शनिवार, 20 अगस्त 2016

काले सोने का काला कारोबार

मप्र को हर साल 727 करोड़ की चपत
भोपाल। मप्र में काले सोने यानी कोयले का काला कारोबार दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। प्रदेश में कोयले का अवैध कारोबार भले ही बिहार और झारखंड की तरह खुंखार नहीं है लेकिन उससे कम काला नहीं है। आलम यह है की प्रदेश में हर साल सफेदपोश के संरक्षण में मप्र सरकार को करीब 727 करोड़ की चपत लगाई जा रही है। इसका खुलासा पूर्व विधायक छोटेलाल सरावगी और नगर परिषद बुढ़ार की अध्यक्ष शालिनी सरावगी के पति पूर्व नगर पंचायत उपाध्यक्ष राजा सरावगी की गिरफ्तार से सामने आया है। राजा सरावगी के खिलाफ एक ही पिट पास पर एक से ज्यादा बार कोयले का परिवहन कराने का आरोप था और इस मामले में चंदिया थाने में जुलाई 2015 में अपराध दर्ज किया गया था। मप्र में काले सोने के कारोबार में किस तरह सरकार को चूना लगाया जा रहा है इसका खुलासा कैग की रिपोर्ट, सीबीआई जांच और राज्य सभा में भी किया गया है। राज्यसभा में खुद राज्यमंत्री पीयूष गोयल ने स्वीकार किया है कि मप्र में कोयले की लदाई, उतराई स्थलों व सरकारी कोयला गोदामों से बड़े पैमाने पर कोयले की चोरी हो रही है। इस चोरी से सरकार को हो रही हानि का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच युवा प्रकोष्ठ के मनीष शर्मा ने बताया कि मंच ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिख कर इस पर लगाम लगाने की मांग की है। पत्र में मांग की गयी है कि प्रदेश में सांठगांठ से हो रहे कोयला चोरी पर प्रतिबंध लगाया जाये। जिससे सरकार को प्रतिवर्ष होने वाले करोड़ों रुपये का राजस्व हानि तथा अप्रत्यक्ष तौर पर जनता से वसूली पर रोक लग सके। मंच के ने बताया कि प्रदेश सरकार व कोयला कंपनियों के सुरक्षाकर्मियों ने छापामार कार्रवाई कर 2012 से दिसम्बर 2015 तक कुल 65283.86 टन कोयला जब्त किया। इसका अनुमानित मूल्य 2238 लाख रुपए है। प्रदेश में बीते दो साल से कोयला चोरी की एक भी एफआईआर दर्ज नहीं की गई। इससे कई सवाल खड़े होते हैं।
रिजेक्ट कोयले का खेल
मध्यप्रदेश के शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिले में 24 कोयला खदानें संचालित हैं। इन क्षेत्रों में चारों ओर काले सोने का असीमित भंडार भरा हुआ है जिसके चलते कोयले पर कोल व्यापारियों और कोल माफिया की भी नजर गड़ी ही रहती है। खनिज विभाग और माफिया मिलकर रिजेक्ट कोयले के नाम पर गुणवता वाले कोयला को अवैध रूप से बेच रहे हैं। खबर आश्चर्यचकित करने वाली है कि विगत दो वर्षों से प्रदेश में कोयला चोरी की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। पिछले तीन वर्षों में देश के विभिन्न राज्यों में कोल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की सहायक कम्पनियों का 65 हजार टन से अधिक चोरी गया कोयला छापे के दौरान बरामद हुआ था। शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिले में भारत सरकार ने कोयले पर भारतीय हक के दावेदारी के चलते ही एसईसीएल (साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड)का निर्माण किया ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को कोयले के द्वारा क्रय-विक्रय से राजस्व की प्राप्ति होती रहे। एसईसीएल देश की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी है। साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के कोयला भंडार दो राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैले हुए हैं। कोयला प्लांट के अलावा दोनों राज्य में कंपनी के 35 माइंस और 54 खानों के साथ कुल 89 खानों में कोयले का काम कर रही है।
भारतीय सरकार को यह अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि एसईसीएल के उच्चाधिकारी देश के राजस्व में ही चपत लगाने लगेंगे और प्रतिदिन कई करोड़ का नुकसान पहुंचाने लगेंगे। बताते चलें कि एसईसीएल देश में कोयला खान की बड़ी यूनिट है। हजारों लाखों लोगों की रोजी रोटी चलने का माध्यम भी। शासकीय उच्चाधिकारियों ने ही प्राइवेट कंपनियों से हाथ मिला कर भारत सरकार को जबरदस्त तरीके से लूटना शुरू कर दिया है। यह लूट खसोट दस-बारह वर्षों से भी अधिक समय से लगातार और प्रतिदिन चल रही है। उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से ही आज तक कोई, इस कंपनी की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख पाया है। कई बार जांच हुई जिसमें यह सत्य उजागर हुआ मगर राज्य सरकार और जांच एजेंसियां दोनों ही एसईसीएल के भ्रष्ट उच्चाधिकारियों और इन प्राइवेट कंपनियों के सामने बौने साबित हो गए। इसलिए राज्य सरकार से उम्मीद करना बेकार ही है। प्राइवेट कंपनियों पर एसईसीएल के उच्चाधिकारियों की अधिक मेहरबानियां है। वैसे भी एसईसीएल जब खुद लुटने को तैयार बैठी है तो इसमें प्राइवेट कंपनी वाले की क्या गलती। प्रदेश में एसईसीएल और प्राइवेट कंपनियों के साथ मिलकर कोयले का ऐसा रोचक खेल खेला जाता है जो कि यकीनन कौतूहल का विषय है। वैसे काले सोने के खेल में करोड़ों रुपए के वारे न्यारे होतें हैं, दरअसल इस खेल की पोलपट्टी तब खुली जब खनिज विभाग ने कुछ जगह छापेमारी की। पकड़े जाने पर ट्रक चालकों ने खनिज विभाग के अधिकारियों को बताया था कि इन ट्रकों में रिजेक्ट कोयला है मगर जब जांच की गई तब पता चला कि कोयला अच्छी गुणवत्ता वाला स्टीम कोयला है। खनिज विभाग के अधिकारियों ने ट्रकों को जब्त कर दिया था परंतु राजनीतिक दबाव के चलते मामले को रफा दफा कर दिया गया था। नियमों के अनुसार शिकायत सही पाई जाती तो इस राशि के अलावा दंड भी अधिभारित किया जाता। मगर राजनीतिक दबाव व भ्रष्टाचार के चलते सेटिंग करके मामले को रफादफा कर दिया गया था। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रिजेक्ट कोल के नाम पर खदानों से निकला कोयला रूपये 80/- प्रतिटन बेचा जाता है और वहीं धुला अथवा नंबर-1 के कोयले की कीमत 4 हजार रुपये प्रतिटन से भी अधिक है। रिजेक्ट कोयले के खेल में एमओयू का खुला उल्लंघन किया जा रहा है।
रोजाना 2 करोड़ का कोयला चोरी
मध्यप्रदेश के शहडोल, अनूपपुर, उमरिया और सिंगरौली स्थित खदानों से अधिकारियों की आंखों में धूल झोंक कर रोज करीब 2 करोड़ रुपए का कोयला चोरी हो रहा है। सिंगरौली स्टेशन के साइडिंग पर लगी इलेक्ट्रिक इन मोशन वेबरेज मशीन (वैगन तौल मशीन) के ऑपरेटिंग सिस्टम में छेड़छाड़ कर यह खेल चल रहा है। मशीन इस तरह से सेट कर दी जाती है कि वह 91 टन के बाद वजन ही नहीं दर्शाती हैं। इसका खुलासा सीबीआई की जांच में सामने आया है। सीबीआई ने अपनी छापामार कार्रवाई के दौरान सात बार चार से पांच टन अतिरिक्त स्लीपर कोयले से भरे वैगन पर रखवाए, लेकिन हर बार मशीन का वजन 90 से 91 टन के बीच ही दर्शाता रहा। इस खेल में रेलवे को भी हर महीने लाखों रुपए के मालभाड़े की क्षति पहुंचाई जा रही है। सिंगरौली स्थित कोयला खदानें नार्दन कोल इंडिया लिमिटेड के अंतर्गत आती हैं। यहां से रोज 10 रैक कोयले की सप्लाई होती है। हर रैक में 59 वैगन होते हैं। एक वैगन की क्षमता 75 से 90 टन होती है। रेल प्रबंधन ओवरलोडिंग रोकने के लिए मालभाड़े के साथ भारी जुर्माना वसूलता है। सिंगरौली स्टेशन की साइडिंग में लगी वेबरेज मशीन को 31 अगस्त 2010 को प्रगति इंस्टूमेंटेशन प्रा. लि. बोकारो ने लगाया था। यह कंपनी रेलवे की ओर से अधिकृत नहीं है। लखनऊ स्थित आरडीएसओ को कंपनी तय करने का अधिकार है। सीबीआई इसकी भी जांच कर रही है कि कंपनी अधिकृत नहीं थी, तो उसे कैसे लगाया गया। इस मशीन की ऑपरेटिंग रेलवे क्लर्क करते हैं। रेलवे हर छह महीने में एक बार इसकी जांच कराती है। अंतिम बार इसकी जांच 28 अक्टूबर 2014 को हुई थी। तब तौल ठीक मिला था। इसी तरह शहडोल, अनूपपुर, उमरिया में भी खामियां सामने आई हैं। दरअसल, यह पूरा खेल सोची-समझी रणनीति के तहत चल रहा है।
सीबीआई के अनुसार हर वैगन में औसत चार टन अधिक कोयला लादा जाता था, जो तौल मशीन में कम दर्शाता था। एक रैक में 59 वैगन के हिसाब से 236 टन हुआ। रोज 10 रैक कोयला सिंगरौली स्थित वेबरेज मशीन से तौल के बाद निकलता है। इस तरह से रोज 2360 टन कोयला चोरी होता था। वर्तमान में एक टन कोयले की कीमत 3200 रुपए है। 2360 टन कोयले की कीमत 75 लाख 52 हजार रुपए होती है। इसमें रेलवे का मालभाड़ा व जुर्माना जोड़ दें, तो रोज एक करोड़ रुपए का खेल हो रहा था। इसी तर्ज पर शहडोल, अनूपपुर और उमरिया में भी कोयले की चोरी की जा रही है। सीबीआई पूरे मामले की तहकीकात कर रही है।
रीवा के तुर्की रोड स्थित जेपी विला सीमेंट कंपनी में अलग तरह का खेल चल रहा था। वहां वेबरेज मशीन को इस तरह से सेट किया गया था कि मशीन सीमेंट से भरे वैगन को तौल में कम दर्शाती थी। यदि बाद में उस पर अतिरिक्त माल लादा जाता था, तो मशीन सटीक तौल बताती थी। सीबीआई के अनुसार यहां रेलवे के मालभाड़े की चोरी की जा रही थी। जबकि, ब्यौहारी स्थित वेबरेज मशीन जांच में ठीक निकली। सीबीआई एसपी मनीष वी. सुरती कहते हैं कि सिंगरौली व रीवा स्थित जेपी विला कंपनी में लगे वेबरेज मशीन के ऑपरेटिंग सिस्टम में छेड़छाड़ कर राजस्व को भारी नुकसान पहुंचाया जा रहा था। इस खेल में कौन-कौन शामिल हैं, इसकी जांच जारी है।
उल्लेखनीय है कि कोयला की हेराफेरी में पूर्व विधायक छोटेलाल सरावगी के पुत्र राजा सरावगी को चंदिया पुलिस ने गिरफ्तार किया था। चंदिया थाना के नगर निरीक्षक मो.असलम ने 16 जुलाई 2015 को दो ट्रक चोरी का कोयला पकड़ा था। पकड़े गए ट्रकों में एमपी 18 एच 4717 और एमपी 18 जीए 2388 शामिल हैं। ये दोनों ही ट्रक बुढ़ार के बताए गए हैं। इस बारे में जानकारी के अनुसार दोनों ही ट्रकों में चोरी का कोयला लदा हुआ था। एक ही पास पर एक बार कोयला बेचा जा चुका था और दोबारा उसी पास का इस्तेमाल करके कोयले का परिवहन किया जा रहा था। नगर निरीक्षक ने बताया कि ट्रक राजा सरावगी और रेखा रूचंदानी के हैं। इस मामले में आरोपी चालक शेख सब्बीर और रमेश दाहिया को गिरफ्तार किया गया था और इन सबके खिलाफ धारा 420, 379, 109, 120 बी, 201, 4, 21, खान एवं गौण खनिज संपदा अधिनियम के तहत अपराध पंजीबद्घ किया गया है। यह तो महज एक उदाहरण है। मप्र की लगभग सभी कोयला खदानों में इसी तरह सांठ-गांठ करके सरकार को हर साल करोड़ों रूपए का चूना लगाया जा रहा है।
3.80 करोड़ के कीचड़-पत्थर
मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी पिछले 5 साल से लगातार कोयले के भाव में पत्थर, कीचड़ और मिट्टी के ढेले खरीद रही है। इससे न सिर्फ 3 करोड़ 80 लाख रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ, बल्कि बिजली उत्पादन भी कम हुआ। बीरसिंगपुर स्थित संजय गांधी विद्युत ताप गृह में 2009 से 2015 तक 250 एमएम से भी बड़े पत्थरों की सप्लाई ठेकेदार द्वारा की जा रही है। खास बात ये है कि इन पत्थरों को कंपनी प्रबंधन अलग रखवा तो देता है, लेकिन कोयला सप्लाई कर रही कंपनी साउथ ईस्टर्न कोलरीज लिमिटेड (एसईसीएल) से इन पत्थरों के एवज में मूल राशि या ब्याज नहीं वसूलता। सीएजी ने जांच के दौरान इस मामले को गंभीर आर्थिक अपराध माना है और सरकार के ऊर्जा मंत्रालय से कई सवाल करते हुए जवाब भी मांगा। लेकिन सरकार ने हर सवाल का गोलमोल जवाब दिया और ठेकेदार का बचाव किया। एसईसीएल के साथ विद्युत कंपनी ने अगस्त 2009 में ईंधन प्रदाय अनुबंध (एफएसए) किया। कॉन्ट्रेक्ट के मुताबिक एसईसीएल द्वारा 20 साल तक हर वर्ष 64 लाख मीट्रिक टन कोयला संजय गांधी विद्युत ताप गृह की तीनों यूनिटों को सप्लाई करना है। लेकिन ठेका होने के बाद से ही ठेकेदार द्वारा घटिया कोयला और पत्थर की सप्लाई की जा रही है। मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी के एमडी एपी भैरव कहते हैं कि कोयले में पत्थर सप्लाई की समस्या सभी राज्यों के साथ हुई है। मप्र में एसईसीएल ने बड़े-बड़े पत्थर सप्लाई किए थे। जिसको लेकर कंपनी प्रबंधन को पत्र लिखे गए, लेकिन सुधार नहीं हो सका। सरकार अब इस मामले को देख रही है। कोयले के साथ सप्लाई हुए पत्थर अलग रखवा दिए जाते हैं और इस वसूली को लेकर अफसरों से चर्चा करेंगे। हमने स्टेट लेवल आयोग में कंपनी के खिलाफ शिकायत दी थी, लेकिन यहां से राहत न मिलने पर हमने कॉम्पटीशन कमीशन ऑफ इंडिया में मामला प्रस्तुत कर दिया। अब वहां से निर्णय के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा।
हैरानी की बात यह है कि यह सब उस प्रदेश को भुगतना पड़ रहा है जो देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले तीन सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी।
उधर, सीएजी का कहना है कि कोयले में जितना पत्थर सप्लाई किया गया, उसका रेल भाड़ा 1 करोड़ 27 लाख रु. होता है। इसकी वसूली ठेकेदार से की जाएगी? सीएजी की जांच में यह तथ्य सामने आया है कि बड़े पत्थर, कीचड़ व मिट्टी मिला घटिया कोयला सप्लाई हुआ है। जिसके एवज में 2.62 करोड़ रु. का गलत भुगतान करना पड़ा? हर महीने तय मात्रा से अधिक कोयला मिलने पर ठेकेदार को प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान रखा और कुल सप्लाई में से खराब कोयले की मात्रा न हटाकर ठेकेदार को गलत तरीके से 20 लाख 80 हजार की प्रोत्साहन राशि दी गई? कोयला परिवहन में भंडारण, हस्तांतरित हानि पर विचार न करते हुए ठेकेदार को 1 करोड़ 36 लाख रुपए का गलत भुगतान किया गया। इसमें मप्र विद्युत नियामक आयोग के नियमों का खुला उल्लंघन हुआ?
घटिया कोयले से 200 करोड़ की चपत
राज्य सरकार को ताप विद्युत गृह में उत्पादन के लिए दिए जाने वाले कोल को हायर ग्रेड का बताकर घटिया कोल सप्लाई किया जा रहा है। कोल कम्पनियों द्वारा किए जा रहे इस खेल से पावर जनरेटिंग कम्पनी को 200 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। अब पावर जनरेटिंग कम्पनी इस मामले में खराब कोयला सप्लाई करने के मामले में क्रेडिट नोट जारी कर अकाउंट डिटेल क्लियर करना चाहती है जिसमें कोल कम्पनियों द्वारा आनाकानी की जा रही है। विद्युत उत्पादन कम्पनी द्वारा वेस्टर्न कोलफील्ड इंडिया लिमिटेड और साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड इंडिया लिमिटेड से ताप विद्युत गृह में उपयोग में लाए जाने वाला कोयला मंगाती है। इस बात की जांच कराई जाती है कि कंपनी जिस ग्रेड का कोयला बताकर कम्पनी दे रही है, वह उस लेवल का है या नहीं। इस काम के लिए भारत सरकार की दो इकाइयों सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माईनिंग एंड फ्यूल रिसर्च (सीआईएमएफआर) बिलासपुर तथा मिनिस्ट्री ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी नागपुर की यूनिट को एमपी पावर जनरेटिंग कंपनी ने अधिकार दिए हैं। सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माइनिंग एंड फ्यूल रिसर्च बिलासपुर की यूनिट को संजय गांधी ताप विद्युत गृह बिरसिंहपुर को दिए जाने वाले कोयले के 10 रैक की टेस्टिंग के बदले 15 लाख 37 हजार रुपए और 21 रैक के परीक्षण के लिए 28 लाख 3 हजार रुपए दिए जाते हैं। इसके अलावा संजय गांधी ताप विद्युत गृह बिरसिंहपुर, अमरकंटक ताप विद्युत गृह चचाई तथा श्री सिंगाजी ताप विद्युत परियोजना खण्डवा को मिलने वाले कोयले के 1421 रैक के लिए 13 करोड़ 35 लाख 79 हजार रुपए दिए जाते हैं।
इसी तरह सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माइनिंग एंड फ्यूल रिसर्च इंस्टीट्यूट नागपुर की यूनिट को सतपुड़ा ताप विद्युत गृह सारनी को मिलने वाले कोयले के 10 रैक की जांच के लिए 15 लाख 16 हजार रुपए तथा 180 रैक के परीक्षण के लिए 1 करोड़ 38 लाख 2 हजार रुपए दिए जाते हैं। सूत्र बताते हैं कि कोयले की सप्लाई के बाद निर्धारित स्तर का कोयला नहीं मिलने पर किए गए भुगतान में कटौती करने के लिए पावर जनरेटिंग कम्पनी कोल कम्पनियों को क्रेडिट नोट जारी करती है। इसे कोल कम्पनियां जानबूझ कर इग्नोर करती हैं। बताया जाता है कि कम्पनियां नहीं चाहती हैं कि उनके कोल की टेस्टिंग और सेंपलिंग हो। इसलिए साउथ ईस्टर्न कम्पनी संगमा लोडिंग सेंटर पर कोल की लोडिंग में भी व्यवधान किया जा चुका है। वहां के प्रबंधन ने लोडिंग से ही मना कर दिया था, तब अपने स्तर पर कोशिश कर कोल की लोडिंग कराई गई थी। बताया जाता है कि कोल सप्लाई के बाद साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड को 154 करोड़ 39 लाख 13 हजार रुपए तथा मेसर्स वेस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की क्रेडिट नोट राशि 14 करोड़ 35 लाख 26 हजार का क्रेडिट नोट जारी किया गया। यह नोट इसलिए जारी हुआ ताकि तय ग्रेड का कोयला नहीं दिए जाने के बाद कम्पनियां भुगतान की गई राशि के अंतर को कम कर लें और राज्य सरकार को अगली सप्लाई के लिए कम पेमेंट करना पड़े। कोल कम्पनियां इसके लिए तैयार नहीं हैं। इस कारण टेस्टिंग के बाद बिलासपुर और नागपुर की यूनिट की जांच रिपोर्ट के आधार पर दो माह पहले 168 करोड़ 74 लाख 39 हजार रुपए क्रेडिट नोट जारी किया गया है। अब यह 200 करोड़ के करीब पहुंच चुका है।
हवाला कारोबार में जुटे व्यापारी
कोयले के कारोबार में जुटे कारोबारी अन्य अवैध गतिविधियों में भी जुटे हुए हैं। इसका खुलासा होने के बाद सीबीआई की नजर कोल क्षेत्र पर है। दरअसल, गत वर्ष कटनी में दो कोयला व्यापारियों के यहां इनकम टैक्स के छापे में 100 करोड़ से ज्यादा का हवाला कारोबार उजागर हुआ था। इनकम टैक्स अधिकारियों ने कारोबारियों के पास पांच दर्जन से ज्यादा बैंक खाते भी बरामद किए थे। जबलपुर रीजन के अंतर्गत हवाला से जुड़ा यह अब तक का सबसे बड़ा मामला माना जा रहा है। इनकम टैक्स विभाग की अन्वेषण विंग ने कोयला कारोबारियों मनीष सरावगी, नरेश पोद्दार और एक कर्मचारी नरेश बर्मन के आवासों व कार्यालयों पर एक साथ दबिश थी। इनकम टैक्स विभाग का मानना है कि हवाला कारोबार के जरिए भेजा गया धन ब्लैकमनी है। इसके लिए विस्तृत छानबीन की जा रही है। आयकर विभाग के अनुसार कोयला कारोबारियों के हवाला कारोबार के तार दूसरे राज्यों से भी जुड़ हुए हैं। इसके लिए अन्य राज्यों में भी जांच की जाएगी। उधर कोयले के काले कारोबार में हवाला का मामला सामने आने के बाद अब सीबीआई भी सचेत हो गई है। सीबीआई ने मप्र सहित देशभर के कोल ब्लाक पर नजरें गड़ा दी है। प्रिंसिपल डायरेक्टर आयकर (इन्वेस्टिगेशन विंग ) मप आरके पालीवाल कहते हैं क्रि कोयला कारोबारियों से 100 करोड़ से अधिक के हवाला कारोबार से जुड़े दस्तावेज बरामद किए गए हैं। उनके पास पांच दर्जन से अधिक बैंक अकाउंट भी मिले हैं। इनकी जांच की जा रही है।

गरीबों को रास नहीं आ रहे सरकार के मकान

21,482 करोड़ स्वाहा फिर भी...
भोपाल। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस देश में 90 करोड़ भारतीय या 75 फीसदी परिवार औसतन 5 सदस्य के साथ दो कमरे के या उससे छोटे मकान में रहते हैं उस देश में गरीबों को सरकार द्वारा बनाए गए मकान रास नहीं आ रहे हैं। इस बात का खुलासा हुआ है केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट में। रिपोर्ट के अनुसार 10 वर्षों के दौरान, केंद्र सरकार ने 21,482 करोड़ रुपए शहरी गरीबों के लिए घर बनाने पर खर्च किया हैं लेकिन इनमें से 23 फीसदी घर खाली हैं। यानी 10,32,433 मकानों में से 2,38448 मकान खाली हैं। इनमें से मध्य प्रदेश में 26,004 मकान खाली हैं। यह अजीब विडंबना है कि एक तरफ लाखों आवास खाली पड़े हैं और दूसरी ओर करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है। दरअसल सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के तहत बनाए गए मकानों की डिजाइन और गुणवता इतनी खराब रहती है कि लोग ऐसे मकानों में रहने से कतराते हैं। आलम यह है कि इन 23 फीसदी आवासों में 2005 से कोई रहने वाला नहीं है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में करीब ढाई करोड़ लोग छत के लिए मोहताज है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सबको आवास लक्ष्य को लेकर योजनाएं बनाई जाती है। मप्र में गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राजीव आवास योजना,जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और सरदार पटेल अर्बन हाउसिंग स्कीम के तहत 2011 से अभी तक 11,8,15,28,936 रूपए की राशि मिली है। गरीबों के लिए आवास बनाए जाते हैं, फिर भी गरीब लोगों को खुले में सोते या इधर-उधर सड़क या किसी पुल या अन्य स्थान पर कच्ची पक्की झोपड़ी बनाकर रहते हंै। आखिर ऐसा क्यों?
जटिल शासकीय प्रक्रिया
दरअसल, हर व्यक्ति चाहता है कि उसका अपना एक घर हो। इसके बावजुद वह शासकीय मकान लेने से वंचित रहता है। दरअसल, शासकीय मकानों की पात्रता पाने के लिए जटिल शासकीय प्रक्रियाएं हैं। संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार द्वारा सतत प्रयासों के बावजूद झुग्गी में रहने वाले लोग उचित बुनियादी ढांचे और आजीविका के साधन की कमी के कारण सरकार द्वारा निर्मित घरों में स्थानांतरित करने के लिए अनिच्छुक हैं। रिपोर्ट के अनुसार झुग्गी बस्ती में रहने वालों के लिए जो सरकारी आवास बने हैं वे आवास मानव निवास के लिए अयोग्य हैं, भीड़भाड़ है, दोषपूर्ण व्यवस्था है और इमारतों के डिजाइन इस तरह हैं कि संकीर्णता या सड़क की दोषपूर्ण व्यवस्था, वेंटिलेशन, प्रकाश, या स्वच्छता सुविधाओं का अभाव है।
नए मकान अक्सर बिजली और पानी की कमी होती है, जो बस्तियों में सस्ती, अक्सर अवैध कनेक्शन उपलब्ध होती है। सरकार ने भी स्वीकार किया कि नए मकान आम तौर पर कार्यस्थलों के पास नहीं हैं। मप्र के संदर्भ में बात करें तो गरीबों को मुफ्त या सस्ता मकान उपलब्ध कराने के लिए ढेरों योजनाएं बनीं, उनके लिए समय पर फंड भी दिए गए, लेकिन समय पर फंड का उपयोग नहीं होने से ढेरों मकानों का निर्माण अधूरा रह गया। राज्य में सबसे पहले इंदिरा आवास योजना के तहत प्रदेश में गरीबों के लिए मकान बनाने की योजना बनी। फिर जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना जेएनएनयूआरएम के तहत बेसिक सर्विसेस फार अर्बन पूअर्स (बीएसयूपी) के लिए 2008 में शहर के भीतर की झुग्गी बस्तियों को शहर के बाहर शिफ्ट करने के लिए मकान निर्माण की स्वीकृृति केंद्र सरकार ने दी। वहीं राजीव आवास योजना के तहत शहर के भीतर मौजूद झुग्गियों को जहां तक हो सके उसी जगह पर सारी सुविधाएं मुहैया कराने की योजना बनी। लेकिन आज तक शहर झुग्गी मुक्त नहीं हो सके हैं।
मप्र में 26,004 मकान खाली
मध्य प्रदेश में शहरी गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए बने मकानों में से 26,004 खाली हैं। यह आवास या तो अपराधियों का अड्डा बन गए हैं या खाली पड़े-पड़े जर्जर हो रहे हैं या फिर अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं। इसको इसी से समझा जा सकता है कि अकेले मध्यप्रदेश में 45 फीसदी आवास खाली हैं। इस तरह से सरकारी धन की बर्बादी हो रही हैं वहीं देश में एक करोड़ से अधिक बंगले खाली पड़े हैं, इन आधुनिक सुविधाजनक साज-सज्जायुक्त बंगलों में कोई रहता नहीं। वे पिकनिक स्थल हैं। दूसरी ओर लाखों लोग सिर छुपाने के लिए एक अदद छत के मोहताज है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में एक करोड़ दस लाख घरों में रहने वाला कोई नहीं हैं। एक तरफ सरकार नियत समय सीमा में सबको आवास देने की नीति पर काम कर रही है। वहीं पैसे वालों के पास एक से अधिक मकानों के होने से सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है। केंद्र में शहरी विकास मंत्रालय और राज्यों में नगरीय विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे बढ़े हंै। इसके बावजूद सबको आवास का सपना पूरा नहीं हो पा रहा है। गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए वहनीय आवासीय योजनाओं का प्रावधान, इनके नियम-कायदे और नित नई नीतियां बन रही हैं, इसके बावजूद दो करोड़ से अधिक लोगों के पास आवास सुविधा नहीं होना गरीबों के लिए बनाए लाखों मकानों में रहवास की दरकार और एक करोड़ से अधिक घरों में कोई रहने वाला नहीं होना विसंगति दर्शाता है। मप्र के अलावा महाराष्ट्र में 42, आंध्र प्रदेश 37, तेलंगाना में 24, गुजरात में 18, तमिलनाडु में 11 फीसदी और अन्य प्रदेशों में बड़ी संख्या में इस तरह के आवास खाली पड़े हैं। सिर ढकने को छत नहीं होने के बावजूद इन आवासों का खाली रहना विचारणीय है। आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय के अनुसार, खाली मकानों में 2,24,000 घर जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के तहत बनाए गए हैं और 14,448 घरों का निर्माण राजीव आवास योजना (आरएवाई) के तहत किया गया है, जिसे अब बंद कर दिया गया है और जून 2015 में शुभारंभ किए गए प्रधानमंत्री आवास योजना में सम्मिलित किया गया है। यह जानकारी तब मिली है जब पांच साल के दौरान, मलिन बस्तियों में रहने वाले भारतीयों के अनुपात शहरी आबादी का 17 फीसदी से बढ़ कर 19 फीसदी हुआ है (आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार) और 33,000 में से 19,000 मलिन बस्तियां सरकार (2012 डेटा) द्वारा स्वीकार नहीं किए हैं।
पक्का आशियाना मिला नहीं, कच्चा घरौंदा भी गया
एक तरफ तो देश और मध्यप्रदेश में हर गरीब को रोटी, कपड़ा के अलावा मकान देने की मुहिम चलाई जा रही है और दूसरी तरफ सरकार द्वारा गरीबों के आवास तोड़कर उन्हें वैकल्पिक आवास तक नहीं दिये जा रहे हैं। गरीबी रेखा के नीचे गुजर कर रहे ऐसे तमाम हितग्राही पूरे प्रदेश में हैं जिन्हें इंदिरा आवास योजना, मुख्यमंत्री आवास योजना, होम स्टेड योजना, वनाधिकार योजना, मुख्यमंत्री अंत्योदय योजना आदि तमाम योजनाओं के बावजूद एक आशियाने के लिए भटकना पड़ रहा है। स्थिति यह है कि मध्यप्रदेश में अभी भी 24 लाख से अधिक परिवार छत विहीन मकानों में रहते हैं। केंद्र पोषित इंदिरा आवास योजना के तहत सरकारी मदद से पक्के आशियाने की चाह रखने वाले प्रदेश के 96 हजार परिवार परेशान हैं। पहली किस्त मिलते ही इन्होंने पक्के मकान की दीवारें खड़ी कर ली, लेकिन दूसरी किस्त मिली ही नहीं। इनमें से आठ हजार तो वे लोग हैं जो सरकारी मदद के भरोसे कच्चे घरोंदे तोड़ कर पक्का मकान बना रहे थे। उनके सर पर तो छत तक नहीं बची है। दरअसल गरीब परिवारों की फजीहत योजना के क्रियान्वयन में लापरवाही के कारण हुई है, जिसके चलते केंद्र सरकार ने दूसरी किस्त रोक दी है।
उल्लेखनीय है कि इंदिरा आवास योजना के तहत सरकार गरीबों को पक्का आशियाना बनाने के लिए आर्थिक मदद देती है। वर्ष 2014-15 के लिए प्रदेश में 1 लाख 10 हजार मकान बनाने की मंजूरी दी गई। इनमें से 96 हजार परिवारों को पहली किस्त (35 हजार) भी मिल गई। मगर भवन निर्माण का काम इस स्तर पर शुरू नहीं हो सका। इसमें कुछ लापरवाही सरकारी तंत्र की तो कुछ हितग्राहियों की भी रही। इसका सर्वाधिक खामियाजा उन 8 हजार परिवारों को उठाना पड़ रहा है, जिन्होंने सरकारी मदद की आस में कच्चे घरौंदे तोड़ पक्का मकान बनाने का काम शुरू कर दिया। बिना छत बारिश का मौसम इन्हें भारी पड़ रहा है। ये परिवार पहली किस्त से दीवारें खड़ी कर चुके हैं और इसका सरकारी एजेंसी से भौतिक सत्यापन भी करा दिया है। मगर दूसरी किस्त नहीं मिल पा रही है। इसकी वजह है समग्र रूप से प्रदेश का योजना के क्रियान्वयन में खराब प्रदर्शन। इसके चलते केंद्र सरकार ने आगे की राशि रोक ली है। इन परिवारों का कहना है कि योजना में दूसरे लोग अगर ठीक काम नहीं कर रहे तो हमारा क्या कसूर। बताया जाता है कि प्रदेश के हर जिले में लोग इंदिरा आवास योजना के तहत पक्के मकान बनाने के लिए परेशान हैं किंतु अलीराजपुर, अशोकनगर, बालाघाट, छतरपुर, दमोह, कटनी, मुरैना, शाजापुर, सीधी, सिंगरौली आदि जिलों में एक भी मकान का सत्यापन नहीं हो पाया है। इस कारण इनका आशियाना अभी भी अधूरा पड़ा हुआ है। इस संदर्भ में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि केंद्र सरकार से इस मसले पर चर्चा की गई है। जल्द ही राशि मिल जाएगी। वह कहते हैं कि प्रदेश के हर व्यक्ति का अपना पक्का मकान हो इसके लिए प्रदेश सरकार निरंतर प्रयासरत है।
24 लाख अभी भी वंचित
प्रदेश में 24 लाख से अधिक परिवार अभी भी छत विहीन मकानों में रहते हैं। वैसे इनकी संख्या घटी है। जनगणना 2011 के अनुसार प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में एक करोड़ 35 लाख परिवारों में से 37 लाख 14 हजार 723 कच्चे मकानों में निवास करते थे, लेकिन केन्द्र सरकार की इंदिरा आवास योजना सहित मप्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में अभी तक 13 लाख परिवारों को पक्के मकान निर्मित कर दिए जा चुके हैं, लेकिन इन मकानों की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं। इसी कारण पिछले महीने एक बैठक में सीएस एंटोनी डिसा ने कहा था कि प्रत्येक गांव में रॉ- मटेरियल एक साथ क्रय किया जाए, जिससे मकानों के निर्माण की गुणवत्ता में सुधार आ सके। वैसे निर्माण सामग्री की दरें महंगी होने से 70 हजार या सवा लाख रुपए में मकान का निर्माण संभव नहीं है। प्रदेश में गरीबों को पक्के मकानों की दरकार सालों से रही है। छत विहीन आवासों में अभी भी प्रदेश के 24 लाख 9 हजार 854 परिवार निवास करते हैं, जबकि इसके पहले यह संख्या 37 लाख 14 हजार 723 हुआ करती थी। बीते छह सालों में 13 लाख 4 हजार 869 परिवारों को पक्के मकान बनाकर दिए जा चुके हैं, परन्तु केन्द्र सरकार द्वारा तय मापदण्ड में इंदिरा आवास योजना में प्रत्येक पक्के कुटीर का निर्माण 70 हजार रुपए में कराया जाता है, जबकि मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में यह मकान सवा लाख रुपए में। मुख्यमंत्री अंत्योदय आवास योजना में भी बहुत कम राशि 70 हजार में मकान निर्मित कर आवंटित किया जाता है। इतनी कम राशि में 15+20 फीट के मकान और उसमें टायलेट का निर्माण आज के समय में संभव नहीं है। क्योंकि इस समय रेत, गिट्टी, सीमेंट तथा ईट खरीदी की दर बहुत महंगी हो चुकी है। इसके साथ ही आवास निर्माण करवाने वाले ठेकेदार को मजदूरी के साथ ही स्वयं की मेहनत भी निकालना होता है। यदि उसे उक्त निर्माण में कोई फायदा नहीं होगा, तो ठेकेदार काम ही नहीं करेगा। इस कारण पक्के कुटीर निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि हितग्राही को भी इसमें 10 प्रतिशत राशि मिलाना पड़ता है। सरकार ने अभी तक इंदिरा आवास में 7 लाख 36 हजार 337 आवास, होम स्टेड योजना में एक लाख 36 हजार 190, वनाधिकार योजना में 53 हजार 360 मकान, मुख्यमंत्री अंत्योदय योजना में 50 हजार 405, मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास में 3 लाख 28 हजार 577 मकानों का निर्माण किया है।
20 हजार मकान जर्जर
एक तरफ जहां प्रदेश में आज भी 24 लाख परिवार छत विहीन मकान में रह रहे हैं वहीं, प्रदेश में बन कर तैयार करीब 9 हजार मकान जर्जर हो गए हैं। जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) स्कीम के तहत प्रदेशभर में 25 हजार मकान दो साल पहले बनकर तैयार हैं, लेकिन इनमें से करीब 5 हजार मकान का ही आवंटन हो पाया है। 20 हजार के लगभग मकान अब भी खाली हैं। शहरों के बीचों-बीच बने इन मकानों पर 780 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। इस स्कीम के तहत भोपाल में सबसे अधिक 11,500 मकान बनाए गए हैं, इसमें से करीब दो हजार मकान आवंटित हो चुके हैं बाकी के साढ़े 9 हजार मकान अब भी खाली हैं। ये मकान अब जर्जर होने लगे हैं। इन मकानों की दरवाजे, खिड़कियां टूटने लगी हैं दीवारों व छतों से सीमेंट झडऩा शुरू हो गया है। इसके बाद भी मकान गरीबों को आवंटित नहीं हो पा रहे हैं। इसकी मुख्य वजह हितग्राहियों द्वारा उनके हिस्से के रुपए नहीं दिया जाना है। प्रदेश में भोपाल, जबलपुर, इंदौर और उज्जैन शहरों को जेएनएनआरयूएम योजना में शामिल किया गया था। इसके तहत इन शहरों को झुग्गी मुक्त बनाए जाने के लिए ई-डब्ल्यूएस आवास बनाए गए यह मकान 2008 से 2012 के बीच में बने थे। ये मकान सभी शहरों में बनकर तैयार हो चुके हैं। अधिकतर मकान दो साल पहले बनकर तैयार हो गए थे, इसके बावजूद भी 80 फीसदी मकानों को आवंटन नहीं हो पा रहा है। स्थिति यह है कि इन मकानों में लोग अवैध रूप से कब्जा करने लगे भोपाल सहित अन्य शहरों में हाउसिंग बोर्ड, विकास प्राधिकरणों और नगरीय निकायों द्वारा यह मकान बनाए गए हैं। प्रदेश में इंदिरा आवास योजना के हाल लक्ष्य :112752 (परिवार) मंजूर : 110727 पहली किस्त मिली: 96864 दूसरी का इंतजार: 8733 (नोट : आंकड़े वर्ष 2014-15 के )
इन जिलों में सर्वाधिक ऐसे परिवार पूर्वी निमाड़: 1594 उज्जैन: 1203 धार: 1064 खरगोन: 925 बैतूल: 468 बुरहानपुर: 390 देवास: 296 इंदौर: 259 रतलाम: 240 जबलपुर: 218 श्योपुर: 212
आवंटी नहीं दे पा रहे राशि
जेएनएनयूआरएम स्कीम के तहत बने मकानों को उन लोगों को दिया जाना है, जिनकी झुग्गियों की जगह से हटाया गया है। मकानों के लिए हितग्राहियों को 1 लाख 50 हजार रूपए सरकार को देना है। यह राशि आवंटी नहीं दे पा रहे हैं इस वजह से मकान खाली पड़े हैं। हालांकि इन हितग्रहियों के लिए सरकार अपनी गारंटी पर लोन मुहैया करा रही है, लेकिन की प्रक्रिया के लिए दस्तावेज न होने सहित अन्य कारणों से इन आवंटियों को लोन भी नहीं मिल रहा है इन समस्याओं के चलते इन आवासों की स्थिति खराब होती जा रही है।
केंद्र द्वारा कटौती
प्रदेश सरकार ने वर्ष 2022 तक हर गरीब को घर देने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन योजना में केंद्र सरकार द्वारा कटौती कर दी गई है। इसके कारण अब प्रदेश सरकार की परेशानियां बढ़ती दिख रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीबों को मकान बनाने के लिए इंदिरा आवास योजना के तहत राशि दी जाती है। योजना में एक व्यक्ति को करीब 70 हजार रुपए दिए जाते हैं। यह राशि वापस नहीं करनी होती है, इस कारण अधिकारियों द्वारा इस योजना के तहत बहुत कम मकानों को मंजूरी दी जा रही है। यदि जमीनी स्तर पर देखें तो एक पंचायत में मुश्किल से सालभर में एक या दो मकान ही दिए जाते हैं। इनमें भी आरक्षण का मामला फंस जाता है। इधर मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों को मकान बनाने के लिए एक लाख रुपए का ऋण दिया जा रहा है। इसमें से 50 हजार रुपए की राशि उनको किश्तों में वापस करनी होगी। इस योजना के तहत तो बड़ी संख्या में गरीबों को मकान के लिए ऋण दिया जा रहा है, लेकिन इंदिरा आवास योजना के तहत बहुत कम गरीबों को मकान आवंटित किए जा रहे हैं।
यह है योजना
एक मकान की कीमत 3 लाख 90 हजार रूपए
केंद्र सरकार की राशि 96,800 रुपए
राज्य सरकार की राशि 38,700 रूपए
सरकारी निर्माण एजेंसी की राशि 1,04,500 रुपए
हितग्राहियों को देना है 1,50,000 रूपए
होम स्टेड में फंसे 15 हजार परिवार
केंद्र सरकार ने गरीबों को आवास देने के लिए वर्ष 2010 में इंदिरा आवास योजना सहित होम स्टेड योजना शुरू की थी। इस योजना में बीपीएल परिवारों को 45 हजार रुपए दो किस्तों में दिए जाने थे। पहले ऑफ लाइन व्यवस्था होने के कारण पहली किस्त तो हितग्राहियों को मिल गई, लेकिन अब केंद्र सरकार ने इस योजना को ऑनलाइन कर दिया है, जिससे पैसा सीधे हितग्राही के खाते में पहुंच सके, लेकिन पोर्टल में तकनीकी खामी होने के कारण फंड सेंक्शन नहीं हो पा रहा है और न ही हितग्राही के खाते में पहुंच पा रहा है। इस मामले में ग्रामीण एवं पंचायत विकास विभाग के मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि इस मामले में अफसरों से जानकारी लेकर आगामी कार्रवाई करेंगे। अगर पोर्टल की समस्या के कारण होम स्टेड योजना के हितग्राहियों को भुगतान नहीं हो रहा है, तो दिल्ली में मंत्रालय से चर्चा कर समस्या का निराकरण कराया जाएगा। जब इस विषय में ग्रामीण रोजगार डायरेक्टर वीके ठाकुर से बात की, तो उन्होंने बताया कि ऑनलाइन प्रॉब्लम होने के कारण भुगतान नहीं हो पा रहे हैं। हमने इस मामले की जानकारी केंद्र सरकार को भेज दी है। ज्ञातव्य है कि होम स्टेड योजना के तहत हितग्राही को पट्टे की जमीन देने के बाद एक कमरा, किचन और लेट-बाथ के निर्माण के लिए 45 हजार रुपए दिए जाने थे। मध्यप्रदेश में इस योजना के तहत वर्ष 2011-12 व वर्ष 2013-14 के हजारों हितग्राहियों को मकान बनाने के लिए 45 हजार रुपए मिलना थे, लेकिन केंद्र सरकार से एक किस्त मिलने के बाद दूसरी किस्त ऑनलाइन प्रक्रिया में फंस गई। उल्लेखनीय है कि पहली होम स्टेड योजना वर्ष 2010-11 में शुरू हुई तथा 2011-12 में स्वीकृत की गई। दूसरी योजना 2012-13 में शुरू हुई तथा 2013-14 में स्वीकृत हुई। वर्ष 2011-12 व वर्ष 2013-14 में होम स्टेड योजना के तहत 15 हजार परिवार अधूरे मकान बनाकर इस योजना मे फंस गए हैं। ये सभी मकान अधूरे पड़े हैं।
अब 15 लाख घर देगी सरकार
पुरानी योजनाओं के तहत बने मकान अभी अधर में है कि राज्य सरकार ने प्रदेश के करीब 15 लाख (10 लाख ग्रामीण व 5 लाख शहरी) लोगों को अपना घर देने की तैयारी कर ली है। मप्र आवास गारंटी विधेयक 2015 के तहत प्रदेश के ऐसे स्थाई निवासी को रियायती दर (अफोर्डेबल प्राइस) पर जमीन अथवा मकान मिलेगा, जिनके पास ना तो अपनी छत है और ना ही जमीन। खासबात यह है कि इस कानून के दायरे में आने के लिए आय की सीमा और जाति के आरक्षण का बंधन नहीं है। इसके लिए केवल एक शर्त रहेगी कि परिवार में किसी भी सदस्य के नाम पर जमीन यास मकान नहीं होना चाहिए। विधेयक के ड्राफ्ट को वरिष्ठ सचिवों की कमेटी ने स्वीकृति दे दी है। आश्रय शुल्क के रूप में जमा करीब 500 करोड़ रुपए जमीन खरीदकर कानून के दायरे में आने वाले परिवारों को प्लॉट अथवा मकान बनाकर दिए जाने का प्रावधान किया गया है। बता दें कि भोपाल में भोपाल में 50 व इंदौर में 87 करोड़ जमा हैं। बिल पर काम कर रही कमेटी ने फस्र्ट फेस में 2011 की जनगणना को आधार बनाते हुए करीब एक लाख पात्र लोगों को चुना है। इसमें शहरी क्षेत्र में 42 हजार 312 तथा ग्रामीण क्षेत्र में 23 हजार 23 लोग भूमिहीन मिले हैं।
पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि आवास गारंटी बिल के तहत पात्र नहीं होने के बाद भी यदि कोई भूमिहीन आवेदन देता है तो उसके बारे में निर्णय शहर में नगर निगम या ग्रामीण इलाकों में नगर पालिका, नगर पंचायत व ग्राम पंचायत लेंगे। आवासहीन लोगों को मकान का अधिकार देने के लिए नए कानून का ड्राफ्ट तैयार हो गया है। इसके लिए 28 जुलाई को मंत्रिमंडल उप समिति की बैठक प्रस्तावित है। सरकार लोगों को अपना घर देने के लिए संकल्पित है। प्रस्तावित ड्राफ्ट के मुताबिक आवास गारंटी कानून में हर भूमिहीन को फ्लैट का लाभ देने के लिए हाउसिंग बोर्ड और विकास प्राधिकरण के ईडब्ल्यूएस और एलआईजी भी एक्ट के अधीन आएंगे। शासन चाहेगा तो उसे भूमिहीनों को प्राथमिकता के आधार पर देगा। एलआईजी में आय की सीमा 6 लाख रुपए और ईडब्ल्यूएस में 3 लाख रुपए है। शहर की सीमा से सटे 8 किमी के क्षेत्र में जितने भी बिल्डिंग प्रोजेक्ट हैं उनसे पंचायत कॉलोनाइजिंग एक्ट के तहत जो 6 फीसदी आश्रय शुल्क जमा होगा, उसी का उपयोग आवास गारंटी एक्ट में किया जाएगा।

मप्र में मुख्य सचिव को लेकर अफसरों में रार

मोदी का 360 डिग्री प्रोफाइलिंग फार्मूला दरकिनार
कोई करवा रहा अफसरों में तकरार, तो कोई पहुंच रहा संघ के द्वार
भोपाल। मप्र का अगला मुख्य सचिव कौन होगा इसको लेकर प्रदेश की नौकरशाही में रार छिड़ गई है। आलम यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 360 डिग्री प्रोफाइलिंग फार्मूले को दरकिनार कर अफसर इस पद को पाने के लिए साम, दंड, भेद में जुट गए हैं। इसके लिए जहां एक अफसर की छवि खराब करने के लिए उसे दूसरे अफसर से लड़वाया जा रहा है, वहीं जुगाड़ भी लगाया जा रहा है। यही नहीं कुछ अफसरों के भ्रष्टाचार की दबी फाइलों को निकलवाया जा रहा है। यह स्थिति इस लिए बनी है कि इस बार मुख्य सचिव के लिए 1980 बैच से लेकर 1985 बैच के करीब बीस आईएएस शह-मात के लिए चौसर बिछाने में लगे हैं। नए सीएस को लेकर सारे समीकरण 2018 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ही लिए जाएंगे।
उल्लेखनीय है मुख्य सचिव एंटोनी डिसा 31 अक्टूबर को रिटायर होंगे। एक साल पहले तक माना जा रहा था कि निर्मला बूच के बाद 1982 बैच की आईएएस अरूणा शर्मा को प्रदेश की दूसरी महिला मुख्य सचिव होने का गौरव प्राप्त होगा, लेकिन उनके केंद्र में जाने के साथ ही अगले मुख्य सचिव का गणित गड़बड़ा गया। और इस दौड़ में 1985 बैच के इकबाल सिंह बैंस का नाम शामिल होने से मुकाबला रोचक बन गया है। दरअसल, डिसा के रिटायरमेंट के पहले ही मुख्य सचिव वेतनमान के तीन अफसरों को अपर मुख्य सचिव बनाना जाना तय है। ऐसे में पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग की पूर्व अपर मुख्य सचिव अरुणा शर्मा के केंद्र में जाने से 1985 बैच के दीपक खांडेकर और फिर 1982 बैच के राकेश अग्रवाल की सेवानिवृत्ति के बाद 1985 बैच के ही प्रभांशु कमल अपर मुख्य सचिव बन गए हैं। अब अपर मुख्य सचिव के लिए वर्ष 1985 बैच के ही इकबाल सिंह बैंस की बारी है अगर केंद्र में पदस्थ अफसर राघवचंद्रा, स्नेहलता श्रीवास्तव, विजया श्रीवास्तव, आलोक श्रीवास्तव, रश्मि शुक्ला शर्मा और जयदीप गोविंद में से कोई वापस नहीं आता है तो अगस्त में सुरंजना रे के रिटायर होने के बाद बैंस का इसी वर्ष अपर मुख्य सचिव बनना तय है। अगर बैंस अपर मुख्य सचिव बनते हैं तो मुख्य सचिव के लिए उनकी दावेदारी मजबूत हो जाएगी, क्योंकि उन पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का हाथ है। लेकिन इसके लिए बैंस को अपने ऊपर के 20 अफसरों की वरियता को लांघना है।
सीएस के दावेदार
मप्र के अगले मुख्य सचिव का चयन वर्ष 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए किया जाना है। सरकार नहीं चाहेगी की किसी ऐसे अफसर को सीएस बनाया जाए जो 2017 या 18 में रिटायर हो। अक्टूबर में सेवानिवृत्त होने वाले डिसा के बाद वर्ष 80 बैच के अफसरों में सिर्फ पीडी मीना शेष रहेंगे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति जुलाई 2017 में हो जाएगी, यानि उन्हें काम के लिए महज नौ महीने मिलेंगे। वे पिछले 6 वर्ष से भारत सरकार में प्रतिनियुक्ति पर हैं। हालांकि वे सीएस बनने के लिए संघ की परिक्रमा कर रहे हैं। मीणा को मुख्य सचिव बनवाने के लिए राजस्थान लॉबी के अन्य अफसर भी जोर लगा रहे हैं। लेकिन उनकी दाल गले इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में 82 बैच की अरूणा शर्मा का नाम उभर रहा है। उनकी सेवानिवृत्ति अगस्त 2018 में होगी। अभी 4 महीने पहले ही केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर गई हैं। और बताया जाता है कि वे मप्र आने के मूड में नहीं हैं। सरकार की मुश्किल यह है कि इस बैच में प्रवेश शर्मा के अलावा कोई ऐसा अफसर नहीं है, जिसका कार्यकाल नवंबर-दिसंबर 2018 में संभावित विधानसभा चुनाव के बाद तक हो। 2019 तक कार्यकाल वाले शर्मा ने वीआरएस मांग लिया है। इन हालात में वर्ष 84 बैच के बीपी सिंह जुलाई 2018 व आलोक श्रीवास्तव का कार्यकाल चुनाव के बाद तक है। वर्ष 83 बैच के सिर्फ एक अफसर मनोज गोयल ही कॉडर में मौजूद हैं, लेकिन समीकरण फिलहाल उनके पक्ष में नहीं हैं। यही स्थिति वर्ष 82 बैच के एसआर मोहंती की है, जिनका कार्यकाल 2020 तक है। लेकिन ईओडब्ल्यू ने हाईकोर्ट में उनके भ्रष्टाचार का सही बताकर उनकी राह में रोड़ा अटका दिया है। जेएस माथुर करीब 7 साल से केंद्र में हैं। उनके मप्र आने की संभावना नहीं के बराबर है। सीएस की दौड़ में 1984 बैच में कुल 8 अफसर हैं। इसमें एसीएस (गृह) बीपी सिंह तगड़े दावेदार के रूप में उभर सकते हैं। एसीएस (वित्त) एपी श्रीवास्तव मुख्य सचिव की दौड़ में हैं। किंतु नकारात्मक सोच इनकी राह में रोड़ा है। मुख्यमंत्री से नजदीकी साबित करने के लिए उन्होंने कुछ ऐसी फाइलों पर भी मुहर लगाई, जिसमें गुंजाइश नहीं के बराबर थी। 1985 बैच में तगड़े दावेदार के रूप में राधेश्याम जुलानिया सबसे ऊपर हैं। ऐसा माना जाता है कि वे मुख्यमंत्री के करीबी हैं। इस बैच के एसीएस दीपक खांडेकर और प्रभांशु कमल को बायपास कर इकबाल सिंह बैंस का नाम सामने आया है। ऐसे में इकबाल सिंह सबको पीछे छोड़कर बड़ी बाजी मार सकते हैं। इकबाल सिंह के आगे सूची में 1980 से लेकर 1985 तक के अफसरों की लंबी फेहरिस्त है।
बाधा हटाने में जुटे बैंस
अगर वरिष्ठता क्रमानुसार देखें तो डिसा के बाद उन्हीं के बैच(1980) के पीडी मीणा इस पद के सबसे पहले दावेदार रहे हैं। लेकिन मीणा का कार्यकाल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के शासन में उल्लेखनीय नहीं रहा है। ऐसे में मप्र में पदस्थ 1982 बैच के एसआर मोहंती, 1984 बैच के बीपी सिंह, 1985 बैच के राधेश्याम जुलानिया, दीपक खांडेकर और इकबाल सिंह बैंस प्रमुख दावेदारों में से हैं। यानी बैंस के मुख्य सचिव बनने की राह में यही चार आईएएस रोड़ा हैं। इसलिए अपनी राह की बाधाओं को हटाने के लिए बैंस ने ऐसा तिकड़म अपना है कि उनके कई प्रतिद्वंदी बिना लड़े ही चित हो गए हैं। बैंस ने सबसे पहले पंचायत एवं ग्रामिण विभाग के अपर मुख्य सचिव को ठिकाने लगाने के लिए गोंटिया बिछाई, क्योंकि जुलानिया भी मुख्यमंत्री के करीबी हैं। तथा माना जाता है कि मप्र का मुख्य सचिव बनने का रास्ता पंचायत एवं ग्रामिण विभाग से ही होकर जाता है। ऐसे में पंचायत एवं ग्रामिण विभाग में रमेश थेट की सचिव पद पर पदस्थापना के साथ ही यह तय हो गया था कि बैस की राह का यह रोड़ा जल्द दूर हो जाएगा।
सोची-समझी रणनीति
पंचायत एवं ग्रामिण विकास विभाग में जुलानिया और थेटे की पदस्थापना सोची-समझी रणनीति के तहत की गई। दरअसल जुलानिया और थेटे का विवादों से पुराना नाता है। ये दोनों अधिकारी हमेशा अपने बवाल के कारण चर्चा में रहते हैं। जुलानिया जहां अपने अक्खड़पन, नाफरमानी और मंत्रियों के साथ मनमानी के लिए जाने जाते हैं वहीं थेटे अपनी धमकियों के कारण चर्चा में रहते हैं। यानी दोनों का चरित्र और कार्यप्रणाली आग और मिट्टी तेल की तरह है। यह शासन और प्रशासन दोनों को मालूम है। फिर भी दोनों को एक ही विभाग में पदस्थ कर दिया गया है। ऐसे में विवाद तो होना निश्चित ही था। सो जुलानिया ने थेटे से उनके अधिकार छीन लिए हैं। थेटे ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर विवाद खड़ा कर दिया। ऐसे में समझा जाता है कि सीएस के प्रबल दावेदार जुलानिया के पैर उखाडऩे की खातिर ही थेटे को उनके ही विभाग में पदस्थ किया गया था। दरअसल राधेश्याम जुलानिया की प्रवृत्ति रही है कि वे विभाग में किसी को आगे नहीं बढऩे देना चाहते हैं। वे जिस विभाग में रहे हैं वहां तानाशाह की तरह काम करते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति के कारण उनकी कई बार मंत्रियों से ठन चुकी है। ऐसे में पहले से ही बड़बोले और विवादित थेटे को वे कैसे बर्दाश्त कर पाते। सो उन्होंने थेटे का कद कम करके उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की है। थेटे भी कहां कम हैं। उन्होंने भी अपने चिर-परिचित अंदाज में रोहित वेमूला की तरह आत्महत्या करने की धमकी दे डाली। ज्ञातव्य है कि थेटे पूर्व में भी आत्महत्या की धमकियां देते आए हैं। यही नहीं थेटे ने तो आईएएस गेस्ट हाउस के बाहर सड़क किनारे पेड़ के नीचे बैठ कर जुलानिया को भ्रष्ट अफसर बताते हुए उन पर जातिवादी मानसिकता से काम करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने अपर मुख्य सचिव जुलानिया पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने 30 हजार करोड़ रुपए का बजट हैंडल किया है। सिंचाई का रकबा बढ़ाने की वाहवाही जब वे लूटते हैं तो बांध टूटने की जिम्मेदारी किसकी है? बताते हैं कि जब जुलानिया को विवाद का मूल पता चला तो उन्हें इतनी ग्लानि हुई कि वे अवकाश पर विदेश अपने बेटे के पास चले गए। लेकिन अब पछताए क्या हो जब चिडिय़ा चुग गई खेत। इस विवाद से जुलानिया की ऐसी किरकिरी हुई की कर्मचारी संगठन भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल बैठे हैं।
सोने पर सुहागा
उधर, सीएस की दौड़ में शामिल बैंस के लिए सोने पर सुहागा यह हुआ है कि राधेश्याम जुलानिया व वन विभाग के अपर मुख्य सचिव दीपक खांडेकर का केंद्र में अतिरिक्त सचिव पद के लिए इम्पैनलमेंट हो गया है। हांलाकि अभी सिर्फ इमपैनलमेंट की सूची जारी हुई है और ये तय नहीं हुआ है कि केंद्र में इन पदों पर मध्यप्रदेश के दोनों आईएएस ने रूचि दिखायी है या प्रतिनियुक्ति मांगी है। लेकिन विवादों के चलते राधेश्याम जुलानिया की प्रतिनियुक्ति की चर्चा जोर पकड़ रही है। वहीं खांडेकर ने प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली जाने के मूड में हैं। ऐसे में बैंस की राह में उन्हीं के बैच के जो अफसर खड़े थे लगभग उनका पत्ता ताक कटता नजर आ रहा है। बताया जाता है की बैंस के सीएस बनने की राह में कोई कानूनी बाधा न आए इसके लिए मुख्य सचिव डिसा को कम से कम तीन महीने के एक्सटेंशन की चर्चा भी हो रही है। मुख्यमंत्री की तरफ से कोई प्रस्ताव केंद्र में पहुंचता है तो उन्हें तीन या छह महीने के लिए एक्सटेंशन मिल सकता है। ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि उनके एक्सटेंशन में रूकावट बने। ऐसे में संभावना यह भी जताई जा रही है कि डिसा को एक्सटेंशन देने के साथ ही बदले समीकरण के साथ नया मुख्य सचिव बनाया जा सकता है।
अचानक कैसे बैड मैन बन गए मोहंती...?
प्रदेश में मुख्य सचिव की दौड़ में शामिल अपर मुख्य सचिव सरकार के नौ रत्न से बैड मैन बन गए हैं। दरअसल, मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम के इंटर कार्पोरेट डिपाजिट स्कीम (आईसीडीएस) के करोड़ों के घोटाले के आरोपी एसआर मोहंती के भ्रष्टाचार के मामले में पहली बार ईओडब्ल्यू ने कोर्ट में लिखित में ये माना है कि घोटाले में मोहंती की संलिप्तता है। इससे मोहंती एक बार फिर बदनामी के साए में हैं। माना जा रहा है कि मोहंती के इस मामले में ईओडब्ल्यू का यह कदम भी सोची-समझी रणनीति का अंग है। दरअसल मोहंती के खिलाफ भ्रष्टाचार का ये जिन्न एक जनहित याचिका के जरिए फिर बाहर आया है और सरकार को चार सप्ताह में जवाब देने को कहा गया है। कभी दिग्विजय सिंह के नौ रत्नों में शामिल एडिशनल चीफ सेक्रेटरी एसआर मोहती इस सरकार में भी रत्नों के रत्न हैं। लेकिन उनके भ्रष्टाचार का मामला फिर से सामने आने के बाद अब इनके कारण प्रदेश सरकार की ही फजीहत होने लगी है। हाईकोर्ट ने शासन से हलफनामा में जवाब मांगा है कि मोहंती के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की इजाजत अभी तक क्यों नहीं दी गई। जांच एजेंसी ईओडब्ल्यू कोर्ट को बता चुकी है कि शासन से मंजूरी न मिलने के कारण मोहंती के खिलाफ कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पा रही है जबकि घोटाले में उनकी संलिप्तता पाई गई है। मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम में तत्कालीन प्रबंध संचालक एसआर मोहंती के वक्त हुआ आईसीडीएस घोटाला इस सरकार के भी गले की फांस बन गया है। पहले सुप्रीम कोर्ट को जांच के निर्देश देना पड़ा तो अब हाईकोर्ट ने फटकार लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो हाईकोर्ट में एक पीआईएल दायर की गई। जनहित याचिका दाखिल करने वाले मोहम्मद रियाजुद्दीन ने कोर्ट में बताया कि 20 जनवरी 2000 से 8 जनवरी 2004 तक तत्कालीन एमडी एसआर मोहंती के कार्यकाल में प्रायवेट कंपनियों को करोड़ों का लोन गैरकानूनी तरीके से दिया गया जिन्हें लोन दिए गए उनसे बैंक गारंटी भी नहीं ली गई। करोड़ों के इस लोन को वसूलने के लिए तत्कालीन एमडी ने सार्थक प्रयास भी नहीं किए। इससे शासन को करोड़ों का नुकसान हुआ है। चूंकि शासन का पैसा जनता का ही है इसलिए जनहित में इसे सुना जाए जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही इस मामले की जांच के निर्देश दे चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर याचिका स्वीकार हुई तो घोटालेबाजों और बचाने वालों की परतें खुलना शुरू हो गई हैं। एक्टिंग चीफ जस्टिस राजेन्द्र मेनन और जस्टिस अनुराग श्रीवास्तव की बेंच के समक्ष जांच एजेंसी ईओडबल्यू ने स्पष्ट किया कि घोटाले में एसआर मोहंती की संलिप्तिता पाई गई है लेकिन चूंकि वे आईएएस अधिकारी हैं इसलिए आगे की कार्रवाई के लिए शासन की मंजूरी आवश्यक है, जो अभी तक मिल नहीं पाई है। शासन से मंजूरी मिलने के बाद ही आगे कार्रवाई की जा सकती है। इस मामले में मोहंती के खिलाफ कुछ और हो या न हो लेकिन उनके सीएस बनने के सपने पर पानी फिरना तय है।
क्या मोदी का फार्मूला होगा दरकिनार
इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र औरा राज्य में ऊंचे और प्रमुख पद दिए जाने के लिए आईएएस अधिकारियों की स्क्रीनिंग के लिए 360 डिग्री(संपूर्ण) प्रोफाइलिंग शुरू की। लेकिन लगता है मप्र में नए मुख्य सचिव के चयन में इसको दरकिनार कर दिया जाएगा। प्रदेश में जिस तरह के हालात नजर आ रहे हैं उससे तो एक बात तय है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में लगातार चौथी बार भाजपा की सरकार बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। कार्मिक विभाग के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ने बताया, कि स्क्रीनिंग के लिए 360 डिग्री प्रोफाइलिंग की इस प्रक्रिया के तहत अधिकारी के प्रदर्शन के अलावा कई जगहों से फीडबैक लिया जाना है। यानी राज्यों में मुख्य सचिव और केंद्र में सचिव या समकक्ष पद पर नियुक्ति से पहले अफसर के ऐनुअल कॉन्फिडेंशल रिपोट, सीनियर्स, जूनियर्स, सीवीसी, सीबीआई और खुफिया विभाग, सभी से फीडबैक लेने को कहा गया है। साथ ही वरिष्ठता का ध्यान भी रखने को कहा गया है। लेकिन मप्र में जिस तरह की तस्वीर नजर आ रही है उससे तो एक बात तय है कि राज्य में मोदी का फार्मूला नहीं चलने वाला है। हालांकि उत्तर प्रदेश में वहां के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मोदी के फार्मूले के आधार पर ही 6 जुलाई को 1982 बैच के आईएएस दीपक सिंघल को मुख्य सचिव बनाया है। वहां भी मुख्य सचिव बनने के लिए अफसरों में तमाम प्रशासनिक और सियासी दांव लगाए थे लेकिन अखिलेश यादव ने वरिष्ठता के आधार पर सिंघल का मुख्य सचिव अनाया है।
...तो क्या बैंस के लिए इतिहास दोहराएंगे शिवराज
मप्र काअगला मुख्य सचिव कौन होगा यह तो अक्टूबर में पता चलेगा, लेकिन प्रदेश की प्रशासनिक और राजनीतिक वीथिकाओं में यह चर्चा जोरों पर है कि इकबाल सिंह बैंस को उपकृत करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राकेश साहनी का इतिहास दोहरा सकते हैं। अगर चर्चा को मान भी लिया जा तो सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्री उन 20 आईएएस अफसरों को नाराज करके ऐसा कदम उठाएंगे जो बैंस से वरिष्ठता क्रम में ऊपर हैं। मुख्य सचिव के दावेदारों में बैंस से सीनियर अफसरों में 1980 बैच के पीडी मीना, 1982 बैच की अरूणा शर्मा, एसआर मोहंती, राघवचंद्रा, स्नेहलता श्रीवास्तव, 1983 बैच के मनोज कुमार गोयल, 1984 बैच के वीपी सिंह, कंचन जैन, विजया श्रीवास्तव, आलोक श्रीवास्तव, रश्मि शुक्ला शर्मा, एपी श्रीवास्तव, जयदीप गोविंद, पीसी मीणा 1985 बैच के रजनीश वैश, राधेश्याम जुलानिया, दीपक खांडेकर और प्रभांशु कमल के बाद इकबाल सिंह बैंस का नंबर आता है। लेकिन जानकारों का कहना है कि जिस तरह राकेश साहनी को मुख्य सचिव बनाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उनसे वरिष्ठ अफसरों को दरकिनार किया था उसी तरह बैंस के मामले में भी कर सकते हैं। सूत्र बताते हैं कि राकेश साहनी को मुख्य सचिव बनाने के मामले में डीओपीटी ने प्रदेश से जवाब-तलब भी किया था।
राकेश साहनी का इतिहास अगले मुख्य सचिव की दौड़ में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव इकबाल सिंह बैंस का नाम जिस तेजी से उभरा है, उससे यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या वे 10 साल पहले मुख्य सचिव बने राकेश साहनी का इतिहास दोहराएंगे? साहनी 13 जनवरी 2006 को एसीएस बने, और 28 जनवरी 2006 को मुख्य सचिव बन गए थे। उन्होंने 16 वरिष्ठ अफसरों को पीछे छोड़ दिया था। साहनी जिस वक्त मुख्य सचिव बने थे, उस समय अजीत रायजादा, डीएस राय, बाला सुब्रमण्यम, संदीप खन्ना जैसे तेज तर्रार अफसर की लंबी फेहरिस्त थी। कमोबेश, यही स्थिति अब इकबाल सिंह के साथ बन रही है। 1972 बैच के राकेश साहनी को प्रमुख सचिव से अतिरिक्त मुख्य सचिव बनने के लिए एक साल से अधिक समय तक का इंतजार करना पड़ा था, जब विजय सिंह मुख्य सचिव थे। करिश्मा ये हुआ कि 13 जनवरी 2006 को वे अतिरिक्त मुख्य सचिव के रूप में पदोन्नत हुए और 28 जनवरी को वल्लभ भवन में मुख्य सचिव की कुर्सी पर बैठे दिखाई दे रहे थे। इकबाल सिंह भी इसी दौर से गुजर रहे हैं। उनके बेहद करीबी मित्र और बैचमेट बैजेंद्र कुमार पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में एक वर्ष से अधिक समय से मुख्यमंत्री के अतिरिक्त मुख्य सचिव बने हुए हैं। जबकि, इकबाल सिंह उनसे पहले प्रमुख सचिव के पद पर पदोन्नत हुए और अभी तक अतिरिक्त मुख्य सचिव नहीं बन पाए।

धंधेबाजों की 1,41,924 करोड़ की कमाई पर पहरा!

10,021 एनजीओ पर लगा बैन
विनोद उपाध्याय
भोपाल। पिछले 15 सालों में 165 देशों से 141924.53 करोड़ रूपए लेकर मौज करने वाले करीब 33,000 गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) में से केंद्र की मोदी सरकार ने 10,021 एनजीओ पर बैन लगा दिया है। इसमें मप्र के भी 250 एनजीओ हैं। केंद्र सरकार का मानना है कि इन संगठनों द्वारा विदेशों से मिलने वाली सहायता का दुरूपयोग किया जा रहा है। जहां कुछ एनजीओ सरकारी योजनाओं का विरोध करने तो कुछ देश में धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने के काम कर रहे हैं। बताया जाता है कि खुफिया जांच एजेंसी आईबी ने कई स्तरों और कई कोण से जांच के बाद इन एनजीओ की रिपोर्ट सरकार को दी थी। जिसके आधार पर सरकार ने इन एनजीओ के विदेशी अनुदान लेने पर बैन लगा दिया है यानी उनके फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया है। ज्ञातव्य है कि इससे पहले 2012 में 4,138, 2013 में 4 और 2014 में 49 एनजीओ पर यूपीए सरकार बैन लगा चुकी है। जबकि भारत में विदेशी धन प्राप्त करने के लिए विदेशी योगदान के(विनियमन)अधिनियम (एफसीआरए) के तहत 33,091 गैर-सरकारी संगठन पंजीकृत हैं।
उल्लेखनीय है कि भारतीय गैर सरकारी संगठनों को 165 देशों से अनुदान मिलता है। जिसमें सर्वाधिक सामाजिक क्षेत्र के लिए, उसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, रूरल डेवलपमेंट, धार्मिक गतिविधियों, अनुसंधान, महिला उत्थान, बाल कल्याण, रोजगार, पर्यावरण, खेती आदि के लिए मिलता है। आईबी की जांच में यह बात सामने आई है कि बैन किए गए एनजीओ की वार्षिक रिपोर्ट में कई तरह की खामियां पाई गई हैं जो देश हित में नहीं है। गैर सरकारी संगठन के पंजीकरण को रद्द करने के लिए कारणों में-रिटर्न दाखिल नहीं करना, धन का गलत उपयोग, निषिद्ध गतिविधियों के लिए धन स्वीकार करना, कानूनी खर्च के वित्त पोषण, भारतीय गैर सरकारी संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं की रिट याचिकाएं और विदेशी कार्यकर्ताओं को विदेशी गैर सरकारी संगठनों द्वारा अज्ञात भुगतान करना शामिल हैं। सरकार का कहना है कि इन एनजीओ ने आयकर रिटर्न दाखिल नहीं किया और साथ ही इन्होंने उन कार्यों के लिए चंदा लिया जिसे करने की मनाही है। इसमें जमानत की फंडिंग से लेकर अदालत में दाखिल की जाने वाली याचिका तक का खर्च शामिल है। आईबी के सूत्रों का कहना है कि अभी हजारों एनजीओ की गतिविधियां संदेह के घेरे में है और उनकी पड़ताल हो रही है।
मप्र को 15 सालों में मिले 5,34,57,02,196
अगर मध्य प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो यहां के करीब 500 एनजीओ ने पिछले 15 साल में करीब 5,34,57,02,196 रूपए की विदेशी सहायता पाई है। जिनमें आधे से अधिक की कार्य प्रणाली संदेह के घेरे में है। संदेहास्पद एनजीओ की जांच चल रही है। अभी तक आईबी की जांच में जिन एनजीओ की गतिविधियां संदेहास्पद मिली है उनके खिलाफ कार्रवाई की गई है। वर्ष 2012 में ऐसे ही 92 एनजीओ के फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया था। वहीं वर्ष 2014 में 1 एनजीओ पर बैन लगा था। जबकि इस बार सरकार ने 250 एनजीओ पर बैन लगाया है। आईबी इन एनजीओ की गतिविधियों को संदिग्ध मानती है। बताया जाता है कि जांच में अगर किसी के खिलाफ गंभीर मामले सामने आए तो उन पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। 26 जुलाई को लोकसभा में सरकार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, 2010-2011 में मप्र के 468 एनजीओ को 1456495900.11 रूपए विदेशी सहायता के रूप में मिली थी। इसी प्रकार वर्ष 2011-2012 में 474 एनजीओ को 1547493703.80 रूपए, वर्ष 2012-2013 में 363 एनजीओ को 1660899947.66, वर्ष 2013-2014 में 54 एनजीओ को 249535061.58 रूपए, वर्ष 2014-2015 में 78 एनजीओ को 4687550425.25 रूपए और इस साल यानी वर्ष 2015-2016 में 21 जुलाई तक 10 एनजीओ को 408416709.26 रूपए मिले हैं। इन रूपयों का कहां और किस उद्देय से खर्च किया गया है उसमें कई विसंगतियां सामने आई हैं। जिससे एनजीओ संदेह के घेरे में हैं।
मप्र में इन एनजीओ पर बैन
समरीतन सेवा सदन, सहयोगिनी ट्रस्ट, साहस वॉलेंट्री सोसायटी, सागर महिला एवं बाल समिति, साधना विनय मंदिर, रिसोर्सेस डेव्लपमेंट इन्सिट्यूट, रिहैबीलिएशन कम वर्क सेंटर फॉर फिजिकली हैंडिकैप्ड, रिच कम्यूनिटी डेव्लपमेंट प्रोजेक्ट, रामा महिला मंडल, राहोद एजुकेशन सोसायटी, रफी अहमद किदवई एजुकेशन सोसायटी, पुष्पांजलि छात्र समिति, पुष्पा कान्वेंट, एजुकेशन सोसायटी, प्रखर प्रज्ञा शिक्षा प्रसार एवं समाज कल्याण समिति सागर, पिपुल्स फॉर एनिमल, न्यू शिवम व्यावसायिक युवती मंडल, नेशनल लॉ इन्सिट्यूट युनिवर्सिटी, नर-नारायण सेवा आश्रम, एमपी ब्रांच ऑफ नेशनल एसोसिएशन फॉर दा बलाइंड, शोसित सेवा संस्थान, श्रीकृष्ण ग्रामोत्थान समिति, श्रीकांत विकलांग सेवा ट्रस्ट, श्री चित्रगुप्त शिक्षा प्रसार समिति, श्री शिव विद्या पीठ, श्रम निकेतन संस्थान, शिवपुरी जिला सेवा संघ, शिव कल्याण एवं शिक्षा समिति, शिक्षा एवं ग्रामीण विकास केंद्र, शांति महिला ग्रह उद्योग कूप सोसायटी, शांति बाल मंदिर, श्री स्वामी के.विवेकानंद कुस्ता मुक्ता आश्रम, सेठ मन्नुलाल दास ट्रस्ट हॉस्पिटल, सतपुड़ा आदिवासी विकास समिति, सार्वजनिक सेवा समाज, सार्वजनिक परिवार कल्याण एवं सेवा समिति, शंकर,संजीवन आश्रम, संगम नगर शिक्षा समिति, समदर्शी सेवा केंद्र, अंजुमन इस्लामिया, अदिम जाति जाग्रति मंच, आर्दश लोक कल्याण (आलोक) संस्थान, आचार्य विद्यासागर गाऊ संवर्धन केंद्र, अभिव्यक्ति, असरारिया अल्पसं यक एजुकेशन चिकित्सा एवं वेलफेयर सोसायटी, आरोही-डेव्लपमेंट एवं रिसर्च सेंटर, अर्ध आदिवासी विकास संघ, मिशन हॉस्पिटल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन गल्र्स प्राइमरी स्कूल, मिशन फॉर वेलफेयर एवं ट्रिबल चाइल्ड एंड वुमन, मेथोडिस्ट वुमन वर्क , मेथोडिस्ट वुमन प्रोजेक्ट, मिनू क्रिश्चन एजुकेशन सोसायटी, मेडीकेयर एंड रिसर्च फाउण्डेशन, मसीही प्राथमिक विद्यालय, मसीही माध्यमिक विद्यालय, मसीही कन्या विद्यालय हॉस्टल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मंजू महिला समिति, मंदसौर जिला समग्र सेवा संघ, मालवांचल विकास परिषद, मैत्री एजुकेशनल एंड कल्चरल एसोसिएशन, महिला परिषद, महिला एजुकेशन सोसायटी, महिला अध्ययन केंद्र, मध्यप्रदेश ग्रामीण विकास मंडल, मध्यप्रदेश हैरीटेज डेव्लपमेंट ट्रस्ट, माधवी महिला कल्याण समिति, मातृ सेवा संघ, लुथेरन मिशन हॉस्टल, लॉयन चैरीटेबल ट्रस्ट, कोठारी एजुकेशनल फाउण्डेशन, किसान खादी ग्रामद्योग संस्थान, खंडवा डिस्ट्रिक्ट वुमन वर्क, कर्मपा मल्टीपरपस कूप सोसायटी, कानपुर मिशन प्राइमरी स्कूल, कला जाग्रति परिवार, जोहरी क्रिएशन स्टूडेंट हॉस्टल, जन-कल्याण आश्रम समिति, जाग्रति सेवा संस्था, जगत गुरू राम भद्रचर्या विकलांग सेवा संघ, जबलपुर मिशन हॉस्पिटल प्रोजेक्ट-1641, जे.डी. सोशल डेव्लपमेंट आर्गनाइजेशन, इंदौर स्कूल ऑफ सोशल वर्क, इंदिरा गांधी एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, इंडिया चर्च काउंसिल डिसीप्स ऑफ क्रिस्ट, हेवेंली पाइंट ऑफ एजुकेशन सोसायटी, हरित, एच.सी. मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, ग्वालियर फॉरेस्टर सोसायटी, गुरू तेज बहादुर चैरीटेबल हॉस्पिटल ट्रस्ट, गुरू राजेंद्र सूरी चिकित्सालय एंड नेत्र अनुसंधान केंद्र, गायत्री शक्ति शिक्षा कल्याण समिति, ग्रासिम जन कल्याण ट्रस्ट, ग्रामोदय चेतना मंडल, गर्वमेंट पॉलिटेक्निक, गौवंश रक्षा समिति (अक्षय पशु-पक्षी सेवा सदन), गोंडवाना फाउण्डेशन, गरीबनवाज फाउण्डेशन फॉर एजुकेशन, जी.सी. मनोनित मिशन, गैस पीडि़त राहत समिति, गंगापुर युवा क्लब, गगन बाल मंदिर, फ्रेंड्स रूरल सेंटर, इकोनॉमी लाइफ कमेटी, ई.बी.ए. मिशन को-एजुकेशनल स्कूल, ईएलसी वेलफेयर एसोसिएशन, डॉ. पाठक चाईल्ड एंड मदर वेलफेयर सोसायटी,डिस्ट्रीक्ट वुमन वर्क, दिशा सामाजिक एंड विकास युवा मंडल, ड्यिोसेस ऑफ जबलपुर, धनवंतरी शिक्षा समिति, धनंतरी क्रिश्चन हॉस्पिटल, डेवलपमेंट फंड बोर्ड ऑफ सेकण्ड्री एजुकेशन, दारूल अलूम, कार्पोरेशन बास्केटबॉल ट्रस्ट, कनज्यूमर एंड राईट एसोसिएशन, काफ्रेंस ऑफ एसएस पीटर एंड पॉल (सोसायटी ऑफ सेंट. विनसेट डी पॉल), कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर, क्रिश्चया बंधूरकूलम फैमली हेल्पर प्रोजेक्ट, क्रिश्चन हॉस्पिटल वेस्ट निमार, क्रिश्चन हॉस्पिटल दमोह, क्रिश्चन हॉस्पिटल, क्रिश्चन हिंदी मिडिल स्कूल, क्रिश्चन बॉयज एंड गल्र्स हॉस्टल, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडिया एंड विजिवल सर्विस, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडियो एंड ऑडियो विजिवल, चिनमय सेवा ट्रस्ट, चिल्ड्रन होम, छत्तीसगढ़ विकास परिषद, चांदबाद विद्या भारती समिति, चंबल बाल एवं महिला कल्याण समिति, सेंट्रल एमप्लाई स्पोंसर्स रिलीफ ट्रस्ट, सीएएसए पतपरा मंडला डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, बरगेस इंग्लिश हायर सेकेण्ड्री स्कूल, बुंदेलखंड क्रिश्चन सोशल सर्विस, ब्रिलियंट स्टार एजुकेशन सोसायटी, ब्राइट स्टार सोशल सोसायटी, भोपाल टेक्निकल एंड ट्रेनिंग सेंटर, भोपाल स्कूल ऑफ साईंस, भोपाल सेल्सस सोसायटी, बाल प्रगति एवं महिला शिक्षा संस्थान, अविनाश, ऑडियो विजिवल प्रोजेक्ट, सचिदानंद हॉस्पिटल, आसरा सामाजिक कल्याण समिति, एरिया एजुकेशन कमेटी, अद्र्ध आदिवासी विकास संघ, नागरथ चेरिटेबल पुष्पकुंज हॉस्पिटल, पार्टीसिपेट्री रिसर्च एंड इन्वेंसन इन, संवाद, सदर मिशन प्राइमरी स्कूल, साइकोन शिक्षा एंव ग्रामीण विकास समिति, भोपाल एसडीए इंग्लिश स्कूल, श्री अरबिंदो एंड मदर वनिता एमपॉवरमेंट ट्र्स्ट, चेतना मंडल, सोशल इकोनोमिक विलेजर्स एडवांसमेंट, तुलसी मानव कल्याण सेवा संस्थान, क्रिश्चन एनडेवर हॉस्टल, लोक कल्याण समिति, बीसीएम इंटरनेशनल, शांतिपुर लेप्रोसी हॉस्पिटल, सानिध्य, पी. नाथूराम चौबे महिला समिति, आधार सेवा केंद्र, दा गोस्पल सेंट्रल चर्च, राजीव गांधी प्राथमिक शिक्षा मिशन, खरूना चिल्ड्रन हॉस्टल, डब्ल्यूएमई ऑफ डग्लस मेमोरियल चिल्ड्रन होम, मासी उच्चतर विद्यालय, चंबल पर्यावरण सोसायटी, अमरजेंसी रिलीफ कमेटी, भारत सेवक समाज, क्रिश्चन बॉयज हॉस्टल, नव सर्वोदय विकास समिति, खुरई टेक्निकल एजुकेशन सोसायटी, केंसर केयर ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउण्डेशन, तोलाबी चैरीटेबल ट्रस्ट, महर्षि महेश योगी वेदिक विश्व विद्यालय, वॉकेशनल ट्रेनिंग इंसिट्यूट स्कूल, सदाशिव शांति शिक्षा समिति, अनुसूचित जाति/ जनजाति कल्याण संघ, मोमिन वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी, जनसेवा शिक्षा समिति, शिव शिक्षा समिति चुरहट, मध्यप्रदेश आदिवासी बाल महिला कल्याण समिति, खादी ग्रामोद्योग सेवा आश्रम, हेल्थ एजुकेशन एंड डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, महिला जागरण समिति, सतपुड़ा इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, नव क्रांति शिक्षा समिति, मसीही माध्यमिक विद्यालय, कृषक महिला समाज पानधुक्रा, एसोशिएशन फार कंप्रेसिंव रूरल असिसटेंस, कैथोलिक संस्थान जसपुर अग्रिकोण परीक्षेत्र, लुथरन होस्टल, आदिवास विकास एवं प्रशिक्षण संस्थान,सरस्वती महिला कल्याण, कांग्रेगेशन ऑफ सिस्टर ऑफ द एडोरेशन ऑफ द ब्लेस्ड सिस्टर्स, गजेंद्र शिक्षा प्रसार समिति, सैन्ट जॉर्ज कांवेंट इंग्लिस स्कूल, महाकोशल महिला शिक्षा समिति, महिला कौशल शिक्षा समिति, जयशक्ति ट्रस्ट सागर, किशन सेवा समिति, संजय बाल सेवा, उद्योग मंडल गोहारा, आश्रय सर्विस फार रूरल पूर, द नागपुर, लतहारन मिशन ऑफ सोल्यूशन, शर सयैद एजूकेशनल एण्ड शोसल वेलफेयर सोसायटी, योगा रिसर्च इंन्सट्यूट, नेशनल भोपाल डास्टर रिलाफ आर्गनाइजेशनशन, सृजन वेलफेयर सोसायटी, पर्यावरण सुधार समिति, सेंटर फॉर एंटरप्रीनरशिप डवलपमेंट एम. पी. झरनेश्वर महिला विकास एण्ड शिक्षण समिति, ग्रामीण विकास परिषद, फेडरेशन ऑफ एम.पी. वूमेन एण्ड चाइल्ड वेलफेयर एजेंसीज, महारनी लक्ष्मी बाई भोपाल जन कल्याण समिति, मीडिया सेंटर इंटर नेशनल हाउस, नव आदर्श शिक्षा एण्ड ग्रामीण विकास समिति, एम.पी. सिस्टर सोसायटी, संदेश मिशन हॉस्पिटिल,बंजा बामिया डबलपमेंट प्रोजेक्ट, जनहित सेवा केंद्र, कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम, एम.पी. पस्तोरस कॉर्नफ्रेंस, श्री शांति शिशु मंदिर समिति, स्कॉट मेमोरियल वूमेन होस्टल, सरस्वती सेंट्रल अकादमी एजूकेशनल सोसायटी, वोल्यूनटरी एण्ड डवलपमेंट सोसायटी, भोपाल डॉयोसेेस भ्लेज डवलपमेंट प्रोग्राम, केनेडियन प्रेसवाइटेरियन, मिशनरी कमेटी, मानव विकास विज्ञान केंद्र, हॉयर एजूकेशन लायब्रेरी प्रोजेक्ट, विश्वास कल्याण समिति, आदर्श शिशु बिहार, प्यारे लाल गुपता समिति ल्यूपिन मानव कल्याण एवं शोध संस्थान, नई किरन महिला परिषद आदि।
विदेशी योगदान के आंकड़ों पर गौर करें तो ताजा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2013-14 की तुलना में वर्ष 2014-15 में भारतीय गैर सरकारी संगठनों के लिए विदेशी धन दोगुनी हुई है, लेकिन 10,000 एनजीओ पंजीकरण के रद्द होने के साथ ही विदेशी योगदान में गिरावट होने की संभावना है। 26 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पेश हुए आंकड़ों से पता चलता है कि, भारत को मिलने वाली विदेशी अनुदान में से 65 फीसदी हिस्सेदारी सामुहिक रुप से दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश (एकीकृत), कर्नाटक और केरल की है। विश्लेषण से पता चलता है कि चार वर्षों के दौरान यानी वर्ष 2011-12 से 2014-15 के बीच भारतीय गैर सरकारी संगठनों को विदेशी अनुदान के रूप में मिली 45,300 करोड़ रुपए में से 29,000 करोड़ रुपए राष्ट्रीय राजधानी और इन चार राज्यों (तेलंगना के बाद पांच) को प्राप्त हुआ है। पिछले चार वर्षों के दौरान, दिल्ली में संगठनों को 10,500 करोड़ रुपए मिले हैं जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र को 5,000 करोड़ रुपए प्राप्त हुए हैं।
विकास में रोड़े बने एनजीओ
आईबी की रिपोर्ट के अनुसार विदेशों से करोड़ों रुपए का फंड लेकर कुछ एनजीओ भारत की खराब तस्वीर विदेशों में प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई आईबी रिपोर्ट में विदेशी अनुदान प्राप्त करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरनाक करार देते हुए यहां तक कहा गया है कि जीडीपी में दो से तीन फीसदी की कमी के लिए यह एनजीओ जिम्मेदार हैं। केंद्र में मोदी सरकार का गठन होने के बाद से ही जिस तरह यह रिपोर्ट सामने आई उससे यह स्पष्ट है कि उसे पहले ही तैयार कर लिया गया होगा। आश्चर्य नहीं कि उसे जानबूझ कर दबाए रखा गया हो। एनजीओ को विदेशी सहायता लेने के लिए विदेशी सहायता नियामक कानून (एफसीआरए) के तहत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होती है। इसके लिए एनजीओ को बताना पड़ता है कि विदेशी मदद का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए किया जाएगा।
आईबी की रिपोर्ट से साफ है कि कुछ एनजीओ विदेशी सहायता का उपयोग सामाजिक कामों के लिए न कर देश आईबी की रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को तीन जून 2014 को सौंपी गई। हकीकत यह है कि अपने देश में गैर-सरकारी संगठन बनाना एक कारोबार बन गया है। अधिकांश संगठन ऐसे हैं जो बनाए किसी और काम के लिए जाते हैं लेकिन वह करते कु छ और हैं। शायद उनकी ऐसी ही गतिविधियों को देखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले यह कहा था कि 90 फीसदी एनजीओ फर्जी हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है।
खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट एक और गंभीर बात कह रही है। उसके मुताबिक कई गैर-सरकारी संगठन विदेश से पैसा लेकर विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। ग्रीन पीस इंटरनेशनल की भारतीय शाखा ग्रीन पीस इंडिया को कोयला और परमाणु ऊर्जा आधारित परियोजनाओं के विरोध के लिए ही जाना जाता है। इसी तरह कुछ और गैर-सरकारी संगठन ऐसे हैं जो हर बड़ी परियोजना का विरोध करते हैं। इन संगठनों की मानें तो न तो बड़े बांध और बिजली घर बनाने की जरूरत है और न ही अन्य बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की। पर्यावरण की रक्षा की आड़ में गैर-सरकारी संगठन जिस तरह हर बड़ी परियोजना के विरोध में खड़े हो जाते हैं वह कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सही है कि पर्यावरण की रक्षा जरूरी है लेकिन उसके नाम पर औद्योगिकीकरण को ठप कर देने का भी कोई मतलब नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सात ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें लक्षित कर यह एनजीओ आर्थिक विकास दर को नकारात्मक दिशा में ले जाएंगे। करीब 24 पेज की इस रिपोर्ट के मुताबिक जातिगत भेदभाव, मानवाधिकार उल्लंघन और बड़े बांधों के खिलाफ लामबंध यह एनजीओ सारा जोर विकास दर धीमी करने में लगे हैं। इनमें खनन उद्योग, जीन आधारित फसलों, खाद्य, जलवायु परिवर्तन और नाभिकीय मुद्दों को हथियार बनाया गया है। राष्ट्रहित से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करने वाले इन एनजीओ को अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड के अलावा नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्प जैसे देशों या उससे जुड़ी संस्थाओं से अनुदान मिलता है।
भारत की कोयला खदानों और पावर प्रोजेक्ट का लगातार विरोध कर रही ग्रीनपीस को पिछले सात वर्षों में 45 करोड़ रुपए का फंड मिला है। इस संस्था का काम अब भारत में कोयले के खिलाफ माहौल खड़ा करना रह गया है। ग्रीन पीस ने एक प्राइवेट रिसर्च इंस्टीट्यूट को पैसा दिया कि वह मध्यप्रदेश के महान को लेकर स्वास्थ्य, प्रदूषण और दूसरे मुद्दों पर ऐसी रिपोर्ट दे, जिससे वहां की कोयला खदानों पर प्रतिबंध लगवाया जा सके। कई एनजीओ को ये धन भारत में न्यूक्लियर पावर प्लांट्स, यूरेनियम खदानों, ताप-विद्युत घरों, जीएम टेक्नोलॉजी, मेगा इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट (पॉस्को और वेदांता), हाइडेल प्रोजेक्ट (नर्मदा सागर, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश के प्रोजेक्ट) के विरोध के लिए दिया गया है। यह भी खुलासा हुआ है कि विदेशी दानदाताओं ने जानबूझकर एनजीओ के जरिए मानवाधिकार, विस्थापित लोगों के लिए सौदेबाजी कराई और लोगों के धार्मिक अधिकारों के नाम पर बवाल खड़े कराए। विदेशी दानदाताओं ने षड्यंत्रपूर्वक इन एनजीओ के जरिए भारत सरकार की नीतियों के खिलाफ फील्ड रिपोर्ट तैयार करवाईं, ताकि पश्चिमी देशों की विदेश नीतियां भारत विरोधी बनाने के लिए जमीन तैयार हो सके।
आतंक और नक्सलवाद का बढ़ावा
रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि माओवादियों से भी गठजोड़ है कुछ एनजीओ का। ये नियमानुसार जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड, तुर्की और इटली से फंड मंगाते हैं और उसे यहां पर आतंक फैलाने वाले माओवादियों को मुहैया करा देते हैं। कुछ माओवादी संगठन फिलिपींस और इंडोनेशिया से भी जुड़े हैं, जहां न सिर्फ उनकी ट्रेनिंग होती है, बल्कि फंड भी दिया जाता है। ये संगठन फिर अपने इलाके में पडऩे वाली कोयला खदानों और वहां के पावर स्टेशनों पर हमले करवाते हैं या फिर कामकाज प्रभावित करते हैं। एनजीओ के फ्रॉड और गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त होने के 24 केस सीबीआई को और दस केस राज्यों की पुलिस को सौंपे गए हैं। हालांकि, इन सब तमाम बातों के उलट ग्रीनपीस और उस जैसे एनजीओ के अपने तर्क और आरोप हैं। वे इस रिपोर्ट को सिरे से नकारते हुए कह रहे हैं कि ऐसा राजनेताओं और बिजनेसमैन के गठजोड़ के कारण हो रहा है। स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) पर आई खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के बाद विदेशी फंड पर चलने वाली एनजीओ ने लॉबिंग शुरू कर दी है। उनकी तरफ से एक सुर में कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार का मकसद एनजीओ पर लगाम लगाना है। इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए 9 सितंबर 2006 में एनजीओ को लेकर दिए गए नरेंद्र मोदी के भाषणों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने एनजीओ संचालकों को नोबल पिपुल और फाइव स्टार एक्टिविस्ट कहा था और यह भी जोड़ा था कि देश में आज एक एनजीओ इंडस्ट्री खड़ी हो गई है, जिनकी इमेज बिल्डिंग के लिए बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियों की सहायता ली जा रही है।
यूपीए शासन काल में शुरू हुई थी जांच
विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ इंडस्ट्रीज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर हो, लेकिन एक दूसरा सच यह भी है कि आईबी ने इनकी जांच पूर्व सत्ताधारी यूपीए सरकार के कहने पर की थी, जो खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनाकर देश की सारी योजनाओं को एनजीओ के हवाले करने में शामिल रही हैं। आईबी की रिपोर्ट को छोड़ भी दें तो हम पाते हैं कि पिछले 10 सालों में विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ की पूरी कार्यप्रणाली देश की विकास परियोजनाओं में रोड़ा अटकाने वाली रही है। इनकी पूरी गतिविधियों को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि कुछ बड़े एनजीओ समाज सेवा में कम, विदेशी एजेंट की भूमिका में ज्यादा सक्रिय हैं। विदेशी एजेंट होने का आलम यह रहा कि विदेशी सहायता नियमन कानून (एफसीआरए) का उल्लंघन कर बिना पंजीकरण वाली कबीर एनजीओ को अमरीका की फोर्ड फाउडेशन कंपनी ने लाखों डॉलर का चंदा दे दिया। बाद में इसी कबीर के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने पहली एनजीओ कार्यकर्ताओं वाली सरकार देश की राजधानी दिल्ली में बनाकर यह दर्शा दिया कि अमरीका व यूरोप न केवल देश की विकास परियोजनाओं को रोकने में सफल हो रहे हैं, बल्कि इन एनजीओ इंडस्ट्रीज के बल पर भारत के अंदर सरकार निर्माण तक की क्षमता हासिल कर चुके हैं। आईबी ने ग्रीनपीस की ही तरह ही कई और एनजीओ को देश के विकास का अवरोधक बताया है। उनमें से एक हैं मेधा पाटकर। वल्र्ड बैंक से फंडिंग और सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना कर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना को बाधित किया। जिसकी वजह से यह परियोजना छ: साल तक लटकी रही। 1988 में योजना आयोग ने सरदार सरोवर परियोजना का बजट 6406.04 करोड़ रुपए निर्धारित किया था, लेकिन मेधा पाटकर के विरोध के कारण इस परियोजना की लागत बढते-बढ़ते वर्ष 2008 तक 39,240.45 करोड़ रुपए हो गई। मेधा पाटकर ने इस परियोजना को वनवासियों के लिए नुकसानदायक बताया था, लेकिन आज इस परियोजना के कारण ही दाहोद जिले में नर्मदा नदी से वनवासी फल व सब्जियों की खेती कर रहे हैं। तमिलनाडु के तिरुनेवेली जिले में स्थित कुुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र रूस के सहयोग से लगना है। आर्थिक संकट में फंसा अमरीका इस संयंत्र का ठेका चाहता था, लेकिन बाजी रूस के हाथ लग गई। जिसके बाद अमरीकी चंदे से कुुछ एनजीओ व बुद्घिजीवियों को इसके विरोध में खड़ा किया गया, जिसमें सबसे बड़ा नाम पी़. उदयकुमार का है। पी. उदयकुमार देश के एनजीओ के सबसे बड़े ब्रांड बने अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पी. उदयकुमार ने विदेशी सहयोग से सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की, लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने इन अमरीकी एजेंटों को निराश कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कुुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। इस परियोजना को रोकने में अमरीकी दिलचस्पी का खुलासा खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम इन एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमरीका के हैं। वे बिजली आपूर्ति बढ़ाने की हमारे देश की जरूरत को नहीं समझते।
धर्मांतरण के नाम पर काला धंधा
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन इस समय देश की इस निरपेक्षता पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। हाल ही में एक आरटीआई के जरिए ये बात सामने आई थी कि कर्नाटक में धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरीज सरकार से पैसे दिए जा रहे हैं। इस मामले पर कांग्रेस राज्य सरकार पर भी सवाल उठे हैं। वहीं, अब ये बात सामने आई है कि देश में धर्म परिवर्तन में कई एनजीओ शामिल है। ऐसे भी एनजीओ के बारे में जानकारी मिली है, जो हर छोटी मोटी घटना को सांप्रदायिक रंग देने की साजिश रचते हैं। आईबी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। वहीं, 18 विदेशी डोनर्स की पहचान हुई है जो धर्मपरिवर्तन के नाम पर एनजीओ को मदद कर रहे हैं। पुलिसकर्मियों से अधिक एनजीओ ! एनजीओ का धंधा कितना चोखा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जाता सकता है कि देश मेें पुलिसकर्मियों की संख्या से अधिक तो एनजीओ हैं। केंद्र सरकार की ऐसे स्वयं सेवी संगठनों यानि एनजीओ पर तीखी नजर है, जो कागजों पर जन सेवा करके सरकारी कोष का दुरुपयोग करती आ रही है। हालांकि सरकार समय-समय पर ऐसी संस्थाओं को जांच के बाद काली सूची में डालने की सतत कार्यवाही करती आर रही है।
केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एनजीओ का सहारा भी लिया जाता है। जो अवैध कमाई का जरिया-सा बन गया है। दिलचस्प पहलू यह भी है कि कैग भी एनजीओ के पंजीकरण पर अपनी रिपोर्ट में सवाल खड़ा कर चुकी है। वहीं केंद्रीय जांच एजेंसी ने हाल ही में देश के भीतर एनजीओ की भारी संख्या को लेकर सवाल सुप्रीम कोर्ट को एक रिपोर्ट सौंपी है। सीबीआई की इस रिपोर्ट में 20 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों का ब्योरा जुटाने की बात कही गई है, जहां 22 लाख 45 हजार 655 एनजीओ काम कर रहे हैं। यह भी संभावना जताई गई है कि एनजीओ की वास्तविक संख्या इससे भी काफी अधिक हो सकती है, क्योंकि इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों के एनजीओ शामिल नहीं हैं। रिपोर्ट में शािमल एनजीओ में से 2 लाख 23 हजार 478 ने सोसायटी रजिस्ट्रार के पास अपना रिटर्न दाखिल किया है, जो करीब दस प्रतिशत आंका जा सकता है। यानि ऐसी संस्थाएं 10 प्रतिशत से भी कम अनुदान और खर्चे को लेकर बैलेंस शीट का ब्योरा जमा करवाते हैं। एक अनुमान के अनुसार 1.25 अरब की आबादी वाले भारत में औसतन 535 लोगों पर एक एनजीओ है, जबकि गृह मंत्रालय के आंकड़ों की माने तो देशभर में एक पुलिसकर्मी के हिस्से में 940 लोग आ रहे हैं। संसद के पिछले सत्र के दौरान एनजीओ को लेकर उठे सवालों में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थांवर चंद गहलोत ने भी स्वीकार किया था एनजीओ सरकारी फंड में हेरफेर कर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने की गतिविधियों में लिप्त हैं जिन पर नकेल कसने के लिए सरकार ने कवायद शुरू कर दी है। उनके अनुसार सरकारी धन का दुरुपयोग करने वाली एनजीओ के 26 मामले सामने आए थे, जिनमें से जांच के बाद चार एनजीओ को काली सूची मेें डाल दिये गए हैं और सरकार ऐसे एनजीओ को दंडित करने की तैयारी भी कर रही है।
किस प्रदेश में कितने एनजीओ पर बैन आंध्र प्रदेश- 1404 अरुणाचल प्रदेश- 68 असम- 132 बिहार- 659 छत्तीसगढ़- 41 गोवा- 55 गुजरात- 515 हरियाणा- 97 हिमाचल प्रदेश- 68 ज मू और कश्मीर- 40 झारखण्ड- 123 कर्णाटक- 1070 केरल- 964 मध्य प्रदेश- 250 महाराष्ट्र- 1292 मणिपुर- 414 मेघालय- 42 मिजोरम- 17 नागालैण्ड- 89 ओडि़शा- 786 पंजाब- 75 राजस्थान- 251 सिक्किम- 10 तमिलनाडु- 1822 तेलंगाना- 664 त्रिपुरा- 14 उत्तर प्रदेश- 1212 उत्तराखण्ड- 50 पश्चिम बंगाल- 1106 अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह- 8 चण्डीगढ़- 41 दादरा और नगर हवेली- 1 दमन और दीव-1 दिल्ली- 666 पुदुच्चेरी- 20 9999999999999