शुक्रवार, 28 मई 2010

मेडिकल एजूकेशन का माफिया डॉन




सीबीआई के शिकंजे में आया केतन देसाई शिक्षा में फैलते माफियागीरी का जीता जागता उदाहरण है। इस माफियागीरी से उसने कितना पैसा कमाया इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि उसके पास दर्जनों के हिसाब से आलीशान भवन, क्विटल के हिसाब से सोना तथा सैकड़ों करोड़ रुपयों के हिसाब से नगदी की बरामदगी हो रही है।
देश में फिसड्डी एवं अज्ञानी डॉक्टरों की भरमार का राज भी अब कहीं जाकर खुला जबकि गत् दो दशकों से भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् अर्थात मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया (एम.सी. आई)के अध्यक्ष पद पर तैनात केतन देसाई नामक एक महाभ्रष्ट व्यक्ति की काली करतूतों का सीबीआई द्वारा भंडाफोड़ किया गया। केतन देसाई ने देश में सैकड़ों ऐसे मेडिकल कॉलेज को मान्यता दे डाली है जो अपने आप में मेडिकल कॉलेज बनने की संपूर्ण आर्हता नहीं रखते थे। किसी मरीज की देखभाल, उसकी जांच-पड़ताल, मेडिकल शिक्षा संबंधी जरूरी मापदंड कहीं हों या न हों परंतु यदि कॉलेज के संचालक ने केतन देसाई की मु_ी गर्म कर दी है तो उस संचालक को मेडिकल कॉलेज की मान्यता अवश्य मिल जाती थी।
इतना ही नहीं एम सी आई के इस महाभ्रष्ट प्रमुख ने कुछ ऐसे अयोग्यतम व्यक्तियों को मेडिकल प्रेक्टिस किए जाने के प्रमाण पत्र जारी कर दिये थे जिन्होंने कभी विज्ञान की कक्षा में दाखिला तक नहीं लिया था। कला तथा संस्कृत जैसे विषयों के कई छात्र केतन देसाई की रिश्वतपूर्ण कृपा दृष्टि से डॉक्टर बन चुके हैं और यही नकली डॉक्टर भारत में अब तक न जाने कितने भोले-भाले मरीजों की जानों से खिलवाड़ कर चुके हैं। केतन की जलालत की हद यहीं खत्म नहीं होती बल्कि उसने तो कई ऐसे बंगला देशी नागरिकों को भी भारतीय डॉक्टर होने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया जो स्वयं भारत के नागरिक होने का फर्जी प्रमाण पत्र लिए लुके-छुपे इधर-उधर फिरा करते थे। केतन देसाई को किसी को डॉक्टर बनाने में अथवा किसी संचालक को मेडिकल कॉलेज का मालिक बनाने में कोई आपत्ति नहीं होती थी बशर्ते कि वह इस एम सी आई प्रमुख की जेबें भरपूर तरीके से गर्म कर दे।
मेडिकल शिक्षा माफिया डॉन केतन देसाई ने अपने इस लूट-खसोट के महाषड्यंत्र को अंजाम देने के लिए अपने कुछ विशेष व भरोसेमंद व्यक्तियों की एक मंडली बनाई हुई थी। इसी मंडली के मात्र दसवीं कक्षा पास व्यक्ति एस एस राही को देसाई ने एमसीआई का सचिव नियुक्त किया हुआ था। और यही व्यक्ति एमसीआई के रजिस्ट्रेशन विभाग का भी प्रमुख था। जरा गौर फरमाईए कि देसाई के नेतृत्व में चल रही एमसीआई द्वारा मेडिकल कालेज की मान्यता देने तथा डाक्टरों को रजिस्ट्रेशन प्रदान करने, व उसकी स्क्रीनिंग करने का जिम्मा एक लगभग अशिक्षित सा व्यक्ति संभाले हुए था। बड़े आश्चर्यपूर्ण ढंग से गत् दो दशकों से लूट-खसोट का यह सारा तांडव सरेआम चलता रहा। आखिरकार 20 वर्षों तक स्वयं को सिकंदर महान समझने वाले इस भ्रष्टाचारी को पंजाब के एक मेडिकल कालेज से दो करोड़ रुपये की रिश्वत के इल्जाम में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया। इससे पूर्व ही केतन देसाई आज अकूत धन संपत्ति का मालिक बन चुका है।
अपनी गिरफ्तारी के बाद केतन देसाई ने चूंकि त्याग पत्र दे दिया था इसलिए केंद्र सरकार की संस्तुति पर राष्ट्रपति ने एम सी आई को भंग करने की सिफारिश भी कर दी है। अब राष्ट्रपति द्वारा देश के 6 प्रतिष्ठित चिकित्सकों का एक पैनल बनाया गया है जो एम सी आई के कार्यों की अस्थाई रूप से निगरानी करेगा। केतन देसाई इस समय कानून के शिकंजे में है तथा अभी कई दिनों तक उससे और कई राज खुलने तथा उसके द्वारा दोनों हाथों से लूटी गई संपति का और अधिक खुलासा होने की उम्मीद की जा रही है। भारतीय यांत्रिकी शिक्षा संस्थान परिषद् तथा भारतीय आर्किटेक्ट शिक्षा संस्थान परिषद् में भी इसी प्रकार के घोटाले पहले उजागर हो चुके हैं। गोया हम यह कह सकते हैं कि रोजगारोन्मुख समझा जाने वाला तकनीकी शिक्षण का क्षेत्र इस समय लगभग पूरी तरह भ्रष्टाचार की पकड़ में है। ऐसे संगीन हादसे आखिर हमें क्या सोचने पर मजबूर करते हैं। देश के किस प्राईवेट मेडिकल कॉलेज पर हम विश्वास करें और किस पर न करें? देश का कौन सा डॉक्टर वास्तव में आयुर्विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात तकनीक व योग्यता के अनुसार डॉक्टर बना है और कौन डाक्टर संस्कृत, कला या संगीत का विद्यार्थी होने के बावजूद डाक्टर की डिग्री लिए घूम रहा है? गत् 20 वर्षों में ऐसे घोटालों व भ्रष्टाचारों के परिणामस्वरूम कितने मरीज इन जैसे अनाड़ी डाक्टरों के हाथों मौत के मुंह में जा चुके हैं। आखिर इन सवालों का जवाब कौन देगा तथा इनके लिए जिम्मेदार कौन है?
ऐसे भ्रष्टाचारों के उजागर होने के बाद एक सवाल और यह उठता है कि हमारे देश के सुप्रसिद्ध लचीले कानून के परिणामस्वरूप केतन देसाई जैसे खुली लूट-खसोट करने वाले तथा हजारों मरीजों की जान से खिलवाड़ करने का अधिकार पत्र बेचने वाले इस महापापी एवं महान मुजरिम को आखिर कब और क्या सजा मिलती है। जरा कल्पना कीजिए कि इसी भ्रष्टाचार का प्रतीक बने केतन देसाई की रिश्वतखोरी के चलते ही डॉक्टर की पढ़ाई पढऩेे के इच्छुक लाखों होनहार छात्र मात्र इसीलिए डॉक्टर ही नहीं बन सके क्योंकि उनके अभिभावक दस-बीस और तीस लाख रुपये खर्च कर अपने बच्चे को मेडिकल शिक्षा दिलवा पाने की हैसियत नहीं रखते थे। दूसरी ओर तमाम धनाढ्यों की अयोग्य संतानें मात्र अपने धन के बलबूते पर डॉक्टरी का प्रमाण पत्र लिए पूरे देश मे घूमते फिर रही हैं तथा अपना निजी नर्सिंग होम अथवा दवाखाना चलाकर मरीजों से अपनी खर्च की गई रकम बेदर्दी से वसूलने पर तुली हुई हैं।

कंगाली से बचने उपभोक्ताओं पर भार

प्रदेश में पिछले दस सालों से बिजली संकट गहराया हुआ है, लेकिन भाजपा के लिए यह केवल एक राजनीतिक मुद्दा भर है। 2003 के विधानसभा चुनाव में बिजली संकट पर हंगामा करके ही भाजपा ने जीत हासिल की थी। 2008 के चुनाव में भी बिजली संकट के लिए केंद्र को जिम्मेदार बताकर वह अपनी सत्ता बचाने में सफल हो गई। लेकिन, अब बिजली संकट भाजपा के गले की हड्डी बना हुआ है। फिर भी सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। अब कंगाली की कगार पर खड़े बिजली विभाग ने लगभग 11 फीसदी महंगी बिजली का भार डाल दिया है।
वर्ष 2003 में राज्य में 800 मेगावाट बिजली की कमी थी, जो आज बढ़कर 1200 से 1500 मेगावाट तक हो गई है। बिजली संकट का समाधान ज़्यादा बिजली पैदा करके ही किया जा सकता है, लेकिन सरकार को इससे क्या लेना-देना। पार्टी नेता केवल हो-हल्ला मचाते हैं और समाधान के नाम पर सरकार बिजली खरीद कर चुपके से बेच देती है। एक बात तो साफ है कि बिजली की खरीद-बिक्री के इस काम में करोड़ों रुपये की काली कमाई की गुंजाइश जरूर हो जाती है। गौरतलब है कि पावर बैकिंग के नाम पर सरकार द्वारा बिजली की कमी पूरा करने के लिए दूसरे राज्यों और अन्य स्रोतों से बिजली खरीदना तो समझ में आता है, लेकिन उसी बिजली को बेच देना समझ में नहीं आता। जानकारों के अनुसार, कुछ निजी कंपनियों के माध्यम से बिजली की खरीद-बिक्री नेताओं और आला अफसरों के लिए फायदेमंद होती है, इसीलिए यह कारोबार बदनामी के बावजूद भी जारी है।
भीषण गर्मी और पेयजल संकट के बीच भारी बिजली कटौती का सामना कर रहे लोगों को नियामक आयोग ने 440 वॉल्ट के करंट का झटका दिया है। प्रदेश में तकरीबन दुर्लभ हो चुकी बिजली 1 जून से लगभग 11 फीसदी तक महंगी हो जाएगी।
बिजली इतनी महंगी क्यों हुई के सवाल पर राज्य नियामक आयोग के के.के. गर्ग कहते हैं कि वितरण कंपनियों का 79 प्रतिशत राजस्व जनरेशन, ट्रांसमिशन और अन्य स्रोतों से बिजली खरीदने में जाता है। 15-16 प्रतिशत ऑपरेशन मेंटेनेंस और स्थापना प्रभार है। इस साल जनरेशन और ट्रांसमिशन के टैरिफ में काफी वृद्धि हुई है और कंपनियां अपने कर्मचारियों को छठवां वेतनमान दे रही हैं। ऐसी स्थिति में दरें बढऩा लाजमी है। प्रदेश के इतिहास में तीसरी बार दस प्रतिशत से अधिक बिजली दरें बढ़ाई गई है। इससे पहले वर्ष-2001-02 में 14.73 प्रतिशत और 2004-05 में 14.47 प्रतिशत दर बढ़ी थी। इसके बाद से 2006-07 में करीब पांच प्रतिशत दर बढ़ाई गई थी। वहीं पिछले साल 2009-10 में 3.61 प्रतिशत दर बढ़ोत्तरी की गई। इसके अलावा 2007-08 में मात्र एक प्रतिशत और 2008-09 में तीन प्रतिशत दर बढ़ोत्तरी की गई थी। लेकिन बीते पांच सालों से दर बढ़ोत्तरी पांच प्रतिशत के अंदर सिमटी रही। अब 10.66 प्रतिशत दर बढऩे से आम आदमी के साथ सरकार भी चिंता में है। कीमत के लिहाज से देखे, तो इस साल उपभोक्ता प्रदेश के इतिहास की सबसे महंगी बिजली लेगा।
आयोग सदस्य (इंजीनियरिंग) केके गर्ग भी स्वीकारते हैं कि पिछले चार-पांच साल में यह सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है। उनका कहना है कि इस बढ़ोत्तरी के अलावा कोई चारा नहीं था। दरअसल, इस साल महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तरप्रदेश की बिजली से मध्यप्रदेश की तुलना करना भी उपभोक्ताओं को भारी पड़ गया है। इन राज्यों की औसत लागत के अध्ययन के बाद हीं मध्यप्रदेश में बिजली लागत तय की गई। इन राज्यों में कही भी चार रुपए से कम औसत लागत नहीं है। ऐसे में मप्र में बिजली की लागत पिछले साल की 3 रुपए 71 पैसे प्रति यूनिट से बढ़ाकर 4 रुपए 22 पैसे आंकी गई है। उस पर ट्रांसमिशन सहित अन्य खर्चों को पाटने के लिए उपभोक्ताओं की जेब खाली करना तय कर लिया गया। नतीजा यह कि उपभोक्ताओं पर एक हजार नौ करोड़ का अतिरिक्त बोझ डाल दिया गया।
राज्य सरकार ने अपनी विद्युत उत्पादन क्षमता में वृद्धि के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। वर्तमान में राज्य की कुल उपलब्ध विद्युत क्षमता 9878.25 मेगावाट है। इसमें केंद्रीय कोटे एवं संयुक्त उपक्रम जल विद्युत परियोजनाओं से मिलने वाली बिजली और उद्योगों के निजी केप्टिव उत्पादन की विद्युत क्षमता भी शामिल है। राज्य सरकार ने अपने स्रोतों से केवल 210 मेगावाट की एक ताप बिजली परियोजना पिछले वर्ष पूरी की है, जबकि चालू वित्तीय वर्ष के लिए सरकार ने किसी भी नई परियोजना को शुरू या पूरा करने की कोई योजना नहीं बनाई है। पूरा दारोमदार केंद्र और अन्य क्षेत्रों से प्राप्त होने वाली बिजली पर है, लेकिन इससे बिजली संकट दूर होने वाला नहीं है। बिजली के क्षेत्र में निवेश के लिए सरकार ने कई निवेशकों और निजी विद्युत कंपनियों को आकर्षित करने के उपाय किए, लेकिन शासन-प्रशासन के हठी और भ्रष्ट रवैये से तंग आकर निवेशक जल्दी ही भाग खड़े हुए। इससे राज्य में 26000 मेगावाट बिजली उत्पादन का सपना भी भंग हो गया। भारत सरकार ने कोयला भंडारों की सीमित क्षमता और जल भंडारों पर बढ़ते दबाव को ध्यान में रखते हुए गैर परंपरागत ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ावा देने की योजना पर काम शुरू किया है। तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं राजस्थान आदि राज्यों ने अपने यहां गैैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से बिजली पैदा करने के लिए पिछले तीन वर्षों में सराहनीय प्रयास किए हैं, लेकिन मध्य प्रदेश अभी भी फिसड्डी बना हुआ है।
सरकारी सूत्रों के मुताबिक, राज्य में गैैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से 212.800 मेगावाट बिजली पैदा किए जाने की क्षमता है, लेकिन वर्तमान में इसका केवल 18 फीसदी ही उपयोग हो रहा है। गैर परंपरागत ऊर्जा कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना शिवराज सिंह सरकार की प्राथमिकता में नहीं है, इसलिए राज्य को केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश के चार महानगरों को सोलर सिटी के रूप में स्थापित करने का काम तो आज तक शुरू नहीं हो पाया, जबकि यह काम 2009 में पूरा हो जाना चाहिए था। भोपाल नगर निगम ने हाल में ही इस आशय का प्रस्ताव मध्य प्रदेश ऊर्जा विकास निगम को भेजा है, जबकि केंद्र सरकार बहुत पहले इसकी परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के लिए 50 लाख रुपये की राशि स्वीकृत कर चुकी है। इतना ही नहीं, भारत सरकार एवं नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय की माइग्रेशन योजना के तहत राज्य में अब तक एक भी सोलर प्रोजेक्ट नहीं लग सका है। मंत्रालय की ओर से इस योजना के लिए राज्य को भारी अनुदान मिलने की संभावना है। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग ने भी केंद्र की सोलर परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए 18.44 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। बावजूद इसके ऐसे मामले जब राज्य सरकार के पास आते हैं तो अटक कर रह जाते हैं।

बेटियों की 'देह पर जिंदा समाज

जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर, चांदनी बार की तब्बू, चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं।
महू- नीमच राजमार्ग से गुजरते हुए जैसे ही मंदसौर शहर पीछे छूटता है। सड़क किनारे ही बने कच्चे-पक्के घरों के बाहर अजीब सी चेष्टाएं दिखने लगती हैं। वाहनों विशेषकर ट्रक, कारों को रुकने के इशारे करती अवयस्क, कस्बाई इत्र से महकती लड़कियों की कमनीय भाव-भंगिमाएं इतनी प्रवीण हैं कि पहली बार यहां से गुजरने वाले यात्री हक्का-बक्का रह जाते हैं। इस देह की खुली मंडी से गुजरना आसान है। रुककर देह की अतृप्त ग्रंथियों की वासना मिटाना सहज है। लेकिन किसी सेक्स वर्कर, महिला दलाल से बात हो जाए यह बेहद मुश्किल है। उनको पुलिस का डर नहीं है, क्योंकि वह इनकी पक्की हिस्सेदार है। किसी के देख लेने का डर नहीं, क्योंकि सारा काम सड़क के किनारे खुले में होता है। डर है, तो इस बात का कहीं टीवी चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में उनकी तस्वीर न दिखाई जाए। ग्राहकों को यह न लगे कि उनकी ऐशगाह असुरक्षित है। समुदाय में धंधे में लगी लड़कियों की संख्या पहले ही कम नहीं थी, उस पर से गरीबी, भुखमरी के चलते अब पड़ोसी जिलों, राज्यों से भी यहां पर जमकर लड़कियां लाई जा रही हैं। इनके मां-बाप इन्हें एक मुश्त रकम देकर बेच जाते हैं। या फिर तय अवधि में आते हैं और दलाल से उसके कमीशन, बेटी के रहने, खाने का खर्च काटकर उसकी कमाई ले जाते हैं। अर्थात बेटी अपनी जिंदगी महज दाल रोटी के लिए नरक कर रही है। लेकिन ऐसी लड़कियों को स्थानीय बाछड़ा लड़कियों की भीड़ में पहचानना बेहद मुश्किल है, क्योंकि उनके इर्द-गिर्द सुरक्षा घेरा भी है।
सड़क के किनारे बसे मल्लारगढ़ में बड़ी मुश्किल से अधेड़ उम्र की भंवरीबाई बातचीत को तैयार हुईं। वैसे उन्होंने भी पहले उनके मकान की ओर मुझे आते देख एक तेरह बरस की लड़की को मेरी ओर लपकाया था। भंवरीबाई ने अपने समाज की व्यवस्थाओं, देह व्यापार से जुड़े सवालों पर लाजवाब साफगोई से बात की। साठ से अधिक की हो चलीं भंवरी को उनके परिवार ने तेरह की उमर में ही इस धंधे में उतार दिया था। वह कहती हैं कि हमारे समाज में सिसकियों, मिन्नतों का कोई मोल नहीं है। क्योंकि परिवार के मर्द चाहते हैं कि बेटियां धंधा करें ताकि वह रोजी की फ्रिक से दूर शराब पीने में मशगूल रह सकें।
बाछड़ा समुदाय में बेटियों से वेश्यावृत्ति करवाना बेहद आम रिवाज है। रतलाम, मंदसौर और नीमच जिलों के सैकड़ों गांवों में यह कुप्रथा आज भी जारी है। इनमें कचनारा, रुंडी, परोलिया, सिमलिया, हिंगोरिया, मोया, चिकलाना आदि प्रमुख हैं। किसी को नहीं मालूम यह कब से चला आ रहा है, लेकिन जब बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि उनकी मां-दादी/ नानी भी धंधा करती थी, तो जाहिर है कि मामला दशकों का नहीं सदियों का है। दूसरी ओर ज्यादातर पुरुष निठल्ले, शराबखोर ही मिलेंगे। उनके लिए इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि उनकी अपनी बेटी/बेटियों को स्लेट, कापियों की उम्र में ग्राहकों को रिझाने के गुर सिखाए जाते हैं। मंदसौर से नीमच के बीच सड़कों के किनारे जिस्मफरोशी की जितनी दुकाने हैं, उससे अधिक दुकाने, अड्डे गांवों के भीतर हैं। रास्ते से गुजरते वाहनों के सामने लिपस्टिक पोते, अपने उभारों को भरसक दिखाने की अधिक चेष्टा करती लड़कियां आपकी झिझक दूर करने की पूरी कोशिश करती हैं। ऐसी ही एक बाला ने कहा, साहब पहली बार आए हो! कोई बात नहीं, यहां पहली बार आने पर लोग ऐसे ही शर्माते हैं। झिझक मिटने में अधिक देर नहीं लगती।
भंवरी की बातों में खांटी सच्चाई और अनुभव की ताप है। उस अनुभव से उपजी पीड़ा की, जिसे न चाहते हुए भी वासना की भट्टी में झोंक दिया गया था। कमसिन उम्र में उसके नाजुक बदन को दिन-रात यहां से गुजरने वाले ट्रक चालकों और इलाके के सवर्णों के सामने परोस दिया गया। यह सिलसिला तब जाकर थमा, जब भंवरी के साथ उसके ग्राहक रामसिंह ने ही दिल मिलने के बाद (यहां प्यार होने के लिए यही जुमला चलता है) शादी कर ली थी।
एक औसत बाछड़ा लड़की की नियति यही है। जब तक वे ग्राहकों को रिझाने के काबिल होती हैं, उनके परिवार के मर्दों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि लड़कियां घर दहलीज पार करें। क्योंकि ऐसा करने से उनको हर महीने मिलने वाली मोटी रकम से हाथ धोना पड़ सकता है। अनेक प्रगतिशील विचारों के धनी ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस मोटे अर्थशास्त्र को समझा। यहीं बस गए। वेश्यावृत्ति करने वाली किसी लड़की से शादी कर ली फिर उसको तो इस धंधे से दूर रखा, लेकिन उसके नेटवर्क का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं और उसकी दूसरी बहनों से धंधा भी करवा रहे है। चलिए इनको तो फिर भी बख्शा जा सकता है, लेकिन उन भाइयों, पिताओं को कैसे क्षमा किया जा सकता है, जो बहन, बेटी की रक्षा का दम भरते हैं। उससे रिश्तों की दुहाई देते हैं। फिर उसे विवश करते हैं कि वह अपने जिस्म से उनके लिए रोटियां सेंके। उसे मजबूर करते हैं कि वह तितलियों को पकडऩे, सपने बुनने की उम्र में ग्राहकों की बाहों में मसली जाएं। एक ग्राहक के जाने के बाद दूसरे के लिए फिर सजकर रोड़ किनारे बैठ जाए। बाछड़ा समाज अपनी बेटियों से ही धंधा करवाता है। इस काम में बहुओं को आमतौर पर नहीं उतारा जाता है। भंवरी जोर देकर कहती हैं कि बहुएं पराए मर्द की ओर देख लें तो हमारे बेटे उनके हाथ-पांव काटकर फेंकने से भी नहीं हिचकते हैं। वह आगे कहती हैं, कमबख्त मर्द अपनी जोरू को संभल कर रखन चाहत हैं, और बेटी/ बहन को पैदा होत ही ग्राहक का बिस्तर गरम करन को बिठा देत हैं।
कुल मिलाकर बाछड़ा समाज के लिए बेटी मोटी कमाई का सहज, सुलभ साधन है। परिवार के उदर पोषण के लिए रुपया लाने वाला विद्रोह की संभावना रहित, ईमानदार माध्यम।
ग्राहकों को बुलाने और सौदा तय करने के काम में कहीं भी आपको कोई पुरूष नजर नहीं आएगा। इसे समाज के मर्दों की शान के खिलाफ समझा जाता है। यानि मां और उसकी बेटी/बेटियां ही धंधे के समय घर के दरवाजे और ढाबों, होटलों के इर्द-गिर्द नजर आती हैं। इनकी जाति पंचायतों की बात और भी निराली है। जहां एक ओर दुनिया के सामने मंच से शरीर के सौदे की मुखालफत की जाती है, वहीं दूसरी ओर पंचायत, सरकारी अफसर इसे बढ़ावा देते रहते हैं, ताकि उनकी दुकाने बंद न हों। वैसे भी यह सारा धंधा मर्दो के आलस और उनके निकम्मेपन की ही देन है। मर्दों के पास चूंकि एक तय रकम होती है, इसलिए वह मेहनत-मजदूरी से परहेज करते हैं।
एक ओर तो वह इस पेशे के लिए औरतों को ही जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर इसी औरत (उनकी बहनों) के नोच खसोट का पैसा वह बिना शर्म पीढिय़ों से डकार रहे हैं। आमतौर पर कहा जाता है कि वेश्यावृत्ति के मूल में गरीबी, अशिक्षा है, लेकिन यहां आकर तो यह तर्क भी गले से नहीं उतरता है, क्योंकि अनेक पढ़े लिखे लोग इस काम को अपने घरों में अंजाम दे रहे हैं।
उनके पास ऐसी संभावना, योग्यता है कि वह दूसरे पेशे को अपनाकर जीवनयापन कर सकें, लेकिन वह ऐसा करते नहीं हैं। क्योंकि उनके पास रोजगार का सबसे बढिय़ा साधन है, उनकी बेटियां। इसी कारण वह ऐसी लड़कियों को भी इस धंधे में उतार देते हैं, जो पढ़ाई में जुटी हुई हैं। नीमच मार्ग पर ही बसे मुरली गांव में एक ऐसे दंपति ऐसे भी मुलाकात हुई, जिनके तीनों बच्चे सरकारी सेवा में हैं, लेकिन उसके बाद भी वह दलाली के काम में लगे हुए हैं। इसी तरह सड़क किनारे चारपाई पर बैठकर ग्राहकों को बुलाने एक प्रौढ़ महिला की कहानी भी खासी रोचक है। उसने अपनी दो बेटियों, बेटे की शादी कर दी है और अब बाहर यानि उड़ीसा, राजस्थान से आने वाली लड़कियों की दलाली खाती हैं। वह इस बात को बेहद अभिमान के साथ कहती है कि उसने अपनी बेटियों को इस धंधे में नहीं उतारा, लेकिन उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि फिर इस दलाली में क्यों हाथ काले कर रही हो। दरअसल इस काम के न छूटने के पीछे बिना मेहनत आने वाली रकम भी है। एक बार हराम का पैसा जीमने की आदत पड़ जाए तो जिंदगी भर नहीं छूटती। इस काम में यहां के पुरुर्षों की भूमिका बेहद अहम है, क्योंकि वही परिवार के नियंता हैं, और पूरी तरह से पर्दे के पीछे स्त्रियों को ही स्त्रियों की दलाली करने के लिए उकसाते, मजबूर करते हैं। बाछड़ा समुदाय पर काम कर रहे अनेक इस संगठनों और सरकार को यह बात चौंकाने वाली लग सकती है कि देह की इस मंडी में अब राजस्थान और उड़ीसा की लड़कियां उतारी जा रही हैं। तेरह साल की अनीता हालात की मारी एक ऐसी ही बेबस है, जिसे राजस्थान से उसका परिवार यहां छोड़ गया है। यह वही लड़की है, जिसे मेरी पीछे भंवरी बाई ने लपकाया था। वह दिनभर में कम से कम पांच ग्राहकों की वासना को संतुष्ट करती है। यह सारा इलाका ऐसी हजारों लड़कियों से भरता जा रहा है। इसके साथ ही महाराष्ट्र से बेकार होने के बाद बार बालाओं के ठुमके और जिस्म के सौदों के लिए भी यह राजमार्ग नया ठिकाना है। देह के कारोबार में तीस साल से अधिक बिताने के बाद उम्र के अंतिम पड़ाव पर जा पहुंची सेमरी बाई बताती हैं, हम लोग अपनी बच्चियों को सात की उम्र से ही ग्राहकों को पटाने के तरीके सिखाने लगते हैं। यह समय लड़कियों के च्प्रशिक्षणज् का होता है। कम उम्र में उनके विरोध का खतरा नहीं होता और इनकी कीमत भी मोटी मिलती होती है।
देह की इस मंडी में उतारी गई लड़कियों की साक्षरता के बारे में कोई स्पष्ट आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन इन दिनों अनेक एसी लड़कियां खुद को ग्राहकों के सामने परोसने में लगीं हैं जो दसवीं और बारहवीं की छात्राएं हैं। अब वे इसके लिए तकनीक का भी भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। मोबाइल नंबरों की पहुंच इंदौर के अनेक माालदारों तक है। जो कभी यहां आते हैं, तो कभी लड़कियों की आपूर्ति बिजनेस मीटिंग के लिए इंदौर आने वाले सफेदपोश लोगों के लिए होती है। वासना के प्यासे धनकुबेरों और वैश्वीकरण की कथित कमाई से फूल कर कुप्पा हुए लोगों के सामने देह की ऐसी मंडी है, जिसका सारा कारोबार मासूम उम्र की लड़कियों के इर्द-गिर्द ही सिमटा है। जिनकी औसत उम्र नौ से पैंतीस साल है।
जिस तरह दिनदहाड़े सड़क पर बने कच्चे-पक्के मकानों में जिस्मफरोशी होती है, उससे जाहिर है कि पुलिस इस कारोबार में बराबर की हिस्सेदार है। बार-बार ग्राहकों, धंधा करने वालों को होने वाली दिक्कतों से अच्छा है एक मुश्त रकम एक बार दो। टेंशन फ्री होकर काम करो। पहरे में चलने वाले कारोबार का शाम गहराते ही नज़ारा ही बदल जाता है। दोपहर में सौ से दो सौ रुपए की मांग करने वाली लड़कियां बीस से पचास रुपए में ही राजी हो जाती हैं। वजह, रात को यहां कोई भी वाहन नहीं रुकता, साथ ही अब यहां लड़कियों की संख्या अधिक हो गई है, जिनके अनुपात में ग्राहक कम आते हैं। इस तरह रतलाम, मंदसौर, नीमच जिलों में बाछड़ा समुदाय की लड़कियां, महिलाएं एक ऐसा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, जो उनके अपनों ने ही उनके लिए चुना है। इसलिए उनके नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए भी महिला नेतृत्व को ही आगे आना होगा।