शनिवार, 25 सितंबर 2010

हिन्दुत्व क्या है?

स्वामी श्री अड़गड़ानंद दस अगस्त को विस्फोट पर स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी द्वारा रचित पुस्तक ‘शंका समाधान’ से ‘गाय धर्म नहीं जानवर है’ प्रकाशित हुई थी, जिस पर विस्फोट के सुधी पाठकों ने अपना-अपना उन्मुक्त विचार व्यक्त किया है। इस लेख पर कुछ पाठकों ने स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज जी को तमाम तरह से लांक्षित कर उन्हें हिन्दू एवं हिन्दुत्व विरोधी करार देते हुए हिन्दुत्व पर अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। स्वामी अड़गड़ानन्द जी महाराज के हिन्दुत्व की विचार धारा के प्रति तो हिन्दू एवं हिन्दुत्व के प्रति स्वामी अड़गड़ानन्द जी के विचार (अनछुये प्रश्न के माध्यम से) ‘हिन्दुत्व क्या है?’ को प्रस्तुत कर रहा हूं.
विगत दो-तीन सौ वर्षो में करोड़ों हिन्दू सिख के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं, चौबीस करोड़ हिन्दू ईसाई हो गये, तीस-बत्तीस करोड़ मुसलमान बन गये। अम्बेडकर ने कहा था कि मैं हिन्दू जन्मा अवश्य हूँ इसमें मेरा कोई वश नहीं था किन्तु मैं हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं। उत्तर प्रदेश अैार बिहार हरिजन अपने को बौद्ध लिखने लगे हैं। नागपुर में अम्बेडकर जयन्ती पर दस लाख लोग एकत्रित हुए थे, बौद्धिष्ट बनने हेतु। यदि जाति-पाँति छुआछूत और जातीय विद्वेष का नाम ही हिन्दू धर्म है तो कितने लोग हिन्दू रह जायेंगे?

हिन्दू रिसर्च फाउण्डेशन, मुंबई ने हिन्दू, हिन्दुत्व तथा हिन्दुस्तान जैसे शब्दों की आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में लिखा है। उनका आशय है कि सम्प्रति ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति पर विचार करने में समय बर्बाद न कर हिन्दू-धर्म के प्रचार-प्रसार की बात सोची जाय तो अधिक उपयोगी होगी। उनका यह सुझाव सार्थक प्रतीत होता है, है नहीं। ‘हिन्दू’ शब्द को लेकर संस्था बनाना, हिन्दू नाम पर आहें भरना, पश्चाताप करना, आँसू बहाना अलग बात है। प्रश्न है कि हिन्दू-धर्म क्या है, जिसका प्रचार-प्रसार किया जाय? इसके लिए धर्म को मूल रूप मेें जानना, उद्गम से ही उसका साफ-सुथरा परिचय देना होगा।

आश्चर्य होता है कि संस्था का नाम ‘हिन्दू रिसर्च फाउण्डेशन’ होते हुए भी जब वे ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्त्ति के विषय में सोच नहीं सकते तो रिसर्च कौन-सा करते हैं। मूल तथ्यों से पलायन कोई रिसर्च तो है नहीं। आंग्ल भाषा में टंकित उनका पत्र पन्द्रह बिन्दुओं में है। विषय को रेखांकित करने के अनन्तर पत्र की आरम्भिक पंक्तियों में उन्होंने ध्यान दिलाया है कि भारत की 85 प्रतिशत जनता हिन्दू-धर्म स्वीकार करती है। बेशक स्वीकार करती है; किन्तु कब तक कर पायेगी? हाँ, यदि उसे अपना उद्रव और धर्म की व्याख्या मिल जाय तो अवश्य उस पर आरूढ़ रह सकेगी।

द्वितीय बिन्दु में उन्होंने व्यक्त किया है- ‘प्रतीत होता है कि आप हिन्दू धर्म के स्थान पर आर्य-धर्म प्रतिस्थापित करना चाहते हैं।’ उनका यह निष्कर्ष भी भ्रमपूर्ण है। हम सबका आदि धर्मशास्त्र गीता हे। मनुष्य बाद में जन्मा, गीता पहले प्रसारित हुई। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा, अर्जुन! इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में मैंने सूर्य से कहा। सूर्य ने अपने पुत्र आदि मनु से कहा। मनु महाराज ने इस अविनाशी योग को स्मृति मेें धारण कर लिया और स्मृति की परम्परा दी। उन्होंने यही योग अपने पुत्र महाराज इक्ष्वाकु से कहा, इक्ष्वाकु से राजर्षियों ने जाना। इस महत्वपूर्णकाल से यह अविनाशी योग इस पृथ्वी पर से लुप्त हो गया था, मनुष्यों की स्मृति-पटल से ओझल हो गया था, लोग भूल गये थे- वही पुरातन योग, अविनाशी योग मैं तेरे प्रति कहने जा रहा हूँ; क्योेंकि तू प्रिय भक्त है, अनन्य सखा हैं। अर्जुन ने कुछ तर्क-वितर्क के पश्चात् स्वीकार किया कि ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।’ मोह से उत्पन्न मेरा अज्ञान नष्ट हुआ। गोविन्द! ‘स्मृतिर्लब्धा’- जो मनु महाराज ने स्मृति में धारण किया था, जिस स्मृति की परम्परा दी, मैं उस स्मृति को प्राप्त हुआ हूँ। यह अवनिाशी योग मैंने स्मृति में धारण कर लिया है। मैं आपके आदेशों का पालन करूँगा। अर्जुन युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गया। युद्ध हुआ, विजय हुई, एक धर्मसाम्राज्य की स्थापना हो गई। एक सम्पूर्ण धर्मात्मा नरेश युधिष्ठिर अभिषिक्त हुए और एक ही धर्मशास्त्र गीता पुनः प्रसारण में आ गयी।

गीता के आरम्भ में ही अर्जुन ने कहा, गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा क्योंकि कुलधर्म सनातन है। ‘जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः’- यह जातिधर्म और कुलधर्म ही शाश्वत है। युद्धजनित नरसंहार से पिण्डोदक क्रिया लुप्त हो जायेगी, पितर लोग गिर जायेंगे, वर्णसंकर हो जायेंगे इत्यादि। हमलोग समझदार होकर भी पाप करने को उद्यत हुए हैं। शस्त्रधारी कौरव मुझ शस्त्रविहीन को मार डालें तो मरना श्रेयस्कर है। गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा। यह पाप है- एक धार्मिक भ्रान्ति ने अर्जुन को मौत के मुख में धकेल दिया। गीता के विस्मृत होने का दुष्परिणाम था कि अनेक भ्रान्तियाँ फैल गयीं, जिनमें से एक भ्रान्ति का अनुयायी अर्जुन भी था। जिन कौरवों ने इनके लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया, भीम को विष दिया, वनवासकाल में राक्षसों को नियुक्त किया कि ध्यानरत अर्जुन को मार डालो, वे अर्जुन को निःशस्त्र पाकर क्या छोड़ देते? किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, अर्जुन! तुझे यह अज्ञान किस हेतु से उत्पन्न हुआ। यह न कीर्ति करनेवाला है, न कल्याण करनेवाला है और न ही पूर्व महापुरूषों ने भूलकर भी ऐसा आचरण किया। यह ‘अनार्यजुष्टम्’- अनार्यो का आचरण तूने कहाँ से ले लिया। भगवान् ने बहुत समझाया, अर्जुन ने तर्क-विर्तक किया, अन्ततः उसे दृष्टि मिल, भगवान् का दर्शन किया तब कुछ समझ में आया। अस्तु, जाति-पाँति, छुआछूत, भेदभाव, पिण्डोदक क्रिया भगवान् के शब्दों में अज्ञान है, अनार्यो का आचरण है।

आर्य धर्म नहीं, प्रजाति नहीं, एक व्रत है
अस्तित्ववान् अविनाशी एक परमात्मा है। जो उस एक परमात्मा का उपासक है, उसे प्राप्त करने की नियत विधि का आचरण करता है, आर्य है। गीता आर्य-संहिता है। गीता के अनुसार आत्मा ही शाश्वत है, सनातन है। जो सदा हृदय-देश में विद्यमान है। हम शाश्वत, सनातन के पुजारी हैं। गीता सनातन की प्राप्ति की संहिता है इसलिये भारतीय सनातनधर्मी कहे जाते थे। हम उस हृदयस्थ परमात्मा के पुजारी हैं इसलिये हिन्दू कहे जाते हैं। हृदय में ही उस परमतत्व परमात्मा का निवास है। साधना की सही प्रक्रिया से चलकर जब कभी किसी ने उस परम प्रभु को पाया तो हृदय-देश में प्राप्त किया। संसार एक रात्रि है- ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ जगत्रूपी रात्रि में भी वह ईश्वरीय प्रकाश सबके हृदय में एकरस विद्यमान रहता है। रात्रि में तो इन्दु अर्थात् चन्द्रमा ही रहता है। इसलिए हृदि इन्दु स हिन्दू-हृदय में वह चन्द्रमा के सदृश सदा प्रकाशित है। यह जीवनी शक्ति के रूप में सदा प्रवाहित है इसलिये इसका एक नाम हिन्दू भी है। जब परमात्मा विदित हो जाता है तब पूर्ण प्रकाश है, रात्रि समाप्त हो जाती है। ईश्वरीय आलोक छा जाता है। वहाँ न रात है न दिन। यह आर्यावर्त, सनातनी, हिन्दू अर्थात् हृदयस्थित परमात्मा के व्रती सबका एक ही आशय है। इन नामों का स्मरण कर हम कुछ बदल नहीं रहे हैं, कोई नया नामकरण करनें नहीं जा रहे हैं; केवल यह बता रहे हैं कि कालक्रम से ये नाम हमारे ही है। हम मूल नाम दे रहे हैं, आपको इतिहास से जोड़ रहे हैं। कालक्रम से भाषाएं बदलती गयीं, नाम बदलते गये; किन्तु मूलतः हम वही हैं और हम सबका शास्त्र भी वही ‘गीता’ ही है।

पत्र के तृतीय बिन्दु में उन्होंने पुनः याद दिलाया है कि पचासी प्रतिशत भारतीय अपने को हिन्दू कहते हैं, संसार उन्हें हिन्दू के रूप में मान्यता देता है। अरब निवासी इस देश को हिन्दुस्तान कहते हैं और आप-जैसे हिन्दू शब्द की उत्पत्ति खोज रहे है। वस्तुतः यह कार्य तो शोध संस्थान का ही था कि अपने गौरवशाली अतीत का भी स्मरण करते। वे तो इतने में ही सन्तुष्ट हैं कि पचासी प्रतिशत भारतीय अपने को हिन्दू कहते हैं। भले ही कहते हों किन्तु सन्तुष्ट कोई नहीं है। विगत दो-तीन सौ वर्षो में करोड़ों हिन्दू सिख के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं, चौबीस करोड़ हिन्दू ईसाई हो गये, तीस-बत्तीस करोड़ मुसलमान बन गये। अम्बेडकर ने कहा था कि मैं हिन्दू जन्मा अवश्य हूँ इसमें मेरा कोई वश नहीं था किन्तु मैं हिन्दू रहकर मरूँगा नहीं। उत्तर प्रदेश अैार बिहार के हरिजन अपने को बौद्ध लिखने लगे हैं। नागपुर में अम्बेडकर जयन्ती पर दस लाख लोग एकत्रित हुए थे, बौद्धिष्ट बनने हेतु। यदि जाति-पाति छुआछूत और जातीय विद्वेष का नाम ही हिन्दू धर्म है तो कितने लोग हिन्दू रह जायेंगे? बम्बई के समीप गोवा, असम, नागालैण्ड, अरूणांचल प्रदेश, केरल, कश्मीर इत्यादि राज्यों में संख्या में ह्रास स्वतंत्रता के पश्चात् हुआ है। जब तक आप धर्म की परिभाषा नहीं देंगे, धर्मशास्त्र के रूप में गीता नहीं देंगे, केवल हिन्दू-हिन्दू कहने से धर्मान्तरण नहीं रूकेगा। हिन्दू आश्वस्त नहीं है। उसे धर्म पर विश्वास दिलाना होगा ताकि वह इस पर टिक सके।

वेदशास्त्र की धमकी देकर, साइनबोर्ड इसका दिखाकर भारत अलग से एक शास्त्र चलाया जाता था, जिनका नाम था स्मृतियाँ, जैसे- मनुस्मृति, पाराशर स्मृति, देवल स्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति इत्यादि। महापुरूषों के नाम से प्रचारित इन स्मृतियों में है- शूद्र भगवान् का भजन नहीं कर सकता। वह वेदवाक्य पर विचार करने मात्र से नरक में जायेगा। उसे सुनकर स्मरण करता है, मन में दुहराता है, तब भी नरक जायेगा। जिह्वा से वेद का उच्चारण कर दे तो उसकी जिह्वा काट लो। यदि यही है आपका हिन्दू-धर्म, वेद और शास्त्र तो कौन इस व्यवस्था में जीना चाहेगा?
शोध संस्थान वालों ने तर्क दिया है कि दक्षिण भारत के लोग अपने को आर्य नहीं मानते ‘द्रविड़’ मानते हैं, हिन्दू मानते हैं। आर्य-दर्शन का प्रचार करने से उत्तर-दक्षिण भारतीयों में घृणा पनपेगी। राष्ट्रीय-गान आपको स्मरण ही होगा। पंजाब, सिन्धु, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंग। हिमाचल..............। ये भू-भाग के नाम हैं। एक श्लोक निरन्तर पढ़ने में आता है-

जम्बूद्वीपे, भारतखण्डे आर्यावर्ते................

जम्बू एक द्वीप है, जिसमें भारत एक खण्ड है, जिसमें आर्यव्रती लोग निवास करते हैं। आर्य एक व्रत है, किसी भू-भाग का नाम नहीं। भारत के प्रान्तों के नाम हैं-द्राविड़, गुजरात, मराठा आदि। आर्य कोई भू-खण्ड नहीं वरन् एक व्रत है, गुणवाचक है। आर्य कोई प्रजाति है, यह विष-वमन तो अंग्रजों को कुप्रचार है। प्राचीन आर्षग्रन्थों में ‘आर्य’ शब्द की व्याख्या पर्याप्त है। भगवान बाल्मीकि, भगवान् बुद्ध की वाणी में, भगवान् महावीर और भगवान् व्यास की वाणी में ‘आर्य’ शब्द पर प्रचुर प्रकाश डाला गया है। इनमें से किसी का उदाहरण न देकर आर्यो के विषय में अंग्रजों ने क्या कहा? मैक्समूलर ने मध्येशिया, तो किसी ने काकेशस पर्वत को उनका मूल निवास बताया; क्योंकि वहाँ संस्कृत भाषा के दो-चार शब्द मिले हैं। क्या यह सम्भव है कि आर्य जब भारत आने लगे, मूल निवास से सब कुछ अपने साथ बाँध लाये और वहाँ संस्कृत के दो-चार शब्द ही छोड़ा? एक भी वेद उन पूर्वजों के गाँप में नहीं छोड़ा? आर्य और अनार्यो में फूट डालकर राज्य करो, अंग्रेजों की दुरभिसन्धि थी, जिसका शिकार आंग्लभाषी विश्वविद्यालयों के छात्र हुए। यदि छात्र यही सब न लिखें तो उत्तीर्ण कैसे होते? ब्रिटिश प्रशासन के अन्तर्गत लार्ड मैकाले की कुत्सित शिक्षा योजना का परिणाम आर्य और अनार्यो का विभाजन है। आर्यो की विशुद्ध परिभाषा आश्रमीय साहित्य ‘शंका समाधान’, ‘जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति’ इत्यादि पुस्तकों में द्रष्टव्य है। दक्षिण भारतीय भी कार्य ही हैं। अंगद आर्य थे, विभीषण आर्य थे, रावण के पिताश्री भी कार्य ही थें आरम्भिक आर्य सूर्य, चन्द्र, कुबेर, वरूण इत्यादि थे। भगवान् श्रीकृष्ण आर्य थे। आर्य एक व्रत है, जो अस्तित्व एकमात्र परमात्मा के प्रति आस्थावान् है, आर्य है न कि कोई प्रजाति या धर्म। धर्म साधना का नाम साधना को धारण करना धर्म है।

शोध संस्थान को सन्तोष है कि अरबवाले इस देश को हिन्दुस्तान तो कहते हैं। मुसलमान हिन्दुओं को काफिर भी कहते हैं, नास्तिक मानते हैं, पापी मानते है और हिन्दुस्तान को पाक करने के षड्यन्त्र करते ही रहे हैं, कभी जनेऊ जलाया गया, चोटी काटी गयी तो कभी जजिया कर लगया गया। उस युग में तीन विभूतियाँ ऐसी निकल आयीं, जिन्होंने हिन्दुओं को समूल नष्ट होने से बचा लिया। वह थे-महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह जी और छत्रपति शिवाजीं इन तीनों ने ही हिन्दुओं की दकियानूसी परम्परा का पालन नहीं किया। महाराणा प्रताप ने कोल-भीलों को शस्त्र पकड़ा दिया, इन्हीं में रहे, साथ भोजन किया, उन्हें सम्मान दिया। ‘ महाराष्ट्र में जो जन्मा है, मराठा है’-कहकर शिवाजी ने सबको शस्त्र पकड़ा दिया। गुरू गोविन्द सिंह जी ने शिष्यों को शस्त्र धारण कराया, कहा, ‘सभी सिंह हैं’ कर्मकाण्डी लोग पीछा करते ही रह गये। इन महापुरूषों ने उन्हें भगा दिया। सबके साथ खाना-पीना, रहना उनका हिन्दू-धर्म था। आर्य शब्द को विकृत करने के प्रयास हुए हैं, इसीलिए लोगों में इस शब्द से भ्रान्ति है। दयानन्द जी ने भी इसकी उत्पत्ति तथा प्राचीन ग्रन्थों में इस शब्द की व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया। जब उन्होंनं वेद को शास्त्र कहा, तो लोगों ने स्मृति को शास्त्र बताया। अब मूलस्कृति के रूप में गीता आ गयी तो कहते हैं वेद शास्त्र है? दयानन्द जी को मुसलमानों ने नष्ट नहीं किया, ईसाइयों ने नहीं किया इन्हीं हिन्दुओं ने किया। दयानन्द जी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श ही दे रहे थे। किन्तु विश्व में फूट डालनेवालों ने ही उन्हें हर बार विष द्वारा मारने का प्रयास किया; अतः वेद धर्म है, शास्त्र धर्म है- एक ढाल मात्र है। इनका नाम लेने से लोगों की श्रद्धा झुक जाती है। जाल फेंककर चना दिखाकर बन्दर पकड़ने जैसी गर्हित कला है।

शोध संस्थान को गर्व है कि विदेशी लोग भारतीयों का हिन्दूरूप में आदर करते है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, हिटलर और मुसोलिनी से भारत की स्वतन्त्रता के लिये सहयोग चाहते थे। उनका (हिटलर आदि का) विचार था कि भारत कभी आजाद हो ही नहीं सकता। भारतीय अपना शासन स्वयं करने में सक्षम नहीं हैं। भारत जातियों, विविध धर्मो और भाषाओें में, भाई-भतीजावाद, पक्षपात, जातीय विद्वेष में इतनी उलझा हुआ है कि आगामी दो सौ वर्षो में भी अपना शासन स्वयं चलाने योग्य नहीं हो सकता। सर्पों को बीन बजाकर या बन्दर को डुगडुगी बजाकर नचाने के अतिरिक्त भारतीय कर ही क्या सकते हैं? छुआछूत, भेदभाव के कारण भारतीयों को विदेशों में जाहिलों, मूर्खो का समाज समझा जाता है।

नवम बिन्दु में संस्थान के संचालक महोदय का मानना है कि ‘‘हिन्दू शब्द पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारतीयों को एकता के सूत्र हिन्दू ईसाई हो गये। कहीं कोई पंडित चन्दन लगाकर निकलता है तो बच्चे ताली बजाने लगते हैं? कौन कहता है इस शब्द से सभी खुश हैं? यदि खुश ही थे तो ईसाई क्यों बन गये? क्यों बनते जा रहे हैं? जब तक धर्म की सही परिभाषा न दी जाय, बिना परिचय के कोई गर्व कैसे करेगा?

ग्यारहवाँ बिन्दु भी विचारणीय है कि पूर्वज अपने को हिन्दू कहते थे। भाष, इतिहास और गीता पर प्रतिबन्ध लग जाने से यह ‘हिन्दू’ नामकरण विस्मृत हो चला थां हिन्दू शब्द दस-ग्यारह सौ वर्षो से ही पुनः प्रचलन में है। अभी पुष्यमित्र शुंग के समय में विभिन्न स्मृतियाँ लिखी गयीं उनमें भी हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है। शुंगकाल में वर्णित संस्कृत वर्णमाला, शब्दकोश इस शब्द से अनभिज्ञ है। गीता इस शब्द को अवश्य समर्थन देती है कि ईश्वर हृदय-देश में निवास करता है, सहज प्रकाश छोड़ता ही रहता है। इन्दु से हिन्दू की उदारवादी व्याख्या आप देख सकते हैं। गीता वेद-शास्त्रों का भी मूल है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओपप्रोत है, सम्पूर्ण विश्व का यह आदि धर्मशास्त्र है।

भारत को विश्वगुरू होने का गौरव प्राप्त था, किन्तु मध्यकाल में विश्व से आगन्तुक शिष्यों ने कुएँ में रोटी टुकड़ा डाल दिया तो गाँव का गाँव मुसलमान हो गया। इस विकृति को जीवित रखने के लिए करोड़ों आचार्य आचार्य लगे हैं, जिन्हें पुरोहित कहते हैं, जो घर-घर जाकर जन्म-मृत्यु या विवाह के अवसर पर विकृतियों को ही संरक्षण दे रहे हैं- नमोब्रह्मण्य देवाय, गो ब्राह्मण हिताय च.........उनके शिकंजे से आपे कैसे बचेंगे? अतः धर्म को जानने के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श के लिए आप सभी गीता लें। प्रचार-प्रसार का अन्य वैज्ञानिक उपाय नही है। भगवान् ने स्वयं कहा, अर्जुन! अन्य विधियों से जो भजते हैं, उनके जीवन में न सुखहै न समृद्धि है और न परमसिद्धि ही है। ‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ’- तुम्हारे कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में यह गीता शास्त्र ही प्रमाण है, क्योंकि जिन प्रभु को धारण करना धर्म है उन्हीं का सन्देश गीता है।

हिन्दू शोध संस्थान को दुःख है कि आज कोई वसुधैव कुटुम्बकम् की बात नहीं करता। यही मान लेते तो विश्वगुरू भारत, संसार का हर मानव शिष्य, तो शिष्यों के छूने, खाने से गुरू जी रसातल में क्यों चले जाते? आधा अरब भारत ही था। अल्ताई पहाड़, हिन्दूकुश, मलाया, जावा, सुमात्रा, सिंहल, चीन, जापान और मिस्त्र तक भारत ही तो था। आज कैलाश मानसरोवर के लिए भी वीसा पासोर्ट लेना पड़ता है। यह सिमट क्यों गया? इसकी जड़ में धार्मिक भ्रान्ति है जो करोड़ों में फैली है। आप एक स्थल से शिक्षा देकर इनका दुष्प्रभाव कैसे कुण्ठित कर सकेगें। आवश्यकता है इन धर्माचार्यो को सही दिशा देने की। उन्हें सत्य प्रसारण की विधि प्रदान करें। उपनिषदों और वेदों का मूल है गीता, सृष्टि का आदिशास्त्र है गीता, पर शोध संस्थान की दृष्टि क्यों नहीं पड़ी?

हिन्दू शोध संस्थान ने अन्त में सुझाव दिया है कि धार्मिक उद्देश्य से गठित संगठनों को राजनीति से पूर्ण विरत रहना चाहिए। धर्म का शुद्ध स्वरूप जिन्हें उपलब्ध है, ऐसे संगठन राजनीति में कभी जा ही नहीं सकते। धर्म उन्हें किसी में फूट डालने का अवकाश ही नहीं देता। यह तो वही कर सकते हैं जो धर्म नहीं जानते। धर्म की दृष्टि में विश्व का मानव-मात्र एक इकाई है। अन्य किसी ग्रह पर अतिरिक्त जनसंख्या है तो उसके लिए भी धर्म में इतनी जगह बनी हुई है। गीता के अनुसार, एक पिता की सन्तान के रूप में वे एक जगह खा-पी सकते हैं, सम्बन्ध भी कर सकते हैं। संस्थानों ने बौद्धिकों का आह्नान किया है कि उदारवादी व्याख्या द्वारा हिन्दू-धर्म प्रचार-प्रसार में लगें। वस्तुतः बुद्धि के बल पर शास्त्रों को समझने का प्रयास ही गलत है। शास्त्र कोई विरला महापुरूष ही जानता है और उनके संरक्षण में कोई विरला ही अधिकारी पढ़ता है। पचासों भाषा पढ़कलर भी शास़् के विषय में कोई कुछ नहीं जानता। श्रीकृष्ण कहते हैं, अर्जुन! इस ज्ञान को जानने के लिए तत्वदर्शी महापुरूष की शरण में जाओ। रामचरितमानस में है, ‘जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी’- यह तो महापुरूषों के क्षेत्र की वस्तु है। आप उनसे परामर्श लेते रहेंगे तो कभी भी सन्देह नहीं होगा।

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