जाने वाली दवाइयों को ऑनलाइन बिकते पाया और उसके उत्तर मुंबई कार्यालय पर छापा भी डाला गया। इसके पश्चात स्नैपडील के कुणाल बहल और कम्पनी के अन्य निदेशकों के खिलाफ एफडीए ने रायगढ़ जिले के पनवेल पुलिस थाने पर एफआईआर दर्ज करवा दी। यह एफआईआर औषधि एवं सौंदर्य सामग्री कानून 1940 और औषधि एवं चमत्कारी उपाय (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून 1954 के प्रावधानों के तहत दर्ज करवाई गई और जो धथाराओं इसमें लगाई गईं वे संज्ञेय है यानि उनमें जमानत नहीं मिल सकती। ये एफआईआर एफडीए के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी और आयुक्त हर्षदीप काम्बले के निर्देश पर दर्ज करवाई गई। सूत्रों का कहना है कि स्नैपडील डॉट कॉम ने कम्पनी कानून के तहत जेस्पर इन्फोटेक प्रा.लि. बनाई जो भारत के दवा विक्रेताओं के साथ करार कर उनकी दवाएं ऑनलाइन बेचती है। ऐसी 45 दवा भी बिक्री के लिए रख दी गई जिनमें आपत्तिजनक दावे किए गए और जो औषधि एवं चमत्कारी उपाय कानून 1954 के खिलाफ है। इनमें सिलडेनॉफिल साइरेट जैसी टैबलेट भी शामिल है जो मनोचिकित्सकों, यौन रोगियों और त्वचा चिकित्सकों द्वारा सिर्फ अधिकृत पर्चे पर ही बेची जा सकती है, लेकिन स्नैपडील द्वारा उसे सहजता से ऑनलाइन उपलब्ध करवाया जाता रहा। हालांकि जांच के दौरान कम्पनी ने इन दवाइयों को ऑनलाइन बिक्री से तुरंत हटा भी लिया, लेकिन एफडीए ने बाद में यह भी पाया कि लिखित वायदा करने के बाद भी स्नैपडील 'आई पिलÓ और 'अनवांटेड 72Ó जैसी दवा बेचते भी पाया गया। इस संबंध में भी अलग से कार्रवाई की जा रही है। पनवेल थाने के अफसर मनीष कोलहटकर से अवश्य पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि स्नैपडील के कुणाल बहल और अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है और जांच में तथ्य सही पाए गए तो कुणाल बहल सहित अन्य की गिरफ्तारियां भी होंगी। चूंकि गैर जमानती धाराओं में प्रकरण दर्ज हुआ है लिहाजा अभी कुणाल बहल को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती। गौरतलब है कि एफडीए ने पिछले हफ्ते स्नैपडील के गोरगांव स्थित कार्यालय पर छापा मारा था। स्नैपडील पर विगोरा टैबलेट, एस्कोरिल कफ सीरप, अनवांटेड 72 और आइ-पिल जैसी दवाएं ऑनलाइन बेचने का आरोप था। जबकि ये दवाएं डॉक्टर की सलाह पर ही खरीदी जानी चाहिए। ऐसी दवाओं की ऑनलाइन बिक्री खरीदार के लिए भी नुकसानदेह हो सकती हैं। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट-1940 के सेक्शन 18(सी) के अनुसार सिर्फ लाइसेंस प्राप्त खुदरा दवा विक्रेता ही चिकित्सक की लिखित सलाह पर ये दवाएं बेच सकते हैं। एफडीए कमिश्नर हर्षदीप कांबले के अनुसार इस तरह की दवाओं की ऑनलाइन बिक्री गैरकानूनी है। कांबले ने बताया कि दूसरी ई-कामर्स कंपनियों जैसे फ्लिपकार्ट और अमेजान के खिलाफ भी जांच जारी है। अगर ये कंपनियां भी ऐसे काम करती पाई गईं, तो इनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।
बिना जांच पड़ताल मप्र ने कैसे कर लिया करार
अब यहां सवाल यह है कि जिस कम्पनी और उसके सीईओ के खिलाफ कुछ दिनों पूर्व ही महाराष्ट्र सरकार के एक जिम्मेदार महकमे खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने एफआईआर दर्ज करवाई हो उसी के सीईओ के साथ मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने एमओयू कैसे साइन कर लिया? क्या प्रदेश के अफसरों ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को भी अंधेरे में रखा, जिस तरह पूर्व में ये अफसर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में भी भूमाफियाओं और कई दागियों को उपकृत कर चुके हैं? भोपाल आए स्नैपडील के सीईओ कुणाल बहल को जबरदस्त पब्लिसिटी भी प्रदेश सरकार द्वारा दिलवाई गई और बकायदा मुख्यमंत्री की मौजूदगी में स्नैपडील और मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के बीच एक एमओयू भी साइन किया गया, जिसमें कुणाल बहल के साथ निगम के प्रबंध संचालक बीएल कांताराव ने हस्ताक्षर किए। इस मौके पर मुख्यमंत्री के साथ वाणिज्य एवं उद्योगमंत्री यशोधराराजे सिंधिया और मुख्य सचिव एंटोनी जेसी डीसा भी मौजूद रहे। मध्यप्रदेश सरकार के जनसम्पर्क संचालनालय ने बकायदा इसका प्रेस नोट भी जारी किया और दावा किया कि प्रदेश के बुनकर और हस्त शिल्पियों द्वारा निर्मित उत्पादों का स्नैपडील के ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से विक्रय किया जाएगा। प्रदेश शासन ने यह भी कहा कि स्नैपडील देश की तेजी से बढ़ती ई-कॉमर्स कम्पनी है, जिसका वार्षिक विक्रय 3 बिलियन डॉलर यानि 30 हजार करोड़ है।
भोपाल के युवा उद्यमी पंचायत में बांटा था ज्ञान
मध्यप्रदेश सरकार ने अभी भोपाल में युवा उद्यमी पंचायत का आयोजन किया जिसमें सुक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को कई तरह की सौगातें देने की घोषणा मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने की। इस अवसर पर स्नैपडील के सीईओ कुणाल बहल ने भी मीडिया के साथ-साथ युवा उद्यमियों को जबरदस्त ज्ञान बांटा, जिसमें उन्होंने बताया कि 5 बार असफल होने के बाद वे अपने छटवें बिजनेस मॉडल यानि ई-कॉमर्स में सफल हुए। वे प्रदेश के युवा उद्यमियों के उत्पादों को अपने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध करवाएंगे। इसी तरह के इंटरव्यू कुणाल बहल के मीडिया में प्रमुखता से प्रकाशित हुए मगर महाराष्ट्र सरकार द्वारा दर्ज करवाई गई एफआईआर की सच्चाई किसी ने उजागर नहीं की।
मृगनयनी के प्रोडक्ट भी स्नैपडील पर
अधिकारियों का दावा है कि स्नैपडील और मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के बीच हुए एमओयू के तहत प्रदेश के बुनकर और हस्तशिल्पियों द्वारा निर्मित उत्पादों का इस ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से विक्रय होगा। इस माध्यम से उत्पादों के विक्रय से प्रदेश के बुनकरों और हस्तशिल्पियों के उत्पादन में वृद्धि होगी। इससे प्रदेश के बुनकरों एवं हस्तशिल्पियों को स्व-रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होंगे। बिना प्रचार-प्रसार और लागत बढ़ाये उत्पादों के विक्रय की सुविधा उपलब्ध होगी। जन-सामान्य को मृगनयनी जैसे प्रतिष्ठित ब्रांड का लाभ प्राप्त होगा। मृगनयनी और स्नैपडील दोनों के अनुभवों का लाभ बुनकरों और हस्तशिल्पियों को मिलेगा। ग्राहक को प्रतियोगी दरों पर उत्पाद उपलब्ध होगा। बिचौलियों के न होने से सीधे बुनकरों और हस्तशिल्पियों को फायदा होगा। इस पोर्टल के माध्यम से क्रेताओं को चौबीस घंटे और सातो दिन उत्पाद क्रय की सुविधा होगी। स्नैपडील कंपनी देश की तेजी से बढ़ रही है ई-कामर्स कंपनी है और जिसका वार्षिक विक्रय 3 बिलियन डालर है।

ई-कॉमर्स कम्पनी स्नैपडील का गोलमाल

vinod upadhyay
शिवराज सरकार से एमओयू महाराष्ट्र में एफआईआर
महाराष्ट्र के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने पनवेल थाने में दर्ज करुवाया है प्रकरण-पुलिसिया जांच शुरू
भोपाल। जानी-मानी ऑनलाइन कम्पनी स्नैपडील के सीईओ कुणाल बहल अभी 20 मई को भोपाल में आयोजित शिवराज सरकार के युवा उद्यमी पंचायत में ना सिर्फ शामिल हुए बल्कि उन्होंने शासन के साथ एमओयू भी साइन किया। स्नैपडील के मामले में चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि महाराष्ट्र सरकार के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने कुणाल बहल सहित अन्य निदेशकों के खिलाफ गैर जमानती धाराओं में पनवेल थाने पर एफआईआर दर्ज करवाई है। यह एफआईआर स्नैपडील डॉट कॉम द्वारा आपत्तिजनक दवाइयां बेचने के मामले में दर्ज हुई है, जिसकी पुलिसिया जांच शुरू हो गई, जिसके चलते संभव है कि स्नैपडील के कर्ताधर्ताओं की गिरफ्तारी भी हो सकती है। स्नैपडील देश की दूसरी सबसे बड़ी ऑनलाइन सामान विक्रेता कंपनी है। इसके सीईओ कुणाल बहल व्हार्टन के स्नातक हैं। उन्होंने 2010 में इस कंपनी की स्थापना की थी।
यह पहला मौका नहीं है जब ऑनलाइन कम्पनी की इस तरह की गड़बड़ी सामने आई है। पूर्व में भी कुछ बड़ी कम्पनियों के खिलाफ इसी तरह के प्रकरण दर्ज हुए, जिसके बाद केन्द्र सरकार ने ऐसी ई-कॉमर्स वाली कम्पनियों पर निगाह भी रखना शुरू किया है। इसी कड़ी में स्नैपडील का भी नाम सामने आया है। अभी पिछले दिनों ही महाराष्ट्र सरकार के खाद्य एवं औषधि प्रशासन यानि एफडीए ने चिकित्सकों के पर्चे पर बेची जाने वाली दवाइयों को ऑनलाइन बिकते पाया और उसके उत्तर मुंबई कार्यालय पर छापा भी डाला गया। इसके पश्चात स्नैपडील के कुणाल बहल और कम्पनी के अन्य निदेशकों के खिलाफ एफडीए ने रायगढ़ जिले के पनवेल पुलिस थाने पर एफआईआर दर्ज करवा दी। यह एफआईआर औषधि एवं सौंदर्य सामग्री कानून 1940 और औषधि एवं चमत्कारी उपाय (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून 1954 के प्रावधानों के तहत दर्ज करवाई गई और जो धथाराओं इसमें लगाई गईं वे संज्ञेय है यानि उनमें जमानत नहीं मिल सकती। ये एफआईआर एफडीए के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी और आयुक्त हर्षदीप काम्बले के निर्देश पर दर्ज करवाई गई। सूत्रों का कहना है कि स्नैपडील डॉट कॉम ने कम्पनी कानून के तहत जेस्पर इन्फोटेक प्रा.लि. बनाई जो भारत के दवा विक्रेताओं के साथ करार कर उनकी दवाएं ऑनलाइन बेचती है। ऐसी 45 दवा भी बिक्री के लिए रख दी गई जिनमें आपत्तिजनक दावे किए गए और जो औषधि एवं चमत्कारी उपाय कानून 1954 के खिलाफ है। इनमें सिलडेनॉफिल साइरेट जैसी टैबलेट भी शामिल है जो मनोचिकित्सकों, यौन रोगियों और त्वचा चिकित्सकों द्वारा सिर्फ अधिकृत पर्चे पर ही बेची जा सकती है, लेकिन स्नैपडील द्वारा उसे सहजता से ऑनलाइन उपलब्ध करवाया जाता रहा। हालांकि जांच के दौरान कम्पनी ने इन दवाइयों को ऑनलाइन बिक्री से तुरंत हटा भी लिया, लेकिन एफडीए ने बाद में यह भी पाया कि लिखित वायदा करने के बाद भी स्नैपडील 'आई पिलÓ और 'अनवांटेड 72Ó जैसी दवा बेचते भी पाया गया। इस संबंध में भी अलग से कार्रवाई की जा रही है। पनवेल थाने के अफसर मनीष कोलहटकर से अवश्य पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि स्नैपडील के कुणाल बहल और अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है और जांच में तथ्य सही पाए गए तो कुणाल बहल सहित अन्य की गिरफ्तारियां भी होंगी। चूंकि गैर जमानती धाराओं में प्रकरण दर्ज हुआ है लिहाजा अभी कुणाल बहल को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती। गौरतलब है कि एफडीए ने पिछले हफ्ते स्नैपडील के गोरगांव स्थित कार्यालय पर छापा मारा था। स्नैपडील पर विगोरा टैबलेट, एस्कोरिल कफ सीरप, अनवांटेड 72 और आइ-पिल जैसी दवाएं ऑनलाइन बेचने का आरोप था। जबकि ये दवाएं डॉक्टर की सलाह पर ही खरीदी जानी चाहिए। ऐसी दवाओं की ऑनलाइन बिक्री खरीदार के लिए भी नुकसानदेह हो सकती हैं। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट-1940 के सेक्शन 18(सी) के अनुसार सिर्फ लाइसेंस प्राप्त खुदरा दवा विक्रेता ही चिकित्सक की लिखित सलाह पर ये दवाएं बेच सकते हैं। एफडीए कमिश्नर हर्षदीप कांबले के अनुसार इस तरह की दवाओं की ऑनलाइन बिक्री गैरकानूनी है। कांबले ने बताया कि दूसरी ई-कामर्स कंपनियों जैसे फ्लिपकार्ट और अमेजान के खिलाफ भी जांच जारी है। अगर ये कंपनियां भी ऐसे काम करती पाई गईं, तो इनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।
बिना जांच पड़ताल मप्र ने कैसे कर लिया करार
अब यहां सवाल यह है कि जिस कम्पनी और उसके सीईओ के खिलाफ कुछ दिनों पूर्व ही महाराष्ट्र सरकार के एक जिम्मेदार महकमे खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने एफआईआर दर्ज करवाई हो उसी के सीईओ के साथ मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने एमओयू कैसे साइन कर लिया? क्या प्रदेश के अफसरों ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को भी अंधेरे में रखा, जिस तरह पूर्व में ये अफसर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में भी भूमाफियाओं और कई दागियों को उपकृत कर चुके हैं? भोपाल आए स्नैपडील के सीईओ कुणाल बहल को जबरदस्त पब्लिसिटी भी प्रदेश सरकार द्वारा दिलवाई गई और बकायदा मुख्यमंत्री की मौजूदगी में स्नैपडील और मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के बीच एक एमओयू भी साइन किया गया, जिसमें कुणाल बहल के साथ निगम के प्रबंध संचालक बीएल कांताराव ने हस्ताक्षर किए। इस मौके पर मुख्यमंत्री के साथ वाणिज्य एवं उद्योगमंत्री यशोधराराजे सिंधिया और मुख्य सचिव एंटोनी जेसी डीसा भी मौजूद रहे। मध्यप्रदेश सरकार के जनसम्पर्क संचालनालय ने बकायदा इसका प्रेस नोट भी जारी किया और दावा किया कि प्रदेश के बुनकर और हस्त शिल्पियों द्वारा निर्मित उत्पादों का स्नैपडील के ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से विक्रय किया जाएगा। प्रदेश शासन ने यह भी कहा कि स्नैपडील देश की तेजी से बढ़ती ई-कॉमर्स कम्पनी है, जिसका वार्षिक विक्रय 3 बिलियन डॉलर यानि 30 हजार करोड़ है।
भोपाल के युवा उद्यमी पंचायत में बांटा था ज्ञान
मध्यप्रदेश सरकार ने अभी भोपाल में युवा उद्यमी पंचायत का आयोजन किया जिसमें सुक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को कई तरह की सौगातें देने की घोषणा मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने की। इस अवसर पर स्नैपडील के सीईओ कुणाल बहल ने भी मीडिया के साथ-साथ युवा उद्यमियों को जबरदस्त ज्ञान बांटा, जिसमें उन्होंने बताया कि 5 बार असफल होने के बाद वे अपने छटवें बिजनेस मॉडल यानि ई-कॉमर्स में सफल हुए। वे प्रदेश के युवा उद्यमियों के उत्पादों को अपने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध करवाएंगे। इसी तरह के इंटरव्यू कुणाल बहल के मीडिया में प्रमुखता से प्रकाशित हुए मगर महाराष्ट्र सरकार द्वारा दर्ज करवाई गई एफआईआर की सच्चाई किसी ने उजागर नहीं की।
मृगनयनी के प्रोडक्ट भी स्नैपडील पर
अधिकारियों का दावा है कि स्नैपडील और मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के बीच हुए एमओयू के तहत प्रदेश के बुनकर और हस्तशिल्पियों द्वारा निर्मित उत्पादों का इस ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से विक्रय होगा। इस माध्यम से उत्पादों के विक्रय से प्रदेश के बुनकरों और हस्तशिल्पियों के उत्पादन में वृद्धि होगी। इससे प्रदेश के बुनकरों एवं हस्तशिल्पियों को स्व-रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होंगे। बिना प्रचार-प्रसार और लागत बढ़ाये उत्पादों के विक्रय की सुविधा उपलब्ध होगी। जन-सामान्य को मृगनयनी जैसे प्रतिष्ठित ब्रांड का लाभ प्राप्त होगा। मृगनयनी और स्नैपडील दोनों के अनुभवों का लाभ बुनकरों और हस्तशिल्पियों को मिलेगा। ग्राहक को प्रतियोगी दरों पर उत्पाद उपलब्ध होगा। बिचौलियों के न होने से सीधे बुनकरों और हस्तशिल्पियों को फायदा होगा। इस पोर्टल के माध्यम से क्रेताओं को चौबीस घंटे और सातो दिन उत्पाद क्रय की सुविधा होगी। स्नैपडील कंपनी देश की तेजी से बढ़ रही है ई-कामर्स कंपनी है और जिसका वार्षिक विक्रय 3 बिलियन डालर है।
केन्द्र सरकार की निगाहें भी ऑनलाइन कम्पनियों पर
पिछले दिनों यह तथ्य सामने आया कि ऑनलाइन कम्पनियों द्वारा बड़ी मात्रा में टैक्स चोरी भी की जा रही है। साथ ही उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी भी हो रही है, लिहाजा इन पर केन्द्र सरकार शिकंजा सके। संसद में भी यह मामला उठा जिस पर वाणिज्य विभाग की मंत्री ने घोषणा भी कि सरकार इस तरह की ई-कॉमर्स कम्पनियों पर निगाह रख रही है। पूर्व में भी इन ऑनलाइन कम्पनियों द्वारा की जाने वाली ठगी की खबरें आती रही हैं। अब देखना यह है कि स्नैपडील के खिलाफ महाराष्ट्र एफडीए ने जो एफआईआर दर्ज करवाई है उसका परिणाम क्या निकलता है और स्नैपडील के साथ-साथ फ्लीपकार्ड और अमेजन के दफ्तरों की भी जांच-पड़ताल की गई।
राज्यों ने भी कसा शिकंजा
ऑनलाइन कारोबार की बढ़ती धाक के बीच टैक्स चोरी को लेकर राज्यों के टैक्स डिपार्टमेंट चौकन्ने हो गए हैं। दिल्ली के टैक्स डिपार्टमेंट ने करीब 8 हजार से अधिक ऐसे डीलर्स की पड़ताल शुरू की है जो ऑनलाइन कंपनियों के माध्यम से अपना माल बेचते हैं। डिपार्टमेंट देश की बड़ी ई कॉमर्स कंपनियों से उनके डीलर्स की जानकारी भी तलब की है। इससे पहले कर्नाटक का टैक्स डिपार्टमेंट भी अमेजन डॉट कॉम से जुड़े डीलर्स पर कार्रवाई कर चुका है। इसी महीने महाराष्ट्र सरकार भी एक अन्य ऑनलाइन कंपनी नापतौल डॉट कॉम के खाते सील कर चुकाह है। कर्नाटक, तमिलनाडु और अब महाराष्ट्र जैसे राज्यों द्वारा ईकॉमर्स कारोबार पर नकेल कसने की शुरूआत के बाद गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों ने भी ऑनलाइन कारोबार पर टैक्स लगाने के लिए टैक्स नियमों में बदलाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं।
दिल्ली टैक्स डिपार्टमेंट के रडार पर डीलर्स
दिल्ली के वाणिज्यिक कर विभाग ने देश की तीन दिग्गज ऑनलाइन कंपनी फ्लिपकार्ट, स्नेपडील और अमेजन से जुड़े डीलर्स की पड़ताल शुरू की है। एक अंग्रेजी अखबार दिल्ली के टैक्स डिपार्टमेंट ने ऑनलाइन कंपनियों से उनके डीलर्स की सूची मांगी है। विभाग इस बात की पड़ताल कर रहा है कि ऑनलाइन कंपनियों के माध्यम से कारोबार करने वाले कितने डीलर्स टैक्स डिपार्टमेंट में रजिस्टर्ड हैं। टैक्स डिपार्टमेंट के अनुसार अभी तक की पड़ताल में यह पता चला है कि करीब 8 से 10 फीसदी डीलर्स ने वैट रजिस्ट्रेशन कराया ही नहीं है। वहीं एक ई-कॉमर्स कंपनी के अधिकारी ने बताया कि वे ऑनलाइन बिक्री के लिए सिर्फ एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराते हैं, ऐसे में उन पर किसी प्रकार की वैट देनदारी नहीं बनती। जहां तक डीलर्स का सवाल है हम जरूर उन्हें अपना ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म का उपयोग करने से पहले वैट रजिस्ट्रेशन एवं टिन नंबर आदि मांगते हैं।
डीलर्स की मांग ईकॉमर्स के लिए बने टैक्स सिस्टम
कर्नाटक के बैंगलुरू स्थित एक ऑनलाइन मर्चेंट सिंप्किन्स अपैरल के प्रोपराइटर सिद्धार्थ शेखर बताते हैं कि कर्नाटक में टैक्स डिपार्टमेंट ऑनलाइन कंपनियों और उनसे जुड़े डीलर्स को लेकर बहुत सख्त है। इस साल जुलाई अगस्त से डिपार्टमेंट टैक्स देनदारी के लिए कुर्की के नोटिस दे रहा है। कई बार दूसरे राज्यों के टेक्स विभाग भी पड़ताल के लिए फोन करते हैं। वे बताते हैं कि हमारे पास ट्रेड रजिस्ट्रेशन है, लोकल अथॉरिटी को हम टैक्स अदा करते हैं। लेकिन फिर भी हम पर टैक्स डिपार्टमेंट कार्रवाई करता है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि राज्य और केंद्र दोनों में ही टैक्स को लेकर स्पष्टता नहीं है। मुंबई स्थित डीलर योगेंद्र वानखेड़े बताते हैं कि ऑनलाइन बिजनेस अभी देश में उभर रहा है। कारोबार की ग्रोथ के चलते टैक्स डिपार्टमेंट भी इसमें हिस्सेदारी बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन जब तक टैक्स नीति स्पष्ट नहीं होगी तब तक कारोबारी और टैक्स विभाग दोनों ही कार्रवाई के लिए असमंजस में रहेंगे।
महाराष्ट्र में निशाने पर ईबिजनेस
महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ कर अधिकारी ने बताया कि ऑनलाइन कारोबार के बढ़ते दायरे को देखते हुए अब राज्य की सरकार सख्त कदम उठाने की तैयारी शुरू कर दी है। महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे ैसे मेट्रो शहरों से इन कंपनियों को बड़े ऑर्डर मिलते हैं। ऑनलाइन कंपनियां मुंबई के कई थर्ड पार्टी डीलरों से प्रॉडक्ट लेकर ग्राहकों को बेचती हैं। टैक्स डिपार्टमेंट इस पर नजर रख रही है। हाल ही में महाराष्ट्र के टैक्स डिपार्टमेंट ने दिसंबर में ऑनलाइन कंपनी नापतौल पर कार्रवाई की है। राजस्व विभाग के सूत्रों के अनुसार कंपनी पर 2008 से लेकर 2014 के बीच करीब 32 करोड़ रुपये की देनदारी है। जिसके चलते कंपनी के बैंक खाते सीज कर दिए गए हैं। हालांकि कंपनी ने इसके लिए बॉम्बे हाइकोर्ट में अपील दर्ज की है।
उत्तर प्रदेश में ट्रेडर्स पर नजर
कंपनियों पर यूपी में भी टैक्स प्रशासन ने भी निगाह टेढ़ी करनी शुरू कर दी हैं। उत्तर प्रदेश के प्रमुख कारोबारी शहर नोयडा में टैक्स प्रशासन ने ऑनलाइन कंपनियों को माल सप्लाई करने वाले रिटेलर्स पर कार्रवाई की है। ये रिटेलर्स 50 से 70 करोड़ के उत्पाद ऑनलाइन कंपनियों को सप्लाई करते हैं। इसके अलावा कंपनी कानपुर, आगरा और मथुरा में मौजूद डिस्ट्रीब्यूटर्स पर भी नजर रखे है।
बिहार ने शुरू की सीलिंग की कार्रवाई
ऑनलाइन बिजनेस पर लगाम कसने के लिए जहां गुजरात तैयारी कर रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्यों ने कार्रवाई भी शुरू कर दी हैं। बिहार में टैक्स प्रशासन ने पिछले 3 महीने में कई ऑनलाइन कंपनियों से जुड़े ट्रेडर्स और गोदाम की भी जांच की है। पिछले दिनों राज्य सरकार ने एक ईकॉमर्स कंपनी का गोदाम भी सील किया है। राज्य शासन के अधिकारी ने बताया कि ये कंपनियां राज्य सरकार को कर चुकाए बगैर ही कूरियर के जरिये अपने सामान को उपभोक्ताओं तक पहुंचा रही थीं। कर नहीं चुकाने की वजह से उनके सामान बाकी विक्रेताओं के मुकाबले सस्ते होते हैं।
कर्नाटक और तमिलनाडु भी कर चुके हैं कार्रवाई
ईकॉमर्स कारोबार को टैक्स दायरे में लाने के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु की सरकारों ने सबसे पहले कार्रवाई शुरू की है। कर्नाटक के कर विभाग के राडार पर इन ऑनलाइन कंपनियों को माल सप्लाई करने वाले रिटेलर्स हैं। विभाग ने रिटेलर्स को नोटिस भेजे थे। इसके साथ ही नोटिस का जवाब नहीं देने वाले रिटेलर्स पर दिसंबर की शुरूआत में नोटिस का जवाब नहीं देने वाले ऑनलाइन कंपनी अमेजन के रिटेलर्स पर जब्ती की कार्रवाई शुरू कर दी है। कर्नाटक सरकार थर्ड पार्टी वेयर हाउसेस को भी वैट के दायरे में लाने की कोशिश कर रही है। उल्लेखनीय है कि देश की दो प्रमुख कंपनियों फ्लिप-कार्ट और अमेजन के हेडक्वार्टर कर्नाटक में हैं, वहीं आईटी का प्रमुख केंद्र होने के चलते ईकॉमर्स कंपनियों को बड़ा बिजनेस कर्नाटक से हासिल होता है। नियमों में बदलाव के साथ ही राज्य सरकार ने नए ट्रेडर्स लाइसेंस देने से मना कर दिया है। वहीं विभाग ने ऑनलाइन कंपनियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की शुरूआत कर दी है।
पंजाब और राजस्थान ने बढ़ाया दबाव
ऑनलाइन बिजनेस ने रिटेलर्स के बिजनेस और मार्जिन्स पर जबर्दस्त चोट दी है। ऐसे में पंजाब और राजस्थान के रिटेलर्स और होल सेलर्स ने ऑनलाइन कारोबार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया है। नवंबर में पंजाब और राजस्थान दोनों राज्यों के कंप्यूटर्स और मोबाइल डीलर्स ने कारोबार बंद कर सरकार से कानून सख्त बनाने के लिए बनाया।
ई-कॉमर्स के लिए गुजरात बनाएगा फ्रेमवर्क
गुजरात सरकार ने ईकॉमर्स कंपनियों के बिजनेस मॉडल और उनके कारोबार से जुड़े टैक्स ढांचे का विशेष अध्ययन शुरू किया है। गुजरात के वित्त मंत्री सौरभ पटेल के अनुसार फिलहाल हम इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि गुजरात में ईकॉमर्स कंपनियों को किस प्रकार टैक्स दायरे में शामिल किया जाए। साथ ही इस बात की भी जांच कर रहे हैं कि राज्य की मौजूदा टैक्स प्रणाली ईकॉमर्स कारोबार को लेकर कोई कमजोरी तो नहीं हैं। इस कोशिश के साथ राज्य सरकार टैक्स ढांचे में सुधार के साथ सस्ती दरों पर प्रॉडक्ट उपलब्ध करा रही ई-कॉमर्स वेबसाइट से स्थानीय कारोबारियों को सुरक्षा देने कोशिश कर रही है। साथ ही इस स्टडी से ऑनलाइन कारोबार को लेकर टैक्स ढांचे में मौजूद कमियों को भी दूर किया जाएगा।

बलराम तालाब योजना में सामने आया फर्जीवाड़ा

7 साल में 8055000000 के तालाब गायब
8055 लापता तालाबों को ढूंढने में जुटे अधिकारी
भोपाल। प्रदेश में सरकार खेती को लाभ का धंधा बनाने में जुटी हुई है। इसके लिए सरकार ने कई योजनाएं परियोजनाएं संचालित कर रखी हैं। इसी में से एक बलराम तालाब योजना में बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। इस योजना के तहत किसानों ने सरकार से अनुदान तो ले लिया है, लेकिन तालाब का निर्माण नहीं करवाया है। यही नहीं अधिकारियों ने कागजी भौतिक सत्यापन कर इनका भुगतान भी कर दिया है। आलम यह है कि प्रारंभिक पड़ताल में करीब 8055 से अधिक तालाब लापता बताए जा रहे हैं। इन लापता तालाबों को ढूढऩे के लिए अधिकारी जुट गए हैं। इस फर्जीवाड़े में करीब 8055000000 रूपए का घोटाला सामने आया है। जानकारों का कहना है कि जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी फर्जीवाड़े का आंकड़ा भी बढ़ता जाएगा। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश सरकार ने वर्ष 2007-08 में बारिश का पानी सहेजने, सिंचाई करने और जमीनी जल स्तर बढ़ाने के लिए बलराम तालाब योजना प्रारम्भ किया था। इसमें किसान के अपने खेत पर तालाब बनाने के लिए करीब 40 से 50 प्रतिशत तक सब्सिडी दी जाती है। प्रदेश के अधिकांश जिलों में किसान इस योजना का लाभ उठाने के लिए आगे आए पर कुछ जगह स्थानीय मैदानी अमले, पंचायत की मिलीभगत से यह योजना पैसा कमाने का जरिया बन गई। आलम यह है कि जमीन पर तालाब बने ही नहीं लेकिन तालाबों के नाम पर सरकारी खजाने से करोड़ों रूपए निकाल लिए गए। कहीं एक ही तालाब को तीन-चार लोगों ने अपना-अपना बताकर तो कहीं सरकारी जमीं पर गड्ढा खोदकर पैसा हजम कर लिया गया। मोटी रकम के लालच में यह गोरखधंधा खूब फला-फूला। कमाल यह है कि सरकार अब जागी है जब कितनी ही चिडिय़ाएं खेत चुग गई।
कागजों पर बना लिए बलराम तालाब
खेतों में पानी सहेजने के लिए बलराम तालाब योजना के तहत बनाए गए अधिकतर तालाब केवल कागजों पर बन कर तैयार हो गए हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभाग ने जो लक्ष्य दिया था उसके अनुरूप विकासखंडों में तालाब नहीं बन सके है। वहीं किसी विकास खंड में लक्ष्य से दो गुने तालाब बन कर तैयार हो गए और बिना भौतिक सत्यापन के किसानों को अनुदान राशि भी जारी कर दी गई है। ऐसे में विभाग की कार्यप्रणाली पर सावालिया निशान खड़े हो गए हैं कि विभाग ने तालाबों का बिना सत्यापन किए अरबों रूपए की अनुदान राशि कैसे जारी कर दी। उल्लेखनीय है कि शासन द्वारा उन्हीं बलराम तालाबों के निर्माण पर अनुदान की सुविधा दी जाती है जिनका निर्माण निर्धारित मापदंड के अनुसार कराया जाता है। इसके लिए कृषि विभाग द्वारा अनुदान राशि तभी जारी की जाती है जब बनाए गए तालाब का भौतिक सत्यापन कर लिया जाता है। शासन द्वारा बलराम तालाब तीन स्तर पर भूमि की उपलब्धता के आधार पर स्वीकृत किए जाते हैं। जिन किसानों के पास कम भूमि होती है ऐसे किसानों को 55 मीटर लंबा और 30 मीटर चौड़ा तथा 3 मीटर गहरा तालाब बनाने की स्वीकृति दी जाती है। इन तालाबों का निचला तल 46 मीटर लंबा 21 मीटर चौड़ा होता है। इसी प्रकार जिन किसानों के पास अधिक भूमि है उन्हें 63 से 68 मीटर लंबा, 30 मीटर चौड़ा और तीन मीटर गहराई वाले तालाब बनाने की स्वीकृति दी जाती है। लेकिन अधिक भूमि वाले किसान भी जिस तालाब की अनुमति मिलती है उसे न बनाते हुए कम भूमि में तालाबों का निर्माण कर लेते हैं। जो उन्हें मिली स्वीकृति के विपरीत होता है। लेकिन विभागीय अधिकारी तालाब के भौतिक सत्यापन के समय इसकी अनदेखी कर अनुदान की राशि उपलब्ध करा देते हैं।
सबसे अधिक देवास में घपला
जहां प्रदेशभर में सरकारी अधिकारी इन दिनों खेत-खेत जाकर लापता करीब 8055 तालाबों की पड़ताल कर रहे हैं वहीं अकेले देवास जिले में 2000 से ज्यादा तालाबों को जमीन पर ढूंढा जा रहा है। शुरूआती जांच में ही जिन 107 तालाबों की खोजबीन की गई, उनमें से सिर्फ 7 तालाब ही मौके पर मौजूद मिले, जबकि 100 तालाब जमीन पर बने ही नहीं। हद यह कि वे सिर्फ कागजों पर ही बन गए और सरकार के खजाने से इन तालाबों के नाम पर सब्सिडी के करोड़ों रूपए डकार लिए गए। ढोल की पोल उजागर हुई तो आनन-फानन में 13 कर्मचारियों को निलम्बित कर दिया गया है। दरअसल देवास जिले के गांव-गांव में किसानों के खेत पर सरकार की बलराम योजना के तहत कागजों के मुताबिक बीते 3 सालों में करीब 2000 से ज्यादा तालाब बनाए जा चुके हैं लेकिन जब सरकारी कागजों के सहारे अधिकारी खेत-खेत पंहुचे तो वहां खेत लहलहा रहे थे। जिन तालाबों को लाखों रुपये की लागत से बनाया गया अब ये ढूंढे नही मिल रहे यानी तालाब के तालाब ही गायब हो गये। अब मामले की जांच करने पंहुची टीम गांव-गांव पंहुच कर तालाबों का पता ठिकाना ढूंढ रही है। हैरानी की बात ये है कि सरकारी कागजातों में जिस जमीन पर तालाब हिलोरें ले रहे है वहां कीचड़ तक नहीं है। हालांकि इतना बड़ा खुलासा होने के बाद भी जांच का काम अभी बहुत धीमा चल रहा है। इससे तथ्य भी प्रभावित हो सकते हैं और दोषियों को बचने का मौका भी मिल सकता है। कलेक्टर की बार-बार की चेतावनी के बाद भी दो माह से ज्यादा समय बीतने पर भी जांच रिपोर्ट तैयार नहीं हो सकी है। देवास के उप संचालक कृषि जीके वास्केल कहते हैं कि जिला कलेक्टर के आदेश से 2000 तालाबों की जांच की जा रही है। टोंकखुर्द क्षेत्र में तालाब नहीं मिलने पर कर्मचारियों पर कार्रवाई की जा चुकी है। जांच रिपोर्ट जल्दी ही जिला कलेक्टर को सौंप दी जाएगी। देवास जिले चुरलाय गांव के किसान किसान राजेंद्रसिंह कहते हैं कि सरकारी अफसर ध्यान देते तो बहुत पहले ही यह सब सामने आ जाता। वह तो कुछ लोगों ने शिकायत न की होती तो दूसरी योजनाओं की तरह यहां भी अंधेरगर्दी चलती रहती। देवास जिले के करीब 5 हजार की आबादी वाले जिरवाय गांव में बड़ा घोटाला सामने आया है। यहां जब सज्जनसिंह और इन्दरसिंह के खेत पर सरकारी टीम पहुंची तो जमीन पर तालाब की जगह लहसुन की फसल खड़ी थी। पर यह अकेला गांव नहीं है, ऐसे कई गांव हैं। शुरुआती दौर में ये आंकडा बेहद चौंका देने वाला है। फिलहाल पूरे मामले में 13 अफसरों-कर्मचारियों को कलेक्टर ने दोषी पाते हुए निलंबित कर दिया है।
धार, नालछा व तिरला में जांच शुरू
इसी तरह धार जिले के धार, नालछा व तिरला में किसानों को दी जाने वाली योजनाओं में अनुदान, कृषि यंत्रों के वितरण व बलराम तालाब निर्माण योजना में अनियमितिता करने के मामले की जांच शुरू हो चुकी है। कृषि विभाग भोपाल द्वारा जांच के लिए बनाई गई 6 टीमों ने जिले के विकासखंडों में पहुंचकर जहां पर सूची में दर्ज किसान को ढूंढकर उससे योजना के तहत मिलने वाले अनुदान की जानकारी ली वहीं बलराम तालाब योजना के भौतिक सत्यापन की भी प्रक्रिया भी कर रही है। हालांकि प्रारंभिक रूप से टीम अपनी रिपोर्ट तैयार करने में लगी है। जिसे शासन को सौंपा जाएगा। लेकिन प्रारंभिक जांच में ही अनियमितताओं की जानकारी सामने आ रही है। सूत्रों के अनुसार जो किसान सूची में दर्ज है, वह संबंधित गांव व पते पर नहीं मिल रहे है। गौरतलब है कि कृषि विभाग के प्रमुख सचिव डॉ. राजेश राजौरा ने प्रदेश के चार जिलों में हितग्राहियों को दी गई योजनाओं व अनुदान के प्रकरणों की जांच करवाई थी। प्रारंभिक जांच में इसमें 80 करोड़ की अनियमितता की बात सामने आई थी। इसके चलते धार कृषि उप संचालक आरपी कनेरिया को निलंबित कर दिया गया था। इसके बाद चारों जिले में भौतिक सत्यापन व आगे की जांच के लिए टीमें बनाई गई थी। धार जिले की जांच के लिए शासन ने आलीराजपुर, बड़वानी व आसपास के कृषि अधिकारियों वाली 6 टीमे बनाई है। बलराम तालाब योजना के तहत बनाए गए 100 तालाबों के भौतिक सत्यापन के लिए धार, नालछा व तिरला में दल खेत-खेत घूमा। लेकिन कई जगह तालाब की जगह सपाट जमीन दिखी। वहीं सूची में दर्ज कई किसानों के मैदानी स्तर पर पते नहीं है। ऐसे में भौतिक सत्यापन में टीम को भटकना पड़ रहा है। धार जिले के कृषि विभाग के अधिकारी डीएस मौर्य का कहना है कि जांच दल ने अपनी भौतिक सत्यापन व जांच की प्रक्रिया पूरी कर ली है। बलराम तालाब निर्माण योजना के साथ ही ड्रिप स्प्रिकंलर वितरण, कृषि यंत्रीकरण खरीदी व वितरण, डीजल पंप व पाइप लाइन वितरण आदि की भी जांच की जा रही है।
अधूरे तलाबों का भी कर दिया भुगतान
सीहोर जिले में कृषि विभाग ने पांच विकास खंड सीहोर, इछावार, आष्टा, बुधनी और नसरुल्लागंज के लिए 50-50 तालाब बनाने लक्ष्य स्वीकृत किया था। लेकिन नसरुल्लागंज विकास खंड में लक्ष्य से दो गुने तालाब बना दिए गए। विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार यहां 100 में से 98 तालाब बन कर तैयार हो गए हैं। वहीं सीहोर, आष्टा, बुधनी और इछावार में अभी लक्ष्य अनुरूप भी तालाब नहीं बन सके हैं। लेकिन अधिकारियों ने बिना भौतिक सत्यापन किए हुए ही अधूरे तलाबों का भी भुगतान कर दिया। अब अधिकारी इसकी जांच में जुट गए हैं। दरअसल, शासन की योजनानुसार बलराम तालाब का निर्माण करने वाले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के किसानों को 50 प्रतिशत का अनुदान दिया जाता है। वहीं सामान्य तथा पिछड़ा वर्ग के किसानों को 40 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। एक बलराम तालाब की लागत 2 लाख रुपए है उस मान से अजा और अजजा के हितग्राही किसान को 1 लाख और सामान्य तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के किसान को 80 हजार रुपए का अनुदान दिया जाता है। शेष राशि किसान को स्वयं खर्च करनी पड़ती है। पिछले वित्तीय वर्ष में 252 तालाबों में से 225 तालाबों का कार्य पूर्ण बताकर बिना भौतिक सत्यापन कराए ही अनुदान की राशि 176.920 लाख रुपए का भुगतान कर दिया गया जबकि कई तालाब अभी भी अधूरे पड़े हुए हैं। यही नहीं बिना भौतिक सत्यापन के बनाए गए बलराम तालाबों में भारी लीपापोती की गई है। सत्यापन नहीं होने के कारण जिन किसानों ने तालाब बनाए है उन्हें तो अनुदान मिला ही है। लेकिन जिन किसानों ने तालाब नहीं बनाए है उनकों को भी विभाग अधिकारियों और कर्मचारियों ने सांठगांठ कर अनुदान राशि जारी कर दी है। इससे यह बात तो साफ हो गई है कि मौके पर पहुंच कर तालाबों का भौतिक सत्यापन इसी कारण से नहीं किया गया। सीहोर जिले के उपसंचालक कृषि रामेश्वर पटेल कहते हैं कि जिले में 252 बलराम तालाबों को स्वीकृति दी गई थी, जिसमें से 225 तालाबों का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के बाद विभाग द्वारा अनुदान राशि दे दी गई है। यदि भौतिक सत्यापन में गड़बड़ी हुई है तो जांच कराई जाएगी।
फोटोकॉपी लगाकर पैसे निकाले गए
कृषि विभाग द्वारा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, लघुत्तम सिंचाई योजना, नाफेड निर्माण, नलकूप योजना, वर्मी कम्पोस्ट, बलराम तालाब, बीज ग्राम, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, डीजल पंप, फसल प्रदर्शन, कृषि यंत्र, गन्ना विकास योजना, सघन कपास विकास कार्यक्रम आदि के लिए किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में किस तरह घपला हो रहा है इसका नजारा धार और रतलाम की जांच में सामने आया है। यहां बिल की फोटोकॉपी लगाकर पैसे निकाल लिए गए। सब्सिडी किसान के खातों में जमा नहीं कराई गई। पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों को ताक पर रखकर हितग्राहियों का मनमर्जी से चयन किया गया। हितग्राहियों को जो सामग्री वितरण किया गया वो संदेहास्पद पाया गया। केन्द्रीय योजनाओं में किसानों से यंत्रों का चयन नहीं कराकर निजी कंपनियों को सीधे क्रय आदेश दिए गए। लक्ष्य के विरुद्ध अधिक पूर्ति कराकर शासन को आर्थिक नुकसान पहुंचाया गया। डॉ.राजौरा ने बताया कि महालेखाकार मप्र ने कैशबुक की जांच में 200 प्रकरण गबन और शासकीय धन की क्षति के पाए हैं। महालेखाकर की रिपोर्ट पर जांच के लिए संचालक कृषि की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई है। कमेटी एक-एक प्रकरण का परीक्षण कर जिम्मेदारी तय करेगी। साथ ही जो अधिकारी दस्तावेज मुहैया नहीं करा रहे हैं उनके खिलाफ कार्रवाई करेगी। गौरतलब है कि कृषि विभाग धार में करोड़ों रुपए का सबसिडी घोटाला हुआ है। इसकी जांच के लिए 6 टीमें बनाई गई है। इसके तहत वर्ष 2012 से 2015 तक जिले में बनाए गए बलराम तालाबों का भौतिक सत्यापन करवाया जाएगा। साथ ही अन्य दो योजनाओं के मामले में भी जांच शुरू करवाई जा रही है।
हर जिले में करोड़ों की हेराफरी
कृषि विभाग द्वारा मिलने वाले अनुदान का अनैतिक लाभ उठाने के लिए अधिकारियों, पंचायत प्रतिनिधियों और किसानों की मिलीभगत से जमकर हेराफेरी की गई है। केंद्र में एनडीए सरकार को सत्तासीन हुए तो महज एक वर्ष ही हुआ है। लेकिन इससे पहले वर्षों तक केंद्र से मिलने वाली करोड़ों रुपए की सहायता के भरोसे तीन-तीन बार कृषि कर्मण अवार्ड लेने वाले मध्यप्रदेश के कृषि विभाग में किस तरह घोटाला और घपला किया जा रहा था, इसकी परतें अब खुल रही हैं। विभाग एक तरफ कृषि को लाभ का धंधा बनाने में जुटा रहा दूसरी तरफ सरकारी सब्सिडी के गोरखधंधे खेल चलता रहा। रतलाम, धार तथा सतना जिलों में कृषि विभाग के अधिकारियों द्वारा भारत सरकार एवं राज्य पोषित योजनाओं में गंभीर अनियमितताएं की गईं। अकेले सतना जिले में करोड़ों रुपए की हेराफेरी हुई। स्प्रिंकलर सेट के वितरण, छोटे एवं बड़े कृषि यंत्रों के वितरण, बीज वितरण कार्यक्रम, सूरज धारा एवं अन्नपूर्णा योजना में बीज अदला-बदली-स्वालंबन-उत्पादन, बीज ग्राम योजना, बलराम तालाब योजना जैसी केंद्र और राज्य सरकार की तमाम योजनाओं में जमकर भ्रष्टाचार हुआ। कई योजनाओं में वित्तीय सीमा से बाहर जाकर लाखों रुपए खर्च कर दिए गए। वर्ष 2013-2014 में आईसोपाम योजना के अन्तर्गत 60 पाइप लाइन डाली जानी थी लेकिन 72 पाइप लाइन डाली गई। इस प्रकार जहां 9 लाख रुपए तक खर्च करने की सीमा थी वहां 27 लाख 23 हजार रुपए खर्च कर दिए गए। यह खर्चा तो कागजों पर लिखा हुआ है। वे 72 पाइप कहां हैं, किस जमीन में बिछे हुए हैं। बिछाए गए भी हैं या नहीं। इसमें भी संदेह है। क्योंकि जब हिसाब गलत है तो बाकी जगह भी गड़बड़ी हो सकती है। किसानों को स्प्रिंकलर सेट देने के लिए फर्जी आवेदन मंगाए गए। आवेदन में किसान द्वारा किस कंपनी का स्प्रिंकलर सेट मांगा गया है इसका कोई उल्लेख नहीं है। जाहिर है कागजों में स्प्रिंकलर सेट बांटे गए। केवल स्प्रिंकलर सेट ही नहीं बल्कि एनएफ.एसएम धान के अंतर्गत वर्ष 2012-2013 में 88 लोगों को 16.20 लाख रुपए के यंत्र बांटने की योजना थी जिसमें 252 लोगों को 36 लाख रुपए के यंत्र बांटे गए। बिना किसी अतिरिक्त स्वीकृति के। जनपद पंचायत की कृषि स्थायी समिति से अनुमोदन प्राप्त किए बगैर किसानों के खाते में पैसा डाल दिया गया। बलराम तालाब योजना में भी कई कृषकों के खाते में पैसे तो डाल दिए गए लेकिन उनकी प्रशासकीय स्वीकृतियां जारी ही नहीं हुई। जब पैसा स्वीकृत नहीं हुआ तो खाते में कैसे पहुंचा। कई ऐसे किसानों को 1-1 लाख रुपए का अनुदान दे दिया गया जो सामान्य वर्ग के संपन्न किसान थे तथा जिन्हें नियमानुसार बलराम तालाब योजना के तहत अनुदान या अन्य लाभ लेने की पात्रता ही नहीं थी। बताया जाता है कि 40 हजार रुपए से लेकर 1 लाख रुपए तक की राशि बिना किसी शासकीय स्वीकृति के किसानों के खाते में डाल दी गई। जो गंभीर अनियमितता की ओर इशारा करती है। कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है कि कुछ गड़बड़ी की शिकायत मिली थी इसलिए जांच कराई जा रही है। जांच चलती रहती है। 30-35 जिलों में जांच कराई जाएगी। जांच का किसी के कार्यकाल से कोई लेना-देना नहीं है। मैं अपने कार्यकाल की भी जांच कर रहा हूं। कुछ अधिकारियों ने फंड जारी करते समय अनुमोदन नहीं लिया इसलिए गड़बड़ी हुई।
अधिकारी घपला करते रहे, सरकार आंख मूंदकर देखती रही
अभी तो केवल तीन जिलों का काला-पीला सामने आया है। बाकी जिलों का हाल कहना मुश्किल है। सतना जिले में भी कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह भ्रष्टाचार किया गया और सरकार आंख मूंदकर देखती रही। वैसे भी बलराम तालाब योजना में अनुदान राशि का भुगतान प्रथम निर्माण प्रथम अनुदान पद्धति से किया जाता है। लेकिन इसमें वह पद्धति अपनाई ही नहीं गई। यहां तक कि अधिकारियों ने बलराम तालाबों का भौतिक सत्यापन करना भी उचित नहीं समझा। वर्ष 2012 के मार्च माह से लेकर दिसंबर 2014 तक उप संचालक किसान कल्याण तथा कृषि विभाग सतना के पद पर एस के शर्मा, संजीव कुमार शाक्य (प्रभारी उपसंचालक) एपी सुमन पदस्थ रहे। इस दौरान रोकड़ पुस्तिका भी नियमित रूप से नहीं भरी गई। विभाग वित्तीय वर्ष 2014-15 के अंतिम दिवस 31 मार्च 2015 को कार्यालय अवशेष राशि 4 करोड़ 47 लाख 69 हजार 40 रुपए का वर्गीकरण बताने में भी असफल रहा। कई मामलों में अनुदान की राशि पहले ही निकाल ली गई जबकि इसे अग्रिम न निकालने का निर्देश शासन का है। एक जिले में 250 से अधिक गांव आते हैं। ऐसी स्थिति में सभी गांवों में दिए गए अनुदान और विभिन्न योजनाओं के तहत करवाए गए हर एक काम की जांच करना संभव नहीं है। अधिकारियों द्वारा जो जांच पड़ताल की जा रही है। वह बड़ी वित्तीय अनियमितताओं की है। छोटे-बड़े सभी मामलों को मिलाया जाए तो यह एक बड़ी धांधली हो सकती है। विभाग का अनुमान है कि केवल तीन जिले में 75 करोड़ रुपए की हेराफेरी हुई है। राजेश राजौरा ने इस संबंध में सभी 51 जिलों के कलेक्टरों को 22 मार्च को पत्र लिखते हुए 30 अप्रैल तक समस्त जांच करने का कहा था। लेकिन अभी तक कुल तीन जिलों धार, सतना, रतलाम से जांच प्राप्त की गई है। अब कलेक्टरों को और अधिक समय दिया जा रहा है। तीन उप संचालक निलंबित कर दिए गए हैं। जिनके विरुद्ध आपराधिक प्रकरण भी दर्ज किए जा सकते हैं। इसी प्रकार धार जिले में भी उप संचालक कृषि द्वारा गंभीर वित्तीय अनियमितता करने का मामला सामने आया है। लाखों रुपए की राशि तो मार्च 2015 तक समयोजित नहीं की गई थी। रोकड़ पुस्तिका में बाउचर तक अंकित नहीं थे और किसानों के खाते में राशि तक जमा नहीं कराई गई थी। उप संचालक ने न तो कार्यालयों को नियंत्रित किया और न ही नियमानुसार हितग्राही कृषकों का चयन किया। बीज, उर्वरक, कीटनाशक, औषधि आदि बेचने वाले विक्रेताओं के संस्थानों का निरीक्षण तक नहीं किया न ही उनके द्वारा प्रयुक्त अमानक सामग्री आदि के संबंध में कोई उपयुक्त कार्यवाही की गई। हितग्राही कृषकों को कृषि सामग्री का वितरण संदेहास्पद पाया गया। अन्नपूर्णा-सूरजधारा योजना में हितग्राही कृषकों से उनका अंशदान नहीं लिया गया, बल्कि वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी स्तर से लगने वाली राशि की गणना कर अपने स्तर से राशि जमा कर, दर्शाया गया। 46 लाख 28 हजार 178 रुपए की राशि का समयोजन ही नहीं किया गया। विभिन्न योजनाओं के तहत कृषकों को जो सामग्री वितरित की गई उसकी पावती तक नहीं दी गई। लगभग 22 लाख रुपए की राशि एमपी एग्रो धार को बिना किसी सक्षम अधिकारी की स्वीकृति के अग्रिम दे दी गई। मूल प्रति के बगैर छायाप्रति पर ही बिल की राशि ले ली गई। लगभग सभी विकासखण्डों में कुछ न कुछ गड़बड़ी पाई गई है। स्प्रिंकलर, ड्रिप, पाइप लाइन, डीजल पंप, विद्युत पंप, सीड ड्रिल आदि की खरीद के लिए जो कोटेशन प्रक्रिया अपनाई गई वह भी त्रुटिपूर्ण थी। ज्ञात रहे कि इन यंत्रों की आपूर्ति कृषि विभाग द्वारा विभिन्न कंपनियों से लेते हुए की जाती है। इसके लिए किसान अपना अंश जमा कराते हैं और बाकी सरकारी अनुदान से मिलती है। लेकिन कतिपय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए किसानों को उनके मन पसंद यंत्र न देकर उप संचालक ने स्वयं कोटेशन दिए और बाद में उसी के अनुरूप यंत्र प्रदान करवा दिए। इन यंत्रों तथा अन्य योजनाओं के लिए हितग्राही के चयन में कई तरह की गड़बडिय़ा मिली हैं। धार जिले में 573 बीज विक्रेता हैं जिनके निरीक्षण का दायित्व उप संचालक का है। लेकिन इस निरीक्षण में भी कंजूसी बरती गई। कई मामलों में नमूने अमानक पाए जाने के बाद भी कार्रवाई लंबित रखी गई। रोकड़ पुस्तिका, कंटेंजेट रजिस्टर, अग्रिम पंजी आदि के रखरखाव में भी गंभीर अनियमितता पाई गई है। कहीं बाउचर नहीं है तो कहीं पेमेेंट में पारदर्शिता नहीं है। राष्ट्रीय खाद सुरक्षा मिशन की दलहन योजना में भी भारी गड़बड़ी की गई है। बीज ग्राम योजना, बीजों पर अनुदान की योजना, संकर मक्का विस्तार कार्यक्रम, नलकूल योजना सहित तमाम योजना में छोटी से बड़ी गड़बड़ी मिली है। 1 करोड़ 15 लाख 75 हजार रुपए की राशि के बिलों का भुगतान तो किया गया लेकिन इनके भुगतान से संबंधित कॉन्टीजैन्ट रजिस्टर में कोई प्रविष्टी नहीं है तथा बिलों में रजिस्टर का पेज नंबर, पेड एवं केंसिल आदि का भी विवरण नहीं है। यह घपलेबाजी लंबे समय से चल रही है।
अनुदान की प्रक्रिया का नहीं हुआ पालन
रतलाम जिले में भी इसी तरह से उप संचालक द्वारा जमकर भ्रष्टाचार किया गया। फसल प्रदर्शन मेंं बीज, उर्वरक, कीट-नाशक औषधियों के प्रदाय एवं वितरण में वित्तीय अनियमितताएं पाई गई है। जिले में उप संचालक ने वर्ष 2011 से 2015 तक शासन के निर्देशों का न केवल उल्लंघन किया बल्कि त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत लक्ष्य से अधिक खर्च किए गए। स्प्रिंकलर, पाइप लाइन, पंंप सेट आदि में किसानों को अनुदान देते समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। उप संचालक ने अपने अधीनस्थ कृषि विकास अधिकारियों को कोई लक्ष्य नहीं दिए और मौखिक निर्देशानुसार बिलों का सत्यापन करवाया। वर्ष 2011-12 में 5 लाख 71 हजार रुपए बिना प्रदाय आदेश के खर्च कर दिए। इसी वर्ष प्रदाय सामग्री को झूठा दर्शाकर हड़पने का प्रयास किया और किसानों के नाम पर लूट खसौट की गई। इतना ही नहीं बीज नियंत्रण आदेश 1983 के अंतर्गत उप संचालक कृषि ने बीज गुण नियंत्रण में नियमानुसार वैधानिक कार्रवाई न करते हुए व्यापारियों को संरक्षण प्रदान किया और अपने दायित्व की अवहेलना की। बीज ग्राम योजना में भी किसी भी स्तर पर भौतिक सत्यापन नहीं किया। विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत वितरित माइक्रो न्यूट्रियेंट में भी भारी अनियमितता पाई गई। अस्थाई अग्रिम राशि जो कि 17 लाख 3 हजार के करीब थी के समायोजन में मध्यप्रदेश कोषालय संहिता के सहायक नियम 53 (4) का पालन नहीं किया गया। ऐसा एक नहीं अनेक बार हुआ। शासकीय वाहन से जो यात्रा की गई उसमें भी अनियमितताएं पाई गईं। महालेखाकार द्वारा किए गए ऑडिट में भी 20 वर्ष पुराना सोयाबीन बीज खरीद के मामले में 6 लाख 19 हजार 9 सौ 20 रुपए की अनियमित भुगतान की बात सामने आई है इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में 13 लाख 50 हजार 500 रुपए व आईसोपाम तिलहन योजना में 44 लाख 99 हजार 140 रुपए की अनियमितताएं पाई गईं। कुछ मामलों में कृषकों की बजाए सीधे संस्थाओं को पैसा दे दिया गया। किसानों के हितों को ताक में रखकर अमानक उर्वरक और दवाएं वितरित की गईं। ये तो कुछ बानगी है। अनियमितताओं और घोटाले की सूची तो बहुत लंबी है। अकेले तीन जिलों में सैकड़ों छोटे-बड़े मामले पकड़ में आए हैं।
...तो फाइलों में दब जाता घोटाला
सब्सिडी के नाम पर प्रदेश में पिछले सात साल से हो रहा घोटाला फाइलों में दब जाता, अगर विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा सजग नहीं रहते। उनकी जागरूकता और सजगता से ये घोटाला पकड़ा गया। अन्यथा सारी अनियमितताएं फाइलों में दफन होकर कहां गोल हो जाती पता ही नहीं चलता। राजौरा के कहने पर ही विभाग ने प्रदेश भर के सारे जिलों में कृषि से संबंधित किए गए खर्चों को फिर से खंगालना शुरू किया है। इस कारण उनकी पूर्व संचालक डॉ. डीएन शर्मा से सीधी टक्कर भी हुई थी। बताया जाता है कि राजौरा को कई दिनों से अनियमितताओं की शिकायत मिल रही थी उन्होंने जांच में देरी नहीं की और परिणाम सामने आया। अब यह जांच करना बाकी है कि सभी 51 जिलों में से कितने जिलों में ये घोटाला हुआ है। इसके लिए उन्होंने सभी जिलों के कलेक्टरों से कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी की रिपोर्ट मांगी है।
जिलों ने दबाई सब्सिडी घोटाले की जांच रिपोर्ट
भोपाल कृषि योजनाओं में दी जाने वाली सब्सिडी में घोटाले की जांच रिपोर्ट जिलों में कलेक्टरों ने दबा ली है। 30 अप्रैल तक सभी कलेक्टरों को जिले में एक विकास खंड की हितग्राहीवार जांच कर रिपोर्ट कृषि विभाग को देनी थी, लेकिन विभाग के प्रमुख सचिव डॉ.राजेश कुमार राजौरा को रिपोर्ट नहीं मिली, वहीं विभागीय स्तर पर जांच के बाद धार के तत्कालीन उप संचालक आरपी कनेरिया और रतलाम के सीके जैन को निलंबित कर दिया है। यह खुलासा ड्रिप स्प्रिंकलर योजना की जांच में सामने आया था। इसके बाद प्रमुख सचिव कृषि ने सभी कलेक्टरों से वर्ष 2014-15 में जांच करके प्रतिवेदन 30 अप्रैल तक मांगे थे। जिला पंचायतों के सीईओ ने भी नहीं बताया कि हितग्रहियों के चयन में पंचायतीराज संस्थाओं के अधिकारों का हनन हुआ या नहीं। डॉ.राजौरा ने बताया कि धार, रतलाम में विभागीय स्तर पर कराई जांच में गड़बड़ी के प्रमाण मिले हैं। इसके आधार पर रतलाम के तत्कालीन उप संचालक सीके जैन और धार के आरपी कनेरिया को निलंबित कर संचालनालय में अटैच कर दिया है। इसी तरह सतना में उप संचालक रहे एसके शर्मा के खिलाफ आरोप पत्र जारी कर जवाब तलब किया जाएगा। शर्मा अभी राज्य कृषि विस्तार एवं प्रशिक्षण संस्थान में पदस्थ हैं। रीवा के तत्कालीन उप संचालक अमिताभ तिवारी को भी जांच में दोषी पाया गया है। तिवारी करीब चार माह से निलंबित चल रहे हैं।