शनिवार, 29 नवंबर 2014

मोदी के निशाने पर दागी और नाकारा नौकरशाह

776 अफसरों पर गिरेगी गाज
-सक्रिय हुई जांच एजेंसियां...डरे बड़े नौकरशाह
-पीएम मोदी की हिट लिस्ट में मप्र कैडर के दो अफसरों सहित 34 आईएएस शामिल
-पिछले 10 साल में 157 आईएएस पर दर्ज हुए हैं भ्रष्टाचार के मामले
-71 की जांच कर रही सीबीआई
भोपाल। पिछले 10 साल में भ्रष्टाचार के मामलें में फंसे मप्र के 32 अधिकारियों सहित 776 नौकरशाहों पर कभी भी गाज गिर सकती है। केंद्र और विभिन्न राज्यों में पदस्थ इन अफसरों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ ) और डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनेल ऐंड ट्रेनिंग (डीओपीटी)में खंगाली जा रही है। खासकर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के 10 साल के शासनकाल में हुए 38 घोटालों की जांच गंभीरता से हो रही है। इन तमाम घोटालों के सूत्रधार रहे नौकरशाहों की कुंडली पीएमओ द्वारा बना ली गई है। साथ ही केंद्र सरकार ने अब उन नाकारा अफसरों को घर बैठाने का मानस बना लिया है, जो कि किसी भी प्रकार के कामकाज करने की जरूरत तक महसूस नहीं करते। केंद्र सरकार के इस रूख से अफसरों में दहशत की स्थिति है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ नौकरशाहों को संरक्षण प्रदान करने वाली दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेन्ट कानून की धारा 6-ए को असंवैधानिक घोषित किए जाने और केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से ही नौकरशाही और जांच एजेंसियोंं की कार्यशैली का परिदृश्य भी बदलने लगा है। इसकी झलक पिछले कुछ दिनों के दौरान जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय के कदमताल से मिलती है। कल तक सत्ता तक पहुंच रखने वाले प्रभावशाली व्यक्तियों के मामले में ढुलमुल रवैया अपनाने वाली जांच एजेंसियां अचानक ही उन पर बेफिक्र होकर हाथ डाल रही हैं। उल्लेखनीय है कि केंद्र के साथ ही विभिन्न राज्यों में पदस्थ 4619 आईएएस अफसरों में से 1476 किसी न किसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। सबसे पहले केंद्र में हुए भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों लिस्ट तैयार की गई है,उसके बाद राज्यों की। पहली लिस्ट में यूपीए सरकार के शासनकाल के मोस्ट करप्ट 34 अफसर मोदी सरकार के निशाने पर आए हैं। इसमें से दो अफसर मप्र कैडर के हैं। उसके बाद प्रदेशों में हुए भ्रष्टाचार के दोषी पाए गए अधिकारियों में से 738 को छांटा गया है जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर मामले सामने आए हैं। इसमें मप्र के 32 अधिकारियों के नाम शामिल हैं। अगर पिछले दस साल का रिकार्ड देखें तो इस दौरान 157 आईएएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया गया है, जिसमें से 71 की जांच सीबीआई कर रही है। अपने लगभग पांच माह के शासनकाल में मोदी सरकार ने अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि भले ही हासिल न की है,लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक्शन लेना शुरू कर जनता को भविष्य के लिए शुभ संकेत जरूर दिया है। भ्रष्टाचार के खात्मे और सुशासन देने का वादा कर सत्ता में आई मोदी सरकार ने अब भ्रष्ट अधिकारियों की एक लिस्ट तैयार कर ली है। लिस्ट में उन अधिकारियों के नाम शामिल है जिन पर यूपीए सरकार के 10 साल के शासनकाल में भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। ये 34 अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों और सरकारी विभागों में कार्यरत बताए जा रहे है। मोदी सरकार की इस सूची से अधिकारियों में हडकंप मचा हुआ है तो वहीं भ्रष्टाचार के आरोप में फंंसे अफसरों को बुरे दिन का भय सता रहा है।
पीएमओ और डीओपीटी कर रहा जांच
हाल ही में पीएमओ और डीओपीटी के अधिकारियों की मीटिंग में भ्रष्टाचार का यह मसला उठा था। पीएमओ ने डीओपीटी से ऐसे करीब 200 केसों की रिपोर्ट 31 अगस्त तक मांगी थी। इसमें बताना था कि जांच हुई, तो उसमें क्या मिला और जांच रुकी, तो किस वजह से। डीओपीटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर पीएमओ को सौंप दी है और अब उसकी जांच हो रही है। गौरतलब है कि नियुक्ति की कैबिनेट कमिटी के प्रमुख प्रधानमंत्री हैं और तमाम ट्रांसफर-पोस्टिंग में अंतिम फैसला उन्हीं का होता है। ऐसे में पीएमओ अफसरों का पूरा ब्योरा रख रहा है। सबसे बड़ी बात यह है की केंद्र के विभिन्न मंत्रालयों में पिछले 10 साल में पदस्थ रहे अधिकारियों के साथ ही प्रदेशों में पदस्थ रहे उन सभी आईएएस की फाइल खंगाली जा रही जो घोटालों में आरोपी बनाए गए हैं।
भ्रष्टाचार में हमारे अफसर तीसरे पायदान पर
पीएमओ और डीओपीटी द्वारा 1476 भ्रष्ट अधिकारियों में से जिन 776 अधिकारियों को दोबारा जांच के लिए जो सूची बनाई गई है उसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश के अधिकारी हैं,जबकि दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र के और तीसरे स्थान पर मप्र के अफसर हैं। उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचार के मामले में प्रदेश के 160 आईएएस अधिकारियों की फाइल को जांच के लिए पीएमओ और डीओपीटी द्वारा तलब की गई थी। प्रारंभिक जांच में प्रदेश के 32 अफसरों के मामलों को दूसरी जांच के लिए लिया गया है। इस जांच में जितने अधिकारी दोषी पाए जाएंगे,उन पर कार्रवाई की जा सकती है। यहां यह बताना उचित होगा कि केंद्र की मोदी सरकार ने सभी जांच एजेंसियों के साथ मिलकर नौकरशाहों की बेनामी और अवैध कमाई वाली संपत्ति जब्त करने की तैयारी कर रही है। इसके तहत मप्र के 302 आईएएस अधिकारियों की करीब 22,000 करोड़ की संपत्ति भी है,जिसका जिक्र इन अधिकारियों ने अपनी संपत्ति के ब्यौरे में नहीं दिया है। अधिकारियों की देश-विदेश में स्थित संपत्ति की पड़ताल के लिए आईबी, आयकर विभाग, सीबीआई सहित अन्य प्रादेशिक ईकाइयों को सक्रिय कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि मप्र के नौकरशाहों में से जिन 289 अफसरों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया है उससे पीएमओं और केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग संतुष्ट नहीं है। इसलिए जांच एजेंसियों से पड़ताल कराई जा रही है कि आखिरकार ये अफसर रातों-रात अमीर कैसे बन गए और इन्होंने अपनी संपत्ति कहां और किसके नाम से दबाई है। इनमें से कुछ तो सचिव स्तर के अधिकारी हैं। इनकी संपत्ति और आय के स्रोत की छानबीन से सरकार चलाने वाले इन ब्यूरोक्रेटों की रातों की नींद उड़ गई है। ज्ञातव्य है कि पिछले तीन साल में देश भर में 39 आईएएस, 7आईपीएस समेत अब तक 54 नौकरशाह विभिन्न मामलों में दोषी पाए जा चुके हैं जबकि 260 से अधिक नौकरशाहों के खिलाफ मुकदमें चल रहे हैं। यह आकड़े 2010 से लेकर 6 अगस्त 2014 तक के हैं। इनमें ज्यादातर मामले भ्रष्टाचार से जुड़े हैं। 6 अगस्त तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के 19, भारतीय पुलिस सेवा के 3 और संबद्ध केन्द्रीय सेवाओं के 67 अधिकारियों के खिलाफ जांच लंबित है। इसके अलावा भारतीय प्रशासनिक सेवा के 154, भारतीय पुलिस सेवा के 15 और अन्य संबद्ध केंद्रीय सेवाओं के 102 अधिकारियों के खिलाफ 180 मामलों में मुकदमें चल रहे हैं।
ईडी ने अफसरों का ब्योरा मांगा
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी)ने मप्र के करीब 70 अधिकारियों-कर्मचारियों सहित देशभर के करीब 2,455 अधिकारियों-कर्मचारियों के यहां मारे गए छापे का विवरण और संपत्ति की जानकारी मांगी है। ईडी मुख्यालय ने लोकायुक्त पुलिस संगठन से आय से अधिक संपत्ति के मामलों में 20 लाख रुपए से ज्यादा की संपत्ति के प्रकरणों की जानकारी उपलब्ध कराने को कहा है। ईडी ने पिछले तीन साल की यह जानकारी मांगी है। मप्र में सभी संभागीय लोकायुक्त इकाइयों द्वारा पिछले तीन साल में भ्रष्ट अफसर तथा कर्मचारियों के यहां की गई छापों की कार्यवाही की जानकारी एकत्र कराई गई है। करीब 70 अधिकारियों की करोड़ों रुपए की आय से अधिक के ये मामले शीघ्र ही ईडी को सौंपे जाने हैं। इनमें कई चर्चित मामले भी शामिल हैं। ईडी इन मामलों में अर्जित संपत्ति के स्रोत के बारे में नोटिस जारी कर संबंधितों से स्पष्टीकरण लेगी। संतोषजनक जवाब नहीं आने पर ईडी द्वारा अधिकारी-कर्मचारी की आय से अधिक संपत्ति अटैच कराई जाएगी।
अफसरों की संपत्ति पर लोकपाल की नजर
केंद्रीय लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम की नजरें भारतीय प्रशासनिक सेवा के सभी अधिकारियों पर गड़ी हैं। अधिकारियों को एक अगस्त तक स्थिति के मुताबिक संपत्ति का संशोधित ब्योरा 15 सितंबर से पहले वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा। वहीं राज्य सरकार ने भी अपने समूह क, ख और ग कार्मिकों को अपनी सपंत्ति का ब्योरा प्रति वर्ष 31 जुलाई की स्थिति के मुताबिक 31 अगस्त तक उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं।
भ्रष्टों पर मुकदमा करने के लिए एसवीएस
अब सीबीआई को भ्रष्ट नौकरशाह पर केस चलाने के लिए उनके आकाओं की अनुमति के लिए वर्षों इंतजार नहीं करना पड़ेगा। सिंगल विंडो सिस्टम (एसवीएस) के तहत किसी भी आईएएस या आईपीएस के खिलाफ भ्रष्टाचार से सम्बंधित मुकदमा दर्ज करने की अनुमति सिर्फ भारत सरकार के कार्मिक प्रशिक्षण विभाग से मिलेगी। किसी भी राज्य में कार्यरत नौकरशाहों के लिए अनुमति सम्बंधित राज्य के मुख्य सचिव देंगे वो भी तीन महीने के भीतर, अगर अनुमति नहीं मिलती है तो फिर कार्मिक प्रशिक्षण विभाग भारत सरकार उस पर फैसले लेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में उपरोक्त प्रस्ताव को हरी झंडी दी है और इसपर त्वरित गति से काम शुरू करने को कहा है।
सरकारी संरक्षण में भ्रष्ट अधिकारियों की संख्या बढ़ी
पीएमओ और डीओपीटी की अब तक की पड़ताल में यह बात सामने आई है कि यूपीए शासनकाल में सरकारी संरक्षण में भ्रष्टाचार की राह चलने वाले अफसरों की संख्या बढ़ती गई। साल 2012 में ऐसे अधिकारियों की संख्या तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ गई। ये वे भ्रष्ट अधिकारी हैं जिनके खिलाफ जांच पूरी कर सीबीआई आरोप पत्र दाखिल करना चाहती थी, लेकिन यूपीए सरकार ने इसके लिए जरूरी अनुमति नहीं दी। इसके बाद सीबीआई ने 31 दिसंबर 2012 को ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की सूची जारी की, जिनमें उनकी संख्या बढ़कर 99 हो गई। ये सभी अधिकारी कुल 117 मामलों में फंसे हुए थे। लेकिन सीबीआई द्वारा सूची जारी कर देने भर से भ्रष्ट अधिकारियों को मिल रहा सरकारी संरक्षण कम नहीं हुआ। सीबीआई की ताजा सूची में ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की संख्या बढ़कर 165 हो गई है। इन 165 अधिकारियों के खिलाफ कुल 331 केस दर्ज हैं, जिनकी जांच पूरी हो चुकी है। यदि भ्रष्ट अधिकारियों और उनके खिलाफ दर्ज मामलों का अनुपात निकाला जाए तो एक भ्रष्ट अधिकारी औसतन भ्रष्टाचार के दो मामलों में लिप्त है। जांच एजेंसी को ठेंगा दिखाने वाले भ्रष्ट अधिकारियों में कस्टम व एक्साइज विभाग के अधिकारी अव्वल हैं। 165 अधिकारियों की सूची में अकेले कस्टम व एक्साइज विभाग के 70 अधिकारी हैं।
5 साल में 25,840 भ्रष्ट अफसरों पर मामला
केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में वर्ष 2009 से लेकर 2013 तक 25,840 अधिकारियों के खिलाफ शिकायत पहुंची। जिनकी जांच में ये दोषी पाए गए और सीवीसी ने इनके विभागों को कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। लेकिन कई विभागों ने भ्रष्ट अफसरों के प्रति नरम रवैया अपनाया। खास कर विदेश मंत्रालय और ओएनजीसी समेत कई सरकारी संस्थानों द्वारा भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ नरमी बरतने पर सीवीसी ने नाराजगी जताई। सीवीसी ने कहा कि भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं होने से अन्य अफसरों के हौसले भी बुलंद होंगे। सीवीसी द्वारा वर्ष 2013 के लिए तैयार की गई रिपोर्ट के मुताबिक गत वर्ष 17 मामलों में संबंधित संस्थानों ने भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित नहीं किया या हल्की-फुल्की कार्रवाई कर छोड़ दिया। इनमें चार दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए), तीन रेल मंत्रालय, दो-दो दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) व ओएनजीसी के अधिकारी शामिल हैं। इसके अलावा केंद्रीय लोक निर्माण विभाग, दिल्ली जल बोर्ड, एलआइसी हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड, विदेश मंत्रालय, एसबीआई और भारतीय मानक ब्यूरो के एक-एक भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ भी पक्षपाती रवैया अपनाया गया।
सोशल साइट पर भी होगा भ्रष्ट अधिकारियों का ब्यौरा
भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार सख्ती के साथ ही भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारियों का ब्यौरा विभाग की बेवसाइट से लेकर फेसबुक जैसी सोशल साइट पर भी डालने की तैयारी कर रही है। हालांकि इसमें पुराने मामलों को अपलोड नहीं किया जाएगा। हालांकि अभी पीएमओ और डीओपीटी के बीच इस पर विचार-विमर्श चल रहा है। उधर,भ्रष्टाचार रोकने और भ्रष्टाचारियों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने की मुहिम के तहत महाराष्ट्र एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी)ने तो सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर पेज बनाने की तैयारी शुरू कर दी है, जिस पर रिश्वत लेने वालों के फोटो डाले जाएंगे। एसीबी महानिदेशक प्रवीण दीक्षित ने बताया, भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम तेज करने और ऐसे लोगों तक पहुंचने के लिए हम फेसबुक का मंच इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं। एसीबी के प्रमुख प्रवीण दीक्षित ने भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने के लिए सरकारी दफ्तरों के बाहर एसीबी की मोबाइल वैन भी खड़ी करनी शुरू की है। ताकि लोगों तक पहुंचा जा सके और उनसे संवाद स्थापित किया जा सके। ऐसा होने से ज्यादा से ज्यादा लोग भ्रष्टाचार से जुड़ी अपनी शिकायतें एसीबी तक पहुंचा सकेंगे। फेसबुक के जरिए ज्यादा लोगों तक पहुंचने की कवायद हालांकि एसीबी पहले भी भ्रष्ट अधिकारियों की फोटो अपनी वेबसाइट पर लगाती रही है, पर वह सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के जरिए ज्यादा लोगों तक पहुंचना चाहती है। कई बार देखा गया है कि एक बार रिश्वत लेते पकड़े गए लोग जब दोबारा नौकरी पर आते हैं तो फिर घूसखोरी में लग जाते हैं। एसीबी के मुताबिक उनका यह निर्णय रिश्वतखोरी की घटनाओं को रोकने में मदद करेगा। एसीबी अधिकारियों का कहना है कि हम युवाओं से इस साइट को देखने को भी कहेंगे, ताकि भ्रष्ट अधिकारियों की फोटो उनके बच्चों तक भी पहुंचे और उन्हें यह पता लगे कि उनके अभिभावक कौन सा काम करते हैं। फोटो के साथ वेबसाइट पर यह भी लिखा जाएगा कि आरोपी अधिकारी कितने रुपए की रिश्वत लेते पकड़ा गया है और छानबीन के दौरान आरोपी के घर से कितने गहने व कितने नकद रुपए बरामद हुए हैं। एसीबी ने इस वर्ष 16 अगस्त तक भ्रष्टाचारियों को पकडऩे के लिए 744 व्यूह रचे, जो पिछले वर्ष की तुलना में 114 फीसदी अधिक है। इस दौरान 1009 सरकारी कर्मचारियों और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार किया। गत वर्ष इसी अवधि के दौरान एसीबी ने 344 व्यूह रचे, जिनमें 452 लोगों को गिरफ्तार किया था।
शिवराज के राज में सबकी चूनर पर दाग
नौकरशाहों पर भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर मप्र भले ही तीसरे स्थान पर है लेकिन यहां के हर चौथे अधिकारी-कर्मचारी पर कोई न कोई आरोप है। पिछले 10 साल से जिस तरह के मामले उजागर हो रहे हैं, उनसे इतना तो साफ है कि चाहे नौकरशाही हो या फिर अन्य अधिकारी-कर्मचारी सबके सब भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। पंचायत के सचिव से लेकर सरकार के बड़े अफसरों तक के यहां पड़े छापों में जो सच्चाई सामने आई है वह आंखें खोलने के लिए काफी है। हजारों कमाने वाला पंचायत सचिव करोड़ों का मालिक निकला तो लाखों कमाने वाला अफसर अरबों का। इस तरह के कर्मचारियों और राज्य स्तर के अधिकारियों की एक लंबी सूची है। राज्य सरकार दावा करती है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि अपने छापों को लेकर चर्चा में रहने वाला लोकायुक्त भी भ्रष्टाचार के मामलों में खुद को असहाय पाता है। आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में तो लोकायुक्त के हाथ वैसे ही बंधे हुए हैं। इन वर्गों के अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए उसे केंद्र सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। लेकिन राज्य सरकार के कर्मचारियों और अधिकारियों के मामले में भी हालात कमोबेश ऐसे ही हैं। लोकायुक्त के ताजा आंकड़े बताते हैं कि करीब 150 मामलों में भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए उसे प्रशासनिक स्वीकृति का इंतजार है। लोकायुक्त द्वारा समय-समय पर याद दिलाए जाने के बाद भी राज्य सरकार की तरफ से मंजूरी न दिया जाना सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करता है।
प्रदेश में हो रहें भ्रष्टाचार का आंकलन इससे भी किया जा सकता है कि पिछले 9 माह में प्रदेश में करीब 302 करोड़ की अवैध कमाई का खुलासा हुआ है। लोकायुक्त के छापे में अफसरों के घर, बैंक और तिजोरियों ने करोडों की संपत्ति उगली हैं। छापों में करोड़ों के सोने-चांदी के जेवरात, लाखों रुपए की नकदी और अकूत मात्रा में अचल संपत्ति मिली है। यही नहीं अदने से सरकारी कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों के घर-परिवार में ऐसे ऐशोआराम-भोगविलासिता के सामान मिले हैं जो शायद अरबपति घरानों के यहां मिलते हैं। इंदौर संभाग के अलग-अलग सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए लोकायुक्त पुलिस ने पिछले 7 महीने में 46 कारिंदों को रिश्वत लेते रंगे हाथों धर दबोचा। एसपी (लोकायुक्त) वीरेन्द्र सिंह ने बताया, हमने जनवरी से जुलाई के बीच मिली शिकायतों के आधार पर 15 पटवारियों और 9 पुलिसकर्मियों समेत 46 सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत लेेते रंगे हाथों गिर तार किया। उन्होंने बताया कि पिछले 7 महीने में लोकायुक्त पुलिस की इंदौर शाखा ने पांच सरकारी कर्मचारियों के ठिकानों पर छापे मारे और उनकी कुल 16 करोड़ रुपए की बेहिसाब संपत्ति का खुलासा किया। सिंह ने बताया कि लोकायुक्त पुलिस की इंदौर शाखा ने जनवरी से जुलाई के बीच भ्रष्टाचार के कुल 68 मामले दर्ज किए। इनमें सरकारी कर्मचारियों के आय के ज्ञात स्त्रोतों से ज्यादा संपत्ति रखने के पांच मामले शामिल हैं।
नाकारा नौकरशाहों की भी मंगाई रिपोर्ट
केंद्र सरकार दागी अफसरों के साथ ही अब नाकारा अफसरों पर भी नकेल कसने जा रही है। इसके लिए मोदी सरकार वर्ष 2011 दिसंबर महीने में मनमोहन सरकार द्वारा राज्यों को भेजे गए उस परिपत्र को आधार बना रही है जिसेअक्षम और नकारा नौकरशाहों की छुट्टी करने के लिए राज्य सरकार को भेजा था और जानकारी मांगी गई थी कि उनके राज्य में कितने अफसर नकारा है। उस समय इस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई और न ही केंद्र को रिपोर्ट भेजी गई। अब फिर से केंद्र सरकार ने राज्यों को याद दिलाया है कि वे अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के कामकाज की समीक्षा करें और जो नकारा एवं अक्षम हैं उन्हें सेवानिवृत्त किया जाए। कम से कम 15 साल की सेवा करने वाले अधिकारियों की समीक्षा करने के निर्देश दिए हैं। इस आदेश के चलते अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों में हड़कंप मच गया है और वह अपने अपने हिसाब से रास्ते तलाश रहे हैं।
मप्र के दो दर्जन अफसर निशाने पर
केंद्र सरकार के नए निर्देश के बाद मप्र के करीब दर्जनभर नौकरशाह निशाने पर आ गए हैं। प्रदेश के कई नौकरशाहों पर भ्रष्टाचार के प्रकरण लोकायुक्त एवं आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो में चल ही रहे हैं इसके साथ ही एक दर्जन से अधिक अफसरों की गोपनीय चरित्रावली भी गड़बड़ है। इन अफसरों ने राष्ट्रपति तक दस्तक दी हुई है। सीआर खराब होने के चलते अधिकारियों को अब प्रमोशन में काफी दिक्कतें आती हैं। इसके साथ ही करीब एक दर्जन से अधिक और अधिक नौकरशाहों पर भी ऐसे सवाल खड़े हुए हैं जिनके खिलाफ विभिन्न आरोप एवं प्रत्यारोप जहां-तहां दर्ज हैं।
शिवराज सरकार बोली नाकारा नहीं है हमारे नौकरशाह
नाकारा अफसरों की छुट्टी किए जाने संबंधी केंद्र्र सरकार के फरमान से देश के नौकरशाहों में भले ही खलबली मची हो, लेकिन मध्यप्रदेश के नौकरशाहों को टेंशन लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार ने यहां के किसी भी नौकरशाह को नाकारा नहीं मानती। सरकार की नजर में सभी का काम-काज बेहतर है। इसके पीछे मुख्य वजह है सरकार और नौकरशाहों की जुगलबंदी और अधिकारियों की कमी। मप्र में शिवराज सरकार की हैट्रिक का जितना श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को दिया जा रहा है, उतने की ही भागीदार प्रदेश की नौकरशाही भी कही जा रही है। मुख्यमंत्री को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने वाली योजनाएं बनाने से लेकर उन्हें क्रियान्वित करने वाले प्रदेश के नौकरशाहों की पीठ भी खुद मुख्यमंत्री थपथपा चुके हैं। इस बीच उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि प्रदेश में आईएएस अफसरों का जबर्दस्त टोटा है। दस-बीस नहीं 98 आईएएस अफसरों की कमी मप्र में है। मप्र कैडर में वर्तमान में 417 पद हैं। इनमें से 302 पद भरे हुए हैं। 115 पद अब भी खाली हैं। हालांकि इनमें वे 17 आईएएस अधिकारी शामिल हैं जो हाल ही राज्य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नत किए गए हैं। यदि इन्हें भी शामिल कर लिया तो कैडर में अब भी 98 अफसरों की कमी है। मप्र कॉडर के 302 आईएएस अफसरों में से भी तीन अधिकारी, अरविंद जोशी, टीनू जोशी और शशि कर्णावत सस्पेंड हैं। शेष बचे अफसरों में से करीब 40 अफसर केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ हैं। इस तरह प्रदेश में केवल 259 आईएएस अफसर काम कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश सरकार नहीं चाहती है कि किसी नौकरशाह पर गाज गिरे। बताते हैं कि केंद्र के निर्देश का अनुपालन करते हुए प्रदेश में आईएएस अफसरों की एसीआर का काम लगभग पूरा हो चुका है। एसीआर में ज्यादातर के काम-काज को बेहतर माना गया है। इसमें आउट स्टेंडिंग और गुड-वैरीगुड वालों की संख्या अधिक है। औसत एसीआर वालों की संख्या नगण्य है। ऐसा नहीं है प्रदेश में सभी आईएएस अफसर बेतहर है। कईयों के खिलाफ लोकायुक्त संगठन जांच कर रहा है तो कुछ के मामले ईओडब्ल्यू में चल रहे हैं। विभागीय जांच के घेरे में भी कई अफसर फंसे हैं। इसके बाद भी संबंधितों पर कार्यवाही नहीं हो रही है। आश्चर्य यह है कि बावजुद इसके सभी अफसरों के काम-काज को बेहतर माना गया है। इसके पीछे मप्र सरकार की एक दलील यह भी है कि अगर हमारे अफसर योग्य नहीं होते तो उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें अपनी महत्वपूर्ण योजनाओं की जिम्मेदारी क्यों सौंपते।
मोदी राज में मप्र के अफसरों की बहार
केंद्र के मंत्रालयों में मप्र कैडर के आईएएस अफसरों को जिस तरह तवज्जो मिली है उससे तो यही साबित होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मप्र के अफसरों पर खासा भरोसा है। उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार में मंत्रियों के साथ मंत्रालयों के सचिवों को भी बराबर की तवज्जे दी जा रही है। मंत्रालयों के सचिव और आईएएस सीधे पीएम से मिल सकते हैं। केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर प्रदेश के तीन दर्जन से अधिक आईएएस पदस्थ हैं। इसमें से कुछ मोदी के करीबी हैं। पीएमओ में सचिव आर. रामानुजम की कार्यप्रणाली से मोदी इतने अधिक प्रभावित हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद भी उनकी सेवाएं निरंतर रखी हैं। मोदी के कोर एजेंडे में शामिल कई योजनाओं को अमलीजामा पहनाने का श्रेय भी मप्र के अफसरों को जाता है। प्रधानमंत्री जनधन योजना को तैयार करने और उसके क्रियान्वयन में अनुराग जैन की महत्वपूर्ण भूमिका है। मोदी ने इन्हें योजना (मिशन) के निदेशक पद की जिम्मेदारी दी है। मध्यप्रदेश में नगरीय प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव रहे एसपीएस परिहार अब कैबिनेट सेक्रेटिएट में संयुक्त सचिव के तौर पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। कृषि को लाभ का धंधा बनाना भी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट है। इसके लिए कृषि मंत्रालय की महत्वपूर्ण भूमिका है, यहां राघवचंद्रा संयुक्त सचिव पद की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। इनके अलावा स्नेहलता श्रीवास्तव अतिरिक्त सचिव वित्त मंत्रालय, राजन कटोच सचिव भारी उद्योग मंत्रालय, जेएस माथुर अतिरिक्त सचिव सूचना प्रसारण मंत्रालय,पीडी मीना विशेष सचिव भू-प्रबंधन, विमल जुल्का सचिव सूचना प्रसारण मंत्रालय,स्वर्णमाला रावला सचिव सार्वजनिक उपक्रम,प्रवेश शर्मा प्रबंध निदेशक लघु कृषक, कृषि व्यापार अल्पकालीन मंत्रालय,रश्मि शुक्ला शर्मा संयुक्त सचिव पंचायती राज,विजया श्रीवास्तव संयुक्त सचिव ग्रामीण विकास मंत्रालय,मनोज झालानी संयुक्त सचिव स्वास्थ्य,संजय बदोपाध्याय संयुक्त सचिव परिवहन,प्रमोद अग्रवाल संयुक्त सचिव परिवहन के पद पर पदस्थ हैं।
यही नहीं मध्य प्रदेश कैडर की आईएएस अधिकारी अलका सिरोही को अगले माह संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की नई अध्यक्ष बनाने की तैयारी है। यह पद संभालने वाली मप्र कैडर की वे पहली महिला आईएएस अधिकारी होंगी। वे वर्तमान अध्यक्ष रजनी राजदान का स्थान लेंगी। सिरोही इस समय आयोग की सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं। आयोग की परंपरा रही है कि सबसे वरिष्ठ सदस्य ही आयोग का अध्यक्ष बनता है। अलका सिरोही जनवरी 2017 तक आयोग की अध्यक्ष रहेंगी। जनवरी 2012 में आयोग की सदस्य बनने से पहले वे कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के अधीन कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग की सचिव, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के खाद्य और सार्वजनिक विभाग की सचिव रह चुकी हैं। उन्होंने योजना आयोग के प्रधान सलाहकार के पद पर भी काम किया है।
मप्र में मोदी के निर्देर्शों की निकली हवा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशभर के नौकरशाहों को अपनी कार्यशैली में ढालने के लिए 11 सूत्रीय निर्देश दिए थे। प्रधानमंत्री के हवाले से कैबिनेट सचिव अजीत सेठ ने वर्किंग कल्चर और कार्यालय के वातावरण को और बेहतर करने के लिए वे 11 सूत्र वाले निर्देश सभी केंद्रीय सचिवों और प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजा 5 जून को भेजा था तथा उन निर्देशों का तत्काल पालन करने को कहा था। लेकिन चार माह से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी मप्र में उनका पालन नहीं कराया जा सका।
पीएम मोदी का सबसे पहला निर्देश था कि सभी कार्यालयों की सफाई। कार्यालयों के गलियारों-सीढियों की साफ-सफाई। इन जगहों पर कार्यालय संबंधी सामाग्री या आलमारी नहीं दिखनी चाहिए। दूसरा यह कि कार्यालयों के अंदर फाइलों और कागजों को व्यवस्थित करके रखा जाए, जिससे काम करने का सकारात्मक माहौल बने। तीसरा यह कि कार्यालयों के साज-सज्जा और उसकी सफाई के संदर्भ में की गई कार्रवाई की रिपोर्ट हर रोज जीएडी के पास पहुंचनी चाहिए। चौथा यह कि सभी विभागों से कहा गया था कि वे उन 10 नियमों को बताएं या खत्म करें, जो अनावश्यक हैं, जिनका कोई मतलब नहीं है और उनको हटाने से कामकाज पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा। पांचवा यह कि सभी विभागों के सचिवों को फॉर्म को छोटा करने का निर्देश दिया गया था। हो सके तो संबंधित विभागों के फॉर्म एक पेज का किया जाए। छठवां यह कि किसी भी काम पर निर्णय लेने की प्रकिया चार चरण से अधिक नहीं होनी चाहिए। सातवां काम को लटकाने की प्रवृत्ति खत्म की जाए। किसी भी फाइल या पेपर को तीन से चार सप्ताह के अंदर क्लियर किया जाए। आठवां नौकरशाह पावर प्वाईंट प्रजेंटेशन बनाएं, संक्षिप्त व प्रभावी नोट तैयार करें। फाइलों को भारी भरकम बनाने से बचें। नवां सभी सचिवों से 2009-14 के लिए तय किए गए लक्ष्य और उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में विश्लेषण करने को कहा गया था। इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को दी जाएगी। दसवां सभी विभागों को एक टीम की तरह काम करने को कहा गया था। सभी स्तर पर नए विचारों का स्वागत किया जाए और ग्यारहवां यह कि सचिवों से सहयोगपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया की आवश्यकता बताई गई है। जैसे अगर कोई विभाग किसी मसले को सुलझा नहीं पाता है तो वे वरिष्ट अधिकारियों से संपर्क करें। लेकिन इसका अनुपालन मप्र में कहीं भी दिखाई नहीं देता। इसका खुलाशा मंत्रालय में सामान्य प्रशासन विभाग के मंत्री लालसिंह आर्य और अपने-अपने विभागों में महिला एवं बाल विकास मंत्री माया सिंह, उद्योग मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया, परिवहन मंत्री भूपेंद्र सिंह और पिछड़ा वर्ग मंत्री अंतर सिंह आर्य की छापामार कार्रवाई में सामने आ चुका है। इसलिए अब स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पीएम मोदी के निर्देशों का पालन कराने की ठानी है। उन्होंने इसके लिए विभागीय प्रमुखों को आवश्यक निर्देश भी दे दिया है।

5 साल में फर्जी कागजों पर बांट दिया 7200 करोड़ का लोन!

नान परफार्मिंग एसेट्स की आड़ में बैंकों में चल रहा लोन का खेल
-प्रदेश में बैंकों की 2207 शाखाएं शक के दायरे में
-सरकारी बैंकों के लोन प्रक्रिया पर सीबीआई की नजर
-सीबीआई कर रही सरकारी बैंकों के एनपीए की निगरानी -हर साल बैंकों का चार खरब से ज्यादा पैसा डूब जाता
भोपाल। मप्र सहित देशभर की बैंकों में फर्जी कागजात से लोन बांटकर हर साल सरकार को चार खरब से अधिक का चूना लगाया जा रहा है। यह तथ्य अगस्त के पहले सप्ताह में सिंडीकेट बैंक में लोन घोटाले का प्रकरण सामने आने के बाद विभागीय और सीबीआई की जांच में सामने आया है। अकेले मप्र में पांच साल में करीब 7200 करोड़ रूपए अवैध तरीके से अपात्र लोगों या कंपनियों को लोन बांट दिया गया है। इस मामले में प्रदेश की 2207 शाखाओं को शक के दायरे में लिया गया है। मामला सीबीआई ने अपने हाथ में लिया है और वह सरकारी बैंकों के लोन प्रक्रिया पर नजर गड़ाए हुए है और बैंकों के एनपीए (नान परफार्मिंग एसेट्स यानी डूब सकने वाले कर्ज ) की निगरानी कर रही है। इस मामले में जल्दी ही कई बैंक अधिकारी, उद्योगपति, राजनेता और दलालों के नाम सामने आने वाले हैं। बैंकों में हो रहे घपलों की बात करें तो फर्जी कागजात से लोन हड़पने के मामले सर्वाधिक हैं। एसबीआई के एक अधिकारी के मुताबिक विभागीय जांचों में इसी तरह के मामले सबसे ज्यादा हैं। वह भी ऐसे जिनमें अधिकारियों, कर्मचारियों ने फर्जी नाम से लोन अप्रुव कराए और फिर उन्हें 'बैड लोनÓ में दिखा दिया। एनपीए यानी नान परफार्मिंग एसेट्स की आड़ में खेल काफी समय से हो रहा है। सीबीआई इसकी जांच कर रहा है।
दरअसल, सरकारी बैंकों में सुनियोजित तरीके से लोन के नाम पर फर्जीवाड़ा किया जा रहा है। अगस्त के प्रथम सप्ताह में जब सीबीआई ने सिंडीकेट बैंक के चेयरमैन और एमडी सुधीर जैन को उनके रिश्तेदार समेत चार अन्य लोगों के साथ गिर तार किया तो यह तथ्य पूरे देश के सामने आया की किस तरह नियमों को ताक पर रख रसूखदारों को लोन देने का खेल खेला जा रहा है। सीबीआई ने पहली बार आंतरिक जांच के आधार पर ऐसा कदम उठाया था और दो निजी कंपनियों प्रकाश इंडस्ट्रीज और भूषण स्टील की क्रेडिट लिमिट बढ़ाने के लिए 50 लाख की रिश्वत मामले में सिंडीकेट बैंक के चेयरमैन और एमडी सुधीर जैन को उनके दो रिश्तेदारों, प्रकाश इंडस्ट्रीज के चेयरमैन वीपी अग्रवाल समेत भूषण स्टील के नीरज सिंघल को भी हिरासत में ले लिया। सिंडिकेट बैंक में लोन की धांधली आने के बाद के बाद अब यूको बैंक में बड़ी धांधली का पर्दाफाश हुआ है। यूको बैंक में करीब 6000 करोड़ रुपए के लोन बांटने में घोटाला हुआ है। इस घोटाले के सामने आते ही सरकार ने बैंकों पर नजर रखने और लोन मामलों की जांच करने की जि मेदारी सीबीआई को सौंप दी है। यही नहीं सरकार ने बैंकों की कुछ गैर निष्पादित आस्तियों (एनपीए) की सीमित फारेंसिक ऑडिट का आदेश दिया है, ताकि ऋण स्वीकृति में किसी तरह की अनियमितता का पता लगाया जा सके।
पांच साल में डूब चुके हैं 2,04,549 करोड़
देश में बैंकों में लोन का खेल किस तरह चल रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच वर्षो में बैंक 2,04,549 करोड़ रुपए के कर्ज को बट्टेखाते(डूबत खाते ) में डाल चुके हैं। इसका अर्थ है कि हर साल बैंकों का चार खरब से ज्यादा पैसा डूब जाता है। अकेले मप्र में ही इन पांच साल में करीब 7200 करोड़ का लोन डूबत खाते में पहुंच गया है। अब इन मामलों की फाइल फिर से खुली है। आल इंडिया बैंक इंप्लाइज एसोसिएशन का कहना है कि भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण बैंकिंग सेक्टर लहूलुहान है। पिछले पांच साल में सार्वजनिक बैंकों की अनुत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) में चार गुना इजाफा हो चुका है। अकेले वर्ष 2012-13 में बैंकों के 1.64 लाख करोड़ रुपए फंसे पड़े थे जो कोयला और टूजी घोटाले की रकम को टक्कर देते हैं। फिलहाल बैंकों के पास जनता के कुल 78,67,970 करोड़ रुपए जमा हैं जिनमें से 60,36,080 करोड़ रुपए उन्होंने बतौर कर्ज दे रखा है। कर्जे का बड़ा भाग कॉरपोरेट घरानों और बड़े उद्योगों के पास है। अनेक बड़े उद्योगों ने बैंकों से अरबों रुपए का ऋण ले रखा है जिसे वे लौटा नहीं रहे हैं। इसी कारण बैंकों की एनपीए 4.4 फीसद के खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। आल इंडिया बैंक इंप्लाइज एसोसिएशन ने हाल ही में एक सूची जारी की जिसमें एक करोड़ रुपए से ज्यादा रकम के 406 बकाएदारों के नाम हैं। इस सूची में अनेक प्रतिष्ठित लोगों और संगठनों के नाम शामिल हैं। सार्वजनिक बैंक किसान, मजदूर या अन्य गरीब वर्ग को कर्ज देते समय कड़ी शर्त लगाते हैं और वसूली बड़ी बेदर्दी से करते हैं। लेकिन जिन बड़े घरानों पर अरबों रुपए की उधारी बकाया है उनसे नरमी बरती जाती है। सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा ने तो यह बात सार्वजनिक मंच से कही है। उन्होंने कहा कि बैंक अपने बड़े अकाउंट धारकों की जालसाजी बताने में हिचकिचाते हैं, ऋण पुनर्निर्धारित कर उन्हें बचाने का प्रयास किया जाता है। बैंकों में जालसाजी के बढ़ते मामले इस बात का प्रमाण हैं कि यह धंधा सुनियोजित है। पिछले तीन साल में गलत कर्ज मंजूरी और जालसाजी से बैंकों को 22,743 करोड़ रुपए का चूना लग चुका है। मतलब यह कि हर दिन बैंकों का 20.76 करोड़ रुपया डूब जाता है।
एक तरफ घोटाले दूसरी तरफ बढ़ रही शाखाएं
लोन घोटालों में सामने आने के बाद मप्र की 2207 बैंक शाखाएं सीबीआई की राडार पर हैं। इन सब के बावजुद प्रदेश में बैंक शाखाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2014 के मार्च तक 466 नई बैंक शाखा खुलीं। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों में 182, अर्ध-शहरी क्षेत्रों में 136 तथा शहरी क्षेत्रों में 148 शाखा शामिल हैं। वर्तमान में प्रदेश में कुल 6415 बैंक शाखा हैं। इनमें 2730 ग्रामीण क्षेत्रों में, 1975 अर्ध-शहरी तथा 1710 शहरी क्षेत्रों में हैं। बैंक शाखाओं में से 4102 वाणिज्यिक बैंक, 1121 सहकारी बैंक तथा 1192 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक हैं। प्रदेश की इन बैंक शाखाओं में मार्च 2014 की स्थिति में 2 लाख 49 हजार 525 करोड़ रुपए जमा हैं। यह पिछले वर्ष 2013 में जमा 2 लाख 20 हजार 689 करोड़ की तुलना में 28 हजार 836 करोड़ अधिक है। यह प्रदेश की आर्थिक प्रगति का सूचक है। इससे यह भी पता चलता है कि लोगों के पास पहले की तुलना में ज्यादा पैसा आ रहा है। घरेलू बचत के प्रोत्साहन तथा बैकिंग के जरिए उसके वित्तीय बाजार में संचार में वृद्धि का भी पता चलता है। यही नहीं मप्र में मार्च 2014 की स्थिति में साख जमा अनुपात 66 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय मानक 60 प्रतिशत से अधिक है। इसी तरह कुल अग्रिम का प्राथमिक क्षेत्र में अग्रिम राष्ट्रीय मानक 40 प्रतिशत की तुलना में 59 प्रतिशत है। कुल अग्रिम में कृषि अग्रिम राष्ट्रीय मानक 18 प्रतिशत की तुलना में 34 प्रतिशत है। प्रदेश में कुल अग्रिम में कमजोर वर्गों को दिया गया अग्रिम कुल अग्रिम का 13 प्रतिशत है, जबकि इसका राष्ट्रीय मानक 10 प्रतिशत है। प्रदेश में मार्च 2014 तक एक लाख 64 हजार 877 करोड़ का अग्रिम दिया गया इसमें 55 हजार 681 करोड़ कृषि क्षेत्र को, 22 हजार 937 लघु उद्योग क्षेत्र को तथा 21 हजार 271 करोड़ कमजोर वर्गों को दिया गया अग्रिम शामिल है। प्रदेश में जिस तेजी से बैंकों का विस्तार हो रहा है उसी तेजी से इनमें घपले-घोटाले भी हो रहे हैं। बैंकों की शाखाओं का विस्तार आम आदमी के लिए हो रहा है, लेकिन उसका फायदा रसूखदार उठाते हैं। आम आदमी को लोन के लिए वेरिफिकेशन के नाम पर एडिय़ां घिसवा देने वाले बैंकों में गड़बडिय़ों का ग्राफ जांचने चलेंगे तो चौंक जाएंगे। अपने रीजन में ही विभिन्न बैंकों में छोटी-बड़ी गड़बडिय़ों की ढाई हजार से अधिक विभागीय जांचें चल रही हैं। कई पूरी भी हो चुकी हैं। सीबीआई तक तो एक करोड़ से अधिक के घोटाले ही पहुंचते हैं। जानकार बताते हैं कि लोन प्रभारी, मैनेजर की मिलीभगत के बगैर घोटाला बेहद मुश्किल है। सर्वेयर की रिपोर्ट पर भी सवाल उठते रहे हैं। कई घोटाले उच्चाधिकारियों के इशारे पर किसी न किसी लालच में अंजाम दिए जाते हैं। ऐसे में बैंकों की शाखाओं के विस्तार पर भी सवाल उठने लगे हैं। जानकारों को कहना है कि जान-बूझकर बड़े कर्जदारों को बचाने की बैंकों की कोशिश पर अंकुश लगाने के लिए वित्त मंत्रालय को जरूरी कदम उठाने चाहिए। बड़े कर्जदार ऋण लेते वक्त जो परिस पत्ति रहन रखते हैं उसे लोन न चुकाने पर तुरंत जब्त किया जाना चाहिए। ऋण लेने वाले के समर्थन में गारंटी देने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई की जानी चाहिए। बड़ी बात यह है कि बैंकों के हर मोटे कर्जे को उनका बोर्ड मंजूरी देता है इसलिए वसूली न होने पर बोर्ड के सदस्यों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। अपना मुनाफा बढ़ाने की होड़ में अक्सर बैंक किसी प्रोजेक्ट का मूल्यांकन करते वक्त उसकी कई खामियों की अनदेखी कर देते हैं, जिसका दुष्परिणाम उन्हें बाद में भुगतना पड़ता है।
सहकारी बैंकों के 286 करोड़ डूब गए
प्रदेश के सभी जिलों में कार्यरत जिला सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों के 286 करोड़ रूपए से अधिक की रकम डूब गई है। एनपीए के दायरे में आ चुकी इस मोटी रकम को वसूलने में बैंकों की लाचारी के चलते अब इन बैंकों का प्रदेश कार्यालय राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक वसूली के नए रास्ते तलाशने में जुटा है। इस बैंक का एनपीए अमाउंट घटने के बजाय बढ़ रहा है जो वर्तमान में 286 करोड़ 48 लाख रुपए हो चुका है। इसकी रिकवरी की संभावना नहीं है। इसलिए इस राशि को डूबती राशि के दायरे में शामिल कर लिया गया है। इतना ही नहीं यह तथ्य भी सामने आया है कि वर्ष 2012-13 में बैंक को 139.88 करोड़ रुपए की हानि का सामना करना पड़ा है, जिसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। माना जा रहा है कि सहकारी बैंकों में राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते यह राशि डूब रही है और वसूली के विकल्प तलाशने में अफसरों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बैंक की वसूली की डिमांड 1189 करोड़ 44 लाख रुपए है,जबकि 30 जून तक सिर्फ 4 फीसदी वसूली की जा सकी है। बैंक इस अवधि में कुल 25 करोड़ 77 लाख रुपए ही वसूल पाया है।
हर दिन 5 कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई
लोन की आड़ में बैंकों में पैसा हड़पने का गोरखधंधा किस तेजी से पनप रहा है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले 3 साल में बैंकों में जालसाजी और पद के दुरुपयोग के आरोप में 6000 अधिकारियों-कर्मचारियों को निलंबित किया जा चुका है। यानी हर दिन पांच से ज्यादा कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है। इन कर्मचारियों में बैंक अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक तक शामिल हैं। पिछले साल इंडियन ओवरसीज बैंक के चेयरमैन व सीएमडी को दोषी ठहराया गया था और इस साल सिंडीकेट बैंक के चेयरमैन और एमडी सुधीर जैन पकड़े गए हैं। एक बात तो तय है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी असंभव है। रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती ने अपने शोध पत्र में बताया है कि अधिकांश सार्वजनिक बैंक कर्ज वसूल न कर पाने के कारण आज भारी घाटा उठा रहे हैं। एनपीए को कम करने के लिए ऋण पुनर्निर्धारण (लोन रीस्ट्रक्चरिंग) का मार्ग अपनाया जा रहा है जो बैंकों की सेहत के लिए ठीक नहीं है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ बडौदा की अनुत्पादक परिसंपत्तियों में पिछले तीन साल में तेजी से वृद्धि हुई है। बैंकों की बैलेंस शीट देखकर वित्त मंत्रालय के कान खड़े हो गए और सरकार ने सीबीआई को मामले की जांच का जि मा सौंपा।
महाघोटाले में कई रसूखदार भी शामिल
इस महाघोटाले में बैंकों के बड़े अधिकारी, प्रभावशाली नौकरशाह और राजनेता शामिल हैं। इसी कारण कर्ज लेकर न लौटाने वाले लोगों और उद्योगों का नाम छुपाया जाता है। देश के सभी बैंकों का नियामक रिजर्व बैंक है और कायदे से उसे ही बड़े कर्जदारों की सूची जारी करनी चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। केंद्र सरकार से वसूली कानून स त बनाने की मांग भी लंबे समय से की जा रही है। साथ ही जान-बूझकर या आदतन बैंक कर्ज न लौटाने को दंडनीय अपराध घोषित किए जाने का मुद्दा भी उठाया जा रहा है। पानी सिर से गुजर जाने के बाद अब वित्त मंत्रालय ने इनकम टैक्स विभाग को दोषी लोगों की संपत्ति की जानकारी बैंको को देने का आदेश दिया है। आशा है इस कदम से स्थिति कुछ सुधरेगी।
सीबीआई की अब सीडीआर पर नजर!
सीबीआई की नजर सभी सरकारी बैंको की कर्ज प्रकिया पर है। सिंडिकेट बैंक मामले के बाद सीबीआई उन कंपनियों और कॉरपोरेट की जानकारी जुटा रही है जिन्हें बैंकों से कॉरपोरेट डेट रीस्ट्रकचरिंग (सीडीआर) की मंजूरी मिली है। सीबीआई की नजर सरकारी बैंकों के लोन प्रक्रिया पर है। सीबीआई सरकारी बैंकों के एनपीए की निगरानी कर रही है। सीबीआई ने बैंकों से सीडीआर में जाने वाली कंपनियों की जानकारी मांगी है। 2-3 सालों में जिन कंपनियों को सीडीआर में भेजा गया उन पर सीबीआई की नजर है। सूत्रों का कहना है कि सीबीआई को सीडीआर के गलत इस्तेमाल का शक है। सीबीआई को सीडीआर के जरिए पैसे कहीं और भेजने का शक है। सीबीआई जानना चाहती है कि लोन माफ करने की वजह क्या है।
बड़े अफसरों पर सीबीआई की नजर
हालांकि नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स यानी डूब सकने वाले कर्ज की मात्रा और भारी-भरकम घोटालों के सरकारी बैंकों के टॉप अधिकारियों पर सीबीआई की नजर है। सीबीआई का कहना है कि बैंकों में फर्जीवाड़ा आम हो चुका है। पिछले साल सीबीआई ने ऐसे 13 बड़े मामले दर्ज किए, जिनमें सरकारी बैंकों के मैनेजर लेवल के अधिकारियों ने नियमों को धता बताकर लोन दिए थे। सीबीआई के शिकंजे में एसबीआई, पीएनबी, बैंक ऑफ बड़ौदा, केनरा बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, इलाहाबाद बैंक और यूबीआई के अधिकारी फंसे थे। 2010 में इन बैंकों का कुल एनपीए 59,924 करोड़ रुपए था, जो 2012 में 1,17,262 करोड़ रुपए हो गया। संसद में हाल ही दी गई जानकारी के मुताबिक इस वर्ष 31 मार्च को यह रकम 1,55,000 करोड़ रुपए थी, जो जून के अंत में 1,76,000 करोड़ रुपए हो गई। सीबीआई के मुताबिक बैंकों ने धोखाधड़ी के कारण जो रकम गंवाई, उसमें पिछले तीन वर्षों में 324 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 50 करोड़ रुपए से अधिक रकम वाले बैंक धोखाधड़ी के मामलों में दस गुना बढ़ोतरी हुई है। यह सब इतने बड़े पैमाने पर हो और वर्षों तक अनियंत्रित जारी रहे, तो संदेह पैदा होना लाजिमी है। यह तो साफ है कि बैंक अधिकारी कर्जदार की चुकाने की क्षमता या इच्छा का बिना ठोस आकलन किए कर्ज मंजूर करते चले गए। सीबीआई के मुताबिक बैंक अधिकारी लक्षण साफ दिखने के बावजूद डूबे कर्जों को धोखाधड़ी घोषित करने में जरूरत से ज्यादा देर करते रहे हैं, जिससे समय पर कार्रवाई शुरू नहीं हो पाती। गौरतलब है, बैंक आम लोगों के धन से कारोबार करते हैं। लोग भरोसे के आधार पर अपना पैसा वहां रखते हैं। बैंक अधिकारी अगर उन पैसों को लेकर घपले में शामिल होने लगें, तो यह देश में बैंकिंग व्यवस्था की साख पर घातक प्रहार होगा। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन का कहना है कि जब अर्थव्यवस्था बदहाल हो तो सारे डूबे कर्ज को घपला मान लेना सही नहीं होगा। इस बात में भी दम हो सकता है, लेकिन अब अगर सीबीआई ने जांच शुरू की है तो उसे इसमें पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। कर्ज न चुकाने के उचित कारणों और बदनीयती में फर्क जरूरी है, लेकिन बदहाल अर्थव्यवस्था की आड़ में रसूखदार लोग बच न निकलें, इसे सुनिश्चित करना होगा।

7,200 का बजट फिर भी डेंगू कर रहा लोगों का चट

30 करोड़ के घटिया पायरेथ्रम ने छिनी 546 जिंदगी
भोपाल। 29 अक्टूबर को जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वास्थ्य सेवा गारंटी योजना का शुभारंभ कर रहे थे उस समय राजधानी भोपाल में सरकारी रिकार्ड के अनुसार डेंगू पीडि़तों का आंकड़ा 445 पहुंच गया था और वहीं डेंगू से मौत का आंकड़ा 8 पहुंच गया था। जबकि प्रदेशभर के सरकारी और निजी अस्पतालों में पिछले पांच माह में डेंगू से मौत का मामला 532 और पीडि़तों का आंकड़ा 1700 से ऊपर पहुंच गया था। जानकारी के अनुसार, 6 नवंबर तक प्रदेश में डेंगू और मलेरिया से करीब 546 मौत हो चुकी है। जबकि पिछले पांच साल में 1100 से अधिक मरीज प्रदेश में अब तक डेंगू का शिकार हो चुके हैं। हालांकि स्वास्थ्य विभाग इसे मानने को तैयार नहीं है और उसकी नजर में सारी मौत दूसरे रोगों की वजह से हुई है। जबकि हकीकत यह है की मच्छरों को मारने के लिए खरीदी गई पायरेथ्रम अमानक निकली है। स्वास्थ्य विभाग में 30 करोड़ की जो पायरेथ्रम खरीदा है वह इतना घटिया है की उसका मच्छरों पर असर ही नहीं हो रहा है। अब इस मामले तूल पकड़ लिया है प्रदेश में दवा खरीदी की सीबीआई जांच की मांग होने लगी है।
मप्र स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2009 में पहली बार डेंगू का मामला सामने आया था। इस साल प्रदेशभर में 1467 मामले सामने आए थे, जिसमें से अकेले भोपाल में 32 लोगों की मौत हुई थी। तब से लेकर डेंगू का डंक लोगों को मौत के घाट उतार रहा है, लेकिन उस पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। आलम यह है कि पिछले साल देश में डेंगू पॉजीटिव के आधार पर मप्र 16 वें क्रम पर था। इस साल प्रदेश में डेंगू पॉजीटिव के मामले में मप्र पांचवें स्थान पर आ गया है वहीं मौत के मामले में तो प्रदेश पिछले दो साल से दिल्ली से आगे निकल रहा है। प्रदेश में डेंगू का कहर किस कदर बरप रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राजधानी भोपाल में डेंगू को लार्वा मारने के लिए 70 टीम तैयार की गई है और उसमें 700 अधिकारी-कर्मचारी रोजाना दवा का छिड़काव और घर-घर लार्वा का सर्वे कर रहे हैं लेकिन डेंगू पीडि़तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। बताया जाता है की टीम जिसे पायरेथ्रम दवा का छिड़काव कर रही है वह पूरी तरह अमानक है।
5 साल में 30 जिलों को चपेट में लिया डेंगू ने
वर्ष 2009 में डेंगू के मरीज भोपाल, जबलपुर, इंदौर और ग्वालियर में सामने आए थे। अगर उस समय सरकार और स्वास्थ्य विभाग ध्यान देता तो डेंगू को वहीं रोका जा सकता था, लेकिन आज आलम यह है कि स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण प्रदेश में डेंगू से तीस जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इनमें से भोपाल, जबलपुर, इंदौर और ग्वालियर को छोड़ ज्यादातर अपेक्षाकृत पिछड़े जिले हैं। विभाग के दावों की हकीकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 14 जिलों में डेंगू की जांच के लिए एलाइजा रीडर किट ही नहीं है।
अराजक व घटिया दवाओं की आपूर्ति
दरअसल, मप्र में विगत 5 वर्षों से राज्य सरकार व स्वास्थ्य विभाग द्वारा अमानक व घटिया दवाओं की खरीदी की जा रही है। इस बात खुलासा मेडिकल डॉक्टर्स एसोसिएशन के डॉ.अजय खरे ने करते हुए बताया कि राज्य सरकार की ड्रग टेस्टिंग, लेबोरेटरी में ही जिन सैकड़ों दवाओं के नमूनों को अमानक माना उन्हीं की सप्लाई प्रदेश में लगातार की जाती रही। इस तरफ प्रदेश में अमानक स्तर की मच्छर नाशक दवा, पायरेथ्रम, एक्सट्रेक्ट-2 की खरीदी की जाकर छिड़काव किया जाता रहा जिसके परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोग डेंगू और चिकिनगुनिया की बीमारी से पीडि़त होकर मौत के शिकार हुए। डॉ.अजय खरे द्वारा मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में लगाई गई अमानक दवाओं की खरीदी के आरोप वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की डिवीजन बेंच ने राज्य शासन व सीबीआई सहित अन्य को नोटिस जारी कर जवाब तलब कर लिया है। उधर, डॉ. खरे का कहना है कि कायदे से दवाओं की खरीदी से पूर्व प्रयोगशाला में विधिवत जांच होनी चाहिए। लेकिन यह प्रक्रिया अपनाए बगैर मनमाने तरीके से घटिया स्तर की दवाओं की खरीदी बदस्तूर जारी है। जिससे मरीजों की जान पर खतरा मंडरा रहा है। लिहाजा, मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जानी चाहिए।
कैग की रिपोर्ट का हवाला
बहस के दौरान बताया गया कि प्रदेश में अकेले डेंगू की दवाओं की खरीदी पर 30 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। कैग ने 47 सेम्पल लेकर जांच कराई। आश्चर्य की बात यह है कि ये सब सेंपल गुणवत्ता के स्तर पर बेहद घटिया पाए गए। इससे साफ है कि राज्य में अमानक दवा खरीदी का बड़ा घोटाला हुआ है। इसके जरिए लोभ और लापरवाही की हद पार कर दी गई है। इस मामले में भोपाल जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पीसी शर्मा कहते हैं कि प्रदेश भर में फैल चुके डेंगू को काबू में करने का प्रदेश सरकार का दावा गलत साबित हुआ है। कांग्रेस के अनुसार हालात इतने खराब हैं कि सरकारी सर्वे में डेंगू के लार्वा पॉश कॉलोनियों के साथ ही मंत्री और अफसरों के घरों तक में पाए गए हैं। इस मामले में सपा के कमलेश पटेल ने इस बावत पीएम के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा। उनका कहना है कि प्रदेश सरकार द्वारा दवा खरीदी मानक जांच गुणवत्ता निर्धारण, भुगतान व वितरण में स्थापित नियमों व अनीतियों का उल्लंघन कर बड़ा घोटाला व अनियमितता की गई है। बिना जांच के अमानक अक्षम्य अपराध है। नकली व अमानक दवाओं के सेवन से प्रदेश में कितने लोगों की मौत हुई इसकी विस्तृत जांच आवश्यक है। उनका कहना है कि प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी व वितरण की जांच सीबीआई कराई जाए ताकि आम जनता की जान से खिलवाड़ कर रहे दोषी अधिकारी, दवा निर्मिता, सप्लायर व अन्य दोषी लोगों को कठोर सजा मिल सके व घोटालों की वास्तविकता उजागर होकर भविष्य में ऐसे कारनामों की रोक लगा सके।
लउनि ने भी माना था कि अमानक थी पायरेथ्रम
सन 2012 में खरीदी गई पायरेथ्रम को लघु उद्योग निगम ने भी अमानक स्तर का बताया था। स्वास्थ्य विभाग ने निगम के माध्यम से ही यह दवा खरीदी थी। इसका खुलासा किया है बॉम्बे केमिकल्स के मप्र-छग के प्रमुख कीर्ति जैन ने। वर्ष 2012 में पायरेथ्रम सप्लाई की टेेंडर प्रक्रिया में शामिल हुई कंपनी बॉम्बे केमिकल्स के मप्र-छग के प्रमुख कीर्ति जैन का कहना है कि वे 2012 में प्रदेश में डेंगू से 140 लोगों की मौत के मामले में एफआईआर दर्ज कराएंगे। जैन के अनुसार घटिया पायरेथ्रम खरीदने के कारण इतनी मौतों की जिम्मेदारी सरकार की है। जैन ने पिछले साल इस मामले की लोकायुक्त में शिकायत भी की थी। जैन का कहना है कि निगम के तत्कालीन प्रबंधक (विपणन) ने दवा सप्लाई करने वाली कंपनी नीटपॉल इंडस्ट्रीज (कोलकाता) को 7 मार्च, 12 को पत्र लिखा था। इसमें कहा गया था कि जांच में पायरेथ्रम अमानक स्तर का पाया गया है। निगम ने इस पत्र की एक कॉपी संचालक स्वास्थ्य सेवाएं को भेजी थी। इसमें उनसे कहा गया था कि इस दवा का इस्तेमाल तुरंत बंद करवाया जाए। लेकिन डेंगू मच्छरों को मारने की आड़ में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट 2 प्रतिशत के परीक्षण में अमानक की पुष्टि होने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग द्वारा दवा कंपनी को 50 लाख का भुगतान कर दिया गया। ये मामला हाल में आरटीआई के जरिए भी उजागर हुआ है। खरीदी गई पायरेथ्रम को लघु उद्योग निगम द्वारा साल 2012 में अमानक स्तर का बताया था। स्वास्थ्य विभाग ने निगम के माध्यम से ही यह दवा खरीदी थी। निगम के तत्कालीन प्रबंधक (विपणन) ने दवा सप्लाई करने वाली कंपनी नीटापॉल इंडस्ट्रीज (कोलकाता) को 7 मार्च, 12 को पत्र लिखा था। जिसमें कहा गया था कि जांच में पायरेथ्रम अमानक स्तर का पाया गया है। 27 अगस्त 2014 औषधि प्रकोष्ठ के अपर संचालक ने लिखा कि निगम द्वारा औषधि प्रकोष्ठ शाखा में कोई पत्र प्राप्त नहीं हुआ। साथ ही यह भी लिखा गया है कि एलयूएन वर्ष 2012-13 और 2013-14 में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट क्रय नहीं किया गया है। सवाल उठता है कि यदि इन दो सालों में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट नहीं खरीदा गया है तो क्या औषधि प्रकोष्ठ द्वारा एक्सपायरी डेट का पायरेथ्रम का छिड़काव हो रहा है या फिर प्रदेश में कौन सी दवाई का छिड़काव किया जा रहा है।
सीरोटाइप जांच के लिए दोबारा नहीं भेजे नमूने
डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप होते हैं। राजधानी और आसपास के इलाके में कौन सा सीरोटाइप है, यह डॉक्टरों को भी पता नहीं है। ऐसे में मरीजों को इलाज तो मिल जाता है, पर डेंगू की रोकथाम के लिए कारगार उपाय नहीं हो पा रहे हैं। दो महीने पहले मलेरिया विभाग की लैब से 18 पाजीटिव मरीजों के नमूने जांच के लिए आरएमआरसीटी जबलपुर में भेजे गए थे। लेकिन, गलती से सीरोटाइप की जगह यहां डेंगू की सामान्य जांच कर दी गई है। उसके बाद आज तक जांच के लिए नमूने नहीं भेजे गए। विशेषज्ञों का कहना है कि एक बार एक सीरोटाइप से संक्रमण होने के बाद अगर उस मरीज को दूसरे सीरोटाइप से संक्रमण होता है तो मरीज की मौत होने की 90 फीसदी तक आशंका रहती है।
डेंगू फैलने के बाद अब खरीद रहे दवा
डेंगू और मलेरिया की रोकथाम के लिए तीन साल से उपयोग में लाई जा रही पायरेथ्रम दवा के सैंपल जांच में अमानक पाए गए थे। समझा जाता है कि इस दवा का छिड़काव भी बेअसर रहा। यही कारण है कि अब विभाग के अधिकारी मच्छर और लार्वा मारने वाली दवा खरीदी के टेंडर कर रहे हैं। पड़ताल में यह बात भी सामने आई कि तीन वर्ष से पायरेथ्रम दवा खरीदी ही नहीं गई, क्योंकि वे खरीदी प्रक्रिया से बच रहे थे। अब विभाग ने पायरेथ्रम और टिमोफोस दवा खरीदी के लिए टेंडर बुलाए हैं। सूचना के अधिकार के तहत अगस्त 2014 में विभाग ने जानकारी दी है कि वर्ष 2011-12 में मप्र लघु उद्योग निगम के माध्यम से पायरेथ्रम एक्सट्रेक्ट 2 प्रतिशत क्रय किया गया था। इसके बाद से अब तक नहीं खरीदा गया है। 10 हजार लीटर क्रय करने के आदेश दिए गए थे, जिसे एक करोड़ दो लाख सैंतीस हजार पांच सौ रुपए में खरीदा गया। इस मामले में मप्र राजपत्रित अधिकारी संघ के प्रांतीय सचिव डॉ.पद्माकर त्रिपाठी कहते हैं कि मेरे द्वारा अनेक चेतावनी देने के बावजूद मोटे कमीशन के लालच में अमानक दवा का भुगतान कर दिया गया। घटिया दवा के कारण उस वर्ष डेढ़ सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। मेरे द्वारा शासन से अनुरोध किया गया है कि दोषी अधिकारियों के विरुद्ध मानव मौत का मुकदमा दर्ज किया जाए। अब हमें विवश होकर कोर्ट जाना पड़ेगा। तीन साल पहले खरीदी गई दवा पायरेथ्रम अमानक पाई गई थी। इसके बाद खरीदी प्रक्रिया के संबंध में कई शिकायतें आई थीं। यही कारण है कि नई दवा के ऑर्डर दिए और ही टेंडर निकाले गए। इस मामले में संचालक,लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग डॉ.नवनीत मोहन कोठारी का कहना है कि पायरेथ्रम की डिमांड आने के बाद हमारे द्वारा इसकी खरीदी की प्रक्रिया शुरू की गई है। इससे पहले खरीदी क्यों नहीं की गई, इसकी मुझे जानकारी नहीं है।
मच्छर हो रह ताकतवर,डोज ज्यादा लगेगा
आरएमआरसीटी (रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर फॉर ट्राइबल्स)की रिसर्च में इस बात का खुलासा हुआ है कि प्रदेश में डेंगू और मलेरिया का प्रकोप बढऩे की एक वजह है मच्छरों का अब और अधिक ताकतवर होना। इसकी ताकत बढ़ा रहा है इसके पैरासाइट का माल्युक्यूल्स (गुणसूत्र। पैरासाइट के गुणसूत्र की संरचना में परिवर्तन इसे ताकतवर बना रहा है। इसका असर सीधे आम जनता पर इस तरह पड़ेगा कि मलेरिया होने पर उसे दवाओं का डोज अधिक लेना पड़ेगा। मच्छरों के ताकतवर होने पर डेंगू और मलेरिया की दवाएं बेअसर हो चुकी हैं। यह सब मलेरिया के पैरासाइट में हो रहे बदलाव के कारण हो रहा है। आरएमआरसीटी ने मलेरिया पैरासाइट की रिसर्च के लिए मंडला, डिण्डौरी व अन्य जिलों के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों को चुना है। यह पैरासाइट मच्छर में होता है। अध्ययन से यह पता चल रहा है कि मलेरिया पैरासाइट के माल्युक्यूल्स का स्ट्रक्चर धीरे-धीरे बदल रहा है। मप्र में पाए गए मादा मच्छरों के पैरासाइट में अभी तक पूरी तरह परिवर्तन नहीं हुआ है। इससे दवाओं का डोज वही चल रहा है। आरएमआरसीटी की डायरेक्टर डॉ. नीरू सिंग कहती है कि मलेरिया पैरासाइट पर रिसर्च चल रही है। इसके गुणसूत्र की संरचना में परिवर्तन देखे जा रहे हैं। इसलिए मप्र में मच्छरों पर दवाओं का असर नहीं पड़ रहा है। इसके लिए डोज बढ़ाना पड़ेगा।
सरकारी अस्पतालों में 147 दवाईयां घटिया किस्म की
यह जानकार आपको आश्चर्य होगा कि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को नि:शुल्क वितरीत करने के लिए सरकार ने डब्ल्यूएचओ जीएम और सरकारी स्कीम के तहत 454 तरह की जो दवाएं खरीदी हैं उनमें से 147 दवाईयां घटिया किस्म की हैं। यह जानकारी सरकार ने ही उपलब्ध करवाई है। यानी इन दवाओं के इस्तेमाल से आप स्वस्थ नहीं बीमार हो सकते हैं। बहरहाल, मध्य प्रदेश से दवाओं का यह सच एक आरटीआई का नतीजा है। जानकारी मध्यप्रदेश मेडिकल ऑफिसर एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय खरे ने दी है। खरे का कहना है कि उन्होंने आरटीआई में ये जानकारी ली थी। मेडिकल ऑफिसर एसोसिएशन ने मामले में सीबीआई जांच की मांग की है। खरे ने आरोप लगाया है कि सरकारी और निजी संस्थानों की 147 दवाएं जांच में घटिया पाई गई है और उन्होंने सरकार से ये जानकारी 1 जुलाई 2012 से 31 मई 2014 के बीच मांगी थी। डॉ.खरे का कहना है ये दवाएं मरीजों के लिए बेअसर साबित हो रही हैं। इस मामले में स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण ने माना कि सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली आयोडीन और जिंक संबंधी दो दवाओं के सैंपल घटिया थे। लेकिन वो केवल 0.5 फीसदी कम थे, जबकि 3 से 5 फीसदी तक की जांच में छूट है। मंत्री ने कहा कि निजी अस्पतालों के सैंपल जो अमानक पाए गए हैं, उनको बाजार से वापस बुलाने के निर्देश दिए गए हैं। मंत्री ने कहा कि उन्होंने जांच रिपोर्ट के आधार पर 147 में से 104 कंपनियों के बाहर के प्रदेशों की होने से वहां की संस्था को कार्यवाही के लिए पत्र लिखा है। मंत्री ने बताया कि 16 कंपनियों के लायसेंस निलंबित कर दिए गए हैं और 5 के निरस्त कर दिए गए हैं। इस मामले में सरकार का कहना है कि मामले में 3025 सैंपल की जांच हुई थी।
औषधि खरीदी प्रकोष्ठ कटघरे में
जिस तरह प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी का मामला सामने आ रहा है प्रदेश का औषधि खरीदी प्रकोष्ठ कटघरे में आ गया है। इसकी मुख्य वजह है 2012 में खरीदी गई दवाओं में 25 और दवाएं अमानक स्तर की निकली हैं। जानकारी की अनुसार दवाओं की खरीदी लघु उद्योग निगम (एलयूएन) द्वारा की गई। दवा खरीदी के नियम भी यही कहते हैं कि दवा खरीदने से पहले उनका परीक्षण अनिवार्य है, ताकि उनके मानक और अमानक होने की जानकारी प्राप्त हो सके, लेकिन स्वास्थ्य विभाग अधिकारियों ने भारी भरकम कमीशन के चक्कर में इन दवाओं की जांच ही नहीं कराई और लाखों रुपए के बजट से यह दवाएं खरीद डालीं। यदि इन्होंने दवाएं खरीदने के पहले लैब में प्रामणिकता की जांच कराई होती, तो मरीजों को अमानक दवाएं नहीं खिलाई जातीं। दवाओं के लिए भरपूर बजट की व्यवस्था की है, जिसे हर साल बढ़ाया भी जा रहा है, लेकिन सरकार के प्रयासों को लघु उद्योग निगम एवं औषधि प्रकोष्ठ के कुछ अधिकारी पलीता लगा रहे हैं। दवाओं की खरीदी के लिए वर्ष 2011 एवं 2012 के लिए 105 करोड़ का बजट दिया था, जिसे बढ़ाकर वर्ष 2012 एवं 2013 में 150 करोड़ किया गया और वर्ष 2013-14 के लिए बजट बढ़ाकर 197 करोड़ रुपए कर दिया गया।
सरकारी लैब के बजाय जांच प्राइवेट में
दवाओं की खरीदी में होने वाली इस धांधली की प्रमुख वजहों में अधिकारियों द्वारा मनमाने तरीके से दवाओं की जांच प्राइवेट लैब में करवाना भी है। स्वास्थ्य विभाग ने दवा खरीदी के लिए देश की 15 कंपनियों को रजिस्टर्ड किया है, जिनसे जेनरिक दवाएं खरीद कर प्रदेश के अस्पतालों में सप्लाई की जाती है। डॉ. बीएस ओहरी का कहना है कि हम इन दवाओं की जांच खरीदी के बाद प्रायवेट लैब में कराते हैं। अब तक 323 नमूनों की जांच कराई गई है, जिसमें से 57 की रिपोर्ट प्राप्त हुई है और यह दवाएं मानक स्तर की पाई गर्इं हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में राज्य सरकार की लेब होने के बावजूद प्रायवेट लैब में सेंपल जांच कराकर अपने अनुसार मानकों को पास और फेल कराते हैं। इसके बदले इन लैब को भी सेंपल जांच के लिए लाखों रुपए का भुगतान किया जाता है, जबकि राज्य की लैब में इन दवाओं की जांच नि:शुल्क होती है। उधर,विदेशी पैसे पर मप्र के स्वास्थ्य विभाग को तकनीकी असिस्मेंट के लिए सेवाएं दे रहे एनजीओ की कथनी और करनी भी सामने आ गई है। यह संस्था दवाओं की गुणवत्ता एवं खरीदी के लिए तकनीकी परामर्श देती है, जिसके लिए संस्था को हर साल करोड़ों रुपए सरकार देती है, लेकिन लगातार अमानक दवाओं की खरीदी सामने आने पर संस्था की कार्यप्रणाली भी बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
जिस तादाद में प्रदेश में जेनरिक दवाएं अमानक स्तर की निकल रही हैं, उससे संपूर्ण दवा खरीदी प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ गई है। इन दवाओं की खरीदी की पहली जिम्मेदारी डॉ. ओहरी की बनती है। इन्होंने करोड़ों रुपए की दवाओं की खरीदी में नियमों का पालन क्यों नहीं कराया। खरीदी गई जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता की जांच खरीदने से पहले क्यों नहीं कराई। दवा खरीदने के बाद इनकी जांच क्यों कराई जा रही है। इस पर लाखों रुपए का भुगतान निजी लेबों को किया जा रहा है। इन मुद्दों की जांच भी जरूरी है, इसके बाद ही यह गड़बड़ी सामने आ पाएगी। इस मामले में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के आयुक्त पंकज अग्रवाल का कहना है कि मप्र में दवाओं की खरीदी लघु उद्योग निगम द्वारा की जाती है। उसके लिए विधिवत टेंडर प्रक्रिया पूरी की जाती है। दवाओं की गुणवत्ता का ऑकलन प्राप्त करने के बाद ही दवाएं खरीदी जाती हैं। इसके बाद भी दवाओं के अमानक पाए जाने की जानकारी सामने आती है, तो हम ऐसी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर उनके टेंडर निरस्त करेंगे।
17 डॉक्टरों के इंक्रीमेंट रोके प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी किस हद तक हुई है इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सरकारी अस्पतालों के लिए अमानक स्तर की दवाओं की खरीदी के मामले में 9 सीएमएचओ और 8 अस्पताल अधीक्षकों के इक्रीमेंट रोक दिए गए हैं। अपर संचालक (स्वास्थ्य) ने सीएमएचओ और अस्पताल अधीक्षकों को अमानक दवाओं की खरीदी और सप्लायर के बिलों के भुगतान के लिए दोषी माना है। वर्ष 2009 से 2011 के बीच जेपी अस्पताल समेत प्रदेश के 30 से ज्यादा अस्पतालों में सप्लायर द्वारा भेजी गई दवाएं मरीजों को बांट दी गईं। जबकि नियमानुसार सीएमएचओ और अस्पताल अधीक्षकों को सप्लायर द्वारा भेजी गई दवाओं की लैब में जांच करानी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाद में जब इन दवाओं के नमूनों की जांच स्टेट ड्रग लेबोरेटरी में कराई गई तो करीब 10 तरह की दवाएं अमानक निकलीं। इन दवाओं की जांच रिपोर्ट मिलने के बाद भी संबंधित दवा सप्लायर्स पर अस्पताल अधीक्षकों और सीएमएचओ ने कार्रवाई नहीं की।
इनकी रूकी वेतन वृद्धि
डॉ. राजेंद्रप्रसाद श्रीवास्तव,अनूपपुर डॉ. भारतसिंह चौहान जबलपुर डॉ. अनिल कुमार मेहता,बड़वानी डॉ. राधेश्याम गुप्ता,दतिया डॉ. करुणेश चंद्र मेश्राम,मंडला डॉ. हर्षनारायण सिंह,रीवा डॉ. महेश कुमार सहलम,छिंदवाड़ा डॉ. अनूप कुमार कामथन,ग्वालियर डॉ. कुलदीप कुमार खोसला,बालाघाट
अस्पताल अधीक्षक, जिन्होंने खरीदी अमानक दवा
डॉ.वीणा सिन्हा,भोपाल डॉ. नारायण प्रसाद सर्राफ ,धार डॉ. विजय कुमार मिश्रा,मंडला डॉ. नीरज दुबे,जबलपुर डॉ. सतीशकुमार त्रिवेदी,इंदौर डॉ. चक्रधारी शर्मा,उमरिया डॉ. प्रमोदकुमार श्रीवास्तव,छिंदवाड़ा डॉ. अमृतलाल मरावी,होशंगाबाद
सबसे दूधारू महकमा
मध्यप्रदेश में लगभग 7,200 करोड़ के बजट वाला स्वास्थ्य महकमा एक ऐसा पारस का पत्थर है कि जो जिस भी अधिकारी या मंत्री को स्पर्श करता है वह तर जाता है। पिछले सालों का इतिहास देखें तो इस महकमें में कई अफसर रातों-रात कुबेर हो गए। हर साल बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने के बावजूद प्रदेश के वासियों का स्वास्थ्य कितना सुधरा यह बात दीगर है, लेकिन महकमें से जुड़े अफसरों, कर्मचारियों और नेताओं की आर्थिक स्थिति ऐसी सुधरी है की उनके घरों में करोड़ों रूपए तो बिस्तर से निकल जाते हैं। मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में 75 हजार कर्मचारी है, जो 50 जिला अस्पताल, 65 सिविल अस्पताल, 333 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1152 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा 8859 उपस्वास्थ्य केंद्रों सहित अन्य जगह पदस्थ हैं। शहरी क्षेत्र में इसके अतिरिक्त 80 डिस्पेंसरियां भी हैं। बावजुद इसके प्रदेश में अन्य प्रदेशों की अपेक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं बदहाल हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है भ्रष्टाचार। बीते नौ साल के दौरान इसी विभाग से 600 करोड़ रुपये से अधिक की काली कमाई छापों में मिली है। अब तक पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अजय विश्नोई के अलावा एक स्वास्थ्य आयुक्त और तीन संचालकों पर आय से कई गुना अधिक संपत्ति पाए जाने का आरोप है। दरअसल घोटालों का यह सिलसिला 2005 में केंद्र के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साथ ही शुरू हो गया था। इस कड़ी में सबसे पहले 2007 में तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा और उनके करीबी बिजनेसमैन अशोक नंदा के 21 ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे और गद्दों के अंदर से करोड़ों रुपए बरामद किए। इसके बाद स्वास्थ्य संचालक बने डॉ. अशोक शर्मा के ठिकानों पर 2008 और अमरनाथ मित्तल के ठिकानों पर आयकर छापे पड़े और इनके यहां भी लाखों की अवैध संपत्ति मिली। 2005 से अब तक स्वास्थ्य विभाग में घोटालों का लंबा पुलिंदा है जिसमें फिनाइल, ब्लीचिंग पाउडर से लेकर मच्छरदानी, ड्रग किट, कंप्यूटर और सर्जिकल उपकरण खरीद से जुड़े करोड़ों रुपए के काले कारनामे छिपे हैं। इसी कड़ी में केंद्र की दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना में विभाग के अधिकारियों ने मिलीभगत करके दवा-वितरण में लगभग 658 करोड़ रुपए का चूना लगाया है। नौकरशाही ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को इस हद तक बीमार बना दिया है कि अधिकारी ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त बनाने के लिए केंद्र से भेजे गए 725 करोड़ रुपए का फड भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं। दिलचस्प है कि मप्र में हर साल स्वास्थ्य के लिए आवंटित इस बजट के एक चौथाई हिस्से का उपयोग ही नहीं हो पा रहा है। भ्रष्टाचार की हालत यह है कि इस विभाग के अधिकारियों के खिलाफ सबसे अधिक 42 प्रकरण लोकायुक्त में लंबित हैं।

कसाई की तरह महिलाओं का पेट फाड़ रहे डॉक्टर

नशबंदी की टारगेट का टेंशन...
कसाई की तरह महिलाओं का पेट फाड़ रहे डॉक्टर
महज सवा मिनट में एक नसबंदी ऑपरेशन कर रहे डॉक्टर
स्वास्थ्य विभाग ने दिया एक डॉक्टर को रोजाना 400 ऑपरेशन करने का टारगेट
भोपाल। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 5 घंटें में 83 नसबंदी ऑपरेशन के बाद बीमार हुईं करीब 150 महिलाओं में से 17 की जान जाने पर मचा कोहराम अभी थमा भी नहीं था कि मध्य प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टरों द्वारा कसाई की तरह महिलाओं की नशबंदी करने का मामला सामने आया है। छतरपुर जिले के घुवारा में लक्ष्य पूरा करने के लिए एक ही रात में पांच घंटे में 132 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन कर दिए गए। आश्चर्य की बात यह है की यह सारे ऑपरेशन 15 नवंबर की 9 बजे रात 2 बजे के बीच एक ही डॉक्टर द्वारा किए गए हैं। आलम यह था कि महिलाओं को ऑपरेशन रूम से बाहर लाने के लिए स्ट्रेचर भी नहीं थे। दो वार्ड ब्वॉय उनके हाथ-पैर पकड़कर लाते और हॉल में जमीन पर लिटा देते। इनके ओढऩे के लिए पर्याप्त कंबल तक नहीं थे। जब इसकी तहकीकात की गई तो बताया गया की सरकारी टारगेट पूरा करने के लिए इस तरह ऑपरेशन करना कोई नई बात नहीं है।
दरअसल, प्रदेश में हर साल सरकारी अस्पतालों में कार्यरत सर्जन को टारगेट देकर नसबंदी ऑपरेशन कराया जाता है। प्रदेश में 2010 से लगातार इसी तरह ऑपरेशन हो रहे हैं। यही नहीं टारगेट पूरा करने के लिए सरकार द्वारा तरह-तरह के प्रलोभन भी डॉक्टरों को दिए जाते हैं। इस साल अघोषित तौर पर प्रदेश में करीब 10 लाख लोगों की नशबंदी करने का टारगेट रखा गया है। इसी टारगेट के तहत छतरपुर जिले के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी कार्यालय की ओर से एक सर्जन को एक दिन में 400 ऑपरेशन करने का लक्ष्य दिया गया था। सर्जन एक दिन में यदि नियमानुसार 8 घंटे की सेवाएं देता है, तो उसे नॉन स्टॉप प्रति 1.2 मिनट में एक नसबंदी ऑपरेशन करना पड़ेगा। लेकिन इन सब को जाने बिना प्रभारी सीएमएचओ डॉ. आरसी जैन ने न जाने कौन सा गुणा-भाग कर महिला-पुरुष फिक्स डे कैंप कैलेण्डर बनाया है। नवबंर के लिए सीएमएचओ ने 7 कॉलम का कैलेण्डर बनाया है, जिसमें एक सर्जन को एक ही दिन में जिला मुख्यालय से दो ब्लॉकों में नसबंदी के ऑपरेशन करने के लिए जाना है। सीएमएचओ ने नवंबर के लिए जिले के 6 सर्जनों की डयूटी लगाई है। नवंबर के फिक्स डे केलेण्डर में विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों-कर्मचारियों को सीएमएचओ ने शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने के निर्देश दिए हैं। सीएमएचओ कार्यालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक नवंबर माह में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 22 हजार 360 नसबंदी ऑपरशेन्स किए जाने हैं, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 18 हजार 803 और शहरी क्षेत्र में 3 हजार 557 ऑपरेशन शामिल हैं। इसी निर्देश के तहत डॉ. गीता चौरसिया ने 5 घंटे में 132 महिलाओं का ऑपरेशन कर डाला। ऑपरेशन करने की कुरूरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ऑपरेशन से पहले महिलाओं को बेहोशी के इंजेक्शन किसी विशेषज्ञ चिकित्सक ने नहीं बल्कि आशा और ऊषा कार्यकर्ताओं ने लगाए। यही नहीं महिलाओं को ऑपरेशन रूम से बाहर लाने के लिए स्ट्रेचर भी नहीं थे। दो वार्ड ब्वॉय उनके हाथ-पैर पकड़कर लाते और हॉल में जमीन पर लिटा देते। ये महिलाएं घंटों हॉल में बेहोश पड़ी रहीं। कुछ के परिजनों ने उन्हें उठाकर व्यवस्थित जगह लिटाया। इस मामले में बीएमओ डॉ. जेपी यादव का कहना है कि शिविर तो दिन में ही लगने वाला था, लेकिन सर्जन को दिन में समय नहीं था, इसलिए रात में ऑपरेशन करने पड़े। हां, कुछ अव्यवस्था रही, आगे से ध्यान रखेंगे।
पीएस बोले: समझा दिया है, अब ऐसा नहीं होगा
छतरपुर जिले के घुवारा में हुए इस नशबंदी ऑपरेशन कांड से प्रदेश भर में दहशत-सी फैली हुई है, वहीं स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण कहते हैं मैने स्वास्थ्य अधिकारियों और चिकित्सकों को समझा दिया है, अब ऐसे मामले सामने नहीं आएंगे। वह कहते हैं की अरे भाई! कोई अनहोनी तो हुई नहीं है कि हम कोई कार्रवाई करें। प्रवीर कृष्ण के ये बोल इस ओर संकेत दे रहे हैं कि उन पर भी इस टारगेट को पूरा करने का कितना दबाव है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ की घटना के बाद से ही प्रदेश में इस मामले में पूरी सावधानी बरतने के निर्देश दिए गए हैं। स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी निर्देशों में इस मामले में लापरवाही बरतने वालों पर कठोर कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए हैं। परिवार कल्याण कार्यक्रम को पूरी ऐहतियात से संचालित करने के निर्देश स्वास्थ्य संचालनालय ने जिलों के मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारियों को दिए हैं। परिवार नियोजन (नसबंदी ऑपरेशन) के लिए भारत सरकार के निर्देशों के अक्षरश: पालन और निर्धारित प्रोटोकाल के अनुसार कार्य करने की हिदायत दी गई है। इसके साथ ही सिर्फ डब्ल्यूएचओ जीएमपी प्रमाणित कंपनी से प्रदाय औषधियों के प्रयोग के स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। साथ ही यह भी हिदायत दी गई है कि लापरवाही पर कठोर कार्यवाही की जाएगी और अप्रमाणित संस्थान से औषधि खरीदने वाले दण्डित किए जाएंगे। परिवार कल्याण शिविर में भी 20-25 की सीमित संख्या तक ऑपरेशन के लिए कहा गया है। निर्देशों में विशेष रूप से गर्भवती, नवप्रसूता और शिशुवती माताओं के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखने को कहा गया है। ये निर्देश सभी संबंधित तक भेजे गए हैं। इसके बावजुद प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए एक-एक डॉक्टर द्वारा एक दिन में सैकड़ों ऑपरेशन किए जा रहे हैं और स्वास्थ्य विभाग के आला अफसर किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहे हैं। यही कारण है की नशबंदी ऑपरेशन के संबंध में लगातार शिकायतें मिलने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग मौन साधे रहता है और डॉक्टर भेंड़-बकरियों की तरह लोगों का पेट चीरते रहते हैं। टारगेट का खेल पूरा करने के लिए प्रदेश भर में केवल डॉक्टरों को ही नहीं आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को नसबंदी का लक्ष्य दिया गया है। वे महिलाओं को बहला-फुसलाकर ला रही हैं। स्वास्थ्य कर्मचारी इन महिलाओं से अमानवीय बर्ताव कर रहे हैं। ठंड में न तो अलाव की व्यवस्था की, न पीने का पानी की, न ही परिजनों के ठहरने का इंतजाम। परिजनों को छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुले मैदान में बैठने को कहा जाता। जबकि महिलाओं को एक ही कमरे में बैठाया ठूंस कर रखा जाता है।
फेलोपियन ट्यूब के बजाय काट दी नस
छतरपुर जिले के घुवारा की घटना के तीसरे दिन ही उज्जैन जिले के बडऩगर के सरकारी अस्पताल में नसबंदी ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर की गलती से एक महिला की गलत नस कट जाने के कारण उसकी हालत गंभीर हो गई। बडऩगर तहसील के ग्राम किलोड़ी में रहने वाली माया पति रंजीत चंद्रवंशी, उम्र 22 वर्ष को एलटीटी ऑपरेशन (लेप्रोस्कोपिक टब्यूबेक टामी) के लिए बडऩगर के सरकारी अस्पताल में भर्ती किया था। यहां सर्जिकल स्पेशलिस्ट डॉ. विनीता खटोड़ ने माया की नसबंदी शुरू की। इसके लिए फेलोपियन ट्यूब को बांधकर उसे काटना होता है। डॉक्टर के हाथ से फेलोपियन ट्यूब की बजाय रक्त वाहिनी कट गई। इससे महिला के शरीर से खून बहने लगा और पेट में दर्द भी होने लगा। तत्काल महिला को बडऩगर अस्पताल से जिला अस्पताल भेजा गया। वहां डॉ.डीके तिवारी, डॉ. मुंशी खान, डॉ. प्रमोद माहेश्वरी डॉ.संध्या पंचोली ने करीब चार घंटे तक महिला का ऑपरेशन किया। उसके बाद रक्त बहना बंद हुआ। डॉक्टर ने नसबंदी के लिए फेलोपियन ट्यूब की बजाय महिला की रक्तवािहनी(नस) काट दी। अधिक खून बह जाने से महिला गंभीर हो गई। उसे बाद में जिला अस्पताल लाया गया। यहां चार घंटे तक चले ऑपरेशन के बाद उसका रक्तस्राव तो रोक दिया गया लेकिन उसकी हालत नाजुक बनी हुई है। उसे आईसीयू में भर्ती किया गया है। उसकी नसबंदी अभी नहीं हो पाई है। छत्तीसगढ़ में नसबंदी ऑपरेशन के दौरान हुए हादसे के बाद मध्यप्रदेश में इस तरह का पहला मामला सामने आने से स्वास्थ्य महकमे में हड़कंप मच गया है। उधर, पीडि़त महिला के पति रंजीत का कहना है कि डॉक्टर नसबंदी करते समय नर्स से बात करने में लगी थी। इस वजह से गलत नस काट दी।
200-300 के लिए डाल देते हैं मौत के मुंह में
प्रदेश में नसबंदी शिविरों में हुई गड़बड़ी और मौतों के पीछे की वजह मात्र 200-300 रुपए है। दरअसल, राज्य में नसबंदी का एक मामला लाने पर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को राज्य सरकार प्रोत्साहन राशि देती है। यह प्रोत्साहन राशि पहले 150 रुपए प्रति मामले के हिसाब से होती थी, जिसे इस साल सरकार ने बढ़ा दिया है। यही नहीं राज्य में नसबंदी ऑपरेशन पर दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि को भी प्रदेश में बढ़ा दिया गया है। शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन पर महिला हितग्राही को 1400 रुपए एवं पुरुष हितग्राही को 2000 रुपए देय होते हैं। इसी प्रकार महिला हितग्राही को प्रसव के बाद तुरंत या 7 दिन के भीतर शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन पर 2200 रुपए देय है। शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन के लिए महिला हितग्राही को प्रेरित करने के लिए 200 रुपए एवं पुरुष हितग्राही को प्रेरित करने के लिए 300 रुपए देय हैं। इसी प्रकार महिला हितग्राही को प्रसव के बाद तुरंत या 7 दिन के भीतर नसबंदी ऑपरेशन करवाने के लिए प्रेरित करने पर 300 रुपए देय हैं। शासकीय अस्पताल अथवा नर्सिंग होम को नसबंदी ऑपरेशन पर महिला एवं पुरुष हितग्राही के लिए 2000 रुपए देय हैं। इसी प्रकार निजी अस्पताल अथवा नर्सिंग होम में नसबंदी ऑपरेशन करवाने पर महिला एवं पुरुष हितग्राही को 1000 रुपए की राशि देना निर्धारित है। राज्य सरकार का लक्ष्य पूरा करने के दबाव के चलते और 200-300 रूपए प्रति मामले में प्रोत्साहन राशि के लालच में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं गांव-गांव जाकर ऐसी महिलाओं की तलाश करती थीं जो दो-तीन बच्चों की मां हैं। ये इन महिलाओं को पैसे का लालच देकर उन पर नसबंदी कराने का दबाव डालती थीं। अगर कोई महिला उनकी इस बात पर असहमति जताती तो वे उनके पति पर दबाव बनाना शुरू कर देतीं ताकि प्रोत्साहन राशि पक्की हो सके। इस लालच में इन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने बैगा जनजाति की सैकड़ों महिलाओं की भी नसबंदी करवा दी, जबकि बैगा जनजाति को संरक्षित श्रेणी में रखा गया है। इस जनजाति की महिलाओं की नसबंदी पर रोक है, लेकिन लक्ष्य को पूरा करने के लिए मौत के इन नसबंदी शिविरों में नियमों को ताक पर रख दिया गया। वहीं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के खिलाफ शिकायत मिली है कि वे सरकार द्वारा दी गई राशि के अलावा नसबंदी कराने वाली महिलाओं की प्रोत्साहन राशि से भी अपना हिस्सा लेती हैं। ऐसी शिकायतें कई शिविरों में मिली हैं।
10 साल में पैसे के लालच में 1,734 ने गंवाई जान
छत्तीसगढ़ की घटना से सारा देश सन्न है, मगर नसबंदी सर्जरी के दौरान मौतों की यह कोई पहली या अलग-थलग घटना नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मप्र में 2009 में विभिन्न जगहों पर ऐसी 247 मौतें हुई थीं। 2003-13 की अवधि में ऐसी 1,734 मृत्यु दर्ज की गईं। जाहिर है, जब इक्का-दुक्का मौत होती है, तो उस पर ध्यान नहीं जाता। जबकि वो तमाम घटनाएं वैसी ही लापरवाही का परिणाम हैं, जैसी बिलासपुर के तखतपुर ब्लॉक में देखने को मिली। गौरतलब है कि वहां लगे कैंप में एक डॉक्टर ने एक ही उपकरण से पांच घंटों में 83 ऑपरेशन कर दिए, यानी तकरीबन हर चार मिनट में एक सर्जरी, वहीं मप्र के छतरपुर जिले के घुवारा में लक्ष्य पूरा करने के लिए एक ही रात में पांच घंटे में 132 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन कर दिए गए। जबकि केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के मुताबिक एक मेडिकल टीम एक दिन में 30 से ज्यादा लेप्रोस्कोपिक सर्जरी नहीं कर सकती। लेकिन जिस तरह गाइड लाइन को दरकिनार कर टारगेट पूरा करने के लिए ऑपरेशन किए जा रहे हैं उससे मौत की घटनाएं सामने आती हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने तेजी से बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ साल पहले ही बड़े पैमाने पर नसबंदी की महात्वाकांक्षी योजना तैयार की थी। वैसे इससे पहले संजय गांधी के जमाने में होने वाली जबरन नसबंदी के मामलों ने भी जमकर सुर्खियां बटोरी थीं। लेकिन तब और अब के हालात में काफी अंतर आया है। अब केंद्र सरकार की योजना के तहत विभिन्न राज्य सरकारों ने भी इन योजनाओं को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक सहायता घोषित की है। कई बार इसी रकम की लालच में गरीब महिलाएं नसबंदी शिविरों में पहुंच जाती हैं। कई डाक्टरों का प्रमोशन भी पूरे साल होने वाले नसबंदी की तादाद से जुड़ा होता है। इसके अलावा इस सरकारी योजना में खुली लूट के लिए दवा कंपनियां भी सक्रिय रहती हैं। वह इसके लिए एक्सपायरी डेट की दवाओं से लेकर बेहद घटिया उपकरणों की सप्लाई करती रहती हैं।
एक दिन में 300-400 ऑपरेशन
जाहिर है यह सब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से ही होता है। आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए नसबंदी शिविरों में एक दिन में सैकड़ों ऑपरेशन कर दिए जाते हैं। कम समय में जल्दबाजी में होने वाले इन ऑपरेशनों में साफ-सफाई का ध्यान रखना मुमकिन ही नहीं है। छत्तीसगढ़ के जिस डाक्टर आरपी गुप्ता को गिरफ्तार किया गया है उन्होंने तो साफ कहा कि एक दिन में तीन से चार सौ तक ऑपरेशन किए जाते हैं। अब गांव-देहात में लगने वाले शिविरों में न तो एक साथ इतने उपकरणों का इंतजाम संभव है और न ही उनको कीटाणुमुक्त यानि स्टर्लाइज करने का कोई माकूल इंतजाम। ऐसे में संक्रमण होना तय है। दिशा-निर्देशों के तहत ऑपरेशन के बाद मरीज को चार घंटों तक डॉक्टर की निगरानी में रखना अनिवार्य है, मगर प्रदेश में आयोजित होने वाले नशबंदी ऑपरेशन कैंपों में ऑपरेशन के बाद सबको तुरंत डिस्चार्ज कर दिया जाता है। क्या ऐसे हालात में ऑपरेशन का बिगड़ जाना संयोग भर माना जाएगा?
3340 गर्भवती महिलाओं की कर डाली नसबंदी
प्रदेश में पिछले पांच साल में परिवार नियोजन का लक्ष्य पूरा करने के चक्कर में डाक्टरों ने 3340 गर्भवती महिलाओं की नसबंदी कर दी। इसका खुलासा क्वालिटी इंश्योरेंस कमेटी की रिपोर्ट से हुआ है। कमेटी ने उन महिलाओं को मुआवजा देने से इनकार कर दिया है, जिनके ऑपरेशन गर्भवती होने के दौरान किए गए। पिछले पांच साल में क्वालिटी इंश्योरेंस कमेटी के समक्ष नसबंदी ऑपरेशन फेल होने पर 5540 महिलाओं ने मुआवजे के लिए आवेदन दिए थे। नसबंदी फेल होने पर प्रत्येक महिला को 30 हजार रूपए दिए जाने का प्रावधान है। कमेटी को आवेदनों की जांच में पता चला कि करीब 3340 महिलाएं ऐसी हैं, जिनके ऑपरेशन गर्भावस्था के दौरान किए गए। इसमें सर्वाधिक 200 मामले सीहोर के हैं। नसबंदी ऑपरेशन से पहले महिला का यूरिन टेस्ट किया जाता है। इसमें महिला के गर्भवती होने की बात सामने आने पर उसका ऑपरेशन नहीं किया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग के डाक्टरों ने बिना जांच किए महिलाओं के ऑपरेशन कर दिए। दरअसल,परिवार नियोजन के तहत नसबंदी कराने वाली महिला और प्रेरक को अनुदान राशि मिलती है। नसंबदी करने वाले डॉक्टर को प्रति ऑपरेशन के 100 रूपए मिलते हैं। अधिकांश ऑपरेशन रिटायर्ड डॉक्टरों से कराए जाते हैं। लालच के कारण यूरिन टेस्ट गंभीरता से नहीं देखते हैं। खंडवा में तो इसी साल सितंबर में परिवार नियोजन का लक्ष्य पूरा करने की होड़ में चिकित्सकों ने गर्भवती महिला की ही नसबंदी कर डाली। इंतिहां तो तब हुई जब आपरेशन के बाद डॉक्टरों को पता चला कि महिला गर्भवती है तो उन्होंने महिला का गर्भपात ही कर दिया। सारा मामला सामने आने के बाद भी अपनी गलती मानने की जगह डॉक्टर ने महिला पर ही गलत जानकारियां देने का दोष मढ़ दिया। इस तरह के कई मामले लगातार सामने आ रहे हैं लेकिन रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं।
बुजुर्गो और कुंवारों तक की नसबंदी!
प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टरों ने अमानवीयता की तमाम हदें पार कर बुजुर्गो से लेकर कुंवारों तक की नसबंदी कराने में हिचक नहीं दिखाई जा रही है। हालांकि लगातार मिली शिकायतों के बाद राज्य मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर आपत्ति जताई है। पिछले साल सिवनी जिले में छह बुजुर्गो और कुंवारों के अलावा मुरैना व भिंड में कुंवारों की नसबंदी किए जाने के मामले चर्चा में आए। जबलपुर की आयोग मित्र समिति के संयोजक डॉ. एससी वटालिया ने बताया कि उनके पास लखनादौन में बुजुर्गो और कुंवारों की नसबंदी किए जाने की शिकायतें आई थीं जिसे उन्होंने आयोग के पास भेजा था। उन्हें पता चला है कि आयोग ने जांच के बाद शिकायत को सही पाए जाने पर सख्त आपत्ति जताई है। वह कहते हैं कि राज्य सरकार ने स्वास्थ्य केंद्र से लेकर जिला चिकित्सालयों तक के लिए नसबंदी का लक्ष्य तय किया है। इसी के चलते प्रेरक अपने हिस्से की राशि पाने और चिकित्सक लक्ष्य पूरा करने के लिए उम्र और सम्बंधित व्यक्ति के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल किए बिना ही आपरेशन कर देते हैं। मुरैना में एक अविवाहित और भिंड में मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति की नसबंदी कर दिए जाने का मामला सामना आया है। अगर पिछले पांच साल में मिली शिकायतों पर नजर डालें तो प्रदेश में करीब 3 दर्जन विधवा, 50 से अधिक अविवाहित और 182 बुजुर्गों के नशबंदी ऑपरेशन किए जाने के मामले प्रकाश में आए हैं। इस मामले में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा कहते हैं की इस तरह की घटनाएं न हो इसके लिए दिशा-निर्देश अधिकारियों को दिए गए हैं। साथ ही इस मामले की जांच का आदेश दे दिया गया है।
नसबंदी के बाद 279 महिलाएं गर्भवती
प्रदेश में नसबंदी करने का दबाव डॉक्टरों पर किस तरह है इसका अंदाजा सी से लगाया जा सकता है की पिछले पांच साल में ऑपरेशन के बाद भी 279 महिलाओं के गर्भवती होने का मामला प्रकाश में आया है। सबसे हैरानी की बात यह है की अकेले नरसिंहपुर जिले में बीते तीन वर्षो से परिवार नियोजन का ऑपरेशन कराने वाली 89 महिलाएं फिर गर्भवती हो गई है। इनमें से 71 महिलाओं को सरकार ने नसबंदी ऑपरेशन के असफल होने पर अनुदान भी दिया। इसका खुलासा विधानसभा में स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने किया था। नरसिंहपुर जिले में वर्ष 2010 से 2012 के मध्य तीन वर्षो में 28 हजार 452 महिलाओं का नसबंदी ऑपरेशन किया गया। इनमें से 89 महिलाएं फिर गर्भवती हो गई। सरकार ने प्रति महिला को 30 हजार रूपए के मान से अनुदान दिया है।
घाव बन गए नासूर
पिछले पांच साल में हुए नसबंदी के ऑपरेशन के बाद हजारों महिलाओं का छोटा सा घाव नासूर बन गया है। नसबंदी के दौरान टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टर द्वारा की गई लापरवाही से कई महिलाओ को जीवन-मृत्यु के दौर से जूझना पड़ रहा है। प्रदेश के बैतूल, झाबुआ, खरगौर, बालाघाट, मुरैना, देवास, रायसेन सहित करीब दो दर्जन जिलों में ऐसे केस सामने आए हैं जिसमें नसबंदी के बाद महिलाओं के पेट में घाव होने की बात सामने आई है। जानकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति संभवत: नसबंदी के दौरान दूषित इंजेक्शन देने के कारण ही हुई। ये महिलाएं पेट के अंदर घाव लेकर जिंदगी और मौत के बीच दर्द में जझती रही। कुछ महिलाओं ने इलाज करा कर राहत पा लिया। कुछ अभी भी दर्द में जी रही हैं। फिलहाल ऐसे मामले में बैतूल दनोरा, बडोरा, गौथान और खेडला में वर्ष 2012 में नसबंदी करवाने वाली महिलाओं की अब तक जारी दिक्कतों का खुलासा हुआ है। उस समय ऑपरेशन के बाद इन महिलाओं को 600 रूपए दिए गए, लेकिन औसतन सभी को घाव ठीक करने में 3 से 4 हजार रूपए खर्च करना पड़ गया है। महिलाओं की यह स्थिति संभवत: इसलिए हुई कि इन्फेक्टेड इंजेक्शन का इस्तेमाल किया गया। अब भी उपचार के बावजूद हाल ऐसा है कि ऑपरेशन से पहले लगाए जाने वाले पेट के इंजेक्शन की जगह महिलाओं को दर्द होता है। पीडि़तों में शामिल सविता का कहना है कि नसबंदी प्रोत्साहन के लिए मिलने वाले 600 रूपए कब खत्म हो गए पता ही नहीं चला ऊपर से घाव का इलाज कराने के लिए कर्ज लेना पड़ गया।
अगर हम राज्य सरकार के परिवार कल्याण कार्यक्रम विभाग के नसबंदी अभियान की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखें तो पता चलेगा कि साल के आखिरी महीनों, यानी नवंबर से मार्च तक की अवधि में यह सबसे तेज रहता है। ज्यादातर टारगेट साल के आखिरी तीन माह में ही पूरे किए जाते हैं। मिसाल के लिए नवंबर में 60171 नसबंदी ऑपरेशन के बाद अगले माह इससे दोगुने और मार्च में चार गुने तक नसबंदी की जा रही है। जाहिर तौर पर आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता को इसके लिए सरकारी स्तर पर टारगेट दिया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य और राजस्व विभाग से जुड़े अपने जमीनी अमले को इस साल 7.2 लाख नसबंदी ऑपरेशन का टारगेट रखा है, जो राज्य की कुल आबादी का 10 फीसदी है। सरकार की मध्य अवधि की हेल्थ सेक्टर पॉलिसी में कहा गया है कि सरकार महिलाओं के बजाय पुरुषों की नसबंदी पर ज्यादा जोर देगी। लेकिन हो रहा है इसका उल्टा। राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल से दिसंबर 2011 के दौरान 2.74 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 14 हजार से कुछ ऊपर है, जबकि महिलाएं करीब 2.60 लाख हैं। यानी 80 फीसदी से अधिक नसबंदी महिलाओं की हुई। इसी तरह अप्रैल से दिसंबर 2012 के दौरान 2.76 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 23 हजार के करीब थी। वहीं अप्रैल से दिसंबर 2013 के दौरान 3.09 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 40 हजार के आसपास थी।
आदिवासी जिलों में महिलाओं की हो रही नसबंदी
मध्यप्रदेश के 22 आदिवासी बहुल जिलों में से सात ऐसे हैं, जहां पुरुष नसबंदी का आंकड़ा सौ को भी पार नहीं कर पाया, लेकिन इसके मुकाबले महिलाओं की नसबंदी की संख्या कहीं 12 तो कहीं 20 गुनी से भी अधिक है। अकेले अलीराजपुर जिले में नसबंदी अभियान 34 फीसदी पीछे है, जबकि अनूपपुर में यह 45 फीसदी तो गुना में 46 फीसदी तक पिछड़ा है। एक और आदिवासी जिले डिंडोरी में 13 पुरुषों ने ही नसबंदी के प्रति दिलचस्पी दिखाई। इसके मुकाबले अफसरों ने 2800 से ज्यादा महिलाओं की नसबंदी की है। यह जिला बैगा आदिमजाति का घर है, जिन्हें केंद्र सरकार ने पीटीजी का दर्जा दिया हुआ है। बैगा समुदाय की जनसंख्या तेजी से घट रही है, साथ ही कुपोषण इस जिले में चरम पर है। इसके चलते बच्चों की लगातार मौतें हो रही हैं। फिर भी सरकार का नसबंदी अभियान इस जिले में पूरे जोर पर है। बैतूल के आदिवासी बहुल 10 ब्लॉक में पटवारी से लेकर तहसीलदार तक को गोंड और कोरकू आदिवासियों की नसबंदी कराने के आदेश दिए गए हैं। पिछले एक दशक में दोनों आदिम जातियों की आबादी 11 फीसदी की दर से घट रही है। इसके बावजूद अधिकारी प्रोजेक्ट राशि का प्रलोभन देकर किसी भी तरह से उन्हें नसबंदी के लिए तैयार करने में जुटे हुए हैं। कुपोषण जनित बाल मौतों और महिलाओं की नसबंदी पर जोर देने से इस समुदाय के वजूद पर खतरा पैदा हो सकता है। झाबुआ और श्योपुर में भी सरकार इसी तरह से नसबंदी पर जोर दे रही है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी दबी जुबान में यह स्वीकारते हैं कि टारगेट पूरा करने पर विशेष जोर देने का ही नतीजा है कि मध्यप्रदेश में पुरुष नसबंदी के मामलों में 2010-13 के दौरान 124 फीसदी का उछाल आया है।
सरकार ने नसबंदी के प्रति प्रेरित करने के लिए आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को प्रेरक के रूप में माना है, लेकिन वे कैसे पुरुषों को इसके लिए प्रेरित करेंगी, इसका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। साफ है कि राज्य में परिवार नियोजन की नीति बनाने वालों को हमारे समाज की पीढिय़ों पुरानी संस्कृति की भी जानकारी नहीं है। यही कारण है कि सरकारी अस्पतालों में कहीं गरीबी, तो कहीं अन्य किसी भी प्रकार के प्रलोभन के जरिए पुरुषों की नसबंदी कराई जा रही है। यह और बात है कि मुरैना, भिंड, शिवपुरी जैसे उन जिलों में, जहां पुरुषवादी मानसिकता का बोलबाला है, लोग खुद अधिकारियों के झांसे में आने की बजाय, अपनी पत्नियों को आगे कर रहे हैं। भिंड में पिछले साल महज 246 पुरुष ही नसबंदी के घेरे में आए, जबकि महिलाओं की संख्या 3833 रही। यह परिवार नियोजन के साधनों के सुरक्षित विकल्प का अपनी पसंद से निर्धारण करने के स्त्री के अधिकार के खिलाफ भी है।
पांच सालों मेें पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात फीसदी
इसे जागरूकता की कमी कह लीजिये या समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता का एक और सबूत। जनसंख्या विस्फोट की चौतरफा दिक्कतों के बीच आबादी के सरपट दौड़ते घोड़े की नकेल कसने की व्यक्तिगत मुहिम में पुरुषों की भागीदारी महिलाओं के मुकाबले अब भी बेहद कम है। विशेषज्ञों के मुताबिक, परिवार नियोजन के ऑपरेशनों के मामले में कमोबेश पूरे देश में गंभीर लैंगिक अंतर बरकरार है। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश भी अपवाद नहीं है। प्रदेश में पिछले पांच सालों के दौरान हुए परिवार नियोजन ऑपरेशनों में पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात प्रतिशत के आसपास रही यानी नसबंदी कराने वाले हर 100 लोगों में केवल सात पुरुष थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2007-08 से 2012-13 के बीच प्रदेश में कुल 32,49,923 नसबंदी ऑपरेशन किए गए। इस अवधि में केवल 2,37,820 पुरुषों ने नसबंदी करायी, जबकि 30,12,073 महिलाओं ने परिवार नियोजन के लिए इसको अपनाया। बहरहाल, पिछले तीन दशक में नसबंदी के करीब 2,97,000 ऑपरेशन करने का दावा करने वाले डॉ.ललितमोहन पंत इन आंकड़ों से कतई चकित नहीं हैं। प्रसिद्ध नसबंदी विशेषज्ञ पंत ने कहते हैं कि नशबंदी के मामले में कमोबेश पूरे देश में यही हालत है। परिवार नियोजन के ऑपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की हिचक और वहम अब भी कायम हैं। पंत के मुताबिक अक्सर देखा गया है कि महिलाएं अपने तथाकथित 'पति परमेश्वरÓ के बजाय खुद नसबंदी ऑपरेशन कराने को जल्दी तैयार हो जाती हैं। वह कहते हैं कि परिवार नियोजन शिविरों में मुझे कई महिलाएं बता चुकी हैं कि वे इसलिए यह ऑपरेशन करा रही हैं, क्योंकि उनके पति अपनी नसबंदी कराने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं।
उधर, नसबंदी ऑपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की प्रतिक्रिया एकदम उलट बतायी जाती है। पंत बताते हैं कि हम जब परिवार नियोजन शिविरों में नसबंदी ऑपरेशन के बारे में बात करते हैं, तो ज्यादातर पुरुष अपने यौनांग में किसी तरह की तकलीफ की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं। ज्यादातर पुरुषों को लगता है कि अगर वे नसबंदी ऑपरेशन कराएंगे तो उनकी शारीरिक ताकत और मर्दानगी कम हो जाएगी, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं होता। बहरहाल, जैसा कि वह बताते हैं कि देश में वर्ष 1998-99 के दौरान एनएसवी (नो स्कैल्पल वसेक्टमी) के रूप में नसबंदी की नई पद्धति का प्रयोग शुरू होने के बाद इस परिदृश्य में बदलाव की जमीन तैयार होने लगी है। एनएसवी को आम जुबान में नसबंदी की 'बिना चीरा, बिना टांकाÓ पद्धति कहा जाता है। उन्होंने बताया, ज्यादातर पुरुष लम्बे समय तक परिवार नियोजन ऑपरेशनों से इसलिए भी दूर भागते रहे, क्योंकि नसबंदी की पुरानी पद्धति में बहुत दर्द होता था। लेकिन एनएसवी सरीखी नई पद्धति के चलते अब पुरुष झटपट नसबंदी कराके अपेक्षाकृत जल्दी अपने काम पर लौट सकते हैं और इसमें नाम मात्र का दर्द होता है।
मध्यप्रदेश में सारी हदें पार > बालाघाट में गर्भवती महिला की नसबंदी कर दी गई थी जिसकी मौत हो गई। > सतना में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को ही दोबारा ऑपरेशन करने अधिकारियों ने दबाव डाला, नौकरी से निकालने की धमकी भी दी। > बुजुर्गों को बीपीएल सूची से नाम काटने की धमकी दी गई, ताकि वे नसबंदी करवा लें। > नसबंदी करवाने के बदले बंदूक का लाइसेंस देने तक की स्कीम मध्यप्रदेश में चलाई गई। > नसबंदी कराओ मोटरसाइकिल पाओ! > नसबंदी का टारगेट पूरा करने के लिए पिछड़ी जनजाति कोरकू को भी नहीं बख्शा गया। > बैगा महिलाओं की जाति बदलकर नसबंदी किए जाने के कई मामले सामने आ चुके हैं। > जिन अधिकारियों-कर्मचारियों ने टारगेट पूरा नहीं किया, उनकी नौकरी तक छीन ली गई।
जनसंख्या नियंत्रण:केवल नसबंदी, दूसरे विकल्पों पर ध्यान नहीं जन स्वास्थ्य अभियान की संचालिका सुलक्षणा गर्ग कहती हैं कि बढ़ती जनसंख्या को कम करने के लिए गर्भाधान रोकने का सबसे जोखिम भरा तरीका महिलाओं की नसबंदी है। जबकि बाजार में ऐसे ढेरों साधन हैं, जिनसे महिलाओं के लिए जानलेवा साबित होने वाले इस ऑपरेशन से बचा जा सकता है। राज्य सरकार को इन साधनों के बारे में भी विचार करना चाहिए। नसबंदी के आंकड़े दिखाने के लिए राज्य सरकार हर साल बड़े पैमाने पर महिलाओं की नसबंदी कर रही है। नसबंदी के ऑपरेशन में महिलाओं की जान जाने का खतरा तो रहता है, साथ ही ऑपरेशन के बाद महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। नसबंदी कराने वाली महिलाओं की सामान्य शिकायतें कमर दर्द, पेट में दर्द, बैठने व चलने फिरने में परेशानी, मोटापा आदि समस्याएं आती हैं। बाजार में उपलब्ध हैं ढेरों उपाय बाजार गर्भनिरोधक उपायों वाले उत्पादों से भरे पड़े हैं। इनमें से नसबंदी से बचने के लिए सर्वाधिक कारगर 10 साल तक उपयोग में आने वाली कॉपर टी को माना जा रहा है। इसके अलावा गर्भ निरोधक साधन हैं, जिसका उपयोग करने पर नसबंदी कराने की जरूरत नहीं है। सरकार इन उत्पादों के इस्तेमाल को बढ़ावा नहीं दे रही है। पुरुष नसबंदी कारगर महिलाओं के बजाय पुरुषों की नसबंदी को अधिक कारगर और सरल माना जाता है। लेकिन प्रदेश में पुरुष नसबंदी को लेकर फैली भ्रांतियों के कारण यह सफल नहीं हो पा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि पुरुषों का एक छोटा ऑपरेशन करके महिलाओं को बड़ी मुसीबत में डालने से बचा जा सकता है, लेकिन कमजोरी, नपुंसकता आने जैसी भ्रांतियों के कारण पुरुष इसे अपनाने से बचते हैं।
जानलेवा दवा छत्तीसगढ़ में बैन, मप्र में बिक रही धड़ल्ले से छत्तीसगढ़ सरकार ने नसबंदी शिविर में इस्तेमाल की गई छह दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके साथ ही वहां की सरकार ने दवाइयों की सरकारी खरीदी के लिए उज्जैन की दो दवा कंपनियों -मेडिसेफ स्प्रिट और मेडिकेयर स्प्रिट को भी प्रतिबंधित कर दिया है। जिन दवाइयों पर प्रतिबंध लगाया गया है, मेडिकल स्टोर्स को उनकी बिक्री न करने के निर्देश दिए गए हैं। नसबंदी के दौरान जिन महिलाओं की मौत हुई थी, उसमें टेबलेट आइबूप्रोफेन 400 एमजी, टेबलेट सिप्रोसीन 500 एमजी, इंजेक्शन लिग्नोकेन एचसीएल आईपी, इंजेक्शन लिग्नोकेन एचसीएल आईपी, एब्जारबेंट कॉटन वुल आईपी और. जिलोन लोशन आदि दवाइयां इस्तेमाल की गई थीं। ये जानलेवा दवाइयां मप्र में तो बिक रहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ में इनकी बिक्री पर रोक लगा दी गई है। जी फार्मा एवं महावर कंपनी की इन अमानक दवाओं से हुई मौत के बाद मचे बवाल के बाद अब स्वास्थ्य विभाग इन दवाओं की बिक्री की रिपोर्ट तैयार करवा रहा है। खाद्यï एवं औषधि नियंत्रक एवं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी इस बात की जानकारी जुटाने में लगे है कि कितने जिला अस्पतालों ने इन कंपनियों की दवाएं खरीदी हैं और कितने मेडिकल स्टोर्स पर दवाएं बिक रही हैं। पेंडारी नसबंदी कांड में इस्तेमाल टैबलेट सिप्रोसिन- 500 को खुद महावर फॉर्मा प्राइवेट लिमिटेड के संचालक रमेश महावर बनाते थे। वह वर्तमान में मप्र में बैन नहीं है।
कोख काटने का गोरखधंधा भी जोरों पर
एक तरफ सरकारी अस्पतालों में टारगेट पूरा करने के लिए महिलाओं और पुरूषों का पेट चीरा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में 20-25 हजार कमाने के चक्कर में कैंसर का भय दिखाकर किसी भी महिला का गर्भाशय निकाल लिया जा रहा है। डॉक्टर 20-40 साल की युवतियों पर भी रहम नहीं कर रहे हैं। इंश्योरंस कंपनियों के सरकारी एंप्लॉइज के हेल्थ रिकॉर्डस के अनुसार, 25 से 35 साल की तकरीबन 540 महिलाओं में से 100 ऐसी महिलाएं जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच है, अपना यूटरस यानी गर्भाशय निकलवा चुकी हैं। मध्य प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में अनियमित मासिक धर्म का इलाज कराने पहुंची 24 साल की आभा का गर्भाशय एक प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने जरूरी ना होने के बावजूद ऑपरेशन करके निकाल दिया। मीना के गर्भाशय के पास छोटी सी गांठ थी। इलाज करने वाले डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि इसकी वजह से कैंसर होने का खतरा है। एक निजी संस्थान में कार्यरत आभा को डॉक्टरों ने कैंसर का ऐसा भय दिखा दिया की अविवाहित होने के बावजुद उसने गर्भाशय निकालने की सहमति दे दी। जब इस बात की खबर आभा के मंगेत्तर विकास मलिक को लगी तो उसने आभा की रिपोर्ट को एक अन्य डॉक्टर से दिखाया तो उक्त डॉक्टर का कहना है कि जिस समस्या के इलाज के लिए आभा डॉक्टरों के पास गई थीं, उसके लिए गर्भाशय हटाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। हालांकि ऑपरेशन करने वाले अस्पताल के डॉक्टर आभा के मामले को गंभीर बता रहे हैं। वहीं कुछ डॉक्टरों के अनुसार,सच यह है कि कई महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी समस्या के इलाज के लिए केवल सही दवा की जरूरत होती है, न कि ऑपरेशन कर यूटरस निकलवाने की। मध्य प्रदेश के निजी अस्पतालों में महिलाओं के शरीर से गर्भाशय निकालने का धंधा तेजी से फल-फूल रहा है। पूरे राज्य में निजी अस्पतालों में हर साल गर्भाशय निकालने के लिए हजारों सर्जरी की जा रही हैं। सबसे ज्यादा चौंकाने की बात यह है कि सर्जरी कराने वाली 80 फीसदी महिलाओं की उम्र 20-40 के बीच है। ऑपरेशन के कारण महिलाओं में हार्मोनल असंतुलन और ऑस्टियोपोरेसिस की परेशानियां सामने आ रही हैं। शहर व ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी कई पीडि़त महिलाएं हैं जो डॉक्टरों के चंगुल में फंसकर अपनी बच्चादानी निकलवा चुकी हैं। जबकि वैज्ञानिक सत्य यह है कि मात्र 6 से 7 प्रतिशत केसों में ही बच्चादानी का कैंसर होता है, जिन्हें निकलवाने की आवश्यकता होती है। बच्चादानी निकालने का घिनौना खेल पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से चल रहा है। जबलपुर के नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही हर माह लगभग आधा सैकड़ा से अधिक ऐसे मरीज पहुंच रहे हैं, जिनको किसी न किसी निजी डॉक्टर ने बच्चादानी निकलवाने की सलाह दी थी। मेडिकल अस्पताल में पीडि़त महिलाओं की जांच के बाद उन्हें दवाओं से ही ठीक कर दिया गया। कुछ निजी अस्पताल संचालक एजेंट के जरिए इस घिनौने खेल को खेल रहे हैं। एसोसिएट प्रोफेसर, मेडिकल कॉलेज जबलपुर डॉ.कविता एन सिंह कहती हैं कि जनरल सर्जन बच्चादानी का आपरेशन कर रहे हैं। ये स्त्री रोग विशेषज्ञों से सलाह मशविरा नहीं करते हैं। जब केस बिगड़ जाता है तब वे इसे विशेषज्ञों के पास रैफर कर देते हैं। इस प्रकार के जनरल सर्जन मरीजों को भ्रमित करके बच्चादानी का आपरेशन कर रहे हैं। मेडिकल अस्पताल में एक माह में लगभग आधा सैकड़ा से अधिक केस इस प्रकार के आ रहे हैं, जिनको जनरल सर्जन द्वारा बच्चादानी निकालने की सलाह दी जाती है। जबकि हकीकत यह है के 100 केस में से 7 केस में ही बच्चादानी निकालने की आवश्यकता होती है। शिपुरवा ग्राम, जिला सीधी निवासी शांति पटेल (45 वर्ष) को पेट दर्द की शिकायत थी। शांति के परिजन ने उसका इलाज सीधी के एक डॉक्टर से कराया। उसने सोनोग्राफी कराने पर बच्चादानी में गांठ बताई। उसका आपरेशन किया, लेकिन आपरेशन के बाद परिजन को पेट से निकाली गई गांठ नहीं बताई। शांति को पेट दर्द के साथ रक्तस्राव की शिकायत हुई। शांति के पति रामकृष्ण ने उसी डॉक्टर से शांति की जांच कराई। जांच के बाद डॉक्टर ने शांति की बच्चादानी निकालने कहा। यह सुनकर वह घबरा गई। उसने मेडिकल अस्पताल के स्त्री रोग विभाग में जांच कराई। जहां स्

सोमवार, 15 सितंबर 2014

बंदी की कगार पर ताप विद्युत गृह

-रिलायंस, जेपी, प्रिज्म सीमेंट ने दबाया कोयला
-विद्युत गृहों को कोयला आपूर्ति में हो रहा खेल
ताप गृहों की स्थिति
ताप विद्युत गृह कोयला खपत प्रतिदिन क्षमता उत्पादन
संजय गांधी पाली 15 हजार टन 3 करोड़ यूनिट 1.99करोड़
अमरकंटक चचाई 5 हजार टन 1 करोड़ यूनिट 66लाख
सारणी 15 हजार टन 3 करोड़ यूनिट 1.55 करोड़
खंडवा 5 हजार टन 1 करोड़ यूनिट 24 लाख
सुलगते सवाल
-यदि ताप विद्युत गृह संयंत्र बदतर स्थिति के कारण परफार्मेंस नहीं दे रहे, तो हर साल करोड़ों का मेंटेनेंस क्या कागजी है?
-अकसर कोयला न होने या कोयला घटिया होने का बहाना कम उत्पादन के लिए प्रबंधन गढ़ता है, तो लायजनर को क्लीन चिट क्यों?
-कम सीवी के कोयले से एनटीपीसी व निजी संयत्रों में 80 फीसदी बिजली उत्पादन, लेकिन एमपीजेपीसी के संयंत्रों में 62 से 66 फीसदी क्यों? -क्या अच्छी ग्रेड का कोयला प्रबंधन बदल लेता है?
- 17 मार्च 2013 से मप्र पावर जनरेशन कंपनी का रियल टाइम डाटा देने वाली बेवसाइट पर पासवर्ड देकर जनता के लिए क्यों बंद किया गया?
-कोल कैलोरिफिक कैलकुलेटर संयंत्रों में क्यों नहीं?
भोपाल। यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा की देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत उपलब्ध कराने वाले मप्र के ताप विद्युत गृह कोयले की कमी होने के कारण बंदी की कगार पर पहुंच गए हैं। प्रदेश के बिजली घरों में कोयले का संकट गहराता जा रहा है। एमपी पावर जनरेशन कंपनी ने संकट से निपटने के लिए घरेलू उत्पादन करने वाली कई इकाइयों को बंद कर दिया है, जबकि मांग और आपूर्ति में अंतर पाटने के लिए सेंट्रल ग्रिड और निजी सेक्टर से महंगे दर पर बिजली खरीदी जा रही है। वहीं कोयले की कमी के कारण मेंटनेंस और खराबी के नाम पर सतपुड़ा थर्मल पावर प्लांट की सर्वाधिक तीन इकाइयां बंद हैं। इनमें 62.5 मेगावाट की यूनिट नंबर 1, 200 मेगावाट की यूनिट नंबर 6, 250 मेगावाट की यूनिट नंबर 10 शामिल हैं। इसी प्रकार संजय गांधी थर्मल पावर प्लांट की 210 मेगावाट की इकाइयां बंद हैं। इनमें यूनिट नंबर 1 और 4 शामिल हैं। अमरकंटक थर्मल पावर प्लांट में लगी 120 मेगावाट की यूनिट नंबर 4 लंबे समय से बंद हैं। तीन माह पहले सिंक्रोनाइज हुई सिंगाजी थर्मल पावर प्लांट में लगी यूनिट नंबर 1 फिर से बंद हो गई है। इससे 600 मेगावाट बिजली का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। प्रदेश के ताप विद्युत गृहों में कोयले की कमी होने के अलग-अलग तर्क दिए जा रहे हैं। अधिकारियों के अनुसार कोयले की कमी की बड़ी वजह साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड की खदानों पर लोडिंग और प्रदेश के पावर प्लांटों में अनलोडिंग में देरी है। कोयले के रैक पावर प्लांटों में घंटों विलंब से अनलोड होते हैं जिससे रेलवे को हर्जाना देना पड़ रहा है। विलंब के चलते प्रतिमाह आवंटित कोयले की मात्रा भी बिजली उत्पादन में नहीं खप रही है। साथ राज्य सरकार केंद्र को जिम्मेदार मान रही है,जबकि केंद्र का कहना है कि रिलायंस, जेपी, प्रिज्म सीमेंट जैसी कंपनियों ने कोयला दबा रखा है इसलिए मप्र में कोयला संकट उत्पन्न हुआ है। कोयले के संकट के बीच सरकार ने कोयला दबाकर बैठी निजी कंपनियों की पड़ताल शुरू कर दी है। दो दर्जन से अधिक कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक की समीक्षा की जा रही है। इनमें मप्र में रिलायंस, जेपी गु्रप, प्रिज्म सीमेंट जैसी कंपनियां भी शामिल हैं। केंद्र के राडार में मप्र खनिज विकास निगम के भी दो कोल ब्लॉक शामिल हैं। गौरतलब है कि गत फरवरी माह में कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक में उत्पादन शुरू नहीं किए जाने पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने नाराजगी जाहिर की थी। कंपनियों को नोटिस जारी कर आधा दर्जन से अधिक की बैंक गारंटी राजसात की थी, लेकिन कंपनियों पर फर्क नहीं पड़ा। इस समय कोयले का संकट चरम पर होने से फिर सरकार ने कोल ब्लॉकों की खैर खबर लेने की तैयारी में है। कोल मंत्रालय ने गतदिनों ब्लॉकों की समीक्षा की तो कई विसंगतियां सामने आईं,जिसके कारण मप्र में कोयला संकट उत्पन्न हुआ है। कोल मंत्रालय की समीक्षा में कोल ब्लॉक आवंटन मामले में अब एक नया खुलासा हुआ है। बताया जाता है कि प्रदेश सरकार की अनुशंसा पर जिन कंपनियों को मप्र में कोल ब्लॉक आवंटित किए गए थे उनमें से कईयों ने या ता अभी उत्पादन शुरू नहीं किया है या फिर वे कोयला सप्लाई नहीं कर रही हैं। कोयला मंत्रालय इसके लिए मप्र सरकार की ढुलमुल नीति को दोषी मानता है। निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने कायदे ताक पर कोल मंत्रालय की समीक्षा में कोल ब्लॉक आवंटन मामले में अब एक नया खुलासा हुआ है। मध्य प्रदेश सरकार ने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सारे नियम कायदे ताक पर रख दिए। नतीजा ये कि कोयला खनन से होने वाली कमाई का मोटा हिस्सा निजी कंपनी की जेब में जा रहा है। मध्य प्रदेश सरकार ने अमेलिया ब्लॉक की 70 फीसदी हिस्सेदारी उसके हवाले कर दी थी। सरकारी कोल ब्लॉक का मालिकाना हक निजी हाथ में दिए जाने का मामला गंभीर था। ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। सुप्रीम कोर्ट ने निजी कंपनी और राज्य सरकार के बीच समझौते को रद्द करने का फैसला दिया। इसके बाद केंद्र ने मध्य प्रदेश को अमेलिया कोल ब्लॉक के लिए निजी कंपनी के साथ हुए समझैते को रद्द करने के लिए कहा। केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी मध्य प्रदेश सरकार दो साल तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और दो साल बाद कार्रवाई हुई भी तो नाम मात्र की। एमपी सरकार ने निजी कंपनी के साथ समझौता रद्द नहीं किया बल्कि कोल ब्लॉक में उसकी हिस्सेदारी भर घटा दी। खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला ने बताया कि जो ज्वाइंट वेंचर कंपनी बनी है उसमें 51 फीसदी शेयर सरकार का है बाकी 49 फीसदी सैनिक माइनिंग कंपनी का तो फिर वो सरकारी ब्लॉक हो गया। आज की तारीख में सरकार का मालिकाना हक है। तमाम सवालों और आरोपों के बावजूद राज्य सरकार अब भी इस मामले में अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। उधर,मप्र के अधिकारियों का कहना है कि चूंकि प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा था तो खनिज निगम ने पॉलिसी बनाई थी कि जो हमको सब्सिडाइज्ड रेट पर बिजली देगा उनको हम कोयला देंगे। उसमें हमारा मध्यप्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड भी है। जिस सैनिक माइनिंग कंपनी के साथ अनुबंध हुआ उससे साठ फीसदी कोयला इसी बोर्ड को बीस फीसदी सब्सिडाइज्ड रेट पर मिलेगा। बाकी दो कंपनियां भी प्रदेश को सब्सिडाइज्ड रेट पर बिजली उत्पादन करेंगी, उनको हम कोयला देंगे। यही नहीं, करीब 150 करोड़ रूपए की बकायादार एसीसी सीमेंट ग्रुप की एएमआरएल (एसीसी माइनिंग रिसोर्स डेवलपमेंट लिमिटेड)और जेपी ग्रुप की 3 कंपनियों को बिना वसूली मप्र खनिज विकास निगम ने 50 हजार करोड़ रूपए के 7 कोल ब्लॉक में खनन का अधिकार दे दिया है। निगम और कंपनियों में इतना बड़ा सौदा मात्र एक आश्वासन पर हुआ, जिसमें कंपनियों ने बकाया खनिज राजस्व जमा करने की बात कही थी। इतना ही नहीं, खनन एग्रीमेंट पर दस्तखत के बाद इन कंपनियों ने बकाया चुकाने की जगह प्रदेश सरकार को ठेंगा दिखा दिया। फिलहाल बकाए का ये मामला हाई कोर्ट में है। करोड़ों के बकाएदारों पर हुई अरबों की मेहरबानी दरअसल, केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने 2006 से 07 के बीच मप्र खनिज विकास निगम को 9 कोल ब्लॉक आवंटित किए। इनमें दो छत्तीसगढ़ के हैं। कोयला उत्पादन के लिए निगम ने साझा उपक्रम कंपनियों को खोजा। निविदाएं बुलाई गई, जिनमें 140 कंपनियां आई। इन सभी को दरकिनार कर निगम ने खजिन विभाग की करोड़ों की रॉयल्टी के बकायादार एसीसी की एएमआरएल से चार और जेपी ग्रुप की 3 कंपनियों से ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए, जबकि 2 अन्य ब्लॉक के लिए मोनेट इस्पात और सैनिक कोलफील्ड्स से करार किया गया है। जेपी : 124 करोड़ का बकाया इसकी तीन कंपनियां जेपी कोल फील्ड्स, जेपी कोल लि. एवं जेपी माइनिंग एंड मिनरल्स को ब्लॉक मिले। एक झटके में तीनों कंपनियां 35 हजार करोड़ रूपए के कोल भंडार की मालिक बन गर्ई, जबकि कंपनियों की मातृ संस्था जेपी ग्रुप पर रीवा में 114 करोड़ और सीधी व सतना में भी करीब 10 करोड़ की देनदारी बकाया है। एसीसी : 20 करोड़ की देनदारी 2011 में खनिज विभाग कटनी ने विजयराघवगढ़ में स्थापित 20 करोड़ की बकायादार एसीसी सीमेंट को खदानें बंद कराने का नोटिस भेजा था। बकाया तो मिला नहीं, बदले में निगम ने इसकी कंपनी एएमआरएल को 18 हजार करोड़ के चार कोल ब्लॉक दे दिए। इनमें एक छत्तीसगढ़ में है। अब ये कंपनियां मनमानी पर उतर आई हैं। ये कोल इंडिया की गाइड लाइन के अनुसार न तो कोयले का खनन कर रहीं हैं और न ही समय पर सप्लाई। यही नहीं ये कंपनियां अच्छी क्वालिटी का कोयला जमा कर रही हैं और घटिया किस्म का कोयला सप्लाई किया जा हरा है। केंद्र द्वारा निजी कंपनियों को आवंटित 56 ब्लॉकों पर सवाल उठाते हुए कैग ने भी जो गणना की, उसके मुताबिक 1.86 लाख करोड़ राजस्व की क्षति हुई। गणना के अनुसार कोयले की बेस प्राइज 1028 रूपए प्रति टन रखी गई। मप्र खनिज विकास निगम को आवंटित खदानों में 103.5 करोड़ टन कोयला भंडार है। एग्रीमेंट के मुताबिक जेपी ग्रुप को मिले ब्लॉकों में 34.82 करोड़ टन एवं एएमआरएल के चार ब्लॉकों में 18.96 करोड़ टन कोयला अनुमानित है। बेस प्राइज के अनुसार इनसे 50 हजार करोड़ से अधिक का कोयला उत्पादित होगा। बाजार मूल्य पर यह कीमत और ज्यादा होगी। इस मामले में खनिज विभाग के सचिव अजातशत्रु श्रीवास्तव कहते हैं कि एसीसी सीमेंट और जेपी एसोसिएट के खनिज राजस्व बकाया संबंधी मामले हाई कोर्ट में हैं, इसलिए इस विषय पर कुछ भी नहीं कह पाऊंगा। कंपनियों के लिखित आश्वासन के बारे में हाई कोर्ट में सरकार की ओर से पक्ष रखा जाएगा। जेपी को बना दिया मालिक सत्ता के गलियारों के रसूखदार कार्पोरेट घराने जेपी एसोसिएट पर सरकार की मेहरबानी का एक और खुलासा हुआ है। मप्र खनिज विकास निगम ने कंपनी को संयुक्त भागीदार बनाने की बजाय मप्र के सबसे बडे कोल ब्लॉक्स में से एक 12 हजार करोड़ के अमिलिया ब्लॉक का मालिक बना दिया। इसमें जेपी ग्रुप की भागीदारी 51 फीसदी है, जबकि मप्र सरकार के हिस्से में 30 फीसदी का मुनाफा आएगा। भारत के कार्पोरेट इतिहास का यह पहला मामला है जब कोई ज्वाइंट वेंचर कंपनी परिसंपत्ति की मालिक बनी है। ऐसा तभी हो सकता है जब सार्वजनिक क्षेत्र का कोई उपक्रम अपनी भागीदारी को बेच दे, लेकिन मप्र सरकार ने अमिलिया कोल ब्लाक के एग्रीमेंट की मेहरबानी के साथ मालिकाना हक भी जेपी गु्रप को सौंप दिया। निगम को ऐसा करने का अधिकार भी नहीं था। अपने ही हाथों 21 फीसदी भागीदारी के साथ ही मालिकाना हक गंवाने वाली राज्य सरकार को अरबों रूपए का चूना लगना तय है। 19 फीसदी शेयर किसका? अमेलिया कोल ब्लॉक का करार हुए करीब आठ साल बीत चुके हैं लेकिन इस ब्लॉक में 19 फीसदी शेयर किसका है यह रहस्य ही बना हुआ है। सरकार और जेपी ग्रुप के बीच हुए अनुबंध के अनुसार 30 प्रतिशत भागीदारी मप्र खनिज विकास निगम के पास रहेगी। कोल ब्लॉक को विकसित करने में उसे कोई राशि नहीं वहन करनी पड़ेगी। जबकि 51 फीसदी शेयर कंपनी के पास रहेंगे। शेष 19 फीसदी में कौन, इस पर दोनों मौन हैं। 12 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक का मालिकाना हक निजी कंपनी को सौंपे जाने पर भारत सरकार ने आपत्ति जताई थी। इसके बाद मप्र खनिज विकास निगम ने दो अन्य कोल ब्लॉक्स डोंगरी ताल दो जिला सिंगरौली और मंडला के लिए जो अनुबंध किए उसमें 51 फीसदी की भागीदारी अपने पास रखी और 49 प्रतिशत जेपी ग्रुप की कंपनियों को दिए। ऐसा ही एसीसी सीमेंट के साथ चार कोल ब्लॉक्स के करार क्रमश: 51 और 49 फीसदी के अनुपात में ही किए गए। इस तरह से हुआ खेल मप्र सरकार की करोड़ों के खनिज राजस्व की बकायादार कंपनी जेपी ग्रुप ने सरकार से सिंगरौली जिले के निगरी में 1000 मेगावॉट उत्पादन क्षमता का थर्मल पॉवर प्लांट लगाने का एमओयू साइन किया था। इसके बाद कंपनी कोल ब्लॉक हासिल करने की जुगत में लग गई। इसी दौरान मप्र सरकार के उपक्रम खनिज विकास निगम को कोल ब्लॉक आवंटित किए गए। सरकार से सांठगांठ कर कंपनी बकाया राशि पटाए बिना 118 मिलियन टन क्षमता वाले 12 हजार करोड़ के अमेलिया कोल ब्लॉक की ज्वाइंट वेंचर बन गई। जनवरी 2006 में हुए करार में सरकार ने 51 फीसदी हिस्सा जेपी गु्रप को सौंपते हुए मालिक ही बना दिया। प्रदेश की दो बड़ी सीमेंट कंपनियों जेपी एसोसिएट और एसीसी सीमेंट के धोखे का शिकार होने के बाद भी राज्य सरकार की उन पर मेहरबानी बरकरार है। मप्र खनिज विकास निगम लिमिटेड से 50 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट करने वाली करोड़ों की बकायादार इन कंपनियों ने बकाया राशि जमा करने के लिए सरकार से मोहलत मांगी थी। सरकार ने आश्वासन पत्र पर भरोसा कर समय भी दे दिया। इसके बावजूद कोल ब्लॉक एग्रीमेंट के बाद बकाया राशि जमा कराने की जगह कंपनियों ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और स्टे ले लिया। हजारों करोड़ के टर्नओवर वाले जेपी समूह ने रीवा व सीधी में बकाया 61 करोड़ रूपए पटाने में आर्थिक तंगी का हवाला देकर असमर्थता जताई थी। एग्रीमेंट और खदान आवंटन के लिए जेपी के एमडी सनी गौड़ ने जनवरी 2013 में सरकार को अंडरटेकिंग देकर बकाया जमा करने के लिए समय मांगा था। साथ ही कहा था कि कोल ब्लॉक मिलने के बाद जुलाई 2013 तक बकाया किश्तों में जमा करेंगे। लेकिन इससे मुकरते हुए कंपनी हाई कोर्ट चली गई। जेपी ने कोल ब्लॉक एग्रीमेंट और खदानों की पीएल मिलने के बाद बकाया के साथ नियमित रायल्टी का भुगतान भी रोक दिया। लिहाजा इस कंपनी पर रीवा जिले का खनिज राजस्व बकाया बढ़कर 114 करोड़ पहुंच गया। इस मामले में रीवा के जिला खनिज अधिकारी आरएन मिश्र कहते हैं कि जेपी गु्रप द्वारा बकाया चुकाने के लिए अंडरटेकिंग दी गई थी। बाद में रकम नहीं जमा कराई गई अब वसूली पर हाईकोर्ट से स्थगन है। नियमित रायल्टी की राशि के भुगतान लेने के प्रयास किए जा रहे हैं। रीवा में बकाया राशि 114 करोड़ है। एसीसी सीमेंट को दिया था नोटिस कटनी में 20 करोड़ बकाया होने के बाद भी एसीसी ने 4 कोल ब्लॉक और लाइम स्टोन की खदानें ले लीं। 2011 में जिला खनिज अधिकारी कटनी ने 20 करोड़ की बकाया राशि जमा कराने के लिए नोटिस देते हुए लाइम स्टोन की खदानों में खनन पर रोक की चेतावनी दी थी। एसीसी ने राशि पटाने के बजाय हाईकोर्ट में याचिका लगाकर वसूली पर रोक लगाने का आग्रह किया। कटनी के जिला खनिज अधिकारी जितेन्द्र सिंह सोलंकी कहते हैं कि एसीसी सीमेंट पर जो भी बकाया राशि है, उसकी वसूली हाईकोर्ट के आदेश के बाद नहीं की जा रही है। नियमित रायल्टी भुगतान मिल रहा है। विद्युत गृहों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? आखिर मप्र के ताप विद्युत गृहों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? जवाब एक ही मिलता है,मप्र जनरेटिंग पावर कंपनी के अधिकारी की नीति और नीयत। ताप विद्युत गृहों को निजीकरण की ओर धकेलने वाली एमपीजेपीसी के अधिकारियों की नीति ने ताप विद्युत गृहों को दिवालिया बना दिया है। इसे आंकड़ों की बानगी भी समझा जा सकता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एनटीपीसी व निजी थर्मल पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 78 से 82 फीसदी तक दर्ज किया जाता है, जबकि एमपीजेपीसी द्बारा नियंत्रित चार थर्मल पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 66 फीसदी दर्ज किया गया । हाल ही में स्वयं सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने ही पत्र लिखकर कोयला मंत्री पीयूष गोयल से इस बात का खुलासा किया है कि एमपीजेपीसी के संयंत्रों को 5800 कैलोरिफिक वैल्यू (सीवी)का कोयला दिया जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 10 साल पूर्व वर्ष 2004-05 में एमपीजेपीसी के पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 72.5 फीसदी दर्ज किया गया था, जबकि उस दौरान संयंत्रों को कोयला 2700-2900 सीवी का आपूर्ति किया जाता था। इधर लंबे अर्से से 5800 सीवी का कोयला मिलने लगा तो परफार्मेंस घटकर 62 फीसदी में सिमट गया। पावर सेक्टर के एक्सपट्र्स की माने तो डिजायन हीट रेट के सिद्धांत के अनुसार परफार्मेंस यानि बिजली उत्पादन बढऩा चाहिए था, लेकिन तीन गुना महंगा कोयला प्रयोग करने के बाद भी बिजली उत्पादन में आई गिरावट निजीकरण की पृष्ठ भूमि तैयार करने की गहरी साजिश की ओर इशारा करता है,जिसमें मददगार साबित होते नजर आ रहे हैं, मप्र जनरेटिंग पावर के जिम्मेदार अधिकारी । रोजाना फुंक रहा 40 हजार टन कोयला राज्य के एमपीजेपीसी के संयंत्रो में रोजाना औसतन 40 हजार टन कोयला फुंकता है, जिससे मांग के 15 करोड़ यूनिट बिजली के मुकाबले महज 4 करोड़ 55 लाख यूनिट बिजली उत्पादित होती है। इसमे से 10 लाख यूनिट हाइड्र संयंत्रों से पूरी की जाती है। आंकड़े साफ बताते हैं कि तकरीबन आठ करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन की क्षमता रखने वाले एमपीजेपीसी के संयंत्रों में पचास फीसदी बिजली ही उत्पादित हो रही है जबकि खर्च चार गुना अधिक किया जा रहा है। क्या कहता है कि डिजायन रेट सिद्धांत डिजायन रेट सिद्धांत के अनुसार 5800 सीवी का कोयला उपयोग होने पर प्रति यूनिट पांच सौ से साढ़े पांच सौ ग्राम कोयला खर्च होना चाहिए, लेकिन संजय गांधी ताप विद्युत गृह में रहस्यमयी अंदाज में 800-850 ग्राम कोयला फूंका जा रहा है। कमोबेश यही स्थिति एमपीजेपीसी के सभी संयंत्रों की है। जाहिर है कि तीन गुने महंगे कोयले की खपत करने वाले संयंत्रों में 25 फीसदी कोयला अतिरिक्त फुंक रहा है। सिर्फ संजय गांधी ताप विद्युत गृह में रोजाना लगभग तीन करोड़ का तीन हजार टन कोयला कुप्रबंधन के कारण अतिरिक्त जला दिया जाता है। जाहिर है कि एमपीजेपीसी पर कोयला भुगतान का जो 966 करोड़ का कर्ज चढ़ा है, वह इसी कुप्रबंधन का परिणाम है, जिसकी रिकवरी एमपीजेपीसी के अधिकारियों व लायजनर्स से होनी चाहिए, लेकिन कोयले की कालिख ऊपर से नीचे तक पुती होने के कारण जिम्मेदार वास्तविकताओं से मुंह मोड़कर न केवल आकड़ों की बाजीगरी कर रहे हैं, बल्कि निजीकरण की शतरंजी बिसात भी बिछा रहे हैं, ताकि कुप्रबंधन , अधिक लागत व कम उत्पादन के चलते संयंत्र बंद हों और निजी कंपनियों का पावर सेक्टर पर कब्जा जमाने का मार्ग प्रशस्त हो सके। ढाई करोड़ रोजाना लास, आब्जर्वेशन पर सारणी भले ही सरकार पावर सेक्टर में आत्मनिर्भरता का दम भरे, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि सारणी ताप विद्युत गृह ढाई करोड़ रोजाना के कामर्शियल लास पर चल रही है, जिसके चलते इसे जबलपुर मुख्यालय ने यहां के कोयला व तेल खपत व डिक्लेयर्ड कैपासिटी को आब्जर्वेशन में ले रखा है, बावजूद इसके यहां की स्थितियों में कोई सुधार नहीं आया है। नीति और नीयत कसौटी पर विद्युत ताप गृहों के संचालन में अधिकारियों की नीति और नीयत का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि रोजाना करोड़ों का तीन हजार टन कोयला अतिरिक्त फंूकने वाले संजय गांधी समेत अन्य ताप संयंत्रों में महज चंद लाख का आने वाला कोल कैलोरिफिक कैलकुलेटर तक नहीं है, जिससे यह मापा जा सके कि संयत्र में कितने कैलोरी का कोयला फंका जा रहा है। जानकार मानते हैं कि ऐसा होने पर कोयले की कैलोरी का भ्रम फैलाकर बिजली उत्पादन प्रभावित करने वाले एमपीजेपीसी के जिम्मेदारों की कलई खुल सकती है। मुनाफे के लिए घटिया कोयले की सप्लाई सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद प्रदेश के ताप विद्युत गृहों में घटिया किस्म का कोयला सप्लाई किया जा रहा है। लाइजनर और अधिकारियों की मिलीभगत से हो रहे इस गोरखधंधे से जहां विद्युत उत्पादन कम हो रहा है वहीं लाइजरन खुब मुनाफा कमा रहे हैं। अभी हालही में संजय गांधी ताप विद्युतगृह में ऐसा ही मामला सामने आया है। उमरिया जिले के पाली बिरसिंहपुर स्थित संजय गांधी ताप विद्युतगृह में कोयले का गोरखधंधा वर्षों से चल रहा है। अक्सर बंद रहने वाली इकाइयों व अनुपात के विपरीत हाईग्रेड कोयले के इस्तेमाल के लिए पहले ही बदनाम इस ताप विद्युतगृह में कोयले की रैकों में चल रहे खेल का सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया है। लायजनर नायर एंड संस की देखरेख में 29 जून को जो रैक आई उसकी 59 बोगियों में से 17 में कोयला क्षमता से कम था। इस रैक से लोवर ग्रेड (जी-10,11) कोयले की आपूर्ति की गई थी। लायजनर नायर एंड संस ने जिस रैक से आपूर्ति की, उसकी 59 बोगियों की सीसी वैल्यू (कैरिग कैपासिटी यानि वहन क्षमता) 58 एमटी है लेकिन उनमें से 17 बोगियों में वहन क्षमता से कम कोयला लादा गया। उदाहरण के लिए रैक के पहले बॉक्स एन में 41.74 एमटी, बॉक्स-एन क्रमांक-24 में 38.26 एमटी, बॉक्स एन क्रमांक-45 में 38.38 एमटी कोयला लादा गया। जाहिर है कि इनमें अंडरलोड सस्ते कोयले की आपूर्ति की गई। इसके बावजूद प्रबंधन ने इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। 29 जून को आई रैक की बोगी क्रमांक-1, 16,1 7,19, 20,21, 22, 24, 28,30, 31,40,42,43,44,45 और 50 में कोयला क्षमता से कम पाया गया। पावर सेक्टर के जानकारों की मानें तो लाइजनर ऐसा केवल सस्ते कोयले की आपूर्ति में करते हैं। जानकार बताते हैं कि लो-ग्रेड कोयला जहां 1400 से 1600 रूपए के बीच आता है,वहीं हाईग्रेड कोयले की कीमत संयंत्र पहुंचकर 4200 से 5000 रूपए प्रति टन हो जाती है। ... तो यू होता है खेल हाईग्रेड कोयले के इस्तेमाल पर राज्य सरकार पहले ही चिंता जता चुकी है। लेकिन संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। कोयला आपूर्ति से इसका अंदाजा मिलता है। 30 जून तक संजय गांधी ताप विद्युतगृह 5.33 लाख एमटी कोयला आवंटित हुआ। विद्युतगृह इसमें से सिर्फ 4.02 लाख एमटी ही उठा सका। आवंटित कोयला 133 रैकों में आना था लेकिन माह के अंतिम दिन तक 101 रैक ही पहुंच सकी। इसके बावजूद मुनाफे का गणित जून-2014 की अप्रूव्ड रेल प्रोग्रामिंग को दरकिनार कर निकाल लिया गया। संजय गांधी ताप विद्युत गृह में जून महीने में भी आवंटित कोयले का पूरा उठाव नहीं हो पाया है। इस मामले में जब मुख्य अभियंता एके टेलर से चर्चा की गई तो उन्होंने इस बारे में तत्काल कोई बात करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वे अभी इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। संजय गांधी ताप विद्युत गृह को माह जून के लिए पांच लाख तीस हजार मीट्रिक टन कोयले का आवंटन प्राप्त हुआ था। जबकि 29 जून की शाम तक सिर्फ चार लाख मैट्रिक टन कोयला ही उठाया जा सका है। शेष एक लाख तीस हजार मैट्रिक टन कोयला लेप्स हो गया। इस तरह आया कोयला जून 2014 के लिए आवंटित पांच लाख 33 हजार मैट्रिक टन में से 101 रैक में सिर्फ चार लाख टन कोयला ही आ पाया था। जबकि इस कोयले की ढुलाई कुल 133 रैक में की जानी थी। तात्पर्य यह है कि अभी 32 रैक कोयला और ढोया जाएगा, तब कोयले का आवंटन पूरा उठ पाएगा। सामान्य तौर पर यहां प्रतिदिन तीन से चार रैक कोयला ही उतर सकता है। जून में 60 प्रतिशत हायर ग्रेड का कोयला पूरा उठा लिया गया था। इस कोयले को उठाने के लिए अस्सी रैक लगाए गए थे। तात्पर्य यह है कि लो ग्रेड का कोयला सिर्फ 21 रैक में ही लाया गया। 40 प्रतिशत लोवर ग्रेड का कोयला कोरबा एरिया से उठाया जाता है। ये कोयला सस्ता पड़ता है जिसकी वजह से बिजली तैयार करने में लागत कम आती है लेकिन हायर ग्रेड का कोयला उठाने के चक्कर में लोवर ग्रेड का कोयला छोड़ दिया गया है। ...तो न रहेगी बिजली की ज्योति अटल संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन की तरह ही प्रदेश के अन्य तापगृहों की भी कोयला उठाव के मामले में यही स्थिति है। जहां संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन सवा लाख मीट्रिक टन कोयले का उठाव नहीं कर सका, वहीं खंडवा के नवनिर्मित ताप विद्युतगृह आवंटित कोयले का पचास फीसदी भी नहीं उठा पा रहा है। ऐसे में बिजली का बनना ही सवालों में घिर गया है। आंकड़े गवाह हैं कि चार विद्युत तापगृहों में कुल 3512.5 मेगावाट उत्पादन की क्षमता है जबकि इन दिनों डिमांड 6600 मेगावाट तक पहुंच जाती है। बावजूद इसके कोयले की कमी या इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त होने का बहाने महज 1800 से 2000 मेगावाट बिजली ही बन रही है। ये लक्षण प्रदेश में बिजली के आने वाले बुरे दिनों की ओर संकेत करते हैं। अमरकंटक ताप विद्युत केन्द्र चचाई में 120 मेगावाट क्षमता की चार नंबर इकाई की टरबाइन तकनीकी खराबी की वजह से बंद है। टरबाइन की वायरिग में जटिल समस्या आ गई है। अधिकारियों-कर्मचारियों का इसमें हाथ बताया जा रहा है। विद्युत तापगृहों की कार्यप्रणाली पर अंकुश लगाने के बजाय इलेक्ट्रिसिटी जनरेटिंग सेंटर की कोशिश यह जताने की है ताप इकाइयां लो-डिमांड के कारण बंद हुई हैं जबकि सूत्र बताते हैं कि इन्हें जेसीसी के आदेश के बाद बंद किया गया है। आदेश में कहा गया है कि प्रदेश में बिजली की मांग नहीं हो रही है जो किसी के भी गले नहीं उतर सकती हालांकि इसे सिद्ध करने के लिए आंकड़ों की जादूगरी की जा रही है। किसी काम का नहीं था हाईग्रेड कोयला आखिर प्रदेश सरकार की कुभकर्णी नींद तब टूटी जब ताप विद्युतगृहों पर 966 करोड़ से अधिक का कर्ज चढ़ गया। कोयला संकट के बहाने से जब-तब बंद रहने वाली ताप विद्युत इकाइयों पर भारी-भरकम बकाया सामने आने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कोयला मंत्री को पत्र लिखा। इसमें संजय गांधी ताप विद्युतगृह को दिए जा रहे हाईग्रेड कोयले (5800 कैलोरिफिक वैल्यू) का आवंटन कम करने की मांग की गई है। गौरतलब है कि वर्ष 2008-09 में हाईग्रेड कोयले का आवंटन प्रतिशत 12.6 फीसदी से बढ़ाकर 61 फीसदी किया गया था। नतीजतन संजय गांधी ताप विद्युतगृह में बिजली उत्पादन की लागत 1.21 रुपए बढ़ गई थी। पत्र में कहा गया है कि 61 फीसदी हाईग्रेड कोयला आपूर्ति की वजह से मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी पर अतिरिक्त कर्ज बढ़ गया है। इस कारण बिजली उपभोक्ताओं के ऊपर भार बढ़ रहा है। तो क्या कर रहे थे लायजनर विगत दिवस संजय गांधी ताप विद्युतगृह की दो इकाइयां कोयले की कथित कमी के कारण बंद हो गई जबकि सूत्रों का कहना है कि प्रबंधन के पास सात दिनों तक के लिए तकरीबन 1.18 लाख टन का ग्राउंड स्टाक मौजूद है। यदि यह सही है तो उसे प्रबंधन उपयोग लाए बगैर इकाइयां बंद कैसे कर सकता है? और यदि कोयला गुणवत्तापूर्ण नहीं है तो जनरेटिंग कंपनी का लायजनर क्या कर रहा है? उल्लेखनीय है कि मप्र इलेक्ट्रिसिटी जनरेटिंग कंपनी ने गुणवत्तापूर्ण कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर लायजनर नियुक्त किए हैं। हालांकि हो उल्टा रहा है। जब से लायजनर नियुक्त हुए हैं, तब से न तो कोयले का उठाव सही ढंग से हो रहा है और न ही गुणवत्तापूर्ण कायले की आपूर्ति हो रही है। जब लंबे अर्से से हाईग्रेड 5800 सीवी कोयले की आपूर्ति हो रही थी, तो लाखों का भुगतान पाने वाले लायजनर नायर एंड संस क्या कर रहे थे? यह सवाल मुख्यमंत्री के चिट्ठी लिखने के बाद उठना लाजिमी हो गया है। सीएम के पत्र में बताया गया है कि दिए गए 5800 सीवी के हाईग्रेड कोयले के उपयोग की अनुशंसा ही नहीं थी। संजय गांधी ताप विद्युत गृह के लिए 2800 से 3200 सीवी का कोयला ही उपय़ुक्त है क्योंकि यहां का बॉयलर डिजायन 2700 सीवी के आसपास ही है। यह तथ्य सामने आने के बाद लायजनर की भूमिका सवालों में घिर गई है। उत्पादन 75 मिलियन मिलता है 17 मिलियन देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले चार सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी। मप्र के कोयला उत्पादन में भारी कमी के आसार पुरानी खदानों के बंद होने और नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू न होने से राज्य में कोयले के उत्पादन में भारी कमी होने जा रही है। उत्पादन में होने वाली यह संभावित कमी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि खनन से मिलने वाली कुल रॉयल्टी में कोयले का हिस्सा 60 फीसदी होता है। देश की 55 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है और इसका दस प्रतिशत 'एनर्जी कैपिटलÓ के नाम से मशहूर सिंगरौली जिले से आता है। सिंगरौली जिले में कई कोयला खदानें है। इसमें से सबसे बड़े कोल रिजर्व वाली झिंगुरदाह खदान जल्द ही बंद होने वाली है। एनसीएल की गोरबी खदान में भी कोयला कम बचा हुए है। प्रदेश के सिंगरौली की सभी खुली खदानेंं है, यहां के अलावा प्रदेश की ज्यादातर खदाने भूमिगत है और काफी पुरानी है। प्रदेश में फिलहाल कोल इंडिया की तीन सहायक कंपनियां एनसीएल, एसईसीएल और डब्ल्यूसीएल की कुल छह खदानें है। दूसरी ओर प्रदेश के नये कोल ब्लॉकों में अभी तक कोल उत्पादन शुरू नहीं हुआ है तथा अगले दो सालों तक उनके शुरू होने की कोई संभावना भी नहीं है। प्रदेश में विभिन्न पॉवर कंपनियों को 22 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए है, जिनका अनुमानित कोल भंडार 3100 मिलियन टन का है। ये ब्लॉक सिंगरौली, शहड़ोल, उमरिया, अनूपपुर और छिंदवाड़ा में है। जिन कंपनियों को यह आवंटित किए गए है उनमें रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, एस्सार पॉवर, मध्य प्रदेश राज्य खनिज निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, जेपी एसोसिएटस, एसीसी लिमिटेड शामिल है। आज की स्थितियों को देखते हुए तय माना जा रहा है कि जब तक नए कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू नहीं होगा, प्रदेश में कुल कोयला उत्पादन नहीं बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में राज्य को कोयले से होने वाली रॉयल्टी में भी कमी आएगी।