रविवार, 18 मार्च 2012

काले हीरे का काला बाजार




काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है. कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है.एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है.
भारतीय कोयला बाज़ार एक अजीबो-गऱीब दानव है. कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल), सिंगरेनी कोल कोलियरी लिमिटेड (एससीसीएल) और नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन (एनएलसी) के बीच राज्यों की स्वाधिकृत कंपनियों के उत्पादन के अल्पाधिकार की भरपाई ऐतिहासिक रूप में क्रय के एकाधिकार द्वारा की जाती रही है. उदारीकरण से पहले तक कोयले के सबसे बड़े औद्योगिक उपभोक्ता अर्थात बिजली, लोहा व इस्पात और सीमेंट के कारख़ाने भी ज़्यादातर राज्यों के स्वाधिकृत कारख़ाने ही रहे हैं, लेकिन वास्तव में रेलवे ही एक ऐसी संस्था है जिसके पास कोयले को बड़े पैमाने पर उठाने और उसे वितरित करने की अच्छी-खासी मूल्य-शक्ति है. उदारीकरण के बाद जब ये जि़म्मेदारियां सीआईएल को औपचारिक रूप में सौंप दी गईं, तब कोयला मंत्रालय ने 2000 के दशक की शुरुआत तक मूल्यों पर नियंत्रण बनाए रखा. फिर भी आयात-समानता के मूल्यों पर केवल कोयले के उच्चतम ग्रेड ही बेचे गए और भारत का अधिकांश उत्पादन निचले ग्रेड का होने के कारण कम मूल्य पर बेचा गया और हो सकता है कि इन मूल्यों का निर्देश अनिवार्य वस्तुओं, खास तौर पर बिजली की लागत को कम रखने के लिए कदाचित कोयला मंत्रालय द्वारा दिया गया था. सन 2011 के आरंभ में सीआईएल ने विभेदक मूल्य प्रणाली शुरू की, जिसके आधार पर बाज़ार-संचालित क्षेत्रों के लिए उच्चतर मूल्य तय किए गए.
इन बदलती हुई मूल्य-व्यवस्थाओं के बावजूद काले बाज़ार को छोड़कर खुले बाज़ार में थोक में कोयला खरीदना सचमुच बहुत कठिन है. भारत के छह सौ मिलियन टन के घरेलू कोयला उत्पादन में से लगभग 80 प्रतिशत का आवंटन कोयला मंत्रालय की प्रशासनिक समितियों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के आवेदकों को किया गया. अतिरिक्त 10 प्रतिशत की बिक्री ऑनलाइन ई-नीलामी के माध्यम से की गई, जिसके परिणामस्वरूप अच्छा-खासा राजस्व भी मिला है. 2009-10 में ई-नीलामी मूल्य औसतन अधिसूचित मूल्यों से लगभग 60 प्रतिशत ऊपर रहा. अवरुद्ध कोयला ब्लॉक, जिन्हें जल्द ही प्रतियोगी बोलियों के माध्यम से सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों को आवंटित कर दिया जाएगा, 19 प्रतिशत अतिरिक्त था. अंतत: घरेलू कोयला उत्पादन का आ़खिरी 1 प्रतिशत राज्य सरकार की एजेंसियों को, जो इसे स्थानीय बाज़ारों को उपलब्ध करा देते हैं, आवंटित कर दिया जाता है.
कोयले के कम मूल्य के पीछे का तर्क था कि बिजली, इस्पात और सीमेंट का परिणामी उत्पादन अनिवार्य था और वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए उसकी क़ीमत कम करना ज़रूरी था, लेकिन आर्थिक सलाहकार के कार्यालय से हाल के मूल्यों के आंकड़ों को देखते हुए 2004 से 2011 तक कोयले के मूल्य में 89 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि बिजली, इस्पात और सीमेंट के मूल्यों में क्रमश: 13 प्रतिशत, 26 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उसी अवधि में थोक मूल्य सूचकांक में 54 प्रतिशत वृद्धि हुई. जहां एक ओर बिजली के मूल्य विनियमित कर दिए गए, वहीं दोनों के मूल्य का विनियमन नहीं हुआ है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन दोनों उद्योगों ने कोयले के बढ़ते मूल्यों को पर्याप्त रूप में आत्मसात करते हुए उनका प्रबंधन कर दिया. यदि स्थिति यही है तो कृत्रिम रूप से कोयले के कम मूल्य के रूप में सहायता की इनपुट राशि का तर्क काफ़ी कमज़ोर है, लेकिन मूल्य-निर्धारण मूलभूत समस्या भी नहीं है.
यह समय सबसे अच्छा था, यह समय सबसे खराब था, यह युग समझदारी का था, यह युग ही बेवक़ूफिय़ों का था. कोयले की इस वर्तमान गतिशीलता की तुलना किसी षड्यंत्र और दो शहरों की कथा (ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़) के झंझावात से नहीं की जा सकती. यह कथा निश्चय ही आरंभिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करती है और इससे इस क्षेत्र में चलने वाले घटनाचक्र का अंदाज़ा हो जाता है. हाल में बाज़ारी पूंजीवाद के संदर्भ में सबसे प्रतिष्ठित कंपनी के रूप में कोल इंडिया के उदय होने की चर्चा समाचार पत्रों में गूंजती रही है. वित्तीय जश्न मनाने की बजाय पिछले कुछ वर्षों से भारत में कोयले की भारी कमी रही है, जिसके कारण राज्य सरकारें, सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की पावर और इस्पात कंपनियां समय पर कोयले की डिलीवरी न होने की लगातार शिकायतें करती रही हैं.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खास तौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं.
घरेलू कोयले के सुरक्षित भंडार से काफ़ी मात्रा में कोयला निकालने की भारत की क्षमता में गिरावट आने के कारण उसकी नीति पर भी मूल रूप में इसका असर पड़ा है. कोयला मंत्रालय द्वारा निष्पादित नवीनतम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) बिजली संयंत्रों की ईंधन संबंधी 75 प्रतिशत आवश्यकताओं को पूरा करने की गारंटी देते हैं, शेष की पूर्ति निजी तौर पर की जानी चाहिए. यदि कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) निष्पादित हो भी जाए, जो अपने आपमें संपर्क अनुमोदन प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए बेहद अनिश्चित है तो भी रेल और सड़क मार्ग के मिले-जुले रूप के कारण स्त्रोत स्थल से ले जाकर गंतव्य स्थल पर उन्हें खाली करने-कराने के तौर-तरीक़ों और उसके लिए जि़म्मेदार एजेंसियों द्वारा लॉजिस्टिकल प्रबंधन के कमज़ोर समन्वयन के कारण और भी नुक़सान और देरी होती रहती है. इस बात को लेकर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए कि बड़े-बड़े कोयला उपभोक्ता बेहतर कि़स्म के कोयले को चुनने के लिए उसे उन देशों से आयातित करने पर आमादा होने लगे हैं, जहां पर कऱार और लॉजिस्टिक्स से संबंधित दायित्वों का पूर्वानुमान किया जा सकता है. इसकी प्रतिक्रिया में कोयला निर्यातक देशों और अभी हाल में इंडोनेशिया ने भी कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए उसकी क़ीमत में बढ़ोतरी और विनियमों में परिवर्तन करना शुरू कर दिया है.
आशा है कि भारत अगले कुछ वर्षों में एक मिलियन टन से अधिक कोयले का आयात करेगा. क्या कारण है कि कोयले का घरेलू उत्पादन मांग को पूरा करने में विफल रहा है? हालांकि इस बारे में बहुत-से स्पष्टीकरण दिए जा चुके हैं, फिर भी यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब कदाचित सबसे कठिन है. कुछ लोग कहते हैं कि पर्यावरण संबंधी स्वीकृति और भूमि अधिग्रहण ही मुख्य बाधाएं रही हैं. कुछ लोग इसका दोष राज्यों द्वारा स्वाधिकृत कोयला कंपनियों पर मढ़ देते हैं जो अपने परिचालन में आधुनिक खनन की परिपाटियों और प्रौद्योगिकी को प्रभावशाली रूप में अपनाने में असमर्थ रहे हैं. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कोयला कंपनियों के इन पुराणपंथी मालिकों की काफ़ी आलोचना भी हुई है. इनके कई मालिकों ने तो उत्पादन के लिए ब्लॉक ला पाने में विफल होने के बाद अपने आवंटित ब्लॉकों को अनावंटित भी करा दिया. कि़स्सागोई की तरह आपराधिक तत्वों के साथ कोयला उद्योग की मिलीभगत और उसके फलस्वरूप होने वाली चोरी और ग्रेड की गुणवत्ता को कम करने की वारदातों को भी समझा जा सकता है. यही कारण है कि घरेलू उद्योग में वर्तमान कमी के सही कारणों को समझना इतना आसान नहीं है, परंतु एक बात तो साफ़ है कि परंपरागत बाज़ार की अपेक्षित क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खासतौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं. पिछले कुछ महीनों में श्रमिक संकट, भारी वर्षा और तेलंगाना विरोध के कारण इस प्रणाली की ऐसी कमी भी सामने आई है, जिसके कारण बिजली के संयंत्रों में कोयले के भंडार कम होने लगे और अनेक दक्षिणी राज्यों में लंबे समय तक बिजली की कटौती होने लगी.
ऐसी अप्रत्याशित परिस्थितियों में निजी क्षेत्र में भी जोखिम बढऩे के कारण उत्साह में कमी दिखाई पडऩे लगी. सीआईएल के मूल्य-निर्धारण के उत्साह से भरे सारे प्रयासों पर बार-बार पावर क्षेत्र द्वारा पानी फेर दिया गया. यदि इन्हें उचित रूप में कार्यान्वित किया जाए तो इससे पावर क्षेत्र में सैद्धांतिक रूप में स्थितियों में सुधार आ जाएगा, लेकिन बढिय़ा कोयले की डिलीवरी में सीआईएल के खराब रिकॉर्ड के कारण कई ऑपरेटर भारी रद्दोबदल करने की बजाय स्थिति को यथावत बनाए रखना ही पसंद करते हैं. इस प्रकार का संतुलन, जहां कोई भी पक्ष पूरी तरह से निकम्मी पड़ी इस प्रणाली में कोई भारी परिवर्तन नहीं चाहता, बहुत समय तक नहीं चल सकता.
इस प्रकार की समस्याओं का कोई सरल समाधान नहीं है, इसलिए इन पर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है. रणनीतिक कारणों से विदेशों से कोयले के संसाधन मंगवाने की बात ठीक तो लगती है, लेकिन इस बात को मद्देनजऱ रखते हुए कि कोयले की किसी खान को पूरी तरह से विकसित करने में पांच से सात साल तक का समय लगता है, अपने देश में ही कुछ अल्पकालिक उपायों की आवश्यकता तो होगी ही. कोयले के क्षेत्र में सुधारों पर शंकर समिति की रिपोर्ट में चार साल पहले कई ऐसी समस्याओं की भविष्यवाणी की गई थी और उस समिति की सिफ़ारिशों पर कार्रवाई करने में कुछ समय तो लगेगा ही. अनेक महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करना होगा. उदाहरण के लिए पिछले बीस वर्षों में भारतीय कोयला खनन कंपनियों की उत्पादकता में बदलाव कैसे आया? कोयले की आपूर्ति की लाइनें कैसे चलती हैं और इस प्रक्रिया में बाधाएं और विचलन कहां हैं? क्या भारत अपनी घरेलू खानों से इष्टतम मात्रा में कोयला निकाल सकता है? क्या यह संभव है कि वर्तमान क़ानूनी ढांचे के भीतर अधिक खुले कोयला बाज़ार में संक्रमण किया जा सके ? इन सवालों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद ही पिछले कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में चली आ रही समस्याओं के लगातार समाधान की कोशिशें रंग ला पाएंगी.
काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है। कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है। अकेले मध्य प्रदेश में हर साल करीब 350 करोड़ का कोयला तस्करी के माध्यम से बाजारों में पहुंच रहा है।
मध्य प्रदेश में कई कोयला खदानें हैं और इन खदानों का कोयला देश भर में भेजा जाता है। कोयले के इस कारोबार में खदान से लेकर कोल डिपो और परिवहन प्रक्रिया के दौरान भारी मात्रा में कोयला चोरी होता है और अच्छी गुणवत्ता के कोयले को चुराकर वजन पूरा करने के लिए कोयले के ढेर में पत्थर और कचरा मिलाया जाता है। यही पत्थर और कचरायुक्त कोयला बिजली संयंत्रों को भेजा जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बिजली उत्पादन कंपनियों के आला अफसर कई बार शिकायत कर चुके हैं कि राज्य के बिजली संयंत्रों को मिलने वाले कोयले में बड़ी मात्रा में पत्थर और कचरा होता है, जिससे बिजली उत्पादन प्रभावित होता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि कोयला कंपनियां तो अच्छा कोयला ही भेजती हैं। बीच में कोयला परिवहन करने वाले और भंडारण करने वाले कोयला चोरी करते हैं और उसमें पत्थर कचरा मिलाकर वजन पूरा कर देते हैं। इस गोरखधंधे में कोयला कंपनियों और बिजली संयंत्रों के ज़मीनी अधिकारियों की मिली भगत से इंकार नहीं किया जा सकता है। कोयला चोरी करोड़ों रुपयों का लाभदायक धंधा है और इस कमाई का बंटवारा ऊपर से नीचे तक होता है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में तो कोयला चोरी का बड़ा मामला संसदीय जांच समिति ने पकड़ा भी है, लेकिन मध्य प्रदेश में अभी किसी का ध्यान नहीं गया है। यह चोरी का कोयला उद्योगों, कल कारखानों और कोयला आपूर्ति करने वाली व्यापारिक कंपनियों के भंडार में ही जाता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बिजली संयंत्रों के आला प्रबंधकों ने मिलावटी कोयले की बार-बार शिकायत करके बिजली संयंत्रों के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले कोयले के आयात के समर्थन में माहौल तैयार किया और केंद्र सरकार से आयात की अनुमति भी ले ली है। लेकिन इस बारे में कांग्रेस नेताओं को पूरी आशंका है कि कोयला आयात का धंधा भ्रष्टाचार से प्रेरित है। एक यह भी आशंका जताई जा रही है कि देश में बड़ी मात्रा में हो रही कोयला चोरी को ठिकाने लगाने के लिए कुछ कंपनियां, बिजली संयंत्रों को कोयला बेचने के लिए लालायित हैं और हो सकता है कि मध्य प्रदेश सरकार का आयातित कोयला खरीदने का फैसला भी इन कंपनियों के दबाव का ही नतीजा हो।

देश का 28 प्रतिशत कोयला उत्पादन मध्यप्रदेश से
देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुय स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले तीन सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी।
मप्र के कोयला उत्पादन में भारी कमी के आसार
पुरानी खदानों के बंद होने और नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू न होने से राज्य में कोयले के उत्पादन में भारी कमी होने जा रही है। उत्पादन में होने वाली यह संभावित कमी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि खनन से मिलने वाली कुल रॉयल्टी में कोयले का हिस्सा 60 फीसदी होता है।
मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में कई कोयला खदानें है। इसमें से सबसे बड़े कोल रिजर्व वाली झिंगुरदाह खदान जल्द ही बंद होने वाली है। एनसीएल की गोरबी खदान में भी कोयला कम बचा हुए है। प्रदेश के सिंगरौली की सभी खुली खदानेंं है, यहां के अलावा प्रदेश की ज्यादातर खदाने भूमिगत है और काफी पुरानी है। प्रदेश में फिलहाल कोल इंडिया की तीन सहायक कंपनियां एनसीएल, एसईसीएल और डब्ल्यूसीएल की कुल छह खदानें है।
दूसरी ओर प्रदेश के नये कोल ब्लॉकों में अभी तक कोल उत्पादन शुरू नहीं हुआ है तथा अगले दो सालों तक उनके शुरू होने की कोई संभावना भी नहीं है। प्रदेश में विभिन्न पॉवर कंपनियों को 22 कोल ब्लॉक आवंटित किये गये है, जिनका अनुमानित कोल भंडार 3100 मिलियन टन का है। ये ब्लॉक सिंगरौली, शहड़ोल, उमरिया, अनूपपुर और छिंदवाड़ा में है। जिन कंपनियों को यह आवंटित किये गये है उनमें रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, एस्सार पॉवर, मध्य प्रदेश राज्य खनिज निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, जे.पी.एसोसिएटस, ए.सी.सी. लिमिटेड शामिल है।
आज की स्थितियों को देखते हुए तय माना जा रहा है कि जब तक नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू नहीं होगा, प्रदेश में कुल कोयला उत्पादन नहीं बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में राज्य को कोयले से होने वाली रॉयल्टी में भी कमी आयेगी। चालू वित्त वर्ष में नवंबर महीने तक कुल रॉयल्टी 2086 करोड़ रुपये है, इसमें करीब 1079 करोड़ रुपये इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के रुप में आया है। इस तरह से खनन की रॉयल्टी 1007 करोड़ रुपये है। इसी दौरान कोयले से मिलने वाली रॉयल्टी 619 करोड़ रुपये है। सरकार इसी राशि में होने वाली कमी को लेकर परेशान है।
कोयला जितना काला है उससे अधिक इस धंधे में लगे लोग काले हैं। ब्लैक डायमंड के नाम से प्रख्यात कोयले के काले कारोबार ने रातों ही रात में कईयों को फर्श से उठाकर अर्श पर ला खड़ा किया है। कोयले के कारोबार में मापदंडों का जिस प्रकार उल्लंघन हो रहा है उससे पर्यावरण भी दूषित हो रहा है। सिंगरौली में 22 सितंबर को ग्रीनपीस द्वारा सार्वजनिक सभा में एक रिपोर्टे जारी की गई। रिपोर्टर को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट देश की विधुत राजधानी में छाए प्रदुषण एवं विनाश को बेनकाब करती है।
चारों तरफ कोयला की धूल के बीच पुरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है।उन्होंने अपनी जमीन विधुत उत्पादन के लिए दी जो उन तक नहीं पहुँचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं तथा स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगो की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।
यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हाशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दुसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का सम्पूर्ण पारिस्थिकी तन्त्र खतरे में है। फिर भी महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। कोयला से काला' नामक एक रिपोर्ट आज बैधन की एक सार्वजनिक सभा में जारी की गई। इस सभा में कोयला खनन एवं थर्मल पावर प्लांटों से प्रभावित गांवों के लोग और वैसे लोग जिनके गांवों में खनन या औद्योगिक परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, उपस्थित थे।
यह रिपोर्ट ग्रीनपीस द्वारा जुलाई 2011 में गठित एक तथ्य आंकलन दल (फैक्ट फाइंडिंग मिशन)(1) का नतीजा है। इसमें पर्यावरण एवं इस क्षेत्र के लोगों पर अनियंत्रित कोयला खनन तथा ताप बिजली संयंत्र (थर्मल पावर प्लांटों) के प्रभाव को दर्ज किया गया है। इस तथ्य आंकलन दल को देश की विद्युत राजधानी के तौर पर प्रोत्साहित, सिंगरौली, में कोयला खनन के कारण हो रहे मानवीय उत्पीडऩ एवं पर्यावरण के विनाश की सच्चाई को सामने लाने के लिए गठित किया गया था।
रिपोर्ट को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा, ''सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट, देश की विद्युत राजधानी माने जाने वाले सिंगरौली, में छाए प्रदूषण एवं विनाश को बेनकाब करती है। चारों तरफ कोयले की धूल के बीच पूरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है। उन्होंने अपनी जमीनें विद्युत उत्पादन के लिए दीं जो उन तक नहीं पहुंचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं है तथा उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगों की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।''
इस तथ्य आंकलन दल के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, खासकर मंत्रियों के समूह (जीओएम) द्वारा कोयला खनन के लिए वन प्रखंडों के आवंटन की स्वीकृति के संदर्भ में। केवल सिंगरौली में ही, माहन, छत्रसाल, अमेलिया एवं डोंगरी टाल-2 के वन प्रखंडों को पहले 'वर्जितÓ (नो-गो) की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब इस विषय में मंत्रियों के समूह की ओर से स्वीकृति की प्रतीक्षा की जा रही है। हाल ही में कुछ खबरों के अनुसार मंत्रियों के समूह द्वारा 'वर्जितÓ व 'गैर वर्जितÓ (गो) क्षेत्र का सीमांकन रद्द किया जा सकता है। जब तक अक्षत वनों का सीमांकन नहीं किया जाता, इन वनों और लोगों की जमीन पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ता रहेगा।
आधिकारिक तौर पर, 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से सिंगरौली क्षेत्र में 5,872.18 हेक्टेयर वन का गैर-वन्य उपयोग के लिए विपथन किया जा चुका है। सिंगरौली के वन प्रमंडल अधिकारी के अनुसार और भी 3,299 हेक्टेयर वन विपथन के लिए प्रस्तावित है। इसमें वर्तमान एवं प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधियों के कारण वन-भूमि के अतिक्रमण के विभिन्न उदाहरण शामिल नहीं हैं।
फिलहाल, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से माहन के वनों को एस्सार एवं हिंडाल्को के खनन स्वामित्व में हस्तांतरित करने के लिए बेहद दबाव दिया जा रहा है। पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री, जयराम रमेश ने संकेत दिए थे कि इन वनों में खनन नही किया जाना चाहिए। माहन में उपलब्ध कुल 144 मिलियन टन का कोयला भंडार हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं एस्सार पावर लिमिटेड के ताप बिजली संयंत्र के लिए केवल 14 वर्षों तक कोयले की आपूर्ति के लायक हैं।
ग्रीनपीस इंडिया की नीति अधिकारी प्रिया पिल्लई ने आगे कहा, ''यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दूसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं। फिर भी, महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। वन भूमि के और अधिक विपथन के पहले सरकार को दूसरे क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन करना चाहिए। कंपनियों को भी चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की आजीविका पर ध्यान दें, मानवाधिकारों पर हो रहे असर का आंकलन करें, भूमिहीनों एवं वन-आश्रित समुदायों की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्वास की व्यवस्था करें।''
तथ्य आंकलन दल ने 9 एवं 10 जुलाई 2011 को सिंगरौली के उत्तर प्रदेश वाले इलाके में चिलिका दाड, दिबुलगंज (अनपरा थर्मल पावर प्लांट के निकट), बिलवाड़ा और सिंगरौली क्षेत्र के मोहर वन प्रखंड, अमलोरी एवं निगाही खदानों का दौरा किया। इस दल ने जनपद प्रशासन एवं कोल इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधियों से भी मुलाकात की।
रिपोर्ट में शामिल सूचनाओं के अनुसार देश में चुनिंदा 88 अति प्रदूषित औद्योगिक खण्ड के विस्तृत पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक पर सिंगरौली नौवें स्थान पर है। इसके 81.73 अंक यह साफ-साफ संकेत करते है कि यह क्षेत्र खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। दरअसल, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (पीसीआरआई) की रिपोर्ट साफ-साफ संकेत करती है कि कोयला खनन के कारण सिंगरौली क्षेत्र में भू-जल का प्रदूषण हुआ है।
इसके अतिरिक्त, ' इलेक्ट्रिसिटे द फ्रांसÓ की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्पादन के लिए निम्नस्तरीय कोयले के उपयोग के कारण सिंगरौली के थर्मल पावर प्लांटों से हर साल लगभग 720 किलोग्राम पारा (मर्करी) निकलता है। अनेक गांवों में और यहां तक कि नॉदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के उच्च अधिकारियों के द्वारा भी, तथ्य आंकलन दल को बताया गया कि चूंकि उनका दौरा बरसात के मौसम में हुआ है इसलिए वायु का गुणवत्ता स्तर काफी बेहतर था। सामान्यत:, और खासकर गर्मी के महीनों में वायु की गुणवत्ता का स्तर काफी खराब होता है। राख के तालाबों और खदानों के आस-पास रहने वाले ग्रामवासियों ने कहा कि उन महीनों में उनका जीवन नर्क हो जाता है। इसके फलस्वरूप, सिंगरौली गांव के लोगों को अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं जिनमें सांस की तकलीफ, टीबी, चर्मरोग, पोलियो, जोड़ों में दर्द और अचनाक कमजोरी तथा रोजमर्रा की सामान्य गतिवधियों को करने में कठिनाई जैसी अनेक समस्याएं हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि किस तरह विभिन्न खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों ने ग्रामीण जीवन को नुकसान पहुंचाया है लेकिन इन गतिविधियों के संचालकों से किसी ने भी स्वास्थ्य सेवा एवं बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करने की जिम्मेदारी नहीं ली है। उदाहरण के लिए, सोनभद्र जनपद (उत्तर प्रदेश में) के शक्तिनगर में चिलिका दाड गांव को लें जो नैशनल कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के मिट्टी के ढेर, कोयला ढोने वाली रेलवे लाइन और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के पावर प्लांट से घिरा है और यहां जल को प्रदूषित करने, वायु को प्रदूषित करने एवं स्वीकृत मानदंड से अधिक शोर पैदा करने में इनमें से हरेक की भूमिका है।
केवल अकेले चिलिका दाड में ही 600 ऐसे परिवार हैं जिन्हें इन विभिन्न परियोजनाओं के कारण अनेक बार विस्थापित होना पड़ा है। इन निवासियों को आवासीय पट्टे दिए गए केवल उस पर रहने के अधिकार के साथ। वे न तो इस जमीन को बेच सकते हैं और न ही इसके एवज में कोई कर्ज ले सकते हैं। अब इस गांव से महज 50 मीटर की दूरी पर भारी संख्या में खदानों, बेरोजगारी, उच्चस्तरीय प्रदूषण एवं खनन विस्फोट का खतरा झेल रहे ग्रामीणों के सामने बदहाली को झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
तथ्य आंकलन दल इस बात की सिफारिश करता है कि जब तक अन्य क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन न हो जाए तब तक के लिए सिंगरौली के वन क्षेत्र में सभी खनन गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दल यह भी सिफारिश करता है कि सभी खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों का व्यापक मानवाधिकार आंकलन किया जाए और लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कारवाई की जाए। इस दल ने महसूस किया है कि दशकों से सिंगरौली में प्रभावित जन समुदायों की आजीविका का सवाल बुनियादी तौर पर अनुत्तरित ही रहा है। इस मोर्चे पर तथ्य आंकलन दल ने सुझाव दिया है कि लोग अपनी पूर्ववर्ती आजीविका को जारी रख सकें, इस पर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भूमि-आधारित क्षतिपूर्ति व्यवस्था लागू की जाए जिसके माध्यम से अधिग्रहीत की गई कृषि भूमि के बदले में किसी दूसरी जगह कृषि भूमि प्रदान की जाए।
भिलाई इस्पात संयंत्र में काले हीरे की कालाबाज़ारी इस तरह चलती है कि प्रतिवर्ष अरबों रुपये का लेनदेन अधिकारियों, कर्मचारियों और पुलिस के साथ मिलकर खुलेआम कर लिया जाता है. इस धंधे में लगे हुए ठेकेदार कहने को तो कोयले की बुहारन यानी शेष बचा हुआ कोयला बटोरते हैं, पर इसी के भरोसे छत्तीसगढ़ में एक नया कोल मा़फिया लंबे समय से सक्रिय है. इस पर लगाम लगाने की न कभी कोशिश की गई और न ही इसे गंभीरता से लिया गया. पिछले बीस वर्षों में इस धंधे से 350 करोड़ रुपये से अधिक की अवैध कमाई की गई है.
भिलाई से लेकर बिहार और झारखंड तक इस्पात कारखानों में कोल माफिया रेलवे, आरपीएफ, इस्पात संयंत्रों के अधिकारियों-कर्मचारियों और सुरक्षातंत्र के साथ मिलकर यह अवैध कारोबार कर रहे हैं, जिसे हर स्तर पर राजनीतिक संरक्षण हासिल है. भिलाई इस्पात संयंत्र को बिहार, झारखंड और कोरबा की खानों से निकलने वाला कोयला आपूर्ति किया जाता है, जो मालगाड़ी के माध्यम से यहां तक पहुंचता है. जानकारी के अनुसार, एक मालगाड़ी में 6 से 10 वैगन तक होते हैं और एक वैगन में 18 से 60 टन कोयला भरा होता है. जैसे ही मालगाड़ी यार्ड में पहुंचती है, ट्रांसपोर्ट एवं डीजल विभाग, मैटेरियल विभाग, कोक ओवन विभाग मिलकर कोयला रिसीव करते हैं और डिब्बा खाली होने का क्लियरेंस देते हैं. इसके बाद डिब्बे में पड़े कोयले का चूरा, जिसे बुहारन कहा जाता है, साफ़ करने की प्रक्रिया शुरू होती है. इसी बुहारन के ज़रिए ही भिलाई इस्पात संयंत्र से प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये का चूना लगाया जाता है. भिलाई स्टील प्लांट में काम करने वाला ठेकेदार अग्रवाल, जिसका पूरा नाम ज्ञात नहीं है, इस बुहारन को पिछले कई वर्षों से लगातार साफ़ कर रहा है. इस ठेकेदार ने 60-70 मज़दूर लगा रखे हैं, जो बेलचे से बुहारन एकत्र करने का काम करते हैं. प्रत्येक मज़दूर को 90 रुपये प्रतिदिन मज़दूरी दी जाती है. एक महीने में मज़दूरों का भुगतान एक लाख 79 हज़ार रुपये के आसपास होता है. इतनी बड़ी राशि के लिए इस बुहारन का बाज़ार भाव 200 से 250 रुपये प्रति टन होता है. प्रतिमाह भिलाई इस्पात संयंत्र में 30 मालगाडिय़ां डाउनलोड होती हैं. यानी 250 टन प्रतिमाह. बारह माह में 60 हज़ार टन बुहारन मालगाडिय़ों से उतारी जाती है, जिसकी कुल क़ीमत करोड़ों में होती है. इस बुहारन के साथ योजना के अनुसार अच्छा कोयला भी डिब्बे में छोड़ दिया जाता है, जो खुले बाज़ार में अतिरिक्त रूप से बेच दिया जाता है.

पिछले बीस वर्षों के दौरान लगभग 350 करोड़ रुपये का माल तस्करों द्वारा ग़ायब कर दिया गया. यह मात्र अनुमान है. सूत्रों के अनुसार, बिना टेंडर के बेचे जाने वाले इस माल के व्यापार में लगभग हर स्तर के अधिकारी और कर्मचारी को मुंह बंद करने की पूरी क़ीमत दी जाती है. बिना किसी अधिकार के ठेकेदार द्वारा बीस वर्षों की अवधि में कितना माल निकाल कर बाज़ार में बेचा गया, इसका हिसाब इस्पात संयंत्र या रेलवे के किसी भी अधिकारी के पास नहीं है. इस संदर्भ में चौथी दुनिया ने जब विभिन्न विभागीय अधिकारियों से चर्चा करनी चाही तो अफ़सर कन्नी काट गए. भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क अधिकारी जेकब कुरियन का कहना है कि हमें भी कोयले की कमी की शिकायतें मिल रही हैं. हालांकि इस्पात संयंत्र का ट्रांसपोर्ट और डीजल विभाग डिब्बों को खाली कराता है. उन्होंने कहा कि प्रबंधन खुद ही अपनी निगरानी में क्लीनिंग कराएगा.
भिलाई इस्पात संयंत्र में कोयले की तस्करी का सिलसिला विभिन्न स्तरों पर निरंतर जारी है. प्रबंधन यदि जाग भी जाए तो अवैध रूप से पैसा कमाने का आदी हो चुका तंत्र उसे सक्रिय नहीं होने देगा.
झारखंड की सत्ता संस्कृति कमोबेश कोयले और लोहे के अवैध धंधे से ही ऊर्जा प्राप्त करती है. यह धंधा राज्य के ताक़तवर नेताओं और आला अधिकारियों के संरक्षण में बड़े ही संगठित रूप से संचालित होता है. कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है. प्राय: दस या बीस रुपये के नोटों की गड्डी से एक-एक नोट को निकालकर आधा फाड़ दिया जाता है और चोरी का कोयला ले जाने वाले ट्रक को निर्धारित फीस के एवज में दिया जाता है. किस इलाक़े से किस सीरीज़ के नोट जारी किए गए हैं, सुबह माफिया के गुर्गे रास्ते के तमाम थानों को सूचित कर देते हैं. ट्रक वालों को सफिऱ् इसे दिखाना होता है. उन्हें हर थाना क्षेत्र में वीआइपी ट्रीटमेंट मिलता है. वैध कोयले से लदी गाड़ी भले ही रोक ली जाए, लेकिन अवैध कोयले की गाडिय़ों को कोई नहीं रोकता. कारण, हर सप्ताह माफिया की तरफ़ से बंधी बंधाई रकम का पैकेट उन तक पहुंच जाता है. पुलिस की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिये कभी-कभी मैच फिक्सिंग के अंदाज़ में कोयले की बरामदगी भी करा दी जाती है.
कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है.
झारखंड के कोयला खदान क्षेत्रों से लेकर हाइवे तक कार्य विभाजन के आधार पर धंधे का संचालन होता है. माफिया, पुलिस, औद्योगिक सुरक्षा बल और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के संरक्षण में कुछ दबंग किस्म के अपराधकर्मी बंद खदानों में अवैध उत्खनन कराते हैं. इसमें प्राय: स्थानीय गऱीब बेरोजग़ारों को दैनिक मज़दूर के रूप में लगाया जाता है. असुरक्षित और अवैज्ञानिक खनन कार्य के कारण दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं, जिसमें मौतें भी हो जाती हैं, लेकिन प्राय: स्थानीय ग्रामीण शवों को हटा लेते हैं और चुपके से अंतिम संस्कार कर देते हैं. अवैध उत्खनन में लिप्त होने की बात कोई स्वीकार नहीं करता. प्रतिदिन अवैध उत्खनन से उत्पादित कोयले को अवैध डिपो में एकत्र किया जाता है. जंगल, पहाड़ और आबादी से जऱा हटकर बने इन डिपो का संचालन भी माफिया के गुर्गों की टीम के जि़म्मे रहता है. स्थानीय ग्रामीण कोयला खदानों से कोयला चुराकर साइकिलों पर लादकर इन्हीं डिपो में लाकर बेचते हैं. इसके एवज में उन्हें भरण-पोषण भर रकम मिल जाती है. पुलिस वाले भी इन्हीं को परेशान करते हैं और अवैध वसूली करते हैं. रोजग़ार के अभाव में ग्रामीण इस अवैध धंधे में शामिल हो जाते हैं. स्थानीय थाने को प्रति ट्रक एक हज़ार से तीन हज़ार तक नजऱाना दिया जाता है. हाइवे के पहले पडऩे वाले थानों को भी प्रति ट्रक की दर से नजऱाना तय रहता है. डिस्को पेपर हाइवे में प्रभावी होता है. कोयलांचल के पुलिस थानों की प्रतिदिन की कमाई लाखों में होती है, इसीलिये इन थानों में पोस्टिंग के लिए पुलिस अधिकारी मुंहमांगी रकम देने को तैयार रहते हैं. इस धंधे में पुलिस, पत्रकार, नेता और यहां तक की नक्सलियों का भी हिस्सा रहता है, जिसे पूरी ईमानदारी के साथ निर्धारित अवधि में बांट दिया जाता है. पुलिस थानों के प्रभारी अपने आला अधिकारियों को इसका हिस्सा पहुंचाते हैं. माफिया की तरफ से पुलिस, प्रशासन और राजधानी के आकाओं को अलग से पैकेट भेजा जाता है. शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल हो जिसके शीर्ष नेताओं को उनकी हैसियत के मुताबिक़ थैली न पहुंचाई जाती हो. ऐसा नहीं कि यह धंधा अनवरत रूप से चलता हो. चुनाव के पूर्व या केंद्र के ज़्यादा दबाव बढऩे पर कुछ समय के लिए इसका पैमाना घटा दिया जाता है. ऐसे मौक़ों पर सरकार की छवि सुधारने के लिए ईमानदार और कड़े प्रशासकों का पदस्थापन कोयलांचल के इलाकों में किया जाता है. फिर माहिर अधिकारियों को भेजकर धंधे का दायरा बढ़ा दिया जाता है.
चोरी के कोयले को मंडी तक पहुंचाने का काम भी कुछ खास ट्रक मालिक करते हैं. उन्हें सामान्य से अधिक भाड़ा मिलता है और रास्ते में कोई परेशानी नहीं होती. कोयला माफिया के पास ऐसे ट्रकों की लिस्ट रहती है. वे हर ट्रिप के बाद माफिया के यहां उपस्थिति दर्ज करा देते हैं. उन्हें दिन के व़क्त ही बता दिया जाता है कि किस डिपो से लोड लेना है. शाम ढलने के बाद इनपर कोयले की लदाई होती है और देर रात वे हाइवे पकड़ लेते हैं. अधिकांश कोयला डिहरी और बनारस की मंडियों में खपाया जाता है, जहां से इसे देश के दूसरे इलाक़ों के कोयला व्यापारी खरीद ले जाते हैं.

कोयला चोरी को रोकने की बात हर सरकार करती है. इसके लिये तरह-तरह के उपाय भी किए जाते हैं. कभी टास्क फोर्स बनाई जाती है तो कभी लगातार छापेमारी की जाती है. कभी चिन्हित कोयला तस्करों को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला जाता है. लेकिन सब सफिऱ् दिखावे के लिये. सत्ता में बैठे लोगों के खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग रहते हैं. एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष कऱीब 1000 करोड़ का कोयला चोरी से मंडियों तक पहुंचाया जाता है. कुछ बड़े तस्करों का जाल तो नेपाल और चीन तक बिछा हुआ है. चोरी का कोयला स्थानीय स्तर पर भी रोलिंग मिलों, ईंट भ_ों आदि में धड़ल्ले से खपाया जाता है. उन्हें यह कोयला सस्ता पड़ता है. चोरी का कोयला खपाने वाले कल-कारखानों का नजऱाना भी स्थानीय स्तर से राजधानी तक पहुंचता है. बहरहाल, काले हीरे के काले धंधे में कई सफ़ेदपोश लाल हो रहे हैं. इसे कोई स्वीकार करे न करे, लेकिन कोयले की दलाली में अच्छे-अच्छों के हाथ काले हो रहे हैं, जिसे वे तरह-तरह के दास्त

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