सोमवार, 1 जुलाई 2013

मोदी और राजगणित

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया है. यानी वे 2014 में होने वाले 16वें आम चुनाव में भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान संभालेंगे. अक्टूबर, 2001 में मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि मोदी एक दिन इतने बड़े हो जाएंगे कि उन्हें देश की सबसे बड़ी गद्दी के दावेदार के तौर पर देखा जाएगा. तब तक वे भाजपा के उन नेताओं में हुआ करते थे जो परदे के पीछे रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह एक दुर्लभ विशेषाधिकार है जो पार्टी के 33 साल के इतिहास में सिर्फ दो लोगों को मिला है. पहले अटल बिहारी वाजपेयी जो इस दावेदारी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने में सफल भी हुए और दूसरे लाल कृष्ण आडवाणी, जो उपप्रधानमंत्री रहे और 2009 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. 33 साल की इस अवधि में भाजपा के कई अध्यक्ष हुए, लेकिन इनमें सिर्फ वाजपेयी और आडवाणी थे जिन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य समझा गया. मोदी इस सूची में तीसरा नाम बन गए हैं. आम चुनाव में अब एक साल से भी कम का वक्त बचा है. इस लिहाज से देखें तो जीत के लिए टीम और रणनीति बनाने या 2002 के गुजरात दंगों के चलते बनी विभाजनकारी नेता की अपनी छवि बदलने के लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है. पिछले आम चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व के साथ मैदान में उतरी भाजपा को पराजय मिली थी. सवाल उठता है कि क्या मोदी पार्टी को विजय दिला पाएंगे. क्या वे उन मोर्चों पर सफल हो पाएंगे जहां आडवाणी नाकामयाब रहे थे? क्या 2009 के आडवाणी के मुकाबले वोटरों में मोदी का ज्यादा आकर्षण है? क्या भाजपा के मौजूदा या संभावित सहयोगी प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को स्वीकार कर पाएंगे? मोदी के समर्थकों और विरोधियों, दोनों में उनकी मुस्लिमविरोधी छवि है. इसके चलते गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के साथ भाजपा की तनातनी हुई. मोदी उन कुछ राजनेताओं में से हैं जिन्हें भारत की बहुलतावादी राजनीति के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता है. क्या उनकी मुस्लिम विरोधी छवि भारत की 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या में भाजपा के समर्थन का तूफान पैदा कर सकेगी? या फिर इसके चलते भाजपा को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा? मोदी की एक दूसरी छवि भी है. एक ऐसे नेता की छवि जिसने तेज आर्थिक विकास के बूते अपने राज्य में खुशहाली पैदी की. वे अपनी इस उपलब्धि का जिक्र जमकर करते भी हैं. सवाल उठता है कि गुजरात में सुशासन का मोदी का दावा क्या भारत के 80 करोड़ वोटरों का उतना हिस्सा अपनी तरफ खींच पाएगा जिसके बल पर उनकी पार्टी की सरकार बन सके. 2004 में भाजपा ने भारत उदय और इंडिया शाइनिंग के नारों के साथ ऐसा ही दावा किया था जिसका लोगों पर इतना असर नहीं हो पाया कि भाजपा सत्ता में वापसी कर पाती. और आखिरी सवाल यह है कि विधानसभा चुनाव में लगातार तीन बार जीत क्या संसदीय चुनाव में पहली बार विजय पताका फहराने की उनकी कोशिश में उनके काम आएगी. राज्यों में भाजपा का हाल 2009 के मुकाबले इस वक्त भाजपा की हालत पतली है. इसका मतलब यह हुआ कि मोदी की राह 2009 के आडवाणी से कहीं ज्यादा मुश्किल है. आडवाणी उस समय तुलनात्मक रूप से फायदे की स्थिति में थे. पांच साल पहले भाजपा के पास सात राज्यों की सत्ता थी. आज उसके पास सिर्फ चार राज्य हैं- मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गोवा. इसमें राजनीतिक प्रासंगिकता के हिसाब से गोवा न के बराबर है. बिहार में वह जदयू के साथ गठबंधन के सहारे सत्ता में है. 2005 से यह गठबंधन वहां अटूट रहा है. 2009 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 12 जीती थीं और 1999 में अपने सबसे बढ़िया प्रदर्शन की बराबरी की थी. 2010 के विधानसभा चुनाव में भी इसने बढ़िया प्रदर्शन किया. लेकिन आज भाजपा-जदयू गठबंधन टूट के कगार पर है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि मोदी के साथ दिखने से बिहार के 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता उनसे दूर जा सकते हैं. पड़ोसी राज्य झारखंड में अवसरवादी राजनीति के चलते इस साल जनवरी में ही भाजपा ने सरकार गंवाई है. राज्य में अब राष्ट्रपति शासन है. पिछले साल उत्तराखंड और हिमाचल में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई है. जनसंख्या और राजनीतिक असर के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का हाल बुरा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी 403 में से सिर्फ 48 सीटें जीत पाई थी और तीसरे स्थान पर रही थी. उसका यह प्रदर्शन 2007 के मुकाबले तो खराब ही था जब उसने 51 सीटें जीती थीं 2002 की तुलना में तो यह कोसों दूर था जब उसने 88 सीटों पर विजय हासिल की थी. यह दिखाता है कि भाजपा 2002 से राज्य की सत्ता में रही सपा और बसपा सरकारों की असफलताओं का फायदा उठाने में नाकामयाब रही है. उसके लिए चिंता की बात यह भी है कि 2007 के मुकाबले 2012 में जहां सपा और कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा वहीं भाजपा का वोट प्रतिशत 17 फीसदी के मुकाबले 15 फीसदी रह गया. वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पार्टी का लगातार पतन हुआ है. 1996 से अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत दोनों में गिरावट आई है. 1996 में पार्टी ने 32.5 फीसदी वोटों के साथ 425 में से 174 सीटें जीती थीं. केंद्र की सत्ता का रास्ता जिस उत्तर प्रदेश से होकर जाता है वहां भाजपा इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर में चल रही है महाराष्ट्र का हाल भी कुछ ऐसा ही है. 1999 से अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में वहां भाजपा-शिवसेना गठबंधन हर बार हारा है. सीट संख्या और वोट प्रतिशत दोनों लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन लगातार गिरा है. यानी जनसंख्या के मामले में इस दूसरे सबसे बड़े राज्य में भी वह अपने सबसे बुरे दौर में है. उड़ीसा में जब बीजू जनता दल नेता और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2009 में इससे गठबंधन तोड़ा तो इसकी नैया ही डूब गई थी. भाजपा को कुछ राहत पिछले साल पंजाब में मिली जहां शिरोमणि अकाली दल के साथ इसके गठबंधन ने विधानसभा चुनाव में अपनी सत्ता कायम रखी थी. बड़े लाभ की उम्मीद भाजपा को सिर्फ राजस्थान में है जहां वह नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के सहारे सत्तासीन कांग्रेस को हराने के सपने देख रही है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने 2003 से लगातार दो बार सरकार बनाई है. यहां भी विधानसभा चुनाव छह महीने दूर हैं. हालांकि वहां की भाजपा सरकारें खुद को लोकप्रिय बता रही हैं, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद है कि दस साल से सत्ता में बैठी इन सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बनेगी और वहां वह वापसी करेगी. अगर भाजपा ने इन दो में से एक भी राज्य गंवा दिया तो वोटरों और पार्टी दोनों में मोदी की अपील बुरी तरह घट सकती है. लोकसभा में भाजपा केंद्र में भाजपा की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली थी. 1996 में तब उसे बहुमत के आंकड़े यानी 272 सीटों तक पहुंचने के लिए पर्याप्त दलों का समर्थन नहीं मिल पाया था. 1998 में बनी पार्टी की दूसरी सरकार 13 महीने चली. 1999 में बनी इसकी तीसरी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 1998 में भाजपा ने 182 सीटें जीती थीं. 1999 में यह आंकड़ा 183 हुआ. दोनों बार दूसरे दलों के समर्थन से उसकी सरकार बनी. माना जा सकता है कि अगर भाजपा अगले आम चुनाव में 185 सीटों के आस-पास पहुंच जाती है तो वह केंद्र में सरकार बनाने की दावेदार होगी. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी के रास्ते में जो अड़चनें हैं वे उन अड़चनों से कहीं बड़ी हैं जो 2009 में आडवाणी के सामने थीं. 2009 में जब भाजपा आडवाणी के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी तो उसके खाते में 2004 के आम चुनावों में मिली 137 लोकसभा सीटों की पूंजी थी. यानी पार्टी को करीब 45 सीटों की खाई पाटनी थी. अभी भाजपा के पास 116 लोकसभा सीटें हैं. यानी मोदी को दूसरी पार्टियों से 70 के करीब सीटें छीननी होंगी. जिस तरह से 2009 के बाद हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा उपचुनावों में भाजपा का प्रदर्शन गिरा है, उसे देखते हुए उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है. खासकर तब तो बहुत ही बड़ी अगर पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा 543 में से 365 लोकसभा सीटों पर लड़ी और बाकी सीटें उसे गठबंधन सहयोगियों के लिए छोड़नी पड़ीं. उत्तर प्रदेश अपनी पार्टी को सत्ता में लाने और खुद प्रधानमंत्री बनने का जो सपना मोदी देख रहे हैं वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वे उत्तर प्रदेश में पार्टी की किस्मत नहीं बदल देते. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जो किसी भी राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा हैं. इनमें से सिर्फ नौ ही आज भाजपा के पास हैं. 1996, 1998 और 1999 के तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई थी. इन चुनावों में उसने क्रमश: 52, 59 और 29 सीटें जीती थीं. 2004 में जब वाजपेयी सरकार सत्ता से बाहर हुई तब भाजपा सिर्फ 10सीटें जीत पाई थी. यह रिकॉर्ड इशारा करता है कि दिल्ली की सत्ता में वापसी करने के लिए भाजपा को उत्तर प्रदेश में कम से कम 25 सीटें तो जीतनी ही होंगी. यानी मौजूदा सीटों से 16 सीट ज्यादा. अगले साल 25 सीटें जीतना भाजपा के लिए 1999 की स्थिति की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल है. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 30 प्रतिशत वोट हासिल करके 25 सीटें जीती थीं. दरअसल 1991 से 1999 का दौर उत्तर प्रदेश में भाजपा का स्वर्णिम दौर रहा था. इस दौरान हुए चारों लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए. 1998 में तो यह आंकड़ा 37.5 प्रतिशत तक भी पहुंचा. लेकिन 2004 में यह घटकर 22 प्रतिशत पर आ गया और 2009 में तो पार्टी को कुल 17.5 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. कोढ़ में खाज यह कि 14 साल में सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश में मजबूत ही हुए हैं. 90 के दशक में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत या तो सबसे ज्यादा होता था या फिर वह इस मामले में दूसरे स्थान पर रहती थी. लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है. अपवाद के रूप में 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें जब कांग्रेस ने बसपा से एक ज्यादा यानी 21 सीटें हासिल की थीं, तो वोट प्रतिशत का सबसे बड़ा हिस्सा अब सपा और बसपा में बंटता है. सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का यह हाल क्यों हुआ. इसकी प्रमुख वजह यह रही कि सवर्ण वोटों पर उसकी पकड़ लगातार कमजोर होती गई. प्रदेश में सवर्ण वोट लगभग 18 प्रतिशत हैं. पहले यह वोट कांग्रेस को जाता था, लेकिन 1989 के बाद से ही भाजपा लगातार इसे अपने पक्ष में करने में कामयाब हो रही थी. 1999 तक प्रदेश के सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वोट का एक बड़ा हिस्सा पार्टी को मिल रहा था. लेकिन पिछले दस साल में सपा और बसपा ने अपना प्रभाव बढ़ाकर और सवर्ण प्रत्याशियों को मैदान में उतार कर ऊंची जातियों के वोट का अच्छा-खासा हिस्सा अपनी तरफ खींच लिया. 1996 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश के कुल सवर्ण वोटों का 74 प्रतिशत हासिल किया था. यानी तीन-चौथाई सवर्ण वोट भाजपा के पास थे. लेकिन 2002 में यह घटकर मात्र 47 प्रतिशत रह गए. इसके ठीक उलट बसपा के पास जहां 1996 में सिर्फ चार प्रतिशत ब्राह्मण वोट थे, वे 2002 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गए. बसपा को मिलने वाले अन्य सवर्ण जातियों के वोट भी इस दौर में लगभग दोगुने हो गए. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में सपा को लगभग 19 प्रतिशत ब्राह्मण वोट मिले. सपा और बसपा दोनों ही एक दौर में जाति आधारित पार्टियां मानी जाती थीं. लेकिन सवर्ण वोटों को अपने पक्ष में करने के बाद इन पार्टियों की राजनीति लगातार समावेशी हुई है. पिछले दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा ने ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर प्रत्याशियों को रिकॉर्ड संख्या में टिकट दिए. इस कारण सवर्ण वोट का एक बड़ा हिस्सा उनके खाते में गया जिसने पिछड़े और दलित वोट के साथ मिलकर भाजपा की नैया डुबो दी. 2009 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का हर पांच में से एक प्रत्याशी ब्राह्मण था. बसपा में ब्राह्मण प्रत्याशियों की संख्या दलित प्रत्याशियों से भी ज्यादा थी, जबकि दलित ही बसपा के अस्तित्व का मुख्य कारण रहे हैं. ऐतिहासिक तौर पर उत्तर प्रदेश में हमेशा ठाकुर और ब्राह्मण की चुनावी लड़ाई रही है. भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ब्राह्मण विरोधी छवि वाले ठाकुर हैं. मोदी के लिए राजनाथ सिंह के साथ मिलकर राज्य के ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करना आसान नहीं होगा. फिर भी भाजपा किसी तरह से उत्तर प्रदेश में 25 सीटें जीत भी जाती है तो भी मोदी को दौड़ में बने रहने के लिए पूरे देश से 160 सीटें और जोड़नी होंगी. ये सीटें वे कहां से लाएंगे? ला भी पाएंगे या नहीं? जानने के लिए दूसरे राज्यों की स्थितियों पर गौर करते हैं. महाराष्ट्र महाराष्ट्र में भाजपा क्षेत्रीय दल शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है. यहां 48 लोकसभा सीटें हैं. इनमें सबसे ज्यादा 18 भाजपा ने 1996 में जीती थीं. 1999 में भी पार्टी का प्रदर्शन यहां ठीक रहा और उसे 14 सीटें हासिल हुईं. 2004 में भाजपा के खाते में 13 सीटें आईं, लेकिन 2009 में ये घटकर सिर्फ नौ रह गईं . जबकि 2009 में भाजपा को अपनी बड़ी जीत की उम्मीद थी. चुनाव से छह महीने पहले ही मुंबई पर आतंकी हमला हुआ था जिसमें 150 लोगों की जान चली गई थी. प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा ने इस हमले को सुरक्षा के मामले पर सरकार की नाकामयाबी बताते हुए मुद्दा बनाया था . लेकिन पार्टी मुंबई की ही छह लोकसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत सकी. 2009 में भाजपा को अपने बेजोड़ नेता प्रमोद महाजन की कमी भी काफी खली जिनकी 2006 में उन्हीं के भाई द्वारा हत्या कर दी गई थी . पिछले साल शिव सेना ने भी अपने संस्थापक बाल ठाकरे को खो दिया. उनके बेटे और राजनीतिक वारिस उद्धव ठाकरे की क्षमताओं पर ज्यादातर लोगों को संदेह है. इसके अलावा उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे द्वारा 2006 में बनाई गई अलग पार्टी मनसे भी लगातार कांग्रेस विरोधी वोटों को बांटने में कामयाब रही है. इस लिहाज से यहां 2014 का पूर्वानुमान भाजपा के लिए बहुत उजले नहीं दिखाई पड़ते . पश्चिम बंगाल पश्चिम बंगाल में भाजपा का अस्तित्व लगभग शून्य ही रहा है. 2009 में पार्टी यहां की कुल 42 में से 40 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. इनमें से सिर्फ पार्टी के दिग्गज जसवंत सिंह ही दार्जीलिंग से जीत पाए. (संयोग से जसवंत सिंह मोदी के कट्टर विरोधी हैं) बंगाल में भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1999 में रहा था जब उसे दो सीटें हासिल हुई थीं. वाजपेयी ने तुरंत ही दोनों जीते हुए प्रत्याशियों को अपनी सरकार में मंत्री बना दिया था. दोनों 2004 और 2009 के आम चुनाव में खेत रहे. भाजपा को 1999 में मिली दो सीटों की जीत भी सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन के कारण ही संभव हो पाई थी. तृणमूल कांग्रेस ही राज्य में मुख्य विपक्षी दल थी जिसने 2011 के विधानसभा चुनाव में 34 साल पुराने साम्यवादी गठबंधन को ध्वस्त किया. भाजपा के लिए 2009 का चुनाव और भी ज्यादा दुखद रहा होगा जब उसके बंगाल के दोनों पूर्व सांसद तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशियों से चुनाव हार गए. तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार फिर से भाजपा से हाथ मिला सकती हैं. खास तौर से तब जब उन्होंने कांग्रेस से अपना सात साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया है. लेकिन क्या वे मोदी का नेतृत्व स्वीकार करेंगी? यह काफी मुश्किल है. पश्चिम बंगाल के लगभग एक चौथाई मतदाता मुस्लिम हैं और तृणमूल के 19 में से दो सांसद भी. ऐसे में ममता बनर्जी मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने से बचना ही चाहेंगी. आंध्र प्रदेश जहां तक आंध्र प्रदेश में भाजपा की संभावनाओं की बात है तो इस बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा. 2009 के आम चुनाव में पार्टी ने प्रदेश की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 37 पर उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन किसी को संसद में जाने का मौका नहीं मिला. हालांकि इससे पहले भाजपा यहां उम्मीद जगाने वाला प्रदर्शन कर चुकी थी. तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के साथ मिलकर जब उसने 1999 के आम चुनाव में भागीदारी की थी तब उसे सात सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन पिछले दो आम चुनावों से उसका एक भी उम्मीदवार संसद नहीं पहुंच पा रहा है. विधानसभा चुनावों में भी उसका प्रदर्शन इतना ही बुरा रहा है. 2009 के चुनावों में प्रदेश की 294 सीटों में से 271 पर भाजपा के उम्मीदवार थे. इनमें से दो के अलावा सभी को हार का मुंह देखना पड़ा. 1998-99 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनवाने में टीडीपी की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी. 2004 में यह रिश्ता टूट गया. अब अगर यह जुड़ता भी है तो इससे किसी चमत्कार के होने की खास संभावना नहीं है क्योंकि टीडीपी खुद अपनी चमक खो चुकी है. 2004 के विधानसभा चुनाव में जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया था. 1999 के आम चुनाव में जहां उसके पास राज्य की 42 में से 29 सीटें थीं वहीं 2004 और 2009 के आम चुनावों में इनकी संख्या छह से आगे नहीं बढ़ पाई. इस बार प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन अपनी नई पार्टी के साथ कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हैं. इन जटिल समीकरणों के बीच टीडीपी 2009 के आम चुनावों में 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की कोशिश करेगी. बिहार 2009 में भाजपा को 12 सीटों पर जीत मिली थी. पार्टी के इस प्रदर्शन की 2004 के आम चुनाव, जब उसकी झोली में सिर्फ चार सीटें आई थीं, से तुलना करें तो साफ होता है कि जदयू से गठबंधन उसके लिए फायदेमंद साबित हुआ. इससे पहले 1998 के आम चुनावों में जब भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी तब भी आज के बिहार में उसके पास महज आठ सीटें थीं (शेष 12 सीटें झारखंड वाले हिस्से में थीं). इस समय भाजपा के बड़े नेता दावा कर रहे हैं कि यदि जदयू अगले साल आम चुनाव से पहले गठबंधन से अलग होता है तो उसे बिहार में काफी नुकसान उठाना पड़ेगा, पर सच्चाई उलट हो सकती है. जदयू की वजह से भाजपा को पिछड़े और मुस्लिम दोनों वर्गों के वोट मिले हैं. 1996 में जब वह पहली बार लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी तब उसे बिहार में सिर्फ छह सीटें हासिल हुई थीं. 1991 में राम मंदिर अभियान के समय जब उसने पहली बार लोकसभा सांसदों के मामले में तीन अंकों का आंकड़ा पार किया था तब तो बिहार में उसका खाता शून्य पर पहुंच गया था. इससे पहले 1989 में वर्तमान बिहार में भाजपा को 40 में से महज चार सीटों पर जीत मिली थी (इनमें झारखंड की सीटें शामिल नहीं हैं). तमिलनाडु यहां लोकसभा की 39 सीटें हैं. अतीत में भाजपा के पास एक ऐसा मौका आया है जब उसने इस राज्य से बड़ी उम्मीदें बांध ली थीं. 1998 के आम चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों को चौंकाते हुए उसने न सिर्फ यहां खाता खोला बल्कि 1999 में हुए आम चुनाव में उसने अपनी सीटें बढ़ाकर पांच कर ली थीं. लेकिन खुशहाली का यह किस्सा यहीं खत्म हो गया और इसके बाद वह राज्य में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीती. आज के हालात में राज्य की दोनों क्षेत्रीय पार्टियां द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएडीएमके) के बीच भाजपा के लिए गुंजाइश बहुत कम है. इन दोनों पार्टियों का अतीत बताता है कि वे खांटी अवसरवादी हैं. दोनों ही मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में शामिल होने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर सकती हैं. लेकिन यहां लोकसभा चुनावों में ऐसा दुर्लभता से ही होता है कि एक पार्टी दूसरी का पूरी तरह से सफाया कर दे. यानी इनमें से कोई भी मोदी को समर्थन देती है तो संभावना कम ही है कि वह सीटों के आंकड़े में बहुत बड़ी संख्या जोड़ पाए. मध्य प्रदेश मोदी यह बिल्कुल अपेक्षा नहीं कर सकते कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा के बड़े नेता उनका लाल कालीन बिछाकर स्वागत करेंगे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो सीधे उनके प्रतिस्पर्धी हैं. वे 13 साल की उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं. एक हिसाब से तो भाजपा का वर्तमान संकट उसी समय से शुरू हुआ था जब कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी ने चौहान की तारीफ करते हुए उन्हें बधाई दी कि उन्होंने गुजरात में मोदी द्वारा किए गए काम की तुलना में मध्य प्रदेश में बेहतर काम करके दिखाया है. यह भी दिलचस्प है कि 2009 के आम चुनाव में चौहान के मुख्यमंत्री रहते हुए मध्य प्रदेश से भाजपा के 16 (29 सीटों में से) उम्मीदवार जीते थे, तो वहीं नरेंद्र मोदी के गुजरात में इससे कम 15 (26 सीटों में से). हालांकि पिछले दिनों दो सीटों पर हुए लोकसभा के उपचुनावों में जीत के बाद यह संख्या 17 हो चुकी है. सौम्य स्वभाव के चौहान पार्टी में दिग्गज नेता नहीं हैं लेकिन वे हमेशा से राष्ट्रीय नेताओं के प्रिय रहे हैं. इनमें भाजपा की दूसरी पांत के नेता अरुण जेतली, अनंत कुमार से लेकर सुषमा स्वराज तक शामिल हैं. संघ परिवार भी उनका समर्थन करता है. इस साल नवंबर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और मोदी के लिए मुश्किल होगा कि उम्मीदवारों के चयन में वे चौहान की पसंद को नजरअंदाज करें. राज्य में यदि तीसरी बार फिर भाजपा की सरकार बनती है तो लोकसभा चुनावों में भी वे अपने करीबियों को टिकट दिलवाएंगे. मोदी को याद रखना होगा कि वे चौहान को हल्के में नहीं ले सकते. 2003 में भारी बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता दिलाने वाली उमा भारती लाख कोशिशों के बाद भी न चौहान को उनके पद से हटने के लिए मजबूर कर पाईं और न ही भाजपा में वापसी के बाद मध्य प्रदेश में उनका राजनीतिक पुनर्वास हो पाया. राजस्थान राजस्थान में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसकी पूरी संभावना है कि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इनमें मोदी की सक्रियता पर उत्साहित न दिखें. दरअसल राजे अभी से मानकर चल रही हैं कि राज्य में भाजपा को स्पष्ट बढ़त मिली हुई है और वे कांग्रेसनीत सरकार को आसानी से हरा देंगी. उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आई थी. हालांकि यह प्रदर्शन 2008 में वे दोहरा नहीं पाईं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. चौहान की तरह ही यदि वे राजस्थान में भाजपा को जिता पाईं तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में राज्य की लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में मोदी एकतरफा फैसला नहीं ले पाएंगे. राजस्थान भाजपा के लिहाज से इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां की कुल 25 लोकसभा सीटों में से फिलहाल उसके पास मात्र चार सीटें हैं. यानी अगले आम चुनाव में उसके पास बड़ा मौका होगा. कर्नाटक आगामी आम चुनाव में बहुत कम वक्त बचा है और उसे देखते हुए अगर मोदी कर्नाटक से दूरी बनाए रखने का फैसला करते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए. 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य की 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. यह आंकड़ा गुजरात में उसे हासिल सीटों से बेहतर था. लेकिन तीन माह पहले कर्नाटक की सत्ता गंवाने के बाद से वहां पार्टी जनता दल (सेक्युलर) से भी पिछड़ते हुए तीसरे स्थान पर खिसक गई. पार्टी को राज्य के मुख्यमंत्री रहे कद्दावर नेता बीएस येदियुरप्पा ने भी अपूरणीय क्षति पहुंचाई. भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भाजपा से इस्तीफा देने वाले येदियुरप्पा ने नई पार्टी बना ली और पुरानी पार्टी के महत्वपूर्ण वोट काट लिए. उड़ीसा उड़ीसा में मोदी के सफल होने की गुंजाइश कम ही है. राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा है कि भाजपा के इस नए नायक के पास देश की समस्याओं को हल करने के लिए कम ही सुझाव हैं. वर्तमान में उड़ीसा से भाजपा का एक भी सांसद नहीं है. 1999 में बीजू जनता दल (बीजद) की लहर पर सवार भाजपा को 21 में से नौ सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. वर्ष 2004 में पार्टी को सात सीटों पर जीत हासिल हुई और उसने 1998 के अपने प्रदर्शन की बराबरी कर ली. लेकिन संघ से जुड़े लोगों की ईसाई विरोधी हिंसा से नाराज पटनायक ने 2009 के आम चुनाव से एक महीने पहले गठबंधन तोड़ दिया. भाजपा का वहां से सफाया हो गया. जाहिर है कि मोदी वहां कोई करामात नहीं कर पाएंगे. झारखंड 20 से कम लोकसभा सीटों वाले राज्यों में झारखंड शामिल है. भाजपा एक समय यहां सत्ता पर काबिज रह चुकी है. 14 लोकसभा सीट वाले इस प्रदेश में उसे सन 1996 और 1998 के चुनावों में 12 सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. लेकिन 2004 में यहां उसका सफाया हो गया. हालांकि 2009 में उसने कुछ हद तक वापसी की और सात सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन आज राज्य के बिखरे राजनीतिक हालात को देखते हुए लगता नहीं कि मोदी और भाजपा 1996 और 1998 वाली कामयाबी दोहरा पाएंगे. दिल्ली भाजपा शिद्दत से चाह रही होगी कि मोदी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पार्टी की हालत सुधार दें. यहां सात लोकसभा सीटें हैं. 1999 में भाजपा ने यहां सभी सीटों पर जीत हासिल की थी. इससे पहले 1989 में उसे चार, 1996 में पांच और 1998 में छह सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन 2004 में उसे बड़ा झटका लगा और पार्टी एक को छोड़कर सभी सीटों पर हार गई. 2009 में तो वह इकलौती सीट भी चली गई और पार्टी का सफाया हो गया. अन्य राज्य बहरहाल भाजपा को छत्तीसगढ़ में अच्छी-खासी सीटें मिल सकती हैं जहां अभी उसके 11 में से 10 सांसद हैं. पिछले महीने हुए नक्सली हमले में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के मारे जाने के बाद प्रदेश में पार्टी और अधिक कमजोर हुई है. लेकिन असम में जहां भाजपा के 14 में से चार सांसद हैं वहां मोदी के लिए यह संख्या बढ़ाना आसान नहीं होगा क्योंकि यह अब तक का पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन है. हरियाणा में जहां भाजपा 1999 में 10 में से पांच सीटें जीतने में सफल रही थी वहां भी 2009 में उसका सफाया हो गया. राज्य में उसके पूर्व सहयोगी दलों की हालत और भी खस्ता है. केरल में वामपंथी गठबंधन और कांग्रेस गठबंधन हावी हैं और दोनों ही भाजपा के खिलाफ हैं. फिर क्या होगा? तो फिर मोदी कहां पहुंचेंगे? अगर 1984 से लेकर अब तक भाजपा के राज्यवार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की एक सूची बनाई जाए तो भी आंकड़ा कुल 251 सीटों तक पहुंचता है जो सामान्य बहुमत से 21 कम है. अगर मोदी चमत्कारिक रूप से यहां तक भी पहुंच जाते हैं तो भी उनके लिए महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और तमिलनाडु में द्रमुक या अन्नाद्रमुक के अलावा अपना कोई अन्य हिमायती तलाश पाना मुश्किल होगा. कहा जा सकता है कि ये तो अतीत के आंकड़े हैं और इनसे भविष्य की तस्वीर ऐसी ही होगी, यह बात निश्चितता के साथ नहीं कही जा सकती. लेकिन इन आंकड़ों से यह अंदाजा तो लग ही जाता है कि अगले आम चुनाव में भाजपा और मोदी की राह कितनी कठिन है. विश्लेषक मानते हैं कि मोदी के लिए हो रहे इस मौजूदा शोर में उतनी ऊर्जा नहीं है जितनी उन अभियानों में देखने को मिली थी जिन्होंने भाजपा को अतीत में दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाया. 1980 में बनी भाजपा को 1984 के लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें मिली थीं. उस चुनाव में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उठी शोकलहर पर सवार होकर भारी जीत हासिल की थी. यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज चुनाव हार गए थे. लेकिन पांच साल बाद भाजपा ने 89 सीटों के साथ वापसी की. 1991 में वह 121 सीटों तक जा पहुंची. इन दोनों विजयों में अयोध्या राममंदिर निर्माण के लिए छेड़े गए देशव्यापी अभियान की अहम भूमिका थी. उस अभियान की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ 16 साल और चार आम चुनावों का सामना करने के बाद भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई. इतने कम वक्त में ही उसने आजादी की लड़ाई लड़ने वाली एक सदी पुरानी कांग्रेस को पछाड़ दिया. राम मंदिर लहर के दौरान 1991 में जब पहली बार पार्टी के 100 से ज्यादा सांसद जीते तो बिहार में उसका खाता शून्य पर पहुंच गया था1998 और 1999 में भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी थी. संजीदा, समझदार और अनुभवी राजनेता की छवि रखने वाले वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उसे दोनों बार केंद्र की सत्ता हासिल हुई. लेकिन जब उनकी सरकार भी पुरानी सरकारों जैसी ही निकली तो 2004 में जनता ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया. क्या मोदी के पास वाजपेयी जैसी अपील है? कम से कम इस वक्त तो ऐसा नहीं लगता. 2002 में गुजरात दंगों के बाद मोदी की एक कट्टर नेता की छवि बनी थी जिसके सहारे वे गुजरात की सत्ता में लौटे. लेकिन यह भी अब 11 साल पुरानी बात हो चुकी है और अब इसके सहारे उतने वोट नहीं बटोरे जा सकते जितने वोटों की मोदी उम्मीद कर रहे होंगे. भाजपा ने 2004 और 2009 के चुनावों में उनकी इस छवि का इस्तेमाल किया भी था, लेकिन नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं रहे. 2009 में मुंबई में मोदी ने जमकर प्रचार किया फिर भी पार्टी वहां की सभी छह सीटों पर हार गई. यह 26/11 के हमले के बाद की बात है. तुलनात्मक रूप से देखें तो 1990 के दशक में अयोध्या आंदोलन के चलते आम मानस में भाजपा की कट्टर हिंदूवादी छवि कहीं अधिक प्रभावी थी जिसका फायदा उसे 1996, 1998 और 1999 के चुनावों में मिला भी. मोदी का दूसरा दांव है अच्छे प्रशासन और 11 साल मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में किए गए विकास का दावा. लेकिन इसमें भी उतना दम नहीं लगता कि उनके लिए पूरे देश में वोटों का तूफान खड़ा हो जाए. पिछले दिनों जब आडवाणी ने कहा कि गुजरात पहले से ही विकसित था और मोदी ने सिर्फ उसकी हालत सुधारी है तो वे तो निश्चित रूप से राजनीति कर रहे थे, लेकिन अगर यह बात पूरी तरह गलत होती तो आडवाणी ऐसा कहते ही नहीं. अब जब आम चुनाव करीब हैं तो स्वाभाविक ही है कि गुजरात में अच्छे प्रशासन और आर्थिक विकास के मोदी के दावों की पहले के मुकाबले कहीं सघन समीक्षा की जाएगी. तो सवाल यह उठता है कि भाजपा के भीतर और बाहर मोदी समर्थक उनके पार्टी की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनने पर इतने अधिक उत्साहित क्यों हैं. इसका जवाब आसान है. कई बार व्यक्ति के उठान में उसकी खूबियों से ज्यादा परिस्थितियों का भी हाथ होता है. दरअसल भाजपा में विश्वसनीय नेतृत्व का पूर्णतया अभाव है. भले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार की छवि पर कई बट्टे लग चुके हों फिर भी भाजपा के मन में संशय है कि शायद सिर्फ सरकार के खिलाफ पड़ा वोट उसे दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त न हो. भाजपा की प्रचार मशीनरी ढोल पीट रही है कि पार्टी के कार्यकर्ता आगामी चुनाव में एकमत से मोदी का नेतृत्व चाहते हैं. अगर यह सच भी है तो इसे तभी सही माना जा सकता है जब कस्बों और शहरों में पार्टी कार्यकर्ता ऐसी मांग के साथ नजर आने लगें. जानकारों के मुताबिक जो बात सच है वह यह है कि भाजपा में दूसरी, तीसरी और चौथी पांत के नेताओं और उनके खेमों को लग रहा है कि अगले साल का आम चुनाव उनके लिए केंद्र की सत्ता और उससे जुड़े फायदों तक पहुंचने का आखिरी मौका है. उनका मानना है कि 2009 में फेल हुए आडवाणी उन्हें यह मौका नहीं दे सकते इसलिए उन्होंने मोदी पर दांव लगाया है.

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