बुधवार, 21 दिसंबर 2016

दागी कंपनी के हाथ में मप्र का स्वास्थ्य

कई राज्यों में फर्जीवाड़ा करने वाली जेडएचएल को सौंपा चिकित्सा सेवाओं का ठेका
भोपाल। मप्र में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जीरो टॉलरेंस ही सुशासन का मूल मंत्र है। लेकिन देखा यह जा रहा है कि अफसरशाही कागजी आंकड़े परोस कर सरकार से गलत काम करवा रहे हैं। ऐसा ही मामला मप्र में 108 एंबुलेस के संचालन का ठेका देने में सामने आया है। बताया जाता है की दूसरे राज्यों की भाजपा सरकार के लिए जो जिगित्सा हेल्थ केयर लिमिटेड (जेडएचएल) भ्रष्टाचारी थी, उसे अफसरों ने बेस्ट परफॉरमर कंपनी बताकर 108 एंबुलेंस सहित तीन अहम चिकित्सा सेवाओं का ठेका दे दिया है। इस कंपनी के खिलाफ राजस्थान की भाजपा सरकार सीबीआई जांच करवा रही है। स्वास्थ्य सेवाओं में भ्रष्टाचार की यूं तो अनेक नजीरें हैं लेकिन नया खेल इस आपात सेवाओं को लेकर है। योजना में बजट समूचा सरकार का और काम दक्षिण की निजी फर्म को। वह भी बिना किसी प्रतिस्पर्धा के। कहा जाता है कि इस संस्था के कर्ताधर्ता भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के करीबी हैं। इन्हीं के दबाव में भाजपा शासित अन्य राज्यों की तरह प्रदेश सरकार ने भी इस फर्म को उपकृत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा सड़क निर्माण के ठेके देने में भी फर्म के प्रति काफी उदारता बरती गई। प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत उपलब्ध कराई जा रही चलित स्वास्थ्य सेवाओं (मोबाइल हैल्थ सर्विस) के लिए जेडएचएल को दिया गया ठेका विवादों में फंस गया है। दरअसल, जेडएचएल ने कई राज्यों में फर्जीवाड़ा किया है, लेकिन इस कंपनी का कनेक्शन इतना मजबूत है कि दागदार होने के बाद भी राज्यों में इस कंपनी को स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। बताया जाता है कि कंपनी के दागदार हाने की खबर सरकार को भी थी, लेकिन वह अफसरों की रिपोर्ट पर विश्वास करते हुए उसे पूरे प्रदेश में एकीकृत प्रणाली के तहत 108 एम्बुलेंस, जननी एक्सप्रेस और मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू) के संचालन जा जिम्मा दे दिया है। साथ ही कंपनी इन तीनों सेवाओं से संबंधित केन्द्रीयकृत कॉल सेंटर (104) को भी चलाएगी। जेडएचल की वेबसाइट के मुताबिक, यह कंपनी मध्य प्रदेश से पहले तक 10 राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं संचालित कर रही थी। इनमें से कई राज्यों में इस कम्पनी पर अनियमितताओं के आरोप लगे हैं। जांच की मांग हुई है। कहीं-कहीं तो सीबीआई जांच तक चल रही है। इसीलिए कुछ राज्यों में इसकी सेवाओं का या तो दायरा सीमित कर दिया गया है, या फिर इसे सेवा उपलब्ध कराने लायक ही नहीं समझा गया। लेकिन मप्र में इस कंपनी को साढ़े सात करोड़ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सौंप दी है। यहां बताते चलें कि 108 एम्बुलेंस सड़क दुर्घटनाओं में घायल हुए लोगों को अस्पताल पहुंचाने का काम करती है। जननी एक्सप्रेस गर्भवती महिलाओं और पांच साल तक के बच्चों को आपातकाल की स्थिति में उनके घरों से लेकर अस्पताल पहुंचाती है और ठीक होने पर उन्हें अस्पताल से घर छोड़ती है। तमाम सुविधाओं वाली एमएमयू के जरिए दूरदराज के उन इलाकों में शिविर लगाकर लोगों को स्वास्थ्य सुविधा दी जाती है जहां प्राथमिक अस्पताल भी नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक, इन तीनों ही स्वास्थ्य सेवाओं के तहत प्रदेशभर में दौड़ रहीं करीब 1,450 गाडिय़ां रोज लगभग 25,735 से ज्यादा मरीजों, घायलों की मदद करती हैं। यानी हर महीने में करीब 7,72,050 लोगों की। स्थानीय वेंडरों का भी काम छिना अब तक हैदराबाद के कारोबारी गणपति वेंकट कृष्णा (जीवीके) रेड्डी की कम्पनी मप्र में केवल 108 एम्बुलेंस संचालित करती थी जबकि बाकी दो सेवाएं जिला और ब्लॉक स्तरों पर स्थानीय वेंडर चलाते थे। लेकिन स्थानीय वेंडरों के रोजगार के इस साधन को उनसे छिनकर अब, एकीकृत प्रणाली के तहत तीनों सेवाएं जेडएचएल को संचालित करने को दे दिया गया है। एक ऐसी कंपनी जिसका दामन दागदार है जीवीके यानि गणपति वेंकट कृष्णा रेड्डी की कंपनी हैै जो आंध्रप्रदेश के उद्यमी। बड़े उद्योग के क्षेत्र में इन्होंने पहले पॉवर संयंत्र की स्थापना 1997 में की। तब देश में एनडीए की सरकार थी और भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री। यहां यह बताना इसलिए जरूरी है कि इस अल्पावधि में इस फर्म ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की और आज यह ऊर्जा के अलावा रिर्सोसेज, एवीएशन, ट्रांसपोर्टेशन, हॉस्पिटीलिटी व लाइफ साइंस समेत विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही है। हास्पिटीलिटी यानि घायलों को तुरंत चिकित्सा सेवा मुहैया करवाने उन्हें अस्पताल पहुंचाना। यह कार्य भी इस समूह द्वारा किया जा रहा है। इसे इएमआरआई अर्थात इमरजेंसी मैनेजमेंट एंड रिसर्च सेंटर नाम दिया गया है। जीवीके फाउंडेशन के बैनर तले दी जा रही इस आपात सेवा के लिए टोल फ्री नंबर 108 है और आम बोलचाल की भाषा में इसे इसी नाम से जाना जाता है। जीवेके इएमआरआई वर्तमान में मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड, गोआ, तमिलनाडू, कर्नाटक, असम, मेघालय, उत्तरप्रदेश, दादर नगर हवेली व दमन दीव में अपनी सेवाएं दे रहा है। खास बात यह है कि जीवीके ईएमआरआई फाउंडेशन की सेवाओं वाले इन अधिकांश राज्यों में भाजपा या एनडीए के घटक दलों की सरकार है। जो यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा या उससे संबंद्ध घटक दल जीवीके पर खासे मेहरबान रहे हैं। सबसे पहले राजस्थान की बात करते हैं। यहां इस कम्पनी को 2009 में 108 एम्बुलेंस चलाने का ठेका मिला था। लेकिन 2011 में जब एनआरएचएम के राजस्थान के वित्तीय सलाहकार ने इस कम्पनी के संचालन का अध्ययन किया तो तमाम गड़बडिय़ां पाईं। उन्होंने बताया कि सितंबर 2011 में कम्पनी ने सरकार से भुगतान हासिल करने के लिए एम्बुलेंसों के 55,000 फेरे दिखाए जबकि उस महीने में सिर्फ 37,000 फेरे ही हुए थे। इसी महीने में कम्पनी ने 50 उन एम्बुलेंसों से संबंधित बिल भी सरकार को थमा दिए, जो सड़कों पर चली ही नहीं थीं। राज्य के सतर्कता अधिकारियों ने भी पाया कि कम्पनी ने मार्च से सितंबर 2011 के बीच सरकार से करीब 3.5 करोड़ रुपए के बिलों का बेजा भुगतान हासिल किया था। ये तथ्य सामने आने के बाद कुछ महीनों तक मामला राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों में उलझा रहा। इसी बीच दिसंबर 2013 में भाजपा की सरकार बन गई। अक्टूबर 2014 में राज्य पुलिस ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से सिफारिश की कि मामले की सीबीआई से जांच कराई जाए। मुख्यमंत्री ने इस सिफारिश को मानकर मामला सीबीआई को सौंप दिया। अगस्त 2015 में सीबीआई ने केस अपने हाथ में लेकर जेडएचएल के कई निदेशकों के ठिकानों पर छापे मारे थे। फिलहाल इस मामले की जांच जारी है। लेकिन इस बीच अपने रसूख का फायदा उठाते हुए कंपनी ने एक बार फिर से काम अपने हाथ में ले लिया है। दरअसल, राजस्थान में मरीजों को एंबुलेंस की सेवा बमुश्किल ही मिल पाती है, इसके विपरीत मरीजों के नाम पर बिल का मीटर तेजी से दौड़ रहा है। एंबुलेंस की एक ही ट्रिप में चार-चार मरीजों के नाम पर पैसे उठा लिए, कभी मेले में खड़ी एंबुलेंस ने ही मरीजों को लाने का दोहरा भुगतान भी उठा लिया, तो कभी फर्जी कॉल की एंट्री से भुगतान कर दिया गया। राजस्थान ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के रिकॉर्ड के सरकारी दस्तावेज कुछ यही कहानी कह रहे हैं। दरअसल इस गड़बड़ी का खुलासा सूचना के अधिकार अधिनियम अंतर्गत ही हो सका। एक स्थानीय एक्टिविस्ट की सक्रियता पर यह बात सामने आई कि बीते माह ही जिगित्सा ने ऐसी 50 एंबुलेंस का पैसा ले लिया गया जो दरअसल काम ही नहीं कर रही हैं। 108 एंबुलेंस सेवा के संचालन में नियम ये था कि तीस फीसदी एंबुलेंस एडवांस लाइफ सपोर्ट सिस्टम के साथ होंगी, लेकिन जिगित्सा को ठेके में एडवांस एंबुलेंस सेवा की शर्त हटा दी गई। बताया जाता है कि टेंडर में शर्त थी कि एक एंबुलेंस को 5 ट्रिप अनिवार्य रूप से करने होंगे और ऐसा नहीं करने पर जुर्माना देना होगा, लेकिन जिगित्सा की मांग पर 05 ट्रिप प्रतिदिन की शर्त हटा दी गई। उसकी जगह प्रतिदिन 30 किलोमीटर को एक ट्रिप माना गया। 45 किमी पर डेढ़ और 60 किलोमीटर गाड़ी चलने पर उसे दो ट्रिप मान लिया गया। जेडएचएल केरल के तिरुवनंतपुरम में मई, 2010 और अलप्पुझा में अप्रैल 2012 से 108 एम्बुलेंस संचालित कर रही है। इसके संबंध नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट मार्च 2015 में राज्य विधानसभा में पेश की गई। इसमें बताया गया कि इस एजेंसी ने 2010 से 2013 के बीच बिलों के भुगतान के रूप में सरकार से करीब छह करोड़ रुपए अतिरिक्त वसूल लिए। यही नहीं, वाहनों की कमी के कारण करीब 28,102 इमरजेंसी कॉल भी अटेंड नहीं किए गए। इसके बाद उस वक्त विपक्ष के नेता रहे वीएस अच्युतानंदन ने कम्पनी के खिलाफ जांच की मांग की थी। ओडिशा में इस कम्पनी को मार्च 2013 में आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं के लिए अनुबंध हासिल हुआ था। मध्य प्रदेश जननी एक्सप्रेस संचालक संघ के अध्यक्ष दीपक डालमिया जानकारी देते हैं, 'वहां भी इस कम्पनी के कदाचरण के कारण सरकार ने इस पर सख्ती बरतना शुरू कर दिया है। यही नहीं, इस पर लगे तमाम आरोपों की वजह से कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ सरकार ने इस कम्पनी को निविदा प्रक्रिया में तकनीकी स्तर पर ही बाहर कर दिया था। झारखंड सरकार ने भी इसे सिर्फ कॉल सेंटर के संचालन तक सीमित कर रखा है। ठेका पाते ही शुरू किया फर्जीवाड़ा ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश सरकार को इस मामले में 'दाग अच्छे हैंÓ, वाली टैग लाइन ज्यादा भा गई है। शायद इसीलिए उसने जेडएचएल के ट्रैक रिकॉर्ड का पता होने के बावजूद उसे राज्य में आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं के संचालन का ठेका दे दिया है। और सिर्फ ठेका नहीं, शुरू से ही तमाम अनियमिताएं करने की गुंजाइश भी दे दी है। इसका पहला उदाहरण कंपनी के साथ हुए अनुबंध में मिलता है। जेडएचएल ने छह सितंबर, 2016 को सरकार के साथ अनुबंध किया है। इस अनुबंध में दूसरे पक्ष के विवरण की जगह पर कम्पनी का स्थानीय पता दर्ज है, वल्लभ भवन, भोपाल। यानी मध्य प्रदेश सरकार का मंत्रालय। इसके बाद सेवाएं शुरू करने से पहले ही जेडएचएल ने बीती 7 अक्टूबर को निविदाएं आमंत्रित कीं। वह भी मध्य प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग की तरफ से। इसके तहत आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं के तहत चलने वाले वाहनों के लिए 1,450 जीपीएस डिवाइस खरीदी जानी हैं। यहां पहला सवाल तो यही है कि कोई निजी कम्पनी सरकार की तरफ निविदाएं कैसे बुला सकती है? इसी से जुड़ा एक और सवाल है जो इस खरीद प्रक्रिया में किसी संभावित धांधली का संकेत देता है। कम्पनी की तरफ से जारी निविदा दस्तावेज के पांचवें पेज में निविदा भेजने वालों के लिए पात्रता की शर्तें बताई गई हैं। इसमें छठवां और आखिरी बिन्दु कहता है, किसी कारण से तकनीकी आकलन के बाद अगर किसी एक कम्पनी का ही टेंडर पात्र पाया गया, तो उसे ही खोल दिया जाएगा। इस उपबंध से यह आशंका जताई जा रही है कि कोई एक कम्पनी ही जीपीएस आपूर्ति के लिए टेंडर डालेगी तो वही बिना किसी प्रतिस्पर्धा के चुन भी ली जाएगी। इन कंपनियों के लिए तकनीकी आधार जेडएचएल को ही तय करने हैं। यहां गौर करने की बात यह भी है कि राज्य सरकार की ओर से 8 अक्टूबर, 2015 को एक आरएफपी (रेफरेंस फॉर प्रपोजल) जारी की गई थी। इसके पेज क्रमांक 89 में साफ तौर पर लिखा हुआ है कि 108 एम्बुलेंस वाली सभी 604 गाडिय़ों में जीपीएस पहले से ही लगे हुए हैं। अब सवाल यह है कि जब गाडिय़ों में जीपीएस लगे हैं तो नए खरीदने की जरूरत क्यों आन पड़ी? इस मामले में उठ रहे सवाल यहीं खत्म नहीं होते। कंपनी द्वारा एनएचएम मध्य प्रदेश की ओर से इसी 19 अक्टूबर को सभी 51 जिलों के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए एक पत्र जारी किया गया है। इसमें लिखा है, जेडएचएल ने 20 अक्टूबर से 108 एम्बुलेंस का संचालन शुरू किया है। जबकि 1 नवंबर से जननी एक्सप्रेस शुरू की गई है। चूंकि इनके संचालन के प्रारंभिक समय में जीपीएस के क्रय और इंस्टालेशन की प्रक्रिया में कुछ समय लगना है। अत: यह निर्णय लिया गया है कि 30 नवंबर, 2016 अथवा जीपीएस इंस्टालेशन होने (जो पहले हो) तक 108, जननी का भुगतान ओडोमीटर रीडिंग के आधार पर किया जाएगा। इस निर्देश की वजह से भी यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि सरकार खुद कम्पनी को भ्रष्टाचार की गुंजाइश मुहैया करा रही है। लगा चुकी है करोड़ों की चपत एनआरएचएम के अधिकारियों का दावा है कि अपने शुरूआती दिनों में ही जीवीके ईएमआरआई 108 एंबुलेंस सेवा ने शासन को करोड़ों रुपए की चपत लगा चुकी है। स्वास्थ्य विभाग के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से एनआरएचएम का वह पैसा जो मप्र सरकार ने गरीब लोगों की जान बचाने दिया गया, जीवीके के अफसरों द्वारा आलीशान होटलों और महंगी हवाई व रल यात्राओं पर खर्च कर दिया गया है। अब तक करोड़ों की राशि अनावश्यक खर्चों में उडाई जा चुकी है। इतना ही नहीं, सरकार और जीवीके के बीच हुए अनुबंध की धज्जियां उडाकर मनमाने तरीके से सरकारी पैसे पर हाथ साफ किया गया है। जानकारों का कहना है कि सारे मामले की सही तरह से जांच से स्वास्थ्य विभाग के कई आला अफसरों पर भी गाज गिर सकती है। बताया जाता है कि ईएमआरआई द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को लेकर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने टिप्पणी कर नोटशीट स्वास्थ्य विभाग को भेजी थी। उस पर विभाग के तत्कालीन उप संचालक एनआरएचएम डॉ. एलबी अस्थाना ने 29 अप्रैल 2010 को इस कंपनी को आरोप पत्र के जवाब मांगें थे। जिसमें पूछा गया था कि जीवीक ईएमआरआई द्वारा अधिकारियों और कर्मचारियों पर कितनी राशि व्यय की जा रही है? क्या मप्र शासन द्वारा प्रारंभ में 100 एंबुलेंस खरीदी करने की राशि एवं अनमति दी गई थी? 108 एंबुलेंस सेवा के लिए विज्ञापन पर खर्च 30 लाख रुपए की अनुमति किससे ली गई? गेस्ट हाउस पर कितनी राशि खर्च की गई? हैदराबाद से विभिन्न कायक्रमों में कितने लोगों क बुलाकर उन पर कितनी राशि शासन की खर्च की गई? क्या इसकी अनुमति थी? वर्ष 2007-08 से वर्ष 2009- 10 में क्रय किए गए वाहन और उपकरणों पर कितना खर्च किया? एंबुलेंस उपकरण खरीदी, ईदगाह हिल्स भोपाल के भवन पर कितना खर्च किया गया? ईएमआरआई प्रमुख द्वारा शासकीय खर्च पर गोवा-हैदराबाद की हवाई और रेल यात्राओं पर कितना खर्च किया गया है। लेकिन कंपनी ने जवाब देना उचित नहीं समझा। बिना टेंडर के करोड़ों की खरीदी बताया जाता है कि अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए जीवीके ईएमआरआई प्रबंधन ने वर्ष 2007-08 में एनआरएचएम से प्राप्त राशि लगभग 4 करड रुपए से बिना कोई टेंडर निकाले करोडों रुपए के कंप्यूटर, सर्बर, जनरेटर एवं भवन की साज सज्जा पर खर्च किए। वहीं मिशन से मप्र के अन्य जिलों में भी 108 की सेवा देने लगभग 11 करोड़ रुपए दिए, लेकिन इन पैसों से एंबुलेंस गाडियां न खरीद कर चुपके से हैदराबाद भेज दिया गया। यह राशि एक साल तक हैदराबाद में कंपनी द्वारा उपयोग की जाती रही। इस दौरान तीन महीने तक कर्मचारियों को वेतन भी नहीं दिया गया। कुछ कर्मचारियों को जबरदस्ती दूसरे राज्यों में स्थानांतरित कर दिया गया। बताया जाता है की दरअसल, कंपनी और सरकार के बीच अनुबंध ही गलत हुआ था। यह एमओयू एक तरफा था और बिना टेंडर के था। इसमें जीवीके ईएमआरआई के हितों को ही ध्यान में रखा गया था। यह एमओयू कई घोटालों में चर्चा में आई सत्यम कंपनी द्वारा साइन किया गया था जो इसकी मातृ संस्था है। सत्यम के चेयरमैन ही ईएमआरआई गर्वनिंग बोर्ड के चेयरमैन थे। एमओयू के अनुसार जीवीके को उनके द्वारा नियुक्त किए गए आला अधिकारियों का वतन भुगतान कंपनी को ही करना था, लेकिन यह सरकार के कोष से भुगतान किया गया। जानकारी के अनुसार ईएमआरआई के अफसरों को हैदराबाद, भोपाल, गोवा, उत्तराखंड, गुजरात आदि राज्यों में यात्रा कराने होटलों में ठहराने के नाम पर करीब 12 लाख रुपए खर्च कर दिए गए। इसका भुगतान भी सरकार के खजाने से कराया गया। यही नहीं 2007-08 में बिना शासन की अनुमति के 46 लाख रुपए से अधिक खर्च कर दिए। यह विज्ञापन एफएम रेडियो, प्रिटिंग और एंबुलेंस पर जीवीके के पंपलेट व प्रचार सामग्री पर खर्च किए गए। कंपनी द्वारा एमओयू हस्ताक्षर उपरांत प्रारंभिक भर्ती में भी अनियमितताएं पाई गर्ईं जिसके चलते दो कर्मचारियों को जांच के उपरांत हटा दिया गया। फिर ऐसी क्या वजह है की सरकार ने एक बार फिर से इस कंपनी को कई और जिम्मेदारी सौंप दी। कंपनी में कई दागदार कांग्रेसियों की हिस्सेदारी यहां एक और दिलचस्प तथ्य है। जेडएचएल की ही वेबसाइट के मुताबिक, इस कम्पनी के संस्थापक पांच लोग हैं-शफी माथेर, रवि कृष्णा, श्वेता मंगल, नरेश जैन और मनीष संचेती। इनमें दो नाम खास तौर पर गौर करने लायक हैं। पहला- रवि कृष्णा, जो केरल के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री वायलार रवि के बेटे हैं। दूसरा-शफी माथेर जो कि केरल की कांग्रेस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चांडी के आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। यही नहीं, खबरों के मुताबिक राजस्थान में जेडएचएल से जुड़े घोटाले की जांच के सिलसिले में अगस्त, 2015 में जब सीबीआई ने छापे मारे थे, तब कुछ और कांग्रेसी नेता भी इसके निदेशकों में शामिल बताए गए थे। इनमें कार्ति चिदम्बरम (पूर्व गृह मंत्री पी चिदम्बरम के पुत्र), सचिन पायलट (राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष) और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम तक आया था। हालांकि इन नेताओं ने आरोप बेबुनियाद बताकर खारिज कर दिए थे। मजे की बात यह है कि राजस्थान में इस कम्पनी के खिलाफ आरोप लगाकर जांच की मांग करने वालों में सबसे पहले भाजपा के नेता किरीट सोमैया आगे आए थे। फिर विधानसभा में राजस्थान भाजपा के नेता घनश्याम तिवाड़ी ने इस मसले को जोर-शोर से उठाया। कम्पनी के खिलाफ सीबीआई जांच भी भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार ने शुरू कराई। लेकिन लगता है कि मध्य प्रदेश में उसी भाजपा को इन तमाम तथ्यों से कोई सरोकार नहीं है। कैबिनेट का फैसला ऐसे नहीं बदलता जेडएचएल को प्रदेश में एकीकृत प्रणाली के तहत 108 एम्बुलेंस, जननी एक्सप्रेस और मोबाइल मेडिकल यूनिट (एमएमयू) के संचालन जा जिम्मा दिए जाने को विरोध एनएचआरएम के अधिकारी-कर्मचारी भी कर रहे है, लेकिन वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। उधर, मध्य प्रदेश जननी एक्सप्रेस संचालक संघ के उपाध्यक्ष डॉक्टर आशीष दुबे के मुताबिक जेडएचएल का ट्रैक रिकॉर्ड खराब है, यह बात सरकार में सबको पता है। इसके बावजूद उसके खिलाफ सरकार में कोई कुछ कहना-सुनना नहीं चाहता। हमारा एक प्रतिनिधिमंडल अभी प्रदेश के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री रुस्तम सिंह से मिला था। इस मुलाकात में उन्होंने माना कि कम्पनी को लेकर तमाम शिकायतें मिली हैं। लेकिन चूंकि उसके साथ अनुबंध करने का फैसला राज्य मंत्रिमंडल ने लिया है इसलिए उसे बदला नहीं जा सकता। बल्कि उन्होंने तो हम लोगों से ही कह दिया कि आप लोग कम्पनी के खिलाफ ठोस दस्तावेजी सबूत और पुख्ता आधार बताइए ताकि मुख्यमंत्री के सामने इस मामले को रखा जा सके। एनएचएम के निदेशक वी किरणगोपाल कहते हैं, सरकार ने पूरी जांच-पड़ताल करने के बाद ही कम्पनी को ठेका दिया है। टेंडर हो चुका है। इसे न तो बदला जा सकता है और न रद्द किया जा सकता है। कम्पनी द्वारा सरकार की तरफ से जीपीएस सैट खरीदी के बाबत उनका कहना था, अब तक कोई टेंडर नहीं खुले हैं। रही बात 108 एम्बुलेंसों में पहले से लगे जीपीएस की, तो ये चालू हालत में नहीं थे इसलिए नए खरीदे जा रहे हैं। उन्होंने यह भी माना कि जब तक गाडिय़ों में नए जीपीएस नहीं लग जाते, जेडएचएल को ओडोमीटर रीडिंग के आधार पर बिल भुगतान करने संबंधी आदेश जारी किया गया है। यहां बताना जरूरी है कि बालाघाट जिले में कलेक्टर रहने के दौरान किरणगोपाल पर खुद भी करीब एक हजार करोड़ रुपए की सागौन की लकड़ी की हेराफेरी का आरोप लग चुका है। वहीं दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में जेडएचएल का काम देख रहे मनीष संचेती तो कम्पनी पर किसी तरह के आरोपों को ही सही नहीं मानते। वे कहते हैं, जिन मामलों का जिक्र आप कर रहे हैं वे सभी विचाराधीन हैं। अंत में, सब झूठे साबित हो जाएंगे। मध्य प्रदेश में हम बेहतर सेवा देने की कोशिश कर रहे हैं इसीलिए हमने नए जीपीएस सैट मंगवाए हैं। जब तक नहीं आ जाते, तब तक भी काम साफ-सुथरे तरीके से चल जाएगा। आखिर बिना जीपीएस के भी दुनिया चल रही है, न। अनुबंध के कागजों पर वल्लभ भवन का पता होने के सवाल पर उन्होंने उल्टा प्रश्न दाग दिया, यह कौन सी जगह है? जब उन्हें बताया गया कि राज्य का मंत्रालय, तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वहां का नाम कैसे हो सकता है? मुझे इस बारे में पता नहीं है। कार्ति चिदम्बरम और सचिन पायलट की हिस्सेदारी के बारे में उनका कहना था, ये लोग कम्पनी में कभी डायरेक्टर नहीं रहे। ये सब गलतफहमियां फैलाई जा रही हैं। हालांकि कोई कहे कुछ भी। आशंकाएं और अटकलें तो यही हैं कि मध्य प्रदेश में एक और बड़े घोटाले की भूमिका लिखी जा चुकी है, वह भी दलगत राजनीति से ऊपर जाकर जो शायद देश में अपनी तरह का पहला मामला हो। दुगुनी दरों पर सौंप दिया संचालन बताया जाता है कि केवल दागदार कंपनी को ठेका देने में ही गड़बड़ी नहीं हुई है बल्कि हैरत की बात तो यह है कि सरकार ने कंपनी को एंबुलेंस सेवाओं के संचालन का जिम्मा दुगुनी दरों पर सौंपा है। जीवीके ईएमआरआई कंपनी पर भ्रष्टाचार से जुड़ी कई शिकायतें विचाराधीन हैं, लेकिन सरकार ने इन सभी को दरकिनार कर दिया। बताया जाता है कि अब तक सरकार इसका संचालन औसतन 44 हजार रुपए प्रतिमाह में कर रही थी। लेकिन हाल ही में सरकार ने इन एंबुलेंसों का ठेका जीवीके ईएमआरआई कंपनी को दिया है। जिसके चलते राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की कार्यप्रणाली पर बड़ा सवालिया निशान लग गया है कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि 44 हजार में बिना किसी शिकायत के विभाग द्वारा स्वयं संचालित की जाने वाली इन 104 एंबुलेंसों को 89 हजार रुपए प्रति एंबुलेंस की दर से ठेका दिया गया। दरअसल, 'अतिथि देवो भव:Ó पर यकीं करने वाली प्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने लाभ की बजाय कंपनी के लाभ पर ध्यान दिया है। वैसे मप्र में जीवीके की लांचिंग यूं तो वर्ष 2007 में हुई थी लेकिन इसकी सेवाओं की शुरुआत जुलाई 2009 में हुई। पहले चरण में संस्था ने प्रदेश के चार जिलों में 108 की सेवाओं की शुरुआत चंद मोबाइल वेनों के साथ की थी। आज स्थिति यह है कि इस आपात सेवा के लिए राज्य शासन राष्ट्रीय स्वास्थ्य ग्रामीण मिशन के खाते से करोड़ों रुपए फर्म को सालाना अदा कर रही है। हैरत की बात यह,कि आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित मोबाइल वेन खरीदने से लेकर इनके संचालन व मरम्मत का तमाम खर्च सरकार द्वारा वहन किया जा रहा है। यहां तक कि फर्म के कार्यालय का खर्च भी सरकार द्वारा उठाया जा रहा है और यह तमाम धनराशि अग्रिम मुहैया कराई जा रही है। तब सवाल यह है कि इस तरह की सुविधाएं व आर्थिक मदद देकर ही सेवाएं ली जानी थी तो फिर यह कार्य प्रदेश की ही किसी संस्था या बेरोजगारों को प्रशिक्षण व रोजगार देकर क्यों नहीं कराया जा सकता? जीवीके ईएमआरआई के स्थानीय कर्ताधर्त्ताओं का दावा है कि इसके बदले में वे टेकनालॉजी व सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। सूत्रों का दावा है ,कि टेक्नालॉजी के नाम पर संस्था ने केवल एक जीपीएस (ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम) आधारित सॉफ्वेयर तैयार किया है जो एंबुलेंस वाहनों के मूवमेंट को नियंत्रित करता है। गौरतलब है,कि इसी तकनीक पर भोपाल, इंदौर व दीगर शहरों में निजी रेडियो टैक्सी भी संचालित हो रही हैं तब जीवीके को आपात सेवाओं के लिए इस तरह उपकृत किया जाना समझ से परे है। सूत्रों का दावा है कि जीवीके पर यह मेहरबानी जीवीके के कथित संरक्षक उक्त वरिष्ठ भाजपा नेता के दबाव में की गई जिनका पार्टी में भी खासा दबदबा है। सेवाओं पर सवालिया निशान सूत्रों के मुताबिक, आपात सेवाओं के नाम पर अपने मोबाइल संसाधनों का दो फीसदी भी इस्तेमाल नहीं कर रही है जबकि रखरखाव के नाम पर प्रति वाहन करीब 1.40 लाख रुपए सरकार से प्रतिमाह वसूला जा रहा है। वहीं वाहनों व उपकरणों की मरम्मत के नाम पर भी वसूली जारी है। बताया जाता है कि आपात सेवाओं के नाम पर स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रतिमाह डेढ़ करोड़ रुपए से अधिक राशि का भुगतान किया जा रहा है जबकि सेवाएं देनी वाली संस्था के स्थानीय व जिला स्तरीय कार्यालयों में समुचित कर्मचारी हैं न दीगर जरूरी सुविधाएं। इसके चलते संस्था उसके पास आने वाले सभी इमरजेंसी कालों पर अपनी सेवाएं ही नहीं दे पाती। भुक्तभोगियों का दावा है कि हादसे या घायल के बारे में सूचना दिए जाने पर 108 के कर्मचारी तुरंत न पहुंच कर पहले सत्यापन प्रक्रिया को अपनाते हैं। नतीजतन, घायलों को त्वरित सेवा नहीं मिल पाती। जीवीके की 108 वेन जब तक मौके पर पहुंचती है या तो घायल अस्पताल पहुंच चुका होता है या गंभीर हालत में घटना स्थल पर ही दम तोड़ देता है। अपनी इस कमी को छिपाने के लिए जीवीके फर्जी कॉल के बहाने का सहारा लेती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संस्था के पास इस तरह के कॉल नहीं पहुंचते हों लेकिन इस तरह के अपवादों को आधार बना कर वास्तविक घटनाओं के वक्त भी मौके पर व समय पर नहीं पहुंचने से लोगों को इस आपात सेवा का समूचित लाभ नहीं मिल पा रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें