सोमवार, 2 जून 2014

मप्र के 160 से अधिक नौकरशाह निशाने पर

वर्षों से लंबित भ्रष्टाचार के मामलों की खुलेगी फाइल
भोपाल। 6 मई को जैसे ही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एतिहासिक फैसला सुनाते हुए दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 6-ए को खारिज किया वैसे ही भ्रष्ट नौकरशाहों तथा उन्हें संरक्षण देने वालों के होश उड़ गए। इसका सबसे अधिक असर मप्र के उन 160 से अधिक नौकरशाहों पर पड़ा है,जो किसी न किसी भ्रष्टाचार के मामले में दागी हैं और उनकी फाइल सरकार की मेहरबानी से बंद पड़ी है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद मप्र सरकार भी अपने नौकरशाहों से कानूनी कवच छीनने की तैयारी कर रही है। उधर,सीबीआई ने भी इन भ्रष्ट अफसरों की फाइल खगालनी शुरू कर दी है। उल्लेखनीय है की सुप्रीम कोर्ट पूर्व में सीबीआई सहित अन्य जांच एजेंसियों को पिंजरे का तोता कहते आया है। वह हमेशा जांच एजेंसियों को स्वतंत्र रूप से काम करने को कहता था,लेकिन उसमें कानूनी अड़चने सामने आ जाती थीं। लेकिन 6 मई को सुब्रमण्यम स्वामी की दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 6-ए के खिलाफ याचिका पर सुनवाई करते हुए संविधान पीठ ने दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 6-ए को खारिज कर दिया है। इसमें प्रावधान है कि वरिष्ठ नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति अनिवार्य है। पीठ ने कहा है कि जब आपराधिक कृत्य की जांच की बात हो तब किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। पीठ ने भ्रष्टाचार के मामलों में वरिष्ठ नौकरशाहों की जांच के लिए सरकारी मंजूरी अनिवार्य होने संबंधी प्रावधान को अवैध और असंवैधानिक करार दिया है। पीठ ने कहा,प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत अपराध में वरिष्ठ नौकरशाह के दर्जे का कोई मतलब नहीं है। अब सीबीआई को अधिकारियों की जांच के लिए सरकार की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी। उधर,यह फैसला आने के बाद मप्र सरकार भी अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के लिए 'कवचÓ साबित होने वाली राज्य सरकार की 2012 में जारी अधिसूचना निरस्त करने की तैयारी कर रही है। गौरतलब है कि राज्य सरकार ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट एक्ट 1946 के सेक्शन 6 के तहत 5 फरवरी 1957 के तहत केंद्र सरकार को आरोपी अफसरों पर कार्रवाई करने की स्वीकृति दे दी थी लेकिन 2012 मेें राज्य सरकार ने इस आदेश में संशोधन करते हुए आरोपी अफसरों पर कार्रवाई से पहले राज्य सरकार की अनुमति जरूरी कर दी थी। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य सरकार के पुराने आदेश समाप्त हो सकते हैं। ऐसे में राज्य सरकार अपने आदेश को जल्द वापस लेने की तैयारी कर रही है।
17 साल से अटका था मामला
वरिष्ठ नौकरशाहों को जांच से संरक्षण देने का मामला 17 साल पहले सुप्रीम कोर्ट में आया था। पहली याचिका सुब्रमण्यम स्वामी ने दायर की थी। 2004 में एक एनजीओ ने भी याचिका दायर कर जांच से पहले मंजूरी का प्रावधान खत्म करने की मांग की। सुनवाई के दौरान केंद्र ने दलील दी कि प्रावधान सिर्फ इसलिए है कि टॉप ब्यूरोक्रेट नीति-निर्माण में शामिल होते हैं। अब सीबीआई या अन्य जांच एजेंसियों को बड़े से बड़े अफसर के खिलाफ जांच और पूछताछ के लिए किसी से भी इजाजत लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। फायदा यह होगा कि न तो मामले की छानबीन में देरी होगी और न ही छानबीन से जुड़ी जानकारी लीक होने का खतरा होगा। कानूनी जानकारों के मुताबिक, इस फैसले के बाद सीबीआई ज्यादा असरदार और पेशेवर तरीके से काम कर सकेगी। सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर जोगिंदर सिंह बताते हैं कि धारा-6 ए के तहत प्रावधान था कि टॉप ब्यूरोक्रेट यानी जॉइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर लेवल के अफसरों के खिलाफ जांच और छानबीन के लिए पहले केंद्र से संबंधित विभाग की सक्षम अथॉरिटी से इजाजत लेना जरूरी था, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है उससे यह अनिवार्यता खत्म हो जाएगी। पहले सीबीआई के पास जब बड़े अफसर के खिलाफ करप्शन से जुड़े सबूत भी होते थे तो जांच एजेंसियां न तो पीई (प्रारंभिक जांच) कर पाती थी और न ही पूछताछ। सीबीआई या जांच एजेंसियां पहले सक्षम अथॉरिटी के सामने सबूत देकर इजाजत मांगती थी। इस प्रक्रिया में छानबीन से जुड़े साक्ष्य लीक होने का खतरा बना रहता था। इजाजत लेने में कई बार सालों निकल जाते थे और मामले की छानबीन अधर में लटक जाती थी। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसियों को यह अधिकार दे दिया है की वे सरकार से बिना अनुमति के भी भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती हैं।
सीबीआई कर रही मप्र के दागी अधिकारियों की केस स्टडी
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और राज्य सरकार के रूख को देखते हुए प्रदेश के अफसरों की जान सांसत में फंसी हुई है,क्योंकि लोकायुक्त और इओडब्ल्यू में जिन अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं उनके केस की स्टडी इनदिनों सीबीआई कर रही है। बताया जाता है कि जिन नौकरशाहों पर केस दर्ज है उनके अलावा करीब 3 दर्जन और अधिकारियों की शिकायत प्रदेश भर से सीबीआई के पास पहुंची है। वर्तमान में प्रदेश में 417 आईएएस के पद हैं,लेकिन तैनाती 311 की ही है। पिछले दस साल में इनमें से एक-एक करके इतने नौकरशाहों पर भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हुए हैं कि, अब उनकी गिनती भी मुश्किल नजर आने लगी है। वह भी ऐसे में जब लोकायुक्त संगठन में पहुंचने वाली शिकायतों में से जांच के बाद 10 फीसदी मामलों में ही आपराधिक प्रकरण दर्ज हो पाते हैं। फिर यह मामला नौकरशाहों का हो तब तो प्रकरण दर्ज होना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है।
फिर से खुलेगी इनकी फाइल
सुप्रीम कोर्ट के रूख और जांच एजेंसियों के स्वतंत्र करने के निर्देश में प्रदेश सरकार एक बार फिर से उन दागी अधिकारियों की फाइल खोलने जा रही है जिनके केस वर्षों से दबे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि बीते वर्षो में एक ओर लोकायुक्त जहां सरकार से अधिकारियों के खिलाफ चालान पेश करने की अनुमति के लिए छटपटा रहा है,वहीं दूसरी ओर संगठन ने ऊपरी दबाव में साक्ष्य के अभाव बताकर 25 से ज्यादा मामलों में खात्मा लगा दिया गया था। इनमें एमए खान,एके श्रीवास्तव, होशियार सिंह , आरके गोयल, जगत स्वरूप, राकेश बंसल, एलएन मीणा, रामजी टांडेकर, आईसीपी केसरी, मोहन गुप्ता, बीआर नायडू, बीएल खरे, एके जैन, मोहम्मद सुलेमान और शहजाद खान शरीक हैं। इनमें से कुछ अब इस दुनिया में नहीं जबकि कुछ सेवानिवृत्त हो चुके हैं। ऐसा फायदा अन्य दागी अधिकारियों को न मिले इसके लिए एक बार फिर से पुरानी फाइलें खोले जाने की तैयारी चल रही है। वैसे मध्यप्रदेश लोकायुक्त वर्तमान में प्रदेश के लगभग 36 आईएएस अधिकारियों के खिलाफ जांच कर रहा है। लोकायुक्त संगठन के अलावा अन्य जांच एजेसियों में अफसरों के खिलाफ लंबित मामलों की लंबी फेहरिस्त है। यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि मप्र के लगभग 25 आईएएस अधिकारियों की जांच मप्र आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो कर रहा है। अब ऐसे सभी अधिकारियों के खिलाफ एक बार फिर से जांच होगी।
सीबीआई भी जुटी जांच में उधर,सूत्र बताते हैं कि वर्षों से लोकायुक्त और इओडब्ल्यू में भ्रष्टाचार के जो मामले लंबित हैं उनकी जानकारी सीबीआई में भी मंगाई है। सीबीआई के पास जिन अधिकारियों का केस पहुंचा है उनमें उन अधिकारियों का नाम है जिनके खिलाफ लोकायुक्त में वर्ष 2009 से भ्रष्टाचार की जांच चल रही है। इस सूची में प्रदेश के वर्तमान मुख्य सचिव एंटोनी डिसा और पूर्व मुख्यसचिव राकेश साहनी सहित तीन दर्जन आईएएस अफसरों के नाम शामिल थे। इनमें कुछ अफसरों को लोकायुक्त क्लीन चिट दे दी है।
अफसरों के नाम व आरोप - एंटोनी डिसा - निविदा स्वीकृति में अनियमितताएं - राकेश साहनी - पुत्र को 5 लाख रूपए कम में विमान प्रशिक्षण दिलाया - मनीष श्रीवास्तव त्रैमासिक अर्धवार्षिक परीक्षा के मुद्रण कार्य में घोटाला - अरूण पांडे खनिज लीज में ठेकेदारों को अवैध लाभ पंहुचाना - प्रभात पाराशर - वाहनों के क्रय में 5 लाख से अधिक का भ्रष्टाचार - गोपाल रेड्डी - कालोनाईजरों को अनुचित लाभ पहुंचाना, शासन को आर्थिक हानि पहुंचाना - अनिता दास - ऊन तथा सिल्क साडिय़ों के क्रय में भ्रष्टाचार - दिलीप मेहरा - कार्यपालन यंत्री से अधीक्षण यंत्री की पदोन्नति में अनियमितताएं - मोहम्मद सुलेमान - कालोनाईजरों को अवैध लाभ पंहुचाना - टी राधाकृष्णन - दवा खरीदी में अनियमितताएं - एसएस उप्पल - पांच लाख रूपए लेकर भूमाफियाओं को अनुज्ञा दी - अस्ण भट्ट - भारी रिश्वत लेकर निजी भूमि में अदला बदली - निकुंज श्रीवास्तव - पद का दुरूपयोग एवं भ्रष्टाचार, दो शिकायतें - एमके सिंह - तीन करोड़ रूपए का मुद्रण कार्य आठ करोड़ रूपए में कराया - एमए खान - भ्रष्टाचार एवं वित्तिय अनियमितताएं, तीन शिकायतें - संजय दुबे - शिक्षाकर्मियों के चयन में अनियमितताएं - रामकिंकर गुप्ता - इंदौर योजना क्रमांक 54 में निजी कंपनी को सौ करोड़ रूपए का अवैध लाभ पंहुचाया - एमके वाष्र्णेय - सम्पत्तिकर का अनाधिकृत निराकरण करने से निगम को अर्थिक हानि - आरके गुप्ता - निविदा स्वीकृति में अनियमितताएं - केदारलाल शर्मा - सेन्ट्रीफयूगल पम्प क्रय में अनियमितताएं - शशि कर्णावत - पद का दुरूपयोग, दो शिकायतें - केके खरे - पद का दुरूपयोग कर भ्रष्टाचार - विवेक अग्रवाल - 21 लाख रूपए की राशि का मनमाना उपयोग - एसके मिश्रा - खनिज विभाग में एमएल, पीएल आवंटन में भ्रष्टाचार - महेन्द्र सिंह भिलाला - 75 लाख रूपए की खरीदी में अनियमितताएं - अल्का उपाध्याय - भारी धन राशि लेकर छह माह तक दवा सप्लाई के आदेश जारी नहीं किए - सोमनाथ झारिया - 4 वर्षों से भ्रष्टाचार एवं पद का दुरूपयोग करना - डा. पवन कुमार शर्मा - बगैर रोड़ बनाए ठेकेदार को पांच लाख का भुगतान करना
ईओडब्लू जांच के दायरे मे 25 आईएएस अफसरों के नाम व आरोप - पी नरहरि - सड़क निर्माण व स्टाप डेम में गड़बड़ी - तरूण गुप्ता - फर्जी यात्रा देयक - आरके गुप्ता - इंदौर में मैंकेनिक नगर में गलत तरीके से लीज - डीके तिवारी - ट्रेजर आईलैंड की भूमि उपांतरित करने में गड़बड़ी - एवी सिंह - ट्रेजर आईलैंड की भूमि उपांतरित करने में गड़बड़ी - एसएस अली - फर्जी फर्मों के द्वारा सर्वे सामग्री एवं कम्प्यूटर खरीदी - एमके अग्रवाल - फर्जी फर्मों के द्वारा सर्वे सामग्री एवं कम्प्यूटर खरीदी - राजेश मिश्रा - फर्जी दस्तावजों के आधार पर आचार सत्कार शाखा में गड़बड़ी - शिखा दुबे - अनुसूचित जाति, जनजाति के विधार्थियों की गणवेश खरीदी में अनियमितता - जीपी सिंघल - सेमी ओटोमेटिक प्लांट की जगह प्राइवेट डिस्टलरी से देशी शराब की वाटलिंग कराने का आरोप -स्व. टी धर्माराव - सेमी ओटोमेटिक प्लांट की जगह प्राइवेट डिस्टलरी से देशी शराब की वाटलिंग कराने का आरोप - योगेन्द्र कुमार - शराब की दूकान बंद कराने की धमकी देकर लाईसेंसधारियों से अवैध वसूली - आरएन बैरवा - अनुसूचित जाति के छात्रों के भोजन बजट में गड़बड़ी - मनीष रस्तोगी - सतना में रोजगार गारंटी योजना में 10 करोड़ की अनियमितता - विवेक पोरवाल - सतना में रोजगार गारंटी योजना में 10 करोड़ की अनियमितता - हरिरंजन राव - रायल्टी का भुगतान नहीं करने से शासन को लाखों की चपत लगाई - अंजू सिंह बघेल - नरेगा में भुगतान की गडगड़़ी - एसएस शुक्ला - बाल श्रमिक प्रशिक्षण में आठ करोड़ रूपए का दुरूपयोग - सीबी सिंह - बिल्डर्स को लाभ पहुंचाने के लिए अवैध निर्माण व बिक्रय - प्रमोद अग्रवाल - औधोगिक केन्द्र विकास निगम में अनियमितताएं - आशीष श्रीवास्तव - एमपीएसआईडीसी की राशि का एक मुश्त उपयोग कर बैंक लोन पटाने का मामला - संजय गोयल - नरेगा में कुंआ निर्माण में अनियमितता - निकुंज श्रीवास्तव - रेडक्रास सोसाइटी में आर्थिक गड़बड़ी - एसएन शर्मा - ट्रांसफर के बाद बंगले पर फाइलें बुलाकर आम्र्स लायसेंस स्वीकृत किए - मनीष श्रीवास्तव - चार शिकायतें, शिवपुरी, टीमकगढ़ में अर्धवार्षिक परीक्षा में गलत भुगतान, राजीव गांधी शिक्षा मिशन में निर्माण में अनियमितता, दवा व बिस्तर खरीदी में गड़बड़ी, उत्तर पुस्तिका छपाई और गणवेश खरीदी और खदानों का गलत तरीके से आवंटन आदि।
लोकायुक्त और अधिक होगा सशक्त अब सुप्रीम कोट के रूख को देखते हुए मध्य प्रदेश सरकार लोकायुक्त को और अधिक सशक्त बनाने जा रही है। पिछले दस साल में लोकायुक्त की छापामार कार्रवाई से चपरासी से लेकर अफसरों तक के करोड़पति होने का खुलासा होने पर पूरी सरकार की किरकिरी हो रही है। मध्यप्रदेश लोकायुक्त के पास 11 मंत्रियों, 49 आईएएस, 11 आईपीएस और 100 से अधिक पीसीएस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतें हैं लेकिन सरकार की ओर से इन मामलों में इनके खिलाफ अभियोजन की अनुमति नहीं दी गई है। बीते तीन साल में लोकायुक्त ने मध्यप्रदेश में रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने के 361 मामलों, पद का दुरुपयोग करने के 66 और अनुपातहीन संपत्ति के 114 मामलों में कार्यवाही की है। लोकायुक्त ने अब तक लगभग 663 करोड़ रुपए की बकाया राशि भी वसूल की है। इन सब को देखते हुए सरकार अब कठोर कदम उठाने की तैयारी कर चुकी है। इसलिए वह विधि विशेषज्ञों से लोकायुक्त को और सशक्त बनाने का सुझाव ले रही है। लोकायुक्त पी पी नावलेकर का भी कहना है कि लोकायुक्तों के पास भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के भरपूर अधिकार नहीं हैं। जिससे मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम नहीं लग सकती है। उन्होंने कहा कि शिवराज को केंद्र सरकार के लोकपाल बिल की तरह राज्य के लोकायुक्त कानून में बदलाव लाने चाहिए। अगर लोकायुक्त को वो पावर दी जाती हैं तो भ्रष्टाचार निवारण में लोकायुक्त ज्यादा कारगर होगा। विधि विशेषज्ञ भी कहते हैं कि वाकई यदि लोकायुक्त कारगर हो तो उसके महत्व प्रदेश सरकार के लिए फलदायी भी साबित हो सकता है। मध्यप्रदेश की जो संपत्ति राज्य के बाहर थी, उसका सही-सही पता प्रदेश सरकार को भी नहीं था। क्योंकि प्रदेश सरकार के पास ऐसा कोई महकमा नहीं है, जो राज्य की सीमा से बाहर स्थित संपत्ति की जानकारी रखे। किंतु अब लोकायुक्त ने पता किया है कि प्रदेश की संपत्ति केरल और महाराष्ट्र में फैली हुई है। केरल में प्रदेश सरकार की 300 एकड़ जमीन है। इस पर अवैध कब्जाधारी चाय के बागान लगाए हुए हैं। इसी तरह मुंबई में 500 एकड़ जमीन है। इसे कब्जाधारियों से मुक्त कराने के लिए अदालती कार्रवाई विचाराधीन है। लोकायुक्त यदि उन सामंतों की जमीनों की भी पड़ताल करेगी, जिनको मध्यभारत में विलय करते वक्त गुजारे के लिए कुछ निशिचत परिसंपत्तियां दी गर्इं थीं,बाद में उन्होंने राजस्व दस्तावेजों में हेराफेरी कराकर तमाम अराजियां फिर से हड़प लीं। इनमें से ज्यादातर अचल संपत्तियां नगरीय क्षेत्रों में हैं और उनका बाजार मूल्य अरबों में है। ये संपत्तियों यदि वापस होती हैं तो राज्य सरकार की माली हालत तो सुधरेगी ही, उन पूर्व सामंतों के मुख से नकाब उतरेगा, जो लोक कल्याण का मुखौटा लगाकर देश-प्रदेश की राजनीति में अपना वजूद बनाए हुए हैं।
इनके मामले की भी होगी जांच प्रदेश के उन कुछ चर्चित मामलों की भी फिर से जांच होगी,जो वर्षों से लंबित है। उनमें से मप्र विद्युत मंडल में विद्युत मीटर खरीदी मामले में लोकायुक्त में पुन: जांच शुरू हो गई है। मप्र विद्युत मंडल में सदस्य (वित्त) रहते हुए अजीता वाजपेयी ने विद्युत मीटर खरीदी की थी जिसमें कई करोड़ों के घोटाले का आरोप है। उल्लेखनीय है कि लोकायुक्त पुलिस में दस साल में 19 आईएएस अफसरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं लेकिन पांच वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य नहीं होने का कारण बताकर अदालत में उनके मामलों का खात्मा भेज दिया गया। दो अधिकारियों के मामले में विशेष न्यायालयों के निर्णय को लेकर लोकायुक्त पुलिस की ओर से हाईकोर्ट में अपील की गई है। इनमें से सर्वाधिक तीन-तीन मामले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी यूके सामल, सेवारत आईएएस अधिकारी राजेश राजौरा और आरके गुप्ता के खिलाफ हैं। रमेश थेटे के खिलाफ भी दो मामले दर्ज हो चुके हैं जिनमें से रिश्वत लेते पकड़े जाने के एक मामले में थेटे को विशेष न्यायालय ने सजा दी थी। इसके बाद उन्हें सेवा से पृथक कर दिया गया। फिर उन्हें हाईकोर्ट ने बरी किया लेकिन लोकायुक्त पुलिस इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील में गई है। इसके अलावा दो प्रशासनिक अधिकारी अशोक देशवाल और लक्ष्मीकांत द्विवेदी के खिलाफ जब प्रकरण दर्ज हुआ था तब उन्हें आईएएस नहीं मिला था। अभी वे आईएएस अधिकारी हैं। उनके खिलाफ भी लोकायुक्त पुलिस में दो एफआईआर दर्ज हैं। एक अन्य आईएएस संजय शुक्ला ने नगर निगम आयुक्त के कार्यकाल में दो करोड़ रुपए की खरीदी की थी जिसमें सामग्री की कीमत केवल 96 लाख रुपए पाया जाना प्रमाणित हुआ है। इस प्रकार उन पर बिना टेंडर, कोटेशन के एक करोड़ चार लाख रुपए का एक फर्म को लाभ पहुंचाया। हैरानी की बात यह है कि वे इस समय प्राइम पोस्ट पर हैं। रतलाम कलेक्टर और नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष की हैसियत से विनोद सेमवाल ने विनोद पारिख नाम के व्यक्ति को शहरी क्षेत्र की जमीन दे दी। कटनी में हाउसिंग बोर्ड के प्रोजेक्ट के लिए ज्यादा कीमत पर जमीन खरीदी का मामला तत्कालीन आयुक्त हाउसिंग बोर्ड राघवचंद्रा और कटनी कलेक्टर शहजाद खान के अब तक गले पड़ा हुआ है। इसमें विशेष न्यायालय ने खात्मा निरस्त कर दिया और हाईकोर्ट ने इसे मान्य कर लिया। अब इस मामले से जुड़ा एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट चला गया है। वहीं शिवपुरी भू-अर्जन अधिकारी के रूप में एलएस केन ने आईटीबीपी के लिए अधिग्रहित जमीन का मुआवजा किसानों को नहीं देकर मध्यस्थ को दे दिया था। हालांकि 26 मार्च 2014 को शिवपुरी के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने छत्तीसगढ़ में पदस्थ आईएएस अधिकारी एलएस केन और डिप्टी कलेक्टर आरएन शर्मा को का दोषी मानते हुए दो-दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई है। दोषियों पर 10-10 हजार रुपए का अर्थदंड भी लगाया गया है। सजा सुनाने के बाद अदालत ने एलएस केन की जमानत भी मंजूर कर ली। मूलत: ग्वालियर जिले के भितरवार क्षेत्र के रहने वाले एलएस केन इस समय रायपुर में ज्वाइंट सेक्रटरी फॉरेस्ट हैं।

बाघ संरक्षण में सबसे पिछड़ मध्यप्रदेश

अब कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा की Ó वैरी गुडÓ रैंकिंग दांव पर
एक दशक में प्रदेश में 467 बाघों का हुआ शिकार
भोपाल। अभी कुछ साल पहले तक टाइगर स्टेट के नाम से विख्यात मध्य प्रदेश में लगातार बाघों की मौत हो रही है। जिससे प्रदेश से टाइगर स्टेट का दर्जा तो छिन ही गया है अब कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व की Ó वैरी गुडÓ रैंकिंग भी दांव पर लग गई है। क्योंकि प्रदेश में एक साल में 14 बाघों की मौत हुई है,जिससे प्रदेश के बाघ संरक्षण पर सवाल उठने लगा है। आंकड़े सरकार की बेबसी को दर्शाते हैं। 2001-02 में मध्यप्रदेश के 6 नेशलन पार्क में कुल 710 बाघ थे। जब 2011 में गिनती हुई तब बाघों की संख्या कम होकर 257 रह गई। अब इसमें लगातार कमी आ रही है। पिछले एक दशक में मप्र में करीब 467 बाघों का शिकार हुआ है। प्रदेश में बाघों की सुरक्षा को लेकर सरकार चाहे कितने दावे करे, लेकिन हकीकत यही है कि प्रदेश बाघों की कब्रगाह बनता जा रहा है। वर्ष 2013 में प्रदेश में 14 बाघों की मौत हो चुकी है। इनमें से अधिकांश बाघ अवैध शिकार की भेंट चढ़े हैं। यह खुलासा राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण की वर्ष-2013 की जारी रिपोर्ट में हुआ है। हालांकि सरकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि प्रदेश में बाघों का शिकार हो रहा है। एनटीसीए द्वारा देश में 2013 में हुई बाघों की मौत के आंकडे जारी किए गए हैं। एनटीसीए की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में 67 बाघों की मौत स्वभाविक मृत्यु और कई मामलों में शिकार की बात सामने आई है। साथ ही देश के टॉप-10 की सूची में कर्नाटक और मप्र में 14 बाघों की मौत हुई है। वहीं महाराष्ट्र में 10 और उत्तराखंड में 9 बाघों की मौत हुई है। बाघों की मौत के कारण मप्र से टाईगर स्टेट का दर्जा तो पहले ही छिन चुका है, इसके बाद भी सरकार बाघों की सुरक्षा को कोई ठोस पहल नहीं कर पाई। संरक्षित क्षेत्रों के साथ ही अन्य वन्य क्षेत्रों में बाघों की मौत के मामले लगभग हर माह सामने आए। साल की शुरूआत में 2 फरवरी को पन्ना टाईगर रिजर्व में एक बाघ की मौत हुई। इस मामले में वन विभाग ने जांच कमेटी बनाकर खानापूर्ति कर दी है।
सरकार को पर्यटन की चिंता
इन दिनों मध्यप्रदेश सरकार को बाघों की कम और बाघों को देखने आने वाले पर्यटकों की चिंता अधिक है। प्रदेश में वर्ष 2013-14 में आने वाले पर्यटकों की संख्या 6.33 करोड़ तक पहुंच गई। इसलिए पर्यटकों के लिए लगातार सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है, पर बाघों का शिकार करने वाले अभी तक कानून की पहुंच से दूर हैं। पिछले एक साल में जिस तरह से शिकारियों द्वारा बाघों का शिकार किया गया है, उससे यही लगता है कि बाघों का शिकार इलेक्ट्रिक तार में करंट देकर किया गया है। सभी मामलों में शिकारी इतने चालाक दिखाई दिए कि वन विभाग का अमला मृत बाघ तक पहुंचे, इसके पहले बाघ के तमाम अवशेष गायब कर दिए जाते हैं। देश में कुल 40 टाइगर रिजर्व में से अधिक 6 मध्यप्रदेश में ही हैं। पिछले एक दशक में मध्यप्रदेश के विभिन्न अभयारण्यों में कुल 467 बाघ कम हुए हैं। इनमें से अभी तक केवल दो व्यक्तियों पर ही बाघ की हत्या के मामले में सजा हुई है। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि बाघों की सुरक्षा को लेकर मध्यप्रदेश सरकार कितनी चितिंत है? वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश में पिछले दो दशक में 986 बाघों की हत्या हुई है। ये आंकड़े केवल हत्या के हैं। कई बाघ प्राकृतिक तौर पर मृत्यु को प्राप्त होते है। इनकी संख्या भी काफी अधिक है। बाघों की मौत के संबंध में मध्यप्रदेश पूरे देश में आगे है। यहां अभी तक बाघों के संरक्षण के लिए कोइ ठोस नीति नहीं बन पाई है और न ही बाघों की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों पर किसी तरह की कठोर कार्यवाही हुई है। जो शिकारी पकड़े गए है, उन्हें भी मामूली सजा हुई है। इससे शिकारियों में किसी प्रकार की दहशत नहीं है। इससे यह सवाल बना हुआ है कि राज्य में बाघों का संरक्षण कैसे होगा।
अब रैंकिंग की चिंता
मध्यप्रदेश में लगातार बाघों की मौत के कारण छह टाइगर रिजर्व को इस बार देशभर के टाइगर रिजर्व के मुकाबले अच्छी रैंकिंग मिलना कुछ मुश्किल दिख रहा है। हर चार साल में होने वाली इस रैंकिंग में पिछली बार 2010-11 में मप्र के चार टाइगर रिजर्व कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा को 10 में से 10 नंबर मिले थे और उन्हें 'वैरी गुडÓ की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन 2014-15 में हो रही रैंकिंग में मप्र की स्थिति कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि प्रदेश में एक साल में 14 टाइगर की मौत हो चुकी है, जिसमें अव्यवस्था, बाहरी दखल और फील्ड अधिकारियों की लापरवाही बड़ा कारण रही। ऐसे में पिछले परिणाम को दोहराना भी चुनौतीपूर्ण लग रहा है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा गठित चार सदस्यीय मैनेजमेंट इफेक्टिवनेस इवॉल्यूशन (एमईई) टीम ने प्रदेश का दौरा कर यहां के हालात का जायजा लिया। टीम में कर्नाटक के सेवानिवृत्त चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन बीके सिंह, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट देहरादून के सेवानिवृत्त आईएफएस अफसर त्यागी, एनटीसीए नागपुर के रविकरण तथा वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के समिति सिंह शामिल थे। इस टीम ने 32 पैरामीटर के आधार पर यहां के नेशनल पार्कों का आंकलन किया और इसके आधार पर रैंकिंग तय करेगी। एनटीसीए इस रैंकिंग रिपोर्ट को एक साल के भीतर सार्वजनिक तथा वेबसाइट पर जारी करेगा। इसे ध्यान में रखकर टूर ऑपरेटर देश-विदेशों में मार्केटिंग करते हैं, जिससे टूरिस्टों की संख्या बढ़ती है। इसके अलावा यह भी पता लगता है कि चार साल में जितनी राशि एक टाइगर रिजर्व पर खर्च हुई है, उसका प्रभाव कितना है? मप्र के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन नरेंद्र कुमार कहते हैं कि एनटीसीए का रैंकिंग करने का अपना पैरामीटर है। देश के सभी टाइगर रिजर्व का आकलन हो जाएगा तो साल के आखिर में रिपोर्ट जारी हो जाएगी। मप्र के टाइगर रिजर्व को पूर्व से भी बेहतर स्थिति में आने की उम्मीद है।
प्रदेश में कठोर कानून नहीं
आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार मामले में कठोर कानून नहीं है। वह कहते हैं कि प्रदेश की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मध्यप्रदेश के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। मंडला जिले के कान्हा नेशनल पार्क में हुई बाघ की मौत का 17 मई 1975 से दर्ज एक प्रकरण अदालत में फैसले के लिए अब तक लंबित है, जबकि बालाघाट जिले में 25 सितंबर 1979 को हुई एक बाघ की मौत का मामला अब तक फैसले की बाट जोह रहा है। दुबे के मुताबिक कान्हा नेशनल पार्क में बाघ के शिकार के छह, पेंच नेशनल पार्क में पांच और पन्ना नेशनल पार्क व सतपुड़ा नेशनल पार्क में 4-4 मामले अदालतों में हैं। ये सभी मामले वर्ष 1975 से 2008 के बीच दर्ज किए गए थे। वह बताते हैं कि वर्ष 2002 से 2012 के बीच करीब 337 बाघ कथित रूप से शिकार, आपसी लड़ाई, दुर्घटना और बुढ़ापे के कारण मारे गए। सबसे ज्यादा 58 बाघ वर्ष 2009 में मारे गए, जबकि वर्ष 2011 में 56, 2008 में 36, 2007 व 2002 में प्रत्येक में 28-28 बाघों की मौत विभिन्न कारणों से हुई। इनमें 68 बाघ शिकार के कारण असमय काल के ग्रास बने।
फंड के अभाव में रूका गांवों का पुनर्वास
प्रदेश के नेशनल पार्कों में बसे 703 गांवों के निवासी भारी प्रतिबंध में जीने को मजबूर हैं। बड़ी पीड़ा ये है कि पीढिय़ों से जिस जमीन को किसान जोतता चला आ रहा है उस पर मालिकाना हक वन विभाग का है, किसान मात्र पट्टेदार है, जिसके चलते बुरे वक्त में किसान न तो जमीन बेच सकता है, न ही गिरवी रख सकता है। पार्कों में बसे ग्रामीण ही नहीं, बल्कि वहां के वन्य प्राणियों का जीवन भी असहज है। आए दिन मानव-वन्य प्राणी के बीच द्वंद्व की स्थिति बनती है। हालांकि इन गांवों को आरक्षित वन क्षेत्रों से बाहर निकालने के लिए राज्य को केंद्र से पैसा मिलता है, लेकिन ये राशि ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है। यही वजह है कि पिछले 50 साल में कुल 821 गांवों में से अब तक मात्र 118 का ही पुनर्वास हो सका है। राज्य सरकार ने पार्कों के क्रिटिकल जोन में बसे 105 गांवों को चिन्हित कर आरक्षित वन क्षेत्र से बाहर निकालने के लिए 3,500 करोड़ का प्रस्ताव केंद्र को भेजा है, लेकिन फंड के अभाव में प्रस्ताव लंबे समय से अटका है। हाल ही में भोपाल प्रवास पर आए एसएस गब्र्याल महानिदेशक केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से मुख्य सचिव अंटोनी जेसी डिसा ने भी गांवों के पुनर्वास के लिए पैकेज देने की बात कही। उन्होंने कहा कि 105 गांवों के पुनर्वास पर लगभग 3,600 करोड़ का खर्च आ रहा है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना में 100 करोड़ रु. राज्य के पास शेष बचे हैं, ऐसे में 3,500 करोड़ रु. की अतिरिक्त आवश्यकता है। नरेन्द्र कुमार पीसीसीएफ वन्य प्राणी का कहना है कि यदि गांवों को पार्कों से बाहर निकालने में देरी की गई तो इनके पुनर्वास के खर्च में खासी बढ़ोतरी हो जाएगी। वन सीमा में परिवर्तन की दें अनुमति वन्य प्राणी मुख्यालय ने केंद्र के सामने यह भी प्रस्ताव रखा है कि नान क्रिटिकल एरिया में बसे 174 गांव और नेशनल पार्क की परिधि में बसे 424 गांवों को विस्थापित करने के लिए यदि फंड का अभाव है, तो ऐसी स्थिति में केन्द्र चाहे तो वन सीमा में परिवर्तन कर इन्हें वन संरक्षित क्षेत्र वाले ग्रामों से मुक्ति दी जा सकती है। वन्य प्राणी अधिनियम के तहत वन क्षेत्रों में बसे गांवों में विकास भी प्रभावित होता है साथ ही उन्हें ग्रामीणों को अन्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। प्रति परिवार 10 लाख का मुआवजा नेशनल पार्कों में बसे गांवों के विस्थापन पर राज्य सरकार को प्रति परिवार 10 लाख का मुआवजा देना होता है। इतना ही नहीं परिवार के 18 वर्ष के सदस्य को पृथक परिवार मानकर उसे भी 10 लाख का मुआवजा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में वन ग्रामों में प्रतिबंध की जिंदगी जी रहे ग्रामीणों को विस्थापन पर बेहतर जीवन का अवसर मिलता है।
मैदानी इलाके में स्टाफ की कमी
मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 9 नेशनल पार्क तथा 25 अभ्यारण्य भी आते हैं, लेकिन फारेस्ट अमले का सबसे ज्यादा ध्यान टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, पन्ना, पेंच, बांधवगढ़ तथा सतपुड़ा नेशनल पार्क पर रहता है। इसके बावजूद कान्हा में टाइगरों के अवैध शिकार की घटनाएं बढ़ती जा रही है। 94 हजार वर्ग किमी जंगलों की सुरक्षा के लिए फील्ड में सरकार ने मुख्य भूमिका में वन क्षेत्रपाल रेंजर के 1192, सहायक वन क्षेत्रपाल डिप्टी रेंजर के 1257 तथा वनरक्षकों के 13 हजार 997 पद स्वीकृत किए थे। यानी इसी महकमे पर अवैध शिकारियों, अवैध कटाई, अवैध उत्खनन को रोकने की जिम्मेदारी है। वर्तमान में स्वीकृत रेंजर के 1192 पदों में से 816, डिप्टी रेंजर के 1257 में से 1089 तथा वनरक्षकों के 13 हजार 997 में से 11 हजार 322 ही सुरक्षा, प्रबंधन, वृक्षारोपण की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। यानी रेंजर के सबसे ज्यादा पद जबलपुर वनवृत्त में कान्हा नेशनल पार्क सहित 115 स्वीकृत हैं। इसके बाद भोपाल के लिए 108, खण्डवा में 104 पद स्वीकृत है, जबकि बालाघाट में 69, बैतूल में 61, छतरपुर में 71, छिंदवाड़ा में 61 ग्वालियर में 61, होशंगाबाद में 60, इंदौर में 57, रीवा में 94, सागर में 58, सिवनी में 63, शहडोल में 65, शिवपुरी में मात्र 38, उज्जैन में 60, फारेस्ट मुख्यालय में 7 तथा प्रतिनियुक्ति के 40 पद शामिल हैं। इसी तरह डिप्टी रेंजर के बालाघाट में 96, बैतूल में 73, भोपाल में 100, छतरपुर में 57, छिंदवाड़ा में 82, ग्वालियर में 37, होशंगाबाद में 68, इंदौर में 72, जबलपुर में 170, खण्डवा में 102, रीवा में 87, सागर में 65, सिवनी में 74, शहडोल में 61, शिवपुरी में 36, उज्जैन में 71, मुख्यालय में 6 पद शामिल हैं। साथ ही वनरक्षकों के सबसे ज्यादा बालाघाट में 900, भोपाल में 1192, जबलपुर में 1300, खण्डवा में 1244, बैतूल में 767, छतरपुर में 870, रीवा में 817, सागर में 800, सिवनी में 850, इंदौर में 760, होशंगाबाद में 782 आदि पद शामिल है।

चुनाव परिणाम से चकराया बलखडिय़ा...डाला पाठा के जंगलों में डेरा

मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश के 300 गांवों में छाया खौफ
भोपाल। लोकसभा चुनाव में करीब आधा दर्जन से अधिक सीटों पर अपने मनपसंद उम्मीदवार की हार के बाद दस्यु सरगना स्वदेश सिंह बलखडिय़ा और उसका गिरोह चकरा गया है और बड़ी वारदात करने के लिए पूरे गैंग के साथ पाठा(उत्तर प्रदेश के बांदा-चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना व रीवा के इस इलाके को पाठा के नाम से जाना जाता है। पाठा, जिसकी पहचान खाकी की फाइलों में खूंखार दस्यु गिरोहों की आरामगाह के रूप में होती आई है। ) के जंगलों में डेरा डाले हुए है। बुंदेलखंड के तराई वाले इन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में पडऩे वाली लोकसभा सीटों पर सपा और अपने अन्य कुछ पसंदीदा उम्मीदवारों को वोट देने के लिए बलखडिय़ा ने फरमान जारी किया था,लेकिन इस बार न तो मध्यप्रदेश और न ही उत्तरप्रदेश के लोगों ने उसकी सुनी। इसका परिणाम यह हुआ की जिन-जिन उम्मीदवारों को बलखडिय़ा ने वोट देने को कहा था उनकी हार हो गई। कई उम्मीदवार तो अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। बताते हैं कि अपने उम्मीदवारों के हारने के बाद दस्यु सरगना ने तराई क्षेत्र में आने वाले 300 गांवों के लोगों का इसका परिणाम भुगतने की चुतावनी दी है। इससे इन गांवों में दहशत फैली हुई है। उल्लेखनीय है कि मप्र और उप्र में आने वाले तराई क्षेत्र के जंगलों में उत्पादित होने वाले तेंदूपत्ते की तुड़ाई और संग्रह को देखते हुए दस्यु गिरोह लेवी वसूलने के लिए हर साल इस समय सक्रिय हो जाता है। इस साल लोकसभा चुनाव होने के कारण क्षेत्र में केंद्रीय सुरक्षा बलों की मौजुदगी को देखते हुए 6 लाख का ईनामी स्वदेश सिंह बलखडिय़ा और उसका 30 सदस्यीय गिरोह अंडरग्राउंड ही रहा और अपना फरमान तेंदूपत्ता तुड़ाई का ठेका लेने वाले ठेकेदारों और वोटरों तक पहुंचाता रहा। अब जब चुनाव परिणाम आ गए हैं और उसने जिन लोगों को वोट दिलाने का ठेका लिया था,उनकी हार के बाद वह बिलबिला गया है। उसने पाठा क्षेत्र के लोगों को धमकाना शुरू कर दिया है।
9 करोड़ में लिया था ठेका
बताते हैं कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने थोकबंद वोट के लिए बलखडिय़ा को करीब 9 करोड़ रूपए दिए थे। बलखडिय़ा ने मप्र की रावा,सतना,सीधी,शहडोल और उप्र की मिर्जापुर,इटावा,बांदा सहित कुछ अन्य सीटों के लिए सौदा किया था,लेकिन जनता ने वोट की चोट ऐसी दी की उसके समर्थक नेता चारों खाने चित हो गए। बीहड़ों में आने वाले गांवों और आसपास के शहरी क्षेत्रों में लागों के इस बदले रूख को देखते हुए बलखडिय़ा अब हिसाब चुकाने की धमकी दे रहा है। पुलिस के एक आला अधिकारी बताते हैं कि इनामी डाकू बलखडिय़ा की हुकूमत बांदा और चित्रकूट के करीब 300 गांवों में चलती है। जो वो चाहता है, वही होता है। बीहड़ो में कुछ साल पहले तक डाकू ददुआ और ठोकिया की हुकूमत चलती थी। अब सुदेश पटेल उर्फ बलखडिय़ा की चल रही है। बलखडिय़ा की एक और पहचान आज पुलिस रिकार्ड में आईएस 262 के नाम से भी है। डाकू बलखडिय़ा के साथियों ने बीहड़ी गांवो में घूम-घूमकर एलान करना शुरू कर दिया है कि जिसने हमारे उम्मीदवार को वोट नहीं दिया है वे बुलेट खाने के लिए तैयार रहे। ठोकिया और रागिया के खात्मे के बाद गैंग लीडर बने बलखडिय़ा के पास न केवल तगड़ा मैन पावर है बल्कि अत्याधुनिक स्वचालित हथियारों का जखीरा भी है। गैंग के पास 2 स्टेनगन, 4 सेमी आटोमैटिक राईफल 5 श्रीनाटथ्री, 4 स्प्रिंगफील्ड राईफल, 8 राईफल 315 बोर, बाकी दोनाली, एक नाली 12 बोर, रिवाल्वर-पिस्टल, बम आदि है। बलखडिय़ा गैंग में 25 वर्षीय बबली कोल और 26 वर्षीय जुग्गी पटेल शार्प शूटर हैं और इन पर सरकार ने दो-दो लाख का इनाम घोषित किया है। यही वजह है कि पिछले दो साल से धड़ाधड़ लाशें गिराकर नरसंहार कर रहे बलखडिय़ा का खौफ आधा दर्जन संसदीय सीट पर सिर चढ़कर बोल रहा है। बांदा के बदौसा से लेकर चित्रकूट के बरगढ़ तक तकरीबन 300 गांवों में बलखडिय़ा की हुकूमत है। इनमें से अधिकांश इलाके के वो गांव शामिल हैं, जो विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं से सटे जंगली इलाकों में हैं। इसके अलावा दर्जनों ऐसे गांव हैं, जहां पुलिस की आमदरफ्त कभी कभार ही होती है। विडंबना यह कि इन इलाकों के लोग शासन-सत्ता पर कम, डकैतों के रहमो करम पर ज्यादा जीते मरते हैं। चित्रकूट के पूर्व पुलिस उपाधीक्षक ओपी राय कहते हैं, बुंदेलखंड में पटेल (कुर्मी) समुदाय डकैत ददुआ को अपना हीरो मानता है। बीहड़ में दो दर्जन से ज्यादा छोटे-छोटे गैंग हैं, जिनकी कमान युवा डकैतों के हाथ में है। इनकी मुख्य गतिविधि अपहरण और सरकारी योजनाओं में लगे ठेकेदारों से पैसा वसूलना है। लेकिन लखनपुर गांव में रहने वाले शिवमोहन कहते हैं,विंध्य के आसपास बसे कुर्मीबहुल इलाकों में लोगों को डाकुओं का उतना खौफ नहीं, जितना कि पुलिस का है। पुलिस पटेल समुदाय के हर व्यक्ति को डकैतों का मददगार समझती है और प्रताडि़त करती है। पिछले दस साल में पुलिस इन इलाकों में 50 से ज्यादा युवाओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 216 के तहत अपराधियों की मदद और संरक्षण देने के नाम पर जेल भेज चुकी है। लिहाजा मानिकपुर, मारकुंडी, बाहिलपुर, भरतकूप, फतेहगंज जैसे इलाकों में आधे से ज्यादा युवा पलायन कर चुके हैं।
अय्याशी के चक्कर में बलखडिय़ा
उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश के सरहदी जिलों में खौफ का दूसरा नाम बन चुके डकैत सुदेश कुमार पटेल उर्फ बलखडिय़ा की जान भी लड़की की वजह से जाएगी? यह सवाल इनदिनों बुंदेलखंड में लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल, पिछले साल उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में दिल्ली पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर को मौत के घाट उतारने वाले बलखडिय़ा ने अपने सौतेले भाई सुंदर पटेल की मौत के बाद कुछ साल पहले गिरोह की कमान संभाली थी। बुंदेलखंड में डकैतों पर नजर रखने वाले पुलिस वाले मानते हैं कि बलखडिय़ा अपने सौतेले भाई सुंदर पटेल की रास्ते पर ही चल रहा है। सुंदर की दो साल पहले सतना जिले में पुलिस से हुई मुठभेड़ में मौत हो गई थी। कई लोग दबी जुबान मानते हैं कि सुंदर की मौत अय्याशी के चलते हुए थी। बताया जाता है कि सुंदर पटेल की करीब एक दर्जन महिलाओं से दोस्ती थी। मोबाइल फोन पर महिलाओं से घंटों बातें करना उसका रोज का शगल था। जिस समय उसका सतना पुलिस से आमना-सामना हुआ वह महिला से ही मिलने आया था। पुलिस को उसके मोबाइल फोन की लोकेशन बार-बार सतना जिले के नयागांव थाना क्षेत्र की मिल रही थी। पुलिस को उसके कब्जे से करीब 40 मोबाइल सिम बरामद हुई थीं। वहीं, ऐसा माना जाता है कि निर्भय गुर्जर की मौत भी गैंग में शामिल महिला डकैतों की ओर से उसके रुझान के चलते हुई थी।
पाठा में डकैत चला रहे हैं 'अपनीÓ सरकार ददुआ और सुंदर पटेल की मौत के बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के एक बड़े इलाके में फैले बुंदेलखंड में एक बार फिर डकैतों ने सिर उठाया है। बुंदेलखंड के पठारनुमा पहाडिय़ों में इन डकैतों का गढ़ है। इन पहाडिय़ों को स्थानीय बोली में 'पाठाÓ कहते हैं। पाठा के बीहड़ों में बसे गांवों में 60 फीसदी से ज्यादा कुर्मी बिरादरी के लोग हैं। इसके अलावा यहां कोल आदिवासियों की भी खासी तादाद है। पाठा में डकैतों का आतंक किस कदर सिर चढ़कर बोल रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चित्रकूट और बांदा जिलों में पिछले 10 महीने के भीतर 17 लोग डकैतों की गोलियों का निशाना बन चुके हैं। पाठा के इन बीहड़ों में डकैती का इतिहास तीन दशक पुराना है, जब यहां डकैत शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ आतंक का पर्याय बनकर सामने आया था। इसके बाद अंबिका पटेल उर्फ ठोकिया उर्फ डॉक्टर ने भी यहां डकैती की कई वारदातों को अंजाम दिया। 22 जुलाई, 2007 को स्पेशल टास्क फोर्स ने ददुआ को मार गिराया था और इसके साल भर बाद 4 अगस्त, 2008 को ठोकिया को भी मौत के घाट उतार दिया गया। ठोकिया के बाद इस गैंग की कमान सुंदर पटेल उर्फ रागिया ने संभाली। इस गैंग के दो मुख्य सदस्य बलखडिय़ा और राम सिंह गौड़ थे। 25 दिसंबर, 2011 को मध्य प्रदेश पुलिस ने सुंदर पटेल को भी मार गिराया। सुंदर पटेल की मौत के बाद सुदेश पटेल उर्फ बलखडिय़ा और राम सिंह गौड़ डाकुओं के मुख्य सरगना रहे, लेकिन इसी साल मार्च में बुंदेलखंड के कुख्यात डकैत बांदा राम सिंह गौड़ की जिले के भदौसा के जंगलों में हत्या कर दी गई थी। राम सिंह गौड़ और बलखडिय़ा गिरोह के बीच गैंगवार चल रही थी। राम सिंह की मौत के बाद उसके साथियों ने राजू गौड़ के गैंग में शामिल हो गए थे और तब उन लोगों ने कसम खाई थी कि वे बलखडिय़ा से राम सिंह की मौत का बदला लेंगे। लेकिन राम सिंह की मौत के बाद बुदेलखंड खासकर यूपी के बांदा, चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना जिलों में बलखडिय़ा गिरोह का वर्चस्व हो गया है। इस समय बलखडिय़ा पर अपहरण, लूट, हत्या और डकैती जैसे कई मामले उस पर दर्ज हैं। सुंदर पटेल गिरोह की तरह बलखडिय़ा का गिरोह भी मध्य प्रदेश और यूपी में वारदातों को अंजाम देता रहा है। सुंदर पटेल गिरोह के डेढ़ दर्जन सदस्यों के आ जाने से बलखडिय़ा गिरोह में डकैतों की संख्या 30 से भी अधिक हो गई है। बलखडिय़ा गिरोह के खास सदस्यों में रामसिंह गोंड, पीलवन उर्फ मदारी गोंड, रामचन्द्र पटेल और झुग्गु पटेल शामिल हैं। गिरोह की ताकत बढ़ जाने से उसका आतंक और बढऩे की संभावना जताई जा रही है। लोगों का अनुमान है कि वे अपने भाई सुंदर पटेल और उसके साथियों की मौत के जिम्मेदार लोगों से भी बदला लेगा।
खड़े बालों की वजह से बलखडिय़ा नाम मिला डकैत सुदेश कुमार पटेल को उसके सिर के खड़े बालों के कारण बलखडिय़ा कहा जाता है। बुंदेलखंड के लोगों का मानना है कि वे सुंदर पटेल से भी ज्यादा खतरनाक है। जब पुलिस से मुठभेड़ में सुंदर पटेल मारा गया था तब उसकी उम्र 60 बरस के आसपास थी जबकि बलखडिय़ा 32 साल का है। उसकी बहादुरी से प्रेरित होकर कुख्यात डकैत ददुआ ने उसे अपनी .375 बोर की रायफल इनाम में भी दी थी। हैं।
बैलेट दो या बुलेट लो बुंदेलखंड के दुरुह बीहड़ों में बचे खुचे छोटे बड़े गिरोह भी दस्युओं अथवा उनके सगे संबंधियों का चुनाव में खुलकर साथ दे रहे थे। बैलेट दो या बुलेट लो की धमकियों वाले फरमान लोगों तक पहुंचाए गए थे। लेकिन इस बार लोगों ने धमकियों की अधिक परवाह नहीं की। बुंदेलखंड के बीहड़ में पहले भी चुनावी राजनीति की बिसात बिछाई जाती थी, लेकिन तब वे किसी जाति विशेष के प्रत्याशी के समर्थन की रणनीति बनाते थे। चुनाव के समय उनके दखल से जीत-हार का फैसला होता था। अब बदले हालात में दस्यु सरदारों का रुझान खुद चुनावी मैदान में कूदने की ओर है। इसमें उन्हें राजनीतिक दलों का साथ भी मिला है। बुंदेलखंड का पाठा क्षेत्र चुनाव के दौरान हमेशा सुर्खियों में रहा है। यहां दस्यु सरगना ददुआ की हुकूमत चलती रही है। ग्राम प्रधान से लेकर विधायक व सांसद तक का चुनाव उसके इशारे पर ही होता रहा है। लोकसभा के इस चुनाव में ददुआ व ठोकिया जैसे खूंखार डकैतों का दहशत तो नहीं थी, लेकिन बलखडिय़ा गिरोह ने पुलिस की नाक में दम कर दिया है। बांदा की जिला जेल में बंद ददुआ का दाहिना हाथ राधे समेत आधा दर्जन खूंखार डकैत वहीं से चुनाव का संचालन कर रहे थे। बांदा संसदीय क्षेत्र के मऊ मानिकपुर, कर्वी और नरैनी विधानसभा क्षेत्रों में जीत हार का फैसला मौजूदा दस्यु गिरोहों के हाथ में होता है। सुदूर जंगली व बीहड़ क्षेत्रों में पुलिस व प्रशासन निष्क्रिय है। अभावग्रस्त पाठा में ददुआ के गुरु गया और राजा रगौली जैसे तीन दर्जन से अधिक डकैतों का सीधा हस्तक्षेप है। स्थानीय पुलिस का कहना है कि वामपंथ की अलख जगाने वाले कामरेड राम सजीवन इस क्षेत्र से तीन बार सांसद व चार बार विधायक रह चुके हैं। उन्होंने यह कारनामा कथित तौर पर दस्यु ददुआ की बदौलत किया है। मायावती सरकार में मंत्री रह चुके दद्दू प्रसाद पर ददुआ को कथित तौर पर संरक्षण देने का मामला अदालत में है। मारे जाने के बाद भी ददुआ की हनक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसके बेटे वीर सिंह कर्वी से सपा विधायक हैं। भाई बालकुमार मिर्जापुर से सपा का सांसद था,जो इस बार सीट बदल कर बांदा से सपा के ही टिकट पर चुनाव मैदान था लेकिन उसकी हार हो गई। ददुआ का भतीजा राम सिंह प्रतापगढ़ की पट्टी विधानसभा सीट से सपा का विधायक है। ददुआ के बाद दूसरा बड़े दस्यु सरगना ठोकिया के परिवार के कई सदस्य ग्राम प्रधान से लेकर जिला परिषद का चुनाव जीत चुके हैं। इन्हें सपा, बसपा व रालोद तक से टिकट मिल चुकी है।
राजनीतिक लालसा पाल रखा है बलखडिय़ा ने चित्रकूट के पुलिस प्रशासन का मानना कि जिस तरह बलखडिय़ा इस लोकसभा चुनाव में भीतर ही भीतर सक्रिय रहा उससे संकेत मिले हैं कि वह आने वाले दिनों में सशर्त सरेंडर कर राजनीति में उतरना चाहता है। इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार के कुछ मंत्री और मप्र के कुछ नेता प्रयास कर रहे हैं। सूत्रों की मानें तो खाकी से बचने के लिए बलखडिय़ा और उसका गिरोह स्थानीय लोगों से धमकी के बल पर मदद हासिल करता आया है। इस वजह से खाकी के लिए उसकी तलाश अब तक बेहद मुश्किल साबित हुई है। हालांकि पुलिस रिकार्ड में बलखडिय़ा की तलाश में चलने वाले ऑपरेशनों की भी कमी नहीं है। हथियारों से लैस जवान पाठा के जंगलों में बलखडिय़ा की दहशत की भनक लगते ही उसका खात्मा करने के लिए निकल पड़ते हैं, लेकिन बलखडिय़ा बचकर निकलता रहता है।

चुनाव परिणाम से चकराया बलखडिय़ा...डाला पाठा के जंगलों में डेरा

मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश के 300 गांवों में छाया खौफ
भोपाल। लोकसभा चुनाव में करीब आधा दर्जन से अधिक सीटों पर अपने मनपसंद उम्मीदवार की हार के बाद दस्यु सरगना स्वदेश सिंह बलखडिय़ा और उसका गिरोह चकरा गया है और बड़ी वारदात करने के लिए पूरे गैंग के साथ पाठा(उत्तर प्रदेश के बांदा-चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना व रीवा के इस इलाके को पाठा के नाम से जाना जाता है। पाठा, जिसकी पहचान खाकी की फाइलों में खूंखार दस्यु गिरोहों की आरामगाह के रूप में होती आई है। ) के जंगलों में डेरा डाले हुए है। बुंदेलखंड के तराई वाले इन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में पडऩे वाली लोकसभा सीटों पर सपा और अपने अन्य कुछ पसंदीदा उम्मीदवारों को वोट देने के लिए बलखडिय़ा ने फरमान जारी किया था,लेकिन इस बार न तो मध्यप्रदेश और न ही उत्तरप्रदेश के लोगों ने उसकी सुनी। इसका परिणाम यह हुआ की जिन-जिन उम्मीदवारों को बलखडिय़ा ने वोट देने को कहा था उनकी हार हो गई। कई उम्मीदवार तो अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। बताते हैं कि अपने उम्मीदवारों के हारने के बाद दस्यु सरगना ने तराई क्षेत्र में आने वाले 300 गांवों के लोगों का इसका परिणाम भुगतने की चुतावनी दी है। इससे इन गांवों में दहशत फैली हुई है। उल्लेखनीय है कि मप्र और उप्र में आने वाले तराई क्षेत्र के जंगलों में उत्पादित होने वाले तेंदूपत्ते की तुड़ाई और संग्रह को देखते हुए दस्यु गिरोह लेवी वसूलने के लिए हर साल इस समय सक्रिय हो जाता है। इस साल लोकसभा चुनाव होने के कारण क्षेत्र में केंद्रीय सुरक्षा बलों की मौजुदगी को देखते हुए 6 लाख का ईनामी स्वदेश सिंह बलखडिय़ा और उसका 30 सदस्यीय गिरोह अंडरग्राउंड ही रहा और अपना फरमान तेंदूपत्ता तुड़ाई का ठेका लेने वाले ठेकेदारों और वोटरों तक पहुंचाता रहा। अब जब चुनाव परिणाम आ गए हैं और उसने जिन लोगों को वोट दिलाने का ठेका लिया था,उनकी हार के बाद वह बिलबिला गया है। उसने पाठा क्षेत्र के लोगों को धमकाना शुरू कर दिया है।
9 करोड़ में लिया था ठेका
बताते हैं कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने थोकबंद वोट के लिए बलखडिय़ा को करीब 9 करोड़ रूपए दिए थे। बलखडिय़ा ने मप्र की रावा,सतना,सीधी,शहडोल और उप्र की मिर्जापुर,इटावा,बांदा सहित कुछ अन्य सीटों के लिए सौदा किया था,लेकिन जनता ने वोट की चोट ऐसी दी की उसके समर्थक नेता चारों खाने चित हो गए। बीहड़ों में आने वाले गांवों और आसपास के शहरी क्षेत्रों में लागों के इस बदले रूख को देखते हुए बलखडिय़ा अब हिसाब चुकाने की धमकी दे रहा है। पुलिस के एक आला अधिकारी बताते हैं कि इनामी डाकू बलखडिय़ा की हुकूमत बांदा और चित्रकूट के करीब 300 गांवों में चलती है। जो वो चाहता है, वही होता है। बीहड़ो में कुछ साल पहले तक डाकू ददुआ और ठोकिया की हुकूमत चलती थी। अब सुदेश पटेल उर्फ बलखडिय़ा की चल रही है। बलखडिय़ा की एक और पहचान आज पुलिस रिकार्ड में आईएस 262 के नाम से भी है। डाकू बलखडिय़ा के साथियों ने बीहड़ी गांवो में घूम-घूमकर एलान करना शुरू कर दिया है कि जिसने हमारे उम्मीदवार को वोट नहीं दिया है वे बुलेट खाने के लिए तैयार रहे। ठोकिया और रागिया के खात्मे के बाद गैंग लीडर बने बलखडिय़ा के पास न केवल तगड़ा मैन पावर है बल्कि अत्याधुनिक स्वचालित हथियारों का जखीरा भी है। गैंग के पास 2 स्टेनगन, 4 सेमी आटोमैटिक राईफल 5 श्रीनाटथ्री, 4 स्प्रिंगफील्ड राईफल, 8 राईफल 315 बोर, बाकी दोनाली, एक नाली 12 बोर, रिवाल्वर-पिस्टल, बम आदि है। बलखडिय़ा गैंग में 25 वर्षीय बबली कोल और 26 वर्षीय जुग्गी पटेल शार्प शूटर हैं और इन पर सरकार ने दो-दो लाख का इनाम घोषित किया है। यही वजह है कि पिछले दो साल से धड़ाधड़ लाशें गिराकर नरसंहार कर रहे बलखडिय़ा का खौफ आधा दर्जन संसदीय सीट पर सिर चढ़कर बोल रहा है। बांदा के बदौसा से लेकर चित्रकूट के बरगढ़ तक तकरीबन 300 गांवों में बलखडिय़ा की हुकूमत है। इनमें से अधिकांश इलाके के वो गांव शामिल हैं, जो विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं से सटे जंगली इलाकों में हैं। इसके अलावा दर्जनों ऐसे गांव हैं, जहां पुलिस की आमदरफ्त कभी कभार ही होती है। विडंबना यह कि इन इलाकों के लोग शासन-सत्ता पर कम, डकैतों के रहमो करम पर ज्यादा जीते मरते हैं। चित्रकूट के पूर्व पुलिस उपाधीक्षक ओपी राय कहते हैं, बुंदेलखंड में पटेल (कुर्मी) समुदाय डकैत ददुआ को अपना हीरो मानता है। बीहड़ में दो दर्जन से ज्यादा छोटे-छोटे गैंग हैं, जिनकी कमान युवा डकैतों के हाथ में है। इनकी मुख्य गतिविधि अपहरण और सरकारी योजनाओं में लगे ठेकेदारों से पैसा वसूलना है। लेकिन लखनपुर गांव में रहने वाले शिवमोहन कहते हैं,विंध्य के आसपास बसे कुर्मीबहुल इलाकों में लोगों को डाकुओं का उतना खौफ नहीं, जितना कि पुलिस का है। पुलिस पटेल समुदाय के हर व्यक्ति को डकैतों का मददगार समझती है और प्रताडि़त करती है। पिछले दस साल में पुलिस इन इलाकों में 50 से ज्यादा युवाओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 216 के तहत अपराधियों की मदद और संरक्षण देने के नाम पर जेल भेज चुकी है। लिहाजा मानिकपुर, मारकुंडी, बाहिलपुर, भरतकूप, फतेहगंज जैसे इलाकों में आधे से ज्यादा युवा पलायन कर चुके हैं।
अय्याशी के चक्कर में बलखडिय़ा
उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश के सरहदी जिलों में खौफ का दूसरा नाम बन चुके डकैत सुदेश कुमार पटेल उर्फ बलखडिय़ा की जान भी लड़की की वजह से जाएगी? यह सवाल इनदिनों बुंदेलखंड में लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल, पिछले साल उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में दिल्ली पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर को मौत के घाट उतारने वाले बलखडिय़ा ने अपने सौतेले भाई सुंदर पटेल की मौत के बाद कुछ साल पहले गिरोह की कमान संभाली थी। बुंदेलखंड में डकैतों पर नजर रखने वाले पुलिस वाले मानते हैं कि बलखडिय़ा अपने सौतेले भाई सुंदर पटेल की रास्ते पर ही चल रहा है। सुंदर की दो साल पहले सतना जिले में पुलिस से हुई मुठभेड़ में मौत हो गई थी। कई लोग दबी जुबान मानते हैं कि सुंदर की मौत अय्याशी के चलते हुए थी। बताया जाता है कि सुंदर पटेल की करीब एक दर्जन महिलाओं से दोस्ती थी। मोबाइल फोन पर महिलाओं से घंटों बातें करना उसका रोज का शगल था। जिस समय उसका सतना पुलिस से आमना-सामना हुआ वह महिला से ही मिलने आया था। पुलिस को उसके मोबाइल फोन की लोकेशन बार-बार सतना जिले के नयागांव थाना क्षेत्र की मिल रही थी। पुलिस को उसके कब्जे से करीब 40 मोबाइल सिम बरामद हुई थीं। वहीं, ऐसा माना जाता है कि निर्भय गुर्जर की मौत भी गैंग में शामिल महिला डकैतों की ओर से उसके रुझान के चलते हुई थी।
पाठा में डकैत चला रहे हैं 'अपनीÓ सरकार
ददुआ और सुंदर पटेल की मौत के बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के एक बड़े इलाके में फैले बुंदेलखंड में एक बार फिर डकैतों ने सिर उठाया है। बुंदेलखंड के पठारनुमा पहाडिय़ों में इन डकैतों का गढ़ है। इन पहाडिय़ों को स्थानीय बोली में 'पाठाÓ कहते हैं। पाठा के बीहड़ों में बसे गांवों में 60 फीसदी से ज्यादा कुर्मी बिरादरी के लोग हैं। इसके अलावा यहां कोल आदिवासियों की भी खासी तादाद है। पाठा में डकैतों का आतंक किस कदर सिर चढ़कर बोल रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चित्रकूट और बांदा जिलों में पिछले 10 महीने के भीतर 17 लोग डकैतों की गोलियों का निशाना बन चुके हैं। पाठा के इन बीहड़ों में डकैती का इतिहास तीन दशक पुराना है, जब यहां डकैत शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ आतंक का पर्याय बनकर सामने आया था। इसके बाद अंबिका पटेल उर्फ ठोकिया उर्फ डॉक्टर ने भी यहां डकैती की कई वारदातों को अंजाम दिया। 22 जुलाई, 2007 को स्पेशल टास्क फोर्स ने ददुआ को मार गिराया था और इसके साल भर बाद 4 अगस्त, 2008 को ठोकिया को भी मौत के घाट उतार दिया गया। ठोकिया के बाद इस गैंग की कमान सुंदर पटेल उर्फ रागिया ने संभाली। इस गैंग के दो मुख्य सदस्य बलखडिय़ा और राम सिंह गौड़ थे। 25 दिसंबर, 2011 को मध्य प्रदेश पुलिस ने सुंदर पटेल को भी मार गिराया। सुंदर पटेल की मौत के बाद सुदेश पटेल उर्फ बलखडिय़ा और राम सिंह गौड़ डाकुओं के मुख्य सरगना रहे, लेकिन इसी साल मार्च में बुंदेलखंड के कुख्यात डकैत बांदा राम सिंह गौड़ की जिले के भदौसा के जंगलों में हत्या कर दी गई थी। राम सिंह गौड़ और बलखडिय़ा गिरोह के बीच गैंगवार चल रही थी। राम सिंह की मौत के बाद उसके साथियों ने राजू गौड़ के गैंग में शामिल हो गए थे और तब उन लोगों ने कसम खाई थी कि वे बलखडिय़ा से राम सिंह की मौत का बदला लेंगे। लेकिन राम सिंह की मौत के बाद बुदेलखंड खासकर यूपी के बांदा, चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना जिलों में बलखडिय़ा गिरोह का वर्चस्व हो गया है। इस समय बलखडिय़ा पर अपहरण, लूट, हत्या और डकैती जैसे कई मामले उस पर दर्ज हैं। सुंदर पटेल गिरोह की तरह बलखडिय़ा का गिरोह भी मध्य प्रदेश और यूपी में वारदातों को अंजाम देता रहा है। सुंदर पटेल गिरोह के डेढ़ दर्जन सदस्यों के आ जाने से बलखडिय़ा गिरोह में डकैतों की संख्या 30 से भी अधिक हो गई है। बलखडिय़ा गिरोह के खास सदस्यों में रामसिंह गोंड, पीलवन उर्फ मदारी गोंड, रामचन्द्र पटेल और झुग्गु पटेल शामिल हैं। गिरोह की ताकत बढ़ जाने से उसका आतंक और बढऩे की संभावना जताई जा रही है। लोगों का अनुमान है कि वे अपने भाई सुंदर पटेल और उसके साथियों की मौत के जिम्मेदार लोगों से भी बदला लेगा।
खड़े बालों की वजह से बलखडिय़ा नाम मिला
डकैत सुदेश कुमार पटेल को उसके सिर के खड़े बालों के कारण बलखडिय़ा कहा जाता है। बुंदेलखंड के लोगों का मानना है कि वे सुंदर पटेल से भी ज्यादा खतरनाक है। जब पुलिस से मुठभेड़ में सुंदर पटेल मारा गया था तब उसकी उम्र 60 बरस के आसपास थी जबकि बलखडिय़ा 32 साल का है। उसकी बहादुरी से प्रेरित होकर कुख्यात डकैत ददुआ ने उसे अपनी .375 बोर की रायफल इनाम में भी दी थी। हैं।
बैलेट दो या बुलेट लो
बुंदेलखंड के दुरुह बीहड़ों में बचे खुचे छोटे बड़े गिरोह भी दस्युओं अथवा उनके सगे संबंधियों का चुनाव में खुलकर साथ दे रहे थे। बैलेट दो या बुलेट लो की धमकियों वाले फरमान लोगों तक पहुंचाए गए थे। लेकिन इस बार लोगों ने धमकियों की अधिक परवाह नहीं की। बुंदेलखंड के बीहड़ में पहले भी चुनावी राजनीति की बिसात बिछाई जाती थी, लेकिन तब वे किसी जाति विशेष के प्रत्याशी के समर्थन की रणनीति बनाते थे। चुनाव के समय उनके दखल से जीत-हार का फैसला होता था। अब बदले हालात में दस्यु सरदारों का रुझान खुद चुनावी मैदान में कूदने की ओर है। इसमें उन्हें राजनीतिक दलों का साथ भी मिला है। बुंदेलखंड का पाठा क्षेत्र चुनाव के दौरान हमेशा सुर्खियों में रहा है। यहां दस्यु सरगना ददुआ की हुकूमत चलती रही है। ग्राम प्रधान से लेकर विधायक व सांसद तक का चुनाव उसके इशारे पर ही होता रहा है। लोकसभा के इस चुनाव में ददुआ व ठोकिया जैसे खूंखार डकैतों का दहशत तो नहीं थी, लेकिन बलखडिय़ा गिरोह ने पुलिस की नाक में दम कर दिया है। बांदा की जिला जेल में बंद ददुआ का दाहिना हाथ राधे समेत आधा दर्जन खूंखार डकैत वहीं से चुनाव का संचालन कर रहे थे। बांदा संसदीय क्षेत्र के मऊ मानिकपुर, कर्वी और नरैनी विधानसभा क्षेत्रों में जीत हार का फैसला मौजूदा दस्यु गिरोहों के हाथ में होता है। सुदूर जंगली व बीहड़ क्षेत्रों में पुलिस व प्रशासन निष्क्रिय है। अभावग्रस्त पाठा में ददुआ के गुरु गया और राजा रगौली जैसे तीन दर्जन से अधिक डकैतों का सीधा हस्तक्षेप है। स्थानीय पुलिस का कहना है कि वामपंथ की अलख जगाने वाले कामरेड राम सजीवन इस क्षेत्र से तीन बार सांसद व चार बार विधायक रह चुके हैं। उन्होंने यह कारनामा कथित तौर पर दस्यु ददुआ की बदौलत किया है। मायावती सरकार में मंत्री रह चुके दद्दू प्रसाद पर ददुआ को कथित तौर पर संरक्षण देने का मामला अदालत में है। मारे जाने के बाद भी ददुआ की हनक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसके बेटे वीर सिंह कर्वी से सपा विधायक हैं। भाई बालकुमार मिर्जापुर से सपा का सांसद था,जो इस बार सीट बदल कर बांदा से सपा के ही टिकट पर चुनाव मैदान था लेकिन उसकी हार हो गई। ददुआ का भतीजा राम सिंह प्रतापगढ़ की पट्टी विधानसभा सीट से सपा का विधायक है। ददुआ के बाद दूसरा बड़े दस्यु सरगना ठोकिया के परिवार के कई सदस्य ग्राम प्रधान से लेकर जिला परिषद का चुनाव जीत चुके हैं। इन्हें सपा, बसपा व रालोद तक से टिकट मिल चुकी है।
राजनीतिक लालसा पाल रखा है बलखडिय़ा ने
चित्रकूट के पुलिस प्रशासन का मानना कि जिस तरह बलखडिय़ा इस लोकसभा चुनाव में भीतर ही भीतर सक्रिय रहा उससे संकेत मिले हैं कि वह आने वाले दिनों में सशर्त सरेंडर कर राजनीति में उतरना चाहता है। इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार के कुछ मंत्री और मप्र के कुछ नेता प्रयास कर रहे हैं। सूत्रों की मानें तो खाकी से बचने के लिए बलखडिय़ा और उसका गिरोह स्थानीय लोगों से धमकी के बल पर मदद हासिल करता आया है। इस वजह से खाकी के लिए उसकी तलाश अब तक बेहद मुश्किल साबित हुई है। हालांकि पुलिस रिकार्ड में बलखडिय़ा की तलाश में चलने वाले ऑपरेशनों की भी कमी नहीं है। हथियारों से लैस जवान पाठा के जंगलों में बलखडिय़ा की दहशत की भनक लगते ही उसका खात्मा करने के लिए निकल पड़ते हैं, लेकिन बलखडिय़ा बचकर निकलता रहता है।