सोमवार, 15 सितंबर 2014

बंदी की कगार पर ताप विद्युत गृह

-रिलायंस, जेपी, प्रिज्म सीमेंट ने दबाया कोयला
-विद्युत गृहों को कोयला आपूर्ति में हो रहा खेल
ताप गृहों की स्थिति
ताप विद्युत गृह कोयला खपत प्रतिदिन क्षमता उत्पादन
संजय गांधी पाली 15 हजार टन 3 करोड़ यूनिट 1.99करोड़
अमरकंटक चचाई 5 हजार टन 1 करोड़ यूनिट 66लाख
सारणी 15 हजार टन 3 करोड़ यूनिट 1.55 करोड़
खंडवा 5 हजार टन 1 करोड़ यूनिट 24 लाख
सुलगते सवाल
-यदि ताप विद्युत गृह संयंत्र बदतर स्थिति के कारण परफार्मेंस नहीं दे रहे, तो हर साल करोड़ों का मेंटेनेंस क्या कागजी है?
-अकसर कोयला न होने या कोयला घटिया होने का बहाना कम उत्पादन के लिए प्रबंधन गढ़ता है, तो लायजनर को क्लीन चिट क्यों?
-कम सीवी के कोयले से एनटीपीसी व निजी संयत्रों में 80 फीसदी बिजली उत्पादन, लेकिन एमपीजेपीसी के संयंत्रों में 62 से 66 फीसदी क्यों? -क्या अच्छी ग्रेड का कोयला प्रबंधन बदल लेता है?
- 17 मार्च 2013 से मप्र पावर जनरेशन कंपनी का रियल टाइम डाटा देने वाली बेवसाइट पर पासवर्ड देकर जनता के लिए क्यों बंद किया गया?
-कोल कैलोरिफिक कैलकुलेटर संयंत्रों में क्यों नहीं?
भोपाल। यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा की देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत उपलब्ध कराने वाले मप्र के ताप विद्युत गृह कोयले की कमी होने के कारण बंदी की कगार पर पहुंच गए हैं। प्रदेश के बिजली घरों में कोयले का संकट गहराता जा रहा है। एमपी पावर जनरेशन कंपनी ने संकट से निपटने के लिए घरेलू उत्पादन करने वाली कई इकाइयों को बंद कर दिया है, जबकि मांग और आपूर्ति में अंतर पाटने के लिए सेंट्रल ग्रिड और निजी सेक्टर से महंगे दर पर बिजली खरीदी जा रही है। वहीं कोयले की कमी के कारण मेंटनेंस और खराबी के नाम पर सतपुड़ा थर्मल पावर प्लांट की सर्वाधिक तीन इकाइयां बंद हैं। इनमें 62.5 मेगावाट की यूनिट नंबर 1, 200 मेगावाट की यूनिट नंबर 6, 250 मेगावाट की यूनिट नंबर 10 शामिल हैं। इसी प्रकार संजय गांधी थर्मल पावर प्लांट की 210 मेगावाट की इकाइयां बंद हैं। इनमें यूनिट नंबर 1 और 4 शामिल हैं। अमरकंटक थर्मल पावर प्लांट में लगी 120 मेगावाट की यूनिट नंबर 4 लंबे समय से बंद हैं। तीन माह पहले सिंक्रोनाइज हुई सिंगाजी थर्मल पावर प्लांट में लगी यूनिट नंबर 1 फिर से बंद हो गई है। इससे 600 मेगावाट बिजली का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। प्रदेश के ताप विद्युत गृहों में कोयले की कमी होने के अलग-अलग तर्क दिए जा रहे हैं। अधिकारियों के अनुसार कोयले की कमी की बड़ी वजह साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड की खदानों पर लोडिंग और प्रदेश के पावर प्लांटों में अनलोडिंग में देरी है। कोयले के रैक पावर प्लांटों में घंटों विलंब से अनलोड होते हैं जिससे रेलवे को हर्जाना देना पड़ रहा है। विलंब के चलते प्रतिमाह आवंटित कोयले की मात्रा भी बिजली उत्पादन में नहीं खप रही है। साथ राज्य सरकार केंद्र को जिम्मेदार मान रही है,जबकि केंद्र का कहना है कि रिलायंस, जेपी, प्रिज्म सीमेंट जैसी कंपनियों ने कोयला दबा रखा है इसलिए मप्र में कोयला संकट उत्पन्न हुआ है। कोयले के संकट के बीच सरकार ने कोयला दबाकर बैठी निजी कंपनियों की पड़ताल शुरू कर दी है। दो दर्जन से अधिक कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक की समीक्षा की जा रही है। इनमें मप्र में रिलायंस, जेपी गु्रप, प्रिज्म सीमेंट जैसी कंपनियां भी शामिल हैं। केंद्र के राडार में मप्र खनिज विकास निगम के भी दो कोल ब्लॉक शामिल हैं। गौरतलब है कि गत फरवरी माह में कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक में उत्पादन शुरू नहीं किए जाने पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने नाराजगी जाहिर की थी। कंपनियों को नोटिस जारी कर आधा दर्जन से अधिक की बैंक गारंटी राजसात की थी, लेकिन कंपनियों पर फर्क नहीं पड़ा। इस समय कोयले का संकट चरम पर होने से फिर सरकार ने कोल ब्लॉकों की खैर खबर लेने की तैयारी में है। कोल मंत्रालय ने गतदिनों ब्लॉकों की समीक्षा की तो कई विसंगतियां सामने आईं,जिसके कारण मप्र में कोयला संकट उत्पन्न हुआ है। कोल मंत्रालय की समीक्षा में कोल ब्लॉक आवंटन मामले में अब एक नया खुलासा हुआ है। बताया जाता है कि प्रदेश सरकार की अनुशंसा पर जिन कंपनियों को मप्र में कोल ब्लॉक आवंटित किए गए थे उनमें से कईयों ने या ता अभी उत्पादन शुरू नहीं किया है या फिर वे कोयला सप्लाई नहीं कर रही हैं। कोयला मंत्रालय इसके लिए मप्र सरकार की ढुलमुल नीति को दोषी मानता है। निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने कायदे ताक पर कोल मंत्रालय की समीक्षा में कोल ब्लॉक आवंटन मामले में अब एक नया खुलासा हुआ है। मध्य प्रदेश सरकार ने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सारे नियम कायदे ताक पर रख दिए। नतीजा ये कि कोयला खनन से होने वाली कमाई का मोटा हिस्सा निजी कंपनी की जेब में जा रहा है। मध्य प्रदेश सरकार ने अमेलिया ब्लॉक की 70 फीसदी हिस्सेदारी उसके हवाले कर दी थी। सरकारी कोल ब्लॉक का मालिकाना हक निजी हाथ में दिए जाने का मामला गंभीर था। ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। सुप्रीम कोर्ट ने निजी कंपनी और राज्य सरकार के बीच समझौते को रद्द करने का फैसला दिया। इसके बाद केंद्र ने मध्य प्रदेश को अमेलिया कोल ब्लॉक के लिए निजी कंपनी के साथ हुए समझैते को रद्द करने के लिए कहा। केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी मध्य प्रदेश सरकार दो साल तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और दो साल बाद कार्रवाई हुई भी तो नाम मात्र की। एमपी सरकार ने निजी कंपनी के साथ समझौता रद्द नहीं किया बल्कि कोल ब्लॉक में उसकी हिस्सेदारी भर घटा दी। खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला ने बताया कि जो ज्वाइंट वेंचर कंपनी बनी है उसमें 51 फीसदी शेयर सरकार का है बाकी 49 फीसदी सैनिक माइनिंग कंपनी का तो फिर वो सरकारी ब्लॉक हो गया। आज की तारीख में सरकार का मालिकाना हक है। तमाम सवालों और आरोपों के बावजूद राज्य सरकार अब भी इस मामले में अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। उधर,मप्र के अधिकारियों का कहना है कि चूंकि प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा था तो खनिज निगम ने पॉलिसी बनाई थी कि जो हमको सब्सिडाइज्ड रेट पर बिजली देगा उनको हम कोयला देंगे। उसमें हमारा मध्यप्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड भी है। जिस सैनिक माइनिंग कंपनी के साथ अनुबंध हुआ उससे साठ फीसदी कोयला इसी बोर्ड को बीस फीसदी सब्सिडाइज्ड रेट पर मिलेगा। बाकी दो कंपनियां भी प्रदेश को सब्सिडाइज्ड रेट पर बिजली उत्पादन करेंगी, उनको हम कोयला देंगे। यही नहीं, करीब 150 करोड़ रूपए की बकायादार एसीसी सीमेंट ग्रुप की एएमआरएल (एसीसी माइनिंग रिसोर्स डेवलपमेंट लिमिटेड)और जेपी ग्रुप की 3 कंपनियों को बिना वसूली मप्र खनिज विकास निगम ने 50 हजार करोड़ रूपए के 7 कोल ब्लॉक में खनन का अधिकार दे दिया है। निगम और कंपनियों में इतना बड़ा सौदा मात्र एक आश्वासन पर हुआ, जिसमें कंपनियों ने बकाया खनिज राजस्व जमा करने की बात कही थी। इतना ही नहीं, खनन एग्रीमेंट पर दस्तखत के बाद इन कंपनियों ने बकाया चुकाने की जगह प्रदेश सरकार को ठेंगा दिखा दिया। फिलहाल बकाए का ये मामला हाई कोर्ट में है। करोड़ों के बकाएदारों पर हुई अरबों की मेहरबानी दरअसल, केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने 2006 से 07 के बीच मप्र खनिज विकास निगम को 9 कोल ब्लॉक आवंटित किए। इनमें दो छत्तीसगढ़ के हैं। कोयला उत्पादन के लिए निगम ने साझा उपक्रम कंपनियों को खोजा। निविदाएं बुलाई गई, जिनमें 140 कंपनियां आई। इन सभी को दरकिनार कर निगम ने खजिन विभाग की करोड़ों की रॉयल्टी के बकायादार एसीसी की एएमआरएल से चार और जेपी ग्रुप की 3 कंपनियों से ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए, जबकि 2 अन्य ब्लॉक के लिए मोनेट इस्पात और सैनिक कोलफील्ड्स से करार किया गया है। जेपी : 124 करोड़ का बकाया इसकी तीन कंपनियां जेपी कोल फील्ड्स, जेपी कोल लि. एवं जेपी माइनिंग एंड मिनरल्स को ब्लॉक मिले। एक झटके में तीनों कंपनियां 35 हजार करोड़ रूपए के कोल भंडार की मालिक बन गर्ई, जबकि कंपनियों की मातृ संस्था जेपी ग्रुप पर रीवा में 114 करोड़ और सीधी व सतना में भी करीब 10 करोड़ की देनदारी बकाया है। एसीसी : 20 करोड़ की देनदारी 2011 में खनिज विभाग कटनी ने विजयराघवगढ़ में स्थापित 20 करोड़ की बकायादार एसीसी सीमेंट को खदानें बंद कराने का नोटिस भेजा था। बकाया तो मिला नहीं, बदले में निगम ने इसकी कंपनी एएमआरएल को 18 हजार करोड़ के चार कोल ब्लॉक दे दिए। इनमें एक छत्तीसगढ़ में है। अब ये कंपनियां मनमानी पर उतर आई हैं। ये कोल इंडिया की गाइड लाइन के अनुसार न तो कोयले का खनन कर रहीं हैं और न ही समय पर सप्लाई। यही नहीं ये कंपनियां अच्छी क्वालिटी का कोयला जमा कर रही हैं और घटिया किस्म का कोयला सप्लाई किया जा हरा है। केंद्र द्वारा निजी कंपनियों को आवंटित 56 ब्लॉकों पर सवाल उठाते हुए कैग ने भी जो गणना की, उसके मुताबिक 1.86 लाख करोड़ राजस्व की क्षति हुई। गणना के अनुसार कोयले की बेस प्राइज 1028 रूपए प्रति टन रखी गई। मप्र खनिज विकास निगम को आवंटित खदानों में 103.5 करोड़ टन कोयला भंडार है। एग्रीमेंट के मुताबिक जेपी ग्रुप को मिले ब्लॉकों में 34.82 करोड़ टन एवं एएमआरएल के चार ब्लॉकों में 18.96 करोड़ टन कोयला अनुमानित है। बेस प्राइज के अनुसार इनसे 50 हजार करोड़ से अधिक का कोयला उत्पादित होगा। बाजार मूल्य पर यह कीमत और ज्यादा होगी। इस मामले में खनिज विभाग के सचिव अजातशत्रु श्रीवास्तव कहते हैं कि एसीसी सीमेंट और जेपी एसोसिएट के खनिज राजस्व बकाया संबंधी मामले हाई कोर्ट में हैं, इसलिए इस विषय पर कुछ भी नहीं कह पाऊंगा। कंपनियों के लिखित आश्वासन के बारे में हाई कोर्ट में सरकार की ओर से पक्ष रखा जाएगा। जेपी को बना दिया मालिक सत्ता के गलियारों के रसूखदार कार्पोरेट घराने जेपी एसोसिएट पर सरकार की मेहरबानी का एक और खुलासा हुआ है। मप्र खनिज विकास निगम ने कंपनी को संयुक्त भागीदार बनाने की बजाय मप्र के सबसे बडे कोल ब्लॉक्स में से एक 12 हजार करोड़ के अमिलिया ब्लॉक का मालिक बना दिया। इसमें जेपी ग्रुप की भागीदारी 51 फीसदी है, जबकि मप्र सरकार के हिस्से में 30 फीसदी का मुनाफा आएगा। भारत के कार्पोरेट इतिहास का यह पहला मामला है जब कोई ज्वाइंट वेंचर कंपनी परिसंपत्ति की मालिक बनी है। ऐसा तभी हो सकता है जब सार्वजनिक क्षेत्र का कोई उपक्रम अपनी भागीदारी को बेच दे, लेकिन मप्र सरकार ने अमिलिया कोल ब्लाक के एग्रीमेंट की मेहरबानी के साथ मालिकाना हक भी जेपी गु्रप को सौंप दिया। निगम को ऐसा करने का अधिकार भी नहीं था। अपने ही हाथों 21 फीसदी भागीदारी के साथ ही मालिकाना हक गंवाने वाली राज्य सरकार को अरबों रूपए का चूना लगना तय है। 19 फीसदी शेयर किसका? अमेलिया कोल ब्लॉक का करार हुए करीब आठ साल बीत चुके हैं लेकिन इस ब्लॉक में 19 फीसदी शेयर किसका है यह रहस्य ही बना हुआ है। सरकार और जेपी ग्रुप के बीच हुए अनुबंध के अनुसार 30 प्रतिशत भागीदारी मप्र खनिज विकास निगम के पास रहेगी। कोल ब्लॉक को विकसित करने में उसे कोई राशि नहीं वहन करनी पड़ेगी। जबकि 51 फीसदी शेयर कंपनी के पास रहेंगे। शेष 19 फीसदी में कौन, इस पर दोनों मौन हैं। 12 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक का मालिकाना हक निजी कंपनी को सौंपे जाने पर भारत सरकार ने आपत्ति जताई थी। इसके बाद मप्र खनिज विकास निगम ने दो अन्य कोल ब्लॉक्स डोंगरी ताल दो जिला सिंगरौली और मंडला के लिए जो अनुबंध किए उसमें 51 फीसदी की भागीदारी अपने पास रखी और 49 प्रतिशत जेपी ग्रुप की कंपनियों को दिए। ऐसा ही एसीसी सीमेंट के साथ चार कोल ब्लॉक्स के करार क्रमश: 51 और 49 फीसदी के अनुपात में ही किए गए। इस तरह से हुआ खेल मप्र सरकार की करोड़ों के खनिज राजस्व की बकायादार कंपनी जेपी ग्रुप ने सरकार से सिंगरौली जिले के निगरी में 1000 मेगावॉट उत्पादन क्षमता का थर्मल पॉवर प्लांट लगाने का एमओयू साइन किया था। इसके बाद कंपनी कोल ब्लॉक हासिल करने की जुगत में लग गई। इसी दौरान मप्र सरकार के उपक्रम खनिज विकास निगम को कोल ब्लॉक आवंटित किए गए। सरकार से सांठगांठ कर कंपनी बकाया राशि पटाए बिना 118 मिलियन टन क्षमता वाले 12 हजार करोड़ के अमेलिया कोल ब्लॉक की ज्वाइंट वेंचर बन गई। जनवरी 2006 में हुए करार में सरकार ने 51 फीसदी हिस्सा जेपी गु्रप को सौंपते हुए मालिक ही बना दिया। प्रदेश की दो बड़ी सीमेंट कंपनियों जेपी एसोसिएट और एसीसी सीमेंट के धोखे का शिकार होने के बाद भी राज्य सरकार की उन पर मेहरबानी बरकरार है। मप्र खनिज विकास निगम लिमिटेड से 50 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट करने वाली करोड़ों की बकायादार इन कंपनियों ने बकाया राशि जमा करने के लिए सरकार से मोहलत मांगी थी। सरकार ने आश्वासन पत्र पर भरोसा कर समय भी दे दिया। इसके बावजूद कोल ब्लॉक एग्रीमेंट के बाद बकाया राशि जमा कराने की जगह कंपनियों ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और स्टे ले लिया। हजारों करोड़ के टर्नओवर वाले जेपी समूह ने रीवा व सीधी में बकाया 61 करोड़ रूपए पटाने में आर्थिक तंगी का हवाला देकर असमर्थता जताई थी। एग्रीमेंट और खदान आवंटन के लिए जेपी के एमडी सनी गौड़ ने जनवरी 2013 में सरकार को अंडरटेकिंग देकर बकाया जमा करने के लिए समय मांगा था। साथ ही कहा था कि कोल ब्लॉक मिलने के बाद जुलाई 2013 तक बकाया किश्तों में जमा करेंगे। लेकिन इससे मुकरते हुए कंपनी हाई कोर्ट चली गई। जेपी ने कोल ब्लॉक एग्रीमेंट और खदानों की पीएल मिलने के बाद बकाया के साथ नियमित रायल्टी का भुगतान भी रोक दिया। लिहाजा इस कंपनी पर रीवा जिले का खनिज राजस्व बकाया बढ़कर 114 करोड़ पहुंच गया। इस मामले में रीवा के जिला खनिज अधिकारी आरएन मिश्र कहते हैं कि जेपी गु्रप द्वारा बकाया चुकाने के लिए अंडरटेकिंग दी गई थी। बाद में रकम नहीं जमा कराई गई अब वसूली पर हाईकोर्ट से स्थगन है। नियमित रायल्टी की राशि के भुगतान लेने के प्रयास किए जा रहे हैं। रीवा में बकाया राशि 114 करोड़ है। एसीसी सीमेंट को दिया था नोटिस कटनी में 20 करोड़ बकाया होने के बाद भी एसीसी ने 4 कोल ब्लॉक और लाइम स्टोन की खदानें ले लीं। 2011 में जिला खनिज अधिकारी कटनी ने 20 करोड़ की बकाया राशि जमा कराने के लिए नोटिस देते हुए लाइम स्टोन की खदानों में खनन पर रोक की चेतावनी दी थी। एसीसी ने राशि पटाने के बजाय हाईकोर्ट में याचिका लगाकर वसूली पर रोक लगाने का आग्रह किया। कटनी के जिला खनिज अधिकारी जितेन्द्र सिंह सोलंकी कहते हैं कि एसीसी सीमेंट पर जो भी बकाया राशि है, उसकी वसूली हाईकोर्ट के आदेश के बाद नहीं की जा रही है। नियमित रायल्टी भुगतान मिल रहा है। विद्युत गृहों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? आखिर मप्र के ताप विद्युत गृहों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? जवाब एक ही मिलता है,मप्र जनरेटिंग पावर कंपनी के अधिकारी की नीति और नीयत। ताप विद्युत गृहों को निजीकरण की ओर धकेलने वाली एमपीजेपीसी के अधिकारियों की नीति ने ताप विद्युत गृहों को दिवालिया बना दिया है। इसे आंकड़ों की बानगी भी समझा जा सकता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एनटीपीसी व निजी थर्मल पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 78 से 82 फीसदी तक दर्ज किया जाता है, जबकि एमपीजेपीसी द्बारा नियंत्रित चार थर्मल पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 66 फीसदी दर्ज किया गया । हाल ही में स्वयं सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने ही पत्र लिखकर कोयला मंत्री पीयूष गोयल से इस बात का खुलासा किया है कि एमपीजेपीसी के संयंत्रों को 5800 कैलोरिफिक वैल्यू (सीवी)का कोयला दिया जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 10 साल पूर्व वर्ष 2004-05 में एमपीजेपीसी के पावर संयंत्रों का परफार्मेंस 72.5 फीसदी दर्ज किया गया था, जबकि उस दौरान संयंत्रों को कोयला 2700-2900 सीवी का आपूर्ति किया जाता था। इधर लंबे अर्से से 5800 सीवी का कोयला मिलने लगा तो परफार्मेंस घटकर 62 फीसदी में सिमट गया। पावर सेक्टर के एक्सपट्र्स की माने तो डिजायन हीट रेट के सिद्धांत के अनुसार परफार्मेंस यानि बिजली उत्पादन बढऩा चाहिए था, लेकिन तीन गुना महंगा कोयला प्रयोग करने के बाद भी बिजली उत्पादन में आई गिरावट निजीकरण की पृष्ठ भूमि तैयार करने की गहरी साजिश की ओर इशारा करता है,जिसमें मददगार साबित होते नजर आ रहे हैं, मप्र जनरेटिंग पावर के जिम्मेदार अधिकारी । रोजाना फुंक रहा 40 हजार टन कोयला राज्य के एमपीजेपीसी के संयंत्रो में रोजाना औसतन 40 हजार टन कोयला फुंकता है, जिससे मांग के 15 करोड़ यूनिट बिजली के मुकाबले महज 4 करोड़ 55 लाख यूनिट बिजली उत्पादित होती है। इसमे से 10 लाख यूनिट हाइड्र संयंत्रों से पूरी की जाती है। आंकड़े साफ बताते हैं कि तकरीबन आठ करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन की क्षमता रखने वाले एमपीजेपीसी के संयंत्रों में पचास फीसदी बिजली ही उत्पादित हो रही है जबकि खर्च चार गुना अधिक किया जा रहा है। क्या कहता है कि डिजायन रेट सिद्धांत डिजायन रेट सिद्धांत के अनुसार 5800 सीवी का कोयला उपयोग होने पर प्रति यूनिट पांच सौ से साढ़े पांच सौ ग्राम कोयला खर्च होना चाहिए, लेकिन संजय गांधी ताप विद्युत गृह में रहस्यमयी अंदाज में 800-850 ग्राम कोयला फूंका जा रहा है। कमोबेश यही स्थिति एमपीजेपीसी के सभी संयंत्रों की है। जाहिर है कि तीन गुने महंगे कोयले की खपत करने वाले संयंत्रों में 25 फीसदी कोयला अतिरिक्त फुंक रहा है। सिर्फ संजय गांधी ताप विद्युत गृह में रोजाना लगभग तीन करोड़ का तीन हजार टन कोयला कुप्रबंधन के कारण अतिरिक्त जला दिया जाता है। जाहिर है कि एमपीजेपीसी पर कोयला भुगतान का जो 966 करोड़ का कर्ज चढ़ा है, वह इसी कुप्रबंधन का परिणाम है, जिसकी रिकवरी एमपीजेपीसी के अधिकारियों व लायजनर्स से होनी चाहिए, लेकिन कोयले की कालिख ऊपर से नीचे तक पुती होने के कारण जिम्मेदार वास्तविकताओं से मुंह मोड़कर न केवल आकड़ों की बाजीगरी कर रहे हैं, बल्कि निजीकरण की शतरंजी बिसात भी बिछा रहे हैं, ताकि कुप्रबंधन , अधिक लागत व कम उत्पादन के चलते संयंत्र बंद हों और निजी कंपनियों का पावर सेक्टर पर कब्जा जमाने का मार्ग प्रशस्त हो सके। ढाई करोड़ रोजाना लास, आब्जर्वेशन पर सारणी भले ही सरकार पावर सेक्टर में आत्मनिर्भरता का दम भरे, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि सारणी ताप विद्युत गृह ढाई करोड़ रोजाना के कामर्शियल लास पर चल रही है, जिसके चलते इसे जबलपुर मुख्यालय ने यहां के कोयला व तेल खपत व डिक्लेयर्ड कैपासिटी को आब्जर्वेशन में ले रखा है, बावजूद इसके यहां की स्थितियों में कोई सुधार नहीं आया है। नीति और नीयत कसौटी पर विद्युत ताप गृहों के संचालन में अधिकारियों की नीति और नीयत का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि रोजाना करोड़ों का तीन हजार टन कोयला अतिरिक्त फंूकने वाले संजय गांधी समेत अन्य ताप संयंत्रों में महज चंद लाख का आने वाला कोल कैलोरिफिक कैलकुलेटर तक नहीं है, जिससे यह मापा जा सके कि संयत्र में कितने कैलोरी का कोयला फंका जा रहा है। जानकार मानते हैं कि ऐसा होने पर कोयले की कैलोरी का भ्रम फैलाकर बिजली उत्पादन प्रभावित करने वाले एमपीजेपीसी के जिम्मेदारों की कलई खुल सकती है। मुनाफे के लिए घटिया कोयले की सप्लाई सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद प्रदेश के ताप विद्युत गृहों में घटिया किस्म का कोयला सप्लाई किया जा रहा है। लाइजनर और अधिकारियों की मिलीभगत से हो रहे इस गोरखधंधे से जहां विद्युत उत्पादन कम हो रहा है वहीं लाइजरन खुब मुनाफा कमा रहे हैं। अभी हालही में संजय गांधी ताप विद्युतगृह में ऐसा ही मामला सामने आया है। उमरिया जिले के पाली बिरसिंहपुर स्थित संजय गांधी ताप विद्युतगृह में कोयले का गोरखधंधा वर्षों से चल रहा है। अक्सर बंद रहने वाली इकाइयों व अनुपात के विपरीत हाईग्रेड कोयले के इस्तेमाल के लिए पहले ही बदनाम इस ताप विद्युतगृह में कोयले की रैकों में चल रहे खेल का सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया है। लायजनर नायर एंड संस की देखरेख में 29 जून को जो रैक आई उसकी 59 बोगियों में से 17 में कोयला क्षमता से कम था। इस रैक से लोवर ग्रेड (जी-10,11) कोयले की आपूर्ति की गई थी। लायजनर नायर एंड संस ने जिस रैक से आपूर्ति की, उसकी 59 बोगियों की सीसी वैल्यू (कैरिग कैपासिटी यानि वहन क्षमता) 58 एमटी है लेकिन उनमें से 17 बोगियों में वहन क्षमता से कम कोयला लादा गया। उदाहरण के लिए रैक के पहले बॉक्स एन में 41.74 एमटी, बॉक्स-एन क्रमांक-24 में 38.26 एमटी, बॉक्स एन क्रमांक-45 में 38.38 एमटी कोयला लादा गया। जाहिर है कि इनमें अंडरलोड सस्ते कोयले की आपूर्ति की गई। इसके बावजूद प्रबंधन ने इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। 29 जून को आई रैक की बोगी क्रमांक-1, 16,1 7,19, 20,21, 22, 24, 28,30, 31,40,42,43,44,45 और 50 में कोयला क्षमता से कम पाया गया। पावर सेक्टर के जानकारों की मानें तो लाइजनर ऐसा केवल सस्ते कोयले की आपूर्ति में करते हैं। जानकार बताते हैं कि लो-ग्रेड कोयला जहां 1400 से 1600 रूपए के बीच आता है,वहीं हाईग्रेड कोयले की कीमत संयंत्र पहुंचकर 4200 से 5000 रूपए प्रति टन हो जाती है। ... तो यू होता है खेल हाईग्रेड कोयले के इस्तेमाल पर राज्य सरकार पहले ही चिंता जता चुकी है। लेकिन संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। कोयला आपूर्ति से इसका अंदाजा मिलता है। 30 जून तक संजय गांधी ताप विद्युतगृह 5.33 लाख एमटी कोयला आवंटित हुआ। विद्युतगृह इसमें से सिर्फ 4.02 लाख एमटी ही उठा सका। आवंटित कोयला 133 रैकों में आना था लेकिन माह के अंतिम दिन तक 101 रैक ही पहुंच सकी। इसके बावजूद मुनाफे का गणित जून-2014 की अप्रूव्ड रेल प्रोग्रामिंग को दरकिनार कर निकाल लिया गया। संजय गांधी ताप विद्युत गृह में जून महीने में भी आवंटित कोयले का पूरा उठाव नहीं हो पाया है। इस मामले में जब मुख्य अभियंता एके टेलर से चर्चा की गई तो उन्होंने इस बारे में तत्काल कोई बात करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वे अभी इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। संजय गांधी ताप विद्युत गृह को माह जून के लिए पांच लाख तीस हजार मीट्रिक टन कोयले का आवंटन प्राप्त हुआ था। जबकि 29 जून की शाम तक सिर्फ चार लाख मैट्रिक टन कोयला ही उठाया जा सका है। शेष एक लाख तीस हजार मैट्रिक टन कोयला लेप्स हो गया। इस तरह आया कोयला जून 2014 के लिए आवंटित पांच लाख 33 हजार मैट्रिक टन में से 101 रैक में सिर्फ चार लाख टन कोयला ही आ पाया था। जबकि इस कोयले की ढुलाई कुल 133 रैक में की जानी थी। तात्पर्य यह है कि अभी 32 रैक कोयला और ढोया जाएगा, तब कोयले का आवंटन पूरा उठ पाएगा। सामान्य तौर पर यहां प्रतिदिन तीन से चार रैक कोयला ही उतर सकता है। जून में 60 प्रतिशत हायर ग्रेड का कोयला पूरा उठा लिया गया था। इस कोयले को उठाने के लिए अस्सी रैक लगाए गए थे। तात्पर्य यह है कि लो ग्रेड का कोयला सिर्फ 21 रैक में ही लाया गया। 40 प्रतिशत लोवर ग्रेड का कोयला कोरबा एरिया से उठाया जाता है। ये कोयला सस्ता पड़ता है जिसकी वजह से बिजली तैयार करने में लागत कम आती है लेकिन हायर ग्रेड का कोयला उठाने के चक्कर में लोवर ग्रेड का कोयला छोड़ दिया गया है। ...तो न रहेगी बिजली की ज्योति अटल संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन की तरह ही प्रदेश के अन्य तापगृहों की भी कोयला उठाव के मामले में यही स्थिति है। जहां संजय गांधी ताप विद्युतगृह प्रबंधन सवा लाख मीट्रिक टन कोयले का उठाव नहीं कर सका, वहीं खंडवा के नवनिर्मित ताप विद्युतगृह आवंटित कोयले का पचास फीसदी भी नहीं उठा पा रहा है। ऐसे में बिजली का बनना ही सवालों में घिर गया है। आंकड़े गवाह हैं कि चार विद्युत तापगृहों में कुल 3512.5 मेगावाट उत्पादन की क्षमता है जबकि इन दिनों डिमांड 6600 मेगावाट तक पहुंच जाती है। बावजूद इसके कोयले की कमी या इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त होने का बहाने महज 1800 से 2000 मेगावाट बिजली ही बन रही है। ये लक्षण प्रदेश में बिजली के आने वाले बुरे दिनों की ओर संकेत करते हैं। अमरकंटक ताप विद्युत केन्द्र चचाई में 120 मेगावाट क्षमता की चार नंबर इकाई की टरबाइन तकनीकी खराबी की वजह से बंद है। टरबाइन की वायरिग में जटिल समस्या आ गई है। अधिकारियों-कर्मचारियों का इसमें हाथ बताया जा रहा है। विद्युत तापगृहों की कार्यप्रणाली पर अंकुश लगाने के बजाय इलेक्ट्रिसिटी जनरेटिंग सेंटर की कोशिश यह जताने की है ताप इकाइयां लो-डिमांड के कारण बंद हुई हैं जबकि सूत्र बताते हैं कि इन्हें जेसीसी के आदेश के बाद बंद किया गया है। आदेश में कहा गया है कि प्रदेश में बिजली की मांग नहीं हो रही है जो किसी के भी गले नहीं उतर सकती हालांकि इसे सिद्ध करने के लिए आंकड़ों की जादूगरी की जा रही है। किसी काम का नहीं था हाईग्रेड कोयला आखिर प्रदेश सरकार की कुभकर्णी नींद तब टूटी जब ताप विद्युतगृहों पर 966 करोड़ से अधिक का कर्ज चढ़ गया। कोयला संकट के बहाने से जब-तब बंद रहने वाली ताप विद्युत इकाइयों पर भारी-भरकम बकाया सामने आने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कोयला मंत्री को पत्र लिखा। इसमें संजय गांधी ताप विद्युतगृह को दिए जा रहे हाईग्रेड कोयले (5800 कैलोरिफिक वैल्यू) का आवंटन कम करने की मांग की गई है। गौरतलब है कि वर्ष 2008-09 में हाईग्रेड कोयले का आवंटन प्रतिशत 12.6 फीसदी से बढ़ाकर 61 फीसदी किया गया था। नतीजतन संजय गांधी ताप विद्युतगृह में बिजली उत्पादन की लागत 1.21 रुपए बढ़ गई थी। पत्र में कहा गया है कि 61 फीसदी हाईग्रेड कोयला आपूर्ति की वजह से मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी पर अतिरिक्त कर्ज बढ़ गया है। इस कारण बिजली उपभोक्ताओं के ऊपर भार बढ़ रहा है। तो क्या कर रहे थे लायजनर विगत दिवस संजय गांधी ताप विद्युतगृह की दो इकाइयां कोयले की कथित कमी के कारण बंद हो गई जबकि सूत्रों का कहना है कि प्रबंधन के पास सात दिनों तक के लिए तकरीबन 1.18 लाख टन का ग्राउंड स्टाक मौजूद है। यदि यह सही है तो उसे प्रबंधन उपयोग लाए बगैर इकाइयां बंद कैसे कर सकता है? और यदि कोयला गुणवत्तापूर्ण नहीं है तो जनरेटिंग कंपनी का लायजनर क्या कर रहा है? उल्लेखनीय है कि मप्र इलेक्ट्रिसिटी जनरेटिंग कंपनी ने गुणवत्तापूर्ण कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर लायजनर नियुक्त किए हैं। हालांकि हो उल्टा रहा है। जब से लायजनर नियुक्त हुए हैं, तब से न तो कोयले का उठाव सही ढंग से हो रहा है और न ही गुणवत्तापूर्ण कायले की आपूर्ति हो रही है। जब लंबे अर्से से हाईग्रेड 5800 सीवी कोयले की आपूर्ति हो रही थी, तो लाखों का भुगतान पाने वाले लायजनर नायर एंड संस क्या कर रहे थे? यह सवाल मुख्यमंत्री के चिट्ठी लिखने के बाद उठना लाजिमी हो गया है। सीएम के पत्र में बताया गया है कि दिए गए 5800 सीवी के हाईग्रेड कोयले के उपयोग की अनुशंसा ही नहीं थी। संजय गांधी ताप विद्युत गृह के लिए 2800 से 3200 सीवी का कोयला ही उपय़ुक्त है क्योंकि यहां का बॉयलर डिजायन 2700 सीवी के आसपास ही है। यह तथ्य सामने आने के बाद लायजनर की भूमिका सवालों में घिर गई है। उत्पादन 75 मिलियन मिलता है 17 मिलियन देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले चार सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी। मप्र के कोयला उत्पादन में भारी कमी के आसार पुरानी खदानों के बंद होने और नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू न होने से राज्य में कोयले के उत्पादन में भारी कमी होने जा रही है। उत्पादन में होने वाली यह संभावित कमी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि खनन से मिलने वाली कुल रॉयल्टी में कोयले का हिस्सा 60 फीसदी होता है। देश की 55 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है और इसका दस प्रतिशत 'एनर्जी कैपिटलÓ के नाम से मशहूर सिंगरौली जिले से आता है। सिंगरौली जिले में कई कोयला खदानें है। इसमें से सबसे बड़े कोल रिजर्व वाली झिंगुरदाह खदान जल्द ही बंद होने वाली है। एनसीएल की गोरबी खदान में भी कोयला कम बचा हुए है। प्रदेश के सिंगरौली की सभी खुली खदानेंं है, यहां के अलावा प्रदेश की ज्यादातर खदाने भूमिगत है और काफी पुरानी है। प्रदेश में फिलहाल कोल इंडिया की तीन सहायक कंपनियां एनसीएल, एसईसीएल और डब्ल्यूसीएल की कुल छह खदानें है। दूसरी ओर प्रदेश के नये कोल ब्लॉकों में अभी तक कोल उत्पादन शुरू नहीं हुआ है तथा अगले दो सालों तक उनके शुरू होने की कोई संभावना भी नहीं है। प्रदेश में विभिन्न पॉवर कंपनियों को 22 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए है, जिनका अनुमानित कोल भंडार 3100 मिलियन टन का है। ये ब्लॉक सिंगरौली, शहड़ोल, उमरिया, अनूपपुर और छिंदवाड़ा में है। जिन कंपनियों को यह आवंटित किए गए है उनमें रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, एस्सार पॉवर, मध्य प्रदेश राज्य खनिज निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, जेपी एसोसिएटस, एसीसी लिमिटेड शामिल है। आज की स्थितियों को देखते हुए तय माना जा रहा है कि जब तक नए कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू नहीं होगा, प्रदेश में कुल कोयला उत्पादन नहीं बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में राज्य को कोयले से होने वाली रॉयल्टी में भी कमी आएगी।

320 करोड़ का नकली बीज खपाया कंपनियों ने

सोयाबीन की खेती का लक्ष्य 66 लाख हेक्टेयर...बीज आधे का भी नहीं
मप्र में 42 लाख हेक्टेयर खेत रह जाएंगे खाली
भोपाल। देश में उत्पादित होने वाले पीले सोने(सोयाबीन )का लगभग 55 फीसदी मध्य प्रदेश में उपजता है। सरकार ने इस बार 66 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती का लक्ष्य रखा है लेकिन बीज की कमी,मानसून की बेरूखी और घटिया बीज के कारण करीब 42 लाख हेक्टेयर खेत खाली रहने का अनुमान है। उधर,इस संकट का फायदा उठाते हुए बीज बिक्रेता कंपनियों ने प्रदेश में करीब 320 करोड़ का 4 लाख क्विंटल अमानक सोयाबीन का बीज खपा दिया है। यह बात सामने आते ही सरकार ने अमानक बीज बेचने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। अब तक प्रदेशभर में करीब 1765 बीज बिक्रेताओं के खिलाफ छापामारा गया है और उनके पास से अमानक बीज जब्त किया गया है। दरअसल,मध्य प्रदेश में हर साल 25 लाख क्विंटल सोयाबीन बीज का उत्पादन होता है जिसमें से करीब 15 लाख क्विंटल बीज का इस्तेमाल राज्य में ही होता है। लेकिन पिछले साल भारी बारिश की वजह से कुल उत्पादन का करीब 80 फीसदी बीज बर्बांद हो चुका है। और इसकी कुल मात्रा घटकर 13 लाख क्विंटल तक रह गई। इसमें से भी लगभग आधा बीज खराब हो गया है। राज्य सरकार ने इसके लिए निजी बीज आपूर्तिकर्ताओं से बैठक करने और अवैध जमाखोरी या फिर नकली बीजों की बिक्री को रोकने जैसे कुछ कदम भी उठाए लेकिन इससे मांग पूरा करने में कुछ खास मदद नहीं मिली। अब आलम यह है कि सोयाबीन के बीज का टोटा इस कदर बढ़ गया है प्रदेश में 70 फीसदी रकबा खाली रह सकता है। प्रदेश में सोयाबीन के बीज की किल्लत पहली बार खड़ी हुई है। इसके पीछे मूल कारण बीते दो सालों में सोयाबीन की अंकुरण क्षमता का प्रभावित होना है। इसे देखते हुए पहले ही यह आशंका खड़ी हो गई थी कि मौजूदा खरीफ सीजन में सोयाबीन का बीज उपलब्ध होना आसान नहीं होगा। वही स्थिति बनी भी। हालात यह हैं कि कई जिलों में मांग से आधा बीज भी सोसायटियों में नहीं है। कई जिलों के कलेक्टर ने अन्य जिलों को बीज उपलब्ध करवाने के लिए पत्र लिखे, जिले से बाहर बीज सप्लाई पर प्रतिबंध भी लगाया है, लेकिन इन प्रयासों से भी भरपाई होना मुश्किल नजर आती है। देश में सोयाबीन की आपूर्ति करने वाला अकेला राज्य मध्य प्रदेश चालू खरीफ सीजन में बीज की मांग को पूरी करने के तरीके तलाश रहा है। अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि बीज की कमी खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है और फिलहाल इस संकट से निपटने का एकमात्र तरीका यही है कि किसानों को अन्य खरीफ फसलों का रकबा बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। अन्य विकल्पों का इस्तेमाल करने में काफी समय लगेगा और उनसे मदद भी नहीं मिलेगी क्योंकि बीज शृंखला खतरनाक स्तर तक अव्यवस्थित हो चुकी है। इन हालातों में इस बार प्रदेश में तय लक्ष्य के अनुरूप सोयाबीन की बोवनी समय से होना मुश्किल नजर आने लगा है। शासन का दावा है कि बोवनी के समय तक स्थिति सामान्य हो जाएगी, लेकिन जब बीज ही उपलब्ध नहीं है तो यह दावा कैसे पूरा होगा, यह समझ से परे है। क्यों आई कमी खरीफ की बोवनी से पहले बीज का जो संकट दिखाई दे रहा है उसका एक बड़ा कारण अतिवृष्टि को माना जा रहा है। खरीफ सीजन में पिछले दो सालों से अतिवृष्टि के कारण प्रदेश में सोयाबीन की फसल को तगड़ा नुकसान पहुंचा है। लगातार दो साल फसलें बर्बाद होने के कारण बीज तैयार नहीं हो सका जिससे एकाएक बीज का संकट गहरा गया। स्थिति यह रही कि किसानों के पास भी बीज उपलब्ध नहीं है। प्रदेश के अधिकांश किसान बीज के लिए सहकारी सोयायटियों पर ही निर्भर है। वहीं सोसायटियों में भी बीज भंडारण को लेकर स्थिति फिलहाल डावांडोल है। प्रदेश में पिछली बार खरीफ फसलों की बोवनी 116 लाख 25 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की गई थी। जिसमें से 65 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सोयाबीन की खेती की गई थी। कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि पिछले सीजनों से हो रही अतिवृष्टि के चलते सोयाबीन बीज को 30 से 35 फीसदी नुकसान पहुंचा है। अंकुरण क्षमता कम हो जाने से 50 फीसदी तक बीज किसी काम का नहीं रह गया। न्यूक्लियर सीड में भी 80 फीसदी तक नुकसान हुआ। ये बीज देखने में तो अच्छा लगता है, लेकिन इससे अंकुरण बेहद कम होता है। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सोयाबीन बीज की आपूर्ति करने वाला देख में सबसे बड़ा राज्य है। तकरीबन 80 फीसद तक बीज की सप्लाई महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश सहित अन्य राज्यों में होता है। चूंकि बीज कंट्रोल आर्डर सेंट्रल गवर्नमेंट का है, लिहाजा राज्य सरकार द्वारा प्रदेश के बाहर निजी व्यापारियों को बीज ले जाने से रोका नहीं जा सकता है। किसानों का स्टाक खाली किसान अपनी फसल में से अगले सीजन के लिए बीज बचा कर रखते हैं, लेकिन भारी बारिश के कारण पिछली खरीफ की फसल चौपट हो गई थी। इसलिए किसानों के पास इस बार बोने के लिए बीज नहीं बचा। जानकारों के मुताबिक कुल जरूरत का लगभग 60 प्रतिशत बीज फसल से ही आता है। लेकिन इस बार किसानों के पास यह नहीं है। लेकिन दो सीजन से फसल बर्बाद होने के कारण किसान के पास बीज के लिए भी सोयाबीन नहीं बच पाया है। इसलिए किसानों के लिए यह खरीफ सत्र भी संकट भरा दिख रहा है। कृषि विभाग जितने बीज का इंतजाम कर रहा है वह जरूरत का बमुश्किल 15 प्रतिशत हो पाएगा। बाजार में जो बीज है इतना महंगा है कि खरीद कर बोना हर किसान के बस की बात नहीं है। सिहोर के किसान भंवरलाल पटेल कहते हैं कि सोयाबीन का बीज बहुत कमजोर होता है। थोड़ी भी क्वालिटी कमजोर होने की स्थिति में इसका जर्मिनेशन (अंकुरण) बहुत कम हो जाता है। बाजार में डिमांड ज्यादा और बीज कम है तो आशंका है कि विक्रेता कमजोर बीज भी खपा देंगे। कुछ विक्रेता स्थानीय स्तर पर मंडियों से माल खरीदकर, उसकी ग्रेडिंग कर बीज के दाम पर बेचते हैं। इसलिए इस बार बाजार की क्वालिटी का ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। वहीं सीहोर जिले के कृषि उपसंचालक रामेश्वर पटेल का कहना है कि सोसायटियों में सोयाबीन की 335 बैरायटी तो पर्याप्त उपलब्ध, लेकिन किसानों की मांग जेए- 9560 की है, जो कम मात्रा में उपलब्ध है। इसके मिलने की संभावना भी कम ही है। इसलिए जो बीज किसानों के पास उपलब्ध है उसे ग्रडिंग करके उपयोग करें। कृषि विभाग का इंतजाम इस मामले में मप्र कृषि विभाग के प्रमुख सचिव डॉ.राजेश राजौरा कहते हैं कि प्रदेश में 15 लाख क्विंटल सोयाबीन बीज की आवश्यकता है। जबकि उपलब्धता सभी स्रोतों से कुल 12 लाख 94 हजार 363 क्विंटल है। इसमें से 10 लाख 62 हजार 713 क्विंटल निर्धारित मानकों के अनुरूप है तथा भारत सरकार की अनुमति से 60 से 69 प्रतिशत अंकुरण क्षमता वाले बीज को भी उपयोग की अनुमति दी जाने के फलस्वरूप 2 लाख 31 हजार 649 क्विंटल बीज की अतिरिक्त उपलब्धता बढ़ जाने से किसानों को और अधिक मात्रा में सोयाबीन का बीज उपलब्ध करवाया जा सकेगा। वह कहते हैं की सरकार ने किसानों की समस्याओं के समाधान और बीज की कमी को पूरा करने के लिए 6-7 कदम उठाए हैं। साथ ही किसानों को सलाह दी जा रही है कि वे विशेषज्ञों द्वारा तय प्रति हेक्टेयर 55 किलो बीज की बोवनी करें। कृषि विशेषज्ञ विजय गोंटिया कहते हैं कि सोयाबीन कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली कैश क्रॉप है, इसलिए किसानों के पास सोयाबीन का विकल्प नहीं है। इसमें पानी भी कम लगता है। जिस जगह पर सोयाबीन बोई जाती है वहां किसान धान की पैदावार भी नहीं ले सकते है। अब विकल्प उड़द, मूंग, राहर बचते हैं, लेकिन इन तीनों दलहनों में लागत ज्यादा आती है। इनके खरपतवार नाशक भी बाजार में नहीं है। वह कहते हैं कि सोयाबीन के बीज के संकट की यह स्थिति टाली जा सकती था, बशर्ते कृषि विभाग समय पर जाग जाता। कृषि विशेषज्ञ और मीडिया बताता रहा कि प्रदेश में सोयाबीन का संकट है, लेकिन कृषि विभाग ने ध्यान नहीं दिया। समय रहते अन्य राज्यों से या मंडियों से चुनिंदा बीज की खरीदी कर उसकी जांच तो की जा सकती थी। इस वर्ष किसानों के पास बीज नहीं है। बीज निगम का भंडार भी खाली है। कृषि विभाग ने अभी बीज बुलवाया नहीं। बाजार में बीज इतना महंगा है कि हर किसान की हिम्मत खरीदने की नहीं है। ऐसे में इस बार सोयाबीन का रकवा काफी होने की संभावना है। इस बार 40 फीसदी ज्यादा दाम बीज की किल्लत को देखते हुए कई निजी कंपनियों के बीज अचानक बाजार में नजर आने लगे हैं। 7 से 8 हजार रुपए क्विंटल की कीमत पर यह कंपनियां बीज उपलब्ध करवा रही हैं, लेकिन बीज सर्टिफाइड है या नहीं, उसकी उत्पादकता की क्या गारंटी है, इसका बीज के पैकेट पर कोई उल्लेख नहीं है। फिर भी ये पिछले साल से 40 प्रतिशत ज्यादा हैं। फसल का समय करीब आने तक इसके दाम बढ़ेंगे ही। उज्जैन के खाद,बीज विक्रेता वैभव शर्मा कहते हैं कि पिछले वर्ष की तुलना में बीज के दाम कम से कम 40 प्रतिशत ज्यादा हैं। बीते कृषि सत्र में दोनों फसलों को नुकसान होने के कारण किसानों की जेब खाली है। इस लिए डिमांड फिलहाल नहीं है। वहीं दाहोद के किसान ओपी तिवारी कहते हैं कि पिछले वर्ष 7 क्विंटल सोयाबीन बोया था। एक भी दाना लौट कर नहीं आया। रबी फसल में भी नुकसान हुआ है। बाजार में बीज के दाम सुनकर खरीदने की हिम्मत नहीं है। फसल की लागत और खर्चे भी बढ़े हैं। व्यवस्था न होने के कारण खरीफ में खेत खाली रखने का ही विचार है। कर्ज लेकर खेती करना अब ठीक नहीं है। पिछले साल सोयाबीन का बीज भी वापस नहीं लौटा। दाम बढ़ाकर अनुदान में कटौती सोयाबीन बीज को लेकर संकट का दौर तो बना हुआ है लेकिन इन सबके बीच प्रमाणित सोयाबीन बीज के दाम को लेकर एक नई समस्या खड़ी हो गई है। राज्य सरकार ने प्रमाणित बीजों की विक्रय दरें निर्घारित कर दी है। जिसके तहत प्रमाणित सोयाबीन बीज की दर 6600 रूपए प्रति क्विंटल निर्घारित की गई है जबकि पिछले साल सोयाबीन बीज के रेट 4960 रूपए प्रति क्विंटल थे। इस हिसाब से सोयाबीन बीज के दाम में 16 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई है। सोयाबीन के सरकारी रेट बढऩे से यह तो तय हो गया कि प्राइवेट में बीज इससे महंगा ही बिकेगा। ऐसे में किसानों के लिए महंगा बीज खरीदना किसी आफत से कम नहीं होगा। सोयाबीन बीज महंगा होने पर सरकार को अनुदान की राशि बढ़ाना चाहिए थी, ताकि किसानों को बीज खरीदने पर राहत मिल सके, लेकिन ऐसा न कर अनुदान की राशि में कटौती कर दी गई। बताया गया कि पिछले साल सोयाबीन बीज के रेट कम होने पर 600 रूपए प्रति क्विंटल तक का अनुदान दिया गया था, लेकिन इस बार अनुदान की राशि 100 रूपए घटाकर 500 रूपए कर दी गई है। जिससे किसानों के लिए मुश्किलें बढ़ गई है। भारतीय किसान संघ की बैतूल जिला इकाई के अध्यक्ष पुरूषोत्तम सरले कहते हैं कि किसानों के साथ यह अन्याय है और इसको लेकर हमारे द्वारा मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन सौंपा जाएगा। जिसमें मांग की जाएगी कि सोयाबीन के रेट या तो यथावत रखे जाए या फिर अनुदान की राशि को बढ़ाया जाए। ताकि किसानों को थोड़ी राहत मिल सके। यदि यही स्थिति रही तो किसान सोयाबीन की बोवनी तक नहीं कर पाएंगे। समितियां भी उधार नहीं दे रहीं सहकारी समितियों में कुछ मात्रा में बीज उपलब्ध है लेकिन वह भी किसानों को नगद में ही मिल रहा है। इस स्थिति में वे किसान ही बीज ले पा रहे हैं, जिनके पास पूंजी उपलब्ध है। जो किसान हमेशा की तरह उधार बीज लेना चाहते हैं, उनके सामने समितियां पहले पिछला उधार चुकाने की शर्त रख रही हैं। इसलिए खरीफ सीजन में बोवनी के लिए महंगा बीज खरीदना किसान की मजबूरी होगी। सोसायटी से सरकारी रेट पर बीज केवल खातेदार किसानों को ही दिया जाएगा। वहीं सहकारी बैंक के नियमों के मुताबिक जो किसान कर्जदार है उन्हें बीज मिलना भी मुश्किल होगा। ऐसे में सरकारी दर से मिलने वाला बीज बहुत कम किसानों को ही उपलब्ध हो सकेगा। सरकारी कोटे में खाद का भी टोटा प्रदेश में खरीफ की फसल बोने के लिए केवल बीज का ही नहीं खाद का भी टोटा है। कृषि विभाग की मांग के अनुसार विपणन विभाग के पास खाद का इंतजाम भी नहीं है। कई जिलों में तो स्थिति यह है कि किसानों को जितने खाद की जरूरत है, उससे आधा उर्वरक भी गोदामों में नहीं है। बोवनी के समय खाद नहीं मिलने से कई किसानों को परेशानी का सामना परेशान होना पड़ेगा। इस दौरान किसानों को खाद की कालाबाजारी का सामना भी करना पडेगा। खाद की कालाबाजारी से किसान ठगे जाएंगे। बड़वानी उपसंचालक कृषि सुनील दुबे का कहना है कि सोयाबीन बीज की किल्लत पूरे प्रदेश में बनी हुई हैं। किसानों को सोयाबीन की जगह कपास बोने की सलाह दी जा रही हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद हो रही छापामार कार्रवाई खरीफ फसल में खाद और सोयाबीन बीज की कमी ने प्रदेश में इसके गोरखधंधे को बढ़ा दिया है। गांव-गांव में बिक रहे महंगे दाम के बीज के नहीं उगने की शिकायत के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अमानक बीज,खाद बेचने वालों तथा कालाबारियों के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दिए हैं। आदेश मिलते ही कृषि विभाग बीज, खाद एवं कीटनाशक की जांच में लग गया। अब कृषि विभाग के द्वारा इसके सैंपल लिए जा रहे है। विभाग के द्वारा प्रदेश भर में सोयाबीन से लेकर मक्का और धान के बीजों के करीब 1765 सैंपल एकत्रित किए गए है। इन सैंपलों को जांच के लिए ग्वालियर की बीज प्रयोगशाला भेजा गया है। जांच रिर्पोट आने के बाद कई कंपनियों पर गाज भी गिर सकती है। गौरतलब है कि करोड़ों के कारोबार होने से बीज कंपनियों के द्वारा इस बार बीज की कमी का फायदा उठाया जा रहा है। इसके लिए ब्रांड से लेकर स्थानीय स्तर तक का बीज बड़े महंगे दाम में बेचा जा रहा है। ऐसे में छिंदवाड़ा के चौरई और अमरवाड़ा विकासखंड के कई गांवों में तो बीजों के नहीं उगने तक की शिकायत भी मिली थी। जिसके बाद विभाग ने बीजों के सैंपल लेने शुरू किए हैं। बड़वानी के गोदामों में छापा इंदौर संभाग के बड़वानी जिले में किसानों को सोयाबीन के घटिया बीज बेचने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है। बड़वानी कलेक्टर द्वारा गठित विशेष दल ने नीलेश एग्रो सीड्स कंपनी के सेंधवा स्थित गोदाम में छापा मार कर 146 क्विंटल सोयाबीन के बीज जब्त किए हैं। निर्माता कंपनी का लाइसेंस भी निरस्त कर एफआईआर दर्ज कराई जा रही है। होशंगाबाद, रतलाम और आगर जिले में बीज निर्माता कंपनियों के गोदामों की भी जांच शुरू हो गई है। सोयाबीन के बीज के संकट से जूझ रहे किसानों को निजी कंपनियों ने 4 लाख क्विंटल घटिया बीज बेच दिया है। 19 कंपनियों के गोदामों से बीज के नमूनों की जांच में पाया कि बीज की गुणवता तय मानकों से बहुत कम है। विभिन्न कंपनियों का जो सोयाबीन बीज सीज किया, उसमें से कुछ की गुणवत्ता इतनी घटिया है कि किसान ने 100 बीज बोए तो अंकुरित होंगे सिर्फ 29। गौर करने की बात यह है कि राज्य सरकार की ग्वालियर की बीज प्रयोगशाला ने इन्हीं बीजों को गुणवतापूर्ण होने का प्रमाण दे दिया था। कृषि विभाग की छापामार कार्रवाई में इंदौर की एएसएन एग्रो जनेस्टेट प्रालि, मोहरा सीड्स सामेर रोड, सावंरिया सीड्स बायोटेक, विगोर सीड्स बायोटेक, ईगल सीड्स बायोटेक, कृतिका सीड्स देवास नाका, महाधन सीड्स प्रालि, नेशनल सीड़स कारपोरेशन, ग्रीन गोल्ड एग्रीटेक, माणिक्या एग्रीटेक, रासायन एग्रो प्रालि और मयूर सीड्स एंड एग्रोटेक, होशंगाबाद की कृषक भारती कॉपरेटिव लिमिटेड,आगर की देवश्री सड्स कानड, जयकिसान कृषि सेवा केंद्र नलगोड़ा एवं प्रक्रिया प्रभारी ग्रीनटेग सीड्स नलखेड़ा,रतलाम की गुरुकृपा सीड्स प्रोपराइटर विक्रमगढ़ और आलोट की गुरुकृपा सीड्स कंपनी के नमूने राज्य शासन की ग्वालियर स्थित लैब में फेल हो चुके हैं। शासन ने कंपनी के खिलाफ एफआईआर के आदेश दिए हैं। बारिश की देरी से सोयाबीन बुआई पिछड़ी देश में सोयाबीन के सबसे बड़े उत्पादक मध्य प्रदेश में मॉनसूनी वर्षा की देरी से इसकी बुआई पिछड़ रही है और किसानों चिंतित होने लगे हैं। मौसम विभाग के मुताबिक जून में 100 साल में सबसे कम बारिश इस बार हुई है। अभी तक 37 फीसद कम बारिश हुई है। कम मानसून की आशंका ने सरकार की चिंता भी बढ़ा दी है। देश में सूखे जैसे हालात बन रहे हैं। मौसम केंद्र भोपाल के निदेशक डॉ. डीपी दुबे ने अनुसार मानसून ने पूर्वी मध्यप्रदेश में 20 जून को प्रवेश किया था लेकिन वहां से आगे नहीं बढ़ रहा है। इससे सूबे के दूसरे हिस्सों में अब तक बारिश शुरू नहीं हुई है। उन्होंने बताया, फिलहाल कोई ऐसा मौसमी तंत्र नहीं दिखाई दे रहा है जिससे लगे कि मानसून पूर्वी मध्यप्रदेश से आगे बढ़कर प्रदेश के अन्य हिस्सों में छाने जा रहा है। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश के पश्चिमी इलाके सोयाबीन की खेती के प्रमुख क्षेत्रों में गिने जाते हैं। इन हिस्सों में मानसून आमतौर पर 15 जून के आस-पास पहुंचता है और इसके बाद सोयाबीन की बुआई शुरू हो जाती है। लेकिन इस बार मानूसन की आमद में देरी इन इलाकों में किसानों की चिंताएं बढ़ा रही है। इंदौर से करीब 30 किलोमीटर दूर सांवेर क्षेत्र के सोयाबीन उत्पादक किसान रामसिंह कहते हैं कि हम सोयाबीन की बुआई के लिए पखवाड़े भर से बारिश का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन फिलहाल बारिश के कोई आसार नजर नहीं आते। भगवान ही जानता है कि इस बार हमारी फसल का क्या होगा। मक्का और धान की खेती की सलाह किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा ने बताया, 'हमें अकेले मध्य प्रदेश के लिए 15 लाख क्विंटल बीज की जरूरत होगी, इसके अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्य भी हैं जिनकी मांग 10 लाख क्विंटल से कम नहीं है। भारी बारिश ने इस वर्ष बीज शृंखला को बरबाद कर दिया और करीब 80 फीसदी बीज नष्टï हो गए। इस वजह से बाजार में बीज की कमी हो गई। हमारे पास कुछ ही विकल्प शेष हैं या तो हम किसानों को मक्के और धान जैसी अन्य खरीफ फसलों का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करें या फिर बीज की बुआई की मात्रा को कम करें जो जरूरत से अधिक है। हमारे पास निर्यात करने का विकल्प नहीं है।Ó सोयाबीन की फसल में बीज बुआई दर 75 किग्रा प्रति हेक्टेयर से कम नहीं होती। विभाग की योजना है कि अगर किसान बीज बुआई की दर को 50 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक कम कर दें तो देश की जरूरत के लिए भरपूर बीज रहेगा। इसके बदले सरकार के पास किसानों को अन्य खरीफ फसलों का उत्पादन करने के लिए प्रेरित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। राजौरा ने कहा, 'हम इस साल मध्य प्रदेश में अरंडी के बीज और ग्वार फसलों को भी पेश करेंगे। किसान न सिर्फ और कीमत पाएंगे बल्कि फसल का ढर्रा भी बदलेंगे।Ó अब गर्मी में होगी सोयाबीन की खेती डॉ. राजौरा कहते हैं कि सोयाबीन बीज की कमी को पूरा करने के लिए रबी और ग्रीष्मकालीन फसल ली जाएगी। किसानों को प्रोत्साहन राशि देने का भी प्रस्ताव है। वह कहते हैं कि सोयाबीन बीज के संकट से निपटने सरकार गर्मी में इसकी खेती करवाएगी। रबी और ग्रीष्मकाल में सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों को प्रोत्साहन राशि भी दी जाएगी। तय किया गया है कि केन्द्र सरकार से कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर को मिले न्यूक्लियस बीज से ब्रीडर बीज इसी खरीफ सीजन में तैयार किया जाएगा। रबी में ब्रीडर वन से ब्रीडर टू बीज बनाया जाएगा। प्रदेश में करीब 65 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सोयाबीन की खेती होती है। दो साल से सोयाबीन फसल के अतिवर्षा से प्रभावित होने से बीज का संकट है। कृषि विभाग के अफसरों की मानें तो न्यूक्लियस बीज से ब्रीडर बनाने वाले बीज में 80 से 85 प्रतिशत का नुकसान पिछले साल हुआ। ब्रीडर से फाउंडेशन बीज में 75 से 80 फीसदी का हानि हुई। यही वजह है कि प्रमाणित बीज की कमी हो गई है। इस बार मौसम को लेकर कृषि विभाग अधिक आशांवित नहीं है। यही वजह है कि न्यूक्लियस से ब्रीडर बीज बनाने का काम इसी खरीफ सीजन में किया जाएगा। इसके चलते रबी मौसम में इस बार सोयाबीन के ब्रीडर वन से टू नंबर बीज के लिए खेती होगी। इसके लिए पंजीकृत किसान को बीज मुहैया कराया जाएगा और प्रोत्साहन स्वरूप प्रति हेक्टेयर तीन या चार हजार रुपए भी दिए जाएंगे। ब्रीडर टू बीज से फाउंडेशन बीज बनाने का काम फरवरी से मई के बीच किया जाएगा।

संघ के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों की जासूसी करेंगे अफसर

-सरकार के काम और मंत्रियों के क्रियाकलापों की हर माह संघ मुख्यालय पहुंचेगी रिपोर्ट
-भाजपा की हर राजनैतिक गतिविधियों की लगातार होगी समीक्षा
-2018 के लोकसभा चुनाव के लिए अभी से तैयार होगी जमीनी रणनीति
-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, अकादमिक और प्रचार के लिए बनाए जाएंगे कोर ग्रुप
भोपाल। पिछले 10 सालों से संक्रमण काल से गुजर रही भाजपा को देश की सत्ता तक पहुंचाने का लक्ष्य पा चुका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब सरकार को अपनी नीति और रणनीति के तहत संचालित करवाएगा। ताकि देश में आर्थिक व सामाजिक सुधार हो तथा भाजपा की राजनीतिक ताकत और बढ़े। इसके लिए संघ ने भोपाल में अपनी पांच दिनी चिंतन शिविर में कार्ययोजना पर विचार किया। इसके तहत संघ परस्त नौकरशाहों को केंद्र और राज्यों में महत्वपूर्ण पदों पर बिठाकर सरकारों की जासूसी कराने की योजना बनाई है। ये नौकरशाह सरकार के काम और मंत्रियों के क्रियाकलापों की हर माह रिपोर्ट तैयार करके संघ मुख्यालय पहुंचाएंगे।
...ताकि जनता का भरोसा न टूटे
भोपाल में ठेंगड़ी भवन एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय 'छात्र शक्ति भवनÓ में हुई चिंतन बैठक में हिंदुत्व, धर्मातरण, समान नागरिक संहिता, कश्मीर एवं अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर विचार विमर्श किया गया। लेकिन सबसे अधिक मंथन भाजपा और उसकी केंद्र और राज्य सरकारों की चाल और चरित्र को सुधारने को लेकर हुआ। संघ प्रमुख मोहन भागवत,संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी, तीनों सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी, दत्तात्रय होसबोले एवं डॉ कृष्णगोपाल,क्षेत्रीय प्रचारक रामदत्त चक्रधर, मुरलीधर राव,वरिष्ठ प्रचारक राम माधव, शिवप्रकाश, वी सतीश, सौदान सिंह आदि की उपस्थिति में इस बात पर मुहर लगाई गई की भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने के बाद भी संघ की राजनैतिक गतिविधियां रुकेगी नहीं। पार्टी के लिए संघ अभी कई अहम फैसले लेगा ताकि भाजपा देश की जनता के मन में इस कदर बैठ जाए की आगामी दिनों में लोग इसके अलावा किसी और पार्टी के बारे में सोचे भी नहीं। उल्लेखनीय है कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संघ ने भाजपा की आधारशिला रखी थी। और उसका अंतिम लक्ष्य था भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाना। इसके लिए बिना फ्रंट पर आए सतत कोशिशें जारी रखीं ताकि देश की कमान भाजपा के हाथ में आए। अब जब पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है तो संघ की कोशिश है कि जनता से मिले इस भरोसे को टूटने ना दिया जाए। लिहाजा हर स्तर पर संघ अपनी रणनीति के तहत काम कर रहा है।
सरकार और संगठन की लगातार होगी मॉनिटरिंग
चिंतन शिविर में पहले दिन ही संघ के अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ ने केंद्र सरकार के हालिया फैसलों पर कड़ी आपत्ति जताई। मंच के पदाधिकारियों ने कहा कि जिस एफडीआई और जीएम फसलों के परीक्षण का हम विरोध कर रहे हैं उसी को सरकार लागू करने जा रही है। अगर भाजपा मूल विचारधारा से भटकेगी तो गलत संदेश जाएगा। ऐसी कुछ और शिकायतें सामने आने के बाद संघ पदाधिकारियों ने मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे अंतिम दिन कोर ग्रुप की बैठक में उठाया। इस अवसर पर भैय्याजी जोशी ने कहा कि भाजपा सरकार बनने के बाद देश की निगाहें संघ पर हैं। हमें शुचिता के साथ समन्वय बनाकर आगे बढऩा होगा। कोर ग्रुप की बैठक में इस बात का फैसला लिया गया कि अब सरकार और भाजपा संगठन के क्रियाकलापों की लगातार मॉनिटरिंग की जाएगी। इसके लिए जहां सरकार के कामकाज की निगरानी नौकरशाह करेंगे वहीं भाजपा की संगठन महामंत्री। ये लोग हर माह अपनी रिपोर्ट तैयार कर संघ मुख्यालय भेजेंगे। बताया जाता है कि अभी दो साल तक केंद्र सरकार के मामलों में संघ केवल सलाह देगा, उसके बाद कठोर कदम उठाएगा।
व्यापमं जैसी घटनाएं भविष्य में न हो
व्यापमं घोटाले और उसमें संघ नेताओं के नाम आने के बाद भी संघ ने चिंतन बैठक में चर्चा के लिए इस मुद्दे को नहीं रखा था। लेकिन संघ प्रमुख ने सभी पदाधिकारियों को हिदायत दी की वे ऐसे मामलों से दूर रहें। उन्होंने संघ के नेताओं से कहा की देश को एक साफ-सुथरी सरकार देना और उससे विकास कार्य करवाना हमारी प्राथमिकता है। सत्ता के आकर्षण और रूतबे से अपने आप को दूर रखते हुए हमें काम करना है,ताकि संघ की छवि खराब न हो। साथ की केंद्र और राज्यों की सरकारों पर भी निगाह रखनी है। उल्लेखनीय है कि व्यापमं घोटाले में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो बड़े नेताओं नाम उछलने पर संघ की खुब किरकिरी हुई है। हालांकि अभी संघ प्रमुख मोहन भागवत सहित अन्य नेताओं ने आरोप को पूरी तरह से निराधार बताया है और जांच एजेंसी एसटीएफ भी इसे नकार चुकी है।
सरकार में तय होगा आरएसएस का कोटा
संघ कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही आरएसएस एक बार फिर सुर्खियों में छा गया है। मोदी के मंत्रिमंडल में 23 कैबिनेट मंत्री हैं, जिनमें से 17 की जड़ें कहीं न कहीं आरएसएस से जुड़ी हैं। हालांकि पूरी भाजपा ही संघ आंदोलन की उपज है और मोदी के राज्य मंत्रियों में भी शाखा से जुड़े लोग अच्छी खासी संख्या में हैं। इस पर देश भर में छिड़ी चर्चा को देखते हुए संघ ने भोपाल के चिंतन शिविर में तय किया है की सरकार चाहें केंद्र की हो या फिर राज्य की आरएसएस से आने वाले नेताओं को शामिल करने के लिए कोटा तय किया जाएगा। वहीं भाजपा संगठन में भी संघ के पदाधिकारियों को उपयोगिता के आधार पर भेजने का निर्णय हुआ। अभी जहां संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति भाजपा में संगठन मंत्री और संघ प्रभारी के तौर पर हुआ करती थी अब उन्हें लोकसभा और विधानसभावार नियुक्त किया जा रहा है। ताकि पार्टी के प्रतिनिधियों के काम-काज पर संघ सीधे नजर रख सके और जरूरत पडऩे पर दखल दे सके। ये कवायद भाजपा को जड़ों तक मजबूत बनाए रखने की है। ताकि सफलता का सिलसिला जारी रह सके और लगातार सफलता के जरिए संघ अपने उस अंतिम लक्ष्य को हासिल कर सके। लक्ष्य समाज के हर तबके को साथ लिए हुए संपूर्ण हिंदू राष्ट्र बनाने का।
विकास के एजेंडे को प्राथमिकता से ले सरकार
संघ ने केंद्र सरकार के लिए विकास, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, प्रशासन और सामाजिक सौहाद्र्र ये पांच एजेंडे फिलहाल तय किया है। इसमें विकास का सबसे अधिक को प्राथमिकता देना है। हालांकि सामाजिक सौहाद्र्र वाला मसला बहुत विस्तृत और निजी नजरिए पर आधारित है। भाजपा ने घोषणापत्र में उन तीन चीजों को रखा है, जो मुख्य तौर पर संघ की मांगें हैं। इनमें अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भी शामिल है। यहां 16वीं सदी की ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को 1992 में गिरा दिया गया था। इसके अलावा जम्मू कश्मीर को दिए गए विशेष राज्य का दर्जा वापस लेने और समान नागरिक कानून लागू करने की बात है। हालांकि दबे स्वरों में कहा जा रहा है कि यह सरकार की प्राथमिकता नहीं हो सकती।
नई कार्यकारिणी और संगठनात्मक बदलाव पर चर्चा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चिंतन बैठक के भाजपा में काम कर रहे अखिल भारतीय स्तर के सारे पदाधिकारियों ने संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात की। संघ नेतृत्व से मुरलीधर राव की मुलाकात को सबसे अहम माना जा रहा है, जिसमें भाजपा की नई कार्यकारिणी और उसमें होने वाले बदलाव को अंतिम रूप दिया गया। इस बैठक में भाजपा की नई कार्यकारिणी के गठन को मंजूरी देने के साथ ही संगठनात्मक बदलाव को भी हरी झंडी दे दी गई है। इसके साथ ही राष्ट्रीय परिषद के एजेंडे पर भी चर्चा हुई। इससे पहले संघ प्रमुख ने राममाधव और शिवप्रकाश से चर्चा की थी। ये दोनों नेता फिलहाल प्रचारक ही हैं लेकिन भाजपा में काम कर रहे हैं। इन दोनों नेताओं की बदली हुई भूमिका को लेकर भी संघ नेतृत्व ने राव को अपना फैसला सुना दिया है। राम माधव को समन्वय से संबंधित अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। शिवप्रकाश की सेवाएं संगठनात्मक मामलों के लिए रखे जाने का सुझाव संघ ने दिया है। बैठक में जो अहम निर्णय हुआ उसमें पांच महत्वपूर्ण विषयों पर कोरग्रुप बनाने का फैसला किया गया है। इसमें राजनीतिक मामलों में राय देने के लिए भी एक कमेटी बनाई जाएगी, जो भाजपा के साथ समन्वय से लेकर राजनीतिक मुद्दों पर संघ प्रमुख का सलाह दिया करेगी। इसी तरह अकादमिक मुद्दों को लेकर भी संघ पहली बार अलग से कोर ग्रुप बना रहा है। ये कोरग्रुप यूपीएससी से लेकर हिन्दी को बढ़ावा देने पर रणनीति तैयार करेगा। इसी तरह आर्थिक मामलों की समीक्षा भी संघ प्रचारकों का एक कोरग्रुप करेगा। सामाजिक और प्रचार प्रसार के लिए भी एक ग्रुप गठित होगा।
रामलाल की विदाई तय
भाजपा में संगठन महामंत्री की भूमिका निभा रहे रामलाल की भोपाल में अनुपस्थिति और संघ नेतृत्व से मुलाकात के लिए न आने को इस बात का संकेत माना जा रहा है कि अब उनकी छुट्टी होना तय है। मोहनखेड़ा बैठक में ही संघ ने रामलाल को नई जिम्मेदारी देने से मना कर दिया था। संघ नेतृत्व ने तब तय किया था कि उनकी सेवाएं भाजपा को एक बार सौंप दी गई हैं इसलिए अब भाजपा ही उनकी नई जिम्मेदारी तय करेगी।
भाजपा के साथ संघ में भी पीढ़ीगत बदलाव
लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली अबतक की सबसे बड़ी जीत के बाद भाजपा में शीष नेतृत्व को लेकर अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है। हालांकि पीढ़ीगत बदलाव के बाद संघ ने भाजपा के सांगठनिक तानेबाने में भी फेरबदल की कवायद शुरू कर दी है। संभावना है कि संघ और पार्टी के बीच समन्वय का काम देखने की जिम्मवारी सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल को मिलेगी। वहीं संगठन मंत्री के रूप में सौदान सिंह को जिम्मेवारी दी जा सकती है। मालूम हो कि वर्तमान में समन्वय का काम संघ के वरिष्ठ नेता सुरेश सोनी देखते हैं। जबकि संगठन मंत्री कि जिम्मेवारी रामलाल पर है। संघ के ये दोनों नेता मौजूदा जिम्मेदारी को लगभग एक दशक से निभा रहे हैं। ऐसे में यह बदलाव स्वभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है। संघ द्वारा किए जाने वाले इस बदलाव के अलग मायने है। सोनी को इस पद से हटाकर दूसरी जिम्मदारियां दी जा सकती है। इसी के मद्देनजर संघ ने भाजपा में प्रभारी की भूमिका के साथ-साथ कई राज्यों के प्रचारक और कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण भूमिका देने का मन बना चुका है। इस कड़ी में कुछ को पद दे दिया गया है और अन्य को देने की तैयारी है। पदाधिकारियों का कहना है कि भाजपा को देश की सत्ता पर काबिज कराने में संघ के पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों ने बडी भूमिका निभाई है। पार्टी की रैलियों से लेकर साधारण प्रचार में संघ के कई सदस्यों ने अहम भूमिका निभाई है। चुनाव के बाद संघ उन कार्यकर्ताओं को उनकी मेहनत और लगन के अनुसार पद आवंटित कर सकता है।
संगठन तय करेगा सांसद निधि का उपयोग
विकास को प्राथमिकता देने की अपनी रणनीति के तहत संघ ने निर्णय लिया है कि सांसद निधि का प्रयोग अब भाजपा संगठन तय करेगा और संगठन ही विकास कार्यों का एजेंडा बनाएगा। इतना ही नहीं संघ के कार्यकर्ता इन कामों पर नजर भी रखेंगे। अगर ऐसा हो जाता है तो भाजपा के सांसदों की संघ के प्रति पूरी जिम्मेदारी हो जाएगी। उन्हें अपने क्षेत्र में सांसद निधि का इस्तेमाल करने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के साथ मिल बैठकर ही एजेंडा तय करना होगा। संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि संघ की मंशा है कि सांसद निधि का न दुरुपयोग हो और न ही वह लैप्स हो। वह कहते हैं कि सांसदों को पहले भी अधिकार था कि वो अपने क्षेत्र के विकास कार्यों की समीक्षा और गुणवत्ता की जांच कर सकते हैं, हालांकि इसके बाद भी विकास का पैसा बिचौलियों की जेब में चला जाता था लेकिन अब जबकि हर कार्यकर्ता की भूमिका इसमें रहेगी तो पारदर्शिता की गुंजाइश बढ़ जाएगी और कामों में भी तेजी आएगी।
अब बैकग्राउंड में नहीं रहेगा संघ
भाजपा की जीत में भले ही संघ के कार्यकर्ताओं का बड़ा हाथ रहता हो। जीत के बाद भाजपा अपने काम को लेकर स्वतंत्र रहा करती थी और संघ पूरी तरह बैकग्राउंड में चला जाता था लेकिन अब बदले हालात में देश में पूर्ण बहुमत की सरकार दिलाने के बाद संघ बैकग्राउंड में जाता नजऱ नहीं आ रहा। संघ, सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल बनाकर आगे बढऩे के लिए तमाम बदलाव किए जा रहे हैं। भोपाल के चिंतन शिविर में शामिल होने आए संघ के एक नेता इस मसले पर कहते हैं कि संघ अपनी भूमिका नेतृत्व के हिसाब से तय करता है। जब इससे पहले भाजपा की सरकार में कमान अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ में थी तो संघ बैकग्राउंड में था। लाल कृष्ण आडवाणी अध्यक्ष थे तब भी संघ बैकग्राउंड में रहकर काम करता रहा। लेकिन मोदी की शख्सियत अटल-आडवाणी से अलग है। मोदी कामयाबी का मंत्र जानते हैं लेकिन उनके जीवन और व्यक्तित्व से कई सवाल और विवाद भी जुड़े हैं। लिहाजा संघ बैकग्राउंड में रहकर काम करने से कतरा रहा है। ये भी तय है कि संघ के इस भूमिका में रहने पर देर-सवेर विवाद होगा, हो सकता है संघ की विचारधारा से जुड़े अलग-अलग संगठन नाराज हो जाएं जैसा कि ज़मीन अधिग्रहण, लेबर रिफॉम्र्स, और जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप के मुद्दे पर भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण को मोदी के विकास का एजेंडा रास नहीं आ रहा, लेकिन संगठन की मजबूती और कार्यकर्ताओं में जोश बनाए रखने के लिए संघ अपनी भूमिका तय कर चुका है। बहरहाल संघ की ये रणनीति पहली नजर में कारगर तो दिखती है लेकिन संघ के कार्यकर्ताओं को सीधे स्थानीय स्तर से सक्रिय सियासत का हिस्सा बनाना दोधारी तलवार पर चलने जैसा भी हो सकता है। अतीत में ऐसे कई मौके आए हैं जब राजनीतिक रंग में रंगने के बाद संघ कार्यकर्ताओं पर भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन के आरोप लगे हैं। तो वहीं कई ऐसे भी मौके आए हैं जब संघ के ऐसे सक्रिय कार्यकर्ताओं को परम्परागत राजनीति में रंगने की कोशिशें हुई है। तो सवाल ये कि संगठन मजबूत करने की कवायद कहीं भारी तो नहीं पड़ेगी और ये भी कि कहीं इस कवायद में संघ का मूल चरित्र,चेहरा और चिंतन तो नहीं बदल जाएगा
संघ की शाखाओं के भी आए अच्छे दिन
भोपाल चिंतन शिविर में संघ पदाधिकारियों ने इस बात पर खुशी जाहिर की कि दस साल से जारी सत्ता का सूखा खत्म होते ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भी अच्छे दिन आ गए हैं। सत्ता में बदलाव के साथ ही न केवल संघ की शाखाओं की संख्या बढ़ी है, बल्कि इन शाखाओं में भाग लेने वालों की संख्या भी अचानक बढ़ गई है। इस दौरान ज्यादातर उन जगहों पर नए सिरे से शाखाएं लगनी शुरू हुई हैं, जहां बीते कुछ वर्षों से लोगों की रुचि न दिखने के कारण शाखा लगाना बंद कर दिया गया था। शाखाओं की संख्या पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में ज्यादा बढ़ी हैं, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में बंद हो चुकी शाखाएं फिर से शुरू हुई हैं। इसके अलावा भाजपा में प्रभाव बढ़ाने के इच्छुक नेता, टिकटों के दावेदार इन दिनों शाखा में लगातार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। राजग के सत्ता में रहते 2004 तक संघ के 13 लाख सक्रिय सदस्य थे और देश भर में संघ की 50000 शाखाएं लगाती थी। इसी साल केंद्र की सत्ता से विदाई के साथ ही शाखा की संख्या लगातार कम होती चली गई। संघ सूत्रों के मुताबिक भाजपा की सत्ता से विदाई के बाद हालांकि सक्रिय सदस्यों की संख्या में कमी नहीं आई। इसमें कुछ बढ़ोत्तरी ही हुई। मगर शाखा की संख्या लगातार कम होती गई। कई जगहों पर लोगों के रुचि न लेने के कारण शाखा लगना धीरे-धीरे बंद हुआ तो कई जगहों पर शाखा लगाने के लिए पहल करने वालों ने ही रुचि लेनी बंद कर दी।
उपचुनाव से दूर रहेगा संघ
बैठक में इस बात पर भी आम सहमति बनाई गई की बिहार की दस, मध्यप्रदेश तथा कर्नाटक की तीन-तीन और पंजाब की दो सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में संघ अपने-आप को दूर रखेगा। दरअसल, संघ इन चुनावों में भाजपा की सांगठनिक शक्ति का आंकलन करना चाहता है ताकि आगामी दिनों में संगठन की खामियों को दूर किया जा सके। दक्षिण के राज्यों में प्रभाव बढ़ाने की कोशिश संघ की योजना शाखाओं के माध्यम से दक्षिण के राज्यों खासकर तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में अपना प्रभाव बढ़ाने की है। संघ केरल में पहले से ही बहुत अधिक सक्रिय है, जबकि कर्नाटक में भी संघ का बड़ा आधार है।
महिलाओं की भागिदारी बढ़ेगी
लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका महिलाओं की रही है। इससे महिला कार्यकर्ताओं की कमी अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खलने लगी है। उसे लग रहा है कि आधी आबादी के बड़े हिस्से के बीच अपनी पकड़ व पहुंच बनाए बगैर काम नहीं चलेगा। विचारधारा के आधार पर मजबूत और बड़ा जनमत बनाने का काम भी नहीं हो पाएगा। विरोधियों को करारा जवाब देना मुश्किल रहेगा। इसीलिए उसने संघ परिवार के संगठनों में महिला कार्यकर्ताओं की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। इसकी जिम्मेदारी विद्यार्थी परिषद को सौंपी गई है। जिसने छात्राओं के बीच अपना कामधाम और संपर्क बढ़ाकर संघ की इस चिंता को दूर करने की कार्ययोजना बनाकर काम शुरू भी कर दिया है। इसके लिए छात्राओं की एक समिति गठित की गई है। समिति की सदस्याएं विश्वविद्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों में छात्राओं के बीच संपर्क कर रही हैं। उन्हें विद्यार्थी परिषद से जुडऩे के लिए प्रेरित कर रही हैं। इस सिलसिले को गति देने पर भी संघ के चिंतन शिविर में विचार-विमर्श किया गया। योजना यह भी बनी है कि विद्यार्थी परिषद से जुड़ी नई छात्राओं को साथ लेकर महिला उत्पीडऩ की घटनाओं पर आंदोलन चलाया जाए। जिससे इन्हें संगठन के साथ स्थायी रूप से जोड़ा जा सके। दरअसल संघ बहुत दिनों से अपने राजनीतिक संगठन भाजपा की स्थिति को लेकर चिंतित चल रहा था। काफी विचार-विमर्श के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ताकत बढ़ाने के लिए पुराने प्रयोगों को दोहराते हुए विद्यार्थी परिषद के जरिए भाजपा व अन्य संगठनों में कार्यकर्ताओं को भेजने की प्रक्रिया फिर शुरू करनी होगी। जिससे वैचारिक अधिष्ठान भी मजबूत रहे और संघ की इच्छानुसार काम भी हो सके। लोकसभा चुनाव से लगभग एक वर्ष पहले संघ की प्रतिनिधि सभा में विचार-विमर्श के बाद इस सिलसिले में पूरी कार्ययोजना तैयार हुई। उसी का नतीजा रहा कि संघ ने डॉ. कृष्णगोपाल जैसे प्रचारक को सहसरकार्यवाह बनाकर भाजपा की जिम्मेदारी सौंपी। साथ ही नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, सुनील बंसल,विष्णुदत्त शर्मा सहित विद्यार्थी परिषद से निकले अन्य कई चेहरों को प्रभावी तरीके से आगे बढ़ाया गया। चुनाव में रणनीतिक कमान और सोशल मीडिया की जिम्मेदारी भी विद्यार्थी परिषद के कंधों पर डाली गई। इसके सार्थक नतीजे आए।
समर्थन बनाए रखने की कोशिश
संघ ने अब इस प्रयोग को बड़े पैमाने पर आजमाने की योजना बनाई है। अभी हाल में भाजपा में भेजे गए वरिष्ठ प्रचारक राममाधव भी संघ की इसी सोच की अगली कड़ी हैं। संघ परिवार से जुड़े लोगों का कहना है कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के पीछे न सिर्फ आगे की चुनौतियों से निपटने की चिंता है बल्कि लोकसभा चुनाव में मिले समर्थन को भी शक्ति के रूप में सहेजकर रखने की फिक्र है। संघ का मानना है कि महिलाएं जुड़ गईं तो यह समर्थन स्थायी तौर पर साथ रहेगा। इसीलिए विद्यार्थी परिषद को छात्राओं को जोडऩे के इस काम में लगाया गया है। काम बढ़ाने के लिए समिति गठित करके उन्हें जिम्मेदारी सौंपी गई।
अंदुरूनी खबर यह भी
मोदी और संघ के बीच चल रहा है शह और मात का खेल
संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अंदर ही अंदर रस्सा कस्सी शुरू हो गई है। भाजपा पर काबिज होने के बाद मोदी अब संघ को भी अपने कब्जे में रखने की जुगत में है। वहीं संघ मोदी पर अपना शिकंजा कसने के लिए उनके धुर विरोधी संजय जोशी को सक्रिय राजनीति में लौटाने के लिए दिल्ली का बुलावा भेजा है। जोशी ने दिल्ली वापस आकर सक्रिय राजनीति आरंभ कर दी है। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने इसकी जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से दे दी है। संजय जोशी का सक्रिय राजनीति में लौटना मोदी की पेशानी पर बल बढ़ा सकता है। क्योंकि संजय जोशी को मई 2012 में मोदी के दबाव के चलते पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाल दिया गया था। बाद में उन्हें भाजपा के कामों से भी आराम दे दिया गया। उस समय जोशी पार्टी के महासचिव थे। जोशी ने अपने लौटने की जानकारी संघ के नए माध्यम ट्विटर पर दी। जोशी ने कहा कि मैं भाजपा कार्यकर्ता हूं इसीलिए मैं आज भी भाजपा में ही हूं। सक्रिय राजनीति में अपनी भूमिका के बारे में उन्होंने कहा कि इस बारे में भविष्य में पता चलेगा पर मैं यहां रुकने के लिए आया हूं। जोशी की इन दिनों ट्विटर पर भी काफी सक्रियता बढ़ी है। इन ट्वीटस में ज्यादातर जिक्र दिल्ली और उत्तर प्रदेश का होता है। जोशी को जब बर्खास्त किया गया था उससे पहले जोशी को इन्हीं दोनों राज्यों का प्रभार सौंपा गया था। जोशी बीते कुछ दिनों में यूपी का कई बार दौरा भी कर चुके हैं, जिससे जोशी की दिल्ली में यूपी में दिलचस्पी का पता चलता है। जोशी और मोदी के बीच की दूरियों का इस बात से पता लगाया जा सकता है कि 16 मई को भाजपा की ऐतिहासिक जीत के बाद जोशी ने ट्वीट कर देश को धन्यवाद कहा था। इस ट्वीट में मोदी का जिक्र तक नहीं था। वहीं मोदी संघ पर नकेल कसने के लिए मध्यप्रदेश व्यापमं घोटाले को अंदर ही अंदर तूल देने में जुटे हुए है। इस घोटाले में संघ के नेताओं का नाम खुलकर सामने आया है। इसके बाद से ही संघ केंद्रीय स्तर पर इस घोटाले की लीपापोती में जुट गया है। वहीं भाजपा को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कसने के लिए नरेंद्र मोदी ने संघ के वरिष्ठ नेता राम माधव को पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी है। दरअसल, मोदी के करीबी अमित शाह और राम माधव की एंट्री को मोदी के इसी एजेंडे का हिस्सा माना जा रहा है।

मनरेगा के बावजुद मप्र की 44.30 फीसदी आबादी बेहाल

प्रदेश में 10 फीसदी को भी नहीं मिला 100 दिन का रोजगार
-मप्र में 9 साल में 3056 करोड़ का गोलमाल
-भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारी शामिल
-23 आईएएस अफसरों का नाम भी घोटाले में
- अभी तक 2,200 से अधिक पर गिर चुकी है भ्रष्टाचार की गाज vinod upadhyay
भोपाल। मप्र की तस्वीर और यहां के वासिंदों की तकदीर बदलने में प्रदेश सरकार का प्रयास और महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)भी फेल हो गई है। जिस मनरेगा योजना से हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलने का दावा किया गया था,उसके क्रियान्वयन के बावजुद भी प्रदेश की करीब 44.30 फीसदी आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। दरअसल मध्य प्रदेश में मनरेगा रसूखदारों की कमाई का अड्डा बन गया है। 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत 22,397 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। जिसमें से लगभग 3056 करोड़ रूपए तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। इतनी बडी रकम के भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक की मिलीभगत है। इस योजना की सबसे बड़ी विसंगति यह रही की जॉब कार्ड होने के बावजुद आधे लोगों को काम नहीं मिल सका। यही नहीं जिन लोगों को काम मिला भी तो उनमें से 10 फीसदी को भी 100 दिन का रोजगार नहीं मिल सका। जबकि इस योजना के तहत प्रदेश में कई बड़ी परियोजनाओं का निर्माण हुआ है। कैग ने भी अपनी अब तक की सारी रिपोर्ट में कहा है मप्र में मनरेगा के फंड का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। विभिन्न स्तरों पर हुई जांच के बाद सामने आए तथ्य से यह बात तो साबित हो चुकी है कि प्रदेश में मजदूरों के साथ धोखा हो रहा है। ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड है, लेकिन उनके पास काम नहीं है। मनरेगा के तहत प्रदेश में वित्तीय वर्ष 2014-15 के तहत 1,02,74,087 लोगों का जॉब कार्ड बनाया गया है। इस वित्तीय वर्ष में अब तक 1,14,854 काम शुरू हुए हैं। इनमें से करीब 5 माह में 9.199 फीसदी ही काम पूरा हो सका है। इन कार्यां को पूरा करने के लि 58,72,685 जॉब कार्डधारियों को ही काम मिल सका है। इसमें से भी केवल 55,162 परिवारों को ही 100 दिन काम मिल सका है। दरअसल, काम का टारगेट पूरा करने के लिए मजदूरों की जगह मशीनों से काम हो रहा है। मनरेगा द्वारा जो आंकडें दिए जा रहे हैं वह कितने विश्वसनीय है यह इसी बात से पता चलता है कि जांच के दौरान सैकड़ों कार्ड मृत व्यक्तियों भी सामने आए हैं।
2 लाख से अधिक काम संदेह के घेरे में
मनरेगा की हालत क्या है इस पर नजर डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2009 से अब तक प्रदेश की 313 जनपदों के अधीन 23,006 ग्राम पंचायतों में 22,99,289 काम शरू हुए और इनमें से 15,67,604 काम मनरेगा में किए गए। इनमें से 2 लाख से अधिक काम राज्य रोजगार गारंटी परिषद की नजर में संदेह के घेरे में आए। डेढ़ लाख कामों के बारे में आज भी जांच जारी है। कलेक्टरों के पास हर जनसुनवाई में मनरेगा की इतनी शिकायतें पहुंचीं हैं कि कार्रवाई हो तो प्रदेश की ग्राम पंचायतों में से आधे से ज्यादा सरपंच और सचिव पद से हाथ धो बैठें। इस योजना में काम कर चुके एक वरिष्ठ परियोजना अधिकारी के मुताबिक किसी भी जिले में दर्ज जॉब कार्डधारी परिवारों में से सिर्फ 10 प्रतिशत को ही 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। वर्ष 2913-14 के तहत प्रदेश में मनरेगा में 4,73,333 काम शुरू हुए है। इनमें से साल भर में महज 32.418 फीसदी काम ही पूरा हो सके। इस दौरान 75,491 लोग ही ऐसे थे, जिन्हें 100 दिन काम मिला। जबकि इस वित्तीय वर्ष में 1,07,93,971 लोगों के पास जॉब कार्ड थे और इनमें से 63,76,632 लोगों को काम मिल सका था। 15 दिन से कम काम मिलने वालों की संख्या 5 लाख 14 हजार के आसपास दर्ज की गई। जबकि प्रदेश के सभी जिलों में एक या दो दिन काम करने वाले 2 करोड़ से ज्यादा मजदूर शामिल थे। इन सभी जिलों में साल की शुरुआत के दौरान 5 हजार 527 लाख रुपए बचे हुए थे। नए काम के लिए फिर से इन जिलों को 36 हजार 616 लाख रुपए मिल गए। लेकिन खर्च सिर्फ 10 हजार 485 लाख ही किए जा सके। इसी प्रकार वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए प्रदेश में मनरेगा के तहत काम कराने के लिए 14,12,63,028 लाख रूपए जारी किए गए हैं, लेकिन इस बार भी जिस तरह काम हो रहा है उससे नहीं लगता है की पूरा फंड इस्तेमाल हो सकेगा।
प्रदेश में 3056 करोड़ का भ्रष्टाचार
देश में मप्र ऐसा राज्य है जहां वर्ष 2009 से अब तक मनरेगा के तहत स्वीकृत कार्यों में से 73.93 फीसदी पूरा कर लिया गया है। लेकिन सबसे बड़ी विसंगति यह है कि वर्ष 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत केंद्रीय कोष से जारी किए गए 22,397 करोड़ रुपए में से 3056 करोड़ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं। यहां कागजों पर कुओं, तालाब और स्टॉप डैम के निर्माण की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। प्रदेश में शुरू हुई कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 2.5 लाख कुओं में से ज्यादातर कुएं खोदे ही नहीं गए। प्रस्तावित स्थलों का जब जांच के दौरान मुआयना किया गया तो वहां कागजों में कपिलधारा योजना के तहत कुओं का निर्माण पूर्ण बताया गया है। लेकिन जांच अधिकारी यह देखकर चौक गए कि कागजों में खुदे कुएं, खेत में थे ही नहीं। प्रदेश में मनरेगा के तहत कितने बड़े स्तर पर घोटाला हो रहा है इसका खुलासा एक आरटीआई से मिली जानकारी से हुआ। रीवा में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गजल गायक जगजीत सिंह,विद्दाचरण शुक्ला,वसीम अकरम को मनरेगा की लिस्ट में मजदूरी करते दर्शाया गया है। रीवा में स्मार्ट कार्ड बनाने वाली कंपनी फिनो फिंटेच फाउंडेशन गरीबों को उनके घरों में ही मजदूरी पहुंचाने की मंशा से यूनियन बैंक के सहयोग से ये स्मार्ट कार्ड बनाए थे। इसके तहत मजदूरों को भुगतान के नाम पर करोड़ों का बंदरबांट भी कर दिया लेकिन हैरत की बात है कि पूरे काम की मॉनिटरिंग करने वाले बैंक प्रबंधन को इतना बड़ा फर्जीवाड़ा नहीं दिखा। आरटीआई के मुताबिक राज्य के नौ जिलों के कलेक्टरों ने जिलों को दी गई आवंटित राशि की बजट लिमिट से चार गुना तक ज्यादा रुपए खर्च कर दिए हैं और विभाग को उनका ब्योरा तक नहीं दिया। नियम के मुताबिक कोई भी कलेक्टर जिलों को आवंटित राशि का छह फीसदी ही प्रशासनिक खर्च कर सकता है लेकिन दतिया के कलेक्टर ने खर्च की सीमा से तकरीबन 25 फीसदी ज्यादा खर्च किया। यही हाल होशंगाबाद, भिंड नरसिंहपुर, रायसेन, हरदा शिवपुरी श्योपुर और शाजापुर का भी हैं। यहां के कलेक्टर ने भी आवंटित राशि से ज्यादा खर्च किए। गौरतलब है कि वर्ष 2008 से 2013 के बीच लगभग 23 आईएएस अफसरों का नाम घोटाले में सामने आ चुका है लेकिन कार्रवाई किसी पर भी नहीं हुई।
साल दर साल बढ़ बढ़ रही हैं शिकायते
मनरेगा में गड़बड़ी की शिकायतें कम होने के बजाय साल दर साल बढ़ती जा रही है। प्रदेश में मनरेगा की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से हुई। इनमें से 58 फीसदी शिकायतों का निराकरण आज तक नहीं किया गया। इस साल अभी तक 1355 शिकायते आई हैं। जबकि 2013 में 3060 शिकायतें आई थीं, जिनमें से 1777 शिकायतों को फाइलों में दबा दिया गया है। यही नहीं सरकार के नियत्रंक एंव महालेखा परीक्षक द्वारा किए गए आडिट में मनरेगा की गड़बडिय़ों को लेकर गंभीर अनियमितताएं सामने आई है। इसके बावजूद शासन को भारी वित्तीय हानि पहुंचाने वाले जिन बड़े अफसरों पर कड़ी कार्रवाई की जाना थी वे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए है। इसके विपरीत पंच, सरपंच, सब इंजीनियर पर भ्रष्टाचार के आरोप में विभागीय कार्रवाई त्वरित गति से हो रही है। बडें़ अफसरों का बचाव करने की प्रवृति के कारण मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। मनरेगा से जुड़े सवालों के विधानसभा में भी संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल पा रहे है। इस योजना में हुई भारी आर्थिक गड़बड़ी के लिए एक दर्जन से अधिक आईएएस अधिकारी सीधे-सीधे आरोपों के घेरे में हंै। यहां यह बताना जरूरी होगा कि मनरेगा के घपले-घोटले केवल प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा विधायकों के निशाने पर भी है। भाजपा विधायकों ने मनरेगा के क्रियान्वयन के दौरान अपने अपने क्षेत्रों में हुए भ्रष्टाचार को लेकर राज्य विधानसभा तक में सवाल जवाब किए हैं। विधायक भी यह मानते हैं कि मनरेगा के भारी भ्रष्टाचार के लिए बड़े अफसर ज्यादा जिम्मेदार हैं,लेकिन उन पर जितनी तेजी से कार्रवाई होना चाहिए वह हो नहीं पा रही है। राज्य विधानसभा के विधायकों की प्राक्कलन समिति ने भी अपनी जांच में यह पाया है कि प्रदेश में मनरेगा के तहत जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है। समिति ने इंदौर संभाग के बड़वानी, खरगौन, धार, झाबुआ आदि जिलों का दौरा कर मनरेगा के तहत हुए कामकाज स्थल निरीक्षण किया तो घपले-घोटाले परत दर परत खुलने लगे। विधायकों के इस समिति ने पाया कि बड़वानी जिल में तो जिन कामों के लिए मनरेगा की पूरी की पूरी रकम सरकारी खाते से निकाल ली गई वे काम एक डेढ़ साल बीत जाने पर भी पूरे नहीं हो पाए हैं। अकेले बड़वानी जिले में मनरेगा के घोटालों की जब केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए दल ने जांच की तो पता चला कि योजना में जमीनी स्तर पर काम बहुत कम और कागज पर पूरा जमा खर्च हो गया है। बड़वानी जिले में मनरेगा का भ्रष्टाचार जब देशव्यापी चर्चा का विषय बना तो कुछ और सरपंच, सब इंजीनियर के विरूद्ध कार्रवाई की गई जबकि भ्रष्टाचार के जिम्मेदार बड़े अफसर सख्त कार्रवाई से बचे रहे। इस बारे में बड़वानी जिले के राजपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक बाला बच्चन का कहना है कि भ्रष्टाचार ने ग्रामीण विकास, आदिवासी विकास के लिए बनाई गई योजनाओं की हालत खराब कर दी है। आदिवासी जिलों में तैनात अफसर भारी भष्टाचार कर रहे है और भाजपा सरकार भ्रष्ट अफसरो को सरंक्षण दे रही है। वे सवाल करते है कि सरकार घपले-घोटालों के जिम्मेदार बड़े अफसरों पर त्वरित और कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं करती? उल्लेखनीय है कि बड़वानी जिले में हुए मनरेगा घोटाले में बड़े अफसरों को बचाने के सवाल उच्च न्यायालय तक पहुंच गए है। हाल ही में उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में एक याचिका दायर कर यह कहा गया है कि मनरेगा में भ्रष्टाचार के जिम्मेदार बड़े अफसरों को बचाया जा रहा है। याचिका को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने इस मामले में राज्य सरकार से जवाब तलब किया है। प्रदेश में करीब छह हजार करोड़ सालाना के बजट वाली मनरेगा में हर साल लाखों-करोड़ों का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है। इसके चलते 2042 लोगों पर कार्रवाई की गई, लेकिन अफसरशाही के कारण अधिकतर कार्रवाइयां अपने सही अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। सैकड़ों प्रकरण में कार्रवाई अभी भी फाइलों में ही सिमटी हुई है, तो कई मामलों में आरोपी प्रकरण से आजाद हो चुके हैं। बहुत कम मामले ऐसे हैं, जिनमें अधिकारी-कर्मचारी और पंच-सरपंच पर अंतिम रूप से आर्थिक या अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकी। मोटे तौर पर करीब सात फीसदी लोग ही विभिन्न प्रकार की सख्त कार्रवाई के दायरे में आ सके हैं।
सरपंच, सचिव को सात-सात साल की कैद
इसी साल अप्रैल में छतरपुर जिले के बिजावर अपर सत्र न्यायाधीश जेपी सिंह की अदालत ने मनरेगा की राशि का गबन करने के मामले में एक सरपंच और एक सचिव को दोषी करार देते हुए दोनों को सात-सात साल की कठोर कैद की सजा सुनाई है। न्यायाधीश ने अपने फैसले में सरपंच हरसेवक पटेल निवासी हीरापुर और सचिव हरप्रसाद पटेल निवासी बुधगुवां दोनों को सात-सात साल की कठोर कैद की सजा के साथ उन पर 50-50 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया है। बताया जाता है कि जनपद पंचायत बिजावर के ग्राम पंचायत जखरौन कला में मनरेगा के तहत निर्माण कार्य के लिए शासन ने 63 लाख 64 हजार 635 रुपए की राशि साल 2009 में दी थी। निर्माण कार्य में सरपंच एवं सचिव के द्वारा की गई गड़बड़ी की शिकायत मिलने पर जांच कराई गई। जनपद पंचायत बिजावर के उपयंत्री ने जांच में पाया कि ग्राम पंचायत जखरौन कला के सरपंच और सचिव ने निर्माण कार्यो में शासन के 12 लाख 85 हजार 41 रुपए की राशि का हेरफेर किया है। थाना सटई में दोनों आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था और पुलिस निरीक्षक (एसआई) केडी सिंह ने विवेचना करने के बाद मामला अदालत को सौंप दिया था। अगर भ्रष्टाचार करने वाल हर एक अफसर के खिलाफ भी ऐसे कठोर कदम उठाए जाए तो सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार करने की किसी की हिम्मत नहीं होती।
22 करोड़ के बुक एडजस्मेंट की तैयारी
शिवपुरी मनेरगा में मुरम, बोल्डर, सड़कों के नाम पर हुई लगभग 22 करोड़ की अनियमिता अधीक्षण यंत्री आरईएस मंडल ग्वालियर की जांच में साबित होने के बाद दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाए शिवपुरी जिला पंचायत द्वारा अनियमितता को छिपाने एक प्रस्ताव बुक एडजस्मेंट के लिए ग्रामीण विकास विभाग को भेजा गया है। आयुक्त कार्यालय के आदेशानुसार की गई जांच में शिवपुरी मनरेगा में पदस्थ आठों सहायक यंत्री और उपयंत्रियों सहित आठों जनपद सीईओ को लगभग 22 करोड़ से अधिक की अनियमितता के लिए दोषी ठहराया गया है। जिसकी जांच रिपोर्ट समस्त दस्तावेजों के साथ मई 2014 में ही आयुक्त कार्यालय भेज दी गई थी। मगर 8 जुलाई 2014 तक कड़ी कार्रवाई करने के बजाए जिला पंचायत ने एक प्रस्ताव इस अनियमितता को नियमित करने मनरेगा ग्रामीण विकास विभाग मप्र शासन को भेजा है।
मनरेगा में 2,200 से अधिक के खिलाफ कार्रवाई
प्रदेश में मनरेगा में किस तरह का घपला-घोटाला चल रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले 8 साल में इस योजना के तहत गड़बड़ी करने वाले 2,200 से अधिक कर्मचारियों तथा अधिकारियों के अलावा जन प्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। जिन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है, उनमें कलेक्टर तक शामिल है। प्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि कि इस योजना को प्रभावी बनाने के लिए शुरू से ही जमीनी स्तर पर प्रयास किए गए। इसकी सतत निगरानी भी की जा रही है। सरकार की कोशिश है कि पात्रों को योजना का लाभ मिले और गड़बडी करने वालों की जवाबदेही तय कर दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। भार्गव ने बताया कि शिकायतों पर विभाग ने सख्त कार्रवाइयां की है। वित्तीय अनियमितताएं पाए जाने पर वसूली तक की गई है। योजना के क्रियान्वयन में गड़बडी करने वाले दो कलेक्टर, छह जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालक अधिकारी, 107 जनपद पंचायत के मुख्यकार्यपालक अधिकारी, सात कार्यपालक यंत्री, 67 सहायक यंत्री, 208 उपयंत्री तथा 27 अन्य अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक तथा दंडात्मक कार्रवाई की गई है। इतना ही नहीं, 728 सरपंच और 908 पंचायत सचिवों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है। इनके अलावा करीब दो सैकड़ा से अधिक अन्य अधिकारियों-कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों पर कार्रवाई की गई है।
हर जिले में लाखों अपात्र हितग्राहियों का पंजीयन
कैग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में मनरेगा के तहत हर जिले में लाखों अपात्र हितग्राहियों का पंजीकरण किया गया है। राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत की गई सीएजी के प्रतिवेदन में कहा गया है कि राज्य सरकार के इस आदेश के चलते राज्य के हर जिले में 13.35 लाख से 19.74 लाख अपात्र परिवारों का योजना के अंतर्गत पंजीकरण किया गया है। एक तरफ जहां अपात्रों का पंजीकरण हुआ है, वहीं वार्षिक विकास योजना तैयार करने में निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। श्रम बजट वास्तविकता के आधार पर तैयार नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, विस्तृत परियोजना प्रतिवेदनों को तैयार करने में अनावश्यक व्यय किया गया है। सीएजी रिपोर्ट राज्य में लोगों को योजना के मुताबिक काम न मिलने का भी खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में मात्र 2.31 प्रतिशत से 12.60 प्रतिशत पंजीकृत परिवार ही ऐसे हैं, जिनके द्वारा 100 दिवस का गारंटीशुदा रोजगार पूरा किया जा सका है। मनरेगा के जरिए रोजगार हासिल करने वाले अनुसूचित जनजाति वर्ग परिवारों की कम होती संख्या का खुलासा भी इस रिपोर्ट में किया गया है। सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2007-12 की अवधि के दौरान राज्य में अनुसूचित जनजाति परिवारों के मनरेगा के तहत उपलब्ध कराए गए रोजगार का प्रतिशत 49 से घटकर 27 प्रतिशत हो गया है। मनरेगा में स्वीकृत राशि से भी ज्यादा की राशि का व्यय किए जाने का खुलासा भी इस रिपोर्ट से होता है। रिपोर्ट में मुताबिक, वर्ष 2007-12 की अवधि में भारत सरकार द्वारा योजना के लिए 15 हजार 946.54 करोड़ रुपए मंजूर किए गए, मगर खर्च हो गए 17 हजार 193.12 करोड़ रुपए। यहां भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मनरेगा के तहत प्रदेश में 53 लाख गलत जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इससे नुकसान किसका और फायदा किसे हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि अब इस दिशा में कुछ बदलाव किए जा रहे हैं। प्रदेश में पिछले साल तक 1 करोड़ 20 लाख जॉबकार्ड थे। इनमें से ऐसे जॉबकार्ड को छांटा गया, जिनमें कभी काम नहीं मांगा गया। आज की स्थिति में 73 लाख खाताधारक मजदूर ही बचे हैं। पूरे सिस्टम को ऑनलाइन करने की कोशिश की गई है। प्रदेश में 15 हजार बैंक शाखाओं में रकम भेजी जा रही है। मजदूरों के समूह बनाए जा रहे हैं और पिछले सालों में जो काम नहीं होते थे, उन्हें शामिल कर सेल्फ ऑफ प्रोजेक्ट यानि खुद का काम करो और मजदूरी मनरेगा से लो की कोशिश भी शुरू की गई है। सवा दो लाख मजदूरों के समूह तैयार किए गए हैं। लेकिन आज भी इतनी लंबी प्रक्रिया अपनाई जा रही है कि काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ा पाना मुश्किल बना हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ता किशोर दुआ कहते हैं कि जितना भी भ्रष्टाचार मनरेगा में हुआ है या हो रहा है, वह सिर्फ मजदूरी भुगतान में है। जितनी रकम खर्च की जाती है उसमें से 90 प्रतिशत सामग्री पर हो रही है तो फिर मजदूरी के लिए रकम कैसे बचेगी। काम की मांग के आधार पर काम दिया जाता है, लेकिन जब काम ही नहीं शुरू होंगे तो मजदूर क्या करेगा। बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है।
प्रशासनिक व्यय में मनमानी
सीएजी की संस्था महालेखाकार (एजी)ने प्रदेश में करोड़ों के भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक व्यय में मनमानी सहित केंद्र से मांगी गई राशि को खर्च नहीं कर पाने का खुलासा किया है। साथ ही उपयोगिता प्रमाण पत्र के नाम पर भी किए गए भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को नहीं भेजी गई, वहीं कुछ मामलों में वास्तविक खर्च से अधिक राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र भेजी गई है। यह खुलासा आरटीआई के तहत प्राप्त एजी रिपोर्ट के बाद हुआ है। यह रिपोर्ट वर्ष 2011 -2012 की है। इस निरीक्षण प्रतिवेदन को तैयार कर ग्वालियर कार्यालय ने फरवरी 2013 में उचित कार्रवाई के लिए मप्र मनरेगा परिषद को भेजा था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
रिपोर्ट में सामने आए भ्रष्टाचार के नमूने
रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा परिषद ने योजना की उचित मॉनिटरिंग नहीं की, जिस कारण मजदूरों को योजना का लाभ नहीं मिला। 8 जिलों में मजदूरी और सामग्री के लिए निर्धारित अनुपात में व्यय का पालन न करते हुए सामग्री पर 40 प्रतिशत से ज्यादा राशि 16263.27 लाख रुपए खर्च की गई। मनरेगा परिषद ने उचित बजट प्रस्ताव न बनाते हुए केंद्र सरकार से करोड़ों की राशि की और उसे खर्च ही नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार परिषद् द्वारा बनाया गया बजट तथ्यों पर आधारित न होकर अवास्तविक और आधारहीन रूप से तैयार किया गया था। इसके कारण वर्ष 2011-12 के अंत तक करीब 191492.51 लाख रुपए की राशि शेष रही। योजना के तहत मजदूरी का भुगतान बेहद विलंब 90 दिनों के बाद 7 लाख 37 हजार 688 मजदूरों को रुपए 85887.91 लाख रुपए किया गया। मनरेगा परिषद ने शासकीय और अशासकीय संस्थाओं को विशेष प्रयोजनों के लिए 64.37 लाख रुपए की जो राशि अग्रिम दी थी, उसका समायोजन नहीं किया। परिषद ने इन संस्थाओं से उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं लिया। वर्ष 2011-12 में 30 जिलों ने प्रशासनिक व्यय 6 प्रतिशत से अधिक किया, जो की करीब 3850.21 लाख रुपए ज्यादा खर्च किया। रिपोर्ट के अनुसार इस कारण योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका। मनरेगा परिषद ने वर्ष 2011-12 का वास्तविक उपयोग से अधिक राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र सरकार को जारी कर दिया। यह राशि 11903.89 लाख रुपए थी। ग्रामीण विकास मंत्री और मनरेगा आयुक्त के गृह जिलों में बुंदेलखंड पैकेज की राशि का सदुपयोग नहीं हुआ। अनावश्यक सरकारी धन को अवरुद्ध रखा गया, जिससे गरीब हितग्राहियों का पलायन नहीं रुका। इससे अन्य जिलों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरपंचों व सचिवों ने निर्माण कार्यो का फर्जी मूल्यांकन करवाकर पंचायतों के लेखा रिकॉर्ड में हेराफेरी कर गंभीर वित्तीय अनियमितताएं की हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पंचायत के रिकॉर्ड की प्रशासनिक अधिकारियों की टीम से जांच करवाकर सरपंचों व सचिवों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं
प्रदेश में अब ताजा मामला मजदूरों को समय पर मजदूरी नहीं देने का है। इसमें 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर मजदूरी देने की बात सामने आई है। ये आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर जिलों मे मजदूरों को भुगतान बहुत ही कम हो रहा है। आलम यह है कि भिंड में तो मात्र 1 प्रतिशत ही मजदूरी का भुगतान हुआ है। विभाग की लापरवाही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण मनरेगा के समस्त कार्य ठप हैं। इसका कारण सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2013 से मनरेगा योजना के तहत सभी भुगतान के लिए इलेक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) लागू किया था। यह व्यवस्था बहुत अच्छे उद्देश्य के तहत पारदर्शिता के लिए लायी गई है, लेकिन योजना लागू होने के फौरन बाद चौपट हो गई, जिससे प्रदेश के लाखों गरीब मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में कई मजदूरों के घरों में चूल्हें नहीं जल पा रहे हैं। राज्य स्तरीय विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग समिति, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, मप्र शासन के सदस्य अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में मनरेगा की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहां पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार चल रहा है। सबसे गंभीर बात यह है कि मनरेगा परिषद जिस पर निगरानी और कार्रवाई का जिम्मा है, जब वह ही उदासीन है, तो मनरेगा में भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है। एजी की रिपोर्ट में बड़े खुलासे हुए हैं। अब सरकार को इसकी सीबीआई से जांच कराना चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता किशोर दुआ कहते हैं कि मनरेगा की सबसे बड़ी विसंगति है समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होना। मनरेगा के नियमों के मुताबिक 10 दिन के भीतर मजदूरी का भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पहले काम करना पड़ता है, फिर मस्टर रोल चेक होते हैं, तब इंजीनियर और सरपंच-सचिव उस मजदूरी को फाइनल करते हैं। फिर बैंक के खाते में मजदूरी ट्रांसफर होती है। बैंक भी समय पर मजदूरी दे सकें, इसकी कोई गारंटी नहीं। बैंकर्स के पास इतनी बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं नहीं हैं कि हर गांव के आसपास मजदूरी का भुगतान समय पर किया जा सके। हर स्तर पर मॉनीटरिंग के चलते रिकॉर्ड रखना भी एक बड़ी समस्या है। इसके चलते कई विभाग इस योजना में हाथ नहीं डालना चाहते। ग्राम पंचायत स्तर पर जब लेबर बजट बनता है तो कोई इस काम में मदद नहीं करता। सिर्फ सरपंच और सचिव के भरोसे काम के प्रस्ताव बना लिए जाते हैं। गांव में रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि आखिर उनके लिए क्या बनने वाला है और मजदूरों को कितना काम मिलेगा। विकास के नाम पर चलने वाले बड़े प्रोजेक्ट में सालभर का काम आसानी से मिल जाता है। दूसरे विकासशील और विकसित माने जाने वाले प्रदेशों में मजदूरों की डिमांड होने से पलायन हो रहा है। योजना में सिर्फ अधिकतम 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। जबकि मजदूर को अपने परिवार का पेट पालने के लिए साल में 300 दिन का रोजगार चाहिए।
मनरेगा में विसंगतियां
ग्राम-पंचायत स्तर पर मनरेगा के तहत जिस रोजगार की गारंटी का सपना देखा गया वह ग्राम-पंचायतों के प्रधानों, ग्राम-सचिवों एवं छोटे-बड़े अधिकारियों की कमाई का जरिया बन चुका है। तमाम सरकारी रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हो चुका है कि मनरेगा का इस्तेमाल जितना बेरोजगारों को रोजगार देने एवं विकास कार्यों में हो रहा है, उससे ज्यादा तो इसके पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिछली सरकार में मंत्री रहे जयराम रमेश अपने कार्यकाल के दौरान ही कह चुके हैं कि मनरेगा में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। शायद ही कोई ग्राम-पंचायत हो जहां इस योजना की आड़ में पैसे का हेरफेर न किया जा रहा हो। कार्यक्षेत्र में फैलाव एवं बजट राशि में हुए विस्तार के साथ ही इस योजना में अनियमितताओं का भी बोलबाला बढ़ा है। कुछ महीने पहले जो तथ्य सामने आए, उसमें यह देखने को मिला कि मध्य प्रदेश सहित यूपी, झारखंड, उत्तराखंड आदि में करोड़ों के काम के नाम पर पैसा निकाल लिया गया मगर जमीन पर काम के नाम पर कुछ हुआ ही नहीं है। ग्रामीणों का कहना था कि सरकार द्वारा सार्वजनिक इस्तेमाल के संसाधनों, जैसे सोलर लाइट, सब-मर्सिबल आदि को सरपंचों द्वारा निजी हितों को ध्यान में रखते हुए इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि इस बाबत जब स्थानीय अधिकारियों से शिकायत दर्ज कराई जा रही है तो मामला लाल-फीताशाही और हीला-हवाली से लटकने से ज्यादा कुछ भी होता नहीं दिख रहा। अगर कोई अधिकारी जांच में जा भी रहा है तो वह इन कार्यों के संबंध में मनरेगा की वेबसाइट पर उपलब्ध डाटा को ही गलत बताकर मामले को टाल रहा है तो कोई किसी और बहाने से मामले को लटका रहा है। इसी तरह के तमाम मामले रतलाम सहित अन्य कई शहरों से भी आते रहे हैं। इन मामलों में भ्रष्टाचार की शृंखला ऊपर से नीचे तक ऐसे बुनी गई है कि शिकायतों की सुनवाई मुश्किल हो जाती है। अगर निष्पक्ष जांच हो तो कई संरपंचों से लेकर और बड़े अधिकारी तक इस हेरफेर में भागीदार नजर आएंगे। दरअसल, इस पूरी योजना को लेकर हीला-हवाली का मामला सरकार की तरफ से भी नजर आता है। मनरेगा के तहत प्रथम 100 दिनों के रोजगार का भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किए जाने का प्रावधान है जबकि इसके बाद का भुगतान राज्य सरकार के जिम्मे दिया गया है। अब राज्य सरकारों ने कंप्यूटरीकरण द्वारा ऐसा तरीका ईजाद कर लिया है कि निर्धारित से अधिक का भुगतान उसे न करना पड़े। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि जहां 100 दिन का काम करने वाले व्यक्ति ने यदि पुन: काम के लिए आवेदन किया तो उसका आवेदन ही अधिकारी स्वीकार नहीं कर रहे। लिहाजा देखा जाए तो राज्य सरकारों ने इसके मूलस्वरूप को ही बदलने की कोशिश की है जिसका सीधा नुकसान गरीब आदमी को हुआ जो रोजगार के लिए धक्के खा रहा है। मनरेगा के लिए सरकार की नीति-निर्माण में तमाम खामियां देखने को मिलती रही हंै। सरकार ने वर्ष 2010-11 में मनरेगा के लिए बजट में 40,000 करोड़ रुपए आवंटित किए थे जबकि वर्ष 2013-14 में इसे घटाकर 33,000 करोड़ रुपए कर दिया गया। वहीं दूसरी तरफ इसके विपरीत प्रति व्यक्ति दैनिक मजदूरी उन दिनों में मात्र 100 रुपए प्रतिदिन थी, जो अब बढ़ाकर 175, 214 तथा अब 236 रुपए कर दी गई है।
3 लाख करोड़ स्वाहा...स्थिति जस की तस
देश में हर हाथ को रोजगार और हर व्यक्ति को भोजन मुहैया कराने के उद्देश्य से मनरेगा के तहत करीब नौ वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में इस महत्वाकांक्षी योजना पर कुल 2.94 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। जिसमें से केंद्रीय कोष से राज्यों को 2.25 लाख करोड़ रुपए जारी किए गए। लेकिन विसंगति यह है कि आज भी देश में करोड़ो लोग बेरोजगारी और भुखमरी का दंश झेल रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, मनरेगा के तहत वित्त वर्ष 2006-07 में 8823.35 करोड़ रुपए, 2007-08 में 15856.88 करोड़ रुपए और 2008-09 में 27250.09 करोड़ रुपए खर्च हुए। वित्त वर्ष 2009-10 में मनरेगा के तहत 37905.22 करोड़ रुपए, 2010-11 में 39377.27 करोड़ रुपए और 2011-12 में 37072.82 करोड़ रुपए खर्च हुए। साल 2012-13 में 39778.28 करोड़ रुपए, 2013-14 में 38553.52 करोड़ रुपए और 2014-15 में मध्य जुलाई तक 12597.53 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसमें से केंद्रीय कोष से 2006-07 में 8640.35 करोड़ रुपए, 2007-08 में 12610.39 करोड़ रुपए, 2008-09 में 29939.60 करोड़ रुपए, 2009-10 में 33506.61 करोड़ रुपए, 2010-11 में 35768.95 करोड़ रुपए, 2011-12 के दौरान 29189.76 करोड़ रुपए, 2012-13 में 30009.95 करोड़ रुपए और 2013-14 के दौरान 32743.68 करोड़ रुपए और 2014-15 के दौरान 13573.17 करोड़ रुपए जारी किए गए। मनरेगा के तहत पिछले करीब 9 वर्षों में पश्चिम बंगाल को 16764 करोड़ रुपए और तमिलनाडु को 17281 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। आंध्रप्रदेश को 36458 करोड़ रुपए जारी किए गए जिसमें वित्त वर्ष 2014-15 के लिए आंध्रप्रदेश और तेलंगाना दोनों के लिए संयुक्त रूप से 4235 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। गुजरात को मनरेगा के तहत केंद्रीय कोष से 3260 करोड़ रुपए और उत्तरप्रदेश को 25461 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत 22397 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। इस अवधि में बिहार को 10158 करोड़ रुपए जारी किए गए। महाराष्ट्र को 4788 करोड़ रुपए और कर्नाटक को 9174 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। इस अवधि में पंजाब को मनरेगा के तहत 966 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए, जबकि केरल को 5453 करोड़ रुपए जारी किए गए। ओडिशा को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 7228 करोड़ रुपए और छत्तीसगढ़ को 11997 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। लेकिन इतनी बड़ी राशि खर्च होने के बावजुद देश में बेरोजगारी और बदहाली पहले की तरह ही है।
मप्र में 3.27 करोड़ लोग अभी भी गरीब
मनरेगा के लागू हुए लगभग 9 साल होने के बावजुद जहां पूरे देश में 36.29 करोड़ यानी 29.5 फीसदी आबादी गरीबी में जीवन जी रही है,वहीं मध्य प्रदेश में 44.3 फीसदी यानी 3.27 करोड़ लोग गरीब हैं। मप्र में वर्ष 2004-05 में 48.6 फीसदी आबादी गरीब थी। प्रदेश सरकार के प्रयासों और योजनाओं के चलते वर्ष 2009-10 में गरीबी का प्रतिशत घटकर 36.7 हो गया। यानी पांच वर्षो में राज्य के गरीबों की संख्या में 12 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। इससे 13 लाख परिवार ऐसे हैं, जिन्हें गरीबी की तोहमत से मुक्ति मिली है। फिर वर्ष 2011-12 में वह पहले घटकर 31.7 प्रतिशत हो हुई और अब जब यह रिपोर्ट वर्ष 2011-12 के आधार पर दूसरी बार प्रस्तुत की गई तो वह बढ़कर 44.30 फीसदी हो गई है। हालांकि प्रदेश सरकार इन आंकड़ों से इतीफाक नहीं रखती है। प्रदेश सरकार ने हाल ही में आर्थिक सर्वेक्षण में यह तथ्य स्वीकार किया कि यहां 40 फीसदी परिवार बिना रसोईघर के खाना बनाते हैं। दस परिवारों में से सिर्फ दो परिवार के पास ही रसोई गैस की सुविधा है। यानी 80 फीसदी आबादी अब भी चूल्हे पर ही खाना बना रही है। स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि तीन चौथाई आबादी के पास शौचालय तक की सुविधा नहीं है। कुपोषण से एक तिहाई आबादी प्रभावित है। जबकि, 57.6 प्रतिशत महिलाओं में रक्त की कमी है।
शिवराज और वसुंधरा विरोध में
मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले इस कदर बढ़ गए है कि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे या तो इसमें बदलाव या फिर इसे बंद करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग कर चुके हैं। दोनों बड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मांग के बावजुद मोदी सरकार मनरेगा को लागू रखने के पक्ष में है लेकिन वह यूपीए-1 और यूपीए-2 की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में बड़े पैमाने पर बदलाव करने जा रही है। सरकार का मानना है कि मनरेगा योजना कागजों और बातों में तो बेहद आकर्षक एवं प्रभावी नजर आती है लेकिन सतही स्तर पर बेहद असफलता से लागू हो सकी है। बताया जाता है कि मोदी सरकार का फोकस योजना का कम से कम 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र के लिए रहेगा। ताकि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाई जा सके। इनमें भूमि, जल संसाधन और पेड़ों से जुड़े काम प्रमुख होंगे। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से तैयार नोट के मुताबिक इसमें निवेश कम से कम 25 हजार करोड़ रुपए का होगा। लघु सिंचाई परियोजनाओं पर भी मनरेगा के जरिए आठ हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। योजना के तहत मजदूरी को सीधे बैंक खातों में ही जमा कराने के प्रावधान भी किए जाएंगे।

मप्र का हर सातवां नौकरशाह सहकर्मी के मोहफांस में

vinod upadhyay
रंगीन मिजाजी अफसरों से मप्र कैडर की छवि हुई काली
भोपाल। दिल हज़ारों रोज ले जाता है तू,तू ही बता ऐ दिलरुबा करता है क्या.... बहादुर शाह जफर का ये रूमानी शेर मप्र के रंगीन मिजाज अफसरों पर फिट बैठता है...अभी हाल ही में धार के पूर्व कलेक्टर और एक महिला तहसीलदार के अंतरंग संबंधों का मामला सामने आने के बाद इन दिनों प्रदेश के प्रशासनिक हल्कों में उन अफसरों के किस्से खूब याद किए जा रहे हैं जो इश्किया के लिए मशहूर हुए...। वैसे तो एमपी कैडर में आशिक मिजाज आईएएस-आईपीएस अफसरों की फेहरिस्त काफी लंबी है। लेकिन जिलों में तैनाती के दौरान कई अफसरों की रंगीन मिजाजी ने महकमें में कुछ ज्यादा ही सुर्खियां बटोरीं। जिलों में पदस्थ कलेक्टर्स से लेकर प्रमुख सचिव स्तर के आला अफसर तक सब के सब प्रेम प्रसंगों में उलझे हैं। आला अफसरों को अय्याशी का रोग इस तरह लगा है कि वे अपनी स्टेनो तक को नहीं छोड़ रहे हैं। कुछ आईपीएस अफसर तो अपनी मातहत महिलाकर्मियों से भी मुंह काला कर रहे हैं, कुछ अपनी अधीनस्थों को बाहर ले जाकर भी अपनी कामपिपासा शांत कर रहे हैं। खास बात यह है कि महिला आईएएस भी ऐसे मामलों से अलग नहीं हैं।
कनिष्ठों पर फिसला दिल
भोपाल हो या इंदौर। ग्वालियर हो या जबलपुर। या फिर प्रदेश का कोई भी जिला। आशिक मिजाज नौकरशाहों का कनिष्ट महिला अफसरों या कर्मचारियों की सुंदरता पर दिल फिसलता रहा है। एक अनुमान के अनुसार, प्रदेश के 309 आईएएस और 291 आईपीएस में से हर सातवां नौकरशाह अपने सहकर्मी के मोहफांस में फंसा हुआ है या फंसाया है। ताजा मामला धार के पूर्व कलेक्टर आईएएस सीबी सिंह और बाबई में पदस्थ महिला तहसीलदार के अंतरंग संबंधों का सामने आया है। और इसका खुलासा किया है महिला तहसीलदार के बेरोजगार पति ने। आईएएस और महिला तहसीलदार की नजदीकी के कारण पति-पत्नी के बीच हमेशा झगड़ा होता रहा है और अब यह झगड़ा जबलपुर हाईकोर्ट के परिवार न्यायालय में पहुंच गया। हालांकि पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे पर चरित्र हनन के आरोप लगा रहे हैं। पति ने तहसीलदार पत्नी पर आईएएस सीबी सिंह से अवैध संबंध होने का आरोप लगाया है। उधर, पत्नी ने भी पति पर अन्य महिलाओं से संबंध होने का वाद दायर कर रखा है। हालांकि पति की शिकायत के बाद सीबी सिंह और तहसीलदार पत्नी का सरकार ने पिछले दिनों जारी तबादला सूची में नाम अलग-अलग कर दिया है। पति के आरोपों के आवेदन पुलिस से लेकर प्रशासन के आला अफसरों तक पहुंचे। पति का आरोप है कि मेरी तहसीलदार पत्नी मुझे झूठे केस में फंसा रही है। यह साजिश उसने आईएएस अधिकारी के साथ मिलकर बनाई है। पति ने आवेदन में लिखा है कि उसकी 2002 में जबलपुर में शादी हुई थी। दो बच्चियां हैं। तब पत्नी नायब तहसीलदार हुआ करती थी। पति का आरोप है कि वह आईएएस अधिकारी सीबी सिंह के साथ गेस्ट हाउस में वक्त बिताती थी। दोनों के बीच चार साल से विवाहेत्तर संबंध हैं। यह संबंध विदिशा में पदस्थापना के दौरान बने। यहां से सीबी सिंह का धार तबादला हुआ था। पति ने बताया वह पत्नी का रीवा तबादला कराना चाहता था। इसके लिए वह और उसके पिता मुख्य सचिव आर परशुराम से मिले थे। परिजनों के कहने पर रीवा तो तबादला नहीं हुआ, लेकिन उसकी पत्नी का दूसरी जगह तबादला कर दिया गया। पति महिला आयोग भी गया था। वहां उसे महिला फरियादी न होने पर आवेदन लेने से इनकार कर दिया। पति ने बताया उसकी तरफ से दायर दो पेशी पर पत्नी ड्यूटी और बीमारी का बहाना बनाकर नहीं पहुंची, लेकिन उसकी तरफ से एक वाद लगाकर उसे फंसाने की साजिश की जा रही है।
आशिक मिजाज कलेक्टर साब!
इनसे मिलिए यह हैं मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी के प्रबंध संचालक ज्ञानेश्वर पाटिल फिलहाल 18 अगस्त से 10 अक्टूबर तक मिड केरियर के प्रशिक्षण पर हैं। इनका और विवादों का चोली-दामन-सा साथ रहा है। वर्ष 2009 में ज्ञानेश्वर पाटिल जब पंचायत विभाग में थे, तब एक पंचायत सचिव के साथ समलैंगिक संबंध बनाते रंगे हाथों धरे गए थे। उसके बाद से वे लूप लाइन में थे। उसके बाद 2013 में श्योपुर की कलेक्टरी के दौरान जिला शिक्षा केंद्र के राजीव गांधी मिशन के तहत डाटा एंट्री का काम करने वाली महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया। आईएएस स्तर के एक अफसर जब कलेक्टर थे तब एक महिला डीएसपी उनकी नजर में चढ़ गई। साहब ने उसे जमकर भोगा, जिससे वह गर्भवती हो गई। तब साहब ने उसे चलता कर दिया। नौ साल तक यह मामला विभिन्न अदालतों में चला और अब सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।
शबनम के साथ रात बिताने आतुर थे
ज्ञानेश्वर पाटिल श्योपुर जिले के पूर्व कलेक्टर डॉ. सुहेल अख्तर की पहली पत्नी के साथ रात बिताने के लिए ज्यादा ही आतुर थे। इस संबंध में शबनम ने प्रदेश के मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव को कुछ वीडियो क्लिप्स भेजे थे। जिला शिक्षा केंद्र में पदस्थ शबनम खान पर पाटिल इस कदर मोहित थे कि उनके साथ गेस्टहाउस में रात बिताने के लिए उन्होंने जिला परियोजना समन्वयक केसी गोयल और अपने कार्यालय के जमादार भोलाराम आदिवासी को शबनम के पीछे लगा दिया था। यही नहीं, पिछले दस साल से बेहतर सीआर पाने वाली शबनम की सीआर बिगाड़ी गई और उनका वेतन भी रोका गया। मजबूरी में शबनम ने कलेक्टर के दूत के रूप में काम करने वाले भोलाराम आदिवासी से बातचीत की और छुपे हुए कैमरे से वीडियो बना लिया। जनवरी 2013 में ही वरिष्ठ आईएएस आशीष उपाध्याय पर उन्हीं के मातहत अधिकारी ने महिला की मांग का आरोप लगाया था। उपाध्याय पर आरोप लगे थे कि पांच जनवरी 2012 को शिवपुरी भ्रमण पर आए उपाध्याय ने अपने मातहत मीणा से एक महिला को उपलब्ध कराने की मांग की थी। मांग की पूर्ति नहीं की तो उन्हें निलंबित कर दिया गया।
वो के चक्कर में कईयों का घर बर्बाद
मप्र कैडर के कई आईएएस, आईपीएस, आईएफएस के घर बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। राज्य मंत्रालय से लेकर मैदानी इलाकों में पदस्थ ऐसे 14 आईएएस हैं,जो अपने अनैतिक संबंधों के कारण अपने घर में गेस्ट की तरह रहने को मजबुर हैं। जबकि आधा दर्जन तो ऐसे हैं जिनके घरों में रोजाना कलह होती है और पड़ोसी अफसर अगले दिन उनके किस्से को एक-दूसरे से शेयर करते हैं। इसका खुलासा 2010 और फिर 2012 में मंत्रालय में बंटे एक पर्चे में भी किया गया है। मध्यप्रदेश कैडर के कुछ आईएएस की रंगीन मिजाजी के कारण मामला तलाक तक पहुंच गया है। इनमें से एक अफसर दिल्ली में पदस्थ है। यही नहीं कई नौकरशाह तो कालगर्ल के भी शौकिन हैं। ये अफसर अक्सर मुंबई और दिल्ली की यात्रा करते रहते हैं। मंत्रालय में अपनी बेबाकी के लिए जाने जाने वाले एक आईएएस कहते हैं कि मैदानी क्षेत्रों में जब कोई अफसर पदस्थ रहता है तो उसके अपने महिला सहकर्मी या मातहत से भावात्मक संबंध बन जाते हैं। वह दावा करते हैं की अक्सर जब कोई प्रशिक्षु महिला अधिकारी किसी सीनियर के अंडर में आती है तो वह चाह या फिर मजबुरी में अफसर की ओर झूक जाती है।
सुर्खियों में अफसरों की 'आशिक मिजाजीÓ
प्रदेश पुलिस इन दिनों महकमे के कुछ अफसरों की 'आशिक मिजाजीÓ के कारण सुर्खियों में है। महकमे में कोई किसी महिला को ब्लैकमेल कर उसका दैहिक शोषण कर रहा है तो कोई पत्नी के रहते अपने अधीनस्थ से विवाहेतर रिश्ते बनाए हुए है। आशिक मिजाज अफसरों की वजह से पुलिस की किरकिरी भी खूब हो रही है। ताजा मामला ग्वालियर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक प्रमोद वर्मा का है, जिन पर उनकी पत्नी निधि वर्मा ने अधीनस्थ महिला अफसर से रिश्ते रखने का आरोप लगाया है। निधि ने यह शिकायत पुलिस महानिदेशक नंदन दुबे से की है। वर्मा की पत्नी द्वारा की गई शिकायत में कहा गया कि उनके पति के एक महिला पुलिस अधिकारी से रिश्ते हैं। यही कारण है कि वह कई महीने से अपने पति के साथ नहीं रह रही हैं। दुबे ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए जांच की जिमेदारी महिला सेल को सौंप दी थी। वहीं सरकार को लगा कि वर्मा पर लगे आरोप पर कार्रवाई नहीं की गई तो संदेश अच्छा नहीं जाएगा, लिहाजा सरकार ने वर्मा को ग्वालियर के पुलिस अधीक्षक पद से हटा दिया है। एक अन्य मामला आईपीएस अफसर और अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक पद के अधिकारी अनिल मिश्रा का है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक आरोपी की पत्नी का लंबे अरसे तक शारीरिक शोषण किया है। महिला का आरोप है कि मिश्रा लगातार उसे कई स्थानों पर ले गए और उसके साथ दुष्कर्म किया। मिश्रा की कारगुजारी सामने आने के बाद सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया, मगर वह अब भी पुलिस की गिर त से बाहर हैं। इस पीडि़त महिला के परिजनों ने मिश्रा के साथ हुई बातचीत का जो ऑडियो टेप जारी किया है, उसमें मिश्रा न केवल महिला से अभद्र शब्दावली का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं उसे जान से मारने की धमकी भी दे रहे हैं।
फाइलों में दब गया होशंगाबाद सेक्स स्कैंडल
हमेशा दूसरों का दाग देखने वाली पुलिस की वर्दी पर जब दाग लगता है तो पूरा महकमा उसे मिटाने में जुट जाता है। ऐसा की हश्र अक्टूबर 2011 में सामने आए होशंगाबाद पुलिस सेक्स स्कैंडल का हुआ। एक महिला नव आरक्षक ने तत्कालीन होशंगाबाद एडीशनल एसपी (वर्तमान में निलंबित अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक)अनिल मिश्रा पर छेड़छाड़ सहित कई संगीन आरोप लगाए। मामला चूंकि एएसपी स्तर के अधिकारी का था, इसलिए पुलिस के बड़े अफसरों ने इसे फाइलों में ही रफा-दफा कर दिया। इस मामले में बताया जाता है कि उक्त नव आरक्षक ने न केवल अनिल मिश्रा के खिलाफ फोन पर अनर्गल बातचीत और छेड़छाड़ जैसे गंभीर आरोप लगाए, बल्कि उसने पचमढ़ी के मेले सहित कई मामलों का जिक्र सबूत के तौर पर किया। अगर मामले की तहकीकात सही ढंग से हुई होती तो इस सेक्स स्कैंडल में पीएचक्यू से लेकर जिलों में पदस्थ कईअधिकारियों की कारगुजारी सामने आ सकती थी। यहां बताना उचित होगा कि इस मामले की जांच में एसपी ने एएसपी को निर्दोष बताया था जबकि डीएम की जांच में यह साबित पाई गई थी। दूसरी जांच इंदौर ऑफिसर मैस की है। मिश्रा को एक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी ने पिछले वर्ष ऑफिसर मैस में महिला के साथ पकड़ा था। उसे एआईजी ने अपना रिश्तेदार बताया था। एक गोपनीय रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय भी आई थी जिस पर जांच लंबित हैं। पुलिस विभाग की एक तेजतर्रार महिला आईपीएस अधिकारी का दावा है कि मिश्रा की जहां-जहां पदस्थापना हुई है उन्होंने वहां-वहां अपनी तथा अपने वरिष्ठ अधिकारियों की रातें रंगीन करने की व्यवस्था कर लेता था। मिश्रा पर छतरपुर पदस्थापना के दौरान भी इसी तरह के संगीन अपराध भी दर्ज हो चुका है। इससे पहले आईपीएस अफसर मयंक जैन भी अपनी पत्नी से हुए विवादों के कारण चर्चा में रहे। मामला थाने तक भी पहुंचा, मगर बाद में दोनों में आपसी समझौता हो गया। नगर निरीक्षक पद के अधिकारी आशीष पवार को भी प्रेम संबंधों के मामले में थाने की जि मेदारी छोडऩी पड़ी थी। एक अन्य पुलिस अधिकारी अखिलेश मिश्रा की शिकायत तो जनसुनवाई में उनके आचरण को लेकर की गई थी जिसके चलते अफसरों ने उन्हें थानेदार की कुर्सी से रुखसत कर दिया था। यौन शोषण के आरोप में फंसने वाले पुलिस महकमे के अफसर बड़े आराम से फरारी काटते हैं। हाल ही का एक मामला है भोपाल का। यहां एक महिला प्रोफेसर एक निरीक्षक स्तर के अधिकारी की वासना का लंबे समय तक शिकार बनती रही है और उसने आत्महत्या तक कर ली पर इस मामले में आरोपी बनाए गए अफसर उपमन्यु सक्सेना को अब तक पकड़ा नहीं गया है। एडीजी के पद से सेवानिवृत्त हुए आरके चतुर्वेदी की पत्नी ने भी उनकी शिकायत की थी। उनका समझौता कराने के लिए पुलिस के सामने सरेंडर करने वाले कुख्यात डाकू मलखान सिंह भोपाल आया था। उनके खिलाफ वारंट भी जारी है। एडीजी स्तर के एक अधिकारी की पत्नी ने उन्हें घर से निकाल दिया था। बताते हैं कि वे कई दिनों तक पुलिस ऑफीसर्स मेस में रहे हैं। अफसरों के हस्तक्षेप के बाद पति-पत्नी में समझौता हो गया था। दो और आईपीएस अफसर पत्नी से विवादों को लेकर चर्चा में रहे हैं। दोनों वर्तमान में एडीजी स्तर के अधिकारी हैं। अब उनका भी समझौता हो गया है। आईजी स्तर के अधिकारी भी अपनी पत्नी से अलग रह रहे हैं। उनकी पत्नी मप्र से बाहर रहती हैं। भोपाल में उनकी जीवनसाथी उनके साथ खेलने वाली एक महिला है।
साधना बेहार ने दे दी थी जान
पुलिस अफसरों के प्रेम संबंध का एक मामला काफी समय पहले सामने आया था जिसमें प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद बेहार की भतीजी और पुलिस उप निरीक्षक साधना बेहार के संबंध उस समय निरीक्षक हीरालाल रौंतिया से हो गए थे और उसने अपनी जान तक दे दी थी। हीरलाल रौंतिया का उस मामले में कुछ नहीं हुआ।
बुरी नीयत से घूरता था डिप्टी कमांडेंट
5 अगस्त को भोपाल के राजा भोज विमान तल पर तैनात सीआईएसएफ की आरक्षक रितु कुमारी ने डिप्टी कमांडेंट विजय कुमार धनकड़ की ओछी हरकतों से तंग आकर खुद को गोली मार ली। अभी रितु का इलाज एम्स दिल्ली में चल रहा है। रितु ने अपने बयान में कहा है कि धनकड़ पीटी परेड में रोज मुझे बुरी नीयत से घूरता था। उसकी नजर में खोट ज्वाइनिंग के बाद से ही आ गई थी। पहले उसने मेरा मानसिक शोषण शुरू किया। इसके बाद वह मनमानी पर उतर आया लेकिन उसे मैंने ऐसा कोई अवसर नहीं दिया, तो उसने शारीरिक सजा के तौर एक्ट्रा डूयटी लगाना शुरू कर दिया। ताकि परेशान होकर मैं उसकी बात मान लूं। उसकी मंशा शारीरिक शोषण करने की थी, जिसके लिए मैंने कभी मौका नहीं दिया। इस कारण वह सबके सामने मेरी बेईज्जती करने लगा था। यही नहीं वह मेरी ड्यूटी अपने कमरे के सामने लगाता था, जहां से अक्सर मुझे घूरता रहता था। इस कारण मैंने खुद के पेट में गोली मार दी। मैं लहूलुहान होकर गिर पड़ी। इसके बाद मुझे होश नहीं रहा। गांधीनगर पुलिस ने जरूर महिला आयोग की फटकार के बाद डीसी विजय धनकड़ के खिलाफ छेड़छाड़ समेत अन्य धाराओं में मामला दर्ज कर लिया, लेकिन उसकी गिरफ्तारी नहीं की जा रही है। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि जांच पूरी होने के बाद गिरफ्तारी की जाएगी।
पुलिस ट्रेनिंग में महिला कांस्टेबलों का यौन उत्पीडऩ
महिलाओं के विरूद्ध बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए देश भर में तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं। पुलिसिंग को चाक-चौबंद किया जा रहा है, वहीं सिवनी में पुलिस के अधिकारी ही महिला नव आरक्षकों के साथ अश्लील हरकतें करने से बाज नहीं आ रहे हैं। जून माह में सिवनी में कुछ प्रशिक्षु आरक्षकों के द्वारा एक पुलिस अधिकारी पर यौन शोषण के आरोप लगाए गए थे। उस वक्त इन आरोपों को 'किसी का षडयंत्र ' बताकर खारिज कर दिया गया था। इसके बाद यह मामला शांत नहीं हुआ और अब इसकी आंच राज्य महिला आयोग तक पहुंच चुकी है। दरअसल, हाल ही में प्रशिक्षण के लिए सिवनी पुलिस में तैनात की गईं कुछ महिला कांस्टेबॅल्स ने राज्य महिला आयोग को शिकायत कर अधिकारियों के द्वारा यौन शोषण किए जाने का आरोप लगाया है। उन्होंने अपने आरोप में कहा है कि इसका विरोध किए जाने पर प्रशिक्षण के उपरांत उनकी तैनाती में व्यवधान डालने एवं कैरियर को चौपट करने जैसी धमकियां भी दी जा रहीं हैं। हालांकि मामला सामने आने के बाद डीजीपी नंदन दुबे ने संज्ञान में लिया है। उन्होंने इस गंभीर मामले की जांच का जि मा आईजी (महिला सेल) प्रज्ञा ऋचा श्रीवास्तव को दिया है। उधर मामले के तूल पकडऩे के बाद सिवनी के पुलिस अधीक्षक बीपी चंद्रवंशी ने भी इस संबंध में कुछ शिकायती पत्र आने की बात स्वीकार की है। उन्होंने बताया कि जो पत्र उन्हें मिले हैं उन पर किसी का नाम नहीं है, इस वजह से मामले की जांच नहीं कराई गई।
जो सहती है वह मौज करती है
बताया जाता है कि पुलिस में भर्ती के साथ ही महिलाओं का शोषण करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस बात का खुलासा कई स्तरों पर हुआ है। सिवनी की पीडि़त महिला नव आरक्षकों ने भी यह कहा है कि जो महिला नव आरक्षक इन अधिकारियों की मनमानी को सहती रहती हैं, वे मौज करती हैं और दूसरी ओर ऐसे अधिकारियों का विरोध करने पर प्रशिक्षण में मौजूद अधिकारियों द्वारा दो टूक शब्दों में यह कह दिया जाता है कि यह पुलिस की नौकरी है, पुलिस की नौकरी करना है तो 'कंप्रोमाईज ' तो करना ही होगा, पुलिस में सब चलता है। सिवनी में प्रशिक्षण हेतु तैनात महिला नव आरक्षकों ने कहा कि इन शैतानी फितरत के अधिकारियों का साथ कुछ महिला कर्मचारियों द्वारा भी दिया जाता है। महिला कर्मचारी इन नव आरक्षकों को सच्ची-झूठी कहानियां बताकर उन्हें बरगलाने का कुत्सित प्रयास भी करती हैं। यहां यह उल्लेखनीय होगा कि प्रशिक्षण के दौरान अधिकारियों के बढ़ते हौसलों को देखकर महिला नव आरक्षकों ने इसकी शिकायत राज्य महिला आयोग से करने का मन बनाया था।
थानों में सुरक्षित नहीं महिला कांस्टेबल!
देश में सर्वाधिक बलात्कार की घटनाओं के कारण बदनाम मप्र के थानों में भी महिला कांस्टेबल या अन्य कर्मी सुरक्षित नहीं हैं। जिस तरह से पुलिस थानों में अपने महिला कांस्टेबलों ने सीनियर पुलिसकर्मियों के खिलाफ मानसिक और शारीरिक शोषण का आरोप लगाया है उससे ये सवाल उठना लाजमी है। पिछले एक साल में प्रदेश के 1001 थानों में से अधिकांश में महिला कांस्टेबलों ने अपने साथ काम करने वाले पुरुषकर्मियों और अधिकारियों के खिलाफ यौन शोषण के आरोप लगाए हैं लेकिन सभी मामलों में पुलिस महकमे ने दोषियों को दंडित करने के बजाए विभागिय कार्रवाई कर मामले को दबाने का प्रयास किया है। राजधानी भोपाल के एक पुलिस थाने में तैनात एक महिला कांस्टेबल ने अपने सीनियर पुलिसकर्मियों के हरकतों के खिलाफ शिकायत की तो उसे प्रताडि़त किया जाने लगा। उस महिला कांस्टेबल का कहना है कि उसने पिछले सालभर में न जाने कितनी बार अपने अधिकारियों से पुलिस में तैनात कुछ अफसरों की शिकायत की लेकिन कुछ नहीं हुआ, उल्टे उसी का तबादला कर दिया गया। उसने लिखित में शिकायत दी है कि थाने में उसके साथ अभद्र व्यवहार किया गया।
इंदौर में महिला पुलिसकर्मी से जबर्दस्ती
इसी तरह इंदौर के पुलिस रेडियो ट्रेनिंग स्कूल (पीआरटीएस) में भी एक महिला पुलिसकर्मी से उसके सीनियर ने जबर्दस्ती करने की कोशिश की और विरोध करने पर ड्यूटी नहीं लगाने की धमकी दी। हालांकि महिला शिकायत पर 16 अप्रैल 2014 महिला पुलिसकर्मी को परेशान करने वाले निरीक्षक पर मल्हारगंज पुलिस ने केस दर्ज किया है। बताया जाता है की अक्टूबर 2013 से पीआरटीएस में पदस्थ निरीक्षक शिवकुमार गुप्ता द्वारा महिला पुलिसकर्मी का यौन उत्पीडऩ किया जा रहा था। शिकायतकर्ता महिला पुलिसकर्मी पीआरटीएस में प्रशिक्षणार्थियों को ट्रेनिंग देती हैं। उनका आरोप था कि यहीं पदस्थ प्रशासन प्रभारी निरीक्षक रेडियो गुप्ता उनके साथ अभद्रता करते हुए यौन उत्पीडऩ करता है। सुबह और रात को काम करने के लिए अकेले बुलाता है। साथ ही कई बार अलग-अलग तरह से अपने क्षेत्राधिकार के बाहर के काम में दखल देते हुए परेशान करता है। इसकी शिकायत उक्त पुलिसकर्मी ने स्थानीय पुलिस अधिकारियों से की,लेकिन जब उसकी नहीं सुनी गई तो उसने 14 दिसंबर, 2013 को महिला पुलिसकर्मी ने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी), मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग, मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग, मध्यप्रदेश मानवाधिकार आयोग को भी इसकी शिकायत की थी। इस पर डीजीपी ने जांच के आदेश दिए थे। आईजी ने जांच महिला आईपीएस अधिकारी सिमाला प्रसाद से करवाई थी, लेकिन महिला पुलिसकर्मी ने जांच से असंतोष जताते हुए एडीजी (टेलीकॉम) अन्वेष मंगलम को शिकायत की थी। इसमें महिला ने ये भी कहा था कि शिकायत के बाद आरोपी गुप्ता को उन्हीं के कार्यालय के पास स्थित एसपी रेडियो के ऑफिस में अटैच किया गया है। वह अकसर आकर धमकाता और दबाव बनाता था। एडीजी के आदेश पर उसे खरगोन अटैच किया गया था और दोबारा जांच करवाई थी। इसके बाद केस दर्ज किया गया। तब से लेकर अभी तक मामला जांच में है। ऐसा की एक और मामला इसी साल जनवरी में सामने आया। इंदौर के पूर्व क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक ओपी त्रिपाठी के निजी सहायक अशोक तिवारी पर एक प्रशिक्षु महिला उप निरीक्षक ने फोन पर परेशान करने का आरोप लगाते हुए शिकायत की है। महिला उपनिरीक्षक द्वारा की गई शिकायत की भारतीय पुलिस सेवा की महिला अधिकारी से करा जा रही हैं।
324 ने राष्ट्रीय महिला आयोग से लगाई गुहार
पुलिस, विभागीय अधिकारी और राज्य महिला आयोग में भी सुनवाई नहीं होने से निराश 324 महिलाओं ने राष्ट्रीय महिला आयोग से मदद की गुहार लगाई है। यह आंकड़ा पिछले साल की तुलना में इस बार लगभग दो गुना हो गया है। साल 2013 में प्रदेश से 122 महिलाओं के आवेदन राष्ट्रीय महिला आयोग को मिले थे। इनके समाधान के लिए प्रमुख सचिव को एक साल में 2 पत्र और तीन बार रिमाइंडर भेजा जा चुका है। ज्यादातर शिकायतों में महिलाओं ने पुलिस प्रताडऩा का जिक्र किया है। 149 शिकायतें छेड़छाड़ या धमकाने के मामलों की हैं, जिनमें पुलिस ने पीडि़ताओं की शिकायत नहीं सुनी और आरोपियों का पक्ष लिया। 97 शिकायतें दुराचार और गैंग रेप की हैं। अधिकतर मामले ग्रामीण इलाकों के हैं, जहां महिला पुलिस नहीं होने की वजह से पीडि़ता के बयान तक दर्ज नहीं हो सके हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्य महिला आयोग में तालमेल की कमी के कारण अधिकांश मामलों की कार्रवाई में देर हो रही है। राष्ट्रीय महिला आयोग अध्यक्ष ममता शर्मा का कहना है कि राज्य स्तर पर जिन मामलों का निपटारा हो सकता है, उनके संबंध में राज्य महिला आयोग को निर्देशित किया जा सकता है लेकिन पिछले आदेशों का पालन नहीं होने के बाद से सीधे संबंधित विभाग को पत्र लिखने पड़ते हैं। ऐसे में कार्रवाई का फीडबैक नहीं मिल पाता।