सोमवार, 2 नवंबर 2015

प्रदेश के लिए बोझ बने निगम मंडल

50,00,00,00,000 के घाटे में डूबे निगम-मंडलों को लूटने नेताओं में लगी होड़
भोपाल। प्रदेश में संचालित निगम मंडलों 50,00,00,00,000 रूपए के घाटे में चल रहे हैं, बावजुद इसके सरकार इन निगम मंडलों को घाटे से उबारने का प्रयास करने की बजाय इनमें अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में सफेद हाथी बिठाने में जुट गई है। कहा तो यह जा रहा है कि अध्यक्ष-उपाध्यक्षों की नियुक्ति से विभागों की आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायता मिलेगी, लेकिन स्थिति इसके विपरीत होनी है। विभाग में काम हो या न हो अध्यक्षों और उपाध्यक्षों पर हर माह लाखों रूपए स्वाहा होने हैं। यह पहली बार नहीं होगा। निगम-मंडलों की स्थापना के समय से ही ऐसा होता आया है जिसका परिणाम है कि वर्तमान समय में प्रदेश में संचालित 23 निगम मंडलों में से मात्र 2 ही निगम-मंडल ऐसे हैं जो अपनी स्थापना से लेकर आज तक लाभ में चल रहे हैं। शेष 21 निगमों में से कुछ निगम पिछले पांच सालों में अच्छी स्थिति में आ पाए हैं तो कुछ निगम ऐसे भी हैं जो स्थापना से लेकर आज तक सफेद हाथी बने हुए हैं। आज वर्तमान परिदृश्य में कई निगमों के हालात इतने बदतर हैं कि अब उन्हें बंद करने के अतिरिक्त और कोई चारा सरकार के पास नहीं है। ऐसे में अगर इन निगम-मंडलों में किसी तजुर्बेकार प्रशासनिक व्यक्ति के अनुभवों का सहारा लिया जाता तो इनमें सुधार की स्थिति बन सकती थी। लेकिन परंपरानुसार सरकार इन निगम मंडलों में नेताओं को पदस्थ करने का सिलसिला शुरू कर दिया है। आलम यह है कि जिन निगम, मंडलों और प्राधिकरणों में नियुक्ति हो गई है उनमें अध्यक्ष के पदभार ग्रहण के तमाशे में ही लाखों रूपए बहा दिए गए हैं।
उल्लेखनीय है कि निगम-मंडलों की पंरपरा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सरकारी योजनाओं को प्रभावी बनाने के लिए की थी। मंशा यह थी कि अर्धसरकारी उपक्रमों के जरिए जनता को योजनाओं का प्रभावी लाभ दिलाया जा सके, लेकिन वर्तमान में इसका ढर्रा ही बदल गया और राजनीतिक रसूख के चलते निगम-मंडल की शाख पर बट्टा लग गया। इसके चलते ही निगम-मंडल बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं। प्रदेश में 'सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसायटीÓ के आधार पर निगम-मंडलों की स्थापना की गई थी। इनकी स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यह था कि राज्य में सुव्यवस्था, विकास, रोजगार और आम लोगों को सुख सुविधाएं मिले। लेकिन निगम-मंडल अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। निगम-मंडलों का बुनियादी आर्थिक ढांचा गड़बड़ा गया है। कर्मचारियों की मानें तो निगम-मंडलों के आर्थिक हालात लगातार खराब हो रहे हैं। पूंजी निवेश के कारण सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। इससे निगम-मंडलों का राजस्व थम रहा और उनमें तालाबंदी की नौबत बन रही है। सड़क परिवहन, गंदी बस्ती निर्माण मंडल, लेदर डेव्हलपमेंट, चर्म उद्योग, राज्य उद्योग एवं वस्त्र निगम सहित कई निगम मंडल बंद हो गए हैं। कई बंद होने की कगार पर पहुंच रहे हैं। कारण इनमें कर्मचारियों की कमी है, वहीं जो अमला कार्यरत है, उसे महंगाई के इस दौर में शासकीय कर्मचारियों की भांति छठा वेतनमान सहित अन्य प्रासंगिक सुविधा नहीं मिल पा रही है।
घाटे की राह पर मंडल
एक ओर जहां हमारे नेता निगम-मंडलों की लालबत्तियों का सुख भोगने के लिये हर संभव कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आपको जानकर हैरानी होगी कि प्रदेश के ज्यादातर निगम-मंडल गलत नीतियों और लगातार बढ़ रहे घाटे के कारण बदहाली की स्थिति में हैं। पिछले कई सालों में सरकार कई निगमों और मंडलों को बंद कर चुकी है, तो वहीं कई निगम-मंडल बंद होने की कगार पर हैं। इससे कर्मचारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा होने वाला है। आंकड़ों की बात करें तो प्रदेश में निगम-मंडलों पर 709893.86 की लोन पूंजी है। पहले निगमों में 2,51,210 कर्मचारी काम कर रहे थे लेकिन लगातार छटनी और निगमों के बंद होने से अब इनकी संख्या आधी रह गई है, जबकि कर्ज तीन गुना बढ़ गया है। कर्मचारियों की तीस फीसदी से ज्यादा छटनी के बाद भी प्रदेश में निगमों का कुल घाटा 50 अरब तक पंहुच गया है। सूत्रों के मुताबिक निगमों की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण निजीकरण और प्रायवेट सेक्टर को लाभ पंहुचना है। उदाहरण के तौर पर निजी बस मालिकों को लाभ पहुंचाने के लिए प्रदेश के सड़क परिवहन निगम को बंद किया गया और अब इसी की तर्ज पर निजी वेयर हाउस संचालकों को लाभ पंहुचाने के लिए वेयरहाउसिंग निगम को कमजोर किया जा रहा है, जिससे आने वाले कुछ सालों में यह निगम भी बंद होने की कगार पर पंहुच जाएगा। नौकरशाही की गलत नीतियों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के 32 निगम मंडल घाटे में चल रहे हैं, जिनमें से घाटे के चलते कुछ को बंद भी कर दिया गया है। यह घाटा हर साल बढ़ता जा रहा है।
सरकार की उपेक्षा के कारण अभी तक करीब 50 अरब का घाटा निगम-मंडलों को हुआ है। इसके पीछे एक वजह अधिकारियों की गलत नीतियां भी रही है। तिलहन संघ प्रदेश में सोयाबीन संग्रहण के लिए अग्रणी संस्था थी, जो अफसरशाही के स्वार्थो के चलते बंद हो गई है। इसी प्रकार दुग्ध संघ में टोकन से दूध निकालने की जो मशीन लगाई गई है, इससे भोपाल शहर को ही 20 लाख का घाटा हुआ है। जबकि प्रदेश में संचालित संघ 80 करोड़ 62 लाख के घाटे में आ गये हैं। आधिकारिक स्तर पर बन रहीं गलत नीतियां और हर स्तर पर निजीकरण को दिए जा रहे बढ़ावे के कारण निगम-मंडलों की हालत दिन पर दिन खराब होती जा रही है।
20 साल से नहीं हुई निगम-मंडलों में नई नियुक्तियां
राज्य के निगम मंडल अब धीरे-धीरे बंद होने की कगार पर पहुंच रहे है। कर्मचारियों की पीड़ा है कि पिछले 20 वर्षो से सरकार ने निगम-मंडलों में कोई भर्ती नहीं की है। इन निगम मंडलों में अधिकांश पद खाली है। इन पदों को भरने की किसी को चिंता नहीं है। यहां तक कि वित्त विभाग भी आपत्तियां लगाकर पद की मंजूरी नहीं दे रहा है। निगम मंडल के अधिकारियों को आशंका है कि अगर यही हाल रहा तो कुछ सालों में ज्यादातर लाभ वाले निगम मंडल खाली हो जाएंगे। जानकारी के अनुसार प्रदेश में निगम-मंडलों में 20 वर्ष से नई नियुक्तियां नहीं हुई है। इन उपक्रमों के प्रबंध संचालक समय-समय पर वित्त विभाग को नई नियुक्तियों के प्रस्ताव भेज चुके है। तब भी राज्य सरकार की तरफ से नियुक्तियां की अनुमति नहीं मिल रही है। इस वजह से कामकाज पर दिन प्रतिदिन असर पड़ रहा है। यहां तक कि आरक्षित पदों की भी भर्ती टाली जा रही है। वन विकास निगम प्रबंधन करीब दस वर्षो से लगातार पदों की नियुक्तियों हेतु पत्र व्यवहार कर रहा है तब भी नियुक्तियों की अनुमति नहीं मिल रही है। इस निगम में 600 पद रिक्त हैं। इन पदों के रिक्त होने से वृक्षारोपण का कार्य प्रभावित हो रहा है साथ ही जंगलों की रक्षा करने वाले रेंजरों का भी अकाल है। यही हाल नागरिक आपूर्ति निगम का है जो कि हर साल लाखों मीट्रिक टन गेहूं खरीदी का लक्ष्य तय करता है पर निगम में अधिकारियों की बेहद कमी है। जानकारी के अनुसार, गृह निर्माण मंडल-700, खनिज निगम-100, पाठ्य पुस्तक निगम-100, पर्यटन निगम-125, लघु उघोग निगम- 150, बीज एवं फार्म विकास निगम-100 पद खाली हैं। अधिकारियों का भी कहना है कि अरसे से पद रिक्त है। समय-समय पर राज्य शासन को नई नियुक्तियां करने के प्रस्ताव भेजे गए है। इन पदों की नियुक्तियों की अनुमति जल्द से जल्द मिलना चाहिए। निगम मंडल अधिकारी कर्मचारी महासंघ के प्रांताध्यक्ष अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि निगम मंडलों में जो पद रिक्त है उन पदों को तत्काल भरा जाना चाहिए अन्यथा लाभ में चल रहे उपक्रम भी घाटे में आ जाएंगे। राज्य शासन से इन उपक्रमों को आर्थिक मदद तो मिलती नहीं है पर कम से कम निगमों को संचालित करने के लिए पदों की नियुक्तियों की मंजूरी दी जाए ताकि काम काज और अनुकूल ढंग से हो सके।
निगम मंडलों के हालात जैसे-जैसे बिगड़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे कर्मचारियों की फजीहत होती जा रही है। हालात यह हैं कि निगम मंडल कर्मचारियों के ऊपर निगम बंद होने की तलवार हमेशा लटकती रहती है। पता नहीं कब कौन सा निगम बंद हो जाए। हाल ही में कुछ ऐसा ही माहौल राज्य सड़क परिवहन निगम का बना हुआ है। पता नहीं कब उसमें ताले लग जाएं। प्रदेश के 23 निगमों में से मात्र 6 निगम ही ऐसे हैं जिन्होंने अपने कर्मचारियों को छटवां वेतनमान दिया है। इनमें मध्यप्रदेश स्टेट सिविल सप्लाईज कारपोरेशन, मध्यप्रदेश पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन, मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम, मध्यप्रदेश वेयर हाउसिंग एण्ड लॉजिस्टिक्स कारपोरेशन शामिल हैं। कई निगम ऐसे भी हैं जहां अभी चौथा वेतनमान ही चल रहा है।
राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण बदहाल हुए निगम-मंडल
जानकार बताते हैं कि निगम-मंडलों में होने वाली राजनीतिक नियुक्तियों के चलते अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बनने वाले नेता निगम-मंडलों को अपने स्तर एवं विवेक से चलाने की कोशिश करते हैं। उनके जाने के बाद वह सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं और फिर नए नेता आते ही नए नियम बनने लगते हैं। दरअसल, निगम मंडलों के गठन के समय प्रबंध संचालकों को दैनिक कार्य और व्यवसाय को सुचारू रुप से संचालित करने और अध्यक्ष एवं बोर्ड ऑफ डायरेक्टर को निगम के नीति निर्धारण तथा महत्वपूर्ण निर्णय लेने का कार्य सौंपा गया था। देखा जाए तो यह व्यवस्था एक तरह से चैक-बैलेंस के लिए की गई थी, लेकिन धीरे-धीरे निगम-मंडल के अध्यक्ष पद पर राजनीतिक लोगों का कब्जा होने लगा और इन लोगों ने संस्था के मूल उद्देश्यों के बजाय अपने राजनैतिक और व्यक्तिगत हितों को पूरा करने में रुचि ली साथ ही सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए निगमों के उत्पादों और सेवाओं को भी प्रभावित किया। इतना ही नहीं इन लोगों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए समर्थकों और रिश्तेदारों को अनावश्यक रूप से भर्ती कर लिया। ऐसे में जहां एक ओर निगमों पर अनावश्यक स्थापना व्यय बढ़ा वहीं दूसरी ओर निगमों में अयोग्य और अकुशल कर्मचारियों की भर्ती होने से उनकी व्यवसायिक कुशलता भी कम हो गई। जिसके चलते निगमों में अपेक्षाकृत लाभ की बजाए हानि हो रही है। हालांकि यह भी सही है कि निगम-मंडलों की स्थापना लाभ कमाने के लिए नहीं, बल्कि वस्तुओं, सेवाओं आधारभूत संरचनाओं का निर्माण एवं विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर की गई थी, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि निगम-मंडलों को लाभ नहीं कमाना चाहिए। यदि निगम-मंडल लाभ कमाते हैं तो वो ज्यादा अच्छी तरह से जनहित में कार्य कर पाएंगे और राज्य सरकार पर भी किसी प्रकार का बोझ नहीं रहेगा। वर्ष 2004 में राज्य योजना मंडल के तत्कालीन उपाध्यक्ष सोमपाल ने राज्य शासन को सभी निगम-मंडलों के क्रियाकलापों, प्रबंधन एवं उद्देश्यों की एक बार फिर से नए सिरे से समीक्षा करने के लिए लिखा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि जो निगम-मंडल आवश्यक हैं उनका पुनर्गठन करने का प्रयास किया जाना चाहिए। जिससे वो अपने मौलिक उद्देश्यों की पूर्ति एवं पहले से बेहतर कार्य करने में सफल हो सकें। जिन निगम-मंडलों के उद्देश्यों की पूर्ति हो चुकी है या वे अनावश्यक हो गए हैं उन्हें बन्द कर देना चाहिए। उन्होंने एक दर्जन से अधिक निगम-मंडलों को अनुपयुक्त बताते हुए कुछ को बन्द करने और कुछ को एक-दूसरे में मर्ज करने की सलाह भी राज्य सरकार को दी थी, लेकिन निगम-मंडल राजनीतिक लोगों के लिए पुनर्वास केन्द्र होने के कारण तत्कालीन उपाध्यक्ष सोमपाल की सलाह को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
न काम, न अधिकार फिर काहें का तामझाम
प्रदेश के अधिकांश निगम-मंडलों में अभी अध्यक्ष का पद रिक्त है। सरकार को घोषणा करनी है, मगर कोई नेता कुर्सी संभाले उससे पहले ही ऑफिसों के डेकोरेशन और वास्तु को ठीक करने में लाखों रुपए खर्च कर दिए गए। मप्र पर्यटन निगम के पूर्व अध्यक्ष ने टूरिज्म प्रमोशन का आधार लेकर जर्मनी, फिलीपिंस और ब्रिटेन की यात्राएं कर लीं, लेकिन कोई फायदा नजर नहीं आया। मप्र वेयर हाउसिंग एंड लॉजिस्टिक कार्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष भी ऑस्ट्रेलिया गए। यहां भी लाखों का पेट्रोल फंका। ये तो सिर्फ बानगी है। इस समय मप्र में 23 निगम-मंडल (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम) है, जिनमें अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद सिर्फ राजनीतिक शानोशौकत के लिए हैं। कई पूर्व अध्यक्ष भी यह मानते हैं। वे कहते हैं कि निगम-मंडलों में न कुछ करने को है, और न ही फैसले लेने का अधिकार। मगर इन पदों को खत्म करने की बात पर वे टिप्पणी करने से बचते हैं। जबकि दो साल पहले ही सार्वजनिक उपक्रम विभाग अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद खत्म कर कमान प्रबंध संचालक को देने की सिफारिश कर चुका है। निर्णय उद्योग विभाग को लेना है, क्योंकि सार्वजनिक उपक्रम विभाग उद्योग विभाग में मर्ज हो चुका है। सफेद हाथी बने इन निगम-मंडलों की फिजूलखर्ची को देखते हुए चार निगम बंद भी किए जा चुके हैं। अब सरकार फिर बड़े पैमाने पर इनमें अध्यक्ष-उपाध्यक्ष नियुक्त करने जा रही है। अनुमान है कि जनता की जेब पर करीब 10 करोड़ का बोझ बढ़ेगा। सारे निगम-मंडलों में राज्य और केंद्र सरकार की अंशपूंजी करीब 600 करोड़ रुपए लगी हुई है। वही कई ऐसे भी हैं जो राजनीतिक नियुक्ति को सही मानते हैं। मप्र राज्य पशुधन एवं कुक्कुट विकास निगम के पूर्व अध्यक्ष शैतान सिंह पाल कहते हैं कि निगम अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद जरूरी है। ये होने चाहिए।
मप्र एग्रो इंडस्ट्रीज कार्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष रामकिशन चौहान कहते हैं कि चेयरमैन-एमडी में तालमेल अच्छा हो और नेता अनुभवी हो तो काम तो होता है। यह पद सिर्फ खानापूर्ति नहीं हैं। कुछ मामलों में जरूर पूछ-परख कम होती है, लेकिन ये पद अप्रासंगिक नहीं हैं। वहीं महिला वित्त एवं विकास निगम की पूर्व अध्यक्ष सुधा जैन कहती हैं कि ये पद खत्म नहीं होना चाहिए। यह बात सही है कि न करने को ज्यादा होता है और न ही बड़े फैसले लेने की छूट है। बस राजनीतिक पद है। काम के मौके कम हैं, लेकिन कुछ असर तो रहता है।
तीन साल से केंद्र को नहीं भेजीे बैलेंस शीट
भारत सरकार के रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज कॉर्पोरेट मंत्रालय ने मध्यप्रदेश के निगम-मंडलों द्वारा बीते तीन वर्षो से वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट तीन साल से नहीं भेजी है, जबकि इस लापरवाही पर छह माह से अधिक समय होने पर कड़े दंड का प्रावधान है, परन्तु प्रदेश के निगम- मंडल इस मामले में लगातार लापरवाह बने हुए हैं। इसमें महत्वपूर्ण निगम- मंडलों में मप्र एमपी एग्रो, लउनि, मप्र आदिवासी वित्त विकास निगम, टे्रड एंड इंवेस्टमेंट, मप्र पुलिस गृह निर्माण मंडल जैसे निगम शामिल है। केंद्र सरकार से फटकार मिलने के पश्चात उद्योग विभाग ने ऐसे सभी निगम-मंडलों को पत्र लिखते हुए तत्काल बैलेंस शीट भेजने के निर्देश दिए हैं। मध्यप्रदेश के सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा समय से वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट कंपनी अधिनियम 19562013 के अंतर्गत प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया है, लेकिन प्रदेश के तीन दर्जन से अधिक निगम मंडलों ने वर्ष 2011-12, वर्ष 2012-13 एवं वर्ष 2013-14 का वार्षिक रिटर्न एवं बेलेंसशीट नहीं भेजी हैं। भारत सरकार के रजिसट्रार ऑफ कंपनीज कॉर्पोरेट मंत्रालय ने आदेश क्रमांक 2687 भेजते हुए राज्य सरकार को फटकार लगाई है। यह पत्र मिलने के पश्चात उद्योग विभाग ने सभी सार्वजनिक उपक्रमों को पत्र लिखते हुए स्पष्ट किया है कि तीन वर्षो के वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट प्रस्तुत नहीं किए गए हैं, जबकि कंपनी अधिनियम 2013 के अंतर्गत पंजीकृत निगम-मंडलों को वित्तीय वर्ष की समाप्ति के पश्चात छह माह के अंदर लेखा तैयार कर वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट फाइल करना अनिवार्य है अन्यथा विलंब अनुसार कडेÞ दंड का प्रावधान किया गया है। पत्र में यह भी सुझाव दिया गया है कि कंपनी अधिनियम 2013 में कुछ संशोधन के कारण यदि शासकीय कंपनियों को अपना वार्षिक रिटर्न एवं बैलेंस शीट आदि प्रस्तुत करने में कोई कठिनाई हो तो वे रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज ग्वालियर से सहायता प्राप्त कर सकते हैं।
इन्होंने जमा नहीं किया वर्ष 2011-12 का रिटर्न
मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, मप्र स्टेट टैक्सटाइल कॉर्पोरेशन, मप्र पर्यटन विकास निगम, मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग वित्त विकास निगम, अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, भोपाल सिटी लिंक लिमिटेड, ग्वालियर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, उज्जैन सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, सागर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, कटनी सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस, मप्र लघु उद्योग निगम, मप्र एग्रो इंडस्ट्रीज, मप्र पुलिा हाउसिंग कॉर्पोरेशन, एमपी पॉवर लिमिटेड कंपनी, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम, विक्रम उद्योगपुरी लिमिटेड, नर्मदा बिजनेस प्रोजेक्ट कंपनी तथा मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम सागर का नाम शामिल हैं। इन्हीं कंपनियों ने वर्ष 2012-13 का वार्षिक रिटर्न एवं बैलसेंशीट भी प्रस्तुत नही की।
वर्ष 2013-14 में भी लापरवाही
मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, मप्र लघु उद्योग निगम, मप्र स्टेट एग्रो इंडस्ट्रीज, मप्र टैक्सटाइल कॉर्पोरेशन, मप्र स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन, मप्र पुलिस हाउसिंग कॉर्पोरेशन, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम, मप्र औद्योगिक केंद्र विकास निगम रीवा, मप्र रविदास लिमिटेड, मप्र हस्तशिल्प विकास निगम, मप्र ऊर्जा विकास निगम, मप्र इंडस्ट्रीयल इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड, मप्र आदिवासी वित्त विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग वित्त विकास निगम, मप्र पॉवर ट्रांसमिशन कंपनी, मप्र मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी, मप्र पश्चिम विद्युत वितरण कंपनी, मप्र रोड डेव्लपमेंट कॉर्पोरेशन, मप्र क्रिस्प आईटी पार्क, मप्र इंडस्ट्रीयल कॉर्पोरेशन, अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट आदि है।
प्रदेश में निगम मंडलों का गठन 1 जुलाई 1981 को हुआ था। तब इन्हें सार्वजनिक उपक्रम ब्यूरो का नाम दिया गया था। छह साल बाद 18 जून 1986 को इसका नाम बदलकर सार्वजनिक उपक्रम विभाग रखा गया। प्रदेश में 27 निगम मंडलों का गठन किया गया था। वर्तमान में इन निगमों में से 23 निगम संचालित हैं शेष 4 निगमों को बंद कर दिया गया है, जिनमें मध्यप्रदेश राज्य भूमि विकास निगम, मध्यप्रदेश लेदर डेवलपमेंट कारपोरेशन, मध्यप्रदेश स्टेट टेक्सटाईल कारपोरेशन लिमिटेड एवं मध्यप्रदेश राज्य उद्योग निगम लिमिटेड शामिल हैं। प्रदेश में संचालित इन 23 निगमों में कुल अंशपूंजी 57348.19 लाख रुपए हैं। जिसमें राज्य शासन की अंशपूंजी 54195.51 लाख, केन्द्र शासन की अंशपूंजी 428.96 लाख और अन्य स्रोतों की अंशपूंजी 2723.72 लाख रुपए इन निगम मंडलों में लगी हुई है।
प्रदेश में कई निगम-मंडल फायदे में चल रहे हैं। इनमें मप्र पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन वर्ष 2005-06 से, मप्र बीज एवं फार्म विकास निगम वर्ष 2007-08 से, मप्र नागरिक आपूर्ति निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र वेयर हाउसिंग एवं लाजिस्टिक कारपोरेशन निरंतर, मप्र पर्यटन विकास निगम वर्ष 2004-05 से, मप्र पशुधन एवं कुक्कट विकास निगम वर्ष 2006-07, मप्र हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड 2004-05 से, मप्र वन विकास निगम वर्ष 1975 से, मप्र लघु उद्योग निगम वर्ष 2005-06 से, मप्र ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट फेसिलिटेशन कारपोरेशन वर्ष 2005-06 से, द प्राविडेंट इन्वेस्टमेंट कम्पनी, मप्र खनिज विकास निगम निरंतर एवं मप्र वित्त निगम इंदौर वर्ष 2005-06 से लाभ में चल रही हैं। वहीं मध्यप्रदेश स्टेट एग्रो इण्डस्ट्रीज डवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड, मध्यप्रदेश स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड, मध्यप्रदेश महिला वित्त एवं विकास निगम एवं मध्यप्रदेश स्टेट इण्डस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड हानि में चल रहे हैं।
प्रदेश में संचालित 23 निगम मंडलों में 12 निगम मंडल ऐसे हैं जिनमें ऑडिट लंबित हैं, वे हैं मप्र ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट फेसिलिटेशन कारपोरेशन, मप्र राज्य औद्योगिक विकास निगम, मप्र औद्योगिक केन्द्र विकास निगम, मप्र पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन लिमिटेड, द प्राविडेंट इन्वेस्टमेंट कम्पनी लि. मुंबई, मप्र राज्य इलेक्ट्रोनिक विकास निगम, मप्र स्टेट एग्रो इण्डस्ट्रीज डवलपमेंट कारपोरेशन लि.,मप्र राज्य पर्यटन विकास निगम, हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम, मप्र आदिवासी वित्त एवं विकास निगम, मप्र पिछड़ा वर्ग तथा अल्प संख्यक वित्त एवं विकास निगम, मप्र राज्य सड़क परिवहन निगम एवं मप्र ऊर्जा नियामक आयोग ।
अफसरों पर अभी भी सरकार का भरोसा
यह बात लगातार कही जाती रही है कि निगम, मंडल आयोग और प्राधिकरणों की बदहाली के लिए अफसर जिम्मेदार हैं लेकिन सरकार फिर भी उन पर भरोसा कायम रखे हुए है। राजनेता पिछले पौने दो साल से निगम-मंडल और आयोगों में नियुक्तियां पाने के लिए टकटकी लगाए बैठे हैं, इसके विपरित प्रदेश की सरकारी सेवा से विस्तार होने वाले ब्यूरोक्रेट्स के पुनर्वास में सरकार ने कभी कोई लेट-लतीफी नहीं की। दर्जनभर से ज्यादा अफसर ऐसे हैं, जो रिटायर होते ही लालबत्ती पा गए और दर्जा प्राप्त मंत्री भी बन गए। इनमें 1972 बैच के आईएएस अफसर राकेश चंद्र साहनी तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सबसे अधिक प्रिय हैं। जनवरी 2010 में मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्ति के बाद साहनी ऊर्जा सलाहकार बनाए गए और दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री से नवाजा गया। इसके बाद मध्यप्रदेश विद्युत नियामक आयोग में साहनी को चेयरमैन बनाया गया। जहां जनवरी 2015 को 65 साल की आयु पूरी हो जाने के कारण कार्यकाल खत्म हुआ। इसके बाद पिछले महीने राज्य सरकार ने फिर साहनी को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया। वहीं 1972 बैच के ही आईपीएस अफसर स्वराज पुरी भी रिटायरमेंट के बाद दूसरी बार अपना पुनर्वास करवाने में सफल रहे। हाल ही में उन्हें दोबारा फीस नियामक आयोग का सदस्य बनाया गया है। 1982 बैच के आईएएस अफसर डॉ. देवराज बिरदी को भी रिटायर होते ही राज्य सरकार ने राकेश साहनी का उत्तराधिकारी बना दिया। बिरदी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा सहित मध्यप्रदेश राज्य विद्युत नियामक आयोग का चेयरमैन बनाया गया। पदमवीर सिंह 1977 बैच के मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस हैं। सेवा अवधि पूरी होने के बाद राज्य सरकार ने इन्हें मध्यप्रदेश वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। अगस्त 2013 को स्टील मंत्रालय से सचिव के पद से रिटायर हुए डीआरएस चौधरी मध्यप्रदेश 1977 बैच के आईएएस हैं। चौधरी को राज्य सरकार ने राज्य वित्त आयोग का सदस्य बनाया है। व्यापमं के चेयरमैन पद पर रहते हुए मलय राय मुख्यसचिव वेतनमान से रिटायर हुए थे। राय के राज्य वित्त आयोग में पुनर्वास का मामला बेहद दिलचस्प है। 1977 बैच के इस अफसर का पुनर्वास तब किया गया जब मुख्यमंत्री विदेश दौरे पर थे।1978 बैच के अतिरिक्त आईएएस आर परशुराम मार्च 2013 को रिटायर हुए, तब सरकार ने पहले उन्हें छह महीने की सेवावृद्धि दी, बाद में राज्य निर्वाचन आयोग का चेयरमैन बनाया। इसी प्रकार विधि विभाग के प्रमुख सचिव रहे केडी खान फिलहाल राज्य सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त हैं। वहीं रिटायर्ड आईएएस एचएल त्रिवेदी सूचना आयुक्त हैं। मानवाधिकार आयोग में वीएम कंवर आईपीएस रहे हैं। फिलहाल कार्यवाहक अध्यक्ष हैं। अरूण भट्ट सेवानिवृत्ति के बाद से सीएम के ओएसडी हैं।

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