सोमवार, 2 नवंबर 2015

अफसरों की मेहरबानी से कंगाल हुईं कंपनियां

1,77,000 हजार करोड़ के कर्ज में डूबी मप्र की औद्योगिक इकाईयां एमपीएसआईडीसी से कर्ज लेने वाली कई कंपनियों की ब्याज की राशि मूलधन से 15 गुना अधिक हुई
भोपाल। मप्र में औद्योगिक निवेश बढ़ाने के लिए प्रदेश सरकार ने कई इंवेस्टर्स समिट आयोजित कर निवेशकों को लुभाने के लिए अरबों रूपए उनके स्वागत-सत्कार में बहा दिए। इसके बाद भी प्रदेश के औद्योगिक हालात जस के तस हैं। हद तो यह कि केंद्र की मोदी सरकार भी उद्योगों को रफ्तार देने और मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने की पुरजोर कोशिश में जुटी है लेकिन इसका थोड़ा भी फायदा मप्र सरकार को नहीं मिला है। आलम यह रहा कि औद्योगिककरण के नाम पर अफसरों ने कंपनियों पर जो मेहरबानी दिखाई है उसके कारण कई कंपनियां कंगाली की कगार पर खड़ी हो गई हैं। औद्योगिक विकास निगम (एमपीएसआईडीसी) से लोन लेने वाली कई कंपनियों की ब्याज की राशि मूलधन से 15 गुना अधिक हो गई हैं। जिससे कंपनियां निरंतर कर्ज के बोझ से दबती जा रही हैं। इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, मप्र में सरकारी अफसरों ने कुछ कंपनियों पर मेहरबानी दिखाते हुए उनका स्टेटस जाने बिना उन्हें कर्ज तो मुहैया करा दिया, लेकिन कंपनियां अपने आप को संभाल नहीं सकीं और बंद हो गईं। वर्तमान में मप्र की बड़ी औद्योगिक इकाईयों पर तकरीबन 1,77,000 करोड़ रूपए रूपए का कर्ज है।
इंफ्रास्ट्रक्चर, पॉवर, रियल एस्टेट इत्यादि क्षेत्रों में कार्यरत देश की प्रमुख कंपनी जयप्रकाश एसोसिएट के शेयर में भारी गिरावट दर्ज की जा रही है। हालात यह हैं की कंपनी का शेयर 9 वर्ष के निचले स्तर तक आ गया है। बाजार जानकारों के अनुसार कंपनी पर करीब 71000 करोड़ रुपए का कंसोलिडेटेड लोन बकाया है। गौरतलब है कि जेपी एसोसिएट्स का वित्त वर्ष 2015 का ब्याज खर्च मार्केट कैप से 2.5 गुना ज्यादा है। फिलहाल कंपनी के ऊपर स्टैंडलोन कर्ज 22,832 करोड़ रुपए सालाना है और इसका ब्याज का खर्च 3,314 करोड़ रुपए है, वहीं कंसोलिडेट कर्ज 61,285 करोड़ रुपए है जिसका ब्याज का खर्च 7,229 करोड़ रुपये है। जेपी एसोसिएट्स को लोन देने में सबसे मेहरबान बैंक आईडीबीआई रहा है। बाजार सूत्रों के अनुसार बैंक ने जेपी एसोसिएट्स को करीब 8000 करोड़ रुपए का ऋण दिया हुआ है। जेपी एसोसिएट्स में आईडीबीआई का सबसे ज्यादा एक्सपोजर है जो उसकी वित्त वर्ष 2014 की नेटवर्थ का 30 फीसदी है, वहीं आईसीआईसीआई बैंक का एक्सपोजर, नेटवर्थ का 12 फीसदी है। आईडीबीआई का एक्सपोजर अधिकतम सीमा के करीब है और पंजाब एंड सिंध बैंक/यूको बैंक का भी एक्सपोजर है। इसके अलावा कॉरपोरेशन बैंक, जेएंडके बैंक का एक्सपोजर 10 फीसदी से कम है। बीएपी परिबा जैसी वित्तीय कंपनियों में भी जेपी एसोसिएट्स को लोन दिया हुआ है। रेटिंग एजेन्सियों ने जेपी एसोसिएट्स को बैंकों का लोन समय पर नहीं चुकाने के लिए डाउनग्रेड किया हुआ है। जेपी एसोसिएट अपनी संपत्तियों और कारोबारों को बेच कर ऋण घटाने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में कंपनी ने मध्यप्रदेश स्थित एक सीमेंट प्लांट अल्ट्राटेक सीमेंट को 5400 करोड़ रुपए में बेचा है। बाजार जानकारों के अनुसार धीरे-धीरे कंपनी को ऋण मिलने की राह मुश्किल होती जायेगी। इससे कंपनी की विस्तार योजनाओं के साथ वर्तमान कारोबार पर भी नकारात्मक प्रभाव पडऩे की आशंका है। चौथी तिमाही में जारी नतीजों में कंपनी ने 806.59 करोड़ रुपये का घाटा दर्ज किया है।
मप्र में पांच साल में 175 उद्योग हुए बंद
प्रदेश में पिछले 5 सालों में राज्य उद्योग क्षेत्र पीथमपुर, मंडीदीप, मालनपुर और देवास में 175 से अधिक चालू उद्योग बंद हुए हैं। यह उद्योग वित्तीय संस्था का भुगतान नहीं किए जाने से बैंक अधिग्रहण, अकुशल प्रबंधन, आधुनिक तकनीक के साथ तालमेल का अभाव, वित्तीय कुप्रबंधन, विपणन की समस्या तथा नवीन उद्योगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण बंद हुए हैं। इस संबंध में उद्योग मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने बताया कि प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र पीथमपुर में 136, मंडीदीप में 18, मालनपुर में 13 और देवास में 8 उद्योग बंद हुए हैं। इन उद्योगों के बंद होने का कारण बताते हुए उद्योग मंत्री ने कहा कि प्रदेश के बीमार, बंद उद्योगों को अधिग्रहित, क्रय कर पुन: चालू करने के लिए उद्योग संवर्धन नीति 2010 यथा संशोधित 2012 में विशेष पैकेज का प्रावधान सरकार द्वारा किया गया है। वहीं मप्र राज्य औद्योगिक भूमि एवं औद्योगिक भवन प्रबंधन नियम, 2008 के अंतर्गत नवीन प्रबंधन, हस्तांतरण, आवंटन कर उद्योग प्रारंभ करने के लिए प्रयास किए जाते हैं।
मूलधन देने के लिए पैसे नहीं ब्याज चढ़ा 4,193 करोड़
प्रदेश के सबसे बड़े ऋण घोटाले में औद्योगिक विकास निगम (एमपीएसआईडीसी) के अधिकारियों ने जिस तरह 714 करोड़ रुपए का वितरण किया था, उससे कई कंपनियों की वित्तीय स्थिति इस कदर बिगड़ी की आज वे ऋण का मूलधन देने की स्थिति में भी नहीं हैं। ऐसे में उन पर करीब 4 हजार 193 करोड़ 19 लाख रुपए का ब्याज चढ़ गया है। आलम यह है कि एमपीएसआईडीसी के अफसरों के साथ सांठ-गांठ करके कंपनियों ने ऋण तो ले लिया, लेकिन उसको लौटाने में देरी कर दी। इससे आज यह स्थिति बनी है कि निगम को अभी भी 27 कंपनियों से मूलधन के रूप में जहां 283 करोड़ की राशि वसूलनी है, वहीं ब्याज के रूप में ही उसे 4 हजार 193 करोड़ 19 लाख रुपए इन कंपनियों से लेना है। लेकिन कंपनियों के पास मूलधन लौटाने के लिए पैसा नहीं है। ऐसे में वे ब्याज की इतनी बड़ी रकम कैसे लौटाएंगी। उधर, अब इस मामले में राज्य आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो (ईओडब्ल्यू)और लोकायुक्त के साथ सरकार ने भी इस घोटाले के मुख्य आरोपी अपर मुख्य सचिव सुधि रंजन मोहंती के खिलाफ कार्रवाई की तैयारी शुरू कर दी है।
ब्याज की राशि मूलधन से 15 गुना अधिक हुई
एमपीएसआईडीसी के अधिकारियों ने जिन कंपनियों को 714 करोड़ का ऋण बांटा था उनमें से कई कंपनियों ने निगम को पैसा लौटा भी दिया है, फिर भी कई बड़ी कंपनियां करोड़ों की बकायादार बनी हुई हैं। ब्याज की राशि मूलधन से 15 गुना अधिक होने की वजह से यह कंपनियां निगम को पैसा लौटाने से कतरा रही हैं, जबकि निगम ने जिन संस्थाओं से पैसा लेकर इन कंंपनियों को बांटा था, उन्हें समझौता योजना में भुगतान करना पड़ा। यानी निगम को अभी भी इन कंपनियों से 4 हजार करोड़ रुपए वसूलना है। इस मामले में वसूली के लिए कुछ कंपनियों को आरआरसी भी जारी की गई, मगर कंपनियों ने सरकार को पैसा लौटाना उचित नहीं समझा। खासकर इस घोटाले में कई अफसर और तत्कालीन निगम के दो अध्यक्षों के विरुद्ध ईओडब्ल्यू द्वारा प्रकरण दर्ज किए गए थे और न्यायालय में लंबित हैं। कुछ कंपनियों ने पैसा वापस भी किया, लेकिन इसके लिए सरकार को काफी पापड़ बेलना पडेÞ। 25 कंपनियों को आरआरसी जारी की गई है। बकायादार कंपनियों में मेसर्स अर्चना एयरवेज से एक करोड़, मेसर्स पशुमई इरीगेशन से मूलधन 50 लाख के एवज में ब्याज सहित 47.74 करोड़, एसबीआई लिमिटेड पर मूलधन एक करोड़ की जगह ब्याज ही 36.48 करोड़, मेसर्स गरहा युटिल ब्रोस लिमि. से मूलधन 16 लाख के बदले 23 लाख, गरहा समूह से 18 लाख की जगह ब्याज सहित 27 लाख, माया स्पिनर्स लिमि. से 2 करोड़ के बदले ब्याज सहित 35.17 करोड़, मेसर्स एईसी इंडिया लि. से 1.50 करोड़ की एवज में ब्याज सहित 28.16 करोड़ तथा मेसर्स एईसी इन्टरप्राईजेस लि. से 10.10 करोड़ के बदले ब्याज सहित 200.93 करोड़ की राशि वसूलनी है। इनके प्रकरण समापन में आयशर समूह की कंपनियों में आयशर एग्रो से 2 करोड़ के एवज में ब्याज सहित 51.12 करोड़, आयशर फायनेंस प्रायवेट से 2.50 करोड़ मूलधन के बदले 50.70 करोड़ तथा आयशर अलाय स्टील से 10.50 करोड़ मूलधन के स्थान पर 257.29 करोड़ की राशि वसूलनी है। इस समूह के समापन के लिए शासकीय परिसामपक नियुक्त किया गया है।
देश की 262 कंपनियों पर सात लाख करोड़ का कर्ज
इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, देश की सबसे ज्यादा कर्ज के बोझ तले दबी 500 कंपनियों में से आधे से ज्यादा कर्ज के भारी बोझ तले दबी हैं। इनमें से करीब आधा सैकड़ा से अधिक कंपनियां मप्र की हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि इन्हें कर्ज मुक्त होने के लिए सात लाख करोड़ रुपए (करीब 114 अरब डॉलर) की पूंजी और तीन साल की मोहलत चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक, यदि नए सिरे से डाली गई सारी पूंजी का इस्तेमाल कर्ज उतारने के लिए किया जाता है इन 262 कंपनियों को कम से कम लगभग 7,04,300 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। दिक्कत यह है कि वित्त वर्ष 2008 से लेकर 2015 के बीच इतनी भारी-भरकम पूंजी जुटाना अब तक बहुत बड़ी चुनौती साबित हुई है। इस दौरान सभी 500 कंपनियां जरूरत की रकम के आधे से कम पूंजी जुटा पाईं। इंडिया रेटिंग्स के वरिष्ट अधिकारी दीप एन मुखर्जी ने बताया कि यदि ये कंपनियां कर्ज का अनुपात सहूलियत वाले स्तर पर लाना चाहेंगी, तो उन्हें इस प्रक्रिया में तीन साल लग जाएंगे। अगर देश की आर्थिक विकास दर मौजूदा स्तर से मामूली बढ़ी तो पूंजी जुटाने में 5-6 साल लग जाएंगे। 262 में 96 कॉरपोरेट ऐसे हैं, जिनके लोन को पहले ही फंसा कर्ज यानी एनपीए मान लिया गया है। वे कॉरपोरेट कर्ज पुनर्गठन की प्रक्रिया में हैं। इन्हें कर्ज उतारने में 5-10 साल का वक्त लग जाएगा। इन 96 में से 62 कंपनियों को कम से कम 2,41,000 करोड़ रुपए की पूंजी की जरूरत होगी। इतनी रकम के बगैर इनकी हालत नहीं सुधर पाएगी।
कर्ज माफी है सरकारों का नया धंधा!
भारत में कंपनियों को दी जाने वाली टैक्स की छूट और कर्ज की माफी हमेशा से विवाद का विषय रहे हैं। के्रद्र सरकार 2006-07 से हर साल बजट में इस बात का जिक्र करती है कि उसने कंपनियों को टैक्स में कितनी छूट दी और आयकर दाताओं को कितनी छूट मिली। मशहूर लेखक और वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ का कहना है कि सरकार ने पिछले नौ सालों में कंपनियों को 365 खरब रुपए की टैक्स छूट दी है। साईनाथ का कहना है कि सरकार अगर ये रकम टैक्स छूट में नहीं देती तो इससे लंबे समय तक मनरेगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का खर्च उठाया जा सकता था। उनका कहना है कि टैक्स छूट एक कारोबार बन गया है। 2013-14 में कारोबार सामान्य ढंग से चल रहा था। कहा जाए तो बिल्कुल धडल्ले से चल रहा था। इस साल के बजट के दस्तावेजों के मुताबिक सरकार ने 2013-14 में जरूरतमंद कॉर्पोरेट और अमीरों को 5.32 लाख करोड़ रूपए दे दिए। हालांकि बजट के मुताबिक ये आंकड़ा 5.72 लाख करोड़ है इसमें वो चालीस हजार करोड़ रुपए शामिल नहीं हैं जो निजी आयकर के खाते में गए हैं क्योंकि इसका फायदा कई लोगों को मिलता है। बाकी की रकम व्यावसायिक घरानों और दूसरे अमीरों को दी जाने वाली छूट का हिस्सा है। सरकार जो माफी देती है उसका बड़ा हिस्सा कॉर्पोरेट आयकर, उत्पाद और सीमा शुल्क है। अगर आपको लगता है कि दौलतमंदों से 5.32 लाख करोड़ का टैक्स न वसूलना कोई बड़ी बात नहीं है तो दोबारा सोचिए। साल 2005-06 से अब तक जो रकम माफ की गई है वो 36.5 लाख करोड़ से ज्यादा है। यानी सरकार ने 365 खरब रुपए माफ किए हैं।
365 खरब रुपए से क्या किया जा सकता है?
मौजूदा स्तर पर मनरेगा का खर्च 105 साल तक उठाया जा सकता है। इतना तो कोई इंसान जीने की कल्पना भी नहीं करता। कोई खेतीहर मजदूर तो शायद ही इतना जीने के बारे में सोचे। अभी इस योजना का खर्च 34,000 करोड़ है। यानी इस रकम से पूरे दो पीढी तक मनरेगा कार्यक्रम चलाया जा सकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली का 31 साल का खर्च उठाया जा सकता है। अभी इसे 1,15,000 करोड़ आवंटित हैं। वैसे, अगर सरकार ये पैसे माफ नहीं करती तो इस आमदनी का तीस फीसदी हिस्सा राज्यों को जाता। यानी केंद्र की इस जबरदस्त कॉर्पोरेट कर्ज माफी का असर राज्यों की वित्तीय हालत पर भी पडा है। बाकी बातें तो अलग है, अगर सिर्फ 2013-14 में सरकार ने जो रकम माफ की है उसी से मनरेगा का तीन दशकों तक और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का साढे चार साल तक खर्च उठाया जा सकता है।
संपत्ति बेचने के बाद भी कर्ज से लदी हैं कंपनियां
वित्त वर्ष 2015 में परिसंपत्तियां बेचने से भारी कर्ज के बोझ तले दबी कंपनियों,जैसे-जयप्रकाश एसोसिएट्स, लैंको इन्फ्रा, सुजलॉन, टाटा स्टील और वीडियोकॉन को थोड़ी राहत मिली है। लेकिन उनके वित्तीय खातों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कर्ज के स्तर में कमी के बावजूद इनमें से ज्यादातर कंपनियों पर अब भी काफी ज्यादा कर्ज है और उन कंपनियों का बाजार मूल्य उनके कर्ज की तुलना में भी काफी कम है। ऐसे में कर्ज चुकाने या विस्तार के लिए कोष जुटाने में ताजा इक्विटी हासिल करने में उन्हें खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मप्र बेस जयप्रकाश एसोसिएट्स का उदाहरण देखें तो कंपनी पर कर्ज और कर की देनदारी वित्त वर्ष 2015 में करीब एक-तिहाई कम होकर 60,000 करोड़ रुपए रह गई है। कर्ज कम करने के लिए समूह ने जेएसडब्ल्यू एनर्जी को पनबिजली परिसंपत्तियों की बिक्री की, वहीं सीमेंट परिसंपत्तियों का भी आंशिक विनिवेश किया है। इससे कंपनी का कर्ज-इक्विटी अनुपात 7.3 से घटकर 5.8 रह गया। लेकिन कर्ज कम करने के बावजूद समूह अपने प्रतिस्पर्धी समूहों में सबसे ज्यादा कर्ज में है। यह गणना उस आधार पर की गई है कि कंपनी को विनिवेश से जो भी रकम मिली, उसे कंपनी ने कर्ज चुकाने में इस्तेमाल किया और वित्त वर्ष 2015 में कोई नया कर्ज नहीं लिया। लेकिन यह आकलन सभी कंपनियों के लिए सच नहीं हो सकता, क्योंकि विश्लेषण से पता चलता है कि ज्यादातर कंपनियां का कर्ज-इक्विटी अनुपात अब भी ज्यादा है। एक बैंक से जुड़े वरिष्ठ विश्लेषक के अनुसार, सीमेंट और हाइड्रोपावर नकदी के मामले में संपन्न कारोबार है, जिसमें पूंजीगत खर्च व कार्यशील पूंजी के निवेश में काफी कम बढ़ोतरी होती है। संपत्ति बिक्री से कंपनी के नकदी प्रवाह पर विपरीत असर पड़ सकता है क्योंकि बाकी कारोबारों मसलन रियल एस्टेट, निर्माण व बुनियादी ढांचे में ज्यादा कार्यशील पूंजी की दरकार होती है।
करोड़ों की जमीन लेकर प्रोजेक्ट लांचिंग भूले संस्थान
मप्र में औद्योगिक निवेश को बढावा देने के लिए प्रदेश सरकार ने न केवल पलक पावड़े बिछा रखा है, बल्कि उनके प्रोजेक्ट के लिए जमीन भी तैयार कर रखी है। अफसरों ने कंपनियों से प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिए बिना ही उनको जमीने आवंटित कर दी। दिल्ली, मुंबई समेत देश के दूसरे प्रांतों से आकर मध्यप्रदेश सरकार से जमीन मांगने वाली फर्मों द्वारा जमीन मिलने के बाद भी यहां अपने प्रोजेक्ट लांच नहीं किए जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि कंपनियों में अपने प्रोजेक्ट के लिए जिस स्थान पर जमीन मांगी थी, उन्हें उसकी जगह दूसरे स्थान पर जमीन दी गई है। बीते दो सालों में 24 सरकारी प्रोजेक्ट के लिए राजस्व विभाग ने जमीन अलग-अलग जिलों में आवंटित कर दी है पर इनके प्रोजेक्ट को अभी तक आकार देने की कोशिश शुरू नहीं हुई है। इन सभी संस्थानों ने शिक्षा और रेल समेत तकनीकी प्रोजेक्ट लांच करने के लिए जमीन ली है। नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गेनाइजेशन भारत सरकार द्वारा भोपाल जिले के बालमपुर में एडमिनिस्ट्रेटिव बेस की स्थापना के लिए जमीन ली गई। यहां 18.62 हेक्टेयर जमीन दो साल पहले स्थायी पट्टे के आधार पर दी गई। इसी तरह भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना के लिए भोपाल के बरखेड़ा नाथू में 20.050 हेक्टेयर जमीन का आवंटन राज्य सरकार ने किया है। नि:शुल्क दी गई इस भूमि पर अभी प्रोजेक्ट शुरू होना बाकी है। पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा चंदनपुरा भोपाल में 10 एकड़ जमीन होटल प्रबंधन खान-पान तकनीक और पोषण आहार संस्थान के लिए ली गई। इंडियन आयल और भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन को भोपाल के नयापुरा लालघाटी और बावडिय़ा कला में रीटेल आउटलेट की स्थापना के लिए जमीन दी गई है। इन स्थानों पर अभी प्रोजेक्ट आकार नहीं ले पाए हैं। पश्चिम मध्य रेल के संंभागीय कार्यालय की स्थापना के लिए भोपाल में 22.68 एकड़ जमीन दी गई है। इसमें हबीबगंज के यार्ड, सर्कुलेटिंग एरिया एवं स्टेशन एरिया के विकास व यात्रियों की सुविधा के लिए काम होना है।
वहीं केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण जबलपुर न्यायपीठ के कार्यालय एवं आवासीय भवन निर्माण के लिए जबलपुर में तीन एकड़ जमीन स्थायी लीज पर दी गई है। इस भूमि का आवंटन दो साल पहले किया गया था। पश्चिम मध्य रेलवे कोटा को राजगढ़ जिले की रामगंज मंडी से न्यू बीजी लाइन प्रोजेक्ट के लिए 0.025 हेक्टेयर जमीन चाहिए थी। सरकार ने राजगढ़ जिले के जीरापुर तहसील अंतर्गत डोबड़ा गांव में जमीन दी है पर काम शुरू नहीं हुआ। उप सचिव, राजस्व विभाग राजेन्द्र सिंह कहते हैं कि जिन सरकारी संस्थाओं ने राज्य सरकार से जमीन मांगी थी, उन्हें आवंटन कर दिया गया है। उधर, श्रीविले पार्ले केलवानी मंडल मुंबई को उच्च शिक्षा काम्प्लेक्स के लिए इंदौर जिले के बड़ा बागड़दा में 10.401 हेक्टेयर जमीन दी गई है। तीस साल की लीज पर यह जमीन वित्त वर्ष 2013-14 में देने की स्वीकृति दी गई है। सिम्बायसिस फाउंडेशन नई दिल्ली को निजी विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए बड़ा बागड़दा इंदौर में 10.401 हेक्टेयर जमीन दी गई। इस जमीन पर निजी विश्वविद्यालय ने अभी तक आकार नहीं लिया है। महाराष्ट्र एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग एंड एजुकेशन रिसर्च पुणे को उज्जैन जिले के लैकोडा में निजी विश्वविद्यालय के लिए 20 हेक्टेयर जमीन वर्ष 2013-14 में दी गई। यह जमीन स्थाई पट्टे के आधार पर आवंटित की गई है। इसके अलावा मुंगावली, भोपाल के मुगालिया छाप, नपा परिषद नरसिंहपुर, मंदसौर में सुमन विद्या मंदिर को जमीन दी गई है। इनका प्रोजेक्ट भी अभी तक शुरु नहीं हो पाया है।
जमीन हमारी...फायदा औद्योगिक घरानों को
अफसरों की मेहरबानी का एक नजारा यह भी देखने को मिल रहा है कि इनदिनों प्राकृतिक गैस एवं पेट्रोलियम मंत्रालय की लीज पर रिलायंस कंपनी द्वारा शहडोल-फूलपुर गैस पाइप लाइन बिछाई जा रही है। मप्र की धरती पर तकरीबन 172 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद उत्तर प्रदेश के फूलपुर जिले में पहुंचने वाली इस गैस पाइप लाइन को बिछाने का काम अंतिम चरण में पहुंच चुका है। इसमें जमीन भी सार्वधिक मप्र की इस्तेमाल हुई है, शहडोल के लालपुर से निकलने वाली गैस पर अधिकार भी मप्र का है। बावजूद इसके इस प्राकृतिक गैस यानी मीथेन का लाभ मध्यप्रदेश के लोगों को नहीं मिलेगा। क्योंकि इस गैस पाइप लाइन में एक भी चेंबर नहीं बनाया गया है। शहडोल के लालपुर से निकलने वाली मीथेन गैस को मप्र के शहडोल, सीधी, रीवा जिले से होते हुए उत्तर प्रदेश के फूलपुर तक गैस पाइप लाइन से ले जाया जाना है। जिसे बाद में मुम्बई की ओर से आने वाली गैस पाइप लाइन से जोड़ दिया जाएगा। इस गैस पाइप लाइन से जुडऩे के बाद प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल मुम्बई व गुजरात में होगा। हालांकि अभी इसके आवंटन पर संशय बरकरार है। रिलायंस कंपनी को गैस पाइप लाइन बिछाने सहित शहडोल के लालपुर से 25 साल तक गैस निकालने की लीज मिली है। रिलायंस ने पाइप लाइन बिछाने का काम चाइना की कंपनी को दे रखा है। बता दें कि इस परियोजना में रिलायंस द्वारा 900 कुएं खोदकर प्राकृतिक गैस का दोहन किया जाएगा। यह अनवरत रूप से 25 साल तक चलता रहेगा। समाजसेवी कविता पाण्डेय कहती हैं कि मप्र की जमीन व गैस होने के नाते रीवा सहित सीधी और शहडोल में भी रिलायंस कंपनी को गैस चेम्बर बनाना चाहिए। जिससे आने वाले समय में इन स्थानों पर पाइप लाइन से घरेलू गैस की सप्लाई लोगों को मिल सकती है।
मुफ्त में जमीन दे हुए बदनाम
मुकेश अंबानी समूह की जियो रिलायंस कंपनी को आधुनिक 4जी टॉवर लगाने के लिए मुफ्त में जमीन मुहैया कराना पुलिस व अन्य एजेंसियों के लिए महंगा सौदा साबित हो रहा है। कंपनी ने जमीन के बदले सड़कों पर आधुनिक किस्म के कैमरे लगाने व कुछ अन्य सुविधाएं मुहैया कराने का प्रलोभन दिया था, लेकिन कई शहरों में आप्टीकल फायबर का जाल बिछने के बाद भी अब तक यह वायदा पूरा नहीं हुआ है। मुफ्त में जमीन पाकर इन टावरों के जरिए कंपनी ने तो मुनाफा कमाने की पूरी तैयारी कर ली है। वहीं पुलिस समेत अन्य महकमे अब खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। खास बात यह,कि पुलिस मुख्यालय ने जमीन देने के लिए थानों की जमीन उपयोग की अनुमति देने की बजाए अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया। जो इस मामले में उसकी भूमिका को संदिग्ध बनाता है। इस मामले की शिकायत लोकायुक्त विशेष स्थापना पुलिस को भी की गई है। पुलिस से इस तरह के मामलों में सतर्कता बरतने की उम्मीद कुछ अधिक होती है लेकिन जब वही ठगी का शिकार हो जाए तो दीगर महकमों से उम्मीद करना बेमानी ही है। भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक, जियो रिलायंस कंपनी ने राज्य मंत्रिपरिषद के करीब दो साल पुराने एक फैसले का सहारा लेते हुए पुलिस मुख्यालय समेत सभी जिला कलेक्टरों व नगरीय निकायों को टॉवर के लिए जमीन मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा था। खास बात यह कि इस प्रस्ताव में जमीन के बदले कोई भू-भाटक या किराया अदा करने का कोई उल्लेख नहीं था। जबकि प्रदेश में 4 जी ब्राडबैंड वायर लाईन एवं वायरलैस एक्सेस सर्विसेस प्रदाय करने की विनियामक प्रक्रिया नीति 2013 की कंंडिका 10.1 में कहा गया है कि इस नीति के तहत बनाई जाने वाली प्रत्येक संरचना के लिए कंपनी की ओर से किराया आदि का भुगतान करना होगा। लेकिन कंपनी को टावर लगाने की एनओसी जारी करने से पहले पुलिस मुख्यालय ने किराया भुगतान के बारे में कोई अनुबंध ही नहीं किया। यही नहीं रेंज पुलिस महानिरीक्षकों को जब इस बावत पत्र जारी किए गए तो उन्हें भी इस पर प्राथमिकता से कार्रवाई करने के लिए आदेशित किया गया। पुलिस मुख्यालय के संपदा अधिकारी की ओर से यह पत्र मिलते ही रेंज महानिरीक्षकों ने भी आनन-फानन में अपने रेंज के थानों में उक्त टावर लगाने की हरी झंडी कंपनी को दे डाली। देखते ही देखते प्रदेश भर के थाना परिसरों में कंपनी के टावर खड़े होना शुरु हो गए। खास बात यह कि प्रदेश के ज्यादातर थाने एवं इनके परिसर राजस्व भूमि पर स्थापित हैं। उक्त अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने से पहले पुलिस मुख्यालय ने राजस्व विभाग या जिले के कलेक्टरों को भी भरोसे में लेना या उनसे परामर्श लेना बेहतर नहीं समझा।
सूत्रों के मुताबिक, कंपनी को टावर लगाने के लिए एनओसी दिए जाने की एक प्रमुख बजह कंपनी से मिले कुछ प्रलोभन थे। एनओसी दिए जाने के पीछे एक तर्क यह भी दिया गया कि मुफ्त में मिली जमीन के बदले कंपनी हर टावर पर दो फिक्स कैमरे, एक मूविंग कैमरा व हाईमास्ट लाईट लगा कर देगी। बताया जाता है कि कंपनी ने जमीन के बदले में प्रदेश के छह प्रमुख शहर भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन और सागर में पुलिस को पंद्रह सालों के लिए फ्री बैंडविड्थ उपलब्ध कराने का वादा भी किया है, लेकिन व्यावसायिक नजरिए से देखा जाए तो इसकी कीमत टावरों से होने वाले कारोबार की तुलना में नगण्य है।
सूत्रों के मुताबिक, कंपनी ने भोपाल में ही करीब पांच सौ आधुनिक कैमरे लगाने का वायदा किया गया था। इसी तरह इंदौर,ग्वालियर,जबलपुर व अन्य शहरों में भी इसी तरह के कैमरे लगाए जाने थे। कंपनी द्वारा टावर तो जगह-जगह खड़े कर दिए गए लेकिन इनके एवज में कैमरे लगाने व टेलीफोन सेवा देने के अपने वायदे पर पूरी तरह अमल ही नहीं किया। यही नहीं सिंहस्थ का बहाना लेकर कंपनी द्वारा उज्जैन में ही करीब 127 किमी लंबी केबिल बिछाई गई है। पुलिस अधिकारी अब कह रहे हैं कि इन टावरों को लगाए जाने के लिए पुलिस विभाग ने उन्हें जमीन प्रदान नहीं की है बल्कि केवल इस शर्त के साथ टावर लगाने की अनुमति दी है, कि जब पुलिस विभाग कहेगा उन्हें हटा लिया जाएगा। एनओसी देने के पीछे एक अन्य तर्क यह है कि गृह विभाग ने मोबाइल टावरों से पैदा खतरे पर अनुसंधान का कार्य पुलिस मुख्यालय को सौंपा है। एनओसी देने में इस बिंदु का सहारा भी लिया गया, लेकिन हकीकत यह कि विभाग में इस दिशा में अब तक कोई प्रगति ही नहीं हुई।
23 लाख में दे दी करोड़ों की जमीन
कंपनियों के प्रति अधिकारियों की दरियादिली का एक मामला सतना जिले के मौजाघूरडांग स्थित औद्योगिक क्षेत्र में सामने आया है। उद्योग विभाग को औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने के लिए आवंटित की गई करीब 30 एकड़ भूमि को कैग की सिफारिश के विपरीत महज 23 लाख रुपए में दो सीमेंट फैक्टियों के नाम कर दिया गया है। खास बात यह,कि पहले इन नामी कंपनियों ने इस जमीन पर बेजा कब्जा किया और बाद में मिलीभगत से यह जमीन अपने नाम करा ली। सतना जिले के मौजाघूरडांग स्थित औद्योगिक क्षेत्र में उद्योग विभाग ने अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मेसर्स बिरला विकास सीमेंट व मेसर्स सतना सीमेंट वर्क्स को आवंटित किया था। कालांतर में सीमेंट कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री के समीप रिक्त करीब 30.62 एकड़ भूमि पर अवैध तरीके से कब्जा कर लिया। यह भूमि खसरा क्रमांक 169,172 व 173/1 के अंतर्गत आती है। बताया जाता है,कि उक्त भूमि पर न केवल बेजा कब्जा हुआ बल्कि कुछ निर्माण कार्य भी कर लिए गए। जाहिर है यह सब विभागीय अधिकारियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं था। नियंत्रक महालेखाकार ने हाल ही में विभागीय लेखा समीक्षा के दौरान जब इस गड़बड़ी का खुलासा किया तो दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की जगह विभाग ने नियमों का हवाला देकर यह जमीन उक्त दोनों कंपनियों को महज 23 लाख 54 हजार 607 रुपए में नए सिरे से आवंटित कर दी,जबकि वर्तमान में उक्त जमीन का बाजार मूल्य ही करोड़ों रुपए में है। हैरत की बात यह है कि नियंत्रक महालेखापरीक्षक ने उक्त जमीन पर कब्जा करने वाली कंपनियों से कमर्शियल दर पर प्रीमियम व किराया पेनाल्टी वसूले जाने की सिफारिश भी की थी। लेकिन इसी सिफारिश की आड़ लेकर विभागीय अधिकारियों ने बिरला विकास सीमेंट को करीब 21 एकड़ 14 डिसमिल भूमि मात्र 13 लाख 69 हजार 214 रुपए में तथा मेसर्स सतना सीमेंट वर्क्स को 19.48 एकड़ भूमि महज 9 लाख 85 हजार 393 रुपए में आवंटित कर दी गई। इस तरह सतना जिला मुख्यालय से लगी शासन की 30 एकड़ 62 डिसमिल भूमि सिर्फ 23 लाख 54 हजार 607 रुपए में बिक गई।
कंपनियों के प्रति अधिकारियों की दरियादिली यहीं तक सीमित नहीं रही बल्कि उक्त अतिक्रमणकारी कंपनियों को उनके जमीन पर बेजा कब्जा रहने के दौरान प्रवेश कर में छूट व बिजली पर अनुदान की सुविधाएं भी मुहैया कराई गईं। वर्तमान में भी उक्त कंपनियों को इसी तरह की विभिन्न सुविधाओं का लाभ दिया जा रहा है। कैग की लेखा परीक्षण रिपोर्ट में इन सुविधाओं पर आपत्ति जताई गई। तब इसे नियमों के दायरे में लाने जमीन का नए सिरे से आवंटन कर इसका नियमितीकरण कर दिया गया। मेसर्स बिरला विकास सीमेंट के मामले में विभाग ने जहां मप्र राज्य औद्योगिक भूमि एवं औद्योगिक भवन प्रबंधन नियम 2008 तो सतना सीमेंट वर्क्स के मामले में मप्र शेड प्लांट एवं भूमि आवंटन नियम 1977 व संशोधित नियम 1999 का सहारा लिया। इस मामले में उद्योग मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया कहती हैं कि संबंधित भूमि का नियमितीकरण नियमानुसार ही किया गया है। इसके लिए कोई अधिकारी दोषी नहीं है न ही इसमें कोई गड़बड़ी हुई है।
औद्योगिक पार्क के लिए उद्योगों को आधे दाम में जमीन
प्रदेश में औद्योगिक पार्क के लिए उद्योगों को 40 हेक्टेयर तक जमीन आधे दामों में दी जाएगी। इस संबंध में उद्योग विभाग ने राज्य औद्योगिक भूमि एवं भवन तथा प्रबंधन नियम 2015 के आदेश जारी किए हैं। इसके अनुसार 10 हेक्टेयर भूमि पर 10 से 100 करोड़ तक का निवेश करने पर भी 50 प्रतिशत तक की छूट दी जाएगी। इसी प्रकार 20 हेक्टेयर तक में 100 से 500 करोड़ तक के संयंत्र तथा 40 हेक्टेयर में 500 करोड़ से अधिक के पूंजी निवेश पर भी 50 प्रतिशत की छूट का प्रावधान है। पांच सौ करोड़ या इससे अधिक निवेश करने वाली रक्षा उत्पाद बनाने वाले औद्योगिक इकाइयों को जमीन के मूल्य में अधिकतम 50 प्रतिशत की छूट 20 हेक्टेयर तक दी जाएगी। इसके अलावा शेष औद्योगिक प्रयोजनों तथा 500 करोड़ स्र्पए से कम निवेश वाली रक्षा उत्पाद विनिर्माता औद्योगिक इकाइयों के लिए भूमि के मूल्य में छूट पूंजी निवेश तथा क्षेत्रफल के आधार पर निर्धारित की गई है। इसमें 500 वर्ग मीटर तक 90 प्रतिशत, 5000 वर्ग मीटर 80, 2 हेक्टेयर तक 65, 6 हेक्टेयर तक 50 तथा 20 हेक्टेयर तक 25 प्रतिशत रियायत देने का प्रावधान है।

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