सोमवार, 2 नवंबर 2015

कर्ज की खेती और मौत की फसल!

पीले सोने की चाह में डूब गए किसानों के 83,42,52,00,000 रूपए
भोपाल। जिस पीले सोने(सोयाबीन) के रिकार्ड उत्पादन ने मप्र को लगातार तीन बार कृषि कर्मण अवार्ड दिलाने में मदद की, वहीं इस बार किसानों के लिए काल बन गया है। पिछले दो साल से मौसम की मार से बेहाल किसानों ने इस बार अच्छी फसल की आस में 59 लाख हैक्टेयर मेेें सोयाबीन की बुआई की थी। यानी फसल की बुआई से लेकर कटाई तक करीब 3,29,86,31,00,000 रूपए खर्च किए। लेकिन इस बार भी मौसम से 40 लाख हैक्टेयर में फसल सामान्य हालत उत्पादित हुई, जबकि 19 लाख हैक्टेयर में फसल की स्थिति खराब रही। 19 लाख हैक्टेयर में जहां किसान ने एक हैक्टेयर में सोयाबीन की बुआई से लेकर कटाई तक 55,909 रूपए खर्च किए वहां उसे मात्र 12,000 रूपए की ही फसल मिल पाई। यानी इस साल पीले सोने की खेती में किसानों के करीब 83,42,52,00,000 रूपए डूब गए। इसका परिणाम यह हो रहा है कि फसल कटाई के साथ किसान के आंसू निकल रहे हैं और इस बार भी पीला सोना कर्ज की खेती और मौत की फसल साबित हो रहा है!
इन दिनों प्रदेश में कई दिन से लगातार किसान मौत को गले लगा रहे हैं। वहीं हाल ही में कुछ किसानों की हार्ट अटैक से मौत हो चुकी है। मौत का सबब एक ही है बर्बाद हुई फसल और गले में कसता कर्ज का फंदा। कर्ज एक तरह का नहीं और एक जगह का भी नहीं है। पीडि़त किसानों का कहना है कि किसान ने खेती, बेटी की शादी, बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज लिया है। उसके सिर पर बैंक, सोसायटी और साहूकारों के कर्ज का बोझ है। दिन रात एक करके भी उसे उस कर्ज से छुटकारे का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। इसी वजह से किसान का हौसला टूट रहा है और वह अपनी जीवनलीला खत्म कर रहा है। इनमें 28 वर्षीय युवक संतोष भी शामिल है जिसकी मौत बीते दिनों सिहोरा में हार्ट अटैक से हुई थी। वहीं नारायण प्रसाद, केशव, दिनेश चंद्र भी कुछ ऐसे ही नाम हैं। बताया जा रहा है कि जिन किसानों की मौत हो गई उन परिवारों के लिए तो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसे हालात हैं। एक तो कमाने वाला चला गया दूसरी तरफ कर्ज से भी छुटकारा नहीं। किसान की मौत के बाद न तो कर्ज माफी का कोई प्रावधान है और न ही न किसी तरह की मदद की व्यवस्था। अफसर कोरे आश्वासन और सांत्वना देकर ही काम चला रहे हैं। पिछले चार सालों के दौरान देश के कृषि मानचित्र में मध्य प्रदेश का तेजी से उभार हुआ है। 'बीमारूÓ की श्रेणी में आनेवाला यह राज्य देश में सबसे अधिक कृषि विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है। राज्य की कृषि विकास दर वर्ष 2013-14 में 24.99 प्रतिशत रही। वित्त वर्ष 2012-13 में 20.44 फीसदी रही और वित्त वर्ष 2011-12 में 18.90 फीसदी । इस विकास दर को देखते हुए मध्य प्रदेश को लगातार तीन बार केंद्र सरकार का कृषि कर्मण पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। लेकिन इस दौरान सोयाबीन का उत्पादन लगातार गिरता जा रहा है। पहले कई दिनों तक सूखा और उसके बाद अतिवृष्टि ने किसानों के मुंह से निवाला छीनने का काम किया। अब सोयाबीन फसल की कटाई के साथ किसानों के आंसू भी निकलने लगे। जिस उर्वरा भूमि पर एक बीघा में चार से पांच क्विंटल तक उत्पादन होता था, उनमें केवल 70-80 किलो तक ही सोयाबीन का उत्पादन हो रहा है। इस प्राकृतिक मार ने किसान को अंदर तक आहत कर दिया। उसके सामने भविष्य की चिंता खड़ी हो गई। बागली तहसील के ग्राम भमोरी के किसान गोवर्धन पाटीदार ने बकायदा प्रति बीघा खर्च को बिंदूवार स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि मैंने फसल की बोवनी से कटाई और विक्रय तक का जो खर्च इस बार हुआ उसका हिसाब लगाया है तो किसान को बहुत ज्यादा घाटा हुआ है। दो बार हकाई का खर्च 500 रुपए, खेत को समतल करने का खर्च 100 रुपए, खाद की दो बोरी का खर्च 610 रुपए व उसे फैलाने की मजदूरी 50 रुपए। बुवाई व मजदूरी 300 रुपए, प्रमाणित बीज की कीमत 1410 रुपए, 12 किलो यूरिया की कीमत 72 रुपए, खेत में डोरा चलाई का खर्च 320 रुपए, निंदाई के लिए 8 मजदूरों की मजदूरी का खर्च 1200 रुपए, चारा मार दवाई 200 रुपए, कीटनाशक दवाई 300 रुपए, दवाई स्प्रे की मजदूरी का खर्च 200 रुपए, गोबर खाद 2 ट्राली वर्ष में एक बार 3500 रुपए, सोयाबीन कटाई का खर्च 700 रुपए, एकत्रित करने का खर्च 300 रुपए, थ्रेशिंग करने के लिए प्रति क्विंटल 150 रुपए, प्रति बोरी फसल को घर लाने के लिए 25 रुपए खर्च होता है। इस प्रकार फसल की बोवाई, कटाई और मंडी तक विक्रय के लिए प्रति बीघा 13977 रुपए का खर्च हुआ और सोयाबीन प्रति क्विंटल 3000 रुपए में बिक रही है। इस तरह किसान को इस बार प्रति बीघा के हिसाब से करीब 10 हजार से ज्यादा का घाटा है। खजूरिया के किसान कैलाश पाटीदार ने बताया कि हर साल उत्पादन 4 से 5 क्विंटल प्रति बीघा होता है, लेकिन इस बार प्रति बीघा में 60 किलो तक ही उत्पादन हुआ। चापड़ा के धर्मेंद्र पाटीदार के खेत में भी कुछ इसी तरह की स्थिति है। उनके यहां प्रति बीघा सोयाबीन में उत्पादन सिर्फ 80 किलो हुआ। करनावद के योगेश पटेल ने 20 बीघा खेत में सोयाबीन उगाई। उनके यहां उत्पादन सिर्फ 70 किलो प्रति बीघा हुआ। किसानों का कहना है कि प्रशासनिक अधिकारी यह कह रहे हैं कि केवल 20 प्रतिशत ही उत्पादन प्रभावित हुआ है, जबकि कटाई के दौरान पता चल रहा है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा उत्पादन प्रभावित हुआ है। तो एमपी से छिन जाएगा 'सोया-प्रदेशÓ का तमगा ! पिछले सालों से सोयाबीन की फसल में लगे मोजेक रोग के चलते उत्पादन स्तर गिर रहा है, जिससे मप्र से सोयाप्रदेश का तमगा छिनने का डर है। मध्यप्रदेश में करीब साठ फीसदी सोयाबीन का उत्पादन होता है, जिसके चलते इसे सोया प्रदेश कहा जाता है। पिछले सालों से सोया प्रदेश का गौरव छिनता जा रहा है, क्योंकि प्रदेश में सोया उत्पादन की सबसे बड़े इलाके नरसिंहपुर जिले में इसकी उपज दम तोड़ चुकी है। यही नहीं, प्रदेश के चंबल, ग्वालियर और बुंदेलखंड इलाकों में पिछले तीन साल में सोयाबीन की बर्बादी ने किसानों का रुझान इस फसल के प्रति कम कर दिया है। सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने खरीफ सीजन 2015-16 के तहत देश में सोयाबीन का उत्पादन 86.426 लाख टन रहने का अनुमान जारी किया है। सोपा ने वर्ष 2014 की खरीफ फसल का उत्पादन अनुमान भी संशोधित कर 90 लाख टन किया है। जबकि सोयाबीन का कैरीओवर स्टॉक नौ लाख टन रहने का अनुमान व्यक्त किया है। सोपा के अनुसार, मौसम के कहर और खरपतवार व कीटों के प्रकोप के कारण देश में सोयाबीन की लगभग 30 प्रतिशत फसल खराब हुई है। सोपा ने इस साल सैटेलाइट आधारित सर्वे किया है जिसमें मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के सोयाबीन उत्पादक मुख्य 58 जिलों को शामिल किया गया। जबकि, देश के शेष हिस्सों के अनुमान के लिए सरकार द्धारा जारी रकबे को ध्यान में लिया गया। इस फसल उत्पादन अनुमान सर्वे को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में 15 सितंबर से 24 सितंबर 2015 के दौरान किया गया। सैटेलाइट सर्वे के मुताबिक देश में सोयाबीन की बोआई 110.656 लाख हैक्टेयर में सोयाबीन की बोआई की गई जो सरकारी आंकडे 116.285 लाख हैक्टेयर से 5.629 लाख हैक्टेयर कम है। सोपा का कहना है कि खरीफ फसल 2015 के दौरान देश में सोयाबीन का उत्पादन 86.426 लाख टन होगा जो पिछले साल के 90 लाख टन के उत्पादन की तुलना में 3.574 लाख टन यानि 3.97 फीसदी कम होगा। सोपा का कहना है कि मध्य प्रदेश में सोयाबीन की बोआई 56.127 लाख हैक्टेयर में हुई जबकि सरकार का कहना है कि यह बोआई राज्य में 59.062 लाख हैक्टेयर में हुई। सोपा के मुताबिक मध्य प्रदेश में सोयाबीन का उत्पादन 44 लाख टन रहने की धारणा है जो पूर्व वर्ष के उत्पादन से 7.604 लाख टन यानि 14.74 फीसदी कम रहेगा। पूर्व वर्ष में मध्य प्रदेश में सोयाबीन का उत्पादन 51.604 लाख टन हुआ था। 18,257 करोड़ के कर्ज में अन्नदाता सूखे की मार झेल रहे प्रदेश के किसानों को अब सरकारी कर्ज की चिंता सताने लगी है। प्रदेश के किसानों के सिर पर 12,757 करोड़ रुपए का सरकारी कर्ज चढ़ा है। इसके अलावा बिजली बिल के लगभग 3100 करोड़ और 2400 करोड़ का कर्ज सरकारी समितियों में उधार खाद-बीज उठाने का है। इस प्रकार अन्नदाता 18,257 करोड़ के कर्ज में डूबा है। रबी की बोवनी सिर पर है। उनके समझ में यह नहीं आ रहा कि घर में जो अन्य बचा है उससे परिवार का पेट पाले या जमीन गिरवी रख समितियों एवं बिजली कंपनी का कर्ज चुकाए, जिससे रबी की बोवनी के लिए खाद-बीज और बिजली की व्यवस्था हो सके। बिल नहीं तो बिजली नहीं तीन साल से प्राकृतिक आपदा झेल रहे किसान आर्थिक रूप से टूट चुके हैं। वे हर साल कर्ज लेकर खेतों की बोवनी करते हैं, लेकिन उपज के नाम पर पूंजी नहीं लौटती। आर्थिक तंगी से जूझ रहे अधिकांश किसानों ने दो साल से बिजली का बिल नहीं चुकाया। सोसायटियों पर लाखों रुपए का कर्ज बकाया है। एसे में किसानों से बकाया वसूली के लिए बिजली कंपनी ने उन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। कर्ज में डूबे किसानों के पंप कनेक्शन काट दिए गए हैं। गांव के जले ट्रांसफॉर्मर नहीं बदले जा रहे। समितियों ने भी किसानों से बकाया वसूली न होने के कारण खाद का उठाव रोक दिया है। सूखे की मार बैंकों पर भी, डूबे 5174 करोड़ क्रेडिट कार्ड, वाहन लोन, कृषि यंत्र ऋण तथा लघु मध्यम उद्योग लगाने के लिए सरकारी बैंक विभिन्न योजनाओं के तहत हर साल किसानों को करोड़ों रुपए का कर्ज देते हैं। लेकिन तीन साल से प्राकृतिक आपदाएं झेल रहे किसान आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। इसका अर्थ बैंकों की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। किसानों द्वारा बैंक कर्ज न चुकाने से बीते दो वर्ष में बैंकों को 5174 करोड़ की चपत लग चुकी है। बैंक अधिकारियों का कहना है कि कुछ किसान बदहाली से जूझ रहे हैं। ऐसे किसानों से ऋण की वसूली संभव नहीं है। सरकार की लाख कोशिश के बाद भी जिले का किसान बदहाली से नहीं उबर पा रहा। खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। ऐसे में किसान क्रेडिट कार्ड से सरकारी कर्ज लेकर बच्चों को पढ़ाने और उनका इलाज करने को मजबूर है। खेती की बढ़ती लागत और सिकुड़ती सुविधाएं खेती का संकट दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है और जिस तादाद में सरकार की मदद की जरूरत है, वह नहीं मिल रही है। इसी संकट के चलते मध्यप्रदेश सहित देश के विभिन्न हिस्से से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही है। एक ओर खेती की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाले सब्सिडी और सुविधाएं सिकुड़ती जा रही है। आधुनिक खेती महंगे उन्नत बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक पर निर्भर हो गई है, जिसकी आसमान छूती कीमतें किसान की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। मध्यप्रदेश के किसानों को अन्य राज्यों की तुलना में इनकी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 62 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर या इससे कम जमीन है। भूस्वामित्व के आकार में पिछले चार दशकों में 60 प्रतिशत कमी आई है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार सन् 1960-61 में भूस्वामित्व का औसत आकार 2.3 हेक्टेयर था, जो सन् 20013-14 में सिर्फ 1.01 हैक्टेयर रह गया है। इसके पीछे मुख्य कारण जमीन का बंटवारा होने के साथ ही औद्योगिक विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण भी है। भूस्वामित्व के आकार में होने वाली कमी के इन आंकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि पिछले चार दशकों में लघु एवं सीमांत किसान व्यापक पैमाने पर भूमिहीन मजदूर में तब्दील हुए हैं। नाबार्ड की इस कंजूसी से सरकार परेशान प्रदेश के 40 लाख से अधिक किसानों को खेती के लिए शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज बांटने वाली सरकार की पेशानी पर अब चिंता की लकीरें उभर रही है। उसकी यह चिंता नाबार्ड के नए नियमों के कारण हैं। अब तक किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर मिलने वाले ऋण में पचास फीसदी की राशि का कर्ज देने वाले नाबार्ड ने अपने नियमों को बदल दिया है। अब वह सरकार को पचास के बजाए चालीस फीसदी ही ऋण देगा। नाबार्ड की इस कंजूसी से सरकार को किसानों को ऋण बांटने में दिक्कत आना तय माना जा रहा है। प्रदेश सरकार पिछले चार सालों से अधिक समय से किसानों को रबी और खरीफ की फसल के समय शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण देती आ रही है। एक फसल के समय लिया गया ऋण किसान को दूसरी फसल के लिए ऋण लेने से पहले लौटाना होता है। सरकार हर साल किसानों को बारह से पन्द्रह हजार तक का कर्ज जीरो प्रतिशत ब्याज पर बांटती हैं। इसके लिए वह पचास फीसदी कर्ज नाबार्ड से लेती है और शेष पचास फीसदी की व्यवस्था अपेक्स बैंक और अन्य शीर्ष संस्थाओं के माध्यम से की जाती है। नाबार्ड से सरकार हर साल छह सौ करोड़ का कर्ज लेती थी जिस पर वह साढेÞ सात फीसदी की दर से ब्याज का भुगतान भी करती है। वित्तीय बर्ष 2015-16 में नाबार्ड ने अपने नियमों में बदलाव कर दिया है। नए नियमों के तहत वह सरकार को नए वित्तीय बर्ष में पचास फीसदी की जगह चालीस फीसदी ही पैसा ब्याज पर देगी। यहीं नहीं अगले वित्तीय बर्ष से सरकार के केवल चौबीस फीसदी पैसा ही किसानों के कर्ज के लिए देगी। नाबार्ड के निए नियमों से किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण देने के लिए सरकार को अपने स्तर पर अब और अधिक व्यवस्था करनी पड़ेगी। अब तक छह हजार करोड़ जुटाने वाली सरकार को इस साल आठ हजार करोड़ रूपए जुटाना होंगे। दस फीसदी के मान से सरकार को छह सौ करोड़ रूपए की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होगी। प्रदेश के अधिकांश सहकारी बैंकों की हालत पहले से ही खस्ता है और वे वसूली न होने के कारण घाटे में चल रहे हैं। ऐसे में सहकारिता विभाग के अफसर इस राशि के लिए अभी से गुणा-भाग लगाने में जुट गए हैं। राशि की व्यवस्था में देरी होने पर किसानों को दिए जाने वाले कर्ज में भी विलंब हो सकता है। नाबार्ड द्वारा कर्ज देने के मामले में कटौती करने से अपेक्स बैंक ने राज्य सरकार को समय रहते बता दिया है। वहीं इससे निबटने के लिये सभी जिला सहकारी केन्द्रीय बैंकों को चि_ी लिखी गई है। बैंकों से कहा है कि उधारी की वसूली और बढ़ाई जाए। किसानों से कर्ज वसूली के साथ उन ऋणों को वसूलने में ज्यादा ध्यान दिया जाए जो अकृषि से संबंधित हैं। खासतौर पर ट्रेक्टरों और अन्य वाहनों पर दिया गया ऋण सख्ती से वसूला जाये। गौरतलब है कि राज्य सरकार की सख्ती के ही चलते इस साल किसानों से 75 प्रतिशत की वसूली हुई है। जबकि इसके पिछले साल वसूली 74 प्रतिशत से कुछ अधिक थी। अपेक्स बैंक के अधिकारियों ने बताया कि इस साल ढाई हजार करोड़ की अधिक राशि भी मिली है। इसलिये बैंकों पर भरोसा बढ़ा है। साल 2015-16 में 40 लाख से अधिक किसानों को रबी और खरीफ फसल के लिये 18 हजार करोड़ रुपये का ऋण बांटा जा रहा है। पिछले साल रिकबरी 12 हजार करोड़ हुई थी। इसलिये जिला बैंकों पर दबाव बनाया है कि बसूली स्थिति बढ़ाने से नाबार्ड के संकट से निबटा जा सकेगा। सहकारिता मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि नाबार्ड द्वारा दिए जाने वाले कर्ज का प्रतिशत कम होने से हमें दिक्कत तो होगी पर किसानों को समय पर कर्ज मिले इसके पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं। किसानों को कर्ज देने के लिए हम राज्यांश बढ़ाएंगे पर कर्ज हर हाल में समय पर दिया जाएगा। कर्ज है किसान-आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह पिछले कई सालों से मध्यप्रदेश के किसान गहरे संकट में है। यह संकट है उनकी छोटी होती कृषि भूमि, मंहगी होती खेती और बार-बार नष्ट होती फसलों का, जिसके चलते वे कर्ज के भारी बोझ को ढोने के लिए विवश है। स्थिति तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब संकट से जूझते हुए किसान आत्महत्या को विवश हो जाते हैं। देश के अन्य राज्यों की तरह आज मध्यप्रदेश को भी इसी दर्दनाक स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। एक अध्ययन के अंतर्गत यह देखा गया है की आत्महत्या का प्रयास करने वाले तथा आत्महत्या करने वाले किसानों के पास कितनी कृषि भूमि है यानी वे कैसे किसान है, लघु, सीमान्त या बड़े किसान उन पर साहूकारी और बैंक कितना कर्ज है तथा उनके द्वारा आत्महत्या जैसा दर्दनाक कदम क्यों उठाया गया। इसके लिए घटनाओं से संबंधित जानकारियां एकत्र की गई, उनमें से कई स्थानों पर जाकर संबंधित लोगों (मृतकों के परिजनों) से मुलाकात की गई। इस प्रकार सामने आए तथ्यों का विश्लेषण करके यह जानने की कोशिश की गई कि किसानों की आत्महत्या के पीछे मुख्य कारण क्या है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है तथा इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए किस तरह की नीतियोंं और कार्यक्रमों की जरूरत है इस प्रकार यह अध्ययन केस स्टैडी, साक्षात्कार, फैक्ट फाईंडिंग एवं समूह चर्चा पर आधारित है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ करनी पड़ती है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्यप्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रूपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर ही कर्ज की मात्रा दुगनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। आत्महत्या करने वाले, पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रूपए से अधिक का कर्ज था। देश में आत्महत्या करने वाले किसानों में हर तीसरा किसान छोटा या सीमांत किसान है और आत्महत्या को मजबूर किसानों में हर पांचवां किसान कर्जदारी या आर्थिक तंगी के कारण यह कदम उठा रहा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के तथ्य नये सिरे से इस आशंका को पुष्ट करते हैं कि कर्जदारी और दिवालिया होना किसान-आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह है और आत्महत्या के शिकार किसानों में सबसे ज्यादा संख्या छोटे और सीमांत किसानों की है। (देखें नीचे दी गई लिंक) रिपोर्ट के मुताबिक देश में बीते वर्ष किसानों की आत्महत्य़ा के कुल 5,650 मामले प्रकाश में आये। इनमें सबसे ज्यादा यानी 21 प्रतिशत मामलों में आत्महत्या का प्रेरक कारण किसान का कर्जदार या फिर अचानक दिवालिया होना है। रिपोर्ट के तथ्य बताते है कि 2014 में कुल 4095 छोटे और सीमांत किसानों ने आत्महत्या की जो कि आत्महत्या करने वाले किसानो की कुल संख्या का 72.4 प्रतिशत है। गौरतलब है कि किसानों की स्थिति के आकलन पर केद्रित राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या बीते दस सालों (2003-2013) में 48.6 प्रतिशत से बढ़कर 52 प्रतिशत हो गई है और हर कर्जदार किसान परिवार पर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 0.40 हैक्टेयर या उससे ज्यादा बड़े आकार के जोत के मालिक किसान परिवारों परिवारों की आमदनी का मुख्य जरिया किसानी है और देश के औसत किसान परिवार की मासिक आमदनी 6426 रुपये तथा औसत मासिक खर्च 6223 रुपये हैं। (देखें नीचे दी गई लिंक) नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या करने वाले सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट के हैं। साल 2014 में यहां कुल 2,568 किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक किसान-आत्महत्या के मामले में साल 2014 में शीर्ष के पांच राज्य हैं। आत्महत्या करने वाले कुल किसानों में 90 प्रतिशत किसान इन्हीं पांच राज्यों के हैं। तेलंगाना और छत्तीसगढ़ उन पांच राज्यों में शामिल हैं जहां कर्जदार किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार तेलंगाना में तकरीबन 90 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज में हैं जबकि छत्तीसगढ़ में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या एक तिहाई से ज्यादा(37.2 प्रतिशत) है। सूखे से प्रभावित किसानों की कर्ज वसूली होगी स्थगित प्रदेश में सूखे की चपेट में आई खरीफ फसलों से परेशान किसानों को राहत देने के लिए सरकार कर्ज वसूली स्थगित करेगी। इसका फायदा सूखाग्रस्त घोषित हो चुकी तहसीलों के किसानों को मिलेगा। वहां के किसानों को अब तीन साल में कर्ज की अदायगी सहकारी समितियों को करनी होगी। कर्ज वसूली स्थगित करने सहकारिता विभाग ने कलेक्टरों से अनावरी (फसल उत्पादन) रिपोर्ट मांगी है। सरकार ने फिलहाल पांच जिलों की 32 तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। प्रदेश के 38 जिला सहकारी बैंकों ने सवा चार हजार प्राथमिक सहकारी समितियों के माध्यम से करीब 7 हजार करोड़ रुपए का कर्ज खरीफ फसलों के लिए 16 लाख से ज्यादा किसानों को दिया है। इसकी वसूली 28 मार्च तक होनी है। अधिकांश जिलों में इस बार सोयाबनी, अरहर, मूंग, उड़द, धान की फसलें अति और अल्पवर्षा से प्रभावित हुई हैं। जहां पानी सामान्य से भी कम गिरा, उन क्षेत्रों को सूखाग्रस्त कलेक्टरों की रिपोर्ट के आधार पर घोषित किया गया है। पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि बुंदेलखंड के अधिकांश जिले सूखाग्रस्त हैं, पर इन्हें घोषित नहीं किया गया। सहकारिता विभाग के अधिकारियों का कहना है कि कर्ज वसूली अनावरी की रिपोर्ट के आधार पर स्थगित करने के नियम हैं। यदि एक रुपए में 36 पैसे की फसल ही बचती है तो फिर कर्ज अल्पावधि से मध्यावधि में तब्दील करने के साथ कर्ज वसूली स्थगित की जाती है। कलेक्टरों ने अभी अनावरी की रिपोर्ट नहीं दी है। रिपोर्ट मिलने पर वसूली रोकने के आदेश जारी करने के साथ कर्ज चुकाने की अवधि 3 साल कर दी जाएगी। ऐसे किसानों को रबी फसल बोने के लिए फिर से कर्ज भी मिलेगा। अपेक्स बैंक के प्रभारी प्रबंध संचालक प्रदीप नीखरा ने बताया कि सभी बैंकों को सूखे की रिपोर्ट के आधार पर कर्ज की मियाद अल्पावधि से मध्यावधि में तब्दील करने का प्रस्ताव तैयार करने के लिए कहा गया है। राजस्व विभाग के अधिकारियों ने बताया कि जिन किसानों ने फसल खराब होने से फसलें बखर दी हैं, उन्हें भी राहत राशि दी जाएगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सूखे की समीक्षा करते हुए ऐसे किसानों के नाम सर्वे सूची में शामिल करने के निर्देश दिए हैं। किसानों को फसल बीमा का लाभ दिलाने सभी बैंकों से प्रीमियम बीमा कंपनी में जमा करा दिया गया है। फसल कटाई कर उत्पादन का हिसाब लगाकर किसानों के बीमा दावे बनाए जाएंगे। ----------------

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