मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

कब धुलेगा कुपोषण का कलंक







मध्य प्रदेश के माथे पर कुपोषण एक ऐसा कलंक बन गया है जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपये का बजट मुहैया कराया है लेकिन खंडवा जिले के खालवा में जिस तेजी से कुपोषण फैला रहा है उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। खालवा में स्थिति नियंत्रण में है,जबकि हकीकत यह है कि कुपोषण के आंकड़ों से सरकारी मशीनरी सकते में है। जिले में कुपोषण के शिकार लगभग नब्बे बच्चे अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। कुछ ऐसे ही हालात प्रदेश के अन्य जिलों में भी हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी वर्तमान में राज्य में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक पाई गई है, जिनमें राज्य के झाबुआ, अलीराजपुर, मंडला, सीधी, धार और अनूपपुर जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7 से 15 प्रतिशत तक रही। हालांकि कुपोषण की स्थिति का पता लगाने के लिए बच्चों के वजन मापने के इस अभियान में कई तरह की खामियां और गड़बडियां भी सामने आईं, जिसके कारण प्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की वास्ततिक स्थिति सामने नहीं आ सकी। ऐसे में इन नतीजों पर पूरी तरह से भरोसा तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह राज्य सरकार और इसके कर्ता-धार्ताओं के लिए आंख खोलने वाले हैं। गड़बडियों में वजन मापने की मशीनों की कमी के कारण 30 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में दूसरे स्थानों से मशीने लाई गईं और कई मशीनें बिगड़ जाने से सुदूर ग्रामीण अंचलों में उन्हें सुधारा भी नहीं गया और मनमाने तौर पर बच्चों का वजन लिया गया। फिर भी इन ताजे परिणामों से भी यह सिध्द होता है कि मधयप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं।
कुपोषण को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में समेकित बाल विकास सेवाओं के लिए पूरे राज्य में जहां एक लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, जो कि राज्य के मात्र 76 फीसदी बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। मधयप्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में समेकित बाल विकास सेवा का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन तकरीबन 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
मध्यप्रदेश के माथे पर लगे चुके कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए प्रदेश सरकार जहां पानी की तरह पैसा बहा रही है वहीं आज भी मप्र में कुपोषण के नाम पर कुपोषित का नहीं, बल्कि किसी और का पोषण हो रहा है। हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ एक मिशन के तौर पर जिस तरह से 'अटल बाल अरोज्य एवं पोषण मिशनÓ की शुरुआत की है उससे तो यही लगता है कि यह 'पोषण मिशनÓ भी प्रदेश से कुपोषितों का पोषण करने के बजाय कहीं पोषितों के पोषण का जरिया न बन जाए। मिशन की शुरुआत जिस तरह से गरीब व भूखे को धयान में रखकर इसका नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया और शुभारंभ कार्यक्रम के दौरान प्रदेश का कोई कुपोषित बच्चों की नहीं, बल्कि प्रदेश के माननीयों और नौकरशाहों की टोली दिखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार यदि मिशन के शुभारंभ के अवसर पर स्वपोषितों के बजाय कुपोषितों को बुलाकर उनसे रूबरू होती तो शायद यह मिशन अपने मकसद में कामयाब होने के ज्यादा करीब रहता।
बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने मध्य प्रदेश के दस जिलों में किए गए सर्वे के आधार पर दावा किया है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। वहीं महिला बाल विकास मंत्री रंजना बघेल की माने तो वर्ष 2009-10 में 69 लाख 69 हजार से अधिक बच्चों का परीक्षण किया गया, जिनमें से 46 लाख 34 हजार से ज्यादा बच्चे सामान्य पाए गए, वहीं 23 लाख 34 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए। कुपोषित कुल 23 लाख 24 हजार बच्चों में से एक लाख 37 हजार बच्चे ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति यानी तीसरी व चौथी श्रेणी के हैं। उन्होंने बताया कि कुपोषण को रोकने के लिए पूरक पोषण आहार पर पिछले वित्त वर्ष में 51,166 लाख रुपए खर्च किए गए। वहीं क्राईका कहना है कि पूरे राज्य में आदिवासी समुदाय के 74 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चौंकाने वाला तथ्य तो यह है कि राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था के प्रदेश में इस सर्वे को पूरा करने वाले विकास संवाद के प्रशांत दुबे का कहना है कि सिर्फ रीवा जिले में अकेले 83 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था द्वारा राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों में कराए गए शोध के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले मिले हैं। भोपाल के लगभग 11 रिसेटमेंट कॉलोनियों से इक_ा किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यहां के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। जबकि इन्हीं इलाकों के 20 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
दिल्ली में क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है कि भले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज्य के सभी बच्चों के मामा होने का दावा करें लेकिन वे अभी भी राज्य के मासूम बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने में नाकाम साबित हुए हैं। राज्य में बच्चों के बेहतर देखभाल के लिए जरूरी आंगनबाड़ी का भी पूरी तरह इंतजाम नहीं करा पाए हैं। अभी भी पूरे मध्य प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत आंगनबाडिय़ों की कमी हैं। क्राई के एक अन्य सदस्य आरबी पाल का कहना है कि राज्य में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लगभग 74 फीसदी बच्चे भी कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
मध्यप्रदेश के बच्चे देशभर में वजन में सबसे कम और शारीरिक रूप से भी सबसे कमजोर हैं। केंद्र सरकार द्वारा एनीमिया और कुपोषण पर जारी आंकड़ों से यह शर्मनाक खुलासा हुआ है। प्रदेश के 60 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट (सामान्य से कम वजन) बताए गए हैं। इसके बाद झारखंड 56.6 और बिहार 55.9 प्रतिशत के साथ क्रमश:दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा हाल में राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद से कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 51.77 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। अति कुपोषित बच्चों की संख्या 8.34 फीसदी है। यानी अभी भी प्रदेश में सात लाख से अधिक बच्चे अति कुपोषित हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश में हर साल करीब 30 हजार बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक नहीं मना पाते और काल के गाल में समा जाते हैं। ये वो अभागे अबोधा बच्चे हैं, जो धारती पर पैर रखने के साथ ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जन्म के बाद पोषण आहार की कमी के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी कलंक की बदौलत मध्यप्रदेश देश के उन पिछड़े राज्यों में शुमार है, जहां शिशु मृत्युदर सबसे ज्यादा है। मधयप्रदेश में शिशुमृत्यु दर 70 प्रति हजार है। गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा की मार झेल रहे मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है, जबकि प्रदेश की भाजपा सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है। हालांकि पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार और केंद्र के अधिकृत प्रतिवेदनों के आधार पर जारी रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार को शर्म से झुकना पड़ा और उसने स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश में हर साल हजारों बच्चे कुपोषण के कारण बेमौत मारे जाते हैं।

पोषण आहार कार्यक्रम माफियाओं के कब्जे में

भारत सरकार के सहयोग से राज्य सरकार ने कुपोषण निवारण के लिए कई कार्यक्रम चला रखे हैं, लेकिन राज्य में पोषण आहार सप्लाई करने और उसका वितरण करने तक की पूरी प्रक्रिया माफियाओं के क़ब्ज़े में होने के कारण वास्तविक हितग्राहियों को पोषण आहार कार्यक्रम का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। सरकार ने इस योजना में अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े-छोटे मा़फिया तंत्र को प्रोत्साहित किया है, लेकिन अब यह मा़फिया तंत्र सरकार के नियंत्रण से बाहर होकर अपना हित साधन में लगा हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इन मा़फियाओं की उपस्थिति और करतूतों की भली प्रकार जानकारी है, इसीलिए उन्होंने इस कार्यक्रम को शहरी क्षेत्रों में सक्रिय मा़फियाओं से मुक्त रखने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री के स्पष्ट निर्देश थे कि भोपाल, इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे बड़े शहरों में एक समूह या प्रतिष्ठान को 15 से 20 आंगनवाडिय़ों में ही पोषण आहार आपूर्ति के लिए नियुक्त किया जाए। बाक़ायदा सरकारी फाइल चली और मुख्यमंत्री के इन निर्देशों पर महिला एवं बाल कल्याण विभाग की मंत्री और प्रमुख सचिव ने भी स्वीकृति की मोहर लगाई, लेकिन फाइलों में दबा यह आदेश शहरों तक नहीं पहुंचा हैं और इसलिए बड़े शहरों में सक्रिय पोषण आहार आपूर्ति करने वाले मा़फिया अभी भी खुलकर अपना खेल खेल रहे हैं और कुपोषित बच्चों तथा गऱीब माताओं के हिस्से को डकार रहे हैं।
पूरे प्रदेश में 69238 आंगनवाड़ी केंद्रों में पूरक पोषण आहार वितरण की व्यवस्था है, इनमें लगभग 50 लाख बच्चों और 10 लाख गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है। इन्हें 300 से 600 कैलोरी तक का प्रोटीन पोषण आहार के रूप में दाल-दलिया या अन्य खाद्य पदार्थ के रूप में दिया जाता है, लेकिन इस कार्यक्रम में कई खामियां, गड़बडिय़ा और घपले-घोटले होते रहे हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर पूरी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रदेश भर की आंगनवाडिय़ों में बच्चों और गर्भवती तथा धात्री माताओं को ताज़ा पका खाना देने के उद्देश्य से साझा चूल्हा योजना बनाई गई। मुख्यमंत्री ने योजना 15 जुलाई 2009 से शुरू करने के निर्देश दिए थे, पर योजना 1 नवम्बर से अस्तित्व में आ पाई इसके देर से शुरू होने का कारण भी दलिया मा़फिया और विभाग के कुछ अधिकारियों को माना जा रहा है।

विंध्य क्षेत्र में बच्चों की उपेक्षा

कुपोषण के कारण गऱीबी में जी रहे हज़ारों बच्चों की मौत की दर में सतना जि़ला अव्वल है। राज्य सरकार द्वारा बच्चों की सुरक्षा और सेहत के मामले में जारी किए गये कोई भी निर्देश सतना में प्रभावशील नहीं है। पिछले चार वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने राज्य में बच्चों की सुरक्षा पर हर साल औसतन दो रुपये और स्वास्थ्य पर पंद्रह रुपये खर्च किए हैं। एक ग़ैर सहकारी संगठन द्वारा जारी किये गए सर्वेक्षण रिपोर्ट से उपरोक्त तथ्यों का खुलासा हुआ है। वर्ष 2005 से लेकर 2009 तक क्रमश: 1603, 2060, 1688 और 1856 बच्चों की मौत सतना जिले में हुई है। वहीं रीवा और सीधी जिलों में क्रमश: इसी अवधि में 1051 और 573, 1324 एवं 1070, 972 एवं 1450, 702 एवं 1122 बच्चों की मौत हुई है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्येक बच्चे के स्वास्थ्य पर वर्ष 2004 से लेकर 2009 तक पंद्रह रुपया खर्च किया गया वहीं उड़ीसा राज्य द्वारा सत्रह रुपये और उत्तर प्रदेश द्वारा 60 रुपये व्यय किया गया। बाल सुरक्षा के मामले में प्रत्येक बालक पर सालाना खर्च मध्य प्रदेश में 01.94 रुपये और आंध्र प्रदेश द्वारा 27.54 रुपया किया गया। बलात्कार सहित बच्चों पर होने वाले अपराधों की संख्या भी प्रदेश में सबसे ज़्यादा है। राज्य सरकार द्वारा बाल शिक्षा पर 2004 से 2009 के मध्य प्रतिवर्ष प्रति बालक 1395 रुपये और इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश द्वारा 4894 रुपये व्यय किए गए।
ग़ैर सहकारी संगठन संकेत डेवलपमेंट ग्रुप द्वारा जारी रिपोर्ट में वर्ष 2001 से वर्ष 2009 तक राज्य सरकार द्वारा बच्चों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर बजट प्रावधानों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की शिक्षा शिशु विकास पर तुलनात्मक रूप से अधिक राशि खर्च की गई है जबकि बाल स्वास्थ्य और सुरक्षा को नजऱअंदाज़ किया गया है।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

रेत माफिया के कारण घडिय़ालों पर संकट






मध्य प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है. विंध्य क्षेत्र की सबसे बड़ी नदियों में शामिल की गई सोन नदी के तट पर बना घडिय़ाल अभ्यारण्य राज्य शासन की उपेक्षा और अनदेखी का शिकार बन चुका है. मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है.
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था. इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था. अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है. इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है. सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है.उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी. क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं.
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं. जिला चिकित्सालय वैढऩ में पदस्थ चिकित्सक डॉ. आर.बी. सिंह के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं. रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है.
मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है. सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है. सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं.
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है. मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है. अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है. श्री वर्मा के अनुसार शीघ्र ही वैज्ञानिक सर्वे कराया जाना प्रस्तावित है, इसके बाद भिन्न प्रजातियां एवं उनकी वास्तविक संख्या का आंकलन किया जा सकेगा.वरना बाघों की तरह इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं। घडिय़ालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडिय़ालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले। वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई डायनाशोर प्रजाति के विलुप्तप्राय घडिय़ालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है। अपने प्रजनन काल में घडिय़ालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वहीं चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों की अनदेखी से घडिय़ालों के इन नवजात बच्चों को बचा पानी काफी कठिन प्रतीत हो रहा है।
घडिय़ालों की हैरत अंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर क्लोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण की बजह से घडिय़ालों की मौत को कारण माना। वहीं दबी जुबां से घडिय़ालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडिय़ालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया। घडिय़ालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडिय़ालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर संकट के प्रति चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारी लगातार अनदेखी करते रहे हैं। घडिय़ालों की मौत की खबर भी इन अधिकारियों को हरकत में नहीं ला सकी और अब जबकि घडिय़ालों के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इटावा जनपद से गुजरने वाली चंबल में बड़ी संख्या में घडिय़ालों के बच्चों ने जन्म लिया है तो अभी तक इनकी सुरक्षा के लिए सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों ने कोई उपाय नहीं किए हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को जोडऩे वाली चंबल नदी में घडिय़ालों के बच्चों को नदी के किनारे बालू पर रेंगते हुए और नदी में अठखेलियां करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इतनी बड़ी संख्या में घडिय़ालों के प्रजनन के बारे में जानकर अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव प्रेमियों में उत्साह है तो वहीं इनकी सुरक्षा को लेकर चिंता भी जताई जा रही है। वन्य जीव प्रेमियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में मानसून में चंबल के बढ़ते वेग में कहीं यह बच्चे बह कर मर न जाएं परंतु इसके बावजूद भी चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों को इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है।
नेचर कंजर्वेसन सोसायटी फार नेचर के सचिव एवं वन्य जीव विशेषज्ञ डा. राजीव चौहान बताते हैं कि पंद्रह जून तक घडिय़ालों के प्रजनन का समय होता है जो मानसून आने से आठ-दस दिन पूर्व तक रहता है। घडिय़ालों के प्रजनन का यह दौर ही घडिय़ालों के बच्चों के लिए काल के रुप में होता है क्योंकि बरसात में चंबल नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप घडिय़ालों के बच्चे नदी के वेग में बहकर मर जाते हैं। इन बच्चों को बचाने के बारे में वह उपाय बताते हैं कि यदि इन बच्चों को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में संरक्षित कर तीन साल तक बचा लिया जाए तो इन बच्चों को फिर खतरे से टाला जा सकता है। वे कहते हैं कि महज दस फीसदी ही बच्चे बच पाते हैं जबकि 90 फीसदी बच्चों की पानी में बह जाने से मौत हो जाती है। वहीं डा.चौहान यह जानकर चौंकते हैं कि घडिय़ालों के बच्चों की संख्या हजारों में है। वह संभावना जताते हैं कि विगत दिनों इस प्रजाति को बचाने के लिए 840 बच्चों को नदी के ऊपरी हिस्से में छोड़ा गया था। कहीं ऐसा न हो कि यह वही बच्चे नीचे उतर आए हों परंतु नदी के तट पर जिस प्रकार से टूटे हुए अंडे नजर आते हैं उससे साफ है कि इन बच्चों ने अभी हाल ही में जन्म लिया है।

कैसे हुई संकट की शुरूआत?
देश मे दो घाटियां है,एक कश्मीर घाटी एवं एक चंबल घाटी। कश्मीर घाटी जहां आतंकवादियों के आंतक से ग्रस्त है। वहीं चंबल घाटी को खूंखार डकैतों की शरण स्थली के रूप मे दुनिया भर मे ख्याति हासिल है। इसी चंबल घाटी मे खूबसूरत नदी बहती है चंबल। जिसमें मगर, घडिय़ाल, कछुये, डाल्फिन समेत तमाम प्रजातियों के वन्यजीव स्वच्छंद विचरण करते है। इतना ही नहीं चंबल की खूबसूरती में चार-चांद लगाने के लिये हजारों की संख्या मे प्रवासी पक्षी भी आते है, लेकिन पिछले दिनो दुर्भल घडिय़ालों की मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब डाल्फिन एवं मगर तक आ पहुंचा है। खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद चंबल घाटी के वन्यजीवों पर जो संकट आया है। ऐसा लगता है कि खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद सक्रिय अधिकारियों ने चंबल की खूबसूरती को दाग लगा दिया है। राजस्थान से प्रवाहित चंबल मध्य प्रदेश होते हुये उत्तर प्रदेश के इटावा के पंचनंदा तक इतनी खूबसूरत है जहां एक साथ मगर, डाल्फिन और घडिय़ाल रहते है और यहां हजारों की तादात मे घडिय़ाल मर रहे थे. उस समय यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कहीं ऐसा तो कहीं ऐसा न हो कि चंबल की आने वाले दिनों मे खूबसूरती समाप्त हो जायें।
चंबल की खूबसूरती इसलिये भी बढ़ जाती है क्योकि यहां की रीजनल डायवर्सिटी अपने आप में खूबसूरत है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुन्दरता के कारण हजारो विदेशी पक्षी आते है, जिनकी 200 से अधिक प्रजातियां देखने को मिलती है। इसीलिए इस क्षेत्र को पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया था. लेकिन इटावा मे पिछले साल दिसम्बर के पहले सप्ताह मे चंबल नदी मे घडिय़ालों के मरने की खबरो ने सनसनी फैला दी। हालांकि पूछने पर वन अधिकारियों ने इससे साफ इंकार किया कि किसी घडिय़ाल की मौत हुई है. लेकिन वन पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फार कन्जरवेशन आफ नेचर के सचिव डा.राजीव चौहान ने इन मृत घडिय़ालों को खोज ही नही निकाला बल्कि वन अधिकारियों की उस करतूत को भी उजागर कर दिया जो उन्होने बेजुबान घडिय़ाल की मौत के बाद किया था।
अगर दुर्लभ घडिय़ालों, डाल्फिन एवं मगरों की मौत की बात करें तो कही न कही चंबल मे अधिकारियों का साम्राज्य हावी है और उन्हीं की यह करतूत है जो चंबल मे वन्यजीवो पर संकट आ खड़ा हुआ है। यह कब दूर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
कभी इटावा में चंबल नदी से इसी तरह से एक सौ से अघिक घडियाल भटक कर यमुना और दूसरी नदियों में चले गए थे, जो आज तक वापस नहीं लौट सके हैं। इसका कोई जबाव ना तो वन अधिकारियों के पास है, और ना ही इस अभियान में लगे विषेशज्ञ इस बारे में जानकारी देने तैयार हो रहे हैं। इनमें तो कई मर भी गए, लेकिन वन विभाग आज तक नहीं चेता है। इस बात को तब बल मिलता है, जब यमुना नदी से एक मरा हुआ घडियाल मिला। उसके बारे में कहा जा रहा है कि मछली का शिकार करने वालों ने इसे मार कर फेंक दिया है। इलाकाई लोगों के साथ पर्यावरणविदों का भी यही मानना है। वन्य जीव विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि चंबल नदी से पलायन कर यमुना नदी में पहुंचे 100 से अधिक घडियालों की जान अब शिकारियों के हाथ में हैं।
जिस तरह से चंबल के बजाय अब यमुना नदी से मरे हुए घडियाल बाहर निकल रहे हैं, उससे एक बार फिर से घडियालों की प्रजाति पर संकट सा आता नजर आ रहा है। यमुना नदी में मरे हुए घडियाल का परीक्षण करवा कर सैंपल बरेली स्थित आईबीआरआई लैब को भेज दिए गए हैं। अधिकारी घडियालों पर आने वाले हर प्रकार के संकट से निबटने के लिए तत्पर नजर आ रहे हैं। घडियाल को बचाने की दिशा में तमाम संगठन भी अधिकारियों के साथ सक्रिय नजर आ रहे हैं। इन सबके बावजूद, इतना तो तय है कि विलुप्त प्रजाति के इन घडियालों को बचाने की दिशा में चल रहा अभियान सही ढंग से काम नहीं कर रहा है, तभी तो घडियाल एक के बाद एक करके भटक रहे हैं।

बीहड़ों में तब्दील होती उपजाऊ भूमि

कहने को तो भारत कृषि प्रधान देशों की श्रेणी में आता है, इसके बावजूद हम गेहूं से लेकर अन्य खाद्य पदार्थों का आयात करने पर मजबूर हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे पास अन्न पैदा करने के लिए उपजाऊ भूमि और अन्य साधनों की कमी है. यहां तो 800 एकड़ कृषि योग्य भूमि ही बीहड़ों में तब्दील होकर बर्बाद हो रही है. चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है.
मनुष्य धरती की संतान है, इसलिए मनुष्य सब कुछ पैदा कर सकता है, लेकिन धरती पैदा नहीं कर सकता है. दुनिया में, और खासकर हमारे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. अनुमान है कि भारत की जनसंख्या 2020 तक 125 करोड़ हो जाएगी. ऐसे में धरती की कमी हमारे लिए एक समस्या बन सकती है. ऐसे में बर्बाद हो रही या उजाड़ हो रही बीहड़ भूमि को समतल बनाकर उसे मनुष्य के काम आने लायक रूप देना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में चंबल नदी के कच्छार में एल्यूवियल मिट्टी के कारण लाखों हेक्टेयर भूमि उबड़-खाबड़ होकर बीहड़ के रूप में व्यर्थ पड़ी हुई है. इसके साथ ही भूमि में कटाव के कारण हर साल हज़ारों एकड़ उपजाऊ भूमि बीहड़ में तब्दील हो रही है. मध्य प्रदेश में 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ भूमि है, जिसका अधिकांश भाग मध्य प्रदेश के उत्तरी अंचल में बसे जि़ला भिंड, मुरैना एवं श्योपुर में स्थित है. भिंड मुरैना एवं श्योपुर जि़लों में ही हर वर्ष लगभग 800 हेक्टेयर भूमि बीहड़ के रूप में परिवर्तित हो जाती है जिसकी अनुमानित क़ीमत लगभग 400 करोड़ रुपये है. उत्तर मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश राजस्थान के लगे हुए जि़ले इटावा, उरई, जालौन, आगरा, धौलपुर, भरतपुर आदि का यह अंचल यहां डाकुओं के आतंक से जाना जाता है. वहीं दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से यह अभिशाप बीहड़ बाहुल्य क्षेत्र के नाम से भी जाना जाने लगा है.
सामाजिक एवं सर्वोदय कार्यकर्ताओं के प्रयासों से इस क्षेत्र में डाकुओं द्वारा आत्म समर्पण के कारण मुक्ति मिल जाने से एक नई आशा की किरण का उदय हुआ है. परंतु इस आशा की किरण का पूर्ण लाभ इस क्षेत्र की जनता को तब तक प्राप्त नहीं होगा, जब तक सदियों से बने बीहड़ों को कृषि भूमि एवं वन भूमि में नहीं बदल दिया जाता, जिसकी अभी तक गंभीर उपेक्षा हुई है. चंबल संभाग के भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में चंबल, सिंध, क्वारी, बेसली, सीप, सोन, कूनों एवं इनकी सहायक नदियों द्वारा अत्यंत उपजाऊ भूमि को बीहड़ों में परिवर्तित कर दिया गया है. संभाग के 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 3.10 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ों में रुपांतरित हो चुकी है जो कि संभाग के संपूर्ण क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत है, जिसकी क़ीमत खरबों रुपये हैं. यह भी अनुमानित है कि लगभग 800 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि प्रति वर्ष बीहड़ में बदलती जा रही है. यदि बीहड़ भूमि को बीहड़ बनने से नहीं रोका गया तो अगली शताब्दी तक भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़ले पूरी तरह से बीहड़ में परिवर्तित हो जाएंगे एवं इस बीहड़ की सीमा ग्वालियर एवं दतिया जि़लों को छूने लगेगी.
चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है. भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में अलग-अलग गहराई के बीहड़ हैं. 0 से 1.5 मीटर गहराई के 0.738 लाख हेक्टेयर, 1.5 से 5 मीटर के 1.265 लाख हेक्टेयर, 5 मीटर से 10 मीटर की गहराई के 0.615 लाख है एवं 10 मीटर से अधिक गहराई के 0.489 लाख हेक्टेयर बीहड़ भूमि अनुमानित है. पूर्व ग्वालियर स्टेट के बंदोबस्त के अनुसार मुरैना तहसील का बीहड़ का क्षेत्रफल तहसील के कुल क्षेत्रफल का 21 प्रतिशत था, जबकि वर्ष 1989 में यह बीहड़ क्षेत्र लगभग दो गुना होकर 42 प्रतिशत हो गया था. इसी प्रकार भिंड तहसील के कुल क्षेत्रफल का 49 प्रतिशत बीहड़ क्षेत्रफल है जो कि अब बीहड़ बनने की तीव्र रफ्तार एवं बीहड़ रोकने के गंभीर उपाय न होने से अब यह बीहड़ क्षेत्रफल लगभग तिगुना हो गया होगा.
50 गांवों का अस्तित्व ख़तरे में
चंबल, कछार में अब तक भूमि के कटाव से जो नुकसान हो चुका, उसे अनदेखा किया जाता रहा है, लेकिन आगे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, यह चिंता का विषय है. जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के भूगर्भ शास्त्र विभाग द्वारा किए गए शोधकार्य से पता चला है कि चंबल घाटी में जिन 213 गांवों का अध्ययन किया गया, उनमें से 14 गांव तो उजडऩे की कगार पर हैं, क्योंकि बीहड़ इन गांवों से केवल 100 मीटर दूर रह गए हैं और ये बीहड़ कभी भी फैलकर इन गांवों को लील सकते हैं. इनके अलावा 23 गांवों में बीहड़ अभी 200 मीटर दूर हैं और 13 गांवों में 500 मीटर दूर बने बीहड़ इन गांवों को लीलने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. सेटेलाईट चित्रों से इन गांवों की तस्वीर आई है.
भूगर्भ अध्ययन शाला, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के विभाग प्रमुख प्रोफेसर एसएन महापात्रा का कहना है कि शोधकार्य से यह पता चला है कि चंबलघाटी में हो रहे मिट्टी के अपरदन की वज़ह से लगभग 50 गांवों पर बीहड़ में तब्दील होने का ख़तरा मंडरा रहा है. अब इस बात को लेकर शोध किया जा रहा है कि मिट्टी के कटाव को कैसे रोका जा सके.
बीहड़ के नज़दीकी गांव खुशहाली और समृद्धि से कोसो दूर हैं. मिट्टी के लगातार कटाव से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई है. कृषि योग्य भूमि लगातार बीहड़ों में बदलती जा रही है, ऐसे में इन गांवों के किसानों का जीवन काफ़ी कठिन और समस्याग्रस्त हो गया है. इस समस्या से चिंतित शोधकर्ता अब इस अध्ययन में जुटे हैं कि ऐसा कौन सा उपाय किया जाए कि घाटी का कटाव रुक जाए और हज़ारों घर बर्बाद होने से बच जाए. हालांकि शोधकर्ताओं को भरोसा है कि वे जल्दी ही किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे, जिससे इन गांवों को बीहड़ बनकर उजडऩे से रोक लिया जाएगा. मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, आर्गेनिक कार्बन, पोटेशियम, पीएच जिसमें हाईड्रोजन आयंस होते हैं. मृदा की अम्लीय एवं क्षारीय स्थिति को स्पष्ट करते हैं. बारिश होने पर मृदा में मौजूद ये पोषक तत्व बह जाते हैं.
पर्यावरण संकट की दृष्टि से इटावा जिला निरंतर संवेदनशील होता जा रहा है। यहां की चंबल, यमुना और क्वारी नदी के बीच के गांव बंजर बीहड़ का रूप लेते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग पांच सौ हैक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बीहड़ों में तब्दील हो रही है। लकड़ी का भारी कटान अगर इसी तरह होता रहा तो यहां का पूरा क्षेत्र रेगिस्तान हो जायेगा। लकड़ी कटान का धंधा बेखौफ जारी है।
जिन माननीयों के हाथों पौधे रोपे जाते हैं वह उस दिन के बाद कभी उसे मुड़कर भी नहीं देखते सबसे दु:खद बात तो यह है कि जो संस्थायें पौधरोपण कराती हैं वह भी उस दिन के बाद एक दिन भी पानी डालने कभी नहीं जाती। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो पौधों के जीवन रक्षा की किसी को चिंता नहीं है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष करोड़ों पौधे रोपे जाते हैं और हजारों भी पेड़ नहीं बन पा रहे। राज्य सरकार ने तो गत वर्षो में 31 जुलाई को प्रदेश भर के स्कूलों को लक्ष्य देकर पौधे रोपने का काम कराया था लेकिन यह अभियान भी समारोह बनकर रह गया। स्कूलों में हरियाली कितनी बढ़ी यह किसी से छिपा नहीं है।
चंबल यमुना क्षेत्र में बढ़ते बीहड़ से चिंतित होकर दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने हैलीकाप्टर से विलायती बबूल के बीज जमीन पर गिरवाये थे लेकिन यह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं हो सका। इस क्षेत्र की जमीन पर बेशरम ने पैर जमाये जिसने जमीन की उत्पादन क्षमता को निरंतर कमजोर ही किया। अब जब सड़कों का जाल बिछ रहा है ईट भट्टे बढ़ रहे हैं तब उपजाऊ भूमि पर संकट स्वाभाविक ही है।
चंबल क्षेत्र में बीहड़ों का विस्तार गांव के गांव लीलता जा रहा है. इस अंचल के भिंड, मुरैना और श्योपुर जिलों में हर साल पन्द्रह सौ एकड़ भूमि बीहड़ में बदल रही है. इन जिलों की कुल भूमि का 25 फीसद हिस्सा बीहड़ों का है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चंबल नदी घाटी क्षेत्र में 3000 वर्ग किलोमीटर इलाके में बीहड़ों का विस्तार है. इन जिलों की छोटी-बड़ी नदियां जैसे बीहड़ों के निर्माण के लिए अभिशप्त हैं.

चंबल में 80 हजार, कुआंरी में 75, आसन में 2036, सीप में 1100, बैसाली में 1000, कूनों में 8072, पार्वती में 700, सांक में 2122 और सिंध में 2032 हेक्टेयर बीहड़ हैं. बीते आठ सालों में करीब 45 प्रतिशत बीहड़ों में वृद्धि दर्ज की गई है. इन बीहड़ों का जिस गति से विस्तार हो रहा है, उसके मुताबिक 2050 तक 55 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बीहड़ों में तब्दील हो जाएगी. इन बीहड़ों का विस्तार एक बड़ी आबादी के लिए विस्थापन का संकट पैदा करेगा.

जमीन की सेहत अब प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानव उत्सर्जित कारणों से ज्यादा बिगड़ रही है. पहले भूमि का उपयोग रहवास और कृषि कार्यों के लिए होता था, लेकिन अब औद्योगीकरण, शहरीकरण बड़े बांध और बढ़ती आबादी के दबाव भी भूमि को संकट में डाल रहे हैं. जमीन का खनन कर उसे छलनी किया जा रहा है, तो जंगलों का विनाश कर बंजर बनाए जाने का सिलसिला जारी है. जमीन की सतह पर ज्यादा फसल उपजाने का दबाव है तो भू-गर्भ से जल, तेल व गैसों के अंधाधुंध दोहन के हालात भी भूमि पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं. पंजाब और हरियाणा में सिंचाईं के आधुनिक संसाधन हरित क्रांति के उपाय साबित हुए थे, लेकिन ज्यादा मात्रा में पानी छोड़े जाने के कारण कृषि भूमि को क्षारीय भूमि में बदलने के कारक सिद्ध हो रहे हैं.

कोयला से काला




कोयला जितना काला है उससे अधिक इस धंधे में लगे लोग काले हैं। ब्लैक डायमंड के नाम से प्रख्यात कोयले के काले कारोबार ने रातों ही रात में कईयों को फर्श से उठाकर अर्श पर ला खड़ा किया है। कोयले के कारोबार में मापदंडों का जिस प्रकार उल्लंघन हो रहा है उससे पर्यावरण भी दूषित हो रहा है। सिंगरौली में 22 सितंबर को ग्रीनपीस द्वारा सार्वजनिक सभा में एक रिपोर्टे जारी की गई। रिपोर्टर को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट देश की विधुत राजधानी में छाए प्रदुषण एवं विनाश को बेनकाब करती है।
चारों तरफ कोयला की धूल के बीच पुरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है।उन्होंने अपनी जमीन विधुत उत्पादन के लिए दी जो उन तक नहीं पहुँचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं तथा स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगो की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।
यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हाशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दुसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का सम्पूर्ण पारिस्थिकी तन्त्र खतरे में है। फिर भी महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। कोयला से काला' नामक एक रिपोर्ट आज बैधन की एक सार्वजनिक सभा में जारी की गई। इस सभा में कोयला खनन एवं थर्मल पावर प्लांटों से प्रभावित गांवों के लोग और वैसे लोग जिनके गांवों में खनन या औद्योगिक परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, उपस्थित थे।
यह रिपोर्ट ग्रीनपीस द्वारा जुलाई 2011 में गठित एक तथ्य आंकलन दल (फैक्ट फाइंडिंग मिशन)(1) का नतीजा है। इसमें पर्यावरण एवं इस क्षेत्र के लोगों पर अनियंत्रित कोयला खनन तथा ताप बिजली संयंत्र (थर्मल पावर प्लांटों) के प्रभाव को दर्ज किया गया है। इस तथ्य आंकलन दल को देश की विद्युत राजधानी के तौर पर प्रोत्साहित, सिंगरौली, में कोयला खनन के कारण हो रहे मानवीय उत्पीडऩ एवं पर्यावरण के विनाश की सच्चाई को सामने लाने के लिए गठित किया गया था।
रिपोर्ट को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा, ''सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट, देश की विद्युत राजधानी माने जाने वाले सिंगरौली, में छाए प्रदूषण एवं विनाश को बेनकाब करती है। चारों तरफ कोयले की धूल के बीच पूरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है। उन्होंने अपनी जमीनें विद्युत उत्पादन के लिए दीं जो उन तक नहीं पहुंचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं है तथा उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगों की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।''
इस तथ्य आंकलन दल के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, खासकर मंत्रियों के समूह (जीओएम) द्वारा कोयला खनन के लिए वन प्रखंडों के आवंटन की स्वीकृति के संदर्भ में। केवल सिंगरौली में ही, माहन, छत्रसाल, अमेलिया एवं डोंगरी टाल-2 के वन प्रखंडों को पहले 'वर्जितÓ (नो-गो) की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब इस विषय में मंत्रियों के समूह की ओर से स्वीकृति की प्रतीक्षा की जा रही है। हाल ही में कुछ खबरों के अनुसार मंत्रियों के समूह द्वारा 'वर्जितÓ व 'गैर वर्जितÓ (गो) क्षेत्र का सीमांकन रद्द किया जा सकता है। जब तक अक्षत वनों का सीमांकन नहीं किया जाता, इन वनों और लोगों की जमीन पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ता रहेगा।
आधिकारिक तौर पर, 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से सिंगरौली क्षेत्र में 5,872.18 हेक्टेयर वन का गैर-वन्य उपयोग के लिए विपथन किया जा चुका है। सिंगरौली के वन प्रमंडल अधिकारी के अनुसार और भी 3,299 हेक्टेयर वन विपथन के लिए प्रस्तावित है। इसमें वर्तमान एवं प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधियों के कारण वन-भूमि के अतिक्रमण के विभिन्न उदाहरण शामिल नहीं हैं।
फिलहाल, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से माहन के वनों को एस्सार एवं हिंडाल्को के खनन स्वामित्व में हस्तांतरित करने के लिए बेहद दबाव दिया जा रहा है। पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री, जयराम रमेश ने संकेत दिए थे कि इन वनों में खनन नही किया जाना चाहिए। माहन में उपलब्ध कुल 144 मिलियन टन का कोयला भंडार हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं एस्सार पावर लिमिटेड के ताप बिजली संयंत्र के लिए केवल 14 वर्षों तक कोयले की आपूर्ति के लायक हैं।
ग्रीनपीस इंडिया की नीति अधिकारी प्रिया पिल्लई ने आगे कहा, ''यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दूसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं। फिर भी, महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। वन भूमि के और अधिक विपथन के पहले सरकार को दूसरे क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन करना चाहिए। कंपनियों को भी चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की आजीविका पर ध्यान दें, मानवाधिकारों पर हो रहे असर का आंकलन करें, भूमिहीनों एवं वन-आश्रित समुदायों की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्वास की व्यवस्था करें।''
तथ्य आंकलन दल ने 9 एवं 10 जुलाई 2011 को सिंगरौली के उत्तर प्रदेश वाले इलाके में चिलिका दाड, दिबुलगंज (अनपरा थर्मल पावर प्लांट के निकट), बिलवाड़ा और सिंगरौली क्षेत्र के मोहर वन प्रखंड, अमलोरी एवं निगाही खदानों का दौरा किया। इस दल ने जनपद प्रशासन एवं कोल इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधियों से भी मुलाकात की।
रिपोर्ट में शामिल सूचनाओं के अनुसार देश में चुनिंदा 88 अति प्रदूषित औद्योगिक खण्ड के विस्तृत पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक पर सिंगरौली नौवें स्थान पर है। इसके 81.73 अंक यह साफ-साफ संकेत करते है कि यह क्षेत्र खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। दरअसल, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (पीसीआरआई) की रिपोर्ट साफ-साफ संकेत करती है कि कोयला खनन के कारण सिंगरौली क्षेत्र में भू-जल का प्रदूषण हुआ है।
इसके अतिरिक्त, ' इलेक्ट्रिसिटे द फ्रांसÓ की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्पादन के लिए निम्नस्तरीय कोयले के उपयोग के कारण सिंगरौली के थर्मल पावर प्लांटों से हर साल लगभग 720 किलोग्राम पारा (मर्करी) निकलता है। अनेक गांवों में और यहां तक कि नॉदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के उच्च अधिकारियों के द्वारा भी, तथ्य आंकलन दल को बताया गया कि चूंकि उनका दौरा बरसात के मौसम में हुआ है इसलिए वायु का गुणवत्ता स्तर काफी बेहतर था। सामान्यत:, और खासकर गर्मी के महीनों में वायु की गुणवत्ता का स्तर काफी खराब होता है। राख के तालाबों और खदानों के आस-पास रहने वाले ग्रामवासियों ने कहा कि उन महीनों में उनका जीवन नर्क हो जाता है। इसके फलस्वरूप, सिंगरौली गांव के लोगों को अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं जिनमें सांस की तकलीफ, टीबी, चर्मरोग, पोलियो, जोड़ों में दर्द और अचनाक कमजोरी तथा रोजमर्रा की सामान्य गतिवधियों को करने में कठिनाई जैसी अनेक समस्याएं हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि किस तरह विभिन्न खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों ने ग्रामीण जीवन को नुकसान पहुंचाया है लेकिन इन गतिविधियों के संचालकों से किसी ने भी स्वास्थ्य सेवा एवं बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करने की जिम्मेदारी नहीं ली है। उदाहरण के लिए, सोनभद्र जनपद (उत्तर प्रदेश में) के शक्तिनगर में चिलिका दाड गांव को लें जो नैशनल कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के मिट्टी के ढेर, कोयला ढोने वाली रेलवे लाइन और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के पावर प्लांट से घिरा है और यहां जल को प्रदूषित करने, वायु को प्रदूषित करने एवं स्वीकृत मानदंड से अधिक शोर पैदा करने में इनमें से हरेक की भूमिका है।
केवल अकेले चिलिका दाड में ही 600 ऐसे परिवार हैं जिन्हें इन विभिन्न परियोजनाओं के कारण अनेक बार विस्थापित होना पड़ा है। इन निवासियों को आवासीय पट्टे दिए गए केवल उस पर रहने के अधिकार के साथ। वे न तो इस जमीन को बेच सकते हैं और न ही इसके एवज में कोई कर्ज ले सकते हैं। अब इस गांव से महज 50 मीटर की दूरी पर भारी संख्या में खदानों, बेरोजगारी, उच्चस्तरीय प्रदूषण एवं खनन विस्फोट का खतरा झेल रहे ग्रामीणों के सामने बदहाली को झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
तथ्य आंकलन दल इस बात की सिफारिश करता है कि जब तक अन्य क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन न हो जाए तब तक के लिए सिंगरौली के वन क्षेत्र में सभी खनन गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दल यह भी सिफारिश करता है कि सभी खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों का व्यापक मानवाधिकार आंकलन किया जाए और लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कारवाई की जाए। इस दल ने महसूस किया है कि दशकों से सिंगरौली में प्रभावित जन समुदायों की आजीविका का सवाल बुनियादी तौर पर अनुत्तरित ही रहा है। इस मोर्चे पर तथ्य आंकलन दल ने सुझाव दिया है कि लोग अपनी पूर्ववर्ती आजीविका को जारी रख सकें, इस पर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भूमि-आधारित क्षतिपूर्ति व्यवस्था लागू की जाए जिसके माध्यम से अधिग्रहीत की गई कृषि भूमि के बदले में किसी दूसरी जगह कृषि भूमि प्रदान की जाए।

माफियाओं ने खोद डाला जंगल




मध्य प्रदेश सरकार की दोहरी नीति के कारण प्रदेश के जंगल तेजी से खत्म हो रहे हंै। एक तरफ तो सरकार जंगल बचाने और बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इन्हीं जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमा रहे हैं। सरकार की इस दोहरी नीति के कारण जंगल पर एक बार फिर माफिया हावी हो गया है।
आलम यह है कि प्रदेश में तीन साल के अंदर 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन पर वैध रूप से खदानें खुद गई हैं तो माफियाओं ने सालभर में करीब 40000 अवैध गड्ढे खोद डाले हैं। इतना ही नहीं इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला जा चुका है। इस बात का खुलासा वन महकमे की जांच रिपोर्ट से होता है। बावजूद इसके वन महकमे ने पूरे मामले पर चुप्पी साध रखी है। हद तो यह है कि जांच रिपोर्ट पर कार्रवाई के बजाय उसे दबा दिया गया है। इस पूरे मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि मैदानी अमले की लगातार रिपोर्ट के बाद भी आला अधिकारियों ने जंगल को बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। वन महकमे का यह रवैया माफिया से उसकी मिलीभगत का संकेत देता है। क्योंकि आला अधिकारियों ने जंगल में माफिया की गतिविधियों की रिपोर्ट देने वाले ग्वालियर के डांडा ख़ेड़ा वन चौकी के दो लोगों को निलंबित कर दिया तथा रेंजर को नोटिस थमा दिया।
महकमे के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक जंगल में माफिया की गतिविधियों को लेकर हाल ही में हल्ला मचा तो आला अधिकारियों ने एक टीम गठित कर जंगल में हो रहे अवैध उत्खनन की जांच करने को कहा। इस टीम ने जो रिपोर्ट सौंपी, वह चौंकाने वाली है। रिपोर्ट में टीम ने अकेले ग्वालियर वन मंडल में करीब 3700 अवैध गड्ढे पाये। इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला गया है। इस दौरान सबसे ज्यादा अवैध उत्खनन ग्वालियर के घाटीगांव (उत्तर) रेंज में मिला है। इसके अलावा माफिया के दूसरे निशाने पर रहा सोनचिरैया अभयारण्य क्षेत्र रहा। इस क्षेत्र से भी जांच टीम को सैकड़़ों गड्ढे मिले हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जंगल कैसे बचेंगे और बढ़ेंगे?
आज स्थिति यह है कि प्रदेश के जंगल गंजे होते जा रहे हैं। सख्त वन नीति के बाद वन भूमि तो नहीं घट रही है लेकिन सघन वन तेजी से विरल वनों में तब्दील हो रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2005 में 41 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है। 31 फीसदी जमीन पर जंगल की हकीकत सिर्फ कागजों पर ही है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
प्रदेश में तीन साल यानी (2008-09 से 2010-11 के बीच 369 खदानों के लिए 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन परिवर्तित कर दी गई यानी हर साल जंगलों की 11 हजार 196 हेक्टेयर भूमि पर औसतन 123 खदानें शुरू की गईं। जबकि इन्हीं 3 सालों में प्रदेश शासन ने जंगलों के विकास और वन्य गतिविधियों के लिए 15 योजनाओं पर 61966.80 लाख रुपए खर्च किए हैं। यही नहीं, केंद्र सरकार (केंद्र प्रवर्तित योजनाओं के तहत) ने भी प्रदेश के जंगलों के विकास, संरक्षण और प्रबंध आदि मदों के लिए इस अवधि में 60496.25 लाख रुपए आवंटित किए। इसमें से भी मप्र शासन ने 12126.96 लाख रुपए खर्च किए हैं। इसके बावजूद अब इन्हीं जंगलों को खदानों के लिए नष्ट किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि 1956 में जब मध्य प्रदेश बना था तो 1 लाख 91 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में जंगल पसरे थे लेकिन 1990 तक जंगल की साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि (लगभग साठ लाख हेक्टेयर जमीन) बांट दी गई। इसके बाद बचे कोई 1 लाख 30 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल में से मध्य प्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन भूमि बची है। 1995 तक जहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल था वहीं 2005 में यह घटकर 41 घनमीटर रह गया। अगली रपट में यह कितना घटेगा यह सोचकर ही वन अफसर घबरा रहे हैं।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी मध्य प्रदेश में जंगलों में प्रबंधन की कमी का रोना रोया लेकिन प्रबंधन के लिए जरूरी धन के नाम पर वह बगलें झांकते दिखे। मध्य प्रदेश में कायदे से कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में साढ़े तीन फीसदी की भागीदारी जंगल की होनी चाहिए लेकिन यह 2.37 फीसदी है। जबकि वनों को सहेजने के लिए मिलने वाली रकम 0.03 से 0.09 फीसदी के बीच ही होती है। 35 हजार करोड़ की जरूरत है पर हर साल दो सौ से सवा दो सौ करोड़ से ज्यादा राशि वन संरक्षण और संवर्द्धन पर खर्च हो रही है। इसमें केंद्र की हिस्सेदारी 25 से 30 करोड़ की ही है। सबसे बड़ी चुनौती तो जंगलों पर पड़ते आबादी के दबाव को रोकने और बिगड़े वनों को उनकी गरिमा वापस लौटाने की है। लेकिन यह काम कैसे हो? मध्य प्रदेश के वन विभाग के अधिकारी कहते हैं, 'बिगड़े वनों को सुधारने के लिए प्रति हेक्टेयर साठ से सत्तर हजार रुपए का खर्च आता है लेकिन पचास लाख हेक्टेयर जमीन को फिर पेड़ों से ढंकना हो तो सैकड़ों अरब खर्च होंगे। इतनी रकम भला कहां से मिलेगी? कौन देगा इसको?Ó
जंगलों पर सरकारी परियोजनाओं के नाम पर जो प्रहार हो रहे हैं, उसकी जगह नए जंगल लगाने (क्षतिपूर्ति वनीकरण) के नाम जमा रकम भी केंद्र सरकार राज्य को देने में आनाकानी करती है। केंद्र के पास मध्य प्रदेश का 800 करोड़ जमा है लेकिन बार-बार किए आग्रह के बावजूद उसने मात्र 53 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जंगलों के रखरखाव के नाम पर बीते साल के दौरान तो केंद्र ने फूटी कौड़ी तक नहीं दी। इसके पहले के दो सालों में उसने क्रमश: 23 और 25 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जहां तक राज्य के वन विभाग की कमाई का सवाल है तो उसकी सालाना कमाई मात्र एक हजार करोड़ रुपए के आसपास ही है। अब ऐसे में जंगल कहां से बढ़ेंगे और कैसे बढ़ेंगे? मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन साला बुंदेलखंड पैकेज के नाम छह जिलों के बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर 107 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। इलाके के वन क्षेत्र की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो यह रकम मात्र बारह हजार रुपए प्रति हेक्टेयर बैठती है। बुंदेलखंड के हालात सबसे ज्यादा भयावह हैं। इस इलाके के छह जिलों में कोई 11 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में से सत्तर से अस्सी फीसदी वन बिगड़े हुए हैं। वहां न तो जंगलों की सुरक्षा के चाक-चौबंद प्रबंध हैं और न जंगलों को सहेजने लायक पानी है।
वन विभाग के एक आला अफसर की माने तो बुंदेलखंड के हालात तो प्रदेश के आदिवासी जिलों से भी ज्यादा बुरे हैं। संयुक्त वन प्रबंधन और वन विकास अभिकरण के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक रवींद्र नारायण सक्सेना भी मानते हैं कि बुंदेलखंड पैकेज के तहत मिली रकम इलाके के सूरते हाल के लिहाज से नाकाफी है लेकिन फिर भी जो पैसा मिला है उसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। जंगलों को बचाने के लिए भी हमने वनवासियों की आर्थिक सेहत सुधारने की योजनाएं जमीन पर उतारी हैं। जंगलों की कटाई की समस्या सिर्फ बुंदेलखंड की नहीं है। प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के किनारे जंगलों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ है।
वन माफिया सरेआम बुधनी के जंगलों को नंगा कर रहे हैं। रातोरात नर्मदा नदी में ही नाव के सहारे यह लकड़ी होशंगाबाद की ओर आरा मशीनों पर पहुँचाई जाती है। एक तरफ जंगल कट रहे हैं तो दूसरी ओर सवाल वनीकरण के दौरान लगे पौधों को बचाने का भी है। भोपाल जैसे शहर में तो नब्बे फीसदी तक नए पौधे जीवित रह जाते हैं लेकिन जंगलों में तो पेड़ों की बचे रहने की दर बीस फीसदी भी नहीं है। इसी के चलते 2009 में जारी स्टेट ऑफ रिपोर्ट में भोपाल को छोड़कर प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल को छोड़कर प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल में भी यह मात्र डेढ़ फीसदी ही बढ़ा है लेकिन यह वन भूमि पर बढ़ी हरियाली के आंकड़े नहीं है बल्कि शहर के आसपास और झील किनारों पर किए गए वृक्षारोपण के आंकड़ें हैं। वन विभाग के एक अफसर स्वदेश बाघमारे कहते हैं कि प्रदेश में असली जंगल सात-आठ फीसदी से ज्यादा नहीं बचे हैं। लेकिन भोपाल में राजधानी परियोजना क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक अतुल श्रीवास्तव आंकड़ों के पचड़े में पडऩे के बजाए कहते हैं, 'वनों के हालात चिंतनीय है लेकिन आबादी का दबाव कम किए बगैर कुछ नहीं हो सकता।Ó यह कैसे घटेगा? बिगड़े वन कैसे फिर संवरेंगे इसका पुख्ता हल शायद किसी के पास नहीं है।
प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह का मानना है कि जंगलों की मुख्यत: जो समस्याएं हैं, उनमें पहली तो वनों की अवैध कटाई से जंगलों को हो रहे नुकसान की है। दूसरी चुनौती जंगलों में घुसपैठ और वनभूमि पर अतिक्रमण की तथा तीसरी वन क्षेत्र में अवैध उत्खनन की है। फिर समस्या उन वनवासियों की भी है जो सदियों से जंगलों में रहते आए हैं।
सिंह कहते हैं कि यदि वनवासियों को जंगल में ही रोजगार के वैकल्पिक साधन मिल जाएं तो वे वन माफियाओं के कहने पर जंगलों को निशाना नहीं बनाएंगे। यह बात कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जंगलों में रहने वाले डेढ़ करोड़ वनवासियों में से आधे के पास राशन कार्ड तक नहीं है। सिंह मानते हैं कि प्रदेश में अवैध कटाई दो तरह से हो रही हैं, एक तो रोजगार की कमी के चलते निस्तारी काम के लिए लकडिय़ां कटती हैं। यह दिखने में छोटा अपराध लगता है लेकिन जंगलों की तरक्की रोकने में सबसे बड़ी बाधा यही है। वे पेड़ बढऩे के पहले ही काट देते हैं। लेकिन वन माफिया द्वारा कराई जा रही कटाई भी कम गंभीर नहीं है। सिंह का दावा है कि उनके द्वारा विभाग की कमान संभालने के बात संगठित वन अपराधियों के खिलाफ बरती गई सख्ती के कारगर नतीजे सामने आए हैं। अकेले वर्ष 2010 के दौरान लकड़ी के अवैध परिवहन में प्रयुक्त 600 गाडिय़ां जब्त की गईं इनमें से 275 गाडिय़ों को विभाग ने कब्जे में ले लिया है। इस मिलीभगत में लिप्त जंगल महकमें के कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई भी की गई है। इससे पहली बार वन कर्मियों और वन माफियाओं के बीच यह संदेश गया है कि यदि वे पकड़े गए तो उनकी कहीं सुनवाई नहीं होने वाली।

अय्याश तानाशाह की दास्तान














गद्दाफी और उसके बेटे महिला बॉडीगार्ड से करते थे रेप

त्रिपोली. लीबिया के कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के खात्मे के साथ ही तानाशाही के एक युग का अंत हो गया है। इस सैन्य तानाशाह की अय्याशी के चर्चे समय-समय पर सुर्खियां बनीं। कुछ दिनों पहले गद्दाफी की महिला बॉडीगार्ड ने आरोप लगाया कि कर्नल और उसके बेटों ने उनके साथ रेप किया और भला-बुरा तक कह दिया।
'द संडे टाइम्स ऑफ माल्टाÓ की रिपोर्ट के मुताबिक गद्दाफी बॉडीगार्ड रह चुकीं महिलाओं का यह भी आरोप है कि तानाशाह और उसके बेटों ने उनके साथ रेप करने के बाद उन्हें भला-बुरा कहते हुए छोड़ दिया कि वो उनसे 'ऊबÓ गए हैं। अखबार लिखता है कि पहले गद्दाफी इन महिलाओं के साथ रेप करता था फिर से किसी 'वस्तुÓ की तरह दूसरों को सौंप देता था। गद्दाफी के बाद उसके बेटों में से एक इनके साथ रेप करता था, इसके बाद इन्हें छोडऩे से पहले सेना के आला अधिकारियों को सौंपा जाता था।
करीब चार दशकों तक लीबिया में हकूमत चलाने वाला गद्दाफी महिला बॉडीगार्ड रखने का शौकीन था जो कुंवारी होती थीं और हर वक्त उसके साथ साये की तरह होती थी। 30 महिला बॉडीगार्ड के बेड़े को 'अमेजोनियनÓ का नाम दिया गया था। इस बॉडीगार्ड में से पांच महिलाओं ने यह खुलासा कर सनसनी मचा दी थी कि गद्दाफी और उसके बेटे उनके साथ रेप करते थे।
इन बॉडीगार्ड के दावों की जांच कर रही मशहूर लीबियाई मनोवैज्ञानिक डॉ. सेहम सरगेवा ने कहा कि गद्दाफी की सत्ता के वफादार सैनिकों ने रेप को जंग के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया और हमलों के लिए वियाग्रा और कंडोम को बढ़ावा दिया।
गद्दाफी की एक पूर्व महिला बॉडीगार्ड ने बताया कि उसे तानाशाह की सुरक्षा में ज्वाइन करने पर मजबूर किया गया। गद्दाफी के सैनिकों ने इस महिला से कहा कि उसका भाई लीबिया से माल्टा को ड्रग्स तस्करी करते हुए पकड़ा गया है। ऐसे में उसके पास दो विकल्प हैं कि या तो वो तानाशाह की सुरक्षा यूनिट में शामिल हो जाए नहीं तो उसका भाई जिंदगी भर जेल की सलाखों में सड़ता रहेगा।
यह मनोवैज्ञानिक गद्दाफी के खिलाफ सबूत जुटा रही हैं जो अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय को सौंपा जाना है। इन्होंने सिविल वॉर शुरू होने से लीबिया में कम से कम 300 रेप के मामलों से जुड़े दस्तावेज तैयार किए हैं। हालांकि उनका कहना है कि लीबिया में कुल 6000 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया है।
बीते जून में न्यायालय के प्रोसेक्यूटर लुई मोरेनो ओकाम्पो ने कहा कि इस बात के सबूत हैं कि गद्दाफी ने अपने सैनिकों को उन महिलाओं का बलात्कार करने के आदेश दिए जिन्होंने तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की। कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के खात्मे के साथ ही लीबिया में 42 साल लंबे तानाशाही शासन के अंत के साथ ही शनिवार को लीबिया को आज़ाद मुल्क घोषित कर दिया जाएगा। लीबिया की अंतरिम सरकार चला रही नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल (राष्ट्रीय अंतरिम परिषद) लीबिया को आज़ाद मुल्क घोषित करेगी। इसके साथ ही लीबिया में पूरी तरह से लोकतांत्रिक सरकार बनने की उलटी गिनती भी शुरू हो गई है। लेकिन गद्दाफी की मौत कैसे हुई, इस पर अब भी रहस्य बरकरार है।
लीबिया के अंतरिम प्रधानमंत्री और एनटीसी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले महमूद जिबरिल ने गद्दाफी की मौत के बाद ऐलान किया, अब लीबिया के लिए नई शुरुआत का समय आ गया है। नया और एकता के सूत्र में बंधा लीबिया। गद्दाफी की मौत के बाद लीबिया में जश्न का माहौल है। दुनिया के अलग-अलग इलाकों में रह रहे लीबियाई नागरिक भी तानाशाही शासन के अंत पर खुशी मना रहे हैं। लेकिन दुनिया के कई देश लीबिया के भविष्य को लेकर मिलीजुली प्रतिक्रियाएं जाहिर कर रहे हैं। दुनिया के कई मुल्क लीबिया को शुभकामनाएं देने के साथ आशंका भी जाहिर कर रहे हैं कि इस देश में अराजकता का माहौल जल्द खत्म हो पाएगा।
मिसराता की मस्जिद में रखे गए गद्दाफी के शव को सिरते से मिसराता एक जुलूस की शक्ल में ले जाया गया, लेकिन शुक्रवार को गद्दाफी को गुपचुप ढंग से दफनाया जाएगा। कुछ जानकार इसकी वजह यह बता रहे हैं कि अगर गद्दाफी के शव को सार्वजनिक तौर पर दफन किया जाएगा तो उसकी मजार पर लोग इक_ा होंगे और उसे शहीद का दर्जा देंगे। इस साल मई में ओसामा बिन लादेन को भी अमेरिका ने मारने के बाद समुद्र में दफन कर दिया था।
खबरों के मुताबिक अपने आखिरी समय में अपने गृह नगर सिरते में छुपा गद्दाफी वहां से भागने की फिराक में था। वह अपने काफिले के साथ वहां से जैसे ही निकला, फ्रेंच लडा़कू विमानों ने उस पर हमला कर दिया। हवाई हमले के बाद गद्दाफी का काफिला नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल की फौज के साथ झड़प में फंस गया। माना जा रहा है कि इस दौरान हुई गोलीबारी में गद्दाफी जख़़्मी हो गया। इसके बाद वह जमीन पर घिसटते हुए एक पाइप के पास जाकर छुप गया। कुछ घंटों बाद एनटीसी के लड़ाकों ने गद्दाफी को पानी की निकासी के लिए बने एक पाइप के पास से खोज निकाला। बताया जा रहा है कि इनमें से एक ने अपने जूते से गद्दाफी की पिटाई की। चश्मदीदों के मुताबिक गद्दाफी दया की भीख मांग रहा था। वहीं, गद्दाफी के शव के साथ एंबुलेंस में सवार अब्दल-जलील अब्दल अजीज नाम के डॉक्टर का दावा है कि गद्दाफी को दो गोलियां लगी थीं। अजीज के मुताबिक एक गोली गद्दाफी सिर में और सीने पर लगी थी। हालांकि, अभी तक पूरी तरह से यह साफ नहीं हो पाया है कि गद्दाफी का अंत कैसे हुआ। नाटो ने भी एक बयान में कहा कि उसके जंगी विमानों ने सिरते के नजदीक सेना की दो गाडिय़ों पर बमबारी की थी। लेकिन नाटो इस बात पुष्टि नहीं कर पाया कि इन गाडिय़ों में गद्दाफी था या नहीं।
इस बीच, गद्दाफी की मौत कैसे हुई, इस रहस्य से लीबिया में अधिकारी पर्दा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। लीबियाई अधिकारियों का कहना है कि पूर्व शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी सिरते में उनके वफ़ादारों और अंतरिम सरकार के सैनिकों के बीच हुई गोलीबारी में मारे गए। लीबिया के कार्यवाहक प्रधानमंत्री और एनटीसी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले महमूद जिबरिल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गद्दाफी की मौत की पुष्टि करते हुए कहा है कि अंतरिम सरकार के सैनिकों और गद्दाफ़ी के वफ़ादारों के बीच गोलीबारी हुई जिसमें गद्दाफी के सिर में गोली लगी। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि कर्नल गद्दाफ़ी को जि़ंदा पकड़ा गया था, मगर अस्पताल पहुंचने से पहले उनकी मौत हो गई।
जिबरिल ने मीडिया को जानकारी दी कि फ़ोरेंसिक जांच में इस बात की पुष्टि हो गई है कि कर्नल गद्दाफ़ी की पकड़े जाने के बाद ले जाए जाते समय गोलियों की चोट से मौत हो गई। जिब्रील ने रिपोर्टों के हवाले से कहा, जब कार जा रही थी तो क्रांतिकारियों और गद्दाफ़ी के सैनिकों के बीच गोलीबारी हुई जिसमें एक गोली उनके सिर में लगी। हालांकि, जिबरिल के अनुसार डॉक्टर ये नहीं बता सके कि गोली क्रांतिकारियों की ओर से लगी या गद्दाफ़ी के किसी सैनिक की गोली ने ही उनकी जान ली। इससे पहले एनटीसी के कुछ सैनिकों ने कर्नल की मौत का अलग कि़स्सा बयान किया था, जहां उनका कहना था कि जब वह भागने की कोशिश कर रहे थे तो उन्हें पकडऩे वालों ने ही उन्हें गोली मार दी।

दूसरी तरफ, लीबिया में लंबे समय से बमबारी कर रहे नाटो के संचालक अगले कुछ घंटों में बैठक करके लीबिया में बम हमले को खत्म करने की घोषणा कर सकते हैं। नाटो महासचिवन ऐंडर्स फ़ॉग रैसमूसन ने कहा कि कर्नल गद्दाफ़ी की मौत के साथ अब वह मौक़ा आ गया है। उन्होंने कहा, कर्नल गद्दाफ़ी का 42 साल का खौफ का राज आखऱिकार खत्म हो गया है। मैं सभी लीबियाई लोगों से अपील करता हूं कि वे आपसी मतभेद भुलाकर एक उज्ज्वल भविष्य के लिए मिलकर काम करें।
इस बीच, खबरें हैं कि गद्दाफी के एक बेटे सैफ अल-इस्लाम बानी वालिद नाम के शहर में देखा गया था। इसके बाद वह बानी वालिद के आसपास के रेगिस्तान में भाग गया है। वहीं, गद्दाफी के दूसरे बेटे मुत्तसिम गद्दाफी की मौत हो गई है।

दुनिया भर में खुशी की लहर
गद्दाफी की मौत से लीबिया सहित दुनिया के कई अन्य देशों में खुशी की लहर दौड़ गई है। दुनिया के कई देशों ने गद्दाफी की मौत का स्वागत किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने लीबियाई तानाशाह की मौत को मध्य-पूर्व के तमाम कठोर शासकों के लिए सबक बताया। उन्होंने कहा कि ऐसे शासकों का ऐसा अंत एक तरह से निश्चित है। वहीं, हिलेरी क्लिंटन ने गद्दाफी की मौत को लीबिया के इतिहास में एक काले अध्याय की समाप्ति बताया है।

फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने गद्दाफी की मौत को लीबिया के इतिहास में मील का पत्थर बताते हुए कहा है कि चार दशकों से ज़्यादा लंबे चले तानाशाही शासन के खिलाफ जंग में जनता की जीत हुई है। लेकिन सरकोजी ने इस बात की आशंका जताई है कि कहीं सद्दाम हुसैन की मौत के बाद इराक जैसे माहौल लीबिया में न पैदा हो जाएं। उन्होंने कहा, सिरते की आज़ादी, एक नई प्रक्रिया की शुरुआत है, जिसमें लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना होगी। डेविड कैमरन ने भी इसी तरह के भाव जाहिर किए हैं। मिस्र और अरब लीग ने भी लीबिया को नई शुरुआत के लिए शुभकामनाएं दी हैं। लीबिया की अंतरिम एनटीसी की सरकार के साथ कड़वे रिश्ते के बावजूद चीन ने लीबिया में लोकतंत्र और एकता पर जोर दिए जाने की अपील की है।लीबिया में तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी के मारे जाने से जश्न का माहौल है। अपनी अय्याशी के लिए मशहूर गद्दाफी त्रिपोली में आलीशान महल में रहता था। विद्रोहियों की ओर से सत्ता पर कब्जे की लड़ाई के बाद गद्दाफी ने यह महल छोड़ दिया और भागता फिरता रहा। खबर है कि जिस वक्त लड़ाकों ने उसे पकड़ा, वह सिरते में एक नाले में छिपा था।

कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के खात्मे के साथ ही लीबिया में 42 साल के लंबे तानाशाही शासन का अंत हो गया। लेकिन जिस तरह से लोगों को गद्दाफी की ज़्यादतियां याद रहेंगी, उसी तरह से लोग किसान परिवार से निकलकर सेना में दाखिल हुए और फिर लीबिया की सत्ता पर काबिज होने वाले इस तानाशाह की जि़ंदगी की खास स्टाइल को भी याद करेंगे। गद्दाफी की मौत चाहे जैसी भी हो, लेकिन उसकी जि़दंगी किसी परिकथा से कम नहीं थी। कहीं भी दौरे पर जाता तो होटल के बजाय शिविर बनाकर रुकता था। किसी पुरुष के बजाय सुरक्षा के लिए महिला सैनिकों को ही रखता था। उसके पास ऐसे कई भरोसेमंद सैनिक थे जो उसके लिए जान भी दे सकते थे।
गद्दाफी के ऐश-ओ-आराम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपनी सुरक्षा के लिए 30 कुंवारियों को रखता था। ये महिला सुरक्षा कर्मी गद्दाफी के साथ साए की तरह रहती थीं। नीले रंग की वर्दी पहनने वाली महिला सुरक्षाकर्मी किसी को भी पलक झपकते ही ढेर कर सकती थीं। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान गद्दाफी 400 लोगों का दल लेकर जाता था। इन यात्राओं में गद्दाफी अपने साथ पांच विमान, एक ऊंट और खास टेंट रखता था।
लीबिया दुनिया के उन दस देशों में है जहा कचा तेल सबसे यादा होता है। कहा जाता है कि लीबिया की जमीन के नीचे पानी कम तेल यादा है। गद्दाफी के मारे जाने के बाद लीबिया में अराजकता फैल सकती है। ऐसे में तेल उत्पादन और सप्लाई प्रभावित होने की आशंका है। 12 बड़ी कंपनियां यहां तेल निकालने का काम करती हैं। अराजकता से इनका काम प्रभावित होगा। 40 प्रतिशत कचे तेल की सप्लाई एशिया में लीबिया से ही। 90 यूरोपीय देशों को लीबिया तेल देता है। दुनिया में प्रति दिन 8.5 करोड़ बैरल कचे तेल का उत्पादन होता है। इनमें से 16लाख बैरल तेल लीबिया के भंडारों से ही निकलता है। अफ्रीकी देशों से निकलने वाले तेल का करीब 45 फीसदी लीबिया से निकलता है। तेल भंडारों पर कब्जा जमाए अरब और अफ्रीकी देशों के तानाशाह पश्चिमी देशों के निशाने पर हैं।
गद्दाफी की मौत के बाद भारत ने लीबिया को नए सिरे से बसाने में हर मुमकिन मदद देने का वादा किया है। भारत वहां के विद्रोहियों को काफी पहले मान्यता दे चुका है। गद्दाफी का नजरिया भारत के पक्ष में नहीं रहा था। उसने तो कश्मीर को इराक की तरह अलग देश बनाने का सुझाव दिया था। साल 2009 में संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेम्बली में अपने एक मात्र भाषण में गद्दाफी ने कहा था कि कश्मीर को भारत और पाकिस्तान से अलग कर एक स्वतंत्र राय घोषित कर देना चाहिए। और कश्मीर को इराक की तर्ज पर बाथिस्ट राय बना देना चाहिए। गद्दाफी को लेकर भारत कभी सहज नहीं रहा। अब उम्मीद है कि नया निजाम भारत की महत्ता को समझ कर संबंध मजबूत करने पर जोर दे।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

फिर विवादों के पायलट बाबा




पाकिस्तान के खिलाफ १९६५ और १९७१ के युद्ध के दौरान हवा में अपना रणकौशल दिखाने वाले पायलट कपिल अद्धैत अब अध्यात्म के महागुरु पायलट बाबा के नाम से मशहूर हैं। उन पर आरोप है कि वे धर्म के रथ पर सवार होकर उत्तराखण्ड में जमीन-संपत्ति कब्जाने का कला-कौशल दिखा रहे हैं। ऊची रसूख और सत्ताधारी दलों में पहुंच के कारण प्रशासन उन पर हाथ डालते हुए कांपता है। जिससे इन्हें बल मिल रहा है और वे अपनी मनमानी कर रहे हैं।
उत्तराखण्ड की राजनीति में साधु संतों का खासा हस्तक्षेप रहता है। यहां तक की कि कई संत तो स्वयं राजनेता भी हैं तो कई अन्यों के शिष्य बड़े राजनीतिक पदों पर बैठे हैं। यही कारण है कि इनमें से कई संतों की गतिविधियां संदिग्ध होने के बावजूद उन पर कार्रवाई करने का साहस प्रशासन नहीं कर पाता है। विंग कमांडर कपिल अद्वैत उर्फ पायलट बाबा ऐसे ही एक संत हैं जिन पर नाना प्रकार के गंभीर आरोप होने के बावजूद आज तक ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी है। २००७ में काले धन को सफेद करने की गारंटी लेने वाले पायलट बाबा की भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से नजदीकी का ही परिणाम है कि उत्तरकाशी में सरकारी जमीन कब्जाने के बावजूद बाबा पर हाथ डालने से स्थानीय प्रशासन हिचक रहा है।
बाबा के नैनीताल, हरिद्वार, उत्तरकाशी के आश्रम अपनी जमीन पर कम, सरकारी जमीन पर ज्यादा बने हुए हैं। पर्यावरण के लिहाज से अति संवेदनशील गंगोत्री में बाबा ने गंगा तट का अतिक्रमण कर अपना आश्रम बना रखा है तो उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से महज २५ किमी दूर कुमाल्टा गांव में कई नाली सरकारी भूमि पर कब्जा किया हुआ है। कुमाल्टा गांव से अंतरराष्ट्रीय सीमा कुछ ही दूरी पर है। अति संवेदनशील क्षेत्र होने के बावजूद बाबा ने यहां के आश्रम में निजी हैलीपैड भी बना डाला है। इस हैलीपैड पर प्राय: हेलिकॉप्टर उतरते देखे जाते हैं लेकिन स्थानीय अधिकारी ऐसी किसी भी जानकारी से इंकार करते हैं।
कुमाल्टा गांव ऋषिकेश-गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इस राष्ट्रीय राजमार्ग से ५० मीटर नीचे गंगा बहती है। पायलट बाबा राष्ट्रीय राजमार्ग से लेकर गंगा तट तक अपने आश्रम को फैला चुके हैं। हालांकि यहां उन्होंने कुछ नाली जमीन खरीदी थी। वर्ष २००६ से उस पर आश्रम बनाने का कार्य शुरू किया गया। आज पांच साल के भीतर पायलट बाबा का यह आश्रम अपनी निजी भूमि के अलावा १६ नाली सरकारी जमीन पर फैल चुका है। आश्रम का विस्तार आज भी बदस्तूर जारी है। धीरे-धीरे यह आश्रम और कितनी सरकारी जमीन पर फैलेगा इसका अंदाजा किसी को नहीं है। गौरतलब है कि गंगातट से दो सौ मीटर दूरी तक किसी भी प्रकार के निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट की रोक है। परंतु यह रोक पायलट बाबा के लिए नहीं है। वर्ष २००६ से शुरू हुए पायलट बाबा के कुमाल्टा गांव स्थित आश्रम का निर्माण रोका जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। गंगा की कलकल धारा इस आश्रम के कंस्ट्रक्शन को छूकर आगे निकलती है। यही स्थिति गंगोत्री स्थित आश्रम की भी है। यहां भी बाबा ने गंगा तट पर अवैध कब्जा किया है और प्रशासन इस अवैध कब्जे को हटाने में असमर्थ नजर आ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष २००९ में एक मामले की सुनवाई करते हुए प्रदेश सरकार को निर्देश दिए थे कि सरकारी जमीन पर बने धार्मिक स्थलों की लिस्ट बनाए। शुरू में उत्तरकाशी में सरकारी जमीन पर बने ९ धार्मिक स्थलों को चिह्नित किया गया। इसकी सूची बनाई गई लेकिन इस सूची में पायलट बाबा के आश्रम का नाम नहीं दिया गया। पायलट बाबा के आश्रम को छोडऩे का राजस्व विभाग ने तब यह कारण बताया था कि पायलट बाबा का यह आश्रम १० साल से भी पुराना है। उसी राजस्व विभाग के रिकॉर्ड में यह भी दर्ज है कि कुमाल्टा गांव में पायलट बाबा ने वर्ष २००५ में आश्रम के लिए जमीन खरीदी और वहां निर्माण कार्य वर्ष २००६ से शुरू किया गया। आखिर राजस्व विभाग ने इतना बड़ा झूठ किसके इशारे पर बोला? राजस्व विभाग किसी के दबाव में तो नहीं था। ये जांच का विषय है और जनहित में इसकी जांच होना जरूरी भी है। फिर भी आज तक इसकी जांच नहीं हुई है। कुमाल्टा गांव की जिस जमीन पर कब्जा है, उस पर कभी आस- पास के गांवों के किसानों के लिए सिंचाई नहर बनी हुई थी, जिसे ढ़क कर बाबा का आश्रम बना दिया गया है। किसान उस नहर से अपने खेतों की सिंचाई करते थे और बारह महीने उनके खेतों में फसल लहलहाती रहती थी। वहीं आज उन किसानों के खेत पानी की कमी से बंजर होने लगे हैं और सिर्फ बरसात में ही खेती हो पाती है।
सैंण के किसान धरम सिंह भण्डारी कहते हैं, अब किसी बाबा पर हम विश्वास नहीं करते। पायलट बाबा के आश्रम ने हमारी जीवन रेखा (सिंचाई नहर) को ही पाट दिया है। कुमाल्टा, सैंण और आस-पास के गांवों में रहने वाले, जो किसान पहले खुशहाल थे वे अब भुखमरी की कगार पर हैं। हम लोगों ने कई बार इसका विरोध भी किया पर प्रशासन मौन रही। हम इन्हें यहां से हटाना चाहते हैं। ताकि हम किसानों की जिंदगी बचा सकें।ज् बाबा ने नहर को ढ़क कर किसानों के खेतों की सिंचाई तो रोक ही दी है, अपने आश्रम की जलपूर्ति के लिए गैर कानूनी ढंग से पाइप लाइन गंगा नदी से जोड़ रखी है।
बाबा के आश्रम में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे, विदेशी बालाओं की आवाजाही,संवेदनशील क्षेत्र होने के बावजूद हैलीपैड का निर्माण, गंगा के प्रवाह से छेड़-छाड़ जैसे मामलों को दो साल पूर्व स्थानीय नागरिक विनोद नौटियाल ने उजागर किया था। विनोद नौटियाल उत्तराखण्ड स्वाभिमान मंच के अध्यक्ष हैं। नौटियाल ने बाबा द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण आदि की बाबत जिलाधिकारी को अवगत कराया था। उन्होंने अपने लिखित पत्र में बाबा की गैर कानूनी गतिविधियों की जांच की मांग की। बकौल नौटियाल पायलट बाबा ने कुमाल्टा गांव में आश्रम निर्माण के बहाने सरकारी जमीन पर कब्जा कर लिया है। यह कब्जा राष्ट्रीय राजमार्ग क्षेत्र से लेकर गंगा के प्रवाह तक है। वहीं कुमाल्टा गांव सहित आस-पास के गांवों के खेतों को सिंचित करने वाली नहर को पाटकर वहां देवी- देवताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियां भी खड़ी कर दी हैं।
अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे इस संवेदनशील क्षेत्र में बिना सरकारी अनुमति के हैलीपैड का निर्माण किया गया है। गंगा नदी से आश्रम तक गैर कानूनी ढंग से पाइप लाइन डाल कर वे गंगा वाटर का उपयोग कर रहे हैं, जिसकी अनुमति किसी विभाग से नहीं ली गई है। ऐसे भी कोई भी व्यक्ति गंगा नदी से पानी नहीं निकाल सकता इसलिए इन सभी बातों की जांच होनी चाहिए। उत्तरकाशी के तत्कालीन जिलाधिकारी ने नायब तहसीलदार भटवाड़ी को जांच की जिम्मेदारी दी। नायब तहसीलदार भटवाड़ी ने इन सभी आरोपों की जांच की और अपनी रिपोर्ट जिलाधिकारी को सौंप दिया। लेकिन जांच से आगे की कोई कार्यवाही इस पर नहीं हुई। बाबा के ये सभी गैरकानूनी कार्य वर्ष २००९ से प्रशासन के संज्ञान में आने के बाद भी जारी हैं।
बाबा के विभिन्न आश्रमों (गंगोत्री, कुमाल्टा, अल्मोड़ा, नैनीताल, हरिद्वार आदि) में विदेशी पर्यटक आते रहते हैं। ऐसे भी पायलट बाबा विदेशी शिष्यों के अध्यात्मिक गुरु के रूप में चर्चित हैं। इनके अनुयायियों में ज्यादातर विदेशी हैं इसलिए विदेशी नागरिकों का इनके आश्रम में जमावड़ा लगा रहता है। हालांकि इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन
फॉरनर्स रजिस्ट्रेशन एक्ट के मुताबिक विदेशी नागरिक की जानकारी फार्म सी के जरिए २४ द्घंटे के भीतर स्थानीय पुलिस को देना अनिवार्य है। पर पायलट बाबा के सहयोगियों ने इसकी जानकारी देना और कानून का पालन करना कभी जरूरी नहीं समझा। उत्तरकाशी के सीमांत जनपद होने के कारण यहां प्रशासन को विदेशियों के मामले में चौकस रहने का फरमान जारी है। फिर भी पायलट बाबा के आश्रम में आने जाने वाले विदेशियों का लेखा-जोखा प्रशासन के पास नहीं है। क्षेत्र के वरिष्ठ आंदोलनकारी एवं बुद्धिजीवी चंदन सिंह राणा कहते हैं कि यह देश की रक्षा पर सवाल है। हमारा देश आतंकी निशाने पर है। इस प्रकार की गलतियों का फायदा आतंकी संगठन उठा सकते हैं। हालांकि यह क्षेत्र शांत है लेकिन चारधाम की यात्रा के समय इन क्षेत्रों में देश-विदेश के तीर्थयात्री और पर्यटक आते रहते हैं इसीलिए सुरक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
विगत १५ अगस्त को उत्तरकाशी के कुछ स्थानीय पत्रकार पायलट बाबा के कुमाल्टा गांव आश्रम गऐ थे। उनका मूल उद्देश्य आश्रम की गतिविधियों को परखना और बाद में उसे प्रकाशित-प्रसारित करना था लेकिन कुछ ही समय में आश्रम में मौजूद बाबा के शिष्यों से किसी बात पर उनकी बहस हो गई। बात आगे बढ़ी और आश्रम के बाबाओं ने उन पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया। उन्हें धक्के मारकर आश्रम से बाहर निकाल दिया। पत्रकारों ने इसका जमकर विरोध किया और वे अब तक धरने पर बैठे हुए हैं। विगत १३ सितंबर को एसडीएम भटवाड़ी चंद्र सिंह धर्मशक्तू की निचली अदालत ने आश्रम प्रबंधन को आदेश दिया कि वह एक महीने के भीतर सरकारी जमीन से अवैध कब्जा हटा ले। इसी बीच पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए प्रशासन और आश्रम प्रबंधन के बीच २६ अगस्त को एक मीटिंग भी हुई, जिसमें कुमाल्टा आश्रम के प्रबंधक ने प्रशासन को लिखित आश्वासन दिया कि वह एक महीने के भीतर अवैध कंस्ट्रक्शन रोक देंगे और यदि आश्रम ने एक महीने में अवैध कंस्ट्रक्शन नहीं रोका तो प्रशासन उक्त कंस्ट्रक्शन को हटाने के लिए स्वतंत्र है। इस लिखित आश्वासन के बाद आश्रम में कंस्ट्रक्शन रोकने की प्रक्रिया शुरु हो गई थी लेकिन एक-दो दिन बाद ही उसे रोक दिया गया। आश्रम प्रशासन अवैध कब्जा हटाने के बजाय अब अदालत से स्टे-ऑर्डर लेने की जुगत में लगा है। ३ अक्टूबर को उत्तरकाशी की जिला अदालत में इस मामले की सुनवाई हुई, जिसमें अदालत ने आश्रम को स्टे-ऑर्डर देने से मना कर दिया है। बताया जाता है कि प्रशासन किसी प्रकार की कार्रवाई करने से हिचक रहा है। यहां के स्थानीय लोग लगभग दो महीने से भी अधिक समय से धरने पर बैठे हैं। रोजाना उनकी स्थानीय अधिकारियों से इस मामले में बात भी होती है लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ भी नहीं हो पा रहा है।
उत्तरकाशी के वरिष्ठ पत्रकार सूरत सिंह रावत कहते हैं गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक कई बाबाओं ने अपने आश्रम जमीनों पर अवैध कब्जा कर बनाए हैं और पायलट बाबा इन सबमें आगे हैं। इन्होंने सरकारी जमीन पर कब्जा किया सो किया गरीब किसानों के खेतों को सिंचित करने वाली नहर पर भी कब्जा कर लिया है। बेशक यहां आने वाले श्रद्धालुओं को इसमें देवता का निवास दिखे लेकिन इस कार्यप्रणाली ने स्थानीय किसानों के मुंह से निवाला छीन लिया है।
इस बीच एक और द्घटना पायलट बाबा के आश्रम की गैर कानूनी गतिविधियों को सही साबित करती है। जिसके गवाह दो अप्रवासी भारतीय बने हैं। विगत ७ सितंबर को अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नागरिक शरन दीप और न्यूजीलैंड में रहने वाले मनिंदर जीत सिंह गंगोत्री से वापस उत्तरकाशी आ रहे थे। शरनदीप पायलट हैं।
इन्होंने जब कुमाल्टा गांव के पास आश्रम के मुख्यद्वार पर महायोगी पायलट बाबा आश्रम बोर्ड देखा तो वे अपने मित्र मनिंदर जीत सिंह के साथ आश्रम में चले गए। फिर थोड़ी देर तक आश्रम में द्घूमने-फिरने के बाद रात उन्होंने वहीं रुकने का
प्रोग्राम बनाया। इसके लिए उन्होंने आश्रम प्रबंधन से बात भी कर ली। प्रबंधन उन्हें आश्रम में कमरा उपलब्ध कराने के लिए तैयार भी हो गया था लेकिन उसी दौरान उन दोनों की नजर आश्रम में मौजूद विदेशी लड़कियों पर पड़ी। वे उन लड़कियों से बात करने लगे परंतु आश्रम के बाबाओं ने उन्हें लड़कियों से बात करने से रोक दिया। फिर भी वे दोनों नहीं माने तो आश्रम के लोग बदसलूकी पर उतर आए और उन्हें आश्रम से निकाल दिया गया। वे दोनों उत्तरकाशी पहुंचे और आरोप लगाया कि आश्रम में मौजूद लड़कियांनाबालिग थीं, जिनकी गतिविधियां उन्हें संदिग्ध लगीं। हम दोनों ने उनसे बात करनी चाही तो हमें रोक दिया गया। उनके मुताबिक अधिकांश लड़कियां बाबा की सेवा में लगी रहती थीं। हमें यह भी आभास हुआ कि बाबा के कमरे में कोई पुरुष नहीं जाता था। हम दोनों को लड़कियों से बात करने से रोकना उनकी संदिग्ध गतिविधियों की ओर इशारा करता है। इन अप्रवासी भारतीयों की लिखित शिकायत पर ३ सितंबर को पुलिस अधीक्षक उत्तरकाशी डॉ ़ सदानंद दाते ने पुलिस बल के साथ आश्रम पर छापा मारा। जहां नौ विदेशी लड़कियां मिलीं। इनमें ४ रूस और ४ उक्रेन की रहने वाली थीं। डॉ ़ दाते के मुताबिक सभी तीन महीने से आश्रम में रह रही थीं। उन सभी के पास पासपोर्ट और वीजा थे लेकिन जब उनसे पूछा गया कि आश्रम ने या उन लड़कियों ने स्थानीय पुलिस को विदेशी लड़कियों की आश्रम में आने की जानकारी क्यों नहीं दी तो उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। पुलिस ने आश्रम के तत्कालीन प्रबंधक अंबरीश के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की है लेकिन उनकी गिरफ्तारी अभी तक नहीं हो पाई है। शासन -प्रशासन के पास पायलट बाबा के आश्रम के खिलाफ इस तरह के कई मामले दर्ज हैं, जिसमें कुछ को सही भी पाया गया है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या कभी बाबा पर कार्रवाई हो पायेगी और यदि होती भी है तो इसमें भी आश्रम के निचले अधिकारी ही प्रशासन के शिकंजे में फसेंगे और बाबा आजाद पक्षी की तरह उड़ान भरते रहेंगे।

भावी प्रधानमंत्री अपराधियों की मोटर साइकिल पर




विनोद उपाध्याय

राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिए नेता किस हद तक जा सकते हैं इसके नजारे हम रोज देखते और सुनते है। ऐसा ही नजारा पिछले दिनों राजस्थान के गोपालगढ़ में देखने को मिला,जहां देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी एक अपराधी की मोटर साइकिल पर सवार होकर 6 किलोमीटर घूमे।
दरअसल गोपालगढ़ में पिछले दिनों हुए एक गोलीकांड में राजनीति की रोटी सेंकने का सिलसिला चल रहा था। कांग्रेस ने इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए राहुल गांधी को बुला लिया। भाजपा ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जिन दो लोगों की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ और आसपास के गांवों का दौरा किया था, उन दोनों के खिलाफ क्षेत्र के थानों में कई मामले दर्ज है। पार्टी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल ने एक समुदाय के लोगों के मिलकर दोनों समुदाय के लोगों के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए हैं। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. दिगंबर सिंह ने बताया कि राहुल पहाड़ी तहसील के पथराली गांव पहुंचे, उस समय उनके आगे बिल्ला उर्फ आशू पुत्र इस्माइल मोटर साइकिल चला रहा था। बिल्ला के खिलाफ पहाड़ी थाने में कई मामले दर्ज हैं। राहुल गांधी पथराली में सरफराज उर्फ शरफू पुत्र हिम्मत के घर गए। चतुर्वेदी और डॉ. सिंह ने आरोप लगाया कि शरफू मेवात इलाके में टटलू गैंग का सरगना है और उसके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हैं। एक मामले में उसके खिलाफ स्टेंडिंग वारंट भी जारी है, फिर भी शरफू बेखौफ सरेआम घूम रहा है। पथराली में एक मृतक के घर सांत्वना देने पहुंचे राहुल गांधी के साथ बिल्ला और शरफू दोनों थे।
राहुल बिल्ला की मोटर साइकिल पर और उनका निजी सहायक शरफू की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ में गए थे। गोपालगढ़ में मस्जिद देखने के बाद जाते समय राहुल ने बिल्ला से गले लगाया और कोई काम होने पर दिल्ली आने का न्यौता भी दिया। इस यात्रा के बाद इन दोनों ने क्षेत्र में दहशत फैलाना शुरू कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों अपराधी कामां विधायक जाहिदा के कृपापात्र हैं। चतुर्वेदी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल की यात्रा के बाद दोनों समुदाय में वैमनस्य बढ़ा है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यात्रा के बाद ही सीबीआई की टीम जांच के लिए आई है, इससे भी जांच पर शक होता है। उन्होंने चेतावनी दी कि जांच में अगर एकतरफा कार्रवाई की तो भाजपा आंदोलन करेगी। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी के इस गुपचुप दौरे ने यह भी साबित कर दिया है कि दिल्ली के नेताओं को राज्य सरकार पर भरोसा नहीं है।
उधर स्थानीय विधायक अनीता सिंह ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के गोपालगढ़ दौरा को महज दिखावटी व राजनीति से प्रेरित बताया है। विधायक सिंह ने कहा कि मेवात क्षेत्र में राहुल का दौरा न यूपी चुनावों की राजनीति से प्रेरित है। उन्होंने एक पक्ष के लोगों से मिलकर कांग्रेस की पुरानी तुष्टिकरण वाली नीति को उजागर किया है। गोपालगढ़ कस्बे में फायरिंग के बाद राज्य सरकार द्वारा एसपी व कलेक्टर को निलंबन करना सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देना है। इससे मेवात क्षेत्र में दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ेगा। जिससे शांति व्यवस्था कायम होने में समय लगेगा। विधायक अनीता सिंह ने कहा कि राहुल को मेवात क्षेत्र में शांति कायम करने के लिए दोनों पक्षों के लोगों से मिलना था। तभी घटना की सही स्थिति उन्हें मिल पाती।
उल्लेखनीय है कि 14 सितंबर को गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों और घायलों के परिजनों से मुलाकात करने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी 9 अक्टूबर की सुबह करीब नौ बजे अचानक गोपालगढ़ पहुंचे थे। उनके साथ केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह भी थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल के इस दौरे की जानकारी न सरकार को थी न प्रशासन को। राहुल करीब दो घंटे तक मोटरसाइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ के अलावा पिथोली, परसोली व मालिगा गांवों में घूमे। उधर प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि 8 अक्टूबर की दोपहर राहुल गांधी की टीम के तीन व्यक्ति गांव पथराली पहुंचे थे। इनकी गाडिय़ों पर नंबर प्लेट नहीं थीं। तीनों लोग गांव के बिल्ला नामक युवक से मिले और गांव व घटना के बारे में जानकारी ली।
बिल्ला के अनुसार तीनों व्यक्तियों में से एक ने अपना नाम चंदर खां बताया और दूसरे ने यादव। तीसरे ने अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी। इन तीनों व्यक्तियों ने बिल्ला से गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों के घर ले जाने की बात कही। तीनों से पीडि़तों के घर देखे। गांव के कुछ अन्य लोगों से भी घटना की जानकारी की। इसके बाद बिल्ला से कहा कि 9 अक्टूबर सुबह उनके साहब आएंगे। मदद करना। बिल्ला ने स्वीकृति दी। 8 अक्टूबर की सुबह सात बजे बिल्ला को चंदर ने फोन किया और कहा कि तिलक पुरी आ जाए। बिल्ला तिलक पुरी से थोड़ी दूर ही था कि गाडिय़ों के काफिले ने उसे रोक लिया। टूरिस्ट गाड़ी से राहुल गांधी को उतरते देख बिल्ला भी हैरान रह गया। राहुल बिना देर किए बिल्ला की मोटरसाइकिल पर बैठ गए और मोबाइल स्विच ऑफ करा दिया। इसके बाद बिल्ला से कहा गया कि 8 अक्टूबर को जहां गए थे, वहीं ले चलें। यह स्थान तिलक पुरी से एक किलोमीटर दूरी पर था। यहां से दो किलोमीटर दूर गांव पथराली, इतनी ही दूरी पर मालीकी तथा एक किलोमीटर दूर पिपरौली गांव पहुंचे। यहां से राहुल कार से गोपालगढ़ गए। इस तरह राहुल ने 6 किलोमीटर का सफर मोटरसाइकिल से तय किया। राहुल के गोपालगढ़ दौरे को लेकर प्रदेश में राजनीतिक चर्चाओं का दौर तेज हो गया है। प्रदेश कांग्रेस और सरकार के रहनुमाओं की नजरें अब राहुल के रुख पर टिकी हैं। उधर भाजपा इस मामले को तूल देने की कोशिश कर रही है। अब देखना यह है कि शह मात के इस खेल में कौन बाजी मारता है।

टीम भूरिया में टसन



विनोद उपाध्याय

मध्य प्रदेश में दो साल पहले की सत्ता का संग्राम शुरू हो गया है। प्रदेश में पहली बार करीब 8 साल तक सत्ता से दूर रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता हथियाने की ललक देखी जा रही है। लेकिन प्रदेश में भाजपा की स्थापित सरकार को हटाने का सपना देख रही कांग्रेस आलाकमान ने छह महीने के इंतजार के बाद प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया को जो टीम दी है उसको लेकर बवाल मचा हुआ है। आलम यह है कि जिन नेताओं को भाजपा से लडऩा था वे अपने में ही जूझ रहे हैं।
कागज ही नहीं धरातल पर भी कांग्रेस से कई गुना मजबूत भाजपा से मुकाबला करने कांतिलाल भूरिया को जो टीम मिली है उसमें 11 उपाध्यक्ष, 16 महामंत्री और 48 सचिव बनाए गए हैं। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पहली बार कांतिलाल भूरिया ने बरसों पुरानी चली आ रही परिपाटी को बदलने की हिम्मत जुटाकर ज्यादातर युवाओं को अपनी टीम का हिस्सा बनाया है, जिनमें कुछ तो काम के हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश नाम कांगे्रसियों के लिए संभवत: एकदम नए हैं। चूंकि भूरिया को काम इन्हीं से चलाना पड़ेगा, लिहाजा उन्हें इन्हीं चेहरों को काम वाला बनाना पड़ेगा। मिशन-2013 के लिए भूरिया को कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री द्वय कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को साथ रखना अनिवार्य होगा। यानी यवाओं के नाम पर भले ही भूरिया को नई टीम सौंप दी गई है लेकिन काम दिग्गजों को ही करना होगा। लेकिन कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की उपेक्षा होने के कारण ये नेता भूरिया का साथ देंगे या नहीं यह शोध का विषय है।
कांग्रेस की कार्यकारिणी घोषित होने के बाद अनेक पार्टीजनों में पैदा असंतोष दूर होने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्रीय नेताओं को चि_ियां लिखी जा रही हैं और राजधानी भोपाल में पर्चेबाजी हो रही है। कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। अपनी वरिष्ठता के मुताबिक पद नहीं मिलने से नाराज कुछ पदाधिकारी कांग्रेस दफ्तर में फटक तक नहीं रहे। उन्हें दिलासा दिया जा रहा है कि सूची में जल्द संशोधन होगा। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की तरफ से इस तरह के कोई संकेत नहीं दिए जा रहे हैं। भूरिया छह माह पहले अप्रैल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। उनकी टीम बनते-बनते छह माह का वक्त लग गया। उम्मीद की जा रही थी कि गुटीय न सही मगर क्षेत्रीयता और वरिष्ठता के लिहाज से पदाधिकारियों की सूची संतुलित होगी, मगर ऐसा नहीं हो पाया। पदाधिकारियों, विशेष आमंत्रित सदस्यों और अन्य समितियों में समायोजित किए गए कुछ चेहरे तो ऐसे हैं, जो वर्षो से घर बैठे थे। ऐसा लगता है कि उन्हें झाड़-फूंक के पद दे दिया गया है।
प्रदेश में अन्य कांग्रेसी नेता भूरिया का साथ दे या न दे दिग्विजय सिंह का उन्हें भरपूर सहयोग मिलेगा। इस बात का संकेत इससे भी मिलता है कि नवगठित प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में अधिकतर दिग्विजय समर्थकों का ही दबदबा है। एक तरफ जहां पार्टी के तीन प्रमुख पदों पर दिग्विजय समर्थकों का कब्जा है वहीं नवगठित कार्यकारिणी में उनके समर्थकों की भरमार है। वहीं जिला इकाइयां भी दिग्विजय सिंह समर्थकों की मु_ी में हैं। राज्य के अन्य प्रमुख नेता केंद्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थकों को अहम जिम्मेदारी दिलाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। असंतोष की आवाज प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के जिले और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के करीबी लोगों से आई है। सचिव बनाए गए रतलाम के राजेंद्र सिंह गेहलोत ने पद लेने से इंकार कर दिया है। भूरिया रतलाम के सांसद हैं। प्रदेश कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष और कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे गेहलोत को भूरिया ने महासचिव बनाने का वादा किया था, लेकिन दिल्ली से जो सूची आयी उसमें गेहलोत सचिव बनाए गए। इससे दुखी गेहलोत ने भूरिया को फोन कर सचिव का पद लेने से इंकार कर दिया है। यही हाल सचिव बने महेंद्र सिंह चौहान का है। वे नेता प्रतिपक्ष सिंह के करीबी हैं। उन्हें भी महासचिव या उपाध्यक्ष बनने की आस थी, लेकिन वे भी इस पद को लेने से मान कर रहे हैं। उनके साथ छात्र राजनीति करने वाले कई नेता महासचिव और उपाध्यक्ष बनाए गए जबकि चौहान को सचिव बना कर संतुष्ट करने का प्रयास किया गया।
नए पदाधिकारियों में से कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी पहचान का संकट मीडिया में ही नहीं, पार्टी में भी है। मसलन भोपाल की तनिमा दत्ता को महासचिव बनाया गया है। उन्हें भोपाल जिला कांग्रेस में कोई पहचानता नहीं है। प्रबंध समिति के साथ उन्हें प्रवक्ता भी बनाया गया है। बताया जाता है कि वे युवक कांग्रेस नेता रहे अश्विनी श्रीवास्तव की नजदीकी रिश्तेदार हैं। उन्हें कैप्टन जयपाल सिंह ने भूरिया से मिलवाया था। दत्ता तो महासचिव बन गई, लेकिन गृहमंत्री रहे कैप्टन को कुछ नहीं मिला है। मगर अब तक प्रदेश कार्यालय में संगठन का कागजी काम देखते रहे केप्टन जयपाल सिंह की क्या भूमिका रहेगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। वह अब तक महामंत्री का दायित्व निभा रहे थे। अंग्रेजी ज्ञान अच्छा होने के कारण पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी ने भी उन्हें अपनी टीम में बरकरार रखा था। बल्कि उनकी गिनती पचौरी के निकटतम सिपहसालारों में होने लगी थी। उन्हें तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष यादव ने प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में जगह दी थी। इसी तरह भूरिया के नजदीकी शांतिलाल पडिय़ार का नाम भी नहीं है। पडिय़ार अब तक प्रभारी महामंत्री की भूमिका में काम कर रहे थे। भूरिया ने अपने दौरों का काम देखने के लिए भोपाल के जिस संजय दुबे को कांग्रेस दफ्तर में टेबिल कुर्सी मुहैया कराई थी, वह भी सूची से नदारद हैं। देखा जाए तो भूरिया की कोर टीम में से सिर्फ प्रमोद गुगालिया ही एकमात्र ऐसे शख्स हैं, जिन्हें प्रवक्ता बनने में कामयाबी मिल सकी है। यह अलग बता है कि भूरिया ने अध्यक्ष बनते ही उनको मीडिया प्रभारी बनाया था। बहरहाल ऐसा क्यों हुआ, इसके कारण तलाशे जा रहे हैं।
भोपाल में केरोसिन का कारोबार करने वाले अब्दुल रज्जाक और निजामुद्दीन अंसारी चांद को सचिव बनाया गया है। रज्जाक के बारे में कहा जाता है कि वे भूरिया को चेहरा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, यहां तक कि भूरिया की यात्राओं के दौरान वे साथ रहने की गरज से रेल या प्लेन का टिकट लेने से भी नहीं हिचकते थे। चांद और ईश्वर सिंह चौहान पिछले चुनावों में कांग्रेस की खिलाफत कर चुके हैं। यही स्थिति एक अन्य महामंत्री जीएम राईन भूरे पहलवान को लेकर है। नई सूची में पदाधिकारी बने एक नेता ने कहा, आपकी तरह हमारे लिए भी ये दोनों नाम खोज का विषय हैं। प्रदेश सचिव बने रज्जी जॉन और जैरी पॉल के मामले में भी ऐसी ही स्थिति है। कांग्रेसी ही सवाल कर रहे हैं कि कौन हैं ये लोग? प्रभारी महासचिव और मुख्य प्रवक्ता रह चुके मानक की 2009 लोकसभा चुनाव के बाद कार्यालय में वापसी हुई है।
उधर उज्जैन से सासद प्रेमचंद गुड्डïू ने भूरिया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। भूरिया से नाराज कई नेता गुड्डïू से जुड़ गए हैं। भूरिया के प्रदेश कार्यकारिणी बनाने के बाद गुपचुप बैठकों के दौर तो शुरू हो गए थे। मगर अब जल्दी ही खुलकर बगावत के आसार बन रहे हैं। कभी कमलनाथ के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले गुड्डïू के घर कमलनाथ समर्थक भी पहुंच रहे हैं। गुड्डïू ने भी नाराज काग्रेसियों से बात करना शुरू कर दिया है। मालवा-निमाड़ के सभी दिग्गज भूरिया के फैसले से नाराज तो थे, मगर विरोध करने की पहल से बच रहे थे। मगर खुद के समर्थकों को दरकिनार करने के बाद गुड्डïू ने भूरिया विरोध की कमान संभाल ली है। बताया जा रहा है कि कमलनाथ के विरोध के कारण जो सज्जन सिंह वर्मा कभी गुडू से खार खाते थे वो भी गुड्डïू के साथ जा खड़े हुए हैं। कांग्रेस नेता पंकज संघवी, विधायक अश्र्विन जोशी भी गुड्डïू के साथ भूरिया विरोध की तैयारियों में जुट गये हैं। वहीं महेश जोशी, शोभा ओझा, सत्यनारायण पटेल की भी गुड्डïू से इस सम्बन्ध में बात हुई है। गुड्डïू सिंधिया खेमे के विरोधी माने जाते हैं। मगर जिन सिंधिया समर्थकों को घर बैठा दिया गया है वो भी गुड्डïू से हाथ मिलाने के लिये तैयार हैं। माना जा रहा है कि आने वाला वक्त भूरिया और प्रदेश काग्रेस के लिए सुकून भरा नहीं होगा।

सबसे ज्यादा हैरानी बुंदेलखंड की स्थिति को लेकर है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने बुंदेलखंड के पिछड़ेपन को दूर करने केंद्र सरकार से अड़तीस सौ करोड़ रुपये का विशेष पैकेज तो दिला दिया, मगर जब पार्टी संगठन में इलाके को प्रतिनिधित्व देने का मौका आया तो धेला नहीं मिला। प्रदेश पदाधिकारियों की 75 लोगों की सूची में से सिर्फ पांच नाम बुंदेलखंड से हैं। यदि प्रवक्ता को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या छह हो जाती है। इसमें भी वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखा गया। बुंदेलखंड में छह जिले हैं। मगर सभी को तरजीह देने के बजाए दमोह और सागर से पांच नाम ले लिये गए। दमोह की हटा तहसील से दो लोगों को शामिल किया गया है। दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में रहे राजा पटेरिया को प्रवक्ता जैसा मामूली पद दिया गया, जबकि उनसे बहुत जूनियर मनीषा दुबे महामंत्री बना दी गई। दोनों ही ब्राह्मंाण हैं। सागर जिले की बात करें तो बीना के अरुणोदय चौबे उपाध्यक्ष और राजेन्द्र सिंह ठाकुर सचिव बनाए गए हैं।
तीन लोकसभा और 23 विधानसभा क्षेत्र वाले इस इलाके में जातीय समीकरणों का हमेशा महत्व रहा है। मगर कांग्रेस की सूची में इसका भी ख्याल नहीं किया गया। वोटों में भागीदारी के लिहाज से देखें तो लगभग 30 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 28 प्रतिशत ओबीसी, पांच फीसदी ब्राह्मंाण, पांच प्रतिशत ठाकुर, चार प्रतिशत मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यक, 15 प्रतिशत आदिवासी और बारह प्रतिशत वैश्य समाज है। मगर दलित, आदिवासी, ओबीसी और वैश्य कांग्रेस की सूची में जगह बनाने में कामयाब नहीं हो सके।
सूत्रों का कहना है कि बुंदेलखंड में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की दिलचस्पी के कारण इलाके के कांग्रेसी इस उम्मीद में हैं कि इस विसंगति की तरफ उनका ध्यान जाएगा तो सूची में सुधार जरूर होगा। जानकारों का कहना है कि इसके पूर्व सुरेश पचौरी के कार्यकाल में बुंदेलखंड से ग्यारह पदाधिकारी थे। भूरिया तो पुराने आंकड़े को ही बरकरार नहीं रख पाए। बहरहाल, कांग्रेसजन किसी तरह राहुल के पास वस्तुस्थिति पहुंचाने में लगे हैं ताकि इस पिछड़े इलाके की भलाई के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री से विशेष पैकेज दिलवाने में जो भावना दिखाई, उसकी एक झलक कांग्रेस की लिस्ट में भी दिखाई पड़े।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी को लेकर भले ही कांग्रेसी हल्ला मचा रहे हो, लेकिन कप्तान भूरिया तो गदगद हैं और वे गर्व से कह रहे है कि इससे अच्छी कार्यकारिणी नहीं बन सकती थी। कांतिलाल भूरिया से जब उनकी टीम को लेकर बात की, तो कहने लगे कि आम कांग्रेसी खुश है। मैंने सबको जगह देने की कोशिश की है। पहली 33 फीसदी महिलाओं को पद दिए हैं। जब उनसे कहा कि टीम का तो विरोध हो रहा है? तो वे बोले - किस बात का विरोध? सभी नेताओं से बात की थी। बड़े नेताओं से नाम लिए थे, जो पंद्रह-बीस साल से काम कर रहे हैं, उनको भी भाव दिया है, सीनियर नेताओं को अनुभव के लिए साथ में रखा। युवाओं को दौडऩे के लिए बनाया। उन महिला नेत्रियों को मौका दिया, जो पहले से महिला कांग्रेस में काम कर रही थी। पार्षद, विधायक और जिला पंचायत प्रतिनिधि रही।
नए चेहरों के पास अनुभव की कमी है, तो अनुभवियों के पास कोई अधिकृत पद नहीं है, ऐसी स्थिति में अब प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष पर ये लोग दवाब बढ़ा सकते हैं। जानकारों का कहना है कि कांगे्रस ने बरसों बाद उन कांगे्रसियों की भी सुध ली है, जो हासिए पर थे। युवा कंधों पर बूढ़ी कांगे्रस का भार मिशन-2013 में कांगे्रस को कितनी मजबूती दे पाता है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, मगर सबसे खास यह होगा कि कांगे्रस अध्यक्ष भूरिया को अब इन्हीं नए और गैरअनुभवी चेहरों के अनुभव को बढ़ाते हुए इस चुनावी रणभूमि में जंग के लिए उतरना होगा।