गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

पंच और ‘PUNCH’ परमेश्वर के बीच का फ़र्क

“अगर एक मर्द अपनी यौन भूख मिटाने के लिए कोई “रखैल ” या नौकरानी रखता है और इसके बदले उसकी आर्थिक कीमत चुकाता है, तो यह हमारी राय में विवाह की प्रकृति का कोई संबंध नहीं है। …और एक रात गुजारने या सप्ताहांत बिताने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून, 2005 के तहत कोई भी सुरक्षा पाने का हक नहीं है। अगर वह इस कानून के तहत मिलने वाले ‘फायदे ‘ उठाना चाहती है तो उसे हमारे द्वारा उल्लेख किये गये शर्तों के हिसाब से सबूतों के साथ साबित करना होगा…”

( लिव-इन रिलेशनशिप के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में 21 अक्टूबर 2010 को
मार्कंडेय काट्जू और टीएस ठाकुर की राय।)

इस फैसले के एक दिन बाद उपमहाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह किसी मामले की सुनवाई के दौरान जब अदालत में खड़ी हुईं तो न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू ने कहा – “कहिए, घरेलू हिंसा कानून की सर्जक, क्या कहना है…” यों, फैसले के बाद इंदिरा जयसिंह पर यह कटाक्ष ही यह बताने के लिए काफी है कि काट्जू ने मैदान मार लेने के बाद दंभ से झूमते किसी “विजेता” से अलग बर्ताव नहीं किया। लेकिन काट्जू शायद यह भूल गये थे कि जिस शख्स ने महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून को जमीन पर उतारने में सबसे मुख्य भूमिका निभायी, वह उन्हें यों ही जाने देगी। उन्होंने न सिर्फ “रखैल” या “एक रात गुजारने” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने वाले दोनों जजों को आड़े हाथों लिया, बल्कि यह भी कह डाला कि (किसी भी मामले में) ऐसे जजों की बेंच के सामने कोई बात करने के बजाय मैं बाहर जाना पसंद करूंगी। यहां एक और अच्छी बात यह भी थी कि ऐसा कहते हुए दिखावे की शालीनता बरतने के बजाय उन्होंने अपने भीतर का गुस्सा छिपाना जरूरी नहीं समझा।

इस देश में अपने समाज के वंचित तबकों के लिए थोड़ी-सी भी संवेदना रखने वाले लोगों की ओर से इंदिरा जयसिंह को सलाम भेजा जाना चाहिए।

आगे बढ़ने से पहले सुविधा के लिए एक और प्रसंग ध्यान में रखने की जरूरत। अपने ताजा फैसले में ‘क्रांतिकारी’ प्रस्थापनाएं करने वाले ये वही न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू हैं, जिन्होंने अपने एक फैसले में यह कहा था कि ‘शैक्षिक संस्थाओं में दाढ़ी रखने की अनुमति देकर देश के ‘तालिबानीकरण’ की इजाजत नहीं दी जा सकती।’

धारणा यही बनायी जाती रही है कि इस देश की अदालतें “वीमेन फ्रेंडली” रही हैं। लेकिन यह दुनिया की महाशक्तियों में अपना नाम शुमार कराने की हसरत में जी रहे हमारे देश की इक्कीसवीं सदी का यथार्थ है, जिस देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला एकबारगी किसी खाप पंचायत के फैसले से अलग नहीं लगता है। मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो ताजा प्रस्थापनाएं दी हैं, वह कितनी आधुनिक हैं और कितनी या किस तरह की संवेदनाएं साथ लिये हैं, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उसने यह फैसला सुनाते हुए शब्द भी ठीक वही इस्तेमाल किये, जो इस व्यवस्था के रग-रग में घुले हुए हैं। अब जजों के इस दंभ में “समाज” को “बचाने” की ठेकेदारी लिये उन लोगों की खुशी को भी शामिल कर सकते हैं, जिनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से घरेलू हिंसा कानून के दुरुपयोग पर लगाम लगेगा। क्या अब भी समाज को “बचाने” वाले इस महान फैसले के गुणसूत्रों की तलाश बाकी रह गयी है?

इंदिरा जयसिंह की आपत्ति के बाद मार्कंडेय काट्जू ने सफाई दी कि यह लफ्ज (रखैल) सदियों से प्रयोग किया जा रहा है और उन्होंने कोई नया काम नहीं किया है। इस राय के लिए काट्जू का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि इस तरह उन्होंने दरअसल न्यायिक व्यवस्था में फैले उन जड़ों की झलक भी स्वीकृति के रूप में पहली बार दिखाई है, जो “सदियों से चली आ रही (महान) व्यवस्था” को ही अपना आदर्श मानता है। इसी आदर्श की दुनिया के हिसाब से तो अयोध्या में रामलला को “बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे पैदा हुए थे!”

अगर इस अदालत की मानें तो अव्वल तो यही कि “रखैल” या “नौकरानी” से अपनी यौन भूख मिटाइए, उसके बदले उसकी आर्थिक कीमत दीजिए और सारी जिम्मेदारियों से मुक्त। अब बताइए कि इस परिभाषा में “सामाजिक” और “पारिवारिक” जीवन गुजारने वाली कौन-सी महिला नहीं आएगी? इसके अलावा हरियाणा और पंजाब के इलाकों में भ्रूण हत्या और कई दूसरे कारणों के चलते घटती औरतों की तादाद के कारण झारखंड या उड़ीसा से खरीद कर लायी जाने वाली उन गरीब औरतों के बारे में सोचिए, जिन्हें सिर्फ सेक्स के लिए खरीद कर लाया जाता है और जिन्हें बदले में सिर्फ पेट भरने के लिए खाना दिया जाता है। उनकी पीड़ा का अंदाजा लगा सकें तो लगाइए कि वे कई-कई मर्दों की भूख मिटाती वे औरतें अपनी पीड़ा भी किसी से इसलिए बयान नहीं कर पातीं क्योंकि वे अपनी भाषा के अलावा कोई भाषा बोलना (और समझना भी) नहीं जानतीं।

माननीय न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू और टीएस ठाकुर, आपकी परिभाषा में ये औरतें कहां खड़ी हैं…?

बहरहाल, बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब जगनणना संबंधी आंकड़े इकट्ठा करने के लिए प्रयोग में आने वाले फॉर्म में गैर-उत्पादक श्रेणी में घरेलू औरतों को वेश्याओं के समक्ष रखे जाने पर बवाल खड़ा हो गया था। तो आर्थिक भरण-पोषण के बदले घर में बैठी एक “गैर-उत्पादक” घरेलू औरत का क्या दर्जा होगा? और बराबर की “सेवा” करने वाली एक औरत क्या सिर्फ इसलिए सारे अधिकारों से वंचित रहेगी, क्योंकि उसके पास “सामाजिक विवाह प्रमाण पत्र” नहीं है?

सवाल है कि भारतीय समाज की महिलाओं का कितना हिस्सा पश्चिमी समाजों की महिलाओं की बराबरी करने को तैयार खड़ा है और कितने मर्द किसी महिला के साथ “रात गुजारने” को ही अपनी मर्दानगी की परीक्षा, प्रमाण-पत्र और तमगा नहीं मानते हैं? इस मर्द समाज में “रखैल” रखने वालों को समाज में कौन-सी जगह हासिल है और उसे किस नजरिये से देखा जाता है और कितनी महिलाओं को सिर्फ इस बात के लिए हत्या तक कर देने लायक समझा जाता है कि अपनी किसी जरूरत के लिए उन्होंने किसी मर्द से जरा-सी बात कर ली थी? इंदिरा जयसिंह के सवाल के साथ देखें तो अगर एक औरत कहे कि उसने किसी मर्द को “रखा हुआ है” तो यही समाज क्या उसे उसी नजरिये से देखेगा, जिसके साथ वह “रखैल” रखने वाले एक मर्द को देखता है? भारतीय समाज की यह “मर्दाना ताकत” अक्सर औरत को अपमानित करने के लिए “यार” रखने जैसे जुमले का इस्तेमाल करती है। जबकि एक मर्द के इसी बर्ताव को वह उसकी “उपलब्धि” और “सत्ता” मानता है।

यों, हमारा समाज भूलने के मामले में बहुत “उदार” है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग अभी भूले नहीं होंगे कि एक विश्वविद्यालय का नेतृत्व संभालता और पीढ़ियों का मनोविज्ञान तैयार करता हुआ एक पूर्व पुलिस अधिकारी उपकुलपति एक तरह से घर की दहलीज के बाहर अपने पांव पर चलती औरतों के बारे में राय जाहिर कर रहा था कि उनमें “छिनाल” बनने की होड़ लगी है। इसी आदमी को एक जगह स्त्री को कामोन्माद से छटपटाती हुई कुतिया कहने में जरा भी गुरेज नहीं हुआ।

सवाल है कि स्त्री के लिए “छिनाल”, “निंफोमेनियाक कुतिया” या “रखैल” जैसे शब्द कहां से निकलते हैं? इस मानसिक ढांचे के साथ “सत्ताओं” की कुर्सी पर बैठे लोगों के किस तरह के न्याय की उम्मीद की जानी चाहिए? एक तरफ अपने दम पर अपनी अस्मिता अरजती औरत को कोई “छिनाल” कह देगा, तो दूसरी ओर किसी “सामाजिक प्रमाण-पत्र” की मेहरबानी का रास्ता चुनने के बजाय कोई स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं, तो उनमें स्त्री की तुलना तो आप “रखैल” से कर देंगे, लेकिन मर्द आपकी नजर में पहले की तरह पवित्र, गौरवान्वित और साथ-साथ “पीड़ित” भी रहेगा! इसके बावजूद कि अपने पारंपरिक ढांचे में जीते किसी भी पुरुष के लिए स्त्री की हैसियत आज भी “ताड़न की अधिकारी” से ज्यादा की नहीं रही है और इसे वह अपनी “सामाजिक प्रमाण-पत्र” प्राप्त पत्नी पर लागू करता है, (अतिरिक्त) यौन भूख मिटाने के लिए रखी गयी “रखैल” या “नौकरानी” पर लागू करता है और लिव-इन रिलेशन में अपने साथ रहने वाली स्त्री को भी वह इससे अलग कोई स्त्री नहीं मानता है।

लिव-इन रिलेशन के रूप में जो संबंध पश्चिमी समाजों में द्विपक्षीय तौर पर एक ज्यादा सशक्तीकृत आकार ले चुका है, उसमें भी हमारे यहां स्त्री तो विद्रोह लेकर आती है, लेकिन मर्द पितृसत्ता और पुरुष मनोविज्ञान के तंतुओं के साथ जीना चाहता है। घर में एक पालक की मानसिकता में जीने वाला पुरुष इस संबंध को अपने “उन्मुक्त” संबंध निबाहने का भी अधिकार मानता है, मगर एक स्तर पर विद्रोह को जीती स्त्री को यहां किसी भी तरह के विरोध का हक नहीं होता। उसके “इलाज” के लिए वे सब तरीके अपनाये जाते हैं, जो “सामाजिक प्रमाण-पत्र” प्राप्त कोई भी पति अपनी पत्नी के मामले में अपनाता है। तो लिव-इन संबंध में जाने के बाद भी अगर एक औरत अघोषित रूप से पत्नी से ज्यादा का दर्जा हासिल नहीं कर पाती, तो उसे उसके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित करने लायक कैसे मान लिया गया।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के किन्हीं दूसरे जजों की बेंच में यह मामला जाता तो भी शायद फैसला “कानून के दायरे” में ही आता। हां, संभव है शब्दों का कुछ फेर-बदल होता। यानी अगर हम इस तरह के फैसलों पर खुद को सवाल करने के लायक संवेदनशील हो गया मानते हैं तो इसके लिए केवल परमआदरणीय जजों को ही कसूरवार नहीं ठहरा सकते। हमारे देश की पवित्र संसद में बैठ कर भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना दिखाने वाले रहनुमाओं की नजर में अगर यह सब कुछ जायज है, तो इक्कसवीं सदी का सफर करते हुए भी हम तथ्यों-तर्कों और मानवीय अधिकारों की बात नहीं कर सकते।

कई बार हम भूल जाते हैं कि हमारे सामने पंच की कुर्सी पर जो बैठा है, वह प्रेमचंद का पंच-परमेश्वर नहीं है, वह दरअसल “PUNCH” परमेश्वर है, जिनके फैसलों से कई बार हमारा मुंह टूट जाता है।

(अरविंद शेष। युवा पीढ़ी के बेबाक विचारक। दलितों, अल्‍पसंख्‍यकों और स्त्रियों के पक्षधर पत्रकार। पिछले तीन सालों से जनसत्ता में। जनसत्ता से पहले झारखंड-बिहार से प्रकाशित होने वाले प्रभात ख़बर के संपादकीय पन्‍ने का संयोजन-संपादन। कई कहानियां भी लिखीं। उनसे arvindshesh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

मोहल्ला लाइव से साभार

चंबल से निकल कर क्या क्या किया एक डाकू ने?

दिनेश शाक्य
चंबलघाटी से डाकुओ का खात्मा होने के बाद बडे बडे इनामी डाकू महानगरो मे रोजी रोटी की तलाश मे डेरा जमाना शुरू कर के अपना गुजारा करने मे लग गये लेकिन पुलिस के लंबे हाथो से बच नही पा रहे है।

बडे बडे महानगरो मे डाकूओ के काम करने का खुलासा तब हुआ जब उत्तार प्रदेश की इटावा पुलिस ने करीब 17 हजार रूपये के इनामी डाकू महेन्द्र सिंह परिहार को पकडने का दावा किया है महेंद्र सिंह 2006 मे मध्यप्रदेश के मुरैना मे एक मुठभेड मे मारे गये जगजीवन डाकू गैंग का खूखांर डाकू रहा है। इसी साल 23 मई को जगजीवन के गुरू रहे प्रेमदास को इटावा पुलिस ने गुजरात राज्य मे एक मंदिर मे पुजारी बन कर अपना गुजारा करने के दौरान पकडा था प्रेमदास पर भी करीब 18 हजार रूपये का इनाम था।

बचपन मे जगजीवन को अपने हाथो से गोद मे खिलाने वाले उसके गुरू प्रेमसिंह ने उसको तीन राज्यो मे आतंकी डकैत बनाने मे खासा योगदान किया है लेकिन उसके कई साथियो के साथ मध्यप्रदेश मे 15 मार्च 2006 को मारे जाने के बाद प्रेमसिंह उत्तार प्रदेश के इटावा जिले से पलायन करके गुजरात के पालनपुर मे एक मंदिर मे साधु बन कर लोगो की सेवा करने मे जुट गया।

चंबल के खूखांर बीहडो मे लंबे समय तक बुरे काम करने के बाद अपने आप को बचाने के लिये उसने भले हर साधु का भेष धारण कर लिया हो लेकिन पुलिस की निगाह से वो बच नही सका।जी हां ,बात हो रही है उत्तार प्रदेश ,राजस्थान और मध्यप्रदेश मे आतंक के बलबूते पर लंबे समय तक राज करने वाले मारे गये खूंखार डकैत जगजीवन परिहार के गुरू प्रेम सिंह उर्फ प्रेमदास उर्फ प्रेमबाबा की।बचपन मे जगजीवन को अपने हाथो से गोद मे खिलाने वाले उसके गुरू प्रेमसिंह ने उसको तीन राज्यों मे आतंकी डकैत बनाने मे खासा योगदान किया है लेकिन उसके कई साथियो के साथ मध्यप्रदेश मे 15 मार्च 2005 को मारे जाने के बाद प्रेमसिंह उत्तार प्रदेश के इटावा जिले से पलायन करके गुजरात के पालनपुर मे एक मंदिर मे साधु बन कर लोगो की सेवा करने मे जुट गया।उघर उत्तार प्रदेश के इटावा मे पुलिस इसकी खोज मे लगी रही लेकिन कामयाबी नही मिल सकी कामयाबी तब मिली जब जगजीवन के ही एक रिश्तेदार ने पुलिस को प्रेमसिंह के बारे मे जानकारी दी तब पुलिस प्रेमसिंह को पकडने मे कामयाब हुई।

दस हजार रूपये के इस इनामी डकैत ने अपराघ की शुरूआत 1980 मे चंबल के खूंखार आत्मसर्मिपत डाकू मलखान सिंह गैंग से की थी। मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे बिठौली गांव मे तब मलखान सिंह के गैंग की आवाजाही जोरदारी से हुआ करती थी इसी के चलते प्रेमसिंह मलखान गैंग मे शामिल होकर अपराघिक बारदातो को करने मे जुट गया जब मलखान सिंहने सर्मपण किया उसके बाद प्रेमसिह भी पकडा गया और उसे 4 साल की सजा हुई।

इसी के बाद प्रेमसिंह ने गुजरात का रूख कर लिया और जब जगजीवन ने अपने आतंक का बोलबाला दिखाना शुरू किया तो प्रेमंसिंह गुजरात से इटावा आकर जगजीवन की मदद करता रहा। इसके बाद 2004 मे सबसे पहला मामला पुलिस मुठभेड यानि धारा 307 मे प्रेमसिंह के खिलाफ इटावा जिले के बिठौली थाने मे दर्ज हुआ,फिर जालौन जिले मे कई अपराघिक मामले दर्ज किये लेकिन पुलिस की पकड से प्रेमसिंह दूर ही रहा इसी लिये फरारी के चलते उत्तार प्रदेश पुलिस ने प्रेमसिंह को जिंदा या मुर्दा पकडने के लिये दस हजार रूपये का इनाम घोषित किया।

इटावा जिले की वैदपुरा पुलिस द्वारा गिरतार किए गए जगजीवन परिहार गिरोह के शातिर इनामी सदस्य की यदि मानी जाए तो उसने अपने दो भाईयों को खोने के बाद खुद को चंबल के बीहड़ों के हवाले किया था। इस डकैत की मानें तो बीहड़ फिलहाल डकैतों से खाली है और उसने कुख्यात दस्यु सरगना जगजीवन परिहार की मौत पर उठ रहे सवालों पर भी यह कह कर विराम लगा दिया कि जगजीवन परिहार मारा जा चुका है। लेकिन उसके पास इस सवाल के जबाब नहीं हैं कि आखिर जगजीवन परिहार के अत्याधुनिक हथियार कहां हैं? इस गिरतार डकैत ने बताया कि जातिगत भावना भी उसके डकैती जीवन का अहम हिस्सा थी।

कभी बीहड़ों में बंदूकों सहित अत्याधुनिक हथियारों से खेलने वाला बिठौली थाना क्षेत्र के ग्राम बंसरी निवासी मेम्बर सिंह को 33 वर्षीय यह पुत्र महेंद्र सिंह उर्फ सोबरन सिंह परिहार जगजीवर परिहार का खासा विश्वसनीय था। इस डकैत बताया कि उसने कुख्यात सलीम गूर्जर के साथ यदि कम से कम पंद्रह बार मुठभेड़ की हैं तो पुलिस के साथ मोर्चा लेने में भी उसे कोई हिचक नहीं रही है। महेंद्र की गिरतारी के लिए जालौन पुलिस भी ढाई हजार रुपये का पुरस्कार घोषित कर चुकी है।

पुलिस की आंखों में धूल झौंक कर फिलहाल वह दिल्ली, गाजियाबाद, मुरादनगर जैसे शहरों में नमकीन का कारीगर बनकर काम कर रहा था। वह ग्वालियर से इटावा होकर मैनपुरी की ओर जा रहा था कि छिमारा तिराहा पर टैंपों से उसका उतरना भर गुनाह बन गया और वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया।

गुनाहों की दुनिया महेंद्र को विरासत में मिल र्गइं थीं। गांव में मकरंद सिंह परिहार के साथ चली रंजिश ने महेंद्र के समूचे परिवार के संस्कार ही बदल डाले थे। महेंद्र के बड़े भाई सूरज की वर्ष 1999 में हत्या क्या हुई कि हत्यारों से बदला लेने के लिए उसके दूसरे भाई जितेंद्र ने बंदूक उठा ली। जितेंद्र पुलिस मुठभेड़ में गोलियों का शिकार हुआ तो दारोमदार महेंद्र ने संभाल लिया और उसके बाद से लगातार वह पुलिस के साथ लुकाछिपी का खेल खेलता रहा।

डकैत बनने के पीछे जातिवादी मानसिकता के बारे में वह बताता है कि सलीम गूर्जर ने गांव के रामवरत के बेटे असरोत की पकड़ कर ली थी। डेढ़ लाख रुपये फिरौती की रकम तय होने के बाद भी सलीम ने यह कह दिया था कि ठाकुर है इसलिए इसे किसी कीमत पर नहीं छोड़ेगें। महेंद्र की मध्यस्थता भी जब असरोत की रिहाई न कर सकी तो उसने सलीम से बदला लेने के लिए जगजीवन की शरण ले ली। सलीम से कई बार आमने-सामने गोलियां चलने वाले इस दुबले-पतले महेंद्र के कलेजे का जगजीवन भी कायल था।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

संघ की देन हैं बुखारी



अहमद बुखारी अपने वालिद अब्दुल्ला बुखारी से चार कदम आगे साबित हुए हैं। पिछले सप्ताह उर्दू अखबार के एक सहाफी (पत्रकार) ने उनसे एक सवाल क्या कर लिया, वे न सिर्फ आग बबूला हो गए बल्कि सहाफी को ‘अपने अंदाज’ में सबक भी सिखा दिया। एक सहाफी को सरेआम पीटा गया, पत्रकार जगत में कोई खास हलचल नहीं हुई। होती भी क्यों। पिटने वाला पत्रकार किसी बड़े अखबार या चैनल का नुमाईन्दा न होकर एक अनजान से उर्दू अखबार का नुमाईन्दा जो था। जरा कल्पना किजिए कि यदि पिटने वाला किसी रसूखदार मीडिया हाउस का नुमाईन्दा होता तो क्या होता ? पूरी पत्रकारिता खतरे में नजर आने लगती। प्रेस की आजादी पर हमला माना जाता। एक सवाल यह भी है कि क्या अहमद बुखारी से सवाल पूछने वाला पत्रकार किसी बड़े अखबार का नुमाईन्दा होता तो क्या अहमद बुखारी इसी तरह अपना ‘आपा’ खोने की जुर्रत कर सकते थे ? शायद नहीं। अहमद बुखारी जैसे लोगों का चाबुक छोटे लोगों पर ही चलता है। वह बड़े लोगों पर हाथ नहीं डालते। क्योंकि बड़े लोगों से कुछ मिलने की आशा रहती है।

दरअसल, अब्दुल्ला बुखारी तो एक मस्जिद के पेश इमाम मात्र थे। जिसका काम मस्जिद में पांच वक्त की नमाज पढ़ाना होता है। उनकी खासियत यह हो सकती है कि वह एक ऐतिहासिक मस्जिद के पेश इमाम थे। आज वही हैसियत उनके बेटे अहमद बुखारी की होनी चाहिए थी। लेकिन बाप-बेटे ने ऐतिहासिक जामा मस्जिद को अपनी ‘जागीर’ तो नेताओं ने दोनों को पेश इमाम के स्थान पर भारतीय मुसलमानों का रहनुमा बना डाला। मजेदार बात यह है कि अब्दुल्ला बुखारी कभी नमाज नहीं पढ़ाते थे और न आज अहमद बुखारी नमाज पढ़ाने का का फर्ज पूरा करते हैं। अब्दुल्ला बुखारी को मुसलमानों का रहनुमा बनाने में आरएसएस की खास भूमिका रही है। मुझे याद आता है आपातकाल के बाद का 1977 का लोकसभा का चुनाव। तब मैं बहुत छोटा था। उस वक्त आरएसएस के लोग नारा लगाते फिरते थे- ‘अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो-बदलों यह सरकार।’ उस वक्त देश की जनता में आपातकाल में हुईं ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस के प्रति जबरदस्ती रोष था। खासकर मुसलमान जबरन नसबंदी को लेकर बहुत ज्यादा नाराज थे। ऐसे में यदि अब्दुल्ला बुखारी कांग्रेस को वोट देने की अपील भी करते तो मुसलमान उनकी अपील को खारिज ही करते। उस समय की जनसंघ और आज की भाजपा का विलय जनता पार्टी में हो गया था। 1977 के लोकसभा और विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की जबरदस्त शिकस्त के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। जनसंघ का जनता पार्टी में विलय होने के बाद भी जनसंघ के नेताओं ने आरएसएस से नाता नहीं तोड़ा।

इसी दोहरी सदस्यता तथा जनता पार्टी के अन्य नेताओं के बीच सिर फुटव्वल के चलते 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव हुए। इस चुनाव में अब्दुल्ला बुखारी ने यह देखकर कि जनता पार्टी की कलह के चलते और आपातकाल की ज्यादतियों की जांच करने के लिए गठित शाह जांच आयोग द्वारा इंदिरा गांधी से घंटों पूछताछ करने और पूछताछ को दूरदर्शन पर प्रसारित करने से इंदिरा गांधी के प्रति देश की जनता में हमदर्दी पैदा हो रही है, मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की अपील कर दी। स्वाभाविक तौर पर देश की जनता ने जनता पार्टी को ठुकरा कर फिर से कांग्रेस का दामन थाम लिया।

इस तरह से देश की जनता में यह संदेश चला गया कि देश का मुसलमान अब्दुल्ला बुखारी की अपील (हालांकि इसे फतवा कहा गया। जबकि अब्दुल्ला बुखारी फतवा जारी करने की योग्यता नहीं रखते थे। अहमद बुखारी भी नहीं रखते) पर ही मतदान करते हैं। जबकि हकीकत यह थी कि देश का मुसलमान भी अन्य नागरिकों की तरह मुद्दों पर ही मतदान करता था। इसका उदहारण 1989 कर चुनाव भी है। इस चुनाव में राजीव गांधी की सरकार बौफोर्स तोप दलाली को लेकर कठघरे में थी तो राम मंदिर आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश के शहर साम्प्रदायिक दंगों की आग में जल रहे थे। दंगों में उत्तर प्रदेश सरकार एक तरह से पार्टी बन गई थी। पुलिस और पीएसी ने मलियाना और हाशिमपुरा में जबरदस्त ज्यादती की थी। परिणाम स्वरुप मुसलमान वीपी सिंह के पीछे लामबंद हो गए थे। ऐसे में कोई कांग्रेस को वोट देने की अपील करता तो मुंह की ही खाता। यहां भी अब्दुल्ला बुखारी ने हवा का रुख देख कर जनता दल को समर्थन देने की अपील की थी। बदले में उन्होंने जनता दल सरकार से जमकर पैसा वसूला और मीम अफजल जैसे अपने चेलों को जनता दल के टिकट पर राज्य सभा की सीट दिलवाई। जनता दल सरकार के कार्यकाल में दिल्ली की जामा मस्जिद को जनता दल सरकार ने पचास लाख का अनुदान दिया था। उन पचास लाख का अब्दुल्ला बुखारी परिवार ने क्या किया, यह पूछने की हिम्मत ने तो किसी की हुई और न हो सकती थी। पूछने की जुर्रत करेगा तो उसका वही हश्र होगा, जो लखनउ के पत्रकार का हुआ है।

ऐसा वक्त भी आया कि अब्दुल्ला बुखारी ने हवा के विपरीत मुसलमानों से किसी दल को समर्थन देने की अपील की और मुंह की खाई। एक बार तो भाजपा और आरएसएस को पानी पी-पी कर कोसने वाले अहमद बुखारी दिल्ली विधान सभा चुनाव में मुसलमानों से भाजपा को समर्थन देने की अपील कर चुके हैं। आज हालत यह हो गयी है कि अहमद बुखारी पुरानी दिल्ली से अपने समर्थन से एक पार्षद को जिताने की हैसियत भी खो चुके हैं।

एक घटना का जिक्र जरुर करना चाहूंगा। जब मई 1987 में मलियाना और हाशिमपुरा कांड हुए थे तो उनकी गूंज पूरी दुनिया मे हुई थी अब्दुल्ला बुखारी ने दोनों कांड के विरोध में जामा मस्जिद को काले झंडे और बैनरों से पाट दिया था। 1989 में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार वजूद में आयी तो मैं अपने दोस्त मरहूम तारिक अरशद के साथ यह सोचकर अब्दुल्ला बुखारी से मिलने गए थे कि उनके दिल में मलियाना और हाशिमपुरा के लोगों के लिए हमदर्दी है इसलिए उनसे जाकर यह कहा जाए कि आप वीपी सिंह और मुलायम सिंह यादव से कहें कि मलियाना जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करें और दोषियों को सजा दिलाएं। जब हमने अब्दुल्ला बुखारी के सामने रखी तो उनका का जवाब था। ‘राजीव गांधी हों, वीपी सिंह हों या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।’ उनके इस सवाल पर मैंने उनसे सवाल किया था कि ‘जब कोई राजनैतिक दल मुसलमानों का हमदर्द ही नहीं है तो आप क्यों बार-बार किसी राजनैतिक दल को समर्थन देने की अपील मुसलमानों से करते हैं ?’ मेरे इस सवाल पर अब्दुल्ला बुखारी हत्थे से उखड़ गए थे और बोले, ‘मुझसे किसी की सवाल करने की हिम्मत नहीं होती, तुमने कैसे सवाल करने की जुर्रत की।’ उस दिन मुझे मालूम हुआ था कि हकीकत क्या है ?

दरअसल, राममंदिर आंदोलन के ठंडा पड़ने के बाद इस आंदोलन के चलते वजूद में आए नेता हाशिए पर चले गए थे। अयोध्या फैसले के बाद ये नेता एक बार फिर मुख्य धारा में लौटने की कोशिश कर रहे हैं। संघ परिवार के साथ ही कुछ मुस्लिम नेता भी ऐसे हैं, जो अयोध्या फैसले को अपनी वापसी के रुप में देख रहे हैं। अहमद बुखारी भी उनमें से एक हैं। संवाददाता सम्मेलन में एक मुस्लिम पत्रकार के साथ बेहूदा हरकत इसी कोशिश का नतीजा थी।

अंबानी ने ठगा शिव राज को

देश समेत दुनियाँ के जाने-माने उद्योगपतियों की मौजूदगी ने खजुराहो निवेशकों के सम्मेलन में मध्यप्रदेश में नई सुबह लाने का सच्चा पैगाम दे दिया। ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट-2 के कुल निवेश के करारनामों की तादाद 107 और रकम की मात्रा दो लाख 35 हजार 966 करोड़ रूपये हो गई। आज विविध उद्योगों के 57 करारनामों में 39 हजार 115 करोड़ रूपये, ऊर्जा के 15 करारनामों में 76 हजार 80 करोड़ रूपये, खाद्य प्रसंस्करण के सात करारनामों में 534 करोड़ रूपये, स्वास्थ्य के दो करारनामों में 400 करोड़ रूपये और नवीनीकृत ऊर्जा के चार करारनामों में एक हजार 200 करोड़ रूपये लगाए जाने की रजामंदी हो गई। सरकार और उसके कारिंदों ने इस इरादे का खुलासा भी अच्छे से कर दिया कि करारनामों की तकरीबन रोज़ाना ही मानीटरिंग की जाएगी ताकि उद्योगों की तयशुदा वक्त में स्थापना हो जाए और प्रदेश तथा यहाँ के लोगों को वास्तविकता की अनुभूति जल्द से जल्द हो जाए। लेकिन ठीक इसके उलट अनिल धीरू भाई अंबानी समूह (एडीजी) के चेयरमैन अनिल अंबानी खजुराहो निवेश सम्मेलन में शिव और उनके राज को मूर्ख बनाकर चले गए।
जिस तरह भाजपा ने कुछ साल पहले देश के आम चुनाव में शाइनिंग इंडिया व फीलगुड का फर्जी नारा देकर चुनाव हारा था उसी तर्ज पर अब प्रदेश में शाइनिंग एमपी के आकर्षक बोर्ड टांगे जा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की प्रदेश व इन्दौर को अव्वल बनाने की नेकनीयती में तो कोई शक-शुभा नहीं है मगर मैदानी हकीकत इन तमाम दावों के ठीक उलट नजर आती है। खजुराहो समिट के बड़े भारी निवेश में सवा 2 लाख करोड़ से अधिक के 107 एमओयू यानी करार निवेशकों के साथ किए जाने के साथ मुख्यमंत्री के साथ अनिल अंबानी ने प्रदेश में 75 हजार करोड़ निवेश करने का दावा करते हुए हर घंटे ढाई करोड़ के निवेश का जो आंकड़ा परोसकर जबर्दस्त मीडिया में सुर्खियां बटोरी उसकी असली हकीकत यह है कि अनिल अंबानी ने खजुराहो में कोई नया करार किया ही नहीं, बल्कि इन्दौर में 2007 में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में जो पचास हजार करोड़ का करार किया था, उसी को बढ़ाकर 75 हजार करोड़ का कर दिया। इतना ही नहीं 25 साल तक अनिल अंबानी से प्रदेश सरकार 20 से 25 पैसे प्रति मिनट महंगी बिजली खरीदेगी जिससे अंबानी 10 से 15 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त कमाएंगे। प्रदेश शासन के वित्त विभाग ने इस लूट पर आपत्ति दर्ज कराई थी मगर पिछले दिनों कैबिनेट ने इसे मंजूरी दे दी।
बड़े लोगों के बड़े खेल... यह बात रिलायंस पर सबसे सटीक साबित होती है। प्रदेश का कोई छोटा-मोटा बिल्डर या कालोनाइजर अगर कुछ फायदा उठा लेता है तो अखबारों की सुर्खियां बन जाती हैं, लेकिन दूसरी तरफ बड़े निवेशक हजारों करोड़ रुपये का गोलमाल कर लेते हैं, लेकिन इसे शहर और प्रदेश की तरक्की से जोड़कर प्रचारित किया जाता है। अभी खजुराहो में जितने भी करार हुए, वे सब प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट यानी माइनिंग से जुड़े हुए हैं। इस पूरी समिट में सबसे बड़ी खबर अनिल अंबानी की मौजूदगी ने बनाई, जिसमें 75 हजार करोड़ रुपये के भारी-भरकम निवेश के दावे किए गए, जिसकी असलियत यह है कि इन्दौर में 26 व 27 अक्टूबर 2007 को खजुराहो की तर्ज पर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आयोजित की गई थी और उसमें अनिल अंबानी ने 50 हजार करोड़ रुपये का एमओयू साइन किया था, जिसमें शासन के 3960 मेगावाट अल्ट्रा पावर प्रोजेक्ट के अलावा चितरंगी तहसील सीधी जिले के एक अन्य मेगा थर्मल पावर स्टेशन के साथ चार बड़े सीमेंट के संयंत्र लगाने, जिनकी क्षमता 5 मिलियन टन हर साल होगी, वहीं सीधी जिले में एयरपोर्ट व एयर स्ट्रीप के विकास के साथ ही भोपाल में एक तकनीकी इंस्टिट््यूशन खोला जाना था। जिसके लिए खजुराहो समिट के दो दिन पूर्व प्रदेश शासन अनिल अंबानी की संस्था को भोपाल एयरपोर्ट के पास 110 एकड़ जमीन धीरूभाई अंबानी कॉलेज के लिए आवंटित कर चुका है। वहीं समिट में 75 हजार करोड़ रुपये के जिस निवेश का दावा किया गया, उसमेंं कोई नया करार नहीं हुआ, बल्कि लगने वाले सीमेंट प्लांटों की क्षमता को दोगुना करने और आठ हजार मेगावाट के बिजली संयंत्रों के पुराने करारों की क्षमता बढ़ाकर उसे 12 हजार मेगावाट से अधिक करने का निर्णय लिया गया है। मगर प्रचारित इस तरह हुआ मानो अनिल अंबानी ने 75 हजार करोड़ रुपये का कोई नया करार सरकार से किया हो।
इस पूरे मामले की एक और बड़ी हकीकत यह है कि आने वाले 25 सालों तक प्रदेश सरकार की एमपी पावर ट्रेडिंग कंपनी जो बिजली रिलायंस से खरीदेगी, वह काफी महंगी होगी। अभी 5 अक्टूबर को शिवराज कैबिनेट ने दो कंपनियों रिलायंस पावर और एस्सार पावर से बिजली खरीदने का 25 सालों का करार किया है। अनिल अंबानी के रिलायंस पावर से पहले 2 रुपये 70 पैसे और एस्सार से 2 रुपये 95 पैसे प्रति यूनिट की दर तय की गई थी। मगर बाद में निगोसिएशन के पश्चात 2 रुपये 45 पैसे प्रति यूनिट की दर फायनल की गई। इतना ही नहीं रिलायंस ने सीधी जिले के सासन अल्ट्रा पावरमेगा प्रोजेक्ट के लिए आवंटित कोलब्लाक से अपने अन्य चितरंगी पावर प्रोजेक्ट के लिए भी कोयला प्राप्त करने की मंजूरी पहले केन्द्र शासन से और फिर राज्य से प्राप्त कर ली। इसी आधार पर प्रदेश के वित्त विभाग ने यह तर्क दिया कि चूंकि रिलायंस पावर को बाहर से कोयला नहीं खरीदना पड़ेगा और वह प्रदेश से ही कोयला लेकर बिजली बनाएगा, लिहाजा परिवहन के साथ अन्य खर्चों में कमी होगी। इसलिए जनता को दी जाने वाली बिजली की दर 20 से 25 पैसे प्रति यूनिट तक और कम होना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है कि मात्र 1 पैसे प्रति यूनिट की अगर कमी की जाती है तो 25 सालों में लगभग 700 करोड़ रुपये की बचत एमपी पावर ट्रेंिडंग कंपनी को होती। इस लिहाज से 20 से 25 पैसे प्रति यूनिट बिजली रिलायंस पावर और एस्सार पावर से खरीदने के निर्णय से 10 से 15 हजार करोड़ रुपये का फायदा इन निजी कंपनियों को पहुंचाया गया। वित्त विभाग ने अपनी आपत्ति में रिलायंस पावर को जमीन देने के अलावा अन्य सुविधाओं का उल्लेख करते हुए प्रति यूनिट बिजली की दरों में कमी लाने का सुझाव दिया था, लेकिन अनिल अंबानी की तगड़ी ऊपरी पकड़ के चलते वित्त विभाग की इन आपत्तियों को दरकिनार करते हुए पिछले दिनों शिवराज कैबिनेट ने 25 सालों तक बिजली खरीदी का निर्णय ले लिया। अभी मध्यप्रदेश की जनता वैसे ही महंगी बिजली से हलाकान है और आने वाले दिनों में बिजली तो भरपूर निजी संयंत्रों के कारण मिलेगी, लेकिन उसके दाम इतने अधिक होंगे कि आम आदमी को दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे।
अभी तक रिलायंस पावर के तीन साल पूर्व किए गए प्रोजेक्ट के लिए जमीन उपलब्ध नहीं हो सकी है। दरअसल शासन को रिलायंस पावर को 3879 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित कर उपलब्ध कराना है, जिसमें 1179 हेक्टेयर जमीन निजी, 445 हेक्टेयर सरकारी और 2255 हेक्टेयर जमीन वन भूमि है। लिहाजा इस अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के बदले 10 लाख से अधिक पेड़ों को काटना भी पड़ेगा। वहीं सैकड़ों परिवारों को विस्थापित किया जाना है। हालांकि वन भूमि का मामला उच्चस्तरीय है और इसके लिए केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति भी लगेगी। उल्लेखनीय है कि अभी हजारों करोड़ रुपये के वेदांता ग्रुप को पर्यावरण विभाग ने किसी कारण अनुमति नहीं दी।

खजुराहो समिट में 75 हजार करोड़ रुपये के निवेश का दावा अनिल अंबानी द्वारा किया गया। हालांकि इस संबंध में कोई करार नहीं हुआ, क्योंकि तीन साल पहले ही इन्दौर में अनिल अंबानी खुद पचास हजार करोड़ रुपये का करार कर चुके हैं। इस 12 पेजी करार 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर किए गए है। 26 अक्टूबर 2007 को तत्कालीन वाणिज्यिक व उद्योग तथा रोजगार विभाग के प्रमुख सचिव अवनी वैश्य जो कि वर्तमान में प्रदेश शासन के मुख्य सचिव हैं, ने खुद रिलायंस पावर लिमिटेड के साथ उक्त करार किया था और अनिल अंबानी की ओर से डायरेक्टर बिजनेस डेवलपमेंट जेपी चालासानी ने इस करार पर हस्ताक्षर किए। इस करार में सीधी के सासन और चितरंगी के दोनों पावर प्लांटों के अलावा चार सीमेंट फैक्ट्रियों को खोलने, भोपाल में तकनीकी इंस्टिट््यूशन जिसकी जमीन अभी खजुराहो समिट के दो दिन पूर्व भोपाल एयरपोर्ट के पास आवंटित की गई। 26 अक्टूबर 2007 को किए गए इस इन्दौरी करार के वक्त भी खजुराहो की तरह अनिल अंबानी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के साथ मौजूद थे, जिसका उल्लेख भी उक्त करार में किया गया है।
मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार अभी तक 9 निवेश सम्मेलन आयोजित कर चुकी है। खजुराहो समिट में दो लाख 36 हजार करोड़ के 107 करार करना बताए, जिसमें इन्दौर का क्रिस्टल आईटी पार्क भी शामिल है, जिसमें साफ्टवेयर टेक्नोलाजी आफ इंडिया को दिया गया, जिसका सबसे पहले खुलासा अभी पिछले दिनों अग्रिबाण ने ही किया था। खुजराहो समिट के पूर्व जो 8 निवेश सम्मेलन हुए, उनमें कुल मिलाकर पौने पांच लाख करोड़ रुपये के एमओयू यानी करार किए गए और वास्तविक धरातल पर मात्र 58 हजार करोड़ रुपये का निवेश ही हो पाया है। यहां तक कि इन्दौरी ग्लोबल मीट में 102 करार सवा लाख करोड़ रुपए के किए गए थे और इनमें से मात्र 13 हजार करोड़ का निवेश हुआ है। चूंकि ज्यादादर एमओयू रियल स्टेट यानी होशियार जमीनी कारोबारियों ने कर लिए, जिनकी पोलपट्टïी भी उजागर की गई और ये सारे करार अंतत: कागजी ही साबित हुए। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान लगातार प्रयासरत हैं अधिक से अधिक निवेश जुटाने में, लेकिन मैदानी हकीकत इसके विपरीत ही नजर आती है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

अनाथालय न बन जाएं राजभवन

आखिर बार- बार क्यों उठती है, राज्यपाल पर उंगली ?

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, राज्यपाल का पद संवैधानिक व गरिमामयी मानी जाता है। लेकिन जब इसकी गरिमा पर सवाल खड़े होने लगे तो क्या इसे आप स्वच्छ लोकतंत्र की स्वच्छ व्यवस्था कहेंगे..शायद नहीं, क्योंकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के लिये एसे संवैधानिक पद पर बैठे नुमांइदों से स्वच्छ आचरण करने कि अपेक्षा होती है। लेकिन विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राज्यपाल केन्द्र सरकार के मोहरे भर ही होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत राष्ट्रपति किसी भी राज्य के कार्यपालिका के प्रमुख राज्यपाल की नियुक्ति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करता है। राज्यपाल की भूमिका पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं । इस पद का इस्तेमाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने वयोवृद्ध नेताओं को राज्यपाल नियुक्त कर उनको जीवन पर्यंत जनता के टैक्स से आराम करने की सुविधा देता है । इन राज्यपालों के खर्चे व शानो शौकत राजा रजवाड़ों से भी आगे होती है । लोकतंत्र में जनता से वसूले करों का दुरपयोग नहीं होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद से राज्यपाल पद विवादास्पद रहा है। जरूरत इस बात की है कि ईमानदारी के साथ राज्यपाल पद की समीक्षा की जाए। अच्छा तो यह होगा की इस पद की कोई उपयोगिता राज्यों में बची नहीं है इसको समाप्त कर दिया जाए।
संविधान की एक धारा जो वाकई अटपटी और कॉमनवेल्थ की तरह हमारे गुलाम होने की बार बार याद दिलाती है वह धारा 162 है। इस धारा के तहत महामहिमों यानी राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है और राजनीति या अब सरकारी नौकरियों से भी खारिज हो चुके लोगों को इनाम में जो दिया जाता या लिया जा सकता है उसमें राज्यपाल सबसे आसान पद है। संविधान की धारा 162 के अनुसार राज्य की निर्वाचित सरकार जो भी फैसले करती है वह राज्यपाल की ओर से करती है।
यह ठीक वैसा ही है जैसे अंग्रेजों के जमाने की भारत सरकार हर काम ब्रिटिश राजमुकुट की ओर से करता था। राज्यपाल और राष्ट्रपति पद किसी ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक हैं और राष्ट्रपति भवन तो लाल किले से भी बड़ा महल है ही, रिटायर्ड नेता और बर्खास्त होने से बच गए अफसर जिन राज भवनों में रहते हैं वे हर राज्य की सबसे भव्य इमारते होती है। राजस्थान, गोवा, कश्मीर, कोलकाता और यहां तक की झारखंड के राजभवन देख लीजिए, फिल्मों के सेट आपको फीके नजर आने लगेंगे।
वैसे भी राज्यपाल राज्य को जागीर मान कर जागीरदार की तरह काम करते हैं। राज्यपाल बाथरूम और बेडरूम से बाहर हमेशा एक शाही छतरी ले कर चलने वाले सेवक और बहुत सारे अंगरक्षकों के साथ रहते हैं और जहां इंसान तो क्या, किसी चिडिय़ां की आत्मा भी न हो वहां भी आवाज लगाई जाती है कि महामहिम पधार रहे हैं। यह राज्यपाल का जलवा है। उस आदमी का जिसे हमारे तंत्र और व्यवस्था में उपयोग पूरा हो जाने के बाद निपटा हुआ मान कर, जैसे टीबी के मरीजों को सेनिटोरियम में भर्ती कर दिया जाता था, वैसे ही आजकल महामहिम बना दिया जाता है।
रोमेश भंडारी, बूटा सिंह, मोती लाल बोरा, सिब्ते रजी और अब हंसराज भारद्वाज की महामहिम हरकतों को याद किया जाए तो इस संस्था के अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं। हालांकि हैं तो राष्ट्रपति पद ही अंग्रेजों का गुलामी का ही संकेत लेकिन यहां गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति जैसे भी आते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित हो कर आते हैं। दूसरे शब्दों में प्रकारांतर से राष्ट्रपति पद एक अर्जित किया हुआ पद है।
राज्यपालों के मामले में ऐसा नहीं है। बूटा सिंह का ही सवाल लें तो उन्होंने फरवरी 2005 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के बाद विरोधी पक्ष की सरकार नहीं बनने दी और केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी। इस चुनाव में जनता दल(यूनाइटेड) को 88, बीजेपी को 37 सीटें मिलीं थीं, जबकि राष्ट्रीय जनता दल को 75, लोकजनशक्ति पार्टी 29 और कांग्रेस को 10 सीटें मिलीं थीं। एनडीए कुछ निर्दलीयों के सहयोग से सरकार बनाने की स्थिति में था। लेकिन बूटा सिंह ने केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी कि बिहार में विधायकों की खरीद फरोख्त का खेल चल रहा है। इसी रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति ने केंद्र की सिफारिश पर विधानसभा भंग कर दी। लेकिन 24 जनवरी 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल बूटा सिंह की कड़ी आलोचना की और कहा कि उनकी सिफारिश पूरी तरह अलोकतांत्रिक और अवैध थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह बी कहा कि अब राज्यपाल कौन हो, इस प्रश्न पर व्यापक बहस की जरुरत है। अदालत ने टिप्पणी की कि राज्यपाल गैर राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। इसके कुछ समय बाद राज्यपाल बूटा सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था।
इसके बाद लोकसभा का एक चुनाव वे जीते और फिर उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। जो हैं तो केंद्रीय मंत्री स्तर का पद मगर वहां भी बूटा सिंह पर अपने बेटे के जरिए रिश्वत लेने का इल्जाम लगा।
वर्ष 1998 में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने असंवैधानिक तरीके से तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (बीजेपी) के मुख्यमंत्री रहते ही जगदम्बिका पाल(कांग्रेस) को एक साजिश के तहत रात को बारह बजे राज भवन में कर्मचारियों सहित पचास लोगों का समारोह कर के पाल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई। कल्याण सिंह को हटाया गया था और प्रधानमंत्री चुने जा चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने आमरण अनशन पर बैठ कर एक इतिहास बना दिया था और दूसरा इतिहास अदालत ने बना दिया जिसने राज्यपाल के आदेश को खारिज कर दिया।
वर्ष 2007 में झारखंड के राज्यपाल सैयद शिब्ते रजी ने भी अपने पद का दूरुपयोग किया। बजह बना तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबु सोरेन का तमाड़ विधानसभा से चुनाव हार जाना। महामहीम राज्यपाल ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किये, राज्य में राष्ट्रपति शासन कि अनुशंसा कर दी। इसी तरह वर्ष 2008 में गोवा के राज्यपाल एस.सी.जमीर ने मनोहर पारिकर(बीजेपी) की सरकार को बर्खास्त कर दिया और प्रताप सिह राणे(कांग्रेस) को शपथ दिला दी। लिहाजा, राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी।
हंसराज भारद्वाज ने कर्नाटक में जो नाटक किया उसे तो कोई भूल नहीं सकता। चार दिन में दो बार एक सरकार विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करती है और उसे बर्खास्त करने की पूरी कोशिश की जाती है। मोती लाल बोरा तीन बार उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे और तीनों बार राष्ट्रपति शासन लगा और धारा 356 की कृपा से वर्तमान छत्तीसगढ़ के एक छोटे से शहर में बस कंडक्टर रहे और फिर नगरपालिका सदस्य बने बोरा ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर राज किया। इस दौरान के उनके भी सैकड़ों फैसले हैं जो आज तक अदालत में हैं। यह धारा 356 है जो राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन यानी अपना राज्य कायम करने का अधिकार देती है। जहां तक धारा 166 का सवाल है तो उसके पहले और दूसरे अनुच्छेद, जिन्हे सौभाग्य से संविधान में अनिवार्य नहीं बनाया गया है लेकिन राज्यपाल केंद्र सरकार की सहमति से इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। जब केंद्र सरकार एक निरर्थक हो चुके आदमी को राजा बना कर भेज सकती हैं तो उसे अपने मतलब के कामों में सहमति लेने से क्या ऐतराज हो सकता है? इस धारा के अनुसार राज्यपाल का कोई भी आदेश नियमों के अनुसार अनिवार्य माना जाएगा और इसकी वैधता पर कोई सवाल भी खड़ा नहीं किया जा सकता। धारा 166 के ही पहले और दूसरे अनुच्छेद में तो यह खेल कर दिया गया मगर तीसरे अनुच्छेद में लिख दिया गया कि राज्यपाल के आदेश को कानून के आधार पर अदालत में चुनौती दी जा सकती है। मगर इसी आदेश में यह भी लिखा हैं कि महामहिम राज्यपाल सरकार को किसी भी दिन अपने हाथ में ले सकते हैं और यहां तक कि मंत्रियों के काम काज भी बदल सकते हैं। ऐसा हुआ बहुत कम हैं क्योंकि राज्यपाल भी जानते हैं कि बवाल में फंसे तो पेंशन में मिली शान और शौकत जाते देर नहीं लगेगी और फिर दिल्ली में एक बंगला मिल जाएगा जहां वे 'नाहन्यते हन्यमाने शरीरे' मंत्र के जाप का इंतजार करेंगे। तब तक तो राज्यपाल पद को आत्मा बनने से रोका जाए जिसे न वायु सुखा सकती है, न अस्त्र काट सकते हैं और न आग जला सकती है और जो एक तरह से भीख में मिलता है।
अब, सवाल यह उठता है, कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसीन् रहने के बावजूद, इतना पूर्वाग्रह क्यों। क्या राज्यपाल अपनी वैचारिक पार्टी के प्रति वफादारी दिखाते हैं। या फिर ऐसे घटनाक्रम में मौके की नजाकत को देखते हुये, मामले को और उलझाते हैं , ताकि उस सरकार के प्रति वफादार बने रहें जिसने उसे नियुक्त किया हैज्.। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जिस तरह से राज्यपाल केन्द्र सरकार या अपनी पार्टी के एजेंट के रुप में काम करते हैं , वो इस देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिये कितना जायज है।

कुशल प्रशासक नहीं मार्केटिंग एक्सपर्ट बन रहे नौकरशाह

भारत जिस तेजी से विश्व के मानचित्र पर ताकतवर बनता जा रहा है उसी तेजी से यह अंदरुनी तौर पर खोखला होता जा रहा है। हमारे देश के खोखलेपन की एक अहम वजह यह भी है कि केंद्र और राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर गलत लोग बैठे हुए हैं। प्रशासनिक मशीनरी सही लोगों का चयन तभी संभव हो सकेगा, जब चयन प्रक्रिया का आधार गुणवत्ता और उत्कृष्टता हो।
राज्यों में प्रशासनिक दक्षता की खराब गुणवत्ता के पीछे मैदानी और सचिवालय स्तर के अफसरों के तबादले की नीति भी है, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में किया जाता है। यह पद्धति राजनेताओं के अनुरूप हो सकती है, लेकिन यह जनता के हित में कतई नहीं है। इसी कारण प्रशासन सुशासन न होकर कुशासन बन जाता है। हमारे तंत्र की इस कमी को कोई समझे या न समझे हमारे नौकरशाह भलीभांति समझते हैं,यही कारण है कि एक कुशल प्रशासक बनने की मंशा रखने के बावजुद भी ये मार्केटिंग एक्सपर्ट (पदों की खरीद-फरोख्त में माहिर)बनने में लगे हुए हैं।
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के चयन में जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई गई, उससे एक बार फिर यह साबित हुआ कि सरकार की दिलचस्पी सुप्रशासन में नहीं है। न जाने इस ढर्रे में कैसे सुधार होगा। समझ ही नहीं आता कि सुधारों की शुरुआत कहां से होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सरकार अपने 'भरोसेमंदÓ अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद अच्छा सा ओहदा देकर पुरस्कृत करती है। यह भी सर्वविदित है कि सीबीआई, आईबी, चुनाव आयोग या इस जैसे ही महत्वपूर्ण महकमों में सरकार यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास करती है कि उचित व्यक्ति ही शीर्ष पदों पर आसीन हों। हमारे तंत्र की बुनियादी खामी यह है कि आम तौर पर सरकार महत्वपूर्ण पदों के लिए ऐसे व्यक्तियों का चयन करना पसंद करती है, जो 'आज्ञाकारीÓ हों।
उदहारण स्वरूप छत्तीसगढ को ले तो हम पाते हैं कि मध्य प्रदेश से अलग हुए इस राज्य को गरीब राज्यों की श्रेणी में गिना जाता है लेकिन यहां के नौकरशाह करोड़ों-अरबों के आसामी हैं। यह राज्य के विकास या संपन्नता को परिलक्षित नहीं करता है बल्कि नौकरशाहों की मार्केटिंग क्षमता को दर्शाता है।
छत्तीसगढ़ विकास के मामले में आज भले ही देश के अग्रिम पंक्ति के राज्यों में गिना जा रहा है, लेकिन वहां विकास की अभी भी जरूरत है। किसी भी राज्य के विकास की अवधारणा वहां की सरकार की होती है लेकिन उसके क्रियान्वयन का जिम्मा वहां की नौकरशाही का होता है। छत्तीसगढ़ में विकास का दौर चल रहा है अत वहां काम और भ्रष्टाचार दोनों चरम पर है। ऐसे में वहां के कुछ आईएएस काम तो कुछ भ्रष्टाचार के कारण राज्य से मुंह मोड़ रहे हैं। बड़ी शिकायत ये है कि अफसरशाही में अव्वल माने जाने वाले आईएएस अधिकारियों को अगर प्रतिनियुक्ति (दिल्ली) पर भेजा जाए तो वे जुगाड़-तंत्रÓ के सहारे काडर में वापस नहीं जाना चाहते। नए बैच के आईएएस में भी छत्तीसगढ़ में नियुक्ति के प्रति उत्साह में भारी कमी देखने को मिल रही है।
एक तरफ विकास को आतुर छत्तीसगढ़ में सरकार हवा के पंख लगाकर उड़ रही है वहीं दूसरी तरफ योग्य अधिकारी राज्य से बाहर जा रहे हैं। आईएएस सुलेमान, आईबी चहल, बिमल जुल्का, विनय शुक्ला और एसके राजू ने काडर बदलवाने में सफलता पाई,वहीं उज्जैन की कलेक्टर एम गीता छत्तीसगढ़ काडर बदलने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रही हैं। एम गीता को 1997 में मध्यप्रदेश काडर मिला। उसी आधार पर इलाहाबाद बैंक में कार्यरत उनके पति ने अपना स्थानांतरण मध्यप्रदेश करा लिया। छत्तीसगढ़ बना तो उन्हें वहां जाने को कहा गया। पब्लिक सेक्टर के इलाहाबाद बैंक में इस तरह से एक ही बार स्थानांतरण का प्रावधान है, इसलिए पारिवारिक बिखराव को देखते हुए उन्होंने डीओपीटी को मध्यप्रदेश काडर बहाल करने की अर्जी दी थी। सुनी-अनसुनी होने के कारण पहले कैट और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने मामला रखा है।
डीओपीटी में इन दिनों विभिन्न राज्यों के काडर-रिव्यू में जुटा हुआ है। माना जा रहा था कि कानून-व्यवस्था में छत्तीसगढ़़ की विषम परिस्थितियों को देखते हुए मांग के अनुसार आईएएस और आईपीएस की संख्या बढ़ाने पर केंद्र राजी हो जाएगा, पर ऐसा होता दिख नहीं रहा। सूबे में आईपीएस की कुल संख्या फिलहाल 81 है, इसे बढ़ाकर राज्य सरकार ने 111 आईपीएस के पदों की अनुशंसा की थी। इसके उलट केवल 103 आईपीएस के पदों की स्वीकृति पर डीओपीटी ने मुहर लगाई। ऐसा ही कुछ आईएएस के पद के लिए भी होने की संभावना है। सूत्रों ने बताया कि राज्य सरकार ने मौजूदा आईएएस की संख्या 135 को बढ़ाकर 155 करने की गुजारिश की है। चार नए संभागों में कलेक्टर, कमिश्नर के अलावा कुछ नए सीओ और चुनिंदा मंत्रालयों में विशेष सचिव के पद सृजित किए जाने का फार्मूला बनाया गया है। सूबे के लिए आईएएस काडर-रिव्यू का काम पूरा हो गया। सूत्रों ने बताया कि अंतिम मुहर के लिए फाइल कैबिनेट सचिवालय भेज दी गई है। डीओपीटी की संस्तुति में माना जा रहा है कि आईएएस की कुल संख्या 150 रखी गई है। इसके साथ राज्य सरकार के मसविदे का हवाला देते हुए कैबिनेट सचिवालय को अलग से नोट भेजा गया है कि अगर उचित लगे तो संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।
राज्य सरकार की चिंता इस बात पर भी है कि शैलेश पाठक और राजकमल को आईएएस से इस्तीफा दिए लंबा समय बीत जाने के बाद भी डीओपीटी राज्य के आईएएस में उनके नामों को भी गिनता है जिससे बिना वजह दो पदों का घाटा राज्य सरकार को उठाना पड़ता है। शैलेश पाठक आईसीआईसीआई में और राजकमल अंतर्राष्ट्रीय कंपनी मैकेन्जी में उच्च पदों पर काम कर रहे हैं। दोनों को इस्तीफा तकरीबन 5 वर्षो से डीओपीटी में लंबित है।
उधर छत्तीसगढ़ में कार्यरत अधिकांश आईएएस अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के इन अधिकारियों की विवादास्पद छवि के चलते जनता के करोड़ों रुपए डकारे जा रहे हैं। पदों का दुरुपयोग खुलेआम किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से लूट-खसोट मची है वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के दामन में एक बदनुमा दाग बनकर सामने आने लगा है और एक बारगी तो सीधे सरकार से गठजोड़ दिखाई देने लगा है। हालत यह है कि बेहिसाब संपत्ति के मालिक इन अफसरों पर अंकुश लगाने में सरकार पूरी तरह विफल है। सर्वाधिक चर्चित अफसरों में इन दिनों बाबूलाल अग्रवाल का नाम सबसे ऊपर है। अन्य अफसरों में विवेक ढांड का नाम भी सामने आया है। कहा जाता है कि रायपुर के इस अफसर ने अपने पद का दुरुपयोग स्वयं के दुकान सजाने व गृहनिर्माण मंडल के बंगले को रेस्ट हाउस के लिए किराए से देने का है।
यही नहीं मालिक मकबूजा कांड में फंसे नारायण सिंह को किस तरह से पदोन्नति दी जा रही है यह किसी से छिपा नहीं है जबकि सुब्रत साहू पर तो धमतरी कांड के अलावा भी कई आरोप है। दूसरे चर्चित अफसरों में सी.के. खेतान का नाम तो आम लोगों की जुबान पर चढ गय़ा है। बारदाना से लेकर मालिक मकबूजा के आरोपों से घिरे खेतान साहब पर सरकार की मेहरबानी के चर्चे आम होने लगे हैं। ताजा मामला जे. मिंज का है माध्यमिक शिक्षा मंडल के एमडी श्री मिंज पर रायपुर में अपर कलेक्टर रहते हुए जमीन प्रकरणों में अनियमितता बरतने का आरोप है। सरकारी जमीन को बड़े लोगों से सांठ-गांठ कर गड़बड़ी करने के मामले में उन्हें नोटिस तक दी जा चुकी है। एम.के. राउत पर तो न जाने कितने आरोप हैं जबकि अब तक ईमानदार बने डी.एस. मिश्रा पर भी आरोपों की झड़ी लगने लगी है। अजय सिंह, बैजेन्द्र कुमार, सुनील कुजूर तो आरोपों से घिरे ही है। आरपी मंडल के खिलाफ तो स्वयं भाजपाई मोर्चा खोल चुके हैं लेकिन वे भी महत्वपूर्ण पदों पर जमें हुए हैं। जबकि अनिल टूटेजा पर तो हिस्ट्रीशिटरों के साथ पार्टनरशिप के आरोप लग रहे हैं। कहा जाता है कि देवेन्द्र नगर वाले इस शासकीय सेवा से जुड़े अपराधी को हर बार बचाने में अनिल टुटेजा की भूमिका रहती है।
अधिकांश आईएएस की करतूतों का कच्चा चि_ा सरकार के पास है आश्चर्य का विषय तो यह है कि जब भाजपा विपक्ष में थी तब इनमें से अधिकांश अधिकारियों की करतूत पर मोर्चा खोल चुकी है लेकिन सत्ता में आते ही इनके खिलाफ कार्रवाई तो दूर उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया। बताया जाता है कि आईएएस और मंत्रियों के गठजोड़ की वजह से करोड़ों रुपए इनके जेब में जा रहा है। यहां तक कि जांच रिपोर्टों को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। बहरहाल छत्तीसगढ़ में बदनाम आईएएस अफसरों का जमावड़ा होता जा रहा है और सरकार भी इनकी करतूत पर आंखे मूंदे है।
उधर प्रदेश के आदिवासी अधिकारियों में असंतोष की चिंगारी एक बार फिर नजर आने लगी है। आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में एक भी स्थानीय आईएएस कलेक्टर के रूप में पदस्थ नहीं है। राज्य सेवा के 8-10 अधिकारियों को विगत वर्षों में आईएएस अवार्ड तो हुआ पर उन्हें शासन ने कलेक्टर बनाना मुनासिब नहीं समझा। आधिकांश आदिवासी आईएएस अफसर लूप लाइन में डाल दिए गए हैं।
लूप में पड़े ये अधिकारी गाहे-बगाहे अपना दर्द बयान कर ही जाते हैं। ये अधिकारी चाहते हैं कि सरकार उन्हें मेन लाइन में रखे और सरकार उनकी सुनने को तैयार नहीं दिखती। वैसे, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रदेश में आदिवासी वर्ग से एक कलेक्टर तैनात हैं। दूसरे मनोहर सिंह परस्ते, जो म.प्र. के डिंडोरी के हैं, लेकिन प्रदेश के अधिकारी जिलाधीश जैसे पद के लिए योग्य नहीं माने जा रहे हैं। न सिर्फ आईएएस बल्कि आईपीएस के स्थानीय अधिकारी स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। आदिवासी वर्ग के आईएस अफसरों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का भी है कि आदिवासी वर्ग के मंत्री और विधायक भी उनके लिए लॉबिंग नहीं कर रहे हैं।
इन अफसरों का कहना है कि जिन कलेक्टरों का प्रदर्शन स्तरीय नहीं रहा उन्हें प्रभावशाली प्रभारी दिया गया है, इनका कहना है कि दागी और विवादित अफसरों पर भी सरकार मेहरबान है, पर सीधे-सरल भूमिपुत्र आईएएस अफसर सर उपेक्षित हैं। इन अधिकारियों का कहना है कि सरकार उनकी काबिलियत पर या तो भरोसा नहीं है या वह स्थानीय लोगों को मौका नहीं देना चाहती। आदिवासी वर्ग के आईएस जी.एस धनंजय आदिमजाति कल्याण विभाग में संचालक हैं, जे.मिंज पाठ्यपुस्तक निगम में, एम डी है। एन.एस. मंडावी हस्त शिल्प विभाग में तैनात हैं। डीडी सिंह उद्योग विभाग में संयुक्त सचिव, एसपी शोरी संपदा विभाग में, रामसिंह ठाकुर दुग्ध संघ में, एम डी है जेवियर तिग्गा लोसेआ के सचिव और अमृत सलखो स्वास्थ्य में उपसचिव हैं। टोप्पो ही ऐसे अधिकारी हैं जो रायपुर संभाग के कमिश्नर हैं।
इन अधिकारियों का दर्द है कि राज्य सेवा में चयनित होने के बाद उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है फिर आईएस अवार्ड होने के बाद उन्हें फील्ड में अच्छी पोस्टिंग नहीं हुई। मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है। ले-दे कर बीपीएस नेताम को कलेक्टर बनाया गया था पर उन्हें कहीं टिककर काम भी नहीं करने दिया गया उनका कार्यकाल भी पूरा नहीं हो पाया। ऐसे आदिवासी अधिकारियों की फेहरिस्त लंबी है जिन्हें प्रशासनिक फेरबदल पर अकारण और बिना किसी शिकायत के हटा दिया जाता है। जबकि प्रदेश में ऐसे अधिकारियों की सूची भी खासी लंबी है जो विवादों में रहे, जिनके खिलाफ गंभीर आरोप लगते रहे और जिन पर भ्रष्टाचार के छींटे हैं आज वे जिला कलेक्टर बने हुए हैं या महत्वपूर्ण विभागों में पदस्थ हैं। आदिवासी वर्ग के आईएएस अफसरों में व्याप्त यह असंतोष नाराजगी का रूप ले रहा है। कमोवेश यही स्थिति स्थानीय आईपीएस अधिकारियों की भी है। वे भी अपनी उपेक्षा से और अच्छी पोस्टिंग नहीं मिलने से नाराज चल रहे हैं। आईपीएस अधिकारियों की नाराजगी मुख्यालय से भी चार है। सुगबुगाहट है कि स्थानीय आईएएस और आईपीएस संगठित होने की कोशिश कर रहे हैं।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

कुशल प्रशासक नहीं मार्केटिंग एक्सपर्ट बन रहे नौकरशाह

भारत जिस तेजी से विश्व के मानचित्र पर ताकतवर बनता जा रहा है उसी तेजी से यह अंदरुनी तौर पर खोखला होता जा रहा है। हमारे देश के खोखलेपन की एक अहम वजह यह भी है कि केंद्र और राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर गलत लोग बैठे हुए हैं। प्रशासनिक मशीनरी सही लोगों का चयन तभी संभव हो सकेगा, जब चयन प्रक्रिया का आधार गुणवत्ता और उत्कृष्टता हो।
राज्यों में प्रशासनिक दक्षता की खराब गुणवत्ता के पीछे मैदानी और सचिवालय स्तर के अफसरों के तबादले की नीति भी है, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में किया जाता है। यह पद्धति राजनेताओं के अनुरूप हो सकती है, लेकिन यह जनता के हित में कतई नहीं है। इसी कारण प्रशासन सुशासन न होकर कुशासन बन जाता है। हमारे तंत्र की इस कमी को कोई समझे या न समझे हमारे नौकरशाह भलीभांति समझते हैं,यही कारण है कि एक कुशल प्रशासक बनने की मंशा रखने के बावजुद भी ये मार्केटिंग एक्सपर्ट (पदों की खरीद-फरोख्त में माहिर)बनने में लगे हुए हैं।
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के चयन में जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई गई, उससे एक बार फिर यह साबित हुआ कि सरकार की दिलचस्पी सुप्रशासन में नहीं है। न जाने इस ढर्रे में कैसे सुधार होगा। समझ ही नहीं आता कि सुधारों की शुरुआत कहां से होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सरकार अपने 'भरोसेमंदÓ अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद अच्छा सा ओहदा देकर पुरस्कृत करती है। यह भी सर्वविदित है कि सीबीआई, आईबी, चुनाव आयोग या इस जैसे ही महत्वपूर्ण महकमों में सरकार यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास करती है कि उचित व्यक्ति ही शीर्ष पदों पर आसीन हों। हमारे तंत्र की बुनियादी खामी यह है कि आम तौर पर सरकार महत्वपूर्ण पदों के लिए ऐसे व्यक्तियों का चयन करना पसंद करती है, जो 'आज्ञाकारीÓ हों।
उदहारण स्वरूप छत्तीसगढ को ले तो हम पाते हैं कि मध्य प्रदेश से अलग हुए इस राज्य को गरीब राज्यों की श्रेणी में गिना जाता है लेकिन यहां के नौकरशाह करोड़ों-अरबों के आसामी हैं। यह राज्य के विकास या संपन्नता को परिलक्षित नहीं करता है बल्कि नौकरशाहों की मार्केटिंग क्षमता को दर्शाता है।
छत्तीसगढ़ विकास के मामले में आज भले ही देश के अग्रिम पंक्ति के राज्यों में गिना जा रहा है, लेकिन वहां विकास की अभी भी जरूरत है। किसी भी राज्य के विकास की अवधारणा वहां की सरकार की होती है लेकिन उसके क्रियान्वयन का जिम्मा वहां की नौकरशाही का होता है। छत्तीसगढ़ में विकास का दौर चल रहा है अत वहां काम और भ्रष्टाचार दोनों चरम पर है। ऐसे में वहां के कुछ आईएएस काम तो कुछ भ्रष्टाचार के कारण राज्य से मुंह मोड़ रहे हैं। बड़ी शिकायत ये है कि अफसरशाही में अव्वल माने जाने वाले आईएएस अधिकारियों को अगर प्रतिनियुक्ति (दिल्ली) पर भेजा जाए तो वे जुगाड़-तंत्रÓ के सहारे काडर में वापस नहीं जाना चाहते। नए बैच के आईएएस में भी छत्तीसगढ़ में नियुक्ति के प्रति उत्साह में भारी कमी देखने को मिल रही है।
एक तरफ विकास को आतुर छत्तीसगढ़ में सरकार हवा के पंख लगाकर उड़ रही है वहीं दूसरी तरफ योग्य अधिकारी राज्य से बाहर जा रहे हैं। आईएएस सुलेमान, आईबी चहल, बिमल जुल्का, विनय शुक्ला और एसके राजू ने काडर बदलवाने में सफलता पाई,वहीं उज्जैन की कलेक्टर एम गीता छत्तीसगढ़ काडर बदलने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रही हैं। एम गीता को 1997 में मध्यप्रदेश काडर मिला। उसी आधार पर इलाहाबाद बैंक में कार्यरत उनके पति ने अपना स्थानांतरण मध्यप्रदेश करा लिया। छत्तीसगढ़ बना तो उन्हें वहां जाने को कहा गया। पब्लिक सेक्टर के इलाहाबाद बैंक में इस तरह से एक ही बार स्थानांतरण का प्रावधान है, इसलिए पारिवारिक बिखराव को देखते हुए उन्होंने डीओपीटी को मध्यप्रदेश काडर बहाल करने की अर्जी दी थी। सुनी-अनसुनी होने के कारण पहले कैट और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने मामला रखा है।
डीओपीटी में इन दिनों विभिन्न राज्यों के काडर-रिव्यू में जुटा हुआ है। माना जा रहा था कि कानून-व्यवस्था में छत्तीसगढ़़ की विषम परिस्थितियों को देखते हुए मांग के अनुसार आईएएस और आईपीएस की संख्या बढ़ाने पर केंद्र राजी हो जाएगा, पर ऐसा होता दिख नहीं रहा। सूबे में आईपीएस की कुल संख्या फिलहाल 81 है, इसे बढ़ाकर राज्य सरकार ने 111 आईपीएस के पदों की अनुशंसा की थी। इसके उलट केवल 103 आईपीएस के पदों की स्वीकृति पर डीओपीटी ने मुहर लगाई। ऐसा ही कुछ आईएएस के पद के लिए भी होने की संभावना है। सूत्रों ने बताया कि राज्य सरकार ने मौजूदा आईएएस की संख्या 135 को बढ़ाकर 155 करने की गुजारिश की है। चार नए संभागों में कलेक्टर, कमिश्नर के अलावा कुछ नए सीओ और चुनिंदा मंत्रालयों में विशेष सचिव के पद सृजित किए जाने का फार्मूला बनाया गया है। सूबे के लिए आईएएस काडर-रिव्यू का काम पूरा हो गया। सूत्रों ने बताया कि अंतिम मुहर के लिए फाइल कैबिनेट सचिवालय भेज दी गई है। डीओपीटी की संस्तुति में माना जा रहा है कि आईएएस की कुल संख्या 150 रखी गई है। इसके साथ राज्य सरकार के मसविदे का हवाला देते हुए कैबिनेट सचिवालय को अलग से नोट भेजा गया है कि अगर उचित लगे तो संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।
राज्य सरकार की चिंता इस बात पर भी है कि शैलेश पाठक और राजकमल को आईएएस से इस्तीफा दिए लंबा समय बीत जाने के बाद भी डीओपीटी राज्य के आईएएस में उनके नामों को भी गिनता है जिससे बिना वजह दो पदों का घाटा राज्य सरकार को उठाना पड़ता है। शैलेश पाठक आईसीआईसीआई में और राजकमल अंतर्राष्ट्रीय कंपनी मैकेन्जी में उच्च पदों पर काम कर रहे हैं। दोनों को इस्तीफा तकरीबन 5 वर्षो से डीओपीटी में लंबित है।
उधर छत्तीसगढ़ में कार्यरत अधिकांश आईएएस अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के इन अधिकारियों की विवादास्पद छवि के चलते जनता के करोड़ों रुपए डकारे जा रहे हैं। पदों का दुरुपयोग खुलेआम किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से लूट-खसोट मची है वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के दामन में एक बदनुमा दाग बनकर सामने आने लगा है और एक बारगी तो सीधे सरकार से गठजोड़ दिखाई देने लगा है। हालत यह है कि बेहिसाब संपत्ति के मालिक इन अफसरों पर अंकुश लगाने में सरकार पूरी तरह विफल है। सर्वाधिक चर्चित अफसरों में इन दिनों बाबूलाल अग्रवाल का नाम सबसे ऊपर है। अन्य अफसरों में विवेक ढांड का नाम भी सामने आया है। कहा जाता है कि रायपुर के इस अफसर ने अपने पद का दुरुपयोग स्वयं के दुकान सजाने व गृहनिर्माण मंडल के बंगले को रेस्ट हाउस के लिए किराए से देने का है।
यही नहीं मालिक मकबूजा कांड में फंसे नारायण सिंह को किस तरह से पदोन्नति दी जा रही है यह किसी से छिपा नहीं है जबकि सुब्रत साहू पर तो धमतरी कांड के अलावा भी कई आरोप है। दूसरे चर्चित अफसरों में सी.के. खेतान का नाम तो आम लोगों की जुबान पर चढ गय़ा है। बारदाना से लेकर मालिक मकबूजा के आरोपों से घिरे खेतान साहब पर सरकार की मेहरबानी के चर्चे आम होने लगे हैं। ताजा मामला जे. मिंज का है माध्यमिक शिक्षा मंडल के एमडी श्री मिंज पर रायपुर में अपर कलेक्टर रहते हुए जमीन प्रकरणों में अनियमितता बरतने का आरोप है। सरकारी जमीन को बड़े लोगों से सांठ-गांठ कर गड़बड़ी करने के मामले में उन्हें नोटिस तक दी जा चुकी है। एम.के. राउत पर तो न जाने कितने आरोप हैं जबकि अब तक ईमानदार बने डी.एस. मिश्रा पर भी आरोपों की झड़ी लगने लगी है। अजय सिंह, बैजेन्द्र कुमार, सुनील कुजूर तो आरोपों से घिरे ही है। आरपी मंडल के खिलाफ तो स्वयं भाजपाई मोर्चा खोल चुके हैं लेकिन वे भी महत्वपूर्ण पदों पर जमें हुए हैं। जबकि अनिल टूटेजा पर तो हिस्ट्रीशिटरों के साथ पार्टनरशिप के आरोप लग रहे हैं। कहा जाता है कि देवेन्द्र नगर वाले इस शासकीय सेवा से जुड़े अपराधी को हर बार बचाने में अनिल टुटेजा की भूमिका रहती है।
अधिकांश आईएएस की करतूतों का कच्चा चि_ा सरकार के पास है आश्चर्य का विषय तो यह है कि जब भाजपा विपक्ष में थी तब इनमें से अधिकांश अधिकारियों की करतूत पर मोर्चा खोल चुकी है लेकिन सत्ता में आते ही इनके खिलाफ कार्रवाई तो दूर उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया। बताया जाता है कि आईएएस और मंत्रियों के गठजोड़ की वजह से करोड़ों रुपए इनके जेब में जा रहा है। यहां तक कि जांच रिपोर्टों को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। बहरहाल छत्तीसगढ़ में बदनाम आईएएस अफसरों का जमावड़ा होता जा रहा है और सरकार भी इनकी करतूत पर आंखे मूंदे है।
उधर प्रदेश के आदिवासी अधिकारियों में असंतोष की चिंगारी एक बार फिर नजर आने लगी है। आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में एक भी स्थानीय आईएएस कलेक्टर के रूप में पदस्थ नहीं है। राज्य सेवा के 8-10 अधिकारियों को विगत वर्षों में आईएएस अवार्ड तो हुआ पर उन्हें शासन ने कलेक्टर बनाना मुनासिब नहीं समझा। आधिकांश आदिवासी आईएएस अफसर लूप लाइन में डाल दिए गए हैं।
लूप में पड़े ये अधिकारी गाहे-बगाहे अपना दर्द बयान कर ही जाते हैं। ये अधिकारी चाहते हैं कि सरकार उन्हें मेन लाइन में रखे और सरकार उनकी सुनने को तैयार नहीं दिखती। वैसे, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रदेश में आदिवासी वर्ग से एक कलेक्टर तैनात हैं। दूसरे मनोहर सिंह परस्ते, जो म.प्र. के डिंडोरी के हैं, लेकिन प्रदेश के अधिकारी जिलाधीश जैसे पद के लिए योग्य नहीं माने जा रहे हैं। न सिर्फ आईएएस बल्कि आईपीएस के स्थानीय अधिकारी स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। आदिवासी वर्ग के आईएस अफसरों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का भी है कि आदिवासी वर्ग के मंत्री और विधायक भी उनके लिए लॉबिंग नहीं कर रहे हैं।
इन अफसरों का कहना है कि जिन कलेक्टरों का प्रदर्शन स्तरीय नहीं रहा उन्हें प्रभावशाली प्रभारी दिया गया है, इनका कहना है कि दागी और विवादित अफसरों पर भी सरकार मेहरबान है, पर सीधे-सरल भूमिपुत्र आईएएस अफसर सर उपेक्षित हैं। इन अधिकारियों का कहना है कि सरकार उनकी काबिलियत पर या तो भरोसा नहीं है या वह स्थानीय लोगों को मौका नहीं देना चाहती। आदिवासी वर्ग के आईएस जी.एस धनंजय आदिमजाति कल्याण विभाग में संचालक हैं, जे.मिंज पाठ्यपुस्तक निगम में, एम डी है। एन.एस. मंडावी हस्त शिल्प विभाग में तैनात हैं। डीडी सिंह उद्योग विभाग में संयुक्त सचिव, एसपी शोरी संपदा विभाग में, रामसिंह ठाकुर दुग्ध संघ में, एम डी है जेवियर तिग्गा लोसेआ के सचिव और अमृत सलखो स्वास्थ्य में उपसचिव हैं। टोप्पो ही ऐसे अधिकारी हैं जो रायपुर संभाग के कमिश्नर हैं।
इन अधिकारियों का दर्द है कि राज्य सेवा में चयनित होने के बाद उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है फिर आईएस अवार्ड होने के बाद उन्हें फील्ड में अच्छी पोस्टिंग नहीं हुई। मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है। ले-दे कर बीपीएस नेताम को कलेक्टर बनाया गया था पर उन्हें कहीं टिककर काम भी नहीं करने दिया गया उनका कार्यकाल भी पूरा नहीं हो पाया। ऐसे आदिवासी अधिकारियों की फेहरिस्त लंबी है जिन्हें प्रशासनिक फेरबदल पर अकारण और बिना किसी शिकायत के हटा दिया जाता है। जबकि प्रदेश में ऐसे अधिकारियों की सूची भी खासी लंबी है जो विवादों में रहे, जिनके खिलाफ गंभीर आरोप लगते रहे और जिन पर भ्रष्टाचार के छींटे हैं आज वे जिला कलेक्टर बने हुए हैं या महत्वपूर्ण विभागों में पदस्थ हैं। आदिवासी वर्ग के आईएएस अफसरों में व्याप्त यह असंतोष नाराजगी का रूप ले रहा है। कमोवेश यही स्थिति स्थानीय आईपीएस अधिकारियों की भी है। वे भी अपनी उपेक्षा से और अच्छी पोस्टिंग नहीं मिलने से नाराज चल रहे हैं। आईपीएस अधिकारियों की नाराजगी मुख्यालय से भी चार है। सुगबुगाहट है कि स्थानीय आईएएस और आईपीएस संगठित होने की कोशिश कर रहे हैं।

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

साझा मुल्क साझी विरासत

असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
सरयू नदी में पंडे धर्म-कर्म कराते थे और मुसलिम समुदाय के लोग फूल चढ़वाने का काम करते थे. जहूर मियां बाबरी मस्जिद का केस भी लड़ते थे और संत-महंत सामने से गुजर जाएं तो दुआ-सलाम व आदर देने में कहीं भी कोताही नहीं करते थे. हाशिम मियां के क्या कहने, उनका महंत परमहंस जी से तो याराना जैसा था. हाशिम मियां आज भी हैं वे बाबरी मस्जिद के एक पक्षकार भी हैं और इसी मामले में हिंदू पक्ष की ओर से पक्षकार रहे रामचंद्र परमहंस के साथ एक ही गाड़ी में बैठकर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा लडऩे के लिए जाते थे.
फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिंदू-मुसलिम साथ खड़े दिखते हैंभाजपा के सांसद रहे ब्रह्मचारी विश्वनाथ दास शास्त्री की यह बात उस अयोध्या की झलक देती है जिसकी हर ईंट में गंगा-जमुनी तहजीब और सद्भाव की मिट्टी बसी है. फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न मेले-त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिन्दू-मुसलिम साथ-साथ दिखाई देते हैं. पूजा के लिए दिए जाने वाले फूलों से लेकर मंदिरों में चढऩे वाली माला को पिरोने के काम में लगे मुसलिम समुदाय के लोग शहर के ताने-बाने में ऐसे रचे बसे हैं कि यदि ये न हों तो शायद अयोध्या की जिंदगी ही ठहर जाए.
कनकभवन के बगल में स्थित सुंदरभवन में रामजानकी का मंदिर है. अन्सार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 1945 से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों तक इस मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में तो वे पुजारी के काम में मंदिर में हाथ भी बंटाते थे. वे पंचवक्ती नमाजी थे लेकिन क्या मजाल इसे लेकर अयोध्या में कोई विवाद हुआ हो.
अयोध्या के साधु-संतों के लिए विशेष तौर पर अयोध्या के मुसलिम कारीगरों द्वारा जो खड़ाऊं बनायी जाती है उसे 'चुन्नी-मुन्नीÓ कहते हैं. इसका वजन 50 से लेकर 100 ग्राम तक होता है. इसे बनाने वाले एक मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि यह एक खास हुनर है . इनके पिता भी यही काम करते थे और खानदान के लगभग एक दर्जन लोग इसे अपना व्यवसाय और सेवा बनाए हुए हैं. 6 दिसम्बर, 1992 को बाहरी उपद्रवी लोगों ने इनका घर जलाकर खाक कर दिया फिर भी इन्होंने न तो अयोध्या छोड़ी और न खड़ाऊं बनाना. हनुमानगढ़ी सहित तमाम मंदिरों में ये खड़ाऊं चढ़ाई जाती है. जब विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण स्थितियां खराब होने के अंदेशे में खड़ाऊं के कारोबार में लगे मुसलिम कारीगर थोड़े दिनों के लिए अयोध्या छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए तो विश्व हिंदू परिषद को भरतकुंड के खड़ाऊ पूजन का कार्यक्रम पूरा करने के लिए जरूरी खड़ाऊं उपलब्ध नहीं हो सकी.
इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि अयोध्या में कई मंदिर और अखाड़े हैं जिन्हें मुसलिम शासकों ने समय-समय पर जमीन और वित्तीय संरक्षण दिया. फैजाबाद के सेटिलमेंट कमिश्नर रहे पी कारनेगी ने भी 1870 में लिखी अपनी रिपोर्ट में इस आशय के कई उल्लेख किए हैं. रामकोट क्षेत्र, जहां अयोध्या विवाद का मुख्य केंद्र बिंदु विवादित परिसर है, उसी के उत्तर में स्थित जन्मस्थान मंदिर 300 वर्ष पुराना है. यह वैष्णवों के तडग़ूदड़ संप्रदाय का मंदिर है और कार्नेगी ने लिखा है कि इसके लिए जमीन अवध के नवाब मंसूर अली खान ने दी थी. रामकोट में प्रवेश द्वार पर ही एक टीलेनुमा किले के रूप में दिखती है हनुमानगढ़ी. सीढिय़ां देख लीजिए तो लगता है जैसे पहाड़ी पर चढऩा है. हनुमानगढ़ी को नवाबों के समय में दी गई भूमि पर बनाया गया था और आसफुदौला के नायब वजीर राजा टिकैतराय ने इसे राजकोष के धन से बनवाया. आज भी यहां फारसी में लिपिबद्ध पंचायती व्यवस्था चल रही है. जिसका मुखिया गद्दीनशीन कहलाता है. इस समय रमेशदास जी इसके गद्दीनशीन हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास ने 2003 में अयोध्या के इतिहास में हनुमानगढ़ी परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन करके हिन्दू-मुसलिम के बीच अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप आई कुछ दूरियों को समाप्त करने के लिए एक नया अध्याय खोला और इसके बाद सादिक खां उर्फ बाबू टेलर ने मस्जिद परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ कराकर अवध की उसी गंगा-जमुनी तहजीब का परिचय दिया जिसका अयोध्या भी एक हिस्सा है.
हनुमानगढ़ी के महंत, षटदर्शन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं कि नागापनी संस्कार में उनके गुरू द्वारा बताया गया था कि अवध के नवाब आसफुदौला और सूबेदार मंसूर अली खान के समय में मंदिर को दान मिला था. महन्त ज्ञानदास फारसी में लिखे उस फरमान को दिखाते हैं जिसके अनुसार मंदिर को दान मिला. वे कहते हैं, जहां तक मुझे ज्ञात है कि नवाब के नायब नवल राय द्वारा अयोध्या के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ. बाबा अभयराम दास को भी नवाबों के काल में भूमि दी गई थी.
इसी अयोध्या में बाबर के समकालीन मुसलिम शासकों ने दंतधावन कुंड से लगे अचारी मंदिर जिसे दंतधावनकुण्ड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, को पांच सौ बीघे जमीन ठाकुर के भोग, राग, आरती के लिए दान में दी थी. महंत नारायणाचारी बताते हैं कि अंग्रेजों ने भी इस जमीन पर मंदिर का मालिकाना हक बरकरार रखा और जमीन को राजस्व कर से भी मुक्त रखा, इस शर्त पर कि मंदिर द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया जाएगा.
अयोध्या में ही उदासीन संप्रदाय का नानकशाही रानोपाली मंदिर भी है. यह वही मंदिर है जिसकी चौखट पर ऐतिहासिक 'धनदेवÓ शिलालेख जड़ा है जिसमें पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा यहां एक ऐतिहासिक यज्ञ करने का वर्णन है. इस मंदिर का क्षेत्र ही इतना बड़ा है कि मंदिर परिसर के अंदर खेती भी होती है. तहलका ने कुछ साल पहले जब यहां महंत दामोदरदास से मुलाकात की थी तो उन्होंने नवाब आसफुद्दौला का एक दस्तावेज दिखाया था जो फारसी में लिखा था. उन्होंने बताया था, 'नवाब ने मंदिर के लिए एक हजार बीघे जमीन दान में दी थी लेकिन इसकी जानकारी हमें नहीं थी. 1950 में इसका पता चला जब महंत केशवदास से मार्तंड नैयर और शकुंतला नैयर ने मंदिर की जमीन का बैनामा करा लिया. मामला आगे बढ़ा तो पता चला कि यह तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जमीन दान की थी उसी दौरान हमें आसफुद्दौला की ग्राण्ट का यह प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ था जिसे कोर्ट में लगाया गया और बैनामा खारिज हुआ. कोर्ट ने कहा कि दान की भूमि को बेचा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि शकुंतला नैयर तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर की पत्नी तथा मार्तंड नैयर उनके बेटे थे. केकेके नैयर के समय ही 22/23 दिसंबर 1949 को मूर्तियां बाबरी मस्जिद के अंदर रखी गई थीं. बाद में ये पति-पत्नी जनसंघ के टिकट पर सांसद भी निर्वाचित हुए थे.
सरयू किनारे स्थित लक्ष्मण किले के बारे में उल्लेख मिलता है कि यह मुबारक अली खान नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बनवाया था. यह अब रसिक संप्रदाय का मंदिर है जिसके अनुयायी रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रूप में मान्यता देते हैं. अयोध्या-फैजाबाद दो जुड़वां शहर हैं. फैजाबाद नवाबों की पहली राजधानी रही है. गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव फैजाबाद की दुर्गापूजा पर भी दिखता है जब चौक घंटाघर की मस्जिद से दुर्गा प्रतिमाओं के जुलूस पर फूलों की वर्षा की जाती है. यह परंपरा कब शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उसी रूप में आज भी जारी है.
असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
वेद-कुरान का ज्ञान
संकरी गलियों की भूलभुलैया वाला इलाहाबाद का करेली मोहल्ला. मुसलिम बहुल इसी मोहल्ले की एक गली में तकुआ इस्लामिक स्कूल है जहां हमें वेदों और कुरान की शिक्षा एक साथ देने वाली शिक्षिका असमा शम्स मिलती हैं. वे कहती हैं, 'सभी धर्म एक ही मंजिल की ओर इशारा करते हैं. यदि आप भगवद गीता, वेद, उपनिषद या फिर कुरान से सुरे इख्लास, सुरे फातेहा पढ़ें तो आप पाएंगे कि इन सबमें एक समानता है. ये सभी ईश्वर की एकता की बात कहते हैं. यही बात स्वामी दयानंद द्वारा लिखी गई किताब सत्यार्थ प्रकाश और ब्रह्मसूत्र में भी कही गई है.
मदरसे में बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने की तालीम भी मिलती हैइस इलाके में मदरसों की भरमार है. परंतु इस स्कूल का मिजाज इन मदरसों से बिलकुल जुदा है. नाम भले ही इस्लामिक स्कूल हो लेकिन यहां हर मजहब के बच्चों का स्वागत है. स्कूल इस्लामिक एजुकेशन एंड रिसर्च संस्थान (ईरो) द्वारा चलाया जाता है. पेशे से कंप्यूटर प्रोग्रामर जिया-उस-शम्स इस संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष हैं. अप्रैल 2010 में इस स्कूल की शुरुआत करने वाले जिया कहते हैं कि वे ऐसा संस्थान शुरू करना चाहते थे जहां बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ ही विभिन्न धर्मों के बीच मौजूद खाई को पाटने और भाईचारे को बढ़ावा देने की तालीम दी जाए.
ईरो की स्थापना जनवरी, 2008 में जागरूक नागरिकों के एक समूह ने विभिन्न धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से की थी. इस्लाम के बारे में फैली भ्रांतियां दूर करना भी इसकी स्थापना की एक मुख्य वजह थी. तभी से यह संस्थान शांति और विभिन्न धर्मों में सामंजस्य बैठाने की दिशा में अनथक प्रयास कर रहा है. जिया बताते हैं, यहां एक अनूठी लाइब्रेरी भी है जहां आपको कुरान, हदीस, बाइबिल, गीता और वेद एक साथ रखे हुए मिल जाएंगे. यहां विभिन्न भाषाओं में धर्म ग्रंथ उपलब्ध हंै ताकि आम जनता उन्हें आसानी से पढ़ और समझ सके. यहां आप बाइबिल और भगवद गीता उर्दू में या फिर कुरान अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं. हमारा मकसद लोगों को सिर्फ अपने धर्म के बारे में पढऩे और समझने के लिए प्रेरित करना नहीं बल्कि दूसरे धर्मों को समझना और उसके बारे में फैली गलतफहमियों को दूर करना भी है. जिया के इस कदम को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. वे अब ऐसे और स्कूल खोलने की भी सोच रहे हैं. उनके मुताबिक विभिन्न धर्मों के बीच फैले वैमनस्य की मुख्य वजह गलतफहमी और अविश्वास है. वे कहते हैं, 'विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने पर कोई भी आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि सभी धर्म एक ही बात कहते हैं. शांति, सामंजस्य और इंसानियत ही सभी धर्मों का सार है. हम चाहे उसे जिस नाम से बुलाएं या जिस तरीके से उसकी इबादत करें. परंतु वह एक है. स्कूल में पढऩे वाली अल शिफा कहती हैं शिक्षा ही लोगों को शांति और एकता की राह दिखा सकती है. अगर सब आपस में प्यार से रहें तो धरती ही जन्नत बन जाएगी.
ईरो द्वारा समय-समय पर भाईचारे और आपसी विश्वास को बढ़ावा देने के लिए बैठकें, परिचर्चा और गोष्ठियां भी आयोजित की जाती हैं. इन आयोजनों में सभी समुदायों के बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता भाग लेते हैं और एक मंच से शांति के प्रसार और विभिन्न धर्मों के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास करते हैं.
आधुनिक विज्ञान के साथ संस्कृत और अरबी पढ़ते तकुआ इस्लामिक स्कूल के बच्चे आश्वस्त करते लगते हैं कि वे आगे जाकर सभी धर्मों को समझने वाले और उनका आदर करने वाले जिम्मेदार नागरिक जरूर बनेंगे.

सीबीआई की साख को चुनौती

क्या सत्ता की कठपुतली बन गई है सीबीआई

कभी-कभी अतिरिक्त उत्साह आत्मधाती भी साबित होता है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरेने के लिए गृहमंत्री अमित शाह की बात हो या फिर मुलायम, माया को नियंत्रित करने के लिए सीबीआई के उपयोग का मामला, इससे साफ है कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पोलिटिकल एनकाउंटर की जमीन कांग्रेस ने तैयार कर दी है। अब लोकतंत्र में मताधिकार के जरिए हार-जीत का फैसला बाद में आएगा, सीबीआई, पुलिस और न्यायपालिका के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों और विरोधी राजनेताओं को निपटाने का खेल पहले होगा। कांग्रेस सत्ता में है, इसलिए उसके पास सीबीआई और न्यायपालिका की शक्ति है, लेकिन सवाल है कि इस तरह की नीति का भविष्य क्या हो सकता है? कांग्रेस शायद इस पर आत्मविश्लेषण नहीं कर रही है कि वैसी परिस्थिति में जब कांग्रेस की बजाय सत्ता भाजपा के पास होगी तो वह क्वात्रोच्ची को क्लीनचिट दिलाने में सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की भूमिका का पुलिसिया पोलिटिकल एनकाउंटर कर सकती है। तब सीधे तौर पर सोनिया-मनमोहन पर न्यायिक सक्रियता बढ़ेगी और वह क्वात्रोची को सत्ता लाभ दिलाने के दोषी होंगे। कांग्रेस भले ही सफाई देती रहे कि इससे उसका कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सवाल है कि देश में फर्जी एनकाउंटर के हजारों मुकदमें सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उन मुकदमों में भी सोहराबुद्दीन की तहर क्या सीबीआई तेजी से सक्रिय होती है। इशरत को पाक साफ बताने की कांग्रेस और अन्य तथाकथित बुद्धिजीवियों की सच्चाई अब सामने आ चुकी है। सत्ता में आते ही सोनिया गांधी के घोर विरोधी रहे जार्ज फर्नाडीज के दामन को दागदार करने की कांग्रेसी राजनीति चली जा चुकी है और अब निशाने पर दूसरे लोग हैं। सीबीआई का दो चेहरा हमारे सामने है। एक चेहरे में सीबीआई मुख्य विपक्षी राजनीति भाजपा को बदनाम करने, हतोत्साहित करने और उसकी राजनीतिक शक्ति कमजोर करने का औजार बनी है तो दूसरे चेहरे में सीबीआई सोनिया गांधी और कांग्रेस के लिए संकट मोचक बनी है। 2004 में जब कांग्रेस सत्ता मे आई तो कांग्रेस ने अपने और सोनिया गांधी के खानदान के पाप को सीबीआई के माध्यम से धुलवाने की सफल कोशिश की। इसके लिए क्वात्रोच्ची प्रकरण की याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। क्वात्रोच्ची की भूमिका सीधे तौर पर बोफोर्स कांड से जुड़ी हुई थी। उस समय वह राजीव गांधी-सोनिया गांधी के अति निकट का चेहरा था। उसने बोफोर्स में दलाली खाई, जिसका सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत भी था। पर कांग्रेस ने क्वात्रोच्ची को सीबीआई के माध्यम से क्लीन चिट दिला दिया। राजनीतिक गलियारे में एक बात हमेशा उठी है कि मायावती, लालू और मुलायम जैसे अन्य राजनीतिक हस्तियां कांग्रेस के सामने समर्थन के लिए विवश क्यों है? बार-बार ये वामपंथी राजनीतिक पार्टियों से अपना गठजोड़ तोडऩे के लिए क्यों बाध्य होते हैं। परमाणु मुद्दे पर ही नहीं, बल्कि अन्य मुद्दों पर भी लालू, मायावती, मुलायम आदि का कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण क्यों होता है? पिछली बार बजट सत्र में कटौती प्रस्तावों पर कांग्रेस संकट में फंसी थी। महंगाई को लेकर विरोध चरम पर था, लेकिन मुलायम, मायावती और लालू ने कटौती प्रस्तावों पर भाजपा-वामपंथी दलों का साथ नहीं दिया। कई राजनीतिक कोणों से यह बात सामने आई कि सीबीआई के माध्यम से लालू, मुलायम, मायावती को कांग्रेस ब्लैकमेल कर समर्थन करने के लिए बाध्य करती है। मायावती जब-जब कांग्रेस के विरोध में खड़ी होती हैं, सीबीआई की जवानी चढ़ जाती है और कोर्ट में मायावती पर आय से अधिक संपत्ति रखने का प्रसंग गर्मी पैदा करता है। मायावती जैसे ही अंदरूनी तौर पर कांग्रेस की बातें मान लेती हंै वैसे ही सीबीआई कोर्ट में ठंडी पड़ जाती है। लोकतंत्र में जय-पराजय का माध्यम मत-समर्थन होता है। नीतियों और कार्यक्रम के सहारे लोकतंत्र में सत्ता की लड़ाई लड़ी जाती है। मुगलों की सत्ता संस्कृति में तलवार के बल पर सत्ता लूटा जाता था। बाप को बंधक बनाकर बेटा खुाद राजा बन जाता था। लोकतंत्र में ऐसी प्रक्रिया संभव नहीं है। कांग्रेस ने कारगिल युद्ध में भ्रष्टाचार को लेकर जार्ज फर्नाडीज को बदनाम किया, बाद में जांच रिपोर्ट आने पर यह बात गलत निकली। अब सीबीआई को मोहरा बनाकर लोकतंत्र में अपने राजनीतिक दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए फिर यह खेल हो रहा है, जो किसी भी तरह उचित नहीं है।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के आय से अधिक संपत्ति मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई को फटकार लगाया जाना इस बात का पुख्ता सुबूत है कि सीबीआई की साख और विश्वसनीयता आज संदेह के घेरे में है। साथ ही मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की इस बात में भी दम नजर आ रहा है कि संप्रग सरकार सीबीआई का सदुपयोग-दुरुपयोग अपनी जरूरत के हिसाब से कर रही है। मायावती के आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई की भूमिका पर नाराजगी जताते हुए पूछा है कि क्या सीबीआ?ई्र और बसपा प्रमुख एक साथ हैं। अगर दोनों साथ हैं तो फिर सुनवाई की जरूरत क्या है। सीबीआई की लचर कार्यप्रणाली को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी अकारण नहीं है। गौरतलब है कि मायावती ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर आय से अधिक संपत्ति रखने का मामला निरस्त किए जाने की मांग की है। यह याचिका 2008 से ही सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, लेकिन इन दो सालों में याचिका के मेरिट पर अभी तक सुनवाई नहीं हो पाई है। इसका कारण यह है कि कभी मायवती अर्जी दाखिल करती हैं और सीबीआई उसका जवाब देने के लिए अदालत से वक्त मांग लेती है तो कभी सीबीआई के जवाब का प्रति उत्तर देने के लिए मायावती समय मांग लेती है। ऐसी परिस्थितियों में सुनवाई स्थगित करने के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के पास कोई और चारा नहीं बचता है। सीबीआई और मायावती के बीच आंख-मिचौली के इस खेल से सर्वोच्च न्यायालय का भड़कना स्वाभाविक ही है। आज जब एक तरफ त्वरित न्याय दिलाने की कवायद की जा रही है वहीं दूसरी ओर सीबीआई जैसी संवैधानिक स्वायत्त संस्था द्वारा तमाम राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों के निस्तारण में हीलाहवाली करना निस्संदेह सर्वोच्च न्यायालय को नाराज करने वाला ही है। लेकिन सीबीआई करे तो क्या करे, उसके भी हाथ कहीं न कहीं बंधे ही नजर आते हैं। अगर राजनीतिक दलों की बातों पर गौर किया जाए तो सीबीआई की लचर कार्यप्रणाली की मूल वजह केंद्र सरकार द्वारा उसके कार्यो में गैर वाजिब ढंग से किया जाने वाला हस्तक्षेप ही है। अभी पिछले ही दिनों गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह की सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गिरफ्तारी को लेकर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी द्वारा आरोप लगाया गया कि केंद्र सरकार गुजरात सरकार को परेशान करने के लिए सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है। सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप न केवल भारतीय जनता पार्टी द्वारा लगाया जाता है, बल्कि गाहे-बगाहे अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भी लगाया जाता है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा एक सुर से कहा जा रहा है कि केंद्र की संप्रग सरकार अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सीबीआई को एक राजनीतिक हथियार के तौर पर प्रयोग कर रही है। काफी हद तक इस आरोप की पुष्टि में वे तर्क भी दे रहे हैं। अगर मायावती के मामले को ही देखा जाए तो यह मामला बहुत पुराना है। अब तक इस मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार मायावती को अपनी अदब में रखने के लिए इस मामले को जब चाहे जिंदा कर देती है और जब चाहे बर्फखाने में डाल देती है। दरअसल, केंद्र की संप्रग सरकार अपना बहुमत बनाए रखने के लिए आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप में फंसे राजनीतिज्ञों को अपना बगलगीर बनाए रखने के उद्देश्य से सीबीआई की धौंस उन्हें दिखाती रहती है। राजनीतिज्ञों द्वारा कहा जा रहा है कि 2004 में जब कांग्रेस को बसपा सांसदों की जरूरत थी, उस वक्त ताज कॉरिडोर मामले को सीबीआई की मदद से नेपथ्य में डाल दिया गया था और जब कटौती प्रस्ताव पर मायावती का रुख संप्रग सरकार के विरोध में दिखाई दिया तो मामले को एक बार फिर सियासी आंच पर रखकर सीबीआई की धौंस दिखाकर मायावती को अपने पाले में खड़ा कर लिया गया। कई बार खुद बसपा सुप्रीमों द्वारा भी केंद्र पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप जड़ा जा चुका है। महंगाई के सवाल पर विपक्ष के साथ सड़क पर गलबहियां करने वाला राजद और सपा जैसे राजनीतिक दल संसद में संप्रग सरकार का बगलगीर बनते नजर आए। अनेक राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इस राजनीतिक चमत्कार का मूल कारण सीबीआई के डंडे को ही माना गया, क्योंकि राजद और सपा दोनों के मुखिया की गर्दन आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सीबीआई के फंदे में फंसी हुई है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा संप्रग सरकार पर बराबर आरोप लगाया जाता रहा है कि वह अपने निकटस्थों को सीबीआई की मदद से क्लीन चीट देने का नौटंकी करती है। वहीं अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए जानबूझकर फंसाती है। भाजपा ने यह भी आरोप लगाया है कि सीबीआई की घटती साख के लिए मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है। वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में संप्रग द्वारा आरोपी कांग्रेस नेताओं को बचाने और सीबीआई के दुरुपयोग का मसला अक्सर राजनीतिक दलों द्वारा उठाया जाता है। संप्रग सरकार ने छत्तीसगढ़ राज्य के कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के खिलाफ विधायकों की खरीद-फरोख्त के मामले को जानबूझकर खत्म कर दिया। पेट्रोल पंप आवंटन मामले में सतीश शर्मा के खिलाफ अभियोजन चलाने की अनुमति तक नहीं दी। ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनको लेकर विपक्षी दलों द्वारा कहा जाता है कि सीबीआई्र की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को संप्रग सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए लगातार भंग कर रही है। लिहाजा आज की तारीख में सीबीआई को न्यायालय का तो कोपभाजन बनना ही पड़ रहा है, साथ ही जनमानस में भी उसकी विश्वसनीयता को लेकर शंका जाहिर की जा रही है। यह स्थिति न केवल सीबीआई की साख और गरिमा को लांक्षित करने वाली है, बल्कि स्वतंत्र संस्थाओं की संवैधानिक मर्यादा को भी तार-तार करने वाली है। संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त संस्थाओं पर सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की धौंस एक स्वतंत्र, निरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। स्वाभाविक है कि जब सीबीआई केंद्र सरकार की कठपुतली के रूप में कार्य करेगी तो उसकी शुचिता पर तो सवाल उठेगा ही। राजनीतिक दबाव की वजह से ही आज सीबीआई के पास बहुत सालों से हजारों मामले लंबित पड़े हैं, लेकिन उनका निस्तारण नहीं हो पा रहा है और ऊपर से हर रोज नए मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। आज देश में जरूरत के लिहाज से सीबीआई अदालतों की संख्या भी काफी कम है। वर्तमान समय में सिर्फ 49 सीबीआई अदालतों द्वारा ही कार्यो को निपटाया जा रहा है। अभी पिछले दिनों सीबीआई के निदेशक द्वारा कहा गया कि लंबित पड़े विचाराधीन मामलों को निपटाने के लिए पूरे देश में सीबीआई के लिए 71 विशेष अदालतों का गठन किया जाएगा। यह भी कहा गया कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मामले में तीन-चार वर्ष में निर्णय ले लिया जाएगा, लेकिन सच तो यह है कि जब तक सीबीआई सियासतदानों के चंगुल से बाहर नहीं निकलेगी, वह अपने संवैधानिक कार्यो को सही ढंग से अंजाम नहीं दे पाएगी। आज जरूरत इस बात की है कि सत्तारूढ़ सरकारें सीबीआई को अपने इशारों पर नचाने के बजाए उसे संवैधानिक रूप से कार्य करने की खुली छूट दें। अन्यथा, संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा तो भंग होगी ही, लोकतांत्रिक व्यवस्था के समक्ष तमाम सवाल भी खड़े होंगे।
सबसे स्वस्थ वे समाज होते हैं जो किसी भी प्रकार की जांच-परख से जरा भी भयभीत नहीं होते, मामलों की तह तक पहुंचना जिनकी मानसिकता का एक हिस्सा होता है और जो इस उद्देश्य की पूर्ति के उपकरणों की व्यवस्था करने से जरा भी नहीं हिचकते. ऐसा ही एक उपकरण केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई है जिसकी स्थापना भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के उद्देश्य से 1963 में की गई थी. आज 47 साल के बाद स्थिति जस की तस है. आज के भारत में बदलाव की, सुधार की उम्मीद के हरकारों की बात करें तो इनमें सबसे पहला नाम सीबीआई का होना चाहिए था. इसकी वजह से, जिनमें जरूरी है उनमें भय और हममें न्याय की लड़ाई के प्रति विश्वास का संचार होना चाहिए था.मगर सीबीआई की वर्तमान स्थिति दोनों में से कुछ भी नहीं कर पाती. वैधानिक रूप से सीबीआई देश के कार्मिक मंत्रालय से संबद्ध संस्था है जो सीधे देश के प्रधानमंत्री के अधीन आती है. इसे अपने कार्य के लिए जरूरी शक्तियां दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून, 1946 के तहत जारी एक प्रस्ताव से मिलती हैं. इसके मुताबिक संघीय क्षेत्र सीधे तौर पर सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में आते हेँ. मगर राज्यों में किसी जनसेवक की जांच और उसके ऊपर कार्रवाई के लिए उसे राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. यहां तक कि सीबीआई अपने अधीन रहे मामलों को लेकर भी खुदमुख्तार नहीं है. वह अपने आप सर्वोच्च अदालत में विशेष अनुमति याचिका तक दायर नहीं कर सकती. उदाहरण के तौर पर, एक विशेष सीबीआई अदालत ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में लालू प्रसाद यादव को बरी कर दिया. सीबीआई कहती है कि उसके पास उनके खिलाफ और तमाम मजबूत साक्ष्य हैं. मगर विधि मंत्रालय ने उसे याचिका दायर करने की अनुमति ही नहीं दी. इसके अलावा सीबीआई संयुक्त सचिव से ऊपर के स्तर के किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ जांच की कार्रवाई शुरू नहीं कर सकती. ऐसा करने के लिए उसे केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. वर्तमान में ऐसे कम से कम 30 प्रार्थनापत्र सरकार के पास लंबित पड़े हुए हैं.

यहां तक कि मुकदमा चलाने के लिए भी सीबीआई को केंद्र सरकार का मुंह ताकना पड़ता है. देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का कोई अधिकारी बिना केंद्र सरकार की अनुमति के देश से बाहर जांच के लिए नहीं जा सकता जबकि आज के वैश्विक गांव वाले वातावरण में कदम-कदम पर ऐसी आवश्यकताएं आन खड़ी होना कोई बड़ी बात नहीं. देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक में सीबीआई को ओत्तावियो क्वात्रोकी के पीछे जाना था. विधि मंत्रालय ने इस मामले को ही बंद करवा दिया. क्वात्रोकी निकल गया.

संभवत: इसी सत्र में लोकसभा सीबीआई की भूमिका पर चर्चा करने वाली है क्योंकि इसके एक सदस्य ने निजी तौर पर ऐसा करने के लिए एक कदम उठाया है. 'सीबीआई का होना ही कानूनन सही नहीं है. मैं अपने निजी विधेयक के माध्यम से एक बीज बो रहा हूं. हो सकता है कि कुछ सालों में इससे कोई फल निकल आए', कांग्रेस प्रवक्ता और लुधियाना से सांसद मनीष तिवारी कहते हैं. सवाल उठता है कि अपने देश की सर्वोच्च जांच संस्था के नाम पर हम हर तरह की जंजीरों में गले तक जकड़ी, बात-बात पर कभी इस तो कभी उसका मुंह ताकने को मजबूर संस्था को कैसे स्वीकार कर सकते हैं. हम कड़वी लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र और समाज के लिए जरूरी सच्चाइयों को घर के पिछवाड़े दफन कर अपने साथ सब-कुछ सही होने की उम्मीदें कैसे पाल सकते हैं? 30 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका की संघीय जांच संस्था(एफबीआई) के बजट की तुलना सीबीआई से करने की सोचना भी पाप होगा. वह काफी हद तक स्वतंत्र भी है और इसीलिए दुनिया भर में प्रतिष्ठित है. मगर हमने सीबीआई को, जब कर सकते हैं तब अपने पक्ष में और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए, किसी लायक नहीं छोड़ा. 50 सवालों के जरिए किया गया तहलका का यह आकलन भी इसी बात की पुष्टि करता है.

50.

गुजरात फर्जी मुठभेड़

सीबीआई ने अभय चुडासमा के खिलाफ मिल रही शिकायतों पर एक लंबे समय तक गौर क्यों नहीं किया?
सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में अहमदाबाद के भूतपूर्व डीसीपी (क्राइम ब्रांच) अभय चुडासमा को इस साल अप्रैल में गिरफ्तार किया गया था. एक लंबे समय तक जांच एजेंसी को चुडासमा के खिलाफ शिकायतें मिलती रही थीं मगर वह बैठी रही. चुडासमा पर उद्योगपतियों और बिल्डरों से जबरन-वसूली के लिए एक बहुत बड़ा रैकेट चलाने, इसके लिए सोहराबुद्दीन को इस्तेमाल करने का आरोप है. 23 जुलाई को सीबीआई ने अहमदाबाद में एक विशेष अदालत में एक आरोप-पत्र दाखिल किया जिसमें चुडासमा समेत कुल 15 लोगों पर अपहरण, आपराधिक षडयंत्र और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे. गौरतलब है कि चुडासमा गुजरात के भूतपूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह के भरोसेमंद पुलिस अफसर थे.

49.

इस पूरे मामले की जांच प्रक्रिया को गुमराह करने वाले पुलिस अफसर गीता जौहरी और ओपी माथुर को न तो हिरासत में लिया गया और न ही उनके बयान दर्ज किए गए, क्यों?
सीबीआई से पहले गुजरात पुलिस का विशेष जांच दल इस मामले की जांच कर रहा था. गीता जौहरी तब राज्य की पुलिस महानिरीक्षक थीं और ओपी माथुर सीआईडी (अपराध) के मुखिया. िफलहाल ये दोनों अफसर संदेह के घेरे में हैं. जौहरी को तो ठीक से जांच न करने के लिए अदालत से फटकार भी पड़ी. अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके आरोप लगाया है कि सीबीआई उन पर नेताओं का नाम लेने के लिए दबाव डाल रही है.

48.

सोहराबुद्दीन हत्याकांड

सीबीआई ने राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया से गहन पूछताछ क्यों नहीं की जबकि सोहराबुद्दीन हत्याकांड में उनकी कथित संलिप्तता की चर्चा है?
खबरों के मुताबिक सोहराबुद्दीन केस में सीबीआई के अहम गवाह आजम खान ने बताया कि राजस्थान की एक फर्म, राजस्थान मार्बल्स ने सोहराबुद्दीन को खत्म करवाने के लिए गुलाब चंद कटारिया को 10 करोड़ रुपए दिए थे.





47.

क्या हमारी जांच एजेंसी राजनेताओं की मिलीभगत से आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने वाले पुलिस अफसरों पर नकेल कसने में विफल नहीं रही है?
नवंबर, 2005 में हुए सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर मामले का अकेला चश्मदीद गवाह प्रजापति एक मुठभेड़ में करीब एक साल बाद दिसंबर, 2006 में मारा गया था. गुजरात सीआईडी द्वारा अब जाकर इस साल 30 जुलाई को बनासकांठा की एक अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया. इसमें तीन आईपीएस अफसर डीजी वंजारा, विपुल अग्रवाल और एमएन दिनेश को मुख्य अभियुक्त ठहराया गया था. वंजारा और दिनेश पिछले तीन साल से पुलिस हिरासत में हैं. राजस्थान कैडर के आईपीएस दिनेश को जब 2007 में गिरफ्तार किया गया तो राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और पुलिस महानिदेशक इस मामले में हस्तक्षेप करने गुजरात तक पहुंच गए थे.



46.

हरेन पंड्या हत्याकांड

सीबीआई अब तक मुफ्ति सुफियान का पता क्यों नहीं लगा पाई है?

गुजरात के पूर्व गृहमंत्री पंड्या की हत्या गन-मैन अशगर अली ने मुफ्ति सुफियान के इशारे पर की थी. आरोप लगे कि इस हत्या के पीछे मोदी और अमित शाह का हाथ था क्योंकि पंड्या ने एलिसब्रिज सीट खाली न करके और 2002 में हुए दंगों की जांच कर रही न्यायधीशों की एक टीम के सामने उपस्थित होकर मोदी को खुलेआम चुनौती दी थी. उसी समय युवा मुसलमान नेता सुफियान अहमदाबाद की लाल मस्जिद से उत्तेजक भाषण देते हुए कट्टरपंथियों के बीच लोकप्रिय हो रहा था. 2002 के दंगे के बाद वह पहले से भी ज्यादा कट्टरपंथी हो गया था. नमाज खत्म होने के बाद सुफियान अकसर उन्मादी भाषण दिया करता था. कहा जाता है कि उसके तार अहमदाबाद अंडरवर्ल्ड से जुड़े थे.

45.

सीबीआई का आरोप पत्र यह क्यों नहीं बताता कि मुठभेड़ के छह दिन बाद सुफियान देश से बाहर भागने में कैसे सफल हो गया?

44.

मामले की जांच कर रहे अफसरों के तबादले में नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सीबीआई ने मुख्यमंत्री से पूछताछ क्यों नहीं की?

43.

सुफियान को पकडऩे के लिए इंटरपोल से मदद क्यों नहीं ली गई?

42.

सीबीआई ने तुलसी प्रजापित हत्याकांड में जांच करके आरोपितों को क्य?ं नहीं पकड़ा जबकि उच्चतम न्यायालय ने उसे इस संबंध में निर्देश दिया था?

41.

प्रजापित मामले की सुनवाई टलने से सीआईडी को आरोपी अधिकारियों को हिरासत में लेने का वक्त मिल गया है. सीबीआई ने जांच शुरू कर दी होती तो इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता था ?

40.

क्या सीबीआई उस समय सत्तारूढ़ बीजेपी के निर्देशों पर नहीं चल रही थी, जैसा कि हरेन पंड्या के पिता वि_ल पंड्या का आरोप है?
रिपोर्टों के मुताबिक पंड्या की हत्या को उनके पिता वि_ल पंड्या ने राजनीतिक षड्यंत्र बताया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी उंगली उठाई थी. हालांकि बाद में सीबीआई ने कहा कि मोदी के हत्याकांड से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं मिला है. मुख्य हत्यारा अशगर अली बाद में हैदराबाद से गिरफ्तार किया गया. सीबीआई के मुताबिक अशगर को पंड्या की हत्या की सुपारी मुफ्ति सुफियान ने दी थी. वि_ल पंड्या ने गोधरा जांच समिति के सामने बयान दिया कि हरेन पंड्या के कहे अनुसार 2002 में हुआ दंगा राज्य के द्वारा प्रायोजित और मोदी द्वारा नियोजित था.

39.

मायावती : आय से अधिक संपत्ति का मामला

इसी साल 28 अप्रैल को मायावती ने संसद में कटौती प्रस्ताव का समर्थन करके यूपीए सरकार को गिरने से बचाया. एक हफ्ते के भीतर ही आयकर विभाग ने आय से अधिक संपत्ति मामले में उन्हें क्लीन चिट दे दी. जब सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह मायावती के खिलाफ मुकदमा चलाने को तैयार है तो फिर वह पीछे क्यों हट गई?
2003 में मायावती की कुल संपत्ति एक करोड़ रुपए थी लेकिन तीन ही साल में यह पचास करोड़ रुपए हो गई यानी पचास गुना बढ़ोतरी. सीबीआई ने इसे आधार बनाकर उन पर मामला दर्ज किया था. मायावती की कई बेनामी जमीन-जायदाद के बारे में जांच करने के बाद ब्यूरो ने दावा किया था कि वह कार्रवाई करने को तैयार है. लेकिन आज तक आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जा सका.

38.

ताज कॉरिडोर मामला

यदि इस मामले की जांच का कोई नतीजा नहीं निकला तो क्या सीबीआई इससे जुड़ी केस डायरियां सार्वजनिक करेगी?
2002 में मायावती की पहल पर ताजमहल के आसपास पर्यटक सुविधाएं विकसित करने के लिए 175 करोड़ रुपए की परियोजना की शुरुआत हुई. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 74 करोड़ रुपए खर्च होने तक निर्माण स्थल पर सिर्फ पत्थर फिंकवाने का काम हुआ था.

37.

आय से अधिक संपत्ति के मामले में 6 साल बाद भी मायावती के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल क्यों नहीं किया गया?

36.

राज्यपाल ने सीबीआई को मायावती पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी थी. क्या दोबारा उनसे मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी गई?

35.

जम्मू-कश्मीर सेक्स कांड

क्या उमर अब्दुल्ला 2006 के सेक्स प्रकरण मामले में आरोपित हैं?
2006 में पुलिस को कश्मीरी औरतों का यौन शोषण दर्शाती कुछ वीसीडी मिली थीं. पीडीपी ने इस घटना के बाद आरोप लगाया था कि सीबीआई के आरोप पत्र में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का नाम भी है.

34.

सीबीआई आरोप पत्र दाखिल करने में इतना वक्त क्यों लगा रही है?

33.

इस मामले में गिरफ्तार किए गए पुलिस अधिकारियों को क्यों छूट जाने दिया गया?

32.

मिसाइल घोटाला

2006 में एफआईआर दर्ज करने के बाद दो साल तक सीबीआई ने जॉर्ज फर्नांडीस से पूछताछ क्यों नहीं की?
2000 में भारत ने इजरायल से बराक मिसाइलें खरीदी थीं. सौदे में कथित गड़बड़ी के लिए सीबीआई ने फर्नांडीस के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी. फर्नांडीस का दावा था कि तब रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने सौदे को मंजूरी दी थी. सौदे में दो करोड़ की रिश्वत का आरोप है.

31.

जूदेव रिश्वत मामला

सीबीआई दिलीप सिंह जूदेव रिश्वत कांड में ढीली क्यों पड़ गई?
केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के मंत्री जूदेव कैमरे के सामने रिश्वत लेते पकड़े गए. 2005 में सीबीआई ने कहा कि इस स्टिंग ऑपरेशन के पीछे छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित का हाथ है.

30.

मुलायम सिंह : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आखिर क्या वजह थी कि सीबीआई ने 2007 में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई और क्यों कार्रवाई रिपोर्ट अदालत में जमा करने से पहले केंद्र को भेजी गई?
ब्यूरो ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट अक्टूबर, 2007 में दाखिल करते हुए दावा किया था कि उसके पास मुलायम सिंह पर मामला दर्ज करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं.

29.

2009 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में मुलायम और उनके परिवार के खिलाफ केस दायर करने की अपनी अर्जी को वापस लेने की याचिका दी. क्यों?
क्या यह जुलाई, 2008 में वामदलों के केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद समाजवादी पार्टी द्वारा केंद्र को समर्थन देने का पुरस्कार था?

28.

लालू-राबड़ी देवी : आय से अधिक संपत्ति का मामला

बिहार के इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के दावे के बावजूद सीबीआई जांच प्रक्रिया आगे क्यों नहीं बढ़ा रही?
2004 में सीबीआई ने इस मामले में सालों से चल रही जांच को किनारे कर दिया और यूपीए सरकार के लिए लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को फायदा पहुंचाने का रास्ता तैयार कर दिया. 2006 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने दोनों को बरी कर दिया, लेकिन सीबीआई मामले को हाई कोर्ट नहीं ले गई.

27.

ओपी चौटाला : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आरोप है कि सीबीआई ने ओमप्रकाश चौटाला के खिलाफ कार्रवाई तब शुरू की जब वे यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक रूप से गैरजरूरी हो गए.

हरियाणा के पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके चौटाला के खिलाफ सीबीआई ने अज्ञात स्रोतों से कथित छह करोड़ रुपए अर्जित करने के मामले में आरोप पत्र दाखिल किया था. आरोप पत्र विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति मिलने के बाद दाखिल किया गया था.

26.

सीके जाफर शरीफ : आय से अधिक संपत्ति का मामला

पूर्व मंत्री सीके जाफर शरीफ के खिलाफ प्रथमदृष्टया मामला दर्ज करने के बाद भी सीबीआई को आगे बढऩे की अनुमति क्यों नहीं मिली?
सीबीआई ने 1997 में सीके जाफर शरीफ के खिलाफ पद के दुरुपयोग और आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया था. लेकिन 2006 में उसने मामला बंद करने की अर्जी दे दी क्योंकि केंद्र से उसे आगे जांच की अनुमति नहीं मिली.

25.

एनडीए शासनकाल में लालू प्रसाद के खिलाफ सीबीआई ने काफी सक्रियता दिखाई थी, लेकिन यूपीए सरकार बनने के बाद इस मामले में ब्यूरो की रफ्तार सुस्त क्यों पड़ गई?

24.

विशेष अदालत में लालू के खिलाफ मामला खारिज हो जाने के बाद सीबीआई हाई कोर्ट क्यों नहीं गई?

23.

सीबीआई ने पप्पू यादव की जमानत याचिका के खिलाफ कार्रवाई करने में देर क्यों लगाई?

22.

जयललिता 'उपहार' मामला

क्या जयललिता मामले को सीबीआई बिलकुल भूल चुकी है?

सीबीआई के मुताबिक तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री को विदेश से तीन करोड़ रुपए का 'डोनेशनÓ मिला था, जिसे उन्होंने 1992-93 के दौरान इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करते समय अपनी आय के रूप में दर्शाया. जब एचडी देवगौड़ा सरकार में तमिल मनीला कांग्रेस के पी चिदंबरम वित्तमंत्री थे तब उन्होंने सीबीआई प्रमुख जोगिंदर सिंह से 'डोनेशन' देने वाले की पहचान पता करने की बात कही थी. सिंह ने इस पर कार्रवाई भी शुरू की, लेकिन जांच आज भी बेनतीजा जारी है.

21.

भविष्यनिधि घोटाला

तकरीबन दो साल तक जांच के बाद सीबीआई आज भी दावा कर रही है कि जजों के खिलाफ मामला चलाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं, आखिर इसकी क्या वजह है?
अप्रैल, 2010 में सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले से संबंधित जांच की स्टेटस रिपोर्ट दाखिल की थी. ब्यूरो ने इसमें उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के तीन जजों सहित राज्य के उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष और लोकायुक्त पर करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया था. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस तरुण चटर्जी के अलावा आरोपितों की सूची में उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश भी शामिल थे. आरोप था कि 2001 से 2008 के बीच गाजियाबाद की जिला अदालत के कोषाधिकारी आशुतोष अस्थाना ने जिला अदालत के न्यायाधीशों के साथ मिलकर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के भविष्यनिधि खाते से करोड़ों रुपए निकाले.

20.

इस मामले में ब्यूरो ने जजों से पूछताछ की कोशिश क्यों नहीं की?

19.

प्रथमदृष्टया सबूत होने के बाद भी जजों के घरों पर छापे क्यों नहीं पड़े?

18.

बोफोर्स घूसखोरी मामला

मलेशिया और अर्जेंटीना में दो बार गिरफ्तार होने के बाद भी सीबीआई ने ओटावियो क्वात्रोची के खिलाफ रेडकॉर्नर नोटिस क्यों वापस लिया?
जब-जब केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार रही, इटली के इस हथियार सौदेबाज के खिलाफ सीबीआई जांच में तेजी बनी रही. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भी सीबीआई, मलेशिया और अर्जेंटीना सहित जहां भी क्वात्रोची गया, उसके पीछे पड़ी
रही. लेकिन बाद में मामला धीरे-धीरे रफा-दफा कर दिया गया.

17.

हर्षद मेहता शेयर घोटाला

शेयर घोटाले में पूछताछ के दौरान हर्षद मेहता ने कई राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के नाम उजागर किए थे. सीबीआई ने मामले में उनकी भूमिका की जांच क्यों नहीं की?
शेयर दलाल हर्षद मेहता ने बैंकिंग तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर बैंकों का पैसा शेयरों की खरीद-फरोख्त में लगाया और शेयर बाजार को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. मामला खुला तो शेयर बाजार भरभराकर गिरा और निवेशकों व बैंकों को करोड़ों रुपए का घाटा उठाना पड़ा. मेहता पर 72 आपराधिक मामले दर्ज हुए.

16.

यूरिया घोटाला

1995 के यूरिया घोटाले के प्रमुख आरोपितों में शामिल पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के भतीजे बी संजीव राव और बेटे पीवी प्रभाकर राव कैसे बच गए?

15.

संजीव राव ने माना था कि रिश्वत की रकम कहां छुपाई गई, उन्हें पता है. फिर भी आरोप पत्र में उनका नाम क्यों नहीं था?

14.

प्रधानमंत्री कार्यालय के कौन-कौन अफसर इस मामले से जुड़े थे?

13.

झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड

सीबीआई ने इस मामले में ज्यादातर अभियुक्तों के दोषी साबित हो जाने के बाद क्या किया है?
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने साफ-साफ कहा था कि रिश्वत लेने और देने वाले सांसद अपने विशेषाधिकार का फायदा नहीं उठा सकते और उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है.

12.

सीबीआई ने सत्यम मामले में राजनेताओं की भूमिका की जांच क्यों नहीं की?
7 जनवरी, 2009 को सत्यम के चेयरमैन रामालिंगा राजू ने अपने बोर्ड मेंबरों और सेबी को यह बताते हुए इस्तीफा दिया था कि आईटी कंपनी के खाते में 5,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का घाल-मेल है.

11.

जैन हवाला कांड

उच्चतम न्यायालय ने हवाला कांड में राजनेताओं के खिलाफ लचर जांच-पड़ताल के लिए सीबीआई की आलोचना की थी, इससे कोई सबक लिया गया?
18 करोड़ डॉलर के इस घोटाले में वह पैसा भी शामिल था जो हवाला कारोबारी जैन भाइयों ने कथित तौर पर नेताओं को दिया. इस रकम का एक हिस्सा हिजबुल मुजाहिदीन को मिलने की बात भी हुई. लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना मुख्य आरोपितों में से थे. अदालत ने हवाला रिकॉर्डों को अपर्याप्त सबूत माना.

10.

एनके जैन ने दावा किया था कि उसने पीवी नरसिंहा राव को एक करोड़ रु. दिए. इसके बाद सीबीआई के सबूत जुटाने की रफ्तार अचानक धीमी क्यों पड़ गई?

9.

सेंट किट्स मामला

सेंट किट्स के दौरे के बाद धोखाधड़ी के इस मामले की तफ्तीश के लिए सीबीआई को कौन-से सुराग मिले?
सेंट किट्स धोखाधड़ी मामले में भूतपूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री केके तिवारी, सिद्धपुरुष चंद्रास्वामी और उनके सचिव केएन अग्रवाल के ऊपर आरोप लगे थे. मामला था वीपी सिंह की छवि को खराब करने के लिए फर्जीवाड़ा करने का. राव पर ये आरोप 1996 में तब लगाए गए जब वे प्रधानमंत्री के पद से हट चुके थे. बाद में सबूतों के अभाव में अदालत ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया. बाकी आरोपी भी आखिरकार छूट गए.

8.

बाबरी विध्वंस

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई कोई भी पुख्ता सबूत नहीं जुटा पाई. क्यों?

6 दिसंबर, 1992 को कथित तौर पर संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की शह पर बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया जिसमें लालकृष्ण आडवाणी समेत 24 नेताओं का नाम था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 17 सितंबर को इस मामले पर अपना फैसला सुनाएगी. मामला इतना संवेदनशील है कि मायावती ने फैसले के बाद की आशंकित स्थिति को संभालने के लिए अर्धसैनिक बलों की 300 कंपनियां पहले से ही बुला ली हैं.

7.

पाठक धोखाधड़ी मामला

इतने बड़े नेताओं पर इतने गंभीर आरोप लगे पर सीबीआई साक्ष्य जुटाने में नाकाम क्यों रही?
इंग्लैंड में रहने वाले कारोबारी लक्खूभाई पाठक ने तांत्रिक चंद्रास्वामी, उनके सचिव केएन अग्रवाल और पीवी नरसिंहा राव पर एक लाख डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप लगाया था.

6.

तेलगी स्टांप पेपर घोटाला

सीबीआई ने उन नेताओं के खिलाफ जांच जारी क्यों नहीं रखी जिनका नाम तेलगी ने लिया था?
2006 में अब्दुल करीम तेलगी की गिरफ्तारी हुई. पूछताछ में उसने शरद पवार, छगन भुजबल समेत कई और राजनेताओं और नौकरशाहों के नाम लिए जो इस घोटाले में उसके हिस्सेदार थे. कभी फल बेचने वाले तेलगी को 1994 में स्टांप पेपर बेचने का लाइसेंस मिला और तब-से उसने फर्जी स्टांप पेपर छापने शुरू कर दिए.

5.

क्या एक अकेला आदमी नेताओं की शह के बिना इतना बड़ा घोटाला कर सकता है?

4.

हजारों करोड़ के इस घोटाले की जांच में सीबीआई को क्या मिला?

3.

आरुषि हत्याकांड को दो साल हो गए हैं. सीबीआई की क्या उपलब्धि है?

2.

सिख विरोधी दंगे

1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य अभियुक्तों में से एक सज्जन कुमार के खिलाफ सीबीआई अभी तक ढुलमुल रवैया ही अपना रही है. क्यों?
सीबीआई के यह कहने पर कि सज्जन कुमार गायब हैं, फरवरी, 23 को इस केस की सुनवाई कर रही अदालत ने उसे फटकार लगाई.

सिख विरोधी दंगे
कांग्रेस के सांसद जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट देने में सीबीआई को 15 साल क्यों लग गए?
उत्तर भारत में चार दिन तक हिंसा हुई. खासकर दिल्ली में. कांग्रेस के इशारों पर नाचती भीड़ ने निहत्थे सिखों को मारा. औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े सबको. सिखों के घरों और उनकी दुकानों को लूटा और जलाया गया. गुरुद्वारों तक को नहीं बख्शा गया. इस साल 10 फरवरी को सीबीआई ने दिल्ली कोर्ट में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी जिसमें भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट मिल गई. सीबीआई ने दिसंबर, 2007 में ही टाइटलर को क्लीन चिट दे दी थी पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था और एजेंसी को निर्देश दिए थे कि इस मामले में टाइटलर की भूमिका की दोबारा जांच हो. अप्रैल 2, 2009 को भी सीबीआई ने अपर्याप्त सबूतों का हवाला देते हुए टाइटलर को क्लीन चिट दी थी. क्लीन चिट देने के लिए सीबीआई ने जिन दस्तावेजों का सहारा लिया था उन्हें हासिल करने के मकसद से दाखिल एक पीडि़त की अर्जी पर जवाब देने के लिए दिल्ली की एक अदालत ने जांच एजेंसी को दो महीने का वक्त दिया है.

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

इस अपराधी से कांग्रेस कैसे बचे?

आलोक तोमर डेटलाइन इंडिया
राजनीति को साफ सुथरा करने की कोशिशों में जुटे और युवाओं को आगे लाने की वकालत करने वाले राहुल गांधी को अपनी ही पार्टी का एक प्रदेश अध्यक्ष की हरकते मंजूर है और इन हरकतों में हत्या के प्रयास से ले कर बहुत सारे आपराधिक मामले भी रहे हैं और ये सारे मामले कांग्रेस सरकारों ने ही दायर किए है।

मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेश पचौरी जो एक बार फिर राज्यसभा में आने की कोशिश कर रहे हैं और इसके लिए राहुल गांधी से ले कर सोनिया गांधी तक सबके चरणों में विराजमान रहे हैं, अपने आपराधिक अतीत को ले कर शर्मिंदा नहीं हुए। शर्मिंदा हो तो उनकी पार्टी हो।

अपनी एक महिला साथी की आत्महत्या से ले कर एक कांग्रेसी डॉक्टर के नन्हे बेटे पर तेजाब फेंकने के मामले में भी उनके शिष्याें का नाम आया था और जिस बच्चे पर तेजाब फेका गया था उसे स्वर्गीय राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री कोष से मदद दे कर अमेरिका तक भिजवाया था। शायद राहुल गांधी को यह सब याद नहीं है। वरना वे पार्टी के प्रदेश के सबसे फ्लॉप अध्यक्ष के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीरें नहीं खिचवाते।

मध्यप्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को सुखाने वाले प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी सोनिया दरबार में चक्कर लगा-लगाकर लगातार पांचवीं बार राज्यसभा में जाने की तैयारी कर चुके हैं। सोनिया दरबार के इस नेता में पता नहीं क्या जादू है कि जिसके कारण मैडम हमेशा पचौरी से खुश रहती हैं और उन्हें इनाम पर इनाम देती जा रही हैं। मैडम के इस रवैये से प्रदेश कांग्रेस का आम कार्यकर्ता हतप्रभ भी है और हताश भी और गुस्से में भी।

मप्र की राजनीति करने वाले या समझने वाले कांग्रेसी इन कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति को समझ सकते हैं। कार्यकर्ताओं की पीड़ा जायज भी है। 2008 के विधानसभा चुनाव के पहले सुभाष यादव को हटाकर सुरेश पचौरी की ताजपोशी प्रदेश कांग्रेस में इसलिए हुई थी कि वे प्रदेश कांग्रेस में नई जान फूंक सकें, लेकिन पचौरी ने प्रदेश कांग्रेस के हरे-भरे वृक्ष को ही सुखा दिया।

पचौरी की कारगुजारियां कैसी रही होंगी कि उन्हीं की कांग्रेस की सरकारें परेशान थीं। इन्हीं कांग्रेस सरकारों ने पचौरी पर लगभग एक दर्जन गंभीर अपराध दर्ज किए। जिनकी धाराएं बताती हैं कि यदि पचौरी राजनीति में नहीं आते तो आज कहां होते।

अपराधों की सूची-

ः टीटी नगर थाना में अपराध क्रमांक 179/74 धारा 395, 436, 454, 380।
ः शाहजहांनाबाद थाना में अपराध क्रमांक 324/506।
ः तलैया थाना में अपराध क्रमांक 711/74 धारा 147/74 धारा 147, 148, 149, 336।
ः जहांगीराबाद थाना में अपराध क्रमांक 333/77 धारा 392।
ः टीटी नगर थाना में अपराध क्रमांक 381/77 धारा 147, 353, 336, 429।
ः तलैया थाना में अपराध क्रमांक 712/74 धारा 307, 147, 148, 149, 365, 36
ः टीटी नगर थाना में अपराध क्रमांक 387/77 धारा 385, 294, 341, 506।
ः टीटी नगर थाना में अपराध क्रमांक 376/77 धारा 353, 394, 342।
ः तलैया थाना में अपराध क्रमांक 307/77-78 धारा 365।
ः मंगलवारा थाना में अपराध क्रमांक 810/78 धारा 307, 147,148।
ः शाहजहांनाबाद थाना में अपराध क्रमांक 629/79 धारा 147,148, 149।
ः टीटी नगर पुलिस ने सन् 1982 में धारा 448, 353, 294 और 506 के तहत गिरफ्तार किया।
2008 के विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में जो बंदरबांट हुई, उससे स्पष्ट है कि पचौरी कहीं न कहीं किसी न किसी से समझौते करते नजर आए। मप्र में पचास जिले हैं, जिले की लगभग हर सीट पचौरी ने अपने समर्थक को टिकट दिला दी और जहां नहीं दिला पाए, वहां से दावेदारी कर रहे अन्य समर्थक नेता का विरोध कर टिकट कटवाया और ऐसे व्यक्ति का समर्थन किया, जिसकी हैसियत वार्ड का चुनाव जीतने की नहीं थी।

बात राजधानी से की जाए तो दक्षिण-पश्चम से दीपचंद्र यादव, हुजूर की टिकट तो दो दिन में दो लोगों को दी गई। उज्जैन में जयसिंह दरबार एक ऐसा नेता था, जो शहर में किसी भी सीट पर जीत सकता था, लेकिन उसे टिकट से वंचित रखा गया। यही वजह रही कि प्रदेश में कांग्रेस कई जगह तीसरे स्थान पर रही और दूसरे स्थान पर कांग्रेस के बागी रहे। इनमें मानवेंद्र सिंह निर्दलीय जीतकर भी आए। विधानसभा चुनाव में टिकटों का वितरण तो ऐसे हो रहा था, जैसे फिल्म सुपरहिट हो रही हो और टिकट ब्लैक में बेचे जा रहे हों। कार्यकर्ताओं को उम्मीद थी कि टिकट वितरण में हुई गड़बड़ी की जांच बड़े स्तर पर होगी तो सही-गलत पर से परदा उठ जाएगा, लेकिन हाईकमान ने लोकसभा चुनाव को नजदीक देखते हुए पचौरी को अभयदान दे दिया। आम चुनाव हुए और केंद्र में सरकार कांग्रेस की बन गई तो सारे मुद्दे ठंडे बस्ते में चले गए। लोकसभा में कांग्रेस को जो सफलता मिली, पहले से ज्यादा संख्या में कांग्रेस के सांसद जीते, जिसका श्रेय पचौरी ले उड़े। प्रदेश में कमलनाथ, अरुण यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कांतिलाल भूरिया, नारायण आमलावे, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद्र गुव्ू, मीनाक्षी नटराजन ऐसे नेता थे, जो अपनी दम पर जीते और अपने क्षेत्र से लगी सीटों को भी प्रभावित किया। देखा जाए तो दिग्विजय सिंह ने तो एक सरपंच को सांसद बनाकर अपने भाई को हरवा दिया था। अरुण यादव पहले भी अपने पिता की विरासत पर जीते थे और पुनरू जीते। गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी सिंधिया समर्थक थे, इसलिए उन्हें जिताने की जवाबदारी सिंधिया पर थी, सो वे भी जीते। सज्जन सिंह वर्मा कमलनाथ समर्थक हैं, जाहिर है उनकी जवाबदारी भी कमलनाथ के कंधों पर थी। प्रेमचंद्र गुव्ू को जिताने से ज्यादा जनता की रुचि सत्यनारायण जटिया को हराने में थी। ऐसा ही हाल मंदसौर में लक्ष्मीनारायण पांडे का था। पांडे जी को जनता यह सोचकर बार-बार जिता रही थी कि यह इनका आखिरी चुनाव है, जब वे नहीं माने तो जनता ने मीनाक्षी नटराजन को जिताकर पांडे जी का विदाई समारोह कर दिया। लोकसभा की जीती हुईं सीटों पर अवलोकन करें तो एकमात्र सीट होशंगाबाद है, जो जीतने का श्रेय पचौरी लेते हैं। इस सीट को भाजपा ने ही कांग्रेस को सौंपी थी रामपाल सिंह को प्रत्याशी बनाकर। उदयपुरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनने के बाद से ही रामपाल सिंह परिवार का आतंक जनता पर कहर बनकर टूटा। मंत्री बनने के बाद इन परिजनों ने हदें पार कर दीं। कई बार तो उदयपुरा क्षेत्र रामपाल सिंह के परिवारजनों के आतंक के चलते बंद रहा। जब हम लोग इस क्षेत्र में कवरेज करने के लिए पहुंचे तो स्थानीय लोगों का कहना था कि ऐसा करें कि रामपाल सिंह को टिकट मिल जाए, ताकि हम वोट के द्वारा उनके कृत्यों का जवाब दे सकें और हुआ भी वही जो जनता-जनार्दन के दिल में था। कांग्रेस ने एक विधायक को लोकसभा का चुनाव लड़ाया और वह जीता, परंतु कुछ ही दिनों बाद उसी विधायक की रिक्त हुई सीट पर भाजपा पुनरू जीत गई। इससे स्पष्ट है कि यह लोकसभा सीट कांग्रेस कैसे जीती। इस जीत पर पचौरी अपनी जीत समझते हैं तो यह उनकी बेवकूफी है। इन्हीं जीतों को पचौरी ने अपनी जीत बताकर सोनिया दरबार में अपनी रैंक बढ़ा ली, उसी का नतीजा है कि वे लगातार पांचवीं बार राज्यसभा में पहुंच रहे हैं। मप्र में पचौरी की राजनीति के चलते दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण यादव, कांतिलाल भूरिया और जमुनादेवी ने प्रदेश की राजनीति से किनारा कर लिया। भोपाल की गलियों के इस नेता के इर्द-गिर्द ऐसे नेताओं का समूह है, जिनका अपना कोई राजनैतिक वजूद नहीं है, जो जनता के बीच कभी गए ही नहीं और वार्ड का चुनाव भी लड़ा नहीं, लेकिन प्रदेश व देश की राजनीति को दिशा देने की रणनीति बनाते हैं। स्वयं पचौरी कभी चुनाव नहीं जीते, अगर हाईकमान समझता है कि पचौरी जनाधार वाले नेता हैं तो हाईकमान को अगला विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ाकर अपना जनाधार सिध्द करने का मौका देना चाहिए। इस तरह बार-बार राज्यसभा में भेजना उन कर्मठ कांग्रेसियों के साथ कुठाराघात होगा, जिन्होंने इस विशाल वटवृक्ष (कांग्रेस) को लगाया है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विविजय सिंह 'राजा' और महाराजा कहे जाने वाले केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया शवयात्रा के दौरान और बाद में भी साथ-साथ रहे। नेताओं में दोनों की एकजुटता चर्चा का विषय बनी रही। श्री सिंह ने प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी से पूरे समय दूरी बनाए रखी थी। जमुनादेवी के घर से लेकर श्मशान में हुई शोकसभा तक 'राजा, महाराजा' साथ-साथ रहे। कमलनाथ के विशेष प्लेन से दोनों साथ ही इंदौर आए थे। दोनों नेताओं के समर्थक भी समझ नहीं पा रहे थे कि दोनों परस्पर विरोधी माने जाने वाले ध्रुव साथ में कैसे हैं। शवयात्रा उठने से पहले भी दोनों नेता एक पेड़ के नीचे खड़े होकर बातें कर रहे थे, जबकि जमुनादेवी के निवास में सुरेश पचौरी और अरुण यादव अर्थी उठने का इंतजार कर रहे थे। शोकसभा के बाद भी दोनों साथ ही रवाना हुए।