गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

राम मंदिर का कलंक कुंभ में धोएंगे हिन्दूवादी

विनोद उपाध्याय भाजपा के एजेंडे में कभी सबसे ऊपर दिखाई देने वाला अयोध्या मामला अब या तो उनके एजेंडे में दिखाई ही नहीं देता है और अगर देता भी है तो वह सबसे आखिर में होता है। वहीं इस मामले पर हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इस मसले पर सामाजिक दायरा भी पूरी तरह से बदल गया है। वह हिंदू जो कभी अयोध्या में कारसेवा के नाम पर खड़ा हो जाता है वह आज इस मुद्दे पर भड़कता नहीं है। क्योंकि हिन्दूवादी संगठनों के बहकावे में आकर उसने बावरी मस्जिद का विध्वंस तो कर दिया लेकिन उसे राम मंदिर आज तक नहीं मिला। इस बात का एहसास सभी हिन्दूवादी संगठनों को भी हो गया है। इसलिए इलाहाबाद में होने वाले कुंभ में एक बार फिर से हिन्दूवादी संगठन मंदिर का मसला उठाकर राम मंदिर नहीं बनवाने का जो कलंक उन पर लगा है उसे धोने की तैयारी कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े अन्य संगठन इस मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से उठाने की रणनीति बना रहे हैं। अगले वर्ष कुंभ के अवसर पर सात फरवरी को विश्व हिंदू परिषद के तत्वावधान में आयोजित होने वाले संत सम्मेलन में इस संबंध में अमली नीति तैयार की जाएगी। इस मसले पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि कुंभ मेले में संत जो भी फैसला लेंगे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके निर्णय को सफल बनाएगा क्योंकि राम जन्म भूमि आंदोलन ही देश में एक मात्र आंदोलन है, जिससे संघ पूरी तरह से जुड़ा है। संतों के ऐलान के बाद जनांदोलन में संघ कार्यकर्ता पूरी शक्ति से जुट जाएंगे ताकि अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो सके। मोहन भागवत की टिप्पणी के बाद से ही देश में एक बार फिर से राम मंदिर और बाबरी विध्वंस को लेकर बहस छिड़ गई है। आज 6 दिसंबर को अयोध्या विवाद को दो दशक बीत गए हैं। इन दो दशकों में भारत में हुए राजनीतिक और सामाजिक बदलाव आज सभी के सामने हैं। अयोध्या मामले को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार में आने के बाद इस मसले पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी, लिहाजा ज्यादा नहीं चल सकी। उसके बाद देश में अयोध्या मामले में आए फैसले के बाद पसरी शांति और सौहार्द के माहौल ने धर्म के तवे पर राजनीति की रोटी सेकने वालों के होश उड़ गए। देश में होने वाली अराजकता और उसमें गिरने वाली लाशों पर राजनीति करने की योजना बनाने वाले कुछ राजनीतिक दलों को अपनी जमीन खिसकती महसूस होने लगी। हालांकि आज भी कुछ राजनीतिक और धार्मिक संगठन अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए विध्वंसक बयानों को प्रसारित करने से बाज नहीं आते हैं। ऐसे संगठनों में कुछ खुद को हिन्दू समाज का पैरोकार बताते हैं तो कुछ खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। लेकिन इनकी वास्तविकता दोनों समाज के प्रबुद्ध लोगों को पता है। अयोध्या यानी प्राचीन कौशल की राजधानी। दशरथनंदन राम की नगरी। सरयू किनारे बसी इस पवित्र पुरी को अयोध्या इसलिए कहा गया क्योंकि ये अजेय थी। इससे युद्ध संभव नहीं था लेकिन ये पुराणों की बात है। आज हम जिसे अयोध्या कहते हैं, वो साक्षात युद्धभूमि है। उसके नाम पर लड़ा जा रहा है आजाद भारत का सबसे बड़ा युद्ध, राजनीति और कानून के मोर्चे पर एक साथ। राजनीति के मोर्चे पर इसका असर सबने देखा है। बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना भारत विभाजन के बाद दिलों को तोडऩे वाली सबसे बड़ी घटना थी। इसके लिए 6 दिसंबर यानी संविधान निर्माता डॉ.बीआर अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस का चुनाव यूं ही नहीं किया गया था। दरअसल, इसके जरिये संविधान में दर्ज उस सपने को आग में झोंकने की कोशिश हुई जिसका नाम है धर्मनिरपेक्षता। राममंदिर के हिमायतियों का तर्क है कि मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर उसके सिपहसालार मीर बाकी ने 1528 में रामजन्मभूमि मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई। लेकिन हैरानी ये है कि बाबर के समय के कवियों, संतों या इतिहासकारों ने इस घटना को कहीं दर्ज नहीं किया। और इनमें रामभक्ति के शिखर संत तुलसीदास भी हैं। संवत सोरह सौ इकतीसा, करउं कथा हरि पद सीसा...गोस्वामी तुलसीदास ने इसी अयोध्या में संवत सोलह सौ इकतीस यानी सन 1574 में मानस की रचना शुरू की। ये जमाना अकबर यानी बाबर के पोते का था। लेकिन उन्होंने कहीं अपने आराध्य के मंदिर तोड़े जाने का जिक्र नहीं किया। उलटे अपने आलोचकों को जवाब देते हुए कवितावली में वे लिखते हैं—तुलसी सरनाम गुलामु है राम को जाके रुचे सो कहै कछु ओऊ, मांग के खाइबो मसीज में सोइबो, लैबै का एक, न देबै का दोऊ। ध्यान दीजिए, तुलसी मसीज यानी मस्जिद में सोने की बात कर रहे हैं। तो क्या उस समय अयोध्या के रामभक्तों की आंख में बाबरी मस्जिद खटकती नहीं थी। इतिहास के जानकारों के अनुसार,ये मामला 1850 के आसपास पहली बार उठा जब अंग्रेज अवध को हड़पने की फिराक में थे। उन्होंने कही-सुनी बातों को हवा दी और 1853 में इसे लेकर टकराव भी हुआ। तब अवध पर नवाब वाजिद अली शाह का राज था, जिन्होंने बलवाइयों को सख्ती से कुचला था। यहां तक कि उनके सरगना अमेठी के मौलवी अमीर अली के कत्ल का हुक्म भी दे दिया था। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के साथ हिंदू-मुस्लिम एकता परवान चढ़ी। लेकिन अंग्रेज मसले का हल नहीं चाहते थे। उन्होंने ताज छीनकर नवाब को कलकत्ता भेज दिया और 18 मार्च 1858 को अयोध्या के कुबेर टीले के पास हनुमान गढ़ी के पुजारी बाबा रामचरण दास और फैजाबाद के अमीर अली को फांसी दे दी, जो हिंदू-मुसलमानों के बीच समझौते की अगुवाई कर रहे थे। 1885 में पहली बार ये मसला अदालत पहुंचा लेकिन मुकदमा बाबरी मस्जिद पर नहीं, बल्कि सामने बने चबूतरे पर छत डालने के लिए था, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। बाद में आजादी की लड़ाई के तेज होने के साथ ये मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। गांधी जी के रंगमंच पर आने के बाद तो सांप्रदायिक जहर घोलने की कोशिशें खासी कमजोर पड़ गईं। लेकिन आजादी मिलने के बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे। उत्तर प्रदेश के 18 समाजवादी विधायकों ने आचार्य नरेंद्रदेव के नेतृत्व में कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। 1948 के आखिर में उपचुनाव हुए। आचार्य नरेंद्र देव अयोध्या से मैदान में थे। नरेंद्र देव को हराने पर आमादा कांग्रेस ने देवरिया के साधु बाबा राघवदास को मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के नास्तिक होने का सवाल उठाया गया। कहा गया कि ये धर्म और अधर्म की लड़ाई है। इसी में रामजन्मभूमि का मुद्दा भी उठा। नतीजा बाबा राघवदास चुनाव जीत गए। और इसी के साथ अयोध्या में सदियों से जले धर्म के दीए में राजनीति का तेल पड़ गया। रामजन्मभूमि के मुद्दे में फिर से जान पड़ गई थी। सरकारी संरक्षण ने इसका रंग गाढ़ा कर दिया। नतीजतन, 22 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गईं। कांस्टेबल माता प्रसाद ने 23 दिसंबर को अयोध्या पुलिस थाने में घटना की एफआईआर दर्ज कराई। इसके मुताबिक 50-60 लोगों का एक गिरोह मस्जिद की चहारदीवारी का दरवाजा तोड़कर या सीढ़ी के सहारे दीवार फांदकर घुस आया। इन लोगों ने मस्जिद में भगवान की मूर्ति स्थापित कर दी। लेकिन मंदिरवादियों ने प्रचारित किया कि राम प्रकट हुए हैं। बताते हैं कि बात प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत को तार भेजकर मूर्तियां हटाने को कहा, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। उल्टे, फैजाबाद के जिलाधिकारी केके नैयर ने इमारत को विवादित घोषित कर ताला डलवा दिया और सरकारी कब्जे में ले लिया। 19 जनवरी 1950 को सिविल जज ने हिंदुओं को बंद दरवाजे के बाहर से भगवान के दर्शन-पूजन की इजाजत दे दी और मुसलमानों पर विवादित स्थल के 300 मीटर के दायरे में आने पर पाबंदी लगा दी। करीब 36 साल तक भगवान को ताले में बंद रख गया। 1986 में जिला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश दिया। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने शिलापूजन के जरिये इस मुद्दे को खूब गरमाया और समझौते की कोशिशें बेकार कर दी गईं। 1990 में मंडल कमीशन के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की। बीजेपी ने रामजन्मभूमि को एजेंडा बना लिया। इसके बाद से अयोध्या आंदोलनकारियों की बंधक बनती रही। आखिरकार 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। उसके बाद देश में क्या हुआ सभी जानते हैं। लेकिन अगले साल होने वाले कुंभ में एक बार फिर से राम मंदिर के लिए रणनीति बनाने की घोषणा कर संघ ने अयोध्या और फैजाबादवासियों की नींद उड़ा दी है। अयोध्या के बाबू बाजार में पीढिय़ों से भक्तों के लिए खड़ाऊं बनाने वाले मो.सलीम कहते हैं कि अयोध्या पर हो रही राजनीति से डर सिर्फ मुसलमानों में ही नहीं है। यहां के हिन्दू भी घबराए हुए हैं। इसी बाजार में कपड़े की दुकान चलाने वाले अयोध्या पाल कहते हैं कि भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या में रामलला का मंदिर बनवाने के लिए कई संगठनों, धर्माचार्यों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा आंदोलन किया जाता रहा है। पर राम की समाधिस्थल गुप्तारघाट की सुध लेने वाला की कोई नहीं है। यह खंडहर में तब्दील हो रहा है। यहां के हालात देखकर लगता है कि भविष्य में यह प्राचीन धरोहर भी लुप्त हो जाएगा। बचेगा तो बस स्वामित्व को लेकर झगड़ा, जिसके लिए कई लोगों के बीच मुकदमेबाजी चल रही है। अयोध्या से 10 किलोमीटर दूर सरयू नदी के किनारे बने गुप्तार घाट के बारे में मान्यता है कि यहीं पर सतयुग में अयोध्या के राजा राम ने जलसमाधि ली थी। यहां पर चरण पादुका मंदिर, राम जानकी मंदिर, चक्र हरजी विष्णु मंदिर धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। यहां राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा बनवाई गई प्राचीन गुप्तारगढ़ी भी है। भाजपा, विहिप और कई हिन्दू संगठन राम के नाम की माला जपते हैं, लेकिन इसकी दुर्दशा पर किसी को चिंता नहीं है। इसके इतर बाबरी विध्वंस को पूरी तरह भूलकर अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी को सुख-चैन से बिताने के लिए संघर्ष कर रहे अयोध्यावासियों के मन में एक बार फिर से खौफ का वातावरण घर कर गया है।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

फूड कूपन योजना में धांधली

टेंडर की शर्तो में बदलाव कर कंपनियों ने लगाई करोडों की चपत विनोद उपाध्याय
भोपाल। प्रदेश सरकार की लापरवाही और कंपनियों की चालाकी के कारण 1400 करोड़ रुपये की फूड कूपन योजना में करोड़ों की चपत लगाने का मामला सामने आया है। फूड कूपन योजना में हुई धांधली ने सरकार की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। योजना के अनुसार शुरुआत में प्रदेश में एक करोड़ 55 लाख कार्ड बनने हैं। इसलिए सरकार का बजट भी करीब 1400 करोड़ रुपए का है। केन्द्र सरकार की इस महत्वपूर्ण योजना के तहत प्रदेश सरकार को पांच साल में उक्त राशि खर्च किये जाने हैं। आरोप है कि राज्य सरकार ने निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए एग्रीमेंट में टेंडर की शर्तों को बदल दिया। मध्य प्रदेश में 22 हजार से ज्यादा राशन की दुकानें चलती हैं। अभी तक इन दुकानों पर पुराने राशन कार्ड चलते हैं, लेकिन सरकार अब बार कोडेड राशन कार्ड और फूड कूपन बनवा रही है। मकसद ये है कि जिसके हिस्से का अनाज है वो उसी को मिले। दुकानदार कहीं और सब्सिडी का राशन बेच नहीं पाए। लेकिन बेईमानी रोकने के लिए बनी ये योजना शुरू होने से पहले ही विवादों से घिर गई है। राज्य में फूड कूपन योजना का काम 3 कंपनियों को दे भी दिया गया है,लेकिन तफ्तीश में चौंकाने वाली जानकारी मिली हैं। दरअसल तीन आला आईएएस अफसरों की कमेटी ने तीनों कंपनियों के साथ हुए समझौते पर सवाल उठा दिया है। वजह ये क्योंकि जिन शर्तों पर टेंडर निकाला गया और जिन शर्तों पर समझौता हुआ। उसमें बहुत फर्क है। अफसरों की कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि टेंडर के मुताबिक गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को बार कोडेड राशन कार्ड 250 रुपए में दिया जाना था, लेकिन 3 कंपनियों के साथ जब इस पर एग्रीमेंट हुआ तो ये रकम बढ़कर 281 रुपए हो गई। टेंडर में ये लिखा था कि कार्ड में फेरबदल की फीस भी कार्ड की कीमत से कम होगी, लेकिन जब एग्रीमेंट हुआ तो इसकी कीमत भी 281 रुपए रख दी गई। टेंडर के दौरान ये कहा गया कि सारे सर्विस टैक्स कंपनी चुकाएगी, लेकिन जब समझौता हुआ तो ये लिखा गया कि सर्विस टैक्स या तो सरकार चुकाएगी या फिर जनता। तीन कंपनियों से एग्रीमेंट के बाद सरकार ने अपने ही खजाने को नुकसान का इंतजाम कर लिया। यही नहीं जिन 10 जिलों में ये योजना शुरू हुई उसमें भी गरीबी रेखा के ऊपर रहने वालों की तादाद में इजाफा और नीचे रहने वालों की संख्या कम होने की बात सामने आ रही है। होशंगाबाद जिले में तो इसी वजह से फूड कूपन बनाने का काम ही रोक दिया गया है। होशंगाबाद के फूड कूपन योजना प्रभारी अधिकारी ए के उईके के मुताबिक तुलनात्मक रूप से बीपीएल परिवारों की संख्या फुड कूपन योजना में कम हुई है। फिलहाल योजना बंद है। शासन के निर्देशानुसार आगे कार्रवाई होगी। राज्य में गरीब भले बढ़े हैं, लेकिन सरकारी योजनाओं में गरीबों की तादाद कम हो रही है। इसकी वजह की ओर भी तीन आईएएस अधिकारियों की कमेटी इशारा कर रही है। रिपोर्ट के मुताबिक टेंडर गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों को बार कोडेड कार्ड मुफ्त दिया जाना था। साल भर के लिए फूड कूपन की कीमत थी 131 रुपए, जिसका खर्चा सरकार को ही उठाना था यानि गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों को कार्ड बांटने में कंपनी को फायदा कम था। ऐसे में सवाल ये कि क्या इसी वजह से गरीबों की तादाद कम हुई। कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बीपीएल परिवारों के मामले में भी टेंडर और एग्रीमेंट की शर्तों में काफी फर्क है। टेंडर में तय किया गया था कि 550 सर्विस सेंटर बनेंगे। ये भी लिखा था कि हार्डवेयर की सारी जिम्मेदारी कंपनी की होगी लेकिन कंपनियों से समझौते के वक्त इस बारे में कुछ तय नहीं किया गया। उल्टे सर्विस सेंटर में सारे इंतजाम की जिम्मेदारी अब सरकार पर ही आ गई है। टेंडर के दौरान ये भी तय किया गया कि इस योजना का प्रचार कंपनी करेगी, लेकिन एग्रीमेंट के वक्त ये जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी गई यही नहीं एग्रीमेंट के बाद अब सरकार को करार रद्द करने का अधिकार भी नहीं है। मतलब ये कि कंपनी अगर अपना काम सही नहीं कर पाई तो सरकार उसका कॉन्ट्रेक्ट नहीं रद्द कर पाएगी। किसी दूसरी कंपनी को काम देने का अधिकार भी पहले वाली कंपनी के ही पास है। बड़ी बात ये कि प्रोजेक्ट कितने वक्त में पूरा होगा। इसकी भी कोई समय सीमा नहीं रखी गई है।

अपनों ने की भाजपा की छवि तार-तार

विनोद उपाध्याय देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी आज एक बार फिर दोराहे पर खड़ी है। पार्टी के भीतर मचा घमासान उसे अंदर से कमजोर किए जा रहा है। उसके अपने ही नेता उसकी छवि तार-तार करने में जुटे हैं। अनुशासित कही जाने वाली बीजेपी बेबस नजर आ रही है। अमूमन हर बड़ा नेता अपनी ढपली अपना राग अलाप रहा है। एक बार फिर जाहिर हो रहा है कि जब-जब पार्टी के पास मौका होता है सत्ता के करीब आने का, वो खुद को इससे दूर कर लेती है। लगता है जैसे पार्टी ने अपनी गलतियों से सबक नहीं सीखा है। पार्टी के बड़े नेता बयानों, चि_ियों के ऐसे-ऐसे बम फोड़ रहे हैं कि हाई कमान बेबस दिख रहा है। गौर करने वाली बात ये है कि आरएसएस की नाक के नीचे ये सब हो रहा है। किन-किन दिग्गजों ने बीजेपी को मुश्किल में डाला है देखते हैं-
राम जेठमलानी कभी बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लडऩे वाले मशहूर वकील राम जेठमलानी कैसे बीजेपी सांसद बना दिए गए, इसका जवाब आज तक पार्टी की तरफ से नहीं आया। बहरहाल, वो बीजेपी में शामिल हुए और पार्टी का चेहरा भी बने। लेकिन उनके मौजूदा तेवर ने बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है। जेठमलानी ने नितिन गडकरी पर खुलकर हमले बोले। लेकिन मजबूरीवश पार्टी को शांत रहना पड़ा। लेकिन जब जेठमलानी ने सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति के मुद्दे पर बीजेपी से अलग स्टैंड लिया तो पार्टी को उनके खिलाफ एक्शन लेने का मौका मिल गया। अब उन्हें पार्टी से सस्पेंड कर कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। यशवंत सिन्हा बीजेपी के एक और वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा भी इन दिनों बगावती तेवरों में हैं। जेठमलानी की तर्ज पर उन्होंने भी नितिन गडकरी से इस्तीफा मांगा है। एनडीए शासन में वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा इससे पहले भी कई मुद्दों पर अपनी इतर राय दे चुके हैं। सिन्हा को हालांकि अभी तक कोई नोटिस तो जारी नहीं किया गया है, लेकिन उनके स्टैंड ने पार्टी की किरकिरी खूब कराई है। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी पार्टी के लिए अपने अंदाज में मुश्किलें खड़ी करते रहे हैं। संजय जोशी प्रकरण में मोदी की ताकत साफ नजर आ गई थी। संजय जोशी को बीजेपी से हटाए जाने के बाद ही मोदी बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में नजर आए थे। मोदी बीजेपी की तरफ से पीएम पद के सबसे बड़े दावेदार हैं। पार्टी के भीतर भी उनके समर्थक बड़ी तादाद में हैं। ऐसे में उन्हें नजरअंदाज करना पार्टी के लिए बेहद मुश्किल है। लालकृष्ण आडवाणी पूर्व उप प्रधानमंत्री और बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे लालकृष्ण आडवाणी उन नेताओं में से हैं जिन्होंने पार्टी को बुलंदियों पर पहुंचाया। आज के दौर में वो खुद को बेहद उपेक्षित महसूस करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कई अहम मुद्दों पर लालकृष्ण आडवाणी की राय पार्टी की राय से इतर रही है। आडवाणी के स्टैंड ने पार्टी को कई बार मुश्किल स्थिति में डाला है। बी एस येदुरप्पा बीजेपी के लिए एक और बड़ा खतरा बने हुए हैं कर्नाटक के प्रमुख नेता बी एस येदुरप्पा। कर्नाटक में बीजेपी को खड़ा करने में येदुरप्पा की खास भूमिका रही है। कर्नाटक में सत्ता हासिल कर बीजेपी ने पहली बार किसी दक्षिण भारत राज्य में सरकार बनाई। लेकिन कथित जमीन घोटाले और अवैध खनन के आरोप में येदुरप्पा की कुर्सी क्या गई वो बगावत पर उतर आए। येदुरप्पा लगातार कहते आ रहे हैं कि नितिन गडकरी ने उनसे वादाखिलाफी की है और इसके लिए वही जिम्मेदार हैं। केशुभाई पटेल बीजेपी से दशकों से जुड़े रहे और गुजरात के मुख्यमंत्री रहे केशुभाई पटेल मोदी विरोध के नाम पर पार्टी से अलग हो गए। उन्होंने गुजरात परिवर्तन पार्टी बना ली। विधानसभा चुनावों में वो मोदी और बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं। नितिन गडकरी बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ही पार्टी के लिए जाने-अनजाने में सबसे बड़ा संकट बने हुए हैं। अपनी ही पूर्ति कंपनी को लेकर गडकरी पर जिस तरह के आरोप लगे उसने पार्टी में ना सिर्फ उनकी स्थिति को कमजोर किया बल्कि, पार्टी के भीतर ही कई विरोधी सुरों को जगह दी। इससे भ्रष्टाचार को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ उसकी लड़ाई कमजोर हुई। हालत ये है कि अब यकीन करना मुश्किल है कि बीजेपी भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर है भी या नहीं। पुराने नेता भी कम नहीं ये वो नाम हैं जो मौजूदा दौर में बीजेपी के लिए संकट बने हुए हैं। लेकिन पूर्व में पुराने नेताओं ने भी बीजेपी को मुश्किल में डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनमें सबसे प्रमुख हैं जसवंत सिन्हा, उमा भारती और कल्याण सिंह। जसवंत सिंह भारत-पाक विभाजन के लिए जिम्मेदार कहे जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना पर किताब लिखना जसवंत सिन्हा को भारी पड़ गया। इस मुद्दे पर बीजेपी की जमकर किरकिरी हुई। नतीजतन 2009 में जसवंत को बीजेपी से निकाल दिया गया। हालांकि बाद में उनकी वापसी भी हो गई। उमा भारती उमा भारती का वाकया भी बीजेपी के लिए भारी पड़ा। 2003 में उमा को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन महज 9 महीने बाद ही 23 अगस्त 2004 में उन्हें उन्हें पद से हटा दिया गया। बस फिर क्या था, उमा भारती ने लालकृष्ण आडवाणी की बैठक में सरेआम पार्टी नेताओं को ही चुनौती दे डाली। पार्टी से निकाले जाने के बाद उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी नाम से अपनी अलग पार्टी भी बना ली। लेकिन जून 2001 में उनकी बीजेपी में वापसी हो गई। कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी बीजेपी को कई बार दर्द देकर गए। कभी बीजेपी के हिंदुत्व का चेहरा रहे कल्याण सिंह 1999 में बीजेपी से निष्कासित कर दिए गए। जवाब में 5 जनवरी 2000 को उन्होंने जनक्रांति पार्टी बना ली। यूपी में बीजेपी को खासा नुकसान पहुंचाने के बाद 2004 में उन्होंने पार्टी में वापसी कर ली। 2007 में बीजेपी ने यूपी में कल्याण के नेतृत्व में चुनाव लड़ा लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। 2009 में कल्याण ने फिर बीजेपी का साथ छोडा़ और मुलायम सिंह से हाथ मिला लिया। अब आलम ये है कि बाकी बागियों की तरह कल्याण की भी बीजेपी में वापसी की बाट जोह रहे हैं। ऐसे वक्त पर जब महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर देश में यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल बना हुआ है। लेकिन बजाए इन मुद्दों पर सरकार को घेरने के, बीजेपी अपने ही झगड़ों में उलझी हुई है। करप्शन के मुद्दे पर कभी आक्रामक रही बीजेपी नितिन गडकरी पर लगे आरोपों के बाद बैकफुट पर है। उसके अपने नेता ही मुसीबत का सबब बने हुए हैं। एक से निपटो तो दूसरा नेता चुनौती देता नजर आ जाता है। पार्टी विद डिफरेंस कही जाने वाली पार्टी अब पार्टी विद डिफरेंसेस नजर आने लगी है। इन तमान तथ्यों के मद्देनजर कहा जा सकता है कि 2004 से सत्ता में वापसी की आस देख रही बीजेपी के लिए दिल्ली कहीं और दूर ना चली जाए।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

प्रभात झा की पॉलिटिक्स पर भारी शिवराज की सियासत
विनोद उपाध्याय मध्य प्रदेश में लगातार शिवराज सिंह के लिए संकट बनते जा रहे प्रभात झा को काबू में करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐसा दांव चला है कि प्रभात झा चारो खाने चित्त हो सकते हैं। शिवराज सिंह चौहान ने अनूप मिश्रा का कद पद बढ़ाकर प्रभात झा को तगड़ा झटका दिया है। अपनी शतरंजी चालों के सहारे अच्छे-अच्छों को राजनीति के बियावान में धकेलकर मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देखने वाले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बिहारी बाबू प्रभात झा को मुख्यमंत्री ने ऐसी मात दी है कि अब झा साहब बगले झांकते फिर रहे हैं। दरअसल, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ग्वालियर चंबल के दबंग नेता अनूप मिश्रा की मंत्रिमंडल में वापसी कर एक तीर से कई निशाने साधे। मुख्यमंत्री ने अनूप मिश्रा को मंत्री पद की शपथ दिलाकर मध्यप्रदेश में प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा के बढ़ते आभामंडल पर 'ब्रेकÓ लगाने का प्रयास किया है। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि यह कदम श्री चौहान ने पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की मंत्रणा पर उठाया। दो साल,दो महीने के अंतराल के बाद अनूप मिश्रा फिर से प्रदेश सरकार में मंत्री की कुर्सी पर हैं। उनके मंत्री बनते ही प्रदेश में भाजपा की राजनीति में समीकरण बदलेंगे, इसकी सुगबुगाहट तेज हो गई है। इन समीकरणों के चलते उन लोगों को खासी परेशानी हो सकती है, जो मिश्रा के सत्ता से बाहर रहते हुए उनसे किनारा कर गए थे। इनमें प्रभात झा पहले नंबर पर हैं। प्रदेश भाजपा की कमान संभालने के बाद ही झा की फ्रेमिंग शिवराज के विकल्प के तौर पर की जाने लगी। प्रभात झा की शिवराज मंत्रीमण्डल में बढ़ते दखल और प्रभाव से इन सियासी हवाओं को हकीकत की जमीन भी मिलती गई। मध्यप्रदेश भाजपा के मीडिया प्रभारी के बाद सीधे प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बनकर लौटे प्रभात झा ने जब प्रदेशाध्यक्ष की जवाबदारी संभाली तभी ये तय हो गया था कि झा अब हिसाब किताब बराबर करेंगे। पार्टी के भीतर उनके सियासी दुश्मनों की मुश्किलें अब बढऩे वाली हैं। झा के मोर्चा संभालते ही, पहली गाज अनूप मिश्रा पर गिरी। और इस तरह गिरी की उनकी पूरी राजनीति ही संकट में आ गई। दुश्मन खैर मना ही रहे थे, कि दूसरी गाज में रघुनंदन शर्मा को पार्टी के उपाध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ गया। प्रदेश भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र तोमर को भी झा ने बड़ी चतुराई से निपटा दिया। पार्टी के एक नेता कहते हैं कि झा को इस बात का अभास होने लगा था कि उनके बढ़ते प्रभाव की राह में नरेन्द्र सिंह तोमर कंटक बन सकते हैं। इसलिए कि तोमर को मुख्यमंत्री के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाने लगा था। झा ने उन्हें दिल्ली पहुंचाकर रास्ते से हटा दिया। तोमर को बाद में एहसास हुआ कि उनका कद सिर्फ देखने के लिए बढ़ा है। सच्चाई यह है कि उन्हें मुख्यमंत्री बनने की राह से अलग किया गया है। नरेन्द्र सिंह तोमर के राष्ट्रीय महासचिव बनने से उनके समर्थकों में अब पहले जैसा उत्साह नहीं है। उन्होंने अपने समर्थकों से यहां तक कह दिया कि अभी मेरे बुरे दिन चल रहे हैं, पार्टी में जिस भी बड़े नेता से जुड़ सकते हो जुड़ जाओ। वक्त आने पर लौट आना। उसके बाद यह सिलसिला ऐसा चला की अभी तक थमता नजर नहीं आ रहा है। मप्र सरकार के एक मंत्री कहते हैं कि प्रभात जी मंत्रियों में आपस में तालमेल बनाए रखने की जगह भिड़ाने का काम करते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करने से पार्टी में गतिशीलता बनी रहेगी और भाजपा हमेशा सुर्खियों में रहेगी। भाजपाई भी स्वीकारते हैं कि मंत्रियों के साथ प्रदेश अध्यक्ष का तालमेल बहुत कम है। झा के प्रभाव का ही असर है कि पूर्व मंत्री कमल पटेल भी खाली घूम रहे हैं। पार्टी में उनकी हैसियत शून्य कर दी गई है। कमल पटेल को उम्मीद थी कि हत्या के एक मामले में सीबीआई के घेरे से निकलने के बाद उनका सरकार में रुतबा बढ़ जाएगा लेकिन प्रभात के कारण वह आज भी हासिए पर हैं। भाजपा की राजनीति को नजदीक से समझने वालों की माने तो प्रभात का अगला शिकार स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे। यही कारण है कि कुक्षी, सोनकच्छ, जबेरा और महेश्वर उपचुनाव में भाजपा को मिली जीत को अपनी मेहनत का परिणाम दर्शाने के लिए झा ने ऐसी गोंटियां बिछाई की काम और नाम शिवराज का, लेकिन इस जीत का सेहरा प्रभात झा के सिर पर बंधा। इसका प्रचार करने के लिए प्रभात झा ने प्रदेश में कई सभा और बैठके कर अपना गुणगान कराया। लेकिन जब मुख्यमंत्री विकास यात्रा पर निकले तो हकीकत सामने आ गई। भाजपा के संत और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी,पूर्व सांसद कैलाश सारंग और सांसद अनिल माधव दवे अपने बहिष्कार से दुखी हैं। अनिल माधव दवे को इंदौर में हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में अध्यक्ष के सामने प्रजेंटेशन के जरिए काबिलियत दिखाना उन्हें भारी पड़ा। भाजपा संगठन और सरकार उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठनों के सम्मेलन में उन्हें बोलने नहीं दिया। उल्लेखनीय है की उपरोक्त सभी नेता मुख्यमंत्री के शुभचितकों में गिने जाते हैं। पार्टी के अंदर गुस्सा कइयों में खौल रहा है। कोई खुल कर विरोध इसलिए नहीं करना चाह रहा है कि अगले साल चुनाव होना है। कहीं पार्टी से अलग न कर दिया जाए। ऐसी स्थिति में चुनाव लडऩा मुश्किल हो जाएगा। उमा भारती का हश्र देख चुके हैं। विकास यात्रा के जरिये भाजपा नेतृत्व प्रदेश की जनता की नब्ज टटोलने निकली थी कि उसकी स्थिति जनता के बीच कैसी है। लेकिन आम जनता के बीच सरकार की स्थिति बदतर और प्रभात झा के प्रति पार्टी पदाधिकारियों तथा कार्यकर्ताओं का बढ़ता रूझान देखकर शिवराज चौकना हो गए। उसके बाद मुख्यमंत्री को एक गोपनीय रिपोर्ट उनके शुभचिंतकों ने सौंपी। रिपोर्ट में हुए खुलासे ने मुख्यमंत्री को चौंकाया। इस रिपोर्ट से बताया गया कि प्रदेश के अधिकांश विधायक प्रभात झा के पाले में जा रह हैं। वहीं प्रभात झा ने प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए जिन जिन नेताओं को किनारे लगाया, वो सब के सब प्रभात झा से अपनी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ग्वालियर में देखने को मिला जब पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा अपनी सरकार में पूछ-परख नहीं होने से आहत होकर ग्वालियर में दरबार लगाकर नगर निगम कमिश्नर और अधिकारियों की जमकर क्लास ली थी। तब प्रभात झा ने जाकर उनको समझाया तो वह मान गए। उसके बाद इन दोनों में आपसी घनिष्ठता बढऩे लगी। मौके की नजाकत को देखते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने अपने दोस्त और पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से सलाह लिया। तोमर ने प्रभात के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए मंत्रिमंडल विस्तार की योजना बनाई और अनूप मिश्रा को सम्मान मंत्री पद सौंपा। अब गेंद शिवराज के हाथ में है। देखना यह है कि वह प्रभात को बोल्ड करने के लिए किसको गेंद थमाते हैं।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

3 साल में 1000 करोड़ की काली कमाई






भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय परिदृश्य में सार्वजनिक मंचों पर भाजपा भले अण्णा हजारे के सुर में सुर मिलाती नजर आए लेकिन उसके अपने राज्य मध्य प्रदेश में यह लाइलाज नासूर बन चुका है। पार्टी अपने मंत्रियों और पदाधिकारियों को तो लगातार सबक दे रही है कि वे कोटा-परमिट, मकान-दुकान, खदान से दूर रहें पर नौकरशाही की मुश्कें कसना राज्य सरकार के लिए भी बेहद मुश्किल भरा साबित हो रहा है। भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है।
मध्य प्रदेश में आयकर, लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू ने पिछले तीन सालों में करीब तीन सौ से ज्यादा जगह छापे मारे और करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। आयकर विभाग ने तीन सालों में एक दर्जन से ज्यादा अफसरों के यहां छापा मारकर करीब 700 करोड़ रुपये से ज्यादा की अघोषित संपत्ति का खुलासा किया है। आयकर वसूली के मामले में देश में मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर है जबकि राजस्थान पहले स्थान पर है। मध्य प्रदेश को 9 सौ करोड़ का लक्ष्य दिया गया था।
भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है। लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 203 रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहाँ छापामार कार्रवाई कर 103 करोड़़ की संपत्ति जब्त की है।
इन सरकारी आंकड़ों से मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिसे लेकर विपक्ष ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर हमले तेज कर दिये हैं। सूबे में लोकायुक्त पुलिस और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने भ्रष्टाचार की शिकायतों के मद्देनजर पिछले दो साल में 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों पर छापे मारकर करीब 348 करोड़ रुपये की काली कमाई जब्त की।
इन कारिंदों में चपरासी, क्लर्क, अकाउन्टेन्ट और पटवारी से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के बड़े अफसर शामिल हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इंदौर के क्षेत्र क्रमांक एक के भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता के विधानसभा में उठाये गये सवाल पर यह जानकारी दी थी। गुप्ता ने मुख्यमंत्री के हालिया जवाब के हवाले से बताया कि प्रदेश में पिछले दो साल के दौरान लोकायुक्त पुलिस ने 52 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापे मारे।
वहीं ईओडब्ल्यू ने 15 अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापेमारी की। उन्होंने सरकारी आंकड़ों के आधार पर बताया कि दोनों जांच एजेंसियों के छापों में इन 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों से करीब 348 करोड़ रुपये की रकम जब्त की गयी। भाजपा विधायक गुप्ता ने पूछा कि प्रदेश सरकार भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे इन कारिंदों के खिलाफ क्या कार्रवाई कर रही है तो मुख्यमंत्री ने बताया कि शासन के निर्देश हैं कि लोकायुक्त संगठन और ईओडब्ल्यू के छापों के बाद संबंधित लोक सेवक को मैदानी तैनाती (फील्ड पोस्टिंग) से हटाकर कहीं और स्थानांतरित किया जाये या महत्वपूर्ण दायित्वों से मुक्त किया जाये।
उधर, प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की मानें तो लोकायुक्त पुलिस और ईओडब्ल्यू की कार्रवाई से बड़े मगरमच्छ अब भी बचे हुए हैं। प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नरेंद्र सलूजा ने कहा, सूबे में क्लर्क और पटवारी जैसे अदने कर्मचारियों के ठिकानों पर इन जांच एजेंसियों के छापों में करोड़ों रुपये की मिल्कियत उजागर हो रही है। इससे बड़े नौकरशाहों और मंत्रियों की काली कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है।Ó उन्होंने दावा किया, 'वर्ष 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश की भाजपा सरकार के इशारे पर छोटे कर्मचारियों के ठिकानों पर लगातार छापेमारी की जा रही है, ताकि बड़े अधिकारियों में भय का माहौल बनाया जा सके और उनसे मोटा चुनावी चंदा वसूल किया जा सके।
प्रदेश के लोकायुक्त पीपी नावलेकर कहते हैं कि लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 203 रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहाँ छापामार कार्रवाई कर 103 करोड़़ की संपत्ति जब्त की है। संगठन की नजरों में कोई भी बड़़ा या छोटा नहीं है। शिकायत मिलने पर सभी श्रेणी के अफसर व कर्मचारियों पर कार्रवाई की जा रही है। प्रदेश में कर्नाटक जैसे मामले सामने नहीं आए हैं।
उन्होंने कहा कि छोटे स्तर के अधिकारियों पर कार्रवाई करने का मतलब यह नहीं है कि प्रथम श्रेणी के अफसरों पर कार्रवाई नहीं होती है। आम आदमी निचले स्तर के अफसर व कर्मचारी द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार से परेशान है। यही शिकायतें भी अधिक आती हैं। प्रारंभिक स्तर पर परीक्षण के बाद ही कार्रवाई की जाती है।
उन्होंने बताया कि मैंने 2009 में कार्यभार संभाला था। तब से लगातार कार्रवाई की जा रही है। जनवरी-2012 तक विभाग ने 203 रिश्वतखोरी व 49 पद के दुरुपयोग के मामले पकड़़े। जबकि 81 अफसरों के यहाँ छापे मारकर 103.7 करोड़़ की संपत्ति जब्त की है।
ईओडब्ल्यू ने पिछले तीन सालों में सौ से ज्यादा अफसरों को अपने घेरे में लिया है। इनके पास से करीब 50 करोड़ रुपये से ज्यादा काली कमाई का खुलासा हुआ।
मध्यप्रदेश गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। राज्य के नौकरशाह से लेकर पटवारी तक किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार की परिधि में आकर खड़े हो चुके है। पिछले दिनों उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के घर मिली करोड़ों की संपत्ति और अब मंदसौर के एक सब इंजीनियर के घर बरामद हुए करोड़ों रू. सरकार के इतिहास को बयान कर रहे है।
लूट का यह सिलसिला वर्ष 1998 के बाद से बहुत तेजी से आगे बढ़ा है। सरकारी योजनाओं की सभी कमजोरियों का पहले लाभ उठाकर हर स्तर पर कमीशन खोरी का धंधा तेजी से जारी है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल दे तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यो के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नही रहेगी। आम आदमी पर प्रतिदिन लगने वाले टैक्स और सरकारी खजाने में प्रतिदिन पड़ रही डकैती का अनुपात कुछ ऐसा है कि विकास की गतिविधियां सिर्फ कागजों तक सीमित होकर रह गई है।
प्रदेश में केंद्र और राज्य के बजट से अरबों की योजनों और कार्यक्रम चल रहे हैं, विश्वबैंक और डीएफआइडी पोषित योजनाओं ने भी सरकारी विभागों के खजाने भर रखे हैं। तीन सालों में आयकर विभाग उन सभी स्त्रोत और माध्यमों का खुलासा कर चुका है जहां ब्लैक से व्हाइट का खेल चलता है, लिहाजा अब उन स्त्रोतों और माध्यमों को छोड़कर किसी दूसरे तरीके से इसे ठिकाने लगाने के लिए मंथन में यह गठजोड़ जुटा है। यह गठजोड़ अब तक पैसा कमाने के नए-नए तरीकों को खोजने में व्यस्त रहता था लेकिन अब इसे बचाने की जुगत में जुटा हुआ है। आयकर विभाग की आंखों में धूल झोंकने के नए-नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं।
करोड़पति चपरासी और क्लर्को के राज्य में आला अधिकारियों के हाल यह है कि उनके यहां छापा मारने पर पैसा गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियों ने पिछले तीन साल के दौरान करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। इन विभागों के छापों से यह बात सामने आई है कि सरकारी दफ्तरों का सारा अमला भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के पास नगदी और सोना रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं।
मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की एक-एक कहानी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। राज्य सरकार के सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों के पास से करोड़ो रूपये की बरामदगी का सिलसिला जारी है। राज्य के प्रमुख सचिव से लेकर पटवारी तक सरकारी कर्मचारी इन दिनों करोड़पति बन चुके है। अनुमान के अनुसार पिछले दस वर्षो के दौरान मध्यप्रदेश में पचास हजार करोड़ से अधिक की हेराफेरी सरकारी खजाने में की गई है। मध्यप्रदेश को एक सुशासन देने का दावा करने वाली सरकार इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफल रही है।
इंदौर में परिवहन विभाग के एक मामूली बाबू रमण धूलधोए के यहां छापा मारने पहुंची ईओडब्लू की टीम की आंखें तब फटी की फटी रह गईं, जब उसे करोड़ों की बेनामी संपत्ति मिली। इंदौर में परिवहन विभाग के एक मामूली बाबू रमण धूलधोए के यहां छापा मारने पहुंची ईओडब्लू की टीम की आंखें तब फटी की फटी रह गईं, जब उसे करोड़ों की बेनामी संपत्ति मिली।
क्लर्क रमण धूलधोए के यहां से 75 करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर हुई। इसमें एक किलो सोने के जेवरात, पचास बीघा जमीन पर आलीशान फार्म हाउस समेत कई और मकान और लक्जरी गाडिय़ां शामिल हैं। 15 दिसंबर को मंदसौर के सब इंजीनियर शीतल प्रसाद पांडे के विकानों पर मारे गए लोकायुक्त के छापे में बारह करोड़ की काली कमाई सामने आई। उज्जैन नगर निगम का चपरासी नरेन्द्र देशमुख पंद्रह करोड़ रुपये का मालिक निकला। देशमुख भले ही चपरासी के पद पर कार्यरत हो, लेकिन उसने जमीन में करोड़ों रुपये निवेश कर रखे थे। वह जलगांव में एक होटल में बराबर का भागीदार भी पाया गया। इसके अलावा 12 नवंबर को हरदा के सब-रजिस्ट्रार माखनलाल पटेल के इंदौर के तीन ठिकानों पर मारे गए छापे में तीन करोड़ की काली कमाई का खुलासा हुआ।
उज्जैन में परिवहन विभाग के एक इंस्पेक्टर सेवाराम खाडेगर के यहां दस करोड़ की संपत्ति का पाया जाना भी पुलिस टीम को चकरा देने वाला था। परिवहन ऐसा कमाऊ विभाग है जिसमें सिपाही तक की नियुक्ति मुख्यमंत्री सचिवालय की मंजूरी के बगैर नामुमकिन होती है। भ्रष्टाचार की यह कथा अंतहीन है। पिछली 31 दिसंबर को आयकर महकमें ने अनुपातहीन संपत्ति के मामले में कुछ आइएएस अफसरों और कॉलेज चलाने वाले शिक्षा संस्थानों को नौ सौ करोड़ रुपये टैक्स वसूली के नोटिस जारी किए हैं।
लोकायुक्त में लंबित प्रकरण मुख्यमंत्री, राज्य के मंत्रीगण, विधायक सहित पटवारी स्तर तक के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को अपने गिरफ्त में ले रहे है। इसके बाद भी सरकार का दावा है कि भ्रष्टाचार से दूर स्वच्छ प्रशासन देने के उसके प्रयास कामयाब रहे है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन चोर अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल दे तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यो के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नही रहेगी। आम आदमी पर प्रतिदिन लगने वाले टैक्स और सरकारी खजाने में प्रतिदिन पड़ रही डकैती का अनुपात कुछ ऐसा है कि विकास की गतिविधियां सिर्फ कागजों तक सीमित होकर रह गई है।
करोड़पति चपरासी और क्लर्को के राज्य में आला अधिकारियों के हाल यह है कि उनके यहां छापा मारने पर पैसा गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियों ने पिछले तीन साल के दौरान करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की है। इन विभागों के छापों से यह बात सामने आई है कि सरकारी दफ्तरों का सारा अमला भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के पास नगदी और सोना रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं।
तत्कालीन गृह सचिव डॉ. राजेश राजौरा के यहां 30 मई 2008 को छापा पड़ा। साढ़े पांच करोड़ टैक्स की काली कमाई उजागर हुई। डेढ़ करोड़ रुपये से अधिक की टैक्स डिमांड निकाली। तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक, योगीराज शर्मा और कुछ कर्मचारियों के यहां 8 सितंबर 2007 को छापे पड़े। इसमें करीब 60 करोड़ रुपये की अघोषित आय का खुलासा हुआ। इन्हें साढ़े 12 करोड़ रुपये से अधिक का आयकर चुकाना होगा। नगर निगम भोपाल के तत्कालीन अपर आयुक्त केके सिंह चौहान के यहां 5 अप्रैल 2007 छापा पड़ा। 6 करोड़ काली कमाई उजागर। आयकर विभाग ने दो करोड़ से अधिक टैक्स डिमांड निकाली है।
आयकर, लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू ने पिछले तीन सालों में करीब ढाई सौ से ज्यादा जगह छापे मारे और करीब एक हजार करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर की। अकेले लोकायुक्त संगवन ने पिछले दो साल में प्रदेश में 63 सरकारी मुलाजिमों पर शिकंजा कसा और इनसे करीब सौ करोड़ रुपये की काली कमाई उजागर हुई। पिछले साल 25 अधिकारी-कर्मचारियों के पास 24 करोड़ रुपये की बेहिसाब संपत्ति मिली। मौजूदा वर्ष में 38 सरकारी मुलाजिमों के पास 75 करोड़ से अधिक यानी औसत दो करोड़ रुपये की बेहिसाब संपत्ति मिली। ईओडब्ल्यू ने पिछले तीन सालों में सौ से ज्यादा अफसरों को अपने घेरे में लिया है। इनके पास से करीब 50 करोड़ रुपये से ज्यादा काली कमाई का खुलासा हुआ। आयकर विभाग ने तीन सालों में एक दर्जन से ज्यादा अफसरों के यहां छापा मारकर करीब 700 करोड़ रुपये से ज्यादा की अघोषित संपत्ति का खुलासा किया है। सबसे बड़ा मामला प्रमुख सचिव स्तर अरविंद जोशी और उनकी पत्नी टीनू जोशी का है। इनके बंगले में तीन करोड़ 11 लाख रुपये नगद मिले थे।
आयकर विभाग ने निलंबित आइएएस अधिकारी अरविंद-टीनू जोशी, उनके पिता रिटायर्ड डीजीपी एचएम जोशी और अन्य परिजनों व संबंधितों को लगभग 200 करोड़ रुपये की अघोषित आय पर टैक्स चुकाने का नोटिस इसी 31 दिसंबर को जारी किया है। इसमें जोशी दंपती के करीबी एसपी कोहली भी शामिल हैं। इस आय पर 30 प्रतिशत के हिसाब से करीब 60 करोड़ रुपये का टैक्स चुकाना होगा। अकेले जोशी दंपती की आय 150 करोड़ रुपये आंकी गई है। उन्हें करीब 45 करोड़ रुपये टैक्स चुकाना होगा। विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जोशी परिवार का असेसमेंट ऑर्डर एक हजार से भी अधिक पन्नों का है। छापे के बाद तैयार की गई एप्रेजल रिपोर्ट में इन्वेस्टिगेशन विंग ने पूरे समूह की अघोषित संपत्ति की मौजूदा कीमत करीब 360 करोड़ रुपये आंकी थी। इसमें अघोषित आय लगभग 180 करोड़ रुपये बताई गई थी। असेसमेंट विंग ने अपनी पड़ताल के बाद इसमें इजाफा कर इसे 200 करोड़ रुपये पर पहुंचा दिया।
मनरेगा स्कीम में गड़बड़ी को लेकर एक दर्जन दागी कलेक्टर भी अभी तक अछूते हैं। जांच रिपोर्ट इनके खिलाफ होने के बावजूद इन्हें बेहतर पोस्टिंग मिल रही है। हाल ही में हाइकोर्ट में एक दागी कलेक्टर के मामले में फौरन कार्रवाई के निर्देश सरकार को दिए हैं। टीकमगढ़ कलेक्टर केपी राही को नरेगा में भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित किया गया है। भिंड एवं टीकमगढ़ कलेक्टरों पर एक जैसे आरोप थे, लेकिन भिंड कलेक्टर सुहैल अली को बचा लिया गया। बाद में बहाली कर दी गई। आयकर विभाग की रिपोर्ट मिलने के बाद आइएएस अधिकारी राजेश राजौरा को निलंबित किया। इनकी बहाली हो चुकी है। लोकायुक्त 1 जनवरी 2004 के बाद अभी तक 17 आइएएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप में कोर्ट में चालान पेश कर चुका है। यह अभी तक कि सबसे बड़ी संख्या है। लोकायुक्त प्रदेश के लगभग 36 आइएएस अधिकारियों के खिलाफ जांच कर रहा है। ईओडब्ल्यू प्रदेश के करीब 25 आइएएस अधिकारियों की जांच कर रहा है।
मिली भगत की इस राजनीति का दुष्परिणाम राज्य भोग रहा है। समूची शासन व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले सब इंजीनियर और चपरासी सहित राज्य के बड़े अधिकारी अंधी कमाई को व्यय करने के लिए चोरी-छिपे ही सही माध्यमों की खोज कर रहे है। इसी काली कमाई से होने वाले कार्यों को राज्य सरकार विकास के कार्यों की संज्ञा ले रही है। दूसरी ओर यह सत्य है कि मध्यप्रदेश विकास की गतिविधियों से दूर छोटे और बड़े सभी स्तर के प्रभावशील लोगों की अवैध आमदनी को बार-बार देखकर अपने विकास की कल्पना कर रहा है।?
'दूसरी पारी के करीब साढ़े तीन साल गुजार चुकी शिवराज सिंह सरकार जैसे-जैसे चुनाव के मुहाने पर पहुंच रही है, लोगों को उसके वायदे याद आने लगे हैं। एक तरफ भ्रष्ट नौकरशाही और लापरवाह बदजुबान मंत्री राज्य सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं तब दूसरी और पिछले छ: सालों से किए जा रहे है अधूरे वायदे चुनौती बन चुके हैं। जाहिर है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अग्निपरीक्षा का दौर अब शुरू होने जा रहा है।
पिछले सालों में मध्य प्रदेश में लोकायुक्त व राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने छापों के दौरान सात सौ करोड़ रुपये से ज्यादा की अनुपातहीन संपत्ति उजागर की है। भोपाल में आईएएस दंपति अरविंद-टीनू जोशी के यहां आयकर छापे के बाद लोकायुक्त पुलिस ने छापा मारा था।जोशी दंपति के यहां से इनकम टैक्स ने तीन करोड़ रुपये नकद बरामद किए थे। बाद में लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू ने इनकम टैक्स से मिली रिपोर्ट के आधार पर जांच शुरू की। अभी तक उनकी करीब ढाई सौ करोड़ रुपये की संपत्ति का पता चल चुका है। इसमें उनके डीमेट अकाउंट, कृषि भूमि, बैंक अकाउंट, फार्म हाउस आदि का पता चला। यह दंपति अभी निलंबित है एवं उनकी विभागीय जांच चल रही है। लोकायुक्त में उनके खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज है। अकेले इंदौर-उज्जैन संभाग की बात करें तो पिछले एक साल में लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू के छापे में 270 करोड़ रुपये की संपत्ति का खुलासा हो चुका है। बीत 6 माह में ईओडब्ल्यू व लोकायुक्त की बड़ी कार्रवाई पर नजर डालें तो आंकड़े चौंकाने वाले हैं।
आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक मप्र-छग में पिछले एक साल में सौ कंपनियों के नाम सामने आए हैं जिन्होंने सात हजार करोड़ से अधिक रुपए को ब्लैक मनी से व्हाइट में बदल दिया है। ये कंपनियां बड़े ग्रुप की काली कमाई को कैश में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। विभागीय अधिकारियों का मानना है कि इनसे कई गुना अधिक मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। यदि किसी रियल इस्टेट ग्रुप को अपनी सौ करोड़ की काली कमाई बिना आयकर चुकाए वैध करनी है तो वे शहर में फायनेंस, इन्वेस्टमेंट,मार्केटिंग के नाम पर चल रहे ग्रुप ऑफ कंपनीज से संपर्क करते हैं। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर ड्रायवर,चौकीदार जैसे लोगों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। रियल इस्टेट ग्रुप से सौ करोड़ रुपए कैश में लेकर कई कागजी कंपनियों के माध्यम से उतनी कीमत के कई अकाउंट पेयी चैक रियल इस्टेट ग्रुप को दे दिए जाते है। यह चैक रियल इस्टेट ग्रुप खाते के माध्यम से कैश करा लेता है। बुक्स ऑफ अकाउंट में इसकी इंट्री लोन के रुप में दर्शायी जाती है जिससे उस पर आयकर की देनदारी नहीं होती। कमीशन के रूप में रियल इस्टेट को दो करोड़ रुपए कर्ताधर्ताओं को देने पड़ते है लेकिन उनके आयकर के तीस करोड़ रुपए बच जाते है। अग्रवाल कोल कॉपरेरेशन ने अपनी कमाई में शामिल हिंदुस्तान कॉन्टिनेंटल व ऑप्टीमेट टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज कंपनियों के शेयर केपिटल गेन से इनकम टैक्स में छूट मांगी। विभाग को शक होने पर दोनों कंपनियों को उनके दिए गए पते इंदौर, मंदसौर, मुंबई और जबलपुर में ढूंढा। न तो कंपनी मिली और न ही नोटिस की तामीली हुई। इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल ने आखिरकार यह माना कि दोनों की कंपनी बोगस है और कोल कॉरपोरेशन ने गलत ढंग से शेयर केपिटल गेन के माध्यम से खुद की ही काली कमाई को वैध करने का प्रयास किया है।
496 भ्रष्ट अधिकारियों पर लोकायुक्त कार्रवाई की तलवार
मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की एक-एक कहानी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। राज्य सरकार के सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों के पास से करोड़ो रूपये की बरामदगी का सिलसिला जारी है। राज्य के प्रमुख सचिव से लेकर पटवारी तक सरकारी कर्मचारी इन दिनों करोड़पति बन चुके है। अनुमान के अनुसार पिछले दस वर्षो के दौरान मध्यप्रदेश में पचास हजार करोड़ से अधिक की हेराफेरी सरकारी खजाने में की गई है। मध्यप्रदेश को एक सुशासन देने का दावा करने वाली सरकार इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफल रही है।

सरकारी संरक्षण में खनन माफिया




ईमानदार होने की कीमत जब-तब देश और समाज को चुकानी ही पड़ती है। एक बार फिर एक आइपीएस अधिकारी को अपनी जान देकर ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ी है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में पुलिस अनुमंडल अधिकारी यानी एसडीपीओ के पद पर तैनात 2009 बैच के आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार सिंह को बामौर में अवैध खनन से जुड़े माफियाओं ने मार डाला। बताया जा रहा है कि उन्होंने बामौर में जाकर अवैध खनन को रोकने की हिम्मत दिखाई तो ट्रैक्टर चालक गाड़ी लेकर भागने लगा। जब उन्होंने ट्रैक्टर चालक को बीच रास्ते में रोकने की कोशिश की तो उसने नरेंद्र कुमार पर ट्रैक्टर चढ़ा दिया। अस्पताल में नरेंद्र की मौत हो गई। यह हृदयविदारक घटना इस बात की तस्दीक करती है कि देश में अवैध खनन से जुड़े माफिया की ताकत चरम पर है और सरकारें उनके आगे लाचार और पंगु हैं। यह घटना चाक-चौबंद कानून-व्यवस्था की मुनादी पीटने वाली मध्य प्रदेश सरकार के माथे पर कलंक है। अभी तक मध्य प्रदेश में काली कमाई करने वालों का ही भंडाफोड़ हो रहा था, लेकिन आइपीएस अधिकारी की हत्या ने राज्य की डांवाडोल होती कानून-व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है।

मध्यप्रदेश में पुलिस अधिकारी नरेन्द्र कुमार की हत्या के संदर्भ में राजनेताओं और खनन माफियाओं को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह राजनेताओं के माफिया के रूप में बदलने और अपराधियों से उनके गठजोड़ को उजागर करता है. राज्य में धन कमाने के व्यापक अवसर वाले कई व्यापार-व्यवसाय होते हैं, जिनमें खनन, शराब के ठेके, और परिवहन आदि प्रमुख है. जब इन व्यवसायों में सत्ता से जुड़े राजनेता या उनके परिजन शामिल हो जाते हैं तो इन व्यवसायों से अवैध रूप से कमाई की तरीके रोक पाना प्रशासन के लिए कठिन होता है. ऐसे में नरेन्द्र कुमार जैसे अधिकारियों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपनी जान गंवानी पड़ती है.
मध्यप्रदेश के मुरैना में अनुविभागीय पुलिस अधिकारी के पद पर पदस्थ आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार को यहां पदस्थ हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था और निश्चित रूप से उनमें ईमानदारी से कर्तव्य निर्वहन का जज्बा था, जो किसी भी समाज के विकास और सुरक्षा के लिए अत्यन्तक जरूरी है. यह स्पष्ट, है कि उनकी हत्या के पीछे उन लोगों का हाथ है, जिनके हित उनके कर्तव्य निर्वहन से प्रभावित हो रहे थे.
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में अवैध खनन के कई मामले लगातार सामने आते रहे हैं और इससे न सिर्फ सरकार को करोड़ों का नुकसान हो रहा है, बल्कि पर्यावरण का संकट भी खड़ा हो गया है.
मध्यप्रदेश में टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, ग्वालियर और शिवपुरी तक फैला बुन्देलखण्ड पठार खनन माफियाओं के कारण ही खत्म होने के कगार पर है. इस पठार से निकलने वाले ग्रेनाईट का सरकारी तौर पर तो प्रतिवर्ष मात्र 65 करोड़ रूपयों का व्यवसाय हो रहा है, किन्तु वास्तव में ढाई सौ करोड़ रुपये प्रतिवर्ष का व्यवसाय अवैध रूप से किए जाने की बात सामने आती है. इसके बावजूद सरकार उसे नहीं रोक पा रही है.
पूरे प्रदेश में इस तरह चल रहे अवैध खनन से राज्य को रहे नुकसान के बारे में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट से पता चलता है, जिसके अनुसार मध्यप्रदेश में अवैध खनन के कारण पिछले पांच सालों में राज्य को 1500 करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है. यही नहीं, मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रस्तुत की गई विभिन्न रिपोर्टों से भी प्रदेश में अवैध खनन की बात उजागर होती है.
विधानसभा में प्रस्तुत सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 2005 से 2010 के बीच राज्य में 6906 अवैध खनन के मामले सामने आए, जिनसे राज्य को 1496 करोड़ रूपयों का नुकसान हुआ. हालांकि खनन मंत्रालय के आकड़ों के अनुसार प्रदेश में 2009-10 में 9701 करोड़ रूपयों के खनिज एवं 440 करोड़ रूपए के उप खनिज का उत्पादन किया गया. किन्तु अवैध रूप से उत्पादित खनिज इससे भी कई गुना ज्यादा है, जिसका लाभ सीधे तौर पर खनन माफिया उठा रहे हैं.
मध्यप्रदेश के कटनी जिले में संगमरमर के खनन पर भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा रोक लगाए जाने के बावजूद यहां उत्खनन जारी है और करोड़ों रूपए का अवैध कारोबार संचालित किया जा रहा है.
इसी तरह प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में नर्मदा नदी के घाटों पर रेत के अवैध खनन का सिलसिला भी जारी है. प्रदेश के इसी क्षेत्र के अलीराजपुर जिले में सोप स्टोन, रेत, केलसाईट तथा डोलोमाईट स्टोन की 150 खदानों में से 116 खदानों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा खनन पर रोक लगाई गई है. इसके बावजूद यहां चोरी-छुपे खनन की घटनाएं होती रही हैं.
इस प्रकार मध्यप्रदेश में अवैध खनन की बात न सिर्फ सामाजिक कार्यकर्ता या मीडिया से जुड़े लोग ही कहते आए हैं, बल्कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और सीएजी की रिपोर्ट में भी इसे स्वीकार किया गया है. पुलिस अधिकारी नरेन्द्र कुमार की हत्या के बाद अब यह बात और भी पुख्ता हो गई है.
विभिन्न रिपोर्टों के जरिये सरकार के सामने अवैध खनन की बात रखे जाने के बावजूद अब तक सरकार द्वारा इस दिशा में कोई ठोस कदम न उठाने से कई सवाल खडे होते हैं. इससे यह संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि अवैध खनन के मामले में कहीं राजनीति और सरकार से जुड़े लोग तो शामिल नहीं हैं?
यह देखा गया है कि खनन, शराब, और परिवहन जैसे व्यवसायों के ठेके सरकार की ओर से जिन लोगो को मिलते हैं, वे अपने वैध धंधों के पीछे उसका अवैध रूप से भी फायदा उठाते हैं और यह प्रवृति बढती जा रही है. मध्यप्रदेश के अवैध खनन के मामलों की पड़ताल में इस बात को भी जांच का प्रमुख बिन्दु बनाया जाना चाहिए कि पिछले करीब एक दशक में जिन लोगों, फर्मो या कंपनियों को खनन के पटटे या ठेके दिए गए, उनमें ऐसे कितने लोग, फर्म या कंपनियां हैं, जो किसी न किसी रूप में राजनेताओं के रिश्तेदार या सत्ताधारी दल के शीर्ष लोगों के संबंधी हैं? यही जांच इस बात का राज खोलेगी कि आखिर एक पुलिस अधिकारी की हत्या और राज्य में चल रहे खनन माफिया के पीछे किन लोगों का संरक्षण हासिल है.
आइपीएस की हत्या के दो दिन बाद पन्ना जिले में पूर्व डकैत कुबेर सिंह ने अजयगढ़ के एसडीएम नाथूराम गौड़ और अनुविभागीय पुलिस अधिकारी (एसडीओपी) जगन्नाथ सिंह पर उस समय हमला कर दिया, जब वे रेत के अवैध खनन को रोकने की कोशिश कर रहे थे. पिछले वर्ष सतना जिले के उचेहरा और नागौद वन क्षेत्र में अवैध खनन के खिलाफ कार्रवाई करने वाले वनकर्मियों पर जो हमला हुआ उसमें लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह के भतीजे रूपेंद्र सिंह उर्फ बाबा राजा का नाम भी सामने आया.
नागेंद्र सिंह के अलावा मुरैना से भाजपा सांसद नरेंद्र सिंह तोमर का नाम भी अवैध खनन को संरक्षण देने में उछला है. अवैध खनन के खिलाफ पुलिस की हाल ही की कार्रवाई में उनके करीबी भाजपा नेता हमीर सिंह पटेल भी पकड़े गए. पटेल ने जनवरी में खनिज निरीक्षक राजकुमार बरेठा पर उस समय हमला कर दिया था, जब वे पत्थरों से भरी ट्राली जब्त करने की कार्रवाई कर रहे थे. तोमर ने भी माना है कि इलाके में बड़े पैमाने पर रेत और पत्थर की अवैध खुदार्ई हो रही है और इस पर कार्रवार्ई जरूरी है. मुरैना में पांच साल पहले तत्कालीन कलेक्टर आकाश त्रिपाठी और एसपी हरिसिंह यादव पर भी फायरिंग हुई थी. प्रदेश के जबलपुर से ही सियासत की शुरुआत करने वाले एनडीए संयोजक और जदयू अध्यक्ष शरद यादव तो साफ-साफ आरोप लगाते हैं कि मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों के संरक्षण में अवैध खनन चल रहा है.
ग्वालियर-चंबल अंचल में एक अनुमान के मुताबिक सालाना 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा के सैंडस्टोन और रेत का अवैध खनन हो रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां की खदानों से हर साल 3.5 लाख घन मीटर पत्थर निकलता है, लेकिन अवैध खनन के चलते इससे ढाई गुना पत्थर (करीब 8 से 9 लाख घन मीटर) निकाला गया है. सरकार को इस पत्थर से मुश्किल से 12 करोड़ रु. बतौर रायल्टी के रूप में मिलते हैं. ग्वालियर के पास घाटीगांव वन क्षेत्र में भी 4,000 से ज्यादा ऐसे पिट्स पाए गए हैं, जिनसे अवैध खनन हुआ है. खनन माफिया की गतिविधियों के चलते घाटीगांव का सोन चिरैया अभयारण्य वीरान हो गया.
मुरैना के मनोज पाल सिंह की आरटीआइ पर मिली आधिकारिक जानकारी के मुताबिक जबलपुर जिले की सिहोरा तहसील के गांव झींटी में करीब 51 हेक्टेयर पर खनन करने के लिए कटनी के पेसिफिक एक्सपोर्ट्स और नरसिंह लक्ष्मी माइंस, ग्वालियर के मायाराम सिंह तोमर और एक अन्य निवेदक भारद्वाज को खदानें दी गईं. पैसिफिक एक्सपोर्ट्स को अनुबंध के मुताबिक साल भर में करीब 81,000 टन आयरन, ब्लू डस्ट और लैटेराइट आदि खनिज निकालने थे. लेकिन इसने तो पांच महीने में ही धरती से 12 लाख टन खनिज निचोड़ लिया. इतना ही नहीं, उसने आयरन खनिज विशाखापत्तनम के रास्ते चीन तक में बेचा. बाकियों की खदान पर भी मिलीभगत कर पैसिफिक ने ही खुदाई की. लोकायुक्त के पास इसकी शिकायत हुई है. सरकार जांच दल की रिपोर्ट को दबाकर बैठ गई है. इस रिपोर्ट के बाद किसी भी कंपनी के खिलाफ न तो कोई कार्रवाई की गई और न ही खनन पर रोक लगाई गई. कटनी जिले में विजय राघवगढ़ के कांग्रेसी विधायक संजय पाठक पर भी आरोप लगा है कि सिहोरा इलाके में उनकी खनन कंपनियों ने क्षमता से ज्यादा खनन किया. एक अनुमान के मुताबिक लीज समाप्त होने के बाद भी यहां से करीब 50 लाख टन लौह खनिज निकाला गया, जिसकी कीमत करीब 5,000 करोड़ रुपए बैठती है.
जब लूट इस पैमाने पर चल रही हो तो फिर साजिश और गठजोड़ के आरोपों से कोई तबका बाहर कैसे रह सकता है? दिवंगत नरेंद्र कुमार की पत्नी मधुरानी तेवतिया ने इसी ओर इशारा किया: मध्य प्रदेश की आइएएस और आइपीएस एसोसिएशन हमारे साथ अब तक खड़ी नहीं हुईं. क्या ये संगठन सिर्फ चाय पीने और पार्टी करने तक ही सीमित रह गए हैं. ध्यान रहे कि यह एक पत्नी का भावुक विलाप भर नहीं क्योंकि मधुरानी खुद आइएएस अफसर हैं. नरेंद्र के पिता और उत्तर प्रदेश पुलिस में इंस्पेक्टर केशव देव भी इसी में जोड़ते हैं, आइपीएस अफसर का काम सड़क पर जाकर अवैध कामों को रोकना नहीं होता. थाना प्रभारी उस समय कहां थे? पूरे मामले में मध्य प्रदेश पुलिस का रवैया सहयोग का नहीं है. साजिश साफ नजर आती है.'' देव कहते हैं कि मरने से एक दिन पहले भी उनके बेटे ने राजनैतिक दबाव की बात कही थी.
इस मोर्चे पर कुछ ठोस हो, न हो, सियासत जरूर जमकर हो रही है. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर माफिया से सांठगांठ का आरोप लगाते हैं. नरेंद्र की हत्या की सीबीआइ जांच के अपनी सरकार के फैसले का जिक्र करते हुए चौहान कहते हैं, बहन मधुरानी के साथ मेरी पूरी संवेदना है. जहां तक अवैध खनन का सवाल है तो सरकार पहले ही इस पर सख्ती से कार्रवार्ई कर रही है. राज्य सरकार ने मुरैना जिले में जरूर अवैध खनन रोकने के लिए विशेष सशस्त्र बल (एसएएफ) की तीन कंपनियां और करीब तीन सौ जवान भेज दिए हैं. दरअसल मुख्यमंत्री को यह सफाई इसलिए देनी पड़ी क्योंकि राज्य की खदानों पर मुख्यमंत्री सचिवालय का सीधा नियंत्रण है और सचिवालय पर आरोप लग रहे हैं.
विधानसभा में विपक्ष के नेता अजय सिंह मुख्यमंत्री के रिश्तेदारों और खनिज सचिव मिश्र पर सवाल उठाते हैं, मिश्र चार साल से इस पद पर हैं और उनके प्रभाव के कारण ही खनिज माफिया के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं हो पा रही है. सिंह चाहते हैं कि हत्या के साथ अवैध खनन की भी सीबीआइ जांच करवाई जाए. मिश्र हालांकि अपने ऊपर लगे आरोपों को राजनैतिक बताते हुए प्रतिक्रिया देने से इनकार करते हैं. दरअसल माइनिंग का मतलब ही लोग कालिख से भरा काम समझते हैं. अवैध खनन रोकने के लिए लगातार कार्रवाई हो रही है. चाहे वह सिहोरा का मामला हो या चंबल अंचल में पत्थर का खनन.
दरअसल, मध्य प्रदेश के सभी पचास जिलों में अवैध खनन हो रहा है. शहडोल और मालवा अंचल भी अवैध खनन से अछूता नहीं है. असल में खनन माफिया की दबंगई अभी पुलिस और प्रशासन पर भारी पड़ रही है. राजनेता बचे हुए हैं. लेकिन सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो पहिया पूरा घूमते देर नहीं लगेगी. जिस दिन राजनेता शिकार होने लगे. तब क्या होगा?
सरकार दावा कर रही है कि वह खनन माफिया के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेगी और अवैध खनन के खेल पर रोक लगाएगी, लेकिन सरकार के दावे पर यकीन करना कठिन है। इसलिए कि खनन माफिया के खिलाफ कार्रवाई की मांग लंबे अरसे से की जा रही है, लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी है। इसी का दुष्परिणाम है कि आज खनन माफिया के हौसले बुलंद हैं और ईमानदार लोग मारे जा रहे हैं, लेकिन त्रासदी का यह खेल मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अन्य राज्यों में भी अवैध खनन का काला कारोबार जारी है और संबंधित राज्य सरकारों ने मौन धारण किया हुआ है। राजनीतिक संरक्षण दरअसल, अवैध खनन के इस खेल में वही लोग शामिल हैं, जिनके पांव सत्ता के गलियारे तक जाते हैं। अमूमन अवैध खनन के खेल में सत्ता से जुड़े मंत्रियों, सांसदों और विधायकों का नाम सुना जाता है। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं की कारस्तानी जगजाहिर है। कर्नाटक सरकार पर उन्हें संरक्षण देने का आरोप भी लगता रहा है। मतलब साफ है, अवैध खनन से जुड़े माफियाओं को न केवल सत्ता का संरक्षण प्राप्त है, बल्कि सत्ता में उनकी सीधी भागीदारी है। अन्यथा, क्या मजाल कि अवैध खनन से जुड़े माफिया दिन-दहाड़े एक आइपीएस अधिकारी को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डालते और सरकार शोक व्यक्त करती रह जाती। इस तरह की घटनाएं आए दिन मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से सुनने को मिलती रहती हैं। खनन माफिया द्वारा सरकारी मुलाजिमों, आमजन और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या आम बात हो गई है। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पहाड़ धंसने से दर्जनों लोगों की जानें चली गई। इस घटना के लिए भी कसूरवार खनन माफिया ही बताए जा रहे हैं। सोनभद्र की यह घटना भी सत्ता पोषित भ्रष्टाचार का ही नतीजा है। हजारों एकड़ सुरक्षित वन भूमि को दुस्साहसिक ढंग से उत्तर प्रदेश सरकार की भूमि घोषित कर उसे मनचाहे पट्टेदारों को अलॉट कर दिया गया है और उस पर अवैध खनन जोरों पर है। दुर्भाग्य यह है कि दर्जनों लोगों के मारे जाने के बाद अब भी खनन का खेल जारी है। हाल ही में कर्नाटक में एक खनन माफिया के समर्थकों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया। दरअसल, ये हमले उन लोगों द्वारा किए और कराए जा रहे हैं, जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। वे नहीं चाहते कि प्रशासन, आमजन, मीडिया या आरटीआइ कार्यकर्ता उनकी काली करतूतों पर से पर्दा हटाएं। व्यवस्था को अराजकता में बदल चुके इन लोगों के लिए सरकारी मुलाजिम और आरटीआइ कार्यकर्ता राह के रोड़े नजर आते हैं। वे उन्हें रास्ते से हटाने के लिए हत्या तक पर उतारू हैं। सच तो यह है कि देश में भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं और स्थानीय स्तर के भ्रष्ट कर्मचारियों, बिल्डरों, भू-खनन माफियाओं का एक ऐसा नेटवर्क तैयार हो गया है, जिसका मकसद अवैध तरीके से अकूत संपदा इक_ा करना है। दुर्भाग्य यह है कि सरकार उनके तंत्र को तोडऩे में नाकाम साबित हो रही है। जब तक इन भ्रष्टमंडलियों को छिन्न-भिन्न नहीं किया जाएगा, खनन माफिया और अराजक किस्म के धंधों से जुड़े लोग सरकारी मुलाजिमों और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या करते रहेंगे। दुर्भाग्य यह है कि खनन माफिया के खिलाफ जो सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अभियान छेड़े हुए हैं, उन्हें सरकार सुरक्षा दे पाने में भी असमर्थ है। लिहाजा, उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ रही है। लूट तंत्र के शिकार हुए कई जांबाज याद होगा, महाराष्ट्र में मालेगांव के अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने को तेल माफिया ने दिनदहाड़े जिंदा जला दिया था। जब उन्होंने तेल के काले धंधे से जुड़े लोगों को रंगे हाथ पकडऩा चाहा तो मौके पर ही तेल माफिया के गुर्गो ने उन्हें जलाकर मार डाला। राष्ट्रीय राजमार्ग अथॉरिटी (एनएचएआइ) के परियोजना निदेशक सत्येंद्र दुबे की बिहार में गया के निकट गोली मारकर हत्या कर दी गई। सत्येंद्र दुबे अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात थे। उन्होंने एनएचएआइ में बरती जा रही अनियमितताओं के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा था। इसी तरह इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के मार्केटिंग मैनेजर शणमुगम मंजूनाथ को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में गोली मारकर खत्म कर दिया गया। शणमुगम ने तेल ईधन में मिलावट करने वाले तेल माफिया का पर्दाफाश किया था। इसी तर्ज पर देश में आरटीआइ कार्यकर्ताओं की भी हत्या की जा रही है। आरटीआइ कार्यकर्ता भी निशाने पर महज एक साल के दौरान ही एक दर्जन से अधिक आरटीआइ कार्यकर्ताओं की जानें ली जा चुकी हैं। अहमदाबाद के आरटीआइ कार्यकर्ता अमित जेठवा की इसलिए हत्या कर दी गई कि उन्होंने गीर के जंगलों में अवैध खनन का पर्दाफाश किया था। कई रसूखदार लोगों का चेहरा सामने आना तय था, लेकिन उससे पहले ही जेठवा की जान ले ली गई। हत्यारों ने गुजरात हाईकोर्ट के सामने ही उन्हें गोली मार दी। महाराष्ट्र के दत्ता पाटिल आरटीआइ का इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए थे। उनकी कोशिश की बदौलत ही एक भ्रष्ट पुलिस उपाधीक्षक और एक वरिष्ठ पुलिस इंस्पेक्टर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। उनकी पहल पर ही नगर निगम के अफसरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई थी, लेकिन सच और ईमानदारी की लड़ाई लडऩे की कीमत उन्हें भी जान देकर चुकानी पड़ी। इसी तरह महाराष्ट्र के आरटीआइ कार्यकर्ता वि_ल गीते, अरुण सावंत तथा आंध्र प्रदेश के सोला रंगाराव और बिहार के शशिधर मिश्रा को अपनी जान गंवानी पड़ी। जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फर बट, मुंबई के अशोक कुमार शिंदे, अभय पाटिल तथा पर्यावरणवादी सुमेर अब्दुलाली पर भी जानलेवा हमला किया गया। देश के पहले केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके वजाहत हबीबुल्ला की मानें तो कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमले यह पुख्ता करते हैं कि आरटीआइ एक्ट देश में प्रभावी रूप ले रहा है, लेकिन क्या यह दिल दहलाने वाली बात नहीं है कि इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है? आज मौंजू सवाल यह है कि सरकारी मुलाजिमों और आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमले कब बंद होंगे? सरकार उन्हें सुरक्षा कब मुहैया कराएगी? सच तो यह है कि सरकार की लापरवाही से ही ईमानदार अधिकारी और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की जान सांसत में है। आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र और राज्य सरकारें अवैध खनन रोकने के लिए सख्त कानून बनाएं और उस पर अमल भी करें। अन्यथा, खनन माफिया पर अंकुश लगाना कठिन हो जाएगा और ईमानदार लोगों की जान जाती रहेगी।
युवा और तेजतरार्र आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार की निर्मम हत्या ने यह साबित कर दिया है कि इस देश में ईमानदार अधिकारियों के लिए काम कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है। इसके साथ ही भ्रष्ट और बेईमान लोगों के लिए अपना काला धंधा चलाना कितना आसान है। यह पहली घटना नहीं है, जब किसी ईमानदार पुलिस अधिकारी ने फर्ज की खातिर अपनी जान की बाजी लगाई है। आइपीएस नरेंद्र कुमार की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में खनन माफिया ने वहां तैनात एक एसडीएम और एसडीपीओ पर जानलेवा हमला कर दिया। राज्य में हो रही ऐसी घटनाएं शिवराज सिंह चौहान सरकार की नाकामी जाहिर करने के लिए काफी है। फर्ज की राह में शहीद होने वाले ऐसे ईमानदार और निडर अधिकारियों की फेहरिस्त काफी लंबी है। वर्षो पहले बिहार के सहरसा-खगडिय़ा जिले के दियारा में दस्यु गिरोह का मुकाबला करते हुए डीएसपी सतपाल सिंह ने भी अपनी शहादत दी थी। हालांकि सतपाल सिंह की मौत के बाद यह बात चर्चा में रही कि स्थानीय जिला प्रशासन अगर समय रहते पर्याप्त पुलिस बल मौके पर भेजता तो शायद उनकी जान बचाई जा सकती थी। इसके बाद बिहार के बहुचर्चित गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया हत्याकांड का मामला सामने आया, जिसके नामजद अभियुक्त बाहुबली नेता आनंद मोहन फिलहाल उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। ऐसी ही एक और घटना झारखंड के चतरा जिले में कुछ साल पहले हुई थी, जिसमें वन माफिया और नक्सलियों ने मिलकर एक डीएफओ की निर्मम हत्या कर दी। ईमानदार पुलिस अधिकारियों की हत्या का सिलसिला यही नहीं थमा, बल्कि साल दर साल बीतने पर इसमें और इजाफा हुआ। पिछले साल महाराष्ट्र में तेल माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने पर एक एसडीएम को जिंदा आग के हवाले कर दिया गया। दिनदहाड़े ऐसी घटनाएं होने के बावजूद संबंधित राज्य सरकारें उन लोगों पर कार्रवाई नहीं करती। सरकार की इस अनदेखी की सबसे बड़ी वजह कुछ और नहीं, बल्कि कहीं न कहीं इस काले धंधे में उनके लोगों और नाते-रिश्तेदारों की भागीदारी है। बीते कुछ वर्षो से देश के कई हिस्सों में अवैध खनन का कारोबार बेरोक-टोक चल रहा है। हिंदुस्तान के लगभग उन सभी राज्यों में जहां पहाड़ मौजूद हैं, वहां खनन माफिया सक्रिय हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि धन की इस धार में राजनीतिक दलों के नेता पूरी तरह शामिल हैं या इस तरह कहें कि राज्य सरकारें ऐसे खनन माफियाओं को पूरी तरह अपना संरक्षण दे रही है। कर्नाटक, गोवा में भाजपा और कांग्रेस की सरकार इस मामले में पूरी तरह बेनकाब भी हो चुकी है। आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार की जिस बेरहमी के साथ हत्या की गई, उससे कई सवाल पैदा हो रहे हैं। जिस मुरैना में उनकी हत्या हुई, उस जिले में अवैध खनन का धंधा कई वर्षो से चल रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कथित सुशासन में यह धंधा थमने की बजाय बढ़ता ही चला गया। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि जिस संसद भवन को देखकर हम उसकी वास्तुकला पर खुशी से इठलाते हैं, असल में उसे बनाने की प्रेरणा मुरैना स्थित मितावली चौंसठ योगिनी मंदिर से ली गई थी। यह मंदिर आठवीं सदी में बनाया गया था। इसे देखने के बाद हर कोई इसे नई दिल्ली स्थित संसद भवन का प्रतिरूप कहे बिना नहीं रह सकता। हालांकि ऊंची पहाडिय़ों पर स्थित इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद अवैध खनन के चलते खतरे में पड़ गया है। इस अवैध खनन में कोई और नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश में सरकार चला रही भाजपा के कई माननीय विधायक और नेता शामिल हैं। बोली और गोली के लिए मशहूर मुरैना में इन दिनों अवैध खनन का धंधा भ्रष्ट नेताओं और उनके गुर्गो के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो रहा है। एक तरफ वन एवं पर्यावरण मंत्रालय व प्राकृतिक संसाधन विभाग जंगल और पहाड़ों के रक्षार्थ नित्य नए उपाय तलाशने में जुटा है, वहीं संबंधित राज्य सरकारों में मौजूद लोग बिना किसी भय के अपना गोरखधंधा चला रहे हैं। भारत में जो हालात पैदा हो रहे हैं, उसके प्रति संसद और विधानसभा में बैठे लोगों को आज नहीं तो कल सोचना ही पड़ेगा, क्योंकि भ्रष्टाचार से बेहाल और एक अदद रोटी के लिए जद्दोजहद करने वाले करोड़ों लोग आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर अपने जन प्रतिनिधियों का गला काटेंगे। आइपीएस नरेंद्र कुमार और अभियंता सत्येंद्र दुबे जैसे ईमानदार अफसरों की कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाने वाली। ऐसी घटना उन भ्रष्ट अधिकारियों के लिए भी एक सबक है, जो अपने ईमान का सौदा कर रहे हैं।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

आदित्य उपाध्याय ने ठोका 112 रन




मनीपाल की विशाल जीत
भोपाल लक्ष्मीपति इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलाजी द्वारा आयोजित प्रथम लक्ष्मीपति टी-20 इंटर स्कूल क्रिकेट टूर्नामेंट में मनीपाल एकेडमी ने आरडी कान्वेंट को 177 रनों से पराजित किया। टॉस जीतकर मनीपाल एकेडमी ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 256 रनों का विशाल स्कोर खड़ा किया। आदित्य उपाध्याय ने 112 और सूरज ने 65 रनों का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आरडी कान्वेंट के अजीत और रिची ने 1-1 विकेट लिए। जवाब में आरडी कान्वेंट की टीम 12 ओवरों में 80 रन बनाकर आल आउट हो गई। दीपक ने 12 न और मनप्रीत ने 11 रन बनाए। मनीपाल एकेडमी के आकाश ने 5 और सूरज ने 2 विकेट लिए। लक्ष्मीपति इंस्टीट्यूट के मैनेजिंग डायरेक्टर इंजीनियर शिव कुमार बंसल तथा सेंट जॉर्ज स्कूल के संस्थापक बी. थॉमस ने आदित्य उपाध्याय को मैन ऑफ द मैच का खिताब दिया।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012


भेड़ाघाट में नर्मदा का सौंदर्य देखने उमड़ती है भीड़

मध्य प्रदेश में जबलपुर शहर के बगल में नर्मदा नदी के गोद में बसा एक जगह जहाँ घुमती सड़कें उचाइयों की तरफ बढ रही थी,पेड़ों से पटी झुरमुठ के पिछे से झांकती झाड़ियाँ,जो उस जगह के लिए किसी नवविवाहिता के द्वारा प्रयुक्त श्रिंगार प्रशाधन से कम न थी.
चारों तरफ फैली बड़ी-बड़ी चट्टानें खुद में अटल एवं आभायुक्त चरित्र को समेटे हुए थी.उन चरित्रों को उभारनें का कार्य वहाँ के शिल्पकार कर रहे थे,जो उनकी जीविका का साधन एवं आगन्तुकों के आकर्षण के केन्द्र भी थे.कलाक्रितियाँ ऐसी जो बरबस ही आगन्तुकों की भीड़ को अपनी ओर खींच रही थी.
आगे बढने पर नीचे उतरते पथरीले -संकड़े रास्ते,जहाँ सुरज की किरणें चारों तरफ व्याप्त संगमरमर के वास्तविक चरित्र के प्रदर्शन में अपना योगदान दे रही थी.नदजल की कलकल ध्वनी जो उँचाई से गिरने पर कर्णप्रिय संगित के रुप में हमारे कानों तक पहुँच रही थी तथा जल की बुंदे उँचाई से गिरने पर फुहरों में परिवर्तित हो कपासी प्रतिरुप प्रदर्शित कर रही थी.
नर्मदा एवं बैण-गंगा की सम्मिलित तेज धारा एवं गहरी खाई,जो हमारे दिल की धड़कनों को तेज कर रही थी और अनजान खतरे से आगाह भी.कुल मिलाकर एक ऐसा मनोरम जगह जो हमारे मन को आह्लादित एवं नयनों को त्रिप्ती की परकाष्ठा तक ले जा रहा था.
हम धुआंधार के सामने खड़े हैं। सामने यानी रेलिंग पर। नर्मदा यहां कोई 10-12 फीट नीचे खड्ड में गिरती है और फुहारों के साथ ऊपर उछलती है, मचलती है। गेंद की तरह टप्पा खाकर फब्वारों साथ ऊपर कूदती है । यहां नर्मदा का मनोरम सौंदर्य अपने चरम पर होता है। घंटों निहारते रहो, फिर भी मन न भरे। जल प्रपात का ऐसा नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले।
धुआंधार के सामने दोनों ओर कतारबद्ध संगमरमर की चटानें हैं, जो नर्मदा का रास्ता रोकती हैं। इन मार्बल राक्स की बनावट ऐसी है कि लगता है इन्हें किसी धारदार छेनी से तराशा गया हो। चट्टानों की बीच नर्मदा सिकुड़ती जाती है पर वह अपने वेग में बलखाती, इठलाती और अठखेलियां करती आगे बढ़ती जाती है। मानो कह रही हो "मुझे कोई नहीं रोक सकता।
यहां ’रोपवे’ भी हैं लेकिन मेरे बेटे ने इस पर यह कहकर जाने से मना कर दिया कि यह विकलांगों के लिए है। हम तो पैदल चलकर ही जाएंगे। यानी यह जेब ढीली करने का ही साधन है।
संझा आरती का समय है। भक्तजन नर्मदा मैया की आरती कर रहे हैं। दीया जलाकर लोग आरती कर रहे हैं और कुछ लोग नर्मदा में दीप प्रवाह कर रहे हैं। कर्तल ध्वनि के साथ आरती में बहुत से लोग शामिल हो गए हैं। आरती के पशचात प्रसाद वितरण हो रहा है।
कुछ परिक्रमावासी ’हर-हर नर्बदे’ का जयकारा कर रहे हैं। पहले लोग नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर तक और वापस उसी स्थान तक पैदल ही परिक्रमा करते थे। अब भी कुछ लोग करते हैं। लेकिन अब बस या ट्रेन से भी परिक्रमा करने लगे हैं।
जीवनदायिनी नर्मदा की महिमा युगों-युगों से लोग गाते आ रहे हैं। लेकिन अब नर्मदा संकट में है। बरसों से नर्मदा बचाओ की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। मैं वापस लौटते समय सोच रहा था कि क्या इस जीवनदायिनी मनोरम सौंदर्य की नदी को बचाया नहीं जा सकता?

रविवार, 18 मार्च 2012

काले हीरे का काला बाजार




काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है. कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है.एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है.
भारतीय कोयला बाज़ार एक अजीबो-गऱीब दानव है. कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल), सिंगरेनी कोल कोलियरी लिमिटेड (एससीसीएल) और नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन (एनएलसी) के बीच राज्यों की स्वाधिकृत कंपनियों के उत्पादन के अल्पाधिकार की भरपाई ऐतिहासिक रूप में क्रय के एकाधिकार द्वारा की जाती रही है. उदारीकरण से पहले तक कोयले के सबसे बड़े औद्योगिक उपभोक्ता अर्थात बिजली, लोहा व इस्पात और सीमेंट के कारख़ाने भी ज़्यादातर राज्यों के स्वाधिकृत कारख़ाने ही रहे हैं, लेकिन वास्तव में रेलवे ही एक ऐसी संस्था है जिसके पास कोयले को बड़े पैमाने पर उठाने और उसे वितरित करने की अच्छी-खासी मूल्य-शक्ति है. उदारीकरण के बाद जब ये जि़म्मेदारियां सीआईएल को औपचारिक रूप में सौंप दी गईं, तब कोयला मंत्रालय ने 2000 के दशक की शुरुआत तक मूल्यों पर नियंत्रण बनाए रखा. फिर भी आयात-समानता के मूल्यों पर केवल कोयले के उच्चतम ग्रेड ही बेचे गए और भारत का अधिकांश उत्पादन निचले ग्रेड का होने के कारण कम मूल्य पर बेचा गया और हो सकता है कि इन मूल्यों का निर्देश अनिवार्य वस्तुओं, खास तौर पर बिजली की लागत को कम रखने के लिए कदाचित कोयला मंत्रालय द्वारा दिया गया था. सन 2011 के आरंभ में सीआईएल ने विभेदक मूल्य प्रणाली शुरू की, जिसके आधार पर बाज़ार-संचालित क्षेत्रों के लिए उच्चतर मूल्य तय किए गए.
इन बदलती हुई मूल्य-व्यवस्थाओं के बावजूद काले बाज़ार को छोड़कर खुले बाज़ार में थोक में कोयला खरीदना सचमुच बहुत कठिन है. भारत के छह सौ मिलियन टन के घरेलू कोयला उत्पादन में से लगभग 80 प्रतिशत का आवंटन कोयला मंत्रालय की प्रशासनिक समितियों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के आवेदकों को किया गया. अतिरिक्त 10 प्रतिशत की बिक्री ऑनलाइन ई-नीलामी के माध्यम से की गई, जिसके परिणामस्वरूप अच्छा-खासा राजस्व भी मिला है. 2009-10 में ई-नीलामी मूल्य औसतन अधिसूचित मूल्यों से लगभग 60 प्रतिशत ऊपर रहा. अवरुद्ध कोयला ब्लॉक, जिन्हें जल्द ही प्रतियोगी बोलियों के माध्यम से सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों को आवंटित कर दिया जाएगा, 19 प्रतिशत अतिरिक्त था. अंतत: घरेलू कोयला उत्पादन का आ़खिरी 1 प्रतिशत राज्य सरकार की एजेंसियों को, जो इसे स्थानीय बाज़ारों को उपलब्ध करा देते हैं, आवंटित कर दिया जाता है.
कोयले के कम मूल्य के पीछे का तर्क था कि बिजली, इस्पात और सीमेंट का परिणामी उत्पादन अनिवार्य था और वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए उसकी क़ीमत कम करना ज़रूरी था, लेकिन आर्थिक सलाहकार के कार्यालय से हाल के मूल्यों के आंकड़ों को देखते हुए 2004 से 2011 तक कोयले के मूल्य में 89 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि बिजली, इस्पात और सीमेंट के मूल्यों में क्रमश: 13 प्रतिशत, 26 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उसी अवधि में थोक मूल्य सूचकांक में 54 प्रतिशत वृद्धि हुई. जहां एक ओर बिजली के मूल्य विनियमित कर दिए गए, वहीं दोनों के मूल्य का विनियमन नहीं हुआ है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन दोनों उद्योगों ने कोयले के बढ़ते मूल्यों को पर्याप्त रूप में आत्मसात करते हुए उनका प्रबंधन कर दिया. यदि स्थिति यही है तो कृत्रिम रूप से कोयले के कम मूल्य के रूप में सहायता की इनपुट राशि का तर्क काफ़ी कमज़ोर है, लेकिन मूल्य-निर्धारण मूलभूत समस्या भी नहीं है.
यह समय सबसे अच्छा था, यह समय सबसे खराब था, यह युग समझदारी का था, यह युग ही बेवक़ूफिय़ों का था. कोयले की इस वर्तमान गतिशीलता की तुलना किसी षड्यंत्र और दो शहरों की कथा (ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़) के झंझावात से नहीं की जा सकती. यह कथा निश्चय ही आरंभिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करती है और इससे इस क्षेत्र में चलने वाले घटनाचक्र का अंदाज़ा हो जाता है. हाल में बाज़ारी पूंजीवाद के संदर्भ में सबसे प्रतिष्ठित कंपनी के रूप में कोल इंडिया के उदय होने की चर्चा समाचार पत्रों में गूंजती रही है. वित्तीय जश्न मनाने की बजाय पिछले कुछ वर्षों से भारत में कोयले की भारी कमी रही है, जिसके कारण राज्य सरकारें, सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की पावर और इस्पात कंपनियां समय पर कोयले की डिलीवरी न होने की लगातार शिकायतें करती रही हैं.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खास तौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं.
घरेलू कोयले के सुरक्षित भंडार से काफ़ी मात्रा में कोयला निकालने की भारत की क्षमता में गिरावट आने के कारण उसकी नीति पर भी मूल रूप में इसका असर पड़ा है. कोयला मंत्रालय द्वारा निष्पादित नवीनतम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) बिजली संयंत्रों की ईंधन संबंधी 75 प्रतिशत आवश्यकताओं को पूरा करने की गारंटी देते हैं, शेष की पूर्ति निजी तौर पर की जानी चाहिए. यदि कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) निष्पादित हो भी जाए, जो अपने आपमें संपर्क अनुमोदन प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए बेहद अनिश्चित है तो भी रेल और सड़क मार्ग के मिले-जुले रूप के कारण स्त्रोत स्थल से ले जाकर गंतव्य स्थल पर उन्हें खाली करने-कराने के तौर-तरीक़ों और उसके लिए जि़म्मेदार एजेंसियों द्वारा लॉजिस्टिकल प्रबंधन के कमज़ोर समन्वयन के कारण और भी नुक़सान और देरी होती रहती है. इस बात को लेकर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए कि बड़े-बड़े कोयला उपभोक्ता बेहतर कि़स्म के कोयले को चुनने के लिए उसे उन देशों से आयातित करने पर आमादा होने लगे हैं, जहां पर कऱार और लॉजिस्टिक्स से संबंधित दायित्वों का पूर्वानुमान किया जा सकता है. इसकी प्रतिक्रिया में कोयला निर्यातक देशों और अभी हाल में इंडोनेशिया ने भी कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए उसकी क़ीमत में बढ़ोतरी और विनियमों में परिवर्तन करना शुरू कर दिया है.
आशा है कि भारत अगले कुछ वर्षों में एक मिलियन टन से अधिक कोयले का आयात करेगा. क्या कारण है कि कोयले का घरेलू उत्पादन मांग को पूरा करने में विफल रहा है? हालांकि इस बारे में बहुत-से स्पष्टीकरण दिए जा चुके हैं, फिर भी यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब कदाचित सबसे कठिन है. कुछ लोग कहते हैं कि पर्यावरण संबंधी स्वीकृति और भूमि अधिग्रहण ही मुख्य बाधाएं रही हैं. कुछ लोग इसका दोष राज्यों द्वारा स्वाधिकृत कोयला कंपनियों पर मढ़ देते हैं जो अपने परिचालन में आधुनिक खनन की परिपाटियों और प्रौद्योगिकी को प्रभावशाली रूप में अपनाने में असमर्थ रहे हैं. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कोयला कंपनियों के इन पुराणपंथी मालिकों की काफ़ी आलोचना भी हुई है. इनके कई मालिकों ने तो उत्पादन के लिए ब्लॉक ला पाने में विफल होने के बाद अपने आवंटित ब्लॉकों को अनावंटित भी करा दिया. कि़स्सागोई की तरह आपराधिक तत्वों के साथ कोयला उद्योग की मिलीभगत और उसके फलस्वरूप होने वाली चोरी और ग्रेड की गुणवत्ता को कम करने की वारदातों को भी समझा जा सकता है. यही कारण है कि घरेलू उद्योग में वर्तमान कमी के सही कारणों को समझना इतना आसान नहीं है, परंतु एक बात तो साफ़ है कि परंपरागत बाज़ार की अपेक्षित क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खासतौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं. पिछले कुछ महीनों में श्रमिक संकट, भारी वर्षा और तेलंगाना विरोध के कारण इस प्रणाली की ऐसी कमी भी सामने आई है, जिसके कारण बिजली के संयंत्रों में कोयले के भंडार कम होने लगे और अनेक दक्षिणी राज्यों में लंबे समय तक बिजली की कटौती होने लगी.
ऐसी अप्रत्याशित परिस्थितियों में निजी क्षेत्र में भी जोखिम बढऩे के कारण उत्साह में कमी दिखाई पडऩे लगी. सीआईएल के मूल्य-निर्धारण के उत्साह से भरे सारे प्रयासों पर बार-बार पावर क्षेत्र द्वारा पानी फेर दिया गया. यदि इन्हें उचित रूप में कार्यान्वित किया जाए तो इससे पावर क्षेत्र में सैद्धांतिक रूप में स्थितियों में सुधार आ जाएगा, लेकिन बढिय़ा कोयले की डिलीवरी में सीआईएल के खराब रिकॉर्ड के कारण कई ऑपरेटर भारी रद्दोबदल करने की बजाय स्थिति को यथावत बनाए रखना ही पसंद करते हैं. इस प्रकार का संतुलन, जहां कोई भी पक्ष पूरी तरह से निकम्मी पड़ी इस प्रणाली में कोई भारी परिवर्तन नहीं चाहता, बहुत समय तक नहीं चल सकता.
इस प्रकार की समस्याओं का कोई सरल समाधान नहीं है, इसलिए इन पर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है. रणनीतिक कारणों से विदेशों से कोयले के संसाधन मंगवाने की बात ठीक तो लगती है, लेकिन इस बात को मद्देनजऱ रखते हुए कि कोयले की किसी खान को पूरी तरह से विकसित करने में पांच से सात साल तक का समय लगता है, अपने देश में ही कुछ अल्पकालिक उपायों की आवश्यकता तो होगी ही. कोयले के क्षेत्र में सुधारों पर शंकर समिति की रिपोर्ट में चार साल पहले कई ऐसी समस्याओं की भविष्यवाणी की गई थी और उस समिति की सिफ़ारिशों पर कार्रवाई करने में कुछ समय तो लगेगा ही. अनेक महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करना होगा. उदाहरण के लिए पिछले बीस वर्षों में भारतीय कोयला खनन कंपनियों की उत्पादकता में बदलाव कैसे आया? कोयले की आपूर्ति की लाइनें कैसे चलती हैं और इस प्रक्रिया में बाधाएं और विचलन कहां हैं? क्या भारत अपनी घरेलू खानों से इष्टतम मात्रा में कोयला निकाल सकता है? क्या यह संभव है कि वर्तमान क़ानूनी ढांचे के भीतर अधिक खुले कोयला बाज़ार में संक्रमण किया जा सके ? इन सवालों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद ही पिछले कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में चली आ रही समस्याओं के लगातार समाधान की कोशिशें रंग ला पाएंगी.
काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है। कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है। अकेले मध्य प्रदेश में हर साल करीब 350 करोड़ का कोयला तस्करी के माध्यम से बाजारों में पहुंच रहा है।
मध्य प्रदेश में कई कोयला खदानें हैं और इन खदानों का कोयला देश भर में भेजा जाता है। कोयले के इस कारोबार में खदान से लेकर कोल डिपो और परिवहन प्रक्रिया के दौरान भारी मात्रा में कोयला चोरी होता है और अच्छी गुणवत्ता के कोयले को चुराकर वजन पूरा करने के लिए कोयले के ढेर में पत्थर और कचरा मिलाया जाता है। यही पत्थर और कचरायुक्त कोयला बिजली संयंत्रों को भेजा जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बिजली उत्पादन कंपनियों के आला अफसर कई बार शिकायत कर चुके हैं कि राज्य के बिजली संयंत्रों को मिलने वाले कोयले में बड़ी मात्रा में पत्थर और कचरा होता है, जिससे बिजली उत्पादन प्रभावित होता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि कोयला कंपनियां तो अच्छा कोयला ही भेजती हैं। बीच में कोयला परिवहन करने वाले और भंडारण करने वाले कोयला चोरी करते हैं और उसमें पत्थर कचरा मिलाकर वजन पूरा कर देते हैं। इस गोरखधंधे में कोयला कंपनियों और बिजली संयंत्रों के ज़मीनी अधिकारियों की मिली भगत से इंकार नहीं किया जा सकता है। कोयला चोरी करोड़ों रुपयों का लाभदायक धंधा है और इस कमाई का बंटवारा ऊपर से नीचे तक होता है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में तो कोयला चोरी का बड़ा मामला संसदीय जांच समिति ने पकड़ा भी है, लेकिन मध्य प्रदेश में अभी किसी का ध्यान नहीं गया है। यह चोरी का कोयला उद्योगों, कल कारखानों और कोयला आपूर्ति करने वाली व्यापारिक कंपनियों के भंडार में ही जाता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बिजली संयंत्रों के आला प्रबंधकों ने मिलावटी कोयले की बार-बार शिकायत करके बिजली संयंत्रों के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले कोयले के आयात के समर्थन में माहौल तैयार किया और केंद्र सरकार से आयात की अनुमति भी ले ली है। लेकिन इस बारे में कांग्रेस नेताओं को पूरी आशंका है कि कोयला आयात का धंधा भ्रष्टाचार से प्रेरित है। एक यह भी आशंका जताई जा रही है कि देश में बड़ी मात्रा में हो रही कोयला चोरी को ठिकाने लगाने के लिए कुछ कंपनियां, बिजली संयंत्रों को कोयला बेचने के लिए लालायित हैं और हो सकता है कि मध्य प्रदेश सरकार का आयातित कोयला खरीदने का फैसला भी इन कंपनियों के दबाव का ही नतीजा हो।

देश का 28 प्रतिशत कोयला उत्पादन मध्यप्रदेश से
देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुय स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले तीन सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी।
मप्र के कोयला उत्पादन में भारी कमी के आसार
पुरानी खदानों के बंद होने और नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू न होने से राज्य में कोयले के उत्पादन में भारी कमी होने जा रही है। उत्पादन में होने वाली यह संभावित कमी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि खनन से मिलने वाली कुल रॉयल्टी में कोयले का हिस्सा 60 फीसदी होता है।
मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में कई कोयला खदानें है। इसमें से सबसे बड़े कोल रिजर्व वाली झिंगुरदाह खदान जल्द ही बंद होने वाली है। एनसीएल की गोरबी खदान में भी कोयला कम बचा हुए है। प्रदेश के सिंगरौली की सभी खुली खदानेंं है, यहां के अलावा प्रदेश की ज्यादातर खदाने भूमिगत है और काफी पुरानी है। प्रदेश में फिलहाल कोल इंडिया की तीन सहायक कंपनियां एनसीएल, एसईसीएल और डब्ल्यूसीएल की कुल छह खदानें है।
दूसरी ओर प्रदेश के नये कोल ब्लॉकों में अभी तक कोल उत्पादन शुरू नहीं हुआ है तथा अगले दो सालों तक उनके शुरू होने की कोई संभावना भी नहीं है। प्रदेश में विभिन्न पॉवर कंपनियों को 22 कोल ब्लॉक आवंटित किये गये है, जिनका अनुमानित कोल भंडार 3100 मिलियन टन का है। ये ब्लॉक सिंगरौली, शहड़ोल, उमरिया, अनूपपुर और छिंदवाड़ा में है। जिन कंपनियों को यह आवंटित किये गये है उनमें रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, एस्सार पॉवर, मध्य प्रदेश राज्य खनिज निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, जे.पी.एसोसिएटस, ए.सी.सी. लिमिटेड शामिल है।
आज की स्थितियों को देखते हुए तय माना जा रहा है कि जब तक नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू नहीं होगा, प्रदेश में कुल कोयला उत्पादन नहीं बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में राज्य को कोयले से होने वाली रॉयल्टी में भी कमी आयेगी। चालू वित्त वर्ष में नवंबर महीने तक कुल रॉयल्टी 2086 करोड़ रुपये है, इसमें करीब 1079 करोड़ रुपये इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के रुप में आया है। इस तरह से खनन की रॉयल्टी 1007 करोड़ रुपये है। इसी दौरान कोयले से मिलने वाली रॉयल्टी 619 करोड़ रुपये है। सरकार इसी राशि में होने वाली कमी को लेकर परेशान है।
कोयला जितना काला है उससे अधिक इस धंधे में लगे लोग काले हैं। ब्लैक डायमंड के नाम से प्रख्यात कोयले के काले कारोबार ने रातों ही रात में कईयों को फर्श से उठाकर अर्श पर ला खड़ा किया है। कोयले के कारोबार में मापदंडों का जिस प्रकार उल्लंघन हो रहा है उससे पर्यावरण भी दूषित हो रहा है। सिंगरौली में 22 सितंबर को ग्रीनपीस द्वारा सार्वजनिक सभा में एक रिपोर्टे जारी की गई। रिपोर्टर को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट देश की विधुत राजधानी में छाए प्रदुषण एवं विनाश को बेनकाब करती है।
चारों तरफ कोयला की धूल के बीच पुरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है।उन्होंने अपनी जमीन विधुत उत्पादन के लिए दी जो उन तक नहीं पहुँचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं तथा स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगो की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।
यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हाशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दुसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का सम्पूर्ण पारिस्थिकी तन्त्र खतरे में है। फिर भी महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। कोयला से काला' नामक एक रिपोर्ट आज बैधन की एक सार्वजनिक सभा में जारी की गई। इस सभा में कोयला खनन एवं थर्मल पावर प्लांटों से प्रभावित गांवों के लोग और वैसे लोग जिनके गांवों में खनन या औद्योगिक परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, उपस्थित थे।
यह रिपोर्ट ग्रीनपीस द्वारा जुलाई 2011 में गठित एक तथ्य आंकलन दल (फैक्ट फाइंडिंग मिशन)(1) का नतीजा है। इसमें पर्यावरण एवं इस क्षेत्र के लोगों पर अनियंत्रित कोयला खनन तथा ताप बिजली संयंत्र (थर्मल पावर प्लांटों) के प्रभाव को दर्ज किया गया है। इस तथ्य आंकलन दल को देश की विद्युत राजधानी के तौर पर प्रोत्साहित, सिंगरौली, में कोयला खनन के कारण हो रहे मानवीय उत्पीडऩ एवं पर्यावरण के विनाश की सच्चाई को सामने लाने के लिए गठित किया गया था।
रिपोर्ट को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा, ''सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट, देश की विद्युत राजधानी माने जाने वाले सिंगरौली, में छाए प्रदूषण एवं विनाश को बेनकाब करती है। चारों तरफ कोयले की धूल के बीच पूरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है। उन्होंने अपनी जमीनें विद्युत उत्पादन के लिए दीं जो उन तक नहीं पहुंचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं है तथा उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगों की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।''
इस तथ्य आंकलन दल के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, खासकर मंत्रियों के समूह (जीओएम) द्वारा कोयला खनन के लिए वन प्रखंडों के आवंटन की स्वीकृति के संदर्भ में। केवल सिंगरौली में ही, माहन, छत्रसाल, अमेलिया एवं डोंगरी टाल-2 के वन प्रखंडों को पहले 'वर्जितÓ (नो-गो) की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब इस विषय में मंत्रियों के समूह की ओर से स्वीकृति की प्रतीक्षा की जा रही है। हाल ही में कुछ खबरों के अनुसार मंत्रियों के समूह द्वारा 'वर्जितÓ व 'गैर वर्जितÓ (गो) क्षेत्र का सीमांकन रद्द किया जा सकता है। जब तक अक्षत वनों का सीमांकन नहीं किया जाता, इन वनों और लोगों की जमीन पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ता रहेगा।
आधिकारिक तौर पर, 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से सिंगरौली क्षेत्र में 5,872.18 हेक्टेयर वन का गैर-वन्य उपयोग के लिए विपथन किया जा चुका है। सिंगरौली के वन प्रमंडल अधिकारी के अनुसार और भी 3,299 हेक्टेयर वन विपथन के लिए प्रस्तावित है। इसमें वर्तमान एवं प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधियों के कारण वन-भूमि के अतिक्रमण के विभिन्न उदाहरण शामिल नहीं हैं।
फिलहाल, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से माहन के वनों को एस्सार एवं हिंडाल्को के खनन स्वामित्व में हस्तांतरित करने के लिए बेहद दबाव दिया जा रहा है। पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री, जयराम रमेश ने संकेत दिए थे कि इन वनों में खनन नही किया जाना चाहिए। माहन में उपलब्ध कुल 144 मिलियन टन का कोयला भंडार हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं एस्सार पावर लिमिटेड के ताप बिजली संयंत्र के लिए केवल 14 वर्षों तक कोयले की आपूर्ति के लायक हैं।
ग्रीनपीस इंडिया की नीति अधिकारी प्रिया पिल्लई ने आगे कहा, ''यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दूसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं। फिर भी, महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। वन भूमि के और अधिक विपथन के पहले सरकार को दूसरे क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन करना चाहिए। कंपनियों को भी चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की आजीविका पर ध्यान दें, मानवाधिकारों पर हो रहे असर का आंकलन करें, भूमिहीनों एवं वन-आश्रित समुदायों की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्वास की व्यवस्था करें।''
तथ्य आंकलन दल ने 9 एवं 10 जुलाई 2011 को सिंगरौली के उत्तर प्रदेश वाले इलाके में चिलिका दाड, दिबुलगंज (अनपरा थर्मल पावर प्लांट के निकट), बिलवाड़ा और सिंगरौली क्षेत्र के मोहर वन प्रखंड, अमलोरी एवं निगाही खदानों का दौरा किया। इस दल ने जनपद प्रशासन एवं कोल इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधियों से भी मुलाकात की।
रिपोर्ट में शामिल सूचनाओं के अनुसार देश में चुनिंदा 88 अति प्रदूषित औद्योगिक खण्ड के विस्तृत पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक पर सिंगरौली नौवें स्थान पर है। इसके 81.73 अंक यह साफ-साफ संकेत करते है कि यह क्षेत्र खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। दरअसल, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (पीसीआरआई) की रिपोर्ट साफ-साफ संकेत करती है कि कोयला खनन के कारण सिंगरौली क्षेत्र में भू-जल का प्रदूषण हुआ है।
इसके अतिरिक्त, ' इलेक्ट्रिसिटे द फ्रांसÓ की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्पादन के लिए निम्नस्तरीय कोयले के उपयोग के कारण सिंगरौली के थर्मल पावर प्लांटों से हर साल लगभग 720 किलोग्राम पारा (मर्करी) निकलता है। अनेक गांवों में और यहां तक कि नॉदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के उच्च अधिकारियों के द्वारा भी, तथ्य आंकलन दल को बताया गया कि चूंकि उनका दौरा बरसात के मौसम में हुआ है इसलिए वायु का गुणवत्ता स्तर काफी बेहतर था। सामान्यत:, और खासकर गर्मी के महीनों में वायु की गुणवत्ता का स्तर काफी खराब होता है। राख के तालाबों और खदानों के आस-पास रहने वाले ग्रामवासियों ने कहा कि उन महीनों में उनका जीवन नर्क हो जाता है। इसके फलस्वरूप, सिंगरौली गांव के लोगों को अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं जिनमें सांस की तकलीफ, टीबी, चर्मरोग, पोलियो, जोड़ों में दर्द और अचनाक कमजोरी तथा रोजमर्रा की सामान्य गतिवधियों को करने में कठिनाई जैसी अनेक समस्याएं हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि किस तरह विभिन्न खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों ने ग्रामीण जीवन को नुकसान पहुंचाया है लेकिन इन गतिविधियों के संचालकों से किसी ने भी स्वास्थ्य सेवा एवं बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करने की जिम्मेदारी नहीं ली है। उदाहरण के लिए, सोनभद्र जनपद (उत्तर प्रदेश में) के शक्तिनगर में चिलिका दाड गांव को लें जो नैशनल कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के मिट्टी के ढेर, कोयला ढोने वाली रेलवे लाइन और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के पावर प्लांट से घिरा है और यहां जल को प्रदूषित करने, वायु को प्रदूषित करने एवं स्वीकृत मानदंड से अधिक शोर पैदा करने में इनमें से हरेक की भूमिका है।
केवल अकेले चिलिका दाड में ही 600 ऐसे परिवार हैं जिन्हें इन विभिन्न परियोजनाओं के कारण अनेक बार विस्थापित होना पड़ा है। इन निवासियों को आवासीय पट्टे दिए गए केवल उस पर रहने के अधिकार के साथ। वे न तो इस जमीन को बेच सकते हैं और न ही इसके एवज में कोई कर्ज ले सकते हैं। अब इस गांव से महज 50 मीटर की दूरी पर भारी संख्या में खदानों, बेरोजगारी, उच्चस्तरीय प्रदूषण एवं खनन विस्फोट का खतरा झेल रहे ग्रामीणों के सामने बदहाली को झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
तथ्य आंकलन दल इस बात की सिफारिश करता है कि जब तक अन्य क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन न हो जाए तब तक के लिए सिंगरौली के वन क्षेत्र में सभी खनन गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दल यह भी सिफारिश करता है कि सभी खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों का व्यापक मानवाधिकार आंकलन किया जाए और लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कारवाई की जाए। इस दल ने महसूस किया है कि दशकों से सिंगरौली में प्रभावित जन समुदायों की आजीविका का सवाल बुनियादी तौर पर अनुत्तरित ही रहा है। इस मोर्चे पर तथ्य आंकलन दल ने सुझाव दिया है कि लोग अपनी पूर्ववर्ती आजीविका को जारी रख सकें, इस पर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भूमि-आधारित क्षतिपूर्ति व्यवस्था लागू की जाए जिसके माध्यम से अधिग्रहीत की गई कृषि भूमि के बदले में किसी दूसरी जगह कृषि भूमि प्रदान की जाए।
भिलाई इस्पात संयंत्र में काले हीरे की कालाबाज़ारी इस तरह चलती है कि प्रतिवर्ष अरबों रुपये का लेनदेन अधिकारियों, कर्मचारियों और पुलिस के साथ मिलकर खुलेआम कर लिया जाता है. इस धंधे में लगे हुए ठेकेदार कहने को तो कोयले की बुहारन यानी शेष बचा हुआ कोयला बटोरते हैं, पर इसी के भरोसे छत्तीसगढ़ में एक नया कोल मा़फिया लंबे समय से सक्रिय है. इस पर लगाम लगाने की न कभी कोशिश की गई और न ही इसे गंभीरता से लिया गया. पिछले बीस वर्षों में इस धंधे से 350 करोड़ रुपये से अधिक की अवैध कमाई की गई है.
भिलाई से लेकर बिहार और झारखंड तक इस्पात कारखानों में कोल माफिया रेलवे, आरपीएफ, इस्पात संयंत्रों के अधिकारियों-कर्मचारियों और सुरक्षातंत्र के साथ मिलकर यह अवैध कारोबार कर रहे हैं, जिसे हर स्तर पर राजनीतिक संरक्षण हासिल है. भिलाई इस्पात संयंत्र को बिहार, झारखंड और कोरबा की खानों से निकलने वाला कोयला आपूर्ति किया जाता है, जो मालगाड़ी के माध्यम से यहां तक पहुंचता है. जानकारी के अनुसार, एक मालगाड़ी में 6 से 10 वैगन तक होते हैं और एक वैगन में 18 से 60 टन कोयला भरा होता है. जैसे ही मालगाड़ी यार्ड में पहुंचती है, ट्रांसपोर्ट एवं डीजल विभाग, मैटेरियल विभाग, कोक ओवन विभाग मिलकर कोयला रिसीव करते हैं और डिब्बा खाली होने का क्लियरेंस देते हैं. इसके बाद डिब्बे में पड़े कोयले का चूरा, जिसे बुहारन कहा जाता है, साफ़ करने की प्रक्रिया शुरू होती है. इसी बुहारन के ज़रिए ही भिलाई इस्पात संयंत्र से प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये का चूना लगाया जाता है. भिलाई स्टील प्लांट में काम करने वाला ठेकेदार अग्रवाल, जिसका पूरा नाम ज्ञात नहीं है, इस बुहारन को पिछले कई वर्षों से लगातार साफ़ कर रहा है. इस ठेकेदार ने 60-70 मज़दूर लगा रखे हैं, जो बेलचे से बुहारन एकत्र करने का काम करते हैं. प्रत्येक मज़दूर को 90 रुपये प्रतिदिन मज़दूरी दी जाती है. एक महीने में मज़दूरों का भुगतान एक लाख 79 हज़ार रुपये के आसपास होता है. इतनी बड़ी राशि के लिए इस बुहारन का बाज़ार भाव 200 से 250 रुपये प्रति टन होता है. प्रतिमाह भिलाई इस्पात संयंत्र में 30 मालगाडिय़ां डाउनलोड होती हैं. यानी 250 टन प्रतिमाह. बारह माह में 60 हज़ार टन बुहारन मालगाडिय़ों से उतारी जाती है, जिसकी कुल क़ीमत करोड़ों में होती है. इस बुहारन के साथ योजना के अनुसार अच्छा कोयला भी डिब्बे में छोड़ दिया जाता है, जो खुले बाज़ार में अतिरिक्त रूप से बेच दिया जाता है.

पिछले बीस वर्षों के दौरान लगभग 350 करोड़ रुपये का माल तस्करों द्वारा ग़ायब कर दिया गया. यह मात्र अनुमान है. सूत्रों के अनुसार, बिना टेंडर के बेचे जाने वाले इस माल के व्यापार में लगभग हर स्तर के अधिकारी और कर्मचारी को मुंह बंद करने की पूरी क़ीमत दी जाती है. बिना किसी अधिकार के ठेकेदार द्वारा बीस वर्षों की अवधि में कितना माल निकाल कर बाज़ार में बेचा गया, इसका हिसाब इस्पात संयंत्र या रेलवे के किसी भी अधिकारी के पास नहीं है. इस संदर्भ में चौथी दुनिया ने जब विभिन्न विभागीय अधिकारियों से चर्चा करनी चाही तो अफ़सर कन्नी काट गए. भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क अधिकारी जेकब कुरियन का कहना है कि हमें भी कोयले की कमी की शिकायतें मिल रही हैं. हालांकि इस्पात संयंत्र का ट्रांसपोर्ट और डीजल विभाग डिब्बों को खाली कराता है. उन्होंने कहा कि प्रबंधन खुद ही अपनी निगरानी में क्लीनिंग कराएगा.
भिलाई इस्पात संयंत्र में कोयले की तस्करी का सिलसिला विभिन्न स्तरों पर निरंतर जारी है. प्रबंधन यदि जाग भी जाए तो अवैध रूप से पैसा कमाने का आदी हो चुका तंत्र उसे सक्रिय नहीं होने देगा.
झारखंड की सत्ता संस्कृति कमोबेश कोयले और लोहे के अवैध धंधे से ही ऊर्जा प्राप्त करती है. यह धंधा राज्य के ताक़तवर नेताओं और आला अधिकारियों के संरक्षण में बड़े ही संगठित रूप से संचालित होता है. कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है. प्राय: दस या बीस रुपये के नोटों की गड्डी से एक-एक नोट को निकालकर आधा फाड़ दिया जाता है और चोरी का कोयला ले जाने वाले ट्रक को निर्धारित फीस के एवज में दिया जाता है. किस इलाक़े से किस सीरीज़ के नोट जारी किए गए हैं, सुबह माफिया के गुर्गे रास्ते के तमाम थानों को सूचित कर देते हैं. ट्रक वालों को सफिऱ् इसे दिखाना होता है. उन्हें हर थाना क्षेत्र में वीआइपी ट्रीटमेंट मिलता है. वैध कोयले से लदी गाड़ी भले ही रोक ली जाए, लेकिन अवैध कोयले की गाडिय़ों को कोई नहीं रोकता. कारण, हर सप्ताह माफिया की तरफ़ से बंधी बंधाई रकम का पैकेट उन तक पहुंच जाता है. पुलिस की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिये कभी-कभी मैच फिक्सिंग के अंदाज़ में कोयले की बरामदगी भी करा दी जाती है.
कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है.
झारखंड के कोयला खदान क्षेत्रों से लेकर हाइवे तक कार्य विभाजन के आधार पर धंधे का संचालन होता है. माफिया, पुलिस, औद्योगिक सुरक्षा बल और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के संरक्षण में कुछ दबंग किस्म के अपराधकर्मी बंद खदानों में अवैध उत्खनन कराते हैं. इसमें प्राय: स्थानीय गऱीब बेरोजग़ारों को दैनिक मज़दूर के रूप में लगाया जाता है. असुरक्षित और अवैज्ञानिक खनन कार्य के कारण दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं, जिसमें मौतें भी हो जाती हैं, लेकिन प्राय: स्थानीय ग्रामीण शवों को हटा लेते हैं और चुपके से अंतिम संस्कार कर देते हैं. अवैध उत्खनन में लिप्त होने की बात कोई स्वीकार नहीं करता. प्रतिदिन अवैध उत्खनन से उत्पादित कोयले को अवैध डिपो में एकत्र किया जाता है. जंगल, पहाड़ और आबादी से जऱा हटकर बने इन डिपो का संचालन भी माफिया के गुर्गों की टीम के जि़म्मे रहता है. स्थानीय ग्रामीण कोयला खदानों से कोयला चुराकर साइकिलों पर लादकर इन्हीं डिपो में लाकर बेचते हैं. इसके एवज में उन्हें भरण-पोषण भर रकम मिल जाती है. पुलिस वाले भी इन्हीं को परेशान करते हैं और अवैध वसूली करते हैं. रोजग़ार के अभाव में ग्रामीण इस अवैध धंधे में शामिल हो जाते हैं. स्थानीय थाने को प्रति ट्रक एक हज़ार से तीन हज़ार तक नजऱाना दिया जाता है. हाइवे के पहले पडऩे वाले थानों को भी प्रति ट्रक की दर से नजऱाना तय रहता है. डिस्को पेपर हाइवे में प्रभावी होता है. कोयलांचल के पुलिस थानों की प्रतिदिन की कमाई लाखों में होती है, इसीलिये इन थानों में पोस्टिंग के लिए पुलिस अधिकारी मुंहमांगी रकम देने को तैयार रहते हैं. इस धंधे में पुलिस, पत्रकार, नेता और यहां तक की नक्सलियों का भी हिस्सा रहता है, जिसे पूरी ईमानदारी के साथ निर्धारित अवधि में बांट दिया जाता है. पुलिस थानों के प्रभारी अपने आला अधिकारियों को इसका हिस्सा पहुंचाते हैं. माफिया की तरफ से पुलिस, प्रशासन और राजधानी के आकाओं को अलग से पैकेट भेजा जाता है. शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल हो जिसके शीर्ष नेताओं को उनकी हैसियत के मुताबिक़ थैली न पहुंचाई जाती हो. ऐसा नहीं कि यह धंधा अनवरत रूप से चलता हो. चुनाव के पूर्व या केंद्र के ज़्यादा दबाव बढऩे पर कुछ समय के लिए इसका पैमाना घटा दिया जाता है. ऐसे मौक़ों पर सरकार की छवि सुधारने के लिए ईमानदार और कड़े प्रशासकों का पदस्थापन कोयलांचल के इलाकों में किया जाता है. फिर माहिर अधिकारियों को भेजकर धंधे का दायरा बढ़ा दिया जाता है.
चोरी के कोयले को मंडी तक पहुंचाने का काम भी कुछ खास ट्रक मालिक करते हैं. उन्हें सामान्य से अधिक भाड़ा मिलता है और रास्ते में कोई परेशानी नहीं होती. कोयला माफिया के पास ऐसे ट्रकों की लिस्ट रहती है. वे हर ट्रिप के बाद माफिया के यहां उपस्थिति दर्ज करा देते हैं. उन्हें दिन के व़क्त ही बता दिया जाता है कि किस डिपो से लोड लेना है. शाम ढलने के बाद इनपर कोयले की लदाई होती है और देर रात वे हाइवे पकड़ लेते हैं. अधिकांश कोयला डिहरी और बनारस की मंडियों में खपाया जाता है, जहां से इसे देश के दूसरे इलाक़ों के कोयला व्यापारी खरीद ले जाते हैं.

कोयला चोरी को रोकने की बात हर सरकार करती है. इसके लिये तरह-तरह के उपाय भी किए जाते हैं. कभी टास्क फोर्स बनाई जाती है तो कभी लगातार छापेमारी की जाती है. कभी चिन्हित कोयला तस्करों को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला जाता है. लेकिन सब सफिऱ् दिखावे के लिये. सत्ता में बैठे लोगों के खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग रहते हैं. एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष कऱीब 1000 करोड़ का कोयला चोरी से मंडियों तक पहुंचाया जाता है. कुछ बड़े तस्करों का जाल तो नेपाल और चीन तक बिछा हुआ है. चोरी का कोयला स्थानीय स्तर पर भी रोलिंग मिलों, ईंट भ_ों आदि में धड़ल्ले से खपाया जाता है. उन्हें यह कोयला सस्ता पड़ता है. चोरी का कोयला खपाने वाले कल-कारखानों का नजऱाना भी स्थानीय स्तर से राजधानी तक पहुंचता है. बहरहाल, काले हीरे के काले धंधे में कई सफ़ेदपोश लाल हो रहे हैं. इसे कोई स्वीकार करे न करे, लेकिन कोयले की दलाली में अच्छे-अच्छों के हाथ काले हो रहे हैं, जिसे वे तरह-तरह के दास्त