शुक्रवार, 21 मार्च 2014

मप्र में 10 फीसदी को भी नहीं मिला 100 दिन का रोजगार

7 साल में 28&8 करोड़ का गोलमाल,भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक
भोपाल। जिस मनरेगा योजना से हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलने का दावा किया गया, मध्य प्रदेश उसकी जमीनी हकीकत आप देखेंगे तो चौंक जाएंगे। पौने दो लाख करोड़ की इस योजना में भ्रष्टाचार का दीमक लग गया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में मनरेगा के फंड का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। वहीं मध्यप्रदेश में मजदूरों के साथ धोखा हो रहा है। ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड है, लेकिन उनके पास काम नहीं है। लगभग 7 करोड़ की जनसंख्या वाले मप्र में 10 फीसदी यानी 6 हजार 805 लोगों को ही 100 दिन का रोजगार मिल सका है। जबकि प्रारंभिक आंकलन में मध्यप्रदेश में 28&8 करोड़ का गोलमाल किया गया है। इतनी बडी रकम के भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक की मिलीभगत है।
मनरेगा की हालत क्या है इस पर नजर डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2012-1& में प्रदेश की 1&0& जनपदों के अधीन 2& हजार ग्राम पंचायतों में पिछले साल तक 14 लाख से Óयादा काम मनरेगा में किए गए। इनमें से 2 लाख काम राÓय रोजगार गारंटी परिषद की नजर में संदेह के घेरे में आए। डेढ़ लाख कामों के बारे में आज भी जांच जारी है। महाकोशल के 8 जिलों में दो साल के दौरान 2 लाख के Óयादा काम पूरे नहीं हो सके। वहीं बैतूल जिले के घोड़ाडोंगरी में इस साल मनरेगा के तहत बने एक दर्जन स्टॉपडेम की हालत खराब हो गई। जिन लोगों ने स्टॉपडेम बनवाए, उन्होंने डेम खराब होने के पहले ही इस्तीफे दे दिए। सीधी जिले के 5 विकासखण्डों में सिर्फ251 परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिल सका। कलेक्टरों के पास हर जनसुनवाई में मनरेगा की इतनी शिकायतें पहुंचीं कि कार्रवाई हो तो प्रदेश की ग्राम पंचायतों में से आधे से Óयादा सरपंच और सचिव पद से हाथ धो बैठें। इस योजना में काम कर चुके एक वरिष्ठ परियोजना अधिकारी के मुताबिक किसी भी जिले में दर्ज जॉब कार्डधारी परिवारों में से सिर्फ 10 प्रतिशत को ही 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। साल 201&-14 की वास्तविक रिपोर्ट के आधार पर यह पता चला कि प्रदेश में 6 हजार 805 लोग ही ऐसे थे, जिन्हें 100 दिन काम मिला। 15 दिन से कम काम मिलने वालों की संख्या 5 लाख 14 हजार के आसपास दर्ज की गई। जबकि प्रदेश के सभी 50 जिलों में एक या दो दिन काम करने वाले 2 करोड़ से Óयादा मजदूर शामिल हैं। इन सभी जिलों में साल की शुरुआत के दौरान 5 हजार 527 लाख रुपये बचे हुए थे। नए काम के लिए फिर से इन जिलों को &6 हजार 616 लाख रुपये मिल गए। लेकिन खर्च सिर्फ 10 हजार 485 लाख ही किए जा सके।
मध्यप्रदेश में 208& करोड़ का भ्रष्टाचार
केंद्र सरकार की महात्मा गांधी राष्टीय रोजगार योजना में खुलकर भ्रष्टाचार किया गया है। केवल कागजों पर कुओं,तालाब और स्टॉप डैम का निमार्ण हुआ है। मध्यप्रदेश में 28&8 करोड़ का गोलमाल किया गया है। मध्यप्रदेश में शुरू हुई कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 2.5 लाख कुओं में से Óयादातर कुएं खोदे ही नहीं गए। प्रस्तावित स्थलों का जब जांच के दौरान मुआयना किया गया तो वहां कागजों में कपिलधारा योजना के तहत कुओं का निर्माण पूर्ण बताया गया है। लेकिन जांच अधिकारी यह देखकर चौक गए कि कागजों में खुदे कुएं, खेत में थे ही नहीं।
5& लाख झूठे जॉबकार्ड
यहां भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मनरेगा के तहत मध्य प्रदेश में 5& लाख झूठे जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इस बात की आशंका केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल पूर्व में ही जता चुके थे। मनरेगा के तहत बने झूठे जॉबकार्ड का हवाला देते हुए उन्होंने कहा था कि 5& लाख झूठे जॉबकार्ड बने हैं, मगर किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है। इससे नुकसान किसका और फायदा किसे हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है।
प्रशासनिक व्यय में मनमानी
सीएजी की संस्था महालेखाकार (एजी)ने प्रदेश में करोड़ों के भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक व्यय में मनमानी सहित केंद्र से मांगी गई राशि को खर्च नहीं कर पाने का खुलासा किया है। साथ ही उपयोगिता प्रमाण पत्र के नाम पर भी किए गए भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को नहीं भेजी गई, वहीं कुछ मामलों में वास्तविक खर्च से अधिक राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र भेजी गई है। यह खुलासा आरटीआई के तहत प्राप्त एजी रिपोर्ट के बाद हुआ है। यह रिपोर्ट वर्ष 2011 -2012 की है। इस निरीक्षण प्रतिवेदन को तैयार कर ग्वालियर कार्यालय ने फरवरी 201& में उचित कार्रवाई के लिए मप्र मनरेगा परिषद को भेजा था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। रिपोर्ट की मानें तो मप्र में मनरेगा की स्थिति काफी बदहाल है। यही नहीं इसको लेकर प्रदेश सरकार और निगरानी के लिए कार्यरत मनरेगा परिषद की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े हुए हैं।
रिपोर्ट में सामने आए भ्रष्टाचार के नमूने
रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा परिषद ने योजना की उचित मॉनिटरिंग नहीं की, जिस कारण मजदूरों को योजना का लाभ नहीं मिला। 8 जिलों में मजदूरी और सामग्री के लिए निर्धारित अनुपात में व्यय का पालन न करते हुए सामग्री पर 40 प्रतिशत से Óयादा राशि 1626&.27 लाख रुपए खर्च की गई। मनरेगा परिषद ने उचित बजट प्रस्ताव न बनाते हुए केंद्र सरकार से करोड़ों की राशि की और उसे खर्च ही नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार परिषद् द्वारा बनाया गया बजट तथ्यों पर आधारित न होकर अवास्तविक और आधारहीन रूप से तैयार किया गया था। इसके कारण वर्ष 2011-12 के अंत तक करीब 191492.51 लाख रुपए की राशि शेष रही। योजना के तहत मजदूरी का भुगतान बेहद विलंब 90 दिनों के बाद 7 लाख &7 हजार 688 मजदूरों को रुपए 85887.91 लाख रुपए किया गया। मनरेगा परिषद ने शासकीय और अशासकीय संस्थाओं को विशेष प्रयोजनों के लिए 64.&7 लाख रुपए की जो राशि अग्रिम दी थी, उसका समायोजन नहीं किया। परिषद ने इन संस्थाओं से उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं लिया। वर्ष 2011-12 में &0 जिलों ने प्रशासनिक व्यय 6 प्रतिशत से अधिक किया, जो की करीब &850.21 लाख रुपए Óयादा खर्च किया। रिपोर्ट के अनुसार इस कारण योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका। मनरेगा परिषद ने वर्ष 2011-12 का वास्तविक उपयोग से अधिक राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र सरकार को जारी कर दिया। यह राशि 1190&.89 लाख रुपए थी। ग्रामीण विकास मंत्री और मनरेगा आयुक्त के गृह जिलों में बुंदेलखंड पैकेज की राशि का सदुपयोग नहीं हुआ। अनावश्यक सरकारी धन को अवरुद्ध रखा गया, जिससे गरीब हितग्राहियों का पलायन नहीं रुका। इससे अन्य जिलों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 5 साल से नहीं हुई गवर्निंग बॉडी की बैठक प्रदेश में मनरेगा परिषद की गवर्निंग बॉडी की बैठक पिछले पांच सालों से नहीं हुई। बॉडी के अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री हैं, जबकि प्रदेश के मुख्य सचिव परिषद् की कार्यकारणी सभा के प्रमुख हैं और उन्होंने कभी भी उपरोक्त अनियमितताओं पर रोक नहीं लगाई।
97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं
प्रदेश में अब ताजा मामला मजदूरों को समय पर मजदूरी नहीं देने का है। इसमें 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर मजदूरी देने की बात सामने आई है। ये आंकड़े बताते हैं कि Óयादातर जिलों मे मजदूरों को भुगतान बहुत ही कम हो रहा है। आलम यह है कि भिंड में तो मात्र 1 प्रतिशत ही मजदूरी का भुगतान हुआ है। विभाग की लापरवाही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण मनरेगा के समस्त कार्य ठप हैं। इसका कारण सरकार द्वारा 1 अप्रैल 201& से मनरेगा योजना के तहत सभी भुगतान के लिए इलेक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) लागू किया था। यह व्यवस्था बहुत अ'छे उद्देश्य के तहत पारदर्शिता के लिए लायी गई है, लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों के षडय़ंत्र के कारण इस योजना को लागू होने के फौरन बाद यह चौपट हो गई, जिससे प्रदेश के लाखों गरीब मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में कई मजदूरों के घरों में चूल्हें नहीं जल पा रहे हैं। फिर भी नहीं की कार्रवाई बताया जाता है कि मनरेगा के तहत ईएफएमएस से मजदूरी भुगतान का कार्य ठप होने की जानकारी विभागीय अमले की थी, लेकिन फिर भी विभाग द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई और सिस्टम की खामी को दूर करने का प्रयास नहीं किया गया। राÓय स्तरीय विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग समिति, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, मप्र शासन के सदस्य अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में मनरेगा की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहां पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार चल रहा है। सबसे गंभीर बात यह है कि मनरेगा परिषद जिस पर निगरानी और कार्रवाई का जिम्मा है, जब वह ही उदासीन है, तो मनरेगा में भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है। एजी की रिपोर्ट में बड़े खुलासे हुए हैं। अब सरकार को इसकी सीबीआई से जांच कराना चाहिए।
मनरेगा में विसंगतियां
समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होना। मनरेगा के नियमों के मुताबिक 10 दिन के भीतर मजदूरी का भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पहले काम करना पड़ता है, फिर मस्टर रोल चेक होते हैं, तब इंजीनियर और सरपंच-सचिव उस मजदूरी को फाइनल करते हैं। फिर बैंक के खाते में मजदूरी ट्रांसफर होती है। बैंक भी समय पर मजदूरी दे सकें, इसकी कोई गारंटी नहीं। बैंकर्स के पास इतनी बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं नहीं हैं कि हर गांव के आसपास मजदूरी का भुगतान समय पर किया जा सके। हर स्तर पर मॉनीटरिंग के चलते रिकॉर्ड रखना भी एक बड़ी समस्या है। इसके चलते कई विभाग इस योजना में हाथ नहीं डालना चाहते। ग्राम पंचायत स्तर पर जब लेबर बजट बनता है तो कोई इस काम में मदद नहीं करता। सिर्फ सरपंच और सचिव के भरोसे काम के प्रस्ताव बना लिए जाते हैं। गांव में रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि आखिर उनके लिए क्या बनने वाला है और मजदूरों को कितना काम मिलेगा। विकास के नाम पर चलने वाले बड़े प्रोजेक्ट में सालभर का काम आसानी से मिल जाता है। दूसरे विकासशील और विकसित माने जाने वाले प्रदेशों में मजदूरों की डिमाण्ड होने से पलायन हो रहा है। योजना में सिर्फ अधिकतम 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। जबकि मजदूर को अपने परिवार का पेट पालने के लिए साल में &00 दिन का रोजगार चाहिए।
बदलाव की कोशिश
प्रदेश में पिछले साल तक 1 करोड़ 20 लाख जॉबकार्ड थे। इनमें से ऐसे जॉबकार्ड को छांटा गया, जिनमें कभी काम नहीं मांगा गया। आज की स्थिति में 7& लाख खाताधारक मजदूर ही बचे हैं। पूरे सिस्टम को ऑनलाइन करने की कोशिश की गई है। प्रदेश में 15 हजार बैंक शाखाओं में रकम भेजी जा रही है। मजदूरों के समूह बनाए जा रहे हैं और पिछले सालों में जो काम नहीं होते थे, उन्हें शामिल कर सेल्फ ऑफ प्रोजेक्ट यानि खुद का काम करो और मजदूरी मनरेगा से लो की कोशिश भी शुरू की गई है। सवा दो लाख मजदूरों के समूह तैयार किए गए हैं। लेकिन आज भी इतनी लंबी प्रक्रिया अपनाई जा रही है कि काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ा पाना मुश्किल बना हुआ है।
1 लाख 61 हजार 214 काम
मनरेगा के पूरे सिस्टम को ऑनलाइन किया गया है। हर स्तर पर मजदूरों को काम आसानी से मिले इसके लिए काम भी बढ़े हैं। हर पंचायत की मॉनीटरिंग शुरू हो चुकी है। सीधे खाते में मजदूरी भुगतान करने से मजदूरों का रुझान बढ़ा है। काम की डिमाण्ड मजदूर करें इसके भी प्रयास शुरू किए गए हैं। -डॉ. रविन्द्र पस्तौर, आयुक्त मनरेगा
जितना भी भ्रष्टाचार मनरेगा में हुआ है या हो रहा है, वह सिर्फ मजदूरी भुगतान में है। जितनी रकम खर्च की जाती है उसमें से 90 प्रतिशत सामग्री पर हो रही है तो फिर मजदूरी के लिए रकम कैसे बचेगी। काम की मांग के आधार पर काम दिया जाता है, लेकिन जब काम ही नहीं शुरू होंगे तो मजदूर क्या करेगा।
-किशोर दुआ, सामाजिक कार्यकर्ता

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