गुरुवार, 30 सितंबर 2010

माखनलाल हंगामों की पौधशाला

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय इन दिनों पत्रकारिता की जगह हंगामों की पौधशाला बनकर रह गया है। कुलपति बीके कुठियाला के आने के बाद से ही माखनलाल में हंगामों की भेंट सा चढ़ गया है। शह-मात के खेल में जहां अध्यापक जुटे हुए हैं वहीं अपने-अपने गुरुओं को गुरु दक्षिणा के रूप में छात्र उनके समर्थन में कभी हंगामा तो कभी भूख हड़ताल कर रहे है।
हालांकि विश्वविद्यालय चर्चा और विवादों में तो यह शुरु से ही रहा है। आज कुछ लोगों की व्यक्तिगत आशा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा के कारण यह विश्वविद्यालय कुछ अधिक चर्चा में है। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल पूरा होने और नए कुलपति के लिए नामों की चर्चा ने विश्वविद्यालय को और अधिक चर्चित किया। वर्तमान में विश्वविद्यालय का विवाद अपने चरम पर है। ताजा विवाद रीडर के पद पर कार्यरत पुष्पेन्द्रपाल सिंह को पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पद से हटाने को लेकर है। उल्लेखनीय है कि पीपी सिंह एक आरोप की जांच के मद्देनजर तात्कालिक तौर पर विभागाध्यक्ष की कुर्सी से हटाया गया था। पत्रकारिता विभाग की एक संविदा शिक्षिका श्रीमती ज्योति वर्मा की शिकायत और महिला आयोग की नोटिस के कारण उन्हें यह कदम उठाना पड़ा है। यह सब निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी है। शिकायतकर्ता के अनुसार मांगे जाने पर पीपी सिंह अपने ही खिलाफ दस्तावेज कैसे उपलब्ध करायेंगे। इसलिए जांच होने तक किसी अन्य को विभागाध्यक्ष का दायित्व देना लाजिमी है, लेकिन बाद में उसी महिला ने कुलपति डॉ. बीके कुठियाला और रजिस्ट्रार डॉ. एसके त्रिवेदी पर भी आरोप मढ़ डाले। हालांकि महिला आयोग के हस्तक्षेप के बाद पीपी सिंह को पुन: पदस्थ कर दिया गया है।
दरअसल विवाद का कारण जो बताया जा रहा है वह नहीं, उसके बजाए कुछ और है। दरअसल कुठियाला ने आते ही हिदायत दी कि अध्यापन और शिक्षण का काम करना है तो अपने को अपडेट रखो। कम्प्यूटर सीखो, इंटनेट का इस्तेमाल करो। खुद भी स्वाध्याय करो, छात्रों को भी प्रेरित करो। उन्होंने मंशा जाहिर की इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को सही में राष्ट्रीय दर्जा दिलाना है। यूजीसी की मान्यता और अनुदान प्राप्त करना है। जरूरत पड़े तो राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त प्रोफेसर और विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त की जाए। यह बात वर्षों से एकाधिकार और वर्चस्व स्थापित किए कुछ लोगों को यह सब नागवार गुजरा। अपनी दुकान और एकाधिकार की सत्ता पर खतरा देख कुछ स्वनामधन्य गुरु उठ खडे हुए। 'विश्वविद्यालय खतरे मेंÓ का नारा बुलंद कर दिया गया। कुठियाला के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया गया। शुरू से ही विवादों को कई दिशाओं में फैला दिया गया। ताकि कोई भी विवादों की तह तक नहीं जा सके। गौर करें, प्रो. कुठियाला के आने के नाम से ही उनका विरोध शुरु हो गया। उनके विरोध में तरह-तरह की दलीलें पेश की गई। मसलन- कुठियाला संघी हैं, उन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, वे बाहरी हैं। कुलपति बनने की फिराक में लगे कुछ लोगों ने विवि के लिए अपनी मर्जी से योग्यताएं और अनुभव तय करना शुरू कर दिया। कोई कहने लगा मध्यप्रदेश का या भोपाल का कुलपति चाहिए। कोई कहने लगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति कोई पत्रकार होना चाहिए। किसी ने नहीं पूछा कि सुमित बोस, शरदचन्द्र बेहार, अरविन्द जोशी और भागीरथ प्रसाद कहां से पत्रकारिता का अनुभव लेकर आए थे। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र भी पीएचडी नहीं थे, लेकिन कइयों को उन्होंने उपाधि प्रदान की। राज्य शासन द्वारा गठित एक समिति ने जब प्रो. कुठियाला का नाम कुलपति के लिए तय कर दिया तो विरोध करने वाले देखते रह गए। बाद में इन्हीं विरोधियों ने सुनियोजित रूप से मीडिया का दुरुपयोग कर कुठियाला का चरित्र हनन करने का प्रयास भी किया। एक संघी की चरित्र हत्या करने के लिए कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और समाजवादी सब भाई-भाई हो गए। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जारी संघर्ष अब काफी आगे निकल चुका है।
विश्वविद्यालय छात्रों-शिक्षकों व कर्मचारियों के बीच से निकल कर संघर्ष का सिलसिला मीडिया, एनएसयूआई, पत्रकार संगठन, और वामपंथी नेताओं के बीच पहुच गया है। पहले संघ और भाजपा इसे विश्वविद्यालय का मामला समझ कर हल्के में ले रहा था। लेकिन ताजा घटनाक्रम जिसमें श्रमजीवी पत्रकार संघ के शलभ भदौरिया और लज्जाशंकर हरदेनिया ने पीपी सिंह को समर्थन देने की घोषणा की है भाजपा और संरकार के कान खड़े कर दिए हैं। मामले से दूरी बनाकर चल रहे संघ ने भी इसे गंभीरता से लिया है। पीपी सिंह समझौता और संघर्ष की दोतरफा रणनीति अपना रहे हैं। कुलपति कुठियाला भी सधे अंदाज में अपनी चालें चल रहे हैं। अब चुनौती कुठियाला के अस्तित्व को है। पीपी सिंह के साथ उनके कुछ छात्र तो हैं ही। मीडिया में उनके कुछ जातीय और क्षेत्रीय मित्र भी हैं। राजनीति के संघ और भाजपा विरोधी खिलाड़ी भी उनकी मदद के लिए आगे आ खड़े हुए हैं।

मंदिर तोड़ कर बनाई गई थी मस्जिद: हाई कोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि पर फैसला देते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया है। राम चबूतरा और सीता रसोई दोनों निर्मोही अखाड़ा को दे दिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ वकील रविशंकर प्रसाद ने बताया कि तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन ह्स्सिों में बांटा जाएगा। उसका एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है हिंदुओं को मंदिर के लिए) दिया जाएगा। दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच की जस्टिस डी. वी. शर्मा, जस्टिस एस. यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल की बेंच ने इस मामले में अपना फैसला कोर्ट नंबर 21 में दोपहर 3.30 बजे से सुनाना शुरू कर दिया। मीडियाकर्मियों को अदालत जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। बाद में डीसी ऑफिस में बनाए गए मीडिया सेंटर में मीडियाकर्मियों को तीनों जजों के फैसलों की सिनॉप्सिस दी गई। यह फैसला बेंच ने बहुमत से दिया। दो जज - जस्टिस एस.यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल - ने कहा कि जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए। जस्टिस डी.वी. शर्मा की राय थी कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की जरूरत नहीं है। वह पूरी जमीन हिंदुओं को देने के पक्ष में थे।
गौरतलब है कि हाईकोर्ट को 24 सितंबर को ही फैसला सुना देना था, लेकिन पूर्व नौकरशाह रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 23 सितंबर को निर्णय एक हफ्ते के लिए टाल दिया था। याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने त्रिपाठी की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद हाई कोर्ट के फैसले सुनाने का रास्ता साफ हुआ।. अर्से पुराने मुद्दे का दोनों समुदायों के बीच बातचीत से कोई हल नहीं निकल सका। पूर्व प्रधानमंत्रियों- पी. वी. नरसिम्हा राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर ने भी इस मुद्दे के बातचीत से निपटारे की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।
हालांकि, उस जमीन पर विवाद तो मध्ययुग से चला आ रहा है लेकिन इसने कानूनी शक्ल वर्ष 1950 में ली। देश में गणतंत्र लागू होने से एक हफ्ते पहले 18 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर रखी गईं मूर्तियों की पूजा का अधिकार देने की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया था।
तब से चली आ रही इस कानूनी लड़ाई में बाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर अनेक पक्षकार शामिल हुए। अदालत ने इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के सैकड़ों गवाहों का बयान लिया। अदालत में पेश हुए गवाहों में से 58 हिन्दू पक्ष के, जबकि 36 मुस्लिम पक्ष के हैं और उनके बयान 13 हजार पन्नों में दर्ज हुए।
हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए वर्ष 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ( एएसआई ) से विवादित स्थल के आसपास खुदाई करने के लिए कहा था। इसका मकसद यह पता लगाना था कि मस्जिद बनाए जाने से पहले उस जगह कोई मंदिर था या नहीं। हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुई खुदाई मार्च में शुरू होकर अगस्त तक चली।
इस विवाद की शुरुआत सदियों पहले सन् 1528 में मुगल शासक बाबर के उस स्थल पर एक मस्जिद बनवाने के साथ हुई थी। हिंदू समुदाय का दावा है कि वह स्थान भगवान राम का जन्मस्थल है और पूर्व में वहां मंदिर था। विवाद को सुलझाने के लिए तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने वर्ष 1859 में दोनों समुदायों के पूजा स्थलों के बीच बाड़ लगा दी थी। इमारत के अंदर के हिस्से को मुसलमानों और बाहरी भाग को हिन्दुओं के इस्तेमाल के लिए निर्धारित किया गया था। यह व्यवस्था वर्ष 1949 में मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्ति रखे जाने तक चलती रही।
उसके बाद प्रशासन ने उस परिसर को विवादित स्थल घोषित करके उसके दरवाजे पर ताला लगवा दिया था। उसके 37 साल बाद एक याचिका पर वर्ष 1986 में फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज ने वह ताला खुलवा दिया था
समय गुजरने के साथ इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। वर्ष 1990 में वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए एक रथयात्रा निकाली, मगर उन्हें तब बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया गया था। केंद्र में उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी। 31 अक्टूबर 1990 को बड़ी संख्या में राम मंदिर समर्थक आंदोलनकारी अयोध्या में आ जुटे और पहली बार इस मुद्दे को लेकर तनाव, संघर्ष और हिंसा की घटनाएं हुईं।
सिलसिला आगे बढ़ा और 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवा करने के लिए जुटी लाखों लोगों की उन्मादी भीड़ ने वीएचपी, शिव सेना और बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। प्रतिक्रिया में प्रदेश और देश के कई भागों में हिंसा हुई, जिसमें लगभग दो हजार लोगों की जान गई। उस समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में पी. वी. नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार थी। हालांकि, इस बार अदालत का फैसला आने के समय वर्ष 1990 व 1992 की तरह कोई आंदोलन नहीं चल रहा था, बावजूद इसके सुरक्षा को लेकर सरकार की सख्त व्यवस्था के पीछे कहीं न कहीं उन मौकों पर पैदा हुई कठिन परिस्थितियों की याद से उपजी आशंका थी।
अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी पहला मुकदमा वर्ष 1950 में गोपाल सिंह विशारद की तरफ से दाखिल किया गया , जिसमें उन्होंने वहां रामलला की पूजा जारी रखने की अनुमति मांगी थी। दूसरा मुकदमा इसी साल 1950 में ही परमहंस रामचंद्र दास की तरफ से दाखिल किया गया , जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया। तीसरा मुकदमा 1959 में निर्मोही अखाड़े की तरफ से दाखिल किया गया, जिसमें विवादित स्थल को निर्मोही अखाड़े को सौंप देने की मांग की गई थी। चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड की तरफ से दाखिल हुआ और पांचवां मुकदमा भगवान श्रीरामलला विराजमान की तरफ से वर्ष 1989 में दाखिल किया गया। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता की अर्जी पर चारों मुकदमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में स्थानांतरित कर दिए गए थे।
अयोध्या विवाद: 1528 से लेकर 2010 तक
अयोध्या में विवादित भूमि का मुद्दा शताब्दियों से एक भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है और इसे लेकर विभिन्न हिन्दू एवं मुस्लिम संगठनों ने तमाम कानूनी वाद दायर कर रखे हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर इतिहास एवं घटनाक्रम इस प्रकार है :-

1528: मुगल बादशाह बाबर ने उस भूमि पर एक मस्जिद बनवाई, जिसके बारे हिन्दुओं का दावा है कि वह भगवान राम की जन्मभूमि है और वहां पहले एक मंदिर था।

1853: विवादित भूमि पर सांप्रदायिक हिंसा संबंधी घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज पहला प्रमाण।

1859: ब्रिटिश अधिकारियों ने एक बाड़ बनाकर पूजास्थलों को अलग अलग किया। अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों को दिया गया और बाहरी हिस्सा हिन्दुओं को।

1885: महंत रघुवीर दास ने एक याचिका दायर कर राम चबूतरे पर छतरी बनवाने की अनुमति मांगी, लेकिन एक साल बाद फैजाबाद की जिला अदालत ने अनुरोध खारिज कर दिया।

1949: मस्जिद के भीतर भगवान राम की प्रतिमाओं का प्राकट्य। मुस्लिमों का दावा कि हिन्दुओं ने प्रतिमाएं भीतर रखवाई। मुस्लिमों का विरोध। दोनों पक्षों ने दीवानी याचिकाएं दायर की। सरकार ने परिसर को विवादित क्षेत्र घोषित किया और द्वार बंद कर दिए।

18 जनवरी 1950: मालिकाना हक के बारे में पहला वाद गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया। उन्होंने मांग की कि जन्मभूमि में स्थापित प्रतिमाओं की पूजा का अधिकार दिया जाए। अदालत ने प्रतिमाओं को हटाने पर रोक लगाई और पूजा जारी रखने की अनुमति दी।

24 अपैल 1950: यूप राज्य ने लगाई रोक। रोक के खिलाफ अपील।

1950: रामचंद्र परमहंस ने एक अन्य वाद दायर किया, लेकिन बाद में वापस ले लिया।

1959: निर्मोही अखाड़ा भी विवाद में शामिल हो गया तथा तीसरा वाद दायर किया। उसने विवादित भूमि पर स्वामित्व का दावा करते हुए कहा कि अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर हटाया जाए। उसने खुद को उस स्थल का संरक्षक बताया जहां माना जाता है कि भगवान राम का जन्म हुआ था।

18 दिसंबर 1961: यूपी सुन्नी सेन्ट्रल बोर्ड आफ वक्फ भी विवाद में शामिल हुआ। उसने मस्जिद और आसपास की भूमि पर अपने स्वामित्व का दावा किया।

1986: जिला जज ने हरिशंकर दुबे की याचिका पर मस्जिद के फाटक खोलने और की अनुमति प्रदान की। मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।

1989: वीएचपी के उपाध्यक्ष देवकी नंदन अग्रवाल ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक ताजा याचिका दायर करते हुए मालिकाना हक और स्वामित्व भगवान राम के नाम पर घोषित करने का अनुरोध किया।

23 अक्तूबर 1989 : फैजाबाद में विचाराधीन सभी चारों वादों को इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच में स्थानांतरित किया गया।

1989 : वीएचपी ने विवादित मस्जिद के समीप की भूमि पर राममंदिर का शिलान्यास किया।

1990: वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने मस्जिद को आंशिक तौर पर क्षतिग्रस्त किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत के जरिए विवाद का हल निकालने का प्रयास किया।

6 दिसंबर 1992 : विवादित मस्जिद को वीएचपी, शिवसेना और बीजेपी के समर्थन में हिन्दू स्वयंसेवकों ने ढहाया। इसके चलते देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिनमें 2000 से अधिक लोगों की जान गई।

16 दिसंबर 1992: विवादित ढांचे को ढहाये जाने की जांच के लिए जस्टिस लिब्रहान आयोग का गठन। 6 माह के भीतर जांच खत्म करने को कहा गया।

जुलाई 1996 : इलाहाबाद हाई कोर्च ने सभी दीवानी वादों पर एकसाथ सुनवाई करवाने को कहा।

2002: हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से खुदाई कर यह पता लगाने को कहा कि क्या विवादित भूमि के नीचे कोई मंदिर था।

अपैल 2002: हाई कोर्च के 3 न्यायाधीशों ने सुनवाई शुरू की।

जनवरी 2003 : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अदालत के आदेश पर खुदाई शुरू की ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वहां भगवान राम का मंदिर था।

अगस्त 2003 : सर्वेक्षण में कहा गया कि मस्जिद के नीचे मंदिर होने के प्रमाण। मुस्लिमों ने निष्कर्षों से मतभेद जताया।

जुलाई 2005: संदिग्ध इस्लामी आतंकवादी ने विवादित स्थल पर हमला किया। सुरक्षा बलों ने 5 आतंकियों को मारा।

जून 2009 : लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच शुरू करने के 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस बीच आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।

26 जुलाई 2010: इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने वादों पर अपना फैसला सुरक्षित रखा। फैसला सुनाने की तारीख 24 सितंबर तय की।




अयोध्या : कुछ यूं चला देश का सबसे बड़ा मुकदमा
आजादी मिलने और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद की यह घटना है। आजाद भारत में 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में कथित रुप में रामलला प्रकट हुए। सुबह इसकी जानकारी सिपाही माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज रामदेव दुबे को दी। 29 दिसंबर 1949 को आईपीसी की धारा 145 के तहत इसे कुर्क कर लिया गया। इस समय तक भारत पाकिस्तान में आबादी का बंटवारा जारी था, जिसका असर उत्तर प्रदेश के अवध में बेहद कम था। अयोध्या अवध क्षेत्र में है।
अयोध्या विवाद के फैसले के पहले यह जानना जरूरी है कि वास्तव में कानूनी लड़ाई किन लोगों के बीच और किन बिन्दुओं पर है। अयोध्या विवाद आजादी के बाद की मुकदमेबाजी का दिलचस्प और बेहद जटिल नमूना है। अयोध्या मामले में कितने पक्षकार है और कितने मुकदमे है। इसके लिए हमें उन पांच मुकदमो के बारे में जानना होगा जिन पर फैसला सुनाया जाना है। अयोध्या मामले में जिन मुकदमो पर फैसला सुनाया जाना है वे है 1/1989 , 3/1989 , 4/1989, 5/1989 । ये नंबर नए है यानी 1989 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में तीन न्यायधीशों की विशेषखंड पीठ के गठन के बाद दिए गए है। फिर से बता दे कि केस नंबर या 2/1989 वापस हो चुका है, लेकिन विशेष खंडपीठ की सूची में क्रम नहीं बदला गया है। क्रम ज्यों का त्यों है।
आइए अब इन मुकदमो के पक्षकारों को जान लें
पहला मुकदमा : 1/1989 (टाइटिल सूट) गोपाल सिंह विशारद
संविधान लागू होने के ठीक नौ दिन पहले पहला मुकदमा 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने दर्शन पूजन की अनुमति के लिए जिला अदालत में केस दायर किया। जिसमें दर्शन पूजन में विघ्न डालने वालों को रोकने की मांग की गई। इसका पुराना वाद सं या 2/1950-00एस है। इसे गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया था। इनके निधन के बाद 1986 से इनकी जगह इनका बेटा राजेंद्र सिंह विशारद आ गया है।
मुकदमे के प्रतिवादी
गोपाल सिंह विशारद ने यह मुकदमा जिन लोगों के खिलाफ किया है, उनमें 1-जहूर अहमद 2- हाजी फेंकू, 3-मोहम्मद फैकू, 4-मोहम्मद शमी चूड़ीवाला, 5-मोहम्मद अच्छन मियां, 6-उप्र सरकार, 7-डीएम फैजाबाद के के नैयर,8- सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह, 9-एसपी फैजाबाद राम कृपाल सिंह, 10-सुन्नी वक्फ बोर्ड,11-निर्मोही अखाड़ा।
कोर्ट में क्या प्रार्थना की गई
1-यह घोषणा कर दी जाए कि वादी अपने धर्म-नियम तथा रीति के मुताबिक भगवान श्रीराम जन्म आदि विराजमान स्थान जन्मस्थान जिसके पूरब-भंडार चबूतरा, पश्चिम-परती भूमि, उत्तर-सीता रसोई, दक्षिण-परती भूमि के निकट जाकर बिना रोकटोक निर्विवाद निर्विघ्र पूजा दर्शन करने का अधिकारी है।
2-प्रतिवादी गणों विरूद्ध स्थायी व सतत निरोधात्मक आदेश जारी किया जाए, ताकि प्रतिवादी स्थान जन्मभूमि से भगवान रामचंद्र आदि की विराजमान मूर्तियां का उस स्थान से जहां वह है कभी भी न हटाएं। तथा उनके प्रवेश द्वार व अन्य आने जाने के मार्ग बंद न करे पूजा दर्शन में किसी तरह की बाधा न डाले।
क्या किया अदालत ने
अदालत ने सभी प्रतिवादी का नोटिस जारी किया और 16 जनवरी 1950 को अंतरिम आदेश में पूर्जा अर्चना की अनुमति दे दी। 3 मार्च 1951 में अंतरिम आदेश की पुष्टि कर दी। जिला जज भीम सिंह ने अंतरिम आदेश दिया कि यह बात हर तरफ से साबित होती है कि मुकदमा दायर करने से पहले ही मस्जिद में मूर्ति स्थापित थी। कुछ मुसलमानों ने भी अपनी दलील में कहा था कि मस्जिद में 1936 से नमाज के लिए इस्तेमाल नही किया गया जबकि हिन्दू निरंतर इस विवादास्पद स्थान पर पूजा अर्चना करते रहें है। दूसरे पक्ष ने सिविल जज के आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति ओ एच मूथम व रघुवर दयाल की पीठ ने 26 अप्रैल 1955 को अपने आदेश में फैजाबाद सिविल जज के फैसले को बहाल रखा।
दूसरा मुकदमा : 2/1989 (टाइटिल सूट) परमहंस श्रीरामचंद्र दास
पहले मुकदमे की तरह ही दूसरा मुकदमा प्रार्थना पत्र के साथ महंत परमहंस रामचंद्र दास ने 5 दिसंबर 1950 को सिविल जज की अदालत में दायर किया। इस मुकदमे की संख्या थी 25/1950। 1989 में जब हाईकोर्ट की तीन जज की विशेष बेंच बनी तो इसे टाइटिल सूट 2/1989 नाम दिया गया। 1992 में रामचंद्र परमहंस ने यह मुकदमा यानी टाइटिल सूट 2/1989 को 1992 में वापस ले लिया। इसलिए इसका ज्यादा ब्यौरा देने का फायदा नही है।


तीसरा मुकदमा : 3/1989 (टाइटिल सूट) निर्मोही अखाड़ा
विवाद में श्रीरामनंदी निर्मोही अखाड़ा ने तीसरा मुकदमा 17 दिसंबर 1959 को दायर किया गया। दायर किये जाने पर इस मुकदमे का नियमित वाद संख्या 26/1959 00 एस था।
मुकदमे के प्रतिवादी
1- प्रिय दत्त राम रिसीवर रामजन्मभूमि, इनके निधन के बाद जमुना प्रसाद आ गए 2- उप्र सरकार, 3-डीएम फैजाबाद 4-सिटी मजिस्ट्र्रेट5-एसपी फैजाबाद 6-हाजी फेंकू, इनकी मौत के बाद इनके बेटे 6/1 हाजी महबूब और 6/2 अब्दुल अहमद आ गए है। 7-मोह मद फैंक 8-अच्छन मियां, 9-सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड 10-उमेश पांडेय 11-मोह मद फारूख।
मुकदमें में प्रार्थना
यह वाद राम जन्म भूमि के रिसीवर को हटा कर पूजा, पूजन का चढ़ावा, प्रबबंधन सौंपे जाने का दावा करता है। मुकदमें में कोर्ट से प्रार्थना की गई कि जन्मभूमि स्थान उसे सुपुर्दगी में दे दिये जाए।
चौथा मुकदमा : 4/1989 (टाइटिल सूट) सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड
यह वाद पहले वाद के 12 साल पूरे होने के ठीक पहले दाखिल किया गया। इसे सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 16 दिसंबर 1961 में दाखिल किया। इसका नियमित वाद सं या 12/1961 00एस है। फैजाबाद जिला अदालत में दाखिल वाद मस्जिद पक्ष की ओर से पहला है।
क्या प्रार्थना की गई
इस वाद में मांग की गई कि संपत्ति को मस्जिद घोषित कर दिया जाए। मूर्तियों को हटाया जाए और मुसलमानो को कब्जा दिलाया जाए।
कौन है प्रतिवादी
सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपने वाद में निम्रलिखत लोगों व संगठनों को प्रतिवादी बनाया, इन सभी ने पिछले 12 वर्षो के दौरान अलग-अलग समय पर कोर्ट में खुद को इस मुद्दे से प्रभावित बता कर प्रार्थना पत्र दिये थे। 1- गोपाल सिंह विशारद (इनके निधन के बाद इनके बेटे राजेन्द्र सिंह विशारद आ गए) 2- परमहंस रामचंद्र दास (इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्ताराधिकारी सुरेश दास आ गए), 3-निर्मोही अखाड़ा, 4-महंत रघुनाथ दास, 5-उप?्र सरकार, 6-डीएम फैजाबाद 7-सिटी मजिस्ट्र?ेट 8-एसपी फैजाबाद 9-बाबू प्रिय दत्तराम 10-अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, 11-आर्य प्रादेशिक महासभा, 12-अध्यक्ष अखिल भारतीय सनातन धर्मसभा, 13-महंत धर्मदास, 14-पुंडरीक मिश्रा, 15-बाबा बजरंग दास (इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्तराधिकारी महंत रामदयाल शरण आ गए), 16-महंत शेष नरायण दास इन्होने 1991 में समाधि ले ली। 17-रमेशचंद्र त्रिपाठी, 18-महंत गंगा दास, 19-स्वामीगोविंदाचार्य, 20-अखिल भारतीय श्रीराम पुनरोद्धार समिति, 21-प्रिंस अंजुम कदर (शिया समुदाय से इनका इंतकाल हो गया), 22-उमेश पांडेय।
चारों की सुनवाई एक साथ
सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे के दायर होने के तीन साल बाद 6 जुनवरी 1964 को सिविल जज फैजाबाद ने एक आदेश से चार मुकदमों को सुनवाई के लिए एक साथ जोड़ दिया। इसके बाद चारों मुकदमों की एक साथ सुनवाई शुरू हो गई।
पांचवां मुकदमा : 5/1989 (टाइटिल सूट) श्रीरामलला विराजमान
अयोध्या मामले से जुड़े एक मुकदमे में स्वयं श्रीरामलला विराजमान भी वादी है। श्री रामलला का कहना है कि यह मेरी जन्मभूमि है और मेरे भक्तों को मंदिर बनाने में कोई अड़चन न डाली जाए। यह सबसे आखिर में नियमित वाद सं या 236/1989 00 एस नंबर-5/1989 में दाखिल किया गया। इसमें स्वयं श्रीरामलला विराजमान वादी है। सेवानिवृत्त न्यायधीश देवकीनंदन अग्रवाल ने रामलला विराजमान एवं जन्म स्थान को देवतुल्य मान कर वादी मानते हुए दोनों वादियों की ओर से 1 जुलाई 1989 को फैजाबाद की जिला अदालत में दाखिल किया।
प्रार्थना
इस वाद में मुख्य रूप से दो मांग कोर्ट से की गई 1- यह घोषणा की जाए कि अयोध्या में श्री रामजन्म भूमि का संपूर्ण परिसर श्रीरामलला विराजमान का है। 2-प्रतिवादियों के खिलाफ स्थायी स्थगन जारी कर कोई व्यावधान खड़ा करने या कोई आपत्ति करने से या अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि पर नये मंदिर के निर्माण के लिए कोई बाधा खड़ी करने से रोका जाए।
कौन-कौन है प्रतिवादी
इस वाद में उन सभी लोगों को प्रतिवादी बनाया गया जो पिछले मुकदमों में वादी या प्रतिवादी है।
इसमें निम्रलिखित प्रतिवादी है- 1- गोपाल सिंह विशारद की जगह इनके बेटे राजेन्द्र सिंह विशारद 2- सुरेश दास (परमहंस रामचंद्र दास इनके समाधि लेने के बाद इनके उत्ताराधिकारी आ गए), 3-निर्मोही अखाड़ा, 4-सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, 5-मोहम्मद हाशिम, 6- महमूद अहमद, 7-उप्र सरकार, 8-डीएम फैजाबाद 9-सिटी मजिस्ट्रेट 10-एसएसपी फैजाबाद 11-अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, 12-अखिल भारतीय आर्य प्रतिनिधि महासभा, 13-अध्यक्ष अखिल भारतीय सनातन धर्मसभा, 14-महंत धर्मदास, 15-पुंडरीक मिश्रा, 16- महंत रामदयाल शरण, (बाबा बजरंग दास के समाधि लेने के बाद इनके उत्तराधिकारी के रूप में आ गए), 17-रमेशचंद?्र त्रिपाठी, 18-महंत गंगा दास, 19-स्वामी गोविंदाचार्य, 20-उमेश पांडेय, 21-श्रीरामजन्म भूमि न्यास, 22- शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड, 23- प्रिंस अंजुम कदर 24-हाजी मोहम्मद सिद्दिकी 25-वलीउद्दीन तथा 26-मोह मद हाशिम आब्दी। इन सभी ने कोर्ट में अपने दावेदारी पेश की है।
मुकदमों के वाद बिन्दु
- एस नंबर 1/1989 में 17 इश्यू- एस नंबर 3/1989 में 17 इश्यू- एस नंबर 4/1989 में 28 इश्यू- एस नंबर 5/1989 में 30 इश्यू
इनके मुख्य वाद बिन्दु-
1-क्या विवादित स्थल राम जन्म भूमि है?2-क्या प्रश्रगत स्थल बाबर द्वारा 1528 में बनवायी गई बाबरी मस्जिद है?3-क्या वहां पर भगवान श्रीराम की मूर्तियां विराजमान है?4-क्या प्रश्नागत प्रकरण स्थल पर विवादित ढांचा श्री राम जनमभूमि मंदिर को तोड़कर बनाया गया था?5- क्या प्रश्नगत प्रकरण इस्लामिक ला के मुताबिक मस्जिद नही है, क्योंकि वहां मीनारें नही थी और वजू के लिए काइ? स्थान नही था? 6-क्या प्रश्नगत स्थल तीन तरफ से समाधि से घिरा होने के कारण इस्लामिक ला के हिसाब से मस्जिद नही है? 7- क्या प्रश्नगत भवन के अंदर जो खंभे लगे थे उन पर देवी देवताओं जानवरों और अन्य सजीवों के चित्र उकेरे हुए थे, यदि इसका उत्तर हां है तो क्या उक्त स्थान मस्जिद हो सकता है?8-क्या प्रश्नगत भवन रामजन्म भूमि स्थान को तोड़कर बाबर ने बनवाया था? 9-क्या प्रश्नगत प्रकरण स्थल पर अनादि काल से हिंदू अनवरत पूजा इस आस्था व विश्वास केआधार पर परंपरा से करता आ रहा है कि यह स्थल उनके अराध्य देव भगवान राम की जन्मस्थली रहा है? 10-क्या सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद कालबाधित बार्ड बाई लिमिटेशन है।11-क्या विवादित भवन नजूल प्लाट सं या 583 पर मोहल्ला रामकोट अयोध्या में था।12-क्या प्रश्नगत भवन बाबर ने बनवाया था या मीरबकी ने।
कुल 82 गवाह 12 हिन्दू मस्जिद पक्ष के साथ
इन मुकदमो में दोनो पक्षों से 82 गवाह पेश किये गए। जिनमें 54 हिंदू पक्ष की ओर से थे। जिनकी गवाही 7128 पेज में दर्ज की गई। सुन्नी वक्फ बोर्ड व मस्जिद पक्ष ने 28 गवाह पेश किये। जिनकी गवाही 3343 पेज में दर्ज की गई। इस तरह कुल 11472 पेज में गवाही दर्ज हुई।
विशेष खंडपीठ के आदेश पर एएसआई ने गर्भगृह के दायरे को छोड़ कर आसपास की भूमि का उत्खनन किया। खुदाई के बाद हिन्दू पक्ष की ओर से चार गवाह उपस्थित हुए निकी गवाही 1209 पेज में दर्ज हुई। मस्जिद पक्ष की ओर से आठ गवाह पेश हुए जिनकी गवाही 2311 पेज में दर्ज की गई। मुस्लिम पक्ष की ओर से कुल 35 गवाह पेश हुए जिनमें 12 हिदू धर्म को मानने वाले थे। मंदिर पक्ष की ओर से एक भी मुसलमान ने गवाही नही दी।
अयोध्या मामले की तीन न्यायधीशों की विशेष पीठ ने 1989 में सुनवाई शुरू की, 1993 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया। जहां से 1995 में वापस आया। विशेष खंडपीठ ने सुनवाई पूरी करते हुए 26 जुलाई 2010 ओदश रिजर्व किया। खंडपीठ ने 24 सितंबर को फैसला सुनाने की तिथि तय कि लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर तक फैसला सुनाने पर रोक लगा दी।
बताते चलें कि समझौते की मांग कर अयोध्या विवाद का फैसला टलवाने के मामले में चर्चा में आये रमेश चंद्र त्रिपाठी ने रामजन्म भूमि विवाद को लेकर 1969 मे कोर्ट गए थे। कोर्ट ने इन्हे भी पक्षकार मान लिया त्रिपाठी ने 2005 में श्री राम लला विराजमान की ओर से गवाही दी थी।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

हिन्दुत्व क्या है?

स्वामी श्री अड़गड़ानंद दस अगस्त को विस्फोट पर स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी द्वारा रचित पुस्तक ‘शंका समाधान’ से ‘गाय धर्म नहीं जानवर है’ प्रकाशित हुई थी, जिस पर विस्फोट के सुधी पाठकों ने अपना-अपना उन्मुक्त विचार व्यक्त किया है। इस लेख पर कुछ पाठकों ने स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज जी को तमाम तरह से लांक्षित कर उन्हें हिन्दू एवं हिन्दुत्व विरोधी करार देते हुए हिन्दुत्व पर अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। स्वामी अड़गड़ानन्द जी महाराज के हिन्दुत्व की विचार धारा के प्रति तो हिन्दू एवं हिन्दुत्व के प्रति स्वामी अड़गड़ानन्द जी के विचार (अनछुये प्रश्न के माध्यम से) ‘हिन्दुत्व क्या है?’ को प्रस्तुत कर रहा हूं.
विगत दो-तीन सौ वर्षो में करोड़ों हिन्दू सिख के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं, चौबीस करोड़ हिन्दू ईसाई हो गये, तीस-बत्तीस करोड़ मुसलमान बन गये। अम्बेडकर ने कहा था कि मैं हिन्दू जन्मा अवश्य हूँ इसमें मेरा कोई वश नहीं था किन्तु मैं हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं। उत्तर प्रदेश अैार बिहार हरिजन अपने को बौद्ध लिखने लगे हैं। नागपुर में अम्बेडकर जयन्ती पर दस लाख लोग एकत्रित हुए थे, बौद्धिष्ट बनने हेतु। यदि जाति-पाँति छुआछूत और जातीय विद्वेष का नाम ही हिन्दू धर्म है तो कितने लोग हिन्दू रह जायेंगे?

हिन्दू रिसर्च फाउण्डेशन, मुंबई ने हिन्दू, हिन्दुत्व तथा हिन्दुस्तान जैसे शब्दों की आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में लिखा है। उनका आशय है कि सम्प्रति ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति पर विचार करने में समय बर्बाद न कर हिन्दू-धर्म के प्रचार-प्रसार की बात सोची जाय तो अधिक उपयोगी होगी। उनका यह सुझाव सार्थक प्रतीत होता है, है नहीं। ‘हिन्दू’ शब्द को लेकर संस्था बनाना, हिन्दू नाम पर आहें भरना, पश्चाताप करना, आँसू बहाना अलग बात है। प्रश्न है कि हिन्दू-धर्म क्या है, जिसका प्रचार-प्रसार किया जाय? इसके लिए धर्म को मूल रूप मेें जानना, उद्गम से ही उसका साफ-सुथरा परिचय देना होगा।

आश्चर्य होता है कि संस्था का नाम ‘हिन्दू रिसर्च फाउण्डेशन’ होते हुए भी जब वे ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्त्ति के विषय में सोच नहीं सकते तो रिसर्च कौन-सा करते हैं। मूल तथ्यों से पलायन कोई रिसर्च तो है नहीं। आंग्ल भाषा में टंकित उनका पत्र पन्द्रह बिन्दुओं में है। विषय को रेखांकित करने के अनन्तर पत्र की आरम्भिक पंक्तियों में उन्होंने ध्यान दिलाया है कि भारत की 85 प्रतिशत जनता हिन्दू-धर्म स्वीकार करती है। बेशक स्वीकार करती है; किन्तु कब तक कर पायेगी? हाँ, यदि उसे अपना उद्रव और धर्म की व्याख्या मिल जाय तो अवश्य उस पर आरूढ़ रह सकेगी।

द्वितीय बिन्दु में उन्होंने व्यक्त किया है- ‘प्रतीत होता है कि आप हिन्दू धर्म के स्थान पर आर्य-धर्म प्रतिस्थापित करना चाहते हैं।’ उनका यह निष्कर्ष भी भ्रमपूर्ण है। हम सबका आदि धर्मशास्त्र गीता हे। मनुष्य बाद में जन्मा, गीता पहले प्रसारित हुई। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा, अर्जुन! इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में मैंने सूर्य से कहा। सूर्य ने अपने पुत्र आदि मनु से कहा। मनु महाराज ने इस अविनाशी योग को स्मृति मेें धारण कर लिया और स्मृति की परम्परा दी। उन्होंने यही योग अपने पुत्र महाराज इक्ष्वाकु से कहा, इक्ष्वाकु से राजर्षियों ने जाना। इस महत्वपूर्णकाल से यह अविनाशी योग इस पृथ्वी पर से लुप्त हो गया था, मनुष्यों की स्मृति-पटल से ओझल हो गया था, लोग भूल गये थे- वही पुरातन योग, अविनाशी योग मैं तेरे प्रति कहने जा रहा हूँ; क्योेंकि तू प्रिय भक्त है, अनन्य सखा हैं। अर्जुन ने कुछ तर्क-वितर्क के पश्चात् स्वीकार किया कि ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।’ मोह से उत्पन्न मेरा अज्ञान नष्ट हुआ। गोविन्द! ‘स्मृतिर्लब्धा’- जो मनु महाराज ने स्मृति में धारण किया था, जिस स्मृति की परम्परा दी, मैं उस स्मृति को प्राप्त हुआ हूँ। यह अवनिाशी योग मैंने स्मृति में धारण कर लिया है। मैं आपके आदेशों का पालन करूँगा। अर्जुन युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गया। युद्ध हुआ, विजय हुई, एक धर्मसाम्राज्य की स्थापना हो गई। एक सम्पूर्ण धर्मात्मा नरेश युधिष्ठिर अभिषिक्त हुए और एक ही धर्मशास्त्र गीता पुनः प्रसारण में आ गयी।

गीता के आरम्भ में ही अर्जुन ने कहा, गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा क्योंकि कुलधर्म सनातन है। ‘जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः’- यह जातिधर्म और कुलधर्म ही शाश्वत है। युद्धजनित नरसंहार से पिण्डोदक क्रिया लुप्त हो जायेगी, पितर लोग गिर जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे इत्यादि। हमलोग समझदार होकर भी पाप करने को उद्यत हुए हैं। शस्त्रधारी कौरव मुझ शस्त्रविहीन को मार डालें तो मरना श्रेयस्कर है। गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा। यह पाप है- एक धार्मिक भ्रान्ति ने अर्जुन को मौत के मुख में धकेल दिया। गीता के विस्मृत होने का दुष्परिणाम था कि अनेक भ्रान्तियाँ फैल गयीं, जिनमें से एक भ्रान्ति का अनुयायी अर्जुन भी था। जिन कौरवों ने इनके लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया, भीम को विष दिया, वनवासकाल में राक्षसों को नियुक्त किया कि ध्यानरत अर्जुन को मार डालो, वे अर्जुन को निःशस्त्र पाकर क्या छोड़ देते? किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, अर्जुन! तुझे यह अज्ञान किस हेतु से उत्पन्न हुआ। यह न कीर्ति करनेवाला है, न कल्याण करनेवाला है और न ही पूर्व महापुरूषों ने भूलकर भी ऐसा आचरण किया। यह ‘अनार्यजुष्टम्’- अनार्यो का आचरण तूने कहाँ से ले लिया। भगवान् ने बहुत समझाया, अर्जुन ने तर्क-विर्तक किया, अन्ततः उसे दृष्टि मिल, भगवान् का दर्शन किया तब कुछ समझ में आया। अस्तु, जाति-पाँति, छुआछूत, भेदभाव, पिण्डोदक क्रिया भगवान् के शब्दों में अज्ञान है, अनार्यो का आचरण है।

आर्य धर्म नहीं, प्रजाति नहीं, एक व्रत है
अस्तित्ववान् अविनाशी एक परमात्मा है। जो उस एक परमात्मा का उपासक है, उसे प्राप्त करने की नियत विधि का आचरण करता है, आर्य है। गीता आर्य-संहिता है। गीता के अनुसार आत्मा ही शाश्वत है, सनातन है। जो सदा हृदय-देश में विद्यमान है। हम शाश्वत, सनातन के पुजारी हैं। गीता सनातन की प्राप्ति की संहिता है इसलिये भारतीय सनातनधर्मी कहे जाते थे। हम उस हृदयस्थ परमात्मा के पुजारी हैं इसलिये हिन्दू कहे जाते हैं। हृदय में ही उस परमतत्व परमात्मा का निवास है। साधना की सही प्रक्रिया से चलकर जब कभी किसी ने उस परम प्रभु को पाया तो हृदय-देश में प्राप्त किया। संसार एक रात्रि है- ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ जगत्रूपी रात्रि में भी वह ईश्वरीय प्रकाश सबके हृदय में एकरस विद्यमान रहता है। रात्रि में तो इन्दु अर्थात् चन्द्रमा ही रहता है। इसलिए हृदि इन्दु स हिन्दू-हृदय में वह चन्द्रमा के सदृश सदा प्रकाशित है। यह जीवनी शक्ति के रूप में सदा प्रवाहित है इसलिये इसका एक नाम हिन्दू भी है। जब परमात्मा विदित हो जाता है तब पूर्ण प्रकाश है, रात्रि समाप्त हो जाती है। ईश्वरीय आलोक छा जाता है। वहाँ न रात है न दिन। यह आर्यावर्त, सनातनी, हिन्दू अर्थात् हृदयस्थित परमात्मा के व्रती सबका एक ही आशय है। इन नामों का स्मरण कर हम कुछ बदल नहीं रहे हैं, कोई नया नामकरण करनें नहीं जा रहे हैं; केवल यह बता रहे हैं कि कालक्रम से ये नाम हमारे ही है। हम मूल नाम दे रहे हैं, आपको इतिहास से जोड़ रहे हैं। कालक्रम से भाषाएं बदलती गयीं, नाम बदलते गये; किन्तु मूलतः हम वही हैं और हम सबका शास्त्र भी वही ‘गीता’ ही है।

पत्र के तृतीय बिन्दु में उन्होंने पुनः याद दिलाया है कि पचासी प्रतिशत भारतीय अपने को हिन्दू कहते हैं, संसार उन्हें हिन्दू के रूप में मान्यता देता है। अरब निवासी इस देश को हिन्दुस्तान कहते हैं और आप-जैसे हिन्दू शब्द की उत्पत्ति खोज रहे है। वस्तुतः यह कार्य तो शोध संस्थान का ही था कि अपने गौरवशाली अतीत का भी स्मरण करते। वे तो इतने में ही सन्तुष्ट हैं कि पचासी प्रतिशत भारतीय अपने को हिन्दू कहते हैं। भले ही कहते हों किन्तु सन्तुष्ट कोई नहीं है। विगत दो-तीन सौ वर्षो में करोड़ों हिन्दू सिख के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं, चौबीस करोड़ हिन्दू ईसाई हो गये, तीस-बत्तीस करोड़ मुसलमान बन गये। अम्बेडकर ने कहा था कि मैं हिन्दू जन्मा अवश्य हूँ इसमें मेरा कोई वश नहीं था किन्तु मैं हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं। उत्तर प्रदेश अैार बिहार के हरिजन अपने को बौद्ध लिखने लगे हैं। नागपुर में अम्बेडकर जयन्ती पर दस लाख लोग एकत्रित हुए थे, बौद्धिष्ट बनने हेतु। यदि जाति-पाति छुआछूत और जातीय विद्वेष का नाम ही हिन्दू धर्म है तो कितने लोग हिन्दू रह जायेंगे? बम्बई के समीप गोवा, असम, नागालैण्ड, अरूणांचल प्रदेश, केरल, कश्मीर इत्यादि राज्यों में संख्या में ह्रास स्वतंत्रता के पश्चात् हुआ है। जब तक आप धर्म की परिभाषा नहीं देंगे, धर्मशास्त्र के रूप में गीता नहीं देंगे, केवल हिन्दू-हिन्दू कहने से धर्मान्तरण नहीं रूकेगा। हिन्दू आश्वस्त नहीं है। उसे धर्म पर विश्वास दिलाना होगा ताकि वह इस पर टिक सके।

वेदशास्त्र की धमकी देकर, साइनबोर्ड इसका दिखाकर भारत अलग से एक शास्त्र चलाया जाता था, जिनका नाम था स्मृतियाँ, जैसे- मनुस्मृति, पाराशर स्मृति, देवल स्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति इत्यादि। महापुरूषों के नाम से प्रचारित इन स्मृतियों में है- शूद्र भगवान् का भजन नहीं कर सकता। वह वेदवाक्य पर विचार करने मात्र से नरक में जायेगा। उसे सुनकर स्मरण करता है, मन में दुहराता है, तब भी नरक जायेगा। जिह्वा से वेद का उच्चारण कर दे तो उसकी जिह्वा काट लो। यदि यही है आपका हिन्दू-धर्म, वेद और शास्त्र तो कौन इस व्यवस्था में जीना चाहेगा?
शोध संस्थान वालों ने तर्क दिया है कि दक्षिण भारत के लोग अपने को आर्य नहीं मानते ‘द्रविड़’ मानते हैं, हिन्दू मानते हैं। आर्य-दर्शन का प्रचार करने से उत्तर-दक्षिण भारतीयों में घृणा पनपेगी। राष्ट्रीय-गान आपको स्मरण ही होगा। पंजाब, सिन्धु, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंग। हिमाचल..............। ये भू-भाग के नाम हैं। एक श्लोक निरन्तर पढ़ने में आता है-

जम्बूद्वीपे, भारतखण्डे आर्यावर्ते................

जम्बू एक द्वीप है, जिसमें भारत एक खण्ड है, जिसमें आर्यव्रती लोग निवास करते हैं। आर्य एक व्रत है, किसी भू-भाग का नाम नहीं। भारत के प्रान्तों के नाम हैं-द्राविड़, गुजरात, मराठा आदि। आर्य कोई भू-खण्ड नहीं वरन् एक व्रत है, गुणवाचक है। आर्य कोई प्रजाति है, यह विष-वमन तो अंग्रजों को कुप्रचार है। प्राचीन आर्षग्रन्थों में ‘आर्य’ शब्द की व्याख्या पर्याप्त है। भगवान बाल्मीकि, भगवान् बुद्ध की वाणी में, भगवान् महावीर और भगवान् व्यास की वाणी में ‘आर्य’ शब्द पर प्रचुर प्रकाश डाला गया है। इनमें से किसी का उदाहरण न देकर आर्यो के विषय में अंग्रजों ने क्या कहा? मैक्समूलर ने मध्येशिया, तो किसी ने काकेशस पर्वत को उनका मूल निवास बताया; क्योंकि वहाँ संस्कृत भाषा के दो-चार शब्द मिले हैं। क्या यह सम्भव है कि आर्य जब भारत आने लगे, मूल निवास से सब कुछ अपने साथ बाँध लाये और वहाँ संस्कृत के दो-चार शब्द ही छोड़ा? एक भी वेद उन पूर्वजों के गाँप में नहीं छोड़ा? आर्य और अनार्यो में फूट डालकर राज्य करो, अंग्रेजों की दुरभिसन्धि थी, जिसका शिकार आंग्लभाषी विश्वविद्यालयों के छात्र हुए। यदि छात्र यही सब न लिखें तो उत्तीर्ण कैसे होते? ब्रिटिश प्रशासन के अन्तर्गत लार्ड मैकाले की कुत्सित शिक्षा योजना का परिणाम आर्य और अनार्यो का विभाजन है। आर्यो की विशुद्ध परिभाषा आश्रमीय साहित्य ‘शंका समाधान’, ‘जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति’ इत्यादि पुस्तकों में द्रष्टव्य है। दक्षिण भारतीय भी कार्य ही हैं। अंगद आर्य थे, विभीषण आर्य थे, रावण के पिताश्री भी कार्य ही थें आरम्भिक आर्य सूर्य, चन्द्र, कुबेर, वरूण इत्यादि थे। भगवान् श्रीकृष्ण आर्य थे। आर्य एक व्रत है, जो अस्तित्व एकमात्र परमात्मा के प्रति आस्थावान् है, आर्य है न कि कोई प्रजाति या धर्म। धर्म साधना का नाम साधना को धारण करना धर्म है।

शोध संस्थान को सन्तोष है कि अरबवाले इस देश को हिन्दुस्तान तो कहते हैं। मुसलमान हिन्दुओं को काफिर भी कहते हैं, नास्तिक मानते हैं, पापी मानते है और हिन्दुस्तान को पाक करने के षड्यन्त्र करते ही रहे हैं, कभी जनेऊ जलाया गया, चोटी काटी गयी तो कभी जजिया कर लगया गया। उस युग में तीन विभूतियाँ ऐसी निकल आयीं, जिन्होंने हिन्दुओं को समूल नष्ट होने से बचा लिया। वह थे-महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह जी और छत्रपति शिवाजीं इन तीनों ने ही हिन्दुओं की दकियानूसी परम्परा का पालन नहीं किया। महाराणा प्रताप ने कोल-भीलों को शस्त्र पकड़ा दिया, इन्हीं में रहे, साथ भोजन किया, उन्हें सम्मान दिया। ‘ महाराष्ट्र में जो जन्मा है, मराठा है’-कहकर शिवाजी ने सबको शस्त्र पकड़ा दिया। गुरू गोविन्द सिंह जी ने शिष्यों को शस्त्र धारण कराया, कहा, ‘सभी सिंह हैं’ कर्मकाण्डी लोग पीछा करते ही रह गये। इन महापुरूषों ने उन्हें भगा दिया। सबके साथ खाना-पीना, रहना उनका हिन्दू-धर्म था। आर्य शब्द को विकृत करने के प्रयास हुए हैं, इसीलिए लोगों में इस शब्द से भ्रान्ति है। दयानन्द जी ने भी इसकी उत्पत्ति तथा प्राचीन ग्रन्थों में इस शब्द की व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया। जब उन्होंनं वेद को शास्त्र कहा, तो लोगों ने स्मृति को शास्त्र बताया। अब मूलस्कृति के रूप में गीता आ गयी तो कहते हैं वेद शास्त्र है? दयानन्द जी को मुसलमानों ने नष्ट नहीं किया, ईसाइयों ने नहीं किया इन्हीं हिन्दुओं ने किया। दयानन्द जी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श ही दे रहे थे। किन्तु विश्व में फूट डालनेवालों ने ही उन्हें हर बार विष द्वारा मारने का प्रयास किया; अतः वेद धर्म है, शास्त्र धर्म है- एक ढाल मात्र है। इनका नाम लेने से लोगों की श्रद्धा झुक जाती है। जाल फेंककर चना दिखाकर बन्दर पकड़ने जैसी गर्हित कला है।

शोध संस्थान को गर्व है कि विदेशी लोग भारतीयों का हिन्दूरूप में आदर करते है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, हिटलर और मुसोलिनी से भारत की स्वतन्त्रता के लिये सहयोग चाहते थे। उनका (हिटलर आदि का) विचार था कि भारत कभी आजाद हो ही नहीं सकता। भारतीय अपना शासन स्वयं करने में सक्षम नहीं हैं। भारत जातियों, विविध धर्मो और भाषाओें में, भाई-भतीजावाद, पक्षपात, जातीय विद्वेष में इतनी उलझा हुआ है कि आगामी दो सौ वर्षो में भी अपना शासन स्वयं चलाने योग्य नहीं हो सकता। सर्पों को बीन बजाकर या बन्दर को डुगडुगी बजाकर नचाने के अतिरिक्त भारतीय कर ही क्या सकते हैं? छुआछूत, भेदभाव के कारण भारतीयों को विदेशों में जाहिलों, मूर्खो का समाज समझा जाता है।

नवम बिन्दु में संस्थान के संचालक महोदय का मानना है कि ‘‘हिन्दू शब्द पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारतीयों को एकता के सूत्र हिन्दू ईसाई हो गये। कहीं कोई पंडित चन्दन लगाकर निकलता है तो बच्चे ताली बजाने लगते हैं? कौन कहता है इस शब्द से सभी खुश हैं? यदि खुश ही थे तो ईसाई क्यों बन गये? क्यों बनते जा रहे हैं? जब तक धर्म की सही परिभाषा न दी जाय, बिना परिचय के कोई गर्व कैसे करेगा?

ग्यारहवाँ बिन्दु भी विचारणीय है कि पूर्वज अपने को हिन्दू कहते थे। भाष, इतिहास और गीता पर प्रतिबन्ध लग जाने से यह ‘हिन्दू’ नामकरण विस्मृत हो चला थां हिन्दू शब्द दस-ग्यारह सौ वर्षो से ही पुनः प्रचलन में है। अभी पुष्यमित्र शुंग के समय में विभिन्न स्मृतियाँ लिखी गयीं उनमें भी हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है। शुंगकाल में वर्णित संस्कृत वर्णमाला, शब्दकोश इस शब्द से अनभिज्ञ है। गीता इस शब्द को अवश्य समर्थन देती है कि ईश्वर हृदय-देश में निवास करता है, सहज प्रकाश छोड़ता ही रहता है। इन्दु से हिन्दू की उदारवादी व्याख्या आप देख सकते हैं। गीता वेद-शास्त्रों का भी मूल है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओपप्रोत है, सम्पूर्ण विश्व का यह आदि धर्मशास्त्र है।

भारत को विश्वगुरू होने का गौरव प्राप्त था, किन्तु मध्यकाल में विश्व से आगन्तुक शिष्यों ने कुएँ में रोटी टुकड़ा डाल दिया तो गाँव का गाँव मुसलमान हो गया। इस विकृति को जीवित रखने के लिए करोड़ों आचार्य आचार्य लगे हैं, जिन्हें पुरोहित कहते हैं, जो घर-घर जाकर जन्म-मृत्यु या विवाह के अवसर पर विकृतियों को ही संरक्षण दे रहे हैं- नमोब्रह्मण्य देवाय, गो ब्राह्मण हिताय च.........उनके शिकंजे से आपे कैसे बचेंगे? अतः धर्म को जानने के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श के लिए आप सभी गीता लें। प्रचार-प्रसार का अन्य वैज्ञानिक उपाय नही है। भगवान् ने स्वयं कहा, अर्जुन! अन्य विधियों से जो भजते हैं, उनके जीवन में न सुखहै न समृद्धि है और न परमसिद्धि ही है। ‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ’- तुम्हारे कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में यह गीता शास्त्र ही प्रमाण है, क्योंकि जिन प्रभु को धारण करना धर्म है उन्हीं का सन्देश गीता है।

हिन्दू शोध संस्थान को दुःख है कि आज कोई वसुधैव कुटुम्बकम् की बात नहीं करता। यही मान लेते तो विश्वगुरू भारत, संसार का हर मानव शिष्य, तो शिष्यों के छूने, खाने से गुरू जी रसातल में क्यों चले जाते? आधा अरब भारत ही था। अल्ताई पहाड़, हिन्दूकुश, मलाया, जावा, सुमात्रा, सिंहल, चीन, जापान और मिस्त्र तक भारत ही तो था। आज कैलाश मानसरोवर के लिए भी वीसा पासोर्ट लेना पड़ता है। यह सिमट क्यों गया? इसकी जड़ में धार्मिक भ्रान्ति है जो करोड़ों में फैली है। आप एक स्थल से शिक्षा देकर इनका दुष्प्रभाव कैसे कुण्ठित कर सकेगें। आवश्यकता है इन धर्माचार्यो को सही दिशा देने की। उन्हें सत्य प्रसारण की विधि प्रदान करें। उपनिषदों और वेदों का मूल है गीता, सृष्टि का आदिशास्त्र है गीता, पर शोध संस्थान की दृष्टि क्यों नहीं पड़ी?

हिन्दू शोध संस्थान ने अन्त में सुझाव दिया है कि धार्मिक उद्देश्य से गठित संगठनों को राजनीति से पूर्ण विरत रहना चाहिए। धर्म का शुद्ध स्वरूप जिन्हें उपलब्ध है, ऐसे संगठन राजनीति में कभी जा ही नहीं सकते। धर्म उन्हें किसी में फूट डालने का अवकाश ही नहीं देता। यह तो वही कर सकते हैं जो धर्म नहीं जानते। धर्म की दृष्टि में विश्व का मानव-मात्र एक इकाई है। अन्य किसी ग्रह पर अतिरिक्त जनसंख्या है तो उसके लिए भी धर्म में इतनी जगह बनी हुई है। गीता के अनुसार, एक पिता की सन्तान के रूप में वे एक जगह खा-पी सकते हैं, सम्बन्ध भी कर सकते हैं। संस्थानों ने बौद्धिकों का आह्नान किया है कि उदारवादी व्याख्या द्वारा हिन्दू-धर्म प्रचार-प्रसार में लगें। वस्तुतः बुद्धि के बल पर शास्त्रों को समझने का प्रयास ही गलत है। शास्त्र कोई विरला महापुरूष ही जानता है और उनके संरक्षण में कोई विरला ही अधिकारी पढ़ता है। पचासों भाषा पढ़कलर भी शास़् के विषय में कोई कुछ नहीं जानता। श्रीकृष्ण कहते हैं, अर्जुन! इस ज्ञान को जानने के लिए तत्वदर्शी महापुरूष की शरण में जाओ। रामचरितमानस में है, ‘जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी’- यह तो महापुरूषों के क्षेत्र की वस्तु है। आप उनसे परामर्श लेते रहेंगे तो कभी भी सन्देह नहीं होगा।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

धर्म के नाम पर सब चलेगा भाई

'पावन पत्नियों की एक त्रासद कलुषित कथा

भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा में करने के नाम परपुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई देवदासी प्रथा घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई हो लेकिन देवदासियां आज भी हैं। इस बात को बल हाल ही में रितेश शर्मा की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म 'द होली वाइव्सÓ से मिला है। दिल्ली में प्रदर्शित की गई इस फिल्म में देवदासी प्रथा जैसी उस कुरीति पर सवाल उठाए गए, जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया में आजकल मुश्किल से ही कोई बहस होती है। यह फिल्म बताती है किस तरह इस दौर में जहां महिला अधिकारों को लेकर हल्ला मचाया गया, घरेलू हिंसा विरोधी कानून बने और महिला अधिकारों पर कई बहसें हुईं, बावजूद इसके कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं जहां इन कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, वो भी धर्म के नाम पर और पूरी तरह सार्वजनिक तौर पर।
अपनी फिल्म के निर्माण के दौरान रितेश उन इलाकों में गए, जहां महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है और कई बार बलात्कार तक का शिकार होना पड़ता है। लेकिन जीविकोपार्जन और सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। अपने प्रारंभिक दौर में देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं जो पढ़ी-लिखी और विदुषी हुआ करती थीं, मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं और देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। समय ने करवट ली और इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगल काल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।
आज भी कहीं वैसवी, कहीं जोगिनी, कहीं माथमा तो कहीं वेदिनी नाम से देवदासी प्रथा देश के कई हिस्सों में कायम है। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों का मानना है कि यह प्रथा आज भी अगर बदस्तूर जारी है तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी महिलाओं की सामाजिक स्वीकार्यता है। इससे बड़ी समस्या इनके बच्चों का भविष्य है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनकी मां तो ये देवदासियां हैं, लेकिन जिनके पिता का कोई पता नहीं है। ये तमाम समस्याएं उठाने वाली रितेश की इस फिल्म को मानवाधिकारों के हनन का ताजा और वीभत्स चित्रण मानते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जा रहा है। रितेश हालांकि मानते हैं कि फिल्म के प्रदर्शन से ज्यादा जरूरी है कि इस विषय पर हमारे देश की कानून व्यवस्था कोई ठोस कदम उठाए, जिससे न केवल इस कुप्रथा का उन्मूलन हो, बल्कि ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा सके, जो इस कुप्रथा की गिरफ्त में हैं।
देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी स्त्रियों को कहते हैं जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हे उच्च स्थान प्राप्त होता है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में इनकी स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताोओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।
कुछ दिनों पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेलोर की खबर चलते देखी। खबर कुछ ऐसी थी कि 12-13 साल की बच्चियो को देवदासी चुना गया और उन्हे अगले कुछ सालों तक देव और देवियों यानी भगवान की सेवा मे अपना जीवन व्यतित करना है समाज में इन बालिकाओं का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा। पर देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश थी कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी, और देखरेख का अधिकार प्राप्त हो गया है. वहा रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा जिनके साथ वह पैदा हुई है. कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियो के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया। भीड़ के आगे प्रतिनिधित्व करती इन किशोरियों का बालमन जब परिपक्व होगा ? बढती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी , और ये यादें साथ होंगी तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी ? कैसे जी पाएंगी वो इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाइएगा.
हम थोडा पीछे इतिहास के आइने मे देखे तो यह समझना आसन हो जाएगा की 6वीं और 10वीं शत्ताब्दी मे इसका क्या स्वरुप था और बाद मे यह कितना विकृत हो गया था। राजाओ और सामंतो के लिए यह भोग विलास, और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान बन चुका था. इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोल ने.सदियों के गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यो की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण , इस कुप्रथा की जड़े इतनी गहरी है कि वो इन बच्चियो के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी है। जो मैंने देखा और जो अनुभव किया उसमे दो चीजे थी। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम जो इन नाबालिग बच्चियो का उत्साहवर्धन कर रहे थे? और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी। जबकि कर्नाटक मे प्रशासन ने 1982 मे और आन्ध्र प्रदेश मे 1988 मे इस प्रथा पर रोक लगा दी थी. पर 2006 मे हुए सर्वे मे यह बात निकल कर सामने आई की इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है. उन समुदाय की भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है. और उन्हें कोई मतलब नहीं है की इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है. समय- समय पर फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है लेकिन हमारे यहाँ की जनता जो की मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी है ने नकार दिया. फिल्म परनाली इसका बेहतरीन उदहारण है. कि कैसे देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लडती है.
लेकिन यहाँ सवाल ये है की अगर कोई मौत होती है और गाजे -बाजे के साथ मौत का जनाजा निकलता है,तो भी लोगो को मालूम चल जाता है, पर यहां तो गाजे बजे के साथ इन बच्चियों के भविष्य का तमासा निकाला जा रहा था। सदियों से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है जिसका आज के समय मे कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कही ज्यादा उन बच्चियो के भविष्य के नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है, उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है । पर इस उम्र मे उन कोमल बालिकाओ को सपने देखने का अधिकार भी नहीं है।
इसके इतर एक अच्छी खबर यह है कि पुरी के प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर में 800 साल पुरानी देवदासी परंपरा खत्म होने के कगार पर है और यहाँ विशेष अनुष्ठानों के लिए केवल दो ही देवदासियाँ हैं। इस बात का पहले से ही आभास होने पर मंदिर प्रशासन ने परंपरा को जीवंत रखने के लिए 90 के दशक की शुरुआत में नई देवदासियों को जोडऩे का प्रयास किया था लेकिन इस पद्धति के खिलाफ देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के चलते और महिलाओं के इसमें रुचि नहीं दिखाने से ये कोशिशें नाकाम रहीं। 12वीं सदी के इस मंदिर में 36 अलग-अलग सेवाएँ देवदासियों द्वारा की जाती हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें महरी कहा जाता है।
एक शोधकर्ता रवि नारायण मिश्रा ने कहा कि देश में यह एक मात्र विष्णु मंदिर है, जहाँ महिलाओं को नृत्य और गायन के अलावा विशेष अनुष्ठान करने की भी इजाजत होती है। महरी सेवा एक मात्र सेवा है, जिसमें महिलाओं की एक बड़ी भूमिका होती है। पुजारी रवींद्र प्रतिहारी कहते हैं कि एक महिला के बिना इस अनुष्ठान को नहीं किया जा सकता। जगन्नाथ मंदिर प्रशासन के उप प्रशासक भास्कर मिश्रा ने कहा कि इस बार नंदोत्सव के दौरान महिलाओं की सेवा नहीं ली जा सकी। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव में देवदासियाँ उनकी माँ की भूमिका में होती हैं। भास्कर मिश्रा ने कहा कि 80 साल पहले इस मंदिर में दर्जनों देवदासियाँ थीं लेकिन अब केवल दो शशिमणि और पारसमणि रह गई हैं। उन्होंने कहा कि 85 वर्षीय शशिमणि के बाएँ पैर में फ्रेक्चर होने के कारण वह बिस्तर पर हैं वहीं पारसमणि ने भी लंबे समय से मंदिर आना बंद कर दिया है। मंदिर के पास अपने कमरे में बिस्तर पर ही रहने को मजबूर शशिमणि कहती हैं कि वह अब सेवा नहीं कर सकतीं, जो कि वह आठ साल की उम्र से करती आ रहीं हैं।
उन्होंने कहा कि मैं आठ साल की उम्र में महरी बन गई थी। मैं उस समय से मंदिर के अनुष्ठानों में भाग ले रही हूँ। शशिमणि ने कहा कि लोग देवदासियों का सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की 'जीवित पत्नीÓ माना जाता है। उन्होंने कहा कि वह मेरे पति हैं और मैं उनकी पत्नी। इस बारे में कोई विवाद नहीं है।
उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र की देवदासियों ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुंबई में अपना अर्धनग्न प्रदर्शन किया. वे सरकार के सामने पहले ही अपनी मांगे कई बार रख चुकी हैं तथा विरोध प्रदर्शन कर चुकी हैं. उन्हें उम्मीद है कि अब इस अनोखे अर्धनग्न प्रदर्शन से सरकार दबाव में आ जायेगी और उनकी सुनवाई हो सकेगी. यह एक अलग ही प्रश्न है जो हमारे समाज की संरचना पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि इस जमाने में भी देवदासी प्रथा जीवित क्यों है. यह प्रथा जिसमें माना जाता है कि इन महिलाओं का विवाह भगवान् से हुआ है और वे उन्हीं की सेवा के लिए मंदिर के प्रांगण में रहती है. लेकिन हकीकत का सभी को पता है कि ये महिलायें निराश्रित की तरह और बदहाल होती हैं और भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा में क्या करेंगी, उन्हें तो वहां के पुजारियों और मठाधीश की सेवा करनी पड़ती है.
यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इन देवदासियों, जिन्हें जोगिनियां भी कहा जाता है के बच्चों की स्थिति का संज्ञान लिया और आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा कि उसने इन बच्चों के कल्याण के लिए क्या किया है. 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था जिसमें इन बच्चों की दुर्दशा को बयान किया गया था. और जिसे कोर्ट ने जनहित याचिका मान लिया था.मानवाधिकार आयोग के 2004 के एक रिपोर्ट में इन देवदासियों के बारे में बताया गया है कि देवदासी प्रथा पर रोक के बाद वे देवदासियां नजदीक के इलाके में या शहरों में चली गयी जहां वे वेश्यावृत्ति के धंधें में लग गयी. 1990 के एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 45.9 प्रतिशत देवदासियां एक ही जिलें में वेश्यावृत्ति करती हैं तथा शेष अन्य रोजगार जैसे खेती-बाड़ी या उद्योगों में लग गयी. 1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन लगभग कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है.
इस प्रथा को कई सारे दूसरे स्थानीय नाम से भी जाना जाता है. राष्ट्रीय महिला आयौग ने भी अपनी तरफ़ से पहल लेकर इन महिलाओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए राज्य सरकारों से सूचना मांगी. इसमें कई ने कहा कि उनके यहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है जैसे तमिलनाडू. ओडि़शा में बताया गया कि केवल पुरी मंदिर में एक देवदासी है. लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का आंकड़ा पेश किया. महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी, जब महिला आयोग ने उनके लिए भत्ते का एलान किया तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया. बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं पायी गयी.

मुंह में राम गड़बड़ काम

धर्म किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है। यदि आज पृथ्वी पर धर्म का पालन होता है, तो वह भी भक्त और उसकी भक्ति के कारण। भक्त है, तो भक्ति है, भक्ति है, तो भगवान है। कलियुग में साधु-संत को भगवान का रूप माना जाता है लेकिन अपने भक्तों कि अंध भक्ति का फायदा उठाकर कुछ साधु-संतों ने ऐसा कृत्य कर डाला है कि भगवान-भक्त की परंपरा को संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है। धर्म चाहे हिन्दू हो या फिर इस्लाम या ईसाइयत, सभी मेें ऐसे संत, मौलवी और पादरियों की भरमार है जिन्होंने धर्म के नाम पर लोगों को ठगा नहीं हो। भारत सहित पूरा विश्व इन दिनों एक ऐसे संक्रमणकाल से गुजर रहा है जहां एक धर्म दूसरे धर्म के प्रति संदेह की नजर से देख रहा है। भारत में जहां इसी माह अयोध्या बनाम बाबरी मस्जिद प्रकरण का फैसला आने वाला है, वहीं अमेरिका में कुरान जलाने की घोषणा से बवाल मचा हुआ है ऐसे में ऋषि-मुनियों और साधु संतो की धरती पर एक बार फिर बाबाओं ने धर्म को धंधे में तब्दील हो जाने का प्रमाण दिया है।
ताजा मामला सुधांशु महाराज, आसाराम बापू, दाती महाराज, स्वामी सुमनानंद आदि से जुड़ा है। एक टीवी चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिये आसाराम बापू, सुधांशु महाराज और दाती महाराज समेत पांच नामी बाबाओं की पोल खोली है। देश के कई मशहूर धर्म गुरु एक बार फिर नंगे हो गए। जिन लोगों की पोल खोली गई है उनमें अपने आपको सिद्ध और अवतार तक बताने वाले धर्म गुरु शामिल है। देश में साढ़े तीन सौ से ज्यादा आश्रम चलाने वाले आसाराम बापू अपने हरिद्वार के आश्रम में कहते हैं कि चंबल के डाकू तक उनके यहां आ कर छिपते हैं और पुलिस वालों की हत्या करते हैं फिर भी किसी की हिम्मत नहीं कि आश्रम में घुस कर किसी को पकड़ ले जाए। अमेरिका में धोखाधड़ी के एक बड़े आरोप में फंसी बताई गई एक युवती को आसाराम डंके की चोट पर शरण देने का प्रस्ताव रखते हैं। बापू ने इस महिला को अपना काला धन सफेद करने के रास्ते भी बताए। मगर काले सफेद की हेरा फेरी में असली उस्ताद सुधांशु महाराज को माना जा सकता है। सुधांशु महाराज ने तो मॉरीशस में जमा अरबो डॉलर का काला धन भारत लाने के रास्ते भी जानते हैं और कमीशन मिलने पर बताने के लिए भी तैयार है। सुधांशु महाराज का आश्रम पश्चिमी दिल्ली के नजफगढ़ में है। लेकिन वे जासूस रिपोर्टरों की टीम से मनाली आश्रम में मिले और मॉरीशस से पैसा लाने का पूरा इंतजाम करने का आश्वासन दिया। यह भी कहा कि सारा पैसा मेरे आश्रम के जरिए ही आएगा।
टीवी चैनलों पर पागलो की तरह चीखने चिल्लाने वाले शनि के उपासक होने का दावा करने वाले मदन महाराज उर्फ दाती गुरुदेव ने दक्षिणी दिल्ली के छतरपुर इलाके में विराट और भव्य आश्रम बना रखा है। एक व्यापारी परिवार के कल्याण के लिए दाती महाराज नाम के इस संत ने उपहारों के तौर पर पंद्रह लाख रुपए मांग लिए। एक हैं महाराज महर्षि स्वामी सुमनानंद सरस्वती। उन्होंने कई प्रधानमंत्रियों और बड़े अफसरो से पहचान होने का दावा कर के बड़े बड़े टेंडर पास करवाने का प्रस्ताव रखा और कमीशन मांगा।
ये स्वामी जी दिल्ली छावनी में एक बड़े सेना अधिकारी के साथ मिले थे। सुमनानंद ने 150 करोड़ के टेंडर के लिए बीस प्रतिशत कमीशन मांगा जिसमें से एक प्रतिशत एडवांस था। लोगों को आध्यात्म का रास्ता समझाने वाले इस कमीने सुमनानंद ने एक काली कार, एक तगड़ा ड्राइवर और एक आयातित बेबले एंड स्कॉट पिस्तौल भी मांगी। यह भी अपराधियों को संरक्षण देने का दावा कर रहे है।
एक बाबा हैं तांत्रिक भैरवानंद जिनकों महाकाल के नाम से भी जाना जाता है। दावा करते है कि बहुत सारे प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों से न सिर्फ उनकी पहचान है बल्कि वे सब उनके चरण छूते रहे हैं। मांग पर महाकाल उर्फ भैरवानंद एक तांत्रिक क्रिया करने को तैयार हो गए जिससे व्यापारी बन कर गए संवाददाताओं के एक दुश्मन को तंत्र साधना द्वारा जान से मारना था। कुटिल हंसी हंसते हुए महाकाल ने कहा कि तंत्र से मारने में हत्या का मुकदमा भी नहीं चलता। इन बाबाओं को कौन सी सजा दी जाएगी पता नहीं मगर ये पहले भी नंगे होते रहे है। इस देश में बाबा होना एक सफल कारोबार बन गया है और अब के बाबा इतने हाईटेक हो गए हैं कि जवाब नहीं। इसीलिए समझ में आता है कि च्रंदास्वामी जैसे बाबाओं का जमाना इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गया।
एक बाबा हुआ करते थे स्वामी सदाचारी। उनसे बड़ा दुराचारी अब तक दूसरा नहीं देखा गया। असली नाम था विनोदानंद झा और एक जमाने में चंद्रास्वामी के रसोईए थे। वही से खुद बाबा बनने की इच्छा प्रकट हुई तो दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी में एक विधवा महिला के घर पर कब्जा कर के आश्रम बना लिया। इस महिला ने बाद में सदाचारी पर बलात्कार और संपत्ति हड़पने का आरोप भी लगाया। सदाचारी इतने बड़े कलाकार थे कि अनपढ़ होने के बावजूद उसने अपनी एक जीवनी हिंदी में छपवा रखी थी जिसके लेखक के तौर पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का नाम था। बताया जाता था कि यह अंग्रेजी किताब का हिंदी अनुवाद है। इस किताब के अनुसार रीगन बाबा के भक्त थे। वैसे सामान्य ज्ञान के पन्ने के पन्ने देशों की राजधानियों के नाम सहित छाप दिए गए थे और कहा गया था कि सदाचारी के आश्रम यहां यहां यानी पूरी दुनिया में है। सदाचारी कभी स्कूटर पर चलते हुए देखे जाते थे, फिर उन्हें मसर्डीज में घूमते और हैलीकॉप्टर में उड़ते भी देखा गया और अंत में तो उन्हें एक खटारा स्कूटर पर घूमते हुए देखा गया, तब वह तिहाड़ जेल से जमानत पर छूटे थे।
एक कापलिक बाबा हैं। जन्म से बंगाली हैं और इंसान की खोपड़ी में रख कर खाना खाते हैं। दावा करते हैं कि अमेरिका की एक बहुत बड़ी मल्टीनेशनल बैंक में सीईओ थे और वहां से छोड़ कर तांत्रिक साधना शुरू की। अब बड़े कॉरपोरेट हाउसों के घोषित दलाल है और जहाजों में घूमते हैं, पांच सितारा होटलों में रुकते हैं और फटाफट अंग्रेजी बोल कर ग्राहक पटाते हैं। एक मूर्ख दिखने वाला बंगाली जो खुद कोलकाता के किसी सरकार विभाग में कर्मचारी हैं, शिष्य और सचिव की तरह उनके साथ घूमता हैं मगर सौदे की बाते बाबा स्कॉच पीते हुए और डनहिल सिगरेट सुलगाते हुए खुद करते हैं। बाबा को कई सौदे करते मैेंने भी देखा है।
भारत में जनता हर काम का जिम्मेदार ईश्वर को मानती है और ईश्वर के देवदूतों की तरह इन बाबाओं पर भरोसा करती है। यह बाबा इतने बड़े खिलाड़ी होते हैं कि सारे पाप कर के भी पतली गली से निकल जाते हैं। हत्या से ले कर बलात्कार तक के और धोखाधड़ी से ले कर ठगी तक के मामलों में अभियुक्त बनने वाले इन बाबाओं पर जनता अब भी भरोसा करती हैं और उनके पांव पखारने में परहेज नहीं करती। कापलिक बाबा तो सरेआम यह भी कहते हैं कि उन्होंने देश में एक लाख गरीब बच्चों को गोद लिया हुआ है और उनके भोजन और पढ़ाई की व्यवस्था के लिए वे छोटी मोटी दलाली कर लिया करते है। ऐसे दलालों की तो पूजा की जानी चाहिए। पर यह भक्त पर निर्भर करता है कि यह पूजा वह हाथ जोड़ करेगा या अपनी.......से।
आजकल बाबाओं का नेटवर्क काफी व्यापक हो गया है। नित्य आनंद करने वाले नित्यानंद के सेक्स टेप प्रसारित होने के बाद पता चला कि वे खदानों का धंधा भी करते हैं। भीमानंद उर्फ इच्छाधारी बाबा तो देश में लड़कियों का सबसे बड़ा दलाल बन कर सामने आया। पता नहीं इतना बड़ा दलाल कॉमनवेल्थ के इंतजाम में शामिल क्यों नहीं किया गया? प्रतिभा में वह सुरेश कलमाड़ी से कम नहीं है। बाबाओं और स्वामियों और तांत्रिकों के जाल में सब तरफ से हारी हुई जनता फंसती है और इस जनता और इसके समाज की पराजय के लिए समाज चलाने वाले जिम्मेदार हैं और उनकी जिम्मेदारी इस बात की भी है कि जो नंगे हो गए हैं उन्हें जेल के कपड़े क्यों नहीं पहनाए जाते? देश के प्रख्यात योग गुरू बाबा राम देव सहित कई ऐसे संत और धर्माचार्य ऐसे भी हैं जिनपर अब तक आपत्तिजनक लांछन तो नहीं लगे लेकिन वह बेदाग भी नहीं है। बाबा राम देव आर्युवेदिक औषधियों के निर्माण में जानवरों की हड्डियों की मिलावट को लेकर जहां चर्चा में आए वहीं अपनी राजनैतिक महात्वाकांक्षा के लिए स्वगठित राष्ट्रीय स्वाभिान दल द्वारा आगामी चुनावों में एक साथ सभी सीटों में प्रत्याशी उतारने को लेकर भी चर्चा में है। इतना ही नहीं उन पर देश के धन का विदेशों में निवेश करने के मामले सहित कई राज्यों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर शासकीय भूमियों को हड़पने के लिए भी जाने जाते हैं। तथाकथित इन संतो के कृत्यों को यदि दरकिनार कर दिया जाय तो समाज में साधु अपने आप में एक आदर्श होता है, जो कि स्वल्पतम साधनों से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता हुआ आत्मसाधना और लोकहित में अपने को समर्पित करता हुआ चलता है। इतिहास में कुछ ऐसी घटनाएं भी मिलती हैं, जब देश का शासक एक संत के बदले में अपना सारा राज्य देने को तैयार था।
साधु संतों और ऋषियों ने आध्यात्मिक चेतना के संवाहक के रूप में समस्त विश्व को सदा उपकृत किया है। उनका त्याग, बलिदान, महान् तपस्या, नि:स्वार्थ सेवा और सत्य-अहिंसा की साधना समस्त मानव-समाज के लिए हमेशा एक महान प्रेरणा बनकर रही है। वे समाज के लिए चाहे कुछ भी न करें किन्तु एक महान उद्देश्य में संलग्न उनका व्यक्तित्व अपने आप में समाज की एक महान सेवा है। इस प्रकार के वर्ग की कल्पना मानव-समाज के अभ्युदय और नि:श्रेयस के लिए हुई है और आज भी उसकी उतनी ही आवश्यकता है। यह ध्यातव्य है कि उन लोगों का एक बहुत बड़ा समूह-जो कि साधना की दृष्टि से नहीं, केवल पेट भरने की दृष्टि से अथवा धर्म और साधु के पवित्र नाम से समाज के लोगों को ठगने में सक्रिय है। हमारे देश में लोगों की धर्म पर अथाह आस्था है या यह कह सकते हैं कि धार्मिकता हमारी पहचान है। शायद हमारे सीधे-साधे लोगों की इसी असीम भक्ती को बाबाओं और स्वामियों ने समझा और फैला दिया भक्ति के नाम पर मायाजाल। लेकिन अब लगता है कि भगवान के नाम पर लोगों को पाठ पढ़ाकर अपना सम्राज्य स्थापित करने वाले इन्हीं बाबाओं पर भगवान की नजर टेढ़ी हो गई है। हाल ही में रह-रहकर ऐसी घटनाएं घट रही हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि स्वयं भगवान अब लोगों को स्वामियों से दूर रहने की हिदायत देना चाहते हैं। जब हम भगवान में भक्ती रखते हैं तो हमें यह भी समझना होगा की जो हो रहा है उसके पीछे कोई न कोई कारण जरूर छिपा है। श्रीमद भागवत् गीता में भगवानश्रीकृष्ण कहते हैं-
यदा-यदा ही धर्मस्य,ग्लानिर्भवतिभारत।
अभ्युत्थानमअधर्मस्य,तदात्मानमसृजाम्यहम।।
अर्थात् जब-जब इस धरती पर धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं जन्म लूंगा। उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ में संत कृपालु महाराज के आश्रम में जिस तरह से गरीबों की मौत का हुआ ताड़व इसकी बानगी है। इस पर यही कहा जा सकता है कि साधू-संतों पर गृह-नक्षत्र जरा भी मेहरबान नहीं हैं। कृपालु महाराज के आश्रम में विगत वर्ष उनकी पत्नी की बरसी आयोजन किया जा रहा था जिसमें बड़ी संख्या में गरीब लोग खाना खाने के लिए आए हुए थे लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा था कि मौत की भूख उन्हें बुला रही है। इतना बड़ा आयोजन करने वाले कृपालु महाराज के आश्रम में सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर सब शून्य था। उनके अपने सुरक्षाकर्मी ही यहां पर थे जबकि भीड़ हजारों की संख्या में थी लेकिन भगदड़ मचने पर गरीब लोगों की भूख अंदर ही रह गई।
गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाए... बलिहारी गुरू आपने जिन गोविंद दियो बताए... लोग गुरू दीक्षा लेते है, गुरू को पूजते है ताकि उन्हें प्रभु मिलन की राह मिल सकें.... पर गुरू, साधु संतों की धर्म की आड़ में छिपी असली दुकानदारी आए दिन उजागर होने से जहां समाज की की अंधविश्वसनीयता पर प्रश्र चिन्ह खड़ा करता है वहीं हमारी आस्था को भी कठघरे में खड़ा करता है। फिर चाहे भारत के असंख्य लोगों की आस्था वाले मंदिर तिरुपति बालाजी मंदिर में हो रहा भ्रष्टाचार क्यों न हो।
भारत के सबसे संपन्न मंदिरों में शुमार किए जाने वाले तिरुपति बालाजी मंदिर को संचालित करने वाले प्रबंधकों को पिछले दिनों एक बिल्कुल अलग ही समस्या का सामना करना पड़ा। दरअसल ट्रस्ट ने मंदिर की संपत्ति को चोरों से सुरक्षित रखने के लिए बीमा कराने का विचार किया तो आभूषणों की वास्तविक कीमत पता की गई तो मालूम चला कि मंदिर प्रबंधन के पास उपलब्ध करीब 20 टन सोना और हीरों के आभूषणों की बाजार कीमत 52 हजार करोड़ रुपये है। स्वाभाविक तौर पर इतनी अधिक संपत्ति का बीमा करना किसी भी कंपनी के लिए आसान काम नहीं था। हालांकि, इसकी एवज में मंदिर को भी कंपनी को हर वर्ष अच्छी-खासी किश्त बैंक को देनी पड़ती। फौरी तौर पर ट्रस्ट को इसकी जरूरत इसलिए पड़ी थी, क्योंकि एक पुजारी ने आभूषणों के इस भंडार से 520 ग्राम का हार चुराकर उसे गिरवी रखा और बदले में मिली रकम अपनी बेटी की शादी में खर्च कर दी। उधर देश की एक मशहूर साप्ताहिक पत्रिका की पड़ताल में यह भी मामला सामने आया है कि भारत के सर्वाधिक संपन्न
इस धार्मिक प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार और अनियमितत्ताओं के आरोप के चलते मंदिर प्रबंधन संदेह के साये गहरा रहे हैं। और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री कोंजेटी रोसैया ने वर्तमान न्यासी मंडल का कार्यकाल खत्म होने के साथ ही तीन आईएएस अधिकारियों का एक विशिष्ट प्राधिकरण बना दिया।
अगर हम देश भर में फैले विभिन्न धर्मो के प्रार्थना स्थलों, मठों आदि के पास जमा अकूत दौलत का आकलन करें तो अंदाजा लगा सकते हैं कि इन सभी धर्मस्थलों की संपत्ति यदि एकत्र कर दी जाए तो उसमें कितने ही स्कूल या अस्पताल खोले जा सकते हैं। हालांकि इन मठों के पास मौजूद सारी संपत्तियों का विवरण एकत्र करना आसान नहीं होगा। यहां तक की हमारी सरकारों को भी पता नहीं होगा कि इन आस्था के केंद्रों में कितनी अकूत संपदा संचित है। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक इस देश में स्कूलों की तुलना में मंदिरों अथवा प्रार्थना स्थलों की संख्या कहीं ज्यादा है। यहां तक कि कारखानों एवं मकानों की तुलना में भी प्रार्थना स्थलों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले गुजरात राज्य में मकानों एवं कारखानों की तुलना में धर्मस्थलों की निर्माण दर कहीं ज्यादा है। 15 साल पहले वहां 95 हजार धर्मस्थल थे तो वर्ष 2007 आते-आते यह संख्या बढ़कर एक लाख 77 हजार तक पहुंच गई अर्थात हर दिन तककरीबन 20 और साल में 7000 नए धर्मस्थल वहां बन रहे हैं।
आर्यसमाज के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन की एक कहानी की काफी चर्चा होती है। दयानंद जब 12 साल के थे तब शिवरात्रि की रात उन्होंने देखा कि भगवान को चढ़ाए गए लड्डू को चूहा खाए जा रहा है, तभी उन्हें भगवान की शक्ति पर अविश्वास होने लगा कि वह जब अपनी रक्षा नहीं कर पा रहा है तो हमारी क्या करेगा? ऐसे कई सवाल उनके जेहन मे आने लगे फिर एक दिन उन्होंने मूर्तिपूजा पर भी सवाल उठाया? कुछ समय पहले वैष्णो देवी के मंदिर की संपत्ति पर भी सवाल उठा था, हालांकि वहां का चढ़ावा सरकार की निगरानी में होता है। यह प्रश्न अहम है कि इस धर्म निरपेक्ष देश की सरकार को क्या यह जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए कि धर्मस्थलों की व्यवस्था की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले? यह भी मुद्दा है कि क्या इतनी बड़ी और अकूत संपदा जो किसी की निजी नहीं है, बल्कि सार्वजनिक है तो उसे निजी हाथों में दिया जाए अथवा उसका लाभ आम जनता को कैसे मिले?
शिरडी के आश्रम के पास भी काफी संपत्ति है और यहां तक कि वहां बन रहे हवाई अड्डे के लिए भी धर्मस्थान की तरफ से ही ज्यादातर राशि दी जानी है। इसी तरह देशभर के ढ़ेरों धर्मस्थल ऐसे हैं जो करोड़ों के मालिक हैं। दिल्ली सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना ने भी घोषित किया कि बंगला साहिब गुरुद्वारा के दीवारों पर सोने की परत लगाया जाएगा। इसके लिए लगने वाले 125 किलो सोने की व्यवस्था भी की जा चुकी है। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली के कई गुरुद्वारों को पूरी तरह एयरकंडीशन करने की भी बात कही। सुविधाओं से लकदक करके तथा संपत्ति का प्रदर्शन करते ये धर्मस्थल आस्था का केंद्र कैसे बन जाते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। शिष्यगण तथा आशीर्वाद लेने वाले भक्तों में कभी यह प्रश्न क्यों नहीं कांैधता कि चढ़ावे की संपत्ति को जनकल्याण के काम में क्यों नहीं लगाना चाहिए?
कल्पना करें कि एक स्कूल के संचालन के लिए तीन करोड़ रुपये का इंतजाम किया जाए तो तिरुपति बालाजी मंदिर के पास जमा 52 हजार करोड़ रुपयों से लगभग 17 हजार अच्छे स्कूल चलाए जा सकते हैं। इस तरह यहां लाखों ऐसे नौनिहाल तैयार किए जा सकते हैं जो न केवल इस देश, बल्कि यहां के जनता के भविष्य को भी बेहतर ढंग से संवारने में अपनी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। अवैध धर्मस्थलों का मुद्दा भी हमारे देश में गंभीर है। धर्म के नाम पर कीमती जमीन पर कब्जा करना तथा सार्वजनिक उपयोग के स्थान पर भी मंदिर या प्रार्थनास्थल खड़ा कर उसका निजी उपयोग करना आज एक व्यवसाय बनता जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले सभी राज्य सरकारों को इन अवैध धर्मस्थलों की गणना करने का निर्देश दिया था। कुछ राज्यों के आंकड़े अखबारों में कभी-कभी प्रकाशित किए भी जाते हैं। हालांकि, इसमें भी बहुत बड़ा घोटाला है कि अधिकतर आस्था केंद्रों को गणना में शामिल ही नहीं किया गया है। हाल में बिहार सरकार ने भी 5 सितंबर, 2010 को घोषित किया कि बिहार में 16,834 अवैध धर्मस्थल हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इनकी वास्तविक संख्या हजारों में नहीं, बल्कि लाखों में होगी। यह बात किसी एक छोटे इलाके के सर्वेक्षण के आधार पर भी कहीं जा सकती है।
सूचना के अधिकार कानून का सहारा लेकर पिछले दिनों दिल्ली के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने यह जानना चाहा था कि दिल्ली में कितने अवैध प्रार्थनास्थल हंै? इसके जवाब में पुलिस महकमे से लेकर म्युनिसिपल कारपोरेशन तक ने यही बताया कि उनके इलाके में ऐसा कोई धर्मस्थल नहीं है। अगर इन जवाबों को सही माना जाए तो राजधानी दिल्ली में महज इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास एक अवैध प्रार्थना स्थल है। दिल्ली का साधारण निवासी भी बता सकता है कि हर इलाके में सड़क के किनारे, पार्क या अपार्टमेंट में या बिजली दफ्तर आदि में कितनी बड़ी संख्या में अवैध प्रार्थना स्थल हैं। हालांकि, हर व्यक्ति को अपनी आस्था पर अमल करने का पूरा अधिकार है। संविधान में प्रदत्त धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के भी यही मायने हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थलों का अतिक्रमण कर बनाए जाने वाले प्रार्थना स्थलों के पीछे महज आस्था का तत्व नहीं दिखता। अक्सर हम इसके पीछे कुछ निहित स्वार्थो को होते देखते हैं। ऐसे प्रार्थना स्थल निर्माताओं के लिए सोने की मुर्गी की तरह साबित होते हैं, जिनसे उन्हें एक नियमित आमदनी मिलती रहती है।
मुख्य सड़कों पर या सरकारी जमीन पर बने ऐसे धार्मिक ढांचे शहर के विकास के रास्ते में भी सबसे बड़ी बाधा बनते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण करके बनाए गए प्रार्थना स्थलों के कुछ प्रबंधकों ने सरकार से उल्टे यह मांग भी किया कि उन्हें मुआवजे के तौर पर दूसरी जमीन दी जाए। ग्रेटर हैदबाद में म्युनिसिपल कारपोरेशन की 3,042 वर्ग गज जमीन मस्जिदों ने घेरी है, 750 वर्ग गज जमीन चर्चो ने और 7,492 वर्ग गज जमीन पर मंदिरों ने कब्जा जमाया है। इस तरह देश के बाकी हिस्सों और शहरों में भी न जाने कितनी ही जमीनों पर इनका अनधिकृत कब्जा है। हालांकि, इस बारे में यह भी सच है कि प्रशासन के स्तर पर परोक्ष-अपरोक्ष सहयोग मिले बिना अतिक्रमण कर पाना इनके लिए संभव नहीं है। जिस तरह की स्थितियां हमारे देश में हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि सरकारें और प्रशासन इन पर कोई नियंत्रण नहीं बना पाएंगी, क्योंकि वे इसे अपने फायदे में तथा जनसमर्थन हासिल करने के लिए हथियार के तौर पर उपयोग करती हैं।
राजनीतिक पार्टियों को देखें तो कईयों के लिए धर्म ही सियासत का उपकरण है और जनता के बीच जाने का माध्यम है। ऐसी पार्टियां जो खुद को सेक्युलर विचारों पर चलने का दावा करती हैं वे अक्सर धर्म के सामाजिक या राजनीतिक संचालन में हस्तक्षेप या पुरजोर विरोध नहीं कर पाती हैं। यह तो रही भारत की बात जबकि विदेशों में भी धर्म को धंधा को या फिर आतंकवाद का रूप दिया जा रहा है।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

किस जज ने कितना लूटा

घोटालेबाज़ कर्मचारियों को संरक्षण देने और उन्हें बचाने में ग़ाजिय़ाबाद के तत्कालीन जि़ला जज आर एस चौबे का नाम सबसे अव्वल है. न्यायाधीश स्तर के ऊंचे अधिकारी और घोटाला करने वाले सामान्य स्तर के कर्मचारी आशुतोष अस्थाना की मिलीभगत के तमाम कागज़़ी प्रमाण पुलिस को भी मिले और सीबीआई को भी. दस्तावेज बताते हैं कि ट्रेजऱी प्रभारी आशुतोष अस्थाना, कर्मचारी मोहन सिंह बिष्ट, रामाशीष, इंद्रबहादुर, कलुआ, सत्यपाल के गैंग में जि़ला जज आर एस चौबे शामिल थे. अस्थाना का इक़बालिया बयान कहता है कि जि़ला जज आर एस चौबे और कार्यवाहक जज अरुण कुमार ट्रेजऱी प्रभारी आशुतोष अस्थाना से हर महीने खर्चे के लिए 30 से 35 हज़ार रुपये मांगा करते थे. कार्यवाहक जि़ला जज अरुण कुमार प्राय: 50 हज़ार से ढाई लाख रुपये मांग लेते थे. इसके अलावा जज अरुण कुमार के परिवार वालों की तफ़रीह के लिए गाडिय़ों की व्यवस्था भी की जाती थी. आशुतोष अस्थाना ये गाडिय़ां त्यागी ट्रैवल्स के ज़रिए उपलब्ध कराता था. जज अरुण कुमार की बेटी की शादी में टाटा सूमो और ट्?वेटा, क्वालिस जैसी चार गाडिय़ों का इंतज़ाम आशुतोष अस्थाना ने किया था. इसके अलावा शादी में पानी-बिजली और अतिथियों के कलकत्ता से आने-जाने की व्यवस्था भी अस्थाना ने ही की थी. अस्थाना ने जज अरुण कुमार की बिटिया की शादी में नकद दो लाख रुपये इसके अतिरिक्त दिए थे. ग़ाजिय़ाबाद के तत्कालीन जि़ला जज आर पी मिश्रा ने तो हद ही कर दी. उन्होंने ही सरकारी कोषागार के प्रभारी आशुतोष अस्थाना को बुलाकर कहा कि चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों का जीपीएफ एकाउंट ट्रेजऱी में नहीं होता और न उसका कोई रिकॉर्ड एजी ऑफिस में होता है. जज आर पी मिश्रा ने अस्थाना को रास्ता दिखाया कि किसी के भी नाम से वहां से पैसा निकाला जा सकता है.

सरकारी धन की लूट का यह वाकई आश्चर्यजनक कथानक है. जज साहब के लखनऊ में गोमती नगर स्थित निर्माणाधीन घर पर बोरिंग कराने से लेकर सबमर्सिबल पंप लगाने और बिजली की फिटिंग कराने तक का खर्च जीपीएफ एकाउंट से भरा गया. पीएफ स्कैम में सबसे पहले नपने वाले जजों में ए के सिंह का नाम शुमार है, जिन्हें सुप्रीमकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के आदेश पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज पद से हटाया गया था. ए के सिंह के बाद ग़ाजिय़ाबाद के जि़ला जज बने आर एस चौबे ने तो बढ़-चढ़ कर घोटालेबाज़ों को संरक्षण दिया और पीएफ घोटाले की राशि से मौज उड़ाई.

अस्थाना का इक़बालिया बयान हैरत से भर देने वाला है. वह कहता है कि जि़ला जज का मासिक खर्च 40-50 हज़ार के बीच होता है, लेकिन वे अपने खाते से इतनी राशि कभी नहीं निकालते. उनका सारा खर्च कोर्ट के कर्मचारियों को वहन करना होता है. आर पी मिश्रा ने तो जि़ला जज के पद पर नियुक्त होते ही पीएफ एकाउंट से अतिरिक्त धन की अवैध निकासी शुरू करा दी. जज आर पी मिश्रा ने अपने बेटे का एडमिशन ग़ाजिय़ाबाद के एक प्रबंधन कॉलेज में कराया और दो साल तक उसकी फीस जीपीएफ एकाउंट से भरी जाती रही. जज साहब की लखनऊ के गोमती नगर स्थित कोठी पर लकड़ी का सारा काम न्यायालय के बढ़ई कर्मचारी अनोखेलाल से कराया गया, लेकिन डेढ़ लाख रुपये का बिल जीपीएफ एकाउंट से भरा गया. रिटायरमेंट के बाद भी जज साहब छह महीने तक सरकारी आवास में विराजमान रहे और उनका खर्च जीपीएफ एकाउंट के पैसे से उठाया जाता रहा. ग़ाजिय़ाबाद के सिटी इलेक्ट्रॉनिक्स से जज आर पी मिश्रा के लिए टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन वग़ैरह लाई गई, जिसका बिल जीपीएफ एकाउंट से भरा गया. जज साहब और उनके परिवार के कपड़े व अन्य सामान घंटाघर स्थित मंगलदीप स्टोर व रेमंड शोरूम से, जेवरात वग़ैरह दीपाली ज्वैलर्स के यहां से और राशन चड्?ढा स्टोर्स से खऱीदा जाता था. गाडिय़ों का इंतज़ाम त्यागी ट्रैवल्स से और गोविंदपुरम स्थित आशु स्टूडियो से फोटोग्राफी एवं वीडियोग्राफी का काम होता था. इसका खर्च जीपीएफ एकाउंट से वहन किया जाता था. जज साहब के घर की क्रॉकरी व ट्रांसपोर्ट वग़ैरह का भुगतान अमीचंद को जीपीएफ एकाउंट से निकाले गए चेक व धन से ही किया गया. यहां तक कि उनके रिटायरमेंट के बाद ट्रक से उनका सामान लखनऊ भेजने की व्यवस्था भी अमीचंद ने ही की, जिसका भुगतान भी जीपीएफ एकाउंट से किया गया. जज आर पी मिश्रा को उक्त खर्चों के अलावा प्रति माह डेढ़ लाख रुपये भी जीपीएफ एकाउंट से दिए जाते थे और इसके लिए चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के नाम पर भारी धनराशि निकाले जाने के फजऱ्ी कागज़़ातों पर भी जज आर पी मिश्रा आंख मूंदकर हस्ताक्षर कर दिया करते थे.

जज आर पी मिश्रा के रिटायर होने के बाद जज नियुक्त हुए आर एस त्रिपाठी भी उसी ढर्रे पर चल पड़े. उनके परिवार के खर्चे के लिए प्रतिमाह 50-60 हज़ार रुपये जीपीएफ एकाउंट से निकाल कर दिए जाते थे. जज त्रिपाठी के लिए भी ग़ाजिय़ाबाद के सिटी इलेक्ट्रॉनिक्स से दो टीवी, फ्रिज, विंडो और स्प्लिट एसी, वाशिंग मशीन, बड़े वोल्टेज वाला स्टेबिलाइजऱ, कैमरा, एक्जॉस्ट फैन, पेडस्ट्रल फैन, सीलिंग फैन और इनवर्टर वग़ैरह खरीद कर दिए गए. मंगलदीप स्टोर से जज साहब एवं उनके परिवार के लिए कपड़े और जेवरात, अंबेडकर रोड स्थित टच पावर से क़ीमती मोबाइल फोन और बढ़ई अनोखेलाल से कऱीब डेढ़ लाख रुपये के फर्नीचर बनवाए गए, जिसका सारा खर्चा जीपीएफ एकाउंट से भरा जाता रहा. जज साहब के बेटे-बेटी और परिवार के अन्य सदस्य अक्सर दिल्ली घूमने आते और जीपीएफ एकाउंट के बूते तफ़रीह कर चले जाते. त्यागी ट्रैवल्स का अनाप-शनाप बिल जीपीएफ एकाउंट के पैसे से भरा जाता. दस्तावेज यह भी कहते हैं कि जज आर एस त्रिपाठी को तीन से चार लाख रुपये नकद प्रति माह जीपीएफ एकाउंट से निकाल कर दिए जाते रहे. आर एस त्रिपाठी इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश भी बने. अब रिटायर हो चुके हैं. जज आर एस त्रिपाठी के रिटायरमेंट के बाद जि़ला जज बने आर पी यादव ने आशुतोष अस्थाना के अभूतपूर्व काम को देखते हुए उसे तऱक्क़ी दे दी. जज आर पी यादव का घरेलू खर्च 15 से 20 हज़ार रुपये ही था, जो जीपीएफ एकाउंट से ही भरा जाता था. जज साहब के घर के लिए सिटी इलेक्ट्रॉनिक्स से एसी, टीवी, फ्रिज एवं वाशिंग मशीन खरीदी गई. जज साहब की पत्नी के लिए मंगलदीप से जेवरात और जज साहब के लिए टच पावर से क़ीमती मोबाइल फोन खरीदे गए, जिसका खर्च आशुतोष अस्थाना ने वहन किया. जज आर पी यादव के सरकारी आवास और उनके वकील बेटे निखिल यादव के इलाहाबाद आवास पर फर्नीचर के काम पर जो डेढ़-दो लाख रुपये का खर्च आया, वह भी जीपीएफ एकाउंट से भरा गया. इसके अलावा जज साहब के बेटे निखिल के लिए भी टीवी, फ्रिज, एसी, कपड़े और ज्वेलरी वग़ैरह खरीदी गई, जिसका भुगतान भी उसी जीपीएफ एकाउंट से किया गया, जिसे जजों ने टकसाल समझ लिया था. आर पी यादव इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश भी बने. अब रिटायर हो चुके हैं. जज आर पी यादव के बाद जि़ला जज के रूप में आर एन मिश्रा पधारे. आर एन मिश्रा के स्थानांतरण के बाद ए के सिंह जि़ला जज बनकर आए. छानबीन के दस्तावेज बताते हैं कि ए के सिंह और उनका परिवार अच्छे कपड़े पहनने और घूमने-फिरने का शौक़ीन था. लिहाज़ा यह शौक़ जीपीएफ एकाउंट से पूरा किया गया. उन्हीं तयशुदा दुकानों से टीवी, फ्रिज, एसी, कैमरे, पंखे, मिक्सी वग़ैरह खरीदे गए. इसके अलावा कमल स्टोर और रमते राम स्टोर से जज साहब के लिए फर्नीचर, आलमारी, ड्रेसिंग टेबल खरीदे गए. मंगलदीप, रेमंड और विंदल से महंगे कपड़े खरीदे गए और इन सबका भुगतान उसी तरह किया गया, जैसे अन्य जजों के लिए किया जाता रहा. जज साहब की शौक़ीनी का हाल यह था कि महंगे जिमनैजियम में एक्सरसाइज़ करने, महंगा मसाज कराने, वेट लॉस एवं परिवार की महिला सदस्यों के ब्यूटी ट्रीटमेंट का जो डेढ़ लाख रुपये का बिल आया, वह भी जीपीएफ एकाउंट से अवैध तरीक़े से निकाले गए धन से भरा गया. जज ए के सिंह के सहारा इंडिया में काम करने वाले बेटे अभिषेक गौतम के नोएडा सेक्टर 52 स्थित आवास का तीन साल तक किराया इसी जीपीएफ एकाउंट से भरा जाता रहा. इसके अलावा जज साहब के साहबजादे के लिए पल्सर मोटरसाइकिल और कंप्यूटर वग़ैरह भी जीपीएफ एकाउंट के पैसे से ही खरीद कर दिए गए. अभिषेक गौतम के इलाहाबाद बैंक एकाउंट में 36,500 रुपये का चेक जमा कराया गया, वह इन सब खर्चों के अतिरिक्त है. खूबी यह है कि वह चेक जीपीएफ एकाउंट का है.

सरकारी धन की लूट का यह वाकई आश्चर्यजनक कथानक है. जज साहब के लखनऊ में गोमती नगर स्थित निर्माणाधीन घर पर बोरिंग कराने से लेकर सबमर्सिबल पंप लगाने और बिजली की फिटिंग कराने तक का खर्च जीपीएफ एकाउंट से भरा गया. पीएफ स्कैम में सबसे पहले नपने वाले जजों में ए के सिंह का नाम शुमार है, जिन्हें सुप्रीमकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के आदेश पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज पद से हटाया गया था. ए के सिंह के बाद ग़ाजिय़ाबाद के जि़ला जज बने आर एस चौबे ने तो बढ़-चढ़ कर घोटालेबाज़ों को संरक्षण दिया और पीएफ घोटाले की राशि से मौज उड़ाई. उनके लिए तयशुदा दुकानों और शोरूम से विलासिता के वे सारे सामान खरीदे गए, जो अन्य जजों और उनके परिवारों के लिए खरीदे गए थे. टीवी, फ्रिज, एसी, कंप्यूटर, मोबाइल फोन, लैपटॉप, क्रॉकरी, कपड़े, जेवरात सब कुछ. जज साहब के इलाहाबाद स्थित आवास पर न्यायालय के बढ़ई अनोखेलाल ने साल भर तक रह कर काम किया. घोटाले की रकम से जज साहब के घर में शीशम की क़ीमती लकड़ी के फर्नीचर, सोफे, ड्रेसिंग टेबल, डबल बेड वग़ैरह तैयार कराए गए. ग़ाजिय़ाबाद के आरडीसी स्थित मार्डिया जिम में कसरत करने और त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ों पर घूमने-फिरने के अलावा जज साहब प्रति माह चार से पांच लाख रुपये भी वसूल लिया करते थे.

पीएफ घोटाले के मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना ने अपने इक़बालिया बयान में कहा भी कि घोटाला कर्मचारियों के नाम पर किया गया, लेकिन घोटाले की राशि का 80 फीसदी हिस्सा जजों ने खा लिया. महज़ 20 से 25 फीसदी हिस्सा ही कर्मचारियों तक पहुंचा. जजों ने घोटाला करने का नायाब तरीक़ा निकाला, लेकिन देश की सत्ता और न्यायिक व्यवस्था ने इस नायाब तरीक़े को और उधेडऩे के बजाय उसे नजऱअंदाज़ कर दिया. घोटाले का घिनौना सच यह है कि जजों के आधिकारिक दौरों पर होने वाला आलीशान खर्च भी जीपीएफ घोटाले की रकम से ही किया जाता रहा. ग़ाजिय़ाबाद के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (एसीजेएम) हमीदुल्ला नजारत के प्रभारी भी थे और उन्होंने आशुतोष अस्थाना के साथ मिलकर पीएफ की राशि से मौज उड़ाई. इसी राशि से उनके मासिक व्यय का भुगतान होता रहा, जो प्रति माह 10 से 15 हज़ार रुपये हुआ करता था. नवयुग मार्केट से उन्होंने गीजर, पंखे वग़ैरह भी खरीदवाए, जिसका भुगतान पीएफ घोटाले की राशि से हुआ. नजारत प्रभारी रहे जयशील पाठक हस्ताक्षर करने के एवज में प्रतिमाह ढाई लाख रुपये नकद लिया करते थे. इसके अलावा 30 से 40 हज़ार रुपये घरेलू खर्चे में जाते थे. पाठक के लिए टीवी, फ्रिज, आलमारी, जेवरात, कपड़े के अतिरिक्त उनकी बिटिया की मेरठ में पढ़ाई का खर्चा भी जीपीएफ घोटाले की राशि से ही भरा जाता था. 60 हज़ार रुपये के पर्दे के कपड़े और कऱीब इतने के ही फर्नीचर का भी भुगतान अस्थाना ने ही किया था. त्यागी ट्रैवल्स से तफ़रीह के लिए ली गई गाडिय़ों और नागपुर तक सामान पहुंचाने का भाड़ा भी घोटाले के धन से ही भरा गया. अतिरिक्त जि़ला जज व नजारत प्रभारी रहे सी के त्यागी पर 10 हज़ार रुपये प्रतिमाह खर्च किया जाता था. इसके अलावा त्यागी ट्रैवल्स से हमेशा इस्तेमाल में लाई जाने वाली गाडिय़ों का भाड़ा भी अस्थाना द्वारा ही भरा गया. अपर जि़ला जज एवं नजारत प्रभारी आर सी सिंह के घरेलू खर्च के बतौर प्रति माह 20 हज़ार रुपये का भुगतान जीपीएफ एकाउंट से किया जाता था. इसके अलावा जज साहब दो लाख रुपये नकद प्रति माह वसूला करते थे. त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ों का तफ़रीह के लिए इस्तेमाल और अस्थाना द्वारा उसका भुगतान तो जजों का चलन बन गया था. अपर जि़ला जज और नजारत प्रभारी रहे चंद्रप्रकाश का घरेलू खर्च 30 हज़ार रुपये प्रतिमाह था, जो पीएफ घोटाले की राशि से भरा जाता था. घोटाले के पैसे से इनके लिए भी सिटी इलेक्ट्रॉनिक्स से टीवी, फ्रिज, एसी, कैमरे, टचपावर से क़ीमती मोबाइल फोन, मंगलदीप से क़ीमती जेवरात, क्रॉकरीज़ और कपड़े वग़ैरह खरीदे गए. जज साहब का तबादला होने पर उनका जो सामान लखनऊ और इलाहाबाद के आवासों तक पहुंचवाया गया, उसका खर्चा भी आशुतोष अस्थाना ने जीपीएफ एकाउंट से भरा. नजारत प्रभारी रहे आर ए कौशिक को 30 हज़ार रुपये प्रतिमाह का घरेलू खर्चा दिया जाता था. मुफ्त का फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, एसी, वाशिंग मशीन और तफ़रीह के लिए त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ां तो जैसे जजों के लिए बपौती बन गई थीं. आर ए कौशिक को भी ये भ्रष्ट सुविधाएं मिलीं और जीपीएफ घोटाले की राशि से उसका भुगतान हुआ. अतिरिक्त जि़ला जज दीपक कुमार श्रीवास्तव को घोटाले की राशि से 25 हज़ार रुपये प्रति माह घरेलू खर्चे के लिए दिए जाते थे. अमीचंद की तरफ़ से जज साहब के लिए क़ीमती फर्नीचर लखनऊ भिजवाए गए. जज साहब के घूमने-फिरने के लिए त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ां तो तैयार रहती ही थीं, जिसका खर्च जीपीएफ एकाउंट उठाता था. अपर जि़ला जज अली जामिन को घोटाले की राशि से 25 हज़ार रुपये प्रति माह घरेलू खर्च के लिए दिए जाते थे. इसके अतिरिक्त भी जज साहब अस्थाना से नकद वसूला करते थे. कूलर, पंखे, गीजर वग़ैरह की खरीद भी घोटाले की राशि से ही हुई और तफ़रीह के लिए इस्तेमाल में लाई गई त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ों का भाड़ा भी उसी से भरा गया. तबादला होने पर घर का सामान भी अमीचंद की गाड़ी से भिजवाया गया, जिसका भुगतान अस्थाना ने किया. अपर जि़ला एवं सत्र न्यायाधीश श्रीप्रकाश का घरेलू खर्च भी मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना द्वारा उठाया जाता था.

श्रीप्रकाश की खासियत यह थी कि लेखा विभाग के बिलों पर साइन करने के लिए वह ढाई लाख रुपये नकद लिया करते थे. फर्नीचर, डबल बेड, सोफे, आलमारी व बरेली तबादला होने पर सामान पहुंचवाने का खर्च सब जीपीएफ घोटाले की राशि से ही पूरा हुआ. जज डी एस त्रिपाठी जब ग़ाजिय़ाबाद न्यायालय में आहरण और वितरण (ड्राइंग एंड डिसबर्सिंग) अधिकारी थे, तब प्रतिमाह एक लाख रुपये नकद लिया करते थे. घरेलू खर्चा, टीवी, फ्रिज, एसी, वाशिंग मशीन, क्रॉकरीज़ और तफ़रीह के लिए गाडिय़ां इसके अतिरिक्त हैं. डी एस त्रिपाठी बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज भी बने और अब रिटायर हैं. ग़ाजिय़ाबाद कोर्ट के डीडीओ रहे आर पी शुक्ला को प्रतिमाह 2 लाख रुपये नकद दिए जाते थे. घरेलू खर्च के रूप में मिलने वाले 25 हज़ार रुपये इसके अतिरिक्त थे. इन्हें भी टीवी, फ्रिज, लैपटॉप, मोबाइल फोन वग़ैरह खरीद कर दिए गए और तफ़रीह के लिए त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ां, जिसका भुगतान जीपीएफ घोटाले की राशि से किया गया. ग़ाजिय़ाबाद की अपर सत्र न्यायाधीश श्रीमती साधना जौहरी 25 हज़ार रुपये मासिक के घरेलू खर्च के अलावा दो लाख रुपये नकद प्रति माह लिया करती थीं. इनके घर पर लगे क़ीमती फर्नीचर और तफ़रीह के लिए मिली गाडिय़ों का खर्चा भी पीएफ घोटाले की राशि से ही भरा जाता रहा. अपर जि़ला जज एवं डीडीओ रहे सुभाष चंद्र निगम को प्रतिमाह दो लाख रुपये और प्रतिमाह 25 हज़ार रुपये घरेलू खर्च के बतौर दिए जाते थे. अपर जि़ला जज एवं डीडीओ रहे सुभाष चंद्र अग्रवाल को प्रति माह डेढ़ से दो लाख रुपये और 25 हज़ार रुपये प्रतिमाह घरेलू खर्च के लिए दिए जाते थे. अपर जि़ला जज एवं पूर्व डीडीओ उज्जवला गर्ग को 15 हज़ार रुपये प्रति माह घरेलू खर्च के लिए दिए जाते थे. इसके अलावा त्यागी ट्रैवल्स की गाडिय़ों के इस्तेमाल का खर्च भी अस्थाना वहन करता था. अपर जि़ला जज एवं पूर्व डीडीओ अशोक कुमार चौधरी घोटाले की राशि से प्रति माह दो लाख रुपये नकद लिया करते थे. इसके अलावा उन्हें 25 हज़ार रुपये प्रति माह घरेलू खर्च के लिए भी मिलते थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सुशील हरकोली जब ग़ाजिय़ाबाद में तैनात थे, उस समय जि़ला जज आर एन मिश्रा के कहने पर आशुतोष अस्थाना ने जस्टिस हरकोली को प्रोजेक्टर और स्क्रीन व क़ीमती मोबाइल फोन खरीद कर दिए. इसके अलावा समय-समय पर क़ीमती क्रॉकरीज़ और स्कॉच की बोतलें भी भेंट में दी जाती थीं. इन सभी का भुगतान घोटाले की राशि से ही होता था.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस अंजनी कुमार जब ग़ाजिय़ाबाद में तैनात थे, तब जि़ला जज आर एस चौबे के कहने पर आशुतोष अस्थाना की ओर से अंजनी कुमार को क़ीमती घरेलू सामान, बॉम्बे डाइंग की चादरें और तौलिए व क्रॉकरीज़ वग़ैरह खरीद कर दिए जाते रहे. उन्हें भी सिटी इलेक्ट्रॉनिक्स से एलसीडी टीवी, होम थिएटर, पत्नी और बेटे को मोबाइल फोन खरीद कर दिए गए. जज साहब के बेटे के ग़ाजिय़ाबाद आने पर उन्हें तफ़रीह के लिए महंगी लक्जऱी टैक्सी मंगा कर दी जाती थी, जिसका भुगतान पीएफ एकाउंट से ही किया जाता था. जीपीएफ घोटाले के मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस तरुण अग्रवाल के नोएडा सेक्टर 14-ए स्थित आवास संख्या ए-5 में महंगे विंडो और स्प्लिट एसी लगवाए थे. इसके अलावा जस्टिस अग्रवाल के लिए त्यागी ट्रैवल्स से महंगी लक्जऱी गाडिय़ां भी भेजी जाती थीं, जिनका भुगतान पीएफ घोटाले की राशि से ही हुआ करता था. जीपीएफ घोटाले के मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस वी एम सहाय को टच पावर से खरीद कर महंगा मोबाइल फोन तो दिया ही, साथ ही जज साहब के ससुर पूर्व न्यायाधीश विष्णु सहाय को भी एक महंगा मोबाइल सेट खरीद कर दिया. उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस जे सी एस रावत को जीपीएफ घोटाले की राशि से खरीदे गए टीवी, एसी, फ्रिज एवं कई अन्य सामान दिए गए. उनके गोविंदपुरम स्थित आवास (संख्या ए-350) में क़ीमती फर्नीचर लगाए गए और इसके अलावा टीनशेड, लोहे की ग्रिल, खिड़की एवं बरामदा बनाने का काम हुआ, जिसका भुगतान घोटाले की राशि से किया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस ओ एन खंडेलवाल के घर पर भी पीएफ घोटाले की राशि से खरीदे गए टीवी, फ्रिज, एसी, ओवन एवं पंखे लगे. उन्हें क़ीमती क्रॉकरीज़, बॉम्बे डाइंग की चादरें और तौलिए भी दिए जाते रहे. जस्टिस खंडेलवाल के बेटे के घर पर कऱीब सवा लाख रुपये का फर्नीचर का काम हुआ, जिसका भुगतान घोटाले की राशि से ही हुआ. पीएफ घोटाले की राशि से ही त्यागी ट्रैवल्स की महंगी लक्जऱी कारें तफ़रीह के लिए इस्तेमाल होती रहीं. उल्लेखनीय है कि जस्टिस ओ एन खंडेलवाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल भी रहे हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस एवं रजिस्ट्रार जनरल रहे स्वतंत्र सिंह को त्यागी ट्रैवल्स की महंगी लक्जऱी कारें तफ़रीह के लिए दी जाती रहीं और उनके बेटे के गुडग़ांव स्थित आवास पर कऱीब सवा लाख रुपये का लकड़ी का काम कराया गया, जिसका भुगतान घोटाले की राशि से किया गया. सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस तरुण चटर्जी के कहने पर उनके रिश्तेदार एवं कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस पी के सामंत के लिए आईएफबी सीओवाई की फ्रंट लोडिंग मशीन और सैमसंग की लार्ज स्क्रीन टीवी यहां से खरीद कर कलकत्ता भिजवाई गई. ग़ाजिय़ाबाद कोर्ट का कर्मचारी श्रवण कुमार यह सामान लेकर ट्रेन से कलकत्ता गया और उसे जस्टिस सामंत के सुपुर्द करके वापस आया. इसका भुगतान पीएफ घोटाले की राशि से किया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस तरुण चटर्जी के घर में घरेलू सामान भेजे जाते थे. क्रॉकरीज़ और फर्नीचर भी दिए गए. अमीचंद के यहां से 50 हज़ार रुपये की क्रॉकरीज़ और राजकमल फर्नीचर से आलमारी और बेड वग़ैरह यहां से कलकत्ता भेजे गए. जस्टिस तरुण चटर्जी के बेटे अनिरुद्ध चटर्जी को पायनियर कंप्यूटर से सवा लाख रुपये का सोनी लैपटॉप खरीद कर दिया गया. इसके अलावा अनिरुद्ध को क़ीमती मोबाइल फोन और कपड़े भी खरीद कर दिए गए. स्वाभाविक है, इन सबका भुगतान भी पीएफ घोटाले की राशि से ही हुआ.

ग़ाजिय़ाबाद के तत्कालीन जि़ला जज आर एन मिश्रा के आदेश पर रेलवे मजिस्ट्रेट डी सी सिंह की बिटिया की शादी में टीवी, फ्रिज, एसी एवं अन्य सामान दिए गए. इन सामानों की खरीद पीएफ घोटाले की राशि से ही हुई थी. ग़ाजिय़ाबाद के तत्कालीन जि़ला जज आर एस चौबे के आदेश पर रेलवे मजिस्ट्रेट अनिल कुमार सिंह को दो एयर कंडीशनर खरीद कर दिए गए. एसी पीएफ घोटाले के धन से ही खरीदे गए थे. ग़ाजिय़ाबाद कोर्ट के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी गौरी शंकर सिंह के हाथ में प्रति माह 50 हज़ार रुपये पहुंचते थे. इसके अलावा इनके घर घरेलू सामान भी पहुंचाए जाते थे. हार्ट अटैक पडऩे पर नोएडा के मेट्रो हॉस्पिटल में ऑपरेशन का साढ़े तीन लाख रुपये का खर्च भी पीएफ घोटाले की राशि से ही पूरा किया गया. गौरी शंकर सिंह तृतीय वर्ग के कर्मचारियों से ज़बरन वसूली करने के लिए भी कुख्यात रहे हैं, क्योंकि इन वर्ग के कर्मचारियों का तबादला करने का उन्हें अधिकार था. आशुतोष अस्थाना ने पीएफ घोटाले की रकम में गौरी शंकर सिंह को वर्ष 2006 में 80 हज़ार और 50 हज़ार रुपये का चेक भी दिया था, जो उसके खाते में जमा किया गया था.


कैसे कैसे जज
जज कोर्ट की कुर्सी, मेजें, पंखे, कूलर, बल्ब सब बेचकर खा गएज्एक दो जज नहीं, बल्कि जजों की पूरी टोली, जिन्होंने मामूली कर्मचारियों के पीएफ एकाउंट से जालसाज़ी कर निकाले गए करोड़ों रुपयों से अपने घरों के लिए सामान खरीदा, एसी-कूलर लगवाए, टैक्सियों पर पैसे फूंके, बच्चों की फीस भरवाई, हवाई जहाज के टिकट कटवाए और तमाम अय्याशियां कीं, घर के लिए सब्जियां तक खरीदवाईंज् इसके अलावा कोर्ट की खरीदारी के नाम पर भी करोड़ों रुपये खा गए. यह उन लोगों के भ्रष्टाचार की निकृष्ट हरकतें हैं, जो देश की न्यायिक व्यवस्था चलाते हैं. जी हां, संदर्भ ग़ाजिय़ाबाद के पीएफ घोटाले का है. देश में जैसा अन्य घोटालों का हुआ, वैसा ही हश्र पीएफ घोटाले का भी होगा. यहां घोटाला उजागर होता है तो जांच होती है और जांच होती है तो उसमें कुछ खास नहीं पाया जाता. खास उनके साथ होता है, जिनका भविष्य खा लिया जाता है और खास उसके लिए होता है, जो जजों के साथ मिलीभगत कर उन्हें ऐश कराने के लिए घोटाला कर सरकारी कोषागार से पैसे निकालता है, पकड़ा जाता है और जेल में ही मार डाला जाता है.

न्यायाधीश सरकारी खज़ाने को लूटते रहे, अपने और घरवालों के महंगे शौक़ पूरे करते रहे. और जब बात खुली तो इस लूट के राज़दार की संदेहास्पद स्थितियों में मौत हो जाती है. अब सवाल यह है कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को क्या सीबीआई की जांच पर भरोसा है? अगर नहीं तो क्या वह कोई न्यायिक जांच बैठाएंगे और अगर भरोसा है तो इसकी कार्रवाई इतनी तेज़ी से हो, जिससे देश की जनता को लगे कि न्यायपालिका न्याय के लिए प्रतिबद्ध है.

आप याद करें, अरबों रुपये के शेयर घोटाले में गिरफ़्तार हर्षद मेहता भी जेल में ऐसी ही संदेहास्पद स्थितियों में मौत का शिकार बना था और शेयर घोटाला न्यायिक व्यवस्था की अंधी सुरंग जैसे पेट में ग़ायब हो गया. भारत के लोगों को ऐसे ही न्याय मिलता है. जजों ने कर्मचारियों की भविष्य निधि के करोड़ों रुपये डकार लिए. मामला सीबीआई की जांच तक पहुंचा. जांच के बाद सीबीआई की चार्जशीट पर जब सुनवाई शुरू हुई, तब मीडिया का ध्यान फिर से पीएफ घोटाले की तरफ़ गया. सीबीआई को कुछ जजों के खिलाफ़ सबूत मिला तो कुछ के खिलाफ़ नहीं मिला. सीबीआई का हाल सब जानते हैं. देश के सारे संवेदनशील मामलों की ऐसी-तैसी करने के लिए ही अब सीबीआई को बीच में लाया जाता है. आज तक किसी भी महत्वपूर्ण मामले में सीबीआई किसी नतीजे तक नहीं पहुंची. पहले सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के दबाव में काम करती थी. अब सीबीआई खुद सियासी धार देख कर अपना तेल बहाती है. सीबीआई ने पीएफ घोटाला मामले में जब चार्जशीट दाखिल की तो उसमें उस व्यक्ति की आरोपित हत्या का जि़क्र नहीं था, जिसका इक़बालिया बयान सीबीआई जांच का आधार बना. जिस मुख्य अभियुक्त की गिरफ़्तारी से देश के सामने पीएफ घोटाला ब्यौरेवार उजागर हो सका, उसे सुनियोजित तरीक़े से रास्ते से हटा दिया गया, इस पर सीबीआई ने ध्यान क्यों नहीं दिया? मुख्य अभियुक्त के रास्ते से हटने से कितने जज बेलाग बच गए? या मुख्य अभियुक्त के जि़ंदा रहने से कितने जजों के खिलाफ़ और कच्चा चि_ा मिलता? ये सवाल सामने हैं, पर देश के लोग इन सवालों का जवाब जानते हैं. मीडिया ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया.

बहरहाल, इसी न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी अधिकारी हैं श्रीमती रमा जैन, जिन्होंने पीएफ घोटाले का पर्दाफ़ाश किया और अभियुक्तों के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज कराई. फिलहाल, श्रीमती जैन फर्रुखाबाद की अतिरिक्त जि़ला एवं सत्र न्यायाधीश ह श्रीमती जैन की तहरीर पर ही मुख्य सरकारी खज़ांची (सेंट्रल ट्रेजऱी) आशुतोष अस्थाना समेत ग़ाजिय़ाबाद कोर्ट में तीसरी श्रेणी के 13 कर्मचारियों, चतुर्थ श्रेणी के 30 कर्मचारियों और 39 बाहरी व्यक्तियों के खिलाफ़ ग़ाजिय़ाबाद के कविनगर थाने में एफआईआर दर्ज हुई और छानबीन में यह पता चला कि अभियुक्तों ने ग़ाजिय़ाबाद कोषागार के पीएफ एकाउंट में लूट मचा रखी थी. जजों से औपचारिक सहमति पाकर ट्रेजऱी प्रभारी आशुतोष अस्थाना ने फजऱ्ी दस्तावेज बनवा-बनवा कर करोड़ों रुपये लूटे. अंधी लूट का हाल यह था कि जो कर्मचारी नहीं था, उसने भी फजऱ्ी दस्तावेजों पर पीएफ एकाउंट से पैसा निकालने की मंजूरी ले ली और अनाप-शनाप तरीक़े से पैसे निकाले. सीबीआई और पुलिस दोनों की छानबीन में यह भेद खुलकर दस्तावेजों में दर्ज हो गया कि जजों एवं न्यायिक अधिकारियों के उकसाने पर ही फजऱ्ी चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के नाम पर बिल तैयार कराया जाता था, उस पर बाक़ायदा जज साहबानों के हस्ताक्षर होते थे और उसे सरकारी कोषागार भेजा जाता था. वहां से बिल पास होने के बाद संबधित कर्मचारी के खाते में पैसा जमा हो जाता था. वह पैसा जजों की अय्याशियों पर खर्च होता था और कर्मचारी भी मौज उड़ाते थे. जजों ने क़ानून की भी ऐसी तैसी करके रख दी.

जांच की प्रक्रिया शुरू होने के बाद भी अभियुक्तों को बचाने की ग़ैर क़ानूनी कोशिशें कीं. घोटालेबाज़ कर्मचारियों की अवैध संपत्ति की जांच करने वाली पुलिस टीम को दिग्भ्रमित किया. जांच में न केवल असहयोग किया, बल्कि जांच की दिशा मोडऩे की भी कोशिश की. यहां तक कि घोटाले का पर्दाफ़ाश करने वाली ग़ाजिय़ाबाद कोर्ट की सतर्कता अधिकारी एवं सीबीआई की विशेष न्यायाधीश श्रीमती रमा जैन का ही तबादला करा दिया गया.

घोटाले के घेरे में जज
सुप्रीम कोर्ट: जस्टिस तरुण चटर्जी (रि.)

कोलकाता हाईकोर्ट: जस्टिस पीके सामंत

उत्तराखंड हाईकोर्ट: जस्टिस जेसीएस रावत इलाहाबाद हाईकोर्ट: जस्टिस तरुण अग्रवाल (उत्तराखांड हाईकोर्ट स्थानांतरित), जस्टिस वीएम सहाय, जस्टिस सुशील हरकोली (झारखंड हाईकोर्ट स्थानांतरित), जस्टिस अंजनी कुमार (रि.), जस्टिस अजय कुमार सिंह (रि.), जस्टिस आरएन मिश्रा, जस्टिस ओएन खंडेलवाल (रि.), जस्टिस डी एस त्रिपाठी (रि.), जस्टिस आरएस त्रिपाठी (रि.), जस्टिस आरपी यादव (रि.), जस्टिस स्वतंत्र सिंह (रि.).

लोअर कोट्?र्स
1. अशोक के चौधरी, अतिरिक्त जि़ला जज, ग़ाजिय़ाबाद.

2. सुभाष चंद्र अग्रवाल, प्रशासनिक जज, महोवा.

3. अली जामिन, अतिरिक्त जि़ला जज, वाराणसी (मऊ के वर्तमान जि़ला जज).

4. दीपक श्रीवास्तव, अतिरिक्त जि़ला जज, ग़ाजिय़ाबाद.

5. अखिलेश दुबे, चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, ग़ाजिय़ाबाद.

6. हिमांशु भटनागर, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, मथुरा.

7. हमीदुल्ला, एडिशनल चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, ग़ाजिय़ाबाद.

8. अनिल कुमार सिंह, रेलवे मजिस्ट्रेट, ग़ाजिय़ाबाद.

9. आरपी मिश्रा, जि़ला जज (रि.), ग़ाजिय़ाबाद.

10. आरएस चौबे, जि़ला जज (रि.), ग़ाजिय़ाबाद.

11. अरुण कुमार, अतिरिक्त जि़ला जज (रि.), ग़ाजिय़ाबाद.

12. साधना चौधरी, अतिरिक्तजि़ला जज (रि.), बाराबंकी.

13. चंदर प्रकाश, जि़ला जज (रि.), बाराबंकी.

14. आरसी सिंह, जि़ला जज (रि.), एटा.

15. सीके त्यागी, अतिरिक्त जि़ला जज (रि.), ग़ाजिय़ाबाद.

अस्थाना की संदेहास्पद स्थितियों में मौत : जांच बेनतीजा
सुप्रीमकोर्ट ने अस्थाना की संदेहास्पद मौत की न्यायिक जांच का आदेश दिया था, लेकिन उस जांच का क्या नतीजा निकला, किसी को भी नहीं मालूम. यहां तक कि अस्थाना की लाश की विसरा रिपोर्ट सीबीआई के सुपुर्द किए जाने का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार को दिया गया था, लेकिन उसका भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला. आ़खिरकार सीबीआई को कहा गया कि वह एम्स से अस्थाना की लाश की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की जांच कर इस बारे में अदालत को अवगत कराए, लेकिन अस्थाना की मौत का मसला रहस्य के गर्त में ही दबा रह गया. सीबीआई ने घोटाले के मामले में जजों से पूछताछ की, लेकिन अस्थाना की मौत पर किसी से बात करने या उस संदेहास्पद स्थितियों में मौत पर कोई बयान जारी करने से सीबीआई साफ़ बच गई. अजीबोगरीब बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अस्थाना की लाश का अंतिम संस्कार करने से रोक तब लगाई, जब आनन-फानन उसकी लाश का अंतिम संस्कार कर दिया गया था. अस्थाना की पत्नी सुषमा अस्थाना को शाम के पांच बजे जेल से बाहर निकाला गया, जबकि उसके पहले ही अस्थाना की लाश का पोस्टमॉर्टम भी निपटा दिया गया. साढ़े छह बजते-बजते अस्थाना की लाश फूंक डाली गई. अस्थाना की पत्नी चिल्ला-चिल्ला कर कहती रही कि उसके पति की हत्या की गई है. देश के क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली भी अस्थाना की मौत पर हतप्रभ रह गए. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि ऐसे नाजुक समय में अस्थाना की मौत शॉकिंग है और इसकी गहराई से जांच होनी चाहिए और गहराई से जांच का नतीजा यह निकला कि अनैतिक धन से जज और जजों के परिवार मौज करते रहे. [चौथी दुनिया से साभार]

बुधवार, 1 सितंबर 2010

कोख का बेखौफ सौदा

आधुनिक जीवनशैली,महंगे शौक ,धन और सैर-सपाटे की चाह में भारत के लड़़के शुक्राणु और लड़कियां अंडाणु बेचने में जरा भी हिचक नहीं कर रहे तो कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो पैसे के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। वहीं इस आधुनिक भारत में एक ऐसा भी वर्ग है जो अनछुई युवतियों से ही शादी करने की चाह रखता है भले ही उसका चरित्र कितना ही कलंकित क्यों न हो।
हमारे देश पहले में बिन व्याही मॉं बनना समाज के लिए कलंक की बात थी आज भी है लेकिन अब चंद रुपयों की खातिर लड़कियां घर से महीनों दूर रहकर कोख किराए पर देने जैसा जोखिम भरा काम कर रही हैं। विज्ञान में इन्हें सरोगेट मदर कहा जाता है। एक इस काम के लिए इश्तहार देता है और दूसरा तत्काल तैयार हो जाता है। सुनने में यह बात अविश्वनीय लगे लेकिन मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लेकर दिल्ली तक व्यवसाय धड़ल्ले से चल निकला है। टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर की सुख सुविधाएं भी कुवांरियों को मॉं बनने के लिए आकर्षित कर रही हैं। सरोगेसी के मामले में राजधानी मेट्रोसिटी की तरह बढ रहा है। आलम यह है कि यहां यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक से दंपत्ती सरोगेट मदर की तलाश में आ रहे हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि इन परिवारों को सामने अविवाहित लड़कियां भी बड़ी संख्या में आ रही हैं, जो पैसों की खातिर बिन व्याहे मॉं बनने को भी तैयार हैं। अपना पूरा भविष्य दांव पर लगाने तैयार कुछ ऐसी ही कुछ लड़कियों से जब सेंटर स्टाफर बनकर बातचीत की गई तो कई बातें बड़ी बेबाकी से सामने रखीं। उनका सीधा कहना है कि भविष्य की कोई गारंटी नहीं है। आज हमें कुछ महीनों में ही दो लाख रुपए तक मिल रहे हैं, वो भी बगैर कोई गलत कदम उठाए तो फिर इसमें हर्ज क्या है। राजधानी में बीई की पढ़ाई कर रही इंदौर की शिल्पा (परिवर्तित नाम) कहती है कि पापाजी की डेथ हो चुकी है। मॉं भी मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। दो भाई हैं जिन्हें मुझसे कोई सरोकार नहीं है। पढ़ाई के लिए तो पापा ने भेजा था। हमने एज्यूकेशन लोन लिया था। पापा मेरे नाम कुछ फिक्स डिवाजिट भी किए थे। दो साल पहले पापा की डेथ हो गई, तब से मैं सारे फैसले खुद ही ले रही हूं। अपने भविष्य को लेकर ही मैं फ्लैट लेना चाहती हूं। लिहाज उसने सरोगेट मदर बनकर फ्लैट के लिए रुपए जुटाने का फैसला किया है। बैतूल की तान्या (परिवर्तित नाम) भोपल में रिसेप्शनिस्ट है। वह चाहती है उसकी खुद की कार हो, लेकिन परिवारिक परिस्थितियां और सेलरी से यह सपना पूरा नहीं हो सकता। तान्या ने कार लेने के लिए अब सरोगेट मदर बनने का रास्ता चुना है। मिसरौद की विभा (परिवर्तित नाम) की बचपन में शादी हो गई। गौने से 3 महीने पहले ही पति ने दूसरी शादी कर ली। अब वह आत्मनिर्भर होना चाहती है, लेकिन इसमें गरीबी आड़े आ रही है। विभा ने इसके लिए सरोगेट मदर बनने का रास्ता चुना।
रायसेन की भूमि (परिवर्तित नाम) के माता-पिता की मृत्यु हो गई। अब वह गोविन्दरपुरा के एक ऑफिस में रिशेपनिस्ट है। उसे प्यार में धोखा मिला अब भूमि ने आत्मनिर्भर होने के लिए सरोगेट मदर बनने का निर्णय लिया है। जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसे ऐसा करने में समाज से डर नहीं लगता है तो उसने कहा कि जब मुझे भूख लगती है तो कोई पुछने नहीं आता ऐसे में डरे किससे। क्या उस समाज से डरूं जिसके डर से इन दिनों कई लड़कियां सर्जरी की मदद से कौमार्य हासिल कर रही हैं। यहां तक कि कुछ तो डॉक्टर से वर्जिनिटी सर्टिफिकेट भी मांगती हैं। शादी के वक्त लड़की का गोरा रंग, दुबला शरीर और ऊंचा कद तो मायने रखता ही है, पर हमारे समाज में सबसे ज्यादा जरूरी है उसका अनछुई होना। शादी की रात ही यह जान कर कि दुलहन वर्जिन नहीं है, अपनी पत्नी को तलाक दे देना कोई नई बात नहीं है। या यह जानने के बाद कि पत्नी का कभी किसी और से भी संबंध रहा है, उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त करना भी कोई नई बात नहीं है। अपने सपनों में अनगिनत लड़कियों को नोचता हुआ, चीरता हुआ यह शरीफ मर्द आंचल में ढंकी बीवी की ख्वाहिश करता है। शादी से पहले किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाया तो आप बदचलन हैं। आपका करैक्टर आपकी वर्जिनिटी पर आधारित है। हमारे देश में औरत की वर्जिनिटी को उसकी इज्जत कहा जाता है। शायद इसीलिए कोई वहशी किसी लड़की से बलात्कार करता है तो वह आत्महत्या कर लेती है। अगर लड़की ऐसा न भी चाहे तो समाज उसके साथ इतनी हिकारत से पेश आता है कि उसके सामने कोई चारा नहीं होता।
कुछ लड़कियों से जब यह पूछा कि अगर बिन व्याहे मॉं बनने के बात समाज के सामने आ जाती है तो फिर आपके भविष्य का क्या होगा। इसके जवाब में सभी का एक जैसा नजरिया था, कि फैसला हमारा अपना है इसलिए वे भविष्य की हर परेशानी के लिए भी पूरी तरह से तैयार हैं।
टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर के एक संचालक कहते हैं कि कोख किराए से देने वाली महिलाओं का आंकड़ा बढऩे के पीछे वजह इनके लिए उपलब्ध मार्केट है। वहीं उच्चवर्ग की महिलाएं अपने फिगर को मेंटेन रखने, गर्भपात होने से पैदा होने वाली परेशानियों से बचने सरोगेट मदर की मदद लेना ज्यादा बेहतर समझती हैं। ये महिलाएं झूठी मेडिकली परेशानियों का बहाना बनाकर इस सरोगेट मदर्स का सहारा लेने की भरसक कोशिश करती हैं। वे कहते हैं कि गर्भधारण का अनुभव प्रमाणसहित होना जरूरी है। इसके लिए विवाहित होने की बाध्यता नहीं है। अविवाहित लड़िकयां भी गर्भधारण का अनुभव होने पर सरोगेट मदर बन सकती हैं। विवाहिता के पति की अनुमति जरूरी है। अविवाहिता और तलाकशुदा के लिए केवल उसकी अपनी मर्जी ही काफी है। जबकि तलाक के लंबित मामलों में महिला कोख किराए पर नहीं दे सकती। महिला को ऐसी कोई बीमारी न हो जिसके बच्चे में स्थानांतरित होने की संभावना हो और उसकी उम्र 21 से 45 साल के बीच हो।
यह तो रही कोख किराए पर देने वालों की दास्तान। यही कुछ हाल है शुक्राणु और अंडाणु बेचने वालों का। बताया जाता है कि बेहतर गुणवत्ता वाले शुक्राणु और अंडाणुओं की विदेशों में अच्छी-खासी कीमत मिल रही है। नीली आंखों वाली लड़़कियों के अंडाणुओं की कीमत सबसे अधिक है। वहीं उच्च वर्ण, गोरा रंग और लंबाई वाले लड़़कों के शुक्राणुओं का बाजार तेजी पकड़़ रहा है। वैसे देश के महानगरों में भी इसका चलन जोर पकड़़ रहा है, लेकिन फर्टीलिटी टूरिज्म के जरिए विदेशों में निशुल्क घूमने-फिरने और रहने का बोनस पैकेज युवाओं को ज्यादा लुभा रहा है। दिल्ली-एनसीआर के कई प्रजनन केंद्रों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनके यहां दिल्ली विश्वविद्यालय की कई लड़़कियां अपने अंडे का दान करने आती हैं और बदले में उनको अच्छी रकम भी मिल जाती है। ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय युवाओं के शुक्राणु और अंडाणु देने के एवज में 30 हजार डॉलर तक मिल रहे हैं। वैसे ब्रिटेन में शुक्राणु और अंडाणु दान करने वाले लोगों को अब 800 पौंड देने का प्रावधान किया है। लेकिन ब्रिटिश दंपतियों में भारतीय नस्ल के बढ़़ते क्रेज को देखते हुए इसकी कीमत इससे कहीं ज्यादा है । ह्युमन फर्टीलिटी एंड एम्ब्रियोलॉजी ऑथरिटी (ब्रिटेन) ने वीर्य दान करने वालों को अब ज्यादा भुगतान करने का प्रावधान किया है । इसके मुताबिक अब वीर्य दाताओं को 800 पौंड (लगभग एक लाख रुपए) मिलेंगे। पहले इसके एवज में वहां महज 250 पौंड का भुगतान किया जाता था। ब्रिटेन जैसे देशों में महिलाओं में बांझपन व पुरुषों में नपुंसकता दर ज्यादा होने की वजह से उनके अंडाणु और शुक्राणु इनविट्रो फर्टीलिटी तकनीक (आईबीएफ) के लिए उपयुक्त नहीं रहे हैं। चूंकि भारत एक सम-शीतोष्ण देश है इसलिए यहां के युवा प्रजनन के लिए अधिक उपयुक्त माने जाते हैं। लेडी हार्डिंग अस्पताल में स्त्री एवं प्रसूती विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सीमा सिंघल के कहना है कि विज्ञान के विकास ने मां-बाप बनने की संभावनाओं को बढ़़ाया है। इसकी वजह से लोग किसी भी कीमत पर अपनी सूनी गोद को हरी करना चाहते हैं। इसके एवज में वे को भी कीमत चुकाने को तैयार होते हैं, और लाभ उठाने वाले इसका लाभ उठाते हैं । इसके लिए आचार संहिता चाहिए, जो अभी नहीं है ।
आज दुनिया दो गुटों में बंट गई है। पहला वह , जो काफी हद तक तालिबानी व्यवस्था का समर्थक है। मजे की बात यह कि ये लोग खुद भी नहीं जानते कि इनकी शख्सियत कितनी दोहरी है। ये इस्लामिक फतवों के विरोधी हैं पर टीवी सीरियलों में हर वक्त साड़ी में लिपटी , पल्लू सर पर ओढ़े , रोती - सिसकती नायिका को आदर्श गृहणी मानते हैं। चार लोगों के बीच बुरके को औरत की आजादी का दुश्मन बताने वाले खुद अपनी बहुओं को घूंघट में ढांक कर रखते हैं। बेटी के कॉलेज से दस मिनट लेट घर आने पर सवालों की झड़ी लगा देने वाले भी नकाब को औरत पर जुल्म मानते हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं जिन्हें महिला सशक्तिकरण सिर्फ मिनी स्कर्ट में नजर आता है। इन्हें लगता है छोटे कपड़े और प्री - मैरिटल सेक्स को सपोर्ट करना ही प्रगतिशील विचारधारा है। अपने करियर को महत्त्व देने वाली महिलाओं को करियर बिच पुकारने वाले समाज में अगर कोई लड़की 18 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ , शादी करके मां बन जाती है तो उसे डेडिकेटेड वाइफ कहा जाता है। नकाब ओढ़ कर कांफरेंस रूम में मीटिंग करती हुई औरत को ये बैकवर्ड मानते हैं।
नारियां अब पढ़-लिख कर और अपने पैरों पर खड़े होकर स्वतंत्र हो रही हैं। वे विवाह के पीछे निहित विडंबनाओं एवं पुरुष की धूर्तताओं को समझने लगी हैं। मंगलकामना के लिए बनाए गये तमाम यातनामूलक आचारों के खोखलेपन को समझने लगी हैं। जन्म-जन्मांतर के झूठे संबंधों के निर्वाह की प्रक्रिया में इस जन्म को नरक बना देने के विधान को चुनौती देने लगी हैं। देश-विदेश में जागृत स्त्री-विमर्श नारी को उसकी मानवीय अस्मिता के प्रति सचेत कर रहा है। अत: अब दाम्पत्य जीवन में टकराहटें होने लगी हैं, तलाक की संख्या बढ़ती जा रही है। वैवाहिक संबंध टूट रहे हैं सो टूट रहे हैं। अब अनेक स्वावलंबी लड़कियां विवाह से विमुख भी हो रही हैं। वे कुछ करना चाहती हैं, कुछ बनना चाहती हैं किन्तु उन्हें लगता है कि वैवाहिक जीवन उनकी भावी प्रगति के मार्ग में व्यवधान बन जायेगा। उनकी अस्मिता दबा दी जायेगी और पुरुष तथा उसके लोगों की ताडऩा तो सहनी ही पड़ेगी। कुछ पुरुषों में भी विवाह के प्रति उदासीनता लक्षित हो रही है। वे भी परिवार के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन बिताना चाहते हैं। विवाह की अनिवार्यता के साथ जो धार्मिकता जुड़ी थी, उसकी व्यर्थता का बोध उन्हें होने लगा है। अत: लग रहा है कि विवाह प्रथा चरमरा रही है।
मुझे लगता है कि विवाह-प्रथा का आधार बहुत मजबूत है, उसकी परिकल्पना के पीछे बहुत गहरा चिंतन और मूल्य-दृष्टि है। आज भी इसका कोई सही विकल्प लक्षित नहीं होता। विवाह न करके मुक्त जीवन बिताना किसी भी व्यक्ति का निजी अधिकार है। लेकिन यदि सभी लोग मुक्त जीवन बिताने लगे तो सृजन परंपरा ही समाप्त हो जायेगी या जो सृजन होगा वह लावारिस होगा। जब तक हमारे समाज का मिजाज नहीं बदलता, ऐसा सृजन नाजायज माना जाएगा और अनाथालयों की शोभा बढ़ाता रहेगा। हां, यदि स्त्री-पुरुष छाती ठोक कर उस सृजन को अपना घोषित करते हैं और हमारी समाज व्यवस्था तथा कानून व्यवस्था में उसकी सम्मानपूर्ण जगह बनती हो तो कोई हर्ज नहीं। बन पायेगी क्या? तो मुझे नहीं लगता कि थोड़ी बहुत चरमराहट के बावजूद विवाह प्रथा समाप्त होगी। आवश्यकता इस बात की है कि इसकी मूल परिकल्पना की पहचान कर इसमें आयी कुरीतियों, विषमताओं और गंदगी को दूर किया जाए। यह पशुता से मनुष्यता की ओर आने वाली संस्कृति यात्रा की महत्वपूर्ण देन है। यह स्वयं पशुता के लक्षणों से भर जाये, निश्चय ही यह बहुत पीड़ादायक स्थिति है।