शनिवार, 24 दिसंबर 2016

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

28,40,28,23,40,000 की वन भूमि हड़प ली रसूखदारों ने

30 साल में मप्र में 5,747 वर्ग किमी वन भूमि पर हुआ कब्जा
भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 में सामने आए तथ्य
भोपाल। यह आश्चर्यजनक लेकिन सत्य है कि मप्र में पिछले 30 साल में रसूखदारों ने 5,747 वर्ग किमी वन भूमि पर कब्जा जमा लिया है, जिसका न्यूनतम बाजार मूल्य करीब 28,40,28,23,40,000 रूपए है। इसका खुलासा हाल ही में प्रस्तुत भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 में हुआ है। इतनी वन भूमि को कब्जाने के लिए हजारों वन्य प्राणियों और पेड़ों की बलि दी गई है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि वन क्षेत्र में लगातार अतिक्रमण हो रहा है। इस कारण बाघ, हिरण, भालू, तेंदुआ आदि के शिकार के भी मामले बढ़े हैं, लेकिन सरकार के तरफ से इन्हें रोकने के लिए कोई कठोर कानून नहीं बनाए जा सके हैं। मप्र के बाद असम में 3,172 में वर्ग किमी, कर्नाटक में 1,872 वर्ग किमी, उड़ीसा में 785 वर्ग किमी और महाराष्ट्र में 670 वर्ग किमी वन भूमि पर अक्रिमण हुआ है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 के अनुसार, अब भारत का वन 701,673 वर्ग किलोमीटर यानी 21.34 फीसदी क्षेत्र तक फैला है जबकि 29 वर्ष पहले यह 640,819 वर्ग किलोमीटर तक फैला था। यह वृद्धि का स्पष्टीकरण पेड़ों को लगाने, विशेष रुप से मोनोकल्चर के जरिए बताया गया है, जो परिवर्तित प्राकृतिक वनों का स्थान नहीं लेते हैं एवं और स्थायी रुप से खत्म हो रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार 30 वर्षों में वनों के स्थान पर 23,716 औद्योगिक परियोजनाएं शुरु हुई हैं। यानी औद्योगिकरण, शहरीकरण और जंगलों में बढ़ती पर्यटन गतिविधियों के कारण देशभर के वनों में अतिक्रमण हो रहा है। इस कारण पिछले तीन दशकों में भारत के वन का 14,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र साफ कर दिया गया है। सबसे बड़ा क्षेत्र (4947 वर्ग किलोमीटर) खनन को दिया गया है। रक्षा परियोजनाओं को 1,549 वर्ग किलोमीटर और जल विद्युत परियोजनाओं के 1,351 वर्ग किमी क्षेत्र दिया गया है सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में हरियाणा के करीब दो-तिहाई आकार के वन अतिक्रमण (15,000 वर्ग किलोमीटर) और औद्योगिक परियाजनाओं (14,000 वर्ग किमी) की भेंट चढ़ गए हैं और जैसा कि सरकार ने स्वीकार किया है कि कृत्रिम वन इनकी जगह नहीं ले सकते हैं। मप्र सबसे आसान क्षेत्र मध्यप्रदेश अपनी विविधता के लिए जाना-पहचाना जाता है। विकास और सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों के संदर्भ में भी जितने प्रयोग और परीक्षण इस पदेश में हुए हैं; संभवत: इसी कारण इसे विकास की प्रयोगशाला कहा जाने लगा है। मध्यप्रदेश में राजस्व और वनभूमि के संदर्भ में भी विवाद ने नित नए रूप लिए हंै। और अफसोस की बात यह है कि यह विवाद सुलझने के बजाए उलझता जा रहा है। इस विषय को विवादित होने के कारण नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। जंगलों का मामला सत्ता, पूंजी और सामुदायिक सशक्तिकरण के बीच एक त्रिकोण बनाता है। इतिहास बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों (खासतौर पर जल और जंगल) के किनारों पर ही सभ्यतायें बसती और विकास करती हैं। जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में राज्य पालन कर रहा है उससे सामाजिक असंतुलन के नए प्रतिमान खड़े हो रहे हैं। अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि जंगल के सवाल का जवाब खोजने के लिए व्यापक प्रयास किए जाएं। उल्लेखनीय है कि देश के कुल वन क्षेत्र का 11 फीसदी यानी सबसे अधिक क्षेत्र मध्यप्रदेश में है। इसके बाद 10 फीसदी के साथ अरुणाचल प्रदेश दूसरा और 8 फीसदी के साथ छत्तीसगढ़ का तीसरा स्थान है। पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रफल का 70 फीसदी से अधिक हिस्से में वन फैला है, सिवाय असम के जहां 35 फीसदी में वन है। रिपोर्ट के अनुसार मप्र को अतिक्रमण, वनों की कटाई, वन्य प्राणियों के शिकार के लिए सबसे आसान क्षेत्र माना गया है। इसलिए देश में सर्वाधिक मामले मप्र में सामने आए है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश ने पिछले 30 वर्षों में सबसे अधिक वन (3338 वर्ग किलोमीटर) का सफाया किया है। वहीं मध्य प्रदेश ने 2,477 वर्ग किलोमीटर और आंध्र प्रदेश ने 1,079 वर्ग किमी वन साफ कर दिया है। जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल गैर वन उपयोगों के लिए कम से कम वन भूमि जारी किया है। वन भूमि के भीतर कई परियोजनाओं की अनुमति दी जाती है एवं यह प्रक्रिया मानव और वन्य प्राणियों दोनों के जीवन के विघटनकारी है। सरकार के लेखा परीक्षक ने कहा है कि, जिसके तहत इन परियोजनाओं को वन भूमि दिए गए हैं, उनका व्यापक रुप से उल्लंघन हो रहा है और विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी आंकड़े अनुमान के नीचे हैं। टी वी रामचंद्र, एसोसिएट फैक्लटी सेंटर फॉर इकोलोजिकल साइंस एवं बंगलौर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अनुसार सरकारी आंकड़े बहुत कम हैं। हमारे अध्ययन से पता चलता है, पिछले एक दशक में उत्तरी, मध्य और दक्षिणी पश्चिमी घाट में घने वन क्षेत्रों में 2.84 फीसदी, 4.38 फीसदी और 5.77 फीसदी की कमी हुई है। हाल ही में संसद ने बताया है कि वर्तमान में 25,000 हेक्टेयर तक जंगल 250 वर्ग किलोमीटर या चंडीगढ़ के क्षेत्र से दो गुना अधिक रक्षा परियोजनाओं, बांधों, खनन, बिजली संयंत्र, उद्योगों और सड़कों सहित गैर वानिकी गतिविधियों को सौंपा गया है। वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश सरकार की उदारता पूर्ण नीतियों के कारण वनों में लगातार घुसपैठ बढ़ रही है। मप्र के साढ़े चार लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है। यह आंकड़ा कम होने के बजाय बढ़ रहा है। जो जहां रह रहा है, उसे उस जमीन का मालिकाना हक दिया जाएगाÓ सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के इस ऐलान के बाद कब्जे के मामले बढ़ गए हैं। बीते पांच साल में 16 हजार 518 हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया गया। यह सरकारी आंकड़ा है। असल में यह दोगुना से ज्यादा है। प्रदेश का 3,08,245 वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र हैं। इसमें करीब 31 फीसदी क्षेत्र (94668 वर्ग किमी) वन क्षेत्र है। वन विभाग खुश हो सकता है कि देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले पांच राज्यों में मध्यप्रदेश शामिल है, लेकिन इससे इतर लगातार वन क्षेत्र में अतिक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। इसे रोक पाने में वन महकमा असहाय है। सूत्रों के मुताबिक, वर्ष 2010 से पहले सरकारी रिकॉर्ड में 4.37 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में अतिक्रमण था। अब इसमें 16 हजार हेक्टेयर से अधिक की बढ़ोतरी हो गई है। वर्ष 2013 के बाद से इसमें ज्यादा वृद्धि हुई। वन विभाग के अनुसार राज्य सरकार ने जबसे जो जहां रह रहा है, उसे वहां का पट्टा देने की घोषणा की है, तब से नए अतिक्रमण के मामले बढ़ गए हैं। प्रदेश में अतिक्रमणकारियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि उन्होंने नेशनल पार्कों तक को नहीं बख्शा। सर्वाधिक अतिक्रमण के मामले संजय टाइगर रिजर्व सीधी में सामने आए। यहां वर्ष 2010 से 2015 के बीच 268 हेक्टेयर में कब्जा कर लिया। पन्ना टाइगर रिजर्व में वर्ष 2014 में दस हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया, जबकि इससे पहले वर्ष 2011 और 2012 में विभाग ने अतिक्रमण की कोशिश करने पर 10 प्रकरण पंजीबद्ध किए थे। कुनो वन्य प्राणी वन मंडल श्योपुर में भी 12 हेक्टेयर और बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व एवं सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी 5-5 हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया। प्रदेश के वनों पर बढ़ते जैविक दबाव, बढ़ती जनसंख्या तथा कृषि हेतु जमीन की बढ़ती भूख के कारण वन क्षेत्रों में अतिक्रमण एक गंभीर समस्या है। वर्तमान में संगठित एवं हिंसक अतिक्रमण के प्रयास भी हो रहे है। कई अशासकीय संगठनों द्वारा भी वन क्षेत्र में अतिक्रमण को प्रोत्साहित करने की घटनाएं भी प्रकाश में आई है। प्रदेश के वन क्षेत्र में लगातार भूमाफिया का कब्जा होने से वनों की हदें सिमटती नजर आ रही हैं। वन विभाग इस भूमि को अतिक्रमण से मुक्त नहीं करा पा रहा है। वन विभाग के मुताबिक मानव जीवन बैलेंस बनाए रखने के लिए प्रदेश में कम से कम 33 प्रतिशत जंगलों का होना आवश्यक है। लेकिन कब्जाधारियों द्वारा वनभूमि पर अतिक्रमण करने से वनों में 8.21 फीसदी वनभूमि की कमी आई है। जंगलों की कमी से जनजीवन एवं वन्यप्राणियों के लिए खतरे का संकेत है। जानकारी के अनुसार जंगलों का निरंतर दोहन होने से विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इससे तरह-तरह की बीमारियां जैसे स्वांस, दमा आदि कई बीमारियों का लोग शिकार होंगे। साथ ही प्रदूषण भी तेजी फैलेगा जिससे वन्यप्राणी, मनुष्य प्रभावित होंगे। वनों को काटने से तापमान में परिवर्तन आएगा, इससे बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं की स्थिति बनेगी। आपदाओं की रोकथाम करने में जंगलों की अहम भूमिका होती है। यही नहीं गर्मियों के दिनों में तूफान एवं लू के हालात भी बनेंगी। इसके अलावा वनों प्राणवायु मिलती है वनों का निरंतर दोहन होने से प्राण वायु में भी कमी आएगी। प्रदेश में 32 ऐसे जिले हैं जो बाढ़ ग्रसित की श्रेणी में आते हैं। कम बारिश होने के बाद भी जहां बाढ़ आने की ज्यादा उम्मीद रहती हैं। इनमें उज्जैन, इंदौर, जबलपुर, रतलाम, मंडला, हरदा, गुना, होशंगाबाद सहित और भी जिले शामिल हैं। जो बाढ़ से प्रभावी क्षेत्रो की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा 28 जिले ऐसे हैं जो भूकंप तीव्रता की दृष्टि से जोन-3 और 22 जिले जोन-2 की श्रेणी में आते हैं। सरकार की दोहरी नीति घातक देश की भाति मध्यप्रदेश में भी जंगल और जंगल के अधिकार का सवाल उलझा दिया गया है। यहां उलझा दिया गया कहना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि हमेशा से जंगलों पर राज्य या सरकारी सत्ता का नियंत्रण नहीं रहा है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ब्रिटिश हुकूमत को पहले पानी के जहाज बनाने और फिर रेल की पटरियां बिछाने के लिये लकड़ी की जरूरत पड़ी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने जंगलों में प्रवेश करना शुरू किया। जहां स्वायत्ता आदिवासी और वन क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण समुदाय से आमना-सामना हुआ। इसके बाद विकास, खासतौर पर आर्थिक विकास के लिए जब संसाधनों की जरूरत पड़ी तब यह पता चला कि मूल्यवान धातुओं, महत्वपूर्ण रसायनों, जंगली वनस्पतियों, लकड़ी और खनिज पदार्थ ताते जंगलों से ही मिलेंगे। और फिर राजनैतिक सत्ता पर नियंत्रण करने की पद्धति अपनाई। वास्तव में अकूत प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करने में कोई बुराई नहीं है किन्तु जंगलों के सम्बन्ध में जो कानून बने उनका मकसद समाज के एक खास तबके को लाभ पहुचाना रहा है और इसी भेदभावपूर्ण नजरिए के कारण आंतरिक संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई। मध्य प्रदेश सरकार की भी ऐसी ही दोहरी नीति के कारण प्रदेश के जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं। एक तरफ तो सरकार जंगल बचाने और बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इन्हीं जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमा रही हैं। सरकार की इस दोहरी नीति के कारण जंगल में माफिया हावी हो गया है। आलम यह है कि प्रदेश में पांच साल के अंदर 35590 हेक्टेयर जंगल की जमीन पर वैध रूप से खदानें खुद गई हैं तो माफियाओं ने सालभर में करीब 45,000 अवैध गड्ढे खोद डाले हैं। इतना ही नहीं इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला जा चुका है। आज स्थिति यह है कि प्रदेश के जंगल गंजे होते जा रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2015 में 38 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं। वनवासियों के जिले में जंगल न के बराबर वनवासियों के जिले झाबुआ में वन न के बराबर हैं। स्थिति ये है कि वन विभाग के पास वन क्षेत्र की जितनी जमीन है, उसमें से 70 प्रतिशत से ज्यादा वनविहीन है। वनों को बढ़ाने के सरकारी प्रयास नाकाफी साबित हुए। विभाग ने पिछले वर्षों में बड़े स्तर पर पौधारोपण किए, लेकिन इनमें से ज्यादातर काम राजस्व की भूमि पर हुआ। इसके अलावा कई जगह पौधे जीवित भी नहीं रह पाए। कुल मिलाकर जंगल बढ़ाने के सरकारी प्रयास नाकाफी हैं। झाबुआ के कुल क्षेत्रफल का 21.24 प्रतिशत क्षेत्र वन विभाग के पास वनभूमि के रूप में दर्ज है। ये क्षेत्र 734.953 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 70.36 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है, जो वनविहीन है यानी यहां न तो जंगली पेड़ हैं न जंगली जानवर। ये स्थिति काफी चौंकाने वाली है। ऐसा भी नहीं है कि बीते वर्षों में वनक्षेत्र में कोई खास कमी हुई हो। झाबुआ में बड़े वन नहीं होने से कटाई के बड़े मामले नहीं आए। फिर भी ये नहीं कहा जा सकता कि वनों की कटाई नहीं होती। कुछ वर्ष पहले वन कटाई को लेकर दो वनरक्षकों की हत्या का सनसनीखेज मामला हो चुका है। जिले में ये आंकड़ा आलीराजपुर जिले के अलग होने से अचानक बढ़ गया। आलीराजपुर में सघन वन क्षेत्र हैं और सम्मिलित जिला होने से ये प्रतिशत बेहतर था। हालांकि आलीराजपुर जिले में बड़े बांध प्रोजेक्ट के कारण वन क्षेत्र में कमी आई। इसके अलावा क_ीवाड़ा और उसके आसपास के क्षेत्र में वन कटाई के मामले सामने आते रहे हैं। मध्यप्रदेश का सिवनी जिला पर्यावरण की दृष्टि से समृद्ध जिला रहा है। परंतु वन विकास की गलत नीतियों के कारण वन विभाग द्वारा ही बड़ी मात्रा में वनों का विनाश कर दिया गया है। इस प्रक्रिया में विभिन्न किस्मों के मिश्रित वन क्षेत्र मिटाए गए हैं वहीं सागौन, यूकेलिप्ट्स, जेट्रोफा जैसे वृक्षों का रोपण कर दिया गया है। इससे न केवल वनों की जैवविविधता नष्ट हुई है अपितु स्थानीय वनवासियों की आजीविका का भी विनाश हुआ है। वनवासियों का कहना हैं कि वन विकास निगम द्वारा भारी मात्रा में मिश्रित प्रजाति के जंगलों को नष्ट कर दिया गया है। यदि वन विकास निगम को वनों से भगाया नहीं गया तो बचे खुचे जंगल भी खत्म होंगे व जैवविविधता का भारी विनाश होगा एवं स्थानीय पर्यावरण पर भी इसके विपरीत परिणाम पड़ेंगे। वन लोगों की आजीविका के साधन रहे हैं परंतु वन विभाग की स्थापना के साथ ही स्थानीय आबादियों की आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़े हैं और जंगल के लोगों की गरीबी बढ़ी है। इंडस्ट्री के लिए नीति बदलने की तैयारी देश में लगातार घट रहे वन क्षेत्रों की नाजुक स्थिति को देखते हुए यूपीए सरकार ने परियोजनाओं को मंजूरी देने में पर्यावरण के लिहाज से नाजुक वन क्षेत्रों को अलग रखने की नीति बनाई थी। अब मोदी सरकार ने इस पॉलिसी को बदलने का मन बना लिया है। इसके चलते कुछ हाई प्रोफाइल और मोटे निवेश वाले प्रॉजेक्ट्स की राह खुल सकती है, जो वन क्षेत्र से जुड़े नियमों का उल्लंघन होने की आशंका के कारण स्थगित थे। प्रकाश जावड़ेकर के नेतृत्व वाले पर्यावरण मंत्रालय के इस कदम से कम से कम 10 पर्सेंट लंबित प्रोजेक्ट्स की राह खुलेगी। इनमें मध्य प्रदेश में 24,000 करोड़ रुपये का रियो टिंटो का डायमंड माइनिंग प्रॉजेक्ट भी है। साथ ही, 800 में से करीब एक तिहाई कोल ब्लॉक्स को विकसित किया जा सकेगा। मामले की जानकारी रखने वाले अधिकारियों ने बताया कि पर्यावरण मंत्रालय परियोजनाओं के लिए स्वीकृत और अस्वीकृत वन क्षेत्रों का वर्गीकरण जारी नहीं करेगा। इस वर्गीकरण की पॉलिसी जयराम रमेश ने बनाई थी, जो यूपीए शासन में पर्यावरण मंत्री थे। इसका मकसद पर्यावरण के लिहाज से नाजुक कुछ वन क्षेत्रों को किसी भी तरह की कमर्शियल या माइनिंग एक्टिविटी की जद से पूरी तरह दूर रखना था। मोदी सरकार बनने के बाद एक अलग कमेटी से इस पॉलिसी का रिव्यू कराया गया और अगस्त 2015 में उसने रिपोर्ट दी थी। अधिकारियों का कहना है कि स्वीकृत और अस्वीकृत वन क्षेत्रों का नोटिफिकेशन जारी होने की गुंजाइश नहीं दिख रही है। अगर ऐसा नोटिफिकेशन नहीं आया तो अस्वीकृत वन क्षेत्रों में फंस सकने वाले प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू हो सकता है। स्वीकृत और अस्वीकृत क्षेत्रों को नोटिफाई नहीं करने के निर्णय पर इस तथ्य से असर पड़ा है कि ऐसे वर्गीकरण के मसौदे में सामने आया था कि भारत के वन क्षेत्र का 10-11 पर्सेंट हिस्सा परियोजनाओं के लिए अस्वीकृत क्षेत्र के दायरे में आ जाएगा और कई बड़े प्रोजेक्ट इससे प्रभावित होंगे।एनडीए शासन ने इस संबंध में जिस क्लासिफिकेशन का प्रस्ताव किया था, उसमें यूपीए शासन की मूल योजना के मुकाबले इंडस्ट्रियल गतिविधियों के लिए ज्यादा वन क्षेत्र उपलब्ध हो जाता, लेकिन फिर भी कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स फंस जाते। रियो टिंटो का प्रोजेक्ट भी फंस जाता। पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाली वन सलाहकार समिति ने रियो टिंटो के मामले पर एक मीटिंग की थी और मध्य प्रदेश सरकार को प्रॉजेक्ट प्लान रिवाइज करने की सलाह दी गई थी। सरकार के सारे प्रयास कागजी उधर वनों की प्रभावी सुरक्षा हेतु क्षेत्रीय कर्मचारियों की गतिशीलता बढ़ाने हेतु केंद्र और राज्य सरकार ने जितने प्रयास किए हैं सारे विफल साबित हुए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि वनों में लगातार अतिक्रमण और शिकार हो रहे हैं। वन क्षेत्रों में गस्त के लिए वाहन उपलब्ध कराए गए है। अतिसंवेदनशील वनक्षेत्रों में बीट व्यवस्था के स्थान पर सामूहिक गश्त हेतु वन चौकियों की स्थापना की गई है। वर्ष 2015 की स्थिति में 329 वन चौकियां कार्यरत हैं। प्रत्येक चौकी में गश्ती हेतु वाहन उपलब्ध है। परिक्षेत्र स्तर पर वन गश्ती एवं सुरक्षा हेतु वाहन अनुबंधित कर उपलब्ध कराये गये हैं। वन अपराधों पर नियंत्रण एवं त्वरित कार्यवाही हेतु प्रत्येक वन वृत्त में उडऩदस्ता दल कार्यरत है। उडऩदस्ता दल में पर्याप्त संख्या में वनकर्मी, शस्त्र एवं वाहन उपलब्ध हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां संगठित वन अपराधों की संभावना है, विशेष सशस्त्र बल की 3 कंपनियां भी तैनात की गई हैं। वर्ष 2015 में 1350 वन अपराधियों के विरूद्ध न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुत किये गए तथा समस्त वन अपराधों में 2667 वाहन जप्त किए गए हैं जिसमें अवैध परिवहन में 1758 वाहन जप्त किए गए है। कर्तव्य के दौरान वन कर्मचारियां पर हमलें के 45 प्रकरण दर्ज हुए, जिसमें 48 कर्मचारी हमले में गम्भीर रूप से घायल हुआ। वर्ष 2015 में 3.57 करोड़ रूपए की राशि अभिसंधारित प्रकरणों में वसूल की गई। सरकार के ताजा आंकड़ों के अनुसार, 1980 से साफ हुए 14,000 वर्ग किलोमीटर वन में से 6770 वर्ग किलोमीटर में नए सिरे से लगाए गए हैं या वनरोपण किया गया है। अप्रैल 2016 में, सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि प्रतिपूरक वनीकरण प्राकृतिक वनों के लिए विकल्प नहीं हो सकता। सरकारी बयान में कहा गया है कि यथासमय में प्रतिपूरक वनीकरण का इस्तेमाल वन परिवर्तन के प्रभाव का नुकसान को कम करने के लिए किया जाता है। अजय कुमार सक्सेना, दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वाइरन्मन्ट के कार्यक्रम प्रबंधक (वानिकी) कहते हैं कि, प्राकृतिक वन की हानि की क्षतिपूर्ति संभव नहीं है, कम से कम एक सदी तक तो नहीं। सक्सेना आगे कहते हैं कि एक वन में प्राकृतिक पोषक तत्व प्रक्रियाओं के साथ हजारों वनस्पतियों और जीव एक जटिल पारिस्थितिकी मिश्रण में रहती हैं जो कि मोनोकल्चर वृक्षारोपण द्वारा दोबारा पाया नहीं जा सकता है। वन भूमि का कानूनी परिवर्तन, अवैध कार्यों से बढ़ रहा है, मतलब कि कई लोग जिन्हें वन काटने की अनुमति मिल रही है, वह उन पर लगाए गए शर्तों का उल्लंघन करते हैं। 2013 की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट कहती है कि परिवर्तन से संबंधित वन मंजूरी के कानूनों की निगरानी करने में पर्यावरण और वन मंत्रालय अपनी जिम्मेदारियों का उचित रूप से निर्वहन करने में विफल रहा है। कैग रिपोर्ट कहती है, हमारी राय में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में निर्धारित दण्डात्मक खंड, अवैध और अनधिकृत प्रथाओं पर अंकुश डालने में काफी हद तक अपर्याप्त और अप्रभावी रहा है। पट्टों के अनधिकृत नवीकरण, अवैध खनन, खनन पट्टों निगरानी रिपोर्ट में प्रतिकूल टिप्पणी के बावजूद के बने रहना, परियोजनाओं के पर्यावरण मंजूरी के बिना काम करना, वन भूमि की स्थिति के अनधिकृत परिवर्तन एवं वानिकी मंजूरी के फैसले में मनमानेपन के कई उदाहरण देखे गए हैं। ठेकेदारों, राजनेताओं और कुछ वन विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। कई जि़ले जहां गैर जिम्मेदार वन विचलन के साथ बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, वहां पानी की कमी और खाद्य असुरक्षा देखी जा रही है। केवल 6 फीसदी क्षतिपूरक का इस्तेमाल एक सरकारी आंकड़े के अनुसार, विकास परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल वन भूमि के पुन: निर्माण के लिए सरकारी कोष 6 वर्षों में कंपनियों और संस्थाओं द्वारा एकत्र की गई राशि का 6 फीसदी से अधिक इस्तेमाल नहीं किया गया है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि किस प्रकार कानून का उल्लंघन किया जा रहा है एवं वनों के कटने के बाद, उनके पुन: निर्माण के लिए किए गए वादों की अनदेखी की जा रही है। यहां तक की वन भूमि के पुन: निर्माण के लिए निर्धारित राशि का दुरुपयोग भी किया गया है। राशि का एक-तिहाई हिस्सा गैर वृक्षारोपण गतिविधियों जैसे कि सांस्कृतिक गतिविधियों, कंप्यूटर, फर्नीचर, लैपटॉप, वाहन और ईंधन के लिए इस्तेमाल किया गया है। राज्यसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 10 मार्च 2015 तक, प्रतिपूरक वनीकरण कोष, 35,853 करोड़ रुपए थी। केंद्र द्वारा राज्यों को इस राशि में 20 फीसदी (7,298 करोड़ रुपए) से अधिक नहीं सौंपा गया है। और इसमें से 6 फीसदी (2,357 रुपय करोड़ रुपए) से अधिक प्रतिपूरक वनीकरण के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है। वनीकरण लक्ष्य हासिल करने में मप्र अव्वल सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले 36 वर्षों में विकास के लिए परिवर्तित 14,000 वर्ग किलोमीटर वन भूमि में से करीब 6747 वर्ग किलोमीटर में वनरोपण किया गया है। मध्य प्रदेश में सबसे अधिक भूमि (1,601 वर्ग किमी) को पुनर्जीवित किया गया है। जबकि महाराष्ट्र (962 वर्ग किमी) दूसरे स्थान पर है। अन्य राज्यों में वनीकरण नगण्य है। मप्र में जनभागीदारी एवं क्षेत्रीय इकाईयों की सक्रियता से वन अपराधों पर नियंत्रण के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। विभाग द्वारा विगत पांंच वर्षों में पंजीबद्ध वन अपराध प्रकरणों का विवरण तालिका में दर्शित है : - मप्र में पांच साल के वन अपराधों का विवरण वन अपराध प्रकरण 2011 2012 2013 2014 2015 अवैध कटाई के प्रकरण 55699 54634 54011 52613 48988 अवैध चराई के प्रकरण 1325 1112 1031 877 933 अवैध परिवहन के प्रकरण 2282 2082 2239 2137 1968 अतिक्रमण प्रकरण संख्या 1479 2411 1699 1573 1658 नवीन प्रभावित क्षेत्र (हे.) 2010 4997 3679 3140 2622 अवैध उत्खनन प्रकरण संख्या 1014 758 1257 1186 986 प्रभावित क्षेत्र (हे.) 4357 3107 279 659 631 कुल पंजीबद्ध वन अपराध 66514 64910 62293 60411 56174 अवैध परिवहन मे जप्त वाहनों संख्या 1001 1592 1126 1295 1651 न्यायालय में प्रस्तुत प्रकरण 2110 2113 2885 3180 3227 वन अपराध में वसूल राशि (लाख में) 296.47 318.98 429.87 451.49 387.31 पर्यावरण एवं वनों की सुरक्षा की दृष्टि से काष्ठ के चिरान एवं व्यापार को लोकहित में विनियमन करने के लिये बनाये गये म0प्र0 काष्ठ चिरान अधिनियम 1984 के प्रावधानो का उल्लंघन करने पर दर्ज किये गये वन अपराध प्रकरण का विवरण तालिका में दर्शित है : - वन अपराधों का विवरण वर्ष 2011 2012 2013 2014 2015 प्रकरण संख्या 385 301 308 184 172

काली कमाई के कारोबार में उतरे नक्सली

बाक्साइट, तेंदूपत्ता और अफीम से पोषित हो रहा लाल आतंक
केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट से उड़े सरकार के होश
अफीम माफिया और नक्सलियों ने तैयार किया अपना नेटवर्क
जंगलों में उतरी तीन राज्यों की पुलिस भोपाल। पिछले कुछ वर्षों तक शांत रहने के बाद एक बार फिर मप्र में लाल आतंक पैर पसारने लगा है। मप्र के बालाघाट जिले में पिछले एक साल से नक्सली अपने आप को मजबूत करने में लगे हुए थे लेकिन प्रदेश सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगी। केंद्र के पास पहुंची खुफिया रिपोर्ट के बाद जब इसकी खबर मप्र पहुंची तो पुलिस के हाथ-पांव फुल गए। रिपोर्ट में बताया गया है कि जिस खनिज संपदा पर मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा नाज करते हैं वही आज इनके लिए अभिशाप बन गए हैं। खुफिया विभाग से मिली रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों की खनिज संपदा, वन उत्पाद और अफीम के वाले कारोबार से लाल आतंक यानी नक्सलवाद बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, मप्र, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में एक नए किस्म का नक्सलवाद जन्म ले चुका है जो काली कमाई के कारोबार में जुट गया है। नक्सलियों का यह समूह मप्र के बाक्साइड की खान वाले क्षेत्रों बालाघाट, मंडला, अनूपपुर, सतना, रीवा, कटनी, सीधी, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, दुर्ग, रायपुर, कोण्डागांव झारखंड के लोहरदग्गा, गुमला, सुंदरगढ़ और उड़ीसा के कालाहांडी में पिछले कुछ वर्षों में पनपा है। साथ ही मप्र और छत्तीसगढ़ के तेंदूपत्ता उत्पादन वाले क्षेत्रों में सक्रिय हैं। उल्लेखनीय है कि मप्र में बालाघाट, सीधी, सिंगरौली, मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर और उमरिया नक्सल प्रभावित जिले माने जाते हैं। कुछ साल पहले केंद्र और राज्य सरकार ने मान लिया है कि प्रदेश में नक्सलवाद का प्रभाव नहीं है लेकिन खात्मे की कगार पर पहुंच चुके नक्सलवाद को तेंदूपत्ता के काले कारोबार से कमाई का ऐसा चस्का लगा कि वह मप्र के जंगलों से निकलकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड तक के जंगलों में तेंदूपत्ता पर लेवी वसूलने के साथ बाक्साइड के काले कारोबार में लग गया है। नक्सली बाक्साइड की खदानों में खनन कार्य करने वाली कंपनियों से न केवल लेवी वसूल रहे हैं बल्कि उनके काले कारोबार को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। मप्र से सालाना 200 करोड़ की कमाई पुलिस विभाग, वन विभाग, खनिज विभाग और स्थानीय लोगों से बातचीत में यह तथ्य सामने आया है कि मप्र के बालाघाट, मंडला, अनूपपुर, सतना, रीवा, कटनी और सीधी में स्थित बाक्साइड की खदानों से नक्सलियों को हर साल करीब 200 करोड़ की लेवी और काली कमाई हो रही है। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि डकैत प्रभावित रीवा, सतना, कटनी और सीधी में डकैतों का आतंक कम होते हीं नक्सली अपनी गतिविधियां बढ़ाने लगे हैं। आलम यह है तेंदूपत्ता की तुड़वाई के सीजन नक्सली तो इन क्षेत्रों में डेरा डाल देते हैं। नक्सली गतिविधियों की जानकारी रखने वालों का कहना है कि बाक्साइड और तेंदूपत्ता से होने वाली कमाई से नक्सली आधुनिक हथियारों को खरीद कर अपने नेटवर्क को मजबूत कर रहे हैं। आज मप्र में नक्सली बालाघाट, सीधी, सिंगरौली, मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिलों के अतिरिक्त जबलपुर, कटनी, सिवनी, छिंदवाड़ा और बैतूल में भी कई तरह के संगठन काम कर रहे हैं। मालवा-निमाड़ के आदिवासी जिले धार-बड़वानी में नक्सली से हटकर दूसरे तरह की गतिविधियां सामने आ चुकी हैं। बाक्साइट खान पर नक्सलियों की कुंडली बाक्साइट शुरू से ही नक्सलियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। नक्सली अविभाजित मप्र के दौर से ही बक्साइट को अपनी कमाई का जरिया बनाते आ रहे हैं। देश का सबसे अच्छा बाक्साइट का भंडार छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले में मौजूद है। केशकाल ब्लॉक के कुएमारी क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र में शामिल किया गया है। क्योंकि यहां दिन के समय भी माओवादियों का आतंक रहता है। यहां 1996 में नक्सलियों ने उत्पात मचाते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई थी। 1980 से 1996 तक काम भी चला है, लेकिन 1996 के बाद से यह इलाका माओवादियों के कब्जे में है। नक्सलियों का प्रतिबंधित संगठन उत्तर बस्तर डिविजन और केशकाल एरिया कमेटी इस क्षेत्र में सक्रिय है। दोनों माओवादी संगठनों ने यहां लंबे समय से अपना अधिकार जमाए हुए है और इस क्षेत्र से जाना नहीं चाहते। ग्रामीणों को रोजगार दिलाने के उद्देश्य से कुदालवाही प्लांट को दोबारा शुरू करवाया जा रहा है। इसके लिए पुलिस जवान लगातार यहां सर्चिंग कर रहे हैं, लेकिन माओवादी इससे नाखुश होते हुए 8 जून को जिले का सबसे बड़ा आईईडी बम प्लांट किया था। जवानों की सक्रियता ने बम को ढूंढ़ निकाला गया था। इस इलाके में माओवादी गतिविधि व बम का मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि माओवादी यहां किसी भी तरह के घुसपैठ पसंद नहीं कर रहे। कोंडगांव एसपी संतोष सिंह के मुताबिक प्रदेश गठन से कई साल पहले 1980 के (पूर्व मध्य प्रदेश) खनिज विभाग ने केशकाल ब्लॉक के कुएमारी के कुदालवाही के दो स्थानों को प्राकृतिक बाक्साइट भंडार क्षेत्र घोषित किया। 1980 में मध्य प्रदेश खनिज विभाग ने इसे इकबाल फारूकी को 74 प्रतिशत और 26 प्रतिशत खुद के मालिकाना हक पर लीज पर दे दिया। इस बाक्साइट प्लांट के ऑफिस में तोड़-फोड़, गाडिय़ों में आगजनी के बाद प्लांट को बंद करवा दिया गया। माओवादियों का कब्जे वाले कुदालवाहीं, कुएमारी समेत घोड़ाझर, उपरचंदेली, बावलीपारा, नंदगट्टा आदि को मुक्त करवाने के लिए एसपी संतोष सिंह विशेष कार्य योजना चला रहे हैं। क्षेत्र में पुलिस का दबाव बढ़ते ही नक्सलियों ने मप्र का रूख करना शुरू कर दिया और बालाघाट को अपना सेंटर बनाने में जुट गए हैं। बालाघाट में वर्चस्व गंवा चुके नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) ने दोबारा अपना दबदबा बनाने के लिए गोपनीय तरीके से एक बड़ी योजना पर काम करना शुरू कर दिया है। पुलिस सूत्रों ने बताया कि नक्सलियों ने इस जिले को अपनी दमदार मौजूदगी वाले महाराष्ट्र के गढ़चिरौली डिवीजन में शामिल कर अपने पुराने तीनों दलम मलाज खंड, परसवाड़ा और टांडा की गतिविधियां तेज कर दी है। नक्सलियों की योजना छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमा से लगे बालाघाट जिले को अपना डिवीजनल मु यालय बनाकर इसे पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के अभेद्य दुर्ग की तरह बनाने की तैयारी है। बालाघाट में पिछले कुछ सालों में नक्सलियों के केवल एक दलम मलाजखंड की सक्रियता देखी गई है। इसमें नक्सलियों की सं या आमतौर पर 14 या 15 ही रही है। जबकि यहां पूर्व में सक्रिय रहे परसवाड़ा और टांडा दलम की यहां मौजूदगी न के बराबर ही बची थी। लेकिन पिछले कुछ माह से यहां नक्सलियों के चार-पांच ग्रुपों के मौजूद होने की खबरें पुलिस को मिल रही हैं। इन ग्रुपों ने लांजी और पझर थाना क्षेत्र के अलावा भरवेली, हट्टा, बैहर, किरनापुर और बालाघाट के ग्रामीण थाना क्षेत्रों में भी मूवमेंट बढ़ा दी है। बालाघाट के पुलिस अधीक्षक गौरव कुमार तिवारी कहते हैं कि नक्सलियों की गतिविधियों को पूरी तरह समाप्त करने की दिशा में पुलिस एक्शन प्लान भी चला रही हैं। इसके साथ ही विशेष बल भी जंगलों में लगातार सर्चिग कर रहा है। 50 लाख का इनामी नक्सली फैला रहा है दहशत मध्य प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिले बालाघाट में नक्सलियों के एक समूह ने तेंदूपत्ता मजदूरी बढ़ाए जाने की मांग करते हुए बांस ढुलाई में लगे एक ट्रक को आग के हवाले कर दिया। बालाघाट के पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी ने बताया कि लॉजी से लगभग 45 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ की सीमा के करीब धीरी मुरुम इलाके में 30 से 35 नक्सलियों के समूह ने इस वारदात को अंजाम दिया है। पुलिस अधीक्षक ने बताया कि खैरागढ़ किसान मजदूर संगठन का डिवीजनल कमांडेंट अशोक उर्फ पहाड़ सिंह भी इस वारदात में शामिल था। उस पर 50 लाख का इनाम है। नक्सलियों ने बांस ढुलाई के काम में लगे एक ट्रक के कर्मचारियों को वाहन छोड़कर अपने उपयोग का सामान लेकर भागने को कहा। इन्हीं कर्मचारियों ने लॉजी थाने पहुंचकर नक्सलियों के संबंध में जानकारी दी और कुछ पर्चे भी सौंपे। तिवारी ने बताया कि इन नक्सलियों का खैरागढ़ किसान मजदूर संगठन से नाता है। इन्होंने ट्रक के स्टाफ को जो पर्चे दिए हैं, उनमें तेंदूपत्ता तुड़ाई की मजदूरी बढ़ाने की मांग की गई है। बांस ढुलाई में लगे ट्रक को आग के हवाले करने के बाद नक्सली छत्तीसगढ़ की ओर भाग गए। बालाघाट जिले में पिछले एक पखवाड़े में नक्सलियों की गतिविधियों में अचानक तेजी आई है। इससे पहले नक्सलियों ने एक सरपंच के पति को मनरेगा की मजदूरी का जल्दी भुगतान करने की हिदायत दी थी। जंगलों में उतरी तीन राज्यों की पुलिस बालाघाट जिले के जंगलों में पनाह लिए नक्सलियों का सफाया करने अब पुलिस जंगलों में उतर गई है। इधर, तीन राज्यों का ज्वाइंट ऑपरेशन भी शुरू कर दिया गया है। मप्र के अलावा छग और महाराष्ट्र राज्य की पुलिस जंगलों में सर्चिंग कर रही है। वहीं सीमावर्ती क्षेत्रों को सील कर थाना-चौकियों में तैनात अमले को अलर्ट कर दिया गया है। पांच ट्रकों को जलाने की नक्सली वारदात के बाद जहां पुलिस और ज्यादा अलर्ट हो गई है। वहीं नक्सलियों के चिह्नित स्थानों पर दबिश भी दे रही है। हालांकि, पुलिस को अभी सफलता नहीं मिल पाई है। एसपी तिवारी ने बताया कि 14 जून को वारदात करने वाले नक्सलियों की शिना त हो गई है। मौके पर मौजूद ग्रामीणों को नक्सलियों के फोटो दिखाकर उनकी शिना त कराई गई है। जिसके आधार पर नामजद नक्सलियों के खिलाफ प्रकरण भी दर्ज किया गया है। नक्सलियों के हर दल में महिला सदस्य जिले में पनाह लिए नक्सली अलग-अलग दलों में बंटे हुए हंै। वे वारदात को भी दलवार ही अंजाम दे रहे हैं। 14 जून को भी हुई वारदात इसका उदाहरण बनी हुई है। एसपी तिवारी के अनुसार 14 जून को भी नक्सली दो अलग-अलग दलों में बंटे हुए थे। जिसमें एक दल में 15-20 नक्सली मौजूद थे। जबकि दूसरे दल में करीब 17 नक्सली थे। दोनों ही दलों में महिला नक्सली भी शामिल हैं। उधर, जिले में लगातार बढ़ रही नक्सली वारदात के बाद अब तीन राज्यों की पुलिस ज्वाइंट ऑपरेशन चला रही है। जिसमें एमपी की सीमा में प्रदेश की पुलिस सर्चिंग कर रही है। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य में वहां की पुलिस नक्सलियों की घेराबंदी कर रही है। इधर, महाराष्ट्र राज्य की भी पुलिस प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्र के जंगलों की खाक छान रही है। एसपी तिवारी के अनुसार तीनों ही राज्यों की पुलिस आपसी सामांजस्य स्थापित कर सर्चिंग कर रही है। ताकि किसी भी प्रकार से ऑपरेशन में गलतफहमी पैदा न हो। एसपी ने संभावना जताई है कि शीघ्र ही पुलिस को बड़ी सफलता मिल सकती है। तेंदूपते से हर सर करोड़ों की कमाई मप्र में तेंदूपते की तुड़ाई शुरू होते ही नक्सली वन क्षेत्र में सक्रिय हो जाते हैं और समितियों और ठेकेदारों से करोड़ों रूपए की लेवी बटोर ले जाते हैं। वन विभाग के सूत्रों के अनुसार 94668 वर्ग किलोमीटर में फैले प्रदेश के वन क्षेत्र में हर साल अच्छी गुणवता वाले करीब 35 लाख बोरा तेंदूपत्ता उत्पादित होता है। लेकिन पिछले कुछ साल से सरकारी खाते में मात्र 16 लाख बोरा ही पहुंच पा रहा है। 19 लाख बोरा तेंदूपता यानी 2,37,50,00,000 रूपए का हरा सोना कहां जा रहा है किसी को नहीं मालुम। अगर अंतराष्ट्रीय मानक से देखें तो 7,60,00,00,000 रूपए होता है। आलम यह है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजुद न तो प्रदेश के राजस्व में वृद्धि हो पा रही है और न ही तेंदूपत्ता मजदूरों की माली हालत सुधर पा रही है। जबकि सरकार हर साल करोड़ों रूपए का बोनस भी बांट रही है। दरअसल सफेदपोश, माफिया, ठेकेदारों के गठबंधन की अवैध कमाई में से नक्सली हर साल लेवी वसूलने जंगलों में उतरते हैं। नक्सलवाद के लिए संजीवनी बना अफीम मध्यप्रदेश का मालवांचल हमेशा से सिमी का गढ़ रहा है। भले ही पुलिस दावे करे कि मालवांचल सहित पूरे प्रदेश में सिमी के गढ़ को नेस्तानाबूत कर दिया गया है, लेकिन राख में आग अभी भी सुलग रही है। खूफिया सूत्रों की माने तो पुलिस के तेज होते पहरे के बीच सिमी कार्यकर्ताओं ने नक्सलियों से हाथ मिला लिया है और उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचा रहे हैं। इसमें सिमी का साथ दे रहे हैं प्रदेश में अफीम की अवैध खेती करने वाले माफिया। मप्र के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि भारत में अफीम की खेती नक्सलवाद के लिए आर्थिक आधार का प्रमुख स्रोत हो गया है मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में अफीम की खेती के कारोबार के जरिए नक्सली अपने लिए धन जुटा रहे हैं। भारत में वैसे तो अफीम की खेती तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है। लेकिन अभी भी सबसे अधिक अफीम का उत्पादन मध्यप्रदेश के 2 जिलों नीमच और मंदसौर में होता है। हालांकि अफीम की खेती करने वालों पर पुलिस की नजर रहती है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि अपनी लचर प्रणाली और सांठ-गांठ के कारण वह अवैध खेती पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। जिसके कारण यहां हो रही अफीम की अवैध खेती की कमाई नक्सलियों को पहुंचाई जा रही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है। अफीम की खेती के लिए सबसे उपर्युक्त जलवायु ठंड का मौसम होता है। इसके अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी का शुष्क होना जरुरी माना जाता है। इसी कारण पहले इसकी खेती सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही होती थी। हालांकि कुछ सालों से अफीम की खेती उत्तर प्रदेश के गंगा से सटे हुए इलाकों में होने लगी है, पर मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुकाबले यहां फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता अच्छी नहीं होती है। अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहां अच्छा होगा। इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढिय़ा से पकड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माध्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। मप्र के अफीम से उड़ता पंजाब चाहे आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो उनके भरण-पोषण का अफीम का अवैध धंधा एक बड़ा आधार है। अब नशीले पदार्थों की तस्करी आम आपराधिक या तस्कर गिरोहों के हाथ में नहीं रही। नक्सलियों और आतंकवादी संगठनों ने इस पर कब्जा कर लिया है। इनके तार अफगानिस्तान और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया से जुड़े हैं। इनके माध्यम से हेरोइन, मार्फिन आदि मुंबई के रास्ते अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचता है। लेकिन मप्र के अफीम का दुष्प्रभाव अगर सबसे अधिक किसी पर पड़ा है तो वह है पंजाब। मप्र से पंजाब में लगातार स्मैक, हेरोइन, चरस व अफीम पहुंच रहा है और वहां कि युवा पीढ़ी को नशे से खोखला कर रहा है। पंजाब सरकार कई माह पहले ही ग्वालियर स्थित नारकोटिक्स कमिश्नर को पत्र लिखकर अफीम की पैदावार कम करने का आग्रह कर चुकी है। क्योंकि पंजाब में स्मैक, हेरोइन, चरस व अफीम के नशे ने हजारों परिवारों को बर्बाद कर दिया है। ऐसे में पंजाब सरकार अफीम की पैदावार घटाने पर दबाव बना रही है तो दवा कंपनियां इसकी पैदावार बढ़ाने पर। पुलिस महानिदेशक पंजाब सुरेश अरोरा कहते हैं कि अफीम और नशे की समस्या तो है। हमने इसके लिए रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड्स पर चौकसी बरतने को कहा है। वहीं डायरेक्टर स्टेट नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो आईजी ईश्वर सिंह कहते हैं कि विभाग ने मप्र के नारकोटिक विभाग को पत्र लिखा है। वहां कि सरकार क्या कदम उठा रही है हमें नहीं मालुम। गत वर्ष नारकोटिक्स कमिश्नर मु यालय ग्वालियर ने मध्यप्रदेश के मंदसौर व रतलाम सहित राजस्थान के कोटा व उत्तर प्रदेश के लखनऊ को कुल 3000 क्विंटल अफीम का उत्पादन लक्ष्य रखा था। किसानों से ये अफीम 900 से 3500 रुपए के बीच खरीदी गई। इसे दवा कंपनियों में सप्लाई कर दिया गया, लेकिन समस्या यहीं से शुरू हो गई। कई किसानों ने तस्करों से साठगांठ कर 10 हजार रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से अफीम बेच दी। यहां से ये अफीम ड्रग लॉर्ड या ड्रग माफिया के पास पहुंच गई। वहां इसे स्मैक व हेरोइन में प्रोसेस कर 25 लाख से एक करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से सप्लाई किया जाता है। एजेंट इसे कॉलेज, स्कूलों व युवाओं के क्लब आदि में पुडिय़ा बनाकर सप्लाई करते हैं। इस धंधे में एक रुपए का माल एक लाख का फायदा देता है, इसलिए मृत्युदंड तक के प्रावधान के बाद भी इसका कारोबार थमने का नाम नहीं ले रहा है। 12,500 करोड़ का अवैध धंधा नारकोटिक्स कमिश्नर मु यालय ग्वालियर में पदस्थ एक अफसर के अनुसार इस धंधे पर लगाम लगाना आसान नहीं हैं। वह कहते हैं कि मप्र में अफीम, स्मैक, हेरोइन व अन्य नशीले पदार्थों का अवैध कारोबार करीब 12,500 करोड़ का है। इस कारोबार को माफिया नक्सलियों से सांठ-गांठ कर रहे हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है की जंगलों के रास्ते माल को एक-जगह से दूसरी जगह आसानी से पहुंचाया जा सकता है। उक्त अधिकारी कहते हैं कि गत एक वर्ष में विभाग ने 100 करोड़ रुपए से अधिक की स्मैक, हेरोइन व अन्य नशीले पदार्थ जब्त किए हैं लेकिन मार्केट में सप्लाई होने वाले माल का एक प्रतिशत भी नहीं हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों में अफीम से तैयार की जाने वाली स्मैक, हेरोइन, ब्राउन शुगर जैसे ड्रग्स बेचने या उनका इस्तेमाल करने पर सजा-ए-मौत तक का प्रावधान है। इसमें सबसे ज्यादा कठोर कानून अरब देशों में है, जहां सीधे ही तस्करों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इसके अलावा नॉर्थ कोरिया, फिलीपींस, मलेशिया जैसे देशों में भी यही कानून है। चीन, वियतनाम, थाईलैंड सरीखे देशों में तस्करों व ड्रग एडिक्ट को रीहेबिलिटेशन सेंटर या जेल में लंबे समय के लिए डाल दिया जाता है। भारत में ड्रग्स के केस में एनडीपीएस एक्ट 1985 के तहत अलग-अलग सजा के प्रावधान हैं। इसमें धारा 15 के तहत एक साल, धारा 24 के तहत 10 की सजा व एक लाख से दो लाख रुपए तक का जुर्माना और धारा 31ए के तहत मृत्युदंड तक का प्रावधान है। तीन हजार टन प्रतिवर्ष है खेती अफीम की खेती के लिए सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स द्वारा किसानों को लाइसेंस दिए जाते हैं। वैधानिक रूप से सिर्फ तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में ही अफीम की खेती के लिए 40 हजार से अधिक किसानों को लाइसेंस दिए गए हैं। वर्तमान में मध्यप्रदेश के मंदसौर व नीमच, राजस्थान के कोटा, झालावाड़, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा व प्रतापगढ़ और उत्तर प्रदेश के लखनऊ व बाराबंकी में साढ़े पांच हजार हेक्टेयर में अफीम की खेती का रकवा तय किया गया है। वर्ष 2015-16 में मध्यप्रदेश व राजस्थान में 58 किलो और उत्तर प्रदेश में 52 किलो प्रति हेक्टेयर की उपज हुई थी। इस हिसाब से देश में प्रतिवर्ष तीन हजार टन अफीम की खेती की जाती है। इसमें उपज के हिसाब से किसानों को 900 से लेकर 3500 रुपए प्रति किलो के हिसाब से भुगतान किया जाता है। कहां गायब हो गए 109 अफीम तस्कर नीमच और मंदसौर हमेशा से अफीम व डोडाचूरा की तस्करी का अड्डा रहे हैं। इन दोनों जिलों में देश के विभिन्न राज्यों के तस्कर आते रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से 109 तस्कर फरार हैं। आशंका जताई जा रही है कि कहीं ये तस्कर नक्सलियों के ग्रुप में तो शामिल नहीं हो गए हैं। इनमें से नीमच जिले के थानों के रिकार्ड में करीब 79 तस्कर फरार है। इसमें राजस्थान के 36, हरियाणा के 5, पंजाब के 4 और यूपी-महाराष्ट्र का एक-एक तस्कर फरार है। वहीं मंदसौर के थानों में 30 तस्कर फरार हैं। नीमच एसपी मनोज सिंह ने कु यात तस्कर कमल राणा के नेटवर्क के रिकार्ड को खंगालने के साथ ही अब जिले के थानों क्षेत्रों से फरार तस्करों की जन्मकुंडली भी निकालना शुरू कर दी है। 2003 से लेकर मई 2016 तक रिकार्ड निकाला गया है। आरोपियों को पकडऩे के लिए योजना बनाई जा रही है। पुलिस रिकार्ड के अनुसार जिले के नीमच कैंट थाने में 19, नीमच सिटी में 7, बघाना में 7, जीरन में 8, जावद में 18, रतनगढ़ में 6, सिंगोली में 3, मनासा में 8 और कुकड़ेश्वर थाने में 3 तस्कर फरार है। जिले के सभी थानों से 79 तस्कर फरार है और इसमें कु यात तस्कर कमल राणा भी शामिल है। तस्करों पर एनडीपीएस एक्ट की धाराओं में मुकदमे दर्ज है। कोई 2003 से फरार चल रहा है तो कोई 2005 से और कोई 2016 में फरार हुआ है। एसपी मनोजसिंह ने बताया नीमच जिले के थानों से करीब 79 तस्कर फरार है और उन्हें पकडऩे के लिए योजना बनाई जा रही है। हमारा प्रयास है तस्करों को गिर तार किया जाए और जिले में तस्करी का नेटवर्क खत्म किया जाए। जेल के अंदर से गैंग चला रहा तस्कर अफीम की तस्करी में लगे तस्करों का नेटवर्क कितना सुदृढ़ है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कु यात तस्कर बंशी गुर्जर पिछले कई महिनों ने नीमच जेल से ही अपनी गैंग चला रहा था, वह भी जेल के फोन से। बंशी ने जेल के फोन से अपने साथियों को 93 कॉल किए। जेल में एक कैदी 8 कॉल कर सकता है। बंशी ने जेल प्रशासन की मिलीभगत से दूसरे कैदियों के कोटे के कॉल भी कर लिए। यह खुलासा हुआ है जेल प्रशासन के लैंडलाइन फोन नंबर के रिकॉर्ड की जांच में। पुलिस की पूछताछ में तस्कर बंशी गुर्जर ने भी यह बात स्वीकारी है। दरअसल, जावद पुलिस 22 मार्च को नयागांव में कोटड़ी रोड स्थित रेलवे अंडर ब्रिज के अंदर बैठकर नयागांव टोल बैरियर को लूट की योजना बना रहे अपराधियों को पकड़ा था। पूछताछ में आरोपियों ने बंशी गुर्जर को मास्टर माइंड बताया था। इस मामले में पूछताछ के लिए रतलाम जेल में बंद तस्कर गुर्जर को जावद पुलिस दो दिन के पीआर पर लेकर नीमच आई थी। पूछताछ में बंशी ने बताया वह जेल के फोन से कॉल कर अपने साथियों के संपर्क में रहता था। बंशी और राणा का कनेक्शन पुलिस का कहना है कमल राणा के गुर्गों ने जेल में बंशी गुर्जर से मिलने के लिए कई बार संपर्क किया। बंशी ने पूछताछ में यह बात स्वीकार की है। पुलिस पता लगा रही है कि आखिर बंशी और राणा का कनेक्शन क्यों बना है। पुलिस का मानना है तस्कर गुर्जर जब जेल में था उस समय इसका भाई समरथ इससे मिलने आता था। इसकी क्या बात होती होती थी पुलिस के पास रिकॉर्ड नहीं है लेकिन पुलिस को आशंका है भाई भी योजना में शामिल हो सकता है। पुलिस त तीश कर रही है। पुलिस पूछताछ में बंशी गुर्जर ने कुछ पुलिस अधिकारियों, जवानों और पत्रकारों के नाम भी लिए हैं। हालांकि पुलिस ने इस संबंध में कुछ भी कहने से इंकार कर दिया है। फेक एनकाउंटर के बाद हुआ था गिर तार गौरतलब है कि 8 फरवरी 2009 को पुलिस ने कु यात तस्कर बंशी गुर्जर को एनकाउंटर में मार गिराने का दावा किया था। जबकि 20 दिसंबर 2012 को वह जिंदा पकड़ा गया था। पूर्व में मादक पदार्थ की तस्करी में फरार आरोपी घनश्याम धाकड़ निवासी मोतीपुरा (राजस्थान) भी जिंदा पकड़ा गया था। उसे भी सितंबर 2011 में एक सड़क हादसे में पुलिस ने मृत घोषित कर दिया था। घनश्याम ने ही बंशी गुर्जर के जिंदा होने का राज खोला था। दरअसल, यह पूरा मामला भ्रष्ट पुलिस प्रशासन और अफीम माफिया की मिलीभगत की पोल खोलता है। दरअसल, पुलिस मु यालय की कार्मिक शाखा के आईजी वेदप्रकाश शर्मा जब नीमच एसपी थे उस वक्त उन्होंने कु यात तस्कर बंशीलाल गुर्जर का 8 फरवरी 2009 को एनकाउंटर किया था जबकि आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जिस बंशीलाल को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराना बताया था वह आज रतलाम जेल (1 अप्रैल 2016 को नीमच के कनावटी जेल से शि ट किया गया) में बंद है। वर्तमान में इस फर्जी एनकाउंटर मामले की जांच सीबीआई कर रही है। वर्ष 2009 से अब तक बंशी गुर्जर के नाम पर किस व्यक्ति को मार गिराया गया यह प्रश्न नीमच पुलिस समेत सभी पुलिस अफसरों के लिए पहेली बना हुआ है। इतना ही नहीं इस प्रकरण की न्यायिक जांच हुई सीआईडी ने भी जांच की लेकिन नतीजा सिफर रहा। दरअसल, यह पूरा मामला पुलिस और तस्करों के गंठजोड़ की कहानी कहता है। कु यात अपराधी बंशी गुर्जर, घनश्याम धाकड़ और शराब कारोबारी पप्पू गुर्जर, चित्तौडगढ़़, नीमच में तस्करी के साथ अन्य अपराधों में लिप्त थे। बताया जाता है कि पुलिस से पीछा छुड़ाने के लिए बंशी गुर्जर ने 8 फरवरी 2009 का पहले अपने आपको पुलिस एनकाउंटर में मरवाया। एनकाउंटर में मृत घोषित होने के बाद बंशी गुर्जर को अपने ऊपर लदे एक दर्जन अपराधों से मुक्ति मिल गई। अब वह नए ढंग से जिंदगी जीने लगा। इस दौरान खनन ठेके लेने के साथ मध्यप्रदेश-राजस्थान में तस्करी के जरिए करोड़ों रुपए कमाए। बंशी की खुशनुमा जिंदगी देख उसका सहयोगी छोटी सादड़ी (चित्तौडगढ़़) निवासी घनश्याम धाकड़ भी अपने अपराधों से मुक्ति चाहता था। यह बात उसने बंशी को बताई, योजना बनी और फिर एक हत्या हुई। मृतक की जेब में घनश्याम से संबंधित दस्तावेज मिले। जिसे देखकर पुलिस ने घनश्याम को भी मृत घोषित कर दिया। यह घटना 10 मार्च 2011 को हुई थी। कुछ माह बाद पुलिस को एक मुखबिर से पता चला था कि घनश्याम जिंदा है तो खोजबीन शुरू हुई और 25 सितंबर 2012 को जावद से घनश्याम को गिर तार कर लिया गया। तब पूछताछ के दौरान पता चला था कि बंशी जिंदा है और उसने ही एक युवक की हत्या कर उसे हादसे में मृत दर्शाया। घनश्याम से मिली इंफारमेशन के बाद तत्कालीन आईजी उपेंद्र जैन ने एक टीम गठित कर जाल बिछाया और उसे गिर तार कर लिया। बंशी गुर्जर की गिर तारी के बाद रिमांड पर आते ही मामले की परतें खुलनी शुरू हो गई हैं। खुलासे के बाद तत्कालीन एसपी वेदप्रकाश शर्मा, एएसपी विनीत जैन, मनासा एसडीओपी रहे अनिल पाटीदार और रामपुरा टीआई एडविन कार सहित कई पुलिस अफसर की भूमिका संदेह घेरे में आ गई थी। बंशी गुर्जर के जिंदा पकड़े जाने के बाद मप्र शासन ने धारा 307, 353, 332, आईपीसी 25, 27 आ र्स एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया गया और एनकाउंटर की जांच पुलिस ने सीआईडी को ट्रांसफर कर दी थी। सीआईडी भी मामले में दो साल से जांच कर रही थी लेकिन ज्यादा कुछ पता नहीं लगा पाई। आश्चर्य की बात यह है कि एक दर्जन पुलिस अफसरों ने बंशी के एनकाउंटर का दावा किया था जबकि यह एनकाउंटर फर्जी ही नहीं बल्कि पहले से ही तय था जिसमें पुलिस वाले भी शामिल थे। इसका मतलब यह हुआ कि पुलिस अफसरों का बंशी को जीवनदान देने का षड्यंत्र। इसमें मोटी रकम बंटी थी। पूछताछ के दौरान बंशी ने बताया कि राजस्थान के एक मुस्लिम युवक को अपनी योजना में शामिल किया, उसे पाठ पढ़ाया और अपने कपड़े व हेलमेट पहना कर मोटरसाइकिल से रवाना कर दिया। दूसरी तरफ उसने पुलिस टीम को सूचना करवा दी कि बंशी आ रहा है। सूचना पाकर पहुंची पुलिस टीम बंशी गुर्जर समझकर युवक को रोकना चाहा तो उसने फायर कर दिया फिर क्या था जवाबी फायरिंग में युवक ढेर हो गया। रामपुरा अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मां, पत्नी व अन्य ग्रामीणों ने उसकी शिना त बंशी के रूप में की। इस आधार पर बंशी गुर्जर को मृत घोषित कर दिया। सीबीआई ने अब तक नहीं सौंपी जांच रिपोर्ट न्यायिक जांच-तत्कालीन नीमच कलेक्टर संजय गोयल ने मामले की न्यायिक जांच के आदेश दिए थे। यह जि मा तत्कालीन एडीएम सुबोध रेगे को सौंपी गई लेकिन वे घटनास्थल पर एक बार भी नहीं पहुंचीं और जांच रिपोर्ट सौंप दी। इसमें बंशी गुर्जर का ही एनकाउंटर बताया गया। बंशी गुर्जर को जिंदा पकडऩे के बाद पुलिस ने मामले को दबाना शुरू कर दिया। इसी बीच सामाजिक कार्यकर्ता मुलचंद खिची ने मप्र हाईकोर्ट में याचिका लगा दी। तब कोर्ट ने 2013 में इस मामले की सीबीआई से जांच करवाने के आदेश दिए। सीबीआई को 6 महीने की मोहलत दी गई थी लेकिन अब तक उसने जांच रिपोर्ट नहीं सौंपी है। ऐसे में इस पूरी जांच प्रक्रिया पर सवाल उठने लगा है। नक्सलियों ने दी सरकार को चेतावनी नक्सलियों ने लांजी के माताघाट और धीरी मुरूम के बीच जंगल में बांस से भरे पांच ट्रकों को आग लगाने के बाद पर्चे भी फेंके थे। इन पर्चों में मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इशारे पर एसपी गौरव तिवारी द्वारा माओवादी समर्थक के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को झूठे प्रकरण में गिर तार करने का आरोप लगाया गया है। पर्चे में कहा गया है कि माओवादी आंदोलन जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय जनता के संपूर्ण अधिकार की बात करता है। गरीबी और आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, क्षेत्रीय असमानता का उन्मूलन कर समाज में समानता स्थापित करना चाहता है। पुलिस, सरकारी, वन विभाग के अधिकारी, ठेकेदारों के अन्याय, अत्याचार से पीडि़त जनता इस उत्पीडऩ के खिलाफ संगठित हो चली है। इस आंदोलन को बालाघाट जिले के सैकड़ों गांवों से मिल रहे जन समर्थन से पुलिस न सिर्फ खौफ खा रही है बल्कि बुरी तरह बौखला गई है। इसी बौखलाहट में एसपी ने पर्चा जारी किया है। इस नक्सली पर्चे में पुलिस द्वारा जारी पर्चे का हवाला देते हुए कहा गया है कि एसपी ने लिखा है कि अगर नक्सली आत्मसमर्पण करते हैं तो एनकांउटर तो दूर कोई झूठा अपराध भी पंजीबद्ध नहीं किया जायेगा और न ही मारपीट की जायेगी। इस वाक्यांश का सीधा मतलब है यह निकलता है कि दबे स्वर में ही सहीं पुलिस यह स्वीकार कर रही है कि वह झूठा एनकाउंटर करती है। झूठा अपराध पंजीबद्ध कर निर्दोषों को सालो साल जेल में सड़ाती है। बेकसूर लोगों को बेरहमी से पिटती है। नक्सली पर्चे में कहा गया है कि 16 मई 2016 को जागला गांव के 3 बेकसूर ग्रामीण घनश्याम मरकाम, श्रीमती सावनीबाई मरकाम व मंशाराम धुर्वे की गिर तारी और थाने में की गई मारपीट, उन पर पंजीबद्ध किए गये झूठे केसेस न केवल पुलिस के इस पर्चे में किए गए झूठे दावे और आश्वासनों की विश्वसीनता पर सवाल खड़ा करता है। बल्कि पुलिस की कथनी और करनी में क्या अंतर है इसका जीता जागता सबूत पेश करता है। इन आदिवासियों का कसूर इतना ही है कि वे जागला पहाड़ी को खोदे जाने के विरोध में थे। वे अपने गांव को विस्थापित होने से बचा रहे थे। नक्सलियों ने कहा है कि तिवारी जी ने पर्चे में माओवादियों को विकास विरोधी बताया और इसके लिए उन्होंने बांस ट्रक जलाने का उदाहरण पेश करते हुए लिखा कि बाजार में बांस नहीं बिकने से मजदूरों को तन वाह का भुगतान नहीं हो पा रहा है। तिवारी आप और आपके आला अधिकारी बौद्धिक रूप से दुर्बल मालूम पड़ते हैं। क्या आप इतना भी नहीं जानते कि पासिंग हो चुकी बांस की ही ढ़ुलाई होती है और एक बार पासिंग हो जाने पर वह जले या सड़े या बाजार में न भी बिके, उससे मजदूर के भुगतान पर कोई असर नहीं होता। यहां के मजदूरों को उनके मेहनताने से मतलब है, आपके वन विभाग के बांस की बिक्री या खरीदी से नहीं। हम तो इस उसूल के पक्षधर हैं कि मजदूर को पसीना सूखने से पहले ही उसका मेहनताना मिले जो कि उसका हक है। नक्सल पर्चे में कहा गया है कि क्या माओवादी आंदोलन से यह श्रेय कोई छीन सकता है कि उसने आदिवासियों और दलितों के उत्थान और विकास की बात को आज देश के सरकारों के एजेंडे में ला खड़ा किया है। गौेरतलब है कि 14 जून को मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लांजी के कारंजा में डिजीटल पंचायत के शुभारंभ कार्यक्रम में शामिल होने आये थे। जब सीएम का कार्यक्रम चल रहा था उसी दौरान लांजी के माताघाट और धीरी मुरूम के जंगल में 25 से 30 सशस्त्र नक्सलियों ने एक के बाद एक बांस से भरे पांच ट्रकों को आग के हवाले कर दिया। इनमें से 3 ट्रक झनकार किरनापुरे और 2 ट्रक सरकारी थे। इतना ही नहीं नक्सलियों ने वन कर्मी गुलाब सिंह उइके के साथ बुरी तरह मारपीट भी की जिससे उसके कान का पर्दा फट गया। उइके से चालान आदि भी छीन ले गये थे।

काले सोने का काला कारोबार

मप्र को हर साल 727 करोड़ की चपत
भोपाल। मप्र में काले सोने यानी कोयले का काला कारोबार दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। प्रदेश में कोयले का अवैध कारोबार भले ही बिहार और झारखंड की तरह खुंखार नहीं है लेकिन उससे कम काला नहीं है। आलम यह है की प्रदेश में हर साल सफेदपोश के संरक्षण में मप्र सरकार को करीब 727 करोड़ की चपत लगाई जा रही है। इसका खुलासा पूर्व विधायक छोटेलाल सरावगी और नगर परिषद बुढ़ार की अध्यक्ष शालिनी सरावगी के पति पूर्व नगर पंचायत उपाध्यक्ष राजा सरावगी की गिर तार से सामने आया है। राजा सरावगी के खिलाफ एक ही पिट पास पर एक से ज्यादा बार कोयले का परिवहन कराने का आरोप था और इस मामले में चंदिया थाने में जुलाई 2015 में अपराध दर्ज किया गया था। मप्र में काले सोने के कारोबार में किस तरह सरकार को चूना लगाया जा रहा है इसका खुलासा कैग की रिपोर्ट, सीबीआई जांच और राज्य सभा में भी किया गया है। राज्यसभा में खुद राज्यमंत्री पीयूष गोयल ने स्वीकार किया है कि मप्र में कोयले की लदाई, उतराई स्थलों व सरकारी कोयला गोदामों से बड़े पैमाने पर कोयले की चोरी हो रही है। इस चोरी से सरकार को हो रही हानि का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच युवा प्रकोष्ठ के मनीष शर्मा ने बताया कि मंच ने मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिख कर इस पर लगाम लगाने की मांग की है। पत्र में मांग की गयी है कि प्रदेश में सांठगांठ से हो रहे कोयला चोरी पर प्रतिबंध लगाया जाये। जिससे सरकार को प्रतिवर्ष होने वाले करोड़ों रुपये का राजस्व हानि तथा अप्रत्यक्ष तौर पर जनता से वसूली पर रोक लग सके। मंच के ने बताया कि प्रदेश सरकार व कोयला कंपनियों के सुरक्षाकर्मियों ने छापामार कार्रवाई कर 2012 से दिस बर 2015 तक कुल 65283.86 टन कोयला जब्त किया। इसका अनुमानित मूल्य 2238 लाख रुपए है। प्रदेश में बीते दो साल से कोयला चोरी की एक भी एफआईआर दर्ज नहीं की गई। इससे कई सवाल खड़े होते हैं। रिजेक्ट कोयले का खेल मध्यप्रदेश के शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिले में 24 कोयला खदानें संचालित हैं। इन क्षेत्रों में चारों ओर काले सोने का असीमित भंडार भरा हुआ है जिसके चलते कोयले पर कोल व्यापारियों और कोल माफिया की भी नजर गड़ी ही रहती है। खनिज विभाग और माफिया मिलकर रिजेक्ट कोयले के नाम पर गुणवता वाले कोयला को अवैध रूप से बेच रहे हैं। खबर आश्चर्यचकित करने वाली है कि विगत दो वर्षों से प्रदेश में कोयला चोरी की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। पिछले तीन वर्षों में देश के विभिन्न राज्यों में कोल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की सहायक क पनियों का 65 हजार टन से अधिक चोरी गया कोयला छापे के दौरान बरामद हुआ था। शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिले में भारत सरकार ने कोयले पर भारतीय हक के दावेदारी के चलते ही एसईसीएल (साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड)का निर्माण किया ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को कोयले के द्वारा क्रय-विक्रय से राजस्व की प्राप्ति होती रहे। एसईसीएल देश की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी है। साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के कोयला भंडार दो राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैले हुए हैं। कोयला प्लांट के अलावा दोनों राज्य में कंपनी के 35 माइंस और 54 खानों के साथ कुल 89 खानों में कोयले का काम कर रही है। भारतीय सरकार को यह अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि एसईसीएल के उच्चाधिकारी देश के राजस्व में ही चपत लगाने लगेंगे और प्रतिदिन कई करोड़ का नुकसान पहुंचाने लगेंगे। बताते चलें कि एसईसीएल देश में कोयला खान की बड़ी यूनिट है। हजारों लाखों लोगों की रोजी रोटी चलने का माध्यम भी। शासकीय उच्चाधिकारियों ने ही प्राइवेट कंपनियों से हाथ मिला कर भारत सरकार को जबरदस्त तरीके से लूटना शुरू कर दिया है। यह लूट खसोट दस-बारह वर्षों से भी अधिक समय से लगातार और प्रतिदिन चल रही है। उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से ही आज तक कोई, इस कंपनी की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख पाया है। कई बार जांच हुई जिसमें यह सत्य उजागर हुआ मगर राज्य सरकार और जांच एजेंसियां दोनों ही एसईसीएल के भ्रष्ट उच्चाधिकारियों और इन प्राइवेट कंपनियों के सामने बौने साबित हो गए। इसलिए राज्य सरकार से उ मीद करना बेकार ही है। प्राइवेट कंपनियों पर एसईसीएल के उच्चाधिकारियों की अधिक मेहरबानियां है। वैसे भी एसईसीएल जब खुद लुटने को तैयार बैठी है तो इसमें प्राइवेट कंपनी वाले की क्या गलती। प्रदेश में एसईसीएल और प्राइवेट कंपनियों के साथ मिलकर कोयले का ऐसा रोचक खेल खेला जाता है जो कि यकीनन कौतूहल का विषय है। वैसे काले सोने के खेल में करोड़ों रुपए के वारे न्यारे होतें हैं, दरअसल इस खेल की पोलपट्टी तब खुली जब खनिज विभाग ने कुछ जगह छापेमारी की। पकड़े जाने पर ट्रक चालकों ने खनिज विभाग के अधिकारियों को बताया था कि इन ट्रकों में रिजेक्ट कोयला है मगर जब जांच की गई तब पता चला कि कोयला अच्छी गुणवत्ता वाला स्टीम कोयला है। खनिज विभाग के अधिकारियों ने ट्रकों को जब्त कर दिया था परंतु राजनीतिक दबाव के चलते मामले को रफा दफा कर दिया गया था। नियमों के अनुसार शिकायत सही पाई जाती तो इस राशि के अलावा दंड भी अधिभारित किया जाता। मगर राजनीतिक दबाव व भ्रष्टाचार के चलते सेटिंग करके मामले को रफादफा कर दिया गया था। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रिजेक्ट कोल के नाम पर खदानों से निकला कोयला रूपये 80/- प्रतिटन बेचा जाता है और वहीं धुला अथवा नंबर-1 के कोयले की कीमत 4 हजार रुपये प्रतिटन से भी अधिक है। रिजेक्ट कोयले के खेल में एमओयू का खुला उल्लंघन किया जा रहा है। रोजाना 2 करोड़ का कोयला चोरी मध्यप्रदेश के शहडोल, अनूपपुर, उमरिया और सिंगरौली स्थित खदानों से अधिकारियों की आंखों में धूल झोंक कर रोज करीब 2 करोड़ रुपए का कोयला चोरी हो रहा है। सिंगरौली स्टेशन के साइडिंग पर लगी इलेक्ट्रिक इन मोशन वेबरेज मशीन (वैगन तौल मशीन) के ऑपरेटिंग सिस्टम में छेड़छाड़ कर यह खेल चल रहा है। मशीन इस तरह से सेट कर दी जाती है कि वह 91 टन के बाद वजन ही नहीं दर्शाती हैं। इसका खुलासा सीबीआई की जांच में सामने आया है। सीबीआई ने अपनी छापामार कार्रवाई के दौरान सात बार चार से पांच टन अतिरिक्त स्लीपर कोयले से भरे वैगन पर रखवाए, लेकिन हर बार मशीन का वजन 90 से 91 टन के बीच ही दर्शाता रहा। इस खेल में रेलवे को भी हर महीने लाखों रुपए के मालभाड़े की क्षति पहुंचाई जा रही है। सिंगरौली स्थित कोयला खदानें नार्दन कोल इंडिया लिमिटेड के अंतर्गत आती हैं। यहां से रोज 10 रैक कोयले की सप्लाई होती है। हर रैक में 59 वैगन होते हैं। एक वैगन की क्षमता 75 से 90 टन होती है। रेल प्रबंधन ओवरलोडिंग रोकने के लिए मालभाड़े के साथ भारी जुर्माना वसूलता है। सिंगरौली स्टेशन की साइडिंग में लगी वेबरेज मशीन को 31 अगस्त 2010 को प्रगति इंस्टूमेंटेशन प्रा. लि. बोकारो ने लगाया था। यह कंपनी रेलवे की ओर से अधिकृत नहीं है। लखनऊ स्थित आरडीएसओ को कंपनी तय करने का अधिकार है। सीबीआई इसकी भी जांच कर रही है कि कंपनी अधिकृत नहीं थी, तो उसे कैसे लगाया गया। इस मशीन की ऑपरेटिंग रेलवे क्लर्क करते हैं। रेलवे हर छह महीने में एक बार इसकी जांच कराती है। अंतिम बार इसकी जांच 28 अक्टूबर 2014 को हुई थी। तब तौल ठीक मिला था। इसी तरह शहडोल, अनूपपुर, उमरिया में भी खामियां सामने आई हैं। दरअसल, यह पूरा खेल सोची-समझी रणनीति के तहत चल रहा है। सीबीआई के अनुसार हर वैगन में औसत चार टन अधिक कोयला लादा जाता था, जो तौल मशीन में कम दर्शाता था। एक रैक में 59 वैगन के हिसाब से 236 टन हुआ। रोज 10 रैक कोयला सिंगरौली स्थित वेबरेज मशीन से तौल के बाद निकलता है। इस तरह से रोज 2360 टन कोयला चोरी होता था। वर्तमान में एक टन कोयले की कीमत 3200 रुपए है। 2360 टन कोयले की कीमत 75 लाख 52 हजार रुपए होती है। इसमें रेलवे का मालभाड़ा व जुर्माना जोड़ दें, तो रोज एक करोड़ रुपए का खेल हो रहा था। इसी तर्ज पर शहडोल, अनूपपुर और उमरिया में भी कोयले की चोरी की जा रही है। सीबीआई पूरे मामले की तहकीकात कर रही है। रीवा के तुर्की रोड स्थित जेपी विला सीमेंट कंपनी में अलग तरह का खेल चल रहा था। वहां वेबरेज मशीन को इस तरह से सेट किया गया था कि मशीन सीमेंट से भरे वैगन को तौल में कम दर्शाती थी। यदि बाद में उस पर अतिरिक्त माल लादा जाता था, तो मशीन सटीक तौल बताती थी। सीबीआई के अनुसार यहां रेलवे के मालभाड़े की चोरी की जा रही थी। जबकि, ब्यौहारी स्थित वेबरेज मशीन जांच में ठीक निकली। सीबीआई एसपी मनीष वी. सुरती कहते हैं कि सिंगरौली व रीवा स्थित जेपी विला कंपनी में लगे वेबरेज मशीन के ऑपरेटिंग सिस्टम में छेड़छाड़ कर राजस्व को भारी नुकसान पहुंचाया जा रहा था। इस खेल में कौन-कौन शामिल हैं, इसकी जांच जारी है। उल्लेखनीय है कि कोयला की हेराफेरी में पूर्व विधायक छोटेलाल सरावगी के पुत्र राजा सरावगी को चंदिया पुलिस ने गिर तार किया था। चंदिया थाना के नगर निरीक्षक मो.असलम ने 16 जुलाई 2015 को दो ट्रक चोरी का कोयला पकड़ा था। पकड़े गए ट्रकों में एमपी 18 एच 4717 और एमपी 18 जीए 2388 शामिल हैं। ये दोनों ही ट्रक बुढ़ार के बताए गए हैं। इस बारे में जानकारी के अनुसार दोनों ही ट्रकों में चोरी का कोयला लदा हुआ था। एक ही पास पर एक बार कोयला बेचा जा चुका था और दोबारा उसी पास का इस्तेमाल करके कोयले का परिवहन किया जा रहा था। नगर निरीक्षक ने बताया कि ट्रक राजा सरावगी और रेखा रूचंदानी के हैं। इस मामले में आरोपी चालक शेख सब्बीर और रमेश दाहिया को गिर तार किया गया था और इन सबके खिलाफ धारा 420, 379, 109, 120 बी, 201, 4, 21, खान एवं गौण खनिज संपदा अधिनियम के तहत अपराध पंजीबद्घ किया गया है। यह तो महज एक उदाहरण है। मप्र की लगभग सभी कोयला खदानों में इसी तरह सांठ-गांठ करके सरकार को हर साल करोड़ों रूपए का चूना लगाया जा रहा है। 3.80 करोड़ के कीचड़-पत्थर मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी पिछले 5 साल से लगातार कोयले के भाव में पत्थर, कीचड़ और मिट्टी के ढेले खरीद रही है। इससे न सिर्फ 3 करोड़ 80 लाख रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ, बल्कि बिजली उत्पादन भी कम हुआ। बीरसिंगपुर स्थित संजय गांधी विद्युत ताप गृह में 2009 से 2015 तक 250 एमएम से भी बड़े पत्थरों की सप्लाई ठेकेदार द्वारा की जा रही है। खास बात ये है कि इन पत्थरों को कंपनी प्रबंधन अलग रखवा तो देता है, लेकिन कोयला सप्लाई कर रही कंपनी साउथ ईस्टर्न कोलरीज लिमिटेड (एसईसीएल) से इन पत्थरों के एवज में मूल राशि या ब्याज नहीं वसूलता। सीएजी ने जांच के दौरान इस मामले को गंभीर आर्थिक अपराध माना है और सरकार के ऊर्जा मंत्रालय से कई सवाल करते हुए जवाब भी मांगा। लेकिन सरकार ने हर सवाल का गोलमोल जवाब दिया और ठेकेदार का बचाव किया। एसईसीएल के साथ विद्युत कंपनी ने अगस्त 2009 में ईंधन प्रदाय अनुबंध (एफएसए) किया। कॉन्ट्रेक्ट के मुताबिक एसईसीएल द्वारा 20 साल तक हर वर्ष 64 लाख मीट्रिक टन कोयला संजय गांधी विद्युत ताप गृह की तीनों यूनिटों को सप्लाई करना है। लेकिन ठेका होने के बाद से ही ठेकेदार द्वारा घटिया कोयला और पत्थर की सप्लाई की जा रही है। मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी के एमडी एपी भैरव कहते हैं कि कोयले में पत्थर सप्लाई की समस्या सभी राज्यों के साथ हुई है। मप्र में एसईसीएल ने बड़े-बड़े पत्थर सप्लाई किए थे। जिसको लेकर कंपनी प्रबंधन को पत्र लिखे गए, लेकिन सुधार नहीं हो सका। सरकार अब इस मामले को देख रही है। कोयले के साथ सप्लाई हुए पत्थर अलग रखवा दिए जाते हैं और इस वसूली को लेकर अफसरों से चर्चा करेंगे। हमने स्टेट लेवल आयोग में कंपनी के खिलाफ शिकायत दी थी, लेकिन यहां से राहत न मिलने पर हमने कॉ पटीशन कमीशन ऑफ इंडिया में मामला प्रस्तुत कर दिया। अब वहां से निर्णय के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा। हैरानी की बात यह है कि यह सब उस प्रदेश को भुगतना पड़ रहा है जो देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मु य स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले तीन सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी। उधर, सीएजी का कहना है कि कोयले में जितना पत्थर सप्लाई किया गया, उसका रेल भाड़ा 1 करोड़ 27 लाख रु. होता है। इसकी वसूली ठेकेदार से की जाएगी? सीएजी की जांच में यह तथ्य सामने आया है कि बड़े पत्थर, कीचड़ व मिट्टी मिला घटिया कोयला सप्लाई हुआ है। जिसके एवज में 2.62 करोड़ रु. का गलत भुगतान करना पड़ा? हर महीने तय मात्रा से अधिक कोयला मिलने पर ठेकेदार को प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान रखा और कुल सप्लाई में से खराब कोयले की मात्रा न हटाकर ठेकेदार को गलत तरीके से 20 लाख 80 हजार की प्रोत्साहन राशि दी गई? कोयला परिवहन में भंडारण, हस्तांतरित हानि पर विचार न करते हुए ठेकेदार को 1 करोड़ 36 लाख रुपए का गलत भुगतान किया गया। इसमें मप्र विद्युत नियामक आयोग के नियमों का खुला उल्लंघन हुआ? घटिया कोयले से 200 करोड़ की चपत राज्य सरकार को ताप विद्युत गृह में उत्पादन के लिए दिए जाने वाले कोल को हायर ग्रेड का बताकर घटिया कोल सप्लाई किया जा रहा है। कोल क पनियों द्वारा किए जा रहे इस खेल से पावर जनरेटिंग क पनी को 200 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। अब पावर जनरेटिंग क पनी इस मामले में खराब कोयला सप्लाई करने के मामले में क्रेडिट नोट जारी कर अकाउंट डिटेल क्लियर करना चाहती है जिसमें कोल क पनियों द्वारा आनाकानी की जा रही है। विद्युत उत्पादन क पनी द्वारा वेस्टर्न कोलफील्ड इंडिया लिमिटेड और साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड इंडिया लिमिटेड से ताप विद्युत गृह में उपयोग में लाए जाने वाला कोयला मंगाती है। इस बात की जांच कराई जाती है कि कंपनी जिस ग्रेड का कोयला बताकर क पनी दे रही है, वह उस लेवल का है या नहीं। इस काम के लिए भारत सरकार की दो इकाइयों सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माईनिंग एंड यूल रिसर्च (सीआईएमएफआर) बिलासपुर तथा मिनिस्ट्री ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी नागपुर की यूनिट को एमपी पावर जनरेटिंग कंपनी ने अधिकार दिए हैं। सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माइनिंग एंड यूल रिसर्च बिलासपुर की यूनिट को संजय गांधी ताप विद्युत गृह बिरसिंहपुर को दिए जाने वाले कोयले के 10 रैक की टेस्टिंग के बदले 15 लाख 37 हजार रुपए और 21 रैक के परीक्षण के लिए 28 लाख 3 हजार रुपए दिए जाते हैं। इसके अलावा संजय गांधी ताप विद्युत गृह बिरसिंहपुर, अमरकंटक ताप विद्युत गृह चचाई तथा श्री सिंगाजी ताप विद्युत परियोजना खण्डवा को मिलने वाले कोयले के 1421 रैक के लिए 13 करोड़ 35 लाख 79 हजार रुपए दिए जाते हैं। इसी तरह सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माइनिंग एंड यूल रिसर्च इंस्टीट्यूट नागपुर की यूनिट को सतपुड़ा ताप विद्युत गृह सारनी को मिलने वाले कोयले के 10 रैक की जांच के लिए 15 लाख 16 हजार रुपए तथा 180 रैक के परीक्षण के लिए 1 करोड़ 38 लाख 2 हजार रुपए दिए जाते हैं। सूत्र बताते हैं कि कोयले की सप्लाई के बाद निर्धारित स्तर का कोयला नहीं मिलने पर किए गए भुगतान में कटौती करने के लिए पावर जनरेटिंग क पनी कोल क पनियों को क्रेडिट नोट जारी करती है। इसे कोल क पनियां जानबूझ कर इग्नोर करती हैं। बताया जाता है कि क पनियां नहीं चाहती हैं कि उनके कोल की टेस्टिंग और सेंपलिंग हो। इसलिए साउथ ईस्टर्न क पनी संगमा लोडिंग सेंटर पर कोल की लोडिंग में भी व्यवधान किया जा चुका है। वहां के प्रबंधन ने लोडिंग से ही मना कर दिया था, तब अपने स्तर पर कोशिश कर कोल की लोडिंग कराई गई थी। बताया जाता है कि कोल सप्लाई के बाद साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड को 154 करोड़ 39 लाख 13 हजार रुपए तथा मेसर्स वेस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की क्रेडिट नोट राशि 14 करोड़ 35 लाख 26 हजार का क्रेडिट नोट जारी किया गया। यह नोट इसलिए जारी हुआ ताकि तय ग्रेड का कोयला नहीं दिए जाने के बाद क पनियां भुगतान की गई राशि के अंतर को कम कर लें और राज्य सरकार को अगली सप्लाई के लिए कम पेमेंट करना पड़े। कोल क पनियां इसके लिए तैयार नहीं हैं। इस कारण टेस्टिंग के बाद बिलासपुर और नागपुर की यूनिट की जांच रिपोर्ट के आधार पर दो माह पहले 168 करोड़ 74 लाख 39 हजार रुपए क्रेडिट नोट जारी किया गया है। अब यह 200 करोड़ के करीब पहुंच चुका है। हवाला कारोबार में जुटे व्यापारी कोयले के कारोबार में जुटे कारोबारी अन्य अवैध गतिविधियों में भी जुटे हुए हैं। इसका खुलासा होने के बाद सीबीआई की नजर कोल क्षेत्र पर है। दरअसल, गत वर्ष कटनी में दो कोयला व्यापारियों के यहां इनकम टैक्स के छापे में 100 करोड़ से ज्यादा का हवाला कारोबार उजागर हुआ था। इनकम टैक्स अधिकारियों ने कारोबारियों के पास पांच दर्जन से ज्यादा बैंक खाते भी बरामद किए थे। जबलपुर रीजन के अंतर्गत हवाला से जुड़ा यह अब तक का सबसे बड़ा मामला माना जा रहा है। इनकम टैक्स विभाग की अन्वेषण विंग ने कोयला कारोबारियों मनीष सरावगी, नरेश पोद्दार और एक कर्मचारी नरेश बर्मन के आवासों व कार्यालयों पर एक साथ दबिश थी। इनकम टैक्स विभाग का मानना है कि हवाला कारोबार के जरिए भेजा गया धन ब्लैकमनी है। इसके लिए विस्तृत छानबीन की जा रही है। आयकर विभाग के अनुसार कोयला कारोबारियों के हवाला कारोबार के तार दूसरे राज्यों से भी जुड़ हुए हैं। इसके लिए अन्य राज्यों में भी जांच की जाएगी। उधर कोयले के काले कारोबार में हवाला का मामला सामने आने के बाद अब सीबीआई भी सचेत हो गई है। सीबीआई ने मप्र सहित देशभर के कोल ब्लाक पर नजरें गड़ा दी है। प्रिंसिपल डायरेक्टर आयकर (इन्वेस्टिगेशन विंग ) मप आरके पालीवाल कहते हैं क्रि कोयला कारोबारियों से 100 करोड़ से अधिक के हवाला कारोबार से जुड़े दस्तावेज बरामद किए गए हैं। उनके पास पांच दर्जन से अधिक बैंक अकाउंट भी मिले हैं। इनकी जांच की जा रही है।

गरीबों को रास नहीं आ रहे सरकार के मकान

21,482 करोड़ स्वाहा फिर भी...
भोपाल। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस देश में 90 करोड़ भारतीय या 75 फीसदी परिवार औसतन 5 सदस्य के साथ दो कमरे के या उससे छोटे मकान में रहते हैं उस देश में गरीबों को सरकार द्वारा बनाए गए मकान रास नहीं आ रहे हैं। इस बात का खुलासा हुआ है केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट में। रिपोर्ट के अनुसार 10 वर्षों के दौरान, केंद्र सरकार ने 21,482 करोड़ रुपए शहरी गरीबों के लिए घर बनाने पर खर्च किया हैं लेकिन इनमें से 23 फीसदी घर खाली हैं। यानी 10,32,433 मकानों में से 2,38448 मकान खाली हैं। इनमें से मध्य प्रदेश में 26,004 मकान खाली हैं। यह अजीब विडंबना है कि एक तरफ लाखों आवास खाली पड़े हैं और दूसरी ओर करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है। दरअसल सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के तहत बनाए गए मकानों की डिजाइन और गुणवता इतनी खराब रहती है कि लोग ऐसे मकानों में रहने से कतराते हैं। आलम यह है कि इन 23 फीसदी आवासों में 2005 से कोई रहने वाला नहीं है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में करीब ढाई करोड़ लोग छत के लिए मोहताज है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सबको आवास लक्ष्य को लेकर योजनाएं बनाई जाती है। मप्र में गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राजीव आवास योजना,जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और सरदार पटेल अर्बन हाउसिंग स्कीम के तहत 2011 से अभी तक 11,8,15,28,936 रूपए की राशि मिली है। गरीबों के लिए आवास बनाए जाते हैं, फिर भी गरीब लोगों को खुले में सोते या इधर-उधर सड़क या किसी पुल या अन्य स्थान पर कच्ची पक्की झोपड़ी बनाकर रहते हंै। आखिर ऐसा क्यों? जटिल शासकीय प्रक्रिया दरअसल, हर व्यक्ति चाहता है कि उसका अपना एक घर हो। इसके बावजुद वह शासकीय मकान लेने से वंचित रहता है। दरअसल, शासकीय मकानों की पात्रता पाने के लिए जटिल शासकीय प्रक्रियाएं हैं। संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार द्वारा सतत प्रयासों के बावजूद झुग्गी में रहने वाले लोग उचित बुनियादी ढांचे और आजीविका के साधन की कमी के कारण सरकार द्वारा निर्मित घरों में स्थानांतरित करने के लिए अनिच्छुक हैं। रिपोर्ट के अनुसार झुग्गी बस्ती में रहने वालों के लिए जो सरकारी आवास बने हैं वे आवास मानव निवास के लिए अयोग्य हैं, भीड़भाड़ है, दोषपूर्ण व्यवस्था है और इमारतों के डिजाइन इस तरह हैं कि संकीर्णता या सड़क की दोषपूर्ण व्यवस्था, वेंटिलेशन, प्रकाश, या स्वच्छता सुविधाओं का अभाव है। नए मकान अक्सर बिजली और पानी की कमी होती है, जो बस्तियों में सस्ती, अक्सर अवैध कनेक्शन उपलब्ध होती है। सरकार ने भी स्वीकार किया कि नए मकान आम तौर पर कार्यस्थलों के पास नहीं हैं। मप्र के संदर्भ में बात करें तो गरीबों को मु त या सस्ता मकान उपलब्ध कराने के लिए ढेरों योजनाएं बनीं, उनके लिए समय पर फंड भी दिए गए, लेकिन समय पर फंड का उपयोग नहीं होने से ढेरों मकानों का निर्माण अधूरा रह गया। राज्य में सबसे पहले इंदिरा आवास योजना के तहत प्रदेश में गरीबों के लिए मकान बनाने की योजना बनी। फिर जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना जेएनएनयूआरएम के तहत बेसिक सर्विसेस फार अर्बन पूअर्स (बीएसयूपी) के लिए 2008 में शहर के भीतर की झुग्गी बस्तियों को शहर के बाहर शि ट करने के लिए मकान निर्माण की स्वीकृृति केंद्र सरकार ने दी। वहीं राजीव आवास योजना के तहत शहर के भीतर मौजूद झुग्गियों को जहां तक हो सके उसी जगह पर सारी सुविधाएं मुहैया कराने की योजना बनी। लेकिन आज तक शहर झुग्गी मुक्त नहीं हो सके हैं। मप्र में 26,004 मकान खाली मध्य प्रदेश में शहरी गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए बने मकानों में से 26,004 खाली हैं। यह आवास या तो अपराधियों का अड्डा बन गए हैं या खाली पड़े-पड़े जर्जर हो रहे हैं या फिर अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं। इसको इसी से समझा जा सकता है कि अकेले मध्यप्रदेश में 45 फीसदी आवास खाली हैं। इस तरह से सरकारी धन की बर्बादी हो रही हैं वहीं देश में एक करोड़ से अधिक बंगले खाली पड़े हैं, इन आधुनिक सुविधाजनक साज-सज्जायुक्त बंगलों में कोई रहता नहीं। वे पिकनिक स्थल हैं। दूसरी ओर लाखों लोग सिर छुपाने के लिए एक अदद छत के मोहताज है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में एक करोड़ दस लाख घरों में रहने वाला कोई नहीं हैं। एक तरफ सरकार नियत समय सीमा में सबको आवास देने की नीति पर काम कर रही है। वहीं पैसे वालों के पास एक से अधिक मकानों के होने से सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है। केंद्र में शहरी विकास मंत्रालय और राज्यों में नगरीय विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे बढ़े हंै। इसके बावजूद सबको आवास का सपना पूरा नहीं हो पा रहा है। गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए वहनीय आवासीय योजनाओं का प्रावधान, इनके नियम-कायदे और नित नई नीतियां बन रही हैं, इसके बावजूद दो करोड़ से अधिक लोगों के पास आवास सुविधा नहीं होना गरीबों के लिए बनाए लाखों मकानों में रहवास की दरकार और एक करोड़ से अधिक घरों में कोई रहने वाला नहीं होना विसंगति दर्शाता है। मप्र के अलावा महाराष्ट्र में 42, आंध्र प्रदेश 37, तेलंगाना में 24, गुजरात में 18, तमिलनाडु में 11 फीसदी और अन्य प्रदेशों में बड़ी सं या में इस तरह के आवास खाली पड़े हैं। सिर ढकने को छत नहीं होने के बावजूद इन आवासों का खाली रहना विचारणीय है। आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय के अनुसार, खाली मकानों में 2,24,000 घर जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के तहत बनाए गए हैं और 14,448 घरों का निर्माण राजीव आवास योजना (आरएवाई) के तहत किया गया है, जिसे अब बंद कर दिया गया है और जून 2015 में शुभारंभ किए गए प्रधानमंत्री आवास योजना में स िमलित किया गया है। यह जानकारी तब मिली है जब पांच साल के दौरान, मलिन बस्तियों में रहने वाले भारतीयों के अनुपात शहरी आबादी का 17 फीसदी से बढ़ कर 19 फीसदी हुआ है (आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार) और 33,000 में से 19,000 मलिन बस्तियां सरकार (2012 डेटा) द्वारा स्वीकार नहीं किए हैं। पक्का आशियाना मिला नहीं, कच्चा घरौंदा भी गया एक तरफ तो देश और मध्यप्रदेश में हर गरीब को रोटी, कपड़ा के अलावा मकान देने की मुहिम चलाई जा रही है और दूसरी तरफ सरकार द्वारा गरीबों के आवास तोड़कर उन्हें वैकल्पिक आवास तक नहीं दिये जा रहे हैं। गरीबी रेखा के नीचे गुजर कर रहे ऐसे तमाम हितग्राही पूरे प्रदेश में हैं जिन्हें इंदिरा आवास योजना, मु यमंत्री आवास योजना, होम स्टेड योजना, वनाधिकार योजना, मु यमंत्री अंत्योदय योजना आदि तमाम योजनाओं के बावजूद एक आशियाने के लिए भटकना पड़ रहा है। स्थिति यह है कि मध्यप्रदेश में अभी भी 24 लाख से अधिक परिवार छत विहीन मकानों में रहते हैं। केंद्र पोषित इंदिरा आवास योजना के तहत सरकारी मदद से पक्के आशियाने की चाह रखने वाले प्रदेश के 96 हजार परिवार परेशान हैं। पहली किस्त मिलते ही इन्होंने पक्के मकान की दीवारें खड़ी कर ली, लेकिन दूसरी किस्त मिली ही नहीं। इनमें से आठ हजार तो वे लोग हैं जो सरकारी मदद के भरोसे कच्चे घरोंदे तोड़ कर पक्का मकान बना रहे थे। उनके सर पर तो छत तक नहीं बची है। दरअसल गरीब परिवारों की फजीहत योजना के क्रियान्वयन में लापरवाही के कारण हुई है, जिसके चलते केंद्र सरकार ने दूसरी किस्त रोक दी है। उल्लेखनीय है कि इंदिरा आवास योजना के तहत सरकार गरीबों को पक्का आशियाना बनाने के लिए आर्थिक मदद देती है। वर्ष 2014-15 के लिए प्रदेश में 1 लाख 10 हजार मकान बनाने की मंजूरी दी गई। इनमें से 96 हजार परिवारों को पहली किस्त (35 हजार) भी मिल गई। मगर भवन निर्माण का काम इस स्तर पर शुरू नहीं हो सका। इसमें कुछ लापरवाही सरकारी तंत्र की तो कुछ हितग्राहियों की भी रही। इसका सर्वाधिक खामियाजा उन 8 हजार परिवारों को उठाना पड़ रहा है, जिन्होंने सरकारी मदद की आस में कच्चे घरौंदे तोड़ पक्का मकान बनाने का काम शुरू कर दिया। बिना छत बारिश का मौसम इन्हें भारी पड़ रहा है। ये परिवार पहली किस्त से दीवारें खड़ी कर चुके हैं और इसका सरकारी एजेंसी से भौतिक सत्यापन भी करा दिया है। मगर दूसरी किस्त नहीं मिल पा रही है। इसकी वजह है समग्र रूप से प्रदेश का योजना के क्रियान्वयन में खराब प्रदर्शन। इसके चलते केंद्र सरकार ने आगे की राशि रोक ली है। इन परिवारों का कहना है कि योजना में दूसरे लोग अगर ठीक काम नहीं कर रहे तो हमारा क्या कसूर। बताया जाता है कि प्रदेश के हर जिले में लोग इंदिरा आवास योजना के तहत पक्के मकान बनाने के लिए परेशान हैं किंतु अलीराजपुर, अशोकनगर, बालाघाट, छतरपुर, दमोह, कटनी, मुरैना, शाजापुर, सीधी, सिंगरौली आदि जिलों में एक भी मकान का सत्यापन नहीं हो पाया है। इस कारण इनका आशियाना अभी भी अधूरा पड़ा हुआ है। इस संदर्भ में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि केंद्र सरकार से इस मसले पर चर्चा की गई है। जल्द ही राशि मिल जाएगी। वह कहते हैं कि प्रदेश के हर व्यक्ति का अपना पक्का मकान हो इसके लिए प्रदेश सरकार निरंतर प्रयासरत है। 24 लाख अभी भी वंचित प्रदेश में 24 लाख से अधिक परिवार अभी भी छत विहीन मकानों में रहते हैं। वैसे इनकी सं या घटी है। जनगणना 2011 के अनुसार प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में एक करोड़ 35 लाख परिवारों में से 37 लाख 14 हजार 723 कच्चे मकानों में निवास करते थे, लेकिन केन्द्र सरकार की इंदिरा आवास योजना सहित मप्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई मु यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में अभी तक 13 लाख परिवारों को पक्के मकान निर्मित कर दिए जा चुके हैं, लेकिन इन मकानों की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं। इसी कारण पिछले महीने एक बैठक में सीएस एंटोनी डिसा ने कहा था कि प्रत्येक गांव में रॉ- मटेरियल एक साथ क्रय किया जाए, जिससे मकानों के निर्माण की गुणवत्ता में सुधार आ सके। वैसे निर्माण सामग्री की दरें महंगी होने से 70 हजार या सवा लाख रुपए में मकान का निर्माण संभव नहीं है। प्रदेश में गरीबों को पक्के मकानों की दरकार सालों से रही है। छत विहीन आवासों में अभी भी प्रदेश के 24 लाख 9 हजार 854 परिवार निवास करते हैं, जबकि इसके पहले यह सं या 37 लाख 14 हजार 723 हुआ करती थी। बीते छह सालों में 13 लाख 4 हजार 869 परिवारों को पक्के मकान बनाकर दिए जा चुके हैं, परन्तु केन्द्र सरकार द्वारा तय मापदण्ड में इंदिरा आवास योजना में प्रत्येक पक्के कुटीर का निर्माण 70 हजार रुपए में कराया जाता है, जबकि मु यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में यह मकान सवा लाख रुपए में। मु यमंत्री अंत्योदय आवास योजना में भी बहुत कम राशि 70 हजार में मकान निर्मित कर आवंटित किया जाता है। इतनी कम राशि में 15+20 फीट के मकान और उसमें टायलेट का निर्माण आज के समय में संभव नहीं है। क्योंकि इस समय रेत, गिट्टी, सीमेंट तथा ईट खरीदी की दर बहुत महंगी हो चुकी है। इसके साथ ही आवास निर्माण करवाने वाले ठेकेदार को मजदूरी के साथ ही स्वयं की मेहनत भी निकालना होता है। यदि उसे उक्त निर्माण में कोई फायदा नहीं होगा, तो ठेकेदार काम ही नहीं करेगा। इस कारण पक्के कुटीर निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि हितग्राही को भी इसमें 10 प्रतिशत राशि मिलाना पड़ता है। सरकार ने अभी तक इंदिरा आवास में 7 लाख 36 हजार 337 आवास, होम स्टेड योजना में एक लाख 36 हजार 190, वनाधिकार योजना में 53 हजार 360 मकान, मु यमंत्री अंत्योदय योजना में 50 हजार 405, मु यमंत्री ग्रामीण आवास में 3 लाख 28 हजार 577 मकानों का निर्माण किया है। 20 हजार मकान जर्जर एक तरफ जहां प्रदेश में आज भी 24 लाख परिवार छत विहीन मकान में रह रहे हैं वहीं, प्रदेश में बन कर तैयार करीब 9 हजार मकान जर्जर हो गए हैं। जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) स्कीम के तहत प्रदेशभर में 25 हजार मकान दो साल पहले बनकर तैयार हैं, लेकिन इनमें से करीब 5 हजार मकान का ही आवंटन हो पाया है। 20 हजार के लगभग मकान अब भी खाली हैं। शहरों के बीचों-बीच बने इन मकानों पर 780 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। इस स्कीम के तहत भोपाल में सबसे अधिक 11,500 मकान बनाए गए हैं, इसमें से करीब दो हजार मकान आवंटित हो चुके हैं बाकी के साढ़े 9 हजार मकान अब भी खाली हैं। ये मकान अब जर्जर होने लगे हैं। इन मकानों की दरवाजे, खिड़कियां टूटने लगी हैं दीवारों व छतों से सीमेंट झडऩा शुरू हो गया है। इसके बाद भी मकान गरीबों को आवंटित नहीं हो पा रहे हैं। इसकी मु य वजह हितग्राहियों द्वारा उनके हिस्से के रुपए नहीं दिया जाना है। प्रदेश में भोपाल, जबलपुर, इंदौर और उज्जैन शहरों को जेएनएनआरयूएम योजना में शामिल किया गया था। इसके तहत इन शहरों को झुग्गी मुक्त बनाए जाने के लिए ई-डब्ल्यूएस आवास बनाए गए यह मकान 2008 से 2012 के बीच में बने थे। ये मकान सभी शहरों में बनकर तैयार हो चुके हैं। अधिकतर मकान दो साल पहले बनकर तैयार हो गए थे, इसके बावजूद भी 80 फीसदी मकानों को आवंटन नहीं हो पा रहा है। स्थिति यह है कि इन मकानों में लोग अवैध रूप से कब्जा करने लगे भोपाल सहित अन्य शहरों में हाउसिंग बोर्ड, विकास प्राधिकरणों और नगरीय निकायों द्वारा यह मकान बनाए गए हैं। प्रदेश में इंदिरा आवास योजना के हाल लक्ष्य :112752 (परिवार) मंजूर : 110727 पहली किस्त मिली: 96864 दूसरी का इंतजार: 8733 (नोट : आंकड़े वर्ष 2014-15 के ) इन जिलों में सर्वाधिक ऐसे परिवार पूर्वी निमाड़: 1594 उज्जैन: 1203 धार: 1064 खरगोन: 925 बैतूल: 468 बुरहानपुर: 390 देवास: 296 इंदौर: 259 रतलाम: 240 जबलपुर: 218 श्योपुर: 212 आवंटी नहीं दे पा रहे राशि जेएनएनयूआरएम स्कीम के तहत बने मकानों को उन लोगों को दिया जाना है, जिनकी झुग्गियों की जगह से हटाया गया है। मकानों के लिए हितग्राहियों को 1 लाख 50 हजार रूपए सरकार को देना है। यह राशि आवंटी नहीं दे पा रहे हैं इस वजह से मकान खाली पड़े हैं। हालांकि इन हितग्रहियों के लिए सरकार अपनी गारंटी पर लोन मुहैया करा रही है, लेकिन की प्रक्रिया के लिए दस्तावेज न होने सहित अन्य कारणों से इन आवंटियों को लोन भी नहीं मिल रहा है इन समस्याओं के चलते इन आवासों की स्थिति खराब होती जा रही है। केंद्र द्वारा कटौती प्रदेश सरकार ने वर्ष 2022 तक हर गरीब को घर देने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन योजना में केंद्र सरकार द्वारा कटौती कर दी गई है। इसके कारण अब प्रदेश सरकार की परेशानियां बढ़ती दिख रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों को मकान बनाने के लिए इंदिरा आवास योजना के तहत राशि दी जाती है। योजना में एक व्यक्ति को करीब 70 हजार रुपए दिए जाते हैं। यह राशि वापस नहीं करनी होती है, इस कारण अधिकारियों द्वारा इस योजना के तहत बहुत कम मकानों को मंजूरी दी जा रही है। यदि जमीनी स्तर पर देखें तो एक पंचायत में मुश्किल से सालभर में एक या दो मकान ही दिए जाते हैं। इनमें भी आरक्षण का मामला फंस जाता है। इधर मु यमंत्री आवास योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों को मकान बनाने के लिए एक लाख रुपए का ऋण दिया जा रहा है। इसमें से 50 हजार रुपए की राशि उनको किश्तों में वापस करनी होगी। इस योजना के तहत तो बड़ी सं या में गरीबों को मकान के लिए ऋण दिया जा रहा है, लेकिन इंदिरा आवास योजना के तहत बहुत कम गरीबों को मकान आवंटित किए जा रहे हैं। यह है योजना एक मकान की कीमत 3 लाख 90 हजार रूपए केंद्र सरकार की राशि 96,800 रुपए राज्य सरकार की राशि 38,700 रूपए सरकारी निर्माण एजेंसी की राशि 1,04,500 रुपए हितग्राहियों को देना है 1,50,000 रूपए होम स्टेड में फंसे 15 हजार परिवार केंद्र सरकार ने गरीबों को आवास देने के लिए वर्ष 2010 में इंदिरा आवास योजना सहित होम स्टेड योजना शुरू की थी। इस योजना में बीपीएल परिवारों को 45 हजार रुपए दो किस्तों में दिए जाने थे। पहले ऑफ लाइन व्यवस्था होने के कारण पहली किस्त तो हितग्राहियों को मिल गई, लेकिन अब केंद्र सरकार ने इस योजना को ऑनलाइन कर दिया है, जिससे पैसा सीधे हितग्राही के खाते में पहुंच सके, लेकिन पोर्टल में तकनीकी खामी होने के कारण फंड सेंक्शन नहीं हो पा रहा है और न ही हितग्राही के खाते में पहुंच पा रहा है। इस मामले में ग्रामीण एवं पंचायत विकास विभाग के मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि इस मामले में अफसरों से जानकारी लेकर आगामी कार्रवाई करेंगे। अगर पोर्टल की समस्या के कारण होम स्टेड योजना के हितग्राहियों को भुगतान नहीं हो रहा है, तो दिल्ली में मंत्रालय से चर्चा कर समस्या का निराकरण कराया जाएगा। जब इस विषय में ग्रामीण रोजगार डायरेक्टर वीके ठाकुर से बात की, तो उन्होंने बताया कि ऑनलाइन प्रॉब्लम होने के कारण भुगतान नहीं हो पा रहे हैं। हमने इस मामले की जानकारी केंद्र सरकार को भेज दी है। ज्ञातव्य है कि होम स्टेड योजना के तहत हितग्राही को पट्टे की जमीन देने के बाद एक कमरा, किचन और लेट-बाथ के निर्माण के लिए 45 हजार रुपए दिए जाने थे। मध्यप्रदेश में इस योजना के तहत वर्ष 2011-12 व वर्ष 2013-14 के हजारों हितग्राहियों को मकान बनाने के लिए 45 हजार रुपए मिलना थे, लेकिन केंद्र सरकार से एक किस्त मिलने के बाद दूसरी किस्त ऑनलाइन प्रक्रिया में फंस गई। उल्लेखनीय है कि पहली होम स्टेड योजना वर्ष 2010-11 में शुरू हुई तथा 2011-12 में स्वीकृत की गई। दूसरी योजना 2012-13 में शुरू हुई तथा 2013-14 में स्वीकृत हुई। वर्ष 2011-12 व वर्ष 2013-14 में होम स्टेड योजना के तहत 15 हजार परिवार अधूरे मकान बनाकर इस योजना मे फंस गए हैं। ये सभी मकान अधूरे पड़े हैं। अब 15 लाख घर देगी सरकार पुरानी योजनाओं के तहत बने मकान अभी अधर में है कि राज्य सरकार ने प्रदेश के करीब 15 लाख (10 लाख ग्रामीण व 5 लाख शहरी) लोगों को अपना घर देने की तैयारी कर ली है। मप्र आवास गारंटी विधेयक 2015 के तहत प्रदेश के ऐसे स्थाई निवासी को रियायती दर (अफोर्डेबल प्राइस) पर जमीन अथवा मकान मिलेगा, जिनके पास ना तो अपनी छत है और ना ही जमीन। खासबात यह है कि इस कानून के दायरे में आने के लिए आय की सीमा और जाति के आरक्षण का बंधन नहीं है। इसके लिए केवल एक शर्त रहेगी कि परिवार में किसी भी सदस्य के नाम पर जमीन यास मकान नहीं होना चाहिए। विधेयक के ड्रा ट को वरिष्ठ सचिवों की कमेटी ने स्वीकृति दे दी है। आश्रय शुल्क के रूप में जमा करीब 500 करोड़ रुपए जमीन खरीदकर कानून के दायरे में आने वाले परिवारों को प्लॉट अथवा मकान बनाकर दिए जाने का प्रावधान किया गया है। बता दें कि भोपाल में भोपाल में 50 व इंदौर में 87 करोड़ जमा हैं। बिल पर काम कर रही कमेटी ने फस्र्ट फेस में 2011 की जनगणना को आधार बनाते हुए करीब एक लाख पात्र लोगों को चुना है। इसमें शहरी क्षेत्र में 42 हजार 312 तथा ग्रामीण क्षेत्र में 23 हजार 23 लोग भूमिहीन मिले हैं। पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि आवास गारंटी बिल के तहत पात्र नहीं होने के बाद भी यदि कोई भूमिहीन आवेदन देता है तो उसके बारे में निर्णय शहर में नगर निगम या ग्रामीण इलाकों में नगर पालिका, नगर पंचायत व ग्राम पंचायत लेंगे। आवासहीन लोगों को मकान का अधिकार देने के लिए नए कानून का ड्रा ट तैयार हो गया है। इसके लिए 28 जुलाई को मंत्रिमंडल उप समिति की बैठक प्रस्तावित है। सरकार लोगों को अपना घर देने के लिए संकल्पित है। प्रस्तावित ड्रा ट के मुताबिक आवास गारंटी कानून में हर भूमिहीन को लैट का लाभ देने के लिए हाउसिंग बोर्ड और विकास प्राधिकरण के ईडब्ल्यूएस और एलआईजी भी एक्ट के अधीन आएंगे। शासन चाहेगा तो उसे भूमिहीनों को प्राथमिकता के आधार पर देगा। एलआईजी में आय की सीमा 6 लाख रुपए और ईडब्ल्यूएस में 3 लाख रुपए है। शहर की सीमा से सटे 8 किमी के क्षेत्र में जितने भी बिल्डिंग प्रोजेक्ट हैं उनसे पंचायत कॉलोनाइजिंग एक्ट के तहत जो 6 फीसदी आश्रय शुल्क जमा होगा, उसी का उपयोग आवास गारंटी एक्ट में किया जाएगा।

10,021 एनजीओ पर लगा बैन

धंधेबाजों की 1,41,924 करोड़ की कमाई पर पहरा!
भोपाल। पिछले 15 सालों में 165 देशों से 141924.53 करोड़ रूपए लेकर मौज करने वाले करीब 33,000 गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) में से केंद्र की मोदी सरकार ने 10,021 एनजीओ पर बैन लगा दिया है। इसमें मप्र के भी 250 एनजीओ हैं। केंद्र सरकार का मानना है कि इन संगठनों द्वारा विदेशों से मिलने वाली सहायता का दुरूपयोग किया जा रहा है। जहां कुछ एनजीओ सरकारी योजनाओं का विरोध करने तो कुछ देश में धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने के काम कर रहे हैं। बताया जाता है कि खुफिया जांच एजेंसी आईबी ने कई स्तरों और कई कोण से जांच के बाद इन एनजीओ की रिपोर्ट सरकार को दी थी। जिसके आधार पर सरकार ने इन एनजीओ के विदेशी अनुदान लेने पर बैन लगा दिया है यानी उनके फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया है। ज्ञातव्य है कि इससे पहले 2012 में 4,138, 2013 में 4 और 2014 में 49 एनजीओ पर यूपीए सरकार बैन लगा चुकी है। जबकि भारत में विदेशी धन प्राप्त करने के लिए विदेशी योगदान के(विनियमन)अधिनियम (एफसीआरए) के तहत 33,091 गैर-सरकारी संगठन पंजीकृत हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय गैर सरकारी संगठनों को 165 देशों से अनुदान मिलता है। जिसमें सर्वाधिक सामाजिक क्षेत्र के लिए, उसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, रूरल डेवलपमेंट, धार्मिक गतिविधियों, अनुसंधान, महिला उत्थान, बाल कल्याण, रोजगार, पर्यावरण, खेती आदि के लिए मिलता है। आईबी की जांच में यह बात सामने आई है कि बैन किए गए एनजीओ की वार्षिक रिपोर्ट में कई तरह की खामियां पाई गई हैं जो देश हित में नहीं है। गैर सरकारी संगठन के पंजीकरण को रद्द करने के लिए कारणों में-रिटर्न दाखिल नहीं करना, धन का गलत उपयोग, निषिद्ध गतिविधियों के लिए धन स्वीकार करना, कानूनी खर्च के वित्त पोषण, भारतीय गैर सरकारी संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं की रिट याचिकाएं और विदेशी कार्यकर्ताओं को विदेशी गैर सरकारी संगठनों द्वारा अज्ञात भुगतान करना शामिल हैं। सरकार का कहना है कि इन एनजीओ ने आयकर रिटर्न दाखिल नहीं किया और साथ ही इन्होंने उन कार्यों के लिए चंदा लिया जिसे करने की मनाही है। इसमें जमानत की फंडिंग से लेकर अदालत में दाखिल की जाने वाली याचिका तक का खर्च शामिल है। आईबी के सूत्रों का कहना है कि अभी हजारों एनजीओ की गतिविधियां संदेह के घेरे में है और उनकी पड़ताल हो रही है। मप्र को 15 सालों में मिले 5,34,57,02,196 अगर मध्य प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो यहां के करीब 500 एनजीओ ने पिछले 15 साल में करीब 5,34,57,02,196 रूपए की विदेशी सहायता पाई है। जिनमें आधे से अधिक की कार्य प्रणाली संदेह के घेरे में है। संदेहास्पद एनजीओ की जांच चल रही है। अ ाी तक आईबी की जांच में जिन एनजीओ की गतिविधियां संदेहास्पद मिली है उनके खिलाफ कार्रवाई की गई है। वर्ष 2012 में ऐसे ही 92 एनजीओ के फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया था। वहीं वर्ष 2014 में 1 एनजीओ पर बैन लगा था। जबकि इस बार सरकार ने 250 एनजीओ पर बैन लगाया है। आईबी इन एनजीओ की गतिविधियों को संदिग्ध मानती है। बताया जाता है कि जांच में अगर किसी के खिलाफ गंभीर मामले सामने आए तो उन पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। 26 जुलाई को लोकसभा में सरकार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, 2010-2011 में मप्र के 468 एनजीओ को 1456495900.11 रूपए विदेशी सहायता के रूप में मिली थी। इसी प्रकार वर्ष 2011-2012 में 474 एनजीओ को 1547493703.80 रूपए, वर्ष 2012-2013 में 363 एनजीओ को 1660899947.66, वर्ष 2013-2014 में 54 एनजीओ को 249535061.58 रूपए, वर्ष 2014-2015 में 78 एनजीओ को 4687550425.25 रूपए और इस साल यानी वर्ष 2015-2016 में 21 जुलाई तक 10 एनजीओ को 408416709.26 रूपए मिले हैं। इन रूपयों का कहां और किस उद्देय से खर्च किया गया है उसमें कई विसंगतियां सामने आई हैं। जिससे एनजीओ संदेह के घेरे में हैं। मप्र में इन एनजीओ पर बैन समरीतन सेवा सदन, सहयोगिनी ट्रस्ट, साहस वॉलेंट्री सोसायटी, सागर महिला एवं बाल समिति, साधना विनय मंदिर, रिसोर्सेस डेव्लपमेंट इन्सिट्यूट, रिहैबीलिएशन कम वर्क सेंटर फॉर फिजिकली हैंडिकैप्ड, रिच क यूनिटी डेव्लपमेंट प्रोजेक्ट, रामा महिला मंडल, राहोद एजुकेशन सोसायटी, रफी अहमद किदवई एजुकेशन सोसायटी, पुष्पांजलि छात्र समिति, पुष्पा कान्वेंट, एजुकेशन सोसायटी, प्रखर प्रज्ञा शिक्षा प्रसार एवं समाज कल्याण समिति सागर, पिपुल्स फॉर एनिमल, न्यू शिवम व्यावसायिक युवती मंडल, नेशनल लॉ इन्सिट्यूट युनिवर्सिटी, नर-नारायण सेवा आश्रम, एमपी ब्रांच ऑफ नेशनल एसोसिएशन फॉर दा बलाइंड, शोसित सेवा संस्थान, श्रीकृष्ण ग्रामोत्थान समिति, श्रीकांत विकलांग सेवा ट्रस्ट, श्री चित्रगुप्त शिक्षा प्रसार समिति, श्री शिव विद्या पीठ, श्रम निकेतन संस्थान, शिवपुरी जिला सेवा संघ, शिव कल्याण एवं शिक्षा समिति, शिक्षा एवं ग्रामीण विकास केंद्र, शांति महिला ग्रह उद्योग कूप सोसायटी, शांति बाल मंदिर, श्री स्वामी के.विवेकानंद कुस्ता मुक्ता आश्रम, सेठ मन्नुलाल दास ट्रस्ट हॉस्पिटल, सतपुड़ा आदिवासी विकास समिति, सार्वजनिक सेवा समाज, सार्वजनिक परिवार कल्याण एवं सेवा समिति, शंकर,संजीवन आश्रम, संगम नगर शिक्षा समिति, समदर्शी सेवा केंद्र, अंजुमन इस्लामिया, अदिम जाति जाग्रति मंच, आर्दश लोक कल्याण (आलोक) संस्थान, आचार्य विद्यासागर गाऊ संवर्धन केंद्र, अभिव्यक्ति, असरारिया अल्पसं यक एजुकेशन चिकित्सा एवं वेलफेयर सोसायटी, आरोही-डेव्लपमेंट एवं रिसर्च सेंटर, अर्ध आदिवासी विकास संघ, मिशन हॉस्पिटल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन गल्र्स प्राइमरी स्कूल, मिशन फॉर वेलफेयर एवं ट्रिबल चाइल्ड एंड वुमन, मेथोडिस्ट वुमन वर्क , मेथोडिस्ट वुमन प्रोजेक्ट, मिनू क्रिश्चन एजुकेशन सोसायटी, मेडीकेयर एंड रिसर्च फाउण्डेशन, मसीही प्राथमिक विद्यालय, मसीही माध्यमिक विद्यालय, मसीही कन्या विद्यालय हॉस्टल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मंजू महिला समिति, मंदसौर जिला समग्र सेवा संघ, मालवांचल विकास परिषद, मैत्री एजुकेशनल एंड कल्चरल एसोसिएशन, महिला परिषद, महिला एजुकेशन सोसायटी, महिला अध्ययन केंद्र, मध्यप्रदेश ग्रामीण विकास मंडल, मध्यप्रदेश हैरीटेज डेव्लपमेंट ट्रस्ट, माधवी महिला कल्याण समिति, मातृ सेवा संघ, लुथेरन मिशन हॉस्टल, लॉयन चैरीटेबल ट्रस्ट, कोठारी एजुकेशनल फाउण्डेशन, किसान खादी ग्रामद्योग संस्थान, खंडवा डिस्ट्रिक्ट वुमन वर्क, कर्मपा मल्टीपरपस कूप सोसायटी, कानपुर मिशन प्राइमरी स्कूल, कला जाग्रति परिवार, जोहरी क्रिएशन स्टूडेंट हॉस्टल, जन-कल्याण आश्रम समिति, जाग्रति सेवा संस्था, जगत गुरू राम भद्रचर्या विकलांग सेवा संघ, जबलपुर मिशन हॉस्पिटल प्रोजेक्ट-1641, जे.डी. सोशल डेव्लपमेंट आर्गनाइजेशन, इंदौर स्कूल ऑफ सोशल वर्क, इंदिरा गांधी एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, इंडिया चर्च काउंसिल डिसीप्स ऑफ क्रिस्ट, हेवेंली पाइंट ऑफ एजुकेशन सोसायटी, हरित, एच.सी. मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, ग्वालियर फॉरेस्टर सोसायटी, गुरू तेज बहादुर चैरीटेबल हॉस्पिटल ट्रस्ट, गुरू राजेंद्र सूरी चिकित्सालय एंड नेत्र अनुसंधान केंद्र, गायत्री शक्ति शिक्षा कल्याण समिति, ग्रासिम जन कल्याण ट्रस्ट, ग्रामोदय चेतना मंडल, गर्वमेंट पॉलिटेक्निक, गौवंश रक्षा समिति (अक्षय पशु-पक्षी सेवा सदन), गोंडवाना फाउण्डेशन, गरीबनवाज फाउण्डेशन फॉर एजुकेशन, जी.सी. मनोनित मिशन, गैस पीडि़त राहत समिति, गंगापुर युवा क्लब, गगन बाल मंदिर, फ्रेंड्स रूरल सेंटर, इकोनॉमी लाइफ कमेटी, ई.बी.ए. मिशन को-एजुकेशनल स्कूल, ईएलसी वेलफेयर एसोसिएशन, डॉ. पाठक चाईल्ड एंड मदर वेलफेयर सोसायटी,डिस्ट्रीक्ट वुमन वर्क, दिशा सामाजिक एंड विकास युवा मंडल, ड्यिोसेस ऑफ जबलपुर, धनवंतरी शिक्षा समिति, धनंतरी क्रिश्चन हॉस्पिटल, डेवलपमेंट फंड बोर्ड ऑफ सेकण्ड्री एजुकेशन, दारूल अलूम, कार्पोरेशन बास्केटबॉल ट्रस्ट, कनज्यूमर एंड राईट एसोसिएशन, काफ्रेंस ऑफ एसएस पीटर एंड पॉल (सोसायटी ऑफ सेंट. विनसेट डी पॉल), क यूनिटी हेल्थ सेंटर, क्रिश्चया बंधूरकूलम फैमली हेल्पर प्रोजेक्ट, क्रिश्चन हॉस्पिटल वेस्ट निमार, क्रिश्चन हॉस्पिटल दमोह, क्रिश्चन हॉस्पिटल, क्रिश्चन हिंदी मिडिल स्कूल, क्रिश्चन बॉयज एंड गल्र्स हॉस्टल, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडिया एंड विजिवल सर्विस, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडियो एंड ऑडियो विजिवल, चिनमय सेवा ट्रस्ट, चिल्ड्रन होम, छत्तीसगढ़ विकास परिषद, चांदबाद विद्या भारती समिति, चंबल बाल एवं महिला कल्याण समिति, सेंट्रल एमप्लाई स्पोंसर्स रिलीफ ट्रस्ट, सीएएसए पतपरा मंडला डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, बरगेस इंग्लिश हायर सेकेण्ड्री स्कूल, बुंदेलखंड क्रिश्चन सोशल सर्विस, ब्रिलियंट स्टार एजुकेशन सोसायटी, ब्राइट स्टार सोशल सोसायटी, भोपाल टेक्निकल एंड ट्रेनिंग सेंटर, भोपाल स्कूल ऑफ साईंस, भोपाल सेल्सस सोसायटी, बाल प्रगति एवं महिला शिक्षा संस्थान, अविनाश, ऑडियो विजिवल प्रोजेक्ट, सचिदानंद हॉस्पिटल, आसरा सामाजिक कल्याण समिति, एरिया एजुकेशन कमेटी, अद्र्ध आदिवासी विकास संघ, नागरथ चेरिटेबल पुष्पकुंज हॉस्पिटल, पार्टीसिपेट्री रिसर्च एंड इन्वेंसन इन, संवाद, सदर मिशन प्राइमरी स्कूल, साइकोन शिक्षा एंव ग्रामीण विकास समिति, भोपाल एसडीए इंग्लिश स्कूल, श्री अरबिंदो एंड मदर वनिता एमपॉवरमेंट ट्र्स्ट, चेतना मंडल, सोशल इकोनोमिक विलेजर्स एडवांसमेंट, तुलसी मानव कल्याण सेवा संस्थान, क्रिश्चन एनडेवर हॉस्टल, लोक कल्याण समिति, बीसीएम इंटरनेशनल, शांतिपुर लेप्रोसी हॉस्पिटल, सानिध्य, पी. नाथूराम चौबे महिला समिति, आधार सेवा केंद्र, दा गोस्पल सेंट्रल चर्च, राजीव गांधी प्राथमिक शिक्षा मिशन, खरूना चिल्ड्रन हॉस्टल, डब्ल्यूएमई ऑफ डग्लस मेमोरियल चिल्ड्रन होम, मासी उच्चतर विद्यालय, चंबल पर्यावरण सोसायटी, अमरजेंसी रिलीफ कमेटी, भारत सेवक समाज, क्रिश्चन बॉयज हॉस्टल, नव सर्वोदय विकास समिति, खुरई टेक्निकल एजुकेशन सोसायटी, केंसर केयर ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउण्डेशन, तोलाबी चैरीटेबल ट्रस्ट, महर्षि महेश योगी वेदिक विश्व विद्यालय, वॉकेशनल ट्रेनिंग इंसिट्यूट स्कूल, सदाशिव शांति शिक्षा समिति, अनुसूचित जाति/ जनजाति कल्याण संघ, मोमिन वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी, जनसेवा शिक्षा समिति, शिव शिक्षा समिति चुरहट, मध्यप्रदेश आदिवासी बाल महिला कल्याण समिति, खादी ग्रामोद्योग सेवा आश्रम, हेल्थ एजुकेशन एंड डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, महिला जागरण समिति, सतपुड़ा इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, नव क्रांति शिक्षा समिति, मसीही माध्यमिक विद्यालय, कृषक महिला समाज पानधुक्रा, एसोशिएशन फार कंप्रेसिंव रूरल असिसटेंस, कैथोलिक संस्थान जसपुर अग्रिकोण परीक्षेत्र, लुथरन होस्टल, आदिवास विकास एवं प्रशिक्षण संस्थान,सरस्वती महिला कल्याण, कांग्रेगेशन ऑफ सिस्टर ऑफ द एडोरेशन ऑफ द ब्लेस्ड सिस्टर्स, गजेंद्र शिक्षा प्रसार समिति, सैन्ट जॉर्ज कांवेंट इंग्लिस स्कूल, महाकोशल महिला शिक्षा समिति, महिला कौशल शिक्षा समिति, जयशक्ति ट्रस्ट सागर, किशन सेवा समिति, संजय बाल सेवा, उद्योग मंडल गोहारा, आश्रय सर्विस फार रूरल पूर, द नागपुर, लतहारन मिशन ऑफ सोल्यूशन, शर सयैद एजूकेशनल एण्ड शोसल वेलफेयर सोसायटी, योगा रिसर्च इंन्सट्यूट, नेशनल भोपाल डास्टर रिलाफ आर्गनाइजेशनशन, सृजन वेलफेयर सोसायटी, पर्यावरण सुधार समिति, सेंटर फॉर एंटरप्रीनरशिप डवलपमेंट एम. पी. झरनेश्वर महिला विकास एण्ड शिक्षण समिति, ग्रामीण विकास परिषद, फेडरेशन ऑफ एम.पी. वूमेन एण्ड चाइल्ड वेलफेयर एजेंसीज, महारनी लक्ष्मी बाई भोपाल जन कल्याण समिति, मीडिया सेंटर इंटर नेशनल हाउस, नव आदर्श शिक्षा एण्ड ग्रामीण विकास समिति, एम.पी. सिस्टर सोसायटी, संदेश मिशन हॉस्पिटिल,बंजा बामिया डबलपमेंट प्रोजेक्ट, जनहित सेवा केंद्र, कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम, एम.पी. पस्तोरस कॉर्नफ्रेंस, श्री शांति शिशु मंदिर समिति, स्कॉट मेमोरियल वूमेन होस्टल, सरस्वती सेंट्रल अकादमी एजूकेशनल सोसायटी, वोल्यूनटरी एण्ड डवलपमेंट सोसायटी, भोपाल डॉयोसेेस लेज डवलपमेंट प्रोग्राम, केनेडियन प्रेसवाइटेरियन, मिशनरी कमेटी, मानव विकास विज्ञान केंद्र, हॉयर एजूकेशन लायब्रेरी प्रोजेक्ट, विश्वास कल्याण समिति, आदर्श शिशु बिहार, प्यारे लाल गुपता समिति ल्यूपिन मानव कल्याण एवं शोध संस्थान, नई किरन महिला परिषद आदि। विदेशी योगदान के आंकड़ों पर गौर करें तो ताजा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2013-14 की तुलना में वर्ष 2014-15 में भारतीय गैर सरकारी संगठनों के लिए विदेशी धन दोगुनी हुई है, लेकिन 10,000 एनजीओ पंजीकरण के रद्द होने के साथ ही विदेशी योगदान में गिरावट होने की संभावना है। 26 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पेश हुए आंकड़ों से पता चलता है कि, भारत को मिलने वाली विदेशी अनुदान में से 65 फीसदी हिस्सेदारी सामुहिक रुप से दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश (एकीकृत), कर्नाटक और केरल की है। विश्लेषण से पता चलता है कि चार वर्षों के दौरान यानी वर्ष 2011-12 से 2014-15 के बीच भारतीय गैर सरकारी संगठनों को विदेशी अनुदान के रूप में मिली 45,300 करोड़ रुपए में से 29,000 करोड़ रुपए राष्ट्रीय राजधानी और इन चार राज्यों (तेलंगना के बाद पांच) को प्राप्त हुआ है। पिछले चार वर्षों के दौरान, दिल्ली में संगठनों को 10,500 करोड़ रुपए मिले हैं जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र को 5,000 करोड़ रुपए प्राप्त हुए हैं। विकास में रोड़े बने एनजीओ आईबी की रिपोर्ट के अनुसार विदेशों से करोड़ों रुपए का फंड लेकर कुछ एनजीओ भारत की खराब तस्वीर विदेशों में प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई आईबी रिपोर्ट में विदेशी अनुदान प्राप्त करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरनाक करार देते हुए यहां तक कहा गया है कि जीडीपी में दो से तीन फीसदी की कमी के लिए यह एनजीओ जि मेदार हैं। केंद्र में मोदी सरकार का गठन होने के बाद से ही जिस तरह यह रिपोर्ट सामने आई उससे यह स्पष्ट है कि उसे पहले ही तैयार कर लिया गया होगा। आश्चर्य नहीं कि उसे जानबूझ कर दबाए रखा गया हो। एनजीओ को विदेशी सहायता लेने के लिए विदेशी सहायता नियामक कानून (एफसीआरए) के तहत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होती है। इसके लिए एनजीओ को बताना पड़ता है कि विदेशी मदद का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए किया जाएगा। आईबी की रिपोर्ट से साफ है कि कुछ एनजीओ विदेशी सहायता का उपयोग सामाजिक कामों के लिए न कर देश आईबी की रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को तीन जून 2014 को सौंपी गई। हकीकत यह है कि अपने देश में गैर-सरकारी संगठन बनाना एक कारोबार बन गया है। अधिकांश संगठन ऐसे हैं जो बनाए किसी और काम के लिए जाते हैं लेकिन वह करते कु छ और हैं। शायद उनकी ऐसी ही गतिविधियों को देखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले यह कहा था कि 90 फीसदी एनजीओ फर्जी हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है। खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट एक और गंभीर बात कह रही है। उसके मुताबिक कई गैर-सरकारी संगठन विदेश से पैसा लेकर विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। ग्रीन पीस इंटरनेशनल की भारतीय शाखा ग्रीन पीस इंडिया को कोयला और परमाणु ऊर्जा आधारित परियोजनाओं के विरोध के लिए ही जाना जाता है। इसी तरह कुछ और गैर-सरकारी संगठन ऐसे हैं जो हर बड़ी परियोजना का विरोध करते हैं। इन संगठनों की मानें तो न तो बड़े बांध और बिजली घर बनाने की जरूरत है और न ही अन्य बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की। पर्यावरण की रक्षा की आड़ में गैर-सरकारी संगठन जिस तरह हर बड़ी परियोजना के विरोध में खड़े हो जाते हैं वह कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सही है कि पर्यावरण की रक्षा जरूरी है लेकिन उसके नाम पर औद्योगिकीकरण को ठप कर देने का भी कोई मतलब नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सात ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें लक्षित कर यह एनजीओ आर्थिक विकास दर को नकारात्मक दिशा में ले जाएंगे। करीब 24 पेज की इस रिपोर्ट के मुताबिक जातिगत भेदभाव, मानवाधिकार उल्लंघन और बड़े बांधों के खिलाफ लामबंध यह एनजीओ सारा जोर विकास दर धीमी करने में लगे हैं। इनमें खनन उद्योग, जीन आधारित फसलों, खाद्य, जलवायु परिवर्तन और नाभिकीय मुद्दों को हथियार बनाया गया है। राष्ट्रहित से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करने वाले इन एनजीओ को अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड के अलावा नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्प जैसे देशों या उससे जुड़ी संस्थाओं से अनुदान मिलता है। भारत की कोयला खदानों और पावर प्रोजेक्ट का लगातार विरोध कर रही ग्रीनपीस को पिछले सात वर्षों में 45 करोड़ रुपए का फंड मिला है। इस संस्था का काम अब भारत में कोयले के खिलाफ माहौल खड़ा करना रह गया है। ग्रीन पीस ने एक प्राइवेट रिसर्च इंस्टीट्यूट को पैसा दिया कि वह मध्यप्रदेश के महान को लेकर स्वास्थ्य, प्रदूषण और दूसरे मुद्दों पर ऐसी रिपोर्ट दे, जिससे वहां की कोयला खदानों पर प्रतिबंध लगवाया जा सके। कई एनजीओ को ये धन भारत में न्यूक्लियर पावर प्लांट्स, यूरेनियम खदानों, ताप-विद्युत घरों, जीएम टेक्नोलॉजी, मेगा इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट (पॉस्को और वेदांता), हाइडेल प्रोजेक्ट (नर्मदा सागर, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश के प्रोजेक्ट) के विरोध के लिए दिया गया है। यह भी खुलासा हुआ है कि विदेशी दानदाताओं ने जानबूझकर एनजीओ के जरिए मानवाधिकार, विस्थापित लोगों के लिए सौदेबाजी कराई और लोगों के धार्मिक अधिकारों के नाम पर बवाल खड़े कराए। विदेशी दानदाताओं ने षड्यंत्रपूर्वक इन एनजीओ के जरिए भारत सरकार की नीतियों के खिलाफ फील्ड रिपोर्ट तैयार करवाईं, ताकि पश्चिमी देशों की विदेश नीतियां भारत विरोधी बनाने के लिए जमीन तैयार हो सके। आतंक और नक्सलवाद का बढ़ावा रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि माओवादियों से भी गठजोड़ है कुछ एनजीओ का। ये नियमानुसार जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड, तुर्की और इटली से फंड मंगाते हैं और उसे यहां पर आतंक फैलाने वाले माओवादियों को मुहैया करा देते हैं। कुछ माओवादी संगठन फिलिपींस और इंडोनेशिया से भी जुड़े हैं, जहां न सिर्फ उनकी ट्रेनिंग होती है, बल्कि फंड भी दिया जाता है। ये संगठन फिर अपने इलाके में पडऩे वाली कोयला खदानों और वहां के पावर स्टेशनों पर हमले करवाते हैं या फिर कामकाज प्रभावित करते हैं। एनजीओ के फ्रॉड और गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त होने के 24 केस सीबीआई को और दस केस राज्यों की पुलिस को सौंपे गए हैं। हालांकि, इन सब तमाम बातों के उलट ग्रीनपीस और उस जैसे एनजीओ के अपने तर्क और आरोप हैं। वे इस रिपोर्ट को सिरे से नकारते हुए कह रहे हैं कि ऐसा राजनेताओं और बिजनेसमैन के गठजोड़ के कारण हो रहा है। स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) पर आई खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के बाद विदेशी फंड पर चलने वाली एनजीओ ने लॉबिंग शुरू कर दी है। उनकी तरफ से एक सुर में कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार का मकसद एनजीओ पर लगाम लगाना है। इसके लिए गुजरात के मु यमंत्री रहते हुए 9 सितंबर 2006 में एनजीओ को लेकर दिए गए नरेंद्र मोदी के भाषणों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने एनजीओ संचालकों को नोबल पिपुल और फाइव स्टार एक्टिविस्ट कहा था और यह भी जोड़ा था कि देश में आज एक एनजीओ इंडस्ट्री खड़ी हो गई है, जिनकी इमेज बिल्डिंग के लिए बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियों की सहायता ली जा रही है। यूपीए शासन काल में शुरू हुई थी जांच विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ इंडस्ट्रीज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर हो, लेकिन एक दूसरा सच यह भी है कि आईबी ने इनकी जांच पूर्व सत्ताधारी यूपीए सरकार के कहने पर की थी, जो खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनाकर देश की सारी योजनाओं को एनजीओ के हवाले करने में शामिल रही हैं। आईबी की रिपोर्ट को छोड़ भी दें तो हम पाते हैं कि पिछले 10 सालों में विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ की पूरी कार्यप्रणाली देश की विकास परियोजनाओं में रोड़ा अटकाने वाली रही है। इनकी पूरी गतिविधियों को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि कुछ बड़े एनजीओ समाज सेवा में कम, विदेशी एजेंट की भूमिका में ज्यादा सक्रिय हैं। विदेशी एजेंट होने का आलम यह रहा कि विदेशी सहायता नियमन कानून (एफसीआरए) का उल्लंघन कर बिना पंजीकरण वाली कबीर एनजीओ को अमरीका की फोर्ड फाउडेशन कंपनी ने लाखों डॉलर का चंदा दे दिया। बाद में इसी कबीर के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने पहली एनजीओ कार्यकर्ताओं वाली सरकार देश की राजधानी दिल्ली में बनाकर यह दर्शा दिया कि अमरीका व यूरोप न केवल देश की विकास परियोजनाओं को रोकने में सफल हो रहे हैं, बल्कि इन एनजीओ इंडस्ट्रीज के बल पर भारत के अंदर सरकार निर्माण तक की क्षमता हासिल कर चुके हैं। आईबी ने ग्रीनपीस की ही तरह ही कई और एनजीओ को देश के विकास का अवरोधक बताया है। उनमें से एक हैं मेधा पाटकर। वल्र्ड बैंक से फंडिंग और सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना कर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना को बाधित किया। जिसकी वजह से यह परियोजना छ: साल तक लटकी रही। 1988 में योजना आयोग ने सरदार सरोवर परियोजना का बजट 6406.04 करोड़ रुपए निर्धारित किया था, लेकिन मेधा पाटकर के विरोध के कारण इस परियोजना की लागत बढते-बढ़ते वर्ष 2008 तक 39,240.45 करोड़ रुपए हो गई। मेधा पाटकर ने इस परियोजना को वनवासियों के लिए नुकसानदायक बताया था, लेकिन आज इस परियोजना के कारण ही दाहोद जिले में नर्मदा नदी से वनवासी फल व सब्जियों की खेती कर रहे हैं। तमिलनाडु के तिरुनेवेली जिले में स्थित कुुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र रूस के सहयोग से लगना है। आर्थिक संकट में फंसा अमरीका इस संयंत्र का ठेका चाहता था, लेकिन बाजी रूस के हाथ लग गई। जिसके बाद अमरीकी चंदे से कुुछ एनजीओ व बुद्घिजीवियों को इसके विरोध में खड़ा किया गया, जिसमें सबसे बड़ा नाम पी़. उदयकुमार का है। पी. उदयकुमार देश के एनजीओ के सबसे बड़े ब्रांड बने अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पी. उदयकुमार ने विदेशी सहयोग से सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की, लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने इन अमरीकी एजेंटों को निराश कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कुुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। इस परियोजना को रोकने में अमरीकी दिलचस्पी का खुलासा खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम इन एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमरीका के हैं। वे बिजली आपूर्ति बढ़ाने की हमारे देश की जरूरत को नहीं समझते। धर्मांतरण के नाम पर काला धंधा भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन इस समय देश की इस निरपेक्षता पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। हाल ही में एक आरटीआई के जरिए ये बात सामने आई थी कि कर्नाटक में धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरीज सरकार से पैसे दिए जा रहे हैं। इस मामले पर कांग्रेस राज्य सरकार पर भी सवाल उठे हैं। वहीं, अब ये बात सामने आई है कि देश में धर्म परिवर्तन में कई एनजीओ शामिल है। ऐसे भी एनजीओ के बारे में जानकारी मिली है, जो हर छोटी मोटी घटना को सांप्रदायिक रंग देने की साजिश रचते हैं। आईबी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। वहीं, 18 विदेशी डोनर्स की पहचान हुई है जो धर्मपरिवर्तन के नाम पर एनजीओ को मदद कर रहे हैं। पुलिसकर्मियों से अधिक एनजीओ ! एनजीओ का धंधा कितना चोखा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जाता सकता है कि देश मेें पुलिसकर्मियों की सं या से अधिक तो एनजीओ हैं। केंद्र सरकार की ऐसे स्वयं सेवी संगठनों यानि एनजीओ पर तीखी नजर है, जो कागजों पर जन सेवा करके सरकारी कोष का दुरुपयोग करती आ रही है। हालांकि सरकार समय-समय पर ऐसी संस्थाओं को जांच के बाद काली सूची में डालने की सतत कार्यवाही करती आर रही है। केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एनजीओ का सहारा भी लिया जाता है। जो अवैध कमाई का जरिया-सा बन गया है। दिलचस्प पहलू यह भी है कि कैग भी एनजीओ के पंजीकरण पर अपनी रिपोर्ट में सवाल खड़ा कर चुकी है। वहीं केंद्रीय जांच एजेंसी ने हाल ही में देश के भीतर एनजीओ की भारी सं या को लेकर सवाल सुप्रीम कोर्ट को एक रिपोर्ट सौंपी है। सीबीआई की इस रिपोर्ट में 20 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों का ब्योरा जुटाने की बात कही गई है, जहां 22 लाख 45 हजार 655 एनजीओ काम कर रहे हैं। यह भी संभावना जताई गई है कि एनजीओ की वास्तविक सं या इससे भी काफी अधिक हो सकती है, क्योंकि इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों के एनजीओ शामिल नहीं हैं। रिपोर्ट में शािमल एनजीओ में से 2 लाख 23 हजार 478 ने सोसायटी रजिस्ट्रार के पास अपना रिटर्न दाखिल किया है, जो करीब दस प्रतिशत आंका जा सकता है। यानि ऐसी संस्थाएं 10 प्रतिशत से भी कम अनुदान और खर्चे को लेकर बैलेंस शीट का ब्योरा जमा करवाते हैं। एक अनुमान के अनुसार 1.25 अरब की आबादी वाले भारत में औसतन 535 लोगों पर एक एनजीओ है, जबकि गृह मंत्रालय के आंकड़ों की माने तो देशभर में एक पुलिसकर्मी के हिस्से में 940 लोग आ रहे हैं। संसद के पिछले सत्र के दौरान एनजीओ को लेकर उठे सवालों में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थांवर चंद गहलोत ने भी स्वीकार किया था एनजीओ सरकारी फंड में हेरफेर कर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने की गतिविधियों में लिप्त हैं जिन पर नकेल कसने के लिए सरकार ने कवायद शुरू कर दी है। उनके अनुसार सरकारी धन का दुरुपयोग करने वाली एनजीओ के 26 मामले सामने आए थे, जिनमें से जांच के बाद चार एनजीओ को काली सूची मेें डाल दिये गए हैं और सरकार ऐसे एनजीओ को दंडित करने की तैयारी भी कर रही है। किस प्रदेश में कितने एनजीओ पर बैन आंध्र प्रदेश- 1404 अरुणाचल प्रदेश- 68 असम- 132 बिहार- 659 छत्तीसगढ़- 41 गोवा- 55 गुजरात- 515 हरियाणा- 97 हिमाचल प्रदेश- 68 ज मू और कश्मीर- 40 झारखण्ड- 123 कर्णाटक- 1070 केरल- 964 मध्य प्रदेश- 250 महाराष्ट्र- 1292 मणिपुर- 414 मेघालय- 42 मिजोरम- 17 नागालैण्ड- 89 ओडि़शा- 786 पंजाब- 75 राजस्थान- 251 सिक्किम- 10 तमिलनाडु- 1822 तेलंगाना- 664 त्रिपुरा- 14 उत्तर प्रदेश- 1212 उत्तराखण्ड- 50 पश्चिम बंगाल- 1106 अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह- 8 चण्डीगढ़- 41 दादरा और नगर हवेली- 1 दमन और दीव-1 दिल्ली- 666 पुदुच्चेरी- 20