मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

सीबीआई की साख को चुनौती

क्या सत्ता की कठपुतली बन गई है सीबीआई

कभी-कभी अतिरिक्त उत्साह आत्मधाती भी साबित होता है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरेने के लिए गृहमंत्री अमित शाह की बात हो या फिर मुलायम, माया को नियंत्रित करने के लिए सीबीआई के उपयोग का मामला, इससे साफ है कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पोलिटिकल एनकाउंटर की जमीन कांग्रेस ने तैयार कर दी है। अब लोकतंत्र में मताधिकार के जरिए हार-जीत का फैसला बाद में आएगा, सीबीआई, पुलिस और न्यायपालिका के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों और विरोधी राजनेताओं को निपटाने का खेल पहले होगा। कांग्रेस सत्ता में है, इसलिए उसके पास सीबीआई और न्यायपालिका की शक्ति है, लेकिन सवाल है कि इस तरह की नीति का भविष्य क्या हो सकता है? कांग्रेस शायद इस पर आत्मविश्लेषण नहीं कर रही है कि वैसी परिस्थिति में जब कांग्रेस की बजाय सत्ता भाजपा के पास होगी तो वह क्वात्रोच्ची को क्लीनचिट दिलाने में सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की भूमिका का पुलिसिया पोलिटिकल एनकाउंटर कर सकती है। तब सीधे तौर पर सोनिया-मनमोहन पर न्यायिक सक्रियता बढ़ेगी और वह क्वात्रोची को सत्ता लाभ दिलाने के दोषी होंगे। कांग्रेस भले ही सफाई देती रहे कि इससे उसका कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सवाल है कि देश में फर्जी एनकाउंटर के हजारों मुकदमें सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उन मुकदमों में भी सोहराबुद्दीन की तहर क्या सीबीआई तेजी से सक्रिय होती है। इशरत को पाक साफ बताने की कांग्रेस और अन्य तथाकथित बुद्धिजीवियों की सच्चाई अब सामने आ चुकी है। सत्ता में आते ही सोनिया गांधी के घोर विरोधी रहे जार्ज फर्नाडीज के दामन को दागदार करने की कांग्रेसी राजनीति चली जा चुकी है और अब निशाने पर दूसरे लोग हैं। सीबीआई का दो चेहरा हमारे सामने है। एक चेहरे में सीबीआई मुख्य विपक्षी राजनीति भाजपा को बदनाम करने, हतोत्साहित करने और उसकी राजनीतिक शक्ति कमजोर करने का औजार बनी है तो दूसरे चेहरे में सीबीआई सोनिया गांधी और कांग्रेस के लिए संकट मोचक बनी है। 2004 में जब कांग्रेस सत्ता मे आई तो कांग्रेस ने अपने और सोनिया गांधी के खानदान के पाप को सीबीआई के माध्यम से धुलवाने की सफल कोशिश की। इसके लिए क्वात्रोच्ची प्रकरण की याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। क्वात्रोच्ची की भूमिका सीधे तौर पर बोफोर्स कांड से जुड़ी हुई थी। उस समय वह राजीव गांधी-सोनिया गांधी के अति निकट का चेहरा था। उसने बोफोर्स में दलाली खाई, जिसका सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत भी था। पर कांग्रेस ने क्वात्रोच्ची को सीबीआई के माध्यम से क्लीन चिट दिला दिया। राजनीतिक गलियारे में एक बात हमेशा उठी है कि मायावती, लालू और मुलायम जैसे अन्य राजनीतिक हस्तियां कांग्रेस के सामने समर्थन के लिए विवश क्यों है? बार-बार ये वामपंथी राजनीतिक पार्टियों से अपना गठजोड़ तोडऩे के लिए क्यों बाध्य होते हैं। परमाणु मुद्दे पर ही नहीं, बल्कि अन्य मुद्दों पर भी लालू, मायावती, मुलायम आदि का कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण क्यों होता है? पिछली बार बजट सत्र में कटौती प्रस्तावों पर कांग्रेस संकट में फंसी थी। महंगाई को लेकर विरोध चरम पर था, लेकिन मुलायम, मायावती और लालू ने कटौती प्रस्तावों पर भाजपा-वामपंथी दलों का साथ नहीं दिया। कई राजनीतिक कोणों से यह बात सामने आई कि सीबीआई के माध्यम से लालू, मुलायम, मायावती को कांग्रेस ब्लैकमेल कर समर्थन करने के लिए बाध्य करती है। मायावती जब-जब कांग्रेस के विरोध में खड़ी होती हैं, सीबीआई की जवानी चढ़ जाती है और कोर्ट में मायावती पर आय से अधिक संपत्ति रखने का प्रसंग गर्मी पैदा करता है। मायावती जैसे ही अंदरूनी तौर पर कांग्रेस की बातें मान लेती हंै वैसे ही सीबीआई कोर्ट में ठंडी पड़ जाती है। लोकतंत्र में जय-पराजय का माध्यम मत-समर्थन होता है। नीतियों और कार्यक्रम के सहारे लोकतंत्र में सत्ता की लड़ाई लड़ी जाती है। मुगलों की सत्ता संस्कृति में तलवार के बल पर सत्ता लूटा जाता था। बाप को बंधक बनाकर बेटा खुाद राजा बन जाता था। लोकतंत्र में ऐसी प्रक्रिया संभव नहीं है। कांग्रेस ने कारगिल युद्ध में भ्रष्टाचार को लेकर जार्ज फर्नाडीज को बदनाम किया, बाद में जांच रिपोर्ट आने पर यह बात गलत निकली। अब सीबीआई को मोहरा बनाकर लोकतंत्र में अपने राजनीतिक दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए फिर यह खेल हो रहा है, जो किसी भी तरह उचित नहीं है।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के आय से अधिक संपत्ति मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई को फटकार लगाया जाना इस बात का पुख्ता सुबूत है कि सीबीआई की साख और विश्वसनीयता आज संदेह के घेरे में है। साथ ही मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की इस बात में भी दम नजर आ रहा है कि संप्रग सरकार सीबीआई का सदुपयोग-दुरुपयोग अपनी जरूरत के हिसाब से कर रही है। मायावती के आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई की भूमिका पर नाराजगी जताते हुए पूछा है कि क्या सीबीआ?ई्र और बसपा प्रमुख एक साथ हैं। अगर दोनों साथ हैं तो फिर सुनवाई की जरूरत क्या है। सीबीआई की लचर कार्यप्रणाली को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी अकारण नहीं है। गौरतलब है कि मायावती ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर आय से अधिक संपत्ति रखने का मामला निरस्त किए जाने की मांग की है। यह याचिका 2008 से ही सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, लेकिन इन दो सालों में याचिका के मेरिट पर अभी तक सुनवाई नहीं हो पाई है। इसका कारण यह है कि कभी मायवती अर्जी दाखिल करती हैं और सीबीआई उसका जवाब देने के लिए अदालत से वक्त मांग लेती है तो कभी सीबीआई के जवाब का प्रति उत्तर देने के लिए मायावती समय मांग लेती है। ऐसी परिस्थितियों में सुनवाई स्थगित करने के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के पास कोई और चारा नहीं बचता है। सीबीआई और मायावती के बीच आंख-मिचौली के इस खेल से सर्वोच्च न्यायालय का भड़कना स्वाभाविक ही है। आज जब एक तरफ त्वरित न्याय दिलाने की कवायद की जा रही है वहीं दूसरी ओर सीबीआई जैसी संवैधानिक स्वायत्त संस्था द्वारा तमाम राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों के निस्तारण में हीलाहवाली करना निस्संदेह सर्वोच्च न्यायालय को नाराज करने वाला ही है। लेकिन सीबीआई करे तो क्या करे, उसके भी हाथ कहीं न कहीं बंधे ही नजर आते हैं। अगर राजनीतिक दलों की बातों पर गौर किया जाए तो सीबीआई की लचर कार्यप्रणाली की मूल वजह केंद्र सरकार द्वारा उसके कार्यो में गैर वाजिब ढंग से किया जाने वाला हस्तक्षेप ही है। अभी पिछले ही दिनों गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह की सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गिरफ्तारी को लेकर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी द्वारा आरोप लगाया गया कि केंद्र सरकार गुजरात सरकार को परेशान करने के लिए सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है। सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप न केवल भारतीय जनता पार्टी द्वारा लगाया जाता है, बल्कि गाहे-बगाहे अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भी लगाया जाता है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा एक सुर से कहा जा रहा है कि केंद्र की संप्रग सरकार अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सीबीआई को एक राजनीतिक हथियार के तौर पर प्रयोग कर रही है। काफी हद तक इस आरोप की पुष्टि में वे तर्क भी दे रहे हैं। अगर मायावती के मामले को ही देखा जाए तो यह मामला बहुत पुराना है। अब तक इस मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार मायावती को अपनी अदब में रखने के लिए इस मामले को जब चाहे जिंदा कर देती है और जब चाहे बर्फखाने में डाल देती है। दरअसल, केंद्र की संप्रग सरकार अपना बहुमत बनाए रखने के लिए आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप में फंसे राजनीतिज्ञों को अपना बगलगीर बनाए रखने के उद्देश्य से सीबीआई की धौंस उन्हें दिखाती रहती है। राजनीतिज्ञों द्वारा कहा जा रहा है कि 2004 में जब कांग्रेस को बसपा सांसदों की जरूरत थी, उस वक्त ताज कॉरिडोर मामले को सीबीआई की मदद से नेपथ्य में डाल दिया गया था और जब कटौती प्रस्ताव पर मायावती का रुख संप्रग सरकार के विरोध में दिखाई दिया तो मामले को एक बार फिर सियासी आंच पर रखकर सीबीआई की धौंस दिखाकर मायावती को अपने पाले में खड़ा कर लिया गया। कई बार खुद बसपा सुप्रीमों द्वारा भी केंद्र पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप जड़ा जा चुका है। महंगाई के सवाल पर विपक्ष के साथ सड़क पर गलबहियां करने वाला राजद और सपा जैसे राजनीतिक दल संसद में संप्रग सरकार का बगलगीर बनते नजर आए। अनेक राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इस राजनीतिक चमत्कार का मूल कारण सीबीआई के डंडे को ही माना गया, क्योंकि राजद और सपा दोनों के मुखिया की गर्दन आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सीबीआई के फंदे में फंसी हुई है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा संप्रग सरकार पर बराबर आरोप लगाया जाता रहा है कि वह अपने निकटस्थों को सीबीआई की मदद से क्लीन चीट देने का नौटंकी करती है। वहीं अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए जानबूझकर फंसाती है। भाजपा ने यह भी आरोप लगाया है कि सीबीआई की घटती साख के लिए मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है। वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में संप्रग द्वारा आरोपी कांग्रेस नेताओं को बचाने और सीबीआई के दुरुपयोग का मसला अक्सर राजनीतिक दलों द्वारा उठाया जाता है। संप्रग सरकार ने छत्तीसगढ़ राज्य के कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के खिलाफ विधायकों की खरीद-फरोख्त के मामले को जानबूझकर खत्म कर दिया। पेट्रोल पंप आवंटन मामले में सतीश शर्मा के खिलाफ अभियोजन चलाने की अनुमति तक नहीं दी। ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनको लेकर विपक्षी दलों द्वारा कहा जाता है कि सीबीआई्र की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को संप्रग सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए लगातार भंग कर रही है। लिहाजा आज की तारीख में सीबीआई को न्यायालय का तो कोपभाजन बनना ही पड़ रहा है, साथ ही जनमानस में भी उसकी विश्वसनीयता को लेकर शंका जाहिर की जा रही है। यह स्थिति न केवल सीबीआई की साख और गरिमा को लांक्षित करने वाली है, बल्कि स्वतंत्र संस्थाओं की संवैधानिक मर्यादा को भी तार-तार करने वाली है। संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त संस्थाओं पर सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की धौंस एक स्वतंत्र, निरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। स्वाभाविक है कि जब सीबीआई केंद्र सरकार की कठपुतली के रूप में कार्य करेगी तो उसकी शुचिता पर तो सवाल उठेगा ही। राजनीतिक दबाव की वजह से ही आज सीबीआई के पास बहुत सालों से हजारों मामले लंबित पड़े हैं, लेकिन उनका निस्तारण नहीं हो पा रहा है और ऊपर से हर रोज नए मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। आज देश में जरूरत के लिहाज से सीबीआई अदालतों की संख्या भी काफी कम है। वर्तमान समय में सिर्फ 49 सीबीआई अदालतों द्वारा ही कार्यो को निपटाया जा रहा है। अभी पिछले दिनों सीबीआई के निदेशक द्वारा कहा गया कि लंबित पड़े विचाराधीन मामलों को निपटाने के लिए पूरे देश में सीबीआई के लिए 71 विशेष अदालतों का गठन किया जाएगा। यह भी कहा गया कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मामले में तीन-चार वर्ष में निर्णय ले लिया जाएगा, लेकिन सच तो यह है कि जब तक सीबीआई सियासतदानों के चंगुल से बाहर नहीं निकलेगी, वह अपने संवैधानिक कार्यो को सही ढंग से अंजाम नहीं दे पाएगी। आज जरूरत इस बात की है कि सत्तारूढ़ सरकारें सीबीआई को अपने इशारों पर नचाने के बजाए उसे संवैधानिक रूप से कार्य करने की खुली छूट दें। अन्यथा, संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा तो भंग होगी ही, लोकतांत्रिक व्यवस्था के समक्ष तमाम सवाल भी खड़े होंगे।
सबसे स्वस्थ वे समाज होते हैं जो किसी भी प्रकार की जांच-परख से जरा भी भयभीत नहीं होते, मामलों की तह तक पहुंचना जिनकी मानसिकता का एक हिस्सा होता है और जो इस उद्देश्य की पूर्ति के उपकरणों की व्यवस्था करने से जरा भी नहीं हिचकते. ऐसा ही एक उपकरण केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई है जिसकी स्थापना भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के उद्देश्य से 1963 में की गई थी. आज 47 साल के बाद स्थिति जस की तस है. आज के भारत में बदलाव की, सुधार की उम्मीद के हरकारों की बात करें तो इनमें सबसे पहला नाम सीबीआई का होना चाहिए था. इसकी वजह से, जिनमें जरूरी है उनमें भय और हममें न्याय की लड़ाई के प्रति विश्वास का संचार होना चाहिए था.मगर सीबीआई की वर्तमान स्थिति दोनों में से कुछ भी नहीं कर पाती. वैधानिक रूप से सीबीआई देश के कार्मिक मंत्रालय से संबद्ध संस्था है जो सीधे देश के प्रधानमंत्री के अधीन आती है. इसे अपने कार्य के लिए जरूरी शक्तियां दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून, 1946 के तहत जारी एक प्रस्ताव से मिलती हैं. इसके मुताबिक संघीय क्षेत्र सीधे तौर पर सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में आते हेँ. मगर राज्यों में किसी जनसेवक की जांच और उसके ऊपर कार्रवाई के लिए उसे राज्य सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. यहां तक कि सीबीआई अपने अधीन रहे मामलों को लेकर भी खुदमुख्तार नहीं है. वह अपने आप सर्वोच्च अदालत में विशेष अनुमति याचिका तक दायर नहीं कर सकती. उदाहरण के तौर पर, एक विशेष सीबीआई अदालत ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में लालू प्रसाद यादव को बरी कर दिया. सीबीआई कहती है कि उसके पास उनके खिलाफ और तमाम मजबूत साक्ष्य हैं. मगर विधि मंत्रालय ने उसे याचिका दायर करने की अनुमति ही नहीं दी. इसके अलावा सीबीआई संयुक्त सचिव से ऊपर के स्तर के किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ जांच की कार्रवाई शुरू नहीं कर सकती. ऐसा करने के लिए उसे केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है. वर्तमान में ऐसे कम से कम 30 प्रार्थनापत्र सरकार के पास लंबित पड़े हुए हैं.

यहां तक कि मुकदमा चलाने के लिए भी सीबीआई को केंद्र सरकार का मुंह ताकना पड़ता है. देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का कोई अधिकारी बिना केंद्र सरकार की अनुमति के देश से बाहर जांच के लिए नहीं जा सकता जबकि आज के वैश्विक गांव वाले वातावरण में कदम-कदम पर ऐसी आवश्यकताएं आन खड़ी होना कोई बड़ी बात नहीं. देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक में सीबीआई को ओत्तावियो क्वात्रोकी के पीछे जाना था. विधि मंत्रालय ने इस मामले को ही बंद करवा दिया. क्वात्रोकी निकल गया.

संभवत: इसी सत्र में लोकसभा सीबीआई की भूमिका पर चर्चा करने वाली है क्योंकि इसके एक सदस्य ने निजी तौर पर ऐसा करने के लिए एक कदम उठाया है. 'सीबीआई का होना ही कानूनन सही नहीं है. मैं अपने निजी विधेयक के माध्यम से एक बीज बो रहा हूं. हो सकता है कि कुछ सालों में इससे कोई फल निकल आए', कांग्रेस प्रवक्ता और लुधियाना से सांसद मनीष तिवारी कहते हैं. सवाल उठता है कि अपने देश की सर्वोच्च जांच संस्था के नाम पर हम हर तरह की जंजीरों में गले तक जकड़ी, बात-बात पर कभी इस तो कभी उसका मुंह ताकने को मजबूर संस्था को कैसे स्वीकार कर सकते हैं. हम कड़वी लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र और समाज के लिए जरूरी सच्चाइयों को घर के पिछवाड़े दफन कर अपने साथ सब-कुछ सही होने की उम्मीदें कैसे पाल सकते हैं? 30 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका की संघीय जांच संस्था(एफबीआई) के बजट की तुलना सीबीआई से करने की सोचना भी पाप होगा. वह काफी हद तक स्वतंत्र भी है और इसीलिए दुनिया भर में प्रतिष्ठित है. मगर हमने सीबीआई को, जब कर सकते हैं तब अपने पक्ष में और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए, किसी लायक नहीं छोड़ा. 50 सवालों के जरिए किया गया तहलका का यह आकलन भी इसी बात की पुष्टि करता है.

50.

गुजरात फर्जी मुठभेड़

सीबीआई ने अभय चुडासमा के खिलाफ मिल रही शिकायतों पर एक लंबे समय तक गौर क्यों नहीं किया?
सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में अहमदाबाद के भूतपूर्व डीसीपी (क्राइम ब्रांच) अभय चुडासमा को इस साल अप्रैल में गिरफ्तार किया गया था. एक लंबे समय तक जांच एजेंसी को चुडासमा के खिलाफ शिकायतें मिलती रही थीं मगर वह बैठी रही. चुडासमा पर उद्योगपतियों और बिल्डरों से जबरन-वसूली के लिए एक बहुत बड़ा रैकेट चलाने, इसके लिए सोहराबुद्दीन को इस्तेमाल करने का आरोप है. 23 जुलाई को सीबीआई ने अहमदाबाद में एक विशेष अदालत में एक आरोप-पत्र दाखिल किया जिसमें चुडासमा समेत कुल 15 लोगों पर अपहरण, आपराधिक षडयंत्र और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे. गौरतलब है कि चुडासमा गुजरात के भूतपूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह के भरोसेमंद पुलिस अफसर थे.

49.

इस पूरे मामले की जांच प्रक्रिया को गुमराह करने वाले पुलिस अफसर गीता जौहरी और ओपी माथुर को न तो हिरासत में लिया गया और न ही उनके बयान दर्ज किए गए, क्यों?
सीबीआई से पहले गुजरात पुलिस का विशेष जांच दल इस मामले की जांच कर रहा था. गीता जौहरी तब राज्य की पुलिस महानिरीक्षक थीं और ओपी माथुर सीआईडी (अपराध) के मुखिया. िफलहाल ये दोनों अफसर संदेह के घेरे में हैं. जौहरी को तो ठीक से जांच न करने के लिए अदालत से फटकार भी पड़ी. अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके आरोप लगाया है कि सीबीआई उन पर नेताओं का नाम लेने के लिए दबाव डाल रही है.

48.

सोहराबुद्दीन हत्याकांड

सीबीआई ने राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया से गहन पूछताछ क्यों नहीं की जबकि सोहराबुद्दीन हत्याकांड में उनकी कथित संलिप्तता की चर्चा है?
खबरों के मुताबिक सोहराबुद्दीन केस में सीबीआई के अहम गवाह आजम खान ने बताया कि राजस्थान की एक फर्म, राजस्थान मार्बल्स ने सोहराबुद्दीन को खत्म करवाने के लिए गुलाब चंद कटारिया को 10 करोड़ रुपए दिए थे.





47.

क्या हमारी जांच एजेंसी राजनेताओं की मिलीभगत से आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने वाले पुलिस अफसरों पर नकेल कसने में विफल नहीं रही है?
नवंबर, 2005 में हुए सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर मामले का अकेला चश्मदीद गवाह प्रजापति एक मुठभेड़ में करीब एक साल बाद दिसंबर, 2006 में मारा गया था. गुजरात सीआईडी द्वारा अब जाकर इस साल 30 जुलाई को बनासकांठा की एक अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया. इसमें तीन आईपीएस अफसर डीजी वंजारा, विपुल अग्रवाल और एमएन दिनेश को मुख्य अभियुक्त ठहराया गया था. वंजारा और दिनेश पिछले तीन साल से पुलिस हिरासत में हैं. राजस्थान कैडर के आईपीएस दिनेश को जब 2007 में गिरफ्तार किया गया तो राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और पुलिस महानिदेशक इस मामले में हस्तक्षेप करने गुजरात तक पहुंच गए थे.



46.

हरेन पंड्या हत्याकांड

सीबीआई अब तक मुफ्ति सुफियान का पता क्यों नहीं लगा पाई है?

गुजरात के पूर्व गृहमंत्री पंड्या की हत्या गन-मैन अशगर अली ने मुफ्ति सुफियान के इशारे पर की थी. आरोप लगे कि इस हत्या के पीछे मोदी और अमित शाह का हाथ था क्योंकि पंड्या ने एलिसब्रिज सीट खाली न करके और 2002 में हुए दंगों की जांच कर रही न्यायधीशों की एक टीम के सामने उपस्थित होकर मोदी को खुलेआम चुनौती दी थी. उसी समय युवा मुसलमान नेता सुफियान अहमदाबाद की लाल मस्जिद से उत्तेजक भाषण देते हुए कट्टरपंथियों के बीच लोकप्रिय हो रहा था. 2002 के दंगे के बाद वह पहले से भी ज्यादा कट्टरपंथी हो गया था. नमाज खत्म होने के बाद सुफियान अकसर उन्मादी भाषण दिया करता था. कहा जाता है कि उसके तार अहमदाबाद अंडरवर्ल्ड से जुड़े थे.

45.

सीबीआई का आरोप पत्र यह क्यों नहीं बताता कि मुठभेड़ के छह दिन बाद सुफियान देश से बाहर भागने में कैसे सफल हो गया?

44.

मामले की जांच कर रहे अफसरों के तबादले में नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सीबीआई ने मुख्यमंत्री से पूछताछ क्यों नहीं की?

43.

सुफियान को पकडऩे के लिए इंटरपोल से मदद क्यों नहीं ली गई?

42.

सीबीआई ने तुलसी प्रजापित हत्याकांड में जांच करके आरोपितों को क्य?ं नहीं पकड़ा जबकि उच्चतम न्यायालय ने उसे इस संबंध में निर्देश दिया था?

41.

प्रजापित मामले की सुनवाई टलने से सीआईडी को आरोपी अधिकारियों को हिरासत में लेने का वक्त मिल गया है. सीबीआई ने जांच शुरू कर दी होती तो इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता था ?

40.

क्या सीबीआई उस समय सत्तारूढ़ बीजेपी के निर्देशों पर नहीं चल रही थी, जैसा कि हरेन पंड्या के पिता वि_ल पंड्या का आरोप है?
रिपोर्टों के मुताबिक पंड्या की हत्या को उनके पिता वि_ल पंड्या ने राजनीतिक षड्यंत्र बताया और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी उंगली उठाई थी. हालांकि बाद में सीबीआई ने कहा कि मोदी के हत्याकांड से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं मिला है. मुख्य हत्यारा अशगर अली बाद में हैदराबाद से गिरफ्तार किया गया. सीबीआई के मुताबिक अशगर को पंड्या की हत्या की सुपारी मुफ्ति सुफियान ने दी थी. वि_ल पंड्या ने गोधरा जांच समिति के सामने बयान दिया कि हरेन पंड्या के कहे अनुसार 2002 में हुआ दंगा राज्य के द्वारा प्रायोजित और मोदी द्वारा नियोजित था.

39.

मायावती : आय से अधिक संपत्ति का मामला

इसी साल 28 अप्रैल को मायावती ने संसद में कटौती प्रस्ताव का समर्थन करके यूपीए सरकार को गिरने से बचाया. एक हफ्ते के भीतर ही आयकर विभाग ने आय से अधिक संपत्ति मामले में उन्हें क्लीन चिट दे दी. जब सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह मायावती के खिलाफ मुकदमा चलाने को तैयार है तो फिर वह पीछे क्यों हट गई?
2003 में मायावती की कुल संपत्ति एक करोड़ रुपए थी लेकिन तीन ही साल में यह पचास करोड़ रुपए हो गई यानी पचास गुना बढ़ोतरी. सीबीआई ने इसे आधार बनाकर उन पर मामला दर्ज किया था. मायावती की कई बेनामी जमीन-जायदाद के बारे में जांच करने के बाद ब्यूरो ने दावा किया था कि वह कार्रवाई करने को तैयार है. लेकिन आज तक आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जा सका.

38.

ताज कॉरिडोर मामला

यदि इस मामले की जांच का कोई नतीजा नहीं निकला तो क्या सीबीआई इससे जुड़ी केस डायरियां सार्वजनिक करेगी?
2002 में मायावती की पहल पर ताजमहल के आसपास पर्यटक सुविधाएं विकसित करने के लिए 175 करोड़ रुपए की परियोजना की शुरुआत हुई. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 74 करोड़ रुपए खर्च होने तक निर्माण स्थल पर सिर्फ पत्थर फिंकवाने का काम हुआ था.

37.

आय से अधिक संपत्ति के मामले में 6 साल बाद भी मायावती के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल क्यों नहीं किया गया?

36.

राज्यपाल ने सीबीआई को मायावती पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी थी. क्या दोबारा उनसे मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी गई?

35.

जम्मू-कश्मीर सेक्स कांड

क्या उमर अब्दुल्ला 2006 के सेक्स प्रकरण मामले में आरोपित हैं?
2006 में पुलिस को कश्मीरी औरतों का यौन शोषण दर्शाती कुछ वीसीडी मिली थीं. पीडीपी ने इस घटना के बाद आरोप लगाया था कि सीबीआई के आरोप पत्र में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का नाम भी है.

34.

सीबीआई आरोप पत्र दाखिल करने में इतना वक्त क्यों लगा रही है?

33.

इस मामले में गिरफ्तार किए गए पुलिस अधिकारियों को क्यों छूट जाने दिया गया?

32.

मिसाइल घोटाला

2006 में एफआईआर दर्ज करने के बाद दो साल तक सीबीआई ने जॉर्ज फर्नांडीस से पूछताछ क्यों नहीं की?
2000 में भारत ने इजरायल से बराक मिसाइलें खरीदी थीं. सौदे में कथित गड़बड़ी के लिए सीबीआई ने फर्नांडीस के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी. फर्नांडीस का दावा था कि तब रक्षामंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने सौदे को मंजूरी दी थी. सौदे में दो करोड़ की रिश्वत का आरोप है.

31.

जूदेव रिश्वत मामला

सीबीआई दिलीप सिंह जूदेव रिश्वत कांड में ढीली क्यों पड़ गई?
केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के मंत्री जूदेव कैमरे के सामने रिश्वत लेते पकड़े गए. 2005 में सीबीआई ने कहा कि इस स्टिंग ऑपरेशन के पीछे छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित का हाथ है.

30.

मुलायम सिंह : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आखिर क्या वजह थी कि सीबीआई ने 2007 में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई और क्यों कार्रवाई रिपोर्ट अदालत में जमा करने से पहले केंद्र को भेजी गई?
ब्यूरो ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट अक्टूबर, 2007 में दाखिल करते हुए दावा किया था कि उसके पास मुलायम सिंह पर मामला दर्ज करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं.

29.

2009 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में मुलायम और उनके परिवार के खिलाफ केस दायर करने की अपनी अर्जी को वापस लेने की याचिका दी. क्यों?
क्या यह जुलाई, 2008 में वामदलों के केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद समाजवादी पार्टी द्वारा केंद्र को समर्थन देने का पुरस्कार था?

28.

लालू-राबड़ी देवी : आय से अधिक संपत्ति का मामला

बिहार के इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के दावे के बावजूद सीबीआई जांच प्रक्रिया आगे क्यों नहीं बढ़ा रही?
2004 में सीबीआई ने इस मामले में सालों से चल रही जांच को किनारे कर दिया और यूपीए सरकार के लिए लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को फायदा पहुंचाने का रास्ता तैयार कर दिया. 2006 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने दोनों को बरी कर दिया, लेकिन सीबीआई मामले को हाई कोर्ट नहीं ले गई.

27.

ओपी चौटाला : आय से अधिक संपत्ति का मामला

आरोप है कि सीबीआई ने ओमप्रकाश चौटाला के खिलाफ कार्रवाई तब शुरू की जब वे यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक रूप से गैरजरूरी हो गए.

हरियाणा के पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके चौटाला के खिलाफ सीबीआई ने अज्ञात स्रोतों से कथित छह करोड़ रुपए अर्जित करने के मामले में आरोप पत्र दाखिल किया था. आरोप पत्र विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति मिलने के बाद दाखिल किया गया था.

26.

सीके जाफर शरीफ : आय से अधिक संपत्ति का मामला

पूर्व मंत्री सीके जाफर शरीफ के खिलाफ प्रथमदृष्टया मामला दर्ज करने के बाद भी सीबीआई को आगे बढऩे की अनुमति क्यों नहीं मिली?
सीबीआई ने 1997 में सीके जाफर शरीफ के खिलाफ पद के दुरुपयोग और आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया था. लेकिन 2006 में उसने मामला बंद करने की अर्जी दे दी क्योंकि केंद्र से उसे आगे जांच की अनुमति नहीं मिली.

25.

एनडीए शासनकाल में लालू प्रसाद के खिलाफ सीबीआई ने काफी सक्रियता दिखाई थी, लेकिन यूपीए सरकार बनने के बाद इस मामले में ब्यूरो की रफ्तार सुस्त क्यों पड़ गई?

24.

विशेष अदालत में लालू के खिलाफ मामला खारिज हो जाने के बाद सीबीआई हाई कोर्ट क्यों नहीं गई?

23.

सीबीआई ने पप्पू यादव की जमानत याचिका के खिलाफ कार्रवाई करने में देर क्यों लगाई?

22.

जयललिता 'उपहार' मामला

क्या जयललिता मामले को सीबीआई बिलकुल भूल चुकी है?

सीबीआई के मुताबिक तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री को विदेश से तीन करोड़ रुपए का 'डोनेशनÓ मिला था, जिसे उन्होंने 1992-93 के दौरान इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करते समय अपनी आय के रूप में दर्शाया. जब एचडी देवगौड़ा सरकार में तमिल मनीला कांग्रेस के पी चिदंबरम वित्तमंत्री थे तब उन्होंने सीबीआई प्रमुख जोगिंदर सिंह से 'डोनेशन' देने वाले की पहचान पता करने की बात कही थी. सिंह ने इस पर कार्रवाई भी शुरू की, लेकिन जांच आज भी बेनतीजा जारी है.

21.

भविष्यनिधि घोटाला

तकरीबन दो साल तक जांच के बाद सीबीआई आज भी दावा कर रही है कि जजों के खिलाफ मामला चलाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं, आखिर इसकी क्या वजह है?
अप्रैल, 2010 में सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले से संबंधित जांच की स्टेटस रिपोर्ट दाखिल की थी. ब्यूरो ने इसमें उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के तीन जजों सहित राज्य के उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष और लोकायुक्त पर करोड़ों रुपए के भविष्यनिधि घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया था. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस तरुण चटर्जी के अलावा आरोपितों की सूची में उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश भी शामिल थे. आरोप था कि 2001 से 2008 के बीच गाजियाबाद की जिला अदालत के कोषाधिकारी आशुतोष अस्थाना ने जिला अदालत के न्यायाधीशों के साथ मिलकर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के भविष्यनिधि खाते से करोड़ों रुपए निकाले.

20.

इस मामले में ब्यूरो ने जजों से पूछताछ की कोशिश क्यों नहीं की?

19.

प्रथमदृष्टया सबूत होने के बाद भी जजों के घरों पर छापे क्यों नहीं पड़े?

18.

बोफोर्स घूसखोरी मामला

मलेशिया और अर्जेंटीना में दो बार गिरफ्तार होने के बाद भी सीबीआई ने ओटावियो क्वात्रोची के खिलाफ रेडकॉर्नर नोटिस क्यों वापस लिया?
जब-जब केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार रही, इटली के इस हथियार सौदेबाज के खिलाफ सीबीआई जांच में तेजी बनी रही. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भी सीबीआई, मलेशिया और अर्जेंटीना सहित जहां भी क्वात्रोची गया, उसके पीछे पड़ी
रही. लेकिन बाद में मामला धीरे-धीरे रफा-दफा कर दिया गया.

17.

हर्षद मेहता शेयर घोटाला

शेयर घोटाले में पूछताछ के दौरान हर्षद मेहता ने कई राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के नाम उजागर किए थे. सीबीआई ने मामले में उनकी भूमिका की जांच क्यों नहीं की?
शेयर दलाल हर्षद मेहता ने बैंकिंग तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर बैंकों का पैसा शेयरों की खरीद-फरोख्त में लगाया और शेयर बाजार को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. मामला खुला तो शेयर बाजार भरभराकर गिरा और निवेशकों व बैंकों को करोड़ों रुपए का घाटा उठाना पड़ा. मेहता पर 72 आपराधिक मामले दर्ज हुए.

16.

यूरिया घोटाला

1995 के यूरिया घोटाले के प्रमुख आरोपितों में शामिल पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के भतीजे बी संजीव राव और बेटे पीवी प्रभाकर राव कैसे बच गए?

15.

संजीव राव ने माना था कि रिश्वत की रकम कहां छुपाई गई, उन्हें पता है. फिर भी आरोप पत्र में उनका नाम क्यों नहीं था?

14.

प्रधानमंत्री कार्यालय के कौन-कौन अफसर इस मामले से जुड़े थे?

13.

झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड

सीबीआई ने इस मामले में ज्यादातर अभियुक्तों के दोषी साबित हो जाने के बाद क्या किया है?
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने साफ-साफ कहा था कि रिश्वत लेने और देने वाले सांसद अपने विशेषाधिकार का फायदा नहीं उठा सकते और उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है.

12.

सीबीआई ने सत्यम मामले में राजनेताओं की भूमिका की जांच क्यों नहीं की?
7 जनवरी, 2009 को सत्यम के चेयरमैन रामालिंगा राजू ने अपने बोर्ड मेंबरों और सेबी को यह बताते हुए इस्तीफा दिया था कि आईटी कंपनी के खाते में 5,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का घाल-मेल है.

11.

जैन हवाला कांड

उच्चतम न्यायालय ने हवाला कांड में राजनेताओं के खिलाफ लचर जांच-पड़ताल के लिए सीबीआई की आलोचना की थी, इससे कोई सबक लिया गया?
18 करोड़ डॉलर के इस घोटाले में वह पैसा भी शामिल था जो हवाला कारोबारी जैन भाइयों ने कथित तौर पर नेताओं को दिया. इस रकम का एक हिस्सा हिजबुल मुजाहिदीन को मिलने की बात भी हुई. लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना मुख्य आरोपितों में से थे. अदालत ने हवाला रिकॉर्डों को अपर्याप्त सबूत माना.

10.

एनके जैन ने दावा किया था कि उसने पीवी नरसिंहा राव को एक करोड़ रु. दिए. इसके बाद सीबीआई के सबूत जुटाने की रफ्तार अचानक धीमी क्यों पड़ गई?

9.

सेंट किट्स मामला

सेंट किट्स के दौरे के बाद धोखाधड़ी के इस मामले की तफ्तीश के लिए सीबीआई को कौन-से सुराग मिले?
सेंट किट्स धोखाधड़ी मामले में भूतपूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री केके तिवारी, सिद्धपुरुष चंद्रास्वामी और उनके सचिव केएन अग्रवाल के ऊपर आरोप लगे थे. मामला था वीपी सिंह की छवि को खराब करने के लिए फर्जीवाड़ा करने का. राव पर ये आरोप 1996 में तब लगाए गए जब वे प्रधानमंत्री के पद से हट चुके थे. बाद में सबूतों के अभाव में अदालत ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया. बाकी आरोपी भी आखिरकार छूट गए.

8.

बाबरी विध्वंस

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई कोई भी पुख्ता सबूत नहीं जुटा पाई. क्यों?

6 दिसंबर, 1992 को कथित तौर पर संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की शह पर बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया जिसमें लालकृष्ण आडवाणी समेत 24 नेताओं का नाम था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 17 सितंबर को इस मामले पर अपना फैसला सुनाएगी. मामला इतना संवेदनशील है कि मायावती ने फैसले के बाद की आशंकित स्थिति को संभालने के लिए अर्धसैनिक बलों की 300 कंपनियां पहले से ही बुला ली हैं.

7.

पाठक धोखाधड़ी मामला

इतने बड़े नेताओं पर इतने गंभीर आरोप लगे पर सीबीआई साक्ष्य जुटाने में नाकाम क्यों रही?
इंग्लैंड में रहने वाले कारोबारी लक्खूभाई पाठक ने तांत्रिक चंद्रास्वामी, उनके सचिव केएन अग्रवाल और पीवी नरसिंहा राव पर एक लाख डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप लगाया था.

6.

तेलगी स्टांप पेपर घोटाला

सीबीआई ने उन नेताओं के खिलाफ जांच जारी क्यों नहीं रखी जिनका नाम तेलगी ने लिया था?
2006 में अब्दुल करीम तेलगी की गिरफ्तारी हुई. पूछताछ में उसने शरद पवार, छगन भुजबल समेत कई और राजनेताओं और नौकरशाहों के नाम लिए जो इस घोटाले में उसके हिस्सेदार थे. कभी फल बेचने वाले तेलगी को 1994 में स्टांप पेपर बेचने का लाइसेंस मिला और तब-से उसने फर्जी स्टांप पेपर छापने शुरू कर दिए.

5.

क्या एक अकेला आदमी नेताओं की शह के बिना इतना बड़ा घोटाला कर सकता है?

4.

हजारों करोड़ के इस घोटाले की जांच में सीबीआई को क्या मिला?

3.

आरुषि हत्याकांड को दो साल हो गए हैं. सीबीआई की क्या उपलब्धि है?

2.

सिख विरोधी दंगे

1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य अभियुक्तों में से एक सज्जन कुमार के खिलाफ सीबीआई अभी तक ढुलमुल रवैया ही अपना रही है. क्यों?
सीबीआई के यह कहने पर कि सज्जन कुमार गायब हैं, फरवरी, 23 को इस केस की सुनवाई कर रही अदालत ने उसे फटकार लगाई.

सिख विरोधी दंगे
कांग्रेस के सांसद जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट देने में सीबीआई को 15 साल क्यों लग गए?
उत्तर भारत में चार दिन तक हिंसा हुई. खासकर दिल्ली में. कांग्रेस के इशारों पर नाचती भीड़ ने निहत्थे सिखों को मारा. औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े सबको. सिखों के घरों और उनकी दुकानों को लूटा और जलाया गया. गुरुद्वारों तक को नहीं बख्शा गया. इस साल 10 फरवरी को सीबीआई ने दिल्ली कोर्ट में अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी जिसमें भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट मिल गई. सीबीआई ने दिसंबर, 2007 में ही टाइटलर को क्लीन चिट दे दी थी पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था और एजेंसी को निर्देश दिए थे कि इस मामले में टाइटलर की भूमिका की दोबारा जांच हो. अप्रैल 2, 2009 को भी सीबीआई ने अपर्याप्त सबूतों का हवाला देते हुए टाइटलर को क्लीन चिट दी थी. क्लीन चिट देने के लिए सीबीआई ने जिन दस्तावेजों का सहारा लिया था उन्हें हासिल करने के मकसद से दाखिल एक पीडि़त की अर्जी पर जवाब देने के लिए दिल्ली की एक अदालत ने जांच एजेंसी को दो महीने का वक्त दिया है.

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