बुधवार, 21 दिसंबर 2016

मौज में नौकरशाह

रिटायरमेंट के बाद भी काट रहे हैं चांदी
भोपाल। 6 दिसंबर को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर विद्युत नियामक आयोग के पूर्व अध्यक्ष व मप्र के पूर्व मुख्य सचिव रहे राकेश साहनी की नियुक्ति को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। कोर्ट ने याचिका को नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच द्वारा दायर याचिका के साथ मर्ज करने के निर्देश दिए हैं। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजेन्द्र मेनन व न्यायाधीश अंजुली पालो की खंडपीठ ने अंतिम सुनवाई जनवरी 2017 में निर्धारित की है। लेकिन इस याचिका के दायर होते ही साहनी एक बार फिर विवाद में पड़ गए हैं। ज्ञातव्य है कि साहनी की नियुक्ति पूर्व से ही विवादों में है। इंदौर निवासी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता भानु कुमार जैन की ओर से दायर याचिका में साहनी की नियुक्ति को अवैध बताया गया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि साहनी इससे पहले नियामक आयोग के अध्यक्ष रहे। इस पद पर रहने के बाद दो वर्ष तक किसी भी पद पर नहीं रह सकते हैं। ऐसे किसी नियोजन में रोजगार भी नहीं ले सकते हैं जहां पर विद्युत उत्पादन का कार्य होता हो या जो वाणिज्यिक हो। जिसके मामले स्वयं अध्यक्ष रहते उस व्यक्ति ने सुने हों। इसके साथ ही नर्मदा हाइड्रो डवलपमेंट कॉर्पोरेशन एक वाणिज्यिक कंपनी है और एनवीडीए उसका 49 प्रतिशत शेयर होल्डर है। इस नियुक्ति को शासन के नियमों के विपरीत बताया गया है। यह भी कहा कि एनवीडीए अध्यक्ष पद पर 65 वर्ष तक के व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है, जबकि साहनी की उम्र 67 वर्ष है। याचिकाकर्ता ने साहनी को पद से हटाने की मांग की है। मप्र में वर्तमान समय में मप्र कैडर में 339 आईएएस अफसर हैं लेकिन सत्ता के करीब वे ही कुछ अफसर हैं जो सत्ता से सामंजस्य बनाने में सफल रहे। यही कारण है की कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय ङ्क्षसह के कार्यकाल में सत्ता के करीबी रहे आईएएस अब भाजपा शासन में प्रमुख पदों पर है। यही नहीं मप्र में सत्ता से सामंजस्य रखने वाले नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद भी मलाईदार पदों पर बिठा दिया जाता है। इस अघोषित परंपरा में मलाई खाने वाले पूर्व नौकरशाहों की एक बहुत बड़ी फेहरिस्त है। दूसरी तरफ जिन नौकरशाहों ने कड़क कार्यशैली अपनाने की कोशिश की उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। पद और प्रतिष्ठा के लिए गजब का सामंजस्य मप्र में सत्ता और नौकरशाही का संबंध दो ध्रुवों की तरह रहा है। यह इसलिए कहा जा रहा है कि सत्ता और नौकरशाहों के बीच राज्य हित की योजनाओं को लेकर शायद ही कभी सामंजस्य रहा हो। लेकिन अपने-अपने हितों के लिए इन दोनों पक्षों में हमेशा गजब का तालमेल दिखाई दिया है। इसके चलते राज्य के नौकरशाहों और अधिकारियों को अपने मनचाहे विभाग और मनमाफिक प्रमोशन हासिल करने में कहीं कोई असुविधा नहीं हुई। यही नहीं सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें उच्च पदों पर बिठाकर उनके अहसानों का बदला चुकाया जाता रहा। मप्र में जहां एक तरफ आरपी नरोन्हा जैसे आईएएस अफसर रहे हैं जिनकी प्रशासनिक क्षमता के कारण उन्हें दो बार मुख्य सचिव बनाया गया। वे प्रदेश के दूसरे मुख्य सचिव के रूप में 25 नवंबर 1963 से अगस्त 1968 तक पद पर रहे। इस दौरान वे दो मुख्यमंत्रियों द्वारका प्रसाद मिश्रा और गोविंद नारायण सिंह के साथ काम किया। फिर वे करीब चार साल बाद सितंबर 1972 में दोबारा पांचवे मुख्य सचिव बनाए गए। वे मई 1974 तक अपने पद पर रहे। इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी के साथ काम किया। अपने इन दो कार्यकाल के दौरान उन्होंने निर्विवाद और निष्पक्ष प्रशासक की छवि प्रस्तुत कर आगामी अफसरों के लिए मिसाल पेश की। उनकी प्रशासनिक क्षमता को यादगार बनाने के लिए 2001 में तात्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश प्रशासन अकादमी का नाम आरसीवीपी नरोन्हा प्रशासन अकादमी कर दिया। लेकिन नरोन्हा के गौरवशाली अतीत को कायम नहीं रख सके और उनके बाद मुख्य सचिव पद तक पहुंचने वाले अधिकांश अफसर पद और प्रतिष्ठा के लिए लालायित दिखे। यही हाल अन्य नौकरशाहों का भी रहा। जानकारी के अनुसार प्रदेश में अब तक तकरीबन 50 से भी अधिक नौकरशाहों और अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकार ने पुनर्नियुक्तियां दी हैं। कहा जाता है कि सत्ता के साथ नजदीकियां और सामंजस्य बैठाकर काम करने वाले सरकार के चहेते रहे हैं। जिन मुख्य सचिवों ने जरा-सा भी अपनी प्रशासनिक क्षमता का उपयोग करना चाहा वे सरकार की टेढ़ी नजर का शिकार बने। 13 वर्ष में बढ़ी पुनर्वास की परंपरा मप्र में आला नौकरशाहों के पुनर्वास के लिए पिछले 13 साल स्वर्णीम रहे हैं। प्रदेश की शिवराज सरकार आला नौकरशाहों पर खास तौर पर मेहरबान है। आला पदों से सेवानिवृत्त हो रहे अफसरों के पुनर्वास में सरकार देरी नहीं कर रही है। प्रदेश में पिछले तेरह सालों में मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक के पदों पर काबिज रहे आईएएस व आईपीएस अफसरों पर भाजपा सरकार जमकर मेहरबान है। इन अफसरों को रिटायरमेंट के बाद उपकृत करते हुए मलाईदार पदों पर बैठाया गया है। सरकार इनके वेतन भत्तों पर हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। रिटायरमेंट के बाद सरकार इन्हें सवा लाख रुपए तक वेतन और अन्य सरकारी सुविधाएं हर माह उपलब्ध कराती है। राज्य सरकार की सबसे अधिक मेहरबानी पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी पर रही है। 31 जनवरी 2010 को रिटायर होने के बाद साहनी को सरकार ने उन्हें मुख्यमंत्री का ऊर्जा सलाहकार बनाया। इसके बाद उन्हें विद्युत नियामक आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। वहां का कार्यकाल खत्म होने के बाद सरकार ने अब उन्हें नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया है जिस पर वे काम कर रहे हैं। यह पद मंत्री स्तर का होता है। साहनी की नियुक्ति को कई स्तरों पर चुनौती दी गई है। 66 साल की उम्र में रिटायर्ड आईएएस राकेश साहनी कैसे नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के चेयरमैन पर पर हैं? यह अहम सवाल हाईकोर्ट में दायर याचिका के संदर्भ में उठा है। राकेश साहनी की नियुक्ति को कठघरे में रखते हुए हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका में रिवाइंडर पेश किया गया है जिसमे नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के अध्यक्ष डॉ. पीजी नाजपांडे ने आरोप लगाया है कि जन्म तिथि के मुताबिक साहनी की उम्र 26 जनवरी 2015 को ही 65 साल की हो चुकी है, लिहाजा वे चेयरमैन पद पर कानूनन नियुक्त नहीं किए जा सकते। जनहित याचिका में कहा गया है कि विद्युत नियामक अधिनियम की धारा 89 की उपधारा 5 (ए) के अनुसार ऐसा व्यक्ति जो विद्युत नियामक आयोग का अध्यक्ष या सदस्य रह चुका है, वह पद छोडऩे के दो वर्ष बाद तक ऐसी संस्था का पद स्वीकार नहीं कर सकता, जो नियामक आयोग के समक्ष कार्रवाई के दौरान पक्षकार रहा हो और विद्युत उद्योग में सम्मिलित है। आवेदक का कहना है कि एनवीडीए की सरदार सरोवर, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर व बरगी सहित अन्य विद्युत इकाइयां हैं, जिनके द्वारा उत्पादित बिजली की दर निर्धारित करने विद्युत नियामक आयोग के समक्ष प्रत्येक वर्ष सुनवाई होती है। याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा है कि इससे यह स्पष्ट है कि विद्युत उद्योग में नियामक आयोग व एनवीडीए पूर्णत: संलग्न हैं। विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन के रूप में राकेश साहनी का कार्यकाल जनवरी 2015 में पूरा हुआ था। इसके बाद उन्हें जुलाई 2015 में एनवीडीए का चेयरमैन बना दिया गया, जबकि नियमानुसार जनवरी 2017 तक उन्हें प्राधिकरण का चेयरमैन नहीं बनाया जा सकता। ऐसे अध्यक्ष पद पर उनकी नियुक्ति पूर्णता अवैधानिक है। लेकिन साहनी पर सरकार मेहरबान है और वे नियम विरूद्ध ही सही एक कैबिनेट मंत्री का रूतबा हासिल किए हुए हैं। एनवीडीए के चेयरमेन राकेश साहनी को प्रदेश सरकार ने कैबिनेट मंत्री के दर्जे से नवाज रखा है, विडम्बना यह है कि नर्मदा धाटी विकास विभाग के मंत्री लाल सिंह आर्य को राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त है। ऐसे में सवाल यह उठ सकता है कि क्या किसी राज्यमंत्री के अंडर में कैबिनेट मंत्री दर्जे के व्यक्ति को पदस्थ किया जा सकता है। बताया जाता है कि कुछ अफसर भी इस विडम्बना से सरकार को अवगत करा चुके हैं। ये भी पा रहे हैं ईनाम भाजपा की सरकार 2003 में बनने के बाद पूर्व सीएस आदित्य विजय सिंह को भी एनवीडीए और राज्य निर्वाचन आयुक्त की जिम्मेदारी मिल चुकी है। इनकेअलावा 1978 बैच के आईएएस आर परशुराम मार्च 2013 को रिटायर हुए, तब सरकार ने पहले उन्हें छह महीने की सेवावृद्धि दी। आर. परशुराम मुख्य सचिव पद से 30 सितम्बर 2013 को रिटायरमेंट के बाद राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त के पद पर काम कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि परशुराम 1 मई 2012 को मुख्य सचिव बने थे। इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ प्रदेश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। दोनों की जोड़ी ने ऐसा प्लेट फार्म तैयार किया की प्रदेश में भाजपा तीसरी बार सरकार बनाने में सफल रही। हालांकि विधानसभा चुनाव से पूर्व ही 30 सितंबर 2013 को परशुराम रिटायर हो गए थे। देवराज बिरदी-1982 बैच के आईएएस अफसर डॉ. देवराज बिरदी को भी रिटायर होते ही राज्य सरकार ने राकेश साहनी का उत्तराधिकारी बना दिया। बिरदी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा सहित मध्यप्रदेश राज्य विद्युत नियामक आयोग का चेयरमैन बनाया गया। फरवरी 2015 को यह नियुक्ति पांच के लिए की गई है। पदमवीर सिंह -मोहाली पंजाब के रहने वाले पदमवीर सिंह 1977 बैच के मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस हैं। सेवा अवधि पूरी होने के बाद राज्य सरकार ने इन्हें मध्यप्रदेश वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। डीआरएस चौधरी- अगस्त 2013 को स्टील मंत्रालय से सचिव के पद से रिटायर हुए डीआरएस चौधरी मध्यप्रदेश 1977 बैच के आईएएस हैं। चौधरी को राज्य सरकार ने राज्य वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। मलय राय-व्यापमं के चेयरमैन पद पर रहते हुए मलय राय मुख्यसचिव वेतनमान से रिटायर हुए थे। राय के राज्य वित्त आयोग में पुनर्वास का मामला बेहद दिलचस्प है। 1977 बैच के इस अफसर का पुनर्वास तब किया गया जब मुख्यमंत्री विदेश दौरे पर थे। विधि विभाग के प्रमुख सचिव रहे केडी खान फिलहाल राज्य सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त हैं। वहीं रिटायर्ड आईएएस एचएल त्रिवेदी सूचना आयुक्त हैं। मानवाधिकार आयोग में वीएम कंवर आईपीएस रहे हैं। फिलहाल कार्यवाहक अध्यक्ष हैं। अरूण भट्ट सेवानिवृत्ति के बाद से सीएम के ओएसडी हैं। तेरह सालों में मलाईदार पदों पर पूर्व डीजीपी काबिज होने में कामयाब रहे हैं। पूर्व डीजीपी डीसी जुगरान सूचना आयुक्त बन चुके हैं, वहीं लोकायुक्त डीजीपी के पद से रिटायर हुए सुखराज सिंह अभी सूचना आयुक्त हैं। स्वराज पुरी मप्र निजी विश्वविद्यालय विनियामक आयोग के पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर काम कर रहे हैं। स्वराज पुरी-1972 बैच के ही आईपीएस अफसर स्वराज पुरी भी रिटायरमेंट के बाद दूसरी बार अपना पुनर्वास करवाने में सफल रहे। पुरी को 2005 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने प्रदेश का पुलिस महानिदेशक बनाया था। इसी दौरान भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री संजय जोशी को सीडी कांड में क्लीनचिट दी गई थी। पुरी का मजबूत पक्ष ये है कि 1981 में जब पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी शहडोल के कलेक्टर थे, तब वे वहां एसपी थे। 1984 में भोपाल एसपी रहते हुए उन्होंने ही भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार वारेन एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। वर्ष 2006 में सीएम बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें डीजीपी पद से हटा दिया था। बाद में शिकायत निवारण प्राधिकरण में सदस्य बनाए गए। हाल ही में उन्हें दोबारा फीस नियामक आयोग का सदस्य बनाया गया है। डीजीपी रहे आनंद राव पवार को शिकायत निवारण प्राधिकरण नर्मदा संकुल परियोजना में, एसके राउत नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में पुनर्वास हासिल करने में कामयाब रहे हैं। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने पूर्व डीजीपी नंदन दुबे और सुरेन्द्र सिंह को राज्य आपदा प्रबंधन संस्थान और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुखिया और उपसभापति की जिम्मेदारी सौंपी है। इसके अलावा पूर्व डीजीपी स्व. एएन सिंह भी इसी सरकार के कार्यकाल में मैनिट के चेयरमैन बनने में कामयाब हुए थे। अब डिसा के पुनर्वास की तैयारी प्रदेश की भाजपा सरकार के चहेते अफसरों में शामिल एंटोनी डिसा के मुख्य सचिव पद से रिटायर होने के बाद अब सरकार उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने में जुट गई है। संभावना जताई जा रही है कि डिसा को रियल एस्टेट रेग्यूलेटरी अथॉरिटी (रेरा) का चेयरमैन बनाया जा सकता है। रेरा के चेयरमैन का वेतन मुख्य सचिव के बराबर होगा। साथ ही सुविधाएं व भत्ते राज्य निर्वाचन आयुक्त के अनुसार मिलेंगी। रेरा के सदस्य को मिलने वाली सुविधाएं उसके द्वारा पूर्व में सेवारत रहते हुए ली गई सुविधाओं के ही बराबर होंगी। नगरीय विकास एवं आवास विभाग ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी। डिसा को रेरा का चेयरमैन बनाए जाने की सुगबुगाहट है। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में गठित चयन समिति की एक बैठक हाल ही में हो भी चुकी है। जल्द ही दूसरी बैठक करके पैनल तैयार किया जाएगा। राज्य सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि जल्द से जल्द नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी हो जाए। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने रियल स्टेट (रेग्यूलेशन एंड डेवलपमेंट) एक्ट तो लागू कर दिया, साथ ही चेयरमैन की नियुक्ति के मापदंड भी बना दिए। इसी आधार पर राज्य सरकार ने नियम बना लिए, लेकिन रेरा क्या काम करेगा, इसका नोटिफिकेशन अभी तक केंद्र सरकार की ओर से नहीं किया गया है। इन्हें नहीं मिल पाया मौका भाजपा के 13 साल के कार्यकाल में जिन पूर्व मुख्य सचिवों को सरकार ने मलाईदार पदों पर नहीं नवाजा, उनमें बीके साहा, विजय सिंह और अवनि वैश्य के नाम हैं। विजय सिंह को शायद पुनर्वास इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि मुख्य सचिव रहते हुए वर्ष 2005 में एसआर मोहंती व अन्य के पक्ष में हाई कोर्ट को एफिडेविट देकर क्लीन चिट दिलवाई थी। तब इस मामले को लेकर विवाद उठा था और फिर कुछ दिनों के बाद मुख्यमंत्री पद पर पहली दफा काबिज होते ही शिवराज सिंह चौहान ने सीएस विजय सिंह को हटा दिया था। इसी तरह भोपाल में आईएएस एसोसिएशन मीट 2010 में दी गई दारु और दावत पार्टी का भुगतान सरकारी खजाने से करने के मामले में फंसे होने के कारण अवनि वैश्य को भी पुनर्वास का मौका नहीं मिल सका। ज्ञातव्य है कि भोपाल में आईएएस एसोसिएशन मीट 2010 का आयेाजन 8 अक्टूबर 2010 को एसोसिएशन के अरेरा क्लब में किया गया था। इस मौके पर रात्रि में दारु पार्टी और शानदार दावत भी हुई। कायदे से इस दारु पार्टी और दावत का भुगतान एसोसिएशन को करना था। लेकिन अरेरा क्लब ने 250 लोगों की इस पार्टी का 1 लाख 43 हजार 901 रुपए 25 पैसे का बिल तत्कालीन मुख्य सचिव अवनि वैश्य के नाम से बनाया। मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव सामान्य प्रशासन के निर्देश पर राज्य के शिष्टाचार अधिकारी संजय मिश्रा ने इसका भुगतान सरकारी खजाने से कर दिया। आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे ने सूचना के अधिकार के तहत उक्त जानकारी निकालकर इसकी शिकायत 18 मई 2011 को मप्र के लोकायुक्त से की, लेकिन लगभग हर मामले की तरह लोकायुक्त ने इस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं की। अजय दुबे ने इस संबंध में मप्र हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके उक्त भुगतान की राशि मुख्य सचिव से वसूलने और जिम्मेदार अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की। शायद यही वजह है कि सरकार ने उन्हें रिटायरमेंट के बाद फिर कोई पद नहीं दिया। इनके अलावा पूर्व डीजीपी एसके दास भी सरकार से उपकृत नहीं हो सके। इन अफसरों का कार्य कहीं न कहीं समझौतावादी नहीं था। शायद यही वजह है कि सरकार की मेहरबानी इन पर नहीं बरसी है। कुछ पर मेहरबानी, कुछ को उठानी पड़ रही परेशानी भाजपा के 13 साल के अब तक के शासन में यह भी देखने को मिला है की कुछ अफसर सरकार की मेहरबानी पर अंगद के पांव की तरह जमे हुए हैं वहीं कई फुटबाल बने हुए हैं। अंगद के पांव बने अफसरों में तो 1985 बैच के आईएएस अफसर रजनीश वैश ने एक ही विभाग में लगभग 15 साल रहने का रिकॉर्ड बना लिया है। प्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद अधिकांश आईएएस अधिकारियों के 8 या उससे अधिक बार तबादले हुए हैं, वही वैश के मात्र दो। वैश की नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में पहली पोस्टिंग 1998 में बतौर डायरेक्टर हुई थी और वे अपर मुख्य सचिव रैंक तक पहुंचने के बाद भी यहां बतौर उपाध्यक्ष जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वैश मप्र काडर के शायद पहले अफसर हैं, जिन्होंने लगभग आधा सेवाकाल एक ही विभाग में पूरा कर लिया है। पिछले 18 साल में उनकी अन्य विभाग में पदस्थापना केवल दो बार हुई। उनके रिटायर होने में अभी ढाई साल का समय है। केंद्र सरकार के नियम और राज्य सरकार की प्रशासनिक परंपरा के अनुसार अखिल भारतीय सेवा के अफसरों को एक विभाग में तीन-चार साल रही रखा जाता है। लेकिन वैश की पोस्टिंग के मामले में सरकार ने अपने अधिकारों का पूरा उपयोग किया है। उन्होंने नंवबर 1998 से लेकर अप्रैल 2005 तक अपनी पहली पारी एनवीडीए में खेली। इसके बाद वे इंदौर में लेबर कमिश्नर रहे और मात्र एक महीने के लिए गृह विभाग में सचिव के तौर पर पदस्थ रहे। तीन साल बाद जुलाई 2008 के बाद प्राधिकरण में वापस आने के बाद से वे लगातार यहीं पदस्थ हैं। पूर्व मुख्य सचिव केएस शर्मा कहते हैं कि किसी भी अफसर की एक ही विभाग में लंबे समय तक पोस्टिंग सामान्य घटना नहीं है। एक अफसर को एक विभाग में ज्यादा समय तक पदस्थ रखना प्रशासनिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है। वैसे भी अखिल भारतीय सेवा के अफसरों के लिए केंद्र सरकार का स्पष्ट नियम है कि किसी भी अफसर को तीन साल से ज्यादा समय तक एक विभाग में नहीं रखा जाए। यह सिविल सेवा आचार संहिता नियम 1966 की भावना एवं बाध्यकारी प्रावधानों के विपरीत है। वैश की एक विभाग में रिकार्ड पदस्थापना इस बात का संकेत है की प्रदेश में आईएएस अफसरों के तबादलों में सिविल सेवा आचार संहिता नियम 1966 का पालन नहीं होता है। जिस अफसर पर सरकार मेहरबान है वह पहलवान बना हुआ है। तभी तो जहां कुछ अफसर एक ही विभाग में कई वर्ष जमे रहे हैं वहीं कईयों को बार-बार स्थानांतरित किया जाता रहा है। कई तो वैश के बैचमेट हैं जिनका 10 साल में 5 से 10 बार तक तबादला हो चुका है। वैश के बैचमेट्स राधेश्याम जुलानिया का पिछले 10 साल में 5 बार तबादला हुआ है। वहीं दीपक खांडेकर का 6 बार, प्रभांशु कमल का 9 बार, इकबाल सिंह बैंस का 8 बार, केके सिंह का 12 बाद और विनोद विनोद सेमवाल का 8 बार। इनके अलावा पिछले 10 साल में शोभित जैन व ज्ञानेश्वर पाटिल का 16 बार, रश्मि अरुण शमी व मनीष रस्तोगी का 14 बार, अमित राठौर, गुलशन बामरा, मनोहर अगनानी व संतोष मिश्रा का 13 बार, अलका उपाध्याय, मुक्तेश वाष्र्णेय व कल्पना श्रीवास्तव का 12, के सी गुप्ता, आशीष उपाध्याय, एस एन मिश्रा व जे एन कंसोटिया का 11 और राजेश राजोरा, पंकज अग्रवाल व अजीत केसरी का10 बार स्थानांतरण हो चुका है। वहीं कुछ युवा अफसर भी सरकार के लिए फुटबाल बने हुए हैं। पिछले 8 साल में 2007 बैच की स्वाति मीणा नायक जून 2016 में खंडवा कलेक्टर पदस्थ हुईं। नौकरी में आने के बाद आठ साल में यह उनकी 10वीं पोस्टिंग थी। इसी तरह 2005 बैच के संजीव सिंह के 12 व जीवी रश्मि का 10 बार तबादला हो चुका है। और ये हैं सत्ता के चहेते मप्र में कुछ अफसर ऐसे हैं जिनकी कुंडली में सत्ता का चहेता बने रहने का योग है। मुख्यमंत्री चाहे कोई भी हो सरकार में इन्हीं की चलती है। वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की हार के बाद जिस तरह उनके करीब अफसर निशाने पर थे, उससे ऐसा लगा था की इन अफसरों को भाजपा सरकार हासिए पर रखेगी। लेकिन देखा यह जा रहा है कि वर्तमान सरकार में वहीं अफसर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विश्वास पात्र हैं जो दिग्विजय सिंह के हुआ करते थे। अगर शिवराज के अति प्रिय अफसरों की बात की जाए तो इसकी शुरुआत पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी से होती है। शिवराज ने मुख्यमंत्री बनने के बाद साहनी को जब मुख्य सचिव का ताज पहनाया था तो वो वरिष्ठता सूची में नौवीं पायदान पर थे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि शिवराज के मुख्यमंत्री रहते हुए जो मुख्य सचिव अब तक रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा कामयाब और पावरफुल वही माने जा सकते हैं। साहनी ने अपने सीएस रहते हुए मुख्यमंत्री सचिवालय में प्रमुख सचिव स्तर के किसी भी अफसर को नहीं आने दिया। उनके सबसे प्रिय अफसर इकबाल सिंह ही पहले सचिव और बाद में प्रमुख सचिव बनकर रह सके। नौकरी में रहते साहनी मप्र बिजली बोर्ड के चैयरमैन रहे और सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें मप्र बिजली नियामक आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। ये कार्यकाल पूरा हुआ तो अब साहनी नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल है। उनकी नियुक्ति में कानून का उल्लंघन भी हो रहा है मगर कांग्रेस से उनकी इतनी करीबी रही है कि कभी कांग्रेस ने भी उनकी नियुक्ति पर कोई सवाल नहीं उठाया। सीएम के करीबी में दूसरा नाम है साहनी के शिष्य और वर्तमान में अपर मुख्य सचिव इकबाल सिंह बैंस का। बैंस का दिग्विजय सिंह के दौर में भी इकबाल बुलंद था। उनके गृह जिले गुना की कलेक्टरी करते हुए वो भोपाल कलेक्टर बने और आबकारी आयुक्त जैसा ओहदा भी उन्होंने संभाला। जब शिवराज सीएम बने तो बैंस उनके सचिवालय में सबसे ताकतवर सचिव के रूप में मौजूद थे। पिछले महीने वह अपर मुख्य सचिव बनने के बाद वहां से अपनी इच्छा से ही हटे और उनके उत्तराधिकारी के रूप में प्रमुख सचिव बनकर सीएम सचिवालय में आए अशोक वर्णवाल भी इकबाल की मर्जी से नियुक्त किए गए। सीएम के तीसरे चहेते हैं अशोक वर्णवाल। मुख्यमंत्री जब भी कैबिनेट या मंत्रियों के साथ समीक्षा बैठक करते हैं तो उनके साथ केवल मुख्य सचिव ही बैठते हैं। प्रमुख सचिव रहते हुए न तो इकबाल सिंह ने ऐसी हिमाकत की और न मनोज श्रीवास्तव ने। लेकिन वर्णवाल हाल ही में एक समीक्षा बैठक के दौरान मुख्यमंत्री के बाजू में बैठे तो बैठक कक्ष में मौजूद सारे अफसरों के बीच उनका रुतबा चर्चा का विषय बन गया। चौथे नंबर पर हैं मोहम्मद सुलेमान जिन्हें इकबाल के बाद सीएम का सबसे करीबी अफसर माना जाता है। इन्हें दिग्गी का भी करीबी माना जाता था। फिलहाल प्रमुख सचिव उद्योग के बतौर कार्यरत सुलेमान को अब शिवराज अपना हनुमान मानते हैं। वो लालकृष्ण आडवाणी के रिश्तेदार हैं तो मोदी के करीबी उद्योगपति गौतम अडानी से भी उनके गहरे संपर्क हैं। शिवराज के करीबी अफसरों में पांचवा नंबर है लोक निर्माण महकमे के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल का। इनके तुगलकी फरमानों से महकमे के अफसर ही नहीं बल्कि लोक निर्माण विभाग के मंत्री भी परेशान हैं। शिवराज के सबसे करीबी मंत्री रामपाल सिंह की भी उन्हें कोई परवाह नहीं है। विभाग के प्रमुख अभियंता अखिलेश अग्रवाल को उन्होंने इतना पंगु बना दिया है कि उन्होंने वहां काम करने से मना कर दिया है। इसी प्रकार सात साल से जल संसाधन विभाग में प्रमुख सचिव रहे राधेश्याम जुलानिया जब अपर मुख्य सचिव बने तो उन्हें ग्रामीण विकास विभाग की कमान और सौंप दी गई। ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के एतराज के बाद भी जुलानिया ग्रामीण विकास में डटे हुए हैं। इसी मध्य प्रदेश में आयकर छापे के बाद पोषण आहार कारोबारियों पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आंगवाडिय़ो में टेक होम राशन की व्यवस्था खत्म करके सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के मुताबिक स्व सहायता समूहों को कुपोषित बच्चों और प्रसूता महिलाओं को भोजन की व्यवस्था के निर्देशों की महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव जेएन कंसोटिया धता बता रहे हैं। कंसोटिया के जरिए शिवराज ने तीन महीने पहले दलित एजेंडा की राह भी पकड़ी है। लेकिन मुख्यमंत्री की इन अफसरों पर विश्वसनियता अब भारी पडऩे लगी है। क्योंकि इन अधिकारियों ने सरकार को जकड़ लिया है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सरकार में मंत्रियों की भी नहीं चल रही है। करीब 11 साल से मध्य प्रदेश पर राज कर रहे शिवराज सिंह चौहान को इन अफसरों ने दिग्विजय सिंह की स्थिति में ला खड़ा किया है। आलम यह है कि चपरासी तबादला भी मुख्यमंत्री के दस्तखत के बगैर नहीं हो सकता। जाहिर है कि जनप्रिय नेता होने के नाते शिवराज को तो फाइलें देखने की फुरसत नहीं रहती। ऐसे में अपवादों को छोड़ दें तो होता वही है जो उनके करीबी अफसर चाहते हैं। खास बात यह है कि मुख्यमंत्री के करीबी और अति प्रिय अफसरों में ज्यादातर वही हैं जो या तो दिग्गी के प्रिय थे या फिर उनके चहेते जूनियर थे। नेताओं से ज्यादा भरोसा अफसरों पर मप्र में देखा यह जा रहा है कि सरकार अपने नेताओं से ज्यादा अफसरों पर भरोसा कर रही है। यही कारण है कि सरकार की योजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। इसका असर पार्टी पर पड़ रहा है। जिसका नजारा शहडोल लोकसभा के उपचुनाव में देखने को मिला है जहां 2,50,000 की लीड से लोकसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा ने उपचुनाव में करीब 60,000 से ही जीत हासिल की। वह भी शिवराज की बदौलत। जब-जब चुनाव का मौका आता है पार्टियों को अपने नेता और कार्यकर्ता याद आते हैं, लेकिन जब सरकार चलाने की बात आती है तो प्राथमिकता में चुनिंदा अफसर ही होते हैं, उसमें भी कई सेवानिवृत्त अधिकारी, जिन्हें सरकार में खास जगह मिलती रहती है। प्रदेश की मौजूदा भाजपा सरकार का भी यही हाल है। कार्यकर्ता नाराज हैं, क्योंकि उनकी सुनने वाला कोई नहीं है, नेता नाराज हैं कि अफसर उन्हें भाव नहीं दे रहे हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता नाराज हैं की उनकी नियुक्ति में उम्र का बंधन खड़ा किया जा रहा है इधर जब अफसरों के पुनर्वास की बात आती है तो न उम्र का बंधन देखा जाता है और न अन्य कोई दिक्कत आती है, न कोई मुहूर्त देखा जाता है। लाखों की पगार व बंगला-गाड़ी का लाभ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री निश्चित रूप से लोकप्रियता के शिखर पर हैं। लेकिन कहीं न कहीं वरिष्ठ नौकरशाहों पर प्रदेश सरकार के मेहरबानी नजर आ रही है। मध्यप्रदेश में बड़े प्रशासनिक पदों पर रहे आईएएस व आईपीएस अधिकारियों पर प्रदेश सरकार पूरी तरह से आश्रित नजर आती है। इसका प्रमाण हैं मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक जैसे पदों पर आसीन रहे दस से अधिक आईएएस व आईपीएस को सेवानिवृत्ति के बावजूद सेवावृद्धि करते हुए तमाम बड़े पदों पर आसीन कर दिया गया है। राज्य सरकार का अधिकारी मोह कम होने का नाम नहीं ले रहा है। तमाम ऐसे आईएएस हैं जिनकी प्रदेश सरकार में इतनी तूती बोलती है कि कई बार सत्ता और संगठन से जुड़े कई जनप्रतिनिधियों तक को उनके आगे नतमस्तक होना पड़ता है। यह बात तो है उन अधिकारियों की जो अभी कई पदों पर कार्य कर रहे हैं। लेकिन अब शिवराज सरकार ऐसे तमाम आईएएस व आईपीएस अधिकारियों को भी उपकृत करती नजर आ रही है जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कर्ज और वित्तीय संकट के बावजूद सेवानिवृत्ति के बाद भी उपकृत कर बड़े पदों पर बिठाए गए तमाम नौकरशाहों के वेतन, भत्तों पर हर साल करोड़ों रुपए का वित्तीय भार सरकार सहन कर रही है। उल्लेखनीय है कि इन अधिकारियों पर सरकार जहां वेतन भत्तों के रूप में सवा से डेढ़ लाख रुपए तक वहन कर रही है वहीं बंगला, गाड़ी सहित तमाम सरकारी सुविधाओं पर भी लाखों रुपए का भार सरकार पर पड़ रहा है।

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