शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

शिक्षा अधिकार का छलावा कानून

बीते साल, नई सरकार के मानव संसाधन विकास मन्त्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को जब संसद के पटल पर रखा, तो उसकी कुछ खासियतों का खूब जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया। अब जबकि संसद की हरी झण्डी मिलने के बाद 1 अप्रैल से आम जनता के हाथों में यह कानून आने को है, सवाल है कि आम जनता द्वारा इस कानून का फायदा उठाया भी जा सकेगा, या नहीं?

जो परिवार गरीबी रेखा के नीचे बैठे हैं, उनके भविष्य की उम्मीद शिक्षा पर टिकी है, जो उन्हें स्थायी तौर पर सशक्त भी बन सकती है। सरकारी आकड़े कहते हैं कि 1 अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में 27.5: लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इस देश में 70% लोग ऐसे हैं, जो हर रोज जितना कमाते हैं उससे बहुत मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते हैं। इसी तबके के तकरीबन 20 करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इसलिए भारत में गरीबी और शिक्षा की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुए, 2001 में एक संविधान संशोधन हुआ, जिसमें यह भी स्पष्ट हुआ कि सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए राज्य और अधिक पैसा खर्च करेगी। मगर हुआ इसके ठीक उल्टा, राज्य ने गरीब बच्चों की जवाबदारी से बचने का रास्ता ढ़ूढ़ निकाला और सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाय गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों (२५% आरक्षण देकर) का रास्ता दिखाया। फिलहाल, राज्य सरकार एक बच्चे पर साल भर में करीब 2,500 रूपए खर्च करती है। अब खर्च की यह रकम राज्य सरकार प्राइवेट स्कूलों को देगी। मगर प्राइवेट स्कूलों की फीस तो साल भर में 2,500 रूपए से बहुत ज्यादा होती है। ऐसे में आशंका पनपती है कि प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए अलग से नियम-कानून बनाए जा सकते हैं और उनके लिए सस्ते पैकेज वाली व्यवस्थाएं लागू हो सकती हैं। यह आशंका केवल कागजी नहीं है, बल्कि भोपाल में एक प्राइवेट स्कूल ने ऐसा कर दिखाया है। जाहिर है, सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चे जब प्राइवेट स्कूलों में दाखिल होंगे तो उनके लिए आत्मविश्वास और ईज्जतदार तरीके से पढ़ पाना मुश्किल होगा। ऐसे में यह कह पाना भी फिलहाल मुश्किल होगा कि इन प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चे कितने दिन टिक पांऐगे, मगर तब तक शिक्षा का यह `अधिकार´, `खैरात´ में जरूर तब्दील हो जाएगा। दूसरी तरफ, बीते लंबे समय से प्राइवेट स्कूलों की फीस पर लगाम कसने की मांग की जाती रही है। मगर शिक्षा का ऐसा कानून तो प्राइवेट स्कूलों को अपनी मनमर्जी से फीस वसूलने की छूट को जारी रख रहा है। इस तरह से एक समान शिक्षा व्यवस्था, जो कि आत्म-सम्मान की बुनियाद पर खड़ी है, उसके बुनियादी सिद्धान्त को ही तोड़ने-मरोड़ने का मसौदा तैयार हुआ है।

जब शिक्षा के अधिकार के लिए विधेयक तैयार किया जा रहा था तब सरकारी स्कूलों में बिजली, कम्प्यूटर और टेलीफोन लगाने की बात भी थी। जिसे बाद में कतर दिया गया। ऐसे तो सरकारी स्कूलों की दशा सुधरने की बजाय और बिगड़ेगी। सरकारी स्कूलों को तो पहले से ही इतना बिगाड़ा जा चुका है कि इनमें केवल गरीब बच्चे ही पढ़ते हैं। फिर भी मिस्टर सिब्बल अगर कहते है कि प्राइवेट की साझेदारी से ही देश में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आ सकता है, तो उनका यह तर्क ठीक नहीं लगता। वह भूल रहे हैं कि अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा तो भारतीय सरकार की मुख्य विशेषता रही है। तभी तो तमाम आईआईटी और आईआईएम से जो बड़े-बड़े इंजीनियर और प्रबंधक निकल रहे हैं, वो पूरी दुनिया में अपनी जगह बना रहे हैं। जबकि हम जानते है कि यह दोनों संस्थान सरकारी हैं। इसी तरह केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय के उदाहरण भी हमारे सामने हैं- जिनसे निकलने वाले बच्चे, बाद में देश के बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी, सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़कर अच्छे जानकार साबित हुए हैं।

इसी तरह, शिक्षा का यह अधिकार केवल 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए है। जबकि हमारा संविधान 6 साल के नीचे के 17 करोड़ बच्चों को भी प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता रहा है। अर्थात यह कानून तो शिक्षा के अधिकार के नाम पर संविधान में पहले से ही दर्ज अधिकारों को काट रहा है। दूसरी तरफ, 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी कानून में जगह नहीं दे रहा है। वैश्विक स्तर पर बचपन की सीमा 18 साल तक रखी गई है, जबकि अपनी सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं और आयु-वर्गों में विभाजित है। इन सबके बावजूद वह 18 साल तक के बच्चों से काम नहीं करवाने के सिद्धान्त पर चलने का दावा करती है। मगर जब उस सिद्धान्त को कानून या नीति में शामिल करने की बारी आती है, वह पीछे हट जाती है। अगर कक्षाओं के हिसाब से देखे, तो यह अधिकार कम से कम पहली और ज्यादा से ज्यादा आठवीं तक के बच्चों के लिए है। अर्थात जहां यह आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को छोड़ रहा है, वहीं बच्चों को तकनीकी और उच्च शिक्षा का मौका भी नहीं दे रहा है। क्येंकि आमतौर से तकनीकी पाठयक्रम बारहवीं के बाद से ही शुरू होते हैं, मगर यह कानून तो उन्हें केवल साक्षर बनाकर छोड देने भर के लिए है। कुलमिलाकर, शिक्षा के अधिकार का यह कानून न तो `सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार´ देता है, न ही पूर्ण शिक्षा की गांरटी ही देता है।

दुनिया का कोई भी देश सरकारी स्कूलों को सहायता दिए बगैर सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य नहीं पा सकता है। विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैसे यूएस, यूके, फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का 6-7% हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं। जबकि अपने देश में 40 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर राष्ट्रीय बजट का केवल 3% हिस्सा ही खर्च किया जाता है। जबकि देश की करीब 40% बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं। जबकि देश के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। जबकि देश में 1.7 करोड़ बाल-मजदूर हैं। जबकि यह देश 2015 तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने की हालत में भी नहीं हैं। ऐसे में तो हमारी सरकार को बच्चों की शिक्षा में और ज्यादा खर्च करना चाहिए। मगर वह तो केन्द्रीय बजट (2009-10) से `सर्व शिक्षा अभियान´ और `मिड डे मिल´ जैसी योजनाओं को ही दरकिनार करने पर तुली है।

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