सोमवार, 2 नवंबर 2015

बिजली के लिए 6,00,00,00,000 की जमीन की होगी बंदरबाट

मध्यप्रदेश की सस्ती जमीन का इस्तेमाल करने मल्ट्रीनेशन कंपनियां हुई सक्रिय
डीएमआरसी, नालको और अन्य कंपनियों की नजर मध्य प्रदेश के संसाधनों पर
भोपाल। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की तर्ज पर देश की मल्टीनेशनल कंपनियां मध्य प्रदेश के संसाधनों को दोहन करके सोलर एनर्जी से बिजली उत्पादित कर अपना खजाना भरने की तैयारी कर रही हैं। शुरुआत दिल्ली मेट्रो ने की है। मेट्रो ट्रेन चलाने के लिए जरूरी 500 मेगावाट बिजली मध्यप्रदेश में उत्पादन करेगी। अगर सब कुछ सही रहा तो जल्द ही दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (डीएमआरसी) और मध्यप्रदेश सरकार के बीच एमओयू साइन हो जाएगा। सिर्फ डीएमआरसी ही नहीं राष्ट्रीय एल्युमिनियम कंपनी (नालको) और दूसरी मल्ट्री नेशनल कंपनियों ने सोलर एनर्जी के लिए मप्र को चुना है। होड़ की अहम वजह दूसरे प्रदेशों की तुलना में सस्ती जमीन होना है। बताया जाता है कि फिलहाल इन मल्टीनेशनल कंपनियों की नजर प्रदेश की करीब 6 अरब रूपए की जमीन पर है, जो दूसरे राज्यों में इससे दो-तीन गुनी रकम पर मिलतीं। सबसे बड़ी बात है कि इन कंपनियों द्वारा उत्पादित सोलर एनर्जी का फायदा दूसरे राज्यों को मिलेगा। वैसे देखा जाय तो मप्र में सोलर एनर्जी के कई प्लांट कंपनियों द्वारा लगाए जा रहे हैं और उनकी बिजली मप्र में ही उपयोग होगी।
उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2014 में इंदौर में हुई ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट के दौरान मिले 6 लाख 89 हजार करोड़ रुपए के निवेश प्रस्तावों में ऊर्जा क्षेत्र टॉप पर था। अकेले नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के लिए 95 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव प्राप्त हुए, जबकि थर्मल पॉवर और इाईडल पॉवर के लिए 93 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव मिले थे। इससे यह आस जगी थी कि कभी अंधेरे से घिरे रहने वाला मप्र अब ऊर्जा उत्पादन में उजली इबारत लिखेगा। लेकिन बड़े निवेशकों को लाभ पहुंचाने के लिए राज्य सरकार छोटे निवेशकों को कायदे-कानूनों में फंसाकर उन्हें दरकिनार कर रही है। रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने तमाम घोषणाएं की और एक तरह से सब्सिडी का खजाना ही खोल दिया है लेकिन यह खजाना सिर्फ कागजों पर खुला है। हकीकत में रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश करने वाले छोटे-छोटे निवेशक ठगे जा रहे है। हां रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन जैसे बड़े निवेशकों को सरकार इस योजना का लाभ दे रही है। इस कारण प्रदेश में सरकार के प्रयासों के बावजुद भी रिन्यूएबल एनर्जी के विस्तार में प्रगति नहीं हो पा रही है। आलम यह है कि सरकार रिन्यूएबल एनर्जी के दम पर प्रदेश में उजाले का जो स्वप्र देखा है वह अंधेरा के गर्त में जा रहा है। सरकार की इन्हीं नीतियों का फायदा उठाने के लिए अब जल्द ही दिल्ली मेट्रो प्रदेश के नवीन ऊर्जा और नवकरणीय विभाग के साथ 500 मेगावाट का सोलर प्लांट लगान के लिए एमओयू करने जा रहा है। इसमें कंपनी प्रदेश में 3500 करोड़ रुपए से अपना सेटअप लगाएगी। बिजली ग्रिड के जरिए दिल्ली मेट्रो यूज करेगी। प्रदेश को इससे बिजली क्षेत्र में कोई लाभ नहीं मिलेगा। अगले दो साल में कंपनी प्लांट लगा लेगी।
ज्ञातव्य है कि सोलर प्लांट लगाने में जमीन का बड़ा भाग लगता है। मध्य प्रदेश में काफी जमीन है, जिसका यूज नहीं हो रहा है। नवीन ऊर्जा और नवकरणीय विभाग प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनियों को ऐसे स्थान चिन्हित करके देता है। कंपनी निजी स्तर पर भी जमीन क्रय कर सकती है। बताया जाता है कि 3 लाख से 5 एकड़ के भाव में कई कंपनियों से जमीन खरीद ली है, जबकि दूसरे प्रदेश में 6 से 10 लाख प्रति एकड़ जमीन मिल रही है। अन्य जगहों पर लोड ज्यादा होने के कारण ग्रिड कनेक्टिविटी की भी समस्या होती है, जबकि प्रदेश में काफी हद तक ग्रिड कनेक्टिविटी बेहतर है। विशेषज्ञों का कहा है कि प्रदेश में उन्हीं कंपनियों को प्लांट लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए जो प्रदेश के लिए बिजली का उत्पादन करे। ऐसे में प्रदेश की जमीन दूसरे प्रदेशों के लिए उपयोग होगी और कीमत भी बढ़ेगी। उधर, ऊर्जा विकास निगम के अफसरों का कहना है कि अगर कंपनियां प्रदेश में सोलर प्लांट लगाएंगी तो उससे प्रदेश में रोजगार बढ़ेगा। बेकार पड़ी बंजर जमीनों की कीमत मिलेगी। उल्लेखनीय है कि सोलर पॉवर प्लांट के लिए जमीन का यूज अधिक होता है। 1 मेगावाट के लिए करीब 5 एकड़ जमीन लगती है। इसमें प्लांट लगाने का खर्च करीब सात करोड़ रुपए का खर्च आता है। अगर यही प्रोजेक्ट दूसरे राज्य में लगाया जाता है तो खर्च दो से तीन गुना बढ़ जाता है। ऊर्जा विकास निगम के एमडी मनु श्रीवास्तव कहते हैं कि प्रदेश में कई कंपनियों सोलर पॉवर प्लांट लगाना चाहती है। अभी दिल्ली मेट्रो एमओयू साइन करेगी। वह 500 मेगावाट का प्लांट लगाएंगी। इससे मेट्रो चलेगी। प्रदेश के युवाओं को प्लांट लगने से रोजगार मिलेगा।
रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट के फेर में ठगाए छोटे निवेशक
उल्लेखनीय है कि एक तरफ सरकार मल्टीनेशनल कंपनियों को मुफ्त के भाव जमीन दे रही है वहीं दूसरी तरफ छोटे निवेशकों को रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट के नाम पर परेशान किया जा रहा है। एक ओर जहां मध्यप्रदेश में राज्य सरकार सौर ऊर्जा को लगातार बढ़ावा दे रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में निवेश की अपार संभावनाएं हैं। इसीलिए निवेशक यहां जमकर दिलचस्पी ले रहे हैं और सोलर बिजली के लिए अपनी निविदाएं जमा करा रहे हैं। बता दें कि निवेशकों को केवल मुनाफा कमाना होता है। मध्यप्रदेश में निवेशक इसीलिए अपना रुझान दिखा रहे हैं। इसी सिलसिले में प्रदेश में सौर ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिये एमपी पॉवर मेनेजमेंट कम्पनी को 100 निवेशकों ने 3,744 मेगावॉट सोलर बिजली की निविदाएं जमा करवाई हैं। कम्पनी ने देशभर के निवेशकों से निविदा प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। कंपनी के इन्वेस्टमेंट प्रमोशन सेल के अनुसार प्रदेश में 25 वर्ष तक निश्चित दर पर सोलर बिजली प्राप्त की जाएगी। इस प्रक्रिया में निवेशक 2 मेगावॉट से लेकर 300 मेगावॉट तक अपनी क्षमता अनुसार सोलर बिजली उत्पादन संयंत्र स्थापित करेंगे। प्रदेश में वर्तमान में 6 रुपए 50 पैसे से लेकर 7 रुपए प्रति यूनिट के हिसाब से सोलर बिजली मिल रही है। कम्पनी ने वर्ष 2016-17 में 300 मेगावॉट सोलर ऊर्जा उत्पादित किए जाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की थीं। इस प्रक्रिया में निजी निवेशकों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी एमपी पॉवर जनरेटिंग और एनएचडीसी ने भी रुचि दिखाते हुए 80 मेगावॉट सोलर बिजली उत्पादन करने के प्रस्ताव दिए हैं। कंपनी के एमडी संजय शुक्ल कहते हैं कि प्रदेश में सोलर बिजली के उत्पादन के लिये अनुकूल माहौल होने से निवेशकों ने इच्छा जताई है।
कागजों पर खुला सब्सिडी का खजाना
मप्र में रिन्यूएबल एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने उद्योग जगत के बड़े और छोटे निवेशकों को सब्सिडी का लॉलीपाप तो दिखा दिया लेकिन जब उन्हें सुविधाएं देने की बात आई तो सरकार की नीतियां छोटे निवेशकों पर भारी पड़ रही है। आलम यह है कि रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश करने वाले छोटे-छोटे निवेशक ठगे जा रहे है। हां रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन जैसे बड़े निवेशकों को सरकार इस योजना का लाभ दे रही है। रिन्यूएबल एनर्जी में यूं तो सब्सिडी देने के कई तरीके मौजूद है लेकिन सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने घोषणा की थी कि सौर ऊर्जा के द्वारा बिजली बनाने वाले उत्पादकों की बिजली पर लगभग 9.30 पैसे प्रति यूनिट के हिसाब से सरकार द्वारा सब्सिडी प्रदान की जाएगी। दरअसल यह सब्सिडी रिन्यूएबल एनर्जी सर्टिफिकेट (आरईसी)के रूप में प्रदान की जानी थी जिसे बाद में पावर एक्सचेंज में ट्रेडिंग के द्वारा बेचकर पैसा इन इकाईयों को स्थापित करने वाले निवेशकों को दिया जाना था। सरकार की इस योजना से प्रभावित होकर कई छोटे-बड़े निवेशकों ने देशभर में कई सोलर ऊर्जा के द्वारा बिजली प्राप्त करने के प्लांट स्थापित किए। अनुमान है कि सारे देश में छोटे निवेशकों ने इसमें 2500 करोड़ रुपए लगाए। मप्र में भी लगभग 15 इकाईयां छोटे निवेशकों द्वारा 20 से 25 करोड़ प्रति इकाई की लागत से स्थापित की गई। सरकार ने आश्वासन दिया था कि वह 1 मेगावाट से लेकर 5 मेगावाट की छोटी इकाईयों द्वारा उत्पादित बिजली पर प्रति यूनिट 9.30 पैसे के हिसाब से आरईसी जारी करेगी जिन्हें एनर्जी एक्सचेंज, आईईएक्स और पीएक्सआईएल द्वारा क्रय किया जा सकेगा, लेकिन लंबा अरसा बीत जाने के बावजूद इन छोटे निवेशकों को न तो पैसा मिला और न ही सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सब्सिडी प्रदान की गई है।
सरकार एक मेगावाट की इकाई लगाने पर 40 लाख रुपए की सब्सिडी भी देती है। इसके लिए पांच एकड़ जमीन होना आवश्यक है। जिसपर 1 मेगावाट की इकाई स्थापित करने में लगभग 2 करोड़ रुपए खर्च बैठता है। मप्र ऊर्जा विकास निगम ने ऐसी इकाईयां स्थापित करने वालों को आश्वासन दिया था कि उनकी इकाईयों को उद्योग का दर्जा दिया जाएगा। यदि उद्योग का दर्जा दिया जाता तो इससे उनको सरकारी सब्सिडी भी मिल सकती थी। उद्योग का दर्जा तो दूर आरईसी सर्टिफिकेट ही ट्रेडिंग मैकेनिज्म में फंसकर रह गया है। निवेशकों को यह उम्मीद थी कि आरईसी सर्टिफिकेट मिलने के कुछ माह बाद उन्हें पैसे मिल सकेंगे लेकिन वर्षों बीत गए उनके पैसे फंसे हुए है। इन्हीं में से एक निवेशक का कहना है कि उनके पास लगभग 18 लाख यूनिट के आरईसी सर्टिफिकेट हैं लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अभी तक पैसा नहीं मिला है और उधर सरकार की तरफ से एक नया फरमान भी आ गया है जिसके तहत अब इस सर्टिफिकेट की दर 3.50 पैसे प्रति यूनिट करने का प्रावधान है ऐसा इसलिए क्योंकि सोलर इकाई स्थापित करने की लागत पहले के मुकाबले काफी कम हो गई है। लेकिन निवेशकों का कहना है कि उन्होंने जब इकाईयां स्थापित की थी उस वक्त इन प्लांट की लागत काफी अधिक थी और उसी हिसाब से राष्ट्रीय वित्त विकास निगम ने लोन वगैरह दिया था। अब सरकार द्वारा न तो सब्सिडी प्रदान की न ही उत्पादित बिजली को वाजिब दामों पर खरीदा गया जिसके चलते छोटी-छोटी इकाईयां बंद होने की कगार पर हैं और इनके निवेशकों के पैसे तो डूब ही चुके हैं। राष्ट्रीय वित्त विकास निगम का पैसा जो लोन के रूप में दिया गया था वह भी फंस सकता है। निवेशकोंं का कहना है कि उन्होंने आरईसी टेडिग मैकेनिज्म से प्रभावित होकर ही इस क्षेत्र को नया व्यापारिक अवसर समझते हुए निवेश किया था।
आरईसी केंद्र सरकार द्वारा 2012 में लाई गई योजना है जिसके तहत राज्यों में बढ़ती ऊर्जा जरुरतों की पूर्ति हेतु ऐसी इकाईयों को प्रोत्साहित किया जाना था जो रिन्यूएबल एनर्जी का उत्पादन करती हैं। इसमें मुख्य रूप से सौर ऊर्जा पर ध्यान दिया गया था क्योंकि भारत में सूर्य की कृपा से सौर ऊर्जा का उत्पादन आसानी से संभव है। पवन ऊर्जा को लेकर भी ऐसा ही मिलता जुलता प्रावधान केंद्र सरकार द्वारा किया गया था लेकिन सौर ऊर्जा ज्यादा व्यावारिक होने की वजह से कई छोटे निवेशकों ने सरकार के भरोसे इसमें निवेश कर दिया। आरईसी मुख्य रूप से राज्यों द्वारा ही खरीदे जाने थे जिससे कि इन निवेशकों को पर्याप्त धन मिलता और वे कामयाब हो जाते। बताया जाता है कि मप्र में भी कई एनआरआई और छोटे निवेशकों ने सोलर ऊर्जा प्लांट लगाए है लेकिन उनकी स्थिति दयनीय है। इस वर्ष जून तक कुल तीन प्रतिशत सोलर आरईसी की ट्रेडिंग पॉवर एक्सचेंज में हुई है। अप्रैल 2012 तक तो कम से कम 18 प्रतिशत ट्रेडिंग हो गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इतनी महंगी दर पर इन आरईसी की ट्रेडिंग संभव नहीं है क्योंकि सोलर पॉवर प्लांट की लागत में पर्याप्त गिरावट आई है जिसके कारण राज्य सरकारें अपना दायित्व पूरा करने से मुकर रही हैं मप्र में भी यही हालात है। रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय ने भी इसे स्वीकारा है और कहा है कि वे निवेशकों को बचाने की भरसक कोशिश कर रहे है लेकिन यह कोशिश दिखाई नहीं दे रही।
देखा जाए तो पर्यावरण नियमों के अनुसार जो इकाईयां वातावरण को ज्यादा प्रदूषित करती हंै उन्हें अनिवार्य रूप से रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा उत्पादित बिजली ही उपयोग में लाना चाहिए। ऐसी इकाईयों को निर्देशित किया गया है कि वे या तो अपने प्लांट डालें या फिर ऐसे प्लांटों से बिजली खरीदें जो रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा बिजली का उत्पादन कर रहें है। कायदे में मप्र सरकार को ऐसी सभी इकाईयों पर यह कानून लागू करते हुए उन्हें रिन्यूएबल एनर्जी द्वारा उत्पादित बिजली खरीदने के लिए बाध्य करना चाहिए और आरईसी की खरीदी भी इन्हीं इकाईयों द्वारा की जानी चाहिए। लेकिन दुख इस बात का है कि सरकार प्रदूषण फैलाने वाली इकाईयों पर कोई जोर नहीं डाल रही है और इसी कारण यह छोटे निवेशक अपना कारोबार समेटना चाह रहे हैं।
जमीन सस्ती इसलिए सोलर प्लांट लगाने को तैयार हैं नामी कंपनियां
सरकार के अधिकारियों का कहना है कि सोलर आरईसी की जो कीमत पहले निर्धारित की गई थी वे सौर ऊर्जा के मुकाबले भी काफी महंगी है। बहुत सारे राज्यों में इसे खरीदने के लिए फंड ही नहीं है और इसकी कोई जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहता। देश में गुजरात ऐसा राज्य है जो सोलर एनर्जी का हब है। फिर भी वहां पर 7 रुपए प्रति यूनिट बिजली बिकती है। जबकि मध्यप्रदेश में 5.51 रुपए प्रति यूनिट पर कंपनी बिजली बेचने को तैयार है। पिछले दिनों हुए टेंडर में 100 कंपनियां प्रदेश में बिजली बनाने को तैयार थीं। प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में और नामी कंपनियों की उत्सुकता की प्रमुख वजह है अन्य प्रदेशों की अपेक्षा सस्ती कीमत में जमीन मिलना।
मप्र की पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने अगले 25 साल तक 300 मेगावाट सोलर एनर्जी खरीदने के लिए टेंडर किया। ढेरों कंपनियों ने ऑफर दिया। संख्या अधिक होने के कारण कॉम्पटीशन भी रहा। आखिर में दिल्ली की स्काय पॉवर साउथ ईस्ट एशिया ने बाजी मारी। कंपनी ने सबसे कम 5.51रुपए में प्रति यूनिट बिजली देने का दावा किया और अडानी, रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी को भी पीछे छोड़ दिया। वहीं अडानी समूह ने तमिलनाडु से करीब 1 रुपए सस्ती कीमत पर 6.049 रुपए में बिजली देने का ऑफर दिया था।
बताया जाता है कि इनवेस्टर को प्रदेश में जो पसंद आ रहा है, उनमें सोलर एनर्जी प्लांट लगाने के लिए मिनिस्ट्री ऑफ रिनेवल एनर्जी ने लैंड बैंक बना रखा है। कंपनी के इनवेस्ट के मुताबिक बंजर और अनुपयोगी जमीन पहले से चिन्हित है। सोलर एनर्जी में प्रदेश के भीतर भविष्य की संभावना कंपनी देख रही है। 2 लाख 5 लाख प्रति एकड़ में कंपनी जमीन खरीद सकती है, जबकि दूसरे प्रदेशों में 8 से 25 लाख रुपए प्रति एकड़ जमीन खरीदनी पड़ती है। प्रदेश में न्यूनतम 1 मेगावाट का प्लांट लगाने की अनुमति मिलती है। इसके लिए 5 एकड़ जमीन जरूरी है। इसमें 6.5 करोड़ की लागत आती है। इससे 5 हजार प्रति यूनिट हर दिन बिजली पैदा हो सकती है। तमिलनाडु में अडानी समूह 648 मेगावाट सोलर एनर्जी 7.01 रुपए में देने का सौदा किया है। वहीं मप्र को कंपनी 6.049 रुपए प्रति यूनिट पर बिजली बेचने तैयार थी। इस कम कीमत से तमिलनाडु में विपक्षी दलों ने सौदे पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बताया जाता है कि महंगी कीमत से करीब 54000 करोड़ का एक्स्ट्रा बोझ तमिलनाडु पर पड़ा है। इनवेस्ट प्रमोशन सेल पॉवर मैनेजमेंट कंपनी के एमडी आरडी सक्सेना कहते हैं कि प्रदेश में सोलर एनर्जी के लिए कंपनियों ने खूब रुचि दिखाई। कंपनियों से बातचीत में पता चला कि यहां अन्य प्रदेशों की तुलना में सुविधाएं ज्यादा हैं। इसलिए सस्ती कीमत में बिजली बेचने के लिए कंपनी प्लांट लगाने में रुचि ले रही हैं।
प्लांट बनाने से पीछे हटीं दो कंपनियां!
श्योपुर के लाडपुरा गांव में बने सौर ऊर्जा प्लांट पर बार-बार के विवाद और हड़ताल का बुरा असर पड़ा है। इस विवाद के कारण विजयपुर में सौर ऊर्जा प्लांट बनाने की तैयारी में बैठीं दो कंपनियां पीछे हट गई हैं। बड़ी बात यह है कि इन दोनों कंपनियों को प्रशासन ने 150 हेक्टेयर के करीब जमीन आवंटित कर दी है, लेकिन जमीन मिलने के महीनों बाद भी कंपनियों ने कोई फीडबैक नहीं दिया है। मप्र नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग के अफसरों तक का कहना है कि एक कंपनी ने तो मन बदल दिया है और दूसरी का कोई अता-पता नहीं। प्रदेश सरकार ने परंपरागत ऊर्जा को बढ़ावा देते हुए श्योपुर के विजयपुर क्षेत्र में तीन सौर ऊर्जा प्लांट स्वीकृत किए गए थे। प्लांटों के लिए जिला प्रशासन ने बीते साल विजयपुर कस्बे से सटे चंदेली, लाडपुरा व हुल्लपुर गांव में 1 हजार 325 बीघा जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग मप्र शासन के नाम स्वीकृत भी कर दी है। इस जमीन पर दिल्ली, भोपाल व गुडगांव की निजी कंपनियां सौर ऊर्जा प्लांट बनातीं, लेकिन तीन में से सिर्फ एक रिन्यू सोलर एनर्जी गुडगांव ने लाडपुरा-हुल्लपुर में सौर ऊर्जा प्लांट बना लिया है। बीते तीन महीने से इस प्लांट से हर रोज 50 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। रिन्यू सॉलर एनर्जी के साथ ही ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली व स्टिंटला एनर्जी प्रालि भोपाल को भी विजयपुर के आस-पास जमीन दी थी, लेकिन यह दोनों कंपनियां अब सौर ऊर्जा प्लांट बनाने की इच्छुक नहीं हैं। इसकी वजह लाडपुरा सौर ऊर्जा प्लांट पर निर्माण के दौरान हुई राजनीतिक उठापठक, विवाद व हड़ताल को बताया जा रहा है, लेकिन जिम्मेदार अफसर इस बात से साफ इनकार कर रहे हैं कि विवाद के कारण सौर ऊर्जा के दो प्लांट अटक गए हैं।
प्रदेश में दूसरे स्थान पर होता विजयपुर
यदि ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली व स्टिंटला एनर्जी प्रालि. भोपाल के सौर ऊर्जा प्लांट भी विजयपुर में विकसित हो जाते तो सौर ऊर्जा बनाने के मामले में विजयपुर प्रदेश में दूसरे स्थान पर होता। विजयपुर में तीनों प्लांटों से 116 मेगावाट बिजली बनाने की योजना थी। इससे ज्यादा सौर ऊर्जा से बिजली का निर्माण सिर्फ मंदसौर में (130 मेगावाट) होता है। उल्ल्ेखनीय है कि दोनों कंपनियों के लिए सरकार ने यहां जमीन अलॉट की थी। मैसर्स ज्योति एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली, लाडपुरा गांव में 51 मेगावाट का प्लांट बनाती, इसके लिए प्रशासन ने 102.845 हेक्टेयर जमीन अलॉट कर दी है। मैसर्स स्टिंटला एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड भोपाल के लिए चंदेली गांव के पास 42 हेक्टेयर जमीन आवंटित कर दी है। यह कंपनी प्रतिदिन 15 मेगावाट बिजली का उत्पादन करती। प्रशासन ने जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग मप्र के नाम अलॉट की है, लेकिन अलॉटमेंट में स्पष्ट है कि इन कंपनियों को ही यहां सौर प्लांट लगाने की अनुमति है। श्योपुर के कलेक्टर धनंजय सिंह भदौरिया कहते हैंकि सौर ऊर्जा प्लांट के लिए विजयपुर में तीन कंपनियों के लिए जमीन आवंटित की है। वैसे जमीन नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग के नाम अलॉट है। दो कंपनियों ने अब तक काम शुरू नहीं किया, इस संबंध में संबंधित विभाग से चर्चा करेंगे। लाडपुरा प्लांट पर ऐसा कोई विवाद नहीं हुआ जिससे कंपनियां पीछे हट जाएं। नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग ग्वालियर के संभागीय प्रबंधक बीपीएस भदौरिया कहते हैं कि ज्योति एनर्जी व स्टिंटला एनजी नाम की कंपनियों ने जमीन अलॉट करा ली, लेकिन अब तक उनकी ओर से कोई रिस्पांस नहीं आया। एक कंपनी के लक्षण तो ऐसे लग रहे हैं कि वह अब प्लांट बनाने की इच्छुक नहीं। हम दोनों कंपनियों से इस मसले पर जल्द ही चर्चा करेंगे। यदि वो नहीं आएंगी तो जमीन प्रशासन को वापस कर देंगे।
सौर ऊर्जा परियोजनाएं करेंगी मुश्किलों का सामना
प्रदेश सरकार की जैसी नीति है उससे राज्य में स्थापित होने वाली सौर ऊर्जा परियोजनाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। भले ही विगत दिनों अनेक कारोबारी दिग्गजों ने राज्य सरकार से सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े करार कर लिए हों लेकिन इस क्षेत्र का जो व्यावहारिक सच है वह दिलचस्प है। जिन समस्याओं से यह क्षेत्र जूझेगा उनमें फाइनेंस, जमीनों का संकट और उत्पादित बिजली की बिक्री व वसूली। जानकारों का कहना है कि इस क्षेत्र की एक तो स्थापना लागत बहुत अधिक है और दूसरे भारी-भरकम निवेश पर वायबिलिटी के आसार बहुत क्षीण हैं, लिहाजा इस क्षेत्र में फाइनेंस का काम करने वाली कंपनियां या संस्थापन भी बहुत सोच विचार कर ही इस क्षेत्र में फाइनेंस करेंगे। इस क्षेत्र को फाइनेंस करने वाले वित्तीय संस्थान या कंपनियां सौर ऊर्जा परियोजनाओं को फाइनेंस करना तकलीफ वाला काम मानते हैं, क्योंकि इसमें रेट-ऑफ रिटर्न नहीं है। जब तक सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने वाला अपने निवेश या परियोजना लागत पर न्यूनतम 25 फीसदी सालाना की आय अर्जित न करने लग जाए तब तक उस परियोजना को वायबल अर्थात व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि 13-14 फीसदी तो परियोजना लागत पर ब्याज ही देना होगा। अब शेष 11-12 प्रतिशत की रेट ऑफ रिटर्न की स्थिति तो सामान्य ही कही जा सकेगी अर्थात ये परियोजनाएं स्थापित करना आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं है।
जमीनों का संकट
वैसे तो प्रदेश सरकार ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए लैंड बैंक बना रखा है। साथ ही सरकार ने सौर ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक नीति भी घोषित कर दी है, लेकिन जमीनों को लेकर जो प्रावधान किए हैं वे उलझनकारी और निवेशक की लागत बढ़ाने वाले हैं। मोटे तौर पर यह कहा गया है कि किसानों से जमीन ले ली जाए, लेकिन प्रदेश का काश्तकार अब होशियार हो गया है क्योंकि जमीनें महंगी हो गई हैं। राज्य में सौर ऊर्जा परियोजना के लिए अब तीन लाख रुपए प्रति बीघा से कम दर पर जमीन मिलना मुश्किल है और सच तो यह है कि एक लाख रुपए प्रति बीघा की दर पर भी जमीन मिले तो भी ये परियोजनाएं वायबल नहीं हैं। राज्य सरकार ने इन परियोजनाओं के लिए सस्ती जमीन के प्रबंधन से अपने आप को अलग कर लिया है और सब कुछ निवेशक के लिए ही छोड़ दिया है।
बिजली की रकम मिलने में देरी
सौर ऊर्जा परियोजनाओं से उत्पादित बिजली राज्य की बिजली वितरण कंपनियों को बेची जाएगी, जहां से समय पर पैसा निकालना बहुत मुश्किल वाला काम होगा क्योंकि इन कंपनियों की कार्य प्रणाली इतनी दूषित है कि पूछिए मत। लिहाजा किसी निवेशक ने सौर ऊर्जा परियोजना लगा दी, बिजली भी बनाने लग गया और उसके बाद जब बिजली किसी राजकीय बिजली वितरण कंपनी को बेची जाएगी, तो वहां से सही समय पर धन मिलना भी एक तकलीफ वाला काम होगा। निजी क्षेत्र को सीधे बिजली बेचने सरीखी कोई बात नीति में कही नहीं गई है और उसके लिए कोई भी सौर ऊर्जा परियोजना प्रवर्तक किस ग्रिड का इस्तेमाल करेगा यह भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में निवेशक प्रदेश में सौर उर्जा के क्षेत्र में कैसे काम कर पाएंगे। अभी तक तो स्थिति यह है कि जिन निवेशकों ने करार के बाद सोलर प्लांट लगाने का काम शुरू किया है उनके साथ घोर उपेक्षा की जा रही है।
आकर्षक नीति, लेकिन नियत में खोट
देश में सोलर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें तेजी से प्रयास कर रही हैं। इसके लिए आकर्षक नीति भी बनाई गई है और समय-समय पर इसमें परिवर्तन भी होते रहते हैं। इसका परिणाम यह है कि वर्ष 2009 में जहां देश में मात्र आठ मेगावाट सोलर ऊर्जा उत्पन्न होती थी। अब साढ़े तीन हजार मेगावाट हो गई है। केंद्र की पिछली यूपीए सरकार ने वर्ष 2020 तक देश में 22 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसको मोदी सरकार ने बढ़ाकर एक लाख मेगावाट कर दिया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए बहुत कम ब्याज दर पर सोलर ऊर्जा के लिए लोन उपलब्ध कराया जाएगा। ऐसे में प्रदेश में नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिये आकर्षक नीति बनायी गयी है। केन्द्रीय नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने जवाहरलाल नेहरू सोलर मिशन के द्वितीय चरण में 750 मेगावॉट क्षमता में से 220 मेगावॉट क्षमता की 7 परियोजना मध्य प्रदेश में स्थापित किए जाने को मंजूरी दी है। इसके अलावा रीवा जिले में राज्य शासन एवं सोलर एनर्जी कारपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा संयुक्त उपक्रम बनाकर 750 मेगावॉट क्षमता की अल्ट्रा मेगा सोलर परियोजना को भी मंजूरी दी गयी है। यह विश्व की सबसे बड़ी क्षमता वाली सौर परियोजना है। सौर ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिए प्रदेश में 20 हजार हेक्टेयर भूमि चिन्हित की गई है। मार्च, 2012 में जहां प्रदेश में सौर ऊर्जा की क्षमता 2 मेगावॉट थी, वह नवम्बर, 2014 में बढ़कर 354 मेगावॉट और मार्च, 2015 में प्रदेश में बढ़कर 466 मेगावॉट हो गयी है। प्रदेश में 31 मार्च, 2017 तक सौर ऊर्जा क्षमता बढ़कर 2000 मेगावॉट होने का अनुमान है। मोदी सरकार देश में सोलर पावर के जरिए एक लाख मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य अब आम आदमी को जोड़कर पूरा करना चाहती है। इसके लिए अब कोई भी व्यक्ति सोलर पैनल से बिजली पैदा कर उसे बेच सकता है। सरकार ऐसे लोगों को बिजनेस की बारीकियां सिखाने जा रही है।
प्रदेश सरकार की नीति का ही परिणाम है कि मॉरीशस की स्काई पॉवर कंपनी शाजापुर जिले में तीन सोलर पॉवर प्लांट लगाने की तैयारी में है। मध्यप्रदेश पॉवर मैनेजमेंट कंपनी इनसे कुल मिला कर 300 मेगावाट बिजली लेगी। उत्पादन अधिक होने पर कंपनी बिजली अन्य राज्यों को बेच सकेगी। मप्र का यह क्षेत्र सोलर बिजली उत्पादन के लिए अनुकूल माना जाता है। विद्युत नियामक आयोग द्वारा कुल खपत की दस फीसदी ग्रीन बिजली उपयोग करने की शर्त लगाने के बाद पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने 312 मेगावाट बिजली खरीदने के लिए टेंडर बुलाए थे। इसमें 100 इंवेस्टर्स ने कुल मिला कर दस गुना अधिक 3744 मेगावाट बिजली का ऑफर दिया था। इसमें से जिन नौ कंपनियों के टेंडर मंजूर हुए हैं उनमें एक मॉरीशस की स्काई पॉवर कंपनी सहित दिल्ली, कोलकाता, जयपुर आदि शहरों के इंवेस्टर्स शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर कंपनियां मध्यप्रदेश में नया सोलर प्लांट लगाएंगी। इस सोलर पॉवर प्लांट की खास बात यह है कि सोलर पॉवर में बड़ा नाम माने जाने वाली रिलायंस पॉवर, अडानी पॉवर, एकमे, वेलस्पन और सन एडिसन के टेंडर नामंजूर हो गए, क्योंकि अन्य कंपनियां सस्ती बिजली दे रही हैं। यह इंवेस्टर्स मध्यप्रदेश को मौजूदा रेट से कम पर बिजली देंगे और यह रेट भी 25 साल तक नहीं बदलेगा। मप्र को फिलहाल एक यूनिट सोलर बिजली 6.50 से 7 रुपए में मिल रही है। स्काई पॉवर कंपनी एक यूनिट बिजली के लिए 5.05 से 5.29 रुपए तक लेगी। अन्य कंपनियों का भी अधिकतम रेट 5.64 रुपए प्रति यूनिट है। एमपी पावर मैनेजमेंट कंपनी के एमडी संजय शुक्ला ने ने बताया कि निविदा प्रक्रिया से प्रदेश को देश में सबसे कम दर पर 25 वर्षों तक 300 मेगावाट बिजली मिलने का रास्ता खुला है। जहां सरकार की नीति के कारण प्रदेश में बड़ी संख्या में निवेशक रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में निवेश करने को उतारू हैं वहीं जो पहले से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं उन्हें सरकार और अफसरों का सहयोग नहीं मिल पा रहा है।
ठंडे बस्ते में गई 'बिजली बनाओ और बेचोÓ योजना
प्रदेश में खुद अपनी बिजली बनाने और बेचने की योजना फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दी गई है। शासन द्वारा इस योजना को अप्रैल 2015 में लागू करने की बात कही गई थी लेकिन अब तक इसे लागू नहीं किया जा सका है। हालांकि मप्र ऊर्जा विकास निगम के अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश में पहले यह योजना सरकारी भवनों व विभागों के लिए लागू की जाएगी उसके बाद इसका लाभ आम जनता को मिलेगा। सरकारी भवनों एवं विभागों के लिए इसेअगले दो माह में लागू करने की बात कही जा रही है। उल्लेखनीय है कि यह योजना खुद अपनी बिजली बनाने, उसका उपयोग करने और अतिरिक्त बिजली को बेचने की सुविधा देगी। अधिकारियों के अनुसार नेट मीटरिंग नामक इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू किया जाना है, लेकिन प्रथम फेज में इंदौर, भोपाल, जबलपुर में इसे लागू किया जाएगा। इसमें जनता अपने घरों या कार्यालय की छत पर सोलर पैनल के द्वारा बिजली बनाएगी और उसे डायरेक्ट ग्रीड में सप्लाई किया जाएगा। इसके लिए एक मास्टर मीटर लगेगा जो यह बताएगा की कितनी बिजली ग्रीड में सप्लाई की गई और कितनी बिजली का उपयोग उपभोक्ता ने किया है। यदि ग्राहक ने जितनी बिजली ग्रीड में डाली और उससे अधिक का उपयोग किया तो दोनों का अंतर निकालकर शेष यूनिट का भुगतान ग्राहक को करना होगा। वहीं कम उपयोग करने और ग्रीड में अधिक बिजली डालने पर सरकार ग्राहक को भुगतान करेगी। मप्र में 4.30 रुपए प्रति यूनिट की दर से भुगतान देने का प्रस्ताव है। मप्र ऊर्जा विकास निगम के चीफ इंजीनियर भुवनेश पटेल कहते हैं कि योजना रेग्युलेशन कमीशन के पास है। पहले इसे सरकारी भवनों के लिए लागू किया जाएगा। इसके बाद प्रथम चरण में इंदौर, भोपाल और जबलपुर में यह लागू होगी।
मप्र में बिजली बनाना महंगा और खरीदना सस्ता
मध्यप्रदेश में खुद बिजली बनाकर (कैप्टिव पॉवर प्लांट) उपयोग करना मंहगा है और दूसरों से खरीदकर इस्तेमाल करना सस्ता है। ऐसे में क्यों कोई कंपनी खुद बिजली बनाए यह सवाल खुद बिजली बनाकर उपयोग करने वाली कंपनियों के संचालकों ने उठाया है। उनका कहना है कि यदि सरकार चाहती है कि कंपनियां खुद बिजली बनाकर इस्तेमाल करें तो छूट देकर उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। उद्योगपतियों के अनुसार इलेक्ट्रीसिटी ड्यूटी एक्ट-2012 के तहत किसी कंपनी का कैप्टिव पावर प्लांट है तो उनसे 15 फीसदी ड्यूटी वसूली जा रही है, जबकि सरकार, बिजली बनाने वाली कंपनियों या दूसरे राज्य से बिजली खरीदने पर 9 फीसदी ड्यूटी लगाती है। ऐसे में स्वयं के निवेश पर बिजली प्लांट लगाने के बाद ज्यादा ड्यूटी देना न्याय संगत नहीं है। उद्योग जगत ने कैप्टिव पावर प्लांट पर लगने वाली डयूटी को 15 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने की मांग की है। प्रदेश में लगभग 250 कैप्टिव पावर प्लांट हैं। वर्तमान में लगभग सभी सेक्टर की कंपनियां खुद की बिजली तैयार इसे इस्तेमाल करती हैं। कंपनी संचालकों का कहना है कि खुद की बिजली मंहगी होने के बाद भी ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें दूसरे जगह से मिलने वाली बिजली से क्वालिटी पावर नहीं मिल पाता है।
प्रदेश सरकार ने 25 अप्रैल 2012 से कैप्टिव विद्युत उत्पादन पर देय विद्युत शुल्क की दर 9 से बढ़ाकर 15 फीसदी किया है। सरकार का यह कदम विद्युत अधिनियम 2003 के विपरीत है, क्योंकि इसमें कैप्टिव पावर को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। चूंकि कैप्टिव पावर उत्पादक को जनरेटर व अन्य साधनों के लिए कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी होती है, इसलिए विद्युत शुल्क की दर अत्यंत कम होनी चाहिए। कैप्टिव पॉवर जनरेशन पर अधिक शुल्क मामले में प्रदेश के ऊर्जा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि शुल्क में राहत प्रदान करना वित्त विभाग का काम है। ऊर्जा विभाग तो नियामानुसार ही शुल्क ले रहा है। कैप्टिव पावर पर 15 फीसदी डयूटी वसूलने से उद्योगों को प्रति यूनिट 30 पैसे अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा है। अन्य राज्यों की तुलना में यह सबसे अधिक है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक में तो कैप्टिव पावर पर कोई शुल्क ही नहीं लगता। वहीं केरल में 1.2 पैसे, तामिलनाडु में 10 और आंध्रप्रदेश में 25 पैसे प्रति यूनिट का शुल्क लगता है। भाजपा की सरकार वाले राज्यों में सबसे अधिक महंगी बिजली मध्यप्रदेश में मिल रही है। प्रदेश में फ्यूल चार्ज के नाम पर बिजली की दरों में चाहे जब इजाफा किया जा रहा है। इतना ही नहीं हर तीन माह बाद एफएसी के नाम पर बिजली की दरों में बढ़ोतरी की जा रही है।
अरबों खर्च, फिर भी बर्बाद हो रही 25 फीसदी बिजली
बिजली के टीएंडडी लॉस (वितरण एवं पारेषण हानि) को कम करने के लिए कंपनियों ने 11 साल में अरबों रुपए खर्च कर दिए। बावजूद इसके लॉस को 15 फीसदी पर नहीं ला सके। अभी भी तीनों कंपनियों की 25 फीसदी बिजली बर्बाद हो रही है। बिजली कंपनियों ने हाल ही में यह रिपोर्ट तैयार कर मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी के प्रबंध संचालक व तीनों वितरण कंपनी के अध्यक्ष संजय कुमार शुक्ल को दी है। उन्होंने ने तीनों कंपनियों के अधिकारियों को यह लॉस 15 प्रतिशत पर लाने का लक्ष्य दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक बिजली कंपनियां 11 साल में अपने-अपने क्षेत्रों में 14 से 21 प्रतिशत की बिजली बर्बादी ही रोक सकी हैं। जबलपुर रीजन की पूर्व क्षेत्र कंपनी के लॉस में 14 प्रतिशत, भोपाल व ग्वालियर की मध्य क्षेत्र कंपनी के लॉस में 17 और इंदौर की पश्चिम क्षेत्र कंपनी के लॉस में 21 प्रतिशत की कमी आई है। वहीं एटीएंडडी (तकनीकी एवं वाणिज्यिक हानि) भी 23.15 प्रतिशत हो रही है। जो 2003-04 में 49.60 प्रतिशत थी।
बिजली की बर्बादी रोकने इन योजनाओं पर काम
1. फीडर सेपरेशन- बिजली चोरी वाले क्षेत्रों में फीडर सेपरेशन करके कंपनी यह पता लगाती है कि उस फीडर पर कितनी बिजली सप्लाई हुई और कितनी बर्बाद या चोरी हुई।
2. राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण- ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली चोरी एवं लाइन लॉसेस रोकने के लिए इस योजना के तहत हर घर तक सर्विस लाइन बिछाई जाती है और हर घर में कनेक्शन दिया जा रहा है ताकि बिजली चोरी न हो।
3.आरएपीडीआरपी- शहरी क्षेत्रों में पुरानी व जर्जर हो चुकी सप्लाई लाइनों को बदला जा रहा। साथ ही नए ट्रांसफार्मर लगाए गए हैं। ताकि अधिक से अधिक बिजली की सप्लाई हो सके।
4. एडीबी- एशियन डेवलपमेंट बैंक योजना के तहत जगह-जगह नए सब स्टेशन बनाए जा रहे हैं और नई उच्च दाब एवं नि न दाब की लाइनें बिछाई जा रही हैं।
यह है वितरण कंपनियों में लॉस की स्थिति
कंपनी का नाम- 2003-04 2014-15
पूर्व क्षेत्र (जबलपुर रीजन) 40.54 प्रतिशत 25.79 प्रतिशत
मध्य क्षेत्र (भोपाल- ग्वालियर रीजन)44.88 प्रतिशत 27.55 प्रतिशत
पश्चिम क्षेत्र(इंदौर-उज्जैन रीजन) 45.97 प्रतिशत 24.71 प्रतिशत
उपभोक्ताओं को 3 करोड़ एलईडी बल्ब बाटेगी कंपनी
नवीन ऊर्जा एवं नवकरणीय विभाग के एमडी मनु श्रीवास्तव कहते हैं कि अभी तक कंपनी उपभोक्ताओं को पोस्टर और स्लोगन के जरिए बिजली बचाने का संदेश देती थी। अब खपत को कंट्रोल करने के लिए हर उपभोक्ता को एलईडी बल्ब देगी। वो भी 10 रुपए मासिक की किश्तों में। जनवरी से प्रदेश के 3 करोड़ उपभोक्ताओं को बल्ब देने का काम शुरू होगा। मप्र ऊर्जा विभाग के अफसरों की बैठक में इस प्रस्ताव पर सहमति बनने के बाद नवीन ऊर्जा एवं नवकरणीय विभाग बल्ब खरीदी के लिए टेंडर जारी करने की तैयारी कर रहा है। एलईडी बल्ब लेना वैकल्पिक होगा। यानी बिजली उपभोक्ता की मर्जी पर ही उसे एलईडी बल्ब दिया जाएगा। आवेदन के साथ ही 9 वाट का एलईडी बल्ब उपभोक्ता बिजली दफ्तर से ले सकेंगे। बिजली कंपनी अभी हर उपभोक्ता को एक बल्ब ही देगी। बाद में कंपनी की योजना एक से ज्यादा बल्ब देने की है। इस संबंध में अभी प्रदेश ऊर्जा विभाग दिशा निर्देशिका तैयार कर रहा है। बाजार में बल्ब की कीमत 300 होगी। कंपनी उपभोक्ताओं को यह बल्ब 100 रुपए में देगी वह भी किश्तों में। बिजली कंपनी उपभोक्ताओं से यह पैसा हर माह बिल में 10 रुपए जोड़कर वसूलेगी। प्रदेश के उपभोक्ता को बांटने के लिए 3 करोड़ एलईडी खरीदने की तैयारी हो रही है। विभाग इसके लिए टेंडर बुला रहा है। बताया जाता है कि अगले दो माह में खरीदी का काम शुरू हो जाएगा। इसके बाद बिजली कंपनी को एलईडी सप्लाई कर दी जाएगी, ताकि उपभोक्ताओं तक पहुंचाई जाए।

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