सोमवार, 2 नवंबर 2015

नौकरशाहों के आगे मोदी भी भूले मंत्र

भ्रष्ट अफसरों पर एक साल बाद भी नहीं कसी नकेल
भोपाल। मई 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले देश की नौकरशाही को बदलने का वीणा उठाया था। इसके लिए कई स्तर पर चिंतन-मनन भी हुआ और प्रधानमंत्री ने तंत्र पर नकेल कसने कागजी मंत्र भी बनवाए, लेकिन मोदी एक साल बाद भी भ्रष्ट नौकरशाहों को सजा नहीं दिला सके। जबकि यह मोदी का चुनावी वादा भी था। सेंट्रल विजिलेंस कमीशन (सीवीसी) के मुताबिक, आज लगभग 15 माह बाद स्थिति यह है कि केंद्र सरकार 12 आईएएस अधिकारियों सहित 34 अधिकारियों के खिलाफ कानूनी मामला चलाने की अनुमति अभी तक नहीं दे पाई है। इसमें मप्र के एक आईएएस के सुरेश कुमार का भी नाम है।
उल्लेखनीय है कि पिछले फरवरी 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान सीबीआई 15 आईएएस अधिकारियों की जांच कर रही थी। सीबीआई ने जिन घोटालों में मामला चलाने की अनुमति मांगी थी, वे यूपीए के कार्यकाल से जुड़े हैं। इस वजह से इन सभी मामलों में अनुमति देने या न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई तीन महीने की डेडलाइन मई में ही समाप्त हो चुकी है। सीबीआई के अधिकारियों का कहना है कि कानूनी मामला चलाने की अनुमति के इंतजार में 18 अन्य मामले भी हैं, जो ज्वाइंट सेक्रेटरी या इससे ऊपर के स्तर के अधिकारियों से जुड़े हैं। इनमें तीन महीने की डेडलाइन इसी महिने पूरी हो गई है। सरकार की अनुमति के इंतजार में कुल 92 मामले हैं, जिनमें अनुमति न मिलने की वजह से सीबीआई चार्जशीट दाखिल नहीं कर पा रही है। सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, बहुत से मामलों में हमने आरोपी व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट बिना अनुमति के दाखिल की है, लेकिन इसे चुनौती दे दी गई। अदालतें भी इसे पसंद नहीं करती और इस वजह से बहुत से मामलों में लोग बरी हो गए हैं। आईएएस अधिकारियों से जुड़े मामलों में लैंड स्कैम, आय से अधिक संपत्ति के मामले और प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाले पॉलिसी से जुड़े फैसले शामिल हैं। सीबीआई की कार्रवाई के डर से ब्यूरोक्रेट्स के फैसले लेने से बचने के मद्देनजर एनडीए सरकार ने हाल ही में प्रिवेंशन ऑफ करप्शन बिल में कुछ संशोधन किए थे। सरकार ने ईमानदार ब्यूरोक्रेट्स का संरक्षण करने और राष्ट्रीय हित में लिए गए फैसलों पर सवाल न उठाने का भी प्रपोजल दिया है। सीबीआई के सूत्रों का कहना है कि अभियोजन चलाने की अनुमति में देरी को लेकर डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग को ईमेल से भेजे गए प्रश्न का कोई जवाब नहीं मिला। ऐसे में अब मोदी सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगा है।
पांच साल में 100 आईएएस जांच के दायरे में
देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा आईएएस में भ्रष्टाचार के मामले बढ़ते जा रहे हैं। सरकार के एक आधिकारिक जवाब के अनुसार पिछले पांच साल में 100 आईएएस अधिकारी भ्रष्टाचार के अलग-अलग मामलों में कथित संलिप्तता के चलते सीबीआई की जांच के दायरे में आए हैं जिनमें से 66 के खिलाफ सरकार से मुकदमे की अनुमति मिली है। ये जानकारी राज्यसभा में राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह द्वारा दी गई है। कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मामलों के राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह ने राज्यसभा को बताया कि 2010 से सीबीआई ने 100 आईएएस अधिकारी, 10 सीएसएस ग्रुप ए अधिकारी और 9 सीबीआई ग्रुप ए अधिकारियों के खिलाफ मुकदमे के लिए अनुमति देने का अनुरोध किया था।
मप्र कैडर के आईएएस के. सुरेश कुमार भी निशाने पर
मध्यप्रदेश कॉडर में 1982 बैच के आईएएस अधिकारी के सुरेश पर भ्रष्टाचार के छींटे तब पड़े जब केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर रहते हुए चेन्नई पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष और सेतु समुद्रम परियोजना के सीईओ थे। मामला वर्ष 2004 से 2009 के बीच का है। भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते सीबीआई सक्रिय हुई। और इसी दौरान उनके यहां सीबीआई ने छापामार कार्यवाही की। सीबीआई ने कुमार के घर पर छापे में 2.36 करोड़ रुपये की नकदी बरामद की थी। छापे के कार्यवाही के दौरान इनके यहां मिले दस्तावेजों को सीबीआई ने जब्त किया। जांच में इन्हें दोषी मानते हुए अभियोजन की स्वीकृति मांगी। मध्यप्रदेश वापसी पर सरकार में वे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाते रहे हैं। सीबीआई ने उनके खिलाफ अभियोजन प्रस्तुत करने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति मांगी है, लेकिन अभी तक उसे अनुमति नहीं मिली है। के सुरेश इसी माह रिटायर भी हो रहे हैं।
देशी का पता नहीं अब विदेशों में जमा संपत्ति का ब्योरा देना होगा अफसरों को
केंद्र सरकार हर साल अफसरों की संपत्ति का विवरण मांगती है, लेकिन अधिकारी अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने से कतराते हैं। जो सार्वजनिक करते हैं उनका व्यौरा भी सही नहीं रहता है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो मोदी सरकार में तो आईएएस और निरंकुश हो गए हैं। जहां वर्ष 2013 में देश भर में मप्र के 16 आईएएस सहित 248 आईएएस ने अपनी संपत्ति का व्यौरा नहीं दिया वहीं वर्ष 2014 की संपत्ति का व्यौरा अभी तक 429 आईएएस ने नहीं दिया। इसमें 60 मप्र के अफसर हैं। ऐसे में आयकर विभाग की सलाह पर सरकार ने अफसरों से उनकी विदेशों में जमा संपत्ति का व्यौरा मांगा है। आयकर विभाग ने बड़े आयकरदाताओं को नोटिस भेजकर विदेश में संपत्ति का ब्यौरा उपलब्ध कराने का निर्देश दिया है। इसके लिए विभाग की ओर से 30 सितंबर तक का समय दिया गया है। इस दौरान जानकारी नहीं देने वालों के खिलाफ प्रवर्तन एजेंसी मनी लांड्रिंग एक्ट के तहत सीधी कार्रवाई करेंगे। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि विदेश में काले धन की पड़ताल के लिए विभाग ने प्रदेश के बड़े आयकरदाताओं की विदेश यात्रा के साथ-साथ विदेशी मुद्रा विनिमय की भी जानकारी जुटाई जा रही है। इसमें कई आईएएस भी शामिल हैं।
सीबीडीटी की आधिकारिक प्रवक्ता शैफाली शाह की ओर से जारी बयान के अनुसार सरकार ने कालाधन कानून के तहत विदेशों में रखी संपत्ति का खुलासा करने के लिए तीन माह का समय दिया है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि उनके पास विदेश में वित्तीय खातों के बारे में सूचना उपलब्ध है, इसलिए जिन लोगों के पास विदेशों में संपत्ति है, वह अनुपालन खिड़की का इस्तेमाल करके जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं। यदि विदेशों में संपत्ति रखने वाला व्यक्ति, अफसर, कारोबारी 30 सितंबर तक इसकी घोषणा नहीं करते हैं, तो अघोषित संपत्ति पर 120 प्रतिशत की दर से कर और जुर्माने का भुगतान करना होगा। इसके साथ ही उसे 10 साल तक की सजा हो सकती है। कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की जानकारी आयकर विभाग की आधिकारिक वेबसाइट का इस्तेमाल करते हुए भर सकता है। विदेशों में रखे कालेधन की समस्या से निपटने के लिए सरकार ने नए कालाधन रोधी कानून को एक जुलाई से लागू कर दिया। कानून के तहत विदेशों में अघोर्षित संपत्ति रखने वालों को एक मौका भी दिया गया है। 90 दिन में स्वैच्छिक तौर पर ऐसी संपत्ति की घोषणा की जा सकती है। यह अनुपालन सुविधा खिड़की 30 सितंबर तक खुली है। अनुपालन सुविधा के तहत जानकारी देने पर संबंधित व्यक्ति को 60 प्रतिशत कर और जुर्माना देना होगा। जानकारी देने के बाद कर या फिर जुर्माने का भुगतान 31 दिसंबर तक करना होगा। अखिल भारतीय सेवा के प्रत्येक अफसर को अब अचल संपत्ति ही नहीं, बल्कि अब चल संपत्ति का भी लेखा-जोखा हर वर्ष सरकार को प्रस्तुत करना होगा। खासकर आईएएस, आईपीएस तथा आईएफएस की नियुक्ति के समय उसके नाम पर कितनी संपत्ति थी और आज वह बढ़कर कितनी हो गई है। पत्नी, पुत्र-पुत्री और आश्रितों के नाम पर कितनी संपत्ति है, उनके नाम पर बैंक में कितना पैसा जमा है, जमीन, बीमा पालिसी, बैंक में जमा बॉंड, वाहन मकान आदि का ब्यौरा भी अब बताना होगा। 31 मार्च तक लेखा-जोखा केंद्र सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम के तहत अफसरों को हर वर्ष पहली जनवरी की स्थिति में इसका लेखा-जोखा देना होगा। जीएडी ने इस मामले में अफसरों से 31 जुलाई तक उक्त प्रावधानों के तहत जानकारी मांगी है। केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय ने प्रत्येक लोक सेवक, यथास्थिति, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 की धारा 44 की उपधारा (2)या उपधारा (3)के अधीन अपनी आस्तियों और दायित्वों की घोषणा करेगा। प्रत्येक लोक सेवक उस वर्ष की 31 जुलाई को या उसके पूर्व लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियमों के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी को प्रत्येक वर्ष के 31 मार्च को अपनी संपत्ति के विषय में घोषणा, सूचना या विवरणी फाइल करेगा। इन अधिनियमों में 26 दिसंबर 2014 को प्ररूप 2 एवं 4 में आंशिक संशोधन भी किए गए है। तीनों अखिल भारतीय सेवा के अफसरों को अपनी संपत्ति के बारे में जानकारी हिंदी और अंग्रेजी दोनों में से किसी एक भाषा में देना होगा। इस मामले में सामान्य प्रशासन विभाग ने प्रदेश के सभी आईएएस अफसरों से 31 जुलाई तक जानकारी मांगी है।
संपत्ति का ब्योरा नहीं दे रहे मप्र के आईएएस
मध्यप्रदेश संवर्ग के भारतीय प्रशासनिक सेवा के करीब 5 दर्जन अधिकारियों ने अभी तक अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्योरा नहीं दिया है। सामान्य प्रशासन विभाग की वेबसाइट में आईएएस अधिकारियों की संपत्ति का ब्योरा अपलोड करने का प्रावधान है। लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के तहत अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को हर साल अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्योरा देना अनिवार्य है। सामान्य प्रशासन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2014 में जिन आईएएस अफसरों ने अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्योरा नहीं दिया है, उनमें प्रमोद अग्रवाल, संजय दुबे, शिवशेखर शुक्ला, चंद्रहास दुबे, एसके पाल, फैज अहमद किदवई, मुकेश चंद गुप्ता, कमता प्रसाद राही, पवन कुमार शर्मा, शशि कर्णावत, सुरेंद्र कुमार उपाध्याय, विवेक कुमार पोरवाल, नीरज दुबे, कैलाशचंद जैन, श्याम सिंह कुमरे, पी नरहरि, सीबी सिंह, राजेंद्र सिंह, राजेश बहुगणा, अजीत कुमार, पीके गुप्ता, डी बी पाटिल, नरेंद्र सिंह परमार, एम के शुक्ला, जॉन किग्सले, लोकेश कुमार जाटव, शेखर वर्मा, अशोक कुमार वर्मा, आरके जैन, एनएम विभीष्ण, छवि भारद्वाज, नंद कुमरे, अविनाश लवानी, गणेश शंकर मिश्रा, कर्मवीर शर्मा, एसपी मिश्रा, विजय कुमार जे, बी विजय दत्ता, हर्षिका सिंह, नीरज कुमार सिंह, पंकज जैन, अजय कटेसरिया, निधि निवेदिता, रोहित सिंह, एस सोमवंशी, प्रवीण सिंह अधयच, अनुराग वर्मा, एफ राहुल हरिदास, राजीव रंजन मीना, बी कार्तिकेय, गिरिश कुमार मिश्रा, सोनिया मीना,हर्ष दीक्षित, सोमेश मिश्रा, प्रियंका मिश्रा, मयंक अग्रवाल, फ्रेंक नोबेल, संदीप जीआर आदि शामिल है। सामान्य प्रशासन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक निर्धारित समय-सीमा में चल-अचल संपत्ति का ब्योरा नहीं देने पर संबंधित अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। उनकी गोपनीय चरित्रावली में भी इसका उल्लेख किया जा सकता है। चल-अचल संपत्ति का ब्योरा नहीं देने वाले अधिकारियों की पदोन्नित रोके जाने का प्रावधान है।
आईएएस को जनसेवक बनाने की तैयार!
देश की प्रशासनिक व्यवस्था का बोझ ढोने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) को जनसेवक बनाने की तैयारी चल रही है। प्रधानमंत्री ने खुद को देश का प्रधान सेवक कहा, प्रधानमंत्री की बात को आगे बढ़ाने के लिए आईएएस के नाम के साथ सेवक या जनसेवक जोडऩे की तैयारी चल रही है। भारतीय विदेश सेवा में विशेषज्ञों को शामिल करने की तैयारी हो गयी है इस सेवा में मीडिया, कला, आर्थिक, राजनीतिक के 65 विशेषज्ञों को शामिल करने के लिए आवेदन आमंत्रित किये जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के मौके पर पिछले साल लाल किले की प्राचीर से कहा था कि वह देश के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि प्रधान सेवक हैं। उनकी यह सोच खुद को अपने जो जनता से जोडऩे की कोशिश थी। उनका बयान सोच समझकर दिया गया था जिसका अर्थ अब समझ में आयेगा। अंग्रेजों के समय 1858 में इम्पीरियल शुरू की गयी सिविल सर्विस देश के आजाद होने के बाद भी जारी है। इस सेवा में सुधार को लेकर अनेक बार बहस हुई। सतीश चंद्रा कमेटी ने भी सेवा में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये जो ठंडे बस्ते में पड़े हैं। लेकिन अब कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने उस रिपोर्ट पर से धूल झाडऩी शुरू कर दी है। इस सेवा के पक्ष में तर्क है कि इस सेवा ने देश को एकजुट रखा। लेकिन इसके विरोध में तर्क है कि इस सेवा के लोग राजाओं की तरह व्यवहार करते हैं और जनता से कटे रहते हैं। पिछली सरकार में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने आईएएस सेवा में आमूल चूल पर्वितन की सिफारिश की थी। उनकी बात को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी स्वीकार किया था और आने वाली सरकार के एक नोट लिख कर गये थे कि अब समय आ गया है कि सिविल सेवा में बदलाव किया जाएगा। सरकार में चर्चा शुरू हो गयी है कि राजकुमारों की सेवा आईएएस को बदला जाए और उन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया जाए। एक विचार है कि सबसे पहले आईएएस नाम बदला जाए। भारतीय प्रशासनि सेवा में कहीं जनसेवा या जनसेवक जोड़ा जाए ताकि आईएएस का आधा ईगो या अहंकार जमीन पर लाया जाए। उनकी सेवा शर्तों में भी परिवर्तन किया जाए। सरकार संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) सिविल सेवा में शामिल 30 सेवाओं को घटाकर 14 करने जा रही है। कुछ विभागीय सेवाओं को उन्हें ही सौंपा जाएगा। भारतीय प्रशासनिक सेवा का भी नाम बदलने पर विचार हो रहा है। विदेश सेवा में भी विशेषज्ञों की भर्ती के लिए प्रक्रिया जल्दी ही शुरू जाएगी। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार नौकरशाही की नियुक्ति में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए यूपीएसएसी ने कवायद शुरू कर दी है।
केंद्र सरकार भी चाहती है कि बेवजह यूपीएसएसी पर भार न डाला जाए। जो विभागीय भर्तियां हैं उन्हें संबंधित विभाग करे, केवल अखिल भारतीय सेवाओं का आयोजन यूपीएससी करे। सतीश चंद्रा समिति ने भी यूपीएसएसी के परीक्षा पण्राली में परिवर्तन की सिफारिश की थी। सिविल सेवा परीक्षा में रैंकिंग के हिसाब से सेवाओं को आबंटित किया जाता है। मसलन पहले टॉप 100 लोगों को आईएएस, उसके बाद 100 लोगों को आईपीएस और तीसरे 100 लोगों को आईएफएस अलाट की जाती है। इसके बाद अलायड सेवा शुरू होती है जिसमें आईआरएस से लेकर रेलवे सेवा और आखिर में सीएसएस सेवा आबंटित होती। आने वाले दिनों में यूपीएसएसी सिविल सेवा में 14 ऑल इंडिया सेवा की भर्ती करेगा। बाकी सेवाओं को उनके मूल मंत्रालयों को सौंपेगा या यूपीएससी ही इनके लिए अलग से परीक्षा आयोजित करेगा। जिन सेवाओं को सिविल सेवा से हटाया जाना है उनमें रेवले की पांच, डिफेंस की पांच सेवा शामिल हैं। 2-3 सेवाओं को डीलिंक किया जाएगा। इनमें भारतीय सूचना सेवा हो सकती है। सूचना सेवा को व्यावसायिक सेवा बनाकर पत्रकारिता से जुड़े लोगों को भर्ती किया जाएगा। इसी सुधार प्रक्रिया के तहत अंग्रेजों की इम्पीरियल पुलिस को आईपीएस में बदलाव इममें कुछ बाहरी लोगों को शामिल हाल के दिनों में करीब 188 लोगों को लेटरल इंट्री के तहत आईपीएस में समाहित कर सेवा आईपीएस अधिकारियों को संदेश दिया गया कि मार्केट से अच्छे लोगों को पुलिस सेवा में शामिल किया जाएगा। बताया जाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार को विदेशों में भारत की बेहतर ब्रांडिंग करनी है। इसमें ये आईएफएस सफल नहीं हो रहे हैं। उन्होंने तय किया कि आईएफएस में कला, शिक्षा, विज्ञान, खेल, वाणिज्य आदि क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे लोगों को आईएफएस में शामिल किया जाए। इन लोगों को भारत का चेहरा बनाया जाएगा। सूत्रों का कहना है कि शुरुआती तौर पर करीब 65 लोगों अनुबंध के आधार पर आईएफएस में शामिल कर भारतीय दूतावासों, उच्चायोगों में तैनात किया जाएगा।
जल्द और मालामाल होंगे नौकरशाह
जल्द ही सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के तहत नौकरशाहों की सैलरी बढ़ जाएगी। अगर आखिरी वक्त में रिटायर सैन्य कर्मियों के लिए वन रैंक वन पेंशन की योजना आड़े नहीं आती तो आयोग अगले तीन महीनों में अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप सकता है। लेकिन, सवाल उठता है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों का सबसे ज्यादा फायदा किसे मिलेगा हैरानी की बात है कि उच्च स्तर की नौकरशाही में भी अजीब सी कास्ट हायर की है, जिसके टॉप पर इंडियन ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस यानी आईएएस अधिकारी विराजमान होते हैं। जबकि, बाकी सभी सर्विसेज के लोग उनके मातहत होते हैं। ना ही योग्यता, ना अनुभव, ना क्षेत्र की विशेषज्ञता, ना दक्षता और ना ही ईमानदारी इस कास्ट सिस्टम को बदल सकते हैं। यह ऐसा सिस्टम है जो यह सुनिश्चित करता है कि सिर्फ आईएएस अधिकारी ही टॉप पर पहुंच पाएं। इसकी एक मिसाल यहां भी देखी जा सकती है कि भारत सरकार के 57 सेक्रेटरीज में सिर्फ और सिर्फ दो नन-आईएएस ऑफिसर हैं। इनमें एक तो राष्ट्रपति के सचिव हैं और दूसरे मामूली से पोस्टल डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी हैं। हां, इतना जरूर है कि तकनीकी पदों पर वैज्ञानिकों और कानूनी सेवा के विशेषज्ञ कार्यरत हैं, लेकिन सभी गैर-तकनीकी पदों पर आईएएस ऑफिसर ही कुंडली मार कर जमे हैं और इनकी इन्हीं कारस्तानी की वजह से संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ इधर-उधर भटकते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर इंडियन पुलिस सर्विस (आईपीएस) ऑफिसर्स होम सेक्रटरीज के पोस्ट के लिए तो फॉरेस्ट सर्विस ऑफिसर वन एवं पर्यावरण विभाग के पदों के लिए सबसे योग्य होते हैं। इसी तरह इंडियन रेवेन्यू सर्विस (आईआरएस) ऑफिसर वाणिज्य या राजस्व सचिव के पद के आदर्श उम्मीदवार होते हैं। लेकिन, आईएएस ऑफिसरों ने इन सभी पदों को अपनी मिल्कियत बना ली है। इतना ही नहीं आईएएस ने ही इन सर्विसेज की राह में दीवार खड़ी कर कास्ट सिस्टम को सांगठिन रूप दे दिया है। पहली बाधा तो जॉइंट सेक्रेटरी के लिए पैनल निर्माण में है। यहां तक कि जॉइंट सेक्रेटरी पद की योग्यता पाने के लिए एक आईपीएस को अपने बैच के आईएएस के जॉइंट सेक्रेटरी के पैनल में आ जाने के दो से तीन साल बाद तक इंतजार करना होता है। उसके बाद दूसरी भारतीय सेवाओं और ग्रुप ए के केंद्रीय सेवाओं की बारी आती है। कुछ मामलों में तो एक आईएएस और एक गैर-आईएएस ऑफिसर के बीच की खाई 10 सालों तक हो जाती है। इससे दूसरे ऑफिसर्स अडिशनल सेक्रेटरी के पैनल में भी आने के अयोग्य हो जाते हैं। यह तो साफ हो चुका है कि आईएएस के सिवा दूसरी सेवाओं ऑफिसर्स सेक्रेटरी होने की रेस में पीछे छूट जाते हैं। अब कार्मिक विभाग के गड़बड़झाले पर भी नजर डाल लिया जाए। दरअसल, पैनल निर्माण और पोस्टिंग पर इसी विभाग का नियंत्रण होता है। सेक्रेटरी, कार्मिक विभाग, इसके एस्टेब्लिशमेंट ऑफिसर और सिविल सर्विसेज बोर्ड आदि जगहें सिर्फ और सिर्फ आईएएस ऑफिसरों से अंटी पड़ी रहती हैं। बस इंडियन फॉरेन सर्विस (आईएफएस) के ऑफिसर ही हैं जो अपनी हकमारी नहीं करने देते। शायद प्रवेश परीक्षाओं में टॉपर रहनेवाली उनकी पहचान से उन्हें मदद मिल जाती है।
पढ़ाई कुछ जिम्मेदारी कुछ
मौजूदा सिस्टम में आप क्या जानते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आप किसे जानते हैं यह बहुत महत्वपूर्ण है। कितनी हैरत की बात है कि एक ऑफिसर ने किस विषय का अध्ययन किया है या किस क्षेत्र में उसकी ट्रेनिंग हुई है, इसका कोई संबंध उसे मिली जिम्मेवारी से नहीं होता। मसलन, मुमकिन है कि एक डॉक्टर ताउम्र हेल्थ डिपार्टमेंट का मुंह नहीं देख सके, एक आईआईटीयन को कभी भी हाइवे प्लानिंग या पावर अथवा शहरी विकास मंत्रालय में अपनी दक्षता साबित करने का कभी मौका ही नहीं मिले। पूर्व हेल्थ सेक्रेटरी जयदेव चौधरी बताते हैं, इस मामले में ऐतिहासिक तौर पर अन्याय हुआ है। ऐडमिनस्ट्रेटिव रिफॉम्र्स कमिशन की तरह इसमें कोई खास सिफारिशें नहीं होतीं। और उन्हें सुनता भी कौन है कोई भी कांटों भरी राह पर कदम रखना नहीं चाहता। वैसे भी पे कमिशन तो सिर्फ वेतन, भत्ता और पेंशन से ही संबंधित है। आईपीएस और पारामिलिट्री ऑफिसरों को लगता है कि उन्हें अपने जूनियर साथियों से सफाईकर्मी, रसोइये, आया, चपरासी, माली और विभिन्न घरेलू कार्यों में मदद करने वालों की तरह ट्रीट करने का दैवीय अधिकार प्राप्त है। इसलिए, जिन्हें छत्तीसगढ़ और मणिपुर में उग्रवादियों से लडऩे की ट्रेनिंग मिली हुई है, वे साहेब के टॉइलट साफ कर रहे हों या मेमसाहेब के कपड़े धो रहे हों। ऑफिसर कॉन्स्टेबल्स और जवानों को अपने रैंक और पे के साथ मिले सरकारी लाभ की तरह ही देखते हैं। यहां तक कि जो काफी समय पहले रिटायर हो चुके हैं उनके घरों पर भी तीन से चार कॉन्स्टेबल होते हैं। दरअसल, कई ऐसे ऑफिसरों के उदाहरण भी सामने आए हैं जिनके पास 15 से 20 आदेशपालक हैं और जिनकी सैलरी पांच लाख रुपये तक बैठती है। सैन्य बलों और खासकर आर्मी में तो यह सिस्टम और भी बदतर है। यही वजह है कि आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव ईएएस शर्मा मौजूदा सिस्टम की खामियों को खत्म करने की जरूरत को सिद्दत से महसूस कर रहे हैं। उन्होंने कहा, शासन के तकनीकी उन्नयन, सिविल सर्वेसेज की उत्पादकता बढ़ाने और ऑफिसरों की सैलरी को उनकी कौशल के स्तर से मैच करवाने की दिशा में कदम उठाने की बहुत जरूरत है।

चहेतों के कारण चित हुए मंत्री

निजी एजेंसी की सर्वे रिपोर्ट से आलकमान चिंतित
स्टाफ के कारण मंत्री और प्रमुख सचिव में लगातार बढ़ रही दूरी
भोपाल। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और वरिष्ठ अफसरों के प्रयास से मप्र में लगातार विकास हो रहा है। लेकिन शिवराज मंत्रिमंडल के सदस्यों के स्टाफ की नाफरमानी के कारण कई योजनाएं मूर्त रूप नहीं ले पा रही हैं। इसके कारण मंत्रियों की परफार्मेंस खराब हो रही है। इसका खुलासा संघ और केंद्रीय संगठन द्वारा हाल ही में एक निजी एजेंसी द्वारा तैयार करवाई गई रिपोर्ट में हुआ है। यही नहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने स्टाफ के मोहफांस में फंसे कई मंत्री विभाग के प्रमुख सचिव को भी महत्व नहीं दे पा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है की कई प्रमुख सचिव बिना मंत्री के अनुमोदन और अनुशंसा के ही योजनाओं का खाका तैयार कर रहे हैं और मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री को रिपोर्ट दे रहे हैं। बताया जाता है कि केंद्रीय नेतृत्व इस रिपोर्ट का अध्ययन कर रहा है। जिसमें उल्लेखित है कि मप्र के काबीना मंत्री मुख्यमंत्री की बात हमेशा दरकिनार करते रहे हैं। मंत्रियों ने मुख्यमंत्री द्वारा पुराना स्टाफ न रखे जाने के फरमान को तुरंत ही पलीता लगा दिया था। जिसके कारण मंत्री के पीए और पीएस विभाग के वरिष्ठ अफसरों को मंत्री के पास फटकने तक नहीं देते हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। संभवत: मंत्रिमंडल विस्तार में यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
बताया जाता है कि मंत्रियों के खिलाफ संगठन के नेताओं द्वारा की जा रही शिकायतों का सत्यापन कराने के उद्देश्य से केंद्रीय संगठन ने यह सर्वे कराया है। इसके तहत मंत्रियों के विभाग में पदस्थ अफसरों-कर्मचारियों के अलावा संबंधित विभाग की योजनाओं का लाभ ले रहे हितग्राहियों और पार्टी कार्यकर्ताओं से चर्चा की गई है। साथ ही विभाग की योजनाओं के क्रियान्वयन में जुटी एजेंसियों और ठेकेदारों के भी मत लिए गए हैं। जिसमें यह तथ्य निकलकर सामने आया है कि मंत्रियों के स्टाफ के हस्तक्षेप के कारण कई योजनाएं-परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं। कुछ मंत्री तो पूरी तरह पीए और पीएस पर निर्भर हैं, इसका फायदा ये लोग जमकर उठा रहे हैं।
दरअसल, 21 दिसम्बर, 2013 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब अपनी कैबिनेट का गठन किया तो उन्होंने मंत्रियों को हिदायत दी थी कि वे अपने स्टाफ में अच्छे लोगों को रखें ताकि पिछली बार की तरह पार्टी और सरकार की छवि धूमिल न हो। लेकिन एक भी मंत्री ने मुख्यमंत्री की हिदायत नहीं सुनी और अपने चहेते लोगों को स्टाफ में रख लिया। ये वे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि प्रदेश में सत्ता किसी की भी हो, चाहे जो मंत्री बने इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अपने मैनेजमेंट से ये सरकार में अपना रसूख कायम रखते हैं। एक तो करौला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत इन पर खरी उतर रही है। यानी पहले से ही विवादित (करैलानुमा) इन अफसरों को ऐसे मंत्रियों (नीमनुमा )का साथ मिल गया है जिससे सरकार की छवि दागदार हो रही है। इससे भाजपा में शुद्धिकरण के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। ऐसा भी नहीं की इसकी भनक सरकार और संगठन को नहीं है। अपने कदावर मंत्रियों की करतूते जानने के बाद भी सरकार मजबूर है लेकिन संगठन ने सर्वे रिपोर्ट आने के बाद शुद्धिकरण के लिए किसी भी हद तक जाने का मन बना लिया है। बताया जाता है कि मध्यप्रदेश में इन दिनों मंत्रियों और उनके स्टाफ की करतूतों को लेकर उच्च स्तर पर जबरदस्त बवाल मचा है। सूत्र बताते हैं कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल की तिकड़ी इस मामले में परफार्मेंस और पार्टी के प्रति निष्ठा को आधार बनाकर बड़े निर्णय ले सकती है। मंत्रिमंडल में फेरबदल कर या उनके विभाग बदल कर इन विवादित मंत्रियों को सबक सिखाया जा सकता है ताकि मंत्रियों और अधिकारियों की जुगलबंदी से निजात मिल सके।
शिवराज सिंह चौहान सरकार पर मंत्रियों के विभाग और की निजी स्थापना में पदस्थ अधिकारी भारी पड़ रहे हैं। सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और स्वच्छता की वकालत के बीच मंत्रियों के निज सचिव, निज सहायक और विशेष सहायक जब-तब भ्रष्टाचार और अनियमितता को लेकर सुर्खियां बटोरते रहे हैं। भाजपा संगठन की नजर भी इस मामले में कुछ विशेष सहायकों पर टेढ़ी है, जिनके खिलाफ गंभीर मामलों में लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज है। प्रदेश में तीसरी बार भाजपा की सरकार बनने के बाद मंत्रियों के निजी स्टाफ में पदस्थ होने वाले अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बारे में संगठन ने गाइडलाइन जारी की थी। लेकिन अधिकांश मंत्रियों ने उसका पालन नहीं किया। मुख्यमंत्री के निर्देशों को दरकिनार कर वरिष्ठ मंत्री बाबूलाल गौर, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, गौरीशंकर बिसेन, कुसुम मेहदेले, यशोधरा राजे सिंधिया एवं भूपेंद्र सिंह अपनी पसंद के पुराने कर्मचारियों को निजी स्टाफ में रखने में कामयाब रहे।
इन मंत्रियों के चहेतों ने बिगाड़ी सरकार की छवि
मध्यप्रदेश के मंत्रियों में से कुछ को तो सत्ता में रहने का अच्छा खासा अनुभव है और उनमें भी कुछ ऐसे हैं जो नए हैं, लेकिन उनके स्टाफ में मंत्री के यहां रहने की हर काबिलियत मौजूद है। मंत्री स्टाफ की यही काबिलियत शिवराज सिंह की जीरो टालरेंस नीति को धता बता रही है। सूचना है कि लगभग सारे मंत्रियों के पास अरसे से ऐसा स्टाफ मौजूद है जो कोई भी शासन हो मंत्री के निकट पहुंचने की जुगाड़ जमा ही लेता है। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि मंत्री स्वयं ही अनुभवी स्टाफ की तलाश करते हैं जो मंत्री बंगलों से लेकर उनके निजी स्टाफ में रहने का अनुभव रखते हों। यह अनुभव बहुत काम का है और यही कारण है कि मंत्रियों के यहां जमें इन अनुभवियों को डिगाने का साहस किसी का नहीं है। 5-5, 10-10 वर्षों से मंत्रियों के अग्रणी मोर्चे पर तैनात यह धुरंधर बीच में ही काम निपटाने के माहिर हैं और कुछ तो इस चालाकी से काम कर डालते हैं कि मंत्रियों को भी भनक नहीं लगती। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ मंत्रियों को उनके स्टाफ के कारण परेशानी भी उठानी पड़ी है, लेकिन इन्हें बदलें तो बदलें कैसे। मुख्यमंत्री ने कुछ समय पहले जीएडी को निर्देशित किया था कि मंत्रियों के पीए, पीएस की नियुक्ति बहुत सोच-समझकर होनी चाहिए। जीएडी ने भी कई छन्ने लगाने की कोशिश की, लेकिन ये इतने सूक्ष्मजीवी हैं कि हर छन्ने से बाहर आ गए। जहां शिवराज सरकार के दूसरे कार्यकाल में कुछ मंत्रियों और उनके स्टाफ की करतूतों के कारण सरकार की छवि दागदार हुई थी, वहीं इस बार भी कई मंत्रियों ने अपने कुछ पुराने अफसरों पर विश्वास जताया है। आलम यह है कि कुछ मंत्रियों के निज या विशेष सहायक तो बरसों से जमे हुए हैं। इनमें से कई तो रिटायर होने के बाद भी एक्सटेंशन के आधार पर मंत्रीजी के निजी स्टाफ में जगह बनाए हुए हैं।
मलैया और पीपी वर्गीस और महिपाल सिंह की तिकड़ी
28 जून 2004 को तात्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के मंत्रिमंडल में जब जयंत मलैया को नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बनाया गया तब से लेकर आज तक महिपाल सिंह मंत्रीजी के सारथी बने हुए हैं। वहीं पीपी वर्गीस एक दशक से ज्यादा समय से वित्त मंत्री के स्टाफ में हैं। यहीं से रिटायर हो गए। अब दो साल से एक्सटेंशन पर काम संभाले हुए हैं। सारे अहम काम वर्गीस ही करते हैं। इन दोनों अफसरों का मंत्री पर इतना प्रभाव है कि विभाग के प्रमुख सचिव या अन्य अफसरों की दाल भी इनके आगे नहीं गलती है।
राय के बिना भार्गव के यहां पत्ता भी नहीं हिलता
मलैया की ही तरह पंचायत और ग्रामिण विकास मंत्री गोपाल भार्गव केडी कुकरेती और आरके राय की तिकड़ी के आगे बड़े-बड़े अफसर पानी भरते हैं। 28 जून 2004 को हुए मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के बाद एक जुलाई 2004 को गोपाल भार्गव को जब कृषि एवं सहकारिता विभाग का उत्तरदायित्व सौंपा गया तब से ही ये दोनों अधिकारी इनके साथ हैं। आलम यह है कि रिटायर होने के बाद भी मंत्री कुकरेती का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। कुकरेती की पदस्थापना के लिए मंत्री ने सरकार से नियमों में बदलाव भी करवाए। पहली बार संविदा नियुक्ति के रिटायर्ड अफसर को मंत्री का विशेष सहायक बनाने के लिए बाकायदा कैबिनेट में प्रस्ताव पारित किया गया। इसी तरह आरके राय इतने पॉवरफुल हैं कि मंत्री इनके बिना फैसले नहीं लेते हैं। ये एक दशक से ज्यादा समय से पीए हैं। कुकरेती, श्यामाचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, लक्ष्मीनारायण शर्मा, महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा एवं मुकेश नायक के साथ भी रहे हैं।
राजपूत के कारण मंत्री की नहीं सुनते पीएस
पशुपालन, विधि मंत्री कुसुम मेहदेले और कोमल राजपूत का साथ करीब ढाई दशक पुराना है। जब मेहदेले 1990 में पहली बार मंत्री बनी तब से अब तक राजपूत का साथ बना हुआ है। कुसुम मेहदेले के विभागों की लंबी फेहरिस्त है। इस कारण राजपूत अधिक पावरफुल हैं। मंत्री भले ही चुप रहें लेकिन राजपूत हर जगह हस्तक्षेप करते हैं या यूं कह सकते हैं कि विधि-विधायी, पशुपालन, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विकास, कुटीर एवं ग्रामोद्योग जैसे पांच महकमे का वे स्वयं को मुखिया मानते हैं। इस कारण वे कई बार विभागीय प्रमुख सचिवों के ऊपर हावी होने की कोशिश करते हैं। ऐसे में राजपूत के व्यवहार की खीज प्रमुख सचिव मंत्री पर निकालते हैं। जिससे विभाग में काम प्रभावित होते हैं। विभाग की नब्ज पर कोमल सिंह राजपूत की अच्छीखासी पकड़ है। किसी सिरफिरे ने राजपूत की प्रापर्टी की फोटो खींचकर ऊपर तक शिकायत कर डाली है, लेकिन मंत्री महोदया को इससे कोई मतलब नहीं है। कहने वाले तो कथित रूप से यह भी कहते हैं कि राजपूत ने पिछली बार मंत्री जी की पार्टनरशिप में दुकान भी खोलकर रखी थी। इसी कारण से राजपूत वह भी कोमल के आदेश भी नहीं हुए हैं।
कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन और शिव हरोड़े की जोड़ी भी चर्चा में है। हरोड़े करीब सात साल से बिसेन के पीए हैं। उमाशंकर गुप्ता यूं तो सख्त, ईमानदार और दबंग मंत्री होने का ढिंडोरा पीटते हैं, लेकिन उनके यहां जाने से स्टाफ भी झिझकता है। शायद उनकी दबंगई से लोग भय खाते होंगे पर नरोत्तम मिश्रा की उदारता का कोई ओर छोर नहीं है। वीरेन्द्र पाण्डेय स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा के विश्वसनीय हैं, पिछले 10 वर्षों से मंत्री दफ्तर संभाल रहे हैं और सरकार ने उनके आदेश भी नहीं किए। परंतु वे ही सर्वेसर्वा हैं। उनके घर पर सबेरे से ही डॉक्टरों की लंबी कतार लग जाती है। इन्हें मंत्री से ज्यादा वजनदार माना जाता है। पीए के साथ ही राजनीतिक सलाहकार का भी काम करते हैं। वहीं उद्योग मंत्री यशोधरा राजे और एम सी जैन का साथ एक दशक से ज्यादा समय का है। राजे के यहां जमे हुए जैन ही महाराज को झेल पाते हैं बाकी कोई पीए, पीएस उनके यहां जाना पसंद नहीं करता कारण साफ है कि मंत्री किसी भी तरीके के स्टाफ के कारण अपनी बदनामी सहन नहीं कर सकती है।
मंत्री बदलते रहे पीए, पीएस वही
कई विभागों के पीए,पीएस तो इतने जुगाडू या यूं कहें कि पॉवरफुल हैं कि मंत्री बदलते रहते हैं लेकिन वे नहीं बदले। और जब पीए, पीएस नहीं बदले तो सीएम का जीरो टालरेंस कैसे संभव होता। हुआ भी यही। मैनेजमेंट के माहिर इन अफसरों ने जैसा चाहा मंत्रियों ने वैसा ही किया। जिसका परिणाम यह हुआ की कई मंत्रियों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। इसमें विनोद सूरी का नाम सबसे बदनाम रहा है। पूर्व मंत्री करण सिंह वर्मा की नैय्या डुबाने वाले विनोद सूरी शेजवार को भी पहले हार का मुंह दिखा चुके हैं। क्योंकि मंत्री के व्यवहार से ज्यादा उसके स्टाफ का व्यवहार अच्छा होना चाहिए। उसके प्रत्यक्ष उदाहरण विनोद सूरी हैं जो कइयों बार मंत्री के स्टाफ में रहे परंतु मंत्री एक टर्म से ज्यादा पूरा नहीं कर पाए। इस बार भी उन्होंने शेजवार के यहां गोटी बिछाने का प्रयास किया था, लेकिन उनकी दाल नहीं गल सकी। बसंत बाथरे वन मंत्री डॉ गौरीशंकर शैजवार के स्टाफ में। कांग्रेस सरकार के दौरान वे तत्कालीन पीएचई मंत्री दीपक सक्सेना के साथ रहे। भाजपा सरकार में भी नागेंद्र सिंह के पीए रहे। ऐसे ही राजघराने की मंत्री माया सिंह के यहां पर विजय शर्मा को पदस्थ किया है वह अनूप मिश्रा, श्यामाशरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा के यहां भी कार्य कर चुके हैं। आखिर माया सिंह को विजय शर्मा ही क्यों पसंद आए। अंतर सिंह आर्य के यहां राजीव सक्सेना नामक बाबू मंत्री का खास हैं, लेकिन अब बैलेंस बनाने के लिए सेंधवा से कोई ज्ञान सिंह आर्य भी पधार गए हैं। सुनने में आया है कि ये मंत्री के रिश्तेदार हैं। अंतर सिंह ने तो पिछली बार स्वेच्छानुदान की सारी राशि रिश्तेदारों को ही दिलवा दी थी, जिसमें एक विशेष सहायक की विशेष भूमिका थी। इसी प्रकार रामपाल सिंह के यहां पर भी दिलीप सिंह नामक एक अनुभवी की तैनाती हुई है जो कभी नागेंद्र सिंह के स्पेशल सेक्रेटरी हुआ करते थे। उन पर पीडब्ल्यूडी में रहते हुए अनियमितता का आरोप भी लगा है। दिलीप सिंह ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह के साथ भी रहे। विजयशाह के यहां वर्षों से जमे हुए गुना कलेक्टोरेट के बाबू जेके राठौर के हाथ में सबकुछ है। अपने खासमखास लोगों की पैरवी करने में मंत्री किस सीमा तक जा सकते हैं इसका श्रेष्ठ उदाहरण ज्ञान सिंह द्वारा की गई वह सिफारिश है जिसमें उन्होंने किसी एमएल आर्य को तैनात करने के लिए चि_ी भेजी थी। डिप्टी कलेक्टर एमएल आर्य सजायाफ्ता हैं उन पर अनियमितता का आरोप लग चुका है, लेकिन मंत्री महोदय को इससे क्या मतलब। गुलाब भुआड़े शिक्षा मंत्री पारस जैन के पसंदीदा हैं। भुआड़े कांग्रेस शासन में महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और पूर्व उपमुख्यमंत्री जमुनादेवी के स्टाफ में भी रहे।
ऐसे में जन विश्वास की कसौटी पर खरे उतरने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कुछ ज्यादा ही सचेत होना पड़ेगा। सत्ता के चाल, चरित्र और चेहरे को और साफ सुथरी छवि प्रदान करने के लिए शिवराज को सबसे पहले अपने मंत्रियों की एक विश्वसनीय टीम बनानी होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि के कारण ही भाजपा राज्य में तीसरी बार सत्ता में लौटी है और इसी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए उनमें जनहित की नीतियों एवं कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने के लिए समुचित बदलाव लाने का संकल्प साफ झलकता है। फिलहाल तो नौकरशाही की जो तस्वीर नजर आती है, वह प्रशासनिक दृष्टिï से ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। अफसरों एवं प्रशासनिक अमले में फैला भ्रष्टाचार ऐसा रोग है जो राज्य को सेहत को बेहतर बनाने तथा इसे खुशहाली का टानिक देने की सरकार की तमाम कोशिशों को निगल रहा है और इसके बावजूद सरकारी आंकड़ेबाजी से सरकार को भ्रमित किया जा रहा है। समीक्षा बैठक भर से काम चलने वाला नहीं है बल्कि जब तक ईमानदार अफसरों को पुरस्कृत करने तथा बेईमान अफसरों को दंडित करने का अभियान नहीं चलेगा तब तक राज्य की प्रगति में बेईमान अफसरशाही रोड़ा बनी रहेगी।
ये रहीं विवादित जोडिय़ा———-
रामकृष्ण कुसमरिया और उमेश शर्मा-
अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए बदनाम पूर्व कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया और उमेश शर्मा की जोड़ी हमेशा विवादों में रहती है। बाबाजी के नाम से जाने वाले कुसमरिया को अपने पीए के कारण बदनामी और तमाम आरोप झेलने पड़े। उन पर पीए के माध्यम से वसूली के आरोप लगे। पशुपालन मंत्री रहते हुए मछली ठेके गलत तरीके से दिए, जिस पर विवाद हुआ। इसी वजह से उनसे विभाग छिना। उनके पीए उमेश शर्मा मूलत: डीएसपी थे, लेकिन रामकृष्ण कुसमरिया उन्हें अपना विशेष सहायक बनाए हुए थे। कहा जाता है कि कृषि विभाग में शर्मा की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं खड़कता था। शर्मा के खिलाफ 18 जून 1010 को ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज हुआ था, फिर भी वे कुसमरिया के प्रिय बने रहे।
रंजना बघेल और अरूण निगम
प्रदेश में दूसरी बार भाजपा की सरकार बनते ही संगठन ने मंत्रियों के निज स्टाफ में पदस्थ होने वाले अधिकारियों के कार्यों की जांच कराने के बाद ही इन्हें रखने के निर्देश दिए थे। खासकर कुछ मंत्रियों के स्टाफ में संघ से जुडे कार्यकर्ताओं को भी निज सहायक एवं निज सचिव बनाया गया है, लेकिन तात्कालीन महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार रंजना बघेल एक ऐसे शिक्षक को पाल रही थीं जो कि भष्टाचार के मामले में गले-गले फंसे हुए हैं। वहीं रंजना बघेल पर कुपोषण के कलंक से परेशान सरकार ने पूरा भरोसा जताया था, लेकिन धांधली के एक नहीं दर्जनों आरोप उन पर थे। आरोप था कि विभाग को उनके पीए अरूण निगम चला रहे थे। अधिकारियों की पोस्टिंग विभाग का सबसे अहम काम बना हुआ था। अरुण निगम शिक्षा विभाग के भ्रष्ट अफसरों की सूची में शामिल रहे थे। उन पर स्कूलों में होने वाले नलकूप खनन में लाखों रुपए की हेराफेरी के आरोप लगे थे। इनकी शिकायत भाजपा के वरिष्ठ नेता कृष्णमुरारी मोघे ने इंदौर संभागायुक्त से की थी। तात्कालीन इंदौर संभागायुक्त ने निगम को तत्काल सेवा से बर्खास्त करने के लिए कलेक्टर खरगोन को सिफारिश भेजी थी। इनके खिलाफ पुलिस प्रकरण दर्ज करने के भी निर्देश दिए गए। मामला अदालत भी पहुंचा। अदालत ने संभागायुक्त के फैसले को सही ठहराया पर निगम सुरक्षित स्थान पर पहुंच ही गए।
जगदीश देवड़ा और राजेन्द्र सिंह पूर्व जेल मंत्री जगदीश देवड़ा के विशेष सहायक राजेंद्र सिंह गुर्जर को सीएम के निर्देश पर पद से हटा कर मूल विभाग भेजा गया है। देवड़ा के साथ छह-सात साल से जुड़े रहे राजेंद्र को हटाने की वजह खाचरौद जेल से सिमी के कार्यकर्ताओं को रिहा करने में उनकी भूमिका थी। लेकिन बताया जाता है कि इनको हटाने के लिए मंत्री पर पहले से ही दबाव था। राजेन्द्र सिंह देवड़ा के यहां सर्वशक्तिमान थे। बताया जाता है कि परिवहन विभाग में उस दौरान जितने लोग डेपुटेशन पर गए, उनके लिए लाइजनींग इन्होंने ही की थी। वे व्यापमं घोटाले में भी आरोपी बनाए गए हैं।
पारस जैन और राजेंद्र भूतड़ा
पूर्व खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री पारस जैन शकर एवं दाल खरीदी के मामले के बाद अब फोर्टिफाइड आटे को लेकर गंभीर आरोपों से घिरे थे। इनके विशेष सहायक राजेंद्र भूतड़ा ने मंत्री जी के नाम पर ठेकेदारों और अफसरों से जमकर वसूली की थी। एक खाद्य निरीक्षक द्वारा आत्महत्या किए जाने को लेकर उसकी पत्नी ने भूतड़ा पर तबादले के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगाए थे। इंस्पेक्टर के परिजनों ने मंत्री पर आरोप लगाए। भूतड़ा को कुछ माह पहले मुख्यमंत्री के निर्देश पर हटाया गया था।
करण सिंह वर्मा अजय कुमार शर्मा
ईमानदारी के लिए मिसाल के तौर पर पहचाने जाने वाले तात्कालीन राजस्व एवं पुनर्वास राज्यमंत्री करण सिंह वर्मा ने अजय कुमार शर्मा को अपना विशेष सहायक बना रखा था। राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शर्मा के खिलाफ 12 जनवरी 2009 को लोकायुक्त संगठन में प्रकरण दर्ज हुआ था और जांच चल रही थी। उसके बाद भी मंत्री की उन पर मेहरबानी बरसती रही।
मंत्रियों के साथ तालमेल से काम कर रही महिला आईएएस
एक तरफ प्रदेश में मंत्रियों, उनके स्टाफ और अफसरों के बीच जंग छिड़ी हुई है वहीं जिन विभागों में महिला आईएएस के हाथों में कमान है वे मंत्रियों के साथ सामंजस्य बिठाकर काम कर रही हैं। इनकी अपने विभाग में इतनी पकड़ है कि पुरुष अफसर इनके हर आदेश मानने मजबूर हैं। ऐसी ही कुछ महिला आईएएस की विभागों में सख्त पकड़, कार्य के प्रति लगन और उनकी सरलता के चर्चे उनके विभागों में सुने जा सकते हैं। प्रदेश में पदस्थ महिला अफसरों में 81 बैच की अजिता वाजपेयी पांडे सदस्य सचिव योजना आयोग के पद से अगस्त में ही रिटायर हुई हैं, लेकिन सबसे बडेÞ विभाग की जिम्मेदारी 82 बैच की आईएएस अरुणा शर्मा के हाथों में हैं। उनके अधीन प्रमुख सचिव स्तर की 90 बैच की अधिकारी अलका उपाध्याय को जहां एमपीआरआरडीए का सीईओ बना रखा है, वहीं पंचायत राज आयुक्त के रूप में 92 बैच के आईएएस रघुवीर श्रीवास्तव पदस्थ हैं, तो मनरेगा में केंद्र सरकार से कुछ समय पहले लौटी 93 बैच की स्मिता भारद्वाज को सीईओ बनाया गया है। विकास आयुक्त कार्यालय में सीसीएफ हेमवती वर्मन को मिशन संचालक तथा आईएफएस विभाष ठाकुर को भी संचालक की जिम्मेदारी दे रखी है। यानी अरुणा शर्मा को इतने अफसरों से काम करवाना पड़ता है। वर्ष 1984 बैच की आईएएस कंचन जैन को कुछ समय पहले ही सरकार ने प्रशासन अकादमी का डीजी पदस्थ किया है, जबकि इसके पहले से संचालक के रूप में 87 बैच की शिखा दुबे पदस्थ हैं। अकादमी में ट्रेनिंग आदि की जिम्मेदारी भी महिला अफसरों के पास है। खासकर प्रज्ञा अवस्थी सहित तीन महिला अफसरों के बीच सामंजस बनाने के लिए कंचन जैन को काफी मशक्कत करनी होगी। 1988 बैच की आईएएस वीरा राणा को राज्य सरकार ने कुछ समय पहले ही प्रमुख सचिव पर्यटन विभाग की जिम्मेदारी दी है। इसके पहले वह आयुक्त हाथकरघा एवं हस्तशिल्प विकास निगम रह चुकी हैं। एक समय जीएडी कार्मिक की सफलतापूर्वक जिम्मेदारी संभाल चुकी राणा को आईएएस अफसरों को भी डील करना आता है। पर्यटन में उनकी मदद राप्रसे अफसर भावना बालिम्वे द्वारा की जा रही है। विदेश से कुछ समय पहले लौटी 87 बैच की आईएएस गौरी सिंह को स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी सौंपी है। तेजतर्रार गौरी सिंह को चार आईएएस के साथ सामंजस्य बैठना पड़ता है। इनमें स्वास्थ्य कमिश्नर पंकज अग्रवाल, एनआरएचएम फैज अहमद किदवई, संचालक स्वास्थ्य डॉ. नवनीत मोहन कोठारी, सचिव सूरज डामोर का नाम है।
महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री माया सिंह हैं। जिस तरह मंत्री तेज हैं, उसी तरह विभाग में आयुक्त महिला सशक्तिकरण के पद पर 92 बैच की कल्पना श्रीवास्तव तथा 98 बैच की पुष्पलता सिंह एकीकृत बाल विकास का काम संभाल रही हैं। वैसे विभाग के पीएस जेएन कंसोटिया है, परंतु लाड़ली लक्ष्मी से लेकर कई योजनाओं को लागू कराने में कल्पना श्रीवास्तव की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 94 बैच की आईएएस रश्मि अरुण शमी वर्तमान में सचिव जीएडी कार्मिक का काम संभाल रही हैं, यहां आईएएस तथा डिप्टी कलेक्टरों की पोस्टिंग विभागीय जांच से लेकर प्रमोशन का भी काम किया जाता है। जबकि स्नेहलता श्रीवास्तव, विजया श्रीवास्तव तथा रश्मि शुक्ला शर्मा आदि केंद्र में पदस्थ हैं और इन पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।

प्रदेश के लिए बोझ बने निगम मंडल

50,00,00,00,000 के घाटे में डूबे निगम-मंडलों को लूटने नेताओं में लगी होड़
भोपाल। प्रदेश में संचालित निगम मंडलों 50,00,00,00,000 रूपए के घाटे में चल रहे हैं, बावजुद इसके सरकार इन निगम मंडलों को घाटे से उबारने का प्रयास करने की बजाय इनमें अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में सफेद हाथी बिठाने में जुट गई है। कहा तो यह जा रहा है कि अध्यक्ष-उपाध्यक्षों की नियुक्ति से विभागों की आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायता मिलेगी, लेकिन स्थिति इसके विपरीत होनी है। विभाग में काम हो या न हो अध्यक्षों और उपाध्यक्षों पर हर माह लाखों रूपए स्वाहा होने हैं। यह पहली बार नहीं होगा। निगम-मंडलों की स्थापना के समय से ही ऐसा होता आया है जिसका परिणाम है कि वर्तमान समय में प्रदेश में संचालित 23 निगम मंडलों में से मात्र 2 ही निगम-मंडल ऐसे हैं जो अपनी स्थापना से लेकर आज तक लाभ में चल रहे हैं। शेष 21 निगमों में से कुछ निगम पिछले पांच सालों में अच्छी स्थिति में आ पाए हैं तो कुछ निगम ऐसे भी हैं जो स्थापना से लेकर आज तक सफेद हाथी बने हुए हैं। आज वर्तमान परिदृश्य में कई निगमों के हालात इतने बदतर हैं कि अब उन्हें बंद करने के अतिरिक्त और कोई चारा सरकार के पास नहीं है। ऐसे में अगर इन निगम-मंडलों में किसी तजुर्बेकार प्रशासनिक व्यक्ति के अनुभवों का सहारा लिया जाता तो इनमें सुधार की स्थिति बन सकती थी। लेकिन परंपरानुसार सरकार इन निगम मंडलों में नेताओं को पदस्थ करने का सिलसिला शुरू कर दिया है। आलम यह है कि जिन निगम, मंडलों और प्राधिकरणों में नियुक्ति हो गई है उनमें अध्यक्ष के पदभार ग्रहण के तमाशे में ही लाखों रूपए बहा दिए गए हैं।
उल्लेखनीय है कि निगम-मंडलों की पंरपरा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सरकारी योजनाओं को प्रभावी बनाने के लिए की थी। मंशा यह थी कि अर्धसरकारी उपक्रमों के जरिए जनता को योजनाओं का प्रभावी लाभ दिलाया जा सके, लेकिन वर्तमान में इसका ढर्रा ही बदल गया और राजनीतिक रसूख के चलते निगम-मंडल की शाख पर बट्टा लग गया। इसके चलते ही निगम-मंडल बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं। प्रदेश में 'सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसायटीÓ के आधार पर निगम-मंडलों की स्थापना की गई थी। इनकी स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यह था कि राज्य में सुव्यवस्था, विकास, रोजगार और आम लोगों को सुख सुविधाएं मिले। लेकिन निगम-मंडल अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। निगम-मंडलों का बुनियादी आर्थिक ढांचा गड़बड़ा गया है। कर्मचारियों की मानें तो निगम-मंडलों के आर्थिक हालात लगातार खराब हो रहे हैं। पूंजी निवेश के कारण सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। इससे निगम-मंडलों का राजस्व थम रहा और उनमें तालाबंदी की नौबत बन रही है। सड़क परिवहन, गंदी बस्ती निर्माण मंडल, लेदर डेव्हलपमेंट, चर्म उद्योग, राज्य उद्योग एवं वस्त्र निगम सहित कई निगम मंडल बंद हो गए हैं। कई बंद होने की कगार पर पहुंच रहे हैं। कारण इनमें कर्मचारियों की कमी है, वहीं जो अमला कार्यरत है, उसे महंगाई के इस दौर में शासकीय कर्मचारियों की भांति छठा वेतनमान सहित अन्य प्रासंगिक सुविधा नहीं मिल पा रही है।
घाटे की राह पर मंडल
एक ओर जहां हमारे नेता निगम-मंडलों की लालबत्तियों का सुख भोगने के लिये हर संभव कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आपको जानकर हैरानी होगी कि प्रदेश के ज्यादातर निगम-मंडल गलत नीतियों और लगातार बढ़ रहे घाटे के कारण बदहाली की स्थिति में हैं। पिछले कई सालों में सरकार कई निगमों और मंडलों को बंद कर चुकी है, तो वहीं कई निगम-मंडल बंद होने की कगार पर हैं। इससे कर्मचारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा होने वाला है। आंकड़ों की बात करें तो प्रदेश में निगम-मंडलों पर 709893.86 की लोन पूंजी है। पहले निगमों में 2,51,210 कर्मचारी काम कर रहे थे लेकिन लगातार छटनी और निगमों के बंद होने से अब इनकी संख्या आधी रह गई है, जबकि कर्ज तीन गुना बढ़ गया है। कर्मचारियों की तीस फीसदी से ज्यादा छटनी के बाद भी प्रदेश में निगमों का कुल घाटा 50 अरब तक पंहुच गया है। सूत्रों के मुताबिक निगमों की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण निजीकरण और प्रायवेट सेक्टर को लाभ पंहुचना है। उदाहरण के तौर पर निजी बस मालिकों को लाभ पहुंचाने के लिए प्रदेश के सड़क परिवहन निगम को बंद किया गया और अब इसी की तर्ज पर निजी वेयर हाउस संचालकों को लाभ पंहुचाने के लिए वेयरहाउसिंग निगम को कमजोर किया जा रहा है, जिससे आने वाले कुछ सालों में यह निगम भी बंद होने की कगार पर पंहुच जाएगा। नौकरशाही की गलत नीतियों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के 32 निगम मंडल घाटे में चल रहे हैं, जिनमें से घाटे के चलते कुछ को बंद भी कर दिया गया है। यह घाटा हर साल बढ़ता जा रहा है।
सरकार की उपेक्षा के कारण अभी तक करीब 50 अरब का घाटा निगम-मंडलों को हुआ है। इसके पीछे एक वजह अधिकारियों की गलत नीतियां भी रही है। तिलहन संघ प्रदेश में सोयाबीन संग्रहण के लिए अग्रणी संस्था थी, जो अफसरशाही के स्वार्थो के चलते बंद हो गई है। इसी प्रकार दुग्ध संघ में टोकन से दूध निकालने की जो मशीन लगाई गई है, इससे भोपाल शहर को ही 20 लाख का घाटा हुआ है। जबकि प्रदेश में संचालित संघ 80 करोड़ 62 लाख के घाटे में आ गये हैं। आधिकारिक स्तर पर बन रहीं गलत नीतियां और हर स्तर पर निजीकरण को दिए जा रहे बढ़ावे के कारण निगम-मंडलों की हालत दिन पर दिन खराब होती जा रही है।
20 साल से नहीं हुई निगम-मंडलों में नई नियुक्तियां
राज्य के निगम मंडल अब धीरे-धीरे बंद होने की कगार पर पहुंच रहे है। कर्मचारियों की पीड़ा है कि पिछले 20 वर्षो से सरकार ने निगम-मंडलों में कोई भर्ती नहीं की है। इन निगम मंडलों में अधिकांश पद खाली है। इन पदों को भरने की किसी को चिंता नहीं है। यहां तक कि वित्त विभाग भी आपत्तियां लगाकर पद की मंजूरी नहीं दे रहा है। निगम मंडल के अधिकारियों को आशंका है कि अगर यही हाल रहा तो कुछ सालों में ज्यादातर लाभ वाले निगम मंडल खाली हो जाएंगे। जानकारी के अनुसार प्रदेश में निगम-मंडलों में 20 वर्ष से नई नियुक्तियां नहीं हुई है। इन उपक्रमों के प्रबंध संचालक समय-समय पर वित्त विभाग को नई नियुक्तियों के प्रस्ताव भेज चुके है। तब भी राज्य सरकार की तरफ से नियुक्तियां की अनुमति नहीं मिल रही है। इस वजह से कामकाज पर दिन प्रतिदिन असर पड़ रहा है। यहां तक कि आरक्षित पदों की भी भर्ती टाली जा रही है। वन विकास निगम प्रबंधन करीब दस वर्षो से लगातार पदों की नियुक्तियों हेतु पत्र व्यवहार कर रहा है तब भी नियुक्तियों की अनुमति नहीं मिल रही है। इस निगम में 600 पद रिक्त हैं। इन पदों के रिक्त होने से वृक्षारोपण का कार्य प्रभावित हो रहा है साथ ही जंगलों की रक्षा करने वाले रेंजरों का भी अकाल है। यही हाल नागरिक आपूर्ति निगम का है जो कि हर साल लाखों मीट्रिक टन गेहूं खरीदी का लक्ष्य तय करता है पर निगम में अधिकारियों की बेहद कमी है। जानकारी के अनुसार, गृह निर्माण मंडल-700, खनिज निगम-100, पाठ्य पुस्तक निगम-100, पर्यटन निगम-125, लघु उघोग निगम- 150, बीज एवं फार्म विकास निगम-100 पद खाली हैं। अधिकारियों का भी कहना है कि अरसे से पद रिक्त है। समय-समय पर राज्य शासन को नई नियुक्तियां करने के प्रस्ताव भेजे गए है। इन पदों की नियुक्तियों की अनुमति जल्द से जल्द मिलना चाहिए। निगम मंडल अधिकारी कर्मचारी महासंघ के प्रांताध्यक्ष अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि निगम मंडलों में जो पद रिक्त है उन पदों को तत्काल भरा जाना चाहिए अन्यथा लाभ में चल रहे उपक्रम भी घाटे में आ जाएंगे। राज्य शासन से इन उपक्रमों को आर्थिक मदद तो मिलती नहीं है पर कम से कम निगमों को संचालित करने के लिए पदों की नियुक्तियों की मंजूरी दी जाए ताकि काम काज और अनुकूल ढंग से हो सके।
निगम मंडलों के हालात जैसे-जैसे बिगड़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे कर्मचारियों की फजीहत होती जा रही है। हालात यह हैं कि निगम मंडल कर्मचारियों के ऊपर निगम बंद होने की तलवार हमेशा लटकती रहती है। पता नहीं कब कौन सा निगम बंद हो जाए। हाल ही में कुछ ऐसा ही माहौल राज्य सड़क परिवहन निगम का बना हुआ है। पता नहीं कब उसमें ताले लग जाएं। प्रदेश के 23 निगमों में से मात्र 6 निगम ही ऐसे हैं जिन्होंने अपने कर्मचारियों को छटवां वेतनमान दिया है। इनमें मध्यप्रदेश स्टेट सिविल सप्लाईज कारपोरेशन, मध्यप्रदेश पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन, मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम, मध्यप्रदेश वेयर हाउसिंग एण्ड लॉजिस्टिक्स कारपोरेशन शामिल हैं। कई निगम ऐसे भी हैं जहां अभी चौथा वेतनमान ही चल रहा है।
राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण बदहाल हुए निगम-मंडल
जानकार बताते हैं कि निगम-मंडलों में होने वाली राजनीतिक नियुक्तियों के चलते अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बनने वाले नेता निगम-मंडलों को अपने स्तर एवं विवेक से चलाने की कोशिश करते हैं। उनके जाने के बाद वह सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं और फिर नए नेता आते ही नए नियम बनने लगते हैं। दरअसल, निगम मंडलों के गठन के समय प्रबंध संचालकों को दैनिक कार्य और व्यवसाय को सुचारू रुप से संचालित करने और अध्यक्ष एवं बोर्ड ऑफ डायरेक्टर को निगम के नीति निर्धारण तथा महत्वपूर्ण निर्णय लेने का कार्य सौंपा गया था। देखा जाए तो यह व्यवस्था एक तरह से चैक-बैलेंस के लिए की गई थी, लेकिन धीरे-धीरे निगम-मंडल के अध्यक्ष पद पर राजनीतिक लोगों का कब्जा होने लगा और इन लोगों ने संस्था के मूल उद्देश्यों के बजाय अपने राजनैतिक और व्यक्तिगत हितों को पूरा करने में रुचि ली साथ ही सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए निगमों के उत्पादों और सेवाओं को भी प्रभावित किया। इतना ही नहीं इन लोगों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए समर्थकों और रिश्तेदारों को अनावश्यक रूप से भर्ती कर लिया। ऐसे में जहां एक ओर निगमों पर अनावश्यक स्थापना व्यय बढ़ा वहीं दूसरी ओर निगमों में अयोग्य और अकुशल कर्मचारियों की भर्ती होने से उनकी व्यवसायिक कुशलता भी कम हो गई। जिसके चलते निगमों में अपेक्षाकृत लाभ की बजाए हानि हो रही है। हालांकि यह भी सही है कि निगम-मंडलों की स्थापना लाभ कमाने के लिए नहीं, बल्कि वस्तुओं, सेवाओं आधारभूत संरचनाओं का निर्माण एवं विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर की गई थी, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि निगम-मंडलों को लाभ नहीं कमाना चाहिए। यदि निगम-मंडल लाभ कमाते हैं तो वो ज्यादा अच्छी तरह से जनहित में कार्य कर पाएंगे और राज्य सरकार पर भी किसी प्रकार का बोझ नहीं रहेगा। वर्ष 2004 में राज्य योजना मंडल के तत्कालीन उपाध्यक्ष सोमपाल ने राज्य शासन को सभी निगम-मंडलों के क्रियाकलापों, प्रबंधन एवं उद्देश्यों की एक बार फिर से नए सिरे से समीक्षा करने के लिए लिखा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि जो निगम-मंडल आवश्यक हैं उनका पुनर्गठन करने का प्रयास किया जाना चाहिए। जिससे वो अपने मौलिक उद्देश्यों की पूर्ति एवं पहले से बेहतर कार्य करने में सफल हो सकें। जिन निगम-मंडलों के उद्देश्यों की पूर्ति हो चुकी है या वे अनावश्यक हो गए हैं उन्हें बन्द कर देना चाहिए। उन्होंने एक दर्जन से अधिक निगम-मंडलों को अनुपयुक्त बताते हुए कुछ को बन्द करने और कुछ को एक-दूसरे में मर्ज करने की सलाह भी राज्य सरकार को दी थी, लेकिन निगम-मंडल राजनीतिक लोगों के लिए पुनर्वास केन्द्र होने के कारण तत्कालीन उपाध्यक्ष सोमपाल की सलाह को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
न काम, न अधिकार फिर काहें का तामझाम
प्रदेश के अधिकांश निगम-मंडलों में अभी अध्यक्ष का पद रिक्त है। सरकार को घोषणा करनी है, मगर कोई नेता कुर्सी संभाले उससे पहले ही ऑफिसों के डेकोरेशन और वास्तु को ठीक करने में लाखों रुपए खर्च कर दिए गए। मप्र पर्यटन निगम के पूर्व अध्यक्ष ने टूरिज्म प्रमोशन का आधार लेकर जर्मनी, फिलीपिंस और ब्रिटेन की यात्राएं कर लीं, लेकिन कोई फायदा नजर नहीं आया। मप्र वेयर हाउसिंग एंड लॉजिस्टिक कार्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष भी ऑस्ट्रेलिया गए। यहां भी लाखों का पेट्रोल फंका। ये तो सिर्फ बानगी है। इस समय मप्र में 23 निगम-मंडल (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम) है, जिनमें अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद सिर्फ राजनीतिक शानोशौकत के लिए हैं। कई पूर्व अध्यक्ष भी यह मानते हैं। वे कहते हैं कि निगम-मंडलों में न कुछ करने को है, और न ही फैसले लेने का अधिकार। मगर इन पदों को खत्म करने की बात पर वे टिप्पणी करने से बचते हैं। जबकि दो साल पहले ही सार्वजनिक उपक्रम विभाग अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद खत्म कर कमान प्रबंध संचालक को देने की सिफारिश कर चुका है। निर्णय उद्योग विभाग को लेना है, क्योंकि सार्वजनिक उपक्रम विभाग उद्योग विभाग में मर्ज हो चुका है। सफेद हाथी बने इन निगम-मंडलों की फिजूलखर्ची को देखते हुए चार निगम बंद भी किए जा चुके हैं। अब सरकार फिर बड़े पैमाने पर इनमें अध्यक्ष-उपाध्यक्ष नियुक्त करने जा रही है। अनुमान है कि जनता की जेब पर करीब 10 करोड़ का बोझ बढ़ेगा। सारे निगम-मंडलों में राज्य और केंद्र सरकार की अंशपूंजी करीब 600 करोड़ रुपए लगी हुई है। वही कई ऐसे भी हैं जो राजनीतिक नियुक्ति को सही मानते हैं। मप्र राज्य पशुधन एवं कुक्कुट विकास निगम के पूर्व अध्यक्ष शैतान सिंह पाल कहते हैं कि निगम अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद जरूरी है। ये होने चाहिए।
मप्र एग्रो इंडस्ट्रीज कार्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष रामकिशन चौहान कहते हैं कि चेयरमैन-एमडी में तालमेल अच्छा हो और नेता अनुभवी हो तो काम तो होता है। यह पद सिर्फ खानापूर्ति नहीं हैं। कुछ मामलों में जरूर पूछ-परख कम होती है, लेकिन ये पद अप्रासंगिक नहीं हैं। वहीं महिला वित्त एवं विकास निगम की पूर्व अध्यक्ष सुधा जैन कहती हैं कि ये पद खत्म नहीं होना चाहिए। यह बात सही है कि न करने को ज्यादा होता है और न ही बड़े फैसले लेने की छूट है। बस राजनीतिक पद है। काम के मौके कम हैं, लेकिन कुछ असर तो रहता है।
तीन साल से केंद्र को नहीं भेजीे बैलेंस शीट
भारत सरकार के रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज कॉर्पोरेट मंत्रालय ने मध्यप्रदेश के निगम-मंडलों द्वारा बीते तीन वर्षो से वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट तीन साल से नहीं भेजी है, जबकि इस लापरवाही पर छह माह से अधिक समय होने पर कड़े दंड का प्रावधान है, परन्तु प्रदेश के निगम- मंडल इस मामले में लगातार लापरवाह बने हुए हैं। इसमें महत्वपूर्ण निगम- मंडलों में मप्र एमपी एग्रो, लउनि, मप्र आदिवासी वित्त विकास निगम, टे्रड एंड इंवेस्टमेंट, मप्र पुलिस गृह निर्माण मंडल जैसे निगम शामिल है। केंद्र सरकार से फटकार मिलने के पश्चात उद्योग विभाग ने ऐसे सभी निगम-मंडलों को पत्र लिखते हुए तत्काल बैलेंस शीट भेजने के निर्देश दिए हैं। मध्यप्रदेश के सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा समय से वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट कंपनी अधिनियम 19562013 के अंतर्गत प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया है, लेकिन प्रदेश के तीन दर्जन से अधिक निगम मंडलों ने वर्ष 2011-12, वर्ष 2012-13 एवं वर्ष 2013-14 का वार्षिक रिटर्न एवं बेलेंसशीट नहीं भेजी हैं। भारत सरकार के रजिसट्रार ऑफ कंपनीज कॉर्पोरेट मंत्रालय ने आदेश क्रमांक 2687 भेजते हुए राज्य सरकार को फटकार लगाई है। यह पत्र मिलने के पश्चात उद्योग विभाग ने सभी सार्वजनिक उपक्रमों को पत्र लिखते हुए स्पष्ट किया है कि तीन वर्षो के वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट प्रस्तुत नहीं किए गए हैं, जबकि कंपनी अधिनियम 2013 के अंतर्गत पंजीकृत निगम-मंडलों को वित्तीय वर्ष की समाप्ति के पश्चात छह माह के अंदर लेखा तैयार कर वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट फाइल करना अनिवार्य है अन्यथा विलंब अनुसार कडेÞ दंड का प्रावधान किया गया है। पत्र में यह भी सुझाव दिया गया है कि कंपनी अधिनियम 2013 में कुछ संशोधन के कारण यदि शासकीय कंपनियों को अपना वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट आदि प्रस्तुत करने में कोई कठिनाई हो तो वे रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज ग्वालियर से सहायता प्राप्त कर सकते हैं।
इन्होंने जमा नहीं किया वर्ष 2011-12 का रिटर्न
मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, मप्र स्टेट टैक्सटाइल कॉर्पोरेशन, मप्र पर्यटन विकास निगम, मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग वित्त विकास निगम, अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, भोपाल सिटी लिंक लिमिटेड, ग्वालियर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, उज्जैन सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, सागर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, कटनी सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, मप्र लघु उद्योग निगम, मप्र एग्रो इंडस्ट्रीज, मप्र पुलिा हाउसिंग कॉर्पोरेशन, एमपी पॉवर लिमिटेड कंपनी, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम, विक्रम उद्योगपुरी लिमिटेड, नर्मदा बिजनेस प्रोजेक्ट कंपनी तथा मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम सागर का नाम शामिल हैं। इन्हीं कंपनियों ने वर्ष 2012-13 का वार्षिक रिटर्न एवं बैलसेंशीट भी प्रस्तुत नही की।
वर्ष 2013-14 में भी लापरवाही
मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, मप्र लघु उद्योग निगम, मप्र स्टेट एग्रो इंडस्ट्रीज, मप्र टैक्सटाइल कॉर्पोरेशन, मप्र स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन, मप्र पुलिस हाउसिंग कॉर्पोरेशन, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम रीवा, मप्र रविदास लिमिटेड, मप्र हस्तशिल्प विकास निगम, मप्र ऊर्जा विकास निगम, मप्र इंडस्ट्रीयल इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड, मप्र आदिवासी वित्त विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग वित्त विकास निगम, मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी, मप्र मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र पश्चिम विद्युत वितरण कंपनी, मप्र रोड डेव्लपमेंट कॉर्पोरेशन, मप्र क्रिस्प आईटी पार्क, मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट आदि है।
प्रदेश में निगम मंडलों का गठन 1 जुलाई 1981 को हुआ था। तब इन्हें सार्वजनिक उपक्रम ब्यूरो का नाम दिया गया था। छह साल बाद 18 जून 1986 को इसका नाम बदलकर सार्वजनिक उपक्रम विभाग रखा गया। प्रदेश में 27 निगम मंडलों का गठन किया गया था। वर्तमान में इन निगमों में से 23 निगम संचालित हैं शेष 4 निगमों को बंद कर दिया गया है, जिनमें मध्यप्रदेश राज्य भूमि विकास निगम, मध्यप्रदेश लेदर डेवलपमेंट कारपोरेशन, मध्यप्रदेश स्टेट टेक्सटाईल कारपोरेशन लिमिटेड एवं मध्यप्रदेश राज्य उद्योग निगम लिमिटेड शामिल हैं। प्रदेश में संचालित इन 23 निगमों में कुल अंशपूंजी 57348.19 लाख रुपए हैं। जिसमें राज्य शासन की अंशपूंजी 54195.51 लाख, केन्द्र शासन की अंशपूंजी 428.96 लाख और अन्य स्रोतों की अंशपूंजी 2723.72 लाख रुपए इन निगम मंडलों में लगी हुई है।
प्रदेश में कई निगम-मंडल फायदे में चल रहे हैं। इनमें मप्र पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन वर्ष 2005-06 से, मप्र बीज एवं फार्म विकास निगम वर्ष 2007-08 से, मप्र नागरिक आपूर्ति निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र वेयर हाउसिंग एवं लाजिस्टिक कारपोरेशन निरंतर, मप्र पर्यटन विकास निगम वर्ष 2004-05 से, मप्र पशुधन एवं कुक्कट विकास निगम वर्ष 2006-07, मप्र हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड 2004-05 से, मप्र वन विकास निगम वर्ष 1975 से, मप्र लघु उद्योग निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट फेसिलिटेशन कारपोरेशन वर्ष 2005-06 से, द प्राविडेंट इन्वेस्टमेंट कम्पनी, मप्र खनिज विकास निगम निरंतर एवं मप्र वित्त निगम इंदौर वर्ष 2005-06 से लाभ में चल रही हैं। वहीं मध्यप्रदेश स्टेट एग्रो इण्डस्ट्रीज डवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड, मध्यप्रदेश स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड, मध्यप्रदेश महिला वित्त एवं विकास निगम एवं मध्यप्रदेश स्टेट इण्डस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड हानि में चल रहे हैं।
प्रदेश में संचालित 23 निगम मंडलों में 12 निगम मंडल ऐसे हैं जिनमें ऑडिट लंबित हैं, वे हैं मप्र ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट फेसिलिटेशन कारपोरेशन, मप्र राज्य औद्योगिक विकास निगम, मप्र औद्योगिक केन्द्र विकास निगम, मप्र पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन लिमिटेड, द प्राविडेंट इन्वेस्टमेंट कम्पनी लि. मुंबई, मप्र राज्य इलेक्ट्रोनिक विकास निगम, मप्र स्टेट एग्रो इण्डस्ट्रीज डवलपमेंट कारपोरेशन लि.,मप्र राज्य पर्यटन विकास निगम, हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम, मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग तथा अल्प संख्यक वित्त एवं विकास निगम, मप्र राज्य सड़क परिवहन निगम एवं मप्र ऊर्जा नियामक आयोग ।
अफसरों पर अभी भी सरकार का भरोसा
यह बात लगातार कही जाती रही है कि निगम, मंडल आयोग और प्राधिकरणों की बदहाली के लिए अफसर जिम्मेदार हैं लेकिन सरकार फिर भी उन पर भरोसा कायम रखे हुए है। राजनेता पिछले पौने दो साल से निगम-मंडल और आयोगों में नियुक्तियां पाने के लिए टकटकी लगाए बैठे हैं, इसके विपरित प्रदेश की सरकारी सेवा से विस्तार होने वाले ब्यूरोक्रेट्स के पुनर्वास में सरकार ने कभी कोई लेट-लतीफी नहीं की। दर्जनभर से ज्यादा अफसर ऐसे हैं, जो रिटायर होते ही लालबत्ती पा गए और दर्जा प्राप्त मंत्री भी बन गए। इनमें 1972 बैच के आईएएस अफसर राकेश चंद्र साहनी तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सबसे अधिक प्रिय हैं। जनवरी 2010 में मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्ति के बाद साहनी ऊर्जा सलाहकार बनाए गए और दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री से नवाजा गया। इसके बाद मध्यप्रदेश विद्युत नियामक आयोग में साहनी को चेयरमैन बनाया गया। जहां जनवरी 2015 को 65 साल की आयु पूरी हो जाने के कारण कार्यकाल खत्म हुआ। इसके बाद पिछले महीने राज्य सरकार ने फिर साहनी को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया। वहीं 1972 बैच के ही आईपीएस अफसर स्वराज पुरी भी रिटायरमेंट के बाद दूसरी बार अपना पुनर्वास करवाने में सफल रहे। हाल ही में उन्हें दोबारा फीस नियामक आयोग का सदस्य बनाया गया है। 1982 बैच के आईएएस अफसर डॉ. देवराज बिरदी को भी रिटायर होते ही राज्य सरकार ने राकेश साहनी का उत्तराधिकारी बना दिया। बिरदी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा सहित मध्यप्रदेश राज्य विद्युत नियामक आयोग का चेयरमैन बनाया गया। पदमवीर सिंह 1977 बैच के मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस हैं। सेवा अवधि पूरी होने के बाद राज्य सरकार ने इन्हें मध्यप्रदेश वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। अगस्त 2013 को स्टील मंत्रालय से सचिव के पद से रिटायर हुए डीआरएस चौधरी मध्यप्रदेश 1977 बैच के आईएएस हैं। चौधरी को राज्य सरकार ने राज्य वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। व्यापमं के चेयरमैन पद पर रहते हुए मलय राय मुख्यसचिव वेतनमान से रिटायर हुए थे। राय के राज्य वित्त आयोग में पुनर्वास का मामला बेहद दिलचस्प है। 1977 बैच के इस अफसर का पुनर्वास तब किया गया जब मुख्यमंत्री विदेश दौरे पर थे।1978 बैच के अतिरिक्त आईएएस आर परशुराम मार्च 2013 को रिटायर हुए, तब सरकार ने पहले उन्हें छह महीने की सेवावृद्धि दी, बाद में राज्य निर्वाचन आयोग का चेयरमैन बनाया। इसी प्रकार विधि विभाग के प्रमुख सचिव रहे केडी खान फिलहाल राज्य सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त हैं। वहीं रिटायर्ड आईएएस एचएल त्रिवेदी सूचना आयुक्त हैं। मानवाधिकार आयोग में वीएम कंवर आईपीएस रहे हैं। फिलहाल कार्यवाहक अध्यक्ष हैं। अरूण भट्ट सेवानिवृत्ति के बाद से सीएम के ओएसडी हैं।

मंत्री-अफसर में तकरार, पीए चला रहे सरकार

मंत्रियों के निजी स्टाफ की नाफमानी से बिगड़े हालात
भोपाल। मप्र में पिछले छह माह से विकास की गति सुस्त पड़ी है। इसकी वजह मंत्रियों की उनके विभाग के प्रमुख सचिव और सचिवों से पटरी नहीं बैठना है। इस संदर्भ में कई कबीना मंत्रियों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान से मिलकर अधिकारियों के कारनामों की शिकायत की। कुछ मंत्रियों ने तो मुख्यमंत्री से यहां तक कह दिया कि यदि उनके विभाग में यही अधिकारी जमे रहें, तो उन्हें विजन 2018 को पूरा करने में दिक्कत होगी। वहीं प्रशासनिक अधिकारी भी सरकार से खुश नजर नहीं आ रहे हैं। अधिकारियों का कहना है कि विभागीय व्यवस्था से अंजान मंत्री अपना आदेश विभाग पर जबरदस्ती थोपाना चाहते हैं। वहीं मंत्री और अफसरों की तकरार का फायदा मंत्रियों का स्टाफ उठा रहा है। शिवराज मंत्रिमंडल के सदस्यों के स्टाफ की नाफरमानी के कारण कई योजनाएं मूर्त रूप नहीं ले पा रही हैं। इसके कारण मंत्रियों की परफार्मेंस खराब हो रही है। यही नहीं अपने स्टाफ के मोहफांस में फंसे कई मंत्री विभाग के प्रमुख सचिव को भी महत्व नहीं दे पा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है की कई प्रमुख सचिव बिना मंत्री के अनुमोदन और अनुशंसा के ही योजनाओं का खाका तैयार कर रहे हैं और मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री को रिपोर्ट दे रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि संगठन और संघ ने भी शिवराज सरकार के दूसरे कार्यकाल में कई बार प्रदेश के नौकरशाहों और मंत्रियों के निजी स्टाफ के खिलाफ मुख्यमंत्री से शिकायत की थी। जिसके बाद 21 दिसम्बर, 2013 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब अपनी कैबिनेट का गठन किया तो उन्होंने मंत्रियों को हिदायत दी थी कि वे अपने स्टाफ में अच्छे लोगों को रखें ताकि पिछली बार की तरह पार्टी और सरकार की छवि धूमिल न हो। लेकिन एक भी मंत्री ने मुख्यमंत्री की हिदायत नहीं सुनी और अपने चहेते लोगों को स्टाफ में रख लिया। ये वे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि प्रदेश में सत्ता किसी की भी हो, चाहे जो मंत्री बने इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अपने मैनेजमेंट से ये सरकार में अपना रसूख कायम रखते हैं। एक तो करैला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत इन पर खरी उतर रही है। यानी पहले से ही विवादित (करैलानुमा) इन अफसरों को ऐसे मंत्रियों (नीमनुमा )का साथ मिल गया है जिससे सरकार की छवि दागदार हो रही है। सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और स्वच्छता की वकालत के बीच मंत्रियों के निज सचिव, निज सहायक और विशेष सहायक जब-तब भ्रष्टाचार और अनियमितता को लेकर सुर्खियां बटोरते रहे हैं। भाजपा संगठन की नजर भी इस मामले में कुछ विशेष सहायकों पर टेढ़ी है, जिनके खिलाफ गंभीर मामलों में लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज है। प्रदेश में तीसरी बार भाजपा की सरकार बनने के बाद मंत्रियों के निजी स्टाफ में पदस्थ होने वाले अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बारे में संगठन ने गाइडलाइन जारी की थी। लेकिन अधिकांश मंत्रियों ने उसका पालन नहीं किया। मुख्यमंत्री के निर्देशों को दरकिनार कर वरिष्ठ मंत्री बाबूलाल गौर, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, गौरीशंकर बिसेन, कुसुम मेहदेले, यशोधरा राजे सिंधिया एवं भूपेंद्र सिंह अपनी पसंद के पुराने कर्मचारियों को निजी स्टाफ में रखने में कामयाब रहे।
इनके विभाग में प्रमुख सचिव पर भारी निजी स्टाफ
मध्यप्रदेश के मंत्रियों में से कुछ को तो सत्ता में रहने का अच्छा खासा अनुभव है और उनमें भी कुछ ऐसे हैं जो नए हैं, लेकिन उनके स्टाफ में मंत्री के यहां रहने की हर काबिलियत मौजूद है। मंत्री स्टाफ की यही काबिलियत शिवराज सिंह की जीरो टालरेंस नीति को धता बता रही है। सूचना है कि लगभग सारे मंत्रियों के पास अरसे से ऐसा स्टाफ मौजूद है जो कोई भी शासन हो मंत्री के निकट पहुंचने की जुगाड़ जमा ही लेता है। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि मंत्री स्वयं ही अनुभवी स्टाफ की तलाश करते हैं जो मंत्री बंगलों से लेकर उनके निजी स्टाफ में रहने का अनुभव रखते हों। यह अनुभव बहुत काम का है और यही कारण है कि मंत्रियों के यहां जमें इन अनुभवियों को डिगाने का साहस किसी का नहीं है। 5-5, 10-10 वर्षों से मंत्रियों के अग्रणी मोर्चे पर तैनात यह धुरंधर बीच में ही काम निपटाने के माहिर हैं और कुछ तो इस चालाकी से काम कर डालते हैं कि मंत्रियों को भी भनक नहीं लगती। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ मंत्रियों को उनके स्टाफ के कारण परेशानी भी उठानी पड़ी है, लेकिन इन्हें बदलें तो बदलें कैसे। मुख्यमंत्री ने कुछ समय पहले जीएडी को निर्देशित किया था कि मंत्रियों के पीए, पीएस की नियुक्ति बहुत सोच-समझकर होनी चाहिए। जीएडी ने भी कई छन्ने लगाने की कोशिश की, लेकिन ये इतने सूक्ष्मजीवी हैं कि हर छन्ने से बाहर आ गए। जहां शिवराज सरकार के दूसरे कार्यकाल में कुछ मंत्रियों और उनके स्टाफ की करतूतों के कारण सरकार की छवि दागदार हुई थी, वहीं इस बार भी कई मंत्रियों ने अपने कुछ पुराने अफसरों पर विश्वास जताया है। आलम यह है कि कुछ मंत्रियों के निज या विशेष सहायक तो बरसों से जमे हुए हैं। इनमें से कई तो रिटायर होने के बाद भी एक्सटेंशन के आधार पर मंत्रीजी के निजी स्टाफ में जगह बनाए हुए हैं। इससे भाजपा में शुद्धिकरण के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। बताया जाता है कि मध्यप्रदेश में इन दिनों मंत्रियों और उनके स्टाफ की करतूतों को लेकर उच्च स्तर पर जबरदस्त बवाल मचा है।
नाथ और जुलानिया पर भारी पड़ रहे वर्गीस और महिपाल
जल संसाधन, वित्त एवं वाणिज्यिक कर, योजना, आर्थिक एवं सांख्यिकी मंत्री जयंत मलैया काफी अनुभवी और सलिकेदार मंत्री हैं। वे अपने विभागों में समन्वय बनाकर काम करने पर विश्वास रखते हैं। लेकिन उनका निजी स्टाफ विभाग के वरिष्ठ अफसरों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। इस कारण वित्त विभाग के अपर मुख्य सचिव अजय नाथ और जल संसाधन विभाग के प्रमुख सचिव राधेश्याम जुलानिया अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। बताया जाता है कि इन्होंने मंत्री से उनके निजी स्टाफ की शिकायत भी की है। लेकिन स्टाफ अपने रूख पर कायम है। दरअसल, मलैया के स्टाफ में शामिल पीपी वर्गीस और महिपाल सिंह मंत्रीजी के नूर हैं। 28 जून 2004 को तात्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के मंत्रिमंडल में जब जयंत मलैया को नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बनाया गया तब से लेकर आज तक महिपाल सिंह मंत्रीजी के सारथी बने हुए हैं। वहीं पीपी वर्गीस एक दशक से ज्यादा समय से वित्त मंत्री के स्टाफ में हैं। यहीं से रिटायर हो गए। अब दो साल से एक्सटेंशन पर काम संभाले हुए हैं। सारे अहम काम वर्गीस ही करते हैं। इन दोनों अफसरों का मंत्री पर इतना प्रभाव है कि विभाग के प्रमुख सचिव या अन्य अफसरों की दाल भी इनके आगे नहीं गलती है।
राय के बिना भार्गव के यहां पत्ता भी नहीं हिलता
मलैया की ही तरह पंचायत और ग्रामिण विकास मंत्री गोपाल भार्गव केडी कुकरेती और आरके राय की तिकड़ी के आगे बड़े-बड़े अफसर पानी भरते हैं। 28 जून 2004 को हुए मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के बाद एक जुलाई 2004 को गोपाल भार्गव को जब कृषि एवं सहकारिता विभाग का उत्तरदायित्व सौंपा गया तब से ही ये दोनों अधिकारी इनके साथ हैं। आलम यह है कि रिटायर होने के बाद भी मंत्री कुकरेती का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। कुकरेती की पदस्थापना के लिए मंत्री ने सरकार से नियमों में बदलाव भी करवाए। पहली बार संविदा नियुक्ति के रिटायर्ड अफसर को मंत्री का विशेष सहायक बनाने के लिए बाकायदा कैबिनेट में प्रस्ताव पारित किया गया। इसी तरह आरके राय इतने पॉवरफुल हैं कि मंत्री इनके बिना फैसले नहीं लेते हैं। 1982 बैच की आईएएस अरुणा शर्मा पंचायत और ग्रामिण विकास की अपर मुख्य सचिव हैं और वे मंत्री के स्टाफ को अपने पास फटकने नहीं देती हैं। लेकिन मंत्री का स्टाफ एमपीआरआरडीए की सीईओ अलका उपाध्याय, पंचायत राज आयुक्त रघुवीर श्रीवास्तव, स्मिता भारद्वाज, हेमवती वर्मन, विभाष ठाकुर पर अपना प्रभाव कायम रखने की कोशिश करता रहता है जिस कारण अंदरूनी टकराव चलता रहता है।
पांच प्रमुख सचिवों से पावरफुल राजपूत
पशुपालन, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विकास कुटीर एवं ग्रामोद्योग, विधि एवं विधायी कार्य, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री कुसुम महदेले के विभाग के पांच प्रमुख सचिवों पर उनके चहेते कोमल राजपुत भारी पड़ रहे हैं। इस कारण मंत्री और अफसरों में दूरी बनी हुई है। आलम यह है कि पशुपालन विभाग के प्रमुख सचिव प्रभांशु कमल, मछुआ कल्याण तथा मत्स्य विकास विभाग की प्रमुख सचिव सलीना सिंह, कुटीर एवं ग्रामोद्योग विभाग, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण, मत्स्य पालन एवं मछुआ कल्याण विभाग प्रमुख सचिव अरूण तिवारी और विधि एवं विधायी कार्य विभाग प्रमुख सचिव विरेन्दर सिंह का मंत्री से लगभग अबोला है। मंत्री अफसरों से अधिक कोमल राजपुत पर विश्वास करती हैं। उल्लेखनीय है कि मंत्री कुसुम मेहदेले और कोमल राजपूत का साथ करीब ढाई दशक पुराना है। जब मेहदेले 1990 में पहली बार मंत्री बनी तब से अब तक राजपूत का साथ बना हुआ है। कुसुम मेहदेले के विभागों की लंबी फेहरिस्त है। इस कारण राजपूत अधिक पावरफुल हैं। मंत्री भले ही चुप रहें लेकिन राजपूत हर जगह हस्तक्षेप करते हैं या यूं कह सकते हैं कि विधि-विधायी, पशुपालन, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विकास, कुटीर एवं ग्रामोद्योग जैसे पांच महकमे का वे स्वयं को मुखिया मानते हैं। इस कारण वे कई बार विभागीय प्रमुख सचिवों के ऊपर हावी होने की कोशिश करते हैं। ऐसे में राजपूत के व्यवहार की खीज प्रमुख सचिव मंत्री पर निकालते हैं। जिससे विभाग में काम प्रभावित होते हैं। विभाग की नब्ज पर कोमल सिंह राजपूत की अच्छीखासी पकड़ है। किसी सिरफिरे ने राजपूत की प्रापर्टी की फोटो खींचकर ऊपर तक शिकायत कर डाली है, लेकिन मंत्री महोदया को इससे कोई मतलब नहीं है। कहने वाले तो कथित रूप से यह भी कहते हैं कि राजपूत ने पिछली बार मंत्री जी की पार्टनरशिप में दुकान भी खोलकर रखी थी। इसी कारण से राजपूत वह भी कोमल के आदेश भी नहीं हुए हैं।
लोक निर्माण में तू डाल-डाल मैं पात-पात
लोक निर्माण विभाग में तो मंत्री सरताज सिंह और प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल में तू डाल-डाल मैं पात-पात चल रहा है। बताया जाता है कि प्रमुख सचिव की कड़क मिजाजी की गाज ठेकेदारों, भ्रष्ट अफसरों और इंजीनियरों पर लगातार गिर रही है। इससे विभाग में हड़कंप मचा हुआ है। प्रमुख सचिव का यह आक्रामक रूख मंत्री और विभाग के अन्य अधिकारियों को पसंद नहीं आ रहा है। उसमें मंत्री का निजी स्टाफ भी शामिल है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सड़कों, पुल-पुलियों तथा भवनों के निर्माण कार्यो में भ्रष्टाचार करने वाले लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों को पहले निलंबित किया जाता है और कुछ दिन के बाद बहाल भी कर दिया जाता है। खासकर विभाग के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल द्वारा फील्ड में किए गए दौरे के समय निर्माण कार्यो में मिली गड़बडिय़ों के चलते उन्हें तत्काल निलंबित करने के निर्देश दिए जाते हैं और बाद में आरोप पत्र देने के स्थान पर बहाल कर दिया जाता है। यह खेल काफी समय से चल रहा है। यहां तक कि मुख्यमंत्री के गृह जिले में सरकार को लगभग 21 करोड़ का चूना लगाने वाले ठेकेदार का मामला सामने आने के बाद छह इंजीनियरों को निलंबित किया गया, मगर कुछ समय बाद ही उनकी बहाली भी कर दी गई। प्रदेश में चल रहे सड़कों, पुल- पुलियों तथा भवनों के निर्माण कार्यो में होने वाली गड़बडिय़ों पर नजर रखने का काम चीफ इंजीनियर, अधीक्षण यंत्री और कार्यपालन यंत्री को करना चाहिए, मगर इनकी ठेकेदारों से मिलीभगत रहती है, जिसके कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है। विभाग के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल की सख्ती तो दिखाई दे रही है, परन्तु निलंबित किए जाने वाले इंजीनियरों की कुछ समय बाद ही बहाली पर भी सवाल उठ रहे हैं।
महारानी को पानी पिला रहे सुलेमान
अपने रौबदार व्यक्तित्व के कारण अच्छे-अच्छों को सबक सीखाने वाली महारानी यानी उद्योग मंत्री यशोधरा राजे की उनके विभाग के प्रमुख सचिव मोहम्मद सुलेमान से नहीं बन रही है। दरअसल, सुलेमान भी अपने तरीके से काम करने के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में मंत्री उनसे जो अपेक्षा करती हैं वे उस पर खरे नहीं उतरते हैं। यही नहीं विभाग के आयुक्त वीएल कांताराव भी मंत्री को लगातार गुमराह कर रहे हैं। इसके पीछे वजह बताई जा रही है कि यशोधरा से अधिक उनके निजी स्टाफ के फरमान से ये दोनों अफसर परेशान रहते हैं। दरअसल, यशोधरा अपना सारा विभागीय कार्य अपने पीए एमसी जैन के मार्फत करवाती हैं। यशोधरा राजे और एम सी जैन का साथ एक दशक से ज्यादा समय का है। राजे के यहां जमे हुए जैन ही महाराज को झेल पाते हैं बाकी कोई पीए, पीएस उनके यहां जाना पसंद नहीं करता कारण साफ है कि मंत्री किसी भी तरीके के स्टाफ के कारण अपनी बदनामी सहन नहीं कर सकती है।
खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विजयशाह के यहां वर्षों से जमे हुए गुना कलेक्टोरेट के बाबू जेके राठौर के हाथ में सबकुछ है। अपने खासमखास लोगों की पैरवी करने में मंत्री किस सीमा तक जा सकते हैं इसका श्रेष्ठ उदाहरण ज्ञान सिंह द्वारा की गई वह सिफारिश है जिसमें उन्होंने किसी एमएल आर्य को तैनात करने के लिए चि_ी भेजी थी। डिप्टी कलेक्टर एमएल आर्य सजायाफ्ता हैं उन पर अनियमितता का आरोप लग चुका है, लेकिन मंत्री महोदय को इससे क्या मतलब। गुलाब भुआड़े शिक्षा मंत्री पारस जैन के पसंदीदा हैं। भुआड़े कांग्रेस शासन में महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और पूर्व उपमुख्यमंत्री जमुनादेवी के स्टाफ में भी रहे।
पारस जैन और भूतड़ा से कई अफसर नाराज
पूर्व खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री पारस जैन शकर एवं दाल खरीदी के मामले के बाद अब फोर्टिफाइड आटे को लेकर गंभीर आरोपों से घिरे थे। इनके विशेष सहायक राजेंद्र भूतड़ा ने मंत्री जी के नाम पर ठेकेदारों और अफसरों से जमकर वसूली की थी। एक खाद्य निरीक्षक द्वारा आत्महत्या किए जाने को लेकर उसकी पत्नी ने भूतड़ा पर तबादले के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगाए थे। इंस्पेक्टर के परिजनों ने मंत्री पर आरोप लगाए। भूतड़ा को कुछ माह पहले मुख्यमंत्री के निर्देश पर हटाया गया था।
ये भी हैं चर्चा में
कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन और शिव हरोड़े की जोड़ी भी चर्चा में है। हरोड़े करीब सात साल से बिसेन के पीए हैं। उमाशंकर गुप्ता यूं तो सख्त, ईमानदार और दबंग मंत्री होने का ढिंडोरा पीटते हैं, लेकिन उनके यहां जाने से स्टाफ भी झिझकता है। शायद उनकी दबंगई से लोग भय खाते होंगे पर नरोत्तम मिश्रा की उदारता का कोई ओर छोर नहीं है। वीरेन्द्र पाण्डेय स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा के विश्वसनीय हैं, पिछले 10 वर्षों से मंत्री दफ्तर संभाल रहे हैं और सरकार ने उनके आदेश भी नहीं किए। परंतु वे ही सर्वेसर्वा हैं। उनके घर पर सबेरे से ही डॉक्टरों की लंबी कतार लग जाती है। इन्हें मंत्री से ज्यादा वजनदार माना जाता है। पीए के साथ ही राजनीतिक सलाहकार का भी काम करते हैं।
कई विभागों के पीए,पीएस तो इतने जुगाडू या यूं कहें कि पॉवरफुल हैं कि मंत्री बदलते रहते हैं लेकिन वे नहीं बदले। और जब पीए, पीएस नहीं बदले तो सीएम का जीरो टालरेंस कैसे संभव होता। हुआ भी यही। मैनेजमेंट के माहिर इन अफसरों ने जैसा चाहा मंत्रियों ने वैसा ही किया। जिसका परिणाम यह हुआ की कई मंत्रियों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। इसमें विनोद सूरी का नाम सबसे बदनाम रहा है। पूर्व मंत्री करण सिंह वर्मा की नैय्या डुबाने वाले विनोद सूरी शेजवार को भी पहले हार का मुंह दिखा चुके हैं। क्योंकि मंत्री के व्यवहार से ज्यादा उसके स्टाफ का व्यवहार अच्छा होना चाहिए। उसके प्रत्यक्ष उदाहरण विनोद सूरी हैं जो कइयों बार मंत्री के स्टाफ में रहे परंतु मंत्री एक टर्म से ज्यादा पूरा नहीं कर पाए। इस बार भी उन्होंने शेजवार के यहां गोटी बिछाने का प्रयास किया था, लेकिन उनकी दाल नहीं गल सकी। बसंत बाथरे वन मंत्री डॉ गौरीशंकर शैजवार के स्टाफ में। कांग्रेस सरकार के दौरान वे तत्कालीन पीएचई मंत्री दीपक सक्सेना के साथ रहे। भाजपा सरकार में भी नागेंद्र सिंह के पीए रहे। ऐसे ही राजघराने की मंत्री माया सिंह के यहां पर विजय शर्मा को पदस्थ किया है वह अनूप मिश्रा, श्यामाशरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा के यहां भी कार्य कर चुके हैं। आखिर माया सिंह को विजय शर्मा ही क्यों पसंद आए। अंतर सिंह आर्य के यहां राजीव सक्सेना नामक बाबू मंत्री का खास हैं, लेकिन अब बैलेंस बनाने के लिए सेंधवा से कोई ज्ञान सिंह आर्य भी पधार गए हैं। सुनने में आया है कि ये मंत्री के रिश्तेदार हैं। अंतर सिंह ने तो पिछली बार स्वेच्छानुदान की सारी राशि रिश्तेदारों को ही दिलवा दी थी, जिसमें एक विशेष सहायक की विशेष भूमिका थी। इसी प्रकार रामपाल सिंह के यहां पर भी दिलीप सिंह नामक एक अनुभवी की तैनाती हुई है जो कभी नागेंद्र सिंह के स्पेशल सेक्रेटरी हुआ करते थे। उन पर पीडब्ल्यूडी में रहते हुए अनियमितता का आरोप भी लगा है। दिलीप सिंह ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह के साथ भी रहे।
ऐसे में जन विश्वास की कसौटी पर खरे उतरने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कुछ ज्यादा ही सचेत होना पड़ेगा। सत्ता के चाल, चरित्र और चेहरे को और साफ सुथरी छवि प्रदान करने के लिए शिवराज को सबसे पहले अपने मंत्रियों की एक विश्वसनीय टीम बनानी होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि के कारण ही भाजपा राज्य में तीसरी बार सत्ता में लौटी है और इसी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए उनमें जनहित की नीतियों एवं कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने के लिए समुचित बदलाव लाने का संकल्प साफ झलकता है। फिलहाल तो नौकरशाही की जो तस्वीर नजर आती है, वह प्रशासनिक दृष्टिï से ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। अफसरों एवं प्रशासनिक अमले में फैला भ्रष्टाचार ऐसा रोग है जो राज्य को सेहत को बेहतर बनाने तथा इसे खुशहाली का टानिक देने की सरकार की तमाम कोशिशों को निगल रहा है और इसके बावजूद सरकारी आंकड़ेबाजी से सरकार को भ्रमित किया जा रहा है। समीक्षा बैठक भर से काम चलने वाला नहीं है बल्कि जब तक ईमानदार अफसरों को पुरस्कृत करने तथा बेईमान अफसरों को दंडित करने का अभियान नहीं चलेगा तब तक राज्य की प्रगति में बेईमान अफसरशाही रोड़ा बनी रहेगी।

बिजली के लिए 6,00,00,00,000 की जमीन की होगी बंदरबाट

मध्यप्रदेश की सस्ती जमीन का इस्तेमाल करने मल्ट्रीनेशन कंपनियां हुई सक्रिय
डीएमआरसी, नालको और अन्य कंपनियों की नजर मध्य प्रदेश के संसाधनों पर
भोपाल। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की तर्ज पर देश की मल्टीनेशनल कंपनियां मध्य प्रदेश के संसाधनों को दोहन करके सोलर एनर्जी से बिजली उत्पादित कर अपना खजाना भरने की तैयारी कर रही हैं। शुरुआत दिल्ली मेट्रो ने की है। मेट्रो ट्रेन चलाने के लिए जरूरी 500 मेगावाट बिजली मध्यप्रदेश में उत्पादन करेगी। अगर सब कुछ सही रहा तो जल्द ही दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (डीएमआरसी) और मध्यप्रदेश सरकार के बीच एमओयू साइन हो जाएगा। सिर्फ डीएमआरसी ही नहीं राष्ट्रीय एल्युमिनियम कंपनी (नालको) और दूसरी मल्ट्री नेशनल कंपनियों ने सोलर एनर्जी के लिए मप्र को चुना है। होड़ की अहम वजह दूसरे प्रदेशों की तुलना में सस्ती जमीन होना है। बताया जाता है कि फिलहाल इन मल्टीनेशनल कंपनियों की नजर प्रदेश की करीब 6 अरब रूपए की जमीन पर है, जो दूसरे राज्यों में इससे दो-तीन गुनी रकम पर मिलतीं। सबसे बड़ी बात है कि इन कंपनियों द्वारा उत्पादित सोलर एनर्जी का फायदा दूसरे राज्यों को मिलेगा। वैसे देखा जाय तो मप्र में सोलर एनर्जी के कई प्लांट कंपनियों द्वारा लगाए जा रहे हैं और उनकी बिजली मप्र में ही उपयोग होगी।
उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2014 में इंदौर में हुई ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट के दौरान मिले 6 लाख 89 हजार करोड़ रुपए के निवेश प्रस्तावों में ऊर्जा क्षेत्र टॉप पर था। अकेले नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के लिए 95 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव प्राप्त हुए, जबकि थर्मल पॉवर और इाईडल पॉवर के लिए 93 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव मिले थे। इससे यह आस जगी थी कि कभी अंधेरे से घिरे रहने वाला मप्र अब ऊर्जा उत्पादन में उजली इबारत लिखेगा। लेकिन बड़े निवेशकों को लाभ पहुंचाने के लिए राज्य सरकार छोटे निवेशकों को कायदे-कानूनों में फंसाकर उन्हें दरकिनार कर रही है। रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने तमाम घोषणाएं की और एक तरह से सब्सिडी का खजाना ही खोल दिया है लेकिन यह खजाना सिर्फ कागजों पर खुला है। हकीकत में रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश करने वाले छोटे-छोटे निवेशक ठगे जा रहे है। हां रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन जैसे बड़े निवेशकों को सरकार इस योजना का लाभ दे रही है। इस कारण प्रदेश में सरकार के प्रयासों के बावजुद भी रिन्यूएबल एनर्जी के विस्तार में प्रगति नहीं हो पा रही है। आलम यह है कि सरकार रिन्यूएबल एनर्जी के दम पर प्रदेश में उजाले का जो स्वप्र देखा है वह अंधेरा के गर्त में जा रहा है। सरकार की इन्हीं नीतियों का फायदा उठाने के लिए अब जल्द ही दिल्ली मेट्रो प्रदेश के नवीन ऊर्जा और नवकरणीय विभाग के साथ 500 मेगावाट का सोलर प्लांट लगान के लिए एमओयू करने जा रहा है। इसमें कंपनी प्रदेश में 3500 करोड़ रुपए से अपना सेटअप लगाएगी। बिजली ग्रिड के जरिए दिल्ली मेट्रो यूज करेगी। प्रदेश को इससे बिजली क्षेत्र में कोई लाभ नहीं मिलेगा। अगले दो साल में कंपनी प्लांट लगा लेगी।
ज्ञातव्य है कि सोलर प्लांट लगाने में जमीन का बड़ा भाग लगता है। मध्य प्रदेश में काफी जमीन है, जिसका यूज नहीं हो रहा है। नवीन ऊर्जा और नवकरणीय विभाग प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनियों को ऐसे स्थान चिन्हित करके देता है। कंपनी निजी स्तर पर भी जमीन क्रय कर सकती है। बताया जाता है कि 3 लाख से 5 एकड़ के भाव में कई कंपनियों से जमीन खरीद ली है, जबकि दूसरे प्रदेश में 6 से 10 लाख प्रति एकड़ जमीन मिल रही है। अन्य जगहों पर लोड ज्यादा होने के कारण ग्रिड कनेक्टिविटी की भी समस्या होती है, जबकि प्रदेश में काफी हद तक ग्रिड कनेक्टिविटी बेहतर है। विशेषज्ञों का कहा है कि प्रदेश में उन्हीं कंपनियों को प्लांट लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए जो प्रदेश के लिए बिजली का उत्पादन करे। ऐसे में प्रदेश की जमीन दूसरे प्रदेशों के लिए उपयोग होगी और कीमत भी बढ़ेगी। उधर, ऊर्जा विकास निगम के अफसरों का कहना है कि अगर कंपनियां प्रदेश में सोलर प्लांट लगाएंगी तो उससे प्रदेश में रोजगार बढ़ेगा। बेकार पड़ी बंजर जमीनों की कीमत मिलेगी। उल्लेखनीय है कि सोलर पॉवर प्लांट के लिए जमीन का यूज अधिक होता है। 1 मेगावाट के लिए करीब 5 एकड़ जमीन लगती है। इसमें प्लांट लगाने का खर्च करीब सात करोड़ रुपए का खर्च आता है। अगर यही प्रोजेक्ट दूसरे राज्य में लगाया जाता है तो खर्च दो से तीन गुना बढ़ जाता है। ऊर्जा विकास निगम के एमडी मनु श्रीवास्तव कहते हैं कि प्रदेश में कई कंपनियों सोलर पॉवर प्लांट लगाना चाहती है। अभी दिल्ली मेट्रो एमओयू साइन करेगी। वह 500 मेगावाट का प्लांट लगाएंगी। इससे मेट्रो चलेगी। प्रदेश के युवाओं को प्लांट लगने से रोजगार मिलेगा।
रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट के फेर में ठगाए छोटे निवेशक
उल्लेखनीय है कि एक तरफ सरकार मल्टीनेशनल कंपनियों को मुफ्त के भाव जमीन दे रही है वहीं दूसरी तरफ छोटे निवेशकों को रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट के नाम पर परेशान किया जा रहा है। एक ओर जहां मध्यप्रदेश में राज्य सरकार सौर ऊर्जा को लगातार बढ़ावा दे रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में निवेश की अपार संभावनाएं हैं। इसीलिए निवेशक यहां जमकर दिलचस्पी ले रहे हैं और सोलर बिजली के लिए अपनी निविदाएं जमा करा रहे हैं। बता दें कि निवेशकों को केवल मुनाफा कमाना होता है। मध्यप्रदेश में निवेशक इसीलिए अपना रुझान दिखा रहे हैं। इसी सिलसिले में प्रदेश में सौर ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिये एमपी पॉवर मेनेजमेंट कम्पनी को 100 निवेशकों ने 3,744 मेगावॉट सोलर बिजली की निविदाएं जमा करवाई हैं। कम्पनी ने देशभर के निवेशकों से निविदा प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। कंपनी के इन्वेस्टमेंट प्रमोशन सेल के अनुसार प्रदेश में 25 वर्ष तक निश्चित दर पर सोलर बिजली प्राप्त की जाएगी। इस प्रक्रिया में निवेशक 2 मेगावॉट से लेकर 300 मेगावॉट तक अपनी क्षमता अनुसार सोलर बिजली उत्पादन संयंत्र स्थापित करेंगे। प्रदेश में वर्तमान में 6 रुपए 50 पैसे से लेकर 7 रुपए प्रति यूनिट के हिसाब से सोलर बिजली मिल रही है। कम्पनी ने वर्ष 2016-17 में 300 मेगावॉट सोलर ऊर्जा उत्पादित किए जाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की थीं। इस प्रक्रिया में निजी निवेशकों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी एमपी पॉवर जनरेटिंग और एनएचडीसी ने भी रुचि दिखाते हुए 80 मेगावॉट सोलर बिजली उत्पादन करने के प्रस्ताव दिए हैं। कंपनी के एमडी संजय शुक्ल कहते हैं कि प्रदेश में सोलर बिजली के उत्पादन के लिये अनुकूल माहौल होने से निवेशकों ने इच्छा जताई है।
कागजों पर खुला सब्सिडी का खजाना
मप्र में रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने उद्योग जगत के बड़े और छोटे निवेशकों को सब्सिडी का लॉलीपाप तो दिखा दिया लेकिन जब उन्हें सुविधाएं देने की बात आई तो सरकार की नीतियां छोटे निवेशकों पर भारी पड़ रही है। आलम यह है कि रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश करने वाले छोटे-छोटे निवेशक ठगे जा रहे है। हां रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन जैसे बड़े निवेशकों को सरकार इस योजना का लाभ दे रही है। रिन्यूएबल एनर्जी में यूं तो सब्सिडी देने के कई तरीके मौजूद है लेकिन सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने घोषणा की थी कि सौर ऊर्जा के द्वारा बिजली बनाने वाले उत्पादकों की बिजली पर लगभग 9.30 पैसे प्रति यूनिट के हिसाब से सरकार द्वारा सब्सिडी प्रदान की जाएगी। दरअसल यह सब्सिडी रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट (आरईसी)के रूप में प्रदान की जानी थी जिसे बाद में पावर एक्सचेंज में ट्रेडिंग के द्वारा बेचकर पैसा इन इकाईयों को स्थापित करने वाले निवेशकों को दिया जाना था। सरकार की इस योजना से प्रभावित होकर कई छोटे-बड़े निवेशकों ने देशभर में कई सोलर ऊर्जा के द्वारा बिजली प्राप्त करने के प्लांट स्थापित किए। अनुमान है कि सारे देश में छोटे निवेशकों ने इसमें 2500 करोड़ रुपए लगाए। मप्र में भी लगभग 15 इकाईयां छोटे निवेशकों द्वारा 20 से 25 करोड़ प्रति इकाई की लागत से स्थापित की गई। सरकार ने आश्वासन दिया था कि वह 1 मेगावाट से लेकर 5 मेगावाट की छोटी इकाईयों द्वारा उत्पादित बिजली पर प्रति यूनिट 9.30 पैसे के हिसाब से आरईसी जारी करेगी जिन्हें एनर्जी एक्सचेंज, आईईएक्स और पीएक्सआईएल द्वारा क्रय किया जा सकेगा, लेकिन लंबा अरसा बीत जाने के बावजूद इन छोटे निवेशकों को न तो पैसा मिला और न ही सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सब्सिडी प्रदान की गई है।
सरकार एक मेगावाट की इकाई लगाने पर 40 लाख रुपए की सब्सिडी भी देती है। इसके लिए पांच एकड़ जमीन होना आवश्यक है। जिसपर 1 मेगावाट की इकाई स्थापित करने में लगभग 2 करोड़ रुपए खर्च बैठता है। मप्र ऊर्जा विकास निगम ने ऐसी इकाईयां स्थापित करने वालों को आश्वासन दिया था कि उनकी इकाईयों को उद्योग का दर्जा दिया जाएगा। यदि उद्योग का दर्जा दिया जाता तो इससे उनको सरकारी सब्सिडी भी मिल सकती थी। उद्योग का दर्जा तो दूर आरईसी सर्टिफिकेट ही ट्रेडिंग मैकेनिज्म में फंसकर रह गया है। निवेशकों को यह उम्मीद थी कि आरईसी सर्टिफिकेट मिलने के कुछ माह बाद उन्हें पैसे मिल सकेंगे लेकिन वर्षों बीत गए उनके पैसे फंसे हुए है। इन्हीं में से एक निवेशक का कहना है कि उनके पास लगभग 18 लाख यूनिट के आरईसी सर्टिफिकेट हैं लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अभी तक पैसा नहीं मिला है और उधर सरकार की तरफ से एक नया फरमान भी आ गया है जिसके तहत अब इस सर्टिफिकेट की दर 3.50 पैसे प्रति यूनिट करने का प्रावधान है ऐसा इसलिए क्योंकि सोलर इकाई स्थापित करने की लागत पहले के मुकाबले काफी कम हो गई है। लेकिन निवेशकों का कहना है कि उन्होंने जब इकाईयां स्थापित की थी उस वक्त इन प्लांट की लागत काफी अधिक थी और उसी हिसाब से राष्ट्रीय वित्त विकास निगम ने लोन वगैरह दिया था। अब सरकार द्वारा न तो सब्सिडी प्रदान की न ही उत्पादित बिजली को वाजिब दामों पर खरीदा गया जिसके चलते छोटी-छोटी इकाईयां बंद होने की कगार पर हैं और इनके निवेशकों के पैसे तो डूब ही चुके हैं। राष्ट्रीय वित्त विकास निगम का पैसा जो लोन के रूप में दिया गया था वह भी फंस सकता है। निवेशकोंं का कहना है कि उन्होंने आरईसी टेडिग मैकेनिज्म से प्रभावित होकर ही इस क्षेत्र को नया व्यापारिक अवसर समझते हुए निवेश किया था।
आरईसी केंद्र सरकार द्वारा 2012 में लाई गई योजना है जिसके तहत राज्यों में बढ़ती ऊर्जा जरुरतों की पूर्ति हेतु ऐसी इकाईयों को प्रोत्साहित किया जाना था जो रिन्यूएबल एनर्जी का उत्पादन करती हैं। इसमें मुख्य रूप से सौर ऊर्जा पर ध्यान दिया गया था क्योंकि भारत में सूर्य की कृपा से सौर ऊर्जा का उत्पादन आसानी से संभव है। पवन ऊर्जा को लेकर भी ऐसा ही मिलता जुलता प्रावधान केंद्र सरकार द्वारा किया गया था लेकिन सौर ऊर्जा ज्यादा व्यावारिक होने की वजह से कई छोटे निवेशकों ने सरकार के भरोसे इसमें निवेश कर दिया। आरईसी मुख्य रूप से राज्यों द्वारा ही खरीदे जाने थे जिससे कि इन निवेशकों को पर्याप्त धन मिलता और वे कामयाब हो जाते। बताया जाता है कि मप्र में भी कई एनआरआई और छोटे निवेशकों ने सोलर ऊर्जा प्लांट लगाए है लेकिन उनकी स्थिति दयनीय है। इस वर्ष जून तक कुल तीन प्रतिशत सोलर आरईसी की ट्रेडिंग पॉवर एक्सचेंज में हुई है। अप्रैल 2012 तक तो कम से कम 18 प्रतिशत ट्रेडिंग हो गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इतनी महंगी दर पर इन आरईसी की ट्रेडिंग संभव नहीं है क्योंकि सोलर पॉवर प्लांट की लागत में पर्याप्त गिरावट आई है जिसके कारण राज्य सरकारें अपना दायित्व पूरा करने से मुकर रही हैं मप्र में भी यही हालात है। रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय ने भी इसे स्वीकारा है और कहा है कि वे निवेशकों को बचाने की भरसक कोशिश कर रहे है लेकिन यह कोशिश दिखाई नहीं दे रही।
देखा जाए तो पर्यावरण नियमों के अनुसार जो इकाईयां वातावरण को ज्यादा प्रदूषित करती हंै उन्हें अनिवार्य रूप से रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा उत्पादित बिजली ही उपयोग में लाना चाहिए। ऐसी इकाईयों को निर्देशित किया गया है कि वे या तो अपने प्लांट डालें या फिर ऐसे प्लांटों से बिजली खरीदें जो रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा बिजली का उत्पादन कर रहें है। कायदे में मप्र सरकार को ऐसी सभी इकाईयों पर यह कानून लागू करते हुए उन्हें रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा उत्पादित बिजली खरीदने के लिए बाध्य करना चाहिए और आरईसी की खरीदी भी इन्हीं इकाईयों द्वारा की जानी चाहिए। लेकिन दुख इस बात का है कि सरकार प्रदूषण फैलाने वाली इकाईयों पर कोई जोर नहीं डाल रही है और इसी कारण यह छोटे निवेशक अपना कारोबार समेटना चाह रहे हैं।
जमीन सस्ती इसलिए सोलर प्लांट लगाने को तैयार हैं नामी कंपनियां
सरकार के अधिकारियों का कहना है कि सोलर आरईसी की जो कीमत पहले निर्धारित की गई थी वे सौर ऊर्जा के मुकाबले भी काफी महंगी है। बहुत सारे राज्यों में इसे खरीदने के लिए फंड ही नहीं है और इसकी कोई जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहता। देश में गुजरात ऐसा राज्य है जो सोलर एनर्जी का हब है। फिर भी वहां पर 7 रुपए प्रति यूनिट बिजली बिकती है। जबकि मध्यप्रदेश में 5.51 रुपए प्रति यूनिट पर कंपनी बिजली बेचने को तैयार है। पिछले दिनों हुए टेंडर में 100 कंपनियां प्रदेश में बिजली बनाने को तैयार थीं। प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में और नामी कंपनियों की उत्सुकता की प्रमुख वजह है अन्य प्रदेशों की अपेक्षा सस्ती कीमत में जमीन मिलना।
मप्र की पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने अगले 25 साल तक 300 मेगावाट सोलर एनर्जी खरीदने के लिए टेंडर किया। ढेरों कंपनियों ने ऑफर दिया। संख्या अधिक होने के कारण कॉम्पटीशन भी रहा। आखिर में दिल्ली की स्काय पॉवर साउथ ईस्ट एशिया ने बाजी मारी। कंपनी ने सबसे कम 5.51रुपए में प्रति यूनिट बिजली देने का दावा किया और अडानी, रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी को भी पीछे छोड़ दिया। वहीं अडानी समूह ने तमिलनाडु से करीब 1 रुपए सस्ती कीमत पर 6.049 रुपए में बिजली देने का ऑफर दिया था।
बताया जाता है कि इनवेस्टर को प्रदेश में जो पसंद आ रहा है, उनमें सोलर एनर्जी प्लांट लगाने के लिए मिनिस्ट्री ऑफ रिनेवल एनर्जी ने लैंड बैंक बना रखा है। कंपनी के इनवेस्ट के मुताबिक बंजर और अनुपयोगी जमीन पहले से चिन्हित है। सोलर एनर्जी में प्रदेश के भीतर भविष्य की संभावना कंपनी देख रही है। 2 लाख 5 लाख प्रति एकड़ में कंपनी जमीन खरीद सकती है, जबकि दूसरे प्रदेशों में 8 से 25 लाख रुपए प्रति एकड़ जमीन खरीदनी पड़ती है। प्रदेश में न्यूनतम 1 मेगावाट का प्लांट लगाने की अनुमति मिलती है। इसके लिए 5 एकड़ जमीन जरूरी है। इसमें 6.5 करोड़ की लागत आती है। इससे 5 हजार प्रति यूनिट हर दिन बिजली पैदा हो सकती है। तमिलनाडु में अडानी समूह 648 मेगावाट सोलर एनर्जी 7.01 रुपए में देने का सौदा किया है। वहीं मप्र को कंपनी 6.049 रुपए प्रति यूनिट पर बिजली बेचने तैयार थी। इस कम कीमत से तमिलनाडु में विपक्षी दलों ने सौदे पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बताया जाता है कि महंगी कीमत से करीब 54000 करोड़ का एक्स्ट्रा बोझ तमिलनाडु पर पड़ा है। इनवेस्ट प्रमोशन सेल पॉवर मैनेजमेंट कंपनी के एमडी आरडी सक्सेना कहते हैं कि प्रदेश में सोलर एनर्जी के लिए कंपनियों ने खूब रुचि दिखाई। कंपनियों से बातचीत में पता चला कि यहां अन्य प्रदेशों की तुलना में सुविधाएं ज्यादा हैं। इसलिए सस्ती कीमत में बिजली बेचने के लिए कंपनी प्लांट लगाने में रुचि ले रही हैं।
प्लांट बनाने से पीछे हटीं दो कंपनियां!
श्योपुर के लाडपुरा गांव में बने सौर ऊर्जा प्लांट पर बार-बार के विवाद और हड़ताल का बुरा असर पड़ा है। इस विवाद के कारण विजयपुर में सौर ऊर्जा प्लांट बनाने की तैयारी में बैठीं दो कंपनियां पीछे हट गई हैं। बड़ी बात यह है कि इन दोनों कंपनियों को प्रशासन ने 150 हेक्टेयर के करीब जमीन आवंटित कर दी है, लेकिन जमीन मिलने के महीनों बाद भी कंपनियों ने कोई फीडबैक नहीं दिया है। मप्र नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग के अफसरों तक का कहना है कि एक कंपनी ने तो मन बदल दिया है और दूसरी का कोई अता-पता नहीं। प्रदेश सरकार ने परंपरागत ऊर्जा को बढ़ावा देते हुए श्योपुर के विजयपुर क्षेत्र में तीन सौर ऊर्जा प्लांट स्वीकृत किए गए थे। प्लांटों के लिए जिला प्रशासन ने बीते साल विजयपुर कस्बे से सटे चंदेली, लाडपुरा व हुल्लपुर गांव में 1 हजार 325 बीघा जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग मप्र शासन के नाम स्वीकृत भी कर दी है। इस जमीन पर दिल्ली, भोपाल व गुडगांव की निजी कंपनियां सौर ऊर्जा प्लांट बनातीं, लेकिन तीन में से सिर्फ एक रिन्यू सोलर एनर्जी गुडगांव ने लाडपुरा-हुल्लपुर में सौर ऊर्जा प्लांट बना लिया है। बीते तीन महीने से इस प्लांट से हर रोज 50 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। रिन्यू सॉलर एनर्जी के साथ ही ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली व स्टिंटला एनर्जी प्रालि भोपाल को भी विजयपुर के आस-पास जमीन दी थी, लेकिन यह दोनों कंपनियां अब सौर ऊर्जा प्लांट बनाने की इच्छुक नहीं हैं। इसकी वजह लाडपुरा सौर ऊर्जा प्लांट पर निर्माण के दौरान हुई राजनीतिक उठापठक, विवाद व हड़ताल को बताया जा रहा है, लेकिन जिम्मेदार अफसर इस बात से साफ इनकार कर रहे हैं कि विवाद के कारण सौर ऊर्जा के दो प्लांट अटक गए हैं।
प्रदेश में दूसरे स्थान पर होता विजयपुर
यदि ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली व स्टिंटला एनर्जी प्रालि. भोपाल के सौर ऊर्जा प्लांट भी विजयपुर में विकसित हो जाते तो सौर ऊर्जा बनाने के मामले में विजयपुर प्रदेश में दूसरे स्थान पर होता। विजयपुर में तीनों प्लांटों से 116 मेगावाट बिजली बनाने की योजना थी। इससे ज्यादा सौर ऊर्जा से बिजली का निर्माण सिर्फ मंदसौर में (130 मेगावाट) होता है। उल्ल्ेखनीय है कि दोनों कंपनियों के लिए सरकार ने यहां जमीन अलॉट की थी। मैसर्स ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली, लाडपुरा गांव में 51 मेगावाट का प्लांट बनाती, इसके लिए प्रशासन ने 102.845 हेक्टेयर जमीन अलॉट कर दी है। मैसर्स स्टिंटला एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड भोपाल के लिए चंदेली गांव के पास 42 हेक्टेयर जमीन आवंटित कर दी है। यह कंपनी प्रतिदिन 15 मेगावाट बिजली का उत्पादन करती। प्रशासन ने जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग मप्र के नाम अलॉट की है, लेकिन अलॉटमेंट में स्पष्ट है कि इन कंपनियों को ही यहां सौर प्लांट लगाने की अनुमति है। श्योपुर के कलेक्टर धनंजय सिंह भदौरिया कहते हैंकि सौर ऊर्जा प्लांट के लिए विजयपुर में तीन कंपनियों के लिए जमीन आवंटित की है। वैसे जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग के नाम अलॉट है। दो कंपनियों ने अब तक काम शुरू नहीं किया, इस संबंध में संबंधित विभाग से चर्चा करेंगे। लाडपुरा प्लांट पर ऐसा कोई विवाद नहीं हुआ जिससे कंपनियां पीछे हट जाएं। नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग ग्वालियर के संभागीय प्रबंधक बीपीएस भदौरिया कहते हैं कि ज्योति एनर्जी व स्टिंटला एनजी नाम की कंपनियों ने जमीन अलॉट करा ली, लेकिन अब तक उनकी ओर से कोई रिस्पांस नहीं आया। एक कंपनी के लक्षण तो ऐसे लग रहे हैं कि वह अब प्लांट बनाने की इच्छुक नहीं। हम दोनों कंपनियों से इस मसले पर जल्द ही चर्चा करेंगे। यदि वो नहीं आएंगी तो जमीन प्रशासन को वापस कर देंगे।
सौर ऊर्जा परियोजनाएं करेंगी मुश्किलों का सामना
प्रदेश सरकार की जैसी नीति है उससे राज्य में स्थापित होने वाली सौर ऊर्जा परियोजनाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। भले ही विगत दिनों अनेक कारोबारी दिग्गजों ने राज्य सरकार से सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े करार कर लिए हों लेकिन इस क्षेत्र का जो व्यावहारिक सच है वह दिलचस्प है। जिन समस्याओं से यह क्षेत्र जूझेगा उनमें फाइनेंस, जमीनों का संकट और उत्पादित बिजली की बिक्री व वसूली। जानकारों का कहना है कि इस क्षेत्र की एक तो स्थापना लागत बहुत अधिक है और दूसरे भारी-भरकम निवेश पर वायबिलिटी के आसार बहुत क्षीण हैं, लिहाजा इस क्षेत्र में फाइनेंस का काम करने वाली कंपनियां या संस्थापन भी बहुत सोच विचार कर ही इस क्षेत्र में फाइनेंस करेंगे। इस क्षेत्र को फाइनेंस करने वाले वित्तीय संस्थान या कंपनियां सौर ऊर्जा परियोजनाओं को फाइनेंस करना तकलीफ वाला काम मानते हैं, क्योंकि इसमें रेट-ऑफ रिटर्न नहीं है। जब तक सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने वाला अपने निवेश या परियोजना लागत पर न्यूनतम 25 फीसदी सालाना की आय अर्जित न करने लग जाए तब तक उस परियोजना को वायबल अर्थात व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि 13-14 फीसदी तो परियोजना लागत पर ब्याज ही देना होगा। अब शेष 11-12 प्रतिशत की रेट ऑफ रिटर्न की स्थिति तो सामान्य ही कही जा सकेगी अर्थात ये परियोजनाएं स्थापित करना आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं है।
जमीनों का संकट
वैसे तो प्रदेश सरकार ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए लैंड बैंक बना रखा है। साथ ही सरकार ने सौर ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक नीति भी घोषित कर दी है, लेकिन जमीनों को लेकर जो प्रावधान किए हैं वे उलझनकारी और निवेशक की लागत बढ़ाने वाले हैं। मोटे तौर पर यह कहा गया है कि किसानों से जमीन ले ली जाए, लेकिन प्रदेश का काश्तकार अब होशियार हो गया है क्योंकि जमीनें महंगी हो गई हैं। राज्य में सौर ऊर्जा परियोजना के लिए अब तीन लाख रुपए प्रति बीघा से कम दर पर जमीन मिलना मुश्किल है और सच तो यह है कि एक लाख रुपए प्रति बीघा की दर पर भी जमीन मिले तो भी ये परियोजनाएं वायबल नहीं हैं। राज्य सरकार ने इन परियोजनाओं के लिए सस्ती जमीन के प्रबंधन से अपने आप को अलग कर लिया है और सब कुछ निवेशक के लिए ही छोड़ दिया है।
बिजली की रकम मिलने में देरी
सौर ऊर्जा परियोजनाओं से उत्पादित बिजली राज्य की बिजली वितरण कंपनियों को बेची जाएगी, जहां से समय पर पैसा निकालना बहुत मुश्किल वाला काम होगा क्योंकि इन कंपनियों की कार्य प्रणाली इतनी दूषित है कि पूछिए मत। लिहाजा किसी निवेशक ने सौर ऊर्जा परियोजना लगा दी, बिजली भी बनाने लग गया और उसके बाद जब बिजली किसी राजकीय बिजली वितरण कंपनी को बेची जाएगी, तो वहां से सही समय पर धन मिलना भी एक तकलीफ वाला काम होगा। निजी क्षेत्र को सीधे बिजली बेचने सरीखी कोई बात नीति में कही नहीं गई है और उसके लिए कोई भी सौर ऊर्जा परियोजना प्रवर्तक किस ग्रिड का इस्तेमाल करेगा यह भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में निवेशक प्रदेश में सौर उर्जा के क्षेत्र में कैसे काम कर पाएंगे। अभी तक तो स्थिति यह है कि जिन निवेशकों ने करार के बाद सोलर प्लांट लगाने का काम शुरू किया है उनके साथ घोर उपेक्षा की जा रही है।
आकर्षक नीति, लेकिन नियत में खोट
देश में सोलर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें तेजी से प्रयास कर रही हैं। इसके लिए आकर्षक नीति भी बनाई गई है और समय-समय पर इसमें परिवर्तन भी होते रहते हैं। इसका परिणाम यह है कि वर्ष 2009 में जहां देश में मात्र आठ मेगावाट सोलर ऊर्जा उत्पन्न होती थी। अब साढ़े तीन हजार मेगावाट हो गई है। केंद्र की पिछली यूपीए सरकार ने वर्ष 2020 तक देश में 22 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसको मोदी सरकार ने बढ़ाकर एक लाख मेगावाट कर दिया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए बहुत कम ब्याज दर पर सोलर ऊर्जा के लिए लोन उपलब्ध कराया जाएगा। ऐसे में प्रदेश में नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिये आकर्षक नीति बनायी गयी है। केन्द्रीय नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने जवाहरलाल नेहरू सोलर मिशन के द्वितीय चरण में 750 मेगावॉट क्षमता में से 220 मेगावॉट क्षमता की 7 परियोजना मध्य प्रदेश में स्थापित किए जाने को मंजूरी दी है। इसके अलावा रीवा जिले में राज्य शासन एवं सोलर एनर्जी कारपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा संयुक्त उपक्रम बनाकर 750 मेगावॉट क्षमता की अल्ट्रा मेगा सोलर परियोजना को भी मंजूरी दी गयी है। यह विश्व की सबसे बड़ी क्षमता वाली सौर परियोजना है। सौर ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिए प्रदेश में 20 हजार हेक्टेयर भूमि चिन्हित की गई है। मार्च, 2012 में जहां प्रदेश में सौर ऊर्जा की क्षमता 2 मेगावॉट थी, वह नवम्बर, 2014 में बढ़कर 354 मेगावॉट और मार्च, 2015 में प्रदेश में बढ़कर 466 मेगावॉट हो गयी है। प्रदेश में 31 मार्च, 2017 तक सौर ऊर्जा क्षमता बढ़कर 2000 मेगावॉट होने का अनुमान है। मोदी सरकार देश में सोलर पावर के जरिए एक लाख मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य अब आम आदमी को जोड़कर पूरा करना चाहती है। इसके लिए अब कोई भी व्यक्ति सोलर पैनल से बिजली पैदा कर उसे बेच सकता है। सरकार ऐसे लोगों को बिजनेस की बारीकियां सिखाने जा रही है।
प्रदेश सरकार की नीति का ही परिणाम है कि मॉरीशस की स्काई पॉवर कंपनी शाजापुर जिले में तीन सोलर पॉवर प्लांट लगाने की तैयारी में है। मध्यप्रदेश पॉवर मैनेजमेंट कंपनी इनसे कुल मिला कर 300 मेगावाट बिजली लेगी। उत्पादन अधिक होने पर कंपनी बिजली अन्य राज्यों को बेच सकेगी। मप्र का यह क्षेत्र सोलर बिजली उत्पादन के लिए अनुकूल माना जाता है। विद्युत नियामक आयोग द्वारा कुल खपत की दस फीसदी ग्रीन बिजली उपयोग करने की शर्त लगाने के बाद पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने 312 मेगावाट बिजली खरीदने के लिए टेंडर बुलाए थे। इसमें 100 इंवेस्टर्स ने कुल मिला कर दस गुना अधिक 3744 मेगावाट बिजली का ऑफर दिया था। इसमें से जिन नौ कंपनियों के टेंडर मंजूर हुए हैं उनमें एक मॉरीशस की स्काई पॉवर कंपनी सहित दिल्ली, कोलकाता, जयपुर आदि शहरों के इंवेस्टर्स शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर कंपनियां मध्यप्रदेश में नया सोलर प्लांट लगाएंगी। इस सोलर पॉवर प्लांट की खास बात यह है कि सोलर पॉवर में बड़ा नाम माने जाने वाली रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन के टेंडर नामंजूर हो गए, क्योंकि अन्य कंपनियां सस्ती बिजली दे रही हैं। यह इंवेस्टर्स मध्यप्रदेश को मौजूदा रेट से कम पर बिजली देंगे और यह रेट भी 25 साल तक नहीं बदलेगा। मप्र को फिलहाल एक यूनिट सोलर बिजली 6.50 से 7 रुपए में मिल रही है। स्काई पॉवर कंपनी एक यूनिट बिजली के लिए 5.05 से 5.29 रुपए तक लेगी। अन्य कंपनियों का भी अधिकतम रेट 5.64 रुपए प्रति यूनिट है। एमपी पावर मैनेजमेंट कंपनी के एमडी संजय शुक्ला ने ने बताया कि निविदा प्रक्रिया से प्रदेश को देश में सबसे कम दर पर 25 वर्षों तक 300 मेगावाट बिजली मिलने का रास्ता खुला है। जहां सरकार की नीति के कारण प्रदेश में बड़ी संख्या में निवेशक रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में निवेश करने को उतारू हैं वहीं जो पहले से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं उन्हें सरकार और अफसरों का सहयोग नहीं मिल पा रहा है।
ठंडे बस्ते में गई 'बिजली बनाओ और बेचोÓ योजना
प्रदेश में खुद अपनी बिजली बनाने और बेचने की योजना फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दी गई है। शासन द्वारा इस योजना को अप्रैल 2015 में लागू करने की बात कही गई थी लेकिन अब तक इसे लागू नहीं किया जा सका है। हालांकि मप्र ऊर्जा विकास निगम के अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश में पहले यह योजना सरकारी भवनों व विभागों के लिए लागू की जाएगी उसके बाद इसका लाभ आम जनता को मिलेगा। सरकारी भवनों एवं विभागों के लिए इसेअगले दो माह में लागू करने की बात कही जा रही है। उल्लेखनीय है कि यह योजना खुद अपनी बिजली बनाने, उसका उपयोग करने और अतिरिक्त बिजली को बेचने की सुविधा देगी। अधिकारियों के अनुसार नेट मीटरिंग नामक इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू किया जाना है, लेकिन प्रथम फेज में इंदौर, भोपाल, जबलपुर में इसे लागू किया जाएगा। इसमें जनता अपने घरों या कार्यालय की छत पर सोलर पैनल के द्वारा बिजली बनाएगी और उसे डायरेक्ट ग्रीड में सप्लाई किया जाएगा। इसके लिए एक मास्टर मीटर लगेगा जो यह बताएगा की कितनी बिजली ग्रीड में सप्लाई की गई और कितनी बिजली का उपयोग उपभोक्ता ने किया है। यदि ग्राहक ने जितनी बिजली ग्रीड में डाली और उससे अधिक का उपयोग किया तो दोनों का अंतर निकालकर शेष यूनिट का भुगतान ग्राहक को करना होगा। वहीं कम उपयोग करने और ग्रीड में अधिक बिजली डालने पर सरकार ग्राहक को भुगतान करेगी। मप्र में 4.30 रुपए प्रति यूनिट की दर से भुगतान देने का प्रस्ताव है। मप्र ऊर्जा विकास निगम के चीफ इंजीनियर भुवनेश पटेल कहते हैं कि योजना रेग्युलेशन कमीशन के पास है। पहले इसे सरकारी भवनों के लिए लागू किया जाएगा। इसके बाद प्रथम चरण में इंदौर, भोपाल और जबलपुर में यह लागू होगी।
मप्र में बिजली बनाना महंगा और खरीदना सस्ता
मध्यप्रदेश में खुद बिजली बनाकर (कैप्टिव पॉवर प्लांट) उपयोग करना मंहगा है और दूसरों से खरीदकर इस्तेमाल करना सस्ता है। ऐसे में क्यों कोई कंपनी खुद बिजली बनाए यह सवाल खुद बिजली बनाकर उपयोग करने वाली कंपनियों के संचालकों ने उठाया है। उनका कहना है कि यदि सरकार चाहती है कि कंपनियां खुद बिजली बनाकर इस्तेमाल करें तो छूट देकर उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। उद्योगपतियों के अनुसार इलेक्ट्रीसिटी ड्यूटी एक्ट-2012 के तहत किसी कंपनी का कैप्टिव पावर प्लांट है तो उनसे 15 फीसदी ड्यूटी वसूली जा रही है, जबकि सरकार, बिजली बनाने वाली कंपनियों या दूसरे राज्य से बिजली खरीदने पर 9 फीसदी ड्यूटी लगाती है। ऐसे में स्वयं के निवेश पर बिजली प्लांट लगाने के बाद ज्यादा ड्यूटी देना न्याय संगत नहीं है। उद्योग जगत ने कैप्टिव पावर प्लांट पर लगने वाली डयूटी को 15 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने की मांग की है। प्रदेश में लगभग 250 कैप्टिव पावर प्लांट हैं। वर्तमान में लगभग सभी सेक्टर की कंपनियां खुद की बिजली तैयार इसे इस्तेमाल करती हैं। कंपनी संचालकों का कहना है कि खुद की बिजली मंहगी होने के बाद भी ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें दूसरे जगह से मिलने वाली बिजली से क्वालिटी पावर नहीं मिल पाता है।
प्रदेश सरकार ने 25 अप्रैल 2012 से कैप्टिव विद्युत उत्पादन पर देय विद्युत शुल्क की दर 9 से बढ़ाकर 15 फीसदी किया है। सरकार का यह कदम विद्युत अधिनियम 2003 के विपरीत है, क्योंकि इसमें कैप्टिव पावर को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। चूंकि कैप्टिव पावर उत्पादक को जनरेटर व अन्य साधनों के लिए कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी होती है, इसलिए विद्युत शुल्क की दर अत्यंत कम होनी चाहिए। कैप्टिव पॉवर जनरेशन पर अधिक शुल्क मामले में प्रदेश के ऊर्जा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि शुल्क में राहत प्रदान करना वित्त विभाग का काम है। ऊर्जा विभाग तो नियामानुसार ही शुल्क ले रहा है। कैप्टिव पावर पर 15 फीसदी डयूटी वसूलने से उद्योगों को प्रति यूनिट 30 पैसे अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा है। अन्य राज्यों की तुलना में यह सबसे अधिक है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक में तो कैप्टिव पावर पर कोई शुल्क ही नहीं लगता। वहीं केरल में 1.2 पैसे, तामिलनाडु में 10 और आंध्रप्रदेश में 25 पैसे प्रति यूनिट का शुल्क लगता है। भाजपा की सरकार वाले राज्यों में सबसे अधिक महंगी बिजली मध्यप्रदेश में मिल रही है। प्रदेश में फ्यूल चार्ज के नाम पर बिजली की दरों में चाहे जब इजाफा किया जा रहा है। इतना ही नहीं हर तीन माह बाद एफएसी के नाम पर बिजली की दरों में बढ़ोतरी की जा रही है।
अरबों खर्च, फिर भी बर्बाद हो रही 25 फीसदी बिजली
बिजली के टीएंडडी लॉस (वितरण एवं पारेषण हानि) को कम करने के लिए कंपनियों ने 11 साल में अरबों रुपए खर्च कर दिए। बावजूद इसके लॉस को 15 फीसदी पर नहीं ला सके। अभी भी तीनों कंपनियों की 25 फीसदी बिजली बर्बाद हो रही है। बिजली कंपनियों ने हाल ही में यह रिपोर्ट तैयार कर मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी के प्रबंध संचालक व तीनों वितरण कंपनी के अध्यक्ष संजय कुमार शुक्ल को दी है। उन्होंने ने तीनों कंपनियों के अधिकारियों को यह लॉस 15 प्रतिशत पर लाने का लक्ष्य दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक बिजली कंपनियां 11 साल में अपने-अपने क्षेत्रों में 14 से 21 प्रतिशत की बिजली बर्बादी ही रोक सकी हैं। जबलपुर रीजन की पूर्व क्षेत्र कंपनी के लॉस में 14 प्रतिशत, भोपाल व ग्वालियर की मध्य क्षेत्र कंपनी के लॉस में 17 और इंदौर की पश्चिम क्षेत्र कंपनी के लॉस में 21 प्रतिशत की कमी आई है। वहीं एटीएंडडी (तकनीकी एवं वाणिज्यिक हानि) भी 23.15 प्रतिशत हो रही है। जो 2003-04 में 49.60 प्रतिशत थी।
बिजली की बर्बादी रोकने इन योजनाओं पर काम
1. फीडर सेपरेशन- बिजली चोरी वाले क्षेत्रों में फीडर सेपरेशन करके कंपनी यह पता लगाती है कि उस फीडर पर कितनी बिजली सप्लाई हुई और कितनी बर्बाद या चोरी हुई।
2. राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण- ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली चोरी एवं लाइन लॉसेस रोकने के लिए इस योजना के तहत हर घर तक सर्विस लाइन बिछाई जाती है और हर घर में कनेक्शन दिया जा रहा है ताकि बिजली चोरी न हो।
3.आरएपीडीआरपी- शहरी क्षेत्रों में पुरानी व जर्जर हो चुकी सप्लाई लाइनों को बदला जा रहा। साथ ही नए ट्रांसफार्मर लगाए गए हैं। ताकि अधिक से अधिक बिजली की सप्लाई हो सके।
4. एडीबी- एशियन डेवलपमेंट बैंक योजना के तहत जगह-जगह नए सब स्टेशन बनाए जा रहे हैं और नई उच्च दाब एवं नि न दाब की लाइनें बिछाई जा रही हैं।
यह है वितरण कंपनियों में लॉस की स्थिति
कंपनी का नाम- 2003-04 2014-15
पूर्व क्षेत्र (जबलपुर रीजन) 40.54 प्रतिशत 25.79 प्रतिशत
मध्य क्षेत्र (भोपाल- ग्वालियर रीजन)44.88 प्रतिशत 27.55 प्रतिशत
पश्चिम क्षेत्र(इंदौर-उज्जैन रीजन) 45.97 प्रतिशत 24.71 प्रतिशत
उपभोक्ताओं को 3 करोड़ एलईडी बल्ब बाटेगी कंपनी
नवीन ऊर्जा एवं नवकरणीय विभाग के एमडी मनु श्रीवास्तव कहते हैं कि अभी तक कंपनी उपभोक्ताओं को पोस्टर और स्लोगन के जरिए बिजली बचाने का संदेश देती थी। अब खपत को कंट्रोल करने के लिए हर उपभोक्ता को एलईडी बल्ब देगी। वो भी 10 रुपए मासिक की किश्तों में। जनवरी से प्रदेश के 3 करोड़ उपभोक्ताओं को बल्ब देने का काम शुरू होगा। मप्र ऊर्जा विभाग के अफसरों की बैठक में इस प्रस्ताव पर सहमति बनने के बाद नवीन ऊर्जा एवं नवकरणीय विभाग बल्ब खरीदी के लिए टेंडर जारी करने की तैयारी कर रहा है। एलईडी बल्ब लेना वैकल्पिक होगा। यानी बिजली उपभोक्ता की मर्जी पर ही उसे एलईडी बल्ब दिया जाएगा। आवेदन के साथ ही 9 वाट का एलईडी बल्ब उपभोक्ता बिजली दफ्तर से ले सकेंगे। बिजली कंपनी अभी हर उपभोक्ता को एक बल्ब ही देगी। बाद में कंपनी की योजना एक से ज्यादा बल्ब देने की है। इस संबंध में अभी प्रदेश ऊर्जा विभाग दिशा निर्देशिका तैयार कर रहा है। बाजार में बल्ब की कीमत 300 होगी। कंपनी उपभोक्ताओं को यह बल्ब 100 रुपए में देगी वह भी किश्तों में। बिजली कंपनी उपभोक्ताओं से यह पैसा हर माह बिल में 10 रुपए जोड़कर वसूलेगी। प्रदेश के उपभोक्ता को बांटने के लिए 3 करोड़ एलईडी खरीदने की तैयारी हो रही है। विभाग इसके लिए टेंडर बुला रहा है। बताया जाता है कि अगले दो माह में खरीदी का काम शुरू हो जाएगा। इसके बाद बिजली कंपनी को एलईडी सप्लाई कर दी जाएगी, ताकि उपभोक्ताओं तक पहुंचाई जाए।