शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

परिवार में सिमटता मुलायम सिंह का समाजवाद





अगले दो-तीन साल भारतीय राजनीति के लिए काफी महत्वपूर्ण होंगे. इस दौरान कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के अलावा 2014 में आम चुनाव भी होने हैं. सबसे अहम चुनाव देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के माने जा रहे हैं, जो आगामी छह माह के भीतर संपन्न हो जाएंगे. यहां के चुनाव पर हमेशा देश भर के राजनेताओं और जनता की नज़र रहती है. यहां मिली जीत-हार का प्रभाव केंद्र तक पड़ता है. यही वजह है कि सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव से काफी पहले ही रण के लिए बिगुल बजा दिया. कांग्रेस-भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े दलों ने अपने-अपने महारथियों को चुनावी दंगल में उतार रखा है. वहीं बसपा सत्ता का भरपूर फायदा उठा रही है. बसपा प्रमुख ने एक बार फिर अपनी पार्टी को सत्ता में लाने के लिए मोर्चा संभाल लिया है. बसपा के बाद सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी मानी जा रही है. सपा और ख़ासकर 73 वर्षीय मुलायम सिंह के लिए आगामी विधानसभा और 2014 में होने वाले आम चुनाव काफी मायने रखते हैं. कुछ राजनीतिक पंडित भविष्यवाणी कर रहे हैं कि ये मुलायम सिंह के नेतृत्व में लड़े जाने वाले आख़िरी चुनाव साबित हो सकते हैं. इसके बाद सपा को कोई न कोई नया कर्णधार चाहिए. नया कर्णधार कौन होगा, इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन संकेत यही हैं कि मुलायम अपने बाद भी सपा की बागडोर अपने परिवार में ही रखना चाहेंगे. सपा के नए कर्णधार मुलायम के बड़े बेटे अखिलेश यादव हो सकते हैं और छोटे बेटे प्रतीक भी. प्रतीक का नाम लिए जाने पर काफी लोगों को अटपटा लग सकता है, क्योंकि वह अभी राजनीति से दूर है. उसने राजनीति का ककहरा भी नहीं पढ़ा है, लेकिन कम लोग जानते होंगे कि प्रतीक के पास मैनेजमेंट में मास्टर डिग्री है और उनकी पत्नी अपर्णा के पास राजनीति शास्त्र में. दोनों ने लंदन से शिक्षा हासिल की है. प्रतीक भले ही राजनीति से दूर हों, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंचों से अंजान नहीं. अखिलेश यादव भी मुलायम के लिए चिंता का विषय हैं. वह सपा को आगे ले जाने में पूरी ताक़त लगाए हुए हैं, लेकिन उनमें नेताजी वाली बात नहीं है. दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का दबाव भी बढ़ता जा रहा है.

समाजवाद आई बबुआ, धीरे-धीरे आई. बेटा से आई, बहु से आई. भतीजा से आई, भाई से आई. मुलायम सिंह यादव के लिए समाजवाद की नई परिभाषा यही है. उन्हें दूसरों पर भरोसा नहीं, इसलिए अपने परिवार के बूते ही समाजवाद लाने का सपना देख रहे हैं. लेकिन क्या उत्तर प्रदेश की जनता उनके इस समाजवाद को स्वीकारेगी?

प्रतीक राजनीति में आएंगे, यह बात किसी को अबूझ पहेली लगे, लेकिन यह हक़ीक़त है. पिता मुलायम सिंह को उनके लिए भी ठीक वैसे ही रास्ता बनाना होगा, जैसा उन्होंने अखिलेश के लिए तैयार किया. संभावना इस बात की है कि प्रतीक 2014 के आम चुनाव में सपा की ओर से साइकिल की सवारी कर सकते हैं. उन्हें मुलायम अपने वर्चस्व वाली किसी संसदीय सीट से प्रत्याशी बना सकते हैं. यह सीट संभल, बदायूं या बहुत उम्मीद है कि इटावा भी हो सकती है. संभल संसदीय सीट इस समय बसपा के पास है, लेकिन मुलायम की वहां अच्छी पकड़ है. इस सीट पर सपा भी अपनी जीत दर्ज करा चुकी है. इटावा संसदीय सीट पर सपा के प्रेमदास कठेरिया विराजमान हैं, जो मौक़ा पड़ने पर प्रतीक के लिए अपनी दावेदारी से पीछे हट जाएंगे. बदायूं की संसदीय सीट भी सपा के खाते में है, जिस पर मुलायम के भतीजे धर्मेंद्र का क़ब्ज़ा है. फिलहाल तो प्रतीक घूमने-फिरने में मस्त हैं, लेकिन हो सकता है कि विधानसभा चुनाव के समय वह सपा के मंच पर दिखें. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि मुलायम सिंह प्रतीक को लेकर काफी गंभीर हैं. वह साधना के स्वभाव से भी अंजान नहीं हैं. कहा जा रहा है कि नेताजी प्रतीक को देर-सबेर राजनीति में लाएंगे ज़रूर, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि उनकी राह में कोई रोड़ा न आए यानी जीत सुनिश्चित होने के बाद ही प्रतीक को मैदान में उतारा जाएगा. मुलायम प्रतीक का हश्र बड़ी बहू डिंपल जैसा नहीं चाहेंगे. डिंपल फिरोज़ाबाद संसदीय सीट के उपचुनाव में तमाम दावों के बीच कांग्रेस के उम्मीदवार राजबब्बर से हार गईं थीं, जिससे नेताजी की काफी फज़ीहत हुई थी. अगर प्रतीक को लोकसभा नहीं भेजा जा सका तो उनके लिए राज्यसभा का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है.

इस बार मुलायम सिंह में काफी बदलाव नज़र आ रहा है. जो मुलायम सिंह पिछले चुनावों तक अपने दम पर, दबंगई से फैसले लेकर और चुनौतियां स्वीकार करके चुनावी संग्राम फतेह कर लेते थे, उन्हें अब दबाव में काम करना पड़ रहा है. पूरे राजनीतिक जीवन में अपने फैसलों पर अटल रहने वाले मुलायम इस बार किसी भी फैसले पर अटल नहीं दिख रहे हैं. उनमें जुझारूपन, दृढ़ इच्छाशक्ति, तत्काल निर्णय लेने की क्षमता घटी है. अब वह सबके साथ समान व्यवहार करने और जमीन से जुड़े नेताओं-पदाधिकारियों को स्नेह देने वाले नेता नहीं रहे. ये सारे बदलाव उनमें तबसे दिखाई दे रहे हैं, जबसे अमर सिंह सपा में आए. अब अमर को भी सपा से बाहर हुए जमाना हो गया, लेकिन मुलायम ने एक बार जो ढर्रा पकड़ लिया, उसे फिर नहीं बदला. उनका वह धोबी पाट अब नहीं दिखता, जिससे सामने वाला चारों खाने चित्त हो जाता था. उम्र बढ़ने के साथ मुलायम की हनक-धमक कम हो गई है. अब दबाव डालकर उनका निर्णय बदलवा लिया जाता है. जैसा कि हाल में सुल्तानपुर के लम्हुआ विधानसभा क्षेत्र में देखने को मिला, जहां पहले संतोष को टिकट दिया गया, दबाव पड़ा तो संतोष का टिकट काटकर अनिल पांडेय को दे दिया गया. अनिल तैयारी करने लगे, तभी दोबारा संतोष को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. फिर अनिल के नाम की घोषणा हुई और अंत में सुरभि शुक्ला को प्रत्याशी घोषित कर दिया गया. सपा प्रमुख को क़रीब से जानने वालों का कहना है कि नेताजी बात के धनी हुआ करते थे, उनकी बात पत्थर की लकीर होती थी, इसकी वजह से उन्हें कई बार नुक़सान भी उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी इसकी चिंता नहीं की. यह बात अब नेताजी में नहीं रही. इसी का फायदा उनका परिवार उठा रहा है. दबाव के चलते उन्होंने चालीस प्रत्याशियों के टिकट बांटने के बाद काट दिए, जबकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ. मुलायम को कुछ फैसले परिवार के दबाव में लेने पड़ रहे हैं तो कई फैसले बदलने पड़ रहे हैं. वह पत्नी साधना की चचेरी बहन मधु गुप्ता को लखनऊ का मेयर और सांसद बनाने की भी कोशिश कर चुके हैं. मधु के डॉक्टर पति अशोक कुमार गुप्ता मुलायम की मेहरबानी से सूचना आयुक्त रह चुके हैं. परिवारवालों की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह पर भारी पड़ रही है. ताज़ा मिसाल है, उन्हें अपने सा़ढू प्रमोद गुप्ता (साधना के बहनोई) को टिकट देना पड़ा, जिन्हें औरेया ज़िले की विधूना सीट से कई नेताओं की दावेदारी खारिज कर सपा प्रत्याशी बनाया गया. उम्मीद है कि वह अपनी दूसरी बहू अपर्णा के लिए भी कोई राह ज़रूर निकालेंगे.

तौर-तरीक़ों में बदलाव ने उन्हें तन्हा कर दिया है. सपा के खांटी (समर्पित) नेता उनसे अलग हो चुके हैं. बेनी प्रसाद वर्मा एवं राजबब्बर जैसे नेताओं की बेरुख़ी ने मुलायम को कहीं का नहीं छोड़ा. जो नेता गए, उनमें से आजम को छोड़ किसी ने दोबारा पार्टी की तऱफ रुख़ नहीं किया. आजम की दूसरी पारी भी कोई खास कमाल नहीं कर पाई. उनके विवादास्पद बयानों से मुसलमान ख़ुश तो नहीं हो रहे, लेकिन हिंदू मतदाता सपा से नाराज़ होते जा रहे हैं. आजम सपा के लिए कितने अहम हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए उनकी कहीं से मांग नहीं हो रही है. लोग मुलायम और अखिलेश के अलावा किसी नेता को प्रचार के लिए ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, चाहे शिवपाल यादव हों या फिर मोहन सिंह. अखिलेश की तेजी और आजम की वापसी के बीच शिवपाल अलग-थलग पड़ गए हैं. आजम की वापसी और पार्टी में जगह-जगह दख़लंदाज़ी ने रशीद मसूद जैसे नेताओं को बाग़ी बना दिया. मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए आजम खां पर नेताजी का ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास कहीं सपा की लुटिया न डुबो दे, इस बात पर पार्टी के अंदर बहस होने लगी है. आजम के कारण अहमद हसन जैसे क़द्दावर नेताओं ने ख़ुद को किनारे कर लिया.

मुलायम चौतरफा परेशानियों से घिरे हुए हैं. कल्याण के कारण उनसे मुसलमान नाराज़ हैं तो छोटे भाई अमर सिंह की बेवफाई के बाद पार्टी धन संकट से भी जूझ रही है. पैसे की कमी के कारण प्रचार-प्रसार का काम ठप्प पड़ा है. आर्थिक तंगी से जूझ रही समाजवादी पार्टी को अपने ख़र्चों में कटौती करनी पड़ रही है. बसपा के विज्ञापन प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक छाए हुए हैं, लेकिन सपा के पास विज्ञापनों के लिए पैसा नहीं है. अमर के रहते सपा को कभी आर्थिक मोर्चे पर परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था. दुश्वारियों और बदलती सोच ने समाजवाद के लंबरदार मुलायम को अविश्वसनीय बना दिया है. कभी अंग्रेजी के कट्टर विरोधी रहे नेताजी आजकल अंग्रेजी के मोह में इतने फंस गए हैं कि उन्होंने अपनी वेबसाइट ही अंग्रेजी में लांच कर दी. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही कहते हैं कि यह बदलाव स्वाभाविक है. घर में कान्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चों की संख्या बढ़ रही है तो मुलायम कैसे अलग रह सकते हैं. सपा प्रमुख भले ही स्वयं को पिछड़ों का नेता कहते हों, लेकिन जब उनके परिवार में कोई रिश्ता जुड़ता है तो वह ऊंची जाति वालों से जुड़ता है. वह घर से लेकर बाहर तक अगड़ों से घिरे हैं तो पिछड़ों का दर्द कैसे बांट और समझ सकते हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं कि मुलायम सिंह प्रदेश की जनता, ख़ासकर मुसलमानों को काफी समय तक धोखे में रखकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे, लेकिन अब उनका फरेब चलने वाला नहीं है. वह एक्सपोज हो चुके हैं. बसपा प्रवक्ता ने कहा कि सपा की राजनीतिक हांडी बार-बार नहीं चढ़ने वाली. सपा में कोई दम नहीं रह गया है, वह बाप-बेटों और भाइयों की पार्टी बनकर रह गई है. पूर्व मुख्यमंत्री एवं जनक्रांति पार्टी के अध्यक्ष कल्याण सिंह ने कहा मुलायम सिंह मौक़ापरस्ती की राजनीति करते हैं. उनके अगल-बगल बैठे लोगों ने उन्हें कठपुतली बनाकर रख दिया है. मुलायम सिंह को जनता से अधिक अपने परिवार की चिंता है. उसी चिंता में वह अपना सब कुछ खोते जा रहे हैं, उनका समाजवाद परिवार तक सिमटता जा रहा है.
सामंतवादी मुलायम!

मुलायम सिंह को नई उपमा मिली है सामंतवादी होने की. यह उपाधि उनके क़रीबी दे रहे हैं. बाराबंकी के सपा नेता छोटेलाल यादव खुलेआम कहते घूम रहे हैं कि सामंतवादी मुलायम फॉरवर्ड (अगड़ों) की राजनीति करने लगे हैं. उनका (छोटेलाल) टिकट काटकर नेताजी ने बसपा प्रत्याशी संग्राम सिंह के कहने पर उनके एक कारिंदे धर्मराज सिंह को टिकट बेच दिया, ताकि संग्राम सिंह की जीत पक्की हो सके.
शादी में राजनीति के रंग

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे की शादी अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है. इस शादी में उन्होंने पैसा पानी की तरह बहाया, वहीं मेहमानों में कुछ ऐसे चेहरे शामिल थे, जिनके वहां होने की उम्मीद कम की जा रही थी यानी अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और उद्योगपति अनिल अंबानी. इन तीनों की मुलाकात अमर सिंह के मार्फत मुलायम से हुई थी. अमर सिंह की अनुपस्थिति में इन लोगों की मौजूदगी का लोग अपने-अपने हिसाब से आकलन करते रहे. अमर सिंह से राजनीतिक दुश्मनी का रंग मुलायम के व्यक्तिगत जीवन में भी दिखा. मुलायम ने बहू भोज कार्यक्रम में सभी दलों के नेताओं को बुलाया था, लेकिन बसपा नेता आने की हिम्मत नहीं जुटा सके. जो आए भी तो अपनी गाड़ी का झंडा उतार कर. नौकरशाहों ने आमंत्रण के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई. उन्हें डर था कि सरकार नाराज़ हो सकती है. कुछ ऐसे अधिकारी ज़रूर दिखे, जो मायाराज में किनारे पड़े हैं और मुलायम सरकार बनने की आस लगाए बैठे हैं. कहा जा रहा है कि बहू भोज कार्यक्रम में सरकार की ख़ु़फिया नज़र लगी थी, क्योंकि एलआईयू के लोग कार्यक्रम स्थल के आसपास टहलते देखे गए. वैवाहिक कार्यक्रम में जिन नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें भाजपा के राजनाथ सिंह, कांग्रेस के प्रमोद तिवारी एवं सांसद जगदंबिका पाल प्रमुख थे.
कुछ छूटे तो कई ने किनारा किया

कभी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता उसके प्राण हुआ करते थे. समाजवाद का झंडा लेकर मुलायम जिस तऱफ चल पड़ते, उनके पीछे चलने वालों की भीड़ लग जाती. किसी को भी चंद मिनटों में अपना मुरीद बना लेने की महारथ रखने वाले मुलायम की आवाज़ में दम था और जनता की नब्ज़ पर मज़बूत पकड़. मुलायम को कोई धरती पुत्र कहता तो कोई मुल्ला मुलायम. वह समाजवाद का ऐसा चेहरा थे, जिसमें लोगों को राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण का अक्स दिखता था. क़द के छोटे और इरादों के पक्के मुलायम जब चाहते, कार्यकर्ताओं को साथ लेकर किसी के ख़िला़फ भी हल्ला बोल देते थे. उन्होंने कई लोगों को ज़मीन से उठाकर आसमान पर बैठा दिया. केंद्र में उनकी तूती बोलती थी, वामपंथी उन पर भरोसा करते थे और कांग्रेसी भी मौक़ा पड़ने पर उनसे हाथ मिलाने से परहेज नहीं करते थे. भाजपा को मुलायम सांप्रदायिक पार्टी कहकर चिढ़ाते, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर उससे हाथ भी मिला लेते. 1992 में अयोध्या मुद्दे पर उनके द्वारा बोला गया वाक्य परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा…एक ऐसा डायलॉग बन गया, जिसके बारे में आज भी चर्चा सुनने को मिल जाती है. कुछ लोग मानते हैं कि अयोध्या विवाद में हिंदुओं को उकसाने में मुलायम के उक्त डायलॉग ने अहम भूमिका निभाई थी. इसी बयान के बाद कट्टर हिंदूवादी ताक़तें मज़बूत हो गईं, जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस के रूप में हुई. लंबे समय तक प्रदेश और देश की राजनीति में अहम किरदार निभाने वाले मुलायम के पास कभी साथियों की कमी नहीं रही. सभी वर्ग के नेता उनके साथ जुड़े हुए थे. वह सबको उचित सम्मान देते थे. राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, सुरेंद्र मोहन, अहमद हसन, अशोक वाजपेयी, अमर सिंह, किरण पाल, आजम खां, श्यामा चरण गुप्त, राम नारायण साहू ,रेवती रमण सिंह, ओम प्रकाश सिंह, राजा भैया, राम गोपाल यादव, रशीद मसूद एवं सलीम शेरवानी आदि दमदार नेताओं की एक लंबी-चौड़ी फौज हुआ करती थी. इन्हें साथ लेकर मुलायम ने राजनीति में कई मुक़ाम हासिल किए, लेकिन आज इनमें से कई उनका साथ छोड़कर चले गए हैं, वहीं कुछ ने पार्टी में होते हुए भी ख़ुद को किनारे कर लिया. कभी जाटों के नेता किरण पाल सपा प्रमुख की ताक़त हुआ करते थे. उनके सहारे मुलायम ने कई लड़ाइयां जीतीं, लेकिन अब वह बाहर हैं. मुस्लिम चेहरे के नाम पर अब आजम खां ही दिखाई देते हैं. अहमद हसन जैसे नेता शो पीस बनकर रह गए हैं. ब्राह्मण नेता जनेश्वर मिश्र का निधन हो चुका है और अशोक वाजपेयी ने ख़ुद को हरदोई तक सीमित कर लिया है. दलित चेहरे विशंभर प्रसाद और श्याम लाल रावत अब कहीं नहीं दिखते. सपा के वैश्य नेताओं में वेद प्रकाश अग्रवाल अग्रणी हुआ करते थे, वह भी पार्टी से अलग हो गए हैं. एक अन्य वैश्य नेता श्यामा चरण गुप्त ने अपना दायरा सीमित कर लिया है. पिछड़ों को लुभाने के लिए सपा प्रमुख ने बेनी प्रसाद वर्मा एवं राम नारायण साहू को मोर्चे पर लगा रखा था. बेनी कांगे्रसी हो चुके हैं और साहू भगवा रंग में रंग चुके हैं. गाजीपुर के ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. आजम खां और शिवपाल यादव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. आजम के चलते रामपुर की सांसद जया प्रदा भी मुलायम से दूर हो गईं. कन्नौज के छोटे सिंह यादव, गुन्नौर (बदायूं) की उर्मिला यादव, विनोद उर्फ कक्का एवं महाराज सिंह यादव जैसे दबंग नेता भी पार्टी से दूर चले गए.
एक और पुराना साथी दूर हुआ

आजम खां से नाराज़ और मुलायम की चुप्पी से दु:खी पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद रशीद मसूद ने समाजवादी पार्टी से किनारा कर लिया. अब वह कांगे्रस का परचम लहराएंगे. उन्हें आजम खां से नाराज़गी के अलावा मुलायम सिंह की वादाख़िला़फी का दु:ख है. उन्होंने सपा की सदस्यता के साथ ही राज्यसभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया. ऐन चुनाव के समय सपा से बग़ावत करके कांगे्रस का हाथ मज़बूत करने वाले रशीद मसूद को केंद्र से लालबत्ती और पुन: राज्यसभा सदस्य बनने का तोह़फा मिल सकता है. मसूद ने कहा कि मुलायम अपने पुराने वफादारों के साथ अखिलेश और आजम के माध्यम से ग़लत बर्ताव करा रहे हैं. उन्होंने शिवपाल यादव के साथ हो रहे व्यवहार पर भी चिंता जताई. मसूद ने कहा कि सेहत ठीक न होने और याददाश्त कमजोर हो जाने से मुलायम सिंह की पार्टी पर पकड़ नहीं रही. पार्टी नादान लोगों के क़ब्ज़े में है. आजम खां सपा को बाहर रहकर बर्बाद नहीं कर पाए तो भीतर आकर बर्बाद करने में लगे हैं. मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षित कोटे में आबादी के अनुसार आरक्षण देने की मांग उठाते हुए मसूद ने कहा कि उन्हें 1997 में भी पार्टी से निकाल दिया गया था. बाद में इस मुद्दे पर सार्वजनिक माफी मांगने की बात करके मुलायम सिंह ने उन्हें मनाया और कहा कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग छोड़ दें, सरकार बनने पर पिछड़े मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षण दे दिया जाएगा. 2003 से 2006 तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उन्होंने इस तऱफ ध्यान नहीं दिया. सहारनपुर से पांच बार लोकसभा सदस्य और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे रशीद मसूद ने कहा, मैंने मुलायम सिंह से टिकटों के बंटवारे में मुसलमानों के साथ हुई ज़्यादती सुधारने को कहा, लेकिन आजम के कारण कोई असर नहीं पड़ा. कई ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमानों की तादाद ज़्यादा होने के बावजूद दूसरे लोगों को टिकट दिए गए. शिवपाल यादव के साथ हो रहे बर्ताव के आरोप में दम लगता है. पिछले कुछ दिनों से सपा में जो कुछ चल रहा है, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. बसपा के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन के भाई हसीनुद्दीन को समाजवादी पार्टी में शामिल करने के नाम पर जो नाटक हुआ, उससे पार्टी की काफी किरकिरी हुई. सपा में पहली बार किसी फैसले पर ऐसा विरोधाभास दिखा. विवाद की शुरुआत बीते 13 नवंबर को हुई. इस दिन कानपुर के सर्किट हाउस में हसीनुद्दीन पहली बार सार्वजनिक रूप से शिवपाल यादव के साथ दिखे. घोषणा की गई कि वह पार्टी में शामिल हो गए हैं, लेकिन 20-25 दिनों के बाद सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से जारी बयान में इसका खंडन कर दिया गया. अखिलेश ने जिस तरह चाचा शिवपाल के फैसले को पलटा, उसी तरह शिवपाल ने भी सार्वजनिक रूप से कह दिया कि उन्होंने हसीनुद्दीन को पार्टी में शामिल कराया और वह उनके साथ हैं. इस संबंध में जब मीडिया ने सवाल उठाए तो अखिलेश ने इसे पार्टी का अंदरूनी मामला कहकर पल्ला झाड़ लिया.

चाचा-भतीजे के इस विवाद की आग में कुछ माह पूर्व सपा में लौटे एक नेता घी डालने का काम कर रहे हैं. कहा जाता है कि अखिलेश को क्रांति रथ पर सवार कराने के पीछे इन्हीं नेताजी का दिमाग़ था. उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बीच कुछ लोगों के टिकट काटने में उक्त नेताजी का नाम एक बार फिर चर्चा में आया. सपा का मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले इन नेताजी के चलते शिवपाल यादव के कुछ लोगों के टिकट काट दिए गए, शिवपाल ने विरोध भी किया, लेकिन सपा प्रमुख इसलिए कुछ बोल नहीं सके कि कहीं मुश्किल से बनी बात बिगड़ न जाए, क्योंकि सपा को मुसलमानों को रिझाने के लिए एक मुस्लिम चेहरे की दरकार है. रशीद मसूद ने कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 135 सीटों पर मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस-रालोद गठबंधन और बसपा के बीच होगा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी 8-10 सीटें भी जीत ले तो यह उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. सहारनपुर, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़ और आगरा मंडल में कांग्रेस-रालोद गठबंधन को अधिकांश सीटें मिलेंगी. भाजपा तीसरे और सपा चौथे स्थान पर रहेगी.

द्रौपदी का चीरहरण होता रहा धृतराष्ट्र बैठे रहे

नई दिल्‍ली. गुरुवार रात राज्यसभा में लोकपाल बिल पर मतदान से पीछे हटी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार पर शुक्रवार को हमले तेज हो गए हैं। एक तरफ से मुख्य विपक्षी दल बीजेपी ने सरकार से इस्तीफा मांगा है तो वहीं, टीम अन्ना ने अब सिर्फ लोकपाल के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र को बचाने के लिए आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया है। टीम अन्ना के वरिष्ठ सदस्य शांति भूषण ने गुरुवार रात राज्यसभा में प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कहा कि गुरुवार रात जितने लोग भी टीवी देख रहे थे, उन्होंने देखा कि द्रौपदी का चीरहरण होता रहा और धृतराष्ट्र बैठे रहे।

टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, 'सरकार का मजबूत लोकपाल लाने का दावा खोखला साबित हुआ। लोकसभा के अंदर जो कानून आया, वह बहुत कमजोर था। उसका कोई फायदा नहीं था। बहुमत का गलत इस्तेमाल करके गलत बिल पास करवा लिया गया। लेकिन सरकार का राज्यसभा में बहुमत नहीं है। विपक्ष ने187 संशोधन दिए। लेकिन मोटे तौर पर 3 संशोधनों पर आम राय थी। इसमें सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाना, लोकपाल का चयन और हटाना और लोकायुक्त को इस कानून से बाहर रखा जाए। अगर गुरुवार को वोटिंग होती तो तीनों पास हो जाते। अगर ऐसा होता तो एक ऐसा लोकपाल निकल सकता था, जो शुरुआत करने लायक लोकपाल होता। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी। लालू प्रसाद यादव और आरजेडी को सामने किया गया। शाम से ही टीवी चैनलों पर आने लगा कि सदन की कार्यवाही बाधित की जाएगी। बयानों को लंबा खींचा गया और सदन की कार्यवाही होते-होते 12 बज गए। संसदीय प्रावधानों का गलत इस्तेमाल करके संसद की कार्यवाही बाधित की। यह पूरी तरह से सरकार की साजिश थी। यह संसद और इस देश की जनता के साथ साजिश है।'
दूसरी तरफ, बीजेपी ने राज्‍यसभा की कार्यवाही स्‍थगित होने के लिए सरकार को जिम्‍मेदार ठहराया है। अरुण जेटली ने कहा कि मजबूत लोकपाल बिल पारित करना सरकार का वादा था लेकिन कांग्रेस और यूपीए ने देश को एक मजबूत लोकपाल से वंचित किया। जेटली ने कहा, 'बीजेपी ने सरकार के कमजोर बिल का समर्थन नहीं किया और कहा था कि इसमें संशोधन कर पारित करेंगे। बीजेपी ने अपनी रणनीति पहले ही तय कर दी थी। तीन मुद्दों पर पूरा सदन एकमत था। जब सरकार के वरिष्‍ठ नेता यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्‍त मंत्री प्रणब मुखर्जी संसद में मौजूद थे, ऐसे में सरकार लोकपाल पर वोटिंग से भागने का प्रयास करती है। यह विचित्र स्थिति है। सरकार ने रुकावट पैदा कर खुद को बचाया है।'
सुषमा स्‍वराज ने कहा कि सदन का सत्र खत्‍म होने के बाद दोनों सदनों के नेताओं के संयुक्‍त प्रेस कांफ्रेंस की परंपरा है लेकिन इस सत्र में सरकार की किरकिरी हुई और जाते जाते यह सरकार की मुंह पर कालिख पोत गया। उन्‍होंने राज्‍यसभा में गुरुवार की रात हुई घटना को ‘लोकतंत्र का चीरहरण’ करार दिया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इस साजिश में प्रधानमंत्री भी शामिल थे। उन्होंने कहा कि सरकार के पास तीन विकल्‍प थे। सबसे सहज यह कि ज्‍यादा संशोधन आए तो सेलेक्‍ट कमेटी के पास भेजने का विकल्‍प है। सरकार इस बिल को लाना ही नहीं चाहती है। सरकार को तुरंत इस्‍तीफा देना चाहिए और नए चुनाव कराने चाहिए।

इन महिला राजनीतिज्ञ की सुंदरता के कायल हैं सभी













राजनीति में महिलाओं का होना कोई नई बात नहीं है। अलग-अलग देशों में ऐसी ढ़ेरों महिला राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होने अपनी बुद्धिमता के बल पर अपनी अलग पहचान बनाई है। साथ ही कई ऐसी कुशल महिला राजनीतिज्ञ भी हैं, जिनकी पहचान उनके काम के साथ-साथ उनकी खूबसूरती के कारण भी है।
अगर आप जानना चाहते हैं कि कौन-कौन सी महिला राजनीतिज्ञ ऐसी हैं, जो अपनी सुंदरता के कारण चर्चा में रहती हैं तो नीचे की तस्वीरें देखें...

1. हिना रब्बानी (पाकिस्तानी विदेश मंत्री)



2. शेर्लोट मैरी पोमलाइन कैसीरागी (वेलेंटिनोइस की रानी)


3. रैनिया अल अब्दुल्लाह (जॉडर्न के किंग अब्दुल्लाह द्वितीय की पत्नी)


4. कैथरीन एलिजाबेथ मिडलटन (प्रिंस विलियम की पत्नी)


5. यूरी फुजीकावा (जापान के हैकनोह काउंसिल की सदस्य)



6. ओर्ली लेवी अबेकैसिस (इज़राइल की राजनीतिज्ञ)


7.मारिया रोसारिया करफग्ना (इटली की राजनीतिज्ञ)


8. साराह पॉलिन (अमेरिकी राजनीति की सबसे विवादास्पद राजनीतिज्ञ)


9. यूलिया वोलडिमरिवना टिमोशैंको (यूक्रेन)


10. लेटीज़िया (अस्टूरियास की राजकुमारी)

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

जल, जंगल और आसमान सब खा रहे हैं शिवराज चौहान



विनोद उपाध्याय

चाल, चरित्र और चेहरा जैसी नैतिक बातें करने वाली भाजपा और शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली इस सरकार की चाल लडखड़़ा चुकी है। चरित्र, कांग्रेसियों से ज्यादा बिगड़ चुका है और असली चेहरा भी धीरे-धीरे सामने आ चुका है। इसी सरकार से जुड़े लोग, मसलन प्रदेश के मंत्री, निगम-मंडल अध्यक्ष, विधायक और सांसद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व भ्रष्टाचार की वैतरणी में कूद-कूद कर डुबकियां लगा रहे हैं।

मध्य प्रदेश में जब शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने प्रदेश में सुशासन लाने के लिए सात तरह के माफियाओं पर अंकुश लगाने की कार्ययोजना बनाई थी लेकिन शासन और प्रशासन की मिलीभगत से प्रदेश में जमीन, शराब, वन, ड्रग, खनिज, गोवंश और गरीबों को मिलने वाले केरोसिन और अन्य सामग्री को पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचने देने वाले जैसे सात तरह के माफिया लूट मचाए हुए है। तमाम सेक्टरों में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों के साथ ही प्रदेश में खनिज माफिया ने भी इस सरकार के राज में अपने आप को स्थापित कर लिया है। प्रदेश में अब करीब दस हजार करोड़ का खनिज घोटाला सामने आया है जिसमें न सिर्फ बड़ी माइनिंग कंपनियों ने बल्कि भाजपा के छोटे-बड़े नेताओं ने भी करोड़ों के खेल कर दिए हैं। पूरे प्रदेश में माइनिंग माफिया सक्रिय है। माफिया में केवल खनिज के कारोबारी ही नहीं हैं। बल्कि प्रदेश के अधिकांश मंत्री, भाजपा विधायक, सांसद और संगठन के पदाधिकारियों और उनके रिश्तेदार नेता से बड़े व्यापारी बन गए हैं।

मध्य प्रदेश में खनिज माफिया का कहर सबसे अधिक बुंदेलखंड के पठार पर पड़ रहा है। बुंदेलखंड इलाके की सबसे बड़ी कही जाने वाली सिद्धबाबा की पहाड़ी कभी समुद्र तट से 1,772 मीटर ऊंची हुआ करती थी, लेकिन इसके भीतर छिपे फौलादी ग्रेनाइट के खजाने के कारण इसे पाताल तक खोदा जा रहा है। आधिकारिक तौर पर महोबा से सालाना 65 करोड़ रुपए का ग्रेनाइट कारोबार होता है, लेकिन कबरई मंडी को करीब से जानने वाले बताते हैं कि यह मंडी साल में कम से कम 250 करोड़ रुपए पत्थर सप्लाई करती है। इसे महज आंकड़ों का फर्क मान कर खारिज नहीं कर सकते। हिंदी पट्टी के पांच राज्यों में पड़ताल से पता चलता है कि महोबा का हाइवे नंबर 76 तो अवैध खनन की महज एक मिसाल है।

मध्य प्रदेश विधानसभा में पेश सीएजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 से 2009-10 के दौरान प्रदेश में खनन से जुड़ी गड़बडिय़ों के कारण प्रदेश सरकार को 6,906 मामलों में 1496.29 करोड़ रुपए राजस्व का नुक्सान हुआ। मध्य प्रदेश में पिछले छह साल में अवैध खनन के 24,630 मामले सामने आए। 23,393 मामले अदालतों में दर्ज हुए हैं, यह देश के अन्य सभी राज्यों की तुलना में सर्वाधिक है। मध्य प्रदेश देश का सबसे प्रमुख हीरा उत्पादक राज्य है। इसके अलावा यहां कॉपर (तांबे) के आधिक्य वाला पाइरोफाइलाइट और डाइसपोर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। माफिया साढ़े 37 लाख घन मी. पत्थर रोजाना पहाड़ों से निकालते हैं। इसके लिए वह एक इंच होल में विस्फोटक के बजाय छ: इंच बड़े होल में बारूद भरकर विस्फोट करते हैं। जब यह विस्फोट होते हैं तो आस-पास 15-20 किमी की परिधि में बसने वाले वन क्षेत्रों के वन्य जीव इन धमाके की दहशत से भागने लगते हैं व कुछ की श्रवण क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त विस्फोट से स्थानीय जमीनों में जो दरारें पड़ती हैं उससे ऊपरी सतह का पानी नीचे चला जाता है और भूगर्भ जल बाधित होता है।

इस संपूर्ण बुन्देलखंड ग्रेनाइट करोबार जो कि यहां कुटीर उद्योग के नाम से चल रहा है, में 1500 ड्रिलिंग मशीनें, पांच सैकड़ा जेसीबी, 20 हजार डंपर, 2000 बड़े जनरेटर, 50 क्रेन मशीन और हजारों चार पहिया ट्रेक्टर प्रतिदिन 6 करोड़ 83 लाख, पांच सौ लीटर डीजल की खपत करके और ओवरलोडिंग करते हैं। इन विस्फोटों से रोजाना 30-40 टन बारूद का धुआं यहां के वायुमंडल में घुलकर बड़ी मात्रा में सड़क राहगीरों व खदानों के मजदूरों को हृदय रक्तचाप, टीबी, श्वास-दमा का रोगी बना रहा हैं। इसके साथ-साथ 22 क्रशर मशीनों के प्रदूषण से प्रतिदिन औसतन 2 लोग की आकस्मिक मृत्यु, 2 से तीन लोग अपाहिज व 6 व्यक्ति टीबी के शिकार होते हैं।

जल, जंगल, ज़मीन और आसमान। ऐसी कोई जगह नहीं जो घोटालेबाज़ों और माफियाओं की गिद्ध दृष्टि से बची हो। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के इस खेल में सरकार, विपक्ष, पूंजीपतियों समेत हर वह आदमी शामिल है जिसके संबंध सत्ता में बैठे लोगों से हैं और जिनके पास धनबल, बाहुबल है। मध्य प्रदेश में ऐसे ही खनिज माफिया और घोटालेबाजों ने सरकारी तंत्र की मिलीभगत से 10,000 करोड़ रूपए से अधिक का अवैध उत्खनन किया है और उनकी लूट का सिलसिला अभी भी जारी है।

सुशासन की दुहाई देने वाली शिवराज सरकार भी अवैध खनन के धंधे में दागदार साफ-साफ दिख रही है। शिवराज के दो मंत्रियों पर खनन माफिया को खुलेआम संरक्षण देने का आरोप है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि ये अवैध खनन करा रहे हैं। ये दोनों मंत्री शिवराज के चहेते भी हैं। कोई विभाग खनिज माफिया पर कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। तमाम आरोपों के बावजूद तमाम स्तरों पर सत्यता साबित होने पर भी शिवराज सिंह चौहान अपने इन मंत्रियों को बचाने की कोशिश में लगे हैं। सतना के वन अधिकारी के मुताबिक उचेहरा और नागौद वनक्षेत्र में पचास सालों से अवैध उत्खनन होता आ रहा है। जब भी वन विभाग का अमला कार्रवाई करने जाता है तो वनकर्मियों पर हमला कर दिया जाता है। वन अधिकारियों के मुताबिक यहां कानून का नहीं बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी मंत्री नागेंद्र सिंह के भतीजे का राज चलता है। सूबे में भाजपा के लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह और खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला पर आरोप है कि इनकी मिलीभगत से अवैध खनन का कारोबार रफ्तार से चल रहा है। इस मामले के शिकायतकर्ता के मुताबिक, बरसों से अवैध उत्खनन चल रहा है। मंत्री नागेन्द्र सिंह के भतीजे रूपेन्द्र सिंह उर्फ बाबा राजा जिन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।

शिवराज के सुराज में करोड़ों की अवैध खुदाई हो रही है। वन विभाग के एडिशनल चीफ कंजरवेटर जगदीश प्रसाद शर्मा ने अवैध खनन पर राज्य के चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर को सौंपी रिपोर्ट में बाबा राजा का जिक्र किया है। जांच रिपोर्ट के मुताबिक सतना के जंगलों में बाबा राजा का काम चल रहा है। बाबा राजा यानी एमपी के पीडब्लूडी मंत्री नागेन्द्र सिंह का भतीजा। इलाके में पत्थर का अवैध खनन बगैर वन अधिकारियों की मिलीभगत के मुमकिन नहीं। रिपोर्ट में लिखा है कि इस खनन की जांच अगर कर्नाटक के बेल्लारी केस की तर्ज पर की जाए तो वन क्षेत्र में करोड़ों रुपए के पत्थरों की चोरी और रॉयल्टी चोरी के रूप में सरकार को पहुंचाया गया करोड़ों का नुकसान उजागर हो सकता है। एसीएफओ की इस रिपोर्ट से हड़कंप है। शिकायतकर्ता ने इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। मामले की परतें खुली तो कुछ और सफेदपोशों के नाम सामने आने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास एक महीने से रिपोर्ट पड़ी है लेकिन मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई अब तक नहीं की गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। मैं पूरी रिपोर्ट जब तक नहीं देख लेता, तब तक कुछ नहीं कह सकता।

मध्य प्रदेश कांगे्रस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष माणक अग्रवाल ने कहा कि कांग्रेस के प्रदेश प्रतिनिधि मनोज पाल सिंह ने जबलपुर जिले की सिहोरा तहसील के ग्राम झींटी में 600 करोड़ के अवैध खनन के घोटाले की लोकायुक्त कार्यालय को शिकायत की है। 205 पेज के महत्वपूर्ण दस्तावेज सहित सात पृष्ठों की शिकायत में लोकायुक्त जांच की मांग की गई है। इसमें तथ्यों के आधार पर कहा गया है कि मध्यप्रदेश में कर्नाटक के बेल्लारी खनिज घोटाले से भी बड़ा घोटाला संबंधित मंत्रियों और अधिकारियों की मिलीभगत से हुआ है। तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि स्वीकृति से कई गुना अधिक लौह अयस्क निकाला गया है। वन क्षेत्र में तथा आदिवासियों की जमीनों पर भी मनमाना खनन कर सरकार और आदिवासियों को करोड़ों की हानि पहुंचाई गई है। भ्रष्टाचार के इस बड़े खेल में रॉयल्टी वसूली की आड़ में करोड़ों के अवैध खनन को रफा-दफा कर पट्टाधारियों को अनुचित लाभ भी पहुंचाया गया है।

अग्रवाल के मुताबिक ग्राम झींटी के इस खनिज घोटाले के संबंध में कार्रवाई के लिए कांगे्रस ने 14 अक्टूबर 2011 को श्यामला हिल्स थाने में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों और अधिकारियों के विरूद्ध एफआईआर दर्ज कराई थी। इसके बाद 19 अक्टूबर 2011 को इस बारे में न्यायालय में भी एक परिवाद दाखिल किया गया है। कांगे्रस नेता मनोज पाल सिंह ने इस प्रकरण के कुछ और महत्वपूर्ण दस्तावेज प्राप्त कर 11 नवंबर को लोकायुक्त को शिकायत सौंपी है। इस शिकायत में खनिज घोटाले के भीतर की गहरी परतों को खोला गया है। शिकायत में उल्लेख किया गया है कि संबंधित कंपनियों और व्यक्तियों को खनिज उत्खनन के पट्टे देने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण रही है। प्रदेश में खनिज आधारित उद्योग लगाने के मौखिक आश्वासन पर आवेदकों की आर्थिक स्थिति की जांच पड़ताल किए बिना उत्खनन की स्वीकृतियां जारी की गई हैं। ऐसा लगता है, इस घोटाले को पट्टेधारियों से सांठगांठ करके मंत्रियों और अधिकारियों ने काफी सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया है।

कांगे्रस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष का कहना है कि इस बात के पुष्ट प्रमाण है कि खनिज पट्टेधारियों ने अनुमति से अधिक क्षेत्र में खनिज का उत्खनन कर बेजा लाभ कमाया है। अवैध उत्खनन के क्षेत्र में वन भूमि और आदिवासियों की भूमि भी शामिल है। इस तरह खनिज पट्टाधारियों ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम और मप्र भू-राजस्व संहित की धारा 165 का भी उल्लंघन किया है। संबंधित अधिकारियों द्वारा पट्टाधारियों की इस मनमानी की व्यापक स्तर पर अनदेखी की जाकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया गया है। अवैध खनन, जो कि कानूनी अपराध की श्रेणी में आता है, को नाम मात्र रॉयल्टी लेकर नियमित मान लेने में अधिकारियों के स्तर पर भारी भ्रष्टाचार की बू आ रही है। इस प्रकरण में अधिकारियों ने अपने पद का भारी दुरुपयोग कर पट्टाधारियों को आर्थिक लाभ पहुंचाया है। ग्राम झींटी में हुआ खनिज घोटाला कितना बड़ा है, उसका अनुमान इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि चार पट्टाधारियों को हर साल 80,640 मैट्रिक टन औसतन खनन की अनुमति दी गई थी। किंतु मई 2011 तक इन्होंने 11,96,000 मैट्रिक टन खनिज निकाला, जो स्वीकृत सीमा से लगभग 12 गुना अधिक है।

भंवर में अन्ना





एक सच्ची घटना है- कुत्ता क्यों मरा? पंजाब के सबसे क़द्दावर मुख्यमंत्री थे सरदार प्रताप सिंह कैरो. स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ बड़े क़द्दावर नेता थे. एक बार दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहे थे. उनके साथ उनके संसदीय सचिव देवीलाल भी थे. सरदार कैरो की गाड़ी तेज़ी से भाग रही थी कि एक कुत्ता बीच में आ गया. कुत्ते की मौत हो गई. सरदार कैरो ने थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुकवाई. सड़क किनारे दो चक्कर लगाए और देवीलाल जी को बुलाया. उन्होंने पूछा, देवीलाल ये बताओ कुत्ता क्यों मरा? का़फी सोचने के बाद देवीलाल ने कहा कि कुत्ते तो मरते रहते हैं, यूं ही मर गया होगा. सरदार प्रताप सिंह कैरो ने फिर पूछा, बताओ कुत्ता क्यों मरा? देवीलाल जी खामोश रहे, फिर कहा कि आप ही बताइये. तब सरदार प्रताप सिंह कैरो ने देवीलाल से कहा कि यह कुत्ता इसलिए मरा, क्योंकि यह फैसला नहीं कर पाया कि सड़क के इस किनारे जाना है या उस किनारे. फैसला न लेने की वजह से वह बीच में खड़ा रह गया. अगर इसने फैसला कर लिया होता तो सड़क के इस किनारे या उस किनारे चला गया होता और बच जाता. फैसला नहीं लेने की वजह से यह कुत्ता मारा गया. देवीलाल को राजनीति का मंत्र मिल गया. उन्होंने जीवन भर इसका पालन किया. वह कभी बीच में नहीं रहे. राजनीति में उन्होंने हमेशा फैसला लिया. हमेशा इधर या उधर खड़े रहे. इसी सीख की वजह से वह देश के उपप्रधानमंत्री भी बने.

आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है.

अन्ना की समस्या बिल्कुल यही है. वह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करें? इधर जाएं या उधर जाएं. वह कभी यात्रा पर निकलने की बात करते हैं, फिर बीच में यात्रा करने का इरादा छोड़ देते हैं. उन्होंने बड़े ज़ोर-शोर से यह ऐलान किया कि संसद सत्र में लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो फिर से आंदोलन करेंगे, फिर अचानक से चुप हो गए. अन्ना तय नहीं कर पा रहे हैं कि आंदोलन करना है या नहीं. सरकार का समर्थन करना है या नहीं. उत्तर प्रदेश में यात्रा करनी है या नहीं. अन्ना हजारे के फैसला नहीं लेने की वजह से भ्रम की स्थिति बनती जा रही है. इस बीच अन्ना का बयान आया कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल बिल लेकर आ जाएगी तो वह कांग्रेस का समर्थन करेंगे और अगर लोकपाल बिल नहीं आया तो वह भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करेंगे. अन्ना अब तक यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि सरकार का समर्थन करना है या नहीं. अन्ना भंवर में हैं. अब तक उन्हें यह समझ में ही नहीं आया है कि सरकार लोकपाल के साथ क्या करना चाहती है, जबकि यह दिन के उजाले की तरह सा़फ है कि सरकार जन लोकपाल बिल लाने के पक्ष में नहीं है. सवाल यह उठता है कि इस तरह के बयान का क्या मतलब है? क्या अन्ना हजारे की नज़र में जनता की ताक़त का कोई महत्व नहीं है? क्या जनता की ताक़त में उनका भरोसा नहीं है? जो लोग अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल हुए वे न तो कांग्रेस के थे और न ही भारतीय जनता पार्टी के थे. यह आम जनता थी. सरकारी तंत्र में मौजूद भ्रष्टाचार से त्रस्त और नाराज़ जनता थी. तो अब यह कहना कि कांग्रेस का समर्थन कर दूंगा, का क्या मतलब है. क्या अन्ना को लगता है कि वह जिसका समर्थन कर देंगे, वह चुनाव जीत जाएगा या जिसका विरोध करेंगे वह चुनाव हार जाएगा. इससे तो दिग्विजय सिंह की यह दलील सही लगती है कि अन्ना और उनकी टीम को चुनाव लड़ना चाहिए.

अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई.

जब से अन्ना हजारे ने जन लोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया है, तब से लेकर आज तक ऐसे कई मौ़के आए, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्ना ठोस फैसले नहीं ले पाते हैं. आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है. फिर भी अन्ना हजारे और उनकी टीम यह ठोस फैसला नहीं कर सकी कि सरकार के खिला़फ जाना है या नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपनी मनमानी की. मजबूर होकर अन्ना को रामलीला मैदान में अनशन करना पड़ा. इस आंदोलन के दौरान सरकार ने उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया. आंदोलन के लिए जगह देने में कई रुकावटें खड़ी कीं. इतना सबकुछ होने के बावजूद अन्ना यह फैसला नहीं कर सके कि सरकार से किस तरह से लड़ना है. इसका नतीजा यह हुआ कि तेरह दिनों तक चला अन्ना का अनशन सरकार के साथ बातचीत में उलझ कर रह गया.

अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई. अब हालत यह है कि सरकार वैसा ही बिल लेकर आ रही है, जैसा वह पहले लाना चाहती थी. सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसमें प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे से बाहर हैं. सरकारी लोकपाल बिल में केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा और केंद्रीय सतर्कता आयोग को लोकपाल से बाहर रखा गया है. सरकार ने निचले स्तर के अधिकारियों को भी लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. न्यायपालिका में होने वाला भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे में नहीं है. सरकार तो अपनी जगह से हिली नहीं, वह जैसा लोकपाल लाने के लिए पहले से तैयार थी, वैसा ही बिल तैयार किया है. तो अब सवाल पूछना लाज़िमी है कि टीम अन्ना को अनशन से क्या हासिल हुआ. प्रधानमंत्री से पटवारी तक लोकपाल के दायरे में हों, यह मांग कहां ग़ायब हो गई. प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में हों? इस पर अनशन खत्म करने से पहले समझौता क्यों नहीं हुआ? साधारण सा सवाल है. सरकार का जो लोकपाल बिल है, वह क्या जन लोकपाल बिल है. इस सवाल का साधारण सा जवाब है ही नहीं. इसका मतलब यही है कि अन्ना का पिछला आंदोलन सफल नहीं रहा. अन्ना ने पिछला आंदोलन शुरू किया था, तो यह नारा दिया कि जन लोकपाल बिल पास करो. लेकिन तेरह दिनों के बाद टीम अन्ना ने जन लोकपाल बिल को छोड़ दिया और स़िर्फ तीन मांगों तक सीमित रहकर अनशन तोड़ दिया. इन तीन मांगों में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, सीबीआई, सीवीसी और निचले स्तर के अधिकारी कहां हैं? मामला संसद में चला गया. संसद में बहस हुई, लेकिन किस क़ानून के तहत हुई, यह किसी को पता नहीं है. इस बहस की क़ानून की नज़र में क्या प्रासंगिकता और मान्यता है? राजनीतिक दलों ने इसे सेंस ऑफ द हाउस बताया. लोकसभा की प्रक्रिया के मुताबिक़ इस प्रस्ताव को स्पीकर के समक्ष पेश करना था. क्या इस प्रस्ताव को लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने रखा? नहीं, इसे प्रणव मुखर्जी ने रखा. लोकसभा में क्या इन मांगों पर मतदान हुआ? नहीं, सरकार ने पूरी बहस को स्टैंडिग कमेटी के पास भेज दिया. हैरानी की बात तो यह है कि इससे पहले भी अन्ना हजारे स्टैंडिंग कमेटी में अपनी बात कह चुके थे. एक सांसद ने तो जन लोकपाल बिल को ही स्टैंडिंग कमेटी को सौंप दिया. मतलब यह है कि जो सुझाव अनशन के बाद स्टैंडिंग कमेटी को दिया गया, वह स्टैंडिंग कमेटी के पास पहले से ही था. इससे सा़फ पता चलता है कि टीम अन्ना से चूक हुई है. इसे भी स्वीकार करने की ज़रूरत है.

कोई भी आंदोलन दलील से नहीं, बल्कि जनभावना से ब़डा बनता है. जन लोकपाल के मामले में भी यही बात लागू होती है. जनभावना के सहारे अन्ना और उनकी टीम सरकार पर भारी प़ड गई. लेकिन जब बात समझौते तक पहुंची, तब दलील के आगे जनभावना कमज़ोर प़ड गई. लोकपाल बिल पास कराने की जल्दबाज़ी में जो कुछ हुआ, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है. उधर, अन्ना भी संशय की स्थिति में हैं. भारत भ्रमण और जन जागरण का उनका कार्यक्रम अब तक अधर में है. दूसरी ओर, वह खुद लोकपाल बिल के भविष्य को लेकर दुविधा में हैं.

जिस व़क्त अन्ना हजारे रामलीला में अनशन कर रहे थे, उस समय देश के हर कोने में अनशन चल रहा था. अन्ना के समर्थन में देश में कहां-कहां आंदोलन हुए, यह तो टीम अन्ना को भी पता नहीं होगा. भारतीय नागरिकों ने तो अमेरिका में भी अनशन किया. गांवों और क़स्बों में जो लोग आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने तो आंदोलन से पहले अन्ना का नाम तक नहीं सुना था. फिर भी आंदोलन में शामिल हुए. उनकी नाराज़गी सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिला़फ थी. महंगाई, बेरोज़गारी, बिजली आदि समस्याओं से जूझ रहे लोगों को लगा कि इस आंदोलन की वजह से बदलाव आएगा. सबकुछ बदल जाएगा. यही वजह है कि बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरतें, अमीर-ग़रीब, हर जाति और वर्ग के लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया. हर राजनीतिक दल के समर्थकों के साथ-साथ हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब अन्ना के आंदोलन में थे. ये लोग स़िर्फ जन लोकपाल के लिए अन्ना को समर्थन नहीं दे रहे थे. अन्ना में लोग गांधी देख रहे थे, जो भारत की तस्वीर बदलने की आशा जगा रहा था. अन्ना के पास यह एक मौका था कि वह इस आंदोलन को स़िर्फ लोकपाल की बजाय व्यवस्था परिवर्तन और सरकारी तंत्र के तौर-तरीक़ों को बदलने का आंदोलन बना सकते थे. लेकिन अन्ना ने लोगों को निराश किया. अनशन के बाद हॉस्पिटल और वहां से वापस अपने गांव जाकर बैठ गए. अगर अन्ना देश की यात्रा पर निकल जाते. हर राज्य में निस्वार्थ रूप से आंदोलन करने वाले युवाओं और जनता से मिलते तो आज सरकार को एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून बनाने की हिम्मत नहीं प़डती. फिर कभी अन्ना को आंदोलन करने की ज़रूरत पड़ती तो उनकी एक आवाज़ पर देश के हर कोने में आंदोलन शुरू हो जाते. वह लोगों की इस ताक़त को समझ नहीं पाए. वह यह नहीं समझ पाए कि लोगों की आकांक्षाओं और सपनों से ज़ुडने के बाद अपनी मर्ज़ी नहीं चलती. जनता की भावनाओं के साथ उन्हें चलना पड़ता है, लेकिन अन्ना हजारे ने ठीक उल्टा किया. जिस तरह सरकार लोगों की भावनाओं का मज़ाक़ उड़ा रही है, वैसा ही अन्ना हजारे कर रहे हैं.

सरकार अन्ना की इस कमज़ोरी को भली-भांति जानती है. यही वजह है कि सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल बनाकर अन्ना के आंदोलन को खत्म करना चाहती है. सरकारी बिल में जन लोकपाल बिल के कई मुद्दों को दरकिनार कर दिया गया है. बिल में स़िर्फ उन्हीं मुद्दों को शामिल किया गया है, जिससे सरकार टीवी चैनलों और संसद में बहस के दौरान विपक्ष के सवालों का गोलमोल जवाब दे सके. सरकार जानती है कि लोकपाल बिल पेश करने के साथ ही टीम अन्ना का समर्थन आधा हो जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो इसके लिए सरकार के साथ अन्ना हजारे भी ज़िम्मेदार होंगे. सरकार ने टीम अन्ना से निपटने के लिए दूसरे रास्ते भी खोल दिए हैं. सरकार उनके सहयोगियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करना चाहती है. पहले कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को भ्रष्ट बताया. शशि भूषण और प्रशांत भूषण के खिला़फ सीडी निकल जाती है. अरविंद केजरीवाल पर जुर्माना लगाया जाता है और किरण बेदी को हवाई स़फर के टिकट के लिए ज़लील किया जाता है. सरकार हर तरी़के से अन्ना हजारे और टीम अन्ना के सदस्यों को परेशान कर रही है. इसके बावजूद टीम अन्ना के सदस्य टेलीविजन कैमरे को देखते ही भ्रम फैलाने वाले बयान दे देते हैं. वे मीडिया के दबाव में आ जाते हैं. उन बातों पर ध्यान देने लग जाते हैं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं होती है. एक तऱफ सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून ला रही है, तो दूसरी तऱफ अन्ना हजारे और उनकी टीम ऐसे कामों में लगी है, जिसकी ज़रूरत नहीं है. यह समय सरकार पर दबाव देने का है तथा ऐसी योजनाएं बनाने का है कि अगर सरकार अपनी बात पर अडिग रही तो क्या करना होगा. हैरानी तो इस बात से होती है कि अन्ना हजारे अपनी टीम में पारदर्शिता लाने और संगठन में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए समाज के और लोगों को भी शामिल करने में समय नष्ट कर रहे हैं. लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल क़ानून नहीं लाई, तब क्या होगा. क्या फिर से देश में पहले जैसा आंदोलन खड़ा हो सकेगा? ऐसे महौल में राजनीति और चुनावों पर अन्ना भी चौंकाने वाले बयान दे देते हैं. सरकार देश को गुमराह कर रही है, लेकिन टीम अन्ना भी इसमें पीछे नहीं है. लोकपाल के मुद्दे पर सरकार ने पब्लिक ओपिनियन यानी जनमत का अनादर किया है. संसद में लोकपाल पर हुई चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों और सरकार ने लोगों की भावनाओं के साथ मज़ाक़ किया है. सरकार के इस अपराध में अन्ना भी शामिल हैं. प्रजातंत्र में लोकमत सर्वोपरि होता है. देश की जनता भ्रष्टाचार के खिला़फ एक कड़ा क़ानून चाहती है. यही जनमत है. देश की जनता घोटालों, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार की कमी से त्रस्त हो चुकी है. अन्ना ने लोगों में आशा जगाई, इसलिए लोग अन्ना के आंदोलन से जुड़े. देश की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है. राजनीति का भी वही हाल है. उत्तर प्रदेश में चुनाव है. कुछ लोग यह मान रहे हैं कि लोकसभा का चुनाव भी ज़्यादा दूर नहीं है. यह व़क्त फैसला लेने का है. अन्ना को यह फैसला लेना है कि भ्रष्टाचार और मज़बूत लोकपाल की लड़ाई में वह कहां खड़े हैं. कुत्ता क्यों मरा-के ज़रिए प्रताप सिंह कैरो ने जो सीख देवीलाल को दी, वही सीख अन्ना हजारे को लेने की ज़रूरत है.
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