सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

कृषि कर्ज बना मर्ज

भारतीय स्टेट बैंक समेत सभी अर्धसरकारी बैंक और अनेक सहकारी बैंक के वेबसाइट देखिएं। सभी किसी न किसी तरह की योजनाओं के साथ किसान का मित्र होने का दावा करते दिखेंगे पर हकीकत कुछ और है। किसानों का हितैषी होने का दावा करने वाला हर बैंक किसानों को कर्ज देते वक्त वैसे ही भागता है, जैसे किसान को कोई संक्रमण की बीमारी हो। यकीन मानिए, यह सच है।

विश्वास न हो, कभी किसी बैंक की बेवबसाइट खोल कर देखिए। वेबसाइट पर दिखाई जाने वाली कृषि कर्ज की योजनाओं का लाभ लेने के संबंध में बैंक जाकर देखें। बैंककर्मी कैसे टाल-मटोल करेंगे। पहले पूछेंगे कि जमीन कितनी है? कर्ज वापसी की गारंटी में अचल संपत्ति कितनी और कैसी है? आप सोचते होंगे अन्नदाता किसान के पास जितनी जमीन है, उसकी गारंटी के एवज में बैंक कर्ज देंगे। नहीं। बैंक तभी भी कर्ज नहीं देंगे। कर्ज देने से पहले ही जमीन की कीमत का मूल्यांकन कराया जाएगा। ताकि किसान कर्ज वापस नहीं कर सके तो उसे निलाम कर वसूली हो सके। पर सरकारी बाबू से जमीन की कीमत का प्रमाणपत्र निकालना आसान बात नहीं है? कितना कठिन है, यह वे किसान बेहतर जानते हैं। सरकार की ओर से निर्धारित मूल्य और बाजार के मूल्य में काफी अंतर होता है? अनेक झमेले हैं। फिर भला किसान क्यों इन झमेले में पड़ समय नष्ट करें। साहूकार बेहतर हैं। भले ही वे ज्यादा ब्याज लेते हो, पर मौके पर धन देते हैं। गिरवी नहीं दिया तो भी कर्ज मिलता है। कर्ज माफी की घोषणाओं के बारे तो आने खूब सूना होगा। पर इसका राहत किसानों को सुनने में ज्यादा मिलता है। हकीकत कुछ होती है। कर्जमाफी में ऐसे-ऐसे पेचों के खांचे होते हैं, जिसमें अधिकतर किसान अयोग्य हो जाते हैं। आत्महत्या के लिए सबसे चर्चित महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र में हजारों किसानों को कर्जमाफी की योजना का कोई लाभ नहीं मिला है। बड़े और संपन्न किसानों ने लाभ प्राप्त किया है।

कृषि कर्ज के मामले में यह हालत देश के हर राज्यों में हैं। राष्ट्रपति से लेकर दूसरे अनेक प्रभावशाली बुद्धिजीवी भले की कृषि में निवेश की बात करते हों, पर लाभ देने वाली सरकारी मशीनरी की दुरुस्ती में उनका ध्यान नहीं जाता है। बैंक जानते हैं। कृषि कर्ज घाटे का सौदा है। इस उस तरह से नहीं बांटा जा सकता है, जिस तरह से दूसरे कर्ज बांटे जाते हैं। लिहाजा, बैंक कृषि कर्ज को अपने गले का फांस मानते हैं। किस न किसी बहाने से बैंक किसानों को ऋण देने में अपात्र घोषित कर देते हैं। इसके अलावा उन्हें जितना कर्ज चाहिए, उतना वे देते नहीं हैं। जैसे सरकार कहती है कि प्रति एकड़ 20 हजार रुपये का कर्ज दिया जा सकता है। पर तमाम कागजी औचारिकताएं पूरी करने पर बैंक बड़ी मुश्किल से 10 से 12 हजार रुपया ही कर्ज तय करते हैं। कम ब्याज की लालच में किसान इतनी ही राशि बैंक से स्वीकार कर लेते हैं। बाकी जरूरत के रुपये साहुकार से उंचे ब्याज पर ले लेते हैं। प्रकृति आधारित खेती से जो भी आय होती है, किसान पहले साहुकार का कर्ज देते हैं। बैंक का पूरा कर्ज भी नहीं उतरता है, कि तब तक दूसरी फसल का समय आ जाता है। नौबत फिर कर्ज लेने की आ जाती है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो इस फेरिहस्त में कर्ज लेने वाले देश के करीब 60 प्रतिशत से भी ज्यादा किसानों को बैंकों ने किसी न किसी तरह से अयोग्य घोषित कर रखा है। वे दूसरे बैंक के पास भी कर्ज लेने नहीं जा सकते हैं। सरकार लाख कोशिश करे ले, बैंक किसानों को कर्ज देना ही नहीं चाहती है। बैंक की किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाएं कागजों पर ही चलती है।

कृषि कर्ज से जुड़ी एक हालिया प्रकाशित खबरों के मुताबिक बैंक ऑफ बड़ौदा और कॉर्पोरेशन बैंक ने दिसंबर 2009 में समाप्त हुई तिमाही के दौरान कर्ज की प्रावधान योजनाओं के तहत कर्ज लेने वाले संभावित किसानों को लाभ नहीं मिला। सरकार ने किसानों को इस बात की अनुमति दी थी कि वे बकाया राशि के 75 फीसदी का भुगतान 3 किस्तों में करें और 25 प्रतिशत की राहत का लाभ उठाएं। इस योजना की अवधि दिसंबर 2009 तक बढ़ाई गई, लेकिन किसानों की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिलने से कुछ बैंकों ने वित्त मंत्रालय से कहा है कि किसानों को अपनी बकाया राशि के भुगतान के लिए जून तक का समय दिया जाए। साल 2009 में मॉनसून की स्थिति अच्छी नहीं होने से कारण ऋण की योजनाओं की समयावधि बढ़ाने का प्रस्ताव दिया गया था। इसे किसानों के प्रति बैंकों की सहानुभूति न समझे। यह बैंकों के चतुराई का प्रस्ताव था। बैंकों ने समयावधि बढ़ाए जाने की बात इसलिए की थी, क्योंकि उन्हें प्रावधान के तौर पर अतिरिक्त राशि अलग रखने की जरूरत होगी। चालू तिमाही के दौरान ही प्रावधान किए जाने की उम्मीद है। आंकड़े कहते हैं कि बैंक ऑफ बड़ौदा का कर्ज राहत योजना के तहत 211 करोड़ रुपये बकाया है। वहीं कॉरपोरेशन बैंक ने पिछली तिमाही में किसान कर्ज के लिए 12 करोड़ रुपये किसान कर्ज के लिए प्रावधान किया था। ऐसी हालत कमोबेश हर सरकारी बैंक की है। बैंक अधिकारी अधिकारिक रूप से कुछ भी बताने से बचते हैं। उनका कहना है कि कृषि कर्ज राहत योजना के बाद अधिकांश किसानों ने अपने बकाया राशि की किस्त नहीं चुकाई। ऐसा करने वाले बड़े किसान थे। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार ऐसा ही कोई पैकेज फिर से लेकर आएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। ज्यादा एकड़ की भूमि वाले बड़े किसान किसी न किसी तरह से कृषि कर्ज की कल्याणी योजनाओं का लाभ ले लेते हैं। कम जमीन वाला दीनहीन किसान हमेशा ही ठगा जाता है।

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