सोमवार, 2 जून 2014

बाघ संरक्षण में सबसे पिछड़ मध्यप्रदेश

अब कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा की Ó वैरी गुडÓ रैंकिंग दांव पर
एक दशक में प्रदेश में 467 बाघों का हुआ शिकार
भोपाल। अभी कुछ साल पहले तक टाइगर स्टेट के नाम से विख्यात मध्य प्रदेश में लगातार बाघों की मौत हो रही है। जिससे प्रदेश से टाइगर स्टेट का दर्जा तो छिन ही गया है अब कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व की Ó वैरी गुडÓ रैंकिंग भी दांव पर लग गई है। क्योंकि प्रदेश में एक साल में 14 बाघों की मौत हुई है,जिससे प्रदेश के बाघ संरक्षण पर सवाल उठने लगा है। आंकड़े सरकार की बेबसी को दर्शाते हैं। 2001-02 में मध्यप्रदेश के 6 नेशलन पार्क में कुल 710 बाघ थे। जब 2011 में गिनती हुई तब बाघों की संख्या कम होकर 257 रह गई। अब इसमें लगातार कमी आ रही है। पिछले एक दशक में मप्र में करीब 467 बाघों का शिकार हुआ है। प्रदेश में बाघों की सुरक्षा को लेकर सरकार चाहे कितने दावे करे, लेकिन हकीकत यही है कि प्रदेश बाघों की कब्रगाह बनता जा रहा है। वर्ष 2013 में प्रदेश में 14 बाघों की मौत हो चुकी है। इनमें से अधिकांश बाघ अवैध शिकार की भेंट चढ़े हैं। यह खुलासा राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण की वर्ष-2013 की जारी रिपोर्ट में हुआ है। हालांकि सरकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि प्रदेश में बाघों का शिकार हो रहा है। एनटीसीए द्वारा देश में 2013 में हुई बाघों की मौत के आंकडे जारी किए गए हैं। एनटीसीए की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में 67 बाघों की मौत स्वभाविक मृत्यु और कई मामलों में शिकार की बात सामने आई है। साथ ही देश के टॉप-10 की सूची में कर्नाटक और मप्र में 14 बाघों की मौत हुई है। वहीं महाराष्ट्र में 10 और उत्तराखंड में 9 बाघों की मौत हुई है। बाघों की मौत के कारण मप्र से टाईगर स्टेट का दर्जा तो पहले ही छिन चुका है, इसके बाद भी सरकार बाघों की सुरक्षा को कोई ठोस पहल नहीं कर पाई। संरक्षित क्षेत्रों के साथ ही अन्य वन्य क्षेत्रों में बाघों की मौत के मामले लगभग हर माह सामने आए। साल की शुरूआत में 2 फरवरी को पन्ना टाईगर रिजर्व में एक बाघ की मौत हुई। इस मामले में वन विभाग ने जांच कमेटी बनाकर खानापूर्ति कर दी है।
सरकार को पर्यटन की चिंता
इन दिनों मध्यप्रदेश सरकार को बाघों की कम और बाघों को देखने आने वाले पर्यटकों की चिंता अधिक है। प्रदेश में वर्ष 2013-14 में आने वाले पर्यटकों की संख्या 6.33 करोड़ तक पहुंच गई। इसलिए पर्यटकों के लिए लगातार सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है, पर बाघों का शिकार करने वाले अभी तक कानून की पहुंच से दूर हैं। पिछले एक साल में जिस तरह से शिकारियों द्वारा बाघों का शिकार किया गया है, उससे यही लगता है कि बाघों का शिकार इलेक्ट्रिक तार में करंट देकर किया गया है। सभी मामलों में शिकारी इतने चालाक दिखाई दिए कि वन विभाग का अमला मृत बाघ तक पहुंचे, इसके पहले बाघ के तमाम अवशेष गायब कर दिए जाते हैं। देश में कुल 40 टाइगर रिजर्व में से अधिक 6 मध्यप्रदेश में ही हैं। पिछले एक दशक में मध्यप्रदेश के विभिन्न अभयारण्यों में कुल 467 बाघ कम हुए हैं। इनमें से अभी तक केवल दो व्यक्तियों पर ही बाघ की हत्या के मामले में सजा हुई है। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि बाघों की सुरक्षा को लेकर मध्यप्रदेश सरकार कितनी चितिंत है? वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश में पिछले दो दशक में 986 बाघों की हत्या हुई है। ये आंकड़े केवल हत्या के हैं। कई बाघ प्राकृतिक तौर पर मृत्यु को प्राप्त होते है। इनकी संख्या भी काफी अधिक है। बाघों की मौत के संबंध में मध्यप्रदेश पूरे देश में आगे है। यहां अभी तक बाघों के संरक्षण के लिए कोइ ठोस नीति नहीं बन पाई है और न ही बाघों की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों पर किसी तरह की कठोर कार्यवाही हुई है। जो शिकारी पकड़े गए है, उन्हें भी मामूली सजा हुई है। इससे शिकारियों में किसी प्रकार की दहशत नहीं है। इससे यह सवाल बना हुआ है कि राज्य में बाघों का संरक्षण कैसे होगा।
अब रैंकिंग की चिंता
मध्यप्रदेश में लगातार बाघों की मौत के कारण छह टाइगर रिजर्व को इस बार देशभर के टाइगर रिजर्व के मुकाबले अच्छी रैंकिंग मिलना कुछ मुश्किल दिख रहा है। हर चार साल में होने वाली इस रैंकिंग में पिछली बार 2010-11 में मप्र के चार टाइगर रिजर्व कान्हा, पेंच, बांधवगढ़ और सतपुड़ा को 10 में से 10 नंबर मिले थे और उन्हें 'वैरी गुडÓ की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन 2014-15 में हो रही रैंकिंग में मप्र की स्थिति कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि प्रदेश में एक साल में 14 टाइगर की मौत हो चुकी है, जिसमें अव्यवस्था, बाहरी दखल और फील्ड अधिकारियों की लापरवाही बड़ा कारण रही। ऐसे में पिछले परिणाम को दोहराना भी चुनौतीपूर्ण लग रहा है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा गठित चार सदस्यीय मैनेजमेंट इफेक्टिवनेस इवॉल्यूशन (एमईई) टीम ने प्रदेश का दौरा कर यहां के हालात का जायजा लिया। टीम में कर्नाटक के सेवानिवृत्त चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन बीके सिंह, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट देहरादून के सेवानिवृत्त आईएफएस अफसर त्यागी, एनटीसीए नागपुर के रविकरण तथा वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के समिति सिंह शामिल थे। इस टीम ने 32 पैरामीटर के आधार पर यहां के नेशनल पार्कों का आंकलन किया और इसके आधार पर रैंकिंग तय करेगी। एनटीसीए इस रैंकिंग रिपोर्ट को एक साल के भीतर सार्वजनिक तथा वेबसाइट पर जारी करेगा। इसे ध्यान में रखकर टूर ऑपरेटर देश-विदेशों में मार्केटिंग करते हैं, जिससे टूरिस्टों की संख्या बढ़ती है। इसके अलावा यह भी पता लगता है कि चार साल में जितनी राशि एक टाइगर रिजर्व पर खर्च हुई है, उसका प्रभाव कितना है? मप्र के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन नरेंद्र कुमार कहते हैं कि एनटीसीए का रैंकिंग करने का अपना पैरामीटर है। देश के सभी टाइगर रिजर्व का आकलन हो जाएगा तो साल के आखिर में रिपोर्ट जारी हो जाएगी। मप्र के टाइगर रिजर्व को पूर्व से भी बेहतर स्थिति में आने की उम्मीद है।
प्रदेश में कठोर कानून नहीं
आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार मामले में कठोर कानून नहीं है। वह कहते हैं कि प्रदेश की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मध्यप्रदेश के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। मंडला जिले के कान्हा नेशनल पार्क में हुई बाघ की मौत का 17 मई 1975 से दर्ज एक प्रकरण अदालत में फैसले के लिए अब तक लंबित है, जबकि बालाघाट जिले में 25 सितंबर 1979 को हुई एक बाघ की मौत का मामला अब तक फैसले की बाट जोह रहा है। दुबे के मुताबिक कान्हा नेशनल पार्क में बाघ के शिकार के छह, पेंच नेशनल पार्क में पांच और पन्ना नेशनल पार्क व सतपुड़ा नेशनल पार्क में 4-4 मामले अदालतों में हैं। ये सभी मामले वर्ष 1975 से 2008 के बीच दर्ज किए गए थे। वह बताते हैं कि वर्ष 2002 से 2012 के बीच करीब 337 बाघ कथित रूप से शिकार, आपसी लड़ाई, दुर्घटना और बुढ़ापे के कारण मारे गए। सबसे ज्यादा 58 बाघ वर्ष 2009 में मारे गए, जबकि वर्ष 2011 में 56, 2008 में 36, 2007 व 2002 में प्रत्येक में 28-28 बाघों की मौत विभिन्न कारणों से हुई। इनमें 68 बाघ शिकार के कारण असमय काल के ग्रास बने।
फंड के अभाव में रूका गांवों का पुनर्वास
प्रदेश के नेशनल पार्कों में बसे 703 गांवों के निवासी भारी प्रतिबंध में जीने को मजबूर हैं। बड़ी पीड़ा ये है कि पीढिय़ों से जिस जमीन को किसान जोतता चला आ रहा है उस पर मालिकाना हक वन विभाग का है, किसान मात्र पट्टेदार है, जिसके चलते बुरे वक्त में किसान न तो जमीन बेच सकता है, न ही गिरवी रख सकता है। पार्कों में बसे ग्रामीण ही नहीं, बल्कि वहां के वन्य प्राणियों का जीवन भी असहज है। आए दिन मानव-वन्य प्राणी के बीच द्वंद्व की स्थिति बनती है। हालांकि इन गांवों को आरक्षित वन क्षेत्रों से बाहर निकालने के लिए राज्य को केंद्र से पैसा मिलता है, लेकिन ये राशि ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है। यही वजह है कि पिछले 50 साल में कुल 821 गांवों में से अब तक मात्र 118 का ही पुनर्वास हो सका है। राज्य सरकार ने पार्कों के क्रिटिकल जोन में बसे 105 गांवों को चिन्हित कर आरक्षित वन क्षेत्र से बाहर निकालने के लिए 3,500 करोड़ का प्रस्ताव केंद्र को भेजा है, लेकिन फंड के अभाव में प्रस्ताव लंबे समय से अटका है। हाल ही में भोपाल प्रवास पर आए एसएस गब्र्याल महानिदेशक केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से मुख्य सचिव अंटोनी जेसी डिसा ने भी गांवों के पुनर्वास के लिए पैकेज देने की बात कही। उन्होंने कहा कि 105 गांवों के पुनर्वास पर लगभग 3,600 करोड़ का खर्च आ रहा है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना में 100 करोड़ रु. राज्य के पास शेष बचे हैं, ऐसे में 3,500 करोड़ रु. की अतिरिक्त आवश्यकता है। नरेन्द्र कुमार पीसीसीएफ वन्य प्राणी का कहना है कि यदि गांवों को पार्कों से बाहर निकालने में देरी की गई तो इनके पुनर्वास के खर्च में खासी बढ़ोतरी हो जाएगी। वन सीमा में परिवर्तन की दें अनुमति वन्य प्राणी मुख्यालय ने केंद्र के सामने यह भी प्रस्ताव रखा है कि नान क्रिटिकल एरिया में बसे 174 गांव और नेशनल पार्क की परिधि में बसे 424 गांवों को विस्थापित करने के लिए यदि फंड का अभाव है, तो ऐसी स्थिति में केन्द्र चाहे तो वन सीमा में परिवर्तन कर इन्हें वन संरक्षित क्षेत्र वाले ग्रामों से मुक्ति दी जा सकती है। वन्य प्राणी अधिनियम के तहत वन क्षेत्रों में बसे गांवों में विकास भी प्रभावित होता है साथ ही उन्हें ग्रामीणों को अन्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। प्रति परिवार 10 लाख का मुआवजा नेशनल पार्कों में बसे गांवों के विस्थापन पर राज्य सरकार को प्रति परिवार 10 लाख का मुआवजा देना होता है। इतना ही नहीं परिवार के 18 वर्ष के सदस्य को पृथक परिवार मानकर उसे भी 10 लाख का मुआवजा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में वन ग्रामों में प्रतिबंध की जिंदगी जी रहे ग्रामीणों को विस्थापन पर बेहतर जीवन का अवसर मिलता है।
मैदानी इलाके में स्टाफ की कमी
मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 9 नेशनल पार्क तथा 25 अभ्यारण्य भी आते हैं, लेकिन फारेस्ट अमले का सबसे ज्यादा ध्यान टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, पन्ना, पेंच, बांधवगढ़ तथा सतपुड़ा नेशनल पार्क पर रहता है। इसके बावजूद कान्हा में टाइगरों के अवैध शिकार की घटनाएं बढ़ती जा रही है। 94 हजार वर्ग किमी जंगलों की सुरक्षा के लिए फील्ड में सरकार ने मुख्य भूमिका में वन क्षेत्रपाल रेंजर के 1192, सहायक वन क्षेत्रपाल डिप्टी रेंजर के 1257 तथा वनरक्षकों के 13 हजार 997 पद स्वीकृत किए थे। यानी इसी महकमे पर अवैध शिकारियों, अवैध कटाई, अवैध उत्खनन को रोकने की जिम्मेदारी है। वर्तमान में स्वीकृत रेंजर के 1192 पदों में से 816, डिप्टी रेंजर के 1257 में से 1089 तथा वनरक्षकों के 13 हजार 997 में से 11 हजार 322 ही सुरक्षा, प्रबंधन, वृक्षारोपण की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। यानी रेंजर के सबसे ज्यादा पद जबलपुर वनवृत्त में कान्हा नेशनल पार्क सहित 115 स्वीकृत हैं। इसके बाद भोपाल के लिए 108, खण्डवा में 104 पद स्वीकृत है, जबकि बालाघाट में 69, बैतूल में 61, छतरपुर में 71, छिंदवाड़ा में 61 ग्वालियर में 61, होशंगाबाद में 60, इंदौर में 57, रीवा में 94, सागर में 58, सिवनी में 63, शहडोल में 65, शिवपुरी में मात्र 38, उज्जैन में 60, फारेस्ट मुख्यालय में 7 तथा प्रतिनियुक्ति के 40 पद शामिल हैं। इसी तरह डिप्टी रेंजर के बालाघाट में 96, बैतूल में 73, भोपाल में 100, छतरपुर में 57, छिंदवाड़ा में 82, ग्वालियर में 37, होशंगाबाद में 68, इंदौर में 72, जबलपुर में 170, खण्डवा में 102, रीवा में 87, सागर में 65, सिवनी में 74, शहडोल में 61, शिवपुरी में 36, उज्जैन में 71, मुख्यालय में 6 पद शामिल हैं। साथ ही वनरक्षकों के सबसे ज्यादा बालाघाट में 900, भोपाल में 1192, जबलपुर में 1300, खण्डवा में 1244, बैतूल में 767, छतरपुर में 870, रीवा में 817, सागर में 800, सिवनी में 850, इंदौर में 760, होशंगाबाद में 782 आदि पद शामिल है।

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