शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

नहीं रूकेगा बाघों का शिकार

नहीं रूकेगा बाघों का शिकार

आज कौन मानेगा कि सौ साल पहले अपने देश में लाख की तादात में बाघ जीते थे और अपने होने का दम भरते दहाड रहे होते थे। 6 साल पहले बाघों की ये तादात घटकर 3600 हो गई और 2008 में ये संख्या चैंकाने की हद पर पहुंचते हुए 1411 जा पहुंची। 2005 के सरकारी आंकणों के मुताबिक राजस्थान के सरिस्का टाईगर रिजर्व में मौजूद सभी 26 बाघ विलुप्त हो गये। 6 साल पहले टाईगर स्टेट के नाम से जाने जाने वाले मध्य प्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में मौजूद 44 बाघ आज की तारीख में इतिहास हो गये हैं। बाघों को बचाने के लिये बनी नेश्नल टाईगर कन्वेंशन अथोरिटी की एक रिपोर्ट बताती है कि 2007 में 41 और 2008 में 53 बाघ देश भर में मौत की नीद सो गये और 2009 के पहली छमाही में ही 45 बाघ मर गये और साल के जाते जाते ये संख्या 86 पहुंच गई। पयावरणविद दावा कर रहे हैं कि आज देशभर में मुश्किल से 1000 बाघ रह गये हैं। इन 1000 बाघों को बचाया ना गया तो 2015 ज्यादा दूर नहीं लगता। आज सेव टाईगर्स के नारे देशभर में पोस्टरों, बैनरों, अखबारों, रेडियो और टीवी विज्ञापनों में तैर रहे हैं। लोग बाघों के जीवन के लिये चिन्तित नजर आ रहे हैं। 1972 में कार्बेट नेश्नल पार्क से प्रोजेक्ट टाईगर नाम से शुरू की गयी सरकारी योजना आज जबरदस्त रूप से प्रासांगिक हो गई है।
दरअसल बाघों की ये दातात कैसे आश्चर्यजनक तरीके से कमती चली गई। कैसे इन कुछ सौ सालों में देशभर के हजारों बाघ गायब होने की जद पर आ पहुंचे। कैसे हम इतने बेपरवाह शिकारी हो गये कि हमने अपने राश्ट्रीय पशु को मरने के लिये छोड दिया। इन सवालों की परतें अपनी जडों तक बड़ी गहरी हैं। बाघों की तस्करी के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत से तिब्बत के जरिये चीन तक उनकी खालों के व्यापार की खबरें पिछले कई सालों से छनती हुई मीडिया में पहुंचती रही हैं। और अब जबकि बाघों की विलुप्ति की खबरों के सच होने के दिन नजदीक आते लग रहे हैं हमें उनकी चिन्ता सता रही है। देशभर में 38 से ज्यादा टागर रिजर्व उनके संरक्षण के नाम पर बने तो सही पर मौजूदा हाल साफ कर देता है कि वो कितने सफल रहे। या कहना बेहतर होगा कि कितने नाकामयाब रहे। खैर हालात जब इतने बिगडे हैं तो कम से कम हमें जागने की सूझी है। हम जो कर सकते हैं वो यही है कि उनके बचाव के लिये काम कर रहे जागरूकता अभ्यिानों से किसी न किसी तरह जुडें। अपनी ओर से जागरूकता लाने का प्रयास करें। हो सके तो कोई पहल करें। अगले कुछ सौ सालों तक बाघ जीते हुए दहाड सके तो पर्यावरण संरक्षण के लिए ये हमारी बडी मदद होगी।

बाघों की लगातार घटती संख्या ने हर आमोखास को चिन्ता में डाल दिया है। कितने आश्चर्य की बात है कि हर साल हजारों करोड रूपए खर्च करने के बाद भी बाघों के अस्तित्व पर दिनों दिन संकट बढ़ता जा रहा। हालांकि 1973 में बाघों को बचाने के लिए कांग्रेस की तात्कालिन केन्द्र सरकार ने टाईगर प्रोजेक्ट शुरू किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है।
बाघ संरक्षण की दिशा में केन्द्र और राज्य सरकार कितनी संजीदा है उसकी एक बानगी है मध्य प्रदेश के पन्ना जंगल। पन्ना में 2002 में 22 बाघ हुआ करते थे, इसी लिहाज से इस अभ्यरण को सबसे अच्छा माना गया था। 2006 मे वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया (डब्लूआईआई) ने कहा था कि पन्ना में महज आठ ही बाघ बचे हैं। इसके उपरान्त यहां पदस्थ वन संरक्षक एच.एस.पावला का बयान आया कि पन्ना में बाघों की संख्या उस समय 16 से 32 के बीच है। जनवरी 2009 में डब्लूआईआई ने एक बार फिर कहा कि पन्ना में महज एक ही बाघ बचा है। इस तरह अब किस बयान को सच माना जाए यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है। अपनी खाल बचाने के लिए वनाधिकारी मनमाने वक्तव्य देकर सरकार को गुमराह करने से नहीं चूकते और सरकार है कि अपने इन बिगडैल, आरामपसन्द, भ्रष्ट नौकरशाहों पर एतबार जताती रहतीं हैं।
2007 में हुई गणना के आंकडों के अनुसार बाघ संरक्षित क्षेत्रों में सबसे अधिक 245 बाघ सुन्दरवन में थे, इसके अलावा बान्दीपुर में 82, कॉर्बेंट मेे 137, कान्हा में 127, मानस 65, मेलघाट 73, पलामू 32, रणथंबौर 35, सिमलीपाल में 99 तो पेरियार में 36 बाघ मौजूद थे। सरिक्सा 22, बक्सा 31, इन्द्रावती 29, नागार्जुन सागर में 67 नामधापा 61, दुधवा 76, कलाकड 27, वाल्मीकि 53, पेंच (महाराष्ट्र) 40, पेंच (मध्य प्रदेश) 14, ताडोबा 8, बांधवगढ 56, डम्पा 4, बदरा 35, पाकुल 26, एवं सतपुडा में महज 35 बाघ ही मौजूद थे, इसके अलावा 2007 में सर्वेक्षण वाले अतिरिक्त क्षेत्रों में कुनो श्योपुर में 4, अदबिलाबाद में 19, राजाजी नेशनल पार्क 14, सुहेलवा 6, करीमनगर खम्मन 12, अचानकमार 19, सोनाबेडा उदान्ती 26, ईस्टर्न गोदावरी 11, जबलपुर दमोह 17, डाण्डोली खानपुर में 33 बाघ ििचन्हत किए गए थे।
दूसरे आंकडों पर गौर फरमाया जाए तो 1972 में भारत में 1827 तो मध्य प्रदेश में 457, 1979 में देश में 3017, व एमपी में 529, 1984 में ये आंकडे 3959 / 786 तो 1989 में 3854 / 985 हो गए थे। फिर हुआ बाघों का कम होने का सिलसिला जो अब तक जारी है। 1993 में 3750 / 912, 1997 में 3455 / 927, 2002 में 3642 / 710 तो 2007 में देश में 1411 तो मध्य प्रदेश में महज 300 बाघ ही बचे थे।
दुख का विषय यह है कि देश में 28 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यरण होने के बाद भी छत्तीसगढ के इन्द्रावती टाईगर रिजर्व नक्सलियों के कब्जे में बताया जाता है। इसके साथ ही साथ टाईगर स्टेट के नाम से मशहूर देश का हृदय प्रदेश माना जाने वाला मध्य प्रदेश अब धीरे धीरे बाघों को अपने दामन में कम ही स्थान दे पा रहा है, यहां बाघों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से कमी दर्ज की गई है।
सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बडी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हड्डियां एक लाख से डेढ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास पहले नहीं हुए हैं। गुजरात के गीर के जंगलों में सिंह को बचाने के प्रयास जूनागढ के नवाब ने बीसवीं सदी में आरम्भ किए थे। एक प्रसिद्ध फिरंगी शिकारी जिम कार्बेंट को बाघों से बहुत लगाव था। आजादी के बाद जब बाघों का शिकार नहीं रूका तो उन्होंने भारत ही छोड दिया। भारत से जाते जाते उन्होंने एक ही बात कही थी कि बाघ के पास वोट नहीं है अत: बाघ आजाद भारत में उपेक्षित हैं।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढ़ा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।

बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रक्रिया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडने के बजाए कराह ही रहे हैं।

शिवराज की दूत क्यों बनीं सुषमा स्वराज?

इंदौर यानी अहिल्या नगरी में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में तीन दिनों तक दिग्गज नेताओं में कुनबे की दिशा, दशा और चरित्र पर जमकर मंथन किया। प्राकृतिक महौल के बीच हुए इस मंथन में अमृत निकला या नहीं अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन हलाहल जरूर बाहर आ गया है।

इस हलाहल को निकालने का श्रेय (कुचेष्टा) पार्टी की वरिष्ठ नेत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को जाता है। उनके एक वक्तव्य से दो नेता ही नहीं दो राज्यों की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। ये राज्य हैं गुजरात और मध्यप्रदेश। तथा दोनों नेता हैं इन राज्यों के मुख्यमंत्री यानी नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान। दोनों सुषमा स्वराज को बड़ी दीदी मानते हैं लेकिन दीदी के एक वक्तव्य ने भाइयों के बीच लकीर खींच दी है।

सुषमा स्वराज ने अपने आपको मध्य प्रदेश का ब्रांड एंबेसडर खुद ही बना दिया है। कायदे से तो उन्हें कर्नाटक का ब्रांड एबेसडर होना चाहिए जहां से वे सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव भी लड चुकी है और जहां की भाजपा सरकार सुषमा के मुंह बोले रेड्डी बंधुओं की दम पर चल रही है। सुषमा स्वराज और नरेंद्ग मोदी में कभी नहीं बनी यह तो सभी जानते हैं। इसकी एक बडी वजह यह है कि जब सुषमा बहुत पहले अपने लिए राज्य सभा की सीट तलाश रही थी तो उनके लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने नरेंद्ग मोदी से कहा था। मोदी ने गुजराती गौरव का गुब्बारा उछाल दिया था और आखिरकार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने विदिशा की अपनी सीट लोकसभा चुनाव में सुषमा को सौपी और खुद सुषमा के लिए प्रचार भी किया।
उल्लेखनीय है कि ऐशियाई शेरों को लेकर पहले से ही इन दोनों मुख्यमंत्रियों के बीच शीत युद्ध चल रहा था। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब कभी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से कुनों अभ्यारण्य के लिए ऐशियाई शेरों की मांग करते तो श्री मोदी उन्हें पहले अपने बाघो का ध्यान रखने की सलाह दे डालते। शेरों के हस्तांतरण को लेकर वर्षो से चल रहे इस शीत युद्ध में सुषमा स्वराज की टिप्पणी ने आग में घी डालने जैसा काम किया है।

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सब कुछ ठीक चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी जहां युवाओं को ज्यादा तरजीह देने की बात कर रहे थे, वहीं आडवाणी भी चौथी पीढ़ी को जिम्मेदारी संभालने को तैयार रहने पर जोर दे रहे थे। इन सबके बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हीरो थे। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेता नरेन्द्र मोदी के सुशासन की कसीदे पढ़ रहे थे, तब सुषमा ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि मध्यप्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

पार्टी के ज्यादातर नेता सिर्फ मोदी मॉडयूल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे। तब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला और साफ किया कि गुजरात के मुकाबले मध्य प्रदेश किसी मायने में पीछे नहीं है। नरेन्द्र मोदी के बराबर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खड़ा करना था कि पार्टी के भीतर एक नई बहस शुरू हो गई। यानी क्या बीजेपी के मोदीकरण से वाकई पार्टी को नुकसान हो रहा है।

हालांकि पार्टी प्रवक्ता इस मामले में स्पष्ट नजरिया तो नहीं रख सके, लेकिन चौहान की तारीफ करने से भी पीछे नहीं रहे। सियासी हलकों में सुषमा के बयान के मायने निकाले जा रहे हैं। दो दिन पहले ही गडकरी ने मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों से सहयोग की अपील की। यानी पार्टी अल्पसंख्यकों के करीब पहुंचना चाहती है। ऐसे में पार्टी को मोदीकरण चेहरे से बाहर निकालना ही होगा।

उम्मीद तो थी कि इंदौर में एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर, नए युवा अध्यक्ष की अगुआई में बीजेपी नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरुआत करेंगे पर लोगों को यह जानकर बड़ा अफसोस हुआ कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए।

अलबत्ता बीजेपी में एक नई बहस की शुरुआत हो गई है और जिसका मुख्य सूत्रधार सुषमा स्वराज को माना जाता हैं। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेताओं की उपस्थित में श्रीमती स्वराज के इस कथन ने सबको चौंका दिया कि मध्य प्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

एक ही परिवार के दो सदस्यों के बीच फूट डालने की कोशिश तथा एक-दूसरे के खिलाफ भड़काने की सुषमा की कोशिश करार देने वाले राजनीतिक विश£ेषक अचरज से भरकर यह कहने में नहीं चूकते कि आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर।

सुषमा लोकसभा की सदस्य भी बनीं और जब आडवाणी के उत्तराधिकारी की बात चल रही थी तो आडवाणी ने बहुत से लोगों की दावेदारी को किनारे करते हुए सुषमा को लोकसभा में प्रतिपक्ष का नेता भी बनाया। सुषमा स्वराज अब लोकसभा में राजनाथ सिंह को भी आदेश देंगी जो हाल तक पार्टी के अध्यक्ष थे और उस नाते सुषमा स्वराज ही नहीं, पार्टी के सभी नेता उनका आदेश माना करते थे।

सुषमा स्वराज ने शिवराज सिंह की सरकार का गुणगान करने के लिए नरेंद्ग मोदी को निशाना क्यों बनाया यह तो अलग सवाल है लेकिन सुषमा ने कहा कि गुजरात सरकार को भाजपा के मुख्यमंत्रियों को मॉडल सरकार करार देने से पहले मध्य प्रदेश की सरकार की संवेदनशीलता देख लेनी चाहिए। मध्य प्रदेश मंे विकास भी हो रहा है और सुषमा की राय में संवेदनशील तरीके से हो रहा है। जाहिर है कि सुषमा ने एक तीर से दो शिकार किए है। शिवराज सिंह की संवेदनशीलता पर मोहर लगाई है और नरेंद्ग मोदी को एक बार फिर से हडका दिया है।

प्रतिपक्ष के नेता का पद लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद होता है। ब्रिटिश और अमेरिकी लोकतंत्र में तो प्रतिपक्ष के नेता को छाया प्रधानमंत्री कहा जाता है। अगर भाजपा सरकार में आई तो प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार सुषमा स्वराज ही होंगी। ऐसे में नरेंद्ग मोदी जैसे कद के नेता से झंझट मोल लेने का काम कर के सुषमा स्वराज ने बचपने का परिचय दिया।

नरेंद्ग मोदी ने सुषमा स्वराज के इस बयान पर कुछ भी नहीं बोल कर राजनैतिक बडप्पन भी दिखाया और यह संदेश भी दिया कि वे सुषमा स्वराज को कुछ नहीं समझते। वैसे भ जिससे भाजपा दूसरी पीढी कहा जाता था वह अब पहली पीढी बन गई है और नितिन गडकरी के तौर पर पार्टी के पास सबसे युवा अध्यक्ष मौजूद है। रही शिवराज सिंह की बात तो उन्हें सुषमा स्वराज के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं थी। प्रमाण पत्र तो मध्य प्रदेश के मतदाता ने उन्हें दूसरी बार शान से मुख्यमंत्री बना कर दे दिया है।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

पुलिस में बगावत कराने की फिराक में माओवादी

माओवादी प्रभावित राज्यों में सुरक्षा बलों के जवान और माओवाद कैडेट्स के बीच संघर्ष जारी है। इसमें दोनों ही तरफ के लोग मारे जा रहे हैं। इससे देश की शांति और विकास की प्रक्रिया बाधित हो रही है। सरकार माओवाद को एक समस्या मान कर इससे से जुड़े लोगों की सफाया करना चाहती है। वहीं माओवाद से जुड़े लोगों का कहना है कि गरीबों के प्रति सरकार और जमीदारों की नकारात्मक रवैये के कारण हीं हथियार उठाना पड़ा। समर्थन बटोरने माओवादी संगठन समय-समय पर पर्चे जारी कर आदिवासी समुदाय को यह बतना नहीं भूलते कि तुम हमारे हो, हमारे बीच के हो। रिश्ता तुम्हारी रोजी-रोटी से है मगर भाई मेरे, ऐसे जीने का भला क्या मतलब? छत्तीसगढ के अविभाजित बस्तर, राजनांदगांव और महाराष्ट्र के गढ़चिरोली क्षेत्र जिसे दण्डकारण्य के नाम से पुकारा जाता है, में लोगों को अब एक युद्ध लडऩे के लिये प्रेरित किया जा रहा है। अत्याधुनिक हथियारों और ढेर सारा गोलाबारूद। क्षेत्र में तैनात अधिकारी और जंगल महकमे के लोग यहां युद्ध लड़कर देश की सेवा करेंगे या अपनी रक्षा करेंगे। यहां आने पर आप एक सच्चाई को जरूर जाना समझा होगा। वो यह है कि आपके थानों-कैंपों के इर्द-गिर्द मौजूद बस्तियों में जीने वाले आदिवासी जो बेहद गरीबी में, बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दशकों से सरकारी जारी लापरवाही का शिकार बनकर जिंदगी के साथ जद्दोजहद खिलाफ आप लोगों को लड़ाई लडऩा है। उन्हीं लोगों के सीने पर ताननी है अपनी रायफलें। क्योंकि सोनिया, मनमोहन सिंह, चिदंबरम, रमण सिंह, ननकीराम, अशोक चव्हान, महेंद्र कर्मा आदि नेताओं ने निर्णायक युद्व या आरपार की लड़ाई का जो हुंकार मार रहे हैं वो यहां के भोले भाले गरीब और मेहनतकश आदिवासी जन समुदाय के खिलाफ हीं है। आखिर यहां के जनता पर इतना गुस्सा क्यों?भोली-भाली व शांति चाहने वाली यहां की आदिवासी जनता का इतिहास देश के अन्य इलाकों के आदिवासी की तरह ही रहा है। इन्होंने 19 वीं सदी की शुरूआत से लेकर आज तक शोषण, लूट, उत्पीडऩ, अन्याय और परायों के शासन के खिलाफ बगावत का परचम हमेशा ऊंचा उठाए रखा है। 1911 में अंग्रेजों के खिलाफ इनलोगों ने जबरदस्त विरोध किया था जो इतिहास के पन्नों में महान भूमकाल के नाम से अंकित है। आने वाले 2011 में इस विद्रोह की 110 वीं सालगिरह मनानी है। और अब एक ऐसा संयोग बना है कि यह सौवां साल यहां के समूचे आदिवासियों को एक बार फिर प्रतिरोध का झंडा बुंलद करने पर मजबूर कर रहा है।बहरहाल यहां के आदिवासियों ने कई बिद्रोह किये। काफी खून बहाया, शहादतें दी। पर आजादी और मुक्ति की उनकी चाहतें पूरी नहीं हुई। पहले गोरें लुटेरों और 1947 के बाद से उनका स्थान लेने वाले काले लुटेरों ने इनके हिस्से में अभाव, अन्याय, अपमान और अत्याचार हीं दिये हैं। अपने हीं मां समान जंगल में वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें चोर बना दिया। जंगल माफिया, मुनाफाखोर व्यापारी, ठेकेदार, पुलिस, फॉरेस्ट अफसर। सभी ने उनका शोषण किया। उनकी मां-बहनों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया। हालांकि इनके खिलाफ उनके दिलो दिमाग में गु्स्सा उबल रहा था, लेकिन उसे सही दिशा देने की राजनैतिक ताकत उनके पास नहीं थी। ऐसी स्थिति में 1980 के दशक में उन्हें एक नई राह मिल गई। मुक्ति की एक वैज्ञानिक सोच और जनयुद्व का संदेश लेकर यहां पर माओवादी पार्टी ने कदम रखा। यहां की दमित-शोषित-उत्पीडि़त आदिवासी जनता में काम करना शुरू किया।सिर्फ यहां की आदिवासियों की नहीं बल्कि देश के तमाम इलाकों के लोगों की या यूं कहें कि देश की 90 प्रतिशत मेहनतकश लोगों की कमोबेश यही बदहाली है। देश के मजदुरों, किसानों, छोटे छोटे मंझोले व्यापारियों तथा आदिवासी, दलित, महिलाएं और अन्य पिछड़े समुदायों पर शोषण उत्पीडऩ का एक व्यापक दुष्चक्र जारी है। इस स्थिति के लिये जिम्मेदार वे लोग हैं जो आबादी के महज 11 फिसदी का प्रतिनिधि होने के बावजूद देश की समूची सम्पदाओं में 90 प्रतिशत पर हिस्सेदारी रखते हैं। गिद्ध माने जाने वाले इस समुदाय को माओवादी सामंती वर्ग, दलाल पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादियों के वर्ग में बांटते है और इनकी सांठगांठ से निर्मित व्यवस्था को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताते है।लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुष्ट तिकड़ी की मुठ्ठी में बताते हुए यह प्रचारित किया जाता है कि यही लोग चुनाव लड़ते हैं, यही लोग जीतते हैं, पार्टी का नाम और झंडा का रंग जो भी हो। संसद भी इन्हीं लोगों का है। थाना, कचहरी, जेल सभी पर नियंत्रण इन्ही का है। देश की श्रमशक्ति, संपदाओं और संसाधनों को यही लोग लुटते हैं। इसके खिलाफ लडऩे पर पुलिस और फौजी बलों को उतारकर जनता पर अकथनीय जु्ल्म ढाते हैं। और उल्टा उन्हीं लोगो पर आंतकवादी या उग्रवादी का ठप्पा लगा देते हैं। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, अकाल, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, किसानों की आत्महत्या, पलायन आदि सभी सम्मस्यायें इन्ही तीन वर्गों र्की निर्मम लूट खसोट के कारण उपजी है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण के आधार पर खड़ी इनकी व्यवस्था को ध्वस्त करना निहायत जरूरी बताते हुए माओवादी कार्यकर्ता कहते हैं कि शोषणविहीन, भेदभावरहित तथा हर प्रकार के उत्पीडऩ से मुक्त खुशहाल समाज का निर्माण किया जा सके इसके लिए जनता के पास कोई दूसरा और नजदीकी रास्ता नहीं बचा है। हमारी पार्टी की इसी राजनीतिक सोच के साथ दण्डकारण्य के आदिवासी सचेत हुए हैं और फिर संघर्ष का शंखानाद बज गया। सरकारी गुस्से का कारण यही है।देश के अन्य नागरिक इन बदहाल आदिवासियों से अलग हैं? यह माओंवादी नेता ऐसा भी नहीं मानते हैं। वह पुलिस के जवान और छोटे स्तर के अधिकारी को ( आपके बलों का नाम जिला पुलिस, सीएएएफ, सीपीओ, एसपीओ, एसटीएफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ, ग्रे-हाउण्डस, कोबरा, आईटीबीपी, एसएसबी जो भी हों) ऐसे ही शोषित व मेहनतकश माता-पिता की संताने मानते हैं। आदिवासी जनता और उसका नेतृत्व कर रहे नक्सली यह कहने में गुरेज नहीं करते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वफादार सरकार के सेवक मनमोहन सिंह और उनके अन्य मंत्री हमारे दल को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बताते नहीं थकते लेकिन इस बात को सफाई से छुपा जाते हंै कि हमारी पार्टी से देश के मुठ्ठी भर लुटेरों को खतरा है। चूंकि रेडियो, अखबार, और टीवी पर उन्हीं लुटेरों का कब्जा है। इसलिये एक झूठ को सौ बार दोहराकर सच बनाने की उनकी चालें कुछ हद तक चल भी पा रही है।सरकार के सभी प्रयासों के बाद भी आदिवासी अवाम के लिए जायज संघर्ष की अगुवाई करने का दम भरने वाले माओवादी नेता अपने अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उकसा आदिवासियों का समर्थन पाने के लिए गांवों को जला रहे हैं। लूट रहे हैं। या फिर सलवा जुडूम जैसी व्यवस्था को नाकाम करने के लिए उनके साथ मारपीट कर रहे हैं। या फिर आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं। निहत्थे लोंगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। और नरसंहारों को अंजाम दे रहे हैं। यह सब उस संविधान के खिलाफ जाकर कर रहे हैं जिसका पालन करने की शपथ लेकर देश के नेता और अफसर शाही देश सेवा में जुटे हंै। विडम्बना यह है कि जिन लोगों के खिलाफ यह सब कुछ हो रहा हैं वो आज भी गरीबी और भुखमरी से लड़ रही है। मेहनतकश जान बचाने की खातिर जन सेना और पीएलजी जैसे संगठनों के साथ मिलकर अपनी ही सेना और बल के खिलाफ जवाबी हमले कर रहे है जिसमें दर्जनों की संख्या में लोग हताहत हो रहे हैं। इन आदिवासियों से मिले नक्सलियों और माओवादियों को मिले समर्थन को देखते हुए नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात जवान खून-खराबा रोकने के लिए या तो आदिवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर रहे हैं या संघर्ष के इलाके में डयूटी करने से मना कर कर रहे हैं। इसके चलते इलाके में नहीं जाने के कारण कई कर्मचारियों का निलंबन किया गया फिर भी वे अपने फैसले पर कायम पर रहे। इलाके में इन अताताइयों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए माना यह जाता है कि फोर्स के जवान ही अब माओवादियों तक हथियार पहुंचा रहे हैं। नक्सली अब आदिवासी समुदाय के बीच ऐसे लोगों की सरहाना करते हैं जिन्होंने किसी न किसी वजह से आदिवासियों के पीछे छिपे नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाने से मना कर दिया। इलाके में पदस्थ जवान कई परेशानियों और प्रताडनाओं के दौर से गुजर रहे हैं। खास कर उच्च अधिकारियों के बुरे बर्ताव से आहत पुलिस और अर्द्वसैनिक बलों के जवानों खुदकुशी भी कर रहे हैं। यहा अपने अफसरों को गोली मारकर खुद को भी गोली मारी।अपनी योजना को कारगर बनाने के लिए यह माओंवादी नेता आज जवानों के बीच ही फूट डालने की योजना के तहत काम करते हुए जवानों से अपील कर रहे हैं कि आप इस इस तरह निरर्थक मौत को गले न लगायें। आपमें ताकत है और सोच विचार कर फैसला लेने का विवेक भी। अपनी वर्गिय जड़ों को पहाचानिये। उकसाने और जनता पर कहर ढाने का आदेश देने वाले अपने अफसरों की वर्गीय जड़ो को पहचानिये। चिदम्बरम, रमनसिंह, महेंद्र कर्मा जैसों के असली चेहरे को पहचानिये। दोनो बिल्कुल अलग अलग हैं और एक दूसरे के विपरित भी हैं। दोनों हाथ फैला कर स्वागत करने की बात कहते हुए जवानों को अपनी बंदूकें लुटेरों, घोटालेबाजों, रिश्वतखोरों, जमाखोरों, देश की संपदाओं को बेचने वाले दलालों, देश की अस्मिता के साथ सौदा करने वाले देशद्रोहियों के सीने पर तानने की सलाह दे रहे हैं। इनका मानना है कि जिस मेहनत वर्ग में जन्म लिया है उस वर्ग की मुक्ति के लिये जारी महासंग्राम के सैनिक बनना चाहिए। न कि घूसखोरी, गालीगलौज, दलाली, जातिगत भेदभाव, धार्मिक साम्प्रदायिकता आदि सामंती मान्यताओं के ढांचे पर निर्मित पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों मेें शामिल होकर देश के सच्चे सेवकों की राह में रोड़ा बनकर उभरना चाहिए।इलाके में तैनात पुलिस के जवानों की माने तो इन दिनों नक्सली अपनी वारदातों को अंजाम देने के बजाय रणनीतिक चाल चलते हुए पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों तक यह संदेश पहुंचा रहे है कि वह हमलों में शामिल होने से इंकार कर दें। अपने अफसरों के हुक्म का पालन न करने की समझााइश देते हुए जनता के खिलाफ लाठी-गोलियों का प्रयोग नहीं करने की बात कह रहे हैं। सशस्त्र झड़पों के सूरत में हथियार डाल अपनी जान बचा लेने का संदेश देते हुए यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि संघर्ष कि इतनी व्यापक सरकारी बर्बरता, आतंक और नरसंहारों के बावजूद भी यहां की जनता हमारी पार्टी के साथ क्यों खड़ी है। अपने अधिकारियों और सरकार के खिलाफ झूठे प्रचार का सहारा ले यह बताने की कोशिश की जा रही है कि जिस सरकार ने तुम्हारे हाथों में बंदूके थमाई हैं वो गद्दार हैं मुल्क के दुश्मन हैं। जबकि मत भूलो, कि तुम हमारे हो, हमारे बीचे के हो।

मूर्तियों के प्रदेश में मौत मांगते किसान

उत्तर प्रदेश में एक तरफ मुख्यमंत्री मायावती ने पत्थर की मूर्तियां लगाने में लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिया है वहीं प्रदेश के किसान सरकार की बेरुखी से मौत मांगते फिर रहे हैं। वैसे तो प्रदेश में सैकड़ों किसान बेहाल हैं लेकिन यह एक ऐसे किसान की कहानी है जो सोलह साल से भू माफियाओं से अपनी चार एकड़ जमीन को बचाने के लिए सत्ता से संघर्ष कर रहा है और अब वह थक-हार कर आत्महत्या करना चाहता है। लंबे संघर्ष और कोर्ट कचहरी के चक्कर ने न केवल गरीब चंदन सिंह बंजारा की कमर तोड़ दी है बल्कि उसके ऊपर हजारों का कर्ज भी लाद दिया है। 11 लोगों का परिवार चलाना उसके लिए अब मुश्किल हो गया है। उपर से अधिकारियों ने उसे एक लाख रूपये का ट्यूबेल के बिजली का बिल थमा दिया है। लिहाजा, चंदन सिंह अब दरबदर ठोकरें खाने की बजाए अपनी इहलीला ही समाप्त कर देना चाहता है। लेकिन आत्महत्या करना यहां कानूनन जुर्म है। चंदन सिंह बंजारा अधिकारियों के सामने कई बार आत्महत्या का प्रयास कर चुका है। लेकिन हर बार लोगों ने उसे बचा लिया। एक बार जिला मजिस्ट्रेट के सामने आत्महत्या के करने के प्रयास में चंदन सिंह को 14 दिन हवालात में भी बिताने पड़े। जब चंदन ने हवालात से बाहर आने से इनकार कर दिया (चंदन का कहना था कि हवालात में उसे रोटी मिल रही है घर में भूखा रहना पड़ता है) तो पुलिस उसे जबरन गांव छोड़ गई। लिहाजा, इस बार वह राष्ट्रपति से मय परिवार सामूहिक आत्महत्या की इजाजत देने की गुहार लगा रहा है। उधर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि 'यह तो एक उदाहरण भर है। दलितों के नाम पर पार्टी बनाने और उन्हीं के वोट से सत्ता सुख भोग रही बहनजी अब दलितों को भूल गई हैं।Ó वैसे देखा जाए तो मुलायम सिंह यादव की भी कथनी-करनी अगर सही रहती तो यह हालात पैदा नहीं होते।पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले के कैराना तहसील याहियापुर गांव के रहने वाले अनुसूचित जनजाति के साठ वर्षीय चंदन सिंह बंजारा के जीवन में 20 साल पहले एक सरकारी घोषणा ने जहर घोल दिया। किसानों के लिए लाभदायी इस घोषणा ने चंदन सिंह को लाभ पहुंचाने की बजाए मौत को गले लगाने के लिए विवश कर दिया है। सरकारी अमले में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों ने धोखे से चंदन सिंह बंजारा की जमीन को भूमाफियाओं को बेच दिया। बात सन 1985 की है, ये दिन चंदन सिंह की खुशहाली के दिन थे। तब मेहनतकश इस किसान ने अपने खेतों में ट्यूबेल लगवाने के लिए सरकार से 10 हजार रुपए का कर्ज लिए थे। पांच सालों में उसने कर्ज के करीब 5,700 रुपये वापस कर दिए। इसी दौरान जनता दल की वीपी सिंह सरकार ने किसानों के 10 हजार रुपये तक के कर्ज माफ करने की घोषणा की। इस घोषणा से चंदन सिंह फूले नहीं समाए। चंदन सिंह बंजारा कहते हैं, ''तब एक दिन कुछ सरकारी कर्मचारी मेरे घर आए और बताया कि तुम्हारा कर्जा माफ हो जाएगा, लेकिन इसके लिए तुम्हें हमें दो हजार रुपये देने पड़ेंगे।ÓÓ चंदन सिंह बंजारा के तब इतने पैसे नहीं थे। एक बार उन्होंने सोचा की साहूकार से कर्ज लेकर वह कर्मचारियों को रिश्वत दे दें, लेकिन फिर उन्हें लगा कि जब सरकार ने घोषणा कर दी है तो जब सबका कर्ज माफ होगा तो उनका भी होगा। लेकिन चंदन सिंह ने गलत सोचा था। रिश्वत के भूखे सरकारी बैंक के कारिंदों ने चंदन सिंह का नाम कर्ज माफी की सूची में शामिल नहीं किया। लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ उसने चंदन सिंह की कमर तोड़ दी। फरवरी, 1992 में उन्हें तहसीलदार के यहां से एक नोटिस मिलता है तो उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक जाती है। यह कर्ज की रिकबरी का आदेश था। इस रिकबरी आदेश के मुताबिक चंदन सिंह की बकाया कर्ज राशि मय ब्याज सहित 12,384 रूपये हो चुकी थी और इसे फौरन सरकारी खजाने में जमा करने का आदेश था। चंदन सिंह के पास इतने पैसे नहीं थे। लिहाजा, कर्ज अदायगी न कर पाने के बाद पुलिस चंदन सिंह को पकड़ कर थाने ले गई और उन्हें 14 दिन तक हिरासत में रखा। अंगूठाटेक चंदन सिंह बंजारा भोलेपन में कहते हैं कि ''मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, मुझे लगा कि जब मुझे जेल हो गई तो अब मेरा कर्ज माफ हो गया और पैसा नहीं देना पड़ेगा। इसके बाद मुझे कभी रिकबरी का नोटिस भी नहीं आया।ÓÓ इस घटना के करीब तीन साल बाद एक दिन चंदन सिंह बंजारा की जमीन पर कब्जा करने कुछ लोग आते है और पता चलता है कि सरकार ने कर्ज अदायगी न कर पाने के एवज में उनकी 21 बीघे जमीन को 19 जुलाई, 1994 को हरबीर सिंह को नीलाम कर दिया है। हैरान परेशान चंदन सिंह भारतीय किसान यूनियन के नेताओं से संपर्क करते हैं। यूनियन और गांव के लोगों ने मिल कर फिलहाल तब जमीन पर कब्जा नहीं होने दिया। इसके पीछे किसानों की एक जुटता थी जब जमीन मालिक चंदन से कब्जा लेते आता गांव और यूनियन के लोग एकजुट होकर उसे गांव से भगा देते। यूनियन के नेताओं की तहकीकात से इस बात का खुलासा हुआ की कैसे तहसीलदार और पटवारी की मिलीभगत से चंदन सिंह की जमीन को गुपचुप तरीके बेच दिया गया। इस मामले को लेकर आंदोलन चलाने वाले भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष चौधरी देश पाल सिंह कहते हैं, ''कर्ज अदायगी न कर पाने पर सरकार जब किसी की जमीन नीलाम करती है तो इसके बारे में संबंधित व्यक्ति के दरवाजे पर न केवल नोटिस चिपकाया जाता है बल्कि इस बारे में गांव में मुनादी कराई जाती है और अखबारों में इश्तहार भी दिया जाता है। लेकिन चंदन के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। चंदन की 21 बीघे यानी करीब चार एकड़ जमीन को महज 90 हजार रूपये में नीलाम कर दिया गया। जबकि उस समय इस जमीन का बाजार भाव 15 लाख रूपये से कहीं ज्यादा था। इस समय तो इस जमीन की कीमत करीब 50 लाख है.ÓÓन्याय की मांग को लेकर चंदन सिंह बंजारा पिछले 10 सालों में दर्जनों बार तहसीलदार से लेकर एसडीएम और डीएम के सामने धरना दे चुके हैं। कई बार तो आत्महत्या का भी प्रयास कर चुके हैं। मामले की जांच भी हुए। सिटी मजिस्ट्रेट ने अपनी जांच में साफ पाया कि तहसील अधिकारियों अधिकारियों ने चंदन सिंह की बिना जानकारी के और नियम-कानूनों की धजिज्यां उड़ाते हुए उसकी जमीन को सस्ते में नीलाम कर दिया। सिटी मजिस्ट्रेट की जांच रिपोर्ट और दूसरे ऐसे कई दस्तावेज मौजूद है जिससे साबित होता है कि है तहसील अधिकारियों और भू माफियाओं की सांठगांठ ने चंदन सिंह के साथ धोखाधड़ी कर जमीन को नीलाम करवा दिया। जांच रिपोर्ट में साफ लिखा है, ''वसूली मांग पत्र में अंतर्निहित धनराशि 12,384.50 रूपये के सापेक्ष निलाम की गई भूमि का सर्किल मूल्य 1,60,080 रूपये है। इतनी छोटी धनराशि के सापेक्ष इतने बड़े भूखंड को नीलाम किया जाना संदेह की स्थित पैदा करता है। इस छोटी धनराशि की वसूली कुर्क शुदा भूमि पर लगी आवर्ती फसलों की नीलामी से भी की जा सकती थी। सिटी मजिस्ट्रेट की जांच के बाद साफ हो गया कि चंदन सिंह के साथ नाइंसाफी हुई है। इस जांच रिपोर्ट के आधार पर कमिश्नर ने एक आदेश जारी किया कि कर्ज की रकम मय ब्याज सहित जितनी बनती है उसका एक माह में भुगतान कर चंदन सिंह अपनी जमीन को वापस पा सकता है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं, ''तत्कालीन कमिश्नर का यह आदेश भी तर्क संगत नहीं था। होना यह चाहिए था कि दोषी अधिकारियों को सजा दी जाती और चंदन सिहं को उसकी जमीन का मालिकाना हक बिना किसी हर्जाने के वापस कर दिया जाता। लेकिन सरकार ने गरीब और निर्दोष चंदन सिंह से कर्ज की राशि 8,464 रूपये के एवज में करीब 60,000 रूपये वसूले। जबकि कर्ज की यह राशि भी वीपी सिंह सरकार ने माफ कर दिया था।ÓÓ वे सवाल करते हुए कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश में दलितों की सरकार है। अगर मायावती के राज में अनुसूचित जनजाति के चंदन सिंह बंजारा को न्याय नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा। दोषी अधिकारियों को तो जेल होनी चाहिए लेकिन सजा दिलाने की बजाए अधिकारी उन्हें बचाने में लगे हैं। ÓÓ यह जानते हुए कि कर्ज की मय ब्याज सहित रकम करीब 60 हजार रूपये का फौरन भुगतान करना चंदन सिंह के बस की बात नहीं है। मजबूरन कर्ज लेकर सरकार को अदा करने वाले चंदन सिंह के मित्र और मददगार योगेंद्र सिंह कहते हैं, ''मैने अपनी जमानत पर प्रति माह पांच रूपये सैकडे की दर से शहर के एक व्यापारी से चंदन सिंह को 50,000 रूपये कर्ज दिलवाया है। रकम भरने के बाद भी अधिकारी जमीन चंदन सिंह के नाम करने में हिल्ला हवाली कर रहे हैं। लिहाजा, न्याय की आस छोड़ झुके चंदन अब हुक्करानों के आगे गिड़गिड़ाने की बजाए, अपना जीवन ही समाप्त कर लेना चाहते हैं।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

अब कांग्रेस करेगी रथयात्रा की राजनीति

लोकसभा चुनाव में बदली सूरत से उत्साहित कांग्रेस भी अब उत्तर प्रदेश में अपना आधार बढ़ाने के लिए रथयात्रा करेगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी की सदस्यता में आश्चर्यजनक इजाफे के मद्देनजर इसका भी सियासी फायदा उठाने के लिए रथयात्रा की यह रणनीति तैयार की गई है। इस रथयात्रा के जरिए कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती की सत्ता को चुनौती देते हुए दिखने की कोशिश करेगी। इसमें मायावती के मुकाबले कांग्रेस राहुल गांधी का चेहरा ही दिखाएगी। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी रथयात्रा के लिए ने दलितों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को चुना है। पार्टी की यह रथयात्रा एक साथ सूबे की दस दिशाओं के लिए निकलेगी और उसकी सियासी थीम अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण ही रहेगी। कांग्रेस ने पिछले साल आम चुनाव के दौरान राहुल गांधी का युवा चेहरा और पार्टी की विरासत की तस्वीर पेश करने के लिए इसी जुमले का सहारा लिया था। पार्टी को इस नारे का अच्छा फीडबैक मिला था। इसीलिए उत्तर प्रदेश में फिर इस पुराने आजमाए जुमले को ही चुना गया है। कांग्रेस के दस रथों के इस काफिले में प्रदेश के नेता ही सवार होंगे और राहुल की इसमें सीधी भागीदारी की उम्मीद नहीं है मगर रथ पर मुख्य नायक के रूप में उनकी ही तस्वीर होगी। साथ ही होंगी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें, जिनके साथ दिखाया जाएगा संप्रग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का आईना। 45 दिनों की इस सियासी यात्रा में प्रदेश के सभी ब्लाकों और 403 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस की यह रथ पहुंचेगी। इस दौरान प्रदेश नेताओं का जोर कांग्रेस के अतीत और भविष्य के साथ-साथ मायावती सरकार की कथित नाकामियों को उजागर करने पर भी रहेगा। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा का विकल्प बनते हुए दिखना चाहती है। इसीलिए पार्टी की सदस्यता अभियान में इजाफे को देख तत्काल यह फैसला किया गया है। गौरतलब है कि कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर सदस्यता में इस बार फोटो पहचान पत्र की वजह से कमी आने के पुख्ता संकेत हैं। पिछले संगठन चुनाव से पूर्व फोटो पहचान की अनिवार्यता नहीं थी इसलिए फर्जी सदस्यता के सहारे काफी पार्टी नेता अपनी सियासत चमकाते थे। लेकिन अब इसकी गुंजायश नहीं बची है और इसीलिए देश में कांग्रेस की सदस्यता इस बार चार करोड़ से घटकर तीन करोड़ के आस-पास रहने की उम्मीद है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में सदस्यता अभियान में इजाफे को पार्टी उसकी ओर लोगों के बढ़ते रूझान का संकेत मान रही। पिछली बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सदस्यता 36 लाख थी जो इस बार डेढ़ गुने से ज्यादा बढ़कर 57 लाख के करीब पहुंच गई है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने सदस्यता अभियान में इस इजाफे की पुष्टि भी की।

सेना चाहती है जवान सिर्फ उसके हों

सुरक्षा की बढ़ती चुनौतियों और खराब होते हालात में सरकार सेना के कमांडर से लेकर पुलिस कांस्टेबल तक, हर स्तर पर साझेदारी पर जोर दे रही है। दूसरी ओर, फौज अपने खास दर्जे और अहमियत के साथ किसी समझौते को राजी नहीं है। यहां तक कि उसे तो अ‌र्द्धसैनिक बलों और पुलिस वालों के जवान कहलाने पर भी ऐतराज है। जी हां! फौज ने बाकायदा मीडिया से गुजारिश भी की है कि जवान शब्द का प्रयोग सिर्फ भारतीय सेना के सैनिकों के लिए किया जाए। भावी सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल वी.के. सिंह की अगुवाई वाली पूर्वी कमान से जारी वक्तव्य में मीडिया से आग्रह किया है कि पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बलों में सैन्य जवानों के समकक्ष कर्मचारियों के लिए पुलिस वाले या अ‌र्द्धसैनिक कर्मी या संगठन के अनुरूप शब्दावली का प्रयोग किया जाए। सेना की फिक्र इस बात को लेकर भी है कि जवान शब्द का गलत प्रयोग राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी संगठन की अवांछित छवि बना सकता है। जवान पर कापीराइट कायम करने की कवायद में सेना पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का हवाला देती है। दैनिक जागरण से बातचीत में कोलकाता स्थित रक्षा मंत्रालय के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी विंग कमांडर महेश उपासने कहते हैं कि शास्त्री जी ने सबसे पहले जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। उसके बाद से ही जवान शब्द भारतीय फौज के सैनिकों का पर्याय बन चुका है। हालांकि फौज की इस राय से पुलिस और अ‌र्द्धसैनिक बल के आला अधिकारी न केवल असहमति जताते हैं, बल्कि आहत भी नजर आते हैं। सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक एम.एल. कुमावत कहते हैं कि जवान शब्द के प्रयोग पर इस तरह का एकाधिकारपूर्ण रवैया ठीक नहीं है। किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश और लोकतंत्र को बचाने के लिए सैनिकों की शहादत से कहीं ज्यादा बलिदान पुलिस बल के लोगों ने दिया है। वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह के अनुसार जवान शब्द का इस्तेमाल हर उस वर्दीधारी जांबाज के लिए किया जा सकता है जो देश के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार है। सिंह के अनुसार सेना और पुलिस बलों के बीच अंतर बना रहना जरूरी है, लेकिन आम बोलचाल में पुलिस के जवान या अ‌र्द्धसैनिक बल के जवान कहा जाता है। लिहाजा संदर्भ के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि बात किस बल के जवानों के बारे में हो रही है। बीते दिनों सेना ने फौजी वर्दी के दुरुपयोग को रोकने की कवायद में न केवल वर्दी पहनने के नियम बदले थे, बल्कि उसके कपड़े और डिजाइन का भी पेटेंट करवाया था। अब सेना का नया आग्रह इस दिशा में एक अलग ही पहल है।
.. जवान बोले तो शास्त्री जी ने सबसे पहले जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। उसके बाद से ही जवान शब्द भारतीय फौज के सैनिकों का पर्याय बन चुका है।
विंग कमांडर महेश उपासने, कोलकाता
स्थित रक्षा मंत्रालय के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी जवान शब्द का इस्तेमाल हर उस वर्दीधारी जांबाज के लिए किया जा सकता है जो देश के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार है।
प्रकाश सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक
जवान शब्द के प्रयोग पर एकाधिकारपूर्ण रवैया ठीक नहीं है। हीं भूलना चाहिए कि इस देश की खातिर सैनिकों की शहादत से कहीं ज्यादा बलिदान पुलिस बल के लोगों ने दिया है।
एम.एल. कुमावत,

लड़ाकू विमानों को धराशायी होने की बीमारी

भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों को धराशायी होने की बीमारी है, जो लगातार बढ़ रही है। इसके चलते बीते तीन महीनों में पहले सुखोई-30 और अब मिग-27 के बेड़े को जमीन पर खड़ा करना पड़ा है। आलम यह है कि पिछले चौदह महीनों में वायुसेना के 15 विमान दुर्घटनाग्रस्त हो चुके हैं। मतलब हर माह एक का औसत। वायुसेना पहले ही निर्धारित से कम स्क्वाड्रन संख्या से काम चला रही है। उस पर से विमानों के लगातार गिरने की इस बीमारी ने उसे परेशान कर डाला है। बीते एक सप्ताह में हुए दो हादसों के बाद वायुसेना ने उच्च स्तर पर घटनाओं को खंगालना शुरु कर दिया है। कोर्ट आफ इंक्वायरी के साथ-साथ वृहद स्तर पर भी दुर्घटनाओं की रफ्तार रोकने की कवायद तेज की गई है। रक्षा मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशकों में हुए हादसों के कारण वायुसेना करीब 14 स्क्वाड्रन के बराबर विमान खो चुकी है। अप्रैल 1989 से लेकर अब तक 267 मिग विमानों से जुड़े हादसों में 97 सैन्यकर्मी और 44 नागरिकों को भी जान गंवाना पड़ी है। बागडोगरा में हुई दुर्घटना के बाद वायुसेना ने जांच के लिए जिन मिग-27 विमानों को जमीन पर खड़ा रखने का फैसला किया है उनके खाते में जनवरी 2009 से लेकर अब तक चार दुर्घटनाएं दर्ज हैं। लगातार होते हादसों के चलते ही वायुसेना को मजबूरन अपने एचपीटी प्रशिक्षण विमानों के पूरे बेड़े को रिटायर करने का फैसला लेना पड़ा। आला अफसरों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि तमाम उपायों के बावजूद विमान हादसे रुक क्यों नहीं रहे हैं। हालांकि पूछे जाने पर वे यह बताना नहीं भूलते कि हादसे रोकने के लिए पायलट प्रशिक्षण व दक्षता विकास के नए कार्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। इसके अलावा रूसी मूल के विमानों की खामियां दूर करने के लिए मूल उत्पादक कंपनी के विशेषज्ञों की भी मदद ली जा रही है।

मौत से ज्यादा मुश्किल शायद मौत का इंतजार

हिंदुस्तान के कानून में मौत की सजा का प्रावधान तो रखा गया है, लेकिन अदालत का मानना है कि वो भी सिर्फ रेयर इन रेयरस्ट केस में दी जाना चाहिए। इसके बाद भी मौत की सजा तब ही दी जा सकती है, जबकि अदालत के उस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाए, लेकिन हमारे संविधान ने इस पर अमल को रोकने के लिए एक और इंतजाम किया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी राष्ट्रपति सुनवाई कर सकते हैं और वो माफी की याचिका पर विचार कर सकते हैं, जिसका मतलब है कि राष्ट्रपति चाहें तो उस मौत की सजा को आजीवन कारावास यानी ताउम्र जेल में बदल सकते हैं और फिर आजीवन कारावास को कैदी के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए बाद में कम भी किया जा सकता है और उसे छोड़ा जा सकता है। इसका मतलब ये है कि हमारे यहां कानून के दो काम हैं पहला अपराध को रोकने के लिए सजा देना और दूसरा कैदी को सुधारने की कोशिश करना।

मौत से ज्यादा मुश्किल शायद मौत का इंतजार होता है और वो और भी ज्यादा भयावह, डरावना, तकलीफदेह हो जाता है, जब उस मौत का इंतजार जेल की उस काल-कोठरी में करना होता है, जहां की हर सांस लगती है कि वो आखिरी सांस होगी। मौत की सजा को लेकर बरसों से दुनियाभर के मुल्कों में बहस चलती रही है और ज्यादातर मुल्क इस बात के पक्ष में नहीं हैं अब कि मौत की सजा रखी जाए। जिन मुल्कों में मौत की सजा रखी गई है, वहां भी ज्यादातर कानून जानकारों का मानना है कि उसे बहुत ही ज्यादा क्रूर अपराधों के मामले में दिया जाना चाहिए। ज्यादातर कानून के जानकार मौत की सजा को मानवीय नहीं मानते हैं। फिर मौत की सजा कैसे दी जाए, उस पर भी हमेशा बहस होती रहती है।



हमारे राष्ट्रपति के पास इस वक्त करीब 28 मामले पड़े हैं, जिनमें मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने या माफी की याचिका की गई है। ये मामले बरसों से राष्ट्रपति के पास फैसले का इंतजार कर रहे हैं । राजीव गांधी हत्याकांड में शामिल नलिनी को भी मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल ने आजीवन कारावास में बदल दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल एक मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को कहा था कि वो मौत की सजा पाए लोगों की माफी याचिका पर जल्द फैसला करे, यदि उसमें जरूरत से ज्यादा वक्त लगता है तो ये संविधान के आजादी के अधिकार का उल्लंघन है और इसके साथ ही ये माना जाना चाहिए कि वो मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदले जाने के काबिल है।

इसके बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से इन पर फैसला करने की गुजारिश की थी, लेकिन अब राष्ट्रपति ने सरकार को साफ कर दिया है कि वो इन याचिकाओं का निपटारा जल्दी करने के पक्ष में नहीं हैं यानी इन 28 मामलों में जल्द कोई फैसला होने की संभावना खत्म हो गई है। इससे करीब 40 लोगों की मौत का इंतजार या उससे छुट्टी फिर टल गई है। पिछले दिनों राष्ट्रपति और गृहमंत्री चिदंबरम के बीच हुई बैठक में ये सिफारिश की गई थी कि इन मामलों को निपटाने के लिए वक्त के हिसाब से प्राथमिकता दी जाए यानी सबसे पुराने मामले को सबसे पहले सुना जाए और उस पर फैसला किया जाए। याचिका पर फैसले के लिए जब एक बार गृह मंत्रालय याचिका को फिर से देख ले और उस पर अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दे तो वो उस पर जल्द फैसला कर दें। हालांकि राष्ट्रपति को कब तक ऎसी याचिकाओं पर फैसला कर देना चाहिए, इसका जिक्र संविधान में नहीं किया गया है। 1997 से पहले राष्ट्रपति रहे डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने अपने वक्त तक की सभी माफी याचिकाओं का निपटारा कर दिया था, लेकिन उसके बाद केआर नारायणन ने एक भी याचिका पर कोई फैसला नहीं किया। उनके बाद आए एपीजे कलाम ने केवल दो फाइलों पर फैसला किया। यूपीए सरकार पर पिछले कार्यकाल के दौरान भी काफी दबाव पड़ता रहा। फिर जब संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू ने माफी की याचिका दी तो विपक्षी दलों ने सरकार पर राजनीति करने का आरोप लगाया और दबाव बनाया कि वो अफजल गुरू की मौत की सजा को आजीवन कारावास में नहीं बदले। सरकार को लगता है कि इससे उसकी छवि पर खतरा पड़ सकता है।

हिंदुस्तान का कानून सबके लिए बराबर है, उसमें दोषी को भी अपनी बात कहने और उस पर माफी की याचिका देने का हक है, लेकिन फैसला सरकार और राष्ट्रपति को करना है।

फैसले सरकार को करने हैं, लेकिन वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ध्यान में रखने इन मामलों पर जल्द से जल्द सुनवाई करना चाहिए और अपनी सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेज देना चाहिए, ताकि सबको लगे कि हिंदुस्तान में कानून की नजर में सब बराबर हैं।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अशोक शर्मा को बचाने की कवायद ?

स्वास्थ्य विभाग में करोड़ों का गोलमाल

स्वास्थ्य विभाग में फिर करोड़ों का गोलमाल हुआ है. और इस बार सभी आरोप वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा पर लगाये जा रहे हैं. इन घोटालों की शिकायत लोकायुक्त में भी पहुँच चुकी है. और जांच भी चल रही है. डॉ. अशोक शर्मा पर आरोप है कि उन्होंने विज्ञापन प्रसारण, बैनर मुद्रण, विज्ञापन निर्माण, पल्स पोलियो अभियान, तथा दवा खरीदी में जमकर भ्रष्टाचार किया है. यह भ्रष्टाचार उचित मूल्य से अधिक कीमत पर आवश्यकता से अधिक खरीदी कर किया गया है. साथ ही इस खरीदी में क्रय नियमों की भी अनदेखी की गई है. ताकि उन फर्मो को भी सीधा लाभ पहुंचाया जा सके जिनसे दवा, उपकरण तथा अन्य सामग्री खरीदी जानी थी. हालाकि संयुक्त संचालक एवं प्रभारी संचालक स्वास्थ्य के दो वर्ष के कार्यकाल के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में संचालनालय कोष तथा लेखा के द्वारा अपनी अंकेक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद भी डॉ. अशोक शर्मा के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है. खबरें तो यह भी हैं कि डॉ. अशोक शर्मा को बचाने के लिए विभाग के अन्य अधिकारीयों ने रिपोर्ट गायब करवा दी है.
आइएएस अरविन्द जोशी और उनकी पत्नी टीनू जोशी के यहाँ आयकर विभाग के छापे के बाद करोड़ों रुपये की बेनामी सम्पत्ती जाप्त की गई थी. छापे की कार्यवाही में ३००० करोड रुपये नकद जाप्त किये गए. आयकर विभाग को इन नोटों को गिनने के लिए मशीन तक लगानी पडी थी. और अभी जहां एक और इस मामले में जांच अभी चल ही रही है. उधर स्वास्थ्य विभाग में एक और घोटाला उजागर हुआ है. और स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा संदेह के घेरे में हैं. इससे पूर्व भी स्वास्थ्य विभाग में करोड़ों का घपला हुआ था. उस वक्त स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा थे. जिन्हें अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त कर दिया था. हालाकिं उनकी बर्ख्स्तागी के बाद कोर्ट से उन्होंने अपनी नियुक्ति वापस ले ली थी. लेकिन तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा इन दिनों फिर सुर्ख़ियों में है. वह इसीलिये कि पिछले घोटाले की जांच के दौरान उन्हें फिर से निलंबित कर दिया गया है. उनके निलंबन के पीछे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम माना जा रहा है. लेकिन वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ अशोक शर्मा के मामले में सरकार की चुप्पी पर भी कई सवालिया निशान लग रहे हैं?

कहाँ कहाँ घपला :-

संचालनालय कोष एवम लेखा के अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक ०१.०१.२००४ से २८.०२.२००५ तक राष्ट्रीय पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान के अंतर्गत ४५ जिलों को ३,५३,२२,०४० रूपये आरसीएच के माध्यम से उपलब्ध करवाए गए. जो कि सम्बंधित जिलों के सीएमएचओ द्वारा व्यय की जानी थी. तथा संबधित व्यय का उपयोगिता प्रमाण पत्र लेना चाहिए था. लेकिन ४५ जिलों में कुल ३,५३,२२,०४० रु में से २,६५,८५,६९० रु खर्च हुए तथा ७,४६,६५९ रुपये संचालनालय को वापस प्राप्त हुए लेकिन संचालनालय ने सीएमएचओ से यह नहीं पूछा कि कितनी राशि कहाँ व्यय हुई.

कार्यालय के अभिलेखों के परिक्षण में पाया गया कि पल्स पोलियो अभियान के विज्ञापन प्रसारण आल इंडिया रेडियो में स्मृति फिल्म्स भोपाल से कराये गए. जिसके लिए कोई टेंडर प्रक्रिया नहीं की गई. जबकि स्मृति फिल्म्स भोपाल की दरों को क्रय समिति ने अनुमोदित नहीं किया था. साथ ही विज्ञापन प्रसारण देय राशि का सत्यापन भी नहीं किया गया. अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक विज्ञापन प्रसारण में लगभग २२,८८,२८६ रु अनियमित खर्च होना पाया गया है. इसके अलावा दूरदर्शन पर विज्ञापन प्रसारण के लिए प्रतिदिन ७५ प्रसारण का आदेश दिया गया था लेकिन प्रतिदिन ४५० सेकेण्ड का भुगतान किया गया. साथ ही कुल ८१० सेकेण्ड का प्रसारण किया जाना था लेकिन भुगतान ३३२० सेकेण्ड का किया गया. इस प्रकार १३,२८००० रुपये का भुगतान बिना कार्य के किया गया. ऑडियो केसेट्स निर्माण में २,२०,४०० का ज़्यादा भुगतान करते हुए एडजस्टमेंट कर दिया गया. केबल नेटवर्क पर ८,२०,००० का फर्जी भुगतान किया गया. होर्डिंग की न्यूनतम दरें २८७५ रु प्रतिमाह निर्धारित थीं लेकिन २९१७ रु प्रतिमाह की दर पर होर्डिंग लगाने के आदेश देकर १२,९२००० रुपये के वारे न्यारे कर दिए गए.

राष्ट्रीय पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान के बैनर मुद्रण में १,३५,०६,८०० रुपये अनियमित व्यय किये गए. अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक ५०००० रुपये के बैनर जिलों में बांटे जाने के आदेश थे. लेकिन ५७६२० रु के बैनर बांटे गए यानि ७६२० रु अधिक काटे गए. इतना ही नहीं बैनर का मुद्रण मेसर्स विनायक क्रियेशन भोपाल से बिना टेंडर जारी किये ही करवा लिया गया.

संचालनालय कोष एवम लेखा के अंकेक्षण रिपोर्ट में दवा एवम अन्य सामग्री खरीदी में १० करोड रुपये बिना अनुमोदन कर सीधे भुगतान किया गया. साथ ही महामारी के नाम पर ४ करोड रु का घोटाला भी किया गया. महामारी के नाम पर लगभग ४ करोड रु की फिनाइल और ब्लीचिंग पाउडर खरीद ली गई. खरीदी में क्रय समिति का अनुमोदन लिया गया और न ही क्रय समिति से आवश्यकता का आंकलन कराया गया. इसके स्थान पर संचालक स्वास्थ्य सेवायें डॉ. अशोक शर्मा ने खुद ही आवश्यकता का आंकलन कर खरीदी कर ली. जो कि नियम विरुद्ध है. फिनाइल खरीदी में जमकर घोटाला किया गया है, इसका सीधा अंदाज़ा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि डी.जी.एच.एस. भारत शासन द्वारा जारी निर्देशों में महामारी में लगने वाली दवाइयों की सूची में फिनाइल शामिल नहीं है फिर कैसे महामारी के नाम पर फिनाइल खरीद ली ? यह एक अहम सवाल है.

बहरहाल आये दिन स्वास्थ्य विभाग में नए नए घोटाले सामने आते हैं. और सरकार मूक दर्शक बनी देखती रहती हैं. मामला जांच की पेचीदिगियों में उलझ जाता है. और कुछ समय बाद दोषी दोषमुक्त हो जाता है. अपुष्ट सूत्रों की माने तो स्वास्थ्य विभाग के संचालक के पास लगभग २०० करोड रु. की बेनामी संपत्ति है. जो कई सवालों को जन्म देता है. हालाकि स्वास्थ्य विभाग समेत अलग अलग विभागों में हो रहे घोटालों की गूँज विधानसभा में भी समय समय पर उठती रही है. लेकिन मध्यप्रदेश सरकार द्वारा भ्रष्टाचार जैसे संगीन मामलों में बिहार सरकार से सीख लेकर कोई कडा क़ानून बनाकर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के कोई प्रयास न करना भी कई सवालों को जन्म देता है. समय रहते यदि सख्त से सख्त कार्यवाही नहीं की गई तो पूर्व स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा की तरह वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा का मामला भी काफी बड़े स्तर तक जा सकता है. इस मामले में उनके साथ कई बड़ी मछलियाँ भी इस घोटाले में शामिल होंगी इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता. आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि जांच के बाद दोषी पाए जाने पर स्वास्थ्य संचालक के खिलाफ क्या कार्यवाही होती है ?


क्या सरकार करेगी डॉ अशोक शर्मा का निलंबन ?

सूत्रों कि माने तो आयकर विभाग ने आय ए एस राजेश राजोरा व डॉ अशोक शर्मा के बारे में एक रिपोर्ट राज्य शासन को भेजी है जिसमें छापे के दौरान इन अधिकारीयों से क्या संपत्ति बरामद हुई है इसका खुलासा होगा रिपोर्ट के आधार पर राज्य शासन आगे की कार्यवाही को अंजाम दे सकता है. स्वास्थ्य विभाग में ऐसी कई बड़ी मछलियाँ हैं जिन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की तलवार लटक रही है ? बड़ा सवाल यह भी है कि किस नेता या अधिकारी की शह पर इन पर कार्यवाही नहीं की जा सकी?

गांधी बनने की जुगत में हैं बाबा

योग गुरू बाबा रामदेव के कदम ताल को देखकर यह माना जा सकता है कि वे आजादी के उपरान्त महात्मा गांधी की छवि को अपने अन्दर सिमटाना चाह रहे हैं। चाहे देश आजाद हुआ हो तब या वर्तमान परिदृश्य हो, राजनीति की धुरी गांधी के इर्द गिर्द ही सिमटी रही है। तब मोहन दास करमचन्द गांधी बिना किसी पद पर रहते हुए राजनीति के केन्द्र थे तो आज कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के हाथों राजकाज की कमान है। लगता है बाबा रामदेव चाहते हैं कि वे सोनिया गांधी की तरह ही सबसे शक्तिशाली बने रहें और सक्रिय राजनीति में न रहें। बाबा रामदेव यह भूल जाते हैं कि आदि अनादी काल से राजकाज में सहयोग का काम राजगुरूओं का होता रहा है न कि कथित योग गुरू का। न तो बाबा रामदेव राजगुरू हैं और न ही वे धर्म गुरू। रही बात अपने आप को सबसे श्रेष्ठ समझने की तो शंकराचार्य के बारे में टिप्पणी करने के उपरान्त उन्हें माफी भी मांगनी पडी थी यह बात किसी से छिपी नहीं है।

देश में कथित अध्यात्म गुरू, ज्योतिषविद, प्रवचनकर्ताओं आदि की कमी किसी भी दृष्टिकोण से नहीं है। इन सबके बीच धु्रव तारा बनकर उभरे योग गुरू बाबा रामदेव बडे ही सधे कदमों से चल रहे हैं। एक परिपक्व राजनेता के मानिन्द पहले उन्होंने देश के बीमारों को स्वस्थ्य बनाने का बीडा उठाया। देश के प्राचीन अर्वाचीन योग को एक नई पेकिंग में बाजार में लांच किया, फिर समाचार और दूसरे चेनल्स के माध्यम से घरों घर में अपनी आमद दी। अब जबकि उनके अनुयायियों की खासी तादाद हो गई है, तब उन्होंने लोहा गरम देख राजनीति में आने का हथौडा जड दिया है।

पिछले चन्द दिनों से बाबा रामदेव के मुंह से योग के माध्यम से लोगों को स्वस्थ्य बनाने के बजाए राजनीति में आने की महात्वाकांक्षाएं ज्यादा कुलांचे मारती प्रतीत हो रहीं हैं। बाबा के मुंह से निकली यह बात किसी को भी आश्चर्यजनक इसलिए नहीं लग रही होगी क्योंकि बाबा रामदेव ने बहुत ही करीने से सबसे पहले अपने आप को महिमा मण्डित करवाया फिर अपनी इस महात्वाकांक्षा को जनता पर थोपा है।

बाबा रामदेव का कहना है कि अब राजनीति नहीं वरन योग नीति का वक्त आ गया है। स्वयंभू योगाचार्य बाबा रामदेव ने देश में केंसर की तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को योगनीति के माध्यम से दुरूस्त करने का मानस बनाया है। बाबा ने बहुत सोच समझकर गरीब और अविकसित भारत देश में भ्रष्टाचार के साथ ही साथ विदेशों में फैले भारत के काले धन को भारत लाने का कौल उठाया है। बाबा का कहना है कि देश में अनेक प्रकार के अपराधों के लिए तरह तरह के कानून बने हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए एक भी कठोर कानून नहीं है। बाबा यह भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार करते पकडे जाने पर न जाने कितने जनसेवक जेल की हवा भी खा चुके हैं।

बाबा का कहना सही है कि जनता की गाढी कमाई पर एश करने वालों के लिए सिर्फ और सिर्फ मृत्युदण्ड का प्रावधान होना चाहिए। बाबा के इस कथन से सत्तर के दशक में आई उस समय के सुपर डुपर स्टार राजेश खन्ना और मुमताज अभिनीत चलचित्र ``रोटी`` का ``यार हमारी बात सुनो, एसा एक इंसान चुनो जिसने पाप न किया हो जो पापी न हो. . . `` की याद ताजा हो जाती है। बाबा रामदेव देश के अनेक शहरों में अपने योग शिविर की दुकानें लगा चुके हैं इस हिसाब से वे भली भान्ति जानते होंगे कि देश में गरीब गुरबे किस तरह रहते हैं। यह बात भी उतनी ही सच है जितना कि दिन और रात कि बाबा के पास वर्तमान में अकूत दौलत का भण्डार है। बाबा अगर चाहें तो गरीब गुरबों के लिए एकदम निशुक्ल योग शिविर और चिकित्सा शिविर लगाकर दवाएं बांट सकते हैं। वस्तुत: बाबा रामदेव एसा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह भी जानते हैं कि राजनेताओं का काम सिर्फ भाषण देना है, उसे अमली जामा पहनाना नहीं।

बाबा रामदेव के एजेण्डे में तीसरा तथ्य यह उभरकर सामने आया है कि उन्होंने ``हिन्दी की चिन्दी`` पर अफसोस जाहिर किया है। बाबा का कहना है कि आजादी के इतने समय बाद भी हम ब्रितानी मानसिकता के गुलाम हैं। आज भी न्यायालयों में हिन्दी के बजाए अंग्रेजी का ही बोल बाला है। बाबा रामदेव के इस कथन से हम पूरा इत्तेफाक रखते हैं, पर सवाल यह है कि समूची ब्यूरोक्रेसी में ही अंग्रेजी का बोलबाजा है, बाबा रामदेव बहुत चतुर खिलाडी हैं, वे अगर नौकरशाहों पर वार करते तो वे देश पर राज करने का जो रोडमेप तैयार कर रहे हैं उसके मार्ग में शूल ही शूल बिछा दिए जाते, यही कारण है कि बाबा रामदेव नौकरशाहों पर परोक्ष तौर पर निशाना साध रहे हैं।

हमारा अपना मानना है कि बाबा रामदेव पूरी तरह मुगालते में हैं। हमने अपने पिछले आलेखों ``राष्ट्रधर्म की राह पर बाबा रामदेव`` और ``बाबा रामदेव का राष्ट्रधर्म`` में बाबा रामदेव की भविष्य की राजनैतिक बिसात के बारे में इशारा किया था। उस दौरान बाबा रामदेव के अंधे भक्तों ने तरह तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की थीं। राजनेताओं को कोसना बहुत आसान है। जनसेवकों की मोटी खाल पर इसका कोई असर नहीं होता है। बाबा रामदेव ने भी जनसेवकों को पानी पी पी कर कोसा है। रामदेव यह भूल जाते हैं कि जैसे ही बाबा रामदेव उनकी कुर्सी हथियाने का साक्षात प्रयास करेंगे वैसे ही ये सारे राजनेता एक सुर में तान छेड देंगे और फिर आने वाले समय में बाबा रामदेव को अपनी योग की दुकान भी समेटना पड सकता है।


बाबा रामदेव के पास अकूत दौलत है। यह दौलत उन्होंने पिछले लगभग डेढ दशक में ही एकत्र की है। मीडिया की ताकत से बाबा रामदेव भली भान्ति परिचित हो चुके हैं। मीडिया चाहे तो किसी को फर्श से उठाकर अर्श पर तो किसी को आसमान से जमीन पर उतार सकता है। आने वाले समय में बाबा रामदेव अगर कोई समाचार चेनल खोल लें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, साथ ही प्रिंट की दुनिया में भी बाबा रामदेव उतर सकते हैं। हमें यह कहने मेें कोई संकोच नहीं कि मीडिया के ग्लेमर को देखकर इस क्षेत्र में उतरे लोग सरेआम अपनी कलम का सौदा कर रहे हैं। मीडिया को प्रजातन्त्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। प्रजातन्त्र के तीन स्तंभ तो गफलत, भ्रष्टाचार, अनैतिकता के दलदल में समा चुके हैं। लोगों की निगाहें अब मीडिया पर ही हैं, और मीडिया ही अगर अंधकार के रास्ते पर निकल गया तो भारत में प्रजातन्त्र के बजाए हिटलर राज आने में समय नहीं लगेगा।


बहरहाल बाबा के एक के बाद एक सधे हुए कदम से साफ जाहिर होने लगा है कि बाबा रामदेव के मन मस्तिष्क में देश पर राज करने की इच्छा बहुत पहले से ही थी। उन्होंने योग का माध्यम चुना और पहले लोगों को इसका चस्का लगाया। जब लोग योग के आदी हो गए तो योग गुरू ने अपना असली कार्ड खोल दिया। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापन के पीछे यही उद्देश्य प्रतीत हो रहा है। अब बाबा रामदेव ने इसके कार्यकर्ताओं से ज्यादा से ज्यादा सदस्य बनाने का आव्हान कर डाला है। बाबा के कदमों को देखकर यही कहा जा सकता है कि ``योग तो एक बहाना था, बाबा रामदेव का असल मकसद तो राजनीति में आना था।``

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

बिजली उपकरण खरीदी में हेराफेरी ?

मध्य प्रदेश में ऊर्जा विकास के लिए मिलाने वाला करोड़ों रूपया भ्रष्टाचार और अनियमितता की भेंट चढ रहा है. जहां एक और बिजली विभाग के अफसर बिजली उपकरणों की चोरी की रिपोर्ट लिखवाने में कतराते हैं तो दूसरी और बिजली उपकरणों की खरीदी में भी हेरफेर कर करोड़ों के वारे-न्यारे कर दिए जाते हैं. विकास कार्यों के लिए आने वाला पैसा किस तरह से अफसरों की तिजोरियों और बैंक के लॉकरों में जमा होता है. इसका खुलासा कुछ दिनों पूर्व मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में आइएएस अधिकारीयों के यहाँ पड़े छापों से हो जाता हैं. जिसमें करोड़ों रुपये की बेनामी सम्पत्ती उजागर हुई. जिसके बाद प्रदेश सरकार की जमकर किरकिरी भी हुई.

बिजली विभाग में भ्रष्टाचार का यह कोई पहला मामला नहीं है इससे पहले भी अल्प अवधी की बिजली खरीदी भ्रष्टाचार का मामला उजागर हुआ था. जिसमें एक ही समय में टेंडर और बिना टेंडर के अलग-अलग कीमतों (यानि टेंडर के द्वारा सस्ती और बिना टेंडर के द्वारा महंगी दरों) पर दूसरे राज्यों की बिजली कंपनियों से बिजली खरीदी गई थी. जिसमें अदानी समूह को सबसे ज्यादा फयादा देने की बात सामने आई थी. जिसके बिजली नियामक आयोग ने बिना टेंडर के जिन कीमतों पर बिजली खरीदी गई उसे दर को मानने से इनकार कर दिया था जिसकी जांच अभी भी चल रही है. बिजली उपकरण खरीदी में हुए लाखों का भ्रष्टाचार अब जाँच का विषय है ?

बिजली विभाग में उपकरण खरीदी का जो मामला प्रकाश में आया है उसमें इस बात का खुलासा हुआ है कि एक ही टेंडर पर अलग अलग कीमतों पर उपकरण खरीदे गए. और वह भी एक ही कंपनी से से. जो कि उपकरण खरीदी पर सवालिया निशान लगाता है ? खास बात यह है कि जिस पैसे से उपकरण खरीदे गए वह पैसा एशियन विकास बैंक से आया था. एशियन विकास बैंक ने आर्थिक मदद के तहत यह खरीदी वर्ष २००६ में की गई जिसमें लाखों का हेरफेर किया गया है. इस खरीदी में लगभग ८१ लाख रुपये का अतिरिक्त भुगतान करना पाया गया है. जो भ बिजली उपकरण खरीदे गए उनमें १३२ केवी सर्किट ब्रेकर, १३२ केवीसीटी एम्पिकयर, २०० केवी के फेब्रिकेटेड गेल्वेनैज्द टॉवर सहित ट्रांसफार्मर सुरक्षा उपकरण तथा लाइन कंट्रोल उपकरण खरीदे गए हैं. बिजली उपकरण खरीदी के इस मामले में पहले टेंडर निकालकर कंपनी को ठेका दे दिया गया. जिसके बाद अलग अलग समयावधि में एक ही सामान अलग अलग कीमतों पर खरीदा गया. इस खरीदी पर कंपनी का अपना ही तर्क है. कंपनी का कहना है कि बाजार में सामान का दाम बढ़ाने से उपकरणों की कीमतों में फर्क पड़ा है. खास बात यह है कि खरीदी के पूर्वानुमान में बिजली विभाग ने उपकरणों की आवश्यकता प्रदर्शित की थी. ऐसे में अलग अलग समयावधि की खरीददारी में कीमतें सामान न रखी जाना कई आशंकाओं को जन्म देता है ? बिजली उपकरण खरीदी में नियम कानून की भी अनदेखी की गई है. नियम के अनुसार टेंडर के समय में ही अलग अलग समयावधि की खरीदी पर एक सामान कीमतों का नियम उल्लेखित किया जाना था. लेकिन अनियमितता कर निजी फार्मों को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया.

बिजली चोरी के ज़्यादातर मामलों में चोरी की रिपोर्ट पुलिस में नहीं लिखवाई जाती. भले ही दोषियों ने लाखों करोड़ों की चपत ही क्यों न लगा दी हो. बीते सालों के रिकॉर्ड बताते हैं. चोरी के ज़्यादातर मामलों में रिपोर्ट लिखवाने से अफसर बचते हैं. जबकि राज्य विधुत मंडल ने बिजली चोरी के प्रकरणों में पुलिस को तुरंत सूचना दे प्राथमिकी दर्ज करने के निर्देश दिए गए हैं. लेकिन बिजली महकमें की ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है. लगभग ४२ फीसदी मामलों के अलावा बाकी सभी मामले मैदानी तौर पर ही निपटा लिए गए. खास बात यह है कि ५० हज़ार से अधिक की बिजली चोरी के मामलों में जमकर लापरवाही बरती गई. जबकि छोटी राशि के लिए बिजली कटाने तक की कार्यवाही कर दी जाती है. परिणाम स्वरुप बिजली कंपनियां पांच हज़ार करोड से अधिक के घाटे में चल रहीं हैं. ग्रामीण स्तर पर तो हालत और भी ज्यादा खराब हैं. जहाँ ट्रांसफार्मर तक चोरी हो जाने की रिपोर्ट नहीं लिखवाई गई.

बलात्कार के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार

* "द वेक अप टू रेप" रिपोर्ट पर विवाद

भारत में भी पिछले कुछ समय में बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है. नेशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि भारत में वर्ष २००७ में दुष्कर्म के २०,७३७ मामले दर्ज हुए हैं. वर्ष २००३ - २००७ के बीच बलात्कार के मामलों की संख्या में बढोत्तरी हुई है. वर्ष २००४ में ही १५% की वृद्धी दर्ज की गई. वहीं २००५ में २००३-२००४ के मुकाबले ०.७% की बढोत्तरी हुई. तथा वर्ष २००६ में ५.४% २००५ के मुकाबले में. व ७.२% २००७ में २००६ के मुकाबले वृद्धी दर्ज की गई है. बलात्कार के मामले में चौकाने वाला तथ्य यह है कि इन मामलों में मध्यप्रदेश अव्वल रहा है. मध्यप्रदेश में सर्वाधिक ३०१० मामले दर्ज हैं. जो कि पूरे भारत में दर्ज बलात्कार के मामलों से लगभग १४% से भी अधिक है.

दुनिया भर में आये दिन बलात्कार के कई मामले सामने आते हैं. इसीलिये बलात्कार जैसे संगीन मामलों के पीछे छिपे कारणों का आंकलन करने के लिए ब्रिटेन में एक अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की गई है. हाल ही में जारी यह रिपोर्ट विवादों में घिर गई है. रिपोर्ट के मुताबिक "५४ % महिलाओं का मानना है कि बलात्कार की घटना के लिए महिलाएं ही ज़िम्मेदार होती हैं" रिपोर्ट के इस खुलासे के बाद विवाद की स्थिति निर्मित हो गई है. और कई स्वयंसेवी संगठन इसका जमकर विरोध कर रहे हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार के लिए अपराधी हे नहीं पीडिता भे ज़िम्मेदार होती हैं. वहीं इस रिपोर्ट का विरोध करने वालों का अपना तर्क है. विरोधियों ने रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए कहा कि बलात्कार एक अपराध है. और इसके लिए महिलायें और हालात ज़िम्मेदार नहीं होते.

खास बात यह है कि जिन संगठनो ने इस रिपोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोला है उनमें कई संगठन पुरुष प्रधान हैं. जिनका कहना है कि "रिपोर्ट सिर्फ आपत्तिजनक ही नहीं बल्कि सिरे से ख़ारिज करने लायक है" उनका यह भी कहना है कि रिपोर्ट के तथ्यों को यदि आधार बना लिया जाए तो बलात्कार की पीड़ित महिला को न्याय मिलने में बेहद मुश्किलें पैदा होंगी. कुछ महिलाओं ने भी इस रिपोर्ट पर आपति जताई है उनका कहना है कि जो पीड़ित महिला खुद यह कैसे कह सकती है कि वह भी जिम्मेदार है. हालाकि दुष्कर्म के ऐसे कई मामले भी सामने आये हैं. जिनमें पीडिता का बयान सच नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि इस तरह की घटनाएँ और आरोप झूठे भी हो सकते हैं. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को 'बेनिफिट्स ऑफ डाउट' के आधार पर रिहा कर दिया था.

रिपोर्ट के मुताबिक ५४%महिलाएं मानती हैं कि दुष्कर्म के लिए महिलाएं भी ज़िम्मेदार होती हैं. तो २४ प्रतिशत महिलाओं ने माना कि छोटे और भडकाऊ कपडे तथा नशे की हालत अजनबियों को दुष्कर्म के लिए प्रेरित करता है. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि दुष्कर्म की शिकार ५ महिलाओं में से १ महिला शर्मिन्दिगी और बदनामी के डर से रिपोर्ट नहीं लिखवाती हैं. परिणाम स्वरुप अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं. रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि १३ प्रतिशत पुरुषों ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने अपने महिला साथी के नशे के हालत का फ़ायदा उठाया है. वहीं १४% महिलाओं ने यह भी माना कि दुष्कर्म के सभी मामले सच नहीं होते. कई मामलों में द्वेष या बदला लेने की प्रवृत्ति के चलते झूठे आरोप लगाये जाते हैं. ब्रिटेन के पोर्टमैन ग्रुप ने इस रिपोर्ट के बारे में कहा है कि "दुष्कर्म की शिकार तीन में से एक महिला अत्यधिक नशे में होती है. ऐसी महिलायें नहीं जानते कि वे कहाँ और किसके साथ हैं. और वे रेप जैसी घटनाओं का शिकार होती हैं ऐसे में उन्हें भी अपराध में शामिल माना जाना चाहिए." रिपोर्ट में पारिवारिक यौन उत्पीडन के मामले में कुछ भी नहीं कहा गया है.

शादी से पहले सेक्स में आगे निकले गांव के छोरे-छोरियां

17 फीसदी ग्रामीण नौजवानों ने 7 फेरों से पहले सेक्स का अंजीर चख लिया है

नई दिल्ली। ये खबर उन लोगों को झटका दे सकती है जो स्कूलों में सेक्स एजुकेशन के विरोधी हैं। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने नौजवानों के सेक्स रुझान को लेकर एक सर्वे कराया है। इस सर्वे का नतीजा ये है कि शादी से पहले सेक्स युवा पुरुषों में बेहद आम है।


चौंकाने वाली बात है कि 15 साल की उम्र तक विवाह पूर्व सेक्स के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे निकल गई हैं। जिन गांवों को हमारी संस्कृति का शो-केस कहा जाता है तस्वीर वहीं बदल रही है। शहरों में शादी से पहले सेक्स आम बात माना जाता था लेकिन गांवों ने इस मामले में मेट्रोसेक्शुअल्स को पछाड़ दिया।


सरकारी सर्वे बताता है कि 17 फीसदी ग्रामीण नौजवानों ने 7 फेरों से पहले सेक्स का अंजीर चख लिया है यानि हर 6 में से 1 लड़का। जबकि शहरों में ये आंकड़ा महज 10 फीसदी ही पहुंचा। ज्यादा से ज्यादा लड़कियों के साथ नजर आने वाले शहरी नौजवान शायद दायरे से आगे बढ़ने में हिचकते हैं।


अब अगर गांव का छोरा आगे है तो गांव की गोरी पीछे कैसे होगी। शहरों में महज 2 फीसदी लड़कियां शादी से पहले सेक्स का अनुभव हासिल कर पाती हैं लेकिन गांवों में ये आंकड़ा एकदम दूना है। 4 फीसदी ग्रामीण लड़कियां शादी से पहले सेक्स कर चुकी होती हैं। सर्वे टीम को पूरे देश में ऐसे 15 फीसदी पुरुष और 4 फीसदी महिलाएं मिलीं जो शादी से पहले सेक्स संबंध बना चुके थे।


सर्वे का नतीजा ये भी बताता है कि बड़ी तादाद में नाबालिग लड़कियां भी अपनी मर्जी से सेक्स का अनुभव ले रही हैं। आप माने या न मानें लेकिन ये रिपोर्ट स्वास्थ्य मंत्रालय की है जिसे खुद स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने जारी किया है। केंद्र सरकार के इस सर्वे पर अगर भरोसा करें तो सेक्स एजुकेशन की कमी की वजह से जहां युगल कई बीमारियों के निशाने पर हैं वहीं इससे और दूसरे तरह के भी जोखिम कम नहीं।


सर्वे के मुताबिक हर जगह नौजवान जल्दबाजी में असुरक्षित संबंध बनाते हैं। इसकी वजह है सेक्स एजुकेशन की कमी। सर्वे के मुताबिक शादी से पूर्व सेक्स युवा पुरुषों में बेहद आम है। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि 15 साल की उम्र तक सेक्स के मामले में महिलाएं पुरुषों से आगे निकल गई हैं। युवा पुरुषों में करीब 15 फीसदी ने माना कि उन्होंने विवाह पूर्व सेक्स किया है। वहीं, महिलाओं में से 4 फीसदी ने माना कि उन्होंने शादी से पहले सेक्स किया है। इनमें से करीब 24 फीसदी महिलाओं ने 15 -साल की उम्र तक ही विवाह पूर्व सेक्स कर लिया था जबकि पुरुषों में ये प्रतिशत 9 रहा।


लेकिन कॉन्डोम और कांट्रासेप्टिव के इस्तेमाल को लेकर लड़के और लड़कियां दोनों ही लापरवाह दिखे। आंकड़े सेक्स शिक्षा की सख्त जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं। मां-बाप अपने बच्चों से स्कूल परफॉर्मेंस के बारे में तो चर्चा करते हैं मगर रोमांस, रिश्ते और प्रजनन जैसे मुद्दे पर बात करने से कतराते हैं।


15-24 साल के सिर्फ 7 फीसदी लड़के ही मां-बाप से अपने शारीरिक विकास के बारे में बात करते हैं जबकि 15- 24 साल की 4 फीसदी लड़कियां ही मां-बाप से अपने शारीरिक विकास के बारे में बात करती हैं। सिर्फ 6 फीसदी लड़के मां से अपने शारीरिक विकास के बारे में चर्चा करते हैं लेकिन 77 फीसदी लड़कियां अपनी मां से शारीरिक विकास के बारे में बात जरूर करती हैं।


ये स्टडी देश के 6 राज्यों में की गई। ये राज्य हैं-आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु। साल 2006 से 2008 के बीच हुई इस स्टडी में 15 से 29 साल के 58 हजार नौजवानों को शामिल किया गया था। सर्वे के नतीजों के हवाले से अब सेक्स एजुकेशन पर जोर दिया जा रहा है। जाहिर है इस सर्वे ने एक बार फिर देश में नई बहस की भूमिका तैयार कर दी है।

किसकी वफादारी में ताकत लगाए कांग्रेसी

कांग्रेस में निष्ठाओं का संकट है। ऐसा नहीं कि बहुत सारे नेताओं का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है और वे पार्टी से एक साथ निकलने या उसका विभाजन करने की योजना बना रहे है मगर असली सवाल यह है कि जिस गति से राहुल गांधी आगे बढ़ रहे है और तमाम निषेधों के बावजूद उन्हें पार्टी के युवराज के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है, कांग्रेसियों के सामने संकट यह है कि वे किसकी वफादारी में अपनी ताकत लगाए।

राहुल गांधी से रिश्ता नहीं बना पाने वाले कांग्रेसी हताश है। उन्हाेंने अब यह आरोप लगाना भी शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी भावी प्रधानमंत्री बनने के चक्कर में कांग्रेस की बजाय राहुल ब्रिगेड नाम का संगठन चला रहे है। मगर इनमें से ज्यादातर नेता ऐसे हैं जिनका जनाधार या तो है ही नहीं या फिर बहुत सीमित हैं।

यह तो सब जानते है कि पार्टी में अंतिम फैसला कांग्रेस अध्यक्ष यानी राजमाता सोनिया गांधी का होता है। पिछले चुनाव में राहुल गांधी ने युवाओं के लिए लोकसभा के लिए जितने टिकट मांगे थे वे भी नहीं मिले मगर राहुल के कहने पर कई युवा या अर्ध युवा मंत्री बना दिए गए। राहुल और सोनिया एक साथ मिल कर जो रणनीति बना रहे हैं उससे कांग्रेस के कई नेताओं को अपना भविष्य खतरे में दिखाई पड़ने लगा है।

जब राहुल गांधी पार्टी के महासचिव बने थे तो बहुत से कांग्रेसियों को लगा था कि कांग्रेस के तंत्र में बने रहने और ज्यादा मजबूत हो कर बने रहने के लिए राहुल गांधी के साथ काम करना उपयोगी होगा। ये नेता लगातार राहुल गांधी के चक्कर लगाने लगे। मगर राहुल गांधी राजीव गांधी की शैली में अपनी एकांत की और एक हद तक स्वायत्त राजनीति करना चाहते हैं। यहां तक कि उन्होंने अपने मित्रों और कई तकनीकी जानकारी रखने वाले लोगों को मिला कर अपना एक अलग सचिवालय बना लिया है जो उनके दौरे भी तय करता है और उनसे मुलाकात के लिए लोगों को समय भी देता है।

इतना ही नहीं, राहुल गांधी के फैसलों में भी इस सचिवालय का पर्याप्त दखल होता है। राहुल गांधी के इस सचिवालय का पार्टी के मुख्यालय 24 अकबर रोड से कोई सीधा संबंध नहीं है। दरअसल राहुल गांधी पार्टी मुख्यालय जाते भी बहुत कम है। उनके साथ कांग्रेस के जो सचिव सहायता के लिए जोड़े गए हैं उनसे भी राहुल ने साफ कह दिया है कि वे स्वतंत्र रूप से काम करे और जरूरत पड़ने पर उनसे बातचीत की जाएगी। जितेंद्र सिंह और मीनाक्षी नटराजन राहुल गांधी के साथ जुड़े है और उन्हें पार्टी में खास माना जाता है। मगर इनसे भी ज्यादा ताकतवर कनिष्क सिंह हैं जो राहुल गांधी के सबसे खास सलाहकार माने जाते हैं और पार्टी के किसी भी महासचिव से ज्यादा ताकतवर भी हैं।

दिग्विजय सिंह आज की तारीख में कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव हैं। वे खुद राजनैतिक तौर पर कम प्रतिभाशाली नहीं हैं लेकिन कांग्रेस की कलाकाट राजनीति में उनकी ताकत का राज यह है कि वे राहुल गांधी के साथ मिल कर काम कर रहे हैं और जहां राहुल को जमीनी राजनीति समझानी होती है, समझाते हैं।

दिग्विजय सिंह से आतंकित कांग्रेसियों ने उनके हाल के आजमगढ़ दौरे को ले कर बहुत बवाल मचाया था और कुछ ने तो यह राय भी जाहिर कर दी थी कि दिग्विजय सिंह का यह कदम सांप्रदायिक हैं और इसीलिए उन्हें कम से कम महासचिव पद से हटा दिया जाना चाहिए। दिग्विजय सिंह का कसूर यह बताया जा रहा था कि उन्होंने आजमगढ़ जा कर दिल्ली के बाटला हाउस के अभियुक्तों से गहरी दोस्ती कर ली थी और उनके परिवारों से सहानुभूति जाहिर की थी।

मगर दिग्विजय सिंह की शक्ति का स्रोत सिर्फ राहुल गांधी नहीं है। वे मध्य प्रदेश के लगातार दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और जूझने की राजनीति उन्हें आती है। अमर सिंह जैसे वाचाल नेता को कई मौको पर उन्होने सिर्फ हंस कर कहे गए एक या दो सारगर्भित वाक्याें के जरिए खामोश कर दिया था। दिग्विजय सिंह की खासियत यह है कि वे मंत्री नहीं हैं इसलिए पार्टी के लिए उनके पास पूरा वक्त है।

युवा पीढ़ी में जितेंद्र सिंह, जितीन प्रसाद, आरपीएन सिंह, दीपेंद्र हूड्डा, सचिन पायलट, रवनीत सिंह, मीनाक्षी नटराजन और अशोक तवर तो राहुल की टीम में हैं ही, जयराम रमेश, कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा ने भी वहां जगह बना ली है। सोनिया गांधी के सबसे करीबी माने जाने वाले और उनके राजनैतिक सचिव अहमद पटेल के अलावा प्रणब मुखर्जी, वीरप्पा मोइली और एके एंटनी से राहुल गांधी खुद सलाह लेने के लिए पहुंचते हैं। कम लोग जानते हैं कि राहुल गांधी हाशिए पर बताए जा रहे अर्जुन सिंह के भी लगातार निकट संकर्प में भी है।

सियासतदानों के खेल में अपनी जान गंवा रहे बहादुर नौजवान

देश के बहादुर नौजवान सियासतदानों के खेल में अपनी जान गंवा रहे हैं। चेहरे पर नाकब लगा कर इस्टर्न फ्रंटियर राईफल्स के आईजी ने अपनी प्रेस कॉफ्रेंस में पश्चिम बंगाल सरकार पर गंभीर आरोप लगाये। आईजी ने कहा कि उनकी फोर्स के साथ अमानवीय बर्ताव हो रहा है। इस आईजी का नाम है विनय कृष्ण चक्रवर्ती और ये इस्टर्न फ्रंटियर के स्पेशल आईजी हैं।

आईजी ने चेहरे पर नकाब लगाकर भले ही पत्रकारों से बात की हो लेकिन उनके इस कृत्य से प्रशासन के चेहरे की नकाब उतर गयी है. नक्सलवाद से लड़ने के लिए हम कितनी बहादुरी से मैदान में हैं इसका खुलासा आईजी के इस व्यवहार से हो जाता है. बहरहाल पश्चिम बंगाल प्रशासन ने इन आईजी महोदय को बर्खास्त करके अपनी शर्मिंदगी दूर करने की कोशिश भी कर ली है.आईजी की इस हरकत ने सरकार पर सीधे आरोप लगा दिये हैं। पश्चिम बंगाल सरकार का दामन दागदार भी हो गया है। जो सावाल आईजी ने उठाये हैं वो एक सैनिक का दर्द है जो हर वक्त मौत के मुंह में खड़ा है और उसके पास अपना बचाव के हथियार भी नहीं है। सिलदा हमले में हमने देखा कैसे नक्सली दो दिन पहले तक हमले की तैयारी करते रहे लेकिन खूफिया एजेंट पता नहीं लगा सके। आईजी तो यहां तक कह रहा था कि सरकार को सब पता है लेकिन वो न जाने क्यों कुछ नहीं कर रही।

सिलदा के नक्सली हमले में इस्टर्न फ्रंटियर के ही 24 जवान मारे गये थे। अपनी जवानों की मौत से घबराये और आहत आईजी ने जब प्रेस कॉंफ्रेस की तो चेहरे पर नाकब बांध लिया। फौरी तौर पर ये खबर देखने के बाद लगता है कि आईजी नक्सलियों से डर गया है वो अपना चेहरा कैमरे पर नहीं दिखाना चाहता। लेकिन सोचिये कोलकाता में आईजी रैंक का अफसर प्रेस कॉंफ्रेंस करता है और वो भी चेहरे पर नकाब डाल कर। क्या आईजी का मकसद केवल अपना चेहरा छिपाना है या कई चेहरों से नकाब खींचना।

ये तीखा सवाल है। उन आरोपों पर गौर कीजिये जो इस आईजी ने लगाये हैं। आईजीने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार इस्टर्न फ्रंटियर के साथ अमानवीय बर्ताव कर रही है। आईजी ने कहा कि उनके पास बुनियादी चीजों की कमी है फिर भी वो खतरनाक माओवादी इलाकों में लोहा ले रहे हैं। आईजी की खीझ और गुस्सा जब प्रेस के सामने आया तो उसके खुद के चेहरे पर नकाब पड़ा गया। जाहिर सी बात है इस प्रेस कॉफ्रेंस के तुरंत बाद राज्य सरकार ने आई जी को सस्पेंड कर दिया। सरकार वही कर सकती थी, और करना भी यही चाहिये था।

आई जी ने इस तरह की प्रेस कॉंफ्रेस करके हज़ारों सैनिको का मनोबल तोड़ने की कोशिश की है जो नक्सलियों के खिलाफ अभियान में जुटे हैं। आईजी की इस कायराना हरकत की सजा उसे मिलनी चाहिये। लेकिन आईजी के सवालों को भी उतनी ही गंभीरता देनी होगी जितनी उसके नकाब को दी गयी। आईजी की इस प्रेस कॉंफ्रेस को पुलिस रूल का उल्लंघन माना गया और सरकार ने 24 घंटे से पहले आईजी को तो निलंबित कर दिया। लेकिन सरकार ने ये नहीं बताया कि इस वक्त जो जवान नक्सलियों के गढ़ में कैंप लगाये बैठे हैं उनकी सुरक्षा के लिये क्या किया।


आईजी की हरकत बता रही है कि ऐसा ही चलता रहा तो अब पुलिस वाले भी नकाब पहन कर नक्सलियों से निपटने की ट्रेनिंग लेने लगेंगे। समझ में नहीं आता कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के सेनापति चिदंबरम इतने बेबस कैसे हो सकते हैं। गृह मंत्री जिस राज्य में माओवादियों को खत्म करने का खाका खींच कर आये वहीं उनके 24 बहादुर जवानों को घर में घुस कर मार दिया गया। ये बेबसी आईजी की ही नहीं है मंत्री जी हालात यहां पर काबू में नहीं आये तो कल ये नकाब जो आज आईजी ने लगाया है गृह मंत्री और प्रधानमंत्री को भी लगाना पड़ सकता है।

जार्ज फर्नांडीज कहां हैं?

कहते हैं जया जेटली ने ही इस खबर को प्रसारित करने में अहम भूमिका निभाई है कि जार्ज फर्नांडीज गायब हो गये हैं. हकीकत में जार्ज फर्नांडीज अपनी पत्नी के साथ पंचशील पार्क वाले घर में हैं और नियमित तौर पर मैक्स अस्पताल जाकर इलाज करवा रहे हैं. लेकिन खबर यह प्रचारित की जा रही है कि जार्ज फर्नांडीज गायब हो गये हैं. असल में जया जेटली हार नहीं मानना चाहती और किसी भी तरह से वे जार्ज साहब पर अपना दावा नहीं छोड़ना चाहती. इसके लिए उन्होंने जार्ज के परिवार के ही एक सदस्य रिचर्ड फर्नांडीज को अपनी तरफ कर लिया है जो कि जीवनभर जार्ज से दूर ही रहे हैं. रिचर्ड जार्ज के सबसे छोटे भाई हैं पूरे जीवन में जार्ज के पास सिर्फ तीन दफा आये हैं. लेकिन ऐसे वक्त में जब जार्ज फर्नांडीज की संपत्ति को लेकर कलह चरम पर है तो वे भी लैला फर्नांडीज (जार्ज की पत्नी) के खिलाफ खुलकर मैदान में आ गये हैं. दूसरी ओर जार्ज के बेटे, पत्नी है जिनका पिछले बीस बाईस साल से जार्ज से कोई खास वास्ता नहीं रहा है, वे जार्ज फर्नांडीज को जया और उनकी मंडली के पास नहीं देना चाहते. लैला समर्थक जार्ज के कुछ शुभचिंतक उन्हें इस काम में मदद कर रहे हैं. लड़ाई चरम पर है और कोई भी पक्ष हार मानने के लिए तैयार नहीं है.

जार्ज फर्नांडीज संपत्ति के ऐसे झगड़े में घसीट लिये गये हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ व्यक्ति और व्यक्तित्व के रूप में जार्ज फर्नांडीज का नुकसान होगा. फिलहाल तो वे पंचशील वाले अपने पुराने घर में रह रहे हैं और नियमित इलाज चल रहा है. लेकिन जिस तरह से उन्हें गायब घोषित किया गया वह राजनीति का एक शर्मनाक अध्याय साबित हुआ है.


बात 1998-99 की है. उन दिनों सूबेदार सिंह मुंबई में फुटपाथ वालों के लिए एक राजनीतिक दल बनाकर मुंबई महानगरपालिका में उनका प्रतिनिधित्व देना चाहते थे. हालांकि हृदयाघात से उनका निधन हो गया लेकिन अक्सर वे ट्रेड यूनियन के दिनों के जार्ज फर्नांडीज को याद करते हुए रो दिया करते थे. वे कहते थे- "मेरा जार्ज कहीं खो गया है." सूबेदार सिंह जिन दिनों जार्ज फर्नांडीज को याद करके रो दिया करते थे उन दिनों जार्ज फर्नांडीज दिल्ली में रक्षा मंत्री और राजग के संयोजक हुआ करते थे.

उस समय सूबेदार सिंह जिस जार्ज फर्नांडीज को खोने की बात किया करते थे वह उनके साथ वाले वैचारिक जार्ज थे. जमीनी नेता और ट्रेड यूनियन के तेजतर्रार नेतृत्व. लेकिन सूबेदार सिंह के जाने के लगभग एक दशक बाद जार्ज फर्नांडीज सचमुच खो गये हैं. जार्ज फर्नांडीज इतने खो गये हैं कि मुश्किल से याद रहता है कि वे कौन हैं. उन्हें भूलनेवाला गंभीर रोग अल्जाइमर्स है जिसका इलाज चल रहा है. कुछ दिनों वे बाबा रामदेव के आश्रम में इलाज करवाया. बाबा रामदेव ने दावा किया था कि वे बिल्कुल ठीक हो जाएंगे लेकिन बात नहीं बनी. इसलिए 29 जनवरी को उनकी पत्नी लैला कबीर उन्हें वापस लेकर दिल्ली लौट आयी हैं. यहां मैक्स अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है. लेकिन जार्ज साहब सिर्फ अपनी बीमारी को लेकर खबर में नहीं है. उनके आस पास बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो जार्ज फर्नांडीज एक त्रासदी के रूप में तब्दील करता चला जा रहा है.

शुरुआत होती है जया जेटली द्वारा उनकी संपत्तियों पर कब्जा जमाने के िलए किये गये प्रयासों से. कहने के लिए तो सिर्फ यह कहा जा रहा है कि जार्ज फर्नांडीज के 25 करोड़ की संपत्तियों और नकदी को लेकर सारा झगड़ा है. जया जेटली किसी भी कीमत पर इस धन पर अपना दावा नहीं छोड़ना चाहती. एक बार तो जार्ज के समर्थकों और उनकी पत्नी तथा बेटे ने जार्ज को अपनी पकड़ में ले भी लिया था लेकिन जया जेटली कहां हार माननेवाली? वे जार्ज फर्नांडीज के स्वास्थ्य को ही आधार बनाकर उनके साथ थीं. इसलिए उन्होंने जार्ज साहब के स्वास्थ्य की चिंता में एक नया दांव चला. देश के 16 प्रमुख लोगों की एक कमेटी बनायी है जो जार्ज साहब के स्वास्थ्य की चिंता करेगा. इस कमेटी में ज्यादातर बड़े उद्योगपति हैं जिसमें राहुल बजाज, रवि रुईया, उदय कोटक और कमल मोरारका शामिल हैं. यह भी कैसी विडंबना है कि एक धुर समाजवादी और ट्रेड यूनियनिस्ट लीडर के स्वास्थ्य की चिंता के लिए पूंजीपतियों की कमेटी बना दी गयी. असल में इस कमेटी के बहाने एक बार फिर जया जेटली ने जार्ज के ऊपर अपना दावा ठोंका है.


अब ऐसे में सवाल यह है कि जार्ज फर्नांडीज कहां हैं? एक दशक बाद फिर उन्हीं सूबेदार सिंह की याद आ रही है जिन्होने भाजपा के समर्थन से मंत्री बन जाने पर कहा था कि मेरा जार्ज कहीं खो गया है. वे आज होते तो बिलखते. पश्चाताप और प्रायश्चित के आंसुओं में डूबे हुए यह मानने के लिए बाध्य हो जाते कि उनका जार्ज अब सचमुच खो गया है. उनकी अपनी याददाश्त बहुत बची नहीं है, ऐसे में लगभग जिंदा लाश बन चुके जार्ज के साथ जिस तरह से कुटिल राजनीति की जा रही है उससे उनका होना भी न होने जैसा ही है.

कृषि कर्ज बना मर्ज

भारतीय स्टेट बैंक समेत सभी अर्धसरकारी बैंक और अनेक सहकारी बैंक के वेबसाइट देखिएं। सभी किसी न किसी तरह की योजनाओं के साथ किसान का मित्र होने का दावा करते दिखेंगे पर हकीकत कुछ और है। किसानों का हितैषी होने का दावा करने वाला हर बैंक किसानों को कर्ज देते वक्त वैसे ही भागता है, जैसे किसान को कोई संक्रमण की बीमारी हो। यकीन मानिए, यह सच है।

विश्वास न हो, कभी किसी बैंक की बेवबसाइट खोल कर देखिए। वेबसाइट पर दिखाई जाने वाली कृषि कर्ज की योजनाओं का लाभ लेने के संबंध में बैंक जाकर देखें। बैंककर्मी कैसे टाल-मटोल करेंगे। पहले पूछेंगे कि जमीन कितनी है? कर्ज वापसी की गारंटी में अचल संपत्ति कितनी और कैसी है? आप सोचते होंगे अन्नदाता किसान के पास जितनी जमीन है, उसकी गारंटी के एवज में बैंक कर्ज देंगे। नहीं। बैंक तभी भी कर्ज नहीं देंगे। कर्ज देने से पहले ही जमीन की कीमत का मूल्यांकन कराया जाएगा। ताकि किसान कर्ज वापस नहीं कर सके तो उसे निलाम कर वसूली हो सके। पर सरकारी बाबू से जमीन की कीमत का प्रमाणपत्र निकालना आसान बात नहीं है? कितना कठिन है, यह वे किसान बेहतर जानते हैं। सरकार की ओर से निर्धारित मूल्य और बाजार के मूल्य में काफी अंतर होता है? अनेक झमेले हैं। फिर भला किसान क्यों इन झमेले में पड़ समय नष्ट करें। साहूकार बेहतर हैं। भले ही वे ज्यादा ब्याज लेते हो, पर मौके पर धन देते हैं। गिरवी नहीं दिया तो भी कर्ज मिलता है। कर्ज माफी की घोषणाओं के बारे तो आने खूब सूना होगा। पर इसका राहत किसानों को सुनने में ज्यादा मिलता है। हकीकत कुछ होती है। कर्जमाफी में ऐसे-ऐसे पेचों के खांचे होते हैं, जिसमें अधिकतर किसान अयोग्य हो जाते हैं। आत्महत्या के लिए सबसे चर्चित महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र में हजारों किसानों को कर्जमाफी की योजना का कोई लाभ नहीं मिला है। बड़े और संपन्न किसानों ने लाभ प्राप्त किया है।

कृषि कर्ज के मामले में यह हालत देश के हर राज्यों में हैं। राष्ट्रपति से लेकर दूसरे अनेक प्रभावशाली बुद्धिजीवी भले की कृषि में निवेश की बात करते हों, पर लाभ देने वाली सरकारी मशीनरी की दुरुस्ती में उनका ध्यान नहीं जाता है। बैंक जानते हैं। कृषि कर्ज घाटे का सौदा है। इस उस तरह से नहीं बांटा जा सकता है, जिस तरह से दूसरे कर्ज बांटे जाते हैं। लिहाजा, बैंक कृषि कर्ज को अपने गले का फांस मानते हैं। किस न किसी बहाने से बैंक किसानों को ऋण देने में अपात्र घोषित कर देते हैं। इसके अलावा उन्हें जितना कर्ज चाहिए, उतना वे देते नहीं हैं। जैसे सरकार कहती है कि प्रति एकड़ 20 हजार रुपये का कर्ज दिया जा सकता है। पर तमाम कागजी औचारिकताएं पूरी करने पर बैंक बड़ी मुश्किल से 10 से 12 हजार रुपया ही कर्ज तय करते हैं। कम ब्याज की लालच में किसान इतनी ही राशि बैंक से स्वीकार कर लेते हैं। बाकी जरूरत के रुपये साहुकार से उंचे ब्याज पर ले लेते हैं। प्रकृति आधारित खेती से जो भी आय होती है, किसान पहले साहुकार का कर्ज देते हैं। बैंक का पूरा कर्ज भी नहीं उतरता है, कि तब तक दूसरी फसल का समय आ जाता है। नौबत फिर कर्ज लेने की आ जाती है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो इस फेरिहस्त में कर्ज लेने वाले देश के करीब 60 प्रतिशत से भी ज्यादा किसानों को बैंकों ने किसी न किसी तरह से अयोग्य घोषित कर रखा है। वे दूसरे बैंक के पास भी कर्ज लेने नहीं जा सकते हैं। सरकार लाख कोशिश करे ले, बैंक किसानों को कर्ज देना ही नहीं चाहती है। बैंक की किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाएं कागजों पर ही चलती है।

कृषि कर्ज से जुड़ी एक हालिया प्रकाशित खबरों के मुताबिक बैंक ऑफ बड़ौदा और कॉर्पोरेशन बैंक ने दिसंबर 2009 में समाप्त हुई तिमाही के दौरान कर्ज की प्रावधान योजनाओं के तहत कर्ज लेने वाले संभावित किसानों को लाभ नहीं मिला। सरकार ने किसानों को इस बात की अनुमति दी थी कि वे बकाया राशि के 75 फीसदी का भुगतान 3 किस्तों में करें और 25 प्रतिशत की राहत का लाभ उठाएं। इस योजना की अवधि दिसंबर 2009 तक बढ़ाई गई, लेकिन किसानों की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिलने से कुछ बैंकों ने वित्त मंत्रालय से कहा है कि किसानों को अपनी बकाया राशि के भुगतान के लिए जून तक का समय दिया जाए। साल 2009 में मॉनसून की स्थिति अच्छी नहीं होने से कारण ऋण की योजनाओं की समयावधि बढ़ाने का प्रस्ताव दिया गया था। इसे किसानों के प्रति बैंकों की सहानुभूति न समझे। यह बैंकों के चतुराई का प्रस्ताव था। बैंकों ने समयावधि बढ़ाए जाने की बात इसलिए की थी, क्योंकि उन्हें प्रावधान के तौर पर अतिरिक्त राशि अलग रखने की जरूरत होगी। चालू तिमाही के दौरान ही प्रावधान किए जाने की उम्मीद है। आंकड़े कहते हैं कि बैंक ऑफ बड़ौदा का कर्ज राहत योजना के तहत 211 करोड़ रुपये बकाया है। वहीं कॉरपोरेशन बैंक ने पिछली तिमाही में किसान कर्ज के लिए 12 करोड़ रुपये किसान कर्ज के लिए प्रावधान किया था। ऐसी हालत कमोबेश हर सरकारी बैंक की है। बैंक अधिकारी अधिकारिक रूप से कुछ भी बताने से बचते हैं। उनका कहना है कि कृषि कर्ज राहत योजना के बाद अधिकांश किसानों ने अपने बकाया राशि की किस्त नहीं चुकाई। ऐसा करने वाले बड़े किसान थे। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार ऐसा ही कोई पैकेज फिर से लेकर आएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। ज्यादा एकड़ की भूमि वाले बड़े किसान किसी न किसी तरह से कृषि कर्ज की कल्याणी योजनाओं का लाभ ले लेते हैं। कम जमीन वाला दीनहीन किसान हमेशा ही ठगा जाता है।

ग्रीन हंट पर नक्सलियों का रेड हंट भारी

चिदंबरम के आपरेशन ग्रीन हंट के सामने नक्सलियों का रेड हंट भारी पड़ गया है। चिदंबरम की सारी रणनीति को फेल नक्सलियों ने कर दिया है। हताशा में नक्सलियों से 72 घंटे के लिए हिंसा रोकने की अपील चिंदबरम ने की है। इससे यह पता चलता है कि चिंदबरम नक्सली फ्रंट पर विफल रहे है। जिस तरीके से नक्सलवाद को उन्होंने लिया, उससे निपटने के तौर तरीके अपनाए वे फेल होते नजर आ रहे है। नक्सलियों ने उनके ग्रीन हंट को ठेंगा दिखाते हुए बंगाल में पुलिस कैंप पर हमला कर दिया। बीस से ज्यादा पुलिस मारे गए। बिहार में जमुई में हमला किया। कई बेचारे गरीब जनजाति के लोग मारे गए। झारखंड में बीडीओ को अगवा किया। अपनी मांग मनवा ली। बेचारे शीबू सोरेन ही सरेंडर कर गए।

दो दिन पहले गृह मंत्री के तौर पर अपने प्रदर्शन के बारे में खुद चिदम्बरम ने कहा है कि उनका प्रदर्शन जीरो है। इसका मतलब कानून और व्यवस्था से नहीं है। उनका मतलब है कि वे कारपोरेट घरानों के हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। जिन हितों की रक्षा के लिए कारपोरेट घरानों ने चिंदबरम को गृह मंत्रालय दिलवाया था, वो हित सध नहीं रहे। ताबड़तोड़ हमले हो रहे है। खासकर नक्सली हमले। चिंदबरम परेशान है। कोई जवाब नहीं मिल रहा है। अपनी वित्तीय नीतियों से कारपोरेट घरानों को मालामाल करने वाले चिंदबरम यहां पर चारो खाने चित नजर आ रहे हैं।

अगर सरकार वाकई में नक्सली समस्या से निपटना चाहती है तो देश के गरीब चालीस करोड़ जनता के हितों को लेकर फैसला ले। नहीं तो नक्सली दिल्ली में भी आकर बैठ जाएंगे। उनके लिए देश के शहरों में भी मुफीद माहौल तैयार है। लोगों का जीना हराम है। आमदनी है नहीं खर्चा काफी है। दाल और आटा ही लोगों को नहीं मिलेगा तो वे क्या करेगा। भीख मांगेगा या हथियार उठाएगा। देश में कारपोरेट को अमीर करने की जो नीति मनमोहन सिंह ने बनायी है, उससे देश में स्थिति और भयानक होगी। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में भी गरीबों की सामाजिक सुरक्षा है। उन्हें खाने को रोटी मिलता है, पीने को साफ पानी। बीमार पड़ गए तो इलाज की सुविधा भी मिल जाती है। पर इस देश में गरीब को रोटी नहीं मिलती। दाल खरीदना जाता है तो कमाई से चार दाने दाल आता है। इलाज करवाने जाता है तो चार दवाई खरीदने के लिए जेब में पैसे नहीं है। फिर 72 घंटे के लिए हिंसा छोड़ने की अपील से कुछ नहीं होगा। सरकार ईमानदारी से गरीबों के हितों में काम करे, नक्सलियों का विस्तार खुद ही रुकेगा। लोग इनके विरोध में खड़े हो जाएंगे।


चिदंबरम जिस अंदाज में नक्सलियों को निपट रहे है, उससे नक्सली और मजबूत होंगे। नक्सलवाद एक समग्र आर्थिक और सामाजिक समस्या है जिसकी शुरूआत चालीस साल पहले भारत में हुआ। फिर एक गृह मंत्री कैसे यह समझ लेता है कि वो कुछ महीनों में आपरेशन ग्रीन हंट से सारे नक्सलियों को खत्म कर देगा। पिछले पांच सालों में ही नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को पचास प्रतिशत तक बढ़ा लिया। पूरा छतीसगढ़ और उड़ीसा को अपने कब्जे में ले लिया। इस दौरान देश में कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। पर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि आखिर इतने तेजी से नक्सलियों का प्रभाव कैसे बढ़ा। पिछले तीस सालों में नक्सलियों का प्रभाव सिर्फ बिहार तक था जो एकाएक पांच सालों में सारे जनजाति क्षेत्रों में फैल गया। क्या इसके पीछे मनमोहन सिंह की वो आर्थिक नीति जिम्मेवार नहीं है जो पिछले पांच सालों में गरीब को गरीब और अमीर को अमीर करते जा रही है।
देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ी है। उधर गरीब बढ़ रहे है और इधर महंगाई पर सवार अमीर बढ़ रहे हैं। अब इस भुखमरी की स्थिति में लोग क्या करें? या तो भीख मांगेंगे या नक्सलियों की शरण में जाएंगे। नक्सली हर गुरिल्ला को तीन हजार रुपये तक मासिक वेतन दे रहे है। साथ ही वसूली का हिस्सा भी दे रहे है। दूसरी तरफ सरकार अगर अपने पुलिस बल में या अन्य नौकरियों में किसी को रखती है तो घूस के तौर पर दो लाख से पांच लाख रुपये तक मांगा जा रहा है। झारखंड, उडीसा, बिहार या अन्य राज्य हर जगह भरती में जो भ्रष्टाचार है वो किसी से छिपा नहीं है। फिर आखिर गरीब जनता कहां जाएगी। नक्सलियों की जमीन को विस्तार देने में तो सरकार की खुद की आर्थिक नीतियां रही है।

आदिवासी संसाधनों की लूट अगर नहीं रूकी तो नक्सलवादी जमीन कमजोर नहीं होगा। उनका विस्तार होगा। आज झारखंड में भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा का बेमेल गठबंधन हो गया। आखिर क्या कारण है। दोनों के बीच जब सिद्वांत नहीं मिलता तो समझौता किस बात का। कारण साफ है, संसाधन की लूट में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। अब लूट के लिए जब इस कदर बेमेल सौमझौते होंगे तो नक्सली आधार तो बढ़ेगा ही। छतीसगढ़ हो या उड़ीसा, या झारखंड। जिस कदर इन राज्यो में आदिवासियों के जमीन, जंगल और पानी पर कब्जा करने की साजिश रची गई है वो शर्मनाक है। इस लूट मे केंद्र की सरकार और राज्य सरकारों के बीच मिलीभगत है। पर दिलचस्प बात है कि इस लूट को रोकने के बजाए सरकार आपरेशन ग्रीन हंट चला रही है। हर राज्य सरकार अब खाद्यानों की लूट में लगी है। इनके माफिया और कारपोरेट मिल जुलकर खादानों को लूट रहे है। किशन जी से अपील करने से कोई फायदा नहीं होगा। नक्सलियों से बातचीत करने का भी कोई फायदा नहीं है। वे बातचीत को भी अपने फायदे में इस्तेमाल करेंगे। पुलिस की कार्रवाई से नक्सली खत्म नहीं होंगे। इसे खत्म करने के लिए स्थानीय लोगों को ही उनके विरोध में करना होगा। पर विरोध में स्थानीय लोग क्यों खड़े हो। अगर केंद्र की नीतियों के कारण उनकी रोजी रोटी और घर ही छीन रहा हो तो वे नक्सलियों के साथ क्यों न जाए।

माओवादियों के खतरनाक संकेत से केंद्र नहीं सम्हला है। अब सरकारों को अपने कब्जे में ले रहे है। झारखंड की सरकार पूरी तरह से माओवादी चला रहे है। शीबू सोरेन के आसपास माओवादी बैठ गए है। उनके झारखंड मुक्ति मोर्चा के कई विधायक माओवादियों के सहयोग से जीतकर आए है। वे सरकार में बैठकर माओवादियों को समर्थन कर रहे है। पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा लिए गए फैसले इस सच्चाई को सामने लेकर आया है। जिस कदर बीडीओ को छुड़वाने को लेकर सरकार माओवादियों के सामने झुकी है उससे पता चलता है कि शीबू सोरेन नक्सलियों के सामने झुक चुकी है। बिहार से भी कोई अच्छी खबर नहीं है। नक्सलियों को खत्म करने और झारखंड में खदेडने का दंभ भरने वाली बिहार सरकार झूठ बोल रही है। सच्चाई है कि नक्सलियों और बिहार सरकार के बीच एक समझौता हुआ है। इस समझौते के तहत बिहार में कोई बड़ा हमला नहीं करने का वादा नक्सलियों ने नहीं किया है। बताया जाता है कि पटना को सुरक्षित रखने के लिए भी बिहार सरकार ने नक्सलियों से समझौता किया है। इसमें सरकार के कुछ अहम लोगों ने भूमिका अदा की है। इसमें कुछ विधायक और मंत्री भी शामिल है।

जेलों में कैदियों की दुर्दशा

भारत की जेलों में जैसी दुर्दशा कैदियों की है वैसी दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देशों में नहीं है। भारतीय जेलें आज भी सन 1894 के ब्रिटिश जेल मेनुअल पर आधारित हैं जिसमें कैदी से गुलामों जैसा बर्ताव करने की सोच है। भारत में जेल सुधार के लिए किये गये अब तक के सारे प्रयास निरर्थक एवं नाकाफी साबित हुए हैं।

किसी बड़े नेता ने यदि जेल सुधार के बारे में सोचा तो वह पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गॉंधी थीं जिन्होंने आपातकाल के बाद स्वयं जेल भुगतने के कारण पुन: सत्ता में आने पर सन् 1980 में जेल सुधार के लिए मुल्ला कमेटी का गठन किया था । इस कमेटी की प्रमुख अनुशंसा यह थी कि जेल सुधार में सबसे बड़ी बाधा यह है, कि जेल आज भी राज्यों का अधिकार क्षेत्र है । और इसमें केन्द्र की दखलान्दाजी कोई भी राज्य बर्दाश्त नहीं करता, चाहे सत्ता किसी भी दल की हो । मुल्ला कमेटी की यह प्रमुख अनुशंसा दरकिनार कर दी गई कि जेल एवं जेल सुधार के मामले में केन्द्र को अधिकार मिले एवं केन्द्र व राज्य सरकार मिलकर सामंजस्य से जेल एवं कैदियों की स्थिति में सुधार कर सकें । केन्द्र एवं राज्य की इस सामूहिक लापरवाही का दण्ड देश की जेलों में बन्द रहे तमाम लोग भुगत रहे हैं जिन्हें यह भी नहीं पता कि जेल सुधार का जिम्मा किसका है ।

जेल जनसंख्या में वृद्धि सीधे-सीधे हमारी न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी है और जेल सुधार के सारे प्रयास कानून की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। आज भी देश के तमाम न्यायालयों में ढेरों केस लंबित हैं और इनका निबटारा कब होगा यह शायद भगवान भी नहीं जानता। और यही प्रकरण की लंबित कतार जेल आबादी से सीधे-सीधे जुड़ी हुई है। गिरते नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के बीच समाज में अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। लेकिन इन सबके बीच हमें यह भी ध्यान रखना है कि हर अपराधी एक इंसान है। जिसे नैसर्गिक न्याय एवं मानव अधिकार जेल की चार दीवारी के भीतर भी प्राप्त होना चाहिए ।

जेल जनसंख्या का एक बड़ा भाग विचाराधीन कैदी हैं, जो कई बार अपने फैसले के आने तक उनके द्वारा किए गए गुनाह से अधिक अवधि की जेल काट चुके होते हैं। विचाराधीन कैदियों का सर्वाधिक प्रतिशत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में है जहॉं अपराधों का आंकड़ा तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, वहीं मणिपुर और मेघालय जैसे उत्तर पूर्व के राज्यों की जेल भी सजा पाए हुए के स्थान पर विचाराधीन कैदियों से भरी है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग सत्तर से पचहत्तर हजार प्रकरण ही अपने अंजाम तक पहुंच पाते हैं। कई बार तो चक्काजाम और धरने-प्रदर्शन के केस भी पन्द्रह से बीस साल तक चलते रहते हैं।

यक्ष प्रश्न यह है कि कैसे जेल के अन्दर का वातावरण एवं जेल सरकार की मानसिकता बदली जाये? ऐसा क्या हो कि कानून एवं न्याय के सम्मान के साथ-साथ आरोपी का सही मायनों में पुनर्वास एवं सुधार हो सके? क्योंकि वर्तमान स्थिति में तो जेल जाकर सुधरना बेमानी है। हॉं इस बात की संभावना जरूर है कि जेल जाकर आप और बड़े अपराधी बन सकते हैं । जेल जाने वालों की ज्यादा तदाद आज भी ग्रामीण एवं किसानों की ही है। जिसमें तो कई इसलिए जेल की सलाखों से मुक्त नहीं हो पाते कि वह कोर्ट द्वारा निर्धारित अर्थदण्ड नहीं चुका सकते या कईयों को तो जमानतदार नहीं मिलते। इनमें भी ज्यादा दुर्दशा की शिकार महिला और मानसिक विक्षप्त कैदी हैं। वहीं महिला कैदियों के साथ उनके 5 वर्ष तक के बच्चे भी निरपराध होते हुए जेल की सजा भुगतते हैं ।

इस दिशा में सुधार हेतु राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 1996 में जेल सुधार के लिये एक बिल का प्रारूप भी प्रस्तुत किया था किन्तु तब से लेकर अब तक की सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया । जेल मानव अधिकार हनन का सबसे आसान स्थान है क्योंकि जेल की चारदीवारी के भीतर सहज कोई भी नहीं झांक सकता और न ही अन्दर का आदमी अपनी बात आसानी से बाहर पहुंचा सकता है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो आज भी देश की तमाम जेल अपनी क्षमता से लगभग 100 से 200 प्रतिशत अधिक कैदियों को अपने अन्दर समेटे हुए हैं । इनमें प्रमुख रूप से मिजोरम, झारखण्ड, दिल्ली, हरियाणा एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हैं। वहीं विश्व के बड़े कारागारों में से एक दिल्ली की तिहाड़ जेल में ही 85 से 90 प्रतिशत कैदी अपने फैसले के इन्तजार में जेल काट रहे हैं ।

सबसे पहले हमें ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी जिससे जेल एवं जेल सरकार की कार्यप्रणाली पारदर्शी हो। साथ ही ऐसी व्यवस्था बने कि सामाजिक एवं मानव अधिकार संगठन के लोग हर माह या दो माह में जेल की व्यवस्थाओं और सुधार कार्यक्रमों की सुध ले सकें। और यह सब शासन के राजनेताओं और आला अफसरों के बिना सम्भव नहीं है। इसके लिये एक यूनिफार्म जेल मेन्यूअल बनाकर नये सिरे से कार्य करने की आवश्यकता है जिससे परंपरागत और अंग्रेजियत से भरे जेल की व्यवस्थाओं में बदलाव आये। खुली जेल की अवधारणा पर मजबूती से कार्य हो व ऐसा कानून बने जिसमें हल्के और गम्भीर अपराधों की जेल और सजा की प्रक्रिया में बुनियादी फर्क स्पष्ट दिखे।

यौन संबंध बनाने में ग्रामीण युवा आगे

इसमें कोई शक नहीं कि शहरी जीवन की आपाधापी में जनसंपर्क माध्यमों के सहारे यौन संबंधों को जीवन के लिए बेहद बेहद जरूरी बना दिया गया है। कोई शक नहीं, यह एक किश्म का भूख है। यह ज्यादा होने जाए तो हबस बन जाता है। भारतीय परंपरा और जीवन शौली में यौन-संबंधों को पूरी तरह से गुप्त रखा गया है। लेकिन आधुनिक युग में यह विषय सहज हो चला है। लेकिन इसकी सहजता अभी भी गांवों से दूर थी। संस्कारों के परदे में छिपी थी। लेकिन शादी से पहले यौन संबंधों के मामले में ग्रामीण युवा शहरी युवाओं से कहीं ज्यादा आगे हैं। केंद्रीय स्वास्थ मंत्री गुलाब नबी आजाद ने एक सर्वे जारी किया है। सर्वे में कहा गया है कि देश में 15 प्रतिशत पुरुष और 4 प्रतिशत महिलाएं शादी से पहले यौन संबंध बनाते हैं, जबकि शहरों में यह प्रतिशत महज 10 और 2 प्रतिशत है। सर्वे में यह पाया गया है कि शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के नौजवान असुरक्षित यौन संबंध बनाते हैं। अध्ययन पांच राज्य-आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु में किया गया है।
केंद्र सरकार का यह सर्वे इस परदे में छेद करने का राह प्रशस्त करता दिख रहा है। इससे सेक्स शिक्षा की हिमाकत करने वालों को ताकत मिलेगी। अब वे फिर बोलेंगे कि सेक्स शिक्षा अनिवार्य करों। संपूर्ण सेक्स शिक्षा में सुरक्षा पर ही जोर है और सुरक्षा का प्रहरी कंडोम है। पर कामियों को यौन संबंधों के आनंद में साधारण कंडोम आड़े आ रहा था। लिहाजा, कंपनियां डॉट्स और प्लेवर लेकर बाजार में आ गईं।

कैसे पूछा लिया सवाल?
फिलहाल इस रिपोर्ट को पढ़ कर मन में एक संदेह उत्पन्न होता है। सबसे पहली बात यह कि जिन राज्यों यह सर्वे कराया गया, वहां की अधिकांश जनता इन दिनों बदहाली में है। दूसरी, पांचों राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पराये लोगों से ऐसे विषयों पर बात नहीं करती हैं, तो फिर सर्वे में गुप्त संबंधों से जुड़े सवाल ग्रामीण महिलाएं विशेषकर किशोरियों से कैसे और किसने पूछ लिया? सर्वे से संबंधित प्रकाशित खबरों में इस बात पर जोर दिया गया है कि यौन संबंधों के मामले में कांडोम का इस्तेमाल न के बराबर होता है। सर्वे रिपोर्ट जारी करने के मौके पर नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा कि लोगों यौन संबंधों में मामले में सुरक्षा की जानकारी रखते तो है, लेकिन इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। कुछ मिलाकर कर कहें तो देश में सुरक्षित यौन संबंध नहीं बनाये जाते हैं।

कंडोम की कीमत पता हैं!
यौन संबंध तो बनायें, पर कंडोम का उपयोग करें। गत दो दशकों में देश में कंडोम कंपनियों ने मजबूती से पांव पसारा है। पर गांव इनके दायरे से फिसलता रहा। गांवों में सुरक्षित सेक्स की इच्छा रखने वाले को साधारण कंडोम से आंनद नहीं मिल सकता। शायद साधारण कंडोम दो रूपये में मिलता है। ग्रामीण इतना खर्च कर सकते हैं। 20 रूपये से ज्यादा कीमत में डॉट्स और फ्लेवर का उपयोग उनके लिए बहुत महंगा है।

गुजर गया डिलक्स निरोध का जमाना
एक जमाना हुआ जब छोटे परदे पर प्यार हुआ इकरार हुआ गाने के साथ डिलक्स निरोध का प्रचार जनसंख्या नियंत्रण के लिए किया जाता था। बाद में यौन रोगों का भय दिखाने के लिए इसका उपयोग आवश्यक बताया जाने लगा। एक दशक पूर्व तक कंपनियों ने डॉट वाले कंडोम के सहारे ज्यादा यौन आनंद के लिए लोगों को आकर्षित किया। अब फलो के प्लेवर वाले कंडोम से यौन आनंद को दोगुना करने का दावा किया जा रहा है। कभी इसके साथ परफ्यूम की खूशबू भी जोड़ कर लुभाया जाता है।

दायरे से निकली नारी को आईपील का सहारा
इन कंपनियों का ग्राहक वर्ग नर रहा। बाजार के दायरे से नारी अलग-थलग पड़ गई थी। असुरक्षित संबंधों से बार-बार गर्भवति होने के भय का बाजार में फायदा उठाया। कंपनियां बाजार बाजार में गर्भनिरोधक गोलिया लेकर आ गईं। इन कंपनियों ने मीडिया माध्यमों के सहारे बच्चे-बच्चे तक को बता दिया कि असुरक्षा के भय से यौन आंनद का मजा किरकिरा मत करो। आईपील की गोली खाओं ओर टेंशन मुक्त हो जोआ। वह भी लापरवाही के 24 घंटे के अंदर। शहरी क्षेत्र में पर्स में कंडोम रखने के बोझ से पिपाशुओं को मुक्ति मिल गई। एक खबर आई कि अब हाईप्रोफाइल लड़कियों पर्स आईपील की गोली रखती है। अभी तक ऐसी कंपनियां प्रचार माध्यमों के बूते अपने बाजार का दायरा बढ़ा रही थी। अब इस काम में सरकार को भी जोड़ लिया है। किसी न किसी बहाने भोले भाले लोगों की चुनी हुई होशियार सरकार को कंपनियां अपने हीत में कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर कर ही लेती है। इससे समाज का संस्कार कितनी तेजी से गल रहा है, इसकी सुध किसी को नहीं।

देशी नहीं है असुरक्षित संबंधों की अवधारणा
असुरक्षित यौन संबंध की अवधारणा देशी नहीं है। यह विदेशी कंपनियों का भ्रम जाल है। इसके विरोध में हर तरह के प्रचार लाभ कंडोम निर्माता कंपिनयों को ही मिला है। हर साल असुरक्षित यौन संबंधों से मरने वालों की संख्या मुश्किल से हजारों में होती है, जबकि इलाज के अभाव में दूसरी गंभीर बीमारियों से मरने वालों की संख्या लाखों में होती है। स्वास्थ्य मंत्रालय का सर्वे ऐसे बीमारियों की तलाश में होता तो सार्थक कार्य कहा जाता। ऐसी अनदेखी कर जब सरकार देश में विशेषकर गांवों में यौन-संबंधों पर सर्वे करा रही है, तो निश्चय ही उसके नियत में कहीं न कहीं खोट होने का संदेह आभास होता है।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गुजरात मॉडल बेहतर या मध्य प्रदेश का

इंदौर। उम्मीद तो थी कि इंदौर में एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर, नए युवा अध्यक्ष की अगुआई में बीजेपी नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरुआत करेंगे पर बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए।

बीजेपी में एक नई बहस की शुरुआत हो गई है और इसकी सूत्रधार सुषमा स्वराज हैं। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेता नरेन्द्र मोदी के सुशासन की कसीदे पढ़ रहे थे, तब सुषमा ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि मध्य प्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सब कुछ ठीक चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी जहां युवाओं को ज्यादा तरजीह देने की बात कर रहे थे, वहीं आडवाणी भी चौथी पीढ़ी को जिम्मेदारी संभालने को तैयार रहने पर जोर दे रहे थे। इन सबके बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हीरो थे।

पार्टी के ज्यादातर नेता सिर्फ मोदी मॉड्यूल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे। तब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला और साफ किया कि गुजरात के मुकाबले मध्य प्रदेश किसी मायने में पीछे नहीं है।
नरेन्द्र मोदी के बराबर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खड़ा करना था कि पार्टी के भीतर एक नई बहस शुरू हो गई। यानी क्या बीजेपी के मोदीकरण से वाकई पार्टी को नुकसान हो रहा है। हालांकि पार्टी प्रवक्ता इस मामले में स्पष्ट नजरिया तो नहीं रख सके, लेकिन चौहान की तारीफ करने से भी पीछे नहीं रहे।

सियासी हलकों में सुषमा के बयान के मायने निकाले जा रहे हैं। दो दिन पहले ही गडकरी ने मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों से सहयोग की अपील की। यानी पार्टी अल्पसंख्यकों के करीब पहुंचना चाहती है। ऐसे में पार्टी को मोदीकरण चेहरे से बाहर निकालना ही होगा।

आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर। संघ के पसंदीदा नए नवेले अध्यक्ष नितिन गडकरी तो मुसलमानों को साथ लाने की अपील कर रहे हैं वो कह रहे हैं कि मुसलमान भाई आगे आएं और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए विवादित स्थल पर एक भव्य राम मंदिर बनने दें। राम मंदिर आंदोलन के हीरो कहलाने वाले आडवाणी के सामने ही मंच पर दिल बड़ा करते हुए वो ये भी कहते हैं कि अगर बगल की कोई जगह मिल गई तो बीजेपी विवादित स्थल के बगल में एक भव्य मस्जिद का निर्माण करवाने में पूरा सहयोग करेगी।
आप ही बताएं दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद क्या बीजेपी के पास वाकई इस अपील का नैतिक अधिकार है?, पर जो भी हो आज जमीन आसमान का फर्क नजर आ रहा है बीजेपी की चाल-ढाल में बात भले ही घुमा फिरा कर वही की गई हो पर इस बार पार्टी नेताओं के बयान में \'मंदिर वहीं बनाएंगे \' का उग्र हिंदुवाद नदारद है। वो उग्र हिंदुवाद जो आज भी देश के एक समुदाय को डराता है। वो उग्र हिंदुवाद जो अक्सर खुद को देश के कानून से ऊपर समझ बैठता है और जोश में होश खोकर 6 दिसंबर 1992 को देश के गौरवमई लोकतंत्र में एक काला अध्याय जोड़ देता है।
हिंदुवादी पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनने की दिशा में ये बीजेपी का पहला कदम है। उसे इस बात का देर से ही सही अहसास हो गया है कि देश के 14 करोड़ मुसलमान भी इस देश का अहम हिस्सा हैं और बिना उनको साथ लिए पार्टी का कल्याण मुमकिन नहीं है।

लेकिन अफसोस होता है ये जानकर कि सादगी का नाटक कर पांच सितारा तंबुओं में इतने दिनों की माथापच्ची करने के बाद भी पार्टी मंदिर-मस्जिद से ऊपर नहीं उठ पाई। इतने दिनों के चिंतन के बाद भी बीजेपी के नेता सिर्फ इस नतीजे पर पहुंच पाए कि जनता को एक मंदिर के साथ साथ मस्जिद का भी एक लॉलीपॉप पकड़ा देना चाहिए।

आप ही बताइए क्या बढ़ती मंहगाई और मंदी का मार झेल रही देश की जनता को इस बात से कोई वास्ता है , जिस देश की आधी आबादी युवा हो वो देश के विकास, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी से निजात दिलाने की फ्यूचर प्लानिंग को तवज्जो देगी या एक ऐसी पार्टी पर भरोसा करेगी जो आज भी 1989 की अपनी 21 साल पुरानी सोच से उबर पाने में नाकाम है । क्या वो कभी एक ऐसी पार्टी का साथ देगी जो खुद को बदलना भी नहीं चाहती और बदला हुआ नजर भी आना चाहती है।
जरा सोचिए इससे पहले क्या हमारे देश का विपक्ष कभी इतना कमजोर रहा कि सरकार की गलत नीतियों का माकूल जवाब भी न दे पाए। ऐसे वक्त में जब देश में पिछले 6 सालों से कांग्रेस लेड यूपीए की सरकार हो और महंगाई ने देश के हर आमो खास की कमर तोड़ रखी हो बीजेपी इस मुद्दे को क्या इमानदारी से उठा पाई । देश की जनता को क्या ये बता पाई कि एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री बढ़ती इनफ्लेशन रेट को रोक पाने में इतने लाचार क्यों नजर आते हैं। नहीं.... बिल्कुल नहीं, क्योंकि काफी दिनों से सत्ता सुख का आनंद न भोगने वाली बीजेपी शायद अब जनता की नब्ज पकड़ना भी भूल गई है। और यही वजह है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों को छोड़ , आरएसएस के कट्टर हिंदुवादी चेहरे से कभी खुद को करीब और कभी दूर साबित करने के अंतर्द्वद में फंसे पार्टी के नेता अब धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा कर रहे हैं। थोड़ा डरते हुए क्योंकि आडवाणी का जिन्ना प्रकरण और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ने की जो कीमत उन्होंने चुकाई वो कोई भी अपने जेहन से निकाल नहीं पाया है।

बदनाम बस्ती के अनजान अफसाने

विनोद उपाध्याय
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तवायफें कभी तहजीब की पाठशाला हुआ करती थीं. कई कलाएं उनकी बदौलत ही समाज को मिलीं और इसलिए एक दौर में समाज ने भी उन्हें ऊंचा दर्जा दिया. फिर दौर बदला. तवायफें पहले बदनाम हुईं, फिर गुमनाम और आखिर में उनका नाम ही गाली हो गया. दिल्ली में तो जीबीरोड की तरफ जाने वाले हर शख्स को संदेह और संशय की नजर से देखा जाता है।
कोई दौर था जब जीबीरोड स्थित हुस्न की यह बस्ती घुंघरूओं की झनकार और गजरे की गंध से शाम होते ही छनकने, महकने लगती. यह बस्ती तब भी बदनाम ही थी, लेकिन तब लंपट रईस आज की तरह इस बस्ती का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोडऩे की बजाय लार टपकाते थे. गर्म गोश्त का व्यापार यहां तब भी होता था और देश के छोटे शहरों की तवायफें यहां आकर अपने हुस्न और हुनर का (हुनर इसलिए क्योंकि तब तवायफ के लिए अच्छी अदाकारा होना पहली शर्त था) सिक्का जमाने का सपना देखतीं. लखनऊ, कोलकाता और बनारस के कोठों का हर घुंघरू यहां आकर छनकने की तमन्ना रखता. सूरज ढलते ही पनवाडिय़ों की दुकानें आबाद हो जातीं. तांगों,
इक्कों और मोटर गाडिय़ों में सवार हो कर इत्र-फुलेल में डूबे शहर के रईस, अंग्रेज अफसर, ठेकेदार, छोटी-बड़ी रियासतों बिगड़ैल नवाबजादे यहां पहुंचने लगते. टोपी और तुर्रेदार पगडिय़ों की शान ही निराली होती.
कोठेवालियों पर बरसने वाले सिक्कों के वजन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तवायफों की बांदियों के पास भी सेर दो सेर सोना के होना आम बात थी.
हालांकि अंग्रेज फौजी भी शरीर गर्मी निकालने के लिए अक्सर यहां आते, लेकिन तब भी जीबीरोड की तवायफों का एक स्तर होता था. दूर असम और बंगाल से लाई गई तवायफें अक्सर गोरे फौजियों को सस्ते में अपनी सेवाएं देतीं. लेकिन उस दौर का सस्ता भी फौजियों की एक-एक हफ्ते की तनख्वाह के बराबर हो जाता था. लोहे की पटरियों पर लगातार दौड़ते रेल के इंजन, थककर जैसे कोयला पानी लेने के लिए नई, पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर रुकते, ठीक वैसे ही समाज को चलाने वाला तबका जब थक जाता तो जीबी रोड के कोठों पर थकान उतारने चला आता. लेकिन वक्त किसी का गुलाम नहीं है. समय का पहिया घूमता है तो हुस्न का उजाला हर ओर बखेरने वाले नूरानी चेहरों पर झुर्रियों का अंधेरा छा जाता है. ठीक यही हाल इन दिनों दिल्ली के इस लाल बत्ती इलाके का हो गया है. वेश्याओं की यह बस्ती दरअसल बुढ़ा गई है. समय के साथ खुद को बदलने में नाकामयाब रही यह बस्ती हुस्न ढली वेश्या की तरह है, जिसकी ओर अब रईस कतई नहीं देखते और उसके हिस्से में आते हैं सिर्फ पुराने और फटेहाल ग्राहक.
कभी रईसों के राजसी ठाठ देख चुकी यह बस्ती अब निम्न और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की थकान उतारने का जरिया रह गई है. गांव देहात से लाई गई धंधेवालियां जिन्हें एनजीओ की भाषा में सेक्स वर्कर कहा जाता है, इस भड़कीले शहर के युवाओं को रिझाने में नाकामयाब हैं. फूहड़ तरीके से लगाई गई गहरी लाल लिपस्टिक और ग्राहको को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए करारी आवाज में दी गई गालियां उनकी बोल्डनेस को नहीं बदतमीजी को ही दर्शाते हैं. कमाई के लिए आग्रह इतना ज्यादा कि कई बार तो सड़क चलते ग्राहकों का हाथ पकड़ कर भीतर खींचने से भी नहीं चूकतीं. जहां कभी इत्र फुलेल और गजरों की महक गूंजती थी आज सिर्फ सीलन और वीर्य की मिली जुली अजीब सी गंध तारी है. कोठो के कोने गुटखों की पीकों से रंगे पड़े हैं और ऐसे माहौल में एड्स की भयावहता का डर कई गुना होकर नजर आता है. नजाकत और तहजीब की मूर्ति रही तवायफें अब बदतमीजी की मिसाल बन गई हैं. महज 40-40 रुपये में अपने शरीर पर एकबार सवारी का मौका देने वाली ये तवायफें सिर्फ मजदूरों और गवईं अधेड़ों का खिलौना रह गई हैं. ऐसा नहीं है ककि अब रईसों ने हुस्न की कद्र करना बंद कर दिया है, बल्कि सच यह है तकनीक के पंख लगाकर यह कारोबार पहले के मुकाबले और ज्यादा तेजी से फैला है. वीक एंड्स में एनसीआर के होटलों और फार्महाउसों में पहुंचने वाले दम्पतियों की उम्र का अंतर और उनके हावभाव बता देते हैं कि ये कुछ भी हों पर पति-पत्नी नहीं हैं. संचार के इस युग में रंभा और उर्वशियां कोठे वालियों की बजाय कॉलगर्ल कके रूप में परिवर्तित हो गई हैं. महंगे मोबाइलों के की पैड पर थिरकती महंगी नेलपॉलिश से सजी अंगुलियां. जींस टॉप जैसे आधुनिक लिबास और महंगी सिगरटों के कश लगाते उनके करीने से सजाए गए खूबसूरत होठ एक रात के लिए बीसियों हजार तक खर्च करा डालते हैं. फिर अगर रंगीन रात की यह साथी बॉलिवुड की कोई अदाकारा हो तो एक रात की फीस लाखों में पहुंच जाती है. कोठेवालियों और कॉलगर्ल्स के बीच पैदा हुआ यह अंतर उनके बच्चों की परवरिश में भी साफ झलकता है. जहां कोठेवालियों के बच्चों को मिलता है वही गला-सड़ा माहौल जो लड़कों को भड़वा और लड़कियों को वेश्या बनने के लिए मजबूर करता है तो कॉलगर्ल्स के बच्चों को भनक भी नहीं लग पाती कि उनकी मां कैसे पेशे से पैसों का पहाड़ पैदा करती है. महंगे पब्लिक स्कूलों में तालीम पाने वाले इन बच्चों को हमेशा एक खुशगवार माहौल मिलता है. तकनीक और प्रस्तुतीकरण ने इन कॉलगर्ल्स को कोठेवालियों के मुकाबले खासे आगे ले जाकर खड़ा कर दिया है. क्लाइंट द्वारा मिलने वाले महंगे गिफ्ट और हांगकांग-सिंगापुर जैसी जगहों में शॉपिंग के लिए ले जाया जाना, इन आधुनिक मेनकाओं की हैसियत का अहसास कराने के लिए काफी है.
नजाकत और तहजीब की मूर्ति रही तवायफों में देश प्रेम भी कुट-कुटकर भरा था। सबा दीवान की हालिया डॉक्यूमेंट्री फिल्म द अदर सांग के एक दृश्य में कैमरा एक पुराने अलबम पर फोकस होता है और इस पर चलती हुई उंगली एक गोल और सुंदर से चेहरे पर ठहर जाती है. फिर एक सारंगीवादक की खरखरी-सी आवाज आती है, 'ये रसूलन बाई हैं.Ó फिल्मकार पूछती हैं, 'क्या ये हमेशा इतने सादे कपड़े पहनती थीं?Ó जवाब आता है, 'मुजरा नाच तो करना नहीं था.Ó
'हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिलीÓ
रसूलन बाई ने 1948 में मुजरा छोड़ दिया था. कथक आधारित यह भावपूर्ण नृत्य तवायफों की पहचान हुआ करता था. इसके बाद उन्होंने अपना कोठा भी छोड़ दिया और बनारस की एक गली में बने मकान में रहने लगीं. रसूलन बाई, जिनके दर्दभरे गीत शायद भारत में ठुमरी की सबसे मशहूर प्रस्तुतियां थे, अब अपने ही शहर में गाना छोड़ चुकी थीं.
उमराव जान, पाकीजा, देवदास...तवायफों के बारे में हमारी जानकारी और धारणा को काफी हद तक हिंदी फिल्मों ने ही ढाला है. इसलिए दीवान की इस फिल्म में श्वेत-श्याम तस्वीरों में नजर आती रसूलन बाई जैसी तवायफों को देख कर थोड़ा अजीब-सा लगता है. दरअसल आज तवायफ शब्द के साथ जो छवि चस्पां हो चुकी है, उसे देखकर कल्पना करना मुश्किल होता है कि कभी तवायफों को बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता था और शायरी, संगीत, नृत्य और गायन जैसी कलाओं में उन्हें महारत हासिल होती थी. तहजीब की तो उन्हें पाठशाला ही समझ जाता था और बड़े-बड़े नवाबों के साहबजादों को तहजीब सीखने के लिए बाकायदा उनके पास भेजा जाता था.अपनी कुशल राजनीतिक समझ के बल पर उत्तर प्रदेश की सरधना रियासत की शासक बननेवाली बेगम समरू एक तवायफ थीं. कला और पत्र व्यवहार के क्षेत्र में माहिर मोरन सरकार 1802 में महाराजा रंजीत सिंह की रानी बनीं. महाराजा ने उनके चित्रवाले सिक्के भी चलाए.
गौर करें कि यह उस जमाने की बात हो रही है जब आम महिलाओं का पढऩा-लिखना तो दूर घर से बाहर निकलना भी दुर्लभ होता था. उस दौर में तवायफों के पास सारे अधिकार होते थे. यहां तक कि वे चाहें तो शादी करके घर भी बसा सकती थीं और उनसे शादी करनेवाले को बहुत किस्मतवाला समझ जाता था. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लखनऊ की तवायफें राजकीय खजाने में सबसे ज्यादा कर जमा करनेवाले लोगों में से हुआ करती थीं. ये दस्तावेज लखनऊ नगर निगम के रिकॉर्ड रूम में आज भी रखे हुए हैं.
तवायफों का सबसे सुनहरा दौर शुरू हुआ 18वीं सदी के आखिर में जब मुगलिया सल्तनत बिखर रही थी. उस वक्त कई आजाद रियासतें बन चुकी थीं. इन रियासतों ने तवायफों को वित्तीय संरक्षण दिया. बदले में तवायफें उन रियासतों की कला और संस्कृति की संरक्षक बनीं. उनकी वजह से कथक, ठुमरी, गजल, दादरा जैसी कलाएं फली-फूलीं.
फिर ब्रिटिश हुकूमत शुरू हुई. अब चूंकि अंग्रेज अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उन्होंने भारत को जीता था तो वे इस संस्कृति को भारतीयों पर भी लादना चाहते थे. मगर उन्हें भी अहसास था कि यह काम आसान नहीं है. इसके लिए उन्होंने दो काम साथ-साथ किए. पहला यहां की शिक्षा पद्धति बदली और दूसरा भारतीय संस्कृति के कई प्रतीकों पर हमला किया जिनमें तवायफें भी एक थीं. पाश्चात्य सभ्यता से आकर्षित नवभारतीय मध्य वर्ग ने भी इस काम में उनका साथ दिया. यह प्रक्रिया भारत की आजादी के बाद भी जारी रही और इस प्रक्रिया में तवायफ की छवि बिल्कुल ही बदल दी गई.
'इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे 'बचानेÓ के लिए कई कोशिशें शुरू कींÓतवायफ शब्द दरअसल अरबी भाषा के शब्द तायफा का बहुवचन है, जिसका अर्थ होता है समूह. इतिहासकार कैथरीन बटलर ब्राउन के मुताबिक इस शब्द का पहले-पहल इस्तेमाल दरगाह कुली खान द्वारा 1739 में लिखे गए मरकबा-ए-दिल्ली में गायिकाओं और नर्तकियों के समुदायों के लिए देखने को मिलता है. मगर आम प्रचलन में यह शब्द 19वीं सदी में ही आया. ब्राउन कहते हैं कि तब तवायफों के दो वर्ग होते थे. पहले वर्ग में वे तवायफें थीं जो तहजीब की मिसाल और गाने में कमाल हुआ करती थीं और जिन्हें इस वजह से काफी क्षत हासिल होती थी. आमतौर पर ऐसी तवायफों का रिश्ता जिंदगी भर एक ही शख्स से होता था और वह होता था उनका संरक्षक. दूसरे वर्ग में वे तवायफें थीं, जिनमें गाने के मामले में उतनी प्रतिभा नहीं होती थी और इस कारण वे देह-व्यापार पर ज्यादा निर्भर होती थीं.
मगर 1857 के बाद यह स्थिति तब बदल गई, जब पूरे भारत में ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू हो गया. इस कानून के तहत सभी तवायफों को वेश्या का दर्जा देकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में रख दिया गया. कई अदालतों ने फैसले दिए कि नाचना और गाना तो बस नाम के लिए है और तवायफों की असली कमाई वेश्यावृत्ति से हो रही है. तवायफों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत के इस अभियान की एक अहम वजह यह भी बताई जाती है कि अंग्रेजों को पता चल गया था कि 1857 की क्रांति की योजना बनाने की जगह के रूप में कोठों की भी मुख्य भूमिका थी. अपनी पुस्तक द मेकिंग ऑफ कॉलोनियल लखनऊ में इतिहासकार वीना तलवार ओल्डनबेर्ग लिखती हैं, 'हालांकि यह साफ था कि ये महिलाएं लड़ाई करनेवाली नहीं थीं, मगर फिर भी उन्हें बागियों को भड़काने और उनकी आर्थिक सहायता करने की सजा मिली.Ó
ब्राउन बताते हैं, 'इस दौरान अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव तले उभरते मध्य वर्ग ने लगातार तवायफों को अनैतिक और पतनशील करार दिया और हिंदुस्तानी संगीत को उनसे 'बचानेÓ के लिए कई कोशिशें शुरू कीं.Ó राष्ट्रीय संगीत बनाने के लिए अभियान चला जिसका मकसद संगीत को मध्य वर्ग की महिलाओं के लिए अनुकूल बनाना था. ऐसे में इसे तवायफों और मुस्लिम संगीतकारों से अलग करने के प्रयास हुए.
तवायफों पर दोहरी मार पड़ रही थी. एक तरफ तो ब्रिटिश हुकूमत उन्हें परेशान कर रही थी और दूसरी तरफ उन्हें मिलनेवाला वह सामंती संरक्षण भी कम होता जा रहा था, जिससे कोठे और उनकी कलाएं फलती-फूलती थीं. ऐसे में तवायफों ने दूसरे विकल्पों की तरफ रुख किया. वह समय रेडियो का था जो उनके लिए एक राहत भरा विकल्प साबित हुआ. ऑल इंडिया रेडियो अपने शुरुआती दिनों में पूरी तरह से गानेवालियों पर निर्भर था. यही हाल रिकॉर्डिंग कंपनियों का भी था. ग्रामोफोन के दौर की जब शुरुआत हुई थी, तो गौहर जान जैसी तवायफों की धूम किसी सुपरस्टार से कम नहीं थी.
अब समाज में संगीत के नए संरक्षक थे जिन्होंने अपने दरवाजे तवायफों के लिए बंद कर दिए थे. ऐसे में तवायफों ने थियेटर, रेडियो और फिल्म जगत का रुख किया. किदवई कहते हैं, 'सिनेमा तवायफों के इतिहास का एक हिस्सा है, जिसमें तवायफी कला के ऐसे-ऐसे पहलू दिखाए गए हैं जो हम आगे कभी नहीं देख पाएंगे. इसने तवायफों को एक नई जिंदगी दी, स्क्रीन पर भी और उससे इतर भी.Ó सिद्धेश्वरी जैसी तवायफों ने तो अंग्रेजी में भी गाना सीखा.
वह समय बड़ा असाधारण था. इस दौरान ठुमरी कोठे से बाहर निकली. गायन की एक ऐसी अंतरंग और भावपूर्ण शैली जो हमेशा महिलाओं का क्षेत्र रही थी तवायफों के कोठों को छोड़ आगे बढ़ी. आधुनिकता की चकाचौंध के हमले से बचने के लिए उसे ऐसा करना पड़ा. अब वह कंसर्ट हॉल, रेडियो और सिनेमा में आ चुकी थी. इस नई और बदली हुई दुनिया में तवायफ को खुद ही गानेवाली या गायिका बनना पड़ा. इस रूपांतरण की सबसे मशहूर मिसाल हैं अख्तरी बाई फैजाबादी जो बाद में बेगम अख्तर के नाम से जानी गईं. छोटी उम्र में ही प्रसिद्ध होनेवाली अख्तरी बाई ने बाद में शादी कर ली थी और कई साल तक गाना भी छोड़ दिया था. जसा कि लेखिका रेग्यूला कुरैशी लिखती हैं, 'बाद में वे दुनिया के सामने पूरी तरह से बदले हुए रूप में आईं और एक देश की संगीत विरासत का राष्ट्रीय प्रतीक बन गईं.Ó
मगर इसके अपने नुकसान थे. नए भारत की आवाज बनने के लिए अख्तरी बाई को एक दोहरी जिंदगी जीनी पड़ी. इतिहासकार सलीम किदवई की मानें तो उनका आदर अपने अतीत के एक-एक टुकड़े से खुद को अलग कर लेने पर निर्भर था जबकि दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने की उनकी क्षमता की जड़ें काफी हद तक इसी अतीत से जुड़ी हुई थीं.तवायफों को मिले इस नवजीवन के कुछ हैरत भरे पहलू भी हैं. फिल्म अभिनेत्री नरगिस का ही मामला लें, जिनकी मां जद्दन बाई भी मशहूर तवायफ थीं. हालांकि अपनी बेटी को फिल्मों के लिए तैयार करते हुए जद्दन बाई ने उसे गाने के अलावा सब-कुछ सिखाया. यह भी एक विरोधाभास ही था कि जद्दन बाई जहां अपनी सुरीली आवाज के लिए जानी जाती थीं, वहीं उनकी बेटी नरगिस के स्टारडम में उनकी गायिकी की कोई भूमिका नहीं थी. यानी नए दौर के साथ तवायफ की भूमिका भी बदल रही थी. पहले नृत्य या मुजरा, फिर सिर्फ गायन और फिर केवल अभिनय. यहां पर हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि शायद ऐसा पार्श्वगायन की कला के उभरने से हुआ होगा.
तवायफों का दौर भले ही बीत गया था, मगर उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई थी. जैसा कि दीवान कहती हैं, 'मुजरे को हिंदी फिल्मों के जरिए फिर से जिंदा करने की कोशिश हुई है. मुंबई के बारों में लड़कियां तथाकथित भारतीय पोशाक घाघरा-चोली पहनती थीं. इसकी कुछ वजह यह है कि 'भारतीय नृत्यÓ के लिए लाइसेंस लेना आसान हो जाता है और यह भी कि यह दर्शकों को पसंद आती है. वहां पर जानेवाला आदमी यह कल्पना कर लेता है कि उसके सामने फिल्म स्टार रेखा नाच रही है.Ó हालांकि बार डांसरों और तवायफों का यह सतही दिखता रिश्ता वास्तव में कहीं गहरा है. संगीत और नृत्य के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन करनेवालीं अन्ना मोरकॉम बताती हैं कि मुंबई की बार डांसरों का 80 से 90 फीसदी हिस्सा डेरेदार, नट, बेडिय़ा और कंजर जैसी जातियों से आता है, जिनका परंपरागत पेशा ही इस तरह का रहा है. 2005 में मुंबई के डांस बारों में नृत्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब तक जारी है. इससे 75 हजार ऐसी लड़कियों की जीविका छिन गई.
20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय समाज में नृत्य को गलत नजर से देखा जाने लगा था. मध्य वर्ग ने नृत्य के खिलाफ चले अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई थी. कोठों पर हर तरफ से मार पड़ रही थी. ऐसे में तवायफों ने अपना सम्मान बनाए रखने के लिए मुजरा छोड़ा और गायन या अभिनय का विकल्प चुना. मगर विडंबना देखिए कि अब उसी मध्यवर्ग द्वारा नृत्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है. शामक डावर, प्रभुदेवा जैसे स्टार, बूगी-वूगी और डांस इंडिया डांस, नच बलिये जैसे टीवी शो की लोकप्रियता और रब ने बना दी जोड़ी जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं. तवायफें तो नहीं रहीं मगर सौभाग्य से उनकी कला उनके साथ ही खत्म नहीं हुई. शास्त्रीय संगीत और नृत्य को अब वही मध्य वर्ग संरक्षण दे रहा है जिसने कभी तवायफों का जीना मुश्किल कर दिया था.Ó