सोमवार, 15 सितंबर 2014

मनरेगा के बावजुद मप्र की 44.30 फीसदी आबादी बेहाल

प्रदेश में 10 फीसदी को भी नहीं मिला 100 दिन का रोजगार
-मप्र में 9 साल में 3056 करोड़ का गोलमाल
-भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारी शामिल
-23 आईएएस अफसरों का नाम भी घोटाले में
- अभी तक 2,200 से अधिक पर गिर चुकी है भ्रष्टाचार की गाज vinod upadhyay
भोपाल। मप्र की तस्वीर और यहां के वासिंदों की तकदीर बदलने में प्रदेश सरकार का प्रयास और महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)भी फेल हो गई है। जिस मनरेगा योजना से हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलने का दावा किया गया था,उसके क्रियान्वयन के बावजुद भी प्रदेश की करीब 44.30 फीसदी आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। दरअसल मध्य प्रदेश में मनरेगा रसूखदारों की कमाई का अड्डा बन गया है। 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत 22,397 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। जिसमें से लगभग 3056 करोड़ रूपए तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। इतनी बडी रकम के भ्रष्टाचार में सरपंच से लेकर बड़े अधिकारियों तक की मिलीभगत है। इस योजना की सबसे बड़ी विसंगति यह रही की जॉब कार्ड होने के बावजुद आधे लोगों को काम नहीं मिल सका। यही नहीं जिन लोगों को काम मिला भी तो उनमें से 10 फीसदी को भी 100 दिन का रोजगार नहीं मिल सका। जबकि इस योजना के तहत प्रदेश में कई बड़ी परियोजनाओं का निर्माण हुआ है। कैग ने भी अपनी अब तक की सारी रिपोर्ट में कहा है मप्र में मनरेगा के फंड का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। विभिन्न स्तरों पर हुई जांच के बाद सामने आए तथ्य से यह बात तो साबित हो चुकी है कि प्रदेश में मजदूरों के साथ धोखा हो रहा है। ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड है, लेकिन उनके पास काम नहीं है। मनरेगा के तहत प्रदेश में वित्तीय वर्ष 2014-15 के तहत 1,02,74,087 लोगों का जॉब कार्ड बनाया गया है। इस वित्तीय वर्ष में अब तक 1,14,854 काम शुरू हुए हैं। इनमें से करीब 5 माह में 9.199 फीसदी ही काम पूरा हो सका है। इन कार्यां को पूरा करने के लि 58,72,685 जॉब कार्डधारियों को ही काम मिल सका है। इसमें से भी केवल 55,162 परिवारों को ही 100 दिन काम मिल सका है। दरअसल, काम का टारगेट पूरा करने के लिए मजदूरों की जगह मशीनों से काम हो रहा है। मनरेगा द्वारा जो आंकडें दिए जा रहे हैं वह कितने विश्वसनीय है यह इसी बात से पता चलता है कि जांच के दौरान सैकड़ों कार्ड मृत व्यक्तियों भी सामने आए हैं।
2 लाख से अधिक काम संदेह के घेरे में
मनरेगा की हालत क्या है इस पर नजर डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वर्ष 2009 से अब तक प्रदेश की 313 जनपदों के अधीन 23,006 ग्राम पंचायतों में 22,99,289 काम शरू हुए और इनमें से 15,67,604 काम मनरेगा में किए गए। इनमें से 2 लाख से अधिक काम राज्य रोजगार गारंटी परिषद की नजर में संदेह के घेरे में आए। डेढ़ लाख कामों के बारे में आज भी जांच जारी है। कलेक्टरों के पास हर जनसुनवाई में मनरेगा की इतनी शिकायतें पहुंचीं हैं कि कार्रवाई हो तो प्रदेश की ग्राम पंचायतों में से आधे से ज्यादा सरपंच और सचिव पद से हाथ धो बैठें। इस योजना में काम कर चुके एक वरिष्ठ परियोजना अधिकारी के मुताबिक किसी भी जिले में दर्ज जॉब कार्डधारी परिवारों में से सिर्फ 10 प्रतिशत को ही 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। वर्ष 2913-14 के तहत प्रदेश में मनरेगा में 4,73,333 काम शुरू हुए है। इनमें से साल भर में महज 32.418 फीसदी काम ही पूरा हो सके। इस दौरान 75,491 लोग ही ऐसे थे, जिन्हें 100 दिन काम मिला। जबकि इस वित्तीय वर्ष में 1,07,93,971 लोगों के पास जॉब कार्ड थे और इनमें से 63,76,632 लोगों को काम मिल सका था। 15 दिन से कम काम मिलने वालों की संख्या 5 लाख 14 हजार के आसपास दर्ज की गई। जबकि प्रदेश के सभी जिलों में एक या दो दिन काम करने वाले 2 करोड़ से ज्यादा मजदूर शामिल थे। इन सभी जिलों में साल की शुरुआत के दौरान 5 हजार 527 लाख रुपए बचे हुए थे। नए काम के लिए फिर से इन जिलों को 36 हजार 616 लाख रुपए मिल गए। लेकिन खर्च सिर्फ 10 हजार 485 लाख ही किए जा सके। इसी प्रकार वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए प्रदेश में मनरेगा के तहत काम कराने के लिए 14,12,63,028 लाख रूपए जारी किए गए हैं, लेकिन इस बार भी जिस तरह काम हो रहा है उससे नहीं लगता है की पूरा फंड इस्तेमाल हो सकेगा।
प्रदेश में 3056 करोड़ का भ्रष्टाचार
देश में मप्र ऐसा राज्य है जहां वर्ष 2009 से अब तक मनरेगा के तहत स्वीकृत कार्यों में से 73.93 फीसदी पूरा कर लिया गया है। लेकिन सबसे बड़ी विसंगति यह है कि वर्ष 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत केंद्रीय कोष से जारी किए गए 22,397 करोड़ रुपए में से 3056 करोड़ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं। यहां कागजों पर कुओं, तालाब और स्टॉप डैम के निर्माण की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। प्रदेश में शुरू हुई कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 2.5 लाख कुओं में से ज्यादातर कुएं खोदे ही नहीं गए। प्रस्तावित स्थलों का जब जांच के दौरान मुआयना किया गया तो वहां कागजों में कपिलधारा योजना के तहत कुओं का निर्माण पूर्ण बताया गया है। लेकिन जांच अधिकारी यह देखकर चौक गए कि कागजों में खुदे कुएं, खेत में थे ही नहीं। प्रदेश में मनरेगा के तहत कितने बड़े स्तर पर घोटाला हो रहा है इसका खुलासा एक आरटीआई से मिली जानकारी से हुआ। रीवा में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गजल गायक जगजीत सिंह,विद्दाचरण शुक्ला,वसीम अकरम को मनरेगा की लिस्ट में मजदूरी करते दर्शाया गया है। रीवा में स्मार्ट कार्ड बनाने वाली कंपनी फिनो फिंटेच फाउंडेशन गरीबों को उनके घरों में ही मजदूरी पहुंचाने की मंशा से यूनियन बैंक के सहयोग से ये स्मार्ट कार्ड बनाए थे। इसके तहत मजदूरों को भुगतान के नाम पर करोड़ों का बंदरबांट भी कर दिया लेकिन हैरत की बात है कि पूरे काम की मॉनिटरिंग करने वाले बैंक प्रबंधन को इतना बड़ा फर्जीवाड़ा नहीं दिखा। आरटीआई के मुताबिक राज्य के नौ जिलों के कलेक्टरों ने जिलों को दी गई आवंटित राशि की बजट लिमिट से चार गुना तक ज्यादा रुपए खर्च कर दिए हैं और विभाग को उनका ब्योरा तक नहीं दिया। नियम के मुताबिक कोई भी कलेक्टर जिलों को आवंटित राशि का छह फीसदी ही प्रशासनिक खर्च कर सकता है लेकिन दतिया के कलेक्टर ने खर्च की सीमा से तकरीबन 25 फीसदी ज्यादा खर्च किया। यही हाल होशंगाबाद, भिंड नरसिंहपुर, रायसेन, हरदा शिवपुरी श्योपुर और शाजापुर का भी हैं। यहां के कलेक्टर ने भी आवंटित राशि से ज्यादा खर्च किए। गौरतलब है कि वर्ष 2008 से 2013 के बीच लगभग 23 आईएएस अफसरों का नाम घोटाले में सामने आ चुका है लेकिन कार्रवाई किसी पर भी नहीं हुई।
साल दर साल बढ़ बढ़ रही हैं शिकायते
मनरेगा में गड़बड़ी की शिकायतें कम होने के बजाय साल दर साल बढ़ती जा रही है। प्रदेश में मनरेगा की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से हुई। इनमें से 58 फीसदी शिकायतों का निराकरण आज तक नहीं किया गया। इस साल अभी तक 1355 शिकायते आई हैं। जबकि 2013 में 3060 शिकायतें आई थीं, जिनमें से 1777 शिकायतों को फाइलों में दबा दिया गया है। यही नहीं सरकार के नियत्रंक एंव महालेखा परीक्षक द्वारा किए गए आडिट में मनरेगा की गड़बडिय़ों को लेकर गंभीर अनियमितताएं सामने आई है। इसके बावजूद शासन को भारी वित्तीय हानि पहुंचाने वाले जिन बड़े अफसरों पर कड़ी कार्रवाई की जाना थी वे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए है। इसके विपरीत पंच, सरपंच, सब इंजीनियर पर भ्रष्टाचार के आरोप में विभागीय कार्रवाई त्वरित गति से हो रही है। बडें़ अफसरों का बचाव करने की प्रवृति के कारण मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। मनरेगा से जुड़े सवालों के विधानसभा में भी संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल पा रहे है। इस योजना में हुई भारी आर्थिक गड़बड़ी के लिए एक दर्जन से अधिक आईएएस अधिकारी सीधे-सीधे आरोपों के घेरे में हंै। यहां यह बताना जरूरी होगा कि मनरेगा के घपले-घोटले केवल प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा विधायकों के निशाने पर भी है। भाजपा विधायकों ने मनरेगा के क्रियान्वयन के दौरान अपने अपने क्षेत्रों में हुए भ्रष्टाचार को लेकर राज्य विधानसभा तक में सवाल जवाब किए हैं। विधायक भी यह मानते हैं कि मनरेगा के भारी भ्रष्टाचार के लिए बड़े अफसर ज्यादा जिम्मेदार हैं,लेकिन उन पर जितनी तेजी से कार्रवाई होना चाहिए वह हो नहीं पा रही है। राज्य विधानसभा के विधायकों की प्राक्कलन समिति ने भी अपनी जांच में यह पाया है कि प्रदेश में मनरेगा के तहत जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है। समिति ने इंदौर संभाग के बड़वानी, खरगौन, धार, झाबुआ आदि जिलों का दौरा कर मनरेगा के तहत हुए कामकाज स्थल निरीक्षण किया तो घपले-घोटाले परत दर परत खुलने लगे। विधायकों के इस समिति ने पाया कि बड़वानी जिल में तो जिन कामों के लिए मनरेगा की पूरी की पूरी रकम सरकारी खाते से निकाल ली गई वे काम एक डेढ़ साल बीत जाने पर भी पूरे नहीं हो पाए हैं। अकेले बड़वानी जिले में मनरेगा के घोटालों की जब केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए दल ने जांच की तो पता चला कि योजना में जमीनी स्तर पर काम बहुत कम और कागज पर पूरा जमा खर्च हो गया है। बड़वानी जिले में मनरेगा का भ्रष्टाचार जब देशव्यापी चर्चा का विषय बना तो कुछ और सरपंच, सब इंजीनियर के विरूद्ध कार्रवाई की गई जबकि भ्रष्टाचार के जिम्मेदार बड़े अफसर सख्त कार्रवाई से बचे रहे। इस बारे में बड़वानी जिले के राजपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक बाला बच्चन का कहना है कि भ्रष्टाचार ने ग्रामीण विकास, आदिवासी विकास के लिए बनाई गई योजनाओं की हालत खराब कर दी है। आदिवासी जिलों में तैनात अफसर भारी भष्टाचार कर रहे है और भाजपा सरकार भ्रष्ट अफसरो को सरंक्षण दे रही है। वे सवाल करते है कि सरकार घपले-घोटालों के जिम्मेदार बड़े अफसरों पर त्वरित और कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं करती? उल्लेखनीय है कि बड़वानी जिले में हुए मनरेगा घोटाले में बड़े अफसरों को बचाने के सवाल उच्च न्यायालय तक पहुंच गए है। हाल ही में उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में एक याचिका दायर कर यह कहा गया है कि मनरेगा में भ्रष्टाचार के जिम्मेदार बड़े अफसरों को बचाया जा रहा है। याचिका को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने इस मामले में राज्य सरकार से जवाब तलब किया है। प्रदेश में करीब छह हजार करोड़ सालाना के बजट वाली मनरेगा में हर साल लाखों-करोड़ों का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है। इसके चलते 2042 लोगों पर कार्रवाई की गई, लेकिन अफसरशाही के कारण अधिकतर कार्रवाइयां अपने सही अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। सैकड़ों प्रकरण में कार्रवाई अभी भी फाइलों में ही सिमटी हुई है, तो कई मामलों में आरोपी प्रकरण से आजाद हो चुके हैं। बहुत कम मामले ऐसे हैं, जिनमें अधिकारी-कर्मचारी और पंच-सरपंच पर अंतिम रूप से आर्थिक या अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकी। मोटे तौर पर करीब सात फीसदी लोग ही विभिन्न प्रकार की सख्त कार्रवाई के दायरे में आ सके हैं।
सरपंच, सचिव को सात-सात साल की कैद
इसी साल अप्रैल में छतरपुर जिले के बिजावर अपर सत्र न्यायाधीश जेपी सिंह की अदालत ने मनरेगा की राशि का गबन करने के मामले में एक सरपंच और एक सचिव को दोषी करार देते हुए दोनों को सात-सात साल की कठोर कैद की सजा सुनाई है। न्यायाधीश ने अपने फैसले में सरपंच हरसेवक पटेल निवासी हीरापुर और सचिव हरप्रसाद पटेल निवासी बुधगुवां दोनों को सात-सात साल की कठोर कैद की सजा के साथ उन पर 50-50 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया है। बताया जाता है कि जनपद पंचायत बिजावर के ग्राम पंचायत जखरौन कला में मनरेगा के तहत निर्माण कार्य के लिए शासन ने 63 लाख 64 हजार 635 रुपए की राशि साल 2009 में दी थी। निर्माण कार्य में सरपंच एवं सचिव के द्वारा की गई गड़बड़ी की शिकायत मिलने पर जांच कराई गई। जनपद पंचायत बिजावर के उपयंत्री ने जांच में पाया कि ग्राम पंचायत जखरौन कला के सरपंच और सचिव ने निर्माण कार्यो में शासन के 12 लाख 85 हजार 41 रुपए की राशि का हेरफेर किया है। थाना सटई में दोनों आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था और पुलिस निरीक्षक (एसआई) केडी सिंह ने विवेचना करने के बाद मामला अदालत को सौंप दिया था। अगर भ्रष्टाचार करने वाल हर एक अफसर के खिलाफ भी ऐसे कठोर कदम उठाए जाए तो सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार करने की किसी की हिम्मत नहीं होती।
22 करोड़ के बुक एडजस्मेंट की तैयारी
शिवपुरी मनेरगा में मुरम, बोल्डर, सड़कों के नाम पर हुई लगभग 22 करोड़ की अनियमिता अधीक्षण यंत्री आरईएस मंडल ग्वालियर की जांच में साबित होने के बाद दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाए शिवपुरी जिला पंचायत द्वारा अनियमितता को छिपाने एक प्रस्ताव बुक एडजस्मेंट के लिए ग्रामीण विकास विभाग को भेजा गया है। आयुक्त कार्यालय के आदेशानुसार की गई जांच में शिवपुरी मनरेगा में पदस्थ आठों सहायक यंत्री और उपयंत्रियों सहित आठों जनपद सीईओ को लगभग 22 करोड़ से अधिक की अनियमितता के लिए दोषी ठहराया गया है। जिसकी जांच रिपोर्ट समस्त दस्तावेजों के साथ मई 2014 में ही आयुक्त कार्यालय भेज दी गई थी। मगर 8 जुलाई 2014 तक कड़ी कार्रवाई करने के बजाए जिला पंचायत ने एक प्रस्ताव इस अनियमितता को नियमित करने मनरेगा ग्रामीण विकास विभाग मप्र शासन को भेजा है।
मनरेगा में 2,200 से अधिक के खिलाफ कार्रवाई
प्रदेश में मनरेगा में किस तरह का घपला-घोटाला चल रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले 8 साल में इस योजना के तहत गड़बड़ी करने वाले 2,200 से अधिक कर्मचारियों तथा अधिकारियों के अलावा जन प्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। जिन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है, उनमें कलेक्टर तक शामिल है। प्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव कहते हैं कि कि इस योजना को प्रभावी बनाने के लिए शुरू से ही जमीनी स्तर पर प्रयास किए गए। इसकी सतत निगरानी भी की जा रही है। सरकार की कोशिश है कि पात्रों को योजना का लाभ मिले और गड़बडी करने वालों की जवाबदेही तय कर दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए। भार्गव ने बताया कि शिकायतों पर विभाग ने सख्त कार्रवाइयां की है। वित्तीय अनियमितताएं पाए जाने पर वसूली तक की गई है। योजना के क्रियान्वयन में गड़बडी करने वाले दो कलेक्टर, छह जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालक अधिकारी, 107 जनपद पंचायत के मुख्यकार्यपालक अधिकारी, सात कार्यपालक यंत्री, 67 सहायक यंत्री, 208 उपयंत्री तथा 27 अन्य अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक तथा दंडात्मक कार्रवाई की गई है। इतना ही नहीं, 728 सरपंच और 908 पंचायत सचिवों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है। इनके अलावा करीब दो सैकड़ा से अधिक अन्य अधिकारियों-कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों पर कार्रवाई की गई है।
हर जिले में लाखों अपात्र हितग्राहियों का पंजीयन
कैग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में मनरेगा के तहत हर जिले में लाखों अपात्र हितग्राहियों का पंजीकरण किया गया है। राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत की गई सीएजी के प्रतिवेदन में कहा गया है कि राज्य सरकार के इस आदेश के चलते राज्य के हर जिले में 13.35 लाख से 19.74 लाख अपात्र परिवारों का योजना के अंतर्गत पंजीकरण किया गया है। एक तरफ जहां अपात्रों का पंजीकरण हुआ है, वहीं वार्षिक विकास योजना तैयार करने में निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। श्रम बजट वास्तविकता के आधार पर तैयार नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, विस्तृत परियोजना प्रतिवेदनों को तैयार करने में अनावश्यक व्यय किया गया है। सीएजी रिपोर्ट राज्य में लोगों को योजना के मुताबिक काम न मिलने का भी खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में मात्र 2.31 प्रतिशत से 12.60 प्रतिशत पंजीकृत परिवार ही ऐसे हैं, जिनके द्वारा 100 दिवस का गारंटीशुदा रोजगार पूरा किया जा सका है। मनरेगा के जरिए रोजगार हासिल करने वाले अनुसूचित जनजाति वर्ग परिवारों की कम होती संख्या का खुलासा भी इस रिपोर्ट में किया गया है। सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2007-12 की अवधि के दौरान राज्य में अनुसूचित जनजाति परिवारों के मनरेगा के तहत उपलब्ध कराए गए रोजगार का प्रतिशत 49 से घटकर 27 प्रतिशत हो गया है। मनरेगा में स्वीकृत राशि से भी ज्यादा की राशि का व्यय किए जाने का खुलासा भी इस रिपोर्ट से होता है। रिपोर्ट में मुताबिक, वर्ष 2007-12 की अवधि में भारत सरकार द्वारा योजना के लिए 15 हजार 946.54 करोड़ रुपए मंजूर किए गए, मगर खर्च हो गए 17 हजार 193.12 करोड़ रुपए। यहां भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मनरेगा के तहत प्रदेश में 53 लाख गलत जॉबकार्ड बनाए गए हैं। इससे नुकसान किसका और फायदा किसे हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि अब इस दिशा में कुछ बदलाव किए जा रहे हैं। प्रदेश में पिछले साल तक 1 करोड़ 20 लाख जॉबकार्ड थे। इनमें से ऐसे जॉबकार्ड को छांटा गया, जिनमें कभी काम नहीं मांगा गया। आज की स्थिति में 73 लाख खाताधारक मजदूर ही बचे हैं। पूरे सिस्टम को ऑनलाइन करने की कोशिश की गई है। प्रदेश में 15 हजार बैंक शाखाओं में रकम भेजी जा रही है। मजदूरों के समूह बनाए जा रहे हैं और पिछले सालों में जो काम नहीं होते थे, उन्हें शामिल कर सेल्फ ऑफ प्रोजेक्ट यानि खुद का काम करो और मजदूरी मनरेगा से लो की कोशिश भी शुरू की गई है। सवा दो लाख मजदूरों के समूह तैयार किए गए हैं। लेकिन आज भी इतनी लंबी प्रक्रिया अपनाई जा रही है कि काम मांगने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ा पाना मुश्किल बना हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ता किशोर दुआ कहते हैं कि जितना भी भ्रष्टाचार मनरेगा में हुआ है या हो रहा है, वह सिर्फ मजदूरी भुगतान में है। जितनी रकम खर्च की जाती है उसमें से 90 प्रतिशत सामग्री पर हो रही है तो फिर मजदूरी के लिए रकम कैसे बचेगी। काम की मांग के आधार पर काम दिया जाता है, लेकिन जब काम ही नहीं शुरू होंगे तो मजदूर क्या करेगा। बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है।
प्रशासनिक व्यय में मनमानी
सीएजी की संस्था महालेखाकार (एजी)ने प्रदेश में करोड़ों के भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक व्यय में मनमानी सहित केंद्र से मांगी गई राशि को खर्च नहीं कर पाने का खुलासा किया है। साथ ही उपयोगिता प्रमाण पत्र के नाम पर भी किए गए भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में करोड़ों की राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को नहीं भेजी गई, वहीं कुछ मामलों में वास्तविक खर्च से अधिक राशि की उपयोगिता प्रमाण पत्र भेजी गई है। यह खुलासा आरटीआई के तहत प्राप्त एजी रिपोर्ट के बाद हुआ है। यह रिपोर्ट वर्ष 2011 -2012 की है। इस निरीक्षण प्रतिवेदन को तैयार कर ग्वालियर कार्यालय ने फरवरी 2013 में उचित कार्रवाई के लिए मप्र मनरेगा परिषद को भेजा था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
रिपोर्ट में सामने आए भ्रष्टाचार के नमूने
रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा परिषद ने योजना की उचित मॉनिटरिंग नहीं की, जिस कारण मजदूरों को योजना का लाभ नहीं मिला। 8 जिलों में मजदूरी और सामग्री के लिए निर्धारित अनुपात में व्यय का पालन न करते हुए सामग्री पर 40 प्रतिशत से ज्यादा राशि 16263.27 लाख रुपए खर्च की गई। मनरेगा परिषद ने उचित बजट प्रस्ताव न बनाते हुए केंद्र सरकार से करोड़ों की राशि की और उसे खर्च ही नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार परिषद् द्वारा बनाया गया बजट तथ्यों पर आधारित न होकर अवास्तविक और आधारहीन रूप से तैयार किया गया था। इसके कारण वर्ष 2011-12 के अंत तक करीब 191492.51 लाख रुपए की राशि शेष रही। योजना के तहत मजदूरी का भुगतान बेहद विलंब 90 दिनों के बाद 7 लाख 37 हजार 688 मजदूरों को रुपए 85887.91 लाख रुपए किया गया। मनरेगा परिषद ने शासकीय और अशासकीय संस्थाओं को विशेष प्रयोजनों के लिए 64.37 लाख रुपए की जो राशि अग्रिम दी थी, उसका समायोजन नहीं किया। परिषद ने इन संस्थाओं से उपयोगिता प्रमाण पत्र भी नहीं लिया। वर्ष 2011-12 में 30 जिलों ने प्रशासनिक व्यय 6 प्रतिशत से अधिक किया, जो की करीब 3850.21 लाख रुपए ज्यादा खर्च किया। रिपोर्ट के अनुसार इस कारण योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका। मनरेगा परिषद ने वर्ष 2011-12 का वास्तविक उपयोग से अधिक राशि का उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र सरकार को जारी कर दिया। यह राशि 11903.89 लाख रुपए थी। ग्रामीण विकास मंत्री और मनरेगा आयुक्त के गृह जिलों में बुंदेलखंड पैकेज की राशि का सदुपयोग नहीं हुआ। अनावश्यक सरकारी धन को अवरुद्ध रखा गया, जिससे गरीब हितग्राहियों का पलायन नहीं रुका। इससे अन्य जिलों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरपंचों व सचिवों ने निर्माण कार्यो का फर्जी मूल्यांकन करवाकर पंचायतों के लेखा रिकॉर्ड में हेराफेरी कर गंभीर वित्तीय अनियमितताएं की हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पंचायत के रिकॉर्ड की प्रशासनिक अधिकारियों की टीम से जांच करवाकर सरपंचों व सचिवों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर भुगतान नहीं
प्रदेश में अब ताजा मामला मजदूरों को समय पर मजदूरी नहीं देने का है। इसमें 97 प्रतिशत मजदूरों को समय पर मजदूरी देने की बात सामने आई है। ये आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर जिलों मे मजदूरों को भुगतान बहुत ही कम हो रहा है। आलम यह है कि भिंड में तो मात्र 1 प्रतिशत ही मजदूरी का भुगतान हुआ है। विभाग की लापरवाही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण मनरेगा के समस्त कार्य ठप हैं। इसका कारण सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2013 से मनरेगा योजना के तहत सभी भुगतान के लिए इलेक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) लागू किया था। यह व्यवस्था बहुत अच्छे उद्देश्य के तहत पारदर्शिता के लिए लायी गई है, लेकिन योजना लागू होने के फौरन बाद चौपट हो गई, जिससे प्रदेश के लाखों गरीब मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में कई मजदूरों के घरों में चूल्हें नहीं जल पा रहे हैं। राज्य स्तरीय विजिलेंस एंड मॉनिटरिंग समिति, पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, मप्र शासन के सदस्य अजय दुबे कहते हैं कि प्रदेश में मनरेगा की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहां पर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार चल रहा है। सबसे गंभीर बात यह है कि मनरेगा परिषद जिस पर निगरानी और कार्रवाई का जिम्मा है, जब वह ही उदासीन है, तो मनरेगा में भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है। एजी की रिपोर्ट में बड़े खुलासे हुए हैं। अब सरकार को इसकी सीबीआई से जांच कराना चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता किशोर दुआ कहते हैं कि मनरेगा की सबसे बड़ी विसंगति है समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होना। मनरेगा के नियमों के मुताबिक 10 दिन के भीतर मजदूरी का भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पहले काम करना पड़ता है, फिर मस्टर रोल चेक होते हैं, तब इंजीनियर और सरपंच-सचिव उस मजदूरी को फाइनल करते हैं। फिर बैंक के खाते में मजदूरी ट्रांसफर होती है। बैंक भी समय पर मजदूरी दे सकें, इसकी कोई गारंटी नहीं। बैंकर्स के पास इतनी बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं नहीं हैं कि हर गांव के आसपास मजदूरी का भुगतान समय पर किया जा सके। हर स्तर पर मॉनीटरिंग के चलते रिकॉर्ड रखना भी एक बड़ी समस्या है। इसके चलते कई विभाग इस योजना में हाथ नहीं डालना चाहते। ग्राम पंचायत स्तर पर जब लेबर बजट बनता है तो कोई इस काम में मदद नहीं करता। सिर्फ सरपंच और सचिव के भरोसे काम के प्रस्ताव बना लिए जाते हैं। गांव में रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि आखिर उनके लिए क्या बनने वाला है और मजदूरों को कितना काम मिलेगा। विकास के नाम पर चलने वाले बड़े प्रोजेक्ट में सालभर का काम आसानी से मिल जाता है। दूसरे विकासशील और विकसित माने जाने वाले प्रदेशों में मजदूरों की डिमांड होने से पलायन हो रहा है। योजना में सिर्फ अधिकतम 100 दिन का रोजगार मिल रहा है। जबकि मजदूर को अपने परिवार का पेट पालने के लिए साल में 300 दिन का रोजगार चाहिए।
मनरेगा में विसंगतियां
ग्राम-पंचायत स्तर पर मनरेगा के तहत जिस रोजगार की गारंटी का सपना देखा गया वह ग्राम-पंचायतों के प्रधानों, ग्राम-सचिवों एवं छोटे-बड़े अधिकारियों की कमाई का जरिया बन चुका है। तमाम सरकारी रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हो चुका है कि मनरेगा का इस्तेमाल जितना बेरोजगारों को रोजगार देने एवं विकास कार्यों में हो रहा है, उससे ज्यादा तो इसके पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिछली सरकार में मंत्री रहे जयराम रमेश अपने कार्यकाल के दौरान ही कह चुके हैं कि मनरेगा में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। शायद ही कोई ग्राम-पंचायत हो जहां इस योजना की आड़ में पैसे का हेरफेर न किया जा रहा हो। कार्यक्षेत्र में फैलाव एवं बजट राशि में हुए विस्तार के साथ ही इस योजना में अनियमितताओं का भी बोलबाला बढ़ा है। कुछ महीने पहले जो तथ्य सामने आए, उसमें यह देखने को मिला कि मध्य प्रदेश सहित यूपी, झारखंड, उत्तराखंड आदि में करोड़ों के काम के नाम पर पैसा निकाल लिया गया मगर जमीन पर काम के नाम पर कुछ हुआ ही नहीं है। ग्रामीणों का कहना था कि सरकार द्वारा सार्वजनिक इस्तेमाल के संसाधनों, जैसे सोलर लाइट, सब-मर्सिबल आदि को सरपंचों द्वारा निजी हितों को ध्यान में रखते हुए इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि इस बाबत जब स्थानीय अधिकारियों से शिकायत दर्ज कराई जा रही है तो मामला लाल-फीताशाही और हीला-हवाली से लटकने से ज्यादा कुछ भी होता नहीं दिख रहा। अगर कोई अधिकारी जांच में जा भी रहा है तो वह इन कार्यों के संबंध में मनरेगा की वेबसाइट पर उपलब्ध डाटा को ही गलत बताकर मामले को टाल रहा है तो कोई किसी और बहाने से मामले को लटका रहा है। इसी तरह के तमाम मामले रतलाम सहित अन्य कई शहरों से भी आते रहे हैं। इन मामलों में भ्रष्टाचार की शृंखला ऊपर से नीचे तक ऐसे बुनी गई है कि शिकायतों की सुनवाई मुश्किल हो जाती है। अगर निष्पक्ष जांच हो तो कई संरपंचों से लेकर और बड़े अधिकारी तक इस हेरफेर में भागीदार नजर आएंगे। दरअसल, इस पूरी योजना को लेकर हीला-हवाली का मामला सरकार की तरफ से भी नजर आता है। मनरेगा के तहत प्रथम 100 दिनों के रोजगार का भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किए जाने का प्रावधान है जबकि इसके बाद का भुगतान राज्य सरकार के जिम्मे दिया गया है। अब राज्य सरकारों ने कंप्यूटरीकरण द्वारा ऐसा तरीका ईजाद कर लिया है कि निर्धारित से अधिक का भुगतान उसे न करना पड़े। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि जहां 100 दिन का काम करने वाले व्यक्ति ने यदि पुन: काम के लिए आवेदन किया तो उसका आवेदन ही अधिकारी स्वीकार नहीं कर रहे। लिहाजा देखा जाए तो राज्य सरकारों ने इसके मूलस्वरूप को ही बदलने की कोशिश की है जिसका सीधा नुकसान गरीब आदमी को हुआ जो रोजगार के लिए धक्के खा रहा है। मनरेगा के लिए सरकार की नीति-निर्माण में तमाम खामियां देखने को मिलती रही हंै। सरकार ने वर्ष 2010-11 में मनरेगा के लिए बजट में 40,000 करोड़ रुपए आवंटित किए थे जबकि वर्ष 2013-14 में इसे घटाकर 33,000 करोड़ रुपए कर दिया गया। वहीं दूसरी तरफ इसके विपरीत प्रति व्यक्ति दैनिक मजदूरी उन दिनों में मात्र 100 रुपए प्रतिदिन थी, जो अब बढ़ाकर 175, 214 तथा अब 236 रुपए कर दी गई है।
3 लाख करोड़ स्वाहा...स्थिति जस की तस
देश में हर हाथ को रोजगार और हर व्यक्ति को भोजन मुहैया कराने के उद्देश्य से मनरेगा के तहत करीब नौ वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में इस महत्वाकांक्षी योजना पर कुल 2.94 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। जिसमें से केंद्रीय कोष से राज्यों को 2.25 लाख करोड़ रुपए जारी किए गए। लेकिन विसंगति यह है कि आज भी देश में करोड़ो लोग बेरोजगारी और भुखमरी का दंश झेल रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, मनरेगा के तहत वित्त वर्ष 2006-07 में 8823.35 करोड़ रुपए, 2007-08 में 15856.88 करोड़ रुपए और 2008-09 में 27250.09 करोड़ रुपए खर्च हुए। वित्त वर्ष 2009-10 में मनरेगा के तहत 37905.22 करोड़ रुपए, 2010-11 में 39377.27 करोड़ रुपए और 2011-12 में 37072.82 करोड़ रुपए खर्च हुए। साल 2012-13 में 39778.28 करोड़ रुपए, 2013-14 में 38553.52 करोड़ रुपए और 2014-15 में मध्य जुलाई तक 12597.53 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसमें से केंद्रीय कोष से 2006-07 में 8640.35 करोड़ रुपए, 2007-08 में 12610.39 करोड़ रुपए, 2008-09 में 29939.60 करोड़ रुपए, 2009-10 में 33506.61 करोड़ रुपए, 2010-11 में 35768.95 करोड़ रुपए, 2011-12 के दौरान 29189.76 करोड़ रुपए, 2012-13 में 30009.95 करोड़ रुपए और 2013-14 के दौरान 32743.68 करोड़ रुपए और 2014-15 के दौरान 13573.17 करोड़ रुपए जारी किए गए। मनरेगा के तहत पिछले करीब 9 वर्षों में पश्चिम बंगाल को 16764 करोड़ रुपए और तमिलनाडु को 17281 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। आंध्रप्रदेश को 36458 करोड़ रुपए जारी किए गए जिसमें वित्त वर्ष 2014-15 के लिए आंध्रप्रदेश और तेलंगाना दोनों के लिए संयुक्त रूप से 4235 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। गुजरात को मनरेगा के तहत केंद्रीय कोष से 3260 करोड़ रुपए और उत्तरप्रदेश को 25461 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। 2006-07 से 2014-15 के दौरान मध्यप्रदेश को मनरेगा के तहत 22397 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। इस अवधि में बिहार को 10158 करोड़ रुपए जारी किए गए। महाराष्ट्र को 4788 करोड़ रुपए और कर्नाटक को 9174 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। इस अवधि में पंजाब को मनरेगा के तहत 966 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए, जबकि केरल को 5453 करोड़ रुपए जारी किए गए। ओडिशा को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 7228 करोड़ रुपए और छत्तीसगढ़ को 11997 करोड़ रुपए केंद्रीय कोष से जारी किए गए। लेकिन इतनी बड़ी राशि खर्च होने के बावजुद देश में बेरोजगारी और बदहाली पहले की तरह ही है।
मप्र में 3.27 करोड़ लोग अभी भी गरीब
मनरेगा के लागू हुए लगभग 9 साल होने के बावजुद जहां पूरे देश में 36.29 करोड़ यानी 29.5 फीसदी आबादी गरीबी में जीवन जी रही है,वहीं मध्य प्रदेश में 44.3 फीसदी यानी 3.27 करोड़ लोग गरीब हैं। मप्र में वर्ष 2004-05 में 48.6 फीसदी आबादी गरीब थी। प्रदेश सरकार के प्रयासों और योजनाओं के चलते वर्ष 2009-10 में गरीबी का प्रतिशत घटकर 36.7 हो गया। यानी पांच वर्षो में राज्य के गरीबों की संख्या में 12 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। इससे 13 लाख परिवार ऐसे हैं, जिन्हें गरीबी की तोहमत से मुक्ति मिली है। फिर वर्ष 2011-12 में वह पहले घटकर 31.7 प्रतिशत हो हुई और अब जब यह रिपोर्ट वर्ष 2011-12 के आधार पर दूसरी बार प्रस्तुत की गई तो वह बढ़कर 44.30 फीसदी हो गई है। हालांकि प्रदेश सरकार इन आंकड़ों से इतीफाक नहीं रखती है। प्रदेश सरकार ने हाल ही में आर्थिक सर्वेक्षण में यह तथ्य स्वीकार किया कि यहां 40 फीसदी परिवार बिना रसोईघर के खाना बनाते हैं। दस परिवारों में से सिर्फ दो परिवार के पास ही रसोई गैस की सुविधा है। यानी 80 फीसदी आबादी अब भी चूल्हे पर ही खाना बना रही है। स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि तीन चौथाई आबादी के पास शौचालय तक की सुविधा नहीं है। कुपोषण से एक तिहाई आबादी प्रभावित है। जबकि, 57.6 प्रतिशत महिलाओं में रक्त की कमी है।
शिवराज और वसुंधरा विरोध में
मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले इस कदर बढ़ गए है कि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे या तो इसमें बदलाव या फिर इसे बंद करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग कर चुके हैं। दोनों बड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मांग के बावजुद मोदी सरकार मनरेगा को लागू रखने के पक्ष में है लेकिन वह यूपीए-1 और यूपीए-2 की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में बड़े पैमाने पर बदलाव करने जा रही है। सरकार का मानना है कि मनरेगा योजना कागजों और बातों में तो बेहद आकर्षक एवं प्रभावी नजर आती है लेकिन सतही स्तर पर बेहद असफलता से लागू हो सकी है। बताया जाता है कि मोदी सरकार का फोकस योजना का कम से कम 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र के लिए रहेगा। ताकि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाई जा सके। इनमें भूमि, जल संसाधन और पेड़ों से जुड़े काम प्रमुख होंगे। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से तैयार नोट के मुताबिक इसमें निवेश कम से कम 25 हजार करोड़ रुपए का होगा। लघु सिंचाई परियोजनाओं पर भी मनरेगा के जरिए आठ हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। योजना के तहत मजदूरी को सीधे बैंक खातों में ही जमा कराने के प्रावधान भी किए जाएंगे।

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