बुधवार, 21 दिसंबर 2016

भ्रष्टों पर लोकायुक्त संगठन भी मेहरबान

घूसखोरों पर नहीं सरकार का जोर
भोपाल। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार ऐसा नासूर बन गया है कि उसपर सरकार का भी जोर नहीं चल रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि भ्रष्ट मस्त हैं और जांच एजेंसियां उनके रसूख के सामने पस्त हैं। यही नहीं आय से अधिक संपत्ति के मामलों में पकड़े गए भ्रष्ट अधिकारियों पर लोकायुक्त पुलिस भी मेहरबान हो रही है। पिछले 5 साल में लोकायुक्त की लगाई लगभग 40 खात्मा रिपोर्ट के अध्ययन में सामने आया है कि उसने भ्रष्टों को बचाने के लिए अपने ही पैमानों को बदल दिया। इसके लिए पकड़े गए अधिकारियों की संपत्ति की गणना में हेरफेर कर आय से अधिक संपत्ति को इतना कम बताया कि भ्रष्ट अधिकारियों को क्लीन चिट दी जा सके। यानी सरकार और जांच एजेंसियों को दोहरे मापदंड के कारण प्रदेश में भ्रष्टों और घूसखोरों की पौ बारह है। मप्र में भ्रष्टों और घूसखारों के रसूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभिन्न सरकारी विभागों में कई अफसर सहित 102 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। वह भी तब जब पूर्व लोकायुक्त पीपी नावलेकर स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर इसकी जानकारी करीब सालभर पहले ही दे चुके हैं। नावलेकर ने सीएम को 400 ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की सूची भी सौंपी थी जिनके खिलाफ अभियोजन की अनुमति लंबित है या चालान दाखिल हो जाने के बाद भी उन्हें निलंबित नहीं किया गया है। यानी रिश्वतखोरों को लोकायुक्त पुलिस पकड़ भले ही ले, लेकिन सजा दिलाने में नाकाम साबित हो रही है। सजा की बात तो दूर लोकायुक्त पुलिस अदालत में चालान तक पेश नहीं कर पा रही है। पिछले 5 सालों में केवल 5 विभागों के ही 281 मामले चालान पेश न हो पाने की वजह से पेंडिंग हैं और रिश्वतखोर रंगेहाथ पकड़े जाने के बावजूद मजे से नौकरी कर रहे हैं। अगर सभी विभागों के मामले देखें तो ये आंकड़ा डेढ़ गुना तक है। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट भी टिप्पणी कर चुका है कि अनुमति मिलने में देरी की वजह से केस अटकते हैं तो निश्चित समय के बाद लोकायुक्त को चालान पेश करना चाहिए। राज्यों को ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिए। भ्रष्टों के लिए लोकायुक्त के दो पैमाने प्रदेश में लोकायुक्त पुलिस ने साल 2013 से लेकर सितंबर 2016 के बीच 1408 अफसरों, कर्मचारियों को रिश्वत लेते ट्रैप किया है। लेकिन इनमें से कितनों का सजा मिल पाएगी यह कहना मुश्किल है। क्योंकि आय से अधिक संपत्ति के मामलों में पकड़े गए भ्रष्ट अधिकारियों और घूसखोरों पर अब लोकायुक्त पुलिस ही मेहरबान हो रही है। पिछले 5 साल में लोकायुक्त की लगाई लगभग 40 खात्मा रिपोर्ट के अध्ययन में सामने आया है कि उसने भ्रष्टों को बचाने के लिए अपने ही पैमानों को बदल दिया। इसके लिए पकड़े गए अधिकारियों की संपत्ति की गणना में हेरफेर कर आय से अधिक संपत्ति को इतना कम बताया कि भ्रष्ट अधिकारियों को क्लीन चिट दी जा सके। विशेष स्थापना पुलिस को अगर किसी अधिकारी की शिकायत मिलती है तो सबसे पहले एफआईआर दर्ज की जाती है। फिर संपत्ति का आकलन किया जाता है। छापा मारने से पहले संबंधित अधिकारी की संपत्ति ज्यादा (अधिकांश मामलों में आय से 300 से 500 प्रतिशत अधिक) होने पर कोर्ट से छापा मारने की अनुमति ली जाती है। छापे के दौरान घर में मिले हर सामान को नोट किया जाता है, जिसे आय व व्यय में जोड़ा जाता है। दो तरह की जांच बचाने की अलग, फंसाने की अलग छापे के बाद जांच दो तरह से की जा रही है। जिसे बचाना होता था, उसकी आय की गणना ग्रॉस सैलरी जोड़कर और अन्य साधनों जैसे खेती आदि से 100 फीसदी आय बता दी जाती है। इसी तरह व्यय भी कम बताया जाता है। इसके लिए व्यय की कई मदों को छोड़ दिया जाता है। वहीं जिसे फंसाना होता है उसकी ग्रॉस सैलरी (बिना पीएफ आदि कटौती के वेतन) को आय न मानते हुए नेट सैलरी (कटौती के बाद वेतन) को आय माना जाता है। इससे नौकरी के दौरान की आय देखी जाती है, तो नेट सैलरी के कारण कुल आय कम दिखती है। ठीक इसी तरह खेती से होने वाली आय को भी 50 फीसदी बताकर हिसाब जोड़ा जाता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है। अगर किसी व्यक्ति की ग्रॉस सैलरी 45 हजार रुपए मासिक है तो उसे पीएफ, मकान भत्ता आदि कटौती-खर्च के बाद तकरीबन 30 हजार रुपए मिलते हैं। अगर आय ग्रॉस सैलरी से जोड़ते हैं तो एक साल की कमाई ही 5 लाख 40 हजार होती है, लेकिन नेट सैलरी से जोड़ते हैं तो 3 लाख 60 हजार होती है। जिसे फंसाना होता है उसकी सालाना आय 3 लाख 60 हजार बताकर बाकी कमाई अवैध बता दी जाती है। बचाने और फंसाने के रास्ते पीएचई के दो अधिकारियों ने सूचना के अधिकार के तहत मिली 40 से ज्यादा एफआर (फाल्स रिपोर्ट) के आधार पर लोकायुक्त को दिए प्रजेंटेशन में बताया है कि कैसे अधिकारियों को बचाया और फंसाया जा रहा है। आबकारी विभाग के डिप्टी कमिश्नर डीआर जौहरी के खिलाफ 14 अप्रैल 2010 को आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज किया। बाद में पत्नी की 7 लाख आय दिखाई, जो कंप्यूटर टाइपिंग से बताई गई। आखिर में एफआर लगा दी। आय से 3 फीसदी अधिक संपत्ति बताई। इसी तरह ट्रायबल वेलफेयर के सहायक यंत्री रामलखन सिंह यादव की एफआर इंदौर में पेश की गई। इन्हें फायदा पहुंचाने के लिए आय की गणना ग्रॉस सैलरी के आधार पर की गई और कृषि से 100 प्रतिशत आय बताई गई। ग्रॉस सैलरी जोडऩे से आय 15 लाख बढ़ गई और खेती से 100 प्रतिशत आय बताने पर 12 लाख 50 हजार अतिरिक्त आय मिली। इस तरह गणना होने से 27 लाख की आय अधिक हो गई। 27 लाख आय बढऩे से उनका व्यय 7.2 फीसदी अधिक रहा। इस वजह से एफआर लग गई। वहीं दूसरी तरफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में गुना में जल संसाधन विभाग के सब इंजीनियर एमके जैन के यहां लोकायुक्त छापा पड़ा। इनकी आय की गणना कुल वेतन पर की गई। इससे आय 15 लाख रुपए कम हो गई। खेती से सिर्फ 50 फीसदी आय बताई गई। इससे उनका व्यय, आय से अधिक पहुंच गया और गुना कोर्ट में चालान पेश कर दिया गया। ज्ञातव्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में मानक निर्धारित किया है। आय से 10 फीसदी अधिक तक संपत्ति है तो इसे आय से अधिक संपत्ति नहीं माना जाता। अगर आय इससे ऊपर है तो ही केस बनेगा। आय से अधिक संपत्ति के मामले में आय व व्यय की गणना करते वक्त बिजली के बिल, बच्चों की पढ़ाई के खर्च की भी गणना की जाती है, लेकिन जो खात्मा रिपोर्ट लगाई गई, उनमें इन दोनों को नहीं जोड़ा गया। छापा मारते वक्त घर के सामान की अधिकतम कीमत लगाई जाती है, लेकिन जांच के बाद आधी से कम रह जाती है। जलकर की राशि व्यय में जोड़ी जाती है, लेकिन परिवहन विभाग के प्रधान आरक्षक की जलकर की राशि व्यय में नहीं जोड़ी गई। कुछ गलत है तो कोर्ट फिर से जांच के लिए बोल सकता है। भ्रष्टों के अदालत पहुंचने में आड़े आ रहा यह नियम इसी तरह रिश्वत लेने वाले भी अदालत पहुंचे से बच रहे हैं। असल में ये सबकुछ एक नियम की वजह से हो रहा है। लोकायुक्त पुलिस यदि किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत लेते पकड़ती है तो उसे उस रिश्वतखोर कर्मचारी के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने के लिए कर्मचारी के मूल विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है। यानी अगर लोकायुक्त किसी पटवारी या शिक्षक को रिश्वत लेते पकड़ते हैं तो उसे उनके मूल विभाग (जैसे पटवारी का मूल विभाग राजस्व और शिक्षक का मूल विभाग शिक्षा विभाग) से अदालत में आरोप-पत्र या चालान पेश करने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी। अगर मूल विभाग अनुमति नहीं देता है तो मामला पेंडिंग पड़ा रहता है। ऐसी स्थिति के कारण ही राजस्व, पंचायत, नगरीय निकाय, सहकारिता और सामान्य प्रशासन विभाग के ही 5 सालों में 80 फीसदी से ज्यादा मामलों में अनुमति नहीं दी है। अगर अन्य दूसरे विभाग की पेंडेंसी देखें तो ये आंकड़े 400 की संख्या पार कर जाते हैं। मूल विभाग से अनुमति का नियम इसलिए बनाया गया था ताकि अगर विभाग ने कोई राशि नकद खर्च करने के लिए दी हो तो उसके लेन-देन में किसी कर्मचारी को गलत ढंग से न फंसा दिया जाए। खासकर पुलिस जैसे विभाग में मुखबिरी की राशि देते समय कोई ट्रैप न करवा दे। इसलिए मूल विभाग से अनुशंसा का नियम है। इसलिए बचा रहा विभाग- लोकायुक्त चालान की प्रति विभाग को भेजता है तो संबंधित विभाग के पीएस पूरी फाइल पढ़ते हैं। इसके बाद 10 से 20 पेज में लिखे आरोप को पढ़कर अनुमति और अनुशंसा दी जाती है। पहले नियम था कि केवल चालान फाइल पर लिखा जाता था कि अनुशंसा की जाती है। लेकिन रिश्वतखोर के वकील आपत्ति लेते थे कि विभाग ने बिना पढ़े ही अनुमति दे दी। इससे केस कमजोर हो जाता था और कोर्ट की फटकार भी लगती थी। अनुमति देने के लिए रिश्वतखोर के खिलाफ तैयार किया गया पूरा चालान पढऩे का समय नहीं है। इसे बेगार समझा जाता है। विभाग जानबूझकर नहीं चाहते कि भ्रष्ट के खिलाफ कार्रवाई हो। रिश्वतखोर के कनेक्शन इतने मजबूत होते हैं कि विभाग के आला अधिकारी पर अनुमति न देने का दबाव है। ऐसे में फरियादी का मनोबल गिरता है। कई मामलों में रिश्वतखोर फरियादी को खरीद लेता है या उसके खिलाफ झूठे मुकदमे दायर करवाकर दबाव बनाता है। रिश्वतखोर आराम से नौकरी करता रहता है और कई सालों बाद कोर्ट में चालान भी पेश होता है तो लम्बी कानूनी प्रक्रिया के चलते कई बार नौकरी पूरी कर लेता है। उधर लोकायुक्त पुलिस के अफसरों का कहना है कि यह सही है कि संबंधित विभाग आरोपी के खिलाफ चालान पेश करने की अनुमति देने में बहुत समय लगाता है। हम लगातार रिमाइंडर भेजते हैं। उधर, आलम यह है कि भ्रष्ट और रिश्वतखोर फरियादी को खरीद नहीं पाते हैं तो उन्हें फंसाने की कोशिश में जुट जाते हैं। देवास जिले के बागली में फरियादी धर्मेंद झिलोरिया से डासवर्सन के लिए आरआई कैलाश परिहार ने एक हजार रुपए मांगे। 14 जुलाई 2015 को लोकायुक्त ने आरआई को पकड़ा। पकड़े जाने के बाद रिश्वतखोर आरआई को टोंकखुर्द का चार्ज दे दिया। इस मामले में उज्जैन लोकायुक्त एसपी दिलीप सोनी का कहना है कि हमने चालान तैयार कर राजस्व विभाग की अनुमति के लिए भोपाल भेजा है। लेकिन लगभग एक साल बाद तक अनुशंसा के साथ चालान वापस नहीं आने से कोर्ट तक मामला नहीं पहुंचा है। वहीं रिश्वतखोर आरआई ने फरियादी पर दबाव बनाने के लिए शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने का मुकदमा बनवा दिया है। ये मुकदमा भी रिश्वत लेते पकड़े जाने से 2 माह पहले का कहकर बनवाया है। फरियादी धर्मेंद्र का कहना है कि वह फर्जी मुकदमे के फेर में कोर्ट के चक्कर लगा रहा है, वहीं रिश्वतखोर आराम से नौकरी कर रहा है। भ्रष्टों को पकड़वाने में पैसा फंसा अपनी जेब का पैसा लगाकर लोकायुक्त के जरिए रिश्वतखोरों को पकड़वाने वाले खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। रिश्वत में दिया पैसा लोकायुक्त ने जब्त कर मामला कोर्ट में भेज दिया, जहां पैसा अदालती प्रक्रिया में उलझ गया और फरियादी के काम भी नहीं हुए। अदालत में अभी तक रिश्वतखोरी के करीब 659 मामले विचाराधीन हैं, इसके चलते लगभग 79 लाख रुपए फिलहाल फंसे हुए हैं। एसपी लोकायुक्त अमित सिंह ने बताया कि यह सही है कि भ्रष्टाचार के किसी मामले में ट्रैप कराने के लिए रिश्वत की रकम फरियादी को ही लानी पड़ती है। ऐसा नियम भी है। कोर्ट में जब तक मामला रहता है रिश्वत का पैसा जमा रहता है। प्रदेश में लोकायुक्त पुलिस ने साल 2013 से लेकर सितंबर 2016 के बीच 1408 अफसरों, कर्मचारियों को रिश्वत लेते ट्रैप किया है। इसमें रिश्वत के रूप में करीब 1.50 करोड़ रुपए खर्च हुए। कई मामलों में कोर्ट से फैसला होने के बाद रिश्वत के रूप में दी गई रकम वापस मिल गई। भ्रष्ट लोकसेवकों को बचा रही सरकार की चुप्पी! प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की सरकारी नीति को जमकर पलीता लग रहा है। लोकायुक्त ने बीते एक-डेढ़ साल में जिन लोक सेवकों को रंगे हाथों दबोचा, उनमें ज्यादातर रसूख के दम पर चालानी कार्रवाई से बचे हुए हैं। लोकायुक्त को भ्रष्टाचार के 37 प्रकरणों में मंत्रालय स्तर से अभियोजन स्वीकृति का इंतजार है। यही वजह है कि कार्रवाई के 90 दिन बाद भी ये मामले कोर्ट तक नहीं पहुंच पाए हैं। सुनवाई लंबित होने से आरोपितों को लोकायुक्त सजा दिला पाने में नाकाम है। सूत्रों की माने तो केवल 25 फीसदी में अभियोजन की मंजूरी मिल पाती है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19(1),(सी) के अंतर्गत चालानी कार्रवाई के लिए स्वीकृति मांगने का प्रावधान है। लेकिन मौजूदा कानून में यह बाध्यकारी न होकर सरकार की मांशा पर निर्भर है। लोकायुक्त ने भ्रष्टाचार और घूस लेने के कई मामलों में अधिकारियों, कर्मचारियों व निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किए हैं। नरङ्क्षसहपुर जिला परियोजना प्रबंधक उदय प्रताप सिंह भदौरिया के मामले में अभियोजन स्वीकृति का प्रस्ताव दो साल पहले मंत्रालय भेजा गया था। लेकिन आरोपित अधिकारी के खिलाफ अब तक अभियोजन स्वीकृति नहीं मिल सकी। छिंदवाड़ा में पदस्थ लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री संजय डेहरिया सहित कई लोक सेवकों के मामले में यही स्थिति है। लोकायुक्त कार्यालय जबलपुर के पत्राचार के बाद मुख्यालय ने अप्रैल 2014 से लेकर जून 2015 तक 5 बार अभियोजन स्वीकृति की मांग की लेकिन मंत्रालय द्वारा अनुमति नहीं दी जा रही है। 90 दिन में अनुमति के प्रावधान लोकायुक्त के जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओं में दर्ज प्रकरणों में अभियोजन की स्वीकृति अधिकतम 90 दिनों में मिल जानी चाहिए। लोकायुक्त जांच के बाद मामला मुख्यालय भेजता है, उसके बाद इसे विधि मंत्रालय भेजा जाता है। वहां से स्क्रूटनी के बाद अभियोजन स्वीकृति हेतु केस संबंधित विभाग के मंत्रालय भेजा जाता है। इस प्रक्रिया के लिए सुप्रीम कोर्ट ने ही अधिकतम 90 दिन का समय निर्धारित किया है। शीर्ष कोर्ट के स्पष्ट दिशानिर्देश के बावजूद राज्य सरकार अभियोजन की स्वीकृति मामले में कोई सख्त कानून नहीं बना पाई है। 255 रिश्वतखोरों ने जोड़ रखी थी अरबों की संपत्ति लोकायुक्त ने पिछले सालों में करीब 255 रिश्वतखोरों का असली चेहरा उजागर किया है। जबलपुर संभागीय कार्यालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार एक दशक में 100 से अधिक रिश्वतखोरों को विशेष अदालत ने सजा भी सुनाई है। रंगे हाथ पकड़े गए कुछ रिश्वतखोर कोर्ट में अपना बचाव करने में सफल भी रहे। जबलपुर में 2007 से अब तक शासकीय विभागों में कार्यरत 255 कर्मचारियों व अधिकारियों को रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया है। पद का दुरुपयोग करने के 67 व आय से अधिक संपत्ति के 35 प्रकरण दर्ज किए गए। जबलपुर में लोकायुक्त के संभागीय कार्यालय की स्थापना 1990 में की गई थी। तब से सितंबर 2016 तक रिश्वतखोरी के 455 केस दर्ज किए गए। 122 को पद के दुरुपयोग और 101 को आय से अधिक संपत्ति के मामलों में आरोपी बनाया है। 2007 से लेकर अब तक यह आंकड़ा क्रमश: 67 और 35 रहा। एमपीईबी के तत्कालीन कार्यपालन यंत्री आरआर दुबे के घर लोकायुक्त ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में छापामारी की थी। दुबे ने न्यायालय में पक्ष रखा कि लोकायुक्त द्वारा जो अतिरिक्त आय बताई जा रही है वह उन्होंने कृषि कार्य से प्राप्त की है। मायके पक्ष से पत्नी को मुर्तजापुर अमरावती में कृषि भूमि प्राप्त हुई है। न्यायालय ने कहा कि जिस खसरे की भूमि पर कृषि कार्य बताया जा रहा है वह दुबे की पत्नी के नाम पर दर्ज ही नहीं है। दुबे पर 1 लाख 20 हजार रुपए अर्थदंड अधिरोपित करते हुए लोकायुक्त कोर्ट ने कटंगा स्थित उनके निजी आवास को राजसात करने का फैसला सुनाया। जबलपुर नगर निगम के सेवानिवृत्त कर्मचारी टीकाराम से जीपीएफ निकालने के लिए लिपिक वीरेन्द्र लखेरा ने दो हजार रुपए रिश्वत मांगी थी। जनवरी 2014 में जब लोकायुक्त टीम निगम पहुंची तो रिश्वत के रुपए लेकर वीरेन्द्र भाग गया। विशेष न्यायालय ने लिपिक को तीन अलग-अलग धाराओं में तीन-तीन वर्ष कारावास और 10-10 हजार रु. अर्थदंड की सजा सुनाई। पूर्व लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर कहते हैं कि अभियोजन की स्वीकृति सरकार की मंशा पर निर्भर है। मंजूरी के बाद ही फौजदारी मुकदमों को कोर्ट में आगे बढ़ाया जा सकता है। अभियोजन स्वीकृति न मिलने के कारण मामला वर्षों तक अटका रहता है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि 90 दिन में अभियोजन स्वीकृति न मिलने की दशा में उसे डीम परमीशन मानते हुए मुकदमा चलाया जाए, लेकिन कानून बनाए बगैर यह सिर्फ सुझाव तक सीमित है। सरकार को 90 दिन में अभियोजन स्वीकृति का कानून बनाना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें