शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

परिवार में सिमटता मुलायम सिंह का समाजवाद





अगले दो-तीन साल भारतीय राजनीति के लिए काफी महत्वपूर्ण होंगे. इस दौरान कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के अलावा 2014 में आम चुनाव भी होने हैं. सबसे अहम चुनाव देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के माने जा रहे हैं, जो आगामी छह माह के भीतर संपन्न हो जाएंगे. यहां के चुनाव पर हमेशा देश भर के राजनेताओं और जनता की नज़र रहती है. यहां मिली जीत-हार का प्रभाव केंद्र तक पड़ता है. यही वजह है कि सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव से काफी पहले ही रण के लिए बिगुल बजा दिया. कांग्रेस-भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े दलों ने अपने-अपने महारथियों को चुनावी दंगल में उतार रखा है. वहीं बसपा सत्ता का भरपूर फायदा उठा रही है. बसपा प्रमुख ने एक बार फिर अपनी पार्टी को सत्ता में लाने के लिए मोर्चा संभाल लिया है. बसपा के बाद सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी मानी जा रही है. सपा और ख़ासकर 73 वर्षीय मुलायम सिंह के लिए आगामी विधानसभा और 2014 में होने वाले आम चुनाव काफी मायने रखते हैं. कुछ राजनीतिक पंडित भविष्यवाणी कर रहे हैं कि ये मुलायम सिंह के नेतृत्व में लड़े जाने वाले आख़िरी चुनाव साबित हो सकते हैं. इसके बाद सपा को कोई न कोई नया कर्णधार चाहिए. नया कर्णधार कौन होगा, इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन संकेत यही हैं कि मुलायम अपने बाद भी सपा की बागडोर अपने परिवार में ही रखना चाहेंगे. सपा के नए कर्णधार मुलायम के बड़े बेटे अखिलेश यादव हो सकते हैं और छोटे बेटे प्रतीक भी. प्रतीक का नाम लिए जाने पर काफी लोगों को अटपटा लग सकता है, क्योंकि वह अभी राजनीति से दूर है. उसने राजनीति का ककहरा भी नहीं पढ़ा है, लेकिन कम लोग जानते होंगे कि प्रतीक के पास मैनेजमेंट में मास्टर डिग्री है और उनकी पत्नी अपर्णा के पास राजनीति शास्त्र में. दोनों ने लंदन से शिक्षा हासिल की है. प्रतीक भले ही राजनीति से दूर हों, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंचों से अंजान नहीं. अखिलेश यादव भी मुलायम के लिए चिंता का विषय हैं. वह सपा को आगे ले जाने में पूरी ताक़त लगाए हुए हैं, लेकिन उनमें नेताजी वाली बात नहीं है. दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का दबाव भी बढ़ता जा रहा है.

समाजवाद आई बबुआ, धीरे-धीरे आई. बेटा से आई, बहु से आई. भतीजा से आई, भाई से आई. मुलायम सिंह यादव के लिए समाजवाद की नई परिभाषा यही है. उन्हें दूसरों पर भरोसा नहीं, इसलिए अपने परिवार के बूते ही समाजवाद लाने का सपना देख रहे हैं. लेकिन क्या उत्तर प्रदेश की जनता उनके इस समाजवाद को स्वीकारेगी?

प्रतीक राजनीति में आएंगे, यह बात किसी को अबूझ पहेली लगे, लेकिन यह हक़ीक़त है. पिता मुलायम सिंह को उनके लिए भी ठीक वैसे ही रास्ता बनाना होगा, जैसा उन्होंने अखिलेश के लिए तैयार किया. संभावना इस बात की है कि प्रतीक 2014 के आम चुनाव में सपा की ओर से साइकिल की सवारी कर सकते हैं. उन्हें मुलायम अपने वर्चस्व वाली किसी संसदीय सीट से प्रत्याशी बना सकते हैं. यह सीट संभल, बदायूं या बहुत उम्मीद है कि इटावा भी हो सकती है. संभल संसदीय सीट इस समय बसपा के पास है, लेकिन मुलायम की वहां अच्छी पकड़ है. इस सीट पर सपा भी अपनी जीत दर्ज करा चुकी है. इटावा संसदीय सीट पर सपा के प्रेमदास कठेरिया विराजमान हैं, जो मौक़ा पड़ने पर प्रतीक के लिए अपनी दावेदारी से पीछे हट जाएंगे. बदायूं की संसदीय सीट भी सपा के खाते में है, जिस पर मुलायम के भतीजे धर्मेंद्र का क़ब्ज़ा है. फिलहाल तो प्रतीक घूमने-फिरने में मस्त हैं, लेकिन हो सकता है कि विधानसभा चुनाव के समय वह सपा के मंच पर दिखें. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि मुलायम सिंह प्रतीक को लेकर काफी गंभीर हैं. वह साधना के स्वभाव से भी अंजान नहीं हैं. कहा जा रहा है कि नेताजी प्रतीक को देर-सबेर राजनीति में लाएंगे ज़रूर, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि उनकी राह में कोई रोड़ा न आए यानी जीत सुनिश्चित होने के बाद ही प्रतीक को मैदान में उतारा जाएगा. मुलायम प्रतीक का हश्र बड़ी बहू डिंपल जैसा नहीं चाहेंगे. डिंपल फिरोज़ाबाद संसदीय सीट के उपचुनाव में तमाम दावों के बीच कांग्रेस के उम्मीदवार राजबब्बर से हार गईं थीं, जिससे नेताजी की काफी फज़ीहत हुई थी. अगर प्रतीक को लोकसभा नहीं भेजा जा सका तो उनके लिए राज्यसभा का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है.

इस बार मुलायम सिंह में काफी बदलाव नज़र आ रहा है. जो मुलायम सिंह पिछले चुनावों तक अपने दम पर, दबंगई से फैसले लेकर और चुनौतियां स्वीकार करके चुनावी संग्राम फतेह कर लेते थे, उन्हें अब दबाव में काम करना पड़ रहा है. पूरे राजनीतिक जीवन में अपने फैसलों पर अटल रहने वाले मुलायम इस बार किसी भी फैसले पर अटल नहीं दिख रहे हैं. उनमें जुझारूपन, दृढ़ इच्छाशक्ति, तत्काल निर्णय लेने की क्षमता घटी है. अब वह सबके साथ समान व्यवहार करने और जमीन से जुड़े नेताओं-पदाधिकारियों को स्नेह देने वाले नेता नहीं रहे. ये सारे बदलाव उनमें तबसे दिखाई दे रहे हैं, जबसे अमर सिंह सपा में आए. अब अमर को भी सपा से बाहर हुए जमाना हो गया, लेकिन मुलायम ने एक बार जो ढर्रा पकड़ लिया, उसे फिर नहीं बदला. उनका वह धोबी पाट अब नहीं दिखता, जिससे सामने वाला चारों खाने चित्त हो जाता था. उम्र बढ़ने के साथ मुलायम की हनक-धमक कम हो गई है. अब दबाव डालकर उनका निर्णय बदलवा लिया जाता है. जैसा कि हाल में सुल्तानपुर के लम्हुआ विधानसभा क्षेत्र में देखने को मिला, जहां पहले संतोष को टिकट दिया गया, दबाव पड़ा तो संतोष का टिकट काटकर अनिल पांडेय को दे दिया गया. अनिल तैयारी करने लगे, तभी दोबारा संतोष को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. फिर अनिल के नाम की घोषणा हुई और अंत में सुरभि शुक्ला को प्रत्याशी घोषित कर दिया गया. सपा प्रमुख को क़रीब से जानने वालों का कहना है कि नेताजी बात के धनी हुआ करते थे, उनकी बात पत्थर की लकीर होती थी, इसकी वजह से उन्हें कई बार नुक़सान भी उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी इसकी चिंता नहीं की. यह बात अब नेताजी में नहीं रही. इसी का फायदा उनका परिवार उठा रहा है. दबाव के चलते उन्होंने चालीस प्रत्याशियों के टिकट बांटने के बाद काट दिए, जबकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ. मुलायम को कुछ फैसले परिवार के दबाव में लेने पड़ रहे हैं तो कई फैसले बदलने पड़ रहे हैं. वह पत्नी साधना की चचेरी बहन मधु गुप्ता को लखनऊ का मेयर और सांसद बनाने की भी कोशिश कर चुके हैं. मधु के डॉक्टर पति अशोक कुमार गुप्ता मुलायम की मेहरबानी से सूचना आयुक्त रह चुके हैं. परिवारवालों की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह पर भारी पड़ रही है. ताज़ा मिसाल है, उन्हें अपने सा़ढू प्रमोद गुप्ता (साधना के बहनोई) को टिकट देना पड़ा, जिन्हें औरेया ज़िले की विधूना सीट से कई नेताओं की दावेदारी खारिज कर सपा प्रत्याशी बनाया गया. उम्मीद है कि वह अपनी दूसरी बहू अपर्णा के लिए भी कोई राह ज़रूर निकालेंगे.

तौर-तरीक़ों में बदलाव ने उन्हें तन्हा कर दिया है. सपा के खांटी (समर्पित) नेता उनसे अलग हो चुके हैं. बेनी प्रसाद वर्मा एवं राजबब्बर जैसे नेताओं की बेरुख़ी ने मुलायम को कहीं का नहीं छोड़ा. जो नेता गए, उनमें से आजम को छोड़ किसी ने दोबारा पार्टी की तऱफ रुख़ नहीं किया. आजम की दूसरी पारी भी कोई खास कमाल नहीं कर पाई. उनके विवादास्पद बयानों से मुसलमान ख़ुश तो नहीं हो रहे, लेकिन हिंदू मतदाता सपा से नाराज़ होते जा रहे हैं. आजम सपा के लिए कितने अहम हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए उनकी कहीं से मांग नहीं हो रही है. लोग मुलायम और अखिलेश के अलावा किसी नेता को प्रचार के लिए ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, चाहे शिवपाल यादव हों या फिर मोहन सिंह. अखिलेश की तेजी और आजम की वापसी के बीच शिवपाल अलग-थलग पड़ गए हैं. आजम की वापसी और पार्टी में जगह-जगह दख़लंदाज़ी ने रशीद मसूद जैसे नेताओं को बाग़ी बना दिया. मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए आजम खां पर नेताजी का ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास कहीं सपा की लुटिया न डुबो दे, इस बात पर पार्टी के अंदर बहस होने लगी है. आजम के कारण अहमद हसन जैसे क़द्दावर नेताओं ने ख़ुद को किनारे कर लिया.

मुलायम चौतरफा परेशानियों से घिरे हुए हैं. कल्याण के कारण उनसे मुसलमान नाराज़ हैं तो छोटे भाई अमर सिंह की बेवफाई के बाद पार्टी धन संकट से भी जूझ रही है. पैसे की कमी के कारण प्रचार-प्रसार का काम ठप्प पड़ा है. आर्थिक तंगी से जूझ रही समाजवादी पार्टी को अपने ख़र्चों में कटौती करनी पड़ रही है. बसपा के विज्ञापन प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक छाए हुए हैं, लेकिन सपा के पास विज्ञापनों के लिए पैसा नहीं है. अमर के रहते सपा को कभी आर्थिक मोर्चे पर परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था. दुश्वारियों और बदलती सोच ने समाजवाद के लंबरदार मुलायम को अविश्वसनीय बना दिया है. कभी अंग्रेजी के कट्टर विरोधी रहे नेताजी आजकल अंग्रेजी के मोह में इतने फंस गए हैं कि उन्होंने अपनी वेबसाइट ही अंग्रेजी में लांच कर दी. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही कहते हैं कि यह बदलाव स्वाभाविक है. घर में कान्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चों की संख्या बढ़ रही है तो मुलायम कैसे अलग रह सकते हैं. सपा प्रमुख भले ही स्वयं को पिछड़ों का नेता कहते हों, लेकिन जब उनके परिवार में कोई रिश्ता जुड़ता है तो वह ऊंची जाति वालों से जुड़ता है. वह घर से लेकर बाहर तक अगड़ों से घिरे हैं तो पिछड़ों का दर्द कैसे बांट और समझ सकते हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं कि मुलायम सिंह प्रदेश की जनता, ख़ासकर मुसलमानों को काफी समय तक धोखे में रखकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे, लेकिन अब उनका फरेब चलने वाला नहीं है. वह एक्सपोज हो चुके हैं. बसपा प्रवक्ता ने कहा कि सपा की राजनीतिक हांडी बार-बार नहीं चढ़ने वाली. सपा में कोई दम नहीं रह गया है, वह बाप-बेटों और भाइयों की पार्टी बनकर रह गई है. पूर्व मुख्यमंत्री एवं जनक्रांति पार्टी के अध्यक्ष कल्याण सिंह ने कहा मुलायम सिंह मौक़ापरस्ती की राजनीति करते हैं. उनके अगल-बगल बैठे लोगों ने उन्हें कठपुतली बनाकर रख दिया है. मुलायम सिंह को जनता से अधिक अपने परिवार की चिंता है. उसी चिंता में वह अपना सब कुछ खोते जा रहे हैं, उनका समाजवाद परिवार तक सिमटता जा रहा है.
सामंतवादी मुलायम!

मुलायम सिंह को नई उपमा मिली है सामंतवादी होने की. यह उपाधि उनके क़रीबी दे रहे हैं. बाराबंकी के सपा नेता छोटेलाल यादव खुलेआम कहते घूम रहे हैं कि सामंतवादी मुलायम फॉरवर्ड (अगड़ों) की राजनीति करने लगे हैं. उनका (छोटेलाल) टिकट काटकर नेताजी ने बसपा प्रत्याशी संग्राम सिंह के कहने पर उनके एक कारिंदे धर्मराज सिंह को टिकट बेच दिया, ताकि संग्राम सिंह की जीत पक्की हो सके.
शादी में राजनीति के रंग

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे की शादी अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है. इस शादी में उन्होंने पैसा पानी की तरह बहाया, वहीं मेहमानों में कुछ ऐसे चेहरे शामिल थे, जिनके वहां होने की उम्मीद कम की जा रही थी यानी अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और उद्योगपति अनिल अंबानी. इन तीनों की मुलाकात अमर सिंह के मार्फत मुलायम से हुई थी. अमर सिंह की अनुपस्थिति में इन लोगों की मौजूदगी का लोग अपने-अपने हिसाब से आकलन करते रहे. अमर सिंह से राजनीतिक दुश्मनी का रंग मुलायम के व्यक्तिगत जीवन में भी दिखा. मुलायम ने बहू भोज कार्यक्रम में सभी दलों के नेताओं को बुलाया था, लेकिन बसपा नेता आने की हिम्मत नहीं जुटा सके. जो आए भी तो अपनी गाड़ी का झंडा उतार कर. नौकरशाहों ने आमंत्रण के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई. उन्हें डर था कि सरकार नाराज़ हो सकती है. कुछ ऐसे अधिकारी ज़रूर दिखे, जो मायाराज में किनारे पड़े हैं और मुलायम सरकार बनने की आस लगाए बैठे हैं. कहा जा रहा है कि बहू भोज कार्यक्रम में सरकार की ख़ु़फिया नज़र लगी थी, क्योंकि एलआईयू के लोग कार्यक्रम स्थल के आसपास टहलते देखे गए. वैवाहिक कार्यक्रम में जिन नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें भाजपा के राजनाथ सिंह, कांग्रेस के प्रमोद तिवारी एवं सांसद जगदंबिका पाल प्रमुख थे.
कुछ छूटे तो कई ने किनारा किया

कभी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता उसके प्राण हुआ करते थे. समाजवाद का झंडा लेकर मुलायम जिस तऱफ चल पड़ते, उनके पीछे चलने वालों की भीड़ लग जाती. किसी को भी चंद मिनटों में अपना मुरीद बना लेने की महारथ रखने वाले मुलायम की आवाज़ में दम था और जनता की नब्ज़ पर मज़बूत पकड़. मुलायम को कोई धरती पुत्र कहता तो कोई मुल्ला मुलायम. वह समाजवाद का ऐसा चेहरा थे, जिसमें लोगों को राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण का अक्स दिखता था. क़द के छोटे और इरादों के पक्के मुलायम जब चाहते, कार्यकर्ताओं को साथ लेकर किसी के ख़िला़फ भी हल्ला बोल देते थे. उन्होंने कई लोगों को ज़मीन से उठाकर आसमान पर बैठा दिया. केंद्र में उनकी तूती बोलती थी, वामपंथी उन पर भरोसा करते थे और कांग्रेसी भी मौक़ा पड़ने पर उनसे हाथ मिलाने से परहेज नहीं करते थे. भाजपा को मुलायम सांप्रदायिक पार्टी कहकर चिढ़ाते, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर उससे हाथ भी मिला लेते. 1992 में अयोध्या मुद्दे पर उनके द्वारा बोला गया वाक्य परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा…एक ऐसा डायलॉग बन गया, जिसके बारे में आज भी चर्चा सुनने को मिल जाती है. कुछ लोग मानते हैं कि अयोध्या विवाद में हिंदुओं को उकसाने में मुलायम के उक्त डायलॉग ने अहम भूमिका निभाई थी. इसी बयान के बाद कट्टर हिंदूवादी ताक़तें मज़बूत हो गईं, जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस के रूप में हुई. लंबे समय तक प्रदेश और देश की राजनीति में अहम किरदार निभाने वाले मुलायम के पास कभी साथियों की कमी नहीं रही. सभी वर्ग के नेता उनके साथ जुड़े हुए थे. वह सबको उचित सम्मान देते थे. राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, सुरेंद्र मोहन, अहमद हसन, अशोक वाजपेयी, अमर सिंह, किरण पाल, आजम खां, श्यामा चरण गुप्त, राम नारायण साहू ,रेवती रमण सिंह, ओम प्रकाश सिंह, राजा भैया, राम गोपाल यादव, रशीद मसूद एवं सलीम शेरवानी आदि दमदार नेताओं की एक लंबी-चौड़ी फौज हुआ करती थी. इन्हें साथ लेकर मुलायम ने राजनीति में कई मुक़ाम हासिल किए, लेकिन आज इनमें से कई उनका साथ छोड़कर चले गए हैं, वहीं कुछ ने पार्टी में होते हुए भी ख़ुद को किनारे कर लिया. कभी जाटों के नेता किरण पाल सपा प्रमुख की ताक़त हुआ करते थे. उनके सहारे मुलायम ने कई लड़ाइयां जीतीं, लेकिन अब वह बाहर हैं. मुस्लिम चेहरे के नाम पर अब आजम खां ही दिखाई देते हैं. अहमद हसन जैसे नेता शो पीस बनकर रह गए हैं. ब्राह्मण नेता जनेश्वर मिश्र का निधन हो चुका है और अशोक वाजपेयी ने ख़ुद को हरदोई तक सीमित कर लिया है. दलित चेहरे विशंभर प्रसाद और श्याम लाल रावत अब कहीं नहीं दिखते. सपा के वैश्य नेताओं में वेद प्रकाश अग्रवाल अग्रणी हुआ करते थे, वह भी पार्टी से अलग हो गए हैं. एक अन्य वैश्य नेता श्यामा चरण गुप्त ने अपना दायरा सीमित कर लिया है. पिछड़ों को लुभाने के लिए सपा प्रमुख ने बेनी प्रसाद वर्मा एवं राम नारायण साहू को मोर्चे पर लगा रखा था. बेनी कांगे्रसी हो चुके हैं और साहू भगवा रंग में रंग चुके हैं. गाजीपुर के ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. आजम खां और शिवपाल यादव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. आजम के चलते रामपुर की सांसद जया प्रदा भी मुलायम से दूर हो गईं. कन्नौज के छोटे सिंह यादव, गुन्नौर (बदायूं) की उर्मिला यादव, विनोद उर्फ कक्का एवं महाराज सिंह यादव जैसे दबंग नेता भी पार्टी से दूर चले गए.
एक और पुराना साथी दूर हुआ

आजम खां से नाराज़ और मुलायम की चुप्पी से दु:खी पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद रशीद मसूद ने समाजवादी पार्टी से किनारा कर लिया. अब वह कांगे्रस का परचम लहराएंगे. उन्हें आजम खां से नाराज़गी के अलावा मुलायम सिंह की वादाख़िला़फी का दु:ख है. उन्होंने सपा की सदस्यता के साथ ही राज्यसभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया. ऐन चुनाव के समय सपा से बग़ावत करके कांगे्रस का हाथ मज़बूत करने वाले रशीद मसूद को केंद्र से लालबत्ती और पुन: राज्यसभा सदस्य बनने का तोह़फा मिल सकता है. मसूद ने कहा कि मुलायम अपने पुराने वफादारों के साथ अखिलेश और आजम के माध्यम से ग़लत बर्ताव करा रहे हैं. उन्होंने शिवपाल यादव के साथ हो रहे व्यवहार पर भी चिंता जताई. मसूद ने कहा कि सेहत ठीक न होने और याददाश्त कमजोर हो जाने से मुलायम सिंह की पार्टी पर पकड़ नहीं रही. पार्टी नादान लोगों के क़ब्ज़े में है. आजम खां सपा को बाहर रहकर बर्बाद नहीं कर पाए तो भीतर आकर बर्बाद करने में लगे हैं. मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षित कोटे में आबादी के अनुसार आरक्षण देने की मांग उठाते हुए मसूद ने कहा कि उन्हें 1997 में भी पार्टी से निकाल दिया गया था. बाद में इस मुद्दे पर सार्वजनिक माफी मांगने की बात करके मुलायम सिंह ने उन्हें मनाया और कहा कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग छोड़ दें, सरकार बनने पर पिछड़े मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षण दे दिया जाएगा. 2003 से 2006 तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उन्होंने इस तऱफ ध्यान नहीं दिया. सहारनपुर से पांच बार लोकसभा सदस्य और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे रशीद मसूद ने कहा, मैंने मुलायम सिंह से टिकटों के बंटवारे में मुसलमानों के साथ हुई ज़्यादती सुधारने को कहा, लेकिन आजम के कारण कोई असर नहीं पड़ा. कई ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमानों की तादाद ज़्यादा होने के बावजूद दूसरे लोगों को टिकट दिए गए. शिवपाल यादव के साथ हो रहे बर्ताव के आरोप में दम लगता है. पिछले कुछ दिनों से सपा में जो कुछ चल रहा है, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. बसपा के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन के भाई हसीनुद्दीन को समाजवादी पार्टी में शामिल करने के नाम पर जो नाटक हुआ, उससे पार्टी की काफी किरकिरी हुई. सपा में पहली बार किसी फैसले पर ऐसा विरोधाभास दिखा. विवाद की शुरुआत बीते 13 नवंबर को हुई. इस दिन कानपुर के सर्किट हाउस में हसीनुद्दीन पहली बार सार्वजनिक रूप से शिवपाल यादव के साथ दिखे. घोषणा की गई कि वह पार्टी में शामिल हो गए हैं, लेकिन 20-25 दिनों के बाद सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से जारी बयान में इसका खंडन कर दिया गया. अखिलेश ने जिस तरह चाचा शिवपाल के फैसले को पलटा, उसी तरह शिवपाल ने भी सार्वजनिक रूप से कह दिया कि उन्होंने हसीनुद्दीन को पार्टी में शामिल कराया और वह उनके साथ हैं. इस संबंध में जब मीडिया ने सवाल उठाए तो अखिलेश ने इसे पार्टी का अंदरूनी मामला कहकर पल्ला झाड़ लिया.

चाचा-भतीजे के इस विवाद की आग में कुछ माह पूर्व सपा में लौटे एक नेता घी डालने का काम कर रहे हैं. कहा जाता है कि अखिलेश को क्रांति रथ पर सवार कराने के पीछे इन्हीं नेताजी का दिमाग़ था. उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बीच कुछ लोगों के टिकट काटने में उक्त नेताजी का नाम एक बार फिर चर्चा में आया. सपा का मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले इन नेताजी के चलते शिवपाल यादव के कुछ लोगों के टिकट काट दिए गए, शिवपाल ने विरोध भी किया, लेकिन सपा प्रमुख इसलिए कुछ बोल नहीं सके कि कहीं मुश्किल से बनी बात बिगड़ न जाए, क्योंकि सपा को मुसलमानों को रिझाने के लिए एक मुस्लिम चेहरे की दरकार है. रशीद मसूद ने कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 135 सीटों पर मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस-रालोद गठबंधन और बसपा के बीच होगा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी 8-10 सीटें भी जीत ले तो यह उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. सहारनपुर, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़ और आगरा मंडल में कांग्रेस-रालोद गठबंधन को अधिकांश सीटें मिलेंगी. भाजपा तीसरे और सपा चौथे स्थान पर रहेगी.

द्रौपदी का चीरहरण होता रहा धृतराष्ट्र बैठे रहे

नई दिल्‍ली. गुरुवार रात राज्यसभा में लोकपाल बिल पर मतदान से पीछे हटी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार पर शुक्रवार को हमले तेज हो गए हैं। एक तरफ से मुख्य विपक्षी दल बीजेपी ने सरकार से इस्तीफा मांगा है तो वहीं, टीम अन्ना ने अब सिर्फ लोकपाल के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र को बचाने के लिए आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया है। टीम अन्ना के वरिष्ठ सदस्य शांति भूषण ने गुरुवार रात राज्यसभा में प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कहा कि गुरुवार रात जितने लोग भी टीवी देख रहे थे, उन्होंने देखा कि द्रौपदी का चीरहरण होता रहा और धृतराष्ट्र बैठे रहे।

टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, 'सरकार का मजबूत लोकपाल लाने का दावा खोखला साबित हुआ। लोकसभा के अंदर जो कानून आया, वह बहुत कमजोर था। उसका कोई फायदा नहीं था। बहुमत का गलत इस्तेमाल करके गलत बिल पास करवा लिया गया। लेकिन सरकार का राज्यसभा में बहुमत नहीं है। विपक्ष ने187 संशोधन दिए। लेकिन मोटे तौर पर 3 संशोधनों पर आम राय थी। इसमें सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाना, लोकपाल का चयन और हटाना और लोकायुक्त को इस कानून से बाहर रखा जाए। अगर गुरुवार को वोटिंग होती तो तीनों पास हो जाते। अगर ऐसा होता तो एक ऐसा लोकपाल निकल सकता था, जो शुरुआत करने लायक लोकपाल होता। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी। लालू प्रसाद यादव और आरजेडी को सामने किया गया। शाम से ही टीवी चैनलों पर आने लगा कि सदन की कार्यवाही बाधित की जाएगी। बयानों को लंबा खींचा गया और सदन की कार्यवाही होते-होते 12 बज गए। संसदीय प्रावधानों का गलत इस्तेमाल करके संसद की कार्यवाही बाधित की। यह पूरी तरह से सरकार की साजिश थी। यह संसद और इस देश की जनता के साथ साजिश है।'
दूसरी तरफ, बीजेपी ने राज्‍यसभा की कार्यवाही स्‍थगित होने के लिए सरकार को जिम्‍मेदार ठहराया है। अरुण जेटली ने कहा कि मजबूत लोकपाल बिल पारित करना सरकार का वादा था लेकिन कांग्रेस और यूपीए ने देश को एक मजबूत लोकपाल से वंचित किया। जेटली ने कहा, 'बीजेपी ने सरकार के कमजोर बिल का समर्थन नहीं किया और कहा था कि इसमें संशोधन कर पारित करेंगे। बीजेपी ने अपनी रणनीति पहले ही तय कर दी थी। तीन मुद्दों पर पूरा सदन एकमत था। जब सरकार के वरिष्‍ठ नेता यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्‍त मंत्री प्रणब मुखर्जी संसद में मौजूद थे, ऐसे में सरकार लोकपाल पर वोटिंग से भागने का प्रयास करती है। यह विचित्र स्थिति है। सरकार ने रुकावट पैदा कर खुद को बचाया है।'
सुषमा स्‍वराज ने कहा कि सदन का सत्र खत्‍म होने के बाद दोनों सदनों के नेताओं के संयुक्‍त प्रेस कांफ्रेंस की परंपरा है लेकिन इस सत्र में सरकार की किरकिरी हुई और जाते जाते यह सरकार की मुंह पर कालिख पोत गया। उन्‍होंने राज्‍यसभा में गुरुवार की रात हुई घटना को ‘लोकतंत्र का चीरहरण’ करार दिया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इस साजिश में प्रधानमंत्री भी शामिल थे। उन्होंने कहा कि सरकार के पास तीन विकल्‍प थे। सबसे सहज यह कि ज्‍यादा संशोधन आए तो सेलेक्‍ट कमेटी के पास भेजने का विकल्‍प है। सरकार इस बिल को लाना ही नहीं चाहती है। सरकार को तुरंत इस्‍तीफा देना चाहिए और नए चुनाव कराने चाहिए।

इन महिला राजनीतिज्ञ की सुंदरता के कायल हैं सभी













राजनीति में महिलाओं का होना कोई नई बात नहीं है। अलग-अलग देशों में ऐसी ढ़ेरों महिला राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होने अपनी बुद्धिमता के बल पर अपनी अलग पहचान बनाई है। साथ ही कई ऐसी कुशल महिला राजनीतिज्ञ भी हैं, जिनकी पहचान उनके काम के साथ-साथ उनकी खूबसूरती के कारण भी है।
अगर आप जानना चाहते हैं कि कौन-कौन सी महिला राजनीतिज्ञ ऐसी हैं, जो अपनी सुंदरता के कारण चर्चा में रहती हैं तो नीचे की तस्वीरें देखें...

1. हिना रब्बानी (पाकिस्तानी विदेश मंत्री)



2. शेर्लोट मैरी पोमलाइन कैसीरागी (वेलेंटिनोइस की रानी)


3. रैनिया अल अब्दुल्लाह (जॉडर्न के किंग अब्दुल्लाह द्वितीय की पत्नी)


4. कैथरीन एलिजाबेथ मिडलटन (प्रिंस विलियम की पत्नी)


5. यूरी फुजीकावा (जापान के हैकनोह काउंसिल की सदस्य)



6. ओर्ली लेवी अबेकैसिस (इज़राइल की राजनीतिज्ञ)


7.मारिया रोसारिया करफग्ना (इटली की राजनीतिज्ञ)


8. साराह पॉलिन (अमेरिकी राजनीति की सबसे विवादास्पद राजनीतिज्ञ)


9. यूलिया वोलडिमरिवना टिमोशैंको (यूक्रेन)


10. लेटीज़िया (अस्टूरियास की राजकुमारी)

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

जल, जंगल और आसमान सब खा रहे हैं शिवराज चौहान



विनोद उपाध्याय

चाल, चरित्र और चेहरा जैसी नैतिक बातें करने वाली भाजपा और शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली इस सरकार की चाल लडखड़़ा चुकी है। चरित्र, कांग्रेसियों से ज्यादा बिगड़ चुका है और असली चेहरा भी धीरे-धीरे सामने आ चुका है। इसी सरकार से जुड़े लोग, मसलन प्रदेश के मंत्री, निगम-मंडल अध्यक्ष, विधायक और सांसद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व भ्रष्टाचार की वैतरणी में कूद-कूद कर डुबकियां लगा रहे हैं।

मध्य प्रदेश में जब शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने प्रदेश में सुशासन लाने के लिए सात तरह के माफियाओं पर अंकुश लगाने की कार्ययोजना बनाई थी लेकिन शासन और प्रशासन की मिलीभगत से प्रदेश में जमीन, शराब, वन, ड्रग, खनिज, गोवंश और गरीबों को मिलने वाले केरोसिन और अन्य सामग्री को पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचने देने वाले जैसे सात तरह के माफिया लूट मचाए हुए है। तमाम सेक्टरों में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों के साथ ही प्रदेश में खनिज माफिया ने भी इस सरकार के राज में अपने आप को स्थापित कर लिया है। प्रदेश में अब करीब दस हजार करोड़ का खनिज घोटाला सामने आया है जिसमें न सिर्फ बड़ी माइनिंग कंपनियों ने बल्कि भाजपा के छोटे-बड़े नेताओं ने भी करोड़ों के खेल कर दिए हैं। पूरे प्रदेश में माइनिंग माफिया सक्रिय है। माफिया में केवल खनिज के कारोबारी ही नहीं हैं। बल्कि प्रदेश के अधिकांश मंत्री, भाजपा विधायक, सांसद और संगठन के पदाधिकारियों और उनके रिश्तेदार नेता से बड़े व्यापारी बन गए हैं।

मध्य प्रदेश में खनिज माफिया का कहर सबसे अधिक बुंदेलखंड के पठार पर पड़ रहा है। बुंदेलखंड इलाके की सबसे बड़ी कही जाने वाली सिद्धबाबा की पहाड़ी कभी समुद्र तट से 1,772 मीटर ऊंची हुआ करती थी, लेकिन इसके भीतर छिपे फौलादी ग्रेनाइट के खजाने के कारण इसे पाताल तक खोदा जा रहा है। आधिकारिक तौर पर महोबा से सालाना 65 करोड़ रुपए का ग्रेनाइट कारोबार होता है, लेकिन कबरई मंडी को करीब से जानने वाले बताते हैं कि यह मंडी साल में कम से कम 250 करोड़ रुपए पत्थर सप्लाई करती है। इसे महज आंकड़ों का फर्क मान कर खारिज नहीं कर सकते। हिंदी पट्टी के पांच राज्यों में पड़ताल से पता चलता है कि महोबा का हाइवे नंबर 76 तो अवैध खनन की महज एक मिसाल है।

मध्य प्रदेश विधानसभा में पेश सीएजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 से 2009-10 के दौरान प्रदेश में खनन से जुड़ी गड़बडिय़ों के कारण प्रदेश सरकार को 6,906 मामलों में 1496.29 करोड़ रुपए राजस्व का नुक्सान हुआ। मध्य प्रदेश में पिछले छह साल में अवैध खनन के 24,630 मामले सामने आए। 23,393 मामले अदालतों में दर्ज हुए हैं, यह देश के अन्य सभी राज्यों की तुलना में सर्वाधिक है। मध्य प्रदेश देश का सबसे प्रमुख हीरा उत्पादक राज्य है। इसके अलावा यहां कॉपर (तांबे) के आधिक्य वाला पाइरोफाइलाइट और डाइसपोर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। माफिया साढ़े 37 लाख घन मी. पत्थर रोजाना पहाड़ों से निकालते हैं। इसके लिए वह एक इंच होल में विस्फोटक के बजाय छ: इंच बड़े होल में बारूद भरकर विस्फोट करते हैं। जब यह विस्फोट होते हैं तो आस-पास 15-20 किमी की परिधि में बसने वाले वन क्षेत्रों के वन्य जीव इन धमाके की दहशत से भागने लगते हैं व कुछ की श्रवण क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त विस्फोट से स्थानीय जमीनों में जो दरारें पड़ती हैं उससे ऊपरी सतह का पानी नीचे चला जाता है और भूगर्भ जल बाधित होता है।

इस संपूर्ण बुन्देलखंड ग्रेनाइट करोबार जो कि यहां कुटीर उद्योग के नाम से चल रहा है, में 1500 ड्रिलिंग मशीनें, पांच सैकड़ा जेसीबी, 20 हजार डंपर, 2000 बड़े जनरेटर, 50 क्रेन मशीन और हजारों चार पहिया ट्रेक्टर प्रतिदिन 6 करोड़ 83 लाख, पांच सौ लीटर डीजल की खपत करके और ओवरलोडिंग करते हैं। इन विस्फोटों से रोजाना 30-40 टन बारूद का धुआं यहां के वायुमंडल में घुलकर बड़ी मात्रा में सड़क राहगीरों व खदानों के मजदूरों को हृदय रक्तचाप, टीबी, श्वास-दमा का रोगी बना रहा हैं। इसके साथ-साथ 22 क्रशर मशीनों के प्रदूषण से प्रतिदिन औसतन 2 लोग की आकस्मिक मृत्यु, 2 से तीन लोग अपाहिज व 6 व्यक्ति टीबी के शिकार होते हैं।

जल, जंगल, ज़मीन और आसमान। ऐसी कोई जगह नहीं जो घोटालेबाज़ों और माफियाओं की गिद्ध दृष्टि से बची हो। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के इस खेल में सरकार, विपक्ष, पूंजीपतियों समेत हर वह आदमी शामिल है जिसके संबंध सत्ता में बैठे लोगों से हैं और जिनके पास धनबल, बाहुबल है। मध्य प्रदेश में ऐसे ही खनिज माफिया और घोटालेबाजों ने सरकारी तंत्र की मिलीभगत से 10,000 करोड़ रूपए से अधिक का अवैध उत्खनन किया है और उनकी लूट का सिलसिला अभी भी जारी है।

सुशासन की दुहाई देने वाली शिवराज सरकार भी अवैध खनन के धंधे में दागदार साफ-साफ दिख रही है। शिवराज के दो मंत्रियों पर खनन माफिया को खुलेआम संरक्षण देने का आरोप है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि ये अवैध खनन करा रहे हैं। ये दोनों मंत्री शिवराज के चहेते भी हैं। कोई विभाग खनिज माफिया पर कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। तमाम आरोपों के बावजूद तमाम स्तरों पर सत्यता साबित होने पर भी शिवराज सिंह चौहान अपने इन मंत्रियों को बचाने की कोशिश में लगे हैं। सतना के वन अधिकारी के मुताबिक उचेहरा और नागौद वनक्षेत्र में पचास सालों से अवैध उत्खनन होता आ रहा है। जब भी वन विभाग का अमला कार्रवाई करने जाता है तो वनकर्मियों पर हमला कर दिया जाता है। वन अधिकारियों के मुताबिक यहां कानून का नहीं बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी मंत्री नागेंद्र सिंह के भतीजे का राज चलता है। सूबे में भाजपा के लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह और खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला पर आरोप है कि इनकी मिलीभगत से अवैध खनन का कारोबार रफ्तार से चल रहा है। इस मामले के शिकायतकर्ता के मुताबिक, बरसों से अवैध उत्खनन चल रहा है। मंत्री नागेन्द्र सिंह के भतीजे रूपेन्द्र सिंह उर्फ बाबा राजा जिन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।

शिवराज के सुराज में करोड़ों की अवैध खुदाई हो रही है। वन विभाग के एडिशनल चीफ कंजरवेटर जगदीश प्रसाद शर्मा ने अवैध खनन पर राज्य के चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर को सौंपी रिपोर्ट में बाबा राजा का जिक्र किया है। जांच रिपोर्ट के मुताबिक सतना के जंगलों में बाबा राजा का काम चल रहा है। बाबा राजा यानी एमपी के पीडब्लूडी मंत्री नागेन्द्र सिंह का भतीजा। इलाके में पत्थर का अवैध खनन बगैर वन अधिकारियों की मिलीभगत के मुमकिन नहीं। रिपोर्ट में लिखा है कि इस खनन की जांच अगर कर्नाटक के बेल्लारी केस की तर्ज पर की जाए तो वन क्षेत्र में करोड़ों रुपए के पत्थरों की चोरी और रॉयल्टी चोरी के रूप में सरकार को पहुंचाया गया करोड़ों का नुकसान उजागर हो सकता है। एसीएफओ की इस रिपोर्ट से हड़कंप है। शिकायतकर्ता ने इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। मामले की परतें खुली तो कुछ और सफेदपोशों के नाम सामने आने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास एक महीने से रिपोर्ट पड़ी है लेकिन मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई अब तक नहीं की गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। मैं पूरी रिपोर्ट जब तक नहीं देख लेता, तब तक कुछ नहीं कह सकता।

मध्य प्रदेश कांगे्रस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष माणक अग्रवाल ने कहा कि कांग्रेस के प्रदेश प्रतिनिधि मनोज पाल सिंह ने जबलपुर जिले की सिहोरा तहसील के ग्राम झींटी में 600 करोड़ के अवैध खनन के घोटाले की लोकायुक्त कार्यालय को शिकायत की है। 205 पेज के महत्वपूर्ण दस्तावेज सहित सात पृष्ठों की शिकायत में लोकायुक्त जांच की मांग की गई है। इसमें तथ्यों के आधार पर कहा गया है कि मध्यप्रदेश में कर्नाटक के बेल्लारी खनिज घोटाले से भी बड़ा घोटाला संबंधित मंत्रियों और अधिकारियों की मिलीभगत से हुआ है। तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि स्वीकृति से कई गुना अधिक लौह अयस्क निकाला गया है। वन क्षेत्र में तथा आदिवासियों की जमीनों पर भी मनमाना खनन कर सरकार और आदिवासियों को करोड़ों की हानि पहुंचाई गई है। भ्रष्टाचार के इस बड़े खेल में रॉयल्टी वसूली की आड़ में करोड़ों के अवैध खनन को रफा-दफा कर पट्टाधारियों को अनुचित लाभ भी पहुंचाया गया है।

अग्रवाल के मुताबिक ग्राम झींटी के इस खनिज घोटाले के संबंध में कार्रवाई के लिए कांगे्रस ने 14 अक्टूबर 2011 को श्यामला हिल्स थाने में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों और अधिकारियों के विरूद्ध एफआईआर दर्ज कराई थी। इसके बाद 19 अक्टूबर 2011 को इस बारे में न्यायालय में भी एक परिवाद दाखिल किया गया है। कांगे्रस नेता मनोज पाल सिंह ने इस प्रकरण के कुछ और महत्वपूर्ण दस्तावेज प्राप्त कर 11 नवंबर को लोकायुक्त को शिकायत सौंपी है। इस शिकायत में खनिज घोटाले के भीतर की गहरी परतों को खोला गया है। शिकायत में उल्लेख किया गया है कि संबंधित कंपनियों और व्यक्तियों को खनिज उत्खनन के पट्टे देने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण रही है। प्रदेश में खनिज आधारित उद्योग लगाने के मौखिक आश्वासन पर आवेदकों की आर्थिक स्थिति की जांच पड़ताल किए बिना उत्खनन की स्वीकृतियां जारी की गई हैं। ऐसा लगता है, इस घोटाले को पट्टेधारियों से सांठगांठ करके मंत्रियों और अधिकारियों ने काफी सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया है।

कांगे्रस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष का कहना है कि इस बात के पुष्ट प्रमाण है कि खनिज पट्टेधारियों ने अनुमति से अधिक क्षेत्र में खनिज का उत्खनन कर बेजा लाभ कमाया है। अवैध उत्खनन के क्षेत्र में वन भूमि और आदिवासियों की भूमि भी शामिल है। इस तरह खनिज पट्टाधारियों ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम और मप्र भू-राजस्व संहित की धारा 165 का भी उल्लंघन किया है। संबंधित अधिकारियों द्वारा पट्टाधारियों की इस मनमानी की व्यापक स्तर पर अनदेखी की जाकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया गया है। अवैध खनन, जो कि कानूनी अपराध की श्रेणी में आता है, को नाम मात्र रॉयल्टी लेकर नियमित मान लेने में अधिकारियों के स्तर पर भारी भ्रष्टाचार की बू आ रही है। इस प्रकरण में अधिकारियों ने अपने पद का भारी दुरुपयोग कर पट्टाधारियों को आर्थिक लाभ पहुंचाया है। ग्राम झींटी में हुआ खनिज घोटाला कितना बड़ा है, उसका अनुमान इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि चार पट्टाधारियों को हर साल 80,640 मैट्रिक टन औसतन खनन की अनुमति दी गई थी। किंतु मई 2011 तक इन्होंने 11,96,000 मैट्रिक टन खनिज निकाला, जो स्वीकृत सीमा से लगभग 12 गुना अधिक है।

भंवर में अन्ना





एक सच्ची घटना है- कुत्ता क्यों मरा? पंजाब के सबसे क़द्दावर मुख्यमंत्री थे सरदार प्रताप सिंह कैरो. स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ बड़े क़द्दावर नेता थे. एक बार दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहे थे. उनके साथ उनके संसदीय सचिव देवीलाल भी थे. सरदार कैरो की गाड़ी तेज़ी से भाग रही थी कि एक कुत्ता बीच में आ गया. कुत्ते की मौत हो गई. सरदार कैरो ने थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुकवाई. सड़क किनारे दो चक्कर लगाए और देवीलाल जी को बुलाया. उन्होंने पूछा, देवीलाल ये बताओ कुत्ता क्यों मरा? का़फी सोचने के बाद देवीलाल ने कहा कि कुत्ते तो मरते रहते हैं, यूं ही मर गया होगा. सरदार प्रताप सिंह कैरो ने फिर पूछा, बताओ कुत्ता क्यों मरा? देवीलाल जी खामोश रहे, फिर कहा कि आप ही बताइये. तब सरदार प्रताप सिंह कैरो ने देवीलाल से कहा कि यह कुत्ता इसलिए मरा, क्योंकि यह फैसला नहीं कर पाया कि सड़क के इस किनारे जाना है या उस किनारे. फैसला न लेने की वजह से वह बीच में खड़ा रह गया. अगर इसने फैसला कर लिया होता तो सड़क के इस किनारे या उस किनारे चला गया होता और बच जाता. फैसला नहीं लेने की वजह से यह कुत्ता मारा गया. देवीलाल को राजनीति का मंत्र मिल गया. उन्होंने जीवन भर इसका पालन किया. वह कभी बीच में नहीं रहे. राजनीति में उन्होंने हमेशा फैसला लिया. हमेशा इधर या उधर खड़े रहे. इसी सीख की वजह से वह देश के उपप्रधानमंत्री भी बने.

आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है.

अन्ना की समस्या बिल्कुल यही है. वह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करें? इधर जाएं या उधर जाएं. वह कभी यात्रा पर निकलने की बात करते हैं, फिर बीच में यात्रा करने का इरादा छोड़ देते हैं. उन्होंने बड़े ज़ोर-शोर से यह ऐलान किया कि संसद सत्र में लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो फिर से आंदोलन करेंगे, फिर अचानक से चुप हो गए. अन्ना तय नहीं कर पा रहे हैं कि आंदोलन करना है या नहीं. सरकार का समर्थन करना है या नहीं. उत्तर प्रदेश में यात्रा करनी है या नहीं. अन्ना हजारे के फैसला नहीं लेने की वजह से भ्रम की स्थिति बनती जा रही है. इस बीच अन्ना का बयान आया कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल बिल लेकर आ जाएगी तो वह कांग्रेस का समर्थन करेंगे और अगर लोकपाल बिल नहीं आया तो वह भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करेंगे. अन्ना अब तक यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि सरकार का समर्थन करना है या नहीं. अन्ना भंवर में हैं. अब तक उन्हें यह समझ में ही नहीं आया है कि सरकार लोकपाल के साथ क्या करना चाहती है, जबकि यह दिन के उजाले की तरह सा़फ है कि सरकार जन लोकपाल बिल लाने के पक्ष में नहीं है. सवाल यह उठता है कि इस तरह के बयान का क्या मतलब है? क्या अन्ना हजारे की नज़र में जनता की ताक़त का कोई महत्व नहीं है? क्या जनता की ताक़त में उनका भरोसा नहीं है? जो लोग अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल हुए वे न तो कांग्रेस के थे और न ही भारतीय जनता पार्टी के थे. यह आम जनता थी. सरकारी तंत्र में मौजूद भ्रष्टाचार से त्रस्त और नाराज़ जनता थी. तो अब यह कहना कि कांग्रेस का समर्थन कर दूंगा, का क्या मतलब है. क्या अन्ना को लगता है कि वह जिसका समर्थन कर देंगे, वह चुनाव जीत जाएगा या जिसका विरोध करेंगे वह चुनाव हार जाएगा. इससे तो दिग्विजय सिंह की यह दलील सही लगती है कि अन्ना और उनकी टीम को चुनाव लड़ना चाहिए.

अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई.

जब से अन्ना हजारे ने जन लोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया है, तब से लेकर आज तक ऐसे कई मौ़के आए, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्ना ठोस फैसले नहीं ले पाते हैं. आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है. फिर भी अन्ना हजारे और उनकी टीम यह ठोस फैसला नहीं कर सकी कि सरकार के खिला़फ जाना है या नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपनी मनमानी की. मजबूर होकर अन्ना को रामलीला मैदान में अनशन करना पड़ा. इस आंदोलन के दौरान सरकार ने उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया. आंदोलन के लिए जगह देने में कई रुकावटें खड़ी कीं. इतना सबकुछ होने के बावजूद अन्ना यह फैसला नहीं कर सके कि सरकार से किस तरह से लड़ना है. इसका नतीजा यह हुआ कि तेरह दिनों तक चला अन्ना का अनशन सरकार के साथ बातचीत में उलझ कर रह गया.

अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई. अब हालत यह है कि सरकार वैसा ही बिल लेकर आ रही है, जैसा वह पहले लाना चाहती थी. सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसमें प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे से बाहर हैं. सरकारी लोकपाल बिल में केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा और केंद्रीय सतर्कता आयोग को लोकपाल से बाहर रखा गया है. सरकार ने निचले स्तर के अधिकारियों को भी लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. न्यायपालिका में होने वाला भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे में नहीं है. सरकार तो अपनी जगह से हिली नहीं, वह जैसा लोकपाल लाने के लिए पहले से तैयार थी, वैसा ही बिल तैयार किया है. तो अब सवाल पूछना लाज़िमी है कि टीम अन्ना को अनशन से क्या हासिल हुआ. प्रधानमंत्री से पटवारी तक लोकपाल के दायरे में हों, यह मांग कहां ग़ायब हो गई. प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में हों? इस पर अनशन खत्म करने से पहले समझौता क्यों नहीं हुआ? साधारण सा सवाल है. सरकार का जो लोकपाल बिल है, वह क्या जन लोकपाल बिल है. इस सवाल का साधारण सा जवाब है ही नहीं. इसका मतलब यही है कि अन्ना का पिछला आंदोलन सफल नहीं रहा. अन्ना ने पिछला आंदोलन शुरू किया था, तो यह नारा दिया कि जन लोकपाल बिल पास करो. लेकिन तेरह दिनों के बाद टीम अन्ना ने जन लोकपाल बिल को छोड़ दिया और स़िर्फ तीन मांगों तक सीमित रहकर अनशन तोड़ दिया. इन तीन मांगों में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, सीबीआई, सीवीसी और निचले स्तर के अधिकारी कहां हैं? मामला संसद में चला गया. संसद में बहस हुई, लेकिन किस क़ानून के तहत हुई, यह किसी को पता नहीं है. इस बहस की क़ानून की नज़र में क्या प्रासंगिकता और मान्यता है? राजनीतिक दलों ने इसे सेंस ऑफ द हाउस बताया. लोकसभा की प्रक्रिया के मुताबिक़ इस प्रस्ताव को स्पीकर के समक्ष पेश करना था. क्या इस प्रस्ताव को लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने रखा? नहीं, इसे प्रणव मुखर्जी ने रखा. लोकसभा में क्या इन मांगों पर मतदान हुआ? नहीं, सरकार ने पूरी बहस को स्टैंडिग कमेटी के पास भेज दिया. हैरानी की बात तो यह है कि इससे पहले भी अन्ना हजारे स्टैंडिंग कमेटी में अपनी बात कह चुके थे. एक सांसद ने तो जन लोकपाल बिल को ही स्टैंडिंग कमेटी को सौंप दिया. मतलब यह है कि जो सुझाव अनशन के बाद स्टैंडिंग कमेटी को दिया गया, वह स्टैंडिंग कमेटी के पास पहले से ही था. इससे सा़फ पता चलता है कि टीम अन्ना से चूक हुई है. इसे भी स्वीकार करने की ज़रूरत है.

कोई भी आंदोलन दलील से नहीं, बल्कि जनभावना से ब़डा बनता है. जन लोकपाल के मामले में भी यही बात लागू होती है. जनभावना के सहारे अन्ना और उनकी टीम सरकार पर भारी प़ड गई. लेकिन जब बात समझौते तक पहुंची, तब दलील के आगे जनभावना कमज़ोर प़ड गई. लोकपाल बिल पास कराने की जल्दबाज़ी में जो कुछ हुआ, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है. उधर, अन्ना भी संशय की स्थिति में हैं. भारत भ्रमण और जन जागरण का उनका कार्यक्रम अब तक अधर में है. दूसरी ओर, वह खुद लोकपाल बिल के भविष्य को लेकर दुविधा में हैं.

जिस व़क्त अन्ना हजारे रामलीला में अनशन कर रहे थे, उस समय देश के हर कोने में अनशन चल रहा था. अन्ना के समर्थन में देश में कहां-कहां आंदोलन हुए, यह तो टीम अन्ना को भी पता नहीं होगा. भारतीय नागरिकों ने तो अमेरिका में भी अनशन किया. गांवों और क़स्बों में जो लोग आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने तो आंदोलन से पहले अन्ना का नाम तक नहीं सुना था. फिर भी आंदोलन में शामिल हुए. उनकी नाराज़गी सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिला़फ थी. महंगाई, बेरोज़गारी, बिजली आदि समस्याओं से जूझ रहे लोगों को लगा कि इस आंदोलन की वजह से बदलाव आएगा. सबकुछ बदल जाएगा. यही वजह है कि बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरतें, अमीर-ग़रीब, हर जाति और वर्ग के लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया. हर राजनीतिक दल के समर्थकों के साथ-साथ हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब अन्ना के आंदोलन में थे. ये लोग स़िर्फ जन लोकपाल के लिए अन्ना को समर्थन नहीं दे रहे थे. अन्ना में लोग गांधी देख रहे थे, जो भारत की तस्वीर बदलने की आशा जगा रहा था. अन्ना के पास यह एक मौका था कि वह इस आंदोलन को स़िर्फ लोकपाल की बजाय व्यवस्था परिवर्तन और सरकारी तंत्र के तौर-तरीक़ों को बदलने का आंदोलन बना सकते थे. लेकिन अन्ना ने लोगों को निराश किया. अनशन के बाद हॉस्पिटल और वहां से वापस अपने गांव जाकर बैठ गए. अगर अन्ना देश की यात्रा पर निकल जाते. हर राज्य में निस्वार्थ रूप से आंदोलन करने वाले युवाओं और जनता से मिलते तो आज सरकार को एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून बनाने की हिम्मत नहीं प़डती. फिर कभी अन्ना को आंदोलन करने की ज़रूरत पड़ती तो उनकी एक आवाज़ पर देश के हर कोने में आंदोलन शुरू हो जाते. वह लोगों की इस ताक़त को समझ नहीं पाए. वह यह नहीं समझ पाए कि लोगों की आकांक्षाओं और सपनों से ज़ुडने के बाद अपनी मर्ज़ी नहीं चलती. जनता की भावनाओं के साथ उन्हें चलना पड़ता है, लेकिन अन्ना हजारे ने ठीक उल्टा किया. जिस तरह सरकार लोगों की भावनाओं का मज़ाक़ उड़ा रही है, वैसा ही अन्ना हजारे कर रहे हैं.

सरकार अन्ना की इस कमज़ोरी को भली-भांति जानती है. यही वजह है कि सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल बनाकर अन्ना के आंदोलन को खत्म करना चाहती है. सरकारी बिल में जन लोकपाल बिल के कई मुद्दों को दरकिनार कर दिया गया है. बिल में स़िर्फ उन्हीं मुद्दों को शामिल किया गया है, जिससे सरकार टीवी चैनलों और संसद में बहस के दौरान विपक्ष के सवालों का गोलमोल जवाब दे सके. सरकार जानती है कि लोकपाल बिल पेश करने के साथ ही टीम अन्ना का समर्थन आधा हो जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो इसके लिए सरकार के साथ अन्ना हजारे भी ज़िम्मेदार होंगे. सरकार ने टीम अन्ना से निपटने के लिए दूसरे रास्ते भी खोल दिए हैं. सरकार उनके सहयोगियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करना चाहती है. पहले कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को भ्रष्ट बताया. शशि भूषण और प्रशांत भूषण के खिला़फ सीडी निकल जाती है. अरविंद केजरीवाल पर जुर्माना लगाया जाता है और किरण बेदी को हवाई स़फर के टिकट के लिए ज़लील किया जाता है. सरकार हर तरी़के से अन्ना हजारे और टीम अन्ना के सदस्यों को परेशान कर रही है. इसके बावजूद टीम अन्ना के सदस्य टेलीविजन कैमरे को देखते ही भ्रम फैलाने वाले बयान दे देते हैं. वे मीडिया के दबाव में आ जाते हैं. उन बातों पर ध्यान देने लग जाते हैं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं होती है. एक तऱफ सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून ला रही है, तो दूसरी तऱफ अन्ना हजारे और उनकी टीम ऐसे कामों में लगी है, जिसकी ज़रूरत नहीं है. यह समय सरकार पर दबाव देने का है तथा ऐसी योजनाएं बनाने का है कि अगर सरकार अपनी बात पर अडिग रही तो क्या करना होगा. हैरानी तो इस बात से होती है कि अन्ना हजारे अपनी टीम में पारदर्शिता लाने और संगठन में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए समाज के और लोगों को भी शामिल करने में समय नष्ट कर रहे हैं. लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल क़ानून नहीं लाई, तब क्या होगा. क्या फिर से देश में पहले जैसा आंदोलन खड़ा हो सकेगा? ऐसे महौल में राजनीति और चुनावों पर अन्ना भी चौंकाने वाले बयान दे देते हैं. सरकार देश को गुमराह कर रही है, लेकिन टीम अन्ना भी इसमें पीछे नहीं है. लोकपाल के मुद्दे पर सरकार ने पब्लिक ओपिनियन यानी जनमत का अनादर किया है. संसद में लोकपाल पर हुई चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों और सरकार ने लोगों की भावनाओं के साथ मज़ाक़ किया है. सरकार के इस अपराध में अन्ना भी शामिल हैं. प्रजातंत्र में लोकमत सर्वोपरि होता है. देश की जनता भ्रष्टाचार के खिला़फ एक कड़ा क़ानून चाहती है. यही जनमत है. देश की जनता घोटालों, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार की कमी से त्रस्त हो चुकी है. अन्ना ने लोगों में आशा जगाई, इसलिए लोग अन्ना के आंदोलन से जुड़े. देश की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है. राजनीति का भी वही हाल है. उत्तर प्रदेश में चुनाव है. कुछ लोग यह मान रहे हैं कि लोकसभा का चुनाव भी ज़्यादा दूर नहीं है. यह व़क्त फैसला लेने का है. अन्ना को यह फैसला लेना है कि भ्रष्टाचार और मज़बूत लोकपाल की लड़ाई में वह कहां खड़े हैं. कुत्ता क्यों मरा-के ज़रिए प्रताप सिंह कैरो ने जो सीख देवीलाल को दी, वही सीख अन्ना हजारे को लेने की ज़रूरत है.
Post |589 views

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

पठार को खोदकर पाताल बना डाला माफिया ने




मध्य प्रदेश सरकार ने एक तरफ स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने के लिए सात संकल्प, सात कार्यदल बना रखे हैं वहीं दूसरी तरफ सात किस्म के माफिया प्रदेश के विकास की राह में रोड़ा बने हुए हैं। प्रदेश में जमीन, शराब, वन, ड्रग, खनिज, गोवंश और गरीबों को मिलने वाले केरोसिन और अन्य सामग्री को पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचने देने वाले जैसे सात तरह के माफिया सक्रिय हैं। सात किस्म के इन माफियाओं में से खनिज माफिया सबसे कुख्यात हैं।
मध्य प्रदेश में खनिज माफियों का कहर सबसे अधिक बुंदेलखंड के पठार पर पड़ रहा है। यहां हरे रंग के बड़े बोर्ड पर लिखा है, सिद्धबाबा की पावन धरती पर आपका स्वागत है. 'सिद्धबाबाÓ जैसा नाम पढऩे से भ्रम होता है कि हम किसी धार्मिक स्थल पर आ गए हैं. लेकिन हाइवे के बगल में ही भारी हथौड़ा लिए ग्रेनाइट तोड़ती 12 साल की बच्ची को देखकर यह मुगालता दूर हो गया. जल्दी ही मालूम हुआ कि यह ग्रेनाइट के अवैध खनन के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के सबसे बड़े खनन क्षेत्र का पता है. नेशनल हाइवे नंबर 76 पर महोबा जिले का यह कबरई इलाका है जहां काले ग्रेनाइट से लदे भारी-भरकम ट्रकों के बोझ से 20-25 किलोमीटर तक की सड़कें पूरी तरह चकनाचूर हो चुकी हैं. बुंदेलखंड इलाके की सबसे बड़ी कही जाने वाली सिद्धबाबा की पहाड़ी कभी समुद्र तट से 1,772 मीटर ऊंची हुआ करती थी, लेकिन इसके भीतर छिपे फौलादी ग्रेनाइट के खजाने के कारण इसे पाताल तक खोदा जा रहा है. आधिकारिक तौर पर महोबा से सालाना 65 करोड़ रु. का ग्रेनाइट कारोबार होता है, लेकिन कबरई मंडी को करीब से जानने वाले बताते हैं कि यह मंडी साल में कम से कम 250 करोड़ रु. पत्थर सप्लाई करती है. इसे महज आंकड़ों का फर्क मान कर खारिज नहीं कर सकते. हिंदी पट्टी के पांच राज्यों में मीडिया की पड़ताल से पता चलता है कि महोबा का हाइवे नं. 76 तो अवैध खनन की महज एक मिसाल है. खनिज संपदा के मामले में इन पांच राज्यों में जो राज्य जितना संपन्न है वहां बेतहाशा अवैध खनन, राजस्व की जबरदस्त हानि, भूजल स्तर में तीव्र गिरावट के रूप में पर्यावरण को भारी नुक्सान और खनन क्षेत्रों में जानो-माल को बड़े पैमाने पर नुक्सान के कई चौंकाने वाले उदाहरण देखे जा सकते हैं.
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की विभिन्न रिपोर्ट को ही आधार मानें तो अवैध खनन के कारण पिछले पांच साल में मध्य प्रदेश में करीब 1,500 करोड़ रु. की चपत लगी है. बुंदेलखंड क्षेत्र में दो दशक से काम कर रहे पर्यावरणविद् भारतेंदु प्रकाश का कहना है, इस अवैध कारोबार की भारी कीमत कबरई ने कुछ इस तरह चुकाई कि इलाके का भूजल स्तर आज कई जगह 300 फुट नीचे तक चला गया है. जब कभी विस्फोट के बाद पहाड़ के परखच्चे उड़ते हैं और चट्टानें उड़कर किसी घर पर गिरती हैं, तो वहां खेलते बच्चे हमेशा के लिए सो जाते हैं. स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता आशीष मिश्र एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, पिछले दिनों आठ साल का उत्तम प्रजापति एक दिन आंगन में खेलते-खेलते, ऐसे ही एक पत्थर के नीचे दबकर खत्म हो गया था. बाद में थोड़ी कानूनी लड़ाई के बाद परिजन हार गए, मामूली मुआवजे के मिलने के साथ ही नन्हे बच्चे की मौत मामूली दुर्घटना बन कर रह गई. 10वीं सदी के दुर्लभ चकरिया दाई स्मारक के ठीक बगल से पहाड़ काट दिया गया है. आल्हा-ऊदल की जमीन पर इस तरह के 50 से अधिक स्मारकों के आसपास अवैध खनन चल रहा है.
मध्य प्रदेश विधानसभा में पेश सीएजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 से 2009-10 के दौरान प्रदेश में खनन से जुड़ी गड़बडिय़ों के कारण प्रदेश सरकार को 6,906 मामलों में 1496.29 करोड़ रु. राजस्व का नुक्सान हुआ. मध्य प्रदेश में पिछले छह साल में अवैध खनन के 24,630 मामले सामने आए और 23,393 मामले अदालतों में दर्ज हुए हैं, यह देश के अन्य सभी राज्यों की तुलना में सर्वाधिक है. मध्य प्रदेश देश का सबसे प्रमुख हीरा उत्पादक राज्य है. इसके अलावा यहां कॉपर (तांबे) के आधिक्य वाला पाइरोफाइलाइट और डाइसपोर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. खनन मंत्रालय के मुताबिक मध्य प्रदेश ने वर्ष 2009-10 में 9,701.87 करोड़ रु. के खनिज और 440.19 करोड़ रु. के उप खनिजों का उत्पादन किया.मध्यप्रदेश में खनन माफिया की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका एक अंदाजा पिछले दिनों हुई आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या से भी मिला. इस हत्याकांड की जांच सीबीआइ कर रही है और अब तक जांच किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंची है. लेकिन इस हत्याकांड में हीरा खनन करने वाली ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो का नाम भी उछला है. कंपनी के खिलाफ जबलपुर हाइकोर्ट में भी पर्यावरण संबंधी मामले लंबित हैं. लेकिन इससे कंपनी के विस्तार पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उसकी ताकत बढ़ ही गई.मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में रियो टिंटो कंपनी को छतरपुर जिले के बुंदर नामक स्थान पर भी हीरा उत्खनन की इजाजत दे दी है. एक अनुमान के मुताबिक बुंदर में जमीन के नीचे करीब 27.4 मिलियन कैरेट हीरे के भंडार हैं. हीरे की खुदाई के लिए मशहूर पन्ना के मझ्गवां में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनडीएमसी) की जो खदान है, उसकी तुलना में रियो टिंटो को मिली खदान में हीरे का सात गुना ज्यादा भंडार है. इसके अलावा डेढ़ वर्ष पहले जबलपुर हाइकोर्ट ने आदेश दिया था कि ग्वालियर क्षेत्र में स्थित बटेश्वर और पडावली के पुरातत्व स्थलों के पास की खदानों को बंद कर दिया जाए. लेकिन जमीनी मुआयना करने पर पता चला कि यहां 25 खदानों से अभी भी गैरकानूनी उत्खनन किया जा रहा है. अवैध उत्खनन करने वाले पत्थर निकालने के लिए ब्लास्ट भी करते हैं जिससे ऐतिहासिक मंदिरों की दीवारों में दरारें पड़ रही हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की आपत्तियों के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई. खुद प्रशासन ने 29 सितंबर को घाटीगांव स्थित सोन चिरैया अभायारण्य क्षेत्र में अवैध खनन पकड़ा. इस मामले में ग्वालियर के कलेक्टर आकाश त्रिपाठी का कहना है कि कि घाटीगांव इलाके में सख्ती से रोक लगाई जा रही है.गौरतलब है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास एक महीने से रिपोर्ट पड़ी है लेकिन मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई अब तक नहीं हो सकी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। मैं पूरी रिपोर्ट जब तक नहीं देख लूं तब तक कुछ नहीं कह सकता।
बुन्देलखण्ड का पठार प्रीकेम्बियन युग का है। पत्थर ज्वालामुखी पर्तदार और रवेदार चट्टानों से बना है। इसमें नीस और ग्रेनाइट की अधिकता पायी जाती है। इस पठार की समु्रद तल से ऊंचाई 150 मीटर उत्तर में और दक्षिण में 400 मीटर है। छोटी पहाडिय़ों में भी इसका क्षेत्र है, इसका ढाल दक्षिण से उत्तर और उत्तर पूर्व की और है। बुन्देलखण्ड का पठार मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, ग्वालियर तथा शिवपुरी जिलो में विस्तृत है। सिद्धबाबा पहाड़ी (1722 मीटर) इस प्रदेश की सबसे ऊंची पर्वत छोटी है। बुन्देलखण्ड की भौगोलिक बनावट के अनुरूप गुलाबी, लाल और भूरे रंग के ग्रेनाइट के बड़ाबीज वाला किस्मों के लिये विन्ध्य क्षेत्र के जनपद झांसी, ललितपुर, महोबा, चित्रकूट- बांदा, दतिया, पन्ना और सागर जिले प्रमुखत: हैं। भारी ब्लाकों व काले ग्रेनाइट सागर और पन्ना के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं इसकी एक किस्म को झांसी रेड कहा जाता है। छतरपुर में खनन के अन्तर्गत पाये जाने वाले पत्थर को फार्च्यून लाल बुलाया जाता है। सफेद, चमड़ा, क्रीम, लाल बलुआ पत्थर अलग-अलग पहाडिय़ों की परतों में मिलते हैं। न्यूनतम परत बलुवा पत्थर एक उत्कृष्ट निर्माण सामग्री के लिये आसानी से तराषा जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़े भंडार, हल्के रंग का पत्थर झांसी, ललितपुर, महोबा, टीकमगढ़ तथा छतरपुर के कुछ हिस्सों में मिलता है। इस सामग्री भण्डार का उपयोग पूरे देष में 80 प्रतिशत सजावटी समान के लिये होता है। ललितपुर में पाया जाना वाला कम ग्रेड व लौह अयस्क (राक फास्फेट) के रूप से विख्यात है।
हाल ही के अध्ययन व सर्वेक्षण से जो तथ्य प्रकट हुये हैं वे चौकने वाले ही नहीं वरन् यह भी सिद्ध करते हैं कि भविष्य ये बुन्देलखण्ड की त्रासदी में वे अति सहयोगी होंगे। जहां पहाड़ों के खनन में मकानों की अनदेखी की जा रही है। वहीं खनन माफिया साढ़े 37 लाख घन मी. पत्थर रोजाना पहाड़ों से निकालते हैं। इसके लिये वह एक इंच होल में विस्फोटक के बजाय छ: इंच बड़े होल में बारूद भरकर विस्फोट करते हैं। जब यह विस्फोट होते हैं तो आस-पास 15-20 किमी की परिधि में बसने वाले वन क्षेत्रों के वन्य जीव इन धमाके की दहषत से भागने लगते हैं व कुछ की श्रवण क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त विस्फोट से स्थानीय जमीनों में जो दरारें पड़ती हैं उससे ऊपरी सतह का पानी नीचे चला जाता है और भूगर्भ जल बाधित होता है। इस सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड ग्रेनाइट करोबार जो कि यहां कुटीर उद्योग के नाम से चल रहा है में 1500 ड्रिलिंग मशीनें, पांच सैकड़ा जेसीबी, 20 हजार डंफर, 2000 बड़े जनरेटर, 50 क्रेन मशीन और हजारों चार पहिया ट्रैक्टर प्रतिदिन 6 करोड़, 83 लाख, पांच सौ ली0 डीजल की खपत करके और ओवरलोडिंग करते हैं। इन विस्फोटों से रोजाना 30-40 टन बारूद का धुआं यहां के वायुमंडल में घुलकर बड़ी मात्रा में सड़क राहगीरों व खदानों के मजदूरों को हृदय रक्तचाप, टी0वी0, श्वास-दमा का रोगी बना देता हैं। इसके साथ-साथ 22 क्रेसर मषीनों के प्रदूषण से प्रतिदिन औसतन 2 लोग की आकस्मिक मृत्यु, 2 से तीन लोग अपाहिज व 6 व्यक्ति टीवी के शिकार होते हैं।
गौरतलब है कि इस उद्योग से प्रतिदिन 10 हेक्टेयर भूमि (उपजाऊ) बंजर होती हैं 29 क्रेसर मषीनों को उ0प्र0 प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अनापति प्रमाण पत्र जारी किया गया है लेकिन इन खनन मालिकों की खदानों में पत्थर तोडऩे के समय चलाया जाने वाला फव्वारा कभी नहीं चलता जो कि डस्ट को चारों तरफ फैलने से रोकने के लिये होता है ताकि प्रदूषण कम हो। अवैध रूप से लाखों रूपयों की विद्युत चोरी इनके द्वारा प्रतिदिन की जाती है इसके बाद भी यह उद्योग बहुत तेजी से बुन्देलखण्ड में पैर पसार रहा है क्योंकि सर्वाधिक राजस्व इस उद्योग से मिलता है। विन्ध्याचल पवर्त माला और कबरई (महोबा), मोचीपुरा, पचपहरा का ग्रेनाइट सर्वाधिक रूप से खनिज कीमतों में सर्वोत्तम माना जाता है प्राकृतिक संसाधनों के इस व्यापार से निकट समय में ही यदि निजात नहीं मिलती है तो बुन्देलखण्ड की त्रासदी में यह उद्योग बहुत बड़ी भूमिका के साथ दर्ज होने वाला काला अध्याय साबित होगा।
मारबल माफिया की करतूतें
मध्य प्रदेश के कटनी में सालों से संगमरमर का अवैध खनन हो रहा था। जहां जिला प्रशासन की संदिग्ध भूमिका के चलते पिछले पांच सालों से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की लगातार अवमानना होती आ रही है। हैरानी है कि इसके बावजूद कटनी के निमास गांव में न केवल मारबल माफिया सक्रिय हैं बल्कि इन्होंने आईएएस अफसरों को भी साथ ले रखा है, जो मार्बल माफियाओ को फायदा पहुंचाने का काम करते रहे हैं। कटनी के मार्बल माफियाओं पर डायलाग इंडिया के ब्यूरो चीफ कमलेश तिवारी की रिपोर्ट- देश की बुनियाद व्यवस्था का आधार कहे जाने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदस्थ आई.ए. एस. अफसर आज अकूत धन संग्रह के फेर में कितने पक्ष-भ्रष्ट हो चुके हैं। इसका औसत अनुमान तथाकथित अति-ईमानदार कहे जाने वाले आई.ए.एस. जोशी- दम्पत्ति द्वारा किये गये धन का संग्रह के मिजाज से सहज ही लगाया जा सकता है।
आश्चर्य होता है कि ,एक हद तक इनके हाथों में सामाजिक न्याय प्रबंधन के व्यवस्था की, संवेदनशील जिम्मेदारी भी होती है। इसीलिए किसी जिले में इनकी पदस्थापना के साथ इन्हें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के नाम से भी संबोधित किया जाता है। ऐसे गरिमापूर्ण पद पर आसीन शख्स जब अपने ही लोकतंत्र की आस्तीन का सांप बन जाए तो, देश के आम नागरिकों और उनसे बने समाज तथा देश का क्या होगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है ?
मध्यप्रदेश के कटनी जिले में मार्बल माफियाओं से जुड़ा एक ऐसा, ही मामला प्रकाश में आया है जहां जिला प्रशासन की अफसरशाही की सरपरस्ती में विगत लगभग पांच वर्षो से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की निरंतर अवमानना होती आ रही है।
भारतीय लोकतंत्र में यदि ऐसे निरंकुश आई.ए.एस. हाकिमों और ऐसे मर्यादाहीन सामंतों का जहां गठजोड़ हो जाता है तो फिर वहां कुछ भी होना संभव है। जाहिर हैं कि वहां जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी उक्ति का सूत्र कारगार हो जाता है। इस हकीकत का ब्यौरा भी कुछ इसी तरह है।
कटनी जिला के मार्बल जोन में स्थित गांव निमास के ख-न- 220 के रकवा 29-31 हेक्टेयर में 1-96 हेक्टेयर छोड़कर मार्बल उत्खनन हेतु कुछ लीजें लीज धारकों के आवेदन पर शासन द्वारा 2005 में स्वीकृत की गई थी। जिनके विरूद्ध सामाजिक संस्था एकता परिषद् के जगत बहादुर सिंह द्वारा देश के सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गई थी जिसकी सुनवाई पश्चात् अंतिम निर्णय तक की अवधि के लिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विगत दिनांक 16-09-2005 को संबंधित भू-क्षेत्र के उत्खनन कार्य पर पूर्ण रोक का आदेश जारी किया गया था। माननीय सर्चोच्च न्यायालय के उक्त आदेश की प्रमाणित प्रतियों की छाया प्रतिंया भेजकर याचिकाकर्ता ने स्वत: संबंधित सभी विभागों को आगाह भी कर दिया था ताकि, किसी भी स्तर पर किसी तरह- माननीय न्यायालय की गरिमा भंग न हो सके। बावजूद इसके रसूखदार मार्बल उद्योगपतियों ने हार नही मानी और जिले के आला अफसरों से गठजोड़ का सिलसिला शुरू कर दिया।
इस गठजोड़ से जोड़-तोड़ बिठाया और रास्ता भी खोज निकाला। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबंधित भू-क्षेत्र में धड़ल्ले से उत्खन्न किया जाता रहा और इसे बाजार में बेचा जाता रहा। इसकी शिकायत भी कई बार प्रदेश शासन के मंत्रियों तथा सचिवों के साथ उच्चतम न्यायालय तक भी पहुचाई गई किन्तु, हाकिमों और सामंतों की संयुक्त पैतरेबाजी, माननीय न्यायालय को निरंतर गुमराह करती रही। सन 2010 में हुई शिकायतों के बाद से यह प्रकरण समाचारों की सुर्खियां बनने लगा। ऐसी दशा में अब यह मामला अपनी मूल विषय वस्तु से भटककर सीमांकन के सत्यापन जैसे विवाद का विषय बन गया है।
कटनी जिलें के मार्बल जोन में अनेक विसंगतियों के लिये बहुचर्चित एक गांव हैं निमास। जिसके भू-गर्भ में बेशकीमती अकूल खनिज सम्पदा का भण्डारण सफेद सोना यानि मार्बल के रूप में दबा पड़ा है। यही कारण है कि देश भर के मार्बल माफियाओं में इस क्षेत्र को हथियाने की प्रतिस्पर्धा चलती रही और इसी स्वार्थ के चलते यहां के मार्बल माफियाओं ने राज्य सरकार से लेकर केन्द्र तक के संबंधित लगभग सभी महकमों की कार्य शैली को कुछ इस तरह पंगु कर दिया कि, आज उनकी सारी कार्य प्रणाली बूझो तो जाने जैसी पहेली बन कर रह गई है।
ग्राम निमास तहसील बहोरीबंद जिला कटनी मध्यप्रदेश के खसरा नं- 220 की भूमि रकवा 29-31 हेक्टेयर यानी-73 एकड़ लगभग दस्तावेजों में दर्ज है। इसी खसरा नंबर में दर्ज भूमि के नाम जोख में हुई हेरा-फेरी के चलते, विगत वर्ष 2005 से सरकारी महकमों के आला अफसर बड़े और अपच भ्रष्ट्राचार के लिये जितने बदनाम हुए है अब उतना ही यह भू-क्षेत्र उनके गले की फांस बनता नजर आने लगा है। इसके कारणों में कई तरह की बातें कही-बताई जा रही है इस भू-भाग का विवाद आज भी अनसुलझा और संदेहों की परिधि में बना हुआ है।
प्रथम तो यह कि इस भू-क्षेत्र निमास के खसरा नं- 220 तथा इसके इर्द-गिर्द के क्षेत्र में वन्य प्राण्यिों की बहुतायत होने और खासकर बाघों तथा उनके शावकों के मौजूद होने की बात को प्रमाणित करते हुए विगत सन् 2000 में इस सम्पूर्ण राजस्व भू-क्षेत्र को वन विभाग ने अपने अधिपत्य में ले लिया था। (जिसे वन विभाग के दस्तावेजों में भूमि बैंक के रूप में दर्शाया भी गया है।
तत्ससंबंधी प्रक्रिया कमोवेश अंतिम दौर तक पहुंच ही चुकी थी मात्र, सरकारी राजपत्र में प्रकाशन होने की ओैपचारिकता शेष रह गई थी। इसी दौरान न जाने ऐसा क्या हुआ और वन- विभाग ने पांच सालों तक अपने अधिपत्य में रखी इस क्षेत्र की पूरी भूमि को 2005 में राजस्व विभाग के हवाले वापस लौटा दी? संदेहों के इसी तथ्य को आधार बनाकर याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका के माध्यम से देश की सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय उक्त भू-क्षेत्र में उत्खनन कार्य प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया गया। दूसरी बात यह रही कि, निमास ख-न- 220 के रकवा 29-31 हेक्टेयर के भू-भाग की सीमांकन भी भू बंदोबस्त के साथ बीती सदी के सन् 1988-89 में हुआ था। इस दौरान बंदोबस्त के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा अन्य गांवों की तरह निमास गांव की सीमा का निर्धारण कर, उक्त भू-क्षेत्र में 12 चांदे-मुनारे स्थापित किये गए थे। कालान्तर में इस भू-क्षेत्र में मार्बल लीजे स्वीकृत हुई। तब लीजधारकों में भू-अधिकार क्षेत्र को लेकर सन् 2005 में विवाद निर्मित हुई तब लीजधारकों में भू-अधिकार क्षेत्र को लेकर सन् 2005 में विवाद की स्थिति निर्मित होने लगी। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्खनन कार्य पर रोक संबंधी आदेश जारी हो जाने के कारण यह विवाद कुछ ठंडा तो हुआ लेकिन शीतयुद्ध की तर्ज पर चलता रहा। इस विवाद का प्रमुख कारण यह था कि बंदोबस्त विभाग द्वारा 1988-89 में स्थापित किये गए चांदे व मुनारे पूरी तरह नदारत थे। फिर जैसे तैसे 2007 में बंदोबस्त मुख्यालय ग्वालियर से एक जांच दल कटनी आया, जिसने कटनी जिले के राजस्व अमले के साथ क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और अंतत: चांदे व मुनारे खोजने में पूरी टीम और उनके उपकरण तक असफल रहे।
यह बात तूल न पकड़े इस गरज से कटनी जिला मुख्यालय में भू- बंदोबस्त ग्वालियर एवं जिला राजस्व विभाग की त्वारित बैठक कलेक्टर के निर्देशन में हुई और आगामी दो दिनों की समयावधि में ही विवादित भू-क्षेत्र में अनुमानित आधार पर (सन् 2007 में) पुन:12 चांदे व मुनारे स्थापित करवा दिये गए। मामला फिर शांत पड़ गया। कुछ समय बीता। मार्बल माफिया और जिला प्रशासन के गठजोड़ ने रास्ता खोज निकाला।
भू-गर्भ का दोहन फिर शुरू हो गया जबकि, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मर्यादा बनाए रखने हेतु मध्यप्रदेश शासन, खनिज विभाग के सचिव द्वारा कार्य पर रोक लगाए रखने के निर्देश लिखित तौर पर, पहिले से ही सभी को प्राप्त हो चुके थे बाबजूद, इसके मार्बल उत्खनन का कार्य जारी रहा। इसके विरूद्ध शिकायतों का सिलसिला भी फिर चल पड़ा। लेकिन इस बार अप्रेल मई 2010 में मामला कुछ ज्यादा ही गरमा गया। निमास ख-न- 220 में स्वीकृत लीजों की सीमा निर्धारण करने हेतु इस बार आई-बी-एम-(इंडियन माइंस ब्यूरो) तथा सी-एल-आर (भू-बंदोबस्त) ग्वालियर की संयुक्त टीम 17 मई 2010 को जिला मुख्यालय कटनी पहुंची। जिसने कटनी जिला राजस्व तथा खनिज विभाग की टीम के साथ दिनांक 17,18, और 19 मई 2010 तक सर्वेक्षण किया।
आश्चर्य की बात यह रही कि, इस बार भी विगत 2007 में स्थापित किये गए चांदे व मुनारे फिर गायब हो गए? यह जादू था या कुछ और? कोई नही जानता। मामला ढाक के तीन पात जैसा बनकर फिर जस का तस रह गया।
अब प्रश्न यह उठता है कि , वे चांदे व मुनारे कहां गुम जो गए,? जबकि सीमांकन के दौरान दोनो बार (1988-89 तथा 2007 में भी चांदा के गढ़े गए पत्थरों को अन्य सांकेतिक सामग्री के साथ जमीन की सतह से पांच फुट नीचे गढ्ढों में रखकर ढांका गया था। और उसके ऊपर चतूबतरानुमा पक्के मुनारे खड़े कर दिये गये थे। यह सब भू-बदोबस्त विभाग द्वारा इसलिये किया जाता है ताकि, कभी किसी विवाद की स्थिति में जरीब की कडिय़ा डालकर भूमि की नाप-जोख करके सीमांकन का सत्यापन किया जा सके। लेकिन खसरा नं- 220 निमास के भू-भाग में उपजे इस विवाद से सरकारी महकमों के सारे आला अधिकारी आज भी कतराते नजर आ रहे है।? इसकी मात्र एक वजह है कि चंदा-मुनारा की निशान देही तक कहीं नजर नहीं आती। इतनी बड़ी धोखाधड़ी कब कैसे, क्यों और किसने की? शायद! प्रशासन के आला अफसर सब कुछ जानते समझते तो हैं लेकिन, ना समझी का मलम्मा परत दर परत चढ़ाते चले आ रहे है?
इस विवाद की तीसरी मुख्य वजह यह भी बताई जा रही हैं कि निमास ख-न- 220 में मूल रकवा 29-31 हेक्टेयर है जिसमें 1-96 हेक्टेयर का रकवा मंदिर रोड़ एवं हाईटेंशन लाइन के लिये छोड़कर शेष 4-80 हेक्टेयर सरिता मार्बल, 10 हेक्टेयर शारदा मार्बल तथा 12-55 हेक्टेयर एस-अंकुन मिनरल्स प्रा-लि- को 16-03-2005 को मार्बल उत्खनन हेतु स्वीकृत लीज के रूप में शासन द्वारा उक्त लीजधारकों को दिया गया है। जिसमें कटनी कलेक्टर द्वारा 31-03-2008 को भू-प्रवेश की अनुमति भी दे दी गई थी। इसी के समानांतर एक बात यह भी है कि ख-न- 220 के चारों ओर पूर्व से अन्य लीज धारकों की खदानें है जो विवादित भूमि से सटी हैं। इनमें ही, एक लीज धारक जिसे 12-55 हेक्टेयर रकवा की भूमि स्वीकृत हुई है। उस लीजधारक फर्म एस अंकुन मिनरल्स प्रा-लि- के डायरेक्टर का कहना हैं कि उनके स्वीकृत क्षेत्र में तीन दिशाओं से अतिक्रमण कर अन्य लीज धारकों द्वारा अवैधानिक तरीके से अरबों रूपयें का मार्बल (लीज स्वीकृत के पूर्व से अभी तक) उत्खनन करके बाजार में बेच लिया गया। लिहाजा उक्त भू-दोहन से हुई आय तथा शासकीय राजस्व की क्षतिपूर्ति का जिम्मेदार कौन रहेगा? इस वाजिव प्रश्न का जबाव भी शायद ! कटनी जिला प्रशासन के आला अफसरों के पास नही है! और यही कारण है उक्त लीजधारक नाप जोख कर सीमांकन की जिद् पर अड़ गया है। वजह यही रही कि उसने स्वीकृत लीज पर अभी तक काम का श्री गणेश भी नही किया।
ऐसे हालातों में सीमांकन का सत्यापन कैसे होगा और कौन करेगा? यदि यह कार्य दुष्कर नहीं, तो नाप- जोख करने से शासन व प्रशासन कतरा क्यों रहा?
दूसरा यह कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना करते हुए जिस तरह का कुचक्र चलाकर मार्बल माफिया ने प्रतिबंधित क्षेत्र का भू-दोहनकर अरबों रूपये के मार्बल का अवैधानिक कारोबार किया और जिला प्रशासन अपनी नाक के नीचे होते इस अवैधानिक कारोबार की अनदेखी करता रहा, उसके लिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना संबंधी भंग हुई मर्यादा की क्षतिपूर्ति कैसे हो सकेगी? और कौन कर पाएगा?

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

कब धुलेगा कुपोषण का कलंक







मध्य प्रदेश के माथे पर कुपोषण एक ऐसा कलंक बन गया है जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपये का बजट मुहैया कराया है लेकिन खंडवा जिले के खालवा में जिस तेजी से कुपोषण फैला रहा है उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। खालवा में स्थिति नियंत्रण में है,जबकि हकीकत यह है कि कुपोषण के आंकड़ों से सरकारी मशीनरी सकते में है। जिले में कुपोषण के शिकार लगभग नब्बे बच्चे अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। कुछ ऐसे ही हालात प्रदेश के अन्य जिलों में भी हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी वर्तमान में राज्य में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक पाई गई है, जिनमें राज्य के झाबुआ, अलीराजपुर, मंडला, सीधी, धार और अनूपपुर जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7 से 15 प्रतिशत तक रही। हालांकि कुपोषण की स्थिति का पता लगाने के लिए बच्चों के वजन मापने के इस अभियान में कई तरह की खामियां और गड़बडियां भी सामने आईं, जिसके कारण प्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की वास्ततिक स्थिति सामने नहीं आ सकी। ऐसे में इन नतीजों पर पूरी तरह से भरोसा तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह राज्य सरकार और इसके कर्ता-धार्ताओं के लिए आंख खोलने वाले हैं। गड़बडियों में वजन मापने की मशीनों की कमी के कारण 30 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में दूसरे स्थानों से मशीने लाई गईं और कई मशीनें बिगड़ जाने से सुदूर ग्रामीण अंचलों में उन्हें सुधारा भी नहीं गया और मनमाने तौर पर बच्चों का वजन लिया गया। फिर भी इन ताजे परिणामों से भी यह सिध्द होता है कि मधयप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं।
कुपोषण को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में समेकित बाल विकास सेवाओं के लिए पूरे राज्य में जहां एक लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, जो कि राज्य के मात्र 76 फीसदी बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। मधयप्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में समेकित बाल विकास सेवा का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन तकरीबन 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
मध्यप्रदेश के माथे पर लगे चुके कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए प्रदेश सरकार जहां पानी की तरह पैसा बहा रही है वहीं आज भी मप्र में कुपोषण के नाम पर कुपोषित का नहीं, बल्कि किसी और का पोषण हो रहा है। हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ एक मिशन के तौर पर जिस तरह से 'अटल बाल अरोज्य एवं पोषण मिशनÓ की शुरुआत की है उससे तो यही लगता है कि यह 'पोषण मिशनÓ भी प्रदेश से कुपोषितों का पोषण करने के बजाय कहीं पोषितों के पोषण का जरिया न बन जाए। मिशन की शुरुआत जिस तरह से गरीब व भूखे को धयान में रखकर इसका नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया और शुभारंभ कार्यक्रम के दौरान प्रदेश का कोई कुपोषित बच्चों की नहीं, बल्कि प्रदेश के माननीयों और नौकरशाहों की टोली दिखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार यदि मिशन के शुभारंभ के अवसर पर स्वपोषितों के बजाय कुपोषितों को बुलाकर उनसे रूबरू होती तो शायद यह मिशन अपने मकसद में कामयाब होने के ज्यादा करीब रहता।
बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने मध्य प्रदेश के दस जिलों में किए गए सर्वे के आधार पर दावा किया है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। वहीं महिला बाल विकास मंत्री रंजना बघेल की माने तो वर्ष 2009-10 में 69 लाख 69 हजार से अधिक बच्चों का परीक्षण किया गया, जिनमें से 46 लाख 34 हजार से ज्यादा बच्चे सामान्य पाए गए, वहीं 23 लाख 34 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए। कुपोषित कुल 23 लाख 24 हजार बच्चों में से एक लाख 37 हजार बच्चे ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति यानी तीसरी व चौथी श्रेणी के हैं। उन्होंने बताया कि कुपोषण को रोकने के लिए पूरक पोषण आहार पर पिछले वित्त वर्ष में 51,166 लाख रुपए खर्च किए गए। वहीं क्राईका कहना है कि पूरे राज्य में आदिवासी समुदाय के 74 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चौंकाने वाला तथ्य तो यह है कि राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था के प्रदेश में इस सर्वे को पूरा करने वाले विकास संवाद के प्रशांत दुबे का कहना है कि सिर्फ रीवा जिले में अकेले 83 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था द्वारा राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों में कराए गए शोध के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले मिले हैं। भोपाल के लगभग 11 रिसेटमेंट कॉलोनियों से इक_ा किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यहां के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। जबकि इन्हीं इलाकों के 20 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
दिल्ली में क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है कि भले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज्य के सभी बच्चों के मामा होने का दावा करें लेकिन वे अभी भी राज्य के मासूम बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने में नाकाम साबित हुए हैं। राज्य में बच्चों के बेहतर देखभाल के लिए जरूरी आंगनबाड़ी का भी पूरी तरह इंतजाम नहीं करा पाए हैं। अभी भी पूरे मध्य प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत आंगनबाडिय़ों की कमी हैं। क्राई के एक अन्य सदस्य आरबी पाल का कहना है कि राज्य में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लगभग 74 फीसदी बच्चे भी कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
मध्यप्रदेश के बच्चे देशभर में वजन में सबसे कम और शारीरिक रूप से भी सबसे कमजोर हैं। केंद्र सरकार द्वारा एनीमिया और कुपोषण पर जारी आंकड़ों से यह शर्मनाक खुलासा हुआ है। प्रदेश के 60 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट (सामान्य से कम वजन) बताए गए हैं। इसके बाद झारखंड 56.6 और बिहार 55.9 प्रतिशत के साथ क्रमश:दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा हाल में राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद से कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 51.77 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। अति कुपोषित बच्चों की संख्या 8.34 फीसदी है। यानी अभी भी प्रदेश में सात लाख से अधिक बच्चे अति कुपोषित हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश में हर साल करीब 30 हजार बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक नहीं मना पाते और काल के गाल में समा जाते हैं। ये वो अभागे अबोधा बच्चे हैं, जो धारती पर पैर रखने के साथ ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जन्म के बाद पोषण आहार की कमी के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी कलंक की बदौलत मध्यप्रदेश देश के उन पिछड़े राज्यों में शुमार है, जहां शिशु मृत्युदर सबसे ज्यादा है। मधयप्रदेश में शिशुमृत्यु दर 70 प्रति हजार है। गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा की मार झेल रहे मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है, जबकि प्रदेश की भाजपा सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है। हालांकि पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार और केंद्र के अधिकृत प्रतिवेदनों के आधार पर जारी रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार को शर्म से झुकना पड़ा और उसने स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश में हर साल हजारों बच्चे कुपोषण के कारण बेमौत मारे जाते हैं।

पोषण आहार कार्यक्रम माफियाओं के कब्जे में

भारत सरकार के सहयोग से राज्य सरकार ने कुपोषण निवारण के लिए कई कार्यक्रम चला रखे हैं, लेकिन राज्य में पोषण आहार सप्लाई करने और उसका वितरण करने तक की पूरी प्रक्रिया माफियाओं के क़ब्ज़े में होने के कारण वास्तविक हितग्राहियों को पोषण आहार कार्यक्रम का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। सरकार ने इस योजना में अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े-छोटे मा़फिया तंत्र को प्रोत्साहित किया है, लेकिन अब यह मा़फिया तंत्र सरकार के नियंत्रण से बाहर होकर अपना हित साधन में लगा हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इन मा़फियाओं की उपस्थिति और करतूतों की भली प्रकार जानकारी है, इसीलिए उन्होंने इस कार्यक्रम को शहरी क्षेत्रों में सक्रिय मा़फियाओं से मुक्त रखने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री के स्पष्ट निर्देश थे कि भोपाल, इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे बड़े शहरों में एक समूह या प्रतिष्ठान को 15 से 20 आंगनवाडिय़ों में ही पोषण आहार आपूर्ति के लिए नियुक्त किया जाए। बाक़ायदा सरकारी फाइल चली और मुख्यमंत्री के इन निर्देशों पर महिला एवं बाल कल्याण विभाग की मंत्री और प्रमुख सचिव ने भी स्वीकृति की मोहर लगाई, लेकिन फाइलों में दबा यह आदेश शहरों तक नहीं पहुंचा हैं और इसलिए बड़े शहरों में सक्रिय पोषण आहार आपूर्ति करने वाले मा़फिया अभी भी खुलकर अपना खेल खेल रहे हैं और कुपोषित बच्चों तथा गऱीब माताओं के हिस्से को डकार रहे हैं।
पूरे प्रदेश में 69238 आंगनवाड़ी केंद्रों में पूरक पोषण आहार वितरण की व्यवस्था है, इनमें लगभग 50 लाख बच्चों और 10 लाख गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है। इन्हें 300 से 600 कैलोरी तक का प्रोटीन पोषण आहार के रूप में दाल-दलिया या अन्य खाद्य पदार्थ के रूप में दिया जाता है, लेकिन इस कार्यक्रम में कई खामियां, गड़बडिय़ा और घपले-घोटले होते रहे हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर पूरी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रदेश भर की आंगनवाडिय़ों में बच्चों और गर्भवती तथा धात्री माताओं को ताज़ा पका खाना देने के उद्देश्य से साझा चूल्हा योजना बनाई गई। मुख्यमंत्री ने योजना 15 जुलाई 2009 से शुरू करने के निर्देश दिए थे, पर योजना 1 नवम्बर से अस्तित्व में आ पाई इसके देर से शुरू होने का कारण भी दलिया मा़फिया और विभाग के कुछ अधिकारियों को माना जा रहा है।

विंध्य क्षेत्र में बच्चों की उपेक्षा

कुपोषण के कारण गऱीबी में जी रहे हज़ारों बच्चों की मौत की दर में सतना जि़ला अव्वल है। राज्य सरकार द्वारा बच्चों की सुरक्षा और सेहत के मामले में जारी किए गये कोई भी निर्देश सतना में प्रभावशील नहीं है। पिछले चार वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने राज्य में बच्चों की सुरक्षा पर हर साल औसतन दो रुपये और स्वास्थ्य पर पंद्रह रुपये खर्च किए हैं। एक ग़ैर सहकारी संगठन द्वारा जारी किये गए सर्वेक्षण रिपोर्ट से उपरोक्त तथ्यों का खुलासा हुआ है। वर्ष 2005 से लेकर 2009 तक क्रमश: 1603, 2060, 1688 और 1856 बच्चों की मौत सतना जिले में हुई है। वहीं रीवा और सीधी जिलों में क्रमश: इसी अवधि में 1051 और 573, 1324 एवं 1070, 972 एवं 1450, 702 एवं 1122 बच्चों की मौत हुई है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्येक बच्चे के स्वास्थ्य पर वर्ष 2004 से लेकर 2009 तक पंद्रह रुपया खर्च किया गया वहीं उड़ीसा राज्य द्वारा सत्रह रुपये और उत्तर प्रदेश द्वारा 60 रुपये व्यय किया गया। बाल सुरक्षा के मामले में प्रत्येक बालक पर सालाना खर्च मध्य प्रदेश में 01.94 रुपये और आंध्र प्रदेश द्वारा 27.54 रुपया किया गया। बलात्कार सहित बच्चों पर होने वाले अपराधों की संख्या भी प्रदेश में सबसे ज़्यादा है। राज्य सरकार द्वारा बाल शिक्षा पर 2004 से 2009 के मध्य प्रतिवर्ष प्रति बालक 1395 रुपये और इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश द्वारा 4894 रुपये व्यय किए गए।
ग़ैर सहकारी संगठन संकेत डेवलपमेंट ग्रुप द्वारा जारी रिपोर्ट में वर्ष 2001 से वर्ष 2009 तक राज्य सरकार द्वारा बच्चों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर बजट प्रावधानों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की शिक्षा शिशु विकास पर तुलनात्मक रूप से अधिक राशि खर्च की गई है जबकि बाल स्वास्थ्य और सुरक्षा को नजऱअंदाज़ किया गया है।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

रेत माफिया के कारण घडिय़ालों पर संकट






मध्य प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है. विंध्य क्षेत्र की सबसे बड़ी नदियों में शामिल की गई सोन नदी के तट पर बना घडिय़ाल अभ्यारण्य राज्य शासन की उपेक्षा और अनदेखी का शिकार बन चुका है. मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है.
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था. इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था. अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है. इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है. सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है.उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी. क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं.
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं. जिला चिकित्सालय वैढऩ में पदस्थ चिकित्सक डॉ. आर.बी. सिंह के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं. रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है.
मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है. सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है. सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं.
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है. मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है. अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है. श्री वर्मा के अनुसार शीघ्र ही वैज्ञानिक सर्वे कराया जाना प्रस्तावित है, इसके बाद भिन्न प्रजातियां एवं उनकी वास्तविक संख्या का आंकलन किया जा सकेगा.वरना बाघों की तरह इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं। घडिय़ालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडिय़ालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले। वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई डायनाशोर प्रजाति के विलुप्तप्राय घडिय़ालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है। अपने प्रजनन काल में घडिय़ालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वहीं चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों की अनदेखी से घडिय़ालों के इन नवजात बच्चों को बचा पानी काफी कठिन प्रतीत हो रहा है।
घडिय़ालों की हैरत अंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर क्लोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण की बजह से घडिय़ालों की मौत को कारण माना। वहीं दबी जुबां से घडिय़ालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडिय़ालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया। घडिय़ालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडिय़ालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर संकट के प्रति चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारी लगातार अनदेखी करते रहे हैं। घडिय़ालों की मौत की खबर भी इन अधिकारियों को हरकत में नहीं ला सकी और अब जबकि घडिय़ालों के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इटावा जनपद से गुजरने वाली चंबल में बड़ी संख्या में घडिय़ालों के बच्चों ने जन्म लिया है तो अभी तक इनकी सुरक्षा के लिए सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों ने कोई उपाय नहीं किए हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को जोडऩे वाली चंबल नदी में घडिय़ालों के बच्चों को नदी के किनारे बालू पर रेंगते हुए और नदी में अठखेलियां करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इतनी बड़ी संख्या में घडिय़ालों के प्रजनन के बारे में जानकर अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव प्रेमियों में उत्साह है तो वहीं इनकी सुरक्षा को लेकर चिंता भी जताई जा रही है। वन्य जीव प्रेमियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में मानसून में चंबल के बढ़ते वेग में कहीं यह बच्चे बह कर मर न जाएं परंतु इसके बावजूद भी चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों को इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है।
नेचर कंजर्वेसन सोसायटी फार नेचर के सचिव एवं वन्य जीव विशेषज्ञ डा. राजीव चौहान बताते हैं कि पंद्रह जून तक घडिय़ालों के प्रजनन का समय होता है जो मानसून आने से आठ-दस दिन पूर्व तक रहता है। घडिय़ालों के प्रजनन का यह दौर ही घडिय़ालों के बच्चों के लिए काल के रुप में होता है क्योंकि बरसात में चंबल नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप घडिय़ालों के बच्चे नदी के वेग में बहकर मर जाते हैं। इन बच्चों को बचाने के बारे में वह उपाय बताते हैं कि यदि इन बच्चों को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में संरक्षित कर तीन साल तक बचा लिया जाए तो इन बच्चों को फिर खतरे से टाला जा सकता है। वे कहते हैं कि महज दस फीसदी ही बच्चे बच पाते हैं जबकि 90 फीसदी बच्चों की पानी में बह जाने से मौत हो जाती है। वहीं डा.चौहान यह जानकर चौंकते हैं कि घडिय़ालों के बच्चों की संख्या हजारों में है। वह संभावना जताते हैं कि विगत दिनों इस प्रजाति को बचाने के लिए 840 बच्चों को नदी के ऊपरी हिस्से में छोड़ा गया था। कहीं ऐसा न हो कि यह वही बच्चे नीचे उतर आए हों परंतु नदी के तट पर जिस प्रकार से टूटे हुए अंडे नजर आते हैं उससे साफ है कि इन बच्चों ने अभी हाल ही में जन्म लिया है।

कैसे हुई संकट की शुरूआत?
देश मे दो घाटियां है,एक कश्मीर घाटी एवं एक चंबल घाटी। कश्मीर घाटी जहां आतंकवादियों के आंतक से ग्रस्त है। वहीं चंबल घाटी को खूंखार डकैतों की शरण स्थली के रूप मे दुनिया भर मे ख्याति हासिल है। इसी चंबल घाटी मे खूबसूरत नदी बहती है चंबल। जिसमें मगर, घडिय़ाल, कछुये, डाल्फिन समेत तमाम प्रजातियों के वन्यजीव स्वच्छंद विचरण करते है। इतना ही नहीं चंबल की खूबसूरती में चार-चांद लगाने के लिये हजारों की संख्या मे प्रवासी पक्षी भी आते है, लेकिन पिछले दिनो दुर्भल घडिय़ालों की मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब डाल्फिन एवं मगर तक आ पहुंचा है। खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद चंबल घाटी के वन्यजीवों पर जो संकट आया है। ऐसा लगता है कि खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद सक्रिय अधिकारियों ने चंबल की खूबसूरती को दाग लगा दिया है। राजस्थान से प्रवाहित चंबल मध्य प्रदेश होते हुये उत्तर प्रदेश के इटावा के पंचनंदा तक इतनी खूबसूरत है जहां एक साथ मगर, डाल्फिन और घडिय़ाल रहते है और यहां हजारों की तादात मे घडिय़ाल मर रहे थे. उस समय यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कहीं ऐसा तो कहीं ऐसा न हो कि चंबल की आने वाले दिनों मे खूबसूरती समाप्त हो जायें।
चंबल की खूबसूरती इसलिये भी बढ़ जाती है क्योकि यहां की रीजनल डायवर्सिटी अपने आप में खूबसूरत है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुन्दरता के कारण हजारो विदेशी पक्षी आते है, जिनकी 200 से अधिक प्रजातियां देखने को मिलती है। इसीलिए इस क्षेत्र को पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया था. लेकिन इटावा मे पिछले साल दिसम्बर के पहले सप्ताह मे चंबल नदी मे घडिय़ालों के मरने की खबरो ने सनसनी फैला दी। हालांकि पूछने पर वन अधिकारियों ने इससे साफ इंकार किया कि किसी घडिय़ाल की मौत हुई है. लेकिन वन पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फार कन्जरवेशन आफ नेचर के सचिव डा.राजीव चौहान ने इन मृत घडिय़ालों को खोज ही नही निकाला बल्कि वन अधिकारियों की उस करतूत को भी उजागर कर दिया जो उन्होने बेजुबान घडिय़ाल की मौत के बाद किया था।
अगर दुर्लभ घडिय़ालों, डाल्फिन एवं मगरों की मौत की बात करें तो कही न कही चंबल मे अधिकारियों का साम्राज्य हावी है और उन्हीं की यह करतूत है जो चंबल मे वन्यजीवो पर संकट आ खड़ा हुआ है। यह कब दूर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
कभी इटावा में चंबल नदी से इसी तरह से एक सौ से अघिक घडियाल भटक कर यमुना और दूसरी नदियों में चले गए थे, जो आज तक वापस नहीं लौट सके हैं। इसका कोई जबाव ना तो वन अधिकारियों के पास है, और ना ही इस अभियान में लगे विषेशज्ञ इस बारे में जानकारी देने तैयार हो रहे हैं। इनमें तो कई मर भी गए, लेकिन वन विभाग आज तक नहीं चेता है। इस बात को तब बल मिलता है, जब यमुना नदी से एक मरा हुआ घडियाल मिला। उसके बारे में कहा जा रहा है कि मछली का शिकार करने वालों ने इसे मार कर फेंक दिया है। इलाकाई लोगों के साथ पर्यावरणविदों का भी यही मानना है। वन्य जीव विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि चंबल नदी से पलायन कर यमुना नदी में पहुंचे 100 से अधिक घडियालों की जान अब शिकारियों के हाथ में हैं।
जिस तरह से चंबल के बजाय अब यमुना नदी से मरे हुए घडियाल बाहर निकल रहे हैं, उससे एक बार फिर से घडियालों की प्रजाति पर संकट सा आता नजर आ रहा है। यमुना नदी में मरे हुए घडियाल का परीक्षण करवा कर सैंपल बरेली स्थित आईबीआरआई लैब को भेज दिए गए हैं। अधिकारी घडियालों पर आने वाले हर प्रकार के संकट से निबटने के लिए तत्पर नजर आ रहे हैं। घडियाल को बचाने की दिशा में तमाम संगठन भी अधिकारियों के साथ सक्रिय नजर आ रहे हैं। इन सबके बावजूद, इतना तो तय है कि विलुप्त प्रजाति के इन घडियालों को बचाने की दिशा में चल रहा अभियान सही ढंग से काम नहीं कर रहा है, तभी तो घडियाल एक के बाद एक करके भटक रहे हैं।

बीहड़ों में तब्दील होती उपजाऊ भूमि

कहने को तो भारत कृषि प्रधान देशों की श्रेणी में आता है, इसके बावजूद हम गेहूं से लेकर अन्य खाद्य पदार्थों का आयात करने पर मजबूर हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे पास अन्न पैदा करने के लिए उपजाऊ भूमि और अन्य साधनों की कमी है. यहां तो 800 एकड़ कृषि योग्य भूमि ही बीहड़ों में तब्दील होकर बर्बाद हो रही है. चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है.
मनुष्य धरती की संतान है, इसलिए मनुष्य सब कुछ पैदा कर सकता है, लेकिन धरती पैदा नहीं कर सकता है. दुनिया में, और खासकर हमारे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. अनुमान है कि भारत की जनसंख्या 2020 तक 125 करोड़ हो जाएगी. ऐसे में धरती की कमी हमारे लिए एक समस्या बन सकती है. ऐसे में बर्बाद हो रही या उजाड़ हो रही बीहड़ भूमि को समतल बनाकर उसे मनुष्य के काम आने लायक रूप देना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में चंबल नदी के कच्छार में एल्यूवियल मिट्टी के कारण लाखों हेक्टेयर भूमि उबड़-खाबड़ होकर बीहड़ के रूप में व्यर्थ पड़ी हुई है. इसके साथ ही भूमि में कटाव के कारण हर साल हज़ारों एकड़ उपजाऊ भूमि बीहड़ में तब्दील हो रही है. मध्य प्रदेश में 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ भूमि है, जिसका अधिकांश भाग मध्य प्रदेश के उत्तरी अंचल में बसे जि़ला भिंड, मुरैना एवं श्योपुर में स्थित है. भिंड मुरैना एवं श्योपुर जि़लों में ही हर वर्ष लगभग 800 हेक्टेयर भूमि बीहड़ के रूप में परिवर्तित हो जाती है जिसकी अनुमानित क़ीमत लगभग 400 करोड़ रुपये है. उत्तर मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश राजस्थान के लगे हुए जि़ले इटावा, उरई, जालौन, आगरा, धौलपुर, भरतपुर आदि का यह अंचल यहां डाकुओं के आतंक से जाना जाता है. वहीं दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से यह अभिशाप बीहड़ बाहुल्य क्षेत्र के नाम से भी जाना जाने लगा है.
सामाजिक एवं सर्वोदय कार्यकर्ताओं के प्रयासों से इस क्षेत्र में डाकुओं द्वारा आत्म समर्पण के कारण मुक्ति मिल जाने से एक नई आशा की किरण का उदय हुआ है. परंतु इस आशा की किरण का पूर्ण लाभ इस क्षेत्र की जनता को तब तक प्राप्त नहीं होगा, जब तक सदियों से बने बीहड़ों को कृषि भूमि एवं वन भूमि में नहीं बदल दिया जाता, जिसकी अभी तक गंभीर उपेक्षा हुई है. चंबल संभाग के भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में चंबल, सिंध, क्वारी, बेसली, सीप, सोन, कूनों एवं इनकी सहायक नदियों द्वारा अत्यंत उपजाऊ भूमि को बीहड़ों में परिवर्तित कर दिया गया है. संभाग के 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 3.10 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ों में रुपांतरित हो चुकी है जो कि संभाग के संपूर्ण क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत है, जिसकी क़ीमत खरबों रुपये हैं. यह भी अनुमानित है कि लगभग 800 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि प्रति वर्ष बीहड़ में बदलती जा रही है. यदि बीहड़ भूमि को बीहड़ बनने से नहीं रोका गया तो अगली शताब्दी तक भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़ले पूरी तरह से बीहड़ में परिवर्तित हो जाएंगे एवं इस बीहड़ की सीमा ग्वालियर एवं दतिया जि़लों को छूने लगेगी.
चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है. भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में अलग-अलग गहराई के बीहड़ हैं. 0 से 1.5 मीटर गहराई के 0.738 लाख हेक्टेयर, 1.5 से 5 मीटर के 1.265 लाख हेक्टेयर, 5 मीटर से 10 मीटर की गहराई के 0.615 लाख है एवं 10 मीटर से अधिक गहराई के 0.489 लाख हेक्टेयर बीहड़ भूमि अनुमानित है. पूर्व ग्वालियर स्टेट के बंदोबस्त के अनुसार मुरैना तहसील का बीहड़ का क्षेत्रफल तहसील के कुल क्षेत्रफल का 21 प्रतिशत था, जबकि वर्ष 1989 में यह बीहड़ क्षेत्र लगभग दो गुना होकर 42 प्रतिशत हो गया था. इसी प्रकार भिंड तहसील के कुल क्षेत्रफल का 49 प्रतिशत बीहड़ क्षेत्रफल है जो कि अब बीहड़ बनने की तीव्र रफ्तार एवं बीहड़ रोकने के गंभीर उपाय न होने से अब यह बीहड़ क्षेत्रफल लगभग तिगुना हो गया होगा.
50 गांवों का अस्तित्व ख़तरे में
चंबल, कछार में अब तक भूमि के कटाव से जो नुकसान हो चुका, उसे अनदेखा किया जाता रहा है, लेकिन आगे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, यह चिंता का विषय है. जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के भूगर्भ शास्त्र विभाग द्वारा किए गए शोधकार्य से पता चला है कि चंबल घाटी में जिन 213 गांवों का अध्ययन किया गया, उनमें से 14 गांव तो उजडऩे की कगार पर हैं, क्योंकि बीहड़ इन गांवों से केवल 100 मीटर दूर रह गए हैं और ये बीहड़ कभी भी फैलकर इन गांवों को लील सकते हैं. इनके अलावा 23 गांवों में बीहड़ अभी 200 मीटर दूर हैं और 13 गांवों में 500 मीटर दूर बने बीहड़ इन गांवों को लीलने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. सेटेलाईट चित्रों से इन गांवों की तस्वीर आई है.
भूगर्भ अध्ययन शाला, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के विभाग प्रमुख प्रोफेसर एसएन महापात्रा का कहना है कि शोधकार्य से यह पता चला है कि चंबलघाटी में हो रहे मिट्टी के अपरदन की वज़ह से लगभग 50 गांवों पर बीहड़ में तब्दील होने का ख़तरा मंडरा रहा है. अब इस बात को लेकर शोध किया जा रहा है कि मिट्टी के कटाव को कैसे रोका जा सके.
बीहड़ के नज़दीकी गांव खुशहाली और समृद्धि से कोसो दूर हैं. मिट्टी के लगातार कटाव से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई है. कृषि योग्य भूमि लगातार बीहड़ों में बदलती जा रही है, ऐसे में इन गांवों के किसानों का जीवन काफ़ी कठिन और समस्याग्रस्त हो गया है. इस समस्या से चिंतित शोधकर्ता अब इस अध्ययन में जुटे हैं कि ऐसा कौन सा उपाय किया जाए कि घाटी का कटाव रुक जाए और हज़ारों घर बर्बाद होने से बच जाए. हालांकि शोधकर्ताओं को भरोसा है कि वे जल्दी ही किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे, जिससे इन गांवों को बीहड़ बनकर उजडऩे से रोक लिया जाएगा. मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, आर्गेनिक कार्बन, पोटेशियम, पीएच जिसमें हाईड्रोजन आयंस होते हैं. मृदा की अम्लीय एवं क्षारीय स्थिति को स्पष्ट करते हैं. बारिश होने पर मृदा में मौजूद ये पोषक तत्व बह जाते हैं.
पर्यावरण संकट की दृष्टि से इटावा जिला निरंतर संवेदनशील होता जा रहा है। यहां की चंबल, यमुना और क्वारी नदी के बीच के गांव बंजर बीहड़ का रूप लेते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग पांच सौ हैक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बीहड़ों में तब्दील हो रही है। लकड़ी का भारी कटान अगर इसी तरह होता रहा तो यहां का पूरा क्षेत्र रेगिस्तान हो जायेगा। लकड़ी कटान का धंधा बेखौफ जारी है।
जिन माननीयों के हाथों पौधे रोपे जाते हैं वह उस दिन के बाद कभी उसे मुड़कर भी नहीं देखते सबसे दु:खद बात तो यह है कि जो संस्थायें पौधरोपण कराती हैं वह भी उस दिन के बाद एक दिन भी पानी डालने कभी नहीं जाती। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो पौधों के जीवन रक्षा की किसी को चिंता नहीं है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष करोड़ों पौधे रोपे जाते हैं और हजारों भी पेड़ नहीं बन पा रहे। राज्य सरकार ने तो गत वर्षो में 31 जुलाई को प्रदेश भर के स्कूलों को लक्ष्य देकर पौधे रोपने का काम कराया था लेकिन यह अभियान भी समारोह बनकर रह गया। स्कूलों में हरियाली कितनी बढ़ी यह किसी से छिपा नहीं है।
चंबल यमुना क्षेत्र में बढ़ते बीहड़ से चिंतित होकर दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने हैलीकाप्टर से विलायती बबूल के बीज जमीन पर गिरवाये थे लेकिन यह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं हो सका। इस क्षेत्र की जमीन पर बेशरम ने पैर जमाये जिसने जमीन की उत्पादन क्षमता को निरंतर कमजोर ही किया। अब जब सड़कों का जाल बिछ रहा है ईट भट्टे बढ़ रहे हैं तब उपजाऊ भूमि पर संकट स्वाभाविक ही है।
चंबल क्षेत्र में बीहड़ों का विस्तार गांव के गांव लीलता जा रहा है. इस अंचल के भिंड, मुरैना और श्योपुर जिलों में हर साल पन्द्रह सौ एकड़ भूमि बीहड़ में बदल रही है. इन जिलों की कुल भूमि का 25 फीसद हिस्सा बीहड़ों का है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चंबल नदी घाटी क्षेत्र में 3000 वर्ग किलोमीटर इलाके में बीहड़ों का विस्तार है. इन जिलों की छोटी-बड़ी नदियां जैसे बीहड़ों के निर्माण के लिए अभिशप्त हैं.

चंबल में 80 हजार, कुआंरी में 75, आसन में 2036, सीप में 1100, बैसाली में 1000, कूनों में 8072, पार्वती में 700, सांक में 2122 और सिंध में 2032 हेक्टेयर बीहड़ हैं. बीते आठ सालों में करीब 45 प्रतिशत बीहड़ों में वृद्धि दर्ज की गई है. इन बीहड़ों का जिस गति से विस्तार हो रहा है, उसके मुताबिक 2050 तक 55 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बीहड़ों में तब्दील हो जाएगी. इन बीहड़ों का विस्तार एक बड़ी आबादी के लिए विस्थापन का संकट पैदा करेगा.

जमीन की सेहत अब प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानव उत्सर्जित कारणों से ज्यादा बिगड़ रही है. पहले भूमि का उपयोग रहवास और कृषि कार्यों के लिए होता था, लेकिन अब औद्योगीकरण, शहरीकरण बड़े बांध और बढ़ती आबादी के दबाव भी भूमि को संकट में डाल रहे हैं. जमीन का खनन कर उसे छलनी किया जा रहा है, तो जंगलों का विनाश कर बंजर बनाए जाने का सिलसिला जारी है. जमीन की सतह पर ज्यादा फसल उपजाने का दबाव है तो भू-गर्भ से जल, तेल व गैसों के अंधाधुंध दोहन के हालात भी भूमि पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं. पंजाब और हरियाणा में सिंचाईं के आधुनिक संसाधन हरित क्रांति के उपाय साबित हुए थे, लेकिन ज्यादा मात्रा में पानी छोड़े जाने के कारण कृषि भूमि को क्षारीय भूमि में बदलने के कारक सिद्ध हो रहे हैं.