गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

राम मंदिर का कलंक कुंभ में धोएंगे हिन्दूवादी

विनोद उपाध्याय भाजपा के एजेंडे में कभी सबसे ऊपर दिखाई देने वाला अयोध्या मामला अब या तो उनके एजेंडे में दिखाई ही नहीं देता है और अगर देता भी है तो वह सबसे आखिर में होता है। वहीं इस मामले पर हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इस मसले पर सामाजिक दायरा भी पूरी तरह से बदल गया है। वह हिंदू जो कभी अयोध्या में कारसेवा के नाम पर खड़ा हो जाता है वह आज इस मुद्दे पर भड़कता नहीं है। क्योंकि हिन्दूवादी संगठनों के बहकावे में आकर उसने बावरी मस्जिद का विध्वंस तो कर दिया लेकिन उसे राम मंदिर आज तक नहीं मिला। इस बात का एहसास सभी हिन्दूवादी संगठनों को भी हो गया है। इसलिए इलाहाबाद में होने वाले कुंभ में एक बार फिर से हिन्दूवादी संगठन मंदिर का मसला उठाकर राम मंदिर नहीं बनवाने का जो कलंक उन पर लगा है उसे धोने की तैयारी कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े अन्य संगठन इस मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से उठाने की रणनीति बना रहे हैं। अगले वर्ष कुंभ के अवसर पर सात फरवरी को विश्व हिंदू परिषद के तत्वावधान में आयोजित होने वाले संत सम्मेलन में इस संबंध में अमली नीति तैयार की जाएगी। इस मसले पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि कुंभ मेले में संत जो भी फैसला लेंगे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके निर्णय को सफल बनाएगा क्योंकि राम जन्म भूमि आंदोलन ही देश में एक मात्र आंदोलन है, जिससे संघ पूरी तरह से जुड़ा है। संतों के ऐलान के बाद जनांदोलन में संघ कार्यकर्ता पूरी शक्ति से जुट जाएंगे ताकि अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो सके। मोहन भागवत की टिप्पणी के बाद से ही देश में एक बार फिर से राम मंदिर और बाबरी विध्वंस को लेकर बहस छिड़ गई है। आज 6 दिसंबर को अयोध्या विवाद को दो दशक बीत गए हैं। इन दो दशकों में भारत में हुए राजनीतिक और सामाजिक बदलाव आज सभी के सामने हैं। अयोध्या मामले को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार में आने के बाद इस मसले पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी, लिहाजा ज्यादा नहीं चल सकी। उसके बाद देश में अयोध्या मामले में आए फैसले के बाद पसरी शांति और सौहार्द के माहौल ने धर्म के तवे पर राजनीति की रोटी सेकने वालों के होश उड़ गए। देश में होने वाली अराजकता और उसमें गिरने वाली लाशों पर राजनीति करने की योजना बनाने वाले कुछ राजनीतिक दलों को अपनी जमीन खिसकती महसूस होने लगी। हालांकि आज भी कुछ राजनीतिक और धार्मिक संगठन अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए विध्वंसक बयानों को प्रसारित करने से बाज नहीं आते हैं। ऐसे संगठनों में कुछ खुद को हिन्दू समाज का पैरोकार बताते हैं तो कुछ खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। लेकिन इनकी वास्तविकता दोनों समाज के प्रबुद्ध लोगों को पता है। अयोध्या यानी प्राचीन कौशल की राजधानी। दशरथनंदन राम की नगरी। सरयू किनारे बसी इस पवित्र पुरी को अयोध्या इसलिए कहा गया क्योंकि ये अजेय थी। इससे युद्ध संभव नहीं था लेकिन ये पुराणों की बात है। आज हम जिसे अयोध्या कहते हैं, वो साक्षात युद्धभूमि है। उसके नाम पर लड़ा जा रहा है आजाद भारत का सबसे बड़ा युद्ध, राजनीति और कानून के मोर्चे पर एक साथ। राजनीति के मोर्चे पर इसका असर सबने देखा है। बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना भारत विभाजन के बाद दिलों को तोडऩे वाली सबसे बड़ी घटना थी। इसके लिए 6 दिसंबर यानी संविधान निर्माता डॉ.बीआर अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस का चुनाव यूं ही नहीं किया गया था। दरअसल, इसके जरिये संविधान में दर्ज उस सपने को आग में झोंकने की कोशिश हुई जिसका नाम है धर्मनिरपेक्षता। राममंदिर के हिमायतियों का तर्क है कि मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर उसके सिपहसालार मीर बाकी ने 1528 में रामजन्मभूमि मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई। लेकिन हैरानी ये है कि बाबर के समय के कवियों, संतों या इतिहासकारों ने इस घटना को कहीं दर्ज नहीं किया। और इनमें रामभक्ति के शिखर संत तुलसीदास भी हैं। संवत सोरह सौ इकतीसा, करउं कथा हरि पद सीसा...गोस्वामी तुलसीदास ने इसी अयोध्या में संवत सोलह सौ इकतीस यानी सन 1574 में मानस की रचना शुरू की। ये जमाना अकबर यानी बाबर के पोते का था। लेकिन उन्होंने कहीं अपने आराध्य के मंदिर तोड़े जाने का जिक्र नहीं किया। उलटे अपने आलोचकों को जवाब देते हुए कवितावली में वे लिखते हैं—तुलसी सरनाम गुलामु है राम को जाके रुचे सो कहै कछु ओऊ, मांग के खाइबो मसीज में सोइबो, लैबै का एक, न देबै का दोऊ। ध्यान दीजिए, तुलसी मसीज यानी मस्जिद में सोने की बात कर रहे हैं। तो क्या उस समय अयोध्या के रामभक्तों की आंख में बाबरी मस्जिद खटकती नहीं थी। इतिहास के जानकारों के अनुसार,ये मामला 1850 के आसपास पहली बार उठा जब अंग्रेज अवध को हड़पने की फिराक में थे। उन्होंने कही-सुनी बातों को हवा दी और 1853 में इसे लेकर टकराव भी हुआ। तब अवध पर नवाब वाजिद अली शाह का राज था, जिन्होंने बलवाइयों को सख्ती से कुचला था। यहां तक कि उनके सरगना अमेठी के मौलवी अमीर अली के कत्ल का हुक्म भी दे दिया था। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के साथ हिंदू-मुस्लिम एकता परवान चढ़ी। लेकिन अंग्रेज मसले का हल नहीं चाहते थे। उन्होंने ताज छीनकर नवाब को कलकत्ता भेज दिया और 18 मार्च 1858 को अयोध्या के कुबेर टीले के पास हनुमान गढ़ी के पुजारी बाबा रामचरण दास और फैजाबाद के अमीर अली को फांसी दे दी, जो हिंदू-मुसलमानों के बीच समझौते की अगुवाई कर रहे थे। 1885 में पहली बार ये मसला अदालत पहुंचा लेकिन मुकदमा बाबरी मस्जिद पर नहीं, बल्कि सामने बने चबूतरे पर छत डालने के लिए था, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। बाद में आजादी की लड़ाई के तेज होने के साथ ये मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। गांधी जी के रंगमंच पर आने के बाद तो सांप्रदायिक जहर घोलने की कोशिशें खासी कमजोर पड़ गईं। लेकिन आजादी मिलने के बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे। उत्तर प्रदेश के 18 समाजवादी विधायकों ने आचार्य नरेंद्रदेव के नेतृत्व में कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। 1948 के आखिर में उपचुनाव हुए। आचार्य नरेंद्र देव अयोध्या से मैदान में थे। नरेंद्र देव को हराने पर आमादा कांग्रेस ने देवरिया के साधु बाबा राघवदास को मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के नास्तिक होने का सवाल उठाया गया। कहा गया कि ये धर्म और अधर्म की लड़ाई है। इसी में रामजन्मभूमि का मुद्दा भी उठा। नतीजा बाबा राघवदास चुनाव जीत गए। और इसी के साथ अयोध्या में सदियों से जले धर्म के दीए में राजनीति का तेल पड़ गया। रामजन्मभूमि के मुद्दे में फिर से जान पड़ गई थी। सरकारी संरक्षण ने इसका रंग गाढ़ा कर दिया। नतीजतन, 22 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गईं। कांस्टेबल माता प्रसाद ने 23 दिसंबर को अयोध्या पुलिस थाने में घटना की एफआईआर दर्ज कराई। इसके मुताबिक 50-60 लोगों का एक गिरोह मस्जिद की चहारदीवारी का दरवाजा तोड़कर या सीढ़ी के सहारे दीवार फांदकर घुस आया। इन लोगों ने मस्जिद में भगवान की मूर्ति स्थापित कर दी। लेकिन मंदिरवादियों ने प्रचारित किया कि राम प्रकट हुए हैं। बताते हैं कि बात प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत को तार भेजकर मूर्तियां हटाने को कहा, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। उल्टे, फैजाबाद के जिलाधिकारी केके नैयर ने इमारत को विवादित घोषित कर ताला डलवा दिया और सरकारी कब्जे में ले लिया। 19 जनवरी 1950 को सिविल जज ने हिंदुओं को बंद दरवाजे के बाहर से भगवान के दर्शन-पूजन की इजाजत दे दी और मुसलमानों पर विवादित स्थल के 300 मीटर के दायरे में आने पर पाबंदी लगा दी। करीब 36 साल तक भगवान को ताले में बंद रख गया। 1986 में जिला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश दिया। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने शिलापूजन के जरिये इस मुद्दे को खूब गरमाया और समझौते की कोशिशें बेकार कर दी गईं। 1990 में मंडल कमीशन के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की। बीजेपी ने रामजन्मभूमि को एजेंडा बना लिया। इसके बाद से अयोध्या आंदोलनकारियों की बंधक बनती रही। आखिरकार 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। उसके बाद देश में क्या हुआ सभी जानते हैं। लेकिन अगले साल होने वाले कुंभ में एक बार फिर से राम मंदिर के लिए रणनीति बनाने की घोषणा कर संघ ने अयोध्या और फैजाबादवासियों की नींद उड़ा दी है। अयोध्या के बाबू बाजार में पीढिय़ों से भक्तों के लिए खड़ाऊं बनाने वाले मो.सलीम कहते हैं कि अयोध्या पर हो रही राजनीति से डर सिर्फ मुसलमानों में ही नहीं है। यहां के हिन्दू भी घबराए हुए हैं। इसी बाजार में कपड़े की दुकान चलाने वाले अयोध्या पाल कहते हैं कि भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या में रामलला का मंदिर बनवाने के लिए कई संगठनों, धर्माचार्यों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा आंदोलन किया जाता रहा है। पर राम की समाधिस्थल गुप्तारघाट की सुध लेने वाला की कोई नहीं है। यह खंडहर में तब्दील हो रहा है। यहां के हालात देखकर लगता है कि भविष्य में यह प्राचीन धरोहर भी लुप्त हो जाएगा। बचेगा तो बस स्वामित्व को लेकर झगड़ा, जिसके लिए कई लोगों के बीच मुकदमेबाजी चल रही है। अयोध्या से 10 किलोमीटर दूर सरयू नदी के किनारे बने गुप्तार घाट के बारे में मान्यता है कि यहीं पर सतयुग में अयोध्या के राजा राम ने जलसमाधि ली थी। यहां पर चरण पादुका मंदिर, राम जानकी मंदिर, चक्र हरजी विष्णु मंदिर धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। यहां राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा बनवाई गई प्राचीन गुप्तारगढ़ी भी है। भाजपा, विहिप और कई हिन्दू संगठन राम के नाम की माला जपते हैं, लेकिन इसकी दुर्दशा पर किसी को चिंता नहीं है। इसके इतर बाबरी विध्वंस को पूरी तरह भूलकर अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी को सुख-चैन से बिताने के लिए संघर्ष कर रहे अयोध्यावासियों के मन में एक बार फिर से खौफ का वातावरण घर कर गया है।