सोमवार, 1 जुलाई 2013

मोदी और राजगणित

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया है. यानी वे 2014 में होने वाले 16वें आम चुनाव में भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान संभालेंगे. अक्टूबर, 2001 में मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि मोदी एक दिन इतने बड़े हो जाएंगे कि उन्हें देश की सबसे बड़ी गद्दी के दावेदार के तौर पर देखा जाएगा. तब तक वे भाजपा के उन नेताओं में हुआ करते थे जो परदे के पीछे रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह एक दुर्लभ विशेषाधिकार है जो पार्टी के 33 साल के इतिहास में सिर्फ दो लोगों को मिला है. पहले अटल बिहारी वाजपेयी जो इस दावेदारी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने में सफल भी हुए और दूसरे लाल कृष्ण आडवाणी, जो उपप्रधानमंत्री रहे और 2009 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. 33 साल की इस अवधि में भाजपा के कई अध्यक्ष हुए, लेकिन इनमें सिर्फ वाजपेयी और आडवाणी थे जिन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य समझा गया. मोदी इस सूची में तीसरा नाम बन गए हैं. आम चुनाव में अब एक साल से भी कम का वक्त बचा है. इस लिहाज से देखें तो जीत के लिए टीम और रणनीति बनाने या 2002 के गुजरात दंगों के चलते बनी विभाजनकारी नेता की अपनी छवि बदलने के लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है. पिछले आम चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व के साथ मैदान में उतरी भाजपा को पराजय मिली थी. सवाल उठता है कि क्या मोदी पार्टी को विजय दिला पाएंगे. क्या वे उन मोर्चों पर सफल हो पाएंगे जहां आडवाणी नाकामयाब रहे थे? क्या 2009 के आडवाणी के मुकाबले वोटरों में मोदी का ज्यादा आकर्षण है? क्या भाजपा के मौजूदा या संभावित सहयोगी प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को स्वीकार कर पाएंगे? मोदी के समर्थकों और विरोधियों, दोनों में उनकी मुस्लिमविरोधी छवि है. इसके चलते गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के साथ भाजपा की तनातनी हुई. मोदी उन कुछ राजनेताओं में से हैं जिन्हें भारत की बहुलतावादी राजनीति के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता है. क्या उनकी मुस्लिम विरोधी छवि भारत की 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या में भाजपा के समर्थन का तूफान पैदा कर सकेगी? या फिर इसके चलते भाजपा को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा? मोदी की एक दूसरी छवि भी है. एक ऐसे नेता की छवि जिसने तेज आर्थिक विकास के बूते अपने राज्य में खुशहाली पैदी की. वे अपनी इस उपलब्धि का जिक्र जमकर करते भी हैं. सवाल उठता है कि गुजरात में सुशासन का मोदी का दावा क्या भारत के 80 करोड़ वोटरों का उतना हिस्सा अपनी तरफ खींच पाएगा जिसके बल पर उनकी पार्टी की सरकार बन सके. 2004 में भाजपा ने भारत उदय और इंडिया शाइनिंग के नारों के साथ ऐसा ही दावा किया था जिसका लोगों पर इतना असर नहीं हो पाया कि भाजपा सत्ता में वापसी कर पाती. और आखिरी सवाल यह है कि विधानसभा चुनाव में लगातार तीन बार जीत क्या संसदीय चुनाव में पहली बार विजय पताका फहराने की उनकी कोशिश में उनके काम आएगी. राज्यों में भाजपा का हाल 2009 के मुकाबले इस वक्त भाजपा की हालत पतली है. इसका मतलब यह हुआ कि मोदी की राह 2009 के आडवाणी से कहीं ज्यादा मुश्किल है. आडवाणी उस समय तुलनात्मक रूप से फायदे की स्थिति में थे. पांच साल पहले भाजपा के पास सात राज्यों की सत्ता थी. आज उसके पास सिर्फ चार राज्य हैं- मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गोवा. इसमें राजनीतिक प्रासंगिकता के हिसाब से गोवा न के बराबर है. बिहार में वह जदयू के साथ गठबंधन के सहारे सत्ता में है. 2005 से यह गठबंधन वहां अटूट रहा है. 2009 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 12 जीती थीं और 1999 में अपने सबसे बढ़िया प्रदर्शन की बराबरी की थी. 2010 के विधानसभा चुनाव में भी इसने बढ़िया प्रदर्शन किया. लेकिन आज भाजपा-जदयू गठबंधन टूट के कगार पर है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि मोदी के साथ दिखने से बिहार के 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता उनसे दूर जा सकते हैं. पड़ोसी राज्य झारखंड में अवसरवादी राजनीति के चलते इस साल जनवरी में ही भाजपा ने सरकार गंवाई है. राज्य में अब राष्ट्रपति शासन है. पिछले साल उत्तराखंड और हिमाचल में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई है. जनसंख्या और राजनीतिक असर के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का हाल बुरा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी 403 में से सिर्फ 48 सीटें जीत पाई थी और तीसरे स्थान पर रही थी. उसका यह प्रदर्शन 2007 के मुकाबले तो खराब ही था जब उसने 51 सीटें जीती थीं 2002 की तुलना में तो यह कोसों दूर था जब उसने 88 सीटों पर विजय हासिल की थी. यह दिखाता है कि भाजपा 2002 से राज्य की सत्ता में रही सपा और बसपा सरकारों की असफलताओं का फायदा उठाने में नाकामयाब रही है. उसके लिए चिंता की बात यह भी है कि 2007 के मुकाबले 2012 में जहां सपा और कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा वहीं भाजपा का वोट प्रतिशत 17 फीसदी के मुकाबले 15 फीसदी रह गया. वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पार्टी का लगातार पतन हुआ है. 1996 से अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत दोनों में गिरावट आई है. 1996 में पार्टी ने 32.5 फीसदी वोटों के साथ 425 में से 174 सीटें जीती थीं. केंद्र की सत्ता का रास्ता जिस उत्तर प्रदेश से होकर जाता है वहां भाजपा इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर में चल रही है महाराष्ट्र का हाल भी कुछ ऐसा ही है. 1999 से अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में वहां भाजपा-शिवसेना गठबंधन हर बार हारा है. सीट संख्या और वोट प्रतिशत दोनों लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन लगातार गिरा है. यानी जनसंख्या के मामले में इस दूसरे सबसे बड़े राज्य में भी वह अपने सबसे बुरे दौर में है. उड़ीसा में जब बीजू जनता दल नेता और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2009 में इससे गठबंधन तोड़ा तो इसकी नैया ही डूब गई थी. भाजपा को कुछ राहत पिछले साल पंजाब में मिली जहां शिरोमणि अकाली दल के साथ इसके गठबंधन ने विधानसभा चुनाव में अपनी सत्ता कायम रखी थी. बड़े लाभ की उम्मीद भाजपा को सिर्फ राजस्थान में है जहां वह नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के सहारे सत्तासीन कांग्रेस को हराने के सपने देख रही है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने 2003 से लगातार दो बार सरकार बनाई है. यहां भी विधानसभा चुनाव छह महीने दूर हैं. हालांकि वहां की भाजपा सरकारें खुद को लोकप्रिय बता रही हैं, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद है कि दस साल से सत्ता में बैठी इन सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बनेगी और वहां वह वापसी करेगी. अगर भाजपा ने इन दो में से एक भी राज्य गंवा दिया तो वोटरों और पार्टी दोनों में मोदी की अपील बुरी तरह घट सकती है. लोकसभा में भाजपा केंद्र में भाजपा की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली थी. 1996 में तब उसे बहुमत के आंकड़े यानी 272 सीटों तक पहुंचने के लिए पर्याप्त दलों का समर्थन नहीं मिल पाया था. 1998 में बनी पार्टी की दूसरी सरकार 13 महीने चली. 1999 में बनी इसकी तीसरी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 1998 में भाजपा ने 182 सीटें जीती थीं. 1999 में यह आंकड़ा 183 हुआ. दोनों बार दूसरे दलों के समर्थन से उसकी सरकार बनी. माना जा सकता है कि अगर भाजपा अगले आम चुनाव में 185 सीटों के आस-पास पहुंच जाती है तो वह केंद्र में सरकार बनाने की दावेदार होगी. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी के रास्ते में जो अड़चनें हैं वे उन अड़चनों से कहीं बड़ी हैं जो 2009 में आडवाणी के सामने थीं. 2009 में जब भाजपा आडवाणी के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी तो उसके खाते में 2004 के आम चुनावों में मिली 137 लोकसभा सीटों की पूंजी थी. यानी पार्टी को करीब 45 सीटों की खाई पाटनी थी. अभी भाजपा के पास 116 लोकसभा सीटें हैं. यानी मोदी को दूसरी पार्टियों से 70 के करीब सीटें छीननी होंगी. जिस तरह से 2009 के बाद हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा उपचुनावों में भाजपा का प्रदर्शन गिरा है, उसे देखते हुए उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है. खासकर तब तो बहुत ही बड़ी अगर पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा 543 में से 365 लोकसभा सीटों पर लड़ी और बाकी सीटें उसे गठबंधन सहयोगियों के लिए छोड़नी पड़ीं. उत्तर प्रदेश अपनी पार्टी को सत्ता में लाने और खुद प्रधानमंत्री बनने का जो सपना मोदी देख रहे हैं वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वे उत्तर प्रदेश में पार्टी की किस्मत नहीं बदल देते. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जो किसी भी राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा हैं. इनमें से सिर्फ नौ ही आज भाजपा के पास हैं. 1996, 1998 और 1999 के तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई थी. इन चुनावों में उसने क्रमश: 52, 59 और 29 सीटें जीती थीं. 2004 में जब वाजपेयी सरकार सत्ता से बाहर हुई तब भाजपा सिर्फ 10सीटें जीत पाई थी. यह रिकॉर्ड इशारा करता है कि दिल्ली की सत्ता में वापसी करने के लिए भाजपा को उत्तर प्रदेश में कम से कम 25 सीटें तो जीतनी ही होंगी. यानी मौजूदा सीटों से 16 सीट ज्यादा. अगले साल 25 सीटें जीतना भाजपा के लिए 1999 की स्थिति की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल है. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 30 प्रतिशत वोट हासिल करके 25 सीटें जीती थीं. दरअसल 1991 से 1999 का दौर उत्तर प्रदेश में भाजपा का स्वर्णिम दौर रहा था. इस दौरान हुए चारों लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए. 1998 में तो यह आंकड़ा 37.5 प्रतिशत तक भी पहुंचा. लेकिन 2004 में यह घटकर 22 प्रतिशत पर आ गया और 2009 में तो पार्टी को कुल 17.5 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. कोढ़ में खाज यह कि 14 साल में सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश में मजबूत ही हुए हैं. 90 के दशक में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत या तो सबसे ज्यादा होता था या फिर वह इस मामले में दूसरे स्थान पर रहती थी. लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है. अपवाद के रूप में 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें जब कांग्रेस ने बसपा से एक ज्यादा यानी 21 सीटें हासिल की थीं, तो वोट प्रतिशत का सबसे बड़ा हिस्सा अब सपा और बसपा में बंटता है. सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का यह हाल क्यों हुआ. इसकी प्रमुख वजह यह रही कि सवर्ण वोटों पर उसकी पकड़ लगातार कमजोर होती गई. प्रदेश में सवर्ण वोट लगभग 18 प्रतिशत हैं. पहले यह वोट कांग्रेस को जाता था, लेकिन 1989 के बाद से ही भाजपा लगातार इसे अपने पक्ष में करने में कामयाब हो रही थी. 1999 तक प्रदेश के सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वोट का एक बड़ा हिस्सा पार्टी को मिल रहा था. लेकिन पिछले दस साल में सपा और बसपा ने अपना प्रभाव बढ़ाकर और सवर्ण प्रत्याशियों को मैदान में उतार कर ऊंची जातियों के वोट का अच्छा-खासा हिस्सा अपनी तरफ खींच लिया. 1996 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश के कुल सवर्ण वोटों का 74 प्रतिशत हासिल किया था. यानी तीन-चौथाई सवर्ण वोट भाजपा के पास थे. लेकिन 2002 में यह घटकर मात्र 47 प्रतिशत रह गए. इसके ठीक उलट बसपा के पास जहां 1996 में सिर्फ चार प्रतिशत ब्राह्मण वोट थे, वे 2002 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गए. बसपा को मिलने वाले अन्य सवर्ण जातियों के वोट भी इस दौर में लगभग दोगुने हो गए. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में सपा को लगभग 19 प्रतिशत ब्राह्मण वोट मिले. सपा और बसपा दोनों ही एक दौर में जाति आधारित पार्टियां मानी जाती थीं. लेकिन सवर्ण वोटों को अपने पक्ष में करने के बाद इन पार्टियों की राजनीति लगातार समावेशी हुई है. पिछले दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा ने ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर प्रत्याशियों को रिकॉर्ड संख्या में टिकट दिए. इस कारण सवर्ण वोट का एक बड़ा हिस्सा उनके खाते में गया जिसने पिछड़े और दलित वोट के साथ मिलकर भाजपा की नैया डुबो दी. 2009 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का हर पांच में से एक प्रत्याशी ब्राह्मण था. बसपा में ब्राह्मण प्रत्याशियों की संख्या दलित प्रत्याशियों से भी ज्यादा थी, जबकि दलित ही बसपा के अस्तित्व का मुख्य कारण रहे हैं. ऐतिहासिक तौर पर उत्तर प्रदेश में हमेशा ठाकुर और ब्राह्मण की चुनावी लड़ाई रही है. भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ब्राह्मण विरोधी छवि वाले ठाकुर हैं. मोदी के लिए राजनाथ सिंह के साथ मिलकर राज्य के ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करना आसान नहीं होगा. फिर भी भाजपा किसी तरह से उत्तर प्रदेश में 25 सीटें जीत भी जाती है तो भी मोदी को दौड़ में बने रहने के लिए पूरे देश से 160 सीटें और जोड़नी होंगी. ये सीटें वे कहां से लाएंगे? ला भी पाएंगे या नहीं? जानने के लिए दूसरे राज्यों की स्थितियों पर गौर करते हैं. महाराष्ट्र महाराष्ट्र में भाजपा क्षेत्रीय दल शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है. यहां 48 लोकसभा सीटें हैं. इनमें सबसे ज्यादा 18 भाजपा ने 1996 में जीती थीं. 1999 में भी पार्टी का प्रदर्शन यहां ठीक रहा और उसे 14 सीटें हासिल हुईं. 2004 में भाजपा के खाते में 13 सीटें आईं, लेकिन 2009 में ये घटकर सिर्फ नौ रह गईं . जबकि 2009 में भाजपा को अपनी बड़ी जीत की उम्मीद थी. चुनाव से छह महीने पहले ही मुंबई पर आतंकी हमला हुआ था जिसमें 150 लोगों की जान चली गई थी. प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा ने इस हमले को सुरक्षा के मामले पर सरकार की नाकामयाबी बताते हुए मुद्दा बनाया था . लेकिन पार्टी मुंबई की ही छह लोकसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत सकी. 2009 में भाजपा को अपने बेजोड़ नेता प्रमोद महाजन की कमी भी काफी खली जिनकी 2006 में उन्हीं के भाई द्वारा हत्या कर दी गई थी . पिछले साल शिव सेना ने भी अपने संस्थापक बाल ठाकरे को खो दिया. उनके बेटे और राजनीतिक वारिस उद्धव ठाकरे की क्षमताओं पर ज्यादातर लोगों को संदेह है. इसके अलावा उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे द्वारा 2006 में बनाई गई अलग पार्टी मनसे भी लगातार कांग्रेस विरोधी वोटों को बांटने में कामयाब रही है. इस लिहाज से यहां 2014 का पूर्वानुमान भाजपा के लिए बहुत उजले नहीं दिखाई पड़ते . पश्चिम बंगाल पश्चिम बंगाल में भाजपा का अस्तित्व लगभग शून्य ही रहा है. 2009 में पार्टी यहां की कुल 42 में से 40 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इनमें से सिर्फ पार्टी के दिग्गज जसवंत सिंह ही दार्जीलिंग से जीत पाए. (संयोग से जसवंत सिंह मोदी के कट्टर विरोधी हैं) बंगाल में भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1999 में रहा था जब उसे दो सीटें हासिल हुई थीं. वाजपेयी ने तुरंत ही दोनों जीते हुए प्रत्याशियों को अपनी सरकार में मंत्री बना दिया था. दोनों 2004 और 2009 के आम चुनाव में खेत रहे. भाजपा को 1999 में मिली दो सीटों की जीत भी सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन के कारण ही संभव हो पाई थी. तृणमूल कांग्रेस ही राज्य में मुख्य विपक्षी दल थी जिसने 2011 के विधानसभा चुनाव में 34 साल पुराने साम्यवादी गठबंधन को ध्वस्त किया. भाजपा के लिए 2009 का चुनाव और भी ज्यादा दुखद रहा होगा जब उसके बंगाल के दोनों पूर्व सांसद तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशियों से चुनाव हार गए. तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार फिर से भाजपा से हाथ मिला सकती हैं. खास तौर से तब जब उन्होंने कांग्रेस से अपना सात साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया है. लेकिन क्या वे मोदी का नेतृत्व स्वीकार करेंगी? यह काफी मुश्किल है. पश्चिम बंगाल के लगभग एक चौथाई मतदाता मुस्लिम हैं और तृणमूल के 19 में से दो सांसद भी. ऐसे में ममता बनर्जी मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने से बचना ही चाहेंगी. आंध्र प्रदेश जहां तक आंध्र प्रदेश में भाजपा की संभावनाओं की बात है तो इस बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा. 2009 के आम चुनाव में पार्टी ने प्रदेश की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 37 पर उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन किसी को संसद में जाने का मौका नहीं मिला. हालांकि इससे पहले भाजपा यहां उम्मीद जगाने वाला प्रदर्शन कर चुकी थी. तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के साथ मिलकर जब उसने 1999 के आम चुनाव में भागीदारी की थी तब उसे सात सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन पिछले दो आम चुनावों से उसका एक भी उम्मीदवार संसद नहीं पहुंच पा रहा है. विधानसभा चुनावों में भी उसका प्रदर्शन इतना ही बुरा रहा है. 2009 के चुनावों में प्रदेश की 294 सीटों में से 271 पर भाजपा के उम्मीदवार थे. इनमें से दो के अलावा सभी को हार का मुंह देखना पड़ा. 1998-99 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनवाने में टीडीपी की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी. 2004 में यह रिश्ता टूट गया. अब अगर यह जुड़ता भी है तो इससे किसी चमत्कार के होने की खास संभावना नहीं है क्योंकि टीडीपी खुद अपनी चमक खो चुकी है. 2004 के विधानसभा चुनाव में जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया था. 1999 के आम चुनाव में जहां उसके पास राज्य की 42 में से 29 सीटें थीं वहीं 2004 और 2009 के आम चुनावों में इनकी संख्या छह से आगे नहीं बढ़ पाई. इस बार प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन अपनी नई पार्टी के साथ कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हैं. इन जटिल समीकरणों के बीच टीडीपी 2009 के आम चुनावों में 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की कोशिश करेगी. बिहार 2009 में भाजपा को 12 सीटों पर जीत मिली थी. पार्टी के इस प्रदर्शन की 2004 के आम चुनाव, जब उसकी झोली में सिर्फ चार सीटें आई थीं, से तुलना करें तो साफ होता है कि जदयू से गठबंधन उसके लिए फायदेमंद साबित हुआ. इससे पहले 1998 के आम चुनावों में जब भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी तब भी आज के बिहार में उसके पास महज आठ सीटें थीं (शेष 12 सीटें झारखंड वाले हिस्से में थीं). इस समय भाजपा के बड़े नेता दावा कर रहे हैं कि यदि जदयू अगले साल आम चुनाव से पहले गठबंधन से अलग होता है तो उसे बिहार में काफी नुकसान उठाना पड़ेगा, पर सच्चाई उलट हो सकती है. जदयू की वजह से भाजपा को पिछड़े और मुस्लिम दोनों वर्गों के वोट मिले हैं. 1996 में जब वह पहली बार लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी तब उसे बिहार में सिर्फ छह सीटें हासिल हुई थीं. 1991 में राम मंदिर अभियान के समय जब उसने पहली बार लोकसभा सांसदों के मामले में तीन अंकों का आंकड़ा पार किया था तब तो बिहार में उसका खाता शून्य पर पहुंच गया था. इससे पहले 1989 में वर्तमान बिहार में भाजपा को 40 में से महज चार सीटों पर जीत मिली थी (इनमें झारखंड की सीटें शामिल नहीं हैं). तमिलनाडु यहां लोकसभा की 39 सीटें हैं. अतीत में भाजपा के पास एक ऐसा मौका आया है जब उसने इस राज्य से बड़ी उम्मीदें बांध ली थीं. 1998 के आम चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों को चौंकाते हुए उसने न सिर्फ यहां खाता खोला बल्कि 1999 में हुए आम चुनाव में उसने अपनी सीटें बढ़ाकर पांच कर ली थीं. लेकिन खुशहाली का यह किस्सा यहीं खत्म हो गया और इसके बाद वह राज्य में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीती. आज के हालात में राज्य की दोनों क्षेत्रीय पार्टियां द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएडीएमके) के बीच भाजपा के लिए गुंजाइश बहुत कम है. इन दोनों पार्टियों का अतीत बताता है कि वे खांटी अवसरवादी हैं. दोनों ही मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में शामिल होने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर सकती हैं. लेकिन यहां लोकसभा चुनावों में ऐसा दुर्लभता से ही होता है कि एक पार्टी दूसरी का पूरी तरह से सफाया कर दे. यानी इनमें से कोई भी मोदी को समर्थन देती है तो संभावना कम ही है कि वह सीटों के आंकड़े में बहुत बड़ी संख्या जोड़ पाए. मध्य प्रदेश मोदी यह बिल्कुल अपेक्षा नहीं कर सकते कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा के बड़े नेता उनका लाल कालीन बिछाकर स्वागत करेंगे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो सीधे उनके प्रतिस्पर्धी हैं. वे 13 साल की उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं. एक हिसाब से तो भाजपा का वर्तमान संकट उसी समय से शुरू हुआ था जब कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी ने चौहान की तारीफ करते हुए उन्हें बधाई दी कि उन्होंने गुजरात में मोदी द्वारा किए गए काम की तुलना में मध्य प्रदेश में बेहतर काम करके दिखाया है. यह भी दिलचस्प है कि 2009 के आम चुनाव में चौहान के मुख्यमंत्री रहते हुए मध्य प्रदेश से भाजपा के 16 (29 सीटों में से) उम्मीदवार जीते थे, तो वहीं नरेंद्र मोदी के गुजरात में इससे कम 15 (26 सीटों में से). हालांकि पिछले दिनों दो सीटों पर हुए लोकसभा के उपचुनावों में जीत के बाद यह संख्या 17 हो चुकी है. सौम्य स्वभाव के चौहान पार्टी में दिग्गज नेता नहीं हैं लेकिन वे हमेशा से राष्ट्रीय नेताओं के प्रिय रहे हैं. इनमें भाजपा की दूसरी पांत के नेता अरुण जेतली, अनंत कुमार से लेकर सुषमा स्वराज तक शामिल हैं. संघ परिवार भी उनका समर्थन करता है. इस साल नवंबर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और मोदी के लिए मुश्किल होगा कि उम्मीदवारों के चयन में वे चौहान की पसंद को नजरअंदाज करें. राज्य में यदि तीसरी बार फिर भाजपा की सरकार बनती है तो लोकसभा चुनावों में भी वे अपने करीबियों को टिकट दिलवाएंगे. मोदी को याद रखना होगा कि वे चौहान को हल्के में नहीं ले सकते. 2003 में भारी बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता दिलाने वाली उमा भारती लाख कोशिशों के बाद भी न चौहान को उनके पद से हटने के लिए मजबूर कर पाईं और न ही भाजपा में वापसी के बाद मध्य प्रदेश में उनका राजनीतिक पुनर्वास हो पाया. राजस्थान राजस्थान में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसकी पूरी संभावना है कि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इनमें मोदी की सक्रियता पर उत्साहित न दिखें. दरअसल राजे अभी से मानकर चल रही हैं कि राज्य में भाजपा को स्पष्ट बढ़त मिली हुई है और वे कांग्रेसनीत सरकार को आसानी से हरा देंगी. उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आई थी. हालांकि यह प्रदर्शन 2008 में वे दोहरा नहीं पाईं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. चौहान की तरह ही यदि वे राजस्थान में भाजपा को जिता पाईं तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में राज्य की लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में मोदी एकतरफा फैसला नहीं ले पाएंगे. राजस्थान भाजपा के लिहाज से इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां की कुल 25 लोकसभा सीटों में से फिलहाल उसके पास मात्र चार सीटें हैं. यानी अगले आम चुनाव में उसके पास बड़ा मौका होगा. कर्नाटक आगामी आम चुनाव में बहुत कम वक्त बचा है और उसे देखते हुए अगर मोदी कर्नाटक से दूरी बनाए रखने का फैसला करते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए. 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य की 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. यह आंकड़ा गुजरात में उसे हासिल सीटों से बेहतर था. लेकिन तीन माह पहले कर्नाटक की सत्ता गंवाने के बाद से वहां पार्टी जनता दल (सेक्युलर) से भी पिछड़ते हुए तीसरे स्थान पर खिसक गई. पार्टी को राज्य के मुख्यमंत्री रहे कद्दावर नेता बीएस येदियुरप्पा ने भी अपूरणीय क्षति पहुंचाई. भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भाजपा से इस्तीफा देने वाले येदियुरप्पा ने नई पार्टी बना ली और पुरानी पार्टी के महत्वपूर्ण वोट काट लिए. उड़ीसा उड़ीसा में मोदी के सफल होने की गुंजाइश कम ही है. राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा है कि भाजपा के इस नए नायक के पास देश की समस्याओं को हल करने के लिए कम ही सुझाव हैं. वर्तमान में उड़ीसा से भाजपा का एक भी सांसद नहीं है. 1999 में बीजू जनता दल (बीजद) की लहर पर सवार भाजपा को 21 में से नौ सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. वर्ष 2004 में पार्टी को सात सीटों पर जीत हासिल हुई और उसने 1998 के अपने प्रदर्शन की बराबरी कर ली. लेकिन संघ से जुड़े लोगों की ईसाई विरोधी हिंसा से नाराज पटनायक ने 2009 के आम चुनाव से एक महीने पहले गठबंधन तोड़ दिया. भाजपा का वहां से सफाया हो गया. जाहिर है कि मोदी वहां कोई करामात नहीं कर पाएंगे. झारखंड 20 से कम लोकसभा सीटों वाले राज्यों में झारखंड शामिल है. भाजपा एक समय यहां सत्ता पर काबिज रह चुकी है. 14 लोकसभा सीट वाले इस प्रदेश में उसे सन 1996 और 1998 के चुनावों में 12 सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. लेकिन 2004 में यहां उसका सफाया हो गया. हालांकि 2009 में उसने कुछ हद तक वापसी की और सात सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन आज राज्य के बिखरे राजनीतिक हालात को देखते हुए लगता नहीं कि मोदी और भाजपा 1996 और 1998 वाली कामयाबी दोहरा पाएंगे. दिल्ली भाजपा शिद्दत से चाह रही होगी कि मोदी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पार्टी की हालत सुधार दें. यहां सात लोकसभा सीटें हैं. 1999 में भाजपा ने यहां सभी सीटों पर जीत हासिल की थी. इससे पहले 1989 में उसे चार, 1996 में पांच और 1998 में छह सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन 2004 में उसे बड़ा झटका लगा और पार्टी एक को छोड़कर सभी सीटों पर हार गई. 2009 में तो वह इकलौती सीट भी चली गई और पार्टी का सफाया हो गया. अन्य राज्य बहरहाल भाजपा को छत्तीसगढ़ में अच्छी-खासी सीटें मिल सकती हैं जहां अभी उसके 11 में से 10 सांसद हैं. पिछले महीने हुए नक्सली हमले में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के मारे जाने के बाद प्रदेश में पार्टी और अधिक कमजोर हुई है. लेकिन असम में जहां भाजपा के 14 में से चार सांसद हैं वहां मोदी के लिए यह संख्या बढ़ाना आसान नहीं होगा क्योंकि यह अब तक का पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन है. हरियाणा में जहां भाजपा 1999 में 10 में से पांच सीटें जीतने में सफल रही थी वहां भी 2009 में उसका सफाया हो गया. राज्य में उसके पूर्व सहयोगी दलों की हालत और भी खस्ता है. केरल में वामपंथी गठबंधन और कांग्रेस गठबंधन हावी हैं और दोनों ही भाजपा के खिलाफ हैं. फिर क्या होगा? तो फिर मोदी कहां पहुंचेंगे? अगर 1984 से लेकर अब तक भाजपा के राज्यवार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की एक सूची बनाई जाए तो भी आंकड़ा कुल 251 सीटों तक पहुंचता है जो सामान्य बहुमत से 21 कम है. अगर मोदी चमत्कारिक रूप से यहां तक भी पहुंच जाते हैं तो भी उनके लिए महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और तमिलनाडु में द्रमुक या अन्नाद्रमुक के अलावा अपना कोई अन्य हिमायती तलाश पाना मुश्किल होगा. कहा जा सकता है कि ये तो अतीत के आंकड़े हैं और इनसे भविष्य की तस्वीर ऐसी ही होगी, यह बात निश्चितता के साथ नहीं कही जा सकती. लेकिन इन आंकड़ों से यह अंदाजा तो लग ही जाता है कि अगले आम चुनाव में भाजपा और मोदी की राह कितनी कठिन है. विश्लेषक मानते हैं कि मोदी के लिए हो रहे इस मौजूदा शोर में उतनी ऊर्जा नहीं है जितनी उन अभियानों में देखने को मिली थी जिन्होंने भाजपा को अतीत में दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाया. 1980 में बनी भाजपा को 1984 के लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें मिली थीं. उस चुनाव में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उठी शोकलहर पर सवार होकर भारी जीत हासिल की थी. यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज चुनाव हार गए थे. लेकिन पांच साल बाद भाजपा ने 89 सीटों के साथ वापसी की. 1991 में वह 121 सीटों तक जा पहुंची. इन दोनों विजयों में अयोध्या राममंदिर निर्माण के लिए छेड़े गए देशव्यापी अभियान की अहम भूमिका थी. उस अभियान की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ 16 साल और चार आम चुनावों का सामना करने के बाद भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई. इतने कम वक्त में ही उसने आजादी की लड़ाई लड़ने वाली एक सदी पुरानी कांग्रेस को पछाड़ दिया. राम मंदिर लहर के दौरान 1991 में जब पहली बार पार्टी के 100 से ज्यादा सांसद जीते तो बिहार में उसका खाता शून्य पर पहुंच गया था1998 और 1999 में भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी. संजीदा, समझदार और अनुभवी राजनेता की छवि रखने वाले वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उसे दोनों बार केंद्र की सत्ता हासिल हुई. लेकिन जब उनकी सरकार भी पुरानी सरकारों जैसी ही निकली तो 2004 में जनता ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया. क्या मोदी के पास वाजपेयी जैसी अपील है? कम से कम इस वक्त तो ऐसा नहीं लगता. 2002 में गुजरात दंगों के बाद मोदी की एक कट्टर नेता की छवि बनी थी जिसके सहारे वे गुजरात की सत्ता में लौटे. लेकिन यह भी अब 11 साल पुरानी बात हो चुकी है और अब इसके सहारे उतने वोट नहीं बटोरे जा सकते जितने वोटों की मोदी उम्मीद कर रहे होंगे. भाजपा ने 2004 और 2009 के चुनावों में उनकी इस छवि का इस्तेमाल किया भी था, लेकिन नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं रहे. 2009 में मुंबई में मोदी ने जमकर प्रचार किया फिर भी पार्टी वहां की सभी छह सीटों पर हार गई. यह 26/11 के हमले के बाद की बात है. तुलनात्मक रूप से देखें तो 1990 के दशक में अयोध्या आंदोलन के चलते आम मानस में भाजपा की कट्टर हिंदूवादी छवि कहीं अधिक प्रभावी थी जिसका फायदा उसे 1996, 1998 और 1999 के चुनावों में मिला भी. मोदी का दूसरा दांव है अच्छे प्रशासन और 11 साल मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में किए गए विकास का दावा. लेकिन इसमें भी उतना दम नहीं लगता कि उनके लिए पूरे देश में वोटों का तूफान खड़ा हो जाए. पिछले दिनों जब आडवाणी ने कहा कि गुजरात पहले से ही विकसित था और मोदी ने सिर्फ उसकी हालत सुधारी है तो वे तो निश्चित रूप से राजनीति कर रहे थे, लेकिन अगर यह बात पूरी तरह गलत होती तो आडवाणी ऐसा कहते ही नहीं. अब जब आम चुनाव करीब हैं तो स्वाभाविक ही है कि गुजरात में अच्छे प्रशासन और आर्थिक विकास के मोदी के दावों की पहले के मुकाबले कहीं सघन समीक्षा की जाएगी. तो सवाल यह उठता है कि भाजपा के भीतर और बाहर मोदी समर्थक उनके पार्टी की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनने पर इतने अधिक उत्साहित क्यों हैं. इसका जवाब आसान है. कई बार व्यक्ति के उठान में उसकी खूबियों से ज्यादा परिस्थितियों का भी हाथ होता है. दरअसल भाजपा में विश्वसनीय नेतृत्व का पूर्णतया अभाव है. भले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार की छवि पर कई बट्टे लग चुके हों फिर भी भाजपा के मन में संशय है कि शायद सिर्फ सरकार के खिलाफ पड़ा वोट उसे दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त न हो. भाजपा की प्रचार मशीनरी ढोल पीट रही है कि पार्टी के कार्यकर्ता आगामी चुनाव में एकमत से मोदी का नेतृत्व चाहते हैं. अगर यह सच भी है तो इसे तभी सही माना जा सकता है जब कस्बों और शहरों में पार्टी कार्यकर्ता ऐसी मांग के साथ नजर आने लगें. जानकारों के मुताबिक जो बात सच है वह यह है कि भाजपा में दूसरी, तीसरी और चौथी पांत के नेताओं और उनके खेमों को लग रहा है कि अगले साल का आम चुनाव उनके लिए केंद्र की सत्ता और उससे जुड़े फायदों तक पहुंचने का आखिरी मौका है. उनका मानना है कि 2009 में फेल हुए आडवाणी उन्हें यह मौका नहीं दे सकते इसलिए उन्होंने मोदी पर दांव लगाया है.

मातम में मार्केटिंग

उत्तराखंड की त्रासदी जहां अपनी भयावहता के लिए लोगों के जेहन में हमेशा जिंदा रहेगी तो दूसरी तरफ यह राजनीतिक वर्ग के एक हिस्से द्वारा मातम के इस मौके को भुना कर सस्ता प्रचार पाने की कोशिशों के लिए भी याद रखी जाएगी. इस तबाही के बाद से ही पूरे देश से लोग मदद के लिए आगे आए. विभिन्न राज्य सरकारों और नेताओं ने जहां शांतिपूर्वक और गरिमापूर्ण तरीके से सहायता राशि से लेकर राहत सामग्री उत्तराखंड पहुंचाई वहीं कुछ नेता ऐसे भी रहे जो इस मौके पर अपनी छवि चमकाने की कोशिश करते दिखे. टीवी कैमरों के सामने एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था हुए कर्नाटक के टीडीपी और कांग्रेसी सांसदों की तस्वीरें यह बताने के लिए काफी थीं कि मातम के इस मौके को भुनाने की जद्दोजहद किस हद तक पहुंच गई है. हालांकि इसकी शुरुआत तो त्रासदी के साथ ही हो गई थी, लेकिन दिन गुजरने के साथ यह और गहरी होती गई. सस्ती लोकप्रियता पाने की इस राजनीति को एक अलग ऊंचाई पर ले जाने का आरोप गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लगा. इसकी शुरुआत उस खबर से हुई जिसके मुताबिक गुजरात सरकार ने एक दिन के भीतर ही उत्तराखंड आपदा में जगह-जगह फंसे 15 हजार गुजरातियों को सुरक्षित निकालकर उनके घर पहुंचा दिया था. इस काम के लिए मोदी को ‘रैंबो’ करार देते हुए एक अखबार ने दावा किया कि गुजरातियों को देहरादून के सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने के लिए 80 टोयोटा इनोवा गाड़ियां मंगाई गईं. लोगों को बचाने और सकुशल घर तक पहुंचाने के लिए चार बोइंग विमानों के साथ 25 लग्जरी बसों की भी सहायता ली गई. मोदी को महामानव बताने वाली यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई. विरोधी दल इस दावे को असंभव और हास्यास्पद ठहराते नजर आए तो मोदी समर्थक इसे उनकी काबिलियत का एक और प्रमाण बताते. गुजरात सरकार की तरफ से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. लेकिन क्या सच में ऐसा हुआ था? सूत्रों की मानें तो 15 हजार लोगों को बचाने की खबर बड़ी हद तक कोरी अफवाह थी जो मोदी की पीआर एजेंसी एपको की तरफ से फैलाई गई थी. तहलका ने उत्तराखंड में राहत कार्य का काम देख रहे गुजरात सरकार के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी संदीप कुमार से बात की तो उनका कहना था, '15 हजार का कोई आंकड़ा हमारे पास नहीं है. हां, हरिद्वार से अब तक लगभग 1,800 के करीब लोगों को गुजरात भेजा गया है. बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो राज्य सरकार नहीं बल्कि खुद के इंतजाम से वापस गुजरात गए हैं.' हरिद्वार के शांति कुंज में गुजरात सरकार का सबसे बड़ा कैंप है. वहां के एक अधिकारी विष्णु पंड्या कहते हैं, '15 हजार लोगों को निकाले जाने की बात तो हमें नहीं पता है. हां, हमारे यहां से लगभग 2000 के करीब गुजराती लोगों को गुजरात सरकार ने अब तक अपनी व्यवस्था से गुजरात भेजा है.' हरिद्वार के अलावा देहरादून और ऋषिकेश में भी गुजरात सरकार के कैंप लगे हैं लेकिन ये कैंप हरिद्वार के कैंप से बेहद छोटे हैं. ऐसे में अगर हम बाकी दो अन्य कैंपों से भी 2000-2000 लोगों को जोड़ दें तो आंकड़ा छह हजार तक पहुंचता है, जो 15 हजार के आधे से भी कम है. ऐसी खबरें भी आईं कि गुजरात सरकार ने गुजरात के लोगों को सीधा वहीं से बचाया जहां वे फंसे थे. लेकिन गुजरात सरकार की वेबसाइट पर 21 और 22 जून को बचाए गए जिन लोगों का नाम दर्ज है उनकी आपबीती कुछ और ही बताती है. उन्हीं लोगों में से एक विट्ठलभाई पटेल कहते हैं, ‘मैं गौरीकुंड में फंसा हुआ था. काफी संघर्ष के बाद सेना की मदद से किसी तरह हरिद्वार पहुंचा. वहां गुजरात सरकार के राहत कैंप में संपर्क किया. फिर वहां से उन्होंने आगे अहमदाबाद जाने के लिए मेरी मदद की.’ यही कहानी मयूर शाह की भी है. वे जोशीमठ में फंसे थे. शाह बताते हैं,' वहां से हरिद्वार आने के लिए 15 हजार रुपये में प्राइवेट टैक्सी की. गुजरात सरकार के कुछ अधिकारियों से हमारी फोन पर जरूर बात हुई थी लेकिन हरिद्वार तक हम अपनी व्यवस्था से ही पहुंचे थे. बाद में सरकार के राहत शिविर की तरफ से हमें अहमदाबाद भेजने की व्यवस्था की गई.' यही व्यवस्था लगभग हर राज्य सरकार ने की है. यानी सेना लोगों को जहां वे फंसे होते हैं वहां से बचाकर हरिद्वार और देहरादून जैसे बेस कैंपों तक लाती है. फिर वहां लोग अपने-अपने राज्यों द्वारा लगाए गए राहत शिविरों में जाते हैं या फिर अन्य शिविरों में. गुजरात सरकार ने भी ऐसा ही किया. लेकिन विभिन्न माध्यमों से ऐसी खबरें आईं मानो बाढ़ में फंसे गुजरातियों को गुजरात सरकार ने चुन-चुन कर निकाला हो और फिर उन्हें उनके घर भेजा हो. अहम सवाल यह उठता है कि इस पूरे दुष्प्रचार में गुजरात सरकार की क्या भूमिका है. 15 हजार लोगों को बचाने का दावा न तो मोदी की तरफ से किया गया था और न ही गुजरात सरकार की तरफ से. वे यह कह कर अपना बचाव भी कर सकते हैं. लेकिन अगर उनकी तरफ से यह दावा नहीं था और इस दावे में उनकी सहमति नहीं थी तो जब इसको लेकर चारों तरफ चर्चा शुरू हुई तो उन्होंने इसका खंडन क्यों नहीं किया? सूत्रों की मानें तो ये सारा किया-धरा उस पीआर एजेंसी का है जिस पर गुजरात सरकार और मोदी की छवि को चमकाने की जिम्मेदारी है. कहा जा रहा है कि पीआर एजेंसी ने ही यह खबर मीडिया में प्लांट कराई जिससे गुजरात सरकार और मोदी को ‘रैंबो’ दिखाया जा सके. लेकिन आंकड़ों को लेकर गड़बड़ी हो गई इसलिए दावों का दांव उल्टा पड़ गया और स्थिति हास्यास्पद हो गई. उत्तराखंड पहुंचने के बाद मोदी के केदारनाथ मंदिर बनवाने की पेशकश की भी विभिन्न हलकों में आलोचना हुई. भाजपा नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस प्रस्ताव पर मांगी गई प्रतिक्रिया के जवाब में मीडिया से कहा, 'पहले लोगों को बचाना जरूरी है. घर बनाना जरूरी है. मंदिर बाद में भी बन जाएगा.' मोदी की आलोचना इस बात के लिए भी हुई कि जो राज्य खुद के सबसे ज्यादा संपन्न होने का दम भरता है उसने उत्तराखंड की इस त्रासदी पर शुरुआत में सिर्फ दो करोड़ रुपये का सहयोग देने की घोषणा की. दूसरी तरफ देखें तो उत्तर प्रदेश ने 25 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र, दिल्ली व हरियाणा ने 10-10 करोड़ रुपये और मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, ओडि़शा जैसे राज्यों ने पांच-पांच करोड़ रुपये की सहायता राशि भेजी. हरियाणा ने तो 25 गांवों को गोद लेने का भी एलान किया. इसके साथ ही वह पहला ऐसा राज्य भी बना जिसने इस त्रासदी में बराबर के शिकार बेजुबानों की सुध ली. हरियाणा ने आपदा से प्रभावित पशुओं के इलाज के लिए दवाओं के साथ डॉक्टरों की एक टीम भी भेजी है. उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने 25 करोड़ रुपये की सहायता राशि देने के साथ ही राज्य परिवहन की 300 बसें फंसे हुए यात्रियों को ले आने के लिए भेज दीं. साथ में डॉक्टरों का एक बड़ा दल भी प्रभावितों के इलाज के लिए उत्तराखंड रवाना किया. भाजपा शासित मध्य प्रदेश ने त्रासदी के कुछ समय बाद ही राज्य के संस्कृति मंत्री के साथ एक सात सदस्यीय टीम को देहरादून रवाना किया. इसके साथ ही राज्य के लोगों को वहां से लाने के लिए सरकार ने ट्रेन के साथ ही सरकारी और प्राइवेट विमानों का भी इंतजाम किया. इस तरह से उत्तराखंड में आई बाढ़ के बाद राहत को लेकर विभिन्न राज्यों की भूमिका को देखें तो बाकी के राज्य राहत पहुंचाने के मामले में गुजरात से कहीं आगे दिखाई देते हैं. हां, यह जरूर है कि उन्होंने इसका ढिंढोरा नहीं पीटा और न अपनी ‘महानता’ की खबरें फैलाईं. मातम की मार्केटिंग के लिए सिर्फ मोदी की ही आलोचना नहीं हुई बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी महासचिव राहुल गांधी भी आलोचना के घेरे में आए. त्रासदी के आठ दिन बाद तक राहुल गांधी का न तो इस हृदयविदारक घटना पर कोई बयान आया और न ही वे कहीं दिखाई दिए. सोशल मीडिया से लेकर बाकी जगहों पर जब हो-हल्ला मचा तो कुछ दिन बाद वे सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस दफ्तर के पास राहत सामग्री लेकर जाने को तैयार ट्रकों को झंडा दिखाते दिखे. लेकिन इसके बाद खबरें आईं कि ट्रक तीन दिन पहले से राहत सामग्री लेकर तैयार खड़े थे, लेकिन राहुल के देश से बाहर होने के कारण उन्हें रवाना नहीं किया गया. खैर, ट्रक जैसे-तैसे गए, लेकिन आधे रास्ते में जाकर वे फिर से खड़े हो गए. उनके ड्राइवरों के हवाले से बताया गया कि उन्हें इतना ही डीजल दिया गया था.

तिरस्कार की मार

बात सितंबर, 1893 की है. उत्तराखंड के चमोली में बहने वाली बिरही नदी में एक पहाड़ गिर गया. बिरही आगे जाकर अलकनंदा में मिलती है जिसके भागीरथी में मेल के बाद बनी धारा को गंगा कहा जाता है. बिरही में पहाड़ गिरने से एक विशाल झील बन गई. ताल के एक छोर पर गौणा गांव था और दूसरे पर दुर्मी तो कोई इसे गौणा ताल कहता और कोई दुर्मी ताल. तब के शासकों यानी अंग्रेजों ने उस ताल से पैदा हुआ खतरा भांपते हुए दुर्मी में एक तारघर खोल दिया. तारघर से एक अंग्रेज कर्मचारी हर रोज पानी के स्तर की जानकारी नीचे बसे गांवों में भेजता. आशंका गलत नहीं थी. एक साल बाद 16 अगस्त 1894 को भारी बारिश और पहाड़ धसकने से ताल का एक हिस्सा टूट गया. कुछ सालों बाद इस ताल का अध्ययन करने आए स्विस भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक इस चार किमी लंबे, एक किमी चौड़े और 300 मीटर गहरे गौणा ताल में करीब 15 करोड़ घन मीटर पानी था. अनुमान है कि ताल टूटने के बाद भारी मात्रा में पानी बिरही की संकरी घाटी से होते हुए चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार की ओर बढ़ा होगा. दस्तावेजों के मुताबिक उस भारी जल प्रवाह से भले ही अलकनंदा घाटी में खेती और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मौत सिर्फ एक हुई थी. वह भी उस साधु की जो लाख समझाने के बावजूद जलसमाधि लेने पर अड़ा हुआ था. यानी नुकसान इसलिए बहुत कम हुआ कि संकट को समझने और उससे बचने के लिए समय पर सटीक उपाय करने की अंतर्दृष्टि दिखाई गई थी. ताल बनते ही बचाव के उपाय शुरू हो गए थे. अंग्रेज तुरंत सूचना भेजने और लोगों को चौकन्ना करने की व्यवस्था की अहमियत समझते थे इसलिए उन्होंने तब दुर्लभ मानी जाने वाली लगभग 100 मील लंबी तार लाइन भी बना ली थी. कई दशक बाद 20 जुलाई, 1970 को ताल पूरी तरह से टूट गया. बेलाकूची नाम का एक गांव इस जल प्रलय में बह गया. उस समय भी कई यात्री गाड़ियों के बहने और कुल 70 मौतें होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है. यह आजाद भारत का किस्सा है. आज देश को आजाद हुए करीब 66 साल हो चुके हैं. उत्तराखंड को अलग राज्य बने भी 13 साल हो गए. लेकिन लगता है कि ऐसी आपदाओं को संभालने के मामले में हम एक मायने में 1893 से भी पीछे चले गए हैं. केदारनाथ में आए जलप्रलय का कारण बना गांधी सरोवर यानी चौरबाड़ी ताल केवल 400 मीटर लंबा और 100 मीटर चौड़ा था. इसकी गहराई अधिकतम दो मीटर थी. यानी गौणा ताल की तुलना में इसका आकार एक तलैया से अधिक नहीं था. फिर भी इससे हुई तबाही ने करीब सवा सदी पहले हुई उस तबाही को कहीं पीछे छोड़ दिया. अब तक 1000 से अधिक मौतों और कई हजार करोड़ रु के नुकसान की पुष्टि हो चुकी है. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ मनीश मेहता के शोध पत्र के अनुसार चौरबाड़ी ताल 3000 साल पुराना था. इसके किनारे थामने वाला मौरेन (हिमनदों का चट्टानरूपी अवक्षेप) 100 मीटर मोटाई का था, लेकिन यह कुछ सालों से रिस भी रहा था. ताल के नीचे रोज हजारों यात्री आते थे फिर भी सरकार ने न तो इसके टूटने की संभावनाओं को परखा और न बचाव के उपाय किए. उत्तरकाशी में दो साल से तबाही का कारण बन रही असिगंगा का मूल स्रोत भी डोडीताल नाम का एक तालाब ही है. आज सूचना और आवागमन के साधन हर जगह मौजूद हैं. लेकिन उनका प्रयोग करके भी इस आपदा के असर को कम नहीं किया जा सका. दरअसल आपदा के पहले और बाद में जो हुआ उसे गहराई से देखें तो इसका सीधा कारण व्यवस्था थामने वालों में जिम्मेदारी की भावना और संवेदनशीलता का अभाव दिखता है. वहीं, आम जनता भी परंपरागत ज्ञान और जीवन पद्धति को याद रखती तो नुकसान इतना ज्यादा नहीं होता. आगे जो दर्ज है वह बताता है कि परंपरागत ज्ञान और आधुनिक कानून का उत्तराखंड में जो तिरस्कार हुआ है, एक समाज के रूप में उसकी कीमत चुकाने के लिए हम अभिशप्त हैं. किसी भी नेतृत्व की असली परीक्षा संकट में होती है. इस लिहाज से देखा जाए तो हाल की आपदा के दौरान जो हुआ उसने उत्तराखंड सरकार की पोल खोल दी है. सरकार का कहना है कि उसे ऐसी आपदाओं से निपटने का कोई अनुभव नहीं है. लेकिन सच यह है कि जो गंभीरता और इच्छाशक्ति उस अनुभव के लिए जरूरी है वही इस त्रासदी के दौरान उसके व्यवहार में गायब दिखी. ऐसी आपदा के लिए अलग और बड़ी व्यवस्था तो दूसरी बात है, राज्य के राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व को यही पता नहीं कि जो संसाधन उसके पास उपलब्ध हैं उनका ही इस्तेमाल ऐसे संकट में अच्छी तरह से कैसे किया जाए. सरकार भले ही तर्क दे कि यह तो अचानक आई आफत थी, पर सच यह है कि यह आपदा न तो दबे पांव आई थी और न ही उत्तराखंड ने ऐसी आपदा पहली बार देखी है. यहां बादल फटने और भूस्खलन का इतिहास रहा है. फिर मौसम विभाग ने पहले ही चेतावनी के संकेत दे दिए थे. प्रकृति ने भी कई इशारे करते हुए धीरे-धीरे ही विकराल रूप धारण किया था. पर न तो समय रहते चेता गया और न ही आपदा के शुरुआती दिनों में सरकार ने पर्याप्त गंभीरता दिखाई. नतीजा सबके सामने है. केदारनाथ की घटना भले ही 16-17 जून को हुई हो लेकिन 13 जून से ही पहाड़ों में भारी बारिश से हजारों यात्रियों का जगह-जगह फंसना शुरू हो गया था. समय से 15 दिन पहले उत्तराखंड पहुंच गए मानसून की मोटी बौछारों ने माहौल में चिंता घोल दी थी. 15 जून को मौसम विभाग ने फिर अगले 48 से लेकर 72 घंटों तक भारी वर्षा की भविष्यवाणी कर दी थी. ऐसा ही हुआ भी. 15 जून की शाम तक ही नदियां उफान पर आ गई थीं और रुद्रप्रयाग जिले में फाटा, रामपुर, सीतापुर आदि जगहों पर टूट-फूट और जनहानि की घटनाएं दर्ज होने लगी थीं. लेकिन आपदा के सारे संकेतों के बावजूद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा 16 जून को दिल्ली के लिए रवाना हो गए. उसी दिन दोपहर बाद उत्तरकाशी में भागीरथी के उफनते पानी ने नदी किनारे बने चार-चार मंजिला घरों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया. 16 जून की ही रात साढ़े आठ बजे भारी बारिश के बाद आए पानी के सैलाब ने केदारनाथ के एक हिस्से को तो बहाया ही, उससे सात किमी नीचे रामबाड़ा और 14 किमी नीचे गौरीकुंड का बड़ा हिस्सा भी साफ कर दिया. सूत्र बताते हैं कि पानी और मलबे के इस पहले वेग ने ही केदारनाथ से लेकर 20 किमी नीचे घाटी में बसे सीतापुर तक मरने वालों का आंकड़ा तीन अंकों में पहुंचा दिया था. कई पुल और मकान बह गए थे. इन सभी घटनाओं की सूचना जिला प्रशासन और प्रदेश सरकार को थी. रामबाड़ा से रात को अंतिम बार पुलिस वायरलेस से संपर्क हुआ था. यात्रियों ने भी अपने-अपने घरों में इस जलजले की सूचना पहुंचा दी थी. भागीरथी, उसकी सहायक नदियों और मंदाकिनी नदी से हो रहे विनाश की खबरों से स्थानीय लोगों, यात्रियों और उनके परिजनों की बेचैनी बढ़ रही थी. उफनाई अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी और असीगंगा नदियां खतरे के निशानों से कई मीटर ऊपर बह रही थीं. इन सबसे मिलकर बनने वाली गंगा हरिद्वार में खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी. 16 जून तक राज्य में 123 सड़कों के टूटने की सरकारी सूचना थी. लेकिन इस सबसे निर्लिप्त मुख्यमंत्री बहुगुणा देश की राजधानी दिल्ली में बैठकर प्रदेश का हाल-चाल ले रहे थे. 17 जून को वे देहरादून वापस आए. उस दिन सुबह करीब आठ बजे तक जल प्रलय से केदारनाथ और उसके नीचे के क्षेत्र पूरी तरह से तबाह हो गए थे. लेकिन उस दिन हुई राज्य मत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री ने कैबिनेट के सहयोगी मंत्रियों से इस जल प्रलय से हुई तबाही पर कोई चर्चा नहीं की. इससे लगता है कि मुख्यमंत्री इस आपदा से या तो खुद ही निपटना चाहते थे या वे अपने सहयोगियों की राय को महत्वहीन समझते हैं. यही नहीं, प्रत्येक राज्य की सरकार हर दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय की आपदा प्रबंधन डिवीजन को उस दिन राज्य में हुई आपदाओं और फौरी नुकसान की सूचना भेजती है. रिकॉर्ड बताते हैं कि 16 और 17 जून को उत्तराखंड सरकार ने राज्य में आपदा से जान-माल की कोई हानि नहीं दिखाई है. राज्य में 17 जून तक केदारनाथ तबाह हो गया था. फिर भी राज्य सरकार क्यों ये सूचनाएं नहीं भेज रही थी या छिपा रही थी, कोई नहीं जानता. 17 जून तक केदारनाथ पूरी तरह तबाह हो गया था लेकिन उस दिन हुई राज्य मत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री ने इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की 18 जून को मौसम साफ हो गया था. राज्य सरकार के एक मंत्री और कुछ अधिकारी केदारनाथ की हवाई यात्रा करके देहरादून पहुंच गए थे. उनके द्वारा दी गई तस्वीरों से केदारनाथ की तबाही की खबर सार्वजनिक हो गई थी. इतनी बड़ी तबाही देखकर कई राज्यों के अधिकारी उसी दिन शाम तक देहरादून पहुंच गए थे और किसी भी तरह अपने प्रदेश से आए यात्रियों से संपर्क बनाने की कोशिश में लगे थे. लेकिन दूसरी ओर उत्तराखंड सचिवालय में आम दिनों की तरह ही कामकाज दिख रहा था. आपदा प्रबंधन विभाग से जुडे़ शासन के एक अधिकारी अकेले बचाव, राहत और समन्वय की जिम्मेदारी तो देख ही रहे थे, अपने मोबाइल पर कई राज्यों के लोगों की आशंकाएं भी शांत कर रहे थे. यानी देश-दुनिया को परेशान करने वाली आपदा के बचाव और राहत कार्य में न तो अतिरिक्त अधिकारी ही लगाए गए थे और न ही कर्मचारी. अगले दो दिन तक राज्य आपदा प्रबंधन केंद्र का यही हाल रहा. 18 जून को ही मुख्यमंत्री ने केदारनाथ और उत्तरकाशी के आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बजाय राजधानी देहरादून में अपने प्रिय दो विधायकों के क्षेत्रों में ढहे पुश्तों का जायजा लेना उचित समझा. 19 जून को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आपदाग्रस्त इलाकों के हवाई सर्वेक्षण से पहले बहुगुणा ने पहली बार आपदा प्रभावित क्षेत्रों में से कुछ का हवाई दौरा किया. उस दिन राज्य के एक बड़े अधिकारी ने हवाई सर्वेक्षण करने के बाद बचाव कार्य और फंसे हुए लोगों को निकालने की रणनीति बताने के बजाय यह बयान दिया कि उन्होंने सारे प्रदेश का दौरा कर लिया है और केंद्र के साथ हुई बैठक में राहत और पुनर्निर्माण के लिए तीन हजार करोड़ रु का प्रस्ताव भेज दिया है. इस बयान से समझा जा सकता है कि उस दिन राज्य सरकार की प्राथमिकता क्या थी. दरअसल उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए केंद्र से ज्यादा से ज्यादा धन मांगने और वह धन आने के बाद उसकी बंदरबांट का पुराना और हर पार्टी का इतिहास है. प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के दौरे और अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों-अधिकारियों के देहरादून में डेरा डालने से उत्तराखंड सरकार थोड़ी हरकत में तो आई, लेकिन उसके पास बचाव और राहत कार्य संचालित करने की न तो कोई निश्चित रूपरेखा थी और न कोई प्रबंधन तंत्र. तब तक दिल्ली में केंद्र सरकार की हाई पावर कमेटी सहित कई बैठकें हो चुकी थीं. कांग्रेस पार्टी के दिग्गज भी दिल्ली में बैठक कर चुके थे. लेकिन उत्तराखंड में मुख्यमंत्री अपने दो सहयोगियों और एक बड़े अधिकारी के साथ ही आपदा से निपटने की कोशिश में लगे थे. आपदा के बाद अभी तक एक बार भी राज्य में बड़े निर्णय लेने के लिए कैबिनेट बैठक नहीं हुई. ये मंत्री और कुछ विधायक हेलीकाप्टरों में यहां-वहां उड़ कर महत्वपूर्ण समय और संसाधन बर्बाद कर रहे थे. इन्हीं दिनों दुर्गम पहाड़ों में मौत से जूझती हजारों जानें बचने की एक आस में ऊपर उड़ रहे इन हेलीकाप्टरों को टुकुर-टुकुर देख रही होंगी. 20 जून की रात मुख्यमंत्री ने कैबिनेट के कुछ सहयोगियों से अलग-अलग जिलों की कमान संभालने को कहा. वे 21 जून तक ही प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंच पाए. तब तक पांच दिन बीत चुके थे. राजनीतिक नेतृत्व की तरह प्रशासनिक नेतृत्व भी सुस्त और दिशाहीन दिखा. 18 जून को केदारनाथ की स्थिति देखने के बाद रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी बीमार होकर देहरादून स्थित अस्पताल में भर्ती हो गए थे. अगले चार दिन तक जिला बिना जिलाधिकारी के ही रहा. उनका काम देखने के लिए ऐसा कोई प्रशासनिक अधिकारी तैनात नहीं किया गया जो अनुभवी हो और प्रशासन, सेना, आईटीबीपी और केंद्र सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों से समन्वय की क्षमता रखता हो. नतीजतन कि सारी व्यवस्थाएं चरमरा गईं और सूचना तंत्र फेल हो गया. सेना और आईटीबीपी युद्ध-स्तर पर बचाव का काम तो कर रही थी, लेकिन कौन फंसा है, कौन आ गया, किसे अस्पताल भेजा गया है, कौन मर गया है, यह बताने के लिए कोई व्यवस्था नहीं बन पाई. केदारनाथ, गौरीकुंड, सोनप्रयाग, फाटा और गुप्तकाशी में पांच दिन तक कोई डिप्टी कलेक्टर तक तैनात नहीं किया गया जो राजधानी देहरादून तक सही स्थिति बताता और उसके अनुसार आगे की योजना तय होती. देश-दुनिया में इतने शोर के बाद भी प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व और शीर्ष नौकरशाही की आंख नहीं खुल रही थी. सूत्र बताते हैं कि आपदा के पहले ही दिन से राज्य के कई युवा अधिकारी आगे बढ़कर आपदाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर काम करने की इच्छा अपने बड़े अधिकारियों को बता चुके थे , लेकिन उनसे काम लेने को कोई तैयार ही नहीं था. उत्तरकाशी स्थित दुनिया भर में चर्चित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में ऊंचे हिमालयी इलाकों में बचाव और राहत का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है. जब 18 जून तक यहां कोई सरकारी आदेश नहीं पहुंचा तो संस्थान के अधिकारी खुद ही प्रशिक्षकों सहित 110 बचाव विशेषज्ञों की सूची लेकर जिलाधिकारी के पास गए और उनसे बचाव कार्य में लगने की इजाजत मांगी. इसके बाद उन्होंने जिले के अलग-अलग इलाकों से करीब 46 विदेशियों सहित करीब 6,500 लोगों को बचाया. साफ था कि सरकार अपने ही संसाधनों की अहमियत से अनजान थी. अव्यवस्था और देश भर में हो रही बदनामी के बीच केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने माना कि समन्वय में कमी है. इस बीच केंद्र ने आपदाग्रस्त क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए कुछ युवा परिवीक्षाधीन अधिकारी भेजे. इतना सब होने के बाद 21 जून की शाम शासन ने राज्य के 12 युवा अधिकारियों को अलग-अलग आपदाग्रस्त क्षेत्रों में नोडल अधिकारियों के रूप में तैनात करने के आदेश जारी किए. ये अधिकारी 22 जून की रात या 23 जून दोपहर तक किसी तरह इन दुर्गम क्षेत्रों तक पहुंचे. तब तक तबाही हुए छह दिन बीत गए थे, लोगों को बचाने और उनके परिजनों को सांत्वना व सूचना देने का समय जा चुका था. आपदा कभी शोर मचा कर नहीं आती, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक गंभीरता से उसकी आहट सुनी जा सकती है. उससे निपटने की तैयारी पहले से की जा सकती है. इस बार भी राज्य में ही मौजूद संसाधनों के जरिये अविलंब मदद पहुंचाकर कई जिंदगियां बचाई जा सकती थीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कि संकट की ऐसी घड़ी में उत्तराखंड की सरकार को अहम निर्णय लेने में पांच-छह दिन क्यों लगे. अब यह हाल था तो आम दिनों में वह कैसे काम करती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है.

नाम का मनरेगा!

राजधानी भोपाल के सीहोर रोड पर बन रही एक गगनचुंबी इमारत के नीचे कुछ मजदूर परिवारों ने ईंटों की अस्थायी चारदीवारी बना ली है. इन्हें अंदाजा है कि वे कुछ महीनों तक यहीं रहेंगे. ठीक से हिंदी न बोल पाने वाले ये सभी लोग धार जिले की डही जनपद पंचायत के भिलाला आदिवासी हैं और अपने घर में भूखों मरने से बचने के लिए 500 किलोमीटर का सफर तय करके यहां तक पहुंचे हैं. मार्च के बाद प्रदेश में खेतीबाड़ी के काम बंद हो जाते हैं. इसके बाद मजदूरों को काम की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. कुछ सालों पहले तक इन दिनों में निमाड़, मालवा सहित बाकी आदिवासी अंचल के लाखों लोग पड़ोसी राज्य गुजरात और महाराष्ट्र के बड़े शहरों की ओर कूच कर जाते थे. किंतु महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना आने के बाद उनका हर साल का यह क्रम टूट गया. उन्हें गांव में ही काम मिलने लगा. इसीलिए पिछले छह साल में प्रदेश से अप्रैल, मई और जून के महीनों में होने वाला पलायन रुक-सा गया था. धार जिले के डही पंचायत के ही सुगरलाल बताते हैं कि उनके लिए यह योजना मुसीबत के दिनों में घर चलाने का अच्छा जरिया बन गई थी. मगर इस साल एक अप्रैल के बाद से उनकी पंचायत में किसी को एक दिन का भी काम नसीब नहीं हुआ. इसलिए एक बार फिर आस-पास के गांव के गांव खाली हो गए हैं. दरअसल मध्य प्रदेश में सतपुड़ा और विंध्याचल की पहाड़ियों के बीच बसे लाखों लोगों के लिए काम की उम्मीद जगाने वाली मनरेगा इस वित्तीय वर्ष में अकाल मौत के मुंह में चली गई है. हालत यह है कि जिन महीनों में कई सौ करोड़ रुपये खर्च होने चाहिए थे, उनमें यह आंकड़ा अभी तक पचास करोड़ रुपये तक भी नहीं पहुंचा. नतीजा यह कि मनरेगा से बेदखल लोग जिंदा रहने के लिए सालों पुरानी परंपरा यानी पलायन पर लौट आए हैं. आधे दशक के बाद प्रदेश के लाखों मजदूर काम की तलाश में अब फिर से इधर-उधर भटक रहे हैं. मध्य प्रदेश पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं. लेकिन तहलका के पास मौजूद विभाग की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. बीते साल अप्रैल से जून तक मनरेगा में 12 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इस साल सरकार ने इस अवधि के लिए अनुमानित राशि 16 सौ करोड़ रुपये रखी थी. पर हैरानी की बात है कि इस साल अप्रैल से अब तक मप्र के सभी 50 जिलों में 25 करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए. दूसरे शब्दों में मनरेगा के तहत हर साल इन तीन महीनों में खर्च की जाने वाली राशि का यह दो प्रतिशत पैसा भी नहीं है. ऐसा तब है जब बीते साल धार और बालाघाट जैसे एक-एक आदिवासी जिले में सौ-सौ करोड़ रुपये का काम हुआ था. यही वजह है कि इस बार मनरेगा का पैसा गांवों तक नहीं पहुंचने से जहां गांवों में विकास का काम ठप पड़ा है वहीं जिस संख्या में ग्रामीण गांवों से पलायन कर रहे हैं उसे भांपते हुए विभाग के होश उड़ गए हैं. लिहाजा बीती 27 मई को विभाग आयुक्त ने सभी कलेक्टरों को यह फरमान भेजा है कि वे कैसे भी राज्य के 20 लाख मजदूरों को पलायन से रोकें. सवाल उठता है कि बीते सालों तक जो योजना ठीक-ठाक चल रही थी वह यह साल शुरू होने से पहले ही ठप क्यों हो गई. दरअसल ऐसा हुआ राजधानी भोपाल में बैठे चंद अदूरदर्शी नौकरशाहों के चलते. इन्होंने मनरेगा को हाईटेक बनाने के लिए इस साल जनवरी में बिना तैयारी के सभी जिलों में ई-वित्तीय प्रबंधन लागू कर दिया. इसके लिए उन्हें लाखों मजदूरों के खातों को न केवल राष्ट्रीयकृत बैंक से जुड़वाना था बल्कि उन खातों को ‘नरेगा सॉफ्ट’ नामक सॉफ्टवेयर में डलवाते हुए सभी का ई-मस्टर (कम्प्यूटर पर मजदूर की मजदूरी का ब्योरा) बनवाना था. प्रदेश में मनरेगा के 50 लाख से ज्यादा मजदूर हैं, इस लिहाज से एक जिले के एक लाख मजदूरों के खाते बैंकों में खुलवाना इतना बड़ा काम था जिसे कुछ दिनों में कर पाना संभव नहीं था. यह सारा काम मार्च तक हो जाना था, लेकिन नहीं हुआ. इस तरह योजना का सारा काम रुक गया और इसका खामियाजा बेकसूर मजदूरों को भुगतना पड़ा. प्रदेश में इसके पहले 13वें वित्त आयोग और राज्य वित्त आयोग की राशि ग्राम पंचायतों को सौंपी जाती थी और पंचायतें ग्रामसभा के जरिए निर्माण कार्य कराती थीं. मगर अब जबकि मनरेगा सहित सभी कामों के वित्तीय अधिकार से सरपंचों को बेदखल किया जा चुका है तो उनमें असंतोष है और इसलिए उन्होंने मार्च के बाद से मनरेगा से खुद को अलग कर लिया है. इसके पहले मनरेगा के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल राज्यों में गिना जाता था. बालाघाट, बैतूल और अनूपपुर जैसे जिलों को प्रधानमंत्री ने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अवॉर्ड भी दिया था. आज इन्हीं जिलों के लाचार मजदूर अधिकारियों से काम की गुहार लगा रहे हैं. इस मुद्दे पर कोई भी आला अधिकारी आधिकारिक जवाब नहीं देना चाहता. पंचायत और ग्रामीण मंत्री गोपाल भार्गव इस बारे में विभाग की अतिरिक्त प्रमुख सचिव अरुणा शर्मा से संपर्क साधने को कहते हैं. शर्मा मानती हैं कि मनरेगा के मामले में प्रदेश पिछड़ गया है. वे कहती हैं, ‘आने वाले दिनों में इसकी भरपाई कर ली जाएगी.’ सवाल है कि भरपाई होगी कैसे. आने वाले तीन महीने बारिश में निकल जाएंगे और उसके बाद का समय चुनावी सरगर्मियों में जाएगा. वहीं एक वर्ग की सोच है कि मनरेगा में मनमानी, कामचोरी और अनियमितताओं के चलते भी राज्य में यह योजना बैठ गई. दिल्ली में बहस चल रही है कि मनरेगा के चलते किसानों को खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते. जबकि राज्य में मनरेगा इतना फटेहाल है कि मजदूर मनरेगा में काम करने के बजाय शहर जाना चाहता है. बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है. वे कहती हैं, ‘बीते कुछ सालों में ही मनरेगा में मजदूर आदिवासियों की तेजी से घटती संख्या उनका मोहभंग दिखाती है.’ मनरेगा के चलते बीते सालों तक मप्र के 52 हजार गांवों में सालाना साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये आते थे. इसलिए यह योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अहम धुरी बन गई थी. भले ही यह पैसा मजदूरों के खातों से निकलकर छोटे-छोटे दुकानदारों तक पहुंचता था, लेकिन धनराशि का यह चक्र करीब दो करोड़ आबादी के बीच चलता था. इन दिनों यदि यह पैसा दिल्ली से प्रदेश के गांवों तक पहुंचता तो न केवल मजदूर परिवारों को काम मिलता बल्कि उनके खर्च की क्षमता भी बढ़ती. और इसका असर तीज-त्योहार और हाट बाजारों पर पड़े बिना नहीं रहता. लेकिन ऐसा नहीं होने से ग्रामीण इलाके के हाट बाजारों में जहां पिछले साल के मुकाबले लाखों रुपये की कम खरीदी हुई है वहीं इन बाजारों की रौनक भी उड़ी हुई है.

नेटवर्क के जरिए नक्सलवाद से लोहा

कहने को जम्मू-कश्मीर और छत्तीसगढ़ में 2,100 किलोमीटर का फासला हो, लेकिन वे इस मायने में एक जैसे हैं कि दोनों ही लंबे समय से अलगाववादी हिंसा की मार झेल रहे हैं. जम्मू-कश्मीर ने जहां आतंकियों से निपटने में मोबाइल फोन नेटवर्क का कुशलता से इस्तेमाल किया है वहीं छत्तीसगढ़ और दूसरे नक्सल प्रभावित राज्य अभी इस मामले में काफी पीछे हैं. अब केंद्र सरकार अपनी नक्सल विरोधी रणनीति के तहत इस कमी को दूर करने की योजना बना रही है. इसके तहत नौ नक्सल प्रभावित राज्यों में करीब 2,200 मोबाइल टावर लगाने की योजना है. ये टावर उन इलाकों में लगाए जाएंगे जो अभी तक किसी भी तरह के मोबाइल नेटवर्क के कवरेज से बाहर रहे हैं. गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक यह परियोजना सुरक्षा बलों के लिए काफी उपयोगी साबित होगी जिन्हें घने जंगलों की मौजूदगी वाले करीब 80 नक्सल प्रभावित जिलों में नक्सलियों का पता लगाने में बहुत मुश्किल होती है. दरअसल यह जम्मू-कश्मीर में किए गए प्रयोग की सफलता दोहराने की कोशिश है. 2003 में जब केंद्र ने इस राज्य में मोबाइल फोन सेवा शुरू करने का फैसला किया था तो सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों ने इसका काफी विरोध किया था. उन्होंने चेतावनी दी थी कि मोबाइल फोन से आतंकियों को फायदा होगा जो इसका इस्तेमाल बम धमाकों और आतंकी हमलों के बेहतर समन्वय के लिए करेंगे. ऐसा हुआ भी. मोबाइल सेवा का इस्तेमाल करके आतंकियों ने कई हमले किए, लेकिन जल्द ही यह रणनीति उल्टे उन पर भारी पड़ने लगी. श्रीनगर के एक सुरक्षा विशेषज्ञ बताते हैं, 'आतंकियों के मोबाइल सिग्नल और उनकी आपसी बातचीत रिकॉर्ड करके सुरक्षा बलों ने ज्यादातर आतंकियों का सफाया कर दिया. यानी आखिरकार तकनीक ने हमें ही फायदा पहुंचाया.' आज घाटी में हाल यह है कि सक्रिय आतंकियों की संख्या 100 से भी कम रह गई है. 2003 में यह हजारों में थी. हाल की बात करें तो 2011 में मोबाइल फोन की वजह से ही सुरक्षा बलों को लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद के कुख्यात आतंकियों अब्दुल्ला उनी और हमाद तक पहुंचने में आसानी हुई और ये दोनों ही अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए. 2012 में मोबाइल फोन नेटवर्क की निगरानी के चलते अब्दुल राशिद शिगन नाम के पुलिसकर्मी की गिरफ्तारी मुमकिन हुई. अब्दुल ने अपने एक साथी के साथ मिलकर एक ग्रुप बनाया था और इसने सुरक्षा बलों पर 13 बार हमले किए थे. अब सरकार को उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ सहित तमाम नक्सल प्रभावित राज्यों में भी मोबाइल कवरेज बढ़ाने से कुछ ऐसे ही नतीजे आएंगे. सूत्र बताते हैं कि टावर लगाने के लिए करीब 2,200 लोकशन भी तय कर लिए गए हैं और अगर यह योजना पूरी तरह से लागू होती है तो इस पर करीब तीन हजार करोड़ रु का खर्च आएगा. छत्तीसगढ़ में ऐसे करीब 500 लोकेशन हैं. संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री किल्ली कृपारानी ने हाल ही में संसद को जानकारी दी कि प्रस्तावित 2,200 लोकेशनों में से 363 पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) मोबाइल टावर लगा भी चुका है. छत्तीसगढ़ में बीएसएनएल ऐसे 351 नए टावरों को स्वीकृति दे चुका है. टावर लगाने के लिए 2000 या उससे ज्यादा आबादी वाले गांव चुने गए हैं.' गौरतलब है कि गरीब और दुर्गम नक्सल प्रभावित इलाकों में पड़ने वाले ज्यादातर गांवों में मोबाइल सेवा नहीं है. इसकी एक वजह यह भी है कि निजी ऑपरेटरों को लगता है कि ये इलाके बिक्री के लिहाज से उतने फायदेमंद नहीं हैं. लेकिन जब नवंबर, 2011 में शीर्ष माओवादी नेता किशनजी को एक मुठभेड़ में मार गिराया गया और इसमें मोबाइल फोन के जरिए हुई निगरानी ने अहम भूमिका निभाई तो सरकार को समझ में आ गया कि अगर इन इलाकों में मोबाइल सेवा का विस्तार किया जाए तो इससे नक्सलवाद से निपटने में काफी मदद मिल सकती है. इसके बाद तुरंत ही नक्सल प्रभावित राज्यों में 500 से ज्यादा नए मोबाइल टावर लगाए गए. हाल के समय में जिस तरह नक्सली मोबाइल टावरों को भी निशाना बनाते रहे हैं उससे भी साफ होता है कि उन्हें इनसे खतरा महसूस होता है. उन्हें डर है कि स्थानीय लोग उनकी गतिविधियों की सूचना देने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर सकते हैं जिससे सुरक्षा बलों को सटीक कार्रवाई में मदद मिल सकती है. आंकड़े उनके इस डर की गवाही देते हैं. एक अनुमान के मुताबिक 2008 में नक्सलियों ने 38 टावर उड़ाए थे जबकि 2011 में यह संख्या 71 हो गई. इसीलिए गृह मंत्रालय नक्सलवाद से निपटने में मोबाइल नेटवर्क के इस्तेमाल की सोच रहा है. सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ समय से मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट से हो रहे संवाद पर निगरानी की एक एकीकृत व्यवस्था बनाने की दिशा में काम हो रहा है. हाल ही में 400 करोड़ रु की लागत से एक केंद्रीय निगरानी व्यवस्था बनाई गई है. इसकी मदद से केंद्रीय और राज्यों की खुफिया एजेंसियां कॉल रिकॉर्ड, संदेश और ईमेल प्राप्त कर सकेंगी और स्रोत एक ही होने की वजह से इस जानकारी में पहले से ज्यादा स्पष्टता होगी. इस व्यवस्था की मदद से मोबाइल फोनों और इंटरनेट से जुड़े कंप्यूटरों के लोकेशन का भी पता लगाया जा सकेगी. साफ है कि जितना ज्यादा नक्सल प्रभावित इलाका मोबाइल कवरेज में लाया जाएगा उतनी नक्सलियों की गतिविधियों के बारे में पुख्ता जानकारी मिलने की उतनी ही अधिक संभावना होगी. हालांकि एक वर्ग इस पहल पर चिंता जता रहा है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मोबाइल फोन को बाकी देश से कटे गरीब आदिवासियों से संवाद बढ़ाने के बजाय नक्सल विरोधी रणनीति के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है जो गलत है. दिल्ली स्थित एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स से जुड़े सुहास चकमा को लगता है कि सरकार अब तक विकास और नक्सलवाद के रिश्ते को ठीक से नहीं समझ पाई है. वे कहते हैं, 'इतने बड़े बुनियादी ढांचे को सिर्फ माओवादियों को ढूंढ़ने के लिए इस्तेमाल करना सिर्फ पैसे की बर्बादी होगी.' पूर्व पत्रकार और मोबाइल आधारित एक समाचार सेवा सीजीनेटस्वर चलाने वाले शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, 'आदिवासी भारत और मुख्यधारा के बीच कोई संवाद नहीं है. मोबाइल फोन इस खाई को पाटने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. अगर वे सिर्फ नक्सल विरोधी अभियानों के लिए इस्तेमाल होंगे तो मुझे पता नहीं कि इसका कितना फायदा होगा.' छत्तीसगढ़ में सात साल बिता चुके और माओवादी समस्या को काफी नजदीक से देखने वाले चौधरी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए बाकी देश को अपनी आवाज सुनाना बहुत मुश्किल है. वे कहते हैं, 'ब्यूरोक्रेटों या नेताओं के अलावा राज्य में काम कर रहे ज्यादातर पत्रकार भी उनकी भाषा यानी गोंडी नहीं समझते. इसलिए जब लोग आदिवासी इलाकों से रिपोर्टिंग की कोशिश करते हैं तो ज्यादातर मौकों पर उन्हें उन लोगों द्वारा दी गई जानकारी से काम चलाना पड़ता है जो थोड़ी हिंदी या अंग्रेजी जानते हैं. इसलिए उन रिपोर्टों में उनकी अपनी आवाज नहीं होती.' हालांकि चौधरी को उम्मीद है कि नक्सल विरोधी रणनीति के तहत ही सही, इन इलाकों में मोबाइल सेवा बढ़ेगी तो इसका फायदा सुरक्षा एजेंसियों के अलावा आम आदिवासी को भी होगा जिसकी आवाज सुने जाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी.