शुक्रवार, 21 मार्च 2014

डूब जाएगा 5,000 करोड़ का क्रॉप लोन

किसानों को नहीं मिल पाएगा उचित मुआवजा
केंद्र से मप्र सरकार ने मांगा 5,900 करोड़ और मिला 495 करोड़
भोपाल। फरवरी में कई बार आंधी, बारिश और ओलावृष्टि से फसलें खत्म-सी हो गई हैं। मप्र की तरह महाराष्ट्र में भी इस आपदा से फसल पूरी तरह तबाह हो गई है। इन दोनों राज्यों में फसलें बर्बाद होने से इस साल 5,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का क्रॉप लोन या कहें कि खेती के लिए दिया जाने वाला कर्ज डूब सकता है। वहीं इस बार हालात ऐसे हैं कि किसानों को उनकी बर्बाद फसल का उचित मुआवजा भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि राज्य सरकार ने मुआवजे के लिए 5,900 करोड़ रूपए केंद्र से मांगा था,लेकिन 495 करोड़ ही मिल सका।
सरकारी आंकलन के अनुसार मप्र के 51 जिलों के 30,000 गांवों की 26 लाख हेक्टेयर से अधिक फसल चौपट हो गई। जिसमें 13000 करोड़ रूपए से अधिक का नुकसान हुआ है। वहीं महाराष्ट्र के 28 जिलों में लगभग 8 लाख एकड़ की खेती को बारिश और ओलों की वजह से भारी नुकसान हुआ है। लगभग 50,000 हेक्टेयर में फलों की फसल, जिसमें अंगूर, संतरे, केले और अनार शामिल हैं, बरबाद हुई है। गेहूं, ज्वार और कपास की खेती को भी नुकसान हुआ है।
एक प्राइवेट बैंकर ने कहा, 'हमने दोनों प्रदेश के इलाकों का दौरा शुरू कर दिया है। प्याज और टमाटर की फसल पर भी बुरा असर हुआ है। अंगूर, अनार और संतरे जैसे नकदी फसलों के लिए दिए गए लोन पर नेगेटिव असर होगा। Ó बैंकर ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर कहा, 'इन फसलों का बीमा तो है लेकिन इंश्योरेंस का दावा तभी किया जा सकेगा, जब डिस्ट्रिक्ट अथॉरिटीज इसे आपदा घोषित करेंगी। चुनाव वाले साल में ऐसे एडमिनिस्ट्रेटिव फैसलों में आमतौर पर देरी हो जाती है। ऐसा होने पर किसानों और बैंकों दोनों को नुकसान होगा।Ó एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर पी जे जोसफ कहते हैं, 'हमने दो इंश्योरेंस स्कीमों के तहत ढाई लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का बीमा किया है। वेदर बेस्ड स्कीम और नेशनल एग्रीकल्चर इंश्योरेंस स्कीम में लगभग 3 लाख किसानों को कवर किया गया है। पूरी फसल बरबाद नहीं हुई है और हम नुकसान का आकलन करने में जुटे हुए हैं।Ó एक प्राइवेट बैंक के एग्जिक्यूटिव ने बताया कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों की हालत बहुत खराब है। इस एग्जिक्यूटिव ने महाराष्ट्र और मप्र के कई इलाकों का दौरा किया था। उन्होंने कहा कि सरकार से राहत नहीं मिलने पर किसान और बैंकर दोनों मुश्किल में पड़ जाएंगे।
सर्वे से किसान खुश नहीं
किसानों का मुआवजा तय करने के लिए सरकारी सर्वे भी हुआ, पर इससे किसान खुश नहीं हैं। किसान इस पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। उनका कहना है कि पटवारियों ने मौके पर नहीं पहुंचकर अपने हिसाब से ही सर्वे कर लिया है। मुआवजा वितरण कब शुरू होगा, इसकी जानकारी कोई भी देने को तैयार नहीं है। भोपाल जिले में सरकारी सर्वे में लगभग 160 गांवों और मंदसौर जिले में 175 गांवों में 15-100 प्रतिशत तक फसलों की बर्बादी सामने आई है।
खंडवा जिले में हुई नुकसानी का प्रशासन ने दो चरणों में आकलन कर शासन को 24 करोड़ 35 लाख रु. का प्रस्ताव भेज कर दायित्वों की इतिश्री कर ली है। बुरहानपुर जिले में शासकीय मापद़ंड़ों के आधार पर चार करोड़ रु. मांगे गए हैं। झाबुआ जिले में सर्वे में 440 किसानों को प्रभावित माना गया, लेकिन इन सभी का नुकसान 25 प्रतिशत से कम आया। राहत शाखा के अनुसार खरगोन जिले में 848 ग्राम प्रभावित हुए हैं। जिला प्रशासन ने इस बड़े नुकसान की भरपाई के लिए शासन से 2539 लाख रुपए की मांग की है। वहीं प्रभावित क्षेत्र की अनुमानित राशि का आंकड़ा 7367 लाख तक पहुंच गया है। बड़वानी जिले में 14653 हेक्टेयर में फसलें प्रभावित हुई हैं। 1217 लाख रु. मांगें गए हैं। क्षति का अनुमानित मूल्य 4348 लाख है। भारतीय किसान संघ ने उचित मुआवजे की मांग करते हुए आंदोलन की चेतावनी दी है। शाजापुर जिले में ओलावृष्टि से प्रभावित हुई फसलों के सर्वे का कार्य जारी है। किसानों को मुआवजे के लिए जिला प्रशासन द्वारा 23 करोड़ का प्रस्ताव भेजा गया है। रतलाम जिले में सर्वे अभी भी चल रहा है। आठ तहसीलों में हुए सर्वे के अनुसार 270 गांवों में 37 हजार 740 किसानों की फसलें प्रभावित हुई हैं। करीब 2651 लाख रुपए की नुकसानी का आकलन किया गया है। मुआवजा राशि के लिए रिपोर्ट शासन को भेजी जा रही है। यानी अभी सबकुछ हवा-हवाई चल रहा है। करीब ढाई महिने तो अभी किसानों को कुछ भी नहीं मिलने वाला है।
राहुल का बुंदेलखंड भगवान भरोसे
सालों से सूखे की मार झेलते आ रहे बुंदेलखंड पर पिछले महीने ऐसा आसमानी वज्रपात हुआ कि समूची खेती बर्बाद हो गई। सालभर की कमाई नष्ट होने से लोग निराशा के गर्त में जाने लगे हैं। लेकिन राहुल गांधी की सियासत का केंद्र रहे इस क्षेत्र में बारिश और ओलावृष्टि से हलकान लोगों के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं है। केंद्र सरकार ने 20 मार्च को कृषि मंत्री शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश को राहत पैकेज दे दिया। इसके तहत मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के छह जिलों को तो राहत देने का प्रावधान कर दिया गया, लेकिन उसी बुंदेलखंड से जुड़े उत्तर प्रदेश के सात जिलों पर किसी की नजर ही नहीं गई।
उत्तर प्रदेश की सियासत में पार्टी का पांव जमाने के लिए राहुल गांधी ने शुरुआत बुंदेलखंड से की थी। इसके साथ वहां के लोगों के दु:ख-दर्द सुनने के बहाने वह अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता करने निकले थे। उन्होंने वहां के अनेक दौरे किए। बुंदेलखंड के लिए बड़ा पैकेज भी घोषित हुआ। हालांकि केंद्र व राज्यों के बीच तालमेल की कमी के चलते पैकेज का पूरा लाभ वहां के लोगों को नहीं मिल पाया। फरवरी और मार्च के पहले सप्ताह में बारिश और ओले से खेतों में खड़ी रबी सीजन की फसल चौपट हो गई है। हताशा के चलते कई परिवारों से आत्महत्या की भी खबरें आने लगी हैं। लेकिन सहानुभूति के दो बोल भी राजनीतिक दलों की तरफ से नहीं पहुंचे। उत्तर प्रदेश और केंद्र की सरकार तो फसलों के नुकसान की बात मानने को राजी तक नहीं हैं।
कृषि मंत्रालय के अधिकारियों की उत्तर प्रदेश के अधिकारियों से इस बाबत कई मर्तबा वीडियो कांफ्रेंसिंग हो चुकी है। बातचीत में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से हुए नुकसान की चर्चा भी हुई। लेकिन नियम-कायदे के चक्कर में बुंदेलखंड के लोग तबाह हैं। बुंदेलखंड के जिलों में 30 अप्रैल को आम चुनाव के लिए मतदान है। चुनाव के दौरान पीडि़तों का गुस्सा राजनीतिक दलों पर निकलने भी लगा है। दिल्ली में बैठे कांग्रेस पार्टी के नेताओं के पास बुंदेलखंड के लिए समय नहीं है। कमोबेश यही हाल भाजपा का भी है। राज्य में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी ने तो नुकसान के बारे में केंद्र को ज्ञापन तक भेजना मुनासिब नहीं समझा है। इसी को आधार बनाकर केंद्र की हाई लेवल कमेटी में इस पर विचार ही नहीं हुआ है।

मप्र के 30,000 गांवों में रोजी-रोटी का संकट!

-ओलावृष्टि से 13000 करोड़ रूपए का नुकसान
-राज्य सरकार ने घोषित की 2600 करोड़ की राहत राशि,केंद्र ने नहीं दिया एक पाई
-रोजाना एक किसान कर रहा आत्महत्या
-हवा-हवाई सर्वे कर औपचारिकता पूरी की केंद्रीय दल ने
भोपाल। मप्र में अब तक हुई ओलावृष्टि से करीब 30,000 गांवों की खेती पूरी तरह तबाह हो गई है। इस तबाही से इन गांवों में रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। कई गांवों में लोग पलायन करने लगे हैं। उधर,फसलों के तबाह होने के कारण प्रदेश में रोजाना एक किसान आत्महत्या कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ ओलावृष्टि मामले में अब तक केंद्र सरकार से 5000 करोड़ के विशेष पैकेज की मांग कर रही प्रदेश सरकार का अनुमान है कि अब तक 13000 करोड़ रूपए से ज्यादा का हुआ है नुकसान। इस नुकसान की भरपाई के लिए राज्य सरकार ने अब 2,000 करोड़ रूपए की जगह 2,600 करोड़ रूपए राहत के तौर पर देने की घोषणा की है,लेकिन अभी तक केंद्र की तरफ से एक पाई भी नहीं मिली है। उधर, ओलावृष्टि के कारण प्रभावित फसलों का आकलन करने आया 9 सदस्यीय केंद्रीय दल ने हवा-हवाई सर्वे कर महज औपचारिकता पूरी की है।
प्रदेश में पिछले एक पखवाड़े से बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से किसानों की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गई है। 10 मार्च को हुई ओलावृष्टि से बची-खुची फसल भी तबाह हो गई। ऐसे में कर्ज के बोझ से दबे किसान अब रोजगार के लिए महाराष्ट्र,पंजाब,दिल्ली और दक्षिण भारत के शहरों का रूख कर रहे हैं। पलायन करने वालों में सबसे अधिकबैतूल,दमोह,धार,उमरिया,बुरहानपुर,नरसिहपुर,कटनी,छतरपुर,टीकमगढ़ आदि जिलों के लोग हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में आलावृष्टि के कारण सबसे अधिक फसलें सागर, विदिशा,दमोह,राजगढ़,मुरैना,ग्वालियर,नीमच,देवास,सिवनी,रायसेन,धार,उमरिया,बुरहानपुर,कटनी, नरसिहपुर,जबलपुर,अशोकनगर,सतना,शिवपुरी,छतरपुर,सीहोर,बैतूल,होशंगाबाद,भोपाल,दतिया,रतलाम,खंडवा,रीवा, टीकमगढ़,बालाघाट और छतरपुर में बर्बाद हुई हैं। बैतूल,राजगढ़,विदिशा में तो खेतों में दो फूट तक ऊंची बर्फ की चादर बिछ गई, जो तीन घंटों बाद भी नहीं पिघली। बैतूल जिले में ओलावृष्टि की सूचना मिलते ही विधायक हेमंत खंडेलवाल और अनुविभागीय दंडाधिकारी (एसडीएम) आदित्य रिछारिया सहित अन्य राजस्व कर्मचारियों ने प्रभावित गांवों का दौरा कर किसानों का ढांढस बंधाया। विधायक हेमंत खंडेलवाल ने कहा कि बैतूल जिले में पिछले पखवाड़े से अलग-अलग स्थानों पर हो रही ओलावृष्टि से किसान पूरी तरह तबाह हो गए हैं, क्योंकि इस ओलावृष्टि से गेहूं, चने, मसूर और अरहर सहित रबी की अन्य फसलें बुरी तरह से बर्बाद हो गई हैं। उन्होंने कहा कि इस ओलावृष्टि से अब जिले का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है।
100 प्रतिशत तक नुकसान
सतना सांसद गणेश सिंह ने बताया कि जिले के 230 गांव में ओलावृष्टि से शत प्रतिशत व शेष गांवों में अतिवृष्टि से मसूर, चना, मटर जैसी फसलों का भारी नुकसान हुआ है। नजरी आंकलन के मुताबिक लगभग 90 करोड़ रुपए की राहत राशि दिए जाने के लिए हेतु मांग पत्र जिला प्रशासन ने प्रदेश सरकार को भेजा है। सिंह ने किसानों को आश्वस्त किया है कि वास्तविक आंकलन के आधार पर राहत राशि सीधे किसानों के खातों में जमा होगी। ग्वालियर कलेक्टर पी नरहरि के अनुसार घाटीगांव और चीनोर के लगभग 35 गांवों में ओले गिरने के कारण फसलों को 50 से 100 प्रतिशत नुकसान हुआ हैं। चीनोर तहसील में आने वाले अमरौल, झांकरी, बेवनी, पिपरौआ, पुरा बनवार, बनवार, पुरवा, ऊर्वा, मऊछ, रिछैरा,सूरजपुर,बीनवाड़ी, दुबहा, दुबई, मेहगांव, करैया, छजा,घाटीगांव के भी 15 गांव के किसान इस ओला वृष्टि में प्रभावित हुए हैं। मैंने व अन्य अधिकारियों ने गांवों में जाकर निरीक्षण किया जिसमें बहुत बड़े स्तर पर नुकसान होने की बात पुष्ट हो रही है। सर्वे कार्य जल्द पूर्ण कर मदद दिलाने के प्रयास शुरू करेंगे।
10,000 करोड़ के कर्ज में किसान
पिछले कई सालों से मध्यप्रदेश के किसान गहरे संकट में है। यह संकट है उनकी छोटी होती कृषि भूमि, मंहगी होती खेती और बार-बार नष्ट होती फसलों का, जिसके चलते वे कर्ज के भारी बोझ को ढोने के लिए विवश है। स्थिति तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब संकट से जूझते हुए किसान आत्महत्या को विवश हो जाते हैं। देश के अन्य राज्यों की तरह आज मध्यप्रदेश को भी इसी दर्दनाक स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। यदि हम पूरे मध्यप्रदेश में किसानों पर कर्ज की मात्रा का आकलन करेंं तो पाते हैं कि प्रदेश के किसान करीब दस हजार करोड़ रूपए से भी ज्यादा के कर्जदार हैं। क्योंकि अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में किसानों पर साढ़े सात हजार करोड़ रूपए कर्ज के रूप में दर्ज हैं। इसमें कम से कम ढाई हजार करोड़ का साहूकारी कर्ज जोड़ दें तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लघु और सीमांत किसानों के लिए बगैर कर्ज से खेती करना लगभग असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ करनी पड़ती है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्यप्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रूपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर ही कर्ज की मात्रा दुगनी हो जाती है।
किसान खा रहे जहर
बीते वर्ष की भांति इस वर्ष भी किसानों के द्वारा आत्महत्या करने और जहरीले पदार्थ के सेवन करने का सिलसिला शुरू हो गया है। प्रदेश में प्रतिदिन एक किसान बर्बाद फसलों के कारण मौत को गले लगा रहा है,जबकि 2 किसान कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। ओला और बारिश के कारण बर्बाद हुई फसल के बाद अब किसानों को न केवल अपने तथा अपने परिवार के भरण पोषण की चिंता सताने लगी है, बल्कि फसल के लिए बैंक से लिए कर्जे को चुकाने की भी चिंता सताने लगी है। 11 मार्च को दमोह जिले में ओलावृष्टि से फसल चौपट होने से दुखी किसान पिता-पुत्र ने खेत में लगे पेड़ से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। पटेरा थाना क्षेत्र के रमगढ़ा गांव के भैयालाल पटेल के परिवार ने लगभग 10 एकड़ में फसल बोई थी। पिछले दिनों हुई बारिश और ओलावृष्टि से उनकी फसल पूरी तरह चौपट हो गई है। सरकार की ओर से भी कोई मदद नहीं मिली थी। हालांकि मप्र सरकार के द्वारा फसलों को हुए नुकसान के मुआवजे की घोषणा तो कर दी गई थी लेकिन मुआवजा अभी तक नही मिल पाया है, जिसके कारण इन किसानों में रोष भी देखा जा रहा है। ऐसे में किसान आंदोलन भी करने पर उतारू हैं।
3 साल में 4,025 किसानों ने की आत्महत्या
प्रदेश में आसमान से बरस रही आपदा ने फसलों को बुरी तरह चौपट कर दिया है, इससे किसान टूट चले हैं और वे आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। जनवरी 2011 से लेकर अब तक प्रदेश में 4,025 किसान मौत को गले लगा चुके हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में 1326,वर्ष 2012 में 1172 और वर्ष 2013 से अभी तक करीब 1523 किसानों किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की बात से सामने आती है।
कलेक्टर ने मांगा मुआवजा मिली फटकार
ओलावृष्टि से प्रभावित किसानों को उचित मुआवजा देने के लिए 12 मार्च को जब मुख्य सचिव एंटोनी जेसी डीसा वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए कलेक्टरों को निर्देश दे रहे थे उस समय होशंगाबाद कलेक्टर राहुल जैन सीएस से कहा कि किसानों को राहत देने के लिए उन्हें अतिरिक्त राशि की आवश्यकता है। इस पर सीएम ने सख्त लहजे में पूछा कि उनके जिले में राहत के नाम पर बैंक खाते में 94 करोड़ रुपए जमा हैं, पहले वे इस राशि को खर्च करें। सीएस ने सभी कलेक्टरों से कहा कि वे अपने खातों में रखी राशि को तुरंत जरूरतमंद किसानों तक पहुंचाए। इसके बाद अगर राशि में कमी आती है तो अतिरिक्त राशि दी जाएगी। सीएस ने कलेक्टरों को निर्देश देते हुए कहा है कि बारिश में हुई क्षति का आकलन कर कलेक्टर पूरक प्रतिवेदन भोपाल भेजें। कलेक्टर कर्ज में राहत देने के लिए एक हफ्ते में बैठक कर नाबार्ड की गाइड लाइन के मुताबिक निर्णय लेंगे।
उधर,केंद्रीय कृषि आयुक्त डॉ. जे एस संधु ने बताया कि असमय की बारिश से मध्य प्रदेश में रबी फसलों को हुए नुकसान का जायजा लेने के लिए गई केंद्रीय टीम के अनुसार फसलों को भारी नुकसान तो हुआ है, लेकिन कुल नुकसान का ब्यौरा आकलन के बाद ही पता चलेगा। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से फसलों के नुकसान का जायजा लेने के लिए पत्र लिखा था। इन सब के बीच कृषि मंत्रालय ने चालू रबी में गेहूं की रिकॉर्ड पैदावार 956 लाख टन होने का अनुमान लगाया है। प्रदेश सरकार अब ओलावृष्टि से प्रभावित किसानों को मुआवजा देने के लिए केंद्र सरकार की मदद का इंतजार नहीं करेगी। वह चुनाव आयोग से अनुमति लेकर किसानों को मुआवजा बांटने की कार्यवाही जल्द शुरू करेगी।
अब 2600 करोड़ रुपए की राहत राशि
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि राज्य सरकार की ओर से 2 हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है जो कि काफी नहीं है। इस बजट को बढ़ा कर 26 सौ करोड़ किया जा रहा है। सीएम ने बताया कि केंद्र को प्रदेश में हुई ओलावृष्टि की भयावहता से अवगत कराने के लिए नुकसान की वीडियो रिकार्डिंग कराई गई है। यह रिकार्डिंग केंद्र से सर्वे के लिए आए विशेष दल को दिखाया गया है।
अब तक इतना हुआ नुकसान
-3 लाख मीट्रिक टन मसूर
-10 लाख मीट्रिक टन चना
-20 लाख मीट्रिक टन गेंहूं
-1.50 लाख मीट्रिक टन अन्य फसलों का
-30 हजार गांवों की फसल बर्बाद
-13000 करोड़ रूपए का नुकसान
ओला प्रभावित गांवों का 'हवा-हवाईÓ सर्वे!
ओलावृष्टि में नष्ट हुई फसलों का जायजा लेने आए केंद्रीय दल ने महज दो दिन के अंदर सर्वे निपटा दिया। किसी गांव में 10 तो किसी में 35 मिनट रूक कर उन्होंने रिपोर्ट तैयार की। हवा-हवाई हुए इस सर्वे के दौरान किसानों ने खूब अधिकारियों से खेतों पर चलने की विनय की, मगर अधिकारी नहीं पहुंच पाए। दरअसल तबाह हो चुकी फसलों का जायजा लेने के लिए पहुंचे अधिकारियों ने फसलों का जायजा तो लिया, मगर समय कम देने की वजह से किसान व्यथित हो गए।
केंद्रीय अध्ययन दल ने भोपाल और होशंगाबाद संभाग के भी कई इलाकों का दौरा किया। एक केंद्रीय अध्ययन दल ने विदिशा और सिरोंज के नौलास, बरुघाट, मुंडरा, पालकी गांवों में हेलीकॉप्टर से उतरकर ओलावृष्टि और उससे हुए नुकसान का निरीक्षण किया। रायसेन जिले के बेगमगंज, सिलवानी, सीहोर जिले के रेहटी, नसरुल्लागंज, आष्टा तहसीलों में अध्ययन दल पहुंचा। यहां पर अधिकारियों ने करीब 30 मिनट तक आसपास के दो खेतों में सर्वे किया और वापस लौट गए।
रोने लगीं महिलाएं...
सुबह करीब 10.30 बजे हेलीकाप्टर से अधिकारी टीकमगढ़ के नगर पंचायत कारी के आलमपुरा पहुंचे। वे सबसे पहले चार पहिया वाहन में सवार होकर करीब 500 मीटर की दूरी पर स्थित रहीस खां के खेत पर पहुंचे और खेत की चौपट फसल जायजा लिया। उन्होंने खेत में से एक गेहूं की बाल को तोड़ी हथेली में मसलन कर देखा और आगे चल दिया।
यहां पर जैसे ही अधिकारी गाड़ी पर सवार होने लगे। ग्रामीण गाड़ी के आगे खड़े हो गए और आगे चलकर फसलें देखने के लिए कहा, मगर अधिकारी नहीं माने। निरीक्षण दल के अधिकारी तो गाड़ी का शीशा चढ़ाकर अंदर बैठ गए, बाहर ही नहीं निकले। इसी बीच ग्रामीण झुल्लन पांडे, चुनुआ और सरजू अहिरवार ने अधिकारियों से खूब विनय की, मगर किसी ने सुना नहीं। कलेक्टर ने उन्हें दोबारा निरीक्षण कराने का आश्वासन दिया। वापस अधिकारी हेलीपेड पर पहुंचे और पास के खेत का जायजा लेने लगे।
इस बीच ग्रामीण महिलाओं का समूह एकत्रित हो गया और अपनी व्यथा सुनाने लगा। ग्रामीण महिला रामा बाई और इमल बाई अधिकारियों के सामने रोने लगीं। उन्होंने कहा कि ओला गिरने से फसलें चौपट हो गईं हैं। घर के खप्पर फूट गए हैं। खेत में डठुआ ही डठुआ नजर आ रहे हैं। वे क्या खाएं और बच्चों को क्या खिलाएं। इस पर कलेक्टर डॉ. खाडे ने महिलाओं को चुप कराया। बाद में अधिकारी जिला मुख्यालय पर सर्किट हाउस के लिए रवाना हो गए। जहां पर उन्होंने रेस्ट किया और खाना खाया। ऐसा ही नजारा पूरे प्रदेश में सर्वे के दौरान नजर आया।
100 फीसद नुकसान पर ही मुआवजा
प्रदेश में ओला वृष्टि से तबाह हुई फसलों पर केंद्रीय दल ने आते ही साथ केंद्र सरकार का इस मामले में रूख साफ कर दिया है। मंत्रालय में विभागीय अफसरों के साथ चर्चा में दल के अधिकारियों ने कहा कि केवल 100 फीसद नुकसान वाले प्रकरणों में ही किसानों को मुआवजा बांटा जाएगा। केंद्रीय रुख से ओला वृष्टि से तबाह किसानों की मुश्किलें बढ़ सकती है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पहले ही ये घोषणा कर चुके हैं कि 50 फीसद नुकसान को भी 100 फीसद नुकसान माना जाएगा।

प्रेशर पॉलिटिक्स के सहारे दिग्विजय!

मप्र से दिग्गी की बिदाई के बाद अब समर्थकों को भी किया जा रहा किनारे
भोपाल। मप्र की राजनीति में दिग्विजय सिंह को ऐसा अमीबा कहा जाता है जिसे जितना काटो-छांटो वह उतना अधिक फलता-फूलता है। लेकिन पिछले तीन-चार माह में घटे राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर डाली जाए तो हम पाते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री अपने दौर के सबसे बुरे समय को जी रहे हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान जिस तरह से उनकी और उनके समर्थकों की उपेक्षा शुरू हुई है, उसने टीम दिग्गी को अंदर से हिला कर रख दिया है। फिलहाल दिग्गी के पास अब सिर्फ प्रेशर पॉलिटिक्स का सहारा ही बचा है, वो भी उनके समर्थकों के जरिए। लेकिन फिलहाल उनका बस चलता दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल, गुटबाजी की शिकार कांग्रेस अभी भी इस बीमारी से उबर नहीं पाई है। इसके चलते पहले जहां विधानसभा चुनावों में जहां उसे सत्ता गंवानी पड़ी वहीं लोकसभा सिर पर होने के बाद भी ये समस्या हल नहीं हो पा रही है। इस समय बड़े नेताओं की कांग्रेस छोडऩे की अफवाहें गर्म हैं। भागीरथ प्रसाद ने जिस तरह से ऐन मौके पर धोखा दिया है, उसके बाद संभावना बनी हुई है कि कुछ और नेता भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं। हालांकि धुंधली छंट रही है, उम्मीद कम ही है कि कोई बड़ा नाम अब भाजपा का दामन थामेगा। उसके पीछे वजहें हैं, जिस तरह से दिग्गी और उनके समर्थकों को पार्टी ने किनारे किया है। उनके अंदर बौखलाहट बढ़ गई है या कहें कि उनके लिए पार्टी के अंदर राजनीतिक जीवन बचाने की चुनौती खड़ी हो गई है। इसी चुनौती की वजह से दिग्गी समर्थकों ने एक साथ हल्ला बोल दिया। एक तरफ जहां गोविंद सिंह का भाजपा में जाने की अफवाह उड़ी तो वहीं आरिफ अकील और अजय सिंह ने पार्टी पर जोरदारी से हमला बोला। मतलब साफ थे, पार्टी के अंदर ही अपना वजूद दिखाने की कोशिश भर थी।
भागीरथ प्रसाद के कांग्रेस छोडऩे से लेकर गोविंद सिंह और आरिफ अकील की नाराजगी तक हर घटना के तार कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से जुड़ रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस में जो बदलाव हुआ वह दिग्विजय और उनके समर्थकों के अनुकूल नहीं है। नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक हैं और अरुण यादव भी सिंधिया से ग्रीन सिग्नल के बाद ही प्रदेशाध्यक्ष बने हैं। इससे पहले इन दोनों पदों पर दिग्विजय गुट का ही कब्जा था। कांतिलाल भूरिया और अजय सिंह दोनों ही दिग्विजय के करीबी थे। शायद यही वजह है कि दिग्विजय के समर्थक या तो प्रदेश नेतृत्व पर उंगली उठा रहे हैं या पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं।
नहीं कर पा रहे समर्थकों की मदद
कांग्रेस के भीतर लोग इस बात को मान रहे हैं कि दिग्विजय अब अपने समर्थकों की मदद नहीं कर पा रहे हैं। पूर्व आईएएस अफसर भागीरथ प्रसाद दिग्विजय सिंह से जुड़े हुए थे। वे यह बात समझ गए थे कि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया की मर्जी के बिना कांग्रेस की राजनीति संभव नहीं है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह सीधी से टिकट चाह रहे थे, लेकिन वहां से इंद्रजीत पटेल को उम्मीदवार बनाया गया है। इंद्रजीत इन दिनों सिंधिया के साथ हैं। सत्यदेव कटारे को 'हिटलरÓ कहने वाले गोविंद सिंह दिग्विजय समर्थक हैं, वे लोक लेखा समिति के अध्यक्ष नहीं बन पाए।
रीवा से सपा ने जिन पूर्व मंत्री राजमणि पटेल को उम्मीदवार घोषित कर दिया, वे भी दिग्विजय समर्थक हैं। अंतिम समय में पटेल सपा में जाने से मुकर गए, लेकिन उनकी नाराजगी की बात सामने आ ही गई। दिग्विजय के गृह क्षेत्र राजगढ़ से पहली सूची में उम्मीदवार घोषित न होना भी इस बात की पुष्टि करता है कि दिग्विजय की मर्जी के फैसले नहीं हो रहे। बताया जाता है कि दिग्विजय यहां से आमलावे को उम्मीदवार बनाने के पक्ष में नहीं हैं, जबकि इस क्षेत्र में करीब पौने तीन लाख मतदाता सौंधिया समाज के हैं।
बात यहीं खत्म नहीं होती विदिशा से टिकट न मिलने पर पार्टी छोडऩे वाली सीहोर जिला महिला कांग्रेस अध्यक्ष उषा सिंह चौहान भी दिग्विजय समर्थक हैं। भोपाल से दिग्विजय समर्थक पीसी शर्मा भी कटारे के ग्रीन सिग्नल के बाद ही टिकट पाने में सफल हो पाए हैं, लेकिन इससे दिग्विजय के दूसरे समर्थक आरिफ अकील नाराज हो गए हैं। वे खुले आम नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे को नौसिखिया कह रहे हैं।
किंतु सच्चाई अब यह है कि बीते दिनों कांग्रेस ने उन्हीं दिग्विजय सिंह को उनके गृह राज्य मप्र से ही राज्यसभा का सांसद बनाया है। सवाल है कि समय के इस पड़ाव पर आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से दिग्विजय सिंह को भी अब संसद के उसी कथित पीछे के दरवाजे से जाना पड़ गया है। लेकिन यह जानने से पहले यह जानना दिलचस्प रहेगा कि दिग्विजय सिंह की राजनीति क्या है? राज्यसभा में सांसद बनने की हालिया घटना के ठीक पहले तक भी वे यही कहते रहे कि सागर, इंदौर और विदिशा लोकसभा सीट में से किसी एक से चुनाव लडेंगे। गौर करें तो सागर लोकसभा सीट का एक बड़ा हिस्सा राघौगढ़ रियासत के अधीन आता था। लिहाजा दिग्विजय सिंह के अति विश्वसनीय समर्थकों ने सागर संसदीय क्षेत्र में चुनाव की तैयारी शुरू भी कर दी थी। लेकिन नतीजा दिग्विजय सिंह के कथन से ठीक उलट ही आया। और आखिर पहली दफा कांग्रेस ने उन्हें चुनावी राजनीति के फेर में पडऩे की बजाय राज्यसभा के लिए चुन लिया।
इस पूरी सियासी पैंतरेबाजी के बीच दिग्विजय सिंह की राज्यसभा टिकट की यदि पड़ताल की जाए तो साफ होता है कि जैसा दिखता है वैसा है नहीं। यहां यह बात अहम नहीं है कि दिग्विजय सिंह क्या चाहते है। और न ही यह सवाल जायज है कि जैसा वे चाहते हैं वैसा पाने की हैसियत उनकी है या नही। बुनियादी सवाल यह है कि पार्टी उनका उपयोग किस प्रकार करना चाहती है। और दिग्विजय सिंह क्या उसके अनुरुप खुद को ढाल पाएंगे? पुराने तजुर्बे देंखे तो सिंह जैसे परिपक्व नेता जानते हैं कि पार्टी की लाइन असल में तलवार की ऐसी धार होती है जिससे फिसलते ही उनका कटना तय है। वे जानते हैं कि पार्टी हाइकमान नहीं चाहता कि दिग्विजय सिंह मप्र की राजनीति में सक्रिय दिखे। और यही वजह है कि खुद दिग्विजय सिंह भी सालों से यही दोहरा रहे हैं कि वे केंद्र की राजनीति में ही रहेंगे। यह सच है कि गृहराज्य होने की वजह से पार्टी के हर निर्णय के पीछे यहां उनकी भूमिका तलाशी जाती है। यह भी सच है कि उनके धुर समर्थक और विरोधी सियासी नफा-नुकसान के लिए उनका नाम मप्र की राजनीति में बार-बार घसीट लाते हैं। लेकिन दिग्विजय सिंह इस मामले में हमेशा से यह सर्तकता बरत रहे हैं कि यदि उन्होंने मप्र की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने में दिलचस्पी दिखायी तो यह उनके भविष्य की राजनीति के लिए ठीक नहीं रहेगा। यही वजह है कि बीते दस सालों से पार्टी ने भी उन्हें राज्य की राजनीति में कभी निर्णायक भूमिका नहीं सौंपी। 2008 का विधानसभा चुनाव जहां सुरेश पचौरी के नेतृव्य में लड़ा गया वहीं 2013 का चुनाव ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे करके लड़ा गया। 2013 के ही चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में उन्होंने सिंधिया के पीछे बैठते हुए यही जताना चाहा कि राज्य की राजनीति में या तो वे पीछे बैठे हुए हैं या उन्हें पीछे ही बैठाया गया है। और अब जबकि उन्हें राज्यसभा से चुना गया है तो सीधी-सी बात है कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर ही उनकी भूमिका तय की है।
दूसरी बात यह है कि हाइकमान के काफी निकट होने की वजह से दिग्विजय सिंह जैसे सधे हुए नेता जानते हैं कि पार्टी का अगला कदम क्या होगा। उनका अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़ विधानसभा सीट से लड़ाने के साथ ही यह स्पष्ट हो चुका था कि अब उनके लिए मप्र में कोई बड़ी संभावना नहीं बची है। दरअसल सभी दलों ने खास तौर से युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए कई प्रकार की मुहिम चलायी हुई हैं। ऐसे में राहुल गांधी ने मप्र में भी युवा नेतृव्य को ही मौका दिया है। यही वजह है कि उन्होंने खंडवा से युवा सांसद अरूण यादव को जहां पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है वहीं कई बुजुर्ग विधायकों की मौजूदगी के बावजूद सत्यदेव कटारे को नेता प्रतिपक्ष बनाया है। जाहिर है कि लोकसभा का चुनाव पार्टी युवाओं को आगे करके लडऩा चाहती है। और इसीलिए हाइकमान ने दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाना मुनासिब समझा। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के काफी पहले ही दिग्विजय सिंह ने भी अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राजनीति में लाने का रास्ता साफ कर दिया था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक पदाधिकारी के मुताबिक, 'सिंह के विरोधियों ने राहुल गांधी तक ऐसी बातें पहुंचा दी थीं कि जब तक राज्य में सिंह जैसे बरगद रहेंगे तब तक पार्टी के भीतर नये पौधे पनप पहीं पाएंगे।Ó इसीलिए हाइकमान ने सिंह को राज्यसभा में ससम्मान ले जाकर उनकी जिम्मेदारी बढ़ा दी है।
वहीं दिग्विजय सिंह के राज्यसभा में जाने के कुछ अलग मायने भी हैं। जैसा कि वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरजा शंकर बताते हैं कि भाजपा और कांग्रेस सहित सभी दलों में अब यह परंपरा-सी बन गई है कि जो नेता पार्टी के लिए अनिवार्य हैं उन्हें राज्यसभा से चुन लिया जाए। वहीं जिन नेताओं के बिना भी पार्टी का काम चल सकता है उन्हें लोकसभा से लडऩे का मौका दिया जाए। यदि वे लोकसभा चुनाव जीतकर संसद तक पहुंचे तो अच्छी बात है, अन्यथा कोई बात नहीं। यदि भाजपा में ही देंखे तो अरूण जेटली और वेंकैया नायडू के अलावा राज्यसभा से पहुंचाये गए कई जरूरी नेताओं की एक लंबी सूची मिलेगी। गिरजा शंकर के मुताबिक, 'यदि दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाया गया है तो सीधी बात है कि बाकी नेताओं के मुकाबले पार्टी में उनका महत्व अधिक है। साथ ही इसका मतलब यह भी है कि पार्टी के लिए अब वे एक अनिवार्य नेता भी बन चुके हैं।Ó इसके इतर देखा जाए तो कांग्रेस की तरफ से उनके पास कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों का प्रभार भी है। कर्नाटक में कांग्रेस की जहां नई-नवेली सरकार बनी है वहीं तेलंगाना राज्य की मांग के चलते आंध्र प्रदेश अत्यंत संवेदनशील राज्य बन चुका है। जाहिर है कि मप्र के बाहर ही दिग्विजय सिंह के कंधों पर पहले से ही इतनी अधिक जिम्मेदारियां डाल दी गई हैं कि उन्हें निभाना ही अपनेआप में बड़ी चुनौती रहेगी।

2 साल में 1500 करोड़ की काली कमाई सरेंडर

67 सरकारी कारिंदों से &48 करोड़ की कमाई जब्त
भोपाल। मध्य प्रदेश में आयकर, लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू ने पिछले दो सालों में करीब दो सौ से Óयादा जगह छापे मारे और करीब 1500 करोड़ रुपए की काली कमाई उजागर की है। यह इस बात का संकेत है कि मप्र में लगातार काली कमाई और टैक्स चोरों का आंकड़ा बढ़ रहा है। प्रदेश में वर्ष 2011-12 में आयकर छापे की कार्रवाई में काली कमाई सरेंडर का आंकड़ा &90 करोड़ रुपए था। यह वर्ष 2012-1& में 720 करोड़ पहुंच गया है। वहीं लोकायुक्त और इओडब्लयू ने दो वर्ष में करीब 400 करोड की अवैध कमाई का भंडाफोड किया है। पार्टी अपने मंत्रियों और पदाधिकारियों को तो लगातार सबक दे रही है कि वे कोटा-परमिट, मकान-दुकान, खदान से दूर रहें पर नौकरशाही की मुश्कें कसना राÓय सरकार के लिए भी बेहद मुश्किल भरा साबित हो रहा है। भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है। आयकर से मिली जानकारी के अनुसार इस साल मप्र-छग में कुल 720 करोड़ रुपए छापे की कार्रवाई में सरेंडर हुए हैं। इस आंकड़े में और इजाफा भी हो सकता है। कई मामलों में अभी जांच जारी है। इस रकम में सबसे Óयादा &20 करोड़ रुपए रियल एस्टेट के कारोबारियों से सरेंडर हुए हैं जिनमें इंदौर और भोपाल के कारोबारियों पर हुई कार्रवाई शामिल है। इस वित्तीय वर्ष में मप्र-छग के 16 ग्रुप पर विभाग ने छापे की कार्रवाई को अंजाम दिया था। जहां से 17 करोड़ की नकद रकम को सीज किया गया है वहीं 8.75 करोड़ के जेवरात भी बरामद किए गए हैं। इसके साथ विभाग ने कार्रवाई में 26 करोड़ की संपत्ति भी जब्त की है। इसके अलावा विभाग ने आयरन सेक्टर से 250 करोड़ और शराब कारोबार से 100 करोड़ सरेंडर कराया है।
अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्क
भ्रष्टाचार का नजारा यह है कि भ्रष्ट अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, चपरासियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की होड़-सी चल रही है। लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 20& रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहां छापामार कार्रवाई कर 10& करोड़़ की संपत्ति जब्त की है। इन सरकारी आंकड़ों से मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। सूबे में लोकायुक्त पुलिस और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने भ्रष्टाचार की शिकायतों के मद्देनजर पिछले दो साल में 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों पर छापे मारकर करीब &48 करोड़ रुपये की काली कमाई जब्त की। इन कारिंदों में चपरासी, क्लर्क, अकाउन्टेन्ट और पटवारी से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के बड़े अफसर शामिल हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इंदौर के क्षेत्र क्रमांक एक के भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता के विधानसभा में उठाये गये सवाल पर यह जानकारी दी थी। गुप्ता ने मुख्यमंत्री के हालिया जवाब के हवाले से बताया कि प्रदेश में पिछले दो साल के दौरान लोकायुक्त पुलिस ने 52 सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापे मारे। वहीं ईओडब्ल्यू ने 15 अधिकारियों और कर्मचारियों के ठिकानों पर छापेमारी की। उन्होंने सरकारी आंकड़ों के आधार पर बताया कि दोनों जांच एजेंसियों के छापों में इन 67 सरकारी कारिंदों के ठिकानों से करीब &48 करोड़ रुपये की रकम जब्त की गयी। उधर, प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की मानें तो लोकायुक्त पुलिस और ईओडब्ल्यू की कार्रवाई से बड़े मगरम'छ अब भी बचे हुए हैं। प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नरेंद्र सलूजा कहते हैं कि, सूबे में क्लर्क और पटवारी जैसे अदने कर्मचारियों के ठिकानों पर इन जांच एजेंसियों के छापों में करोड़ों रुपये की मिल्कियत उजागर हो रही है। इससे बड़े नौकरशाहों और मंत्रियों की काली कमाई का अंदाजा लगाया जा सकता है।
ढाई वर्ष में 20& रिश्वतखोरों को पकड़ा:नावलेकर
प्रदेश के लोकायुक्त पीपी नावलेकर कहते हैं कि लोकायुक्त संगठन द्वारा पिछले ढाई वर्ष में प्रदेश में 20& रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा। 81 के यहां छापामार कार्रवाई कर 10& करोड़़ की संपत्ति जब्त की है। संगठन की नजरों में कोई भी बड़़ा या छोटा नहीं है। शिकायत मिलने पर सभी श्रेणी के अफसर व कर्मचारियों पर कार्रवाई की जा रही है। उन्होंने कहा कि छोटे स्तर के अधिकारियों पर कार्रवाई करने का मतलब यह नहीं है कि प्रथम श्रेणी के अफसरों पर कार्रवाई नहीं होती है। आम आदमी निचले स्तर के अफसर व कर्मचारी द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार से परेशान है। यही शिकायतें भी अधिक आती हैं। प्रारंभिक स्तर पर परीक्षण के बाद ही कार्रवाई की जाती है।
10 साल में 50,000 करोड़ की हेराफेरी
राÓय के प्रमुख सचिव से लेकर पटवारी तक सरकारी कर्मचारी इन दिनों करोड़पति बन चुके है। अनुमान के अनुसार पिछले दस वर्षो के दौरान मध्यप्रदेश में पचास हजार करोड़ से अधिक की हेराफेरी सरकारी खजाने में की गई है। मध्यप्रदेश को एक सुशासन देने का दावा करने वाली सरकार इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में असफल रही है। एक अनुमान के अनुसार भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल दे तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यो के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नहीं रहेगी।
अरबों के असामी हैं मप्र में पदस्थ आईएएस
प्रदेश में अफसरों की कमाई का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग सभी आईएएस करोड़पति है। जीएडी में दिए गए संपत्ति के ब्यौरे में ये सब दर्ज है। मुख्य सचिव एंटोनी डिसा और एसीएस देवराज बिरदी अमीर अफसरों में सबके ऊपर हैं। सरकार के चहेते अधिकारियों में से एक विवेक अग्रवाल अरबपति है, लेकिन उसमें निजी मिल्कियत से Óयादा पैत्रिक संपत्ति जुड़ी है। ब्यौरे में जो कीमत दर्ज की गई है, उसका बाजार मूल्य निकाला जाए तो कई गुना Óयादा बैठता है। मप्र के नए मुख्य सचिव बनाए गए एन्टोनी जेसी डिसा के पास भोपाल तहसील हुजुर बरखेड़ी खुर्द में 0.26 एकड़ ओपन लैण्ड हैं, जिसकी कीमत &0 लाख रूपए आंकी गई हैं, जबकि बावडिय़ा कलां में इनके पास 1500 वर्गफीट का प्लाट, जिसकी कीमत 40 लाख है। बागमुगालिया एक्सटेशन में एक प्लाट 40 कीमत का हैं। इसके अलावा गोवा स्थित गोलटिम 0.28& हेक्टेयर का जमीन हैं, जिसकी कीमत 20 लाख दर्शाई है। गोवा में ही संयुक्त परिवार के नाम मकान है, जिसकी कीमत नहीं दर्शाई गई, वहीं नार्थ गोवा में सव्रे नंबर 1&9 में 0.100 हेक्टेयर लैण्ड है, जिसकी कीमत 15 लाख रूपए बताई गई है। इसके अलावा नार्थ गोवा में ग्राम में सव्रे नंबर 8/9 75 वर्ग मीटर परिवार का निवास बताया है, इसकी कीमत मात्र एक लाख रूपए दर्शाई है, जबकि नार्थ गोवा में ही 0.&&2 हेक्टेयर भूमि खरीदी गई, जिसकी कीमत 10 लाख रूपए हैं। एसीएस प्रशन्ना कुमार दास के पास एक मकान भोपाल में &60 वर्ग मीटर की और कीमत &5 लाख तथा 0.50 हेक्टेयर एग्रीकल्चर लैण्ड जिसकी कीमत 7 लाख रूपए बताई गई, जबकि आधा हेक्टेयर जमीन की वर्तमान कीमत डेढ़ करोड़ से कम नहीं आंकी जा सकती।
यह अफसर भी पीछे नहीं
देवराज बिरदी के पास विवेक नगर जालंधर में शहरी क्षेत्र में 40 मार्ला लैण्ड, अहमद नगर भोपाल में आवासी प्लाट 45&7.75 वर्गफीट 100 रूपए वर्ग फीट में खरीदा गया है। यानी इसकी कीमत 50 लाख से कम नहीं है, जबकि ग्रीन मेडोज में 194.25 वर्ग मीटर का मकान है, जिसकी कीमत उन्होंने 48.59 लाख दिखाई है, केशरपुरजिला अलबर में इनके पास 8.11 हेक्टेयर जमीन कीमत 50 लाख, दादर अलबर में 6 हेक्टेयर कृषि भूमि कीमत की जगह 40 रूपए स्कायर यार्ड में बताई है। शिवाजी मार्ग दिग्गी हाउस जयपुर में 2.60 एवं 1.72 हेक्टेयर लैण्ड है, जिसकी कीमत &6.80 लाख तथा 64.40 लाख रूपए और तहसील अलबर में ही खाता क्रमांक 69 में 6.21 हेक्टेयर तथा खाता नंबर 465-66 में 1.5 हेक्टेयर कृषि भूमि जिसकी कीमत मात्र 50 रूपए प्रति हेक्टेयर एवं 10 लाख रूपए प्रति हेक्टेयर दिखाकर करोड़ों की संपत्ति अजिर्त की है। एक ही वर्ष 2007 में इन्होंने पांच कृषि भूमि खरीदी है जो कि दो करोड़ से अधिक की है। एसीएस अरुण शर्मा के पास बरखेड़ी खुर्द में 0.26 डिसमिल कृषि भूमि कीमत 50 लाख, इंदौर जिले के तालावाली में 0.055 हेक्टेयर भूमि कीमत2.40 लाख, अहमदपुर कलां में 2400 वर्गफीट का प्लाट कीमत & लाख बताई है, जबकि गुडगांव हरियाणा में पलोनीर पार्क में 62 लाख रूपए आवासीय मकान तथा गुडगांव में ही डी-&, 40& एक्सटेंशन पाश्र्वनाथ मकान जिसकी कीमत एक करोड़ 90 लाख रूपए बैंक ऑफ इंडिया से ऋण लेकर खरीदना बताया गया है। इसके अलावा आरके चतुव्रेदी, एसआर मोहंती, राधेश्याम जुलानिया, विश्वपति त्रिवेदी, एसके मिश्रा, मनोज श्रीवास्तव, इकबाल सिंह बैंस तथा अनुराग जैन करोड़ों की संपत्ति के मालिक हैं।

50 खरब की सरकारी जमीन पर रसूखदारों का अवैध कब्जा

भोपाल। मध्य प्रदेश में रसूखदारों ने पचास खरब रुपए (5,000,000,000,000)की सरकारी जमीन पर अवैध रूप से हड़प ली है। कहीं-कही तो हजारों एकड़ जमीन एक ही व्यक्ति के कब्जे में है। इस बात का खुलासा सरकार की जांच में सामने आया है। सरकारी अधिकारियों की सांठ-गांठ से कबजाई गई इन जमीनों को रसूखदारों के कब्जे से निकालने के लिए सरकार हाथ-पांव तो मार रही है,लेकिन उसे सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है। उल्लेखनीय है कि जब सरकार को इन भूमि घोटालों की खबर लगी तो,मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2009 में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव (वर्तमान में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव)के नेतृत्व में समिति बनाकर प्रदेश में चल रहे भूमि घोटालों को उजागर करने का जिम्मा दिया था। समिति ने बड़े भूमि घोटालों की 14 रिपोर्टें राÓय सरकार को सौंपीं। इन रिपोर्टों से खुलासा हुआ कि भोपाल, ग्वालियर, धार, होशंगाबाद, हरदा और अशोक नगर जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में सौंप दी गई।
नदी और कब्रिस्तान पर पूर्व विधायक के परिवार का कब्जा प्रदेश के धार जिले के सरदारपुर कस्बे में मध्य प्रदेश के जमीन गोरखधंधे का सबसे दिलचस्प मामला सामने आया। मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट कहती है, यह अद्भुत प्रकरण है जिसमें एक नगर की लगभग संपूर्ण भूमि एक ही परिवार के हाथों आ गई। यह वह प्रकरण है जिसमें एक परिवार एक नदी (माही), कब्रिस्तान, श्मशान, डाक बंगला, जेलखाना, शासकीय कन्याशाला, विजय-स्तंभ, टीआइ बंगला, कलेक्टर कोठी सहित कई सार्वजनिक जमीन पर पुराने पट्टों के आधार पर हक जमाता है और कलेक्टर पट्टों की प्रामाणिकता पर संदेह करने की बजाए दावेदार को जमीन का अधित्यजन (दान) करने का मौका देता है और कुछ जगह अधित्यजन कराकर खुश होता है। असल में, 1995 में कलेक्टर के एक गलत आदेश के जरिए 1,471 बीघा जमीन नगरपालिका और प्रदेश शासन से लेकर निजी पक्षकार के हक में कर दी गई। बाद में एक दूसरे कलेक्टर ने यह आदेश गलत पाया और जमीन को सरकार के कब्जे में लाने के लिए राजस्व मंडल (रेवेन्यू बोर्ड) से मामले पर दोबारा गौर करने की इजाजत मांगी। मंडल ने जमीन को सरकार के कब्जे में लाने का आदेश खुद ही दे दिया, जो कि हाइकोर्ट से खारिज हो गया। कोर्ट ने छानबीन की इजाजत दी। रिपोर्ट बताती है कि तमाम कानूनी प्रक्रिया के बाद 5 जून, 2007 को कलेक्टर के आदेश के जरिए कुछ जमीन लेकर बाकी निजी पक्षकार को दे दी गई। मजे की बात यह है कि नदी, पहाड़ और कब्रिस्तान जैसी जमीन छोडऩे के लिए भी कलेक्टर ने निजी पक्षकार को पुचकारा। रिपोर्ट में कलेक्टर के आदेश को गैरकानूनी बताया गया पर कार्रवाई की सिफारिश किसी के खिलाफ न हुई। यह मामला सरदारपुर के प्रतिष्ठित शंकरलाल गर्ग परिवार से जुड़ा है। गर्ग 1952 में यहां के विधायक रहे। मामले की पैरवी कर रहे उनके पुत्र 78 वर्षीय लक्ष्मी नारायण कहते हैं, पालिका का दावा निराधार है। आजादी से पहले पालिका के दावे के खिलाफ ग्वालियर स्टेट कोर्ट में भी हम जीते थे। दो गांवों की जमीन बेचकर गायब भोपाल से सटे दो गांवों चांचेड़ और गनियारी में एस.के. भगत के नाम पर तहसीलदार ने करीब 450 एकड़ जमीन कर दी। यह भी न सोचा कि सीलिंग आदेश के बाद किसी के पास इतनी जमीन कैसे हो सकती है। मामला आजादी के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की भारत में जमीन से जुड़ा है। भगत नाम के व्यक्ति ने दोनों गांवों में 1962 और 196& में यह जमीन दिए जाने का दावा किया है। पर समिति के मुताबिक, कब्जे के कागजात 1994 में तैयार किए गए और उन्हें 1962/196& की तारीखों में दिखाया गया। रिपोर्ट में मजेदार टिप्पणी है, राजस्व आज्ञापत्र पर कुछ मार्किंग्स जिस तरह के पेन से हैं, वे 196& में चलन में भी नहीं आए थे। पूरे मामले में गैरकानूनी, धोखाधड़ी और शरारतपूर्ण कार्रवाई को देखते हुए इसमें म.प्र. भू राजस्व संहिता की धारा 115 के तहत कार्रवाई की जाए। पर भगत परिवार तो तकरीबन सारी जमीन बेच एक दशक पहले ही यहां से जा चुका है। भगत के पुराने मकान में रह रहे फूल सिंह बताते हैं, वे तो 10-12 साल पहले ही जमीन बेचकर जा चुके हैं। भेल की 200 एकड़ जमीन पर माफिया का कब्जा मध्य प्रदेश सरकार ने 27 नवंबर, 1957 को भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (बीएचईएल) को भोपाल 6,000 एकड़ से अधिक जमीन दी। इसमें से 200 एकड़ जमीन पर माफियाओं का कब्जा है। श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, यह जमीन भेल को एक कंपनी के तौर पर दी गई। इसमें कोई औपचारिक ट्रांसफर डीड नहीं हुई। लिहाजा भेल प्रशासन या केंद्र सरकार को इस जमीन पर मालिकाना हक जताने का कोई अधिकार नहीं। अधिग्रहण के बाद से करीब 2,000 एकड़ जमीन भेल के पास फालतू पड़ी है। रिपोर्ट में 1998 के प्रदेश के राजस्व मंत्रालय के एक सर्कलर का हवाला दिया गया है। सर्कलर कहता है राÓय शासन ने फैसला किया है कि प्रदेश में लगे केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को दी गई जमीन में से जो जमीन उनके तय मकसद के लिए काम में नहीं ली जा रही, उसे फौरन वापस लिया जाए। इसी आधार पर भेल की खाली पड़ी 2,000 एकड़ जमीन वापस लेने की सिफारिश की गई। रिपोर्ट तो कहती है कि भेल अपनी ही जमीन की देखभाल नहीं कर पा रहा और अब तक 200 एकड़ जमीन पर भूमाफिया ने कब्जा जमा लिया है। इस 200 एकड़ का Óयादातर हिस्सा अब रियल एस्टेट के लिहाज से खासा अहम हो गया है। भोपाल में बन रहे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सामने की भेल की जमीन पर भी अवैध कब्जा हो चुका है और वहां मकान बन रहे हैं। एम्स के यहां आने की वजह से जमीन की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। भेल के वरिष्ठ प्रबंधक (प्रचार और जनसंपर्क) विनोदानंद झा इस संस्था का पक्ष रखते हैं, भेल को जमीन दिए जाने के मामले में सारी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। हां, भेल की 150 एकड़ जमीन पर अवैध बस्तियां बनी हैं। इन्हें हटाने के लिए राÓय सरकार से लगातार चि_ी-पत्री हो रही है। एम्स के पास हो रहे नए अवैध निर्माण पर भेल प्रशासन नजर रखता है और इसे समय-समय पर तोड़ा जाता है। ग्वालियर में 200 करोड़ की जमीन पर अवैध कब्जा ग्वालियर शहर में पूर्व ग्वालियर राजघराने द्वारा स्थापित ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को फायदा पहुंचाने के लिए 47 हेक्टेयर जमीन दे दी गई,जबकि कायदे से यह जमीन राÓय शासन के पास होनी चाहिए। इस मामले में निजी पक्षकार को 2008 में राजस्व मंडल के एक ऐसे आदेश के चलते जमीन हासिल हो गई, जिसमें 1991 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की अनदेखी कर दी गई थी। मौजूदा बाजार भाव पर इस जमीन की कीमत करीब 200 करोड़ रु. है। इस बारे में कंपनी के मालिक के.सी. जैन कहते हैं कि ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को शहरी क्षेत्र में 1516.96 एकड़ जमीन पूर्व ग्वालियर रियासत की ओर से 4 जून, 1942 को 25 साल के पट्टे पर दी गई थी। तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने इस कंपनी को बनाया और उसमें उनके सरदार माधवराव फालके और सरदार देवराज कृष्ण जाधव (डी.के. जाधव) के अलावा रियासत के प्रभावशाली लोग कंपनी में शेयर होल्डर थे। 25 साल के पट्टे की मियाद खत्म होने के बाद अप्रैल, 1979 में अपर जिलाध्यक्ष के आदेश के जरिए जमीन सरकार ने वापस ले ली। इसके बाद कंपनी की जमीन का बड़ा हिस्सा सरकारी विभागों ने कब्जे में ले लिया। 20 मार्च, 2008 को राजस्व बोर्ड ने चौंकाने वाला आदेश देते हुए जमीन पर कंपनी का अधिकार मान लिया। बोर्ड के आदेश पर गंभीर सवाल उठाते हुए रिपोर्ट साफ कहती है, राजस्व बोर्ड ने 1981 के हाइकोर्ट के जिस आदेश को आधार बनाया है, उस आदेश को 1991 में ही सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका था। दूसरे, बोर्ड में सुनवाई के दौरान शासन के वकील खड़े होकर पूरी तरह शासन के खिलाफ और आवेदक के पक्ष में बोल रहे हैं। ग्वालियर डेयरी को फायदा पहुंचाने के लिए पूरा प्रशासनिक पक्ष लामबंद था। सरकार को जो जमीन मिली भी है, वह कुछ इस तरह जैसे कि कंपनी उसे दान में दे रही हो। हालांकि इसमें एक खतरा है। कंपनी कल को चुनौती दे सकती है कि जब सरकार इस जमीन को कंपनी की नहीं मानती तो दान किस आधार पर करा रही है। जंगल की 7,987 एकड़ जमीन पर आश्रम हरदा जिले के टिमरनी के पास जंगल की 7987.80 एकड़ जमीन राधास्वामी सत्संग सभा के पास है। यहां राजाबरारी एस्टेट की इस जमीन पर विवाद है, जो पूरी की पूरी संरक्षित वन क्षेत्र में आती है। इस मामले में राधास्वामी सत्संग सभा का दावा है कि मध्य प्रदेश भूराजस्व अधिनियम के तहत उसके पास लीज के सभी अधिकार और सुविधाएं हैं। सभा के मुताबिक सरकार के साथ उसका मूल करारनामा 195& में और फिर 1956 में पूरक करारनामा हुआ। सभा यहां राधास्वामी ट्रेनिंग, एम्पलायमेंट और आदिवासी उत्थान संस्थान भी चलाती है। रिपोर्ट के मुताबिक,लीज का 195& और 1956 में पंजीयन होना था। हुआ नहीं। लीज 195& और 1956 में स्टांपित ही नहीं थी। सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसके तहत, जमीन के गैरवानिकी मकसद से प्रयोग की इजाजत नहीं थी। रिपोर्ट कहती है कि ऐसे में वन भूमि घोषित होने के बाद लीज मान्य नहीं होगी। लीज रद्द की जाए। लेकिन सभा के सचिव गुरमीत सिंह कहते हैं, सारे आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं। सभा के काम की तारीफ उ'च अधिकारी और कैबिनेट स्तर के मंत्री तक कर चुके हैं। मामला राजस्व बोर्ड में विचाराधीन है। वैसे भी राÓय सरकार का अधिकारी सरकार के शीर्ष स्तर के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता। नजूल की जमीन की धड़ाधड़ रजिस्ट्रियां होशंगाबाद जिले के इटारसी शहर में ऐसे 114 मामलों का खुलासा हुआ है जहां 1985 से अक्तूबर, 2010 के बीच नजूल की जमीन रजिस्ट्री कर बेची गई। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, इटारसी शहर में नजूल शीट नंबर 6 और & के प्लॉट नंबर &/1 रकबा 1,41,9&5 वर्ग फुट जमीन एच.ए. राजा और ए.ए. सैफी के नाम दर्ज है। राजा की मौत वर्षों पहले हो चुकी है लेकिन नजूल रिकॉर्ड में उनके वारिसों के नाम दर्ज नहीं हैं। हातिम अली के बेटे जमीन पर नाम चढ़ाए बगैर फर्जी तरीके से जमीन की रजिस्ट्री कर शासन की कीमती जमीन बगैर हस्तांतरण के बेच रहे हैं, जबकि पट्टा निरस्त हो चुका है। इटारसी में इस अवैध जमीन को खरीदने वालों में भोपाल के कुछ राजनीतिक परिवार शामिल हैं। नजूल प्रकरण पर वे कहते हैं, पूरे प्रदेश में नजूल की जमीन को अवैध तरीके से बेचने के मामले सामने आ रहे हैं। इसके लिए पूरे प्रदेश में व्यापक गाइडलाइन तैयार करनी होगी। जालसाज और अफसरों पर कार्रवाई नहीं प्रदेश में चल रहे जमीन के गोरखधंधे की परतें सामने आने के बाद भी सरकार दोषी अफसरों और जालसाजों पर कार्रवाई नहीं कर रही है।

मप्र में 10 फीसदी को भी नहीं मिला 100 दिन का रोजगार

7 साल में 28&8 करोड़ का गोलमाल,भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक
भोपाल। जिस मनरेगा योजना से हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलने का दावा किया गया, मध्य प्रदेश उसकी जमीनी हकीकत आप देखेंगे तो चौंक जाएंगे। पौने दो लाख करोड़ की इस योजना में भ्रष्टाचार का दीमक लग गया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में मनरेगा के फंड का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। वहीं मध्यप्रदेश में मजदूरों के साथ धोखा हो रहा है। ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड है, लेकिन उनके पास काम नहीं है। लगभग 7 करोड़ की जनसंख्या वाले मप्र में 10 फीसदी यानी 6 हजार 805 लोगों को ही 100 दिन का रोजगार मिल सका है। जबकि प्रारंभिक आंकलन में मध्यप्रदेश में 28&8 करोड़ का गोलमाल किया गया है। इतनी बडी रकम के भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक की मिलीभगत है।
मनरेगा की हालत क्या है इस पर नजर डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2012-1& में प्रदेश की 1&0& जनपदों के अधीन 2& हजार ग्राम पंचायतों में पिछले साल तक 14 लाख से Óयादा काम मनरेगा में किए गए। इनमें से 2 लाख काम राÓय रोजगार गारंटी परिषद की नजर में संदेह के घेरे में आए। डेढ़ लाख कामों के बारे में आज भी जांच जारी है। महाकोशल के 8 जिलों में दो साल के दौरान 2 लाख के Óयादा काम पूरे नहीं हो सके। वहीं बैतूल जिले के घोड़ाडोंगरी में इस साल मनरेगा के तहत बने एक दर्जन स्टॉपडेम की हालत खराब हो गई। जिन लोगों ने स्टॉपडेम बनवाए, उन्होंने डेम खराब होने के पहले ही इस्तीफे दे दिए। सीधी जिले के 5 विकासखण्डों में सिर्फ251 परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिल सका। कलेक्टरों के पास हर जनसुनवाई में मनरेगा की इतनी शिकायतें पहुंचीं कि कार्रवाई हो तो प्रदेश की ग्राम पंचायतों में से आधे से Óयादा सरपंच और सचिव पद से हाथ धो बैठें। इस योजना में काम कर चुके एक वरिष्ठ परियोजना अधिकारी के मुताबिक किसी भी जिले में दर्ज जॉब कार्डधारी परिवारों में से सिर्फ 10 प्रतिशत को ही 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। साल 201&-14 की वास्तविक रिपोर्ट के आधार पर यह पता चला कि प्रदेश में 6 हजार 805 लोग ही ऐसे थे, जिन्हें 100 दिन काम मिला। 15 दिन से कम काम मिलने वालों की संख्या 5 लाख 14 हजार के आसपास दर्ज की गई। जबकि प्रदेश के सभी 50 जिलों में एक या दो दिन काम करने वाले 2 करोड़ से Óयादा मजदूर शामिल हैं। इन सभी जिलों में साल की शुरुआत के दौरान 5 हजार 527 लाख रुपये बचे हुए थे। नए काम के लिए फिर से इन जिलों को &6 हजार 616 लाख रुपये मिल गए। लेकिन खर्च सिर्फ 10 हजार 485 लाख ही किए जा सके।
मध्यप्रदेश में 208& करोड़ का भ्रष्टाचार
केंद्र सरकार की महात्मा गांधी राष्टीय रोजगार योजना में खुलकर भ्रष्टाचार किया गया है। केवल कागजों पर कुओं,तालाब और स्टॉप डैम का निमार्ण हुआ है। मध्यप्रदेश में 28&8 करोड़ का गोलमाल किया गया है। मध्यप्रदेश में शुरू हुई कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 2.5 लाख कुओं में से Óयादातर कुएं खोदे ही नहीं गए। प्रस्तावित स्थलों का जब जांच के दौरान मुआयना किया गया तो वहां कागजों में कपिलधारा योजना के तहत कुओं का निर्माण पूर्ण बताया गया है। लेकिन जांच अधिकारी यह देखकर चौक गए कि कागजों में खुदे कुएं, खेत में थे ही नहीं।
5& लाख झूठे जॉबकार्ड
यहां भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मनरेगा के तहत मध्य प्रदेश में 5& लाख झूठे जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इस बात की आशंका केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल पूर्व में ही जता चुके थे। मनरेगा के तहत बने झूठे जॉबकार्ड का हवाला देते हुए उन्होंने कहा था कि 5& लाख झूठे जॉबकार्ड बने हैं, मगर किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है। इससे नुकसान किसका और फायदा किसे हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है।
प्रशासनिक व्यय में मनमानी
सीएजी की संस्था महालेखाकार (एजी)ने प्रदेश में करोड़ों के भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक व्यय में मनमानी सहित केंद्र से मांगी गई राशि को खर्च नहीं कर पाने का खुलासा किया है। साथ ही उपयोगिता प्रमाण पत्र के नाम पर भी किए गए भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को नहीं भेजी गई, वहीं कुछ मामलों में वास्तविक खर्च से अधिक राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र भेजी गई है। यह खुलासा आरटीआई के तहत प्राप्त एजी रिपोर्ट के बाद हुआ है। यह रिपोर्ट वर्ष 2011 -2012 की है। इस निरीक्षण प्रतिवेदन को तैयार कर ग्वालियर कार्यालय ने फरवरी 201& में उचित कार्रवाई के लिए मप्र मनरेगा परिषद को भेजा था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। रिपोर्ट की मानें तो मप्र में मनरेगा की स्थिति काफी बदहाल है। यही नहीं इसको लेकर प्रदेश सरकार और निगरानी के लिए कार्यरत मनरेगा परिषद की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े हुए हैं।
रिपोर्ट में सामने आए भ्रष्टाचार के नमूने
रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा परिषद ने योजना की उचित मॉनिटरिंग नहीं की, जिस कारण मजदूरों को योजना का लाभ नहीं मिला। 8 जिलों में मजदूरी और सामग्री के लिए निर्धारित अनुपात में व्यय का पालन न करते हुए सामग्री पर 40 प्रतिशत से Óयादा राशि 1626&.27 लाख रुपए खर्च की गई। मनरेगा परिषद ने उचित बजट प्रस्ताव न बनाते हुए केंद्र सरकार से करोड़ों की राशि की और उसे खर्च ही नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार परिषद् द्वारा बनाया गया बजट तथ्यों पर आधारित न होकर अवास्तविक और आधारहीन रूप से तैयार किया गया था। इसके कारण वर्ष 2011-12 के अंत तक करीब 191492.51 लाख रुपए की राशि शेष रही। योजना के तहत मजदूरी का भुगतान बेहद विलंब 90 दिनों के बाद 7 लाख &7 हजार 688 मजदूरों को रुपए 85887.91 लाख रुपए किया गया। मनरेगा परिषद ने शासकीय और अशासकीय संस्थाओं को विशेष प्रयोजनों के लिए 64.&7 लाख रुपए की जो राशि अग्रिम दी थी, उसका समायोजन नहीं किया। परिषद ने इन संस्थाओं से उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं लिया। वर्ष 2011-12 में &0 जिलों ने प्रशासनिक व्यय 6 प्रतिशत से अधिक किया, जो की करीब &850.21 लाख रुपए Óयादा खर्च किया। रिपोर्ट के अनुसार इस कारण योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका। मनरेगा परिषद ने वर्ष 2011-12 का वास्तविक उपयोग से अधिक राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र सरकार को जारी कर दिया। यह राशि 1190&.89 लाख रुपए थी। ग्रामीण विकास मंत्री और मनरेगा आयुक्त के गृह जिलों में बुंदेलखंड पैकेज की राशि का सदुपयोग नहीं हुआ। अनावश्यक सरकारी धन को अवरुद्ध रखा गया, जिससे गरीब हितग्राहियों का पलायन नहीं रुका। इससे अन्य जिलों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 5 साल से नहीं हुई गवर्निंग बॉडी की बैठक प्रदेश में मनरेगा परिषद की गवर्निंग बॉडी की बैठक पिछले पांच सालों से नहीं हुई। बॉडी के अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री हैं, जबकि प्रदेश के मुख्य सचिव परिषद् की कार्यकारणी सभा के प्रमुख हैं और उन्होंने कभी भी उपरोक्त अनियमितताओं पर रोक नहीं लगाई।
97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं
प्रदेश में अब ताजा मामला मजदूरों को समय पर मजदूरी नहीं देने का है। इसमें 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर मजदूरी देने की बात सामने आई है। ये आंकड़े बताते हैं कि Óयादातर जिलों मे मजदूरों को भुगतान बहुत ही कम हो रहा है। आलम यह है कि भिंड में तो मात्र 1 प्रतिशत ही मजदूरी का भुगतान हुआ है। विभाग की लापरवाही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण मनरेगा के समस्त कार्य ठप हैं। इसका कारण सरकार द्वारा 1 अप्रैल 201& से मनरेगा योजना के तहत सभी भुगतान के लिए इलेक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) लागू किया था। यह व्यवस्था बहुत अ'छे उद्देश्य के तहत पारदर्शिता के लिए लायी गई है, लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों के षडय़ंत्र के कारण इस योजना को लागू होने के फौरन बाद यह चौपट हो गई, जिससे प्रदेश के लाखों गरीब मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में कई मजदूरों के घरों में चूल्हें नहीं जल पा रहे हैं। फिर भी नहीं की कार्रवाई बताया जाता है कि मनरेगा के तहत ईएफएमएस से मजदूरी भुगतान का कार्य ठप होने की जानकारी विभागीय अमले की थी, लेकिन फिर भी विभाग द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई और सिस्टम की खामी को दूर करने का प्रयास नहीं किया गया। राÓय स्तरीय विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग समिति, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, मप्र शासन के सदस्य अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में मनरेगा की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहां पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार चल रहा है। सबसे गंभीर बात यह है कि मनरेगा परिषद जिस पर निगरानी और कार्रवाई का जिम्मा है, जब वह ही उदासीन है, तो मनरेगा में भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है। एजी की रिपोर्ट में बड़े खुलासे हुए हैं। अब सरकार को इसकी सीबीआई से जांच कराना चाहिए।
मनरेगा में विसंगतियां
समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होना। मनरेगा के नियमों के मुताबिक 10 दिन के भीतर मजदूरी का भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पहले काम करना पड़ता है, फिर मस्टर रोल चेक होते हैं, तब इंजीनियर और सरपंच-सचिव उस मजदूरी को फाइनल करते हैं। फिर बैंक के खाते में मजदूरी ट्रांसफर होती है। बैंक भी समय पर मजदूरी दे सकें, इसकी कोई गारंटी नहीं। बैंकर्स के पास इतनी बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं नहीं हैं कि हर गांव के आसपास मजदूरी का भुगतान समय पर किया जा सके। हर स्तर पर मॉनीटरिंग के चलते रिकॉर्ड रखना भी एक बड़ी समस्या है। इसके चलते कई विभाग इस योजना में हाथ नहीं डालना चाहते। ग्राम पंचायत स्तर पर जब लेबर बजट बनता है तो कोई इस काम में मदद नहीं करता। सिर्फ सरपंच और सचिव के भरोसे काम के प्रस्ताव बना लिए जाते हैं। गांव में रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि आखिर उनके लिए क्या बनने वाला है और मजदूरों को कितना काम मिलेगा। विकास के नाम पर चलने वाले बड़े प्रोजेक्ट में सालभर का काम आसानी से मिल जाता है। दूसरे विकासशील और विकसित माने जाने वाले प्रदेशों में मजदूरों की डिमाण्ड होने से पलायन हो रहा है। योजना में सिर्फ अधिकतम 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। जबकि मजदूर को अपने परिवार का पेट पालने के लिए साल में &00 दिन का रोजगार चाहिए।
बदलाव की कोशिश
प्रदेश में पिछले साल तक 1 करोड़ 20 लाख जॉबकार्ड थे। इनमें से ऐसे जॉबकार्ड को छांटा गया, जिनमें कभी काम नहीं मांगा गया। आज की स्थिति में 7& लाख खाताधारक मजदूर ही बचे हैं। पूरे सिस्टम को ऑनलाइन करने की कोशिश की गई है। प्रदेश में 15 हजार बैंक शाखाओं में रकम भेजी जा रही है। मजदूरों के समूह बनाए जा रहे हैं और पिछले सालों में जो काम नहीं होते थे, उन्हें शामिल कर सेल्फ ऑफ प्रोजेक्ट यानि खुद का काम करो और मजदूरी मनरेगा से लो की कोशिश भी शुरू की गई है। सवा दो लाख मजदूरों के समूह तैयार किए गए हैं। लेकिन आज भी इतनी लंबी प्रक्रिया अपनाई जा रही है कि काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ा पाना मुश्किल बना हुआ है।
1 लाख 61 हजार 214 काम
मनरेगा के पूरे सिस्टम को ऑनलाइन किया गया है। हर स्तर पर मजदूरों को काम आसानी से मिले इसके लिए काम भी बढ़े हैं। हर पंचायत की मॉनीटरिंग शुरू हो चुकी है। सीधे खाते में मजदूरी भुगतान करने से मजदूरों का रुझान बढ़ा है। काम की डिमाण्ड मजदूर करें इसके भी प्रयास शुरू किए गए हैं। -डॉ. रविन्द्र पस्तौर, आयुक्त मनरेगा
जितना भी भ्रष्टाचार मनरेगा में हुआ है या हो रहा है, वह सिर्फ मजदूरी भुगतान में है। जितनी रकम खर्च की जाती है उसमें से 90 प्रतिशत सामग्री पर हो रही है तो फिर मजदूरी के लिए रकम कैसे बचेगी। काम की मांग के आधार पर काम दिया जाता है, लेकिन जब काम ही नहीं शुरू होंगे तो मजदूर क्या करेगा।
-किशोर दुआ, सामाजिक कार्यकर्ता

बुधवार, 12 मार्च 2014

अब दूर बैठे अपनों को भी भेजें रंग-गुलाल

जन्मदिन हो या सालगिरह, होली हो या दीपावली अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को उपहार देने का चलन पिछले कुछ सालों से काफी बढ़ गया है। हर कोई अपने प्रिय को उपहार देकर बधाई देने से पीछे नहीं रहता। अगले हफ्ते आने वाली होली के लिए भी रंग, गुलाल, पिचकारी की शॉपिंग लोगों ने कर ली है और गिफ्ट शॉप से होली गिफ्ट की खरीदी भी। पास रहने वालों को तो पंसद का गिफ्ट दिया जा सकता है, पर प्रियजन हजारों मील दूर हो तो... उन्हें भी होली का तोहफा देने के लिए अब परेशान होने की जरूरत नहीं है। इंटरनेट के जमाने में होली के गिफ्ट भी अब कम्प्यूटर पर ही उपलब्ध हैं। पिछले कुछ समय से दीपावली, राखी, भाई दूज पर ऑनलाइन गिफ्ट भेजने का चलन था। और अब तो होली के लिए भी ऑनलाइन गिफ्ट मौजूद है। इंटरनेट पर दर्जनों वेबसाइट मौजूद हैं, जिसके जरिए बस एक क्लिक से होली की मिठाइयां और गुलाल रिश्तेदारों तक पहुंचाया जा सकता है। कॉम्बो में भी ढेरों आप्शन ऑनलाइन गिफ्ट और बधाई भेजने के लिए इन वेबसाइट्स में कई तरह के काम्बो ऑफर भी मिल रहे हैं। इसमें मिठाई, चाकलेट, ग्रीटिंग कार्ड्स, ठंडाई, ट्रेडिशनल व्यंजन के साथ ही रंग, गुलाल, पिचकारी, होली कैप, सीटी और बहुत सी चीजें उपलब्ध हैं। छह सौ रुपए से शुरू होने वाले इन गिफ्ट्स काम्बो में कलर व मिठाई के साथ-साथ कई आकर्षक तोहफे भी हैं। हर्बल कलर, गुझिया, चाकलेट्स जैसे काम्बो वेबसाइट्स में अलग-अलग कीमत में उपलब्ध है। जैसे गुझिया, ठंडाई पैकेट, गुलाल काम्बो की कीमत 1630 रुपए है। वहीं टैडी बियर विद पिचकारी काम्बो की रेंज पांच हजार है। गिफ्ट शॉप में भी काफी कुछ ऑनलाइन गिफ्ट भेजने के लिए जहां ढेरों वेबसाइट्स मौजूद हैं, वहीं दुकानों पर भी होली के तोहफे का काफी अच्छा कलेक्शन देखा जा सकता है। खुशी गिफ्ट्स शॉप के संचालक राकेश केडिया ने बताया कि अब तो हर मौके के लिए गिफ्ट मार्केट में आसानी से उपलब्ध होते हैं, जिसका चलन कुछ साल पहले तक नहीं था। होली में ज्यादातर अपने फ्रैंड्स को फनी गिफ्ट देना पसंद करते हैं, इसमें ऐसी चॉकलेट जिसे खाने से दांत रंगीन हो जाते हैं, ऐसी चॉकलेट जिसे खाने से मिर्च लगती है, जैसे गिफ्ट हैं। राकेश ने बताया कि इन सबके अलावा होली ग्रीटिंग कार्ड, कलर्डफूल बॉक्स में पैक्ड गुलाल सहित कई गिफ्ट हैं। ऑनलाइन गिफ्ट्स में खास क्रेजी होली काम्बो- 499 क्यूट होली काम्बो-699 हर्बल गुलाल विद स्वीट्स-699 होली ट्रे- 949 ऑनलाइन गिफ्ट्स वेबसाइट्स 0 इंडियन गिफ्ट्स पोर्टल डाट काम 0 होली फेस्टिवल डाट ओआरजी 0 गिफ्ट्स टू इंडिया ऑनलाइन डाट काम

युवाओं और महिलाओं पर दलों का दांव

रायपुर। छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव के दौरान इस बार महिलाओं के साथ-साथ युवा मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाएंगे। छह माह पहले हुए विधानसभा चुनाव के बाद मतदाता सूची में करीब आठ लाख नए मतदाताओं के नाम जोड़े गए हैं। इनमें से छह-सात लाख 18 से 19 साल की उम्र वाले युवा मतदाता हैं, जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। भाजपा व कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियों की नजर महिला व युवा वोट बैंक पर टिक गई हैं। महिला व युवा वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा व कांग्रेस अभी से जुट गई हैं। कांग्रेस ने तो छत्तीसगढ़ की ग्यारह सीटों में से नौ सीटों के लिए घोषित उम्मीदवारों की पहली सूची में तीन महिलाओं को टिकट देने के साथ ही युवाओं पर भी भरोसा जताया है। छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में पहली बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने एकसाथ तीन महिलाओं को टिकट दिया है। हालांकि पिछले चुनाव में भाजपा ने तीन महिलाओं को मैदान में उतारा था, जिनमें से दो महिलाएं संसद पहुंचने में सफल रहीं। छत्तीसगढ़ में कुल एक करोड़ 75 लाख से अधिक मतदाता हैं। इनमें 86 लाख 46 हजार महिला और 88 लाख 81 हजार पुरुष मतदाता हैं। जबकि 2009 के लोकसभा आम चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में कुल एक करोड़ 54 लाख मतदाताओं में से 76 लाख 25 हजार महिला और 78 लाख 45 हजार पुरुष मतदाता थे। केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा भी युवा मतदाताओं को मतदान के प्रति जागरूक करने के लिए प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। इस साल लोकसभा चुनाव में पहली बार हुआ कि चुनाव तिथि की घोषणा के बाद मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए बूथ स्तर पर विशेष शिविर लगाए गए। इसमें लोगों ने उत्साह भी दिखाया। आदिवासी बहुल कांकेर व बस्तर में महिला वोटर ज्यादा छत्तीसगढ़ की ग्यारह लोकसभा सीटों में से आदिवासी बहुल बस्तर व कांकेर में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। ये दोनों सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इन इलाकों में मतदान का प्रतिशत बेहतर रहा है। आंकड़ों के मुताबिक पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मतदान का प्रतिशत ज्यादा रहा है। बस्तर लोकसभा क्षेत्र में कुल 12 लाख 35 हजार 479 मतदाता हैं, जिनमें से 6 लाख 62 हजार 956 महिला व छह लाख 31 हजार 557 पुरुष हैं। कांकेर लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं की कुल संख्या 14 लाख 42 हजार 279 है। इनमें से महिला मतदाता सात लाख 22 हजार 537 व पुरुष मतदाता सात लाख 19 हजार 731 हैं। रायपुर सीट में सर्वाधिक वोटर छत्तीसगढ़ की रायपुर लोकसभा सीट में सबसे अधिक 18 लाख 75 हजार 452 मतदाता हैं। जबकि सबसे कम मतदाता बस्तर लोकसभा क्षेत्र में 12 लाख 94 हजार 546 मतदाता हैं। दुर्ग लोकसभा क्षेत्र में भी मतदाताओं की संख्या 18 लाख 43 हजार से ऊपर है। 1535 थर्ड जेंडर मतदाता लोकसभा चुनाव में थर्ड जेंडर मतदाताओं की संख्या भी काफी है। पूरे प्रदेश में 1535 थर्ड जेंडर मतदाता हैं। रायपुर में सबसे अधिक 283 थर्ड जेंडर मतदाता हैं। जबकि कांकेर लोकसभा क्षेत्र में सबसे कम केवल 11 थर्ड जेंडर मतदाता हैं।

सल्तनत पाने बेकरार बलखड़िया

चुनाव, तेंदूपत्ता और महुए की फसल अच्छी आने के साथ ही 6 लाख का ईनामी स्वदेश सिंह बलखड़िया अपने 14 सदस्यीय गिरोह के साथ ददुआ एवं सुंदर की तराई के जंगलों में कायम सल्तनत पर कब्जा पाने को बेकरार दिख रहा है। असल में चुनाव में प्रत्याशी से आर्थिक लाभ डकैतों द्वारा वसूला तो जाता ही है और तेंदूपत्ता तुड़ाई का ठेका लेने वाले ठेकेदारों से भी रंगदारी की भी मांग की जाएगी। जिससे ही बलखड़िया गिरोह ने अपनी गतिविधि बड़ा दी हैं। गिरोह की गतिविधिया बढ़ने में एक कारण महुआ भी है। असल में जिले के जवा एवं त्योंथर तहसील सेमरिया के जंगल सतना जिले के मझगवां, नागौद, ऊंचेहरा, यूपी के चित्रकूट, मानिकपुर, बांदा, कर्वी एवं हड़हाई के जंगल में महुआ के पेड़ बहुतायत संख्या में है। जिसके बिनाई का काम टेंडर में वन समितियों द्वारा लिया जाता है। उक्त महुए पर भी डकैतों की नजर बनी रहती है।
रीवा जिले के जंगलों की सीमा यूपी के जंगलों से लगी हुई है। लिहाजा इन जंगलों में लंबे समय से डकैतों का अधिपत्य रहा है। चुनाव की घोषणा होने के बाद अब जंगलों में डकैतों की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। सुगबुगाहट का अंदाजा डकैतों द्वारा कुछ दिनों से की जा रही घटनाओं से लगाया जा सकता है। सूत्रों की माने तो डकैत इन दिनों जंगल में चुनाव नजदीक आने के साथ-साथ तेंदूपत्ता और महुआ अच्छा होने से जश्न मना रहे है। डकैत अपना मनोरंजन के लिए तमंचे पर डिस्कों पर भी कर रहे है। उत्तर प्रदेश से लगी सीमा मानिकपुर व मझगवां के बीच रह-रहकर बलखड़िया गिरोह की मूवमेंट न केवल देखने को मिल रही है बल्कि उनके द्वारा दहशत फैलाने की नीयत से विगत एक महीने के अंदर तीन से अधिक वारदात को अंजाम भी दिया जा चुका है। चुनाव में जहां वैलेट को सजातीय नेताओं के पक्ष में लाने के लिए बुलट का इस्तेमाल गिरोह द्वारा किया जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ गिरोह के अन्य भी उद्देश्य हैं। जिससे न केवल गिरोह की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। बल्कि सालों से उन्हें जंगल की रंगदारी मिलती रही है। पुलिस एम्बुस लगाकर जंगल सर्चिंग करने की बात करती है। लेकिन एडिश के जानकारों की माने तो यह सर्चिंग सिवाय सड़कों के अलाव कहीं भी होती नहीं दिखाई देती है।
वारदात से करते अपना प्रचार
प्रशासन खुलेतौर पर प्रचार करने को ही प्रचार करना मानता है। लेकिन लम्बे समय से तराई के लिए कैंसर साबित हो रही दस्यु समस्या अब बढ़ती जा रही है। एक डकैत के मरने के बाद दूसरे डकैत को न पनपने का दावा पुलिस प्रशासन करता है, लेकिन उनका दावा हर बार फेल हो जाता है। दस्यु सम्राट बनने की होड़ में जुटे बलखड़िया गिरोह के प्रचार करने का अंदाज ही कुछ अलग है। वारदात को अंजाम देना या फिर यूपी के ग्राम प्रधानों को धमकाकर प्रचार करना फितरत में शामिल हो चुका है। जिससे प्रशासन प्रचार की श्रेणी में नहीं मानता है। लेकिन यही वह जरिया है जिसके चलते तकरीबन तराई अंचल के 29 फीसदी मतों बुलट का साया पड़ता है।
बढ़ सकता है ईनाम
सुन्दर के मरने के बाद स्वदेश सिंह बलखड़िया तराई अंचल का सबसे बड़ा ईनामी डकैत बन गया है। स्वदेश सिंह बलखड़िया पर उत्तर प्रदेश सरकार ने 5 लाख एवं मप्र सरकार ने 1 लाख का दांव लगाया है। कहने के लिए तो उत्तर प्रदेश की एसटीएफ टीम उक्त डकैत के इनकाउण्टर के लिए मोर्चा सम्हाल रखी है। दो दिन पूर्व मुखबिर की सटीक सूचना पर एसटीएफ की मुठभेड़ भी बैलपुरवा चौकी अंतर्गत धमनी नामक नाले के समीप हुई थी। लेकिन अंधेरे का लाभ उठाकर गिरोह भागने में कामयाब हो गया था।
ये हैं सुगबुगाहट के संकेत
- दो दिन पूर्व मारपीट-अतर्रा थाना अंतर्गत ग्राम करसूमा के पंचपेड़ियापुर टोला में लेबर तपके के तकरीबन आधा दर्जन युवकों के साथ बलखड़िया गिरोह के सदस्यों ने मारपीट की है। सूचना पाकर मौके पर पहुंची यूपी पुलिस ने घेराबंदी कर गिरोह के सदस्यों को पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन गिरोह पुलिस के हाथ नही लग पाये।
- गैंगमैन सहित कर्मचारियों के साथ की थी मारपीट- चुनाव को देखते हुए दहशत फैलाने की नीयत से बलखड़िया गिरोह ने फरवरी के प्रथम सप्ताह में टिकरिया रेलवे स्टेशन पर कार्यरत गैंगमैन सहित कर्मचारियों के साथ मारपीट कर न केवल रंगदारी वसूल की थी बल्कि उन्हें साफ लहजे में चेतावनी दी थी कि यहां सपा का राज नहीं बल्कि दस्यु सम्राट की हुकूमत चलती है।
- हांक ले गए थे बकरियां-विश्वस्थ सूत्रों की माने तो सेमरिया थाना अंतर्गत कटई जंगल में बकरी चराने गए ददई प्रसाद पाल को गिरोह के सदस्यों ने मारपीट कर घायल करने के बाद 30 बकरियां हाक ले गए थे। हालांकि शुरूआती दिनों में छोटे-मोटे अपराधियों द्वारा वारदात को घटित करना माना जा रहा था। लेकिन सशस्त्र गिरोह के सदस्य व मोबाइल टॉवर लोकेशन के बाद एडी के जानकार इस गतिविधि को गिरोह से जोड़कर देख रहे हैं।
- टेंडर के पहले रंगदारी- वन विभाग द्वारा जारी निविदा के अनुसार तेंदूपत्ता की तुड़ाई कराने का काम लेने वाले ठेकेदार सुल्तान खान ने बताया कि अभी उन्हें ठेका मिला भी नहीं है, लेकिन एक अननोन नंबर से कॉल आया था कि ठेका तभी लेना जब तुम्हे 3 लाख की रंगदारी देनी हो। हालांकि उनके द्वारा इसकी रिपोर्ट थाने में दर्ज नहीं कराई गई है। उनका कहना है कि ठेका मिलने के बाद अगर पुनः रंगदारी के लिए फोन आता है तो मामला दर्ज कराएंगे।
गिरोह की क्या बात की जाए। गिरोह कभी एमपी तो कभी यूपी के बीच में स्थित जंगलों में देखा जाता है। यह तेंदूपत्ता या चुनाव में असर पहुंचाएंगे यह तो तय है। बस इंतजार इस बात का है कि सही सूचना, सटीक टाइम एवं समतल मैदान में मुठभेड़ होने के साथ ही बलखड़िया का चेप्टर खत्म हो जाएगा।
-जवाहर, पुलिस कप्तान, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश
अब गिरोह है वारदात को अंजाम देता है तो कायमी होती है। हम तलाश कर रहे हैं मिलने के साथ ही मामला फाइनल होगा। मुखबिरों का जाल फैला है, एसटीएफ भी काम रही है। अगर समय अच्छा रहा तो परिणाम जल्द ही बेहतर होंगे।
अरविंद सेन, पुलिस कप्तान, बांदा उत्तर प्रदेश।
तीनों ही बातें महत्वपूर्ण हैं। चुनाव तेंदूपत्ता व महुआ को लेकर डकैतों के मूवमेंट बढ़ते हैं। जिसे देखते हुए तराई में एलर्ट घोषित किया गया है। सर्चिंग जारी है। सूचना इकठ्ठा की जा रही है। दो दिन पूर्व मैं स्वयं जंगल की सर्चिंग में था।
-केसी जैन, डीआईजी, सतना
डकैत चुनाव को प्रभावित न करें इसके लिए दिशा-निर्देश दिए जा चुके हैं। सर्चिंग जारी है और लगातार तराई अंचल पर नजर बनी हुई है। मुखबिरों को और टटस करने का काम किया जा रहा है। अगर सटीक सूचना हाथ लगी तो इनकाउंटर से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
-पवन श्रीवास्तव, आईजी, रीवा रेंज