शनिवार, 29 नवंबर 2014

कसाई की तरह महिलाओं का पेट फाड़ रहे डॉक्टर

नशबंदी की टारगेट का टेंशन...
कसाई की तरह महिलाओं का पेट फाड़ रहे डॉक्टर
महज सवा मिनट में एक नसबंदी ऑपरेशन कर रहे डॉक्टर
स्वास्थ्य विभाग ने दिया एक डॉक्टर को रोजाना 400 ऑपरेशन करने का टारगेट
भोपाल। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 5 घंटें में 83 नसबंदी ऑपरेशन के बाद बीमार हुईं करीब 150 महिलाओं में से 17 की जान जाने पर मचा कोहराम अभी थमा भी नहीं था कि मध्य प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टरों द्वारा कसाई की तरह महिलाओं की नशबंदी करने का मामला सामने आया है। छतरपुर जिले के घुवारा में लक्ष्य पूरा करने के लिए एक ही रात में पांच घंटे में 132 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन कर दिए गए। आश्चर्य की बात यह है की यह सारे ऑपरेशन 15 नवंबर की 9 बजे रात 2 बजे के बीच एक ही डॉक्टर द्वारा किए गए हैं। आलम यह था कि महिलाओं को ऑपरेशन रूम से बाहर लाने के लिए स्ट्रेचर भी नहीं थे। दो वार्ड ब्वॉय उनके हाथ-पैर पकड़कर लाते और हॉल में जमीन पर लिटा देते। इनके ओढऩे के लिए पर्याप्त कंबल तक नहीं थे। जब इसकी तहकीकात की गई तो बताया गया की सरकारी टारगेट पूरा करने के लिए इस तरह ऑपरेशन करना कोई नई बात नहीं है।
दरअसल, प्रदेश में हर साल सरकारी अस्पतालों में कार्यरत सर्जन को टारगेट देकर नसबंदी ऑपरेशन कराया जाता है। प्रदेश में 2010 से लगातार इसी तरह ऑपरेशन हो रहे हैं। यही नहीं टारगेट पूरा करने के लिए सरकार द्वारा तरह-तरह के प्रलोभन भी डॉक्टरों को दिए जाते हैं। इस साल अघोषित तौर पर प्रदेश में करीब 10 लाख लोगों की नशबंदी करने का टारगेट रखा गया है। इसी टारगेट के तहत छतरपुर जिले के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी कार्यालय की ओर से एक सर्जन को एक दिन में 400 ऑपरेशन करने का लक्ष्य दिया गया था। सर्जन एक दिन में यदि नियमानुसार 8 घंटे की सेवाएं देता है, तो उसे नॉन स्टॉप प्रति 1.2 मिनट में एक नसबंदी ऑपरेशन करना पड़ेगा। लेकिन इन सब को जाने बिना प्रभारी सीएमएचओ डॉ. आरसी जैन ने न जाने कौन सा गुणा-भाग कर महिला-पुरुष फिक्स डे कैंप कैलेण्डर बनाया है। नवबंर के लिए सीएमएचओ ने 7 कॉलम का कैलेण्डर बनाया है, जिसमें एक सर्जन को एक ही दिन में जिला मुख्यालय से दो ब्लॉकों में नसबंदी के ऑपरेशन करने के लिए जाना है। सीएमएचओ ने नवंबर के लिए जिले के 6 सर्जनों की डयूटी लगाई है। नवंबर के फिक्स डे केलेण्डर में विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों-कर्मचारियों को सीएमएचओ ने शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने के निर्देश दिए हैं। सीएमएचओ कार्यालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक नवंबर माह में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 22 हजार 360 नसबंदी ऑपरशेन्स किए जाने हैं, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 18 हजार 803 और शहरी क्षेत्र में 3 हजार 557 ऑपरेशन शामिल हैं। इसी निर्देश के तहत डॉ. गीता चौरसिया ने 5 घंटे में 132 महिलाओं का ऑपरेशन कर डाला। ऑपरेशन करने की कुरूरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ऑपरेशन से पहले महिलाओं को बेहोशी के इंजेक्शन किसी विशेषज्ञ चिकित्सक ने नहीं बल्कि आशा और ऊषा कार्यकर्ताओं ने लगाए। यही नहीं महिलाओं को ऑपरेशन रूम से बाहर लाने के लिए स्ट्रेचर भी नहीं थे। दो वार्ड ब्वॉय उनके हाथ-पैर पकड़कर लाते और हॉल में जमीन पर लिटा देते। ये महिलाएं घंटों हॉल में बेहोश पड़ी रहीं। कुछ के परिजनों ने उन्हें उठाकर व्यवस्थित जगह लिटाया। इस मामले में बीएमओ डॉ. जेपी यादव का कहना है कि शिविर तो दिन में ही लगने वाला था, लेकिन सर्जन को दिन में समय नहीं था, इसलिए रात में ऑपरेशन करने पड़े। हां, कुछ अव्यवस्था रही, आगे से ध्यान रखेंगे।
पीएस बोले: समझा दिया है, अब ऐसा नहीं होगा
छतरपुर जिले के घुवारा में हुए इस नशबंदी ऑपरेशन कांड से प्रदेश भर में दहशत-सी फैली हुई है, वहीं स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण कहते हैं मैने स्वास्थ्य अधिकारियों और चिकित्सकों को समझा दिया है, अब ऐसे मामले सामने नहीं आएंगे। वह कहते हैं की अरे भाई! कोई अनहोनी तो हुई नहीं है कि हम कोई कार्रवाई करें। प्रवीर कृष्ण के ये बोल इस ओर संकेत दे रहे हैं कि उन पर भी इस टारगेट को पूरा करने का कितना दबाव है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ की घटना के बाद से ही प्रदेश में इस मामले में पूरी सावधानी बरतने के निर्देश दिए गए हैं। स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी निर्देशों में इस मामले में लापरवाही बरतने वालों पर कठोर कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए हैं। परिवार कल्याण कार्यक्रम को पूरी ऐहतियात से संचालित करने के निर्देश स्वास्थ्य संचालनालय ने जिलों के मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारियों को दिए हैं। परिवार नियोजन (नसबंदी ऑपरेशन) के लिए भारत सरकार के निर्देशों के अक्षरश: पालन और निर्धारित प्रोटोकाल के अनुसार कार्य करने की हिदायत दी गई है। इसके साथ ही सिर्फ डब्ल्यूएचओ जीएमपी प्रमाणित कंपनी से प्रदाय औषधियों के प्रयोग के स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। साथ ही यह भी हिदायत दी गई है कि लापरवाही पर कठोर कार्यवाही की जाएगी और अप्रमाणित संस्थान से औषधि खरीदने वाले दण्डित किए जाएंगे। परिवार कल्याण शिविर में भी 20-25 की सीमित संख्या तक ऑपरेशन के लिए कहा गया है। निर्देशों में विशेष रूप से गर्भवती, नवप्रसूता और शिशुवती माताओं के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखने को कहा गया है। ये निर्देश सभी संबंधित तक भेजे गए हैं। इसके बावजुद प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए एक-एक डॉक्टर द्वारा एक दिन में सैकड़ों ऑपरेशन किए जा रहे हैं और स्वास्थ्य विभाग के आला अफसर किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहे हैं। यही कारण है की नशबंदी ऑपरेशन के संबंध में लगातार शिकायतें मिलने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग मौन साधे रहता है और डॉक्टर भेंड़-बकरियों की तरह लोगों का पेट चीरते रहते हैं। टारगेट का खेल पूरा करने के लिए प्रदेश भर में केवल डॉक्टरों को ही नहीं आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को नसबंदी का लक्ष्य दिया गया है। वे महिलाओं को बहला-फुसलाकर ला रही हैं। स्वास्थ्य कर्मचारी इन महिलाओं से अमानवीय बर्ताव कर रहे हैं। ठंड में न तो अलाव की व्यवस्था की, न पीने का पानी की, न ही परिजनों के ठहरने का इंतजाम। परिजनों को छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुले मैदान में बैठने को कहा जाता। जबकि महिलाओं को एक ही कमरे में बैठाया ठूंस कर रखा जाता है।
फेलोपियन ट्यूब के बजाय काट दी नस
छतरपुर जिले के घुवारा की घटना के तीसरे दिन ही उज्जैन जिले के बडऩगर के सरकारी अस्पताल में नसबंदी ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर की गलती से एक महिला की गलत नस कट जाने के कारण उसकी हालत गंभीर हो गई। बडऩगर तहसील के ग्राम किलोड़ी में रहने वाली माया पति रंजीत चंद्रवंशी, उम्र 22 वर्ष को एलटीटी ऑपरेशन (लेप्रोस्कोपिक टब्यूबेक टामी) के लिए बडऩगर के सरकारी अस्पताल में भर्ती किया था। यहां सर्जिकल स्पेशलिस्ट डॉ. विनीता खटोड़ ने माया की नसबंदी शुरू की। इसके लिए फेलोपियन ट्यूब को बांधकर उसे काटना होता है। डॉक्टर के हाथ से फेलोपियन ट्यूब की बजाय रक्त वाहिनी कट गई। इससे महिला के शरीर से खून बहने लगा और पेट में दर्द भी होने लगा। तत्काल महिला को बडऩगर अस्पताल से जिला अस्पताल भेजा गया। वहां डॉ.डीके तिवारी, डॉ. मुंशी खान, डॉ. प्रमोद माहेश्वरी डॉ.संध्या पंचोली ने करीब चार घंटे तक महिला का ऑपरेशन किया। उसके बाद रक्त बहना बंद हुआ। डॉक्टर ने नसबंदी के लिए फेलोपियन ट्यूब की बजाय महिला की रक्तवािहनी(नस) काट दी। अधिक खून बह जाने से महिला गंभीर हो गई। उसे बाद में जिला अस्पताल लाया गया। यहां चार घंटे तक चले ऑपरेशन के बाद उसका रक्तस्राव तो रोक दिया गया लेकिन उसकी हालत नाजुक बनी हुई है। उसे आईसीयू में भर्ती किया गया है। उसकी नसबंदी अभी नहीं हो पाई है। छत्तीसगढ़ में नसबंदी ऑपरेशन के दौरान हुए हादसे के बाद मध्यप्रदेश में इस तरह का पहला मामला सामने आने से स्वास्थ्य महकमे में हड़कंप मच गया है। उधर, पीडि़त महिला के पति रंजीत का कहना है कि डॉक्टर नसबंदी करते समय नर्स से बात करने में लगी थी। इस वजह से गलत नस काट दी।
200-300 के लिए डाल देते हैं मौत के मुंह में
प्रदेश में नसबंदी शिविरों में हुई गड़बड़ी और मौतों के पीछे की वजह मात्र 200-300 रुपए है। दरअसल, राज्य में नसबंदी का एक मामला लाने पर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को राज्य सरकार प्रोत्साहन राशि देती है। यह प्रोत्साहन राशि पहले 150 रुपए प्रति मामले के हिसाब से होती थी, जिसे इस साल सरकार ने बढ़ा दिया है। यही नहीं राज्य में नसबंदी ऑपरेशन पर दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि को भी प्रदेश में बढ़ा दिया गया है। शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन पर महिला हितग्राही को 1400 रुपए एवं पुरुष हितग्राही को 2000 रुपए देय होते हैं। इसी प्रकार महिला हितग्राही को प्रसव के बाद तुरंत या 7 दिन के भीतर शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन पर 2200 रुपए देय है। शासकीय संस्था में नसबंदी ऑपरेशन के लिए महिला हितग्राही को प्रेरित करने के लिए 200 रुपए एवं पुरुष हितग्राही को प्रेरित करने के लिए 300 रुपए देय हैं। इसी प्रकार महिला हितग्राही को प्रसव के बाद तुरंत या 7 दिन के भीतर नसबंदी ऑपरेशन करवाने के लिए प्रेरित करने पर 300 रुपए देय हैं। शासकीय अस्पताल अथवा नर्सिंग होम को नसबंदी ऑपरेशन पर महिला एवं पुरुष हितग्राही के लिए 2000 रुपए देय हैं। इसी प्रकार निजी अस्पताल अथवा नर्सिंग होम में नसबंदी ऑपरेशन करवाने पर महिला एवं पुरुष हितग्राही को 1000 रुपए की राशि देना निर्धारित है। राज्य सरकार का लक्ष्य पूरा करने के दबाव के चलते और 200-300 रूपए प्रति मामले में प्रोत्साहन राशि के लालच में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं गांव-गांव जाकर ऐसी महिलाओं की तलाश करती थीं जो दो-तीन बच्चों की मां हैं। ये इन महिलाओं को पैसे का लालच देकर उन पर नसबंदी कराने का दबाव डालती थीं। अगर कोई महिला उनकी इस बात पर असहमति जताती तो वे उनके पति पर दबाव बनाना शुरू कर देतीं ताकि प्रोत्साहन राशि पक्की हो सके। इस लालच में इन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने बैगा जनजाति की सैकड़ों महिलाओं की भी नसबंदी करवा दी, जबकि बैगा जनजाति को संरक्षित श्रेणी में रखा गया है। इस जनजाति की महिलाओं की नसबंदी पर रोक है, लेकिन लक्ष्य को पूरा करने के लिए मौत के इन नसबंदी शिविरों में नियमों को ताक पर रख दिया गया। वहीं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के खिलाफ शिकायत मिली है कि वे सरकार द्वारा दी गई राशि के अलावा नसबंदी कराने वाली महिलाओं की प्रोत्साहन राशि से भी अपना हिस्सा लेती हैं। ऐसी शिकायतें कई शिविरों में मिली हैं।
10 साल में पैसे के लालच में 1,734 ने गंवाई जान
छत्तीसगढ़ की घटना से सारा देश सन्न है, मगर नसबंदी सर्जरी के दौरान मौतों की यह कोई पहली या अलग-थलग घटना नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मप्र में 2009 में विभिन्न जगहों पर ऐसी 247 मौतें हुई थीं। 2003-13 की अवधि में ऐसी 1,734 मृत्यु दर्ज की गईं। जाहिर है, जब इक्का-दुक्का मौत होती है, तो उस पर ध्यान नहीं जाता। जबकि वो तमाम घटनाएं वैसी ही लापरवाही का परिणाम हैं, जैसी बिलासपुर के तखतपुर ब्लॉक में देखने को मिली। गौरतलब है कि वहां लगे कैंप में एक डॉक्टर ने एक ही उपकरण से पांच घंटों में 83 ऑपरेशन कर दिए, यानी तकरीबन हर चार मिनट में एक सर्जरी, वहीं मप्र के छतरपुर जिले के घुवारा में लक्ष्य पूरा करने के लिए एक ही रात में पांच घंटे में 132 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन कर दिए गए। जबकि केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के मुताबिक एक मेडिकल टीम एक दिन में 30 से ज्यादा लेप्रोस्कोपिक सर्जरी नहीं कर सकती। लेकिन जिस तरह गाइड लाइन को दरकिनार कर टारगेट पूरा करने के लिए ऑपरेशन किए जा रहे हैं उससे मौत की घटनाएं सामने आती हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने तेजी से बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ साल पहले ही बड़े पैमाने पर नसबंदी की महात्वाकांक्षी योजना तैयार की थी। वैसे इससे पहले संजय गांधी के जमाने में होने वाली जबरन नसबंदी के मामलों ने भी जमकर सुर्खियां बटोरी थीं। लेकिन तब और अब के हालात में काफी अंतर आया है। अब केंद्र सरकार की योजना के तहत विभिन्न राज्य सरकारों ने भी इन योजनाओं को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक सहायता घोषित की है। कई बार इसी रकम की लालच में गरीब महिलाएं नसबंदी शिविरों में पहुंच जाती हैं। कई डाक्टरों का प्रमोशन भी पूरे साल होने वाले नसबंदी की तादाद से जुड़ा होता है। इसके अलावा इस सरकारी योजना में खुली लूट के लिए दवा कंपनियां भी सक्रिय रहती हैं। वह इसके लिए एक्सपायरी डेट की दवाओं से लेकर बेहद घटिया उपकरणों की सप्लाई करती रहती हैं।
एक दिन में 300-400 ऑपरेशन
जाहिर है यह सब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से ही होता है। आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए नसबंदी शिविरों में एक दिन में सैकड़ों ऑपरेशन कर दिए जाते हैं। कम समय में जल्दबाजी में होने वाले इन ऑपरेशनों में साफ-सफाई का ध्यान रखना मुमकिन ही नहीं है। छत्तीसगढ़ के जिस डाक्टर आरपी गुप्ता को गिरफ्तार किया गया है उन्होंने तो साफ कहा कि एक दिन में तीन से चार सौ तक ऑपरेशन किए जाते हैं। अब गांव-देहात में लगने वाले शिविरों में न तो एक साथ इतने उपकरणों का इंतजाम संभव है और न ही उनको कीटाणुमुक्त यानि स्टर्लाइज करने का कोई माकूल इंतजाम। ऐसे में संक्रमण होना तय है। दिशा-निर्देशों के तहत ऑपरेशन के बाद मरीज को चार घंटों तक डॉक्टर की निगरानी में रखना अनिवार्य है, मगर प्रदेश में आयोजित होने वाले नशबंदी ऑपरेशन कैंपों में ऑपरेशन के बाद सबको तुरंत डिस्चार्ज कर दिया जाता है। क्या ऐसे हालात में ऑपरेशन का बिगड़ जाना संयोग भर माना जाएगा?
3340 गर्भवती महिलाओं की कर डाली नसबंदी
प्रदेश में पिछले पांच साल में परिवार नियोजन का लक्ष्य पूरा करने के चक्कर में डाक्टरों ने 3340 गर्भवती महिलाओं की नसबंदी कर दी। इसका खुलासा क्वालिटी इंश्योरेंस कमेटी की रिपोर्ट से हुआ है। कमेटी ने उन महिलाओं को मुआवजा देने से इनकार कर दिया है, जिनके ऑपरेशन गर्भवती होने के दौरान किए गए। पिछले पांच साल में क्वालिटी इंश्योरेंस कमेटी के समक्ष नसबंदी ऑपरेशन फेल होने पर 5540 महिलाओं ने मुआवजे के लिए आवेदन दिए थे। नसबंदी फेल होने पर प्रत्येक महिला को 30 हजार रूपए दिए जाने का प्रावधान है। कमेटी को आवेदनों की जांच में पता चला कि करीब 3340 महिलाएं ऐसी हैं, जिनके ऑपरेशन गर्भावस्था के दौरान किए गए। इसमें सर्वाधिक 200 मामले सीहोर के हैं। नसबंदी ऑपरेशन से पहले महिला का यूरिन टेस्ट किया जाता है। इसमें महिला के गर्भवती होने की बात सामने आने पर उसका ऑपरेशन नहीं किया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग के डाक्टरों ने बिना जांच किए महिलाओं के ऑपरेशन कर दिए। दरअसल,परिवार नियोजन के तहत नसबंदी कराने वाली महिला और प्रेरक को अनुदान राशि मिलती है। नसंबदी करने वाले डॉक्टर को प्रति ऑपरेशन के 100 रूपए मिलते हैं। अधिकांश ऑपरेशन रिटायर्ड डॉक्टरों से कराए जाते हैं। लालच के कारण यूरिन टेस्ट गंभीरता से नहीं देखते हैं। खंडवा में तो इसी साल सितंबर में परिवार नियोजन का लक्ष्य पूरा करने की होड़ में चिकित्सकों ने गर्भवती महिला की ही नसबंदी कर डाली। इंतिहां तो तब हुई जब आपरेशन के बाद डॉक्टरों को पता चला कि महिला गर्भवती है तो उन्होंने महिला का गर्भपात ही कर दिया। सारा मामला सामने आने के बाद भी अपनी गलती मानने की जगह डॉक्टर ने महिला पर ही गलत जानकारियां देने का दोष मढ़ दिया। इस तरह के कई मामले लगातार सामने आ रहे हैं लेकिन रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं।
बुजुर्गो और कुंवारों तक की नसबंदी!
प्रदेश में टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टरों ने अमानवीयता की तमाम हदें पार कर बुजुर्गो से लेकर कुंवारों तक की नसबंदी कराने में हिचक नहीं दिखाई जा रही है। हालांकि लगातार मिली शिकायतों के बाद राज्य मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर आपत्ति जताई है। पिछले साल सिवनी जिले में छह बुजुर्गो और कुंवारों के अलावा मुरैना व भिंड में कुंवारों की नसबंदी किए जाने के मामले चर्चा में आए। जबलपुर की आयोग मित्र समिति के संयोजक डॉ. एससी वटालिया ने बताया कि उनके पास लखनादौन में बुजुर्गो और कुंवारों की नसबंदी किए जाने की शिकायतें आई थीं जिसे उन्होंने आयोग के पास भेजा था। उन्हें पता चला है कि आयोग ने जांच के बाद शिकायत को सही पाए जाने पर सख्त आपत्ति जताई है। वह कहते हैं कि राज्य सरकार ने स्वास्थ्य केंद्र से लेकर जिला चिकित्सालयों तक के लिए नसबंदी का लक्ष्य तय किया है। इसी के चलते प्रेरक अपने हिस्से की राशि पाने और चिकित्सक लक्ष्य पूरा करने के लिए उम्र और सम्बंधित व्यक्ति के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल किए बिना ही आपरेशन कर देते हैं। मुरैना में एक अविवाहित और भिंड में मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति की नसबंदी कर दिए जाने का मामला सामना आया है। अगर पिछले पांच साल में मिली शिकायतों पर नजर डालें तो प्रदेश में करीब 3 दर्जन विधवा, 50 से अधिक अविवाहित और 182 बुजुर्गों के नशबंदी ऑपरेशन किए जाने के मामले प्रकाश में आए हैं। इस मामले में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा कहते हैं की इस तरह की घटनाएं न हो इसके लिए दिशा-निर्देश अधिकारियों को दिए गए हैं। साथ ही इस मामले की जांच का आदेश दे दिया गया है।
नसबंदी के बाद 279 महिलाएं गर्भवती
प्रदेश में नसबंदी करने का दबाव डॉक्टरों पर किस तरह है इसका अंदाजा सी से लगाया जा सकता है की पिछले पांच साल में ऑपरेशन के बाद भी 279 महिलाओं के गर्भवती होने का मामला प्रकाश में आया है। सबसे हैरानी की बात यह है की अकेले नरसिंहपुर जिले में बीते तीन वर्षो से परिवार नियोजन का ऑपरेशन कराने वाली 89 महिलाएं फिर गर्भवती हो गई है। इनमें से 71 महिलाओं को सरकार ने नसबंदी ऑपरेशन के असफल होने पर अनुदान भी दिया। इसका खुलासा विधानसभा में स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने किया था। नरसिंहपुर जिले में वर्ष 2010 से 2012 के मध्य तीन वर्षो में 28 हजार 452 महिलाओं का नसबंदी ऑपरेशन किया गया। इनमें से 89 महिलाएं फिर गर्भवती हो गई। सरकार ने प्रति महिला को 30 हजार रूपए के मान से अनुदान दिया है।
घाव बन गए नासूर
पिछले पांच साल में हुए नसबंदी के ऑपरेशन के बाद हजारों महिलाओं का छोटा सा घाव नासूर बन गया है। नसबंदी के दौरान टारगेट पूरा करने के लिए डॉक्टर द्वारा की गई लापरवाही से कई महिलाओ को जीवन-मृत्यु के दौर से जूझना पड़ रहा है। प्रदेश के बैतूल, झाबुआ, खरगौर, बालाघाट, मुरैना, देवास, रायसेन सहित करीब दो दर्जन जिलों में ऐसे केस सामने आए हैं जिसमें नसबंदी के बाद महिलाओं के पेट में घाव होने की बात सामने आई है। जानकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति संभवत: नसबंदी के दौरान दूषित इंजेक्शन देने के कारण ही हुई। ये महिलाएं पेट के अंदर घाव लेकर जिंदगी और मौत के बीच दर्द में जझती रही। कुछ महिलाओं ने इलाज करा कर राहत पा लिया। कुछ अभी भी दर्द में जी रही हैं। फिलहाल ऐसे मामले में बैतूल दनोरा, बडोरा, गौथान और खेडला में वर्ष 2012 में नसबंदी करवाने वाली महिलाओं की अब तक जारी दिक्कतों का खुलासा हुआ है। उस समय ऑपरेशन के बाद इन महिलाओं को 600 रूपए दिए गए, लेकिन औसतन सभी को घाव ठीक करने में 3 से 4 हजार रूपए खर्च करना पड़ गया है। महिलाओं की यह स्थिति संभवत: इसलिए हुई कि इन्फेक्टेड इंजेक्शन का इस्तेमाल किया गया। अब भी उपचार के बावजूद हाल ऐसा है कि ऑपरेशन से पहले लगाए जाने वाले पेट के इंजेक्शन की जगह महिलाओं को दर्द होता है। पीडि़तों में शामिल सविता का कहना है कि नसबंदी प्रोत्साहन के लिए मिलने वाले 600 रूपए कब खत्म हो गए पता ही नहीं चला ऊपर से घाव का इलाज कराने के लिए कर्ज लेना पड़ गया।
अगर हम राज्य सरकार के परिवार कल्याण कार्यक्रम विभाग के नसबंदी अभियान की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखें तो पता चलेगा कि साल के आखिरी महीनों, यानी नवंबर से मार्च तक की अवधि में यह सबसे तेज रहता है। ज्यादातर टारगेट साल के आखिरी तीन माह में ही पूरे किए जाते हैं। मिसाल के लिए नवंबर में 60171 नसबंदी ऑपरेशन के बाद अगले माह इससे दोगुने और मार्च में चार गुने तक नसबंदी की जा रही है। जाहिर तौर पर आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता को इसके लिए सरकारी स्तर पर टारगेट दिया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य और राजस्व विभाग से जुड़े अपने जमीनी अमले को इस साल 7.2 लाख नसबंदी ऑपरेशन का टारगेट रखा है, जो राज्य की कुल आबादी का 10 फीसदी है। सरकार की मध्य अवधि की हेल्थ सेक्टर पॉलिसी में कहा गया है कि सरकार महिलाओं के बजाय पुरुषों की नसबंदी पर ज्यादा जोर देगी। लेकिन हो रहा है इसका उल्टा। राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल से दिसंबर 2011 के दौरान 2.74 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 14 हजार से कुछ ऊपर है, जबकि महिलाएं करीब 2.60 लाख हैं। यानी 80 फीसदी से अधिक नसबंदी महिलाओं की हुई। इसी तरह अप्रैल से दिसंबर 2012 के दौरान 2.76 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 23 हजार के करीब थी। वहीं अप्रैल से दिसंबर 2013 के दौरान 3.09 लाख से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन किए गए, जिनमें पुरुषों की संख्या महज 40 हजार के आसपास थी।
आदिवासी जिलों में महिलाओं की हो रही नसबंदी
मध्यप्रदेश के 22 आदिवासी बहुल जिलों में से सात ऐसे हैं, जहां पुरुष नसबंदी का आंकड़ा सौ को भी पार नहीं कर पाया, लेकिन इसके मुकाबले महिलाओं की नसबंदी की संख्या कहीं 12 तो कहीं 20 गुनी से भी अधिक है। अकेले अलीराजपुर जिले में नसबंदी अभियान 34 फीसदी पीछे है, जबकि अनूपपुर में यह 45 फीसदी तो गुना में 46 फीसदी तक पिछड़ा है। एक और आदिवासी जिले डिंडोरी में 13 पुरुषों ने ही नसबंदी के प्रति दिलचस्पी दिखाई। इसके मुकाबले अफसरों ने 2800 से ज्यादा महिलाओं की नसबंदी की है। यह जिला बैगा आदिमजाति का घर है, जिन्हें केंद्र सरकार ने पीटीजी का दर्जा दिया हुआ है। बैगा समुदाय की जनसंख्या तेजी से घट रही है, साथ ही कुपोषण इस जिले में चरम पर है। इसके चलते बच्चों की लगातार मौतें हो रही हैं। फिर भी सरकार का नसबंदी अभियान इस जिले में पूरे जोर पर है। बैतूल के आदिवासी बहुल 10 ब्लॉक में पटवारी से लेकर तहसीलदार तक को गोंड और कोरकू आदिवासियों की नसबंदी कराने के आदेश दिए गए हैं। पिछले एक दशक में दोनों आदिम जातियों की आबादी 11 फीसदी की दर से घट रही है। इसके बावजूद अधिकारी प्रोजेक्ट राशि का प्रलोभन देकर किसी भी तरह से उन्हें नसबंदी के लिए तैयार करने में जुटे हुए हैं। कुपोषण जनित बाल मौतों और महिलाओं की नसबंदी पर जोर देने से इस समुदाय के वजूद पर खतरा पैदा हो सकता है। झाबुआ और श्योपुर में भी सरकार इसी तरह से नसबंदी पर जोर दे रही है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी दबी जुबान में यह स्वीकारते हैं कि टारगेट पूरा करने पर विशेष जोर देने का ही नतीजा है कि मध्यप्रदेश में पुरुष नसबंदी के मामलों में 2010-13 के दौरान 124 फीसदी का उछाल आया है।
सरकार ने नसबंदी के प्रति प्रेरित करने के लिए आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को प्रेरक के रूप में माना है, लेकिन वे कैसे पुरुषों को इसके लिए प्रेरित करेंगी, इसका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। साफ है कि राज्य में परिवार नियोजन की नीति बनाने वालों को हमारे समाज की पीढिय़ों पुरानी संस्कृति की भी जानकारी नहीं है। यही कारण है कि सरकारी अस्पतालों में कहीं गरीबी, तो कहीं अन्य किसी भी प्रकार के प्रलोभन के जरिए पुरुषों की नसबंदी कराई जा रही है। यह और बात है कि मुरैना, भिंड, शिवपुरी जैसे उन जिलों में, जहां पुरुषवादी मानसिकता का बोलबाला है, लोग खुद अधिकारियों के झांसे में आने की बजाय, अपनी पत्नियों को आगे कर रहे हैं। भिंड में पिछले साल महज 246 पुरुष ही नसबंदी के घेरे में आए, जबकि महिलाओं की संख्या 3833 रही। यह परिवार नियोजन के साधनों के सुरक्षित विकल्प का अपनी पसंद से निर्धारण करने के स्त्री के अधिकार के खिलाफ भी है।
पांच सालों मेें पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात फीसदी
इसे जागरूकता की कमी कह लीजिये या समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता का एक और सबूत। जनसंख्या विस्फोट की चौतरफा दिक्कतों के बीच आबादी के सरपट दौड़ते घोड़े की नकेल कसने की व्यक्तिगत मुहिम में पुरुषों की भागीदारी महिलाओं के मुकाबले अब भी बेहद कम है। विशेषज्ञों के मुताबिक, परिवार नियोजन के ऑपरेशनों के मामले में कमोबेश पूरे देश में गंभीर लैंगिक अंतर बरकरार है। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश भी अपवाद नहीं है। प्रदेश में पिछले पांच सालों के दौरान हुए परिवार नियोजन ऑपरेशनों में पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात प्रतिशत के आसपास रही यानी नसबंदी कराने वाले हर 100 लोगों में केवल सात पुरुष थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2007-08 से 2012-13 के बीच प्रदेश में कुल 32,49,923 नसबंदी ऑपरेशन किए गए। इस अवधि में केवल 2,37,820 पुरुषों ने नसबंदी करायी, जबकि 30,12,073 महिलाओं ने परिवार नियोजन के लिए इसको अपनाया। बहरहाल, पिछले तीन दशक में नसबंदी के करीब 2,97,000 ऑपरेशन करने का दावा करने वाले डॉ.ललितमोहन पंत इन आंकड़ों से कतई चकित नहीं हैं। प्रसिद्ध नसबंदी विशेषज्ञ पंत ने कहते हैं कि नशबंदी के मामले में कमोबेश पूरे देश में यही हालत है। परिवार नियोजन के ऑपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की हिचक और वहम अब भी कायम हैं। पंत के मुताबिक अक्सर देखा गया है कि महिलाएं अपने तथाकथित 'पति परमेश्वरÓ के बजाय खुद नसबंदी ऑपरेशन कराने को जल्दी तैयार हो जाती हैं। वह कहते हैं कि परिवार नियोजन शिविरों में मुझे कई महिलाएं बता चुकी हैं कि वे इसलिए यह ऑपरेशन करा रही हैं, क्योंकि उनके पति अपनी नसबंदी कराने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं।
उधर, नसबंदी ऑपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की प्रतिक्रिया एकदम उलट बतायी जाती है। पंत बताते हैं कि हम जब परिवार नियोजन शिविरों में नसबंदी ऑपरेशन के बारे में बात करते हैं, तो ज्यादातर पुरुष अपने यौनांग में किसी तरह की तकलीफ की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं। ज्यादातर पुरुषों को लगता है कि अगर वे नसबंदी ऑपरेशन कराएंगे तो उनकी शारीरिक ताकत और मर्दानगी कम हो जाएगी, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं होता। बहरहाल, जैसा कि वह बताते हैं कि देश में वर्ष 1998-99 के दौरान एनएसवी (नो स्कैल्पल वसेक्टमी) के रूप में नसबंदी की नई पद्धति का प्रयोग शुरू होने के बाद इस परिदृश्य में बदलाव की जमीन तैयार होने लगी है। एनएसवी को आम जुबान में नसबंदी की 'बिना चीरा, बिना टांकाÓ पद्धति कहा जाता है। उन्होंने बताया, ज्यादातर पुरुष लम्बे समय तक परिवार नियोजन ऑपरेशनों से इसलिए भी दूर भागते रहे, क्योंकि नसबंदी की पुरानी पद्धति में बहुत दर्द होता था। लेकिन एनएसवी सरीखी नई पद्धति के चलते अब पुरुष झटपट नसबंदी कराके अपेक्षाकृत जल्दी अपने काम पर लौट सकते हैं और इसमें नाम मात्र का दर्द होता है।
मध्यप्रदेश में सारी हदें पार > बालाघाट में गर्भवती महिला की नसबंदी कर दी गई थी जिसकी मौत हो गई। > सतना में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को ही दोबारा ऑपरेशन करने अधिकारियों ने दबाव डाला, नौकरी से निकालने की धमकी भी दी। > बुजुर्गों को बीपीएल सूची से नाम काटने की धमकी दी गई, ताकि वे नसबंदी करवा लें। > नसबंदी करवाने के बदले बंदूक का लाइसेंस देने तक की स्कीम मध्यप्रदेश में चलाई गई। > नसबंदी कराओ मोटरसाइकिल पाओ! > नसबंदी का टारगेट पूरा करने के लिए पिछड़ी जनजाति कोरकू को भी नहीं बख्शा गया। > बैगा महिलाओं की जाति बदलकर नसबंदी किए जाने के कई मामले सामने आ चुके हैं। > जिन अधिकारियों-कर्मचारियों ने टारगेट पूरा नहीं किया, उनकी नौकरी तक छीन ली गई।
जनसंख्या नियंत्रण:केवल नसबंदी, दूसरे विकल्पों पर ध्यान नहीं जन स्वास्थ्य अभियान की संचालिका सुलक्षणा गर्ग कहती हैं कि बढ़ती जनसंख्या को कम करने के लिए गर्भाधान रोकने का सबसे जोखिम भरा तरीका महिलाओं की नसबंदी है। जबकि बाजार में ऐसे ढेरों साधन हैं, जिनसे महिलाओं के लिए जानलेवा साबित होने वाले इस ऑपरेशन से बचा जा सकता है। राज्य सरकार को इन साधनों के बारे में भी विचार करना चाहिए। नसबंदी के आंकड़े दिखाने के लिए राज्य सरकार हर साल बड़े पैमाने पर महिलाओं की नसबंदी कर रही है। नसबंदी के ऑपरेशन में महिलाओं की जान जाने का खतरा तो रहता है, साथ ही ऑपरेशन के बाद महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। नसबंदी कराने वाली महिलाओं की सामान्य शिकायतें कमर दर्द, पेट में दर्द, बैठने व चलने फिरने में परेशानी, मोटापा आदि समस्याएं आती हैं। बाजार में उपलब्ध हैं ढेरों उपाय बाजार गर्भनिरोधक उपायों वाले उत्पादों से भरे पड़े हैं। इनमें से नसबंदी से बचने के लिए सर्वाधिक कारगर 10 साल तक उपयोग में आने वाली कॉपर टी को माना जा रहा है। इसके अलावा गर्भ निरोधक साधन हैं, जिसका उपयोग करने पर नसबंदी कराने की जरूरत नहीं है। सरकार इन उत्पादों के इस्तेमाल को बढ़ावा नहीं दे रही है। पुरुष नसबंदी कारगर महिलाओं के बजाय पुरुषों की नसबंदी को अधिक कारगर और सरल माना जाता है। लेकिन प्रदेश में पुरुष नसबंदी को लेकर फैली भ्रांतियों के कारण यह सफल नहीं हो पा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि पुरुषों का एक छोटा ऑपरेशन करके महिलाओं को बड़ी मुसीबत में डालने से बचा जा सकता है, लेकिन कमजोरी, नपुंसकता आने जैसी भ्रांतियों के कारण पुरुष इसे अपनाने से बचते हैं।
जानलेवा दवा छत्तीसगढ़ में बैन, मप्र में बिक रही धड़ल्ले से छत्तीसगढ़ सरकार ने नसबंदी शिविर में इस्तेमाल की गई छह दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके साथ ही वहां की सरकार ने दवाइयों की सरकारी खरीदी के लिए उज्जैन की दो दवा कंपनियों -मेडिसेफ स्प्रिट और मेडिकेयर स्प्रिट को भी प्रतिबंधित कर दिया है। जिन दवाइयों पर प्रतिबंध लगाया गया है, मेडिकल स्टोर्स को उनकी बिक्री न करने के निर्देश दिए गए हैं। नसबंदी के दौरान जिन महिलाओं की मौत हुई थी, उसमें टेबलेट आइबूप्रोफेन 400 एमजी, टेबलेट सिप्रोसीन 500 एमजी, इंजेक्शन लिग्नोकेन एचसीएल आईपी, इंजेक्शन लिग्नोकेन एचसीएल आईपी, एब्जारबेंट कॉटन वुल आईपी और. जिलोन लोशन आदि दवाइयां इस्तेमाल की गई थीं। ये जानलेवा दवाइयां मप्र में तो बिक रहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ में इनकी बिक्री पर रोक लगा दी गई है। जी फार्मा एवं महावर कंपनी की इन अमानक दवाओं से हुई मौत के बाद मचे बवाल के बाद अब स्वास्थ्य विभाग इन दवाओं की बिक्री की रिपोर्ट तैयार करवा रहा है। खाद्यï एवं औषधि नियंत्रक एवं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी इस बात की जानकारी जुटाने में लगे है कि कितने जिला अस्पतालों ने इन कंपनियों की दवाएं खरीदी हैं और कितने मेडिकल स्टोर्स पर दवाएं बिक रही हैं। पेंडारी नसबंदी कांड में इस्तेमाल टैबलेट सिप्रोसिन- 500 को खुद महावर फॉर्मा प्राइवेट लिमिटेड के संचालक रमेश महावर बनाते थे। वह वर्तमान में मप्र में बैन नहीं है।
कोख काटने का गोरखधंधा भी जोरों पर
एक तरफ सरकारी अस्पतालों में टारगेट पूरा करने के लिए महिलाओं और पुरूषों का पेट चीरा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में 20-25 हजार कमाने के चक्कर में कैंसर का भय दिखाकर किसी भी महिला का गर्भाशय निकाल लिया जा रहा है। डॉक्टर 20-40 साल की युवतियों पर भी रहम नहीं कर रहे हैं। इंश्योरंस कंपनियों के सरकारी एंप्लॉइज के हेल्थ रिकॉर्डस के अनुसार, 25 से 35 साल की तकरीबन 540 महिलाओं में से 100 ऐसी महिलाएं जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच है, अपना यूटरस यानी गर्भाशय निकलवा चुकी हैं। मध्य प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में अनियमित मासिक धर्म का इलाज कराने पहुंची 24 साल की आभा का गर्भाशय एक प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने जरूरी ना होने के बावजूद ऑपरेशन करके निकाल दिया। मीना के गर्भाशय के पास छोटी सी गांठ थी। इलाज करने वाले डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि इसकी वजह से कैंसर होने का खतरा है। एक निजी संस्थान में कार्यरत आभा को डॉक्टरों ने कैंसर का ऐसा भय दिखा दिया की अविवाहित होने के बावजुद उसने गर्भाशय निकालने की सहमति दे दी। जब इस बात की खबर आभा के मंगेत्तर विकास मलिक को लगी तो उसने आभा की रिपोर्ट को एक अन्य डॉक्टर से दिखाया तो उक्त डॉक्टर का कहना है कि जिस समस्या के इलाज के लिए आभा डॉक्टरों के पास गई थीं, उसके लिए गर्भाशय हटाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। हालांकि ऑपरेशन करने वाले अस्पताल के डॉक्टर आभा के मामले को गंभीर बता रहे हैं। वहीं कुछ डॉक्टरों के अनुसार,सच यह है कि कई महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी समस्या के इलाज के लिए केवल सही दवा की जरूरत होती है, न कि ऑपरेशन कर यूटरस निकलवाने की। मध्य प्रदेश के निजी अस्पतालों में महिलाओं के शरीर से गर्भाशय निकालने का धंधा तेजी से फल-फूल रहा है। पूरे राज्य में निजी अस्पतालों में हर साल गर्भाशय निकालने के लिए हजारों सर्जरी की जा रही हैं। सबसे ज्यादा चौंकाने की बात यह है कि सर्जरी कराने वाली 80 फीसदी महिलाओं की उम्र 20-40 के बीच है। ऑपरेशन के कारण महिलाओं में हार्मोनल असंतुलन और ऑस्टियोपोरेसिस की परेशानियां सामने आ रही हैं। शहर व ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी कई पीडि़त महिलाएं हैं जो डॉक्टरों के चंगुल में फंसकर अपनी बच्चादानी निकलवा चुकी हैं। जबकि वैज्ञानिक सत्य यह है कि मात्र 6 से 7 प्रतिशत केसों में ही बच्चादानी का कैंसर होता है, जिन्हें निकलवाने की आवश्यकता होती है। बच्चादानी निकालने का घिनौना खेल पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से चल रहा है। जबलपुर के नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही हर माह लगभग आधा सैकड़ा से अधिक ऐसे मरीज पहुंच रहे हैं, जिनको किसी न किसी निजी डॉक्टर ने बच्चादानी निकलवाने की सलाह दी थी। मेडिकल अस्पताल में पीडि़त महिलाओं की जांच के बाद उन्हें दवाओं से ही ठीक कर दिया गया। कुछ निजी अस्पताल संचालक एजेंट के जरिए इस घिनौने खेल को खेल रहे हैं। एसोसिएट प्रोफेसर, मेडिकल कॉलेज जबलपुर डॉ.कविता एन सिंह कहती हैं कि जनरल सर्जन बच्चादानी का आपरेशन कर रहे हैं। ये स्त्री रोग विशेषज्ञों से सलाह मशविरा नहीं करते हैं। जब केस बिगड़ जाता है तब वे इसे विशेषज्ञों के पास रैफर कर देते हैं। इस प्रकार के जनरल सर्जन मरीजों को भ्रमित करके बच्चादानी का आपरेशन कर रहे हैं। मेडिकल अस्पताल में एक माह में लगभग आधा सैकड़ा से अधिक केस इस प्रकार के आ रहे हैं, जिनको जनरल सर्जन द्वारा बच्चादानी निकालने की सलाह दी जाती है। जबकि हकीकत यह है के 100 केस में से 7 केस में ही बच्चादानी निकालने की आवश्यकता होती है। शिपुरवा ग्राम, जिला सीधी निवासी शांति पटेल (45 वर्ष) को पेट दर्द की शिकायत थी। शांति के परिजन ने उसका इलाज सीधी के एक डॉक्टर से कराया। उसने सोनोग्राफी कराने पर बच्चादानी में गांठ बताई। उसका आपरेशन किया, लेकिन आपरेशन के बाद परिजन को पेट से निकाली गई गांठ नहीं बताई। शांति को पेट दर्द के साथ रक्तस्राव की शिकायत हुई। शांति के पति रामकृष्ण ने उसी डॉक्टर से शांति की जांच कराई। जांच के बाद डॉक्टर ने शांति की बच्चादानी निकालने कहा। यह सुनकर वह घबरा गई। उसने मेडिकल अस्पताल के स्त्री रोग विभाग में जांच कराई। जहां स्

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