शनिवार, 2 जुलाई 2016

जनता बेहाल, किसान-मजदूर बदहाल कारिंदे हो रहे मालामाल...

कहा जाता है कि लोकतन्त्र में जनता मालिक होती है और कारिंदे नौकर होते है लेकिन जहां मालिक बेहाल हो और नौकर मालामाल हो वहां की व्यवस्था कैसे होगी? इसका नजारा भारत में हर कहीं देखने को मिल रहा है। आलम यह है कि...
जनता ताकत देश की, फिरती है बेहाल वैभव लूटे देश का, ये सत्ता के लाल क्यों न हो इस देश का, यारों बंटवारा काम मालिक करे, मालामाल हो रहे दो-चार आखिर कैसे मिटेगा, जनमानस के कष्ट दागी नेता देश के अफसरशाही भ्रष्ट
...जी हां, ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है इस देश में मालिकों की क्या स्थिति है। उस पर एक बार फिर कारिदों को सातवें वेतनमान का लाभ दिया जा रहा है, जबकि महंगाई से जनता बेहाल है और अव्यस्थाओं से किसान-मजदूर बदहाल हैं। उस पर इनके बारे में कोई कुछ नहीं सोच रहा है। दरअसल, कारिदों में मालिकों के बीच गहरी खाई बना दी है। भारत के लोकतंत्र में कारिंदों ने किस तरह मालिकों को छिन्न-भिन्न किया है इसको ऐसे समझा जा सकता है। कहां जाता है कि जैसलमेर रियासत में 12 भाईयों का एक समृद्ध परिवार संयुक्त रूप से रहता था। लेकिन इन भाइयों में आपसी मनमुटाव रहता था। इसलिए इन्होंने एक समझदार नौकर रख लिया। नौकर ने सभी भाईयों का दिल जीतने के लिए भरपूर प्रयास किया और उनका विश्वासपात्र बन गया। भाई भले ही एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे, लेकिन नौकर पर उन्हें पूरा विश्वास था। उनकी खेती-बाड़ी, धन-सम्पदा, कारोबार आदि का प्रबंधन नौकर ही करता था। नौकर ने भाईयों की नासमझी का भरपूर फायदा उठाया और उनके बीच में दूरी बढ़ाता गया और धीरे-धीरे अपनी सम्पत्ति बढ़ाता गया। एक समय ऐसा आया कि सभी भाई गरीब हो गए और नौकर अमीर बन गया। दरअसल यह स्थिति इसलिए निर्मित हुई कि मालिक बहुत थे और नौकर एक। देश की भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। यहां पर भी मालिक (जनता) बहुत है, लेकिन काम करने वाले नौकर कम हैं। इसलिए मालिक की सारी कमाई और संपदा का लाभ वे ही प्राप्त कर रहे हैं। दरअसल हमारी व्यवस्था ने सारे सूत्र कारिंदों के हाथ में ही दे रखे हैं। एक मालिक (किसान-मजदूर) दिन रात काम करके धन-धान्य अर्जित कर रहे हैं, दूसरे मालिक (सत्ता संचालक) संरचनाओं का निर्माण करने में जुटे हुए हैं और उसका उपभोग कारिंदे कर रहे हैं। दरअसल मालिकों का सारा बजट कारिंदों के हाथ में है। ऐसे में मालिकों को अपने बजट का हिसाब पूछने की भी हिम्मत नहीं है क्योंकि कारिंदे संगठित हैं। इसलिए वे जब भी चाहते हैं मालिकों से अपने मन माफिक काम करवाते रहते हैं। इसी का परिणाम है कि कर्मचारियों का वेतन पिछले 20 साल में कई गुना बढ़ गया है जबकि किसान और मजदूर की स्थिति अभी भी बेहाल है। रात दिन खेत-खलिहान और मकान-दुकान में काम करके धन उपार्जित करने के बाद भी इनको खाने के लाले हैं।
मंहगाई, गरीबी और भूख से जनता है बेहाल जल, बिजली, सड़क से हुआ सब का जीवन बदहाल कब छटेंगे आम जीवन से अव्यवस्था के ये बादल पूछने पर सवाल मिलता नहीं कोई हल
... आखिर हल मिले भी तो कैसे? व्यवस्था पर कुंडली मारने वालों को केवल अपनी ही चिंता सता रही है। यही कारण है कि एक तरफ जहां महंगाई और मुनाफाखोरी से जनता बेहाल है वहीं दूसरी तरफ कारिंदों को सातवें वेतन मान का लाभ दे दिया गया। वेतन-भत्तों तथा पेंशन में ताजा बढ़ोतरी के फलस्वरूप केंद्र सरकार को सालाना करीब एक लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार उठाना होगा। सिफारिशों पर अमल के बाद केंद्रीय कर्मियों को होने वाली प्राप्तियों में कुल बढ़ोतरी करीब चौबीस फीसदी होगी। सिफारिशें इस साल एक जनवरी से लागू होनी हैं, यानी सरकार को बढ़ोतरी की राशि का छह महीने का बकाया भी, चाहे एकमुश्त चाहे किस्तों में, देना होगा। जब भी वेतन आयोग की रिपोर्ट आती है, उसे इस नजरिए से भी देखा जाता है कि इसका सरकारी खजाने तथा देश की अर्थव्यवस्था पर कैसा असर पड़ेगा। खासकर इसलिए कि सरकारी खजाने के लिहाज से छठे वेतन आयोग का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। वेतन-भत्तों तथा पेंशन में ताजा बढ़ोतरी के फलस्वरूप केंद्र सरकार को सालाना करीब एक लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार उठाना होगा। पूर्व सैनिकों को समान रैंक समान पेंशन देने के लिए भी उसे साल में सत्तर हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च करने हैं। सरकार को कम से कम दो साल इसके असर से जूझने में लगेंगे। छठे आयोग ने मूल वेतन में बीस फीसदी बढ़ोतरी की सिफारिश की थी, जिसे लागू करते समय तत्कालीन सरकार ने दुगुना कर दिया था। सातवें आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप केंद्र सरकार में अधिकतम वेतन ढाई लाख रुपए और न्यूनतम अठारह हजार रुपए प्रतिमाह होगा। इस तरह केंद्र के कई अफसरों को सांसदों से ज्यादा पैसा मिलेगा। यह सांसदों को शायद ही रास आए। हो सकता है उनकी तरफ से अपने वेतन-भत्तों में एक बार फिर बढ़ोतरी की मांग उठे और उस पर विचार करने को सरकार राजी भी हो जाए। पर क्या अन्य तबकों को अपनी सेवाओं का ऐसा ही लाभ मिल पाता है? सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने से यह उम्मीद की जा रही है कि घरेलू बाजार में मांग बढ़ेगी। पर महंगाई बढऩे का भी अंदेशा जताया जा रहा है, जिसमें बढ़ोतरी का रुझान पहले से है। केंद्रीय कर्मचारी हमारे देश की आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा हैं। केवल उनके खर्च या निवेश के बल पर घरेलू बाजार में मांग बढऩे, अर्थव्यवस्था को गति मिलने तथा उसके कायम रहने की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। देश की अर्थव्यवस्था को बड़े पैमाने पर और टिकाऊ रूप से गति तभी मिल सकती है जब उन लोगों की भी आय बढ़े जो क्रयशक्ति के लिहाज से हाशिये पर रहे हैं। मगर इस नजरिए से, या इस तकाजे पर सोचा ही नहीं जा रहा है। कर्मचारियो के तो बल्ले-बल्ले हो गयी भले ही सरकारी कर्मचारी कोई काम करे या न करे। भरष्टाचार चाहे जितना करे लेकिन पैसे सबसे अधिक मिलेगा। एक चतुर्थ वर्ग के करमचारी की भी शुरुवाती वेतन 18 हजार रुपये प्रति माह हो जाएगा पुराने चपरासियों की वेतन 30-40 हजार तो आम बात है। कैबनेट सचिव का वेतन 90 हजार से बढ़ कर सीधे सीधे 2.25 लाख हो जाएगा। एक चाय पानी पिलाने वाले या इसके बराबर के जॉब के लिए कम से कम 18 हजार की सैलरी। दूसरी तरफ देखा जाय तो निजी कम्पनियों में इंजीनियर तक की तनख्वाह 10-15 हजार से शुरु है। मजदूर तो 250-300 रुपये प्रति दिन में कारखानो मे बारह-बारह घंटे तक पसीने बहाने को मजबूर हैं। और अन्नदाता किसान तो आज भी सबसे बदहाल है। आम जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स वसूल कर बाबुओ को देनी वाली सरकारें क्या बाबुओ को कोई जिम्मेदारी तय करेगी? क्या इतना पैसा बढ़ाने के बाद सरकारी कर्मचारी बिना रिश्वत लिए काम करेंगे? क्या आम जनता का अब सरकारी अस्पतालों में इलाज हो पाएगा? क्या बिना रिश्वत लिए चपरासी फाइल को आगे बढ़ाएगा? क्या अब पुलिस वाले बिना रिश्वत लिए शिकायत दर्ज करेंगे? देश मे लूट मची है। सरकार के हाथ मे पॉलिसी है तो वो अपने और अपने कर्मचारियों के हित मे सैलरी बढ़ा रही हैं। किसान मरे तो मरे। गरीब भूखा रहे तो रहे किसको फिक्र पड़ी है। एक किसान को तो अपने फसल की कीमत भी तय करने को अधिकार नहीं हैं। किसान साल भर मेहनत करता है तो मुश्किल से उसकी पेट भर पाता है उसमें भी अगर लड़की की शादी हो या कोई बीमारी हो तो कर्ज लेना स्वाभाविक है उसके बाद पूरी जिंदगी उस कर्ज के बोझ तले बिता देते हैं। भले ही वेतन वृद्धि केवल सरकारी कर्मचारियों की होगी लेकिन इससे महंगाई सबके लिए बढ़ेगी। जिसका सबसे ज्यादा मार सीधे-सीधे आम आदमी पर पड़ेगा जिसको कोई भी राहत किसी भी सरकार से मिलने वाली नहीं है।