शनिवार, 28 अगस्त 2010

भारत-चीन में युद्ध कराना चाहता है पाकिस्तान

एशिया के बाद अब पूरी दुनिया में अपनी ताकत का लोहा मनवा रहे भारत और चीन में युद्ध कराना चाहता है पाकिस्तान। इसके लिए पाकिस्तान चीन को उकसा रहा है। पाक के राजनेता जानते है कि चीन से भारत का संबंध अच्छा नहीं रहा है। यही वजह है कि पाक चीन को लगातार उकसाता रहा है। दोनों देशों के बीच 1962 से चली आ रही खटास हाल ही में विकसित हो रहे अच्छे व्यापारिक रिश्तों के बावजूद कम नहीं हो रही है।
चीन की बढ़ती ताकत और के मद्देनजर पाकिस्तान में भारत-चीन संबंध को अलग नजरिए से देखा जाने लगा है। इसमें 2017 तक भारत-चीन युद्ध की आशंका तक जताई जा रही है। पाकिस्तान इन दिनों चीन से संबंध सुधारने में लगा है और भारत के साथ चीन के रिश्ते लगातार नरम-गरम रहे हैं। हाल ही में चीन ने जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताते हुए वहां की कमान संभाल रहे वरिष्ठ सैन्य अफसर को वीजा तक देने से इनकार कर दिया है। इन परिस्थितियों के बीच पाकिस्तान में भारत-चीन युद्ध की अटकलों को लेकर प्रोपैगंडा चलाया जा रहा है। आधिकारिक रूप से तो इस बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा है, लेकिन मीडिया के जरिए यह प्रोपैगंडा चलाया जा रहा है।
पाकिस्तान की न्यूज़ वेबसाइट डॉन के मुताबिक दुनिया की दो बड़ी ताकतों (भारत और चीन) के बीच टकराव तय है। तर्क है कि भारत और चीन में शांतिपूर्वक विकास के लिए विकल्प कम होते जा रहे हैं। भारत और चीन सभी स्तरों पर स्पर्धा कर रहे हैं, फिर चाहे वह आर्थिक मोर्चा हो या फिर क्षेत्रीय वर्चस्व की बात हो। यही होड़ खतरनाक नतीजे दे सकती है। हालांकि, करीब साल भर पहले भारतीय मीडिया में भी इससे मिलती-जुलती खबर आई थी। इसके मुताबिक, भारतीय सेना की खुफिया कवायद जिसे डिवाइन मैट्रिक्स का नाम दिया गया है, में चीन के साथ युद्ध का अनुमान लगाया गया है। भारतीय सेना के अफसर के हवाले से आई मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था कि दक्षिण एशिया में एक मात्र ताकत के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए चीन, भारत पर हमला कर सकता है। भारतीय सेना के द्वारा किए गए आकलन में कहा गया है कि चीन इनफर्मेशन वारफेयर (आईडब्लू) के सहारे भारत को हराने की फिराक में है।
2009 में पेंटागन की ओर से जारी रिपोर्ट में भी कहा गया था कि चीन ऐसे उपकरणों और हथियारों को विकसित कर रहा है जो दक्षिण एशिया में मौजूद किसी भी देश की नौसेना और वायुसेना को बौना साबित कर देंगे। पेंटागन को आशंका है कि अगर ऐसा हुआ तो इससे क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ जाएगा।
भारत और अमेरिका के हाल के सालों में बढ़ती नजदीकी से भी चीन चिंतित है। खास तौर से अमेरिका और भारत के बीच हुए परमाणु करार ने चीन को खासा परेशान किया है। वहीं, चीन और पाकिस्तान के बीच बढ़ती दोस्ती से भारत चिंतित है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 1962 में सीमा विवाद को लेकर एक युद्ध हुआ था, जिसमें चीन को जीत मिली थी। पेंटागन ने हाल में भी एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक चीन पड़ोसी भारत से लगी सीमा पर मिसाइलें तैनात कर रहा है और अपनी वायुसेना को बहुत कम समय में भारतीय सीमा पर सक्रिय करने की तैयारी कर चुका है।
वहीं, चीन भारत के साथ युद्ध की आशंका को नकारता रहा है। चीन के जानकारों के मुताबिक चीन विकास के जिस दौर में पहुंच चुका है, वहां भारत से लड़ाई करने जैसा बेकार, महंगा और क्षेत्र की भू-राजनैतिक तस्वीर बदलने वाला कदम वह नहीं उठाएगा। चीन के जानकारों का मानना है कि भारत से युद्ध का चीन को बहुत ज़्यादा फायदा नहीं होने वाला है।
चीन भी भारत को उकसाने के लिए कोई न कोई हरकत करता रहा है। ऐसे ही कुछ मुद्दों पर एक नजऱ:
भारत की सीमा में लिख दिया चीन
भारत- चीन सीमा की वास्तविक नियंत्रण रेखा में 2008 में 270 बार चीनी घुसपैठ की घटनाएं हुई थीं। 2009 में घुसपैठ की घटनाएं बढ़ीं। 2008 के पहले छह महीने में चीन ने सिक्किम में कुल 71 बार भारतीय इलाके में चीन ने घुसपैठ की। जून, 2008 में चीन के सैनिक वाहनों के काफि़ले भारतीय सीमा से एक किलोमीटर भीतर तक आ गए। इसके एक महीने पहले चीनी सैनिकों ने इसी इलाके में स्थित कुछ पत्थर के ढांचे तोडऩे की धमकी भी दी, जिस धमकी को बाद में चीनी अधिकारियों ने दोहराया भी था।
सितंबर 2008 में लद्दाख में सीमा पर स्थित पांगोंग त्सो झील पर चीनी सैनिकों का मोटर बोट से भारतीय सीमा में अतिक्रमण नियमित रूप से चल रहा है और आज तक जारी भी है। 135 किमी लंबी इस झील का दो तिहाई हिस्सा चीन के पास है और शेष एक तिहाई भारत के पास है। कारगिल युद्ध के दौरान चीन ने इस झील के साथ-साथ पांच किमी का एक पक्का रास्ता बना लिया है, जो झील के दक्षिणी छोर तक है। यह इलाका जो भारतीय सीमा के भीतर आता है।
जून 2009 में जम्मू- कश्मीर में मौजूद वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित देमचोक (लद्दाख क्षेत्र) में दो चीनी सैनिक हेलीकॉप्टर भारतीय सीमा में नीचे उड़ते हुए घुसे। इन हेलीकॉप्टरों से डिब्बाबंद भोजन गिराए गए। जुलाई, 2009 में हिमाचल प्रदेश के स्पीती, जम्मू -कश्मीर के लद्दाख और तिब्बत के त्रिसंगम में स्थित 'माउंट ग्याÓ के पास चीनी फ़ौज सीमा से करीब 1.5 किलोमीटर भीतर आ गई। इन चीनी सैनिकों ने पत्थरों पर लाल रंग से 'चीन' लिखा। 31 जुलाई 2009 को भारत के सीमा गश्ती दल ने 'ज़ुलुंग ला र्देÓ के पास लाल रंग में चीन-चीन के निशान भी लिखे देखे। सितंबर, 2009 में उत्तराखंड मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने केंद्र सरकार को चमोली जिले के रिमखिम इलाके के स्थानीय लोगों से मिली चीनी घुसपैठ की जानकारी दी। इस जानकारी के अनुसार पांच सितंबर, 2009 को चीनी सैनिक भारतीय सीमा के भीतर दाखिल हुए।
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन लगातार बयानबाजी करता रहा है। चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके को 'दक्षिण तिब्बतÓ का नाम दिया है। इसके अलावा वह अरुणाचल प्रदेश को चीन के नक्शे पर दिखाता है। चीन का दावा है कि अरुणाचल प्रदेश चीन का हिस्सा है। यही वजह है कि चीन अरुणाचल प्रदेश के लोगों को वीज़ा नहीं देता है क्योंकि चीन का तर्क है कि अरुणाचल प्रदेश के निवासी चीन के नागरिक हैं। भारत चीन के इन कदमों का विरोध करता रहा है। कुछ साल पहले चीनी सैनिकों ने बुद्ध की एक प्रतिमा को तबाह कर दिया था। इस प्रतिमा को भारत-चीन सीमा पर मौजूद बुमला नाम की जगह पर बनाया गया था। भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के अरुणाचल प्रदेश दौरे का भी चीन ने विरोध किया था। इसके अलावा तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा की भी अरुणाचल यात्रा का चीन ने विरोध किया था। गौरतलब है कि दलाई लामा ने अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के दौरान इसे भारत का हिस्सा बताया था।
कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर को लेकर चीन का रवैया पाकिस्तान को खुश करने वाला है। चीन ने कई मौकों पर जम्मू-कश्मीर को विवादित इलाका बताकर भारत से खटास बढ़ाई है। जम्मू-कश्मीर के लोगों को वीज़ा जारी करते समय चीन वीजा को पासपोर्ट के साथ चिपकाने की बजाय नत्थी कर देता है। भारत नत्थी किए गए वीजा को मान्यता नहीं देता है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के निवासी चीन की यात्रा नहीं कर पा रहे हैं। अपने इस कदम के पीछे चीन का तर्क है कि जम्मू-कश्मीर एक विवादित इलाका है।
लोन में अड़ंगा
चीन ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत और चीन के बीच चल रहे विवाद को तीसरे मंच पर उठाने की कोशिश के तहत एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) के सामने यह मुद्दा उठाया था। भारत ने 88 अरब रुपये के लोन के लिए आवेदन किया था, जिसका इस्तेमाल अरुणाचल प्रदेश में पीने के पानी के इंतजाम के लिए करना था। चीन का तर्क था कि चूंकि अरुणाचल प्रदेश एक विवादास्पद क्षेत्र है इसलिए यहां किसी योजना के लिए लोन नहीं दिया जाना चाहिए।
सिक्किम
चीन 2005 तक सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने को तैयार नहीं था। चीन सिक्किम को एक स्वतंत्र देश मानता था। लेकिन 2005 में चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। लेकिन बावजूद इस मान्यता के चीन सिक्किम में सीमा (वास्तविक नियंत्रण रेखा)का उल्लंघन करता रहा है। 2008 में सिक्किम के उत्तरी हिस्से में चीन की सेना ने घुसपैठ को अंजाम दिया, जिसका भारत ने जोरदार विरोध किया था।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

आनन्द और प्रकाश को क्यों भूल रहे हम?

देश में काफी जोर-शोर से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का अभियान छेड़ा गया, उसमें आशा भोंसले जैसी हस्तियां भी शामिल हैं। चर्चा कपिल देव और सुनील गावस्कर को भी भारत रत्न देने की उठी, लेकिन एक ध्रुव सत्य यह है कि अगर कोई भारत रत्न का सबसे ज्यादा सुपात्र है, तो वो खिलाड़ी हैं विश्वनाथ आनंद। जिसने भारतीय शतरंज जगत में मौन क्रांति की। अगर हरित क्रांति के लिए स्वामीनाथन, दुग्ध क्रांति के लिए कुरियन, तो शतरंज क्रांति के लिए अगर हम किसी एक व्यक्ति को श्रेय देंगे, तो वह विश्वनाथन आनंद हैं। जी हां, वही आनंद जिनके बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय पूछता है कि आनंद कहां रहते हैं, इनकी नागरिकता क्या है। यह कितना शर्मनाक रवैया है, नौकरशाहों को यह बताने की जरूरत नहीं है।
आजादी मिले 63 साल हुए, जमाना कहां से कहां पहुंच गया। तमाम तब्दीलियां आई, लेकिन भारतीय नौकरशाही में कोई फर्क नहीं पड़ा, जैसी वह 1947 में थी, वैसी ही 2010 में भी है। सवाल नागरिकता के नाम पर आनंद को डॉक्टरेट देने से रोकने का नहीं है, सवाल तो देश की शासन या प्रशासन शैली का है, उसमे तब्दीलियों का है। हम वैश्वीकरण की बात करते हैं, हम सूचना प्रौद्योगिकी में गुरू होने का दम भरते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सरकारी तंत्र की कछुआ चाल मे कोई फर्क नहीं आया है। सूचना तकनीक की सुविधा विदेशियों को देने के लिए है सरकार को अपने काम के लिए शायद इसकी कोई जरूरत नहीं है। शायद यही कारण है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आनंद की फाइल को रोक दिया।
यह भी सच है कि शतरंज की दुनिया में आनंद के आने के पहले कौन-कहां की सूची में हम कहीं नहीं थे। गे्रंडमास्टर की तो बात दरकिनार, वह तो तब एक कभी न पूरा होने वाला ख्वाब था। मास्टर भी एक-दो ही थे, शतरंज में एक ही मास्टर का नाम सुना जाता था मेनुएल आरोन, वे अभी भी हैं, लेकिन बीते सालों में हर स्तर पर भारतीय विश्व शतरंज में छाए हुए हैं और ग्रेंडमास्टर इतने हो गए हंै कि हम उन्हें अंगुलियों पर नहीं गिन सकते। इस विकास या शतरंज क्रांति का श्रेय अगर किसी एक को दिया जा सकता है, तो वह सिर्फ विश्वनाथन आनंद हैं।
विवाद की जड़ कहां है, जड़ है आनंद का स्पेन में कई वर्षो से रहते हुए वहां अपना दूसरा ठिकाना बना लेना और भारत सरकार ने शायद इसे आनंद की सबसे बड़ी भूल मान लिया है। आखिर तभी तो उनकी नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा। जबकि सच यह है कि आनंद ने रियाज की सुविधाएं और एकाग्रचित्त होने में सहायक माहौल को देखते हुए विदेश में रहना स्वीकार किया है। इससे वे विदेशी नहीं हो गए हैं, वे भारत का ही नाम रोशन कर रहे हैं। इस संसार में ईश्वर ने अगर कुछ कम्प्यूटर-तुल्य मस्तिष्क दिए हैं, तो उनमे आनंद भी एक हैं। सुपर कम्प्यूटर को इंसानी दिमाग ने ही बनाया है, लेकिन सुपर कम्प्यूटर से जीता नहीं जा सकता। आनंद इस मिथ को भी तोड़ चुके हैं और न जाने कितने मौकों पर उन्होंने शतरंज की चालों में कम्प्यूटरों को भी मात दी है। आनंद इस दौर के एक बड़े जीनियस हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सौजन्य से जो अप्रिय विवाद खड़ा हुआ, वह आनंद की मनोदशा को तोड़कर रख देता, लेकिन इस विवाद से निर्लिप्त आनंद का दिमागी कम्प्यूटर अपना काम पहले की तरह ही कर रहा था और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब देश में आनंद के अपमान की चर्चा हो रही थी, तब वे हैदराबाद में एक साथ 40 शतरंज खिलाडियों का सामना कर रहे थे। गणितज्ञों की कॉन्फ्रेन्स मे उनके खिलाफ 35 गणितज्ञ और इन्फोसिस के पांच चुने हुए शतरंज खिलाड़ी खेल रहे थे। मात्र एक खिलाड़ी 14 वर्षीय श्रीकर ही भाग्यशाली थे कि बाजी में आनंद के साथ बराबरी कर सके। यह घटना वास्तव मे आनंद का बड़प्पन दिखाती है। जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। गनीमत है बुद्धिमान मंत्री कपिल सिब्बल ने बिना किसी आडंबर या हिचक के इस शतरंज जीनियस से माफी मांग कर विवाद को खत्म करने की कोशिश की। लेकिन यह यक्ष प्रश्न आज भी मुंह बाए खड़ा है कि देश की व्यवस्था कब सुधरेगी। कब वह समय आएगा, जब देश चलाने वालों के पास देश से संबंधित पूरी जानकारी होगी, और शायद तभी हम विकसित राष्ट्र बन पाएंगे।
सचिन को भारत रत्न निश्चित रूप से मिलना चाहिए। निस्संदेह इस मास्टर-ब्लास्टर ने देश के खेल प्रेमियों को आनंद के असंख्य क्षण पिछले 20 वर्षो में प्रदान किए हैं। लेकिन 1980 के दशक में बैडमिंटन में धूमकेतु की तरह चमके प्रकाश पादुकोण, जिन्हें बैडमिंटन का शायद ही कोई अंतरराष्ट्रीय तमगा न मिला हो। मुझे याद है 1980 मे प्रकाश खाली झोली के साथ देश के बाहर निकले थे और जब लौटे, तो झोली में तिल धरने की जगह नहीं थी, वह उपाधियों से भरी पड़ी थी। मुंबईवासियों ने उनका जो स्वागत किया था, उसे कौन भूल सकता है किसी खिलाड़ी विशेष का ऐसा स्वागत पहली और अंतिम बार हुआ था। लेकिन लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है, बहुतेरे लोग आज प्रकाश को अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के पिता के रूप में ज्यादा जानते हैं और शायद यही हमारे खेलों की सबसे बड़ी विडंबना भी है।
आज हम क्रिकेट की चर्चा ज्यादा करते हैं और इसको लेकर कोई ईष्र्या भी नहीं है, इसलिए नहीं है कि टेलीविजन पर दिनभर क्रिकेट मैचों का प्रसारण होता है, विज्ञापन मिलता है, तभी तो होता है। यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि देश में शतरंज को टीवी का खेल बनाने की कोशिश नहीं की गई है। लेकिन टीवी पर शतरंज के न छाए होने से उसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है, उसकी लोकप्रियता क्रिकेट से कम नहीं है। हमारा देश क्रिकेट प्रतिभाओं की खान है या नहीं, यह एक लंबी बहस या विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन भारत जिसे शतरंज का जन्मदाता भी कहा जाता है, यह शतरंज की बेशकीमती खान है। इसका कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं है।

अधकचरी कहानी में दफन भोपाल कांड

जब से भोपाल गैस मामले में अदालत ने अपना फैसला सुनाया है और मीडिया ने इस तथ्य को उजागर किया कि केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन के साथ शाही व्यवहार किया तभी से कांग्रेस पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बचाकर दूसरे लोगों पर जिम्मेदारी थोपने के अपने पुराने खेल पर उतर आई है। कांग्रेस की कोशिश हरसंभव तरीके से यह साबित करने की है कि भोपाल गैस मामले में दोषियों को बच निकलने का अवसर देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिम्मेदार नहीं थे। कांग्रेस के लिए पसंदीदा निशाना पीवी नरसिंह राव हैं, जो बौद्धिक और साथ ही प्रशासनिक रूप से राजीव गांधी से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। जिन लोगों ने कांग्रेस की इस मुहिम में मदद की है और इस प्रकार नेहरू-गांधी परिवार को उपकृत किया उनमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा शामिल हैं। अर्जुन सिंह ही भोपाल गैस कांड के समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। अर्जुन सिंह के अनुसार दिसंबर 1984 में भोपाल में भयानक गैस लीक होने के तत्काल बाद उन्हें यह सुनकर धक्का लगा कि वारेन एंडरसन इस त्रासदी के पीडि़तों के प्रति संवेदना-सहानुभूति प्रकट करने खुद ही भोपाल आ रहा है। उन्होंने तत्काल ही एंडरसन की गिरफ्तारी के आदेश दिए, लेकिन इस मसले पर राजीव गांधी से उनकी कोई बातचीत नहीं हुई, जो उसी दिन भोपाल आए थे। अगले दिन एक जनसभा में उनकी राजीव गांधी से फिर मुलाकात हुई, लेकिन यहां भी प्रधानमंत्री ने एंडरसन के बारे में कोई पूछताछ नहींकी। इसी बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय के कुछ अज्ञात अधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव को टेलीफोन कर एंडरसन को छोड़ देने के लिए कहा। मुख्य सचिव ने यह बात अर्जुन सिंह को बताई और एक दिन पहले एंडरसन को सलाखों के पीछे भेजने का आदेश देने वाले अर्जुन सिंह ने उसे छोड़ देने की अनुमति दे दी। अर्जुन सिंह ने यह जानने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री नरसिंह राव को एक फोन भी करने की जरूरत नहीं समझी कि क्या वह वास्तव में चाहते हैं कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए और क्या उन्होंने अपने यहां के किसी अधिकारी को एंडरसन को छोड़ देने के लिए फोन करने के लिए कहा था? हैरत की बात है कि अर्जुन सिंह ने इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप के संदर्भ में प्रधानमंत्री से शिकायत करना भी जरूरी नहींसमझा। अर्जुन सिंह के बयान से स्पष्ट है कि उन्होंने गृह मंत्रालय के एक अज्ञात अधिकारी के टेलीफोन के आधार पर ही एंडरसन को बच निकलने का मौका दे दिया। इसके अतिरिक्त यह भी सबको पता है कि वारेन एंडरसन के प्रति अर्जुन सिंह के कथित सख्त रवैये के बावजूद एंडरसन से राजकीय अतिथि जैसा व्यवहार किया गया। उसे किसी मजस्ट्रिेट के सामने भी पेश नहींकिया गया, बल्कि मजिस्ट्रेट को उसके सामने हाजिर किया गया। तथ्य यह है कि मजिस्ट्रेट को गेस्ट हाउस ले जाया गया ताकि एंडरसन को जमानत पर छोड़ा जा सके। इसके बाद अर्जुन सिंह ने एंडरसन को दिल्ली ले जाने के लिए सरकारी हेलीकाप्टर भी मुहैया कराया। इसके बाद भी अर्जुन सिंह हम सभी को यह समझाना चाहते हैं कि हेलीकाप्टर की व्यवस्था उनकी जानकारी अथवा सहमति के बिना की गई-बावजूद इसके कि दस्तावेज में उनके आदेश का जिक्र है। लॉग बुक में लिखा है-मुख्यमंत्री के निर्देश पर विशेष उड़ान। कोई मुख्यमंत्री इससे अधिक गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकता है? अर्जुन सिंह के इस बयान से हमें यह भी पता चलता है कि नेहरू-गांधी परिवार की छवि पर कोई आंच न आने देने के लिए सच्चाई का गला घोंटने और इतिहास को झूठा सिद्ध करने में कांग्रेस के नेता किस हद तक जा सकते हैं? भोपाल गैस मामले में अर्जुन सिंह के इस बयान को मई 2008 में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए दिए गए उनके बयान के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि जब मैं मार्च 1960 में जवाहर लाल नेहरू जी से मिला तब मैंने उनके और उनके परिवार के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा की शपथ ली। अपने जीवन के पिछले 48 वर्र्षो में मैंने पूरी तरह इसका पालन किया। मैं अपने बाकी जीवन में इस निष्ठा और प्रतिबद्धता को बरकरार रखने के लिए सब कुछ करूंगा। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति इतनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने में कांग्रेस पार्टी के नेता अकेले नहीं हैं। अनेक नौकरशाह और कूटनीतिज्ञ भी एक राजनीतिक परिवार अथवा राजनीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि खुद को ही फंसा बैठते हैं। पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा भी ऐसे ही एक नौकरशाह हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी के विदेशी मामलों के सेल के सदस्य बन गए। उन्होंने एक साक्षात्कार में एंडरसन की रिहाई के मामले में अजीब जवाब दिए। जब उनसे पूछा गया कि क्या राजीव गांधी से सलाह ली गई थी? उन्होंने जवाब दिया-राजीव गांधी दिल्ली में नहीं थे। फिर उनसे पूछा गया कि क्या रीगन ने राजीव गांधी को फोन किया था? रसगोत्रा ने कहा-हो सकता है। एक अन्य सवाल के जवाब में रसगोत्रा ने कहा कि नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के उप प्रमुख गार्डन स्ट्रीब ने उनसे कहा था कि एंडरसन भारत आने के लिए तैयार है, बशर्ते उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जाए। चूंकि एंडरसन की भोपाल यात्रा इस शर्त से बंधी थी, इसलिए रसगोत्रा ने कैबिनेट सचिव और गृह मंत्री से संपर्क किया। कैबिनेट सचिव ने एंडरसन की रिहाई की अनुमति दी। रसगोत्रा गृह मंत्रालय के भी संपर्क में थे। राजीव गांधी उस समय वहां नहीं थे, इसलिए प्रधानमंत्री से बात करने का अवसर नहीं आया। रसगोत्रा का कहना है कि राजीव गांधी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कितनी असाधारण बात है? दिसंबर 1984 में भारत का विदेश सचिव रहा व्यक्ति बता रहा है कि अमेरिकी दूतावास के उपप्रमुख को एंडरसन के सुरक्षित वापस जाने का आश्वासन दिया गया था। इसलिए अपनी गिरफ्तारी के बाद एंडरसन ने गृह मंत्री (राव) से संपर्क किया और उसकी रिहाई हो गई। गृह मंत्री ने एक बार भी अपने बॉस यानी प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात नहींकी, जिनके पास विदेश मंत्रालय भी था। हमारे विदेश सचिव ने भी भोपाल गैस कांड जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण मामले के मुख्य अभियुक्त से जुड़े मसले पर अपने बॉस यानी राजीव गांधी से बात करने की जरूरत नहीं समझी। इसलिए कि राजीव गांधी उस समय दिल्ली में नहीं थे। इस तथ्य पर भी गौर करें कि अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने संभवत: राजीव गांधी से बात की थी और इसकी जानकारी हमारे विदेश सचिव को नहीं थी। क्या कोई इन तथ्यों पर भरोसा कर सकता है? यदि यह सब वाकई सत्य है तो क्या हमें अपने विदेश सचिवों की काबिलियत पर चिंतित नहीं होना चाहिए? हमें अंदाज लगा लेना चाहिए कि हमारी सेवाओं का स्तर कितना गिर गया है कि एक विदेश सचिव बड़ी गंभीरता से यह सोचता है कि वह जो अधकचरी कहानी सुना रहा है उस पर देश की जनता भरोसा कर लेगी।

अपनी महिला साथियों से रेप करते हैं नक्सली

सरकारी शोषण के खिलाफ हथियार उठाने वाले नक्सली अपनी ही महिला मेंबर्स का यौन शोषण करते हैं। इसका खुलासा किया है पश्चिम बंगाल और झारखंड के जंगलों में कभी एरिया कमांडर रह चुकी शोभा मांडी (23) उर्फ उमा उर्फ शिखा ने। हालांकि इस तरह के खुलासे पूर्व में भी कई महिला नक्सलियों ने किया है। जिससे सामाजिक बराबरी और नैतिकता की बात करने वाले नक्सलियों पर अब बलात्कारी होने का आरोप लगा है। 25-30 लोगों का एरिया कमांडर रही शोभा चार महीने पहले डॉक्टर से इलाज करवाने के बहाने नक्सलियों के चंगुल से निकल भागी।
पश्चिम बंगाल और झारखंड के जंगलों में कभी एरिया कमांडर रह चुकी शोभा मांडी (23) उर्फ उमा उर्फ शिखा ने आपबीती सुनाई। शोभा ने बताया कि नक्सली ग्रुप जॉइन करने के एक साल बाद संतरी के रूप में मुझे झारखंड के जंगल में लगे कैम्प की रखवाली के लिए लगाया गया। एक रात बिकास (हेड,मिलिट्री कमीशन) ने मुझसे पानी मांगा। जब मैं पानी लाने जाने लगी तो वह मेरा हाथ पकड कर मेरे साथ जबर्दस्ती करने लगा। शोभा ने बताया कि जब उसने बिकास से ऐसा करने से मना किया तो वह उसे जान से मारने की धमकी देने लगा। जोर जबर्दस्ती के बाद शोभा टूट गई और बिकास ने उसके साथ रेप किया। यह घटना तब की है जब शोभा 17 साल की थी। शोभा ने कहा कि जितनी भी महिला नक्सली हैं उनमें से अधिकतर महिलाओं का शोषण सीनियर माओवादी करते हैं। उनका कई-कई नक्सली महिलाओं के साथ सेक्सुअल रिलेशन है। अगर कोई महिला गर्भवती हो जाती है तो उनका अबॉर्शन करवा दिया जाता है क्योंकि बच्चों को बोझ समझा जाता है।
7 साल तक नक्सल कैडर रह चुकी शोभा से पूछा गया कि उन्होंने नक्सलवादियों से अलग होने का क्यों मन बनाया? सवाल पर थोडी मायूस शोभा ने कहा कि जिन मुद्दों को लेकर नक्सली लड़ाई लड़ते हैं, उन्हीं मुद्दों के साथ वे अन्याय करते हैं। कैडर की हैसियत से मैं कुछ नक्सली नेताओं की करतूतों को किशनजी से बताती थी। यही बात कुछ कॉमरेडों को पसंद नहीं थी। वे लोग ग्रुप के बाकी सदस्यों को मुझसे बात करने से मना कर देते थे। मैं बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाती थी। वे लोग हमेशा मुझे धमकी देते रहते थे।
यह पूछे जाने पर कि वह नक्सली नेताओं को क्यों पसंद नहीं करतीं? शोभा की आंखों में खौफ उतर आया।
इस घटनाक्रम से अब लगले लगा है कि अपने महिला कैडरों के प्रति नक्सलियों का रवैया बदल रहा है? उड़ीसा में हाल में पुलिस के सामने हथियार डालने वाली नक्सली महिलाओं के आरोपों से भी इस तथ्य को बल मिलता है। उन महिलाओं ने विभिन्न नक्सली शिविरों में बड़े नेताओं पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। उड़ीसा के रायगढ़ जिले की लक्ष्मी पीड़ीकाका हो या क्योंझर जिले की सविता मुंडा, सबके आरोप एक जैसे हैं। नक्सली शिविरों में आए दिन होने वाले यौन शोषण के चलते नक्सली आदर्शों से इन महिलाओं का मोहभंग हो गया है। सीपीआई (माओवादी)के चिल्ड्रेन स्क्वॉड की 17 साल की एक मेंबर ने बताया कि कॉमरेडों ने उसके साथ गैंग रेप करके उसे तड़पता हुआ छोड़ दिया था। वह अचेत अवस्था में गांव वालों को मिली तो उसे तुम्बागड़ा हॉस्पिटल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। इसकी सूचना मिलते ही लातेहार पुलिस भी वहां पहुंच गई और फिर उसने जुल्म की कहानी बयां की सब सन्न रह गए।
उसने बताया कि सब-जोनल कमांडर दिवाकर जी स्क्वॉयड के एक मेंबर बिरेंद्रजी ने संगठन जॉइन करने के कुछ ही दिनों बाद उसके साथ जोर-जबरदस्ती की थी। लड़की ने आगे बताया, मैं पांच साल पहले संगठन के साथ जुड़ी थी लेकिन बाद में इससे अलग होना चाह रही थी। एक बार मैं स्क्वॉड से भाग गई और अपने एक रिश्तेदार के यहां छिप गई। लेकिन कुछ ही महीने बाद सब-जोनल कमांडर चंदन और छोटू बंदूक के बल पर मुझे वापस ले आए। इसके बाद मेबरों ने कई बार मेरे साथ गैंगरेप किया। उसने बताया, मैंने फिर भागने की कोशिश की लेकिन उनलोगों ने पीछा करके मुझे पकड़ लिया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैं हथियार लेकर भाग रही थी। इनकार करने पर मेरी लाठी-डंडे से जबरदस्त पिटाई की और रेप करने की भी कोशिश की, लेकिन मेरे बेहोश होने के कारण वे चले गए। 17 साल की लक्ष्मी 14 साल की उम्र में संगठन में शामिल हुई थी। वह कहती है, मैं एक उडिय़ा व्यक्ति से शादी करना चाहती थी, लेकिन संगठन के लोग मेरी शादी जबरन छत्तीसगढ़ के एक हिंदी भाषी व्यक्ति से करना चाहते थे। हम दोनों एक-दूसरे की भाषा तक नहीं समझते थे। नेताओं को डर था कि शादी के बाद मैं संगठन छोड़ सकती हूँ।
वह कहती है कि शिविरों में रात को बड़े नेता दुर्व्यव्हार करते थे। लक्ष्मी ने तीन साल के दौरान कई बड़े अभियानों में हिस्सा लिया था। रायगढ़ के पुलिस अधीक्षक अनूप कृष्ण बताते हैं कि लक्ष्मी कई अभियानों में हिस्सा ले चुकी है। पूछताछ के बाद इस मामले में और खुलासा होने की उम्मीद है। झारखंड की सीमा से सटे क्योंझर जिले में हथियार डालने वाली सविता मुंडा की कहानी भी लक्ष्मी से मिलती है। वह बताती है कि शिविरों में हमारा शारीरिक शोषण होता था, मैंने जब संगठन के बड़े नेताओं को इस बात की जानकारी दी तो उन्होंने मुझे मुँह बंद रखने की सलाह दी। उसके बाद ही मैंने सरेंडर करने का फैसला किया। सविता की साथी अंजु मुर्मू को तो यौन शोषण की वजह से दो बार गर्भपात कराना पड़ा। क्योंझर की मालिनी होसा और बेला मुंडा की कहानी भी लगभग ऐसी ही है।
दो-तीन साल में ही नक्सली आदर्शों से इन सबका भरोसा उठ गया। नक्सली शिविरों में महिलाओं की ऐसी हालत तब है जब संगठन में उनकी तादाद सैकड़ों में हैं और वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खतरनाक अभियानों को अंजाम देती रही हैं।अगर इन महिलाओं के आरोपों में जरा भी सच्चाई है तो यह खुलासा नक्सिलयों के लिए घातक साबित हो सकता है। इससे उनकी साख पर बट्टा तो लगेगा ही, ग्रामीण इलाकों में पिछले दिनों में उन्होंने जो जनाधार बनाया है वह भी खत्म हो सकता है।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

करोड़पतियों का भुक्खडऩाच

भारत अनेकता में एकता का देश है। यह तथ्य पूरा विश्व जानता है लेकिन यह बात मुझे और बेहतर ढ़ंग से तब समझ में आई जब हमने संसद में अलग-अलग स्वर में अलाप करने वाले सांसदों को एक स्वर में एक ही मसले पर एक साथ चिल्लाते देखा। वह मसला था स्वयं के वेतन-भत्तों की बढ़ोत्तरी का। हद तो यह कि सांसदों ने अपने वेतन बढ़ोत्तरी का मामला उस समय उठाया जब आधा देश सूखे और आधा बाढ़ से त्राहिमाम कर रहा था। आलम तो यह देखिए कि एक तरफ सूखे की मार झेल रहे झारखंड के एक गांव के करीब 2000 किसान इच्छा मृत्यु की इजाजत मांग रहे थे वहीं 6600 मीट्रिक टन अनाज गोदाम के अभाव में सड़ रहा था। ऐसी विकट स्थिति में देश की करीब सवा करोड़ आबादी की चिन्ता छोड़ सांसद अपने वेतन-भत्तों के लिए कोहराम मचाए हुए थे।
आखिरकार वेतन बढ़ाने को लेकर बच्चों की तरह जिद कर रहे सांसदों का वेतन 16 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दिया गया। वेतन के अलावा सांसदों को मिलने वाले भत्तों और पेंशन में भी बढोतरी को मंजूरी मिल गई है। सांसदों की पेंशन को भी 8 हजार से बढाकर 20 हजार करने का प्रस्ताव मंजूर हो गया है। यही नहीं जो सांसद पांच साल से ज्यादा का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं उन्हें पांच साल के बाद अतिरिक्त कार्यकाल के लिए पेंशन के तौर पर हर साल 1500 रूपए अधिक दिए जाएंगे। सांसदों को मिलने वाले भत्तों मे भी भारी इजाफा होने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया गया है। सांसदों का दैनिक भत्ता एक हजार रूपए से बढाकर 2 हजार रूपए कर दिया गया है। सांसदों को प्रतिमाह 20,000 रुपए संसदीय क्षेत्र भत्ता और 20,000 रुपए कार्यालय भत्ता मिलता है। इन भत्तों को दोगुना किया गया था और अब सरकार ने इनमें पांच-पांच हजार रुपए की अतिरिक्त वृद्धि करने का फैसला किया है। सांसदों को आने जाने में मंहगाई का असर महसूस न हो इसके लिए यात्रा भत्ता एक लाख रूपए से बढ़ाकर 4 लाख रूपए सालाना कर दिया गया है। रोड माइलेज अलाउंस भी 13 रूपए प्रति किलोमीटर से बढाकर 16 रूपए प्रति किलोमीटर कर दिया गया है। वहीं, सांसद अब पत्नी सहित रेलवे के फर्स्ट क्लास एसी में असीमित मुफ्त में यात्रा कर सकते हैं। इसके साथ ही पत्नी के साथ बिजनेस क्लास में 34 मुफ्त हवाई यात्रा करने का लाभ सांसदों को दिए जाने पर कैबिनेट ने मुहर लगा दी है। लेकिन इतना मिलने के बाद भी सांसद संतुष्ट नजर नहीं आ रहे हैं और अपनी गरीबी का रोना-रो रहे हैं। घर में अमीर और संसद में गरीब सांसदों की संपति के आंकड़ों पर नजर डाले तो हमें एहसास होता है कि हमारे माननीय कितने गरीब (अमीर) हैं। आंकड़ों के अनुसार सांसदों में 315 करोड़पति हैं और उनमें से सबसे ज्यादा 146 कांग्रेस के हैं। ज्ञान, चरित्र, एकता वाली भाजपा के 59 सांसद करोड़पति हैं। समाजवादी पार्टी के 14 सांसद करोड़ का आंकड़ा पार कर चुके हैं। दलित और गरीबों की पार्टी कहीं जाने वाली बहुजन समाज पार्टी के 13 सांसद करोड़पति हैं। द्रविड़ मुनेत्र कडगम के सभी 13 सांसद करोड़पति हैं। कांग्रेस में प्रति सांसद औसत संपत्ति छह करोड़ हैं जबकि भाजपा में साढ़े तीन करोड़ है। देश के सारे सांसदों को मिला लिया जाए तो कुछ को छोड़ कर सबके पास कम से कम साढ़े चार करोड़ रुपए की नकदी या संपत्तियां तो हैं ही। यह जानकारी किसी जासूस ने नहीं निकाली गई अपितु खुद सांसदों ने चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार इस संपत्ति का खुलासा किया है। यह तो रही हमारे करोड़पति माननीयों के भुक्खडऩाच की कहानी जब की असल भारत की कहानी सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता समिति कहती है।
सांसदों के वेतन भत्तों पर संसद के भीतर और बाहर बहस मची हुई थी तो दूसरी गरीबी और गरीबों का पता लगाने के लिए सरकार द्वारा गठित कोई आधा दर्जन समितियां अपनी रिपोर्ट सरकार को दे चुकी है लेकिन गरीबी और गरीबों की संख्या का सवाल अब भी पहेली बनकर खड़ा हुआ है। अर्जुन सेन गुप्ता समिति के अनुसार देश में 78 प्रतिशत लोग दिन भर में बीस रुपए से भी कम में गुजारा करते हैं। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट के अुनसार देश के आठ राज्य ऐसे हैं जहां 42 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में गरीबी की स्थित सब-सहारा अफ्रीका से भी खराब है। देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश में 70 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। देश में गरीबों की पहचान और गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या और निर्धारण को लेकर सरकार से लेकर संसद तक भारी विरोधाभाष हैं। देश के सांसदों को भी नहीं पता कि देश में कितने गरीब है।
भारत की तुलना किन अर्थो में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरीका से की जा सकती है? क्या इन देशों में भारत की तरह गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी और कुपोषण है? जिन देशों के सांसदों का वेतन भारत के सांसदों के वेतन से कई गुना अधिक है वे देश पिछड़े और अविकसित नहीं हैं। भारत में राजनीति का पेशा और व्यवसाय बनना नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में अधिक हुआ है।
ऐसे में आज कितने सांसदों को वास्तविक अर्थो में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है? सांसदों के वेतन-भत्ते में वृद्धि का प्रश्न कितना नैतिक और उचित है? अस्सी करोड़ जनता की दैनिक आय मात्र दो दहाई है। क्या सचमुच भारतीय सांसदों को इस सामान्य जनता से कोई सरोकार है? 1984 तक सांसदों का वेतन 500 रुपये प्रतिमाह था और दैनिक भत्ता मात्र 51 रुपये। यह राशि एक उप समाहर्ता के वेतन से कम थी। उस समय तक किसी भी सांसद को आज के सांसदों की तरह चिंता और शिकायत नहीं थी। अब सचिव से एक रुपया अधिक वेतन (80,001) की मांग का क्या औचित्य है? क्या सांसद नौकरी करते हैं? वेतन के अतिरिक्त उन्हें जितनी सुविधाएं प्राप्त हैं, क्या उतनी ही सुविधा सचिवों को प्राप्त है? एक दिन के लिए भी सांसद बन कर, जीवन भर पेंशन प्राप्त करते हैं, ऐसी सुविधा किस नौकरी में है? सभी नौकरियों में एक निश्चित अवधि तक कार्य करने के बाद ही पेंशन दी जाती है। नौकरी करने वालों की जिम्मेदारियां तय है। सांसदों की जिम्मेदारियां क्या हैं? नौकरी करने की एक आयु सीमा तय है जबकि सांसदों के लिए अधिकतम आयु सीमा निर्धारित नहीं है। सांसदों को दिये जाने वाले भत्तों पर कोई आयकर नहीं लगता।
नौकरशाहों से सांसदों की अपनी तुलना करना एक प्रकार का पतन है। भारतीय राजनीति का चरित्र पूर्णत बदल गया। अस्सी के दशक से राजनीति व्यवसाय बन गयी। नब्बे के दशक से राजनीतिज्ञ स्व-चिंता में लीन हुए। सरकारी अफसरों, न्यायाधीशों, संपादकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, प्रोफेसरों आदि के वेतन से सांसदों के वेतन की तुलना नहीं की जा सकती। भारत जैसे देश में, किसी भी क्षेत्र में कार्यरत लोगों का वेतन अधिक नहीं होना चाहिए। सांसदों को उदाहरण पेश करना चाहिए। वे न शारीरिक श्रम करते हैं, न मानसिक। किसानों की आत्महत्या से उन्हें कोई चिंता नहीं है। देश के अनेक जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं। सदन में तमाम बहसों और हल्ला-हंगामों के बावजूद महंगाई घट नहीं रही है और सांसद अपनी तीन गुना वेतन वृद्धि से संतुष्ट नहीं हैं।
संयुक्त संसदीय समिति ने सांसदों का वेतन कैबिनेट सचिव के वेतन के समतुल्य या उससे कुछ अधिक करने की जो अनुशंसा की थी, उससे पांच गुना वेतन वृद्धि को मंत्रिमंडल ने स्वीकार न कर अच्छा कार्य किया है। सांसदों का वेतन 1985 में 1500, 1998 में 4000, 2001 में 12,000 और 2006 में 16,000 रुपये था। यह वेतन वृद्धि पिछले चार वर्षो में चार गुणा से अधिक है। कैबिनेट द्वारा प्रस्तावित इस वेतन-वृद्धि को वापस लेने की मांग को लेकर लोकसभा में जो दृश्य उपस्थित हुआ, क्या वह गरिमामय था? सांसदों की वेतन वृद्धि को लेकर लालू प्रसाद सदैव मुखर रहे हैं। उनके अनुसार संसदीय समिति की सिफारिश का पालन न होना संसद का अपमान है। लोकसभा में अपनी वेतन-वृद्धि को लेकर सांसदों द्वारा किये गये हंगामे और इसके कारण सदन की कार्रवाई के स्थगन के बाद सांसदों द्वारा नकली और अवास्तविक (मॉक) संसद का गठन एक हास्यास्पद और चिंताजनक है। लोकसभा में इस तरह का नाटक आज की राजनीति का एक चित्र प्रस्तुत करता है। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह इसमें अग्रणी रहे हैं। वास्तविक सांसदों द्वारा अवास्तविक संसद के गठन को क्या गंभीरतापूर्वक नहीं लिया जाना चाहिए। इस नकली, फर्जी संसद के प्रधानमंत्री लालू प्रसाद थे, अध्यक्ष गोपीनाथ मुंडे और कीर्ति आजाद विरोधी दल के नेता। लालू प्रसाद ने यूपीए की सरकार को बरखास्त करने का नाटक किया क्योंकि यह अलोकतांत्रिक और जनविरोधी थी। संसदीय लोकतंत्र में क्या इस तरह के नाटक की प्रशंसा की जानी चाहिए? मंत्रिमंडल के निर्णय को अस्वीकृत करते हुए लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव ने सांसदों का वेतन अस्सी हजार एक रुपये किये जाने की मांग की। यह पूरी घटना हमारे सांसदों के क्रिया व्यापारों का एक चित्र पेश करती है। अपनी वेतन वृद्धि को लेकर सांसदों द्वारा लोकसभा के कार्य में बाधा उत्पन्न करना और उसे ठप करना कितना जायज है? क्या ऐसे सांसदों के वेतन में वृद्धि होनी चाहिए?
पंद्रहवीं लोकसभा के 315 करोड़पति सांसदों के लिए वेतन वृद्धि कितना जरूरी है? चौदहवीं लोकसभा में करोड़पति सांसदों की संख्या 154 थी, जो पंद्रहवीं लोकसभा में बढ़ कर दोगुनी से अधिक हो गयी है। पिछले पांच वर्ष में कई सांसदों की आय में वृद्धि हजार-दो हजार प्रतिशत से अधिक हुई है। क्या करोड़पति सांसदों में से कोई इस वेतन वृद्धि को स्वीकार न कर एक उदाहरण प्रस्तुत करेगा? विजय माल्या के लिए प्रतिमाह अस्सी हजार या पचास हजार रुपये का कितना महत्व है? सांसदों की वेतन वृद्धि के संबंध में सबकी राय लगभग एक समान और चिंताजनक है। सांसदों को प्राप्त होने वाला प्रति किलोमीटर सोलह रुपये यात्रा भत्ता कहां से जायज है? क्या प्रति किलोमीटर यह यात्रा भत्ता अन्य किसी सेवा में प्राप्त होता है? अमेठी के कांग्रेसी सांसद संजय सिंह राज परिवार के हैं, पर क्या उनके लिए सांसदों का अस्सी हजार रुपये वेतन सही है।
कई कांग्रेसी सांसदों के अनुसार अस्सी हजार वेतन भी कम है। सांसदों को सर्वाधिक सुविधाएं प्राप्त हैं। उनसे सभी सुविधाएं लेकर प्रतिमाह उनका वेतन दो-चार लाख रुपये किया जाना चाहिए। सांसदों ने अब अपने को जनसेवक न समझ कर सरकारी नौकरों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। वे महंगाई के प्रश्न पर संसद में समानांतर सरकार का गठन नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट की सलाह के बाद भी कृषि मंत्री शरद पवार मुफ्त में गरीबों के बीच अनाज के वितरण के पक्ष में नहीं हैं। अनाज तब सड़ता है जब व्यवस्था सडऩे लगती है।
सांसद अक्सर देश में गरीबी रेखा की बात करते हैं, लेकिन खुद को अमीर बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। महीने का खर्चा प्रति सांसद साढ़े तीन लाख रुपये हो गया है, मगर सांसदों को संतोष नहीं, उन्हें और चाहिए। सरकारी नौकरशाह रहे मनमोहन सिंह ने पहली बार प्रधानमंत्री बनते ही सरकारी बाबुओं, नौकरशाहों, अध्यापकों आदि का वेतन बढ़ाकर 90 हजार रूपये तक कर दिया। यात्रा, आवासीय भत्ते, पेंशन आदि को भी बढ़ा दिया गया। तब अम्बिका सोनी, पवन बंसल या किसी और ने चूं नहीं किया था।
एक पूर्व वामपंथी सांसद का कहना है कि नकल करके किताबें लिखकर बहुत से लोग प्रोफेसर हो गये हैं, उनका वेतन 90 हजार रूपये यदि जायज है, यह मनमोहन सरकार उनको यदि कुल मिलाकर 90 हजार रूपये माहवारी दे रही है तो सांसदों को इतना वेतन देने में परेशानी क्यों? सभी सांसद तो उद्योगपति ,स्कूलपति, अस्पताल पति उनके अघोषित लाइजनर तो हैं नहीं, सो सांसदों को वेतन सचिवों से एक रूपया अधिक मिलना ही चाहिए। संसद सदस्यों ने अपना वेतन तीन गुना बढ़वा लिया और छह लाख रुपए महीने के खर्चे का पात्र बनने के बावजूद उनकी लड़ाई जारी रही।
लड़ाई का मुख्य कारण हैं कि सांसदों के अनुसार उन्हें जनता ने चुना है और जनता की ओर से वे देश के मालिक हैं इसलिए उनका वेतन भारत के सबसे बड़े अफसर कैबिनेट सचिव से कम से कम एक रुपए ज्यादा होना चाहिए। कैबिनेट सचिव को अस्सी हजार रुपए महीने मिलते है। जबकि देश की अस्सी फीसदी आबादी की पारिवारिक आमदनी मात्र छह सौ रुपए महीने है। गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जो लोग रह रहे हैं और जो भूखे सो जाने के लिए अभिशप्त हैं उनकी गिनती तो छोड़ ही दीजिए। उस पर तो हमारे ये माननीय सांसद खुद ही हंगामा कर के संसद का समय बर्बाद करते रहेंगे।
सांसदों का यह भी कहना है कि अगर बेहतर सुविधाए मिलेंगी और अधिक वेतन मिलेगा तो ज्यादा प्रतिभाशाली लोग राजनीति में आएंगे। यह अपने आप में अच्छा खासा मजाक हैं। सिर्फ लोकसभा के 162 सांसदों पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं जिनमें से 76 पर तो हत्या, चोरी और
अपहरण जैसे गंभीर मामले चल रहे हैंं। इन्हीं आंकड़ों के अनुसार चौंदहवीं लोकसभा में 128 सांसदों पर आपराधिक मामले थे जिनमें से 58 पर गंभीर अपराध दर्ज थे। जाहिर है कि प्रतिभाशाली नहीं, आपराधिक लोग संसद में बढ़ रहे हैं और उन्हें फिर भी पगार ज्यादा चाहिए।
भारतीय संविधान में सांसदों को यह अधिकार दिया गया है कि वे बहुमत के बल पर जो चाहे निर्णय कर सकते हैं। वह चाहें तो अपने वेतन और भत्ते आदि में भी बढ़ोतरी करवा सकते हैं। वैसे भी इनके वेतन भत्तों के विरोध में जितनी भी आवाजें सामने आ रही हैं वे वास्तविक कम और दिखावा ज्यादा हैं। विरोध करने वालों में वे लोग भी शामिल हैं जो स्वयं अपने पेशे में उनसे ज्यादा वेतन पाते हैं या पाने के लिए लालायित रहते हैं। देश के मौजूदा वातावरण और व्यवस्था में हर कोई यही सामान्य तर्क देता नजर आ रहा है कि जिस प्रकार खर्च बढ़े हैं उसमें एक सांसद को इतना वेतन और भत्ता तो मिलना ही चाहिए ताकि वह जनता की उम्मीदों के अनुरूप अपने दायित्वों का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन कर सके। यदि उसे पर्याप्त वेतन और सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो वह अपने दायित्वों का ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर पाएगा। यह तर्क भी पहली नजर में बिल्कुल सही लगता है कि केंद्र सरकार के एक सचिव का वेतन यदि 80 हजार है तो माननीय संासदों का उससे कम क्यों होना चाहिए? आखिर एक सांसद की श्रेणी सचिव से ऊपर तो होनी ही चाहिए। चरणदास महंत की अध्यक्षता वाली समिति ने इसी के मद्देनजर सांसदों का वेतन 80,001 रुपया प्रतिमाह करने की संस्तुति किया। सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाए जाने के विरुद्ध जो कुछ कहा जा रहा है, वह इतने सामान्य हंैं कि तर्क की कसौटी पर ज्यादा देर नहीं ठहरते। मसलन, ऐसे सांसदों की संख्या बहुत ज्यादा है जो स्वयं कई व्यवसाय करते हैं या ऐसे पेशे से जुड़े हैं जिनसे उन्हें मोटी कमाई होती है। किंतु, ऐसे भी सांसद हो सकते हैं जो किसी व्यवसाय या पेशे से जुड़े नहीं हैं। इस तर्क के आधार पर तो हम भविष्य में केवल राजनीति को सर्वस्व मानकर सांसद बनने वालों के लिए कठिन स्थिति पैदा कर देंगे।
इस प्रकार के तर्को द्वारा आप संासदों को उनके सम्मान और जिम्मेवारी के अनुरूप वेतन-भत्ते और सुविधाएं पाने को गलत नहीं ठहरा सकते। वैसे भी, लोकसभा का एक सांसद औसत रूप से लगभग 14 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक आम अनुभव है कि ज्यादातर सांसदों के यहां आने वालों का तांता लगा रहता है और उन्हें उनकी मदद भी करनी पड़ती है। इतना व्यापक जन संपर्क बनाए रखना ही भारी खर्च का काम है। ऐसा तो है नहीं कि बढ़ी हुई महंगाई केवल हमारे लिए है सांसदों के लिए नहीं। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने यही तर्क तो दिया कि कुछ लोग हैं जिनके पास कई तरह के धन हैं, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसे हैं भी है जिनको वेतन-भत्तों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार सामान्य दृष्टि से सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी सही नजर आती है। लेकिन जरा दूसरे नजरिये से देखिए। सांसद राजनीति में क्यों आते हैं? उनका सरोकार क्या है? वास्तव में इसके लिए गठित चरणदास महंत समिति द्वारा दूसरे देशों के सांसदों के वेतनमानों से तुलना करने की कसौटी ही गलत थी। इसी तरह अपने देश में सचिवों से सांसदों की तुलना भी उचित नहीं है। सचिव तो सरकारी नौकर हैं, उनके वेतन से तुलना का कोई औचित्य ही नहीं है। दुनिया के दूसरे कई देशों और भारत की राजनीति पृष्ठभूमि में भी अंतर है। वस्तुत: ये दो कसौटियां ही यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारी राजनीति कहां से निकलकर कहां आ चुकी है।
भारत में राजनीति पेशा नहीं, जनसेवा का माध्यम मानी गई है। आजादी की लड़ाई या फिर बदलाव के आंदोलनों की पृष्ठभूमि से आए नेताओं की एक स्थापित परंपरा हमारे यहां है। उस श्रेणी के जो भी नेता इस समय संसद में होंगे वे कतई अत्यधिक वेतन-भत्ते और सुविधाओं को उचित नहीं ठहरा सकते। हमारे देश में ऐसे भी उदाहरण हैं जब राजनेता अपने पद को मिलने वाले वेतन का बड़ा हिस्सा देश के खजाने में वापस कर देते थे। यह थी राजनीति के पीछे की भावना। उनके सामने केवल देश होता था, देश के आम नागरिक होते थे, अपनी सुख-सुविधा उनके लिए मायने नहीं रखती थी। कोई सचिव यानी सरकारी अधिकारी कैसे एक जनसेवी के समकक्ष माना जा सकता है! इस प्रकार की तुलना केवल और केवल राजनीतिक मनोविज्ञान के पतन का सुबूत है। अगर वेतन एवं धनबल के आधार पर तुलना करनी है तो फिर सांसदों को सबसे ज्यादा वेतन लेने वाले कारोबारियों से भी ज्यादा मिलना चाहिए। आखिर एक कारोबारी को, चाहे वह कितना संपन्न क्यों न हो, हमारे संविधान ने एक सामान्य नागरिक के समान ही अधिकार दिया है, जबकि सांसदों को विशिष्ट अधिकार हैं। महात्मा गांधी के पास तो कौड़ी की भी संपत्ति नहीं थी, किंतु राष्ट्रपिता का दर्जा उन्हें ही मिला। जब राजनीति करने सरोकार बदल जाए तो फिर किसी राजनेता के लिए गांधी मानक नहीं हो सकते हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे राष्ट्रपति उनके लिए आदर्श नहीं हो सकते, जो अपने लिए निर्धारित वेतन से ज्यादा का हिस्सा वापस कर देते थे। तब एक राजनेता या जनसेवी के लिए अत्यधिक खर्च पाप माना जाता था। ऐसे लोगों का राजनीति में सम्मान नहीं था। धीरे-धीरे राजनीति और उसके द्वारा पोषित अर्थव्यवस्था ने सारे पुराने मानक धराशाई कर दिए। आज तो जिसके पास जितनी अधिक सुख-सुविधाएं हैं, जितनी विलासिता है, जितनी संपत्ति है, उसे उतना ही ज्यादा सम्मान मिल रहा है। ये मानक भी हमारे नेतृत्व वर्ग का ही बनाया हुआ है। यही वर्ग है, जिसने देश के बहुसंख्य आम आदमी की आय की चिंता किए बगैर सरकारी कर्मचारियों का वेतन बेतहाशा बढ़ा दिया। जिस देश की करीब 40 प्रतिशत आबादी अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पा रही हों, वहां एक सचिव का वेतन 80 हजार क्यों होना चाहिए? हालांकि न हमारे प्रधानमंत्री ही धनपति हैं और न कोई पूर्व प्रधानमंत्री ही इस श्रेणी के थे, पर आम मानक आज यही हो चुका है। इसलिए सांसदों को 50 हजार का वेतनमान, 45 हजार का क्षेत्र भत्ता, इतना ही कार्यालय भत्ता आदि भी कम लगता है। अगर वे भारतीय राजनीति के स्त्रोत को कसौटी बनाते तो निश्चित ही निष्कर्ष दूसरा आता। विडंबना देखिए कि वेतन भत्तों के लिए हंगामा करने वालों में वे लोग सबसे ज्यादा थे, जिनका आविर्भाव जयप्रकाश आंदोलन से हुआ है। उस आंदोलन का तो लक्ष्य ही राजनीति को आडंबरों से मुक्त कर उसे जनसरोकारों से जोडऩा था। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी समूची राजनीति का कितना क्षरण हो चुका है।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स महाशक्ति बनने का मौका

कॉमनवेल्थ गेम्स भारतीयों के लिए न केवल खेल हैं बल्कि यह हमारी सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि, सांस्कृतिक विरासत और शक्ति दिखाने का मौका है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े खेल मेले में दिल्ली में 5 हजार खिलाड़ी और 85 देशों के लाखों दर्शक जुटेंगे। इस आयोजन में लगभग 40 हजार करोड़ खर्च किए जाएंगे। इस आयोजन हेतु एक खेल ग्राम 8 अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम, 25 अंडर ब्रिज और ओव्हर ब्रिज, भूमिगत पार्किंग, मेट्रो लाइने और चमचमाता हुआ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दुनिया भर से आए खिलाडिय़ों और दर्शकों के लिए तैयार है। जबसे हमे 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजित करने का अधिकार मिला है इसका सफल आयोजन करना हमारा धर्म भी बन गया है। गेम्स की तैयारियों को लेकर मचे बवाल पर हमें तनिक भी भ्रमित होने की जरूरत नहीं हैं क्योकि यह हमारी संस्कृति है कि हम हर काम आखरी क्षणों में करते हैं, चाहे शादी हो या कुछ और...
विश्व की महाशक्ति होने का स्वप्न साकार करने में लगे देश के सपने कम होने के पहले ही एक के बाद एक किक झेल रहे हैं। एक सपना चूर-चूर होता है, फिर उसे समेटने के क्रम में हम पाते हैं कि सपने के अंदर भी एक सपना है। परत-दर-परत, स्वप्न और दुस्वप्न के बीच हकीकत भी सपने सी लगती है। देश के मुकुट में आग लगी है। कश्मीर की अशांति सरकारी तंत्र को झकझोर कर जगा रही है, पर सरकार इसे दु:स्वप्न मानकर फिर सोने जा रही है। उभरती महाशक्ति की बेबसी बुरा सपना है या हकीकत? उत्तरपूर्व में मणिपुर की बेबसी के दो महीने हो जाने पर हम जागे और बीस दिन में फिर कहीं खो गए।
छत्तीसगढ़ में नक्सली बार-बार हमारे सुरक्षा बलों पर घातक चोट करते हैं। हर हमले के बाद बहस, सख्त कार्रवाई, बातचीत जैसे शब्दों के जाल बुने जाते हैं और उसी जाल में अपने आप को फांस सरकारें सपने में समाधान ढूंढ़ती हैं। दुनिया की किसी महाशक्ति की छाती पर लाल सलाम का झंडा ऐसे नहीं फहरता। राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने देश की राजधानी को चमचमाने वाले सपने आज दिल्ली की खुदी सड़कों में दफन हो रहे हैं। कुछ सपने स्टेडियम की दरकीं छतों से बूंद-बूंद पानी रिस रहे हैं। भ्रष्टाचार का ऐसा भौड़ा नृत्य पहली बार नहीं हुआ। इन खेलों को देश की मर्यादा और गर्व के साथ जोड़कर सारी दुनिया के सामने हम सच में नंगे हो गए या एक बुरा सपना है। भ्रष्टाचार सूचकांक में हम आज भी 84वें नंबर पर हैं। इस आयोजन की कमान अफसरों और बाबूओं के एक ऐसे लवाज के हाथ में हो जिसकी भूख कभी शांत नहीं होती। हमारे देश में भ्रष्टाचार का मतलब करोड़ो का ठेका हासिल कर लेना ही नहीं है उस 500 रूपए की बख्शीश से भी है जो टै्रफिक सिगनल तोडऩे पर पुलिस वाले को देना होता है। कॉमनवेल्थ की तुलना एक और खेल सर्कस आईपीएल से करें तो अजीबों गरीब समानताएं नजर आती हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में भारत सरकार की कमजोर कड़ी उजागर हुई है। आईपीएल में ललित मोदी के माथे ठीकरा फूटा था , जबकि बोर्ड ऑफ गर्वनिंग कॉउंसिल के दूसरे सदस्य बच निकले थे और कॉमनवेल्थ खेलों मे केवल कलमाड़ी को निशाना बनाया। जबकि आयोजन से जुड़े हर महकमे ने मुनाफा कमाया है। इसलीए कॉमनवेल्थ कहा गया है। (यानी की संपत्ति का साझा बटवारा)
भारत के आठ राज्य अफ्रीका के 26 सबसे गरीब देशों से भी गरीब हैं। यह हकीकत है तो फिर आर्थिक महाशक्ति का दंभ सपना है। गरीबी रेखा से ऊपर वालों की रसोई सूख रही है, नीचे वालों के साथ अब प्रणब मुखर्जी का हाथ नहीं। चुनाव दूर हैं, सो हकीकत से हाथ मिलाइए। सपने आखिरी सालों में दिखाए जाएंगे।
सुरेश कलमाडी और उनकी टीम चाहे तो उजागर हुई राष्ट्रीय शर्म के लिए अत्यधिक बारिश को कोस सकती है। अगर बारिश नहीं होती और राष्ट्रमंडल खेलों के लिए तैयार हो रहे स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स की छतें इस तरह नहीं टपकतीं या आधे-अधूरे स्टेडियमों में पानी नहीं भरता तो नई दिल्ली में इस आयोजन से जुड़े अफसरों और बाबुओं में बड़े से बड़े भ्रष्टाचार को भी बिना डकार लिए हजम कर जाने की क्षमता है। पता ही नहीं चल पाता कि राष्ट्रीय खेल कब चालू हुए और कब खत्म हो गए। हमें आज पता नहीं है कि 1982 में एशियाड कैसे सम्पन्न हो गए थे। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर भारत को ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने का अवसर मिल जाए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हासिल हो सकने वाले कलंक के टीके का आकार कितना बड़ा होगा? कल्पना की जा सकती है। भारत में खेल संगठनों पर राजनीतिक पतंगबाजी करने वालों का कब्जा है। इनमें ज्यादातर वे लोग हैं, जिन्हें चुनावी रैलियों में पैसे बांटकर भीड़ जमा करने, मिलावटी तेल में बनाई गई पूड़ी और सब्जी के पैकेट बंटवाने और माननीय अतिथियों के स्वागत में छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को चिलचिलाती धूप में घंटों खड़े रखने की आदत है।
इसीलिए जब आरोप लगते हैं कि राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी हासिल करने के लिए भी रुपए बांटे गए थे, तो मुंह फाड़कर आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जा सकता। हम सब-कुछ करने में समर्थ हैं। पर हकीकत यह भी है कि पैसे बांटकर पदक नहीं हासिल किये जा सकते। हैरानी इस बात की है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, लेटलतीफी और खेलों की तैयारियों के नाम पर विदेशों में भारत की बदनामी के झंडे लहराने का पूरा काम सत्ता और विपक्ष की नाक के ठीक नीचे भारत की राजधानी नई दिल्ली में हुआ है।
अब जबकि पूरे आयोजन के औपचारिक आयोजन को बहुत कम समय बचा है, संसद से लेकर सड़क तक सभी लोग अपनी-अपनी बैटन लेकर दौड़ लगा रहे हैं। महारानी एलिजाबेथ ने किसी जमाने में ब्रिटेन के गुलाम रहे भारत की जनता को यह घोषणा कर पहले ही ऐलान कर दिया था कि वे राष्ट्रमंडल खेलों का उद्घाटन करने दिल्ली नहीं आएंगी। देश, सुरेश कलमाडी को नहीं जानता-पहचानता। कलमाडी की राजनीतिक रूप से भी कभी कोई राष्ट्रीय हैसियत नहीं रही। देश और दुनिया प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जानती है। 1982 में देश में हुए ऐशियाड खेल के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी और स्व. राजीव गांधी पर कोई उंगली नहीं उठी। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन समिति के टी .एस. दरबारी, संजय महिन्द्रू और जयचंद्रन या अनिल खन्ना जैसे कुछ व्यक्तियों के नाम हैं, जिन्हें निलंबित कर देने या उनके पद छोड़ देने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि व्यवस्था में इतनी खोट कैसे खड़ी हो जाती है कि संगठित भ्रष्टाचार देश की प्रतिष्ठा और सम्मान को लील जाने की हिमाकत कर लेता है और सब-कुछ रातों-रात नहीं होता, सारे चौकीदार महीनों तक सोए हुए या ऊंघते रह जाते हैं। आखिरकार सारी तैयारियों को लेकर कैग की रिपोर्ट ने तो सालभर पहले ही चेता दिया था।
डॉ. मनमोहन सिंह ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ संबोधित संयुक्त पत्रकार सम्मेलन में दावा किया था कि वे 'कैबिनेट सचिव के साथ समूची स्थिति की समीक्षा कर चुके हैं और सभी आवश्यक तैयारियां ठीक से चल रही हैं और ठीक से हो भी जाएंगी।Ó इस बात में कोई शक नहीं कि एक कद्दावर राष्ट्र के रूप में हम मौजूदा दौर से बाहर भी निकल जाएंगे और अपनी गरिमा के करीब पहुंचते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की अपनी हैसियत से बाहर जाकर मेजबानी भी निभा लेंगे। पर खेलों के बहाने हमारी क्षमताओं के जो कमिया उजागर हुई हैं, वे तो अब इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं। हम उनका क्या करेंगे? कलमाडी या उनके जैसे और भी कई लोगों का कुछ नहीं बिगडऩे वाला है। और फिर क्या पता कि पूरे खेल में इन लोगों का भी केवल बैटन के रूप में इस्तेमाल हुआ हो!
कॉमनवेल्थ गेम्स को शुरू होने में लगभग 50 दिन का वक्त रह गया है। लेकिन आज हर आम-ओ-खास की जुबान पर यही सवाल है क्या इन खेलों के आयोजन कामयाब होंगे? क्या हम दुनिया को दिखा पाएंगे कि 1982 के एशियाड के बाद हम कितना आगे बढ़ चुके हैं? इन खेलों के आयोजन को लेकर दो मत हो सकते हैं। लेकिन अब खेल होंगे, यह तय हो चुका है। ऐसे में हम सबको मिलकर दुआ करनी चाहिए कि कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन सफल हों। यह एक अच्छा मौका हो सकता है कि हम दुनिया को दिखा पाएं कि बीते 28 सालों में (1982 के एशियाड से) गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है। देश ने आर्थिक तरक्की कर ली है। लेकिन इन उम्मीदों और दुआओं के बीच आशंकाओं को बादल छंट नहीं रहे हैं। हमारे सामने चुनौती 3 अक्टूबर से पहले खेलों की तैयारियां पूरी करने की है।
हम जैसे-तैसे तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हुए हैं। लेकिन क्या हम इन खेलों का सफल आयोजन कर पाएंगे? क्या इन खेलों से देश में खेल और खिलाड़ी का कोई भला हो सकेगा? चूंकि भारत ने इन खेलों की मेजबानी के वक्त लगाई गई बोली में यह कहा था कि अगर ये खेल भारत में होते हैं तो देश में युवाओं को खेलों की तरफ प्रेरित करने में मदद मिलेगी। अब सवाल यह उठता है कि हजारों करोड़ रुपये खर्चकर हमने तामझाम तो तैयार कर लिया है, लेकिन क्या कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन से सिर्फ दिल्ली चमकेगी और आयोजन से जुड़ी कंपनियों, ठेकेदारों को फायदा पहुंचाकर यह निपट जाएगा। या फिर, वाकई 14 अक्टूबर को हम पदक तालिका में कहीं 'नजरÓ आएंगे। इन सवालों में ही कॉमनवेल्थ खेलों की कामयाबी या नाकामी के जवाब छुपे हुए हैं।
केन्द्रीय शहरी विकास मंत्नी एस जयपाल रेड्डी भी कह चुके हैं कि अक्टूबर में हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों की सफलता भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित कर देगी और इतना ही नहीं उन्हें पूरा विश्वास है कि अब तक के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया जाएगा। यहां यह बताना उचित होगा कि श्री रेड्डी समन्वय और विकास कार्यों के देखने वाले मंत्रियों के समूह में प्रमुख भी हैं। खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी इतना सब कुछ होने के बाद भी यह दिलासा देने में बाज नहीं आते हैं कि हम सभी खेल परिसरों को समय पर पूरा कर लेंगे। सरकार हमारे साथ है और हम अभूतपूर्व खेलों का आयोजन करेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं सफल खेलों के संचालन के लिए प्रतिबद्ध हैं।
कॉमनवेल्थ खेलों की महंगी मेजबानी के पीछे इरादा यह था कि देश की आर्थिक क्षमता व दक्षता को दुनिया के सामने पेश किया जा सके और देश में खेल संस्कृति के विकास का माहौल पैदा किया जा सके। पहले केंद्रीय सतर्कता आयोग ने जिन 16 परियोजनाओं की जांच की, उन सभी के प्रमाणपत्र या तो जाली थे या संदिग्ध। सीबीआई इनमें से एक मामले में एफआईआर भी दर्ज कर चुकी है।
उधर लंदन में क्वींस बैटन लाने के दौरान जिस कंपनी से कार किराये पर ली गईं, उसे नियम-विरुद्ध भारी-भरकम धनराशि अदा की गई। इसका खुलासा ब्रिटिश सरकार के माध्यम से हुआ जो अलग से इसकी जांच कर रही है। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने अपनी सफाई में दस्तावेज जारी किए कि लंदन स्थित भारतीय उच्चयोग ने कंपनी के नाम की सिफारिश की थी, लेकिन अगले ही दिन ईमेल में हेर-फेर की बात सामने आई। एक अन्य रिपोर्ट बता रही है कि ट्रेड मिल जैसी कई चीजें उनके खरीद मूल्य से ज्यादा धनराशि चुकाकर किराये पर ली गईं।
इन रिपोर्टो से कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का उद्देश्य उनके शुभारंभ से पहले ही परास्त होता लग रहा है। आयोजन से देश की प्रतिष्ठा में चार चांद लगना तो दूर, देश की प्रतिष्ठा के साथ मजाक होता लग रहा है। खेल संघों और आयोजन समिति में सभी पार्टियों के लोग हैं इसलिए हमारा समूचा राजनीतिक प्रतिष्ठान जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकता। अगले कुछ दिनों में खेलों के वही कर्ता-धर्ता बैठकों का नाटक करते देखे जाएंगे जो आयोजन को इस दयनीय मुकाम तक लाने के लिए जिम्मेदार हैं और जिनकी विश्वसनीयता नहीं रह गई है। सौभाग्य से देश की कमान एक ऐसे प्रधानमंत्री के हाथ में है, जिनकी शुचिता व ईमानदारी असंदिग्ध है। समय आ गया है, जब डॉ मनमोहन सिंह को हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कॉमनवेल्थ खेल इस तरह आयोजित किए जा सकें, जिससे देश की प्रतिष्ठा की रक्षा हो सके और साथ ही गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिल सके।
लेकिन कॉमनवेल्थ अंधेर नगरी का खेल बनकर रह गया है जिसमें सभी अपनी-अपनी पतंगे उड़ाना चाहते हैं। जहां कलमाड़ी के नेतृत्व में आयोजकों को तिजोरियां भरने का सुनहरा मौका मिल गया है, तो दूसरी ओर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को मंहगाई बढ़ाने का मौका मिला हुआ है। इन सबसे अगर कोई परेशान है तो वह हमारे देश की भोली-भाली जनता। देश की सभी राजनीतिक पार्टियों और मुखर विपक्षी लोगों को भी राष्ट्रमंडल और महंगाई के बहाने नमक-मसाला लगा मुद्दा मिल गया है। अब जाहिर है कि सभी अपनी-अपनी पतंगे इस तेज हवा में उड़ाना चाहते हैं। गरीबों के दु:ख में तो कॉमनवेल्थ ने आग में घी का काम किया है। किसी ने सच ही कहा है अंधेर नगरी चौपट राजा टका शेर भाजी टका शेर खाजा दीपक के बुझने से पहले लौ तेज हो जाती है उसी तरह इस हवा के बंद होने की उल्टी गिनती भी शुरू हो चुकी है। राजनीतिक दलों, आम जनता और देश-विदेश की मीडिया में कॉमनवेल्थ में हो रहे व्यापक पैमाने पर बड़े-बड़े घोटालों को लेकर हर तरह का हो-हल्ला मचा हुआ है। सभी एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, जो अब अपने चरम पर पहुंच चुका है। दिल्ली सरकार तो अनुमान लगाने में फेल हो गई जिसका फल आम जनता को महंगाई के रूप में मिला। अगर कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत कि मटिया-पलीद हुई तो इसकी सारी जिम्मेदारी सरकार की होगी। हमें अपनी मजबूती देखने के बाद ही ओखली में सिर देना चाहिए था। तैयारियों के खर्चे को लेकर सही अनुमान लगा होता तो शायद आम जनता को इतनी महंगाई ना झेलनी पड़ती। आंकड़ों के मुताबिक हम अभी उस लायक नहीं हुए हैं कि ऐसे आयोजन का जिम्मा ले सकें। ना जिम्मा लेते ना ही इसकी आड़ में बढ़ी महंगाई कि मार झेलते। सच तो ये है कि विकासशील देशों के लिए इतने बड़े आयोजन कभी भी फायदेमंद साबित नहीं हो सकते।
भ्रष्टाचार और अधूरी तैयारियों के लिए चौतरफा आलोचना झेल रहे दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के बचाव में उतरते हुए ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल खेल संघ के अध्यक्ष पैरी क्रासव्हाइट ने कहा कि भारत में ये खेल अब राजनीतिक द्वंद्व में बदल गए हैं और लोग भ्रष्टाचार तथा निमार्ण कार्यो में देरी के आरोप प्रत्यारोप लगा कर अपना अपना हिसाब बराबर करने का प्रयास कर रहे हैं। एक अखबार के हवाले में क्रासव्हाइट ने कहा कि मुझे ये आरोप राजनीतिक लग रहे हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार और अन्य लोग एक दूसरे के बारे में आरोप लगा रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में आ रही गड़बडिय़ों का मामला प्रधानमंत्री के दफ्तर तक पहुंच गया इतना ही नहीं कांग्रेस की कोर कमेटी की बैठक में भी कॉमनवेल्थ खेलों के बारे में चर्चा हुई थी। कॉमनवेल्थ खेलों की छाप वाला सामान बनाने के लिए जिस कंपनी को ठेका दिया गया था, उसने ये सामान या मर्चेंडाइज बनाने से मना कर दिया है। बहरहाल हो रहे कॉमनवेल्थ गेम देश के सामने चुनौती भी है और अपनी शक्ती का विश्वपटल पर प्रर्दशित करने का मौका भी। अब यह खेल सही तरीके से समाप्त होने के बाद ही पता चल पाएगा कि हमारी मेजबानी कितनी प्रभावशाली साबित हुई है।

घरानों के घेरे में शिवराज

एक छोटे से किसान के घर से मुख्यमंत्री पद पाने तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक ही सपना था कि प्रदेश का किसान खुशहाल हो। लेकिन सत्ता हाथ में आते ही उन्हें भी कुछ बड़े घरानों ने अपने मोहफांस में ऐसा फांस लिया है कि वे उन पर जरुरत से ज्यादा मेहरबानी दिखा रही है। जिस सरकार पर राज्य की संपत्ति बचाने बढ़ाने की जिम्मेदारी है, वही सरकार अपनी जिम्मेदारियों को मुंह चिढ़ाते हुए राज्य की संपत्ति का विनाश करने में जुटी है।
एक तरफ सरकार वन भूमि को कुछ बड़े घरानों को विकास के नाम पर बांट रही है वहीं करोड़ों रुपए की सैकड़ों एकड़ जमीन के लिए सरकार और उषा राजे होलकर के बीच चल रहे मुकदमे में सरकार हार गई है। यह मुकदमा 45 सालों से चल रहा था और संभवत: इंदौर के इतिहास का सबसे बड़ा जमीन मुकदमा था। जो जमीनें सरकार हारी है उसमें कलेक्टोरेट के सामने का गंजी कंपाउंड भी शामिल है। इसके अलावा अन्य जमीनें बिजासन बीड़, बेरछा बीड़ और आशापुरा बीड़ की हैं। इस मामले में हाई कोर्ट के जस्टिस विनय मित्तल ने उषा राजे के पक्ष में फैसला दिया। जिले की आशापुरा,बिजासन,बेरछा और मोहना बीड़ के अलावा गंजी कंपाउंड की जमीनें रियासत काल में होलकरों की थीं। 1964 में तत्कालीन कलेक्टर ने उषा राजे होलकर को नोटिस दिया कि उक्त सैकड़ों एकड़ जमीनें हमारी हैं। इसके खिलाफ होलकर परिवार कोर्ट में चला गया। इस तरह 15 मई 1964 को मुकदमा शुरू हुआ। पहले मुकदमा सिविल कोर्ट में चला। यहां जमीन को लेकर होलकर परिवार का तर्क था कि उक्त जमीन हमारी ही हैं और 1948 में होलकर स्टेट के हाउसहोल्ड विभाग के अधीन थीं। यह जमीनें 1951 तक तत्कालीन आर्मी को दी जरूर थीं लेकिन वो उनकी घोड़ों की घास की आपूर्ति के लिए दी थी, इस पर हक तो हाउसहोल्ड विभाग का ही था। 1951 में ये जमीनें आर्मी ने हाउसहोल्ड विभाग को वापस कर दी थीं। होलकर परिवार 1951 से 1964 तक जमीन को अपनी कहते हुए सरकार को तोजी भी भरता रहा। इसी आधार पर उन्होंने कोर्ट में अपनी मालिकी साबित की। उनका यह भी कहना था कि 1948 में रियासतों से अनुबंध हुआ था उस अनुबंध के आर्टिकल 12 के 14वें नंबर पर साफ लिखा है कि होलकरों की मालिकी में हाउसहोल्ड की संपत्ति (यानी उक्त जमीनें) भी शामिल रहेगी।
सरकार के तर्क थे कि मध्यभारत के निर्माण के बाद उक्त जमीन भी सरकार के पास आ गई थी और तोजी भर देने मात्र से कोई मालिक नहीं हो जाता इसलिए 1964 में कलेक्टर ने जमीन वापस लेने का नोटिस दिया था। दोनों पक्षों को सुनने के बाद मार्च 1992 में सरकार ने मोहना बीड़ को छोड़कर बाकी जमीनों का फैसला होलकर परिवार के पक्ष में दिया।
फैसले के खिलाफ दोनों पक्ष हाई कोर्ट में गए। होलकर परिवार जहां मोहना बीड़ की जमीन के लिए गया वहीं सरकार सभी जमीनों के लिए गई। हाई कोर्ट ने 24 मार्च 2000 को यह केस कुछ सवालों के साथ फिर निचली अदालत में रिमांड कर दिया। इसमें एक सवाल यह भी था कि संविधान के अनुच्छेद 363 के तहत आने वाले मुकदमे सिविल कोर्ट में सुने जा सकते हैं या नहीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद 17 अगस्त 2001 को कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला दिया।
उसके बाद होलकर परिवार ने फिर हाइकोर्ट की शरण ली। अपना पक्ष मजबूत करने के लिए उसने रियासत काल के कई कर्मचारियों की गवाही और दस्तावेज पेश किए। अंतत: 13 अगस्त 2010 को हाई कोर्ट के जस्टिस विनय मित्तल ने होलकर परिवार की अपील मंजूर करते हुए 17 अगस्त 2001 को सरकार के पक्ष में दिए फैसले को निरस्त कर दिया।
दूसरा मामला संरक्षित वन्य क्षेत्रों और अभयारण्यो से सम्बंधित है जहाँ तमाम नियम कानूनों को ताक में रख कर बड़े घरानों को उपकृत किया जा रहा है। खास बात यह है कि जिन बड़े घरानों पर सरकार मेहरबान है उनके कारण मुख्यमंत्री की भी बदनामी हुई थी। बड़े घरानों पर सरकार की इस मेहरबानी का राज क्या है? जिस जेपी एसोसिएट्स से चार डम्पर लेकर शिवराज सिंह मय धर्म पत्नी साधना सिंह के डम्पर कांड की गिरफ्त में है उसी समूह को उपकृत करने के लिए सरकार उतावली हो रही है। खबरों के मुताबिक़ जेपी एसोसिएट्स को सतपुडा और पेंच टाइगर रिजर्व में कोयला खदान की अनुमति दी गई है। इसी प्रकार से सोंम घडिय़ाल अभयारण्य में सीमेंट प्लांट और लाइम स्टोन माइन की भी अनुमति दी गई है। दोनों ही मामलों में तामाम नियम कानून और आपत्तियों को खारिज करते हुए सरकार ने वांछित शर्ते भी नहीं माँगी है।
खास बात यह है कि जिस वन विभाग और वाइल्ड लाइफ बोर्ड पर वन और अन्य प्राणियों के संरक्षण की जिम्मेदारी है वही वनों का सफाया कर वन्य प्राणियों को संकट में डालने पर आमादा है। जिन विभागों पर निर्माण और खनन की अनुमति देने की जिम्मेदारी है, वे खामोश है, जबकि खुद वन विभाग और वाइल्ड लाइफ बोर्ड इसकी पहल कर रही है। अब तक यह होता है कि संबंधित विभागों के अधिकारी इस तरह के प्रस्ताव पर वन विभाग की अनुमति- असहमति लेते थे, लेकिन अब वन विभाग और बोर्ड ही खुद अनुमति देने को जरुरत से ज्यादा उतावला रहा है।
जेपी एसोसिएट्स को छिंदवाडा में पेंच और सतपुडा नॅशनल पार्क में कोयला खदान की अनुमति दी गई है, जहां विभाग के ही अनुसार 3 लाख 29 हजार 872 वृक्ष है। जेपी एसोसिएट्स ने भरोसा दिलाया कि एक भी वृक्ष को क्षति नहीं पहुंचेगी और विभाग तुरंत मान गया। पचमढ़ी बायोस्फीयर रिजर्व से मात्र 15 किमी की दूरी पर कोयला खनन किया जाएगा। विभागीय फील्ड डायरेक्टर ने यहाँ 2006 की वन्य प्राणी गणना में दो तेदुओ की उपस्थित दर्ज की थी। जाहिर है कि कोयला खदान, मजदूरो की गतिविधि और परिवहन के कारण जहां वन्य संपदा का क्षरण होगा, वही वन्य प्राणी भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रहेगे।
वाइल्ड लाइफ बोर्ड की जिस बैठक में उक्त अनुमति दी गई, उसमे बोर्ड के एक सदस्य और पूर्व पीसीसीएफ एपी दिवेदी ने आपत्ति दर्ज की। उन्होंने कहा कि खदान चलेगी तो वन और वन्य प्राणी नहीं बचेगे। वन विभाग को ऐसे मामले अपने स्तर पर ही ख़ारिज कर देने चाहिए, किन्तु अधिकारी खुद अनुमति देने को आतुर है। वन क्षेत्र की अनुमति को उन्होंने समझ से परे बताया। सीधी जिले के मझगंवा, वदगोना और हिनौती में जेपी एसोसिएट्स को लाइम स्टोन माइन की अनुमति दी गई है विशेषज्ञों का मानना है कि सीमेंट फैक्टरी का डिस्चार्ज मडवाल नाले के जारिये सोंम घडिय़ाल क्षेत्र में खतरा बन जाएगा। नाले सिल्डलोड को रोकने और पानी का सतत परिक्षण करने की शर्त बोर्ड ने आमान्य कर दी। इसके लिए सरकार राष्ट्रीय चम्वल अभयारण्य, मुरैना के रिसर्च आफिसर आरके शर्मा से क्षेत्र का अध्ययन कराने की आड ली, जिन्होंने कोई खतरा न बताते हुए अनुमति देने को उचित बताया। गौरतलब है कि यह आफिसर विभाग में दैनिक वेतन भोगी के रूप में भर्ती थे और अब भी राजपत्रित अधिकारी नहीं है। इस प्रकार इनकी रिपोर्ट भी आमान्य होना चाहिए। नियमानुसार विभाग को इसकी जांच प्रदुषण निवारण मंडल से करानी थी किन्तु ऐसा नहीं किया गया 7 विभाग तो जेपी एसोसिएट्स के सामने बिछा हुआ था इसलिए बोर्ड सदस्य की आपत्ति भी ख़ारिज की गई इस प्रकार सरकार ने जेपी एसोसिएट्स को नियमविरुद्ध उपकृत किया।
जेपी एसोसिएट्स पर सरकार की मेहरबानी के कुछ और नमूने प्रकाश में आये है, जिन पर नियंत्रण महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार जल संसाधन संभाग, देवसर में जेपी एसोसिएट्स के उद्योग को गोपद नदी से जल की आपूर्ति की गई। शासन ने जुलाई 2003 में प्राकृतिक शासकीय स्त्रोत से जल की आपूर्ति करने पर 0.147 रुपये प्रति घन मीटर दर तय की थी, लेकिन इस समूह पर सरकार की मेहरबानी के चलते जुलाई 2007 में जलापूर्ति का जो अनुबंध किया गया, उसमे मात्र 0.14 रुपये प्रति घन मीटर की दर तय की गई और इस दर की राशि भी नहीं वसूली गई। उससे शासन को 3.45 करोड़ रुपयों की हानि हुई।
जेपी समूह को उपकृत करने के एक और मामले में कैग की रिपोर्ट में आपत्ति जताई गई है। मध्यप्रदेश शासन ने स्थानीय क्षेत्र में माल के प्रवेश पर कर अधिनियम 1976 तथा नियमों और अधिसूचना के अंतर्गत खपत, उपयोग अथवा विक्रय के लिए स्थानीय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली वस्तुओ पर प्रवेश कर का प्रावधान किया है। जेपी एसोसिएट्स ने अपने उधोग के लिए सीमेंट, कोयला, बालू, तथा एचटीएस वायर का परिवहन किया, जिनका प्रवेश कर नहीं चुकाया गया। इस संबंध में क्षेत्रीय सहायक आयुक्त ग्वालियर ने उत्तर दिया कि जेपी एसोसिएट्स का कारखाना रेलवे की भूमि पर स्थापित है, जो स्थानीय क्षेत्र में नहीं आता है।
इस कारण प्रवेश कर नहीं वसूला गया। कैग ने अपनी टिपण्णी में लिखा है कि कथित निर्णय का दोबारा कर निर्धारण करना था, न कि यह निर्णय करना कि रेलवे साइडिंग स्थानीय क्षेत्र में है अथवा नहीं। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश राजस्व बोर्ड ने अपने 2002 के निर्णय में कहा है कि रेलवे साइडिंग तथा रेल लाइन स्थानीय क्षेत्र में आते है। में. लार्सन एंड टुब्रो लि. बनाम आयुक्त वाणिज्य कर प्रकरण में रेल लाइन तथा रेलवे साइडिंग को स्थानीय क्षेत्र में माना गया था. इसके बावजूद सरकार ने जेपी एसोसिएट्स के विरुद्ध प्रवेश कर वसूली की कार्रवाई नहीं की।

सोमवार, 16 अगस्त 2010

सेक्स के रास्ते विकास की खोज

सेक्स का नाम सुनते ही मौज मस्ती या शारीरिक सुख की भावना मन में जागृत होती है लेकिन अब इसके मायने बदलने लगा है। सेक्स इनदिनों विकास का माध्यम बन गया है। यहां विकास का मतलब पैसा,नौकरी,प्रमोशन,पढ़ाई और कमाई से है। इसलिए अब सेक्स की मंडी में ग्राहकों की भीड़ केवल मौज मस्ती या शारीरिक सुख के लिए ही नहीं लगती। इस मंडी से खरीदा गया माल आफिस में तरक्की का मार्ग खोल देता है, चुनाव का टिकट दिला देता है, बड़े से बड़े टेंडर दिला देता है। यही कारण है कि अब सेक्स के बाजार में सिक्कों की चमक पहले से कहीं ज्यादा है और बड़ी तादाद में लड़कियां इस कारोबार की ओर आकर्षित हो रही हैं। यहीं नहीं लड़कियों को खोजने के लिए पुराने वक्त की तरह कोठों पर जाने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि अब देह व्यापार का धंधा वेबसाइटों तक पहुंच गया है। हालांकि अश्लील वेबसाइट्स भारत में बैन हैं लेकिन इनका यहां प्रचलन सबसे अधिक है। चूंकि यह धंधा एक मजबूत नेटवर्क के तहत चल रहा है। इंफरमेशन टेक्नोलॉजी के मामले में पिछड़ी पुलिस के लिए इस नेटवर्क को भेदना खासा मेहनत वाला बन गया है।
एक जमाना था जब रेड लाइट एरिया से पकड़ी जाने वाली औरतें अपनी मजबूरियां बताती थीं, लेकिन अब पकड़ी जाने वाली अधिकतर लड़कियों के सामने मजबूरी नहीं बल्कि फाइव स्टार होटलों का ग्लैमर, सिक्कों की चमक और बढ़ती महत्वाकांक्षा है। कभी रेडलाइट एरिया और गली मोहल्लों में सिमटा यह धंधा अब बड़ी कोठियों, फार्म हाउस और बड़े होटलों तक पहुंच गया है। अब मसाज सेंटर या ब्यूटी पार्लर का भी इस्तेमाल इस धंधे में कम होता है ताकि इसमें शामिल लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा बरकरार रहे। रेड लाइट एरिया तक जाने में बदनामी का डर रहता है लेकिन आज के हाई प्रोफाइल सेक्स बाजार में कोई बदनामी नहीं, क्योंकि ग्राहक को मनचाही जगह पर मनचाहा माल उपलब्ध हो जाता है और किसी को कानों कान खबर तक नहीं होती। बस मोबाइल पर एक कॉल और इंटरनेट पर एक क्लिक से मनचाही कॉलगर्ल आसानी से उपलब्ध हो जाती है। हालांकि मजदूर वर्ग और लो प्रोफाइल लोगों के लिए अब भी रेडलाइट एरिया की गलियां खुली हैं लेकिन एचआईवी संक्रमण के खतरों ने वहां भीड़ कम जरूर कर दी है।
अब इस कारोबार में न केवल विदेशी लड़कियां शामिल हैं बल्कि मॉडल्स, कॉलेज गर्ल्स और बहुत जल्दी ऊंची छलांग लगाने की मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़कियों की संख्या भी बढ़ रही है। पुलिस के बड़े अधिकारी भी मानते हैं कि अब कॉलगर्ल और दलालों की पहचान मुश्किल हो गई है क्योंकि इनकी वेशभूषा, पहनावा व भाषा हाई प्रोफाइल है और उनका काम करने का ढंग पूरी तरह सुरक्षित है। यह न केवल विदेशों से कॉलगर्ल्स मंगाते हैं बल्कि बड़ी कंपनियों के मेहमानों के साथ कॉलगर्ल्स को विदेश की सैर भी कराते हैं।
कॉलगर्ल्स और दलालों का नेटवर्क दो स्तरों पर है। एक अत्यंत हाईप्रोफाइल है जिसमें फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली और आधुनिक वेशभूषा वाली हाई फाई कॉलगर्ल हैं तो दूसरा नेटवर्क महाराष्ट्र, सिक्किम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, नेपाल और भूटान से लाई गई बेबस लड़कियों का है। ग्राहक की मांग के अनुसार ही कॉलगर्ल उपलब्ध कराई जाती है। सेक्स के इस कारोबार में नये ग्राहक को प्रवेश बहुत मुश्किल से मिलता है। पकड़े जाने के डर से केवल पुराने व नियमित ग्राहकों को ही प्राथमिकता दी जाती है। जगह की व्यवस्था करने का रिस्क भी इस धंधे में लगे लोग नहीं लेते। यह व्यवस्था ग्राहक को स्वयं करनी होती है। ग्राहक को एक निश्चित स्थान पर कॉलगर्ल की डिलीवरी किसी मंहगी कार के माध्यम से कर दी जाती है। वहां से ग्राहक अपने वाहन से उसको मनचाहे स्थान पर ले जाता है। अमूमन यह स्थान बड़े होटल, बड़ी कोठियां या फिर फार्म हाउस होते हैं। दलाल पोर्न वेबसाइटों के जरिए एक-दूसरे से सम्पर्क साध कर अपना नेटवर्क मजबूत बनाते हैं। इंटरनेट पर हजारों ऐसी साइटें हैं जहां कॉलगर्ल्स की फोटो व उनका प्रोफाइल उपलब्ध रहता है जिन्हें देखकर ग्राहक अपना ऑर्डर बुक कर सकते हैं। दिल्ली पुलिस के उपायुक्त देवेश चंद श्रीवास्तव के अनुसार, 'विश्वसनीयता इस धंधे का प्रमुख हिस्सा है। कॉलगर्ल सीधी डील नहीं करती और किसी भी कीमत पर किसी नये ग्राहक से डील नहीं की जाती। पुराने सम्पर्क के आधार पर ही डील की जाती है। यही कारण है कि पुलिस जल्दी से इनकी पहचान नहीं कर पाती। इस धंधे में लगे लोगों के अपने कोडवर्ड हैं जिनका इस्तेमाल कर वह ग्राहकों से बातचीत करते हैं।Ó
वो जमाना गया जब किसी भी कॉलगर्ल या सेक्स वर्कर तक पहुंचने के लिए टैक्सी ड्राइवर, ऑटो चालक या किसी नुक्कड़ के पान विक्रेता को टटोलना पड़ता था, क्योंकि वेश्यावृत्ति में लिप्त महिलाओं के दलाल अक्सर इसी वर्ग के होते थे। यह दलाल ग्राहक को ठिकाने तक पहुंचाने के बाद बाकायदा वसूली करते थे। ऐसे कुछ दलाल ग्राहक और वेश्या दोनों से दलाली लेते थे जबकि कुछ केवल वेश्या से ही अपना हिस्सा मांगते थे लेकिन अब इस तरह के दलालों का जमाना गये वक्त की बात हो गई है।
सेक्स के कारोबार में अब दलालों की पहचान बदल गई है। वे हाई प्रोफाइल हो गये हैं, सेक्स कारोबारी बन गये हैं। ये सुसज्जित कार्यालयों में बैठते हैं और इनकी रिशेप्सनिस्ट ईमेल और मोबाइल पर आने वाली सूचनाओं के आधार पर कॉलगर्ल्स की बुकिंग करती है। ईमेल या मोबाइल पर ही ग्राहक को डिलीवरी का स्थान बता दिया जाता है और फिर निश्चित स्थान पर पूरी रकम एडवांस लेने के बाद कॉलगर्ल की डिलीवरी कर दी जाती है। जिस तरह व्यापारी अपने व्यापार में माल की क्वालिटी, ग्राहकों की पसंद, दुकान की ख्याति, स्टेंडर्ड आदि का ध्यान रखता है, उसी तरह सेक्स के ये कारोबारी भी अपने व्यापार को लेकर बहुत सजग हैं। वह अपने पास हर तरह का माल रखना पसंद करते हैं ताकि कोई ग्राहक खाली न लौटे। ग्राहक की पुलिस से सुरक्षा व पूर्ण संतुष्टि का भी दलाल ख्याल रखते हैं ताकि वह उनका स्थायी ग्राहक बना रहे। अब कॉलगर्ल या ग्राहक से इन्हें दलाली नहीं मिलती बल्कि यह खुद सौदा करते हैं और कॉलगर्ल्स को अपने यहां ठेके पर या फिर वेतन पर रखते हैं। उस अवधि में ठेकेदार इनकी सप्लाई कर कितना कमाता है इससे इन्हें कोई मतलब नहीं होता। जिस प्रकार किसी कर्मचारी के लिए काम के घंटे व छुट्टी के दिन निर्धारित होते हैं, उसी पर ठेके या वेतन पर काम करने वाली कॉलगर्ल्स के भी काम और आराम के दिन निर्र्धारित होते हैं। काम की एक रात के बाद उनकी अगली रात अमूनन आराम की होती है लेकिन अगली रात की भी मांग हो तो इन्हें अतिरिक्त भुगतान मिलता है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि देह व्यापार का धंधा चलाने का यह हाई फाई तरीका मध्यप्रदेश के शहरों तक पहुंच चुका है। मध्यप्रदेश के व्यापारिक शहरों में बढ़ रहे देह व्यापार के कारोबार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सतना जैसे मझोले शहर भी ऑन लाइन देह व्यापार के कारोबारियों के निशाने पर आ गए है. बकायदा वेब पेज बना कर उसमें मोबाइल नम्बर देकर चाही गई जगह पर देह उपलब्ध करने वालों ने खुलेआम कामन चैट रूम में जाकर अपना प्रचार भी कर रहे है.
ऐसा ही एक मामला विगत दिवस जियोसिटी के एक वेबपेज में खुली सेक्स दुकान से सामने आया है. यह वेबसाइट नियत राशि अदा करने पर चाही गई जगह पर कॉल गर्ल या कॉल ब्वाय भेजने की व्यवस्था कराती है. जो शहर इस साइट में कॉल गर्ल भेजने के लिये बताए गए हैं उनमें प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित इन्दौर जबलपुर, सतना , ग्वालियर और इटारसी हैं. यह कारोबार किस सीमा तक पहुंच गया है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस वेबपेज में संपर्क करने के लिये बकायदा दो मोबाइल नम्बर दिये हैं.
आज के समय में इन्टरनेट देह के व्यापारियों के लिये सबसे सुरक्षित स्थान माना जाने लगा है और तेजी से फल फूल रहा है. इसकी सहायता से लोग बेखौफ होकर देह का कारोबार कर रहे हैं. इसी कारोबार का नमूना है जियोसिटी में लव नाम से बना वेबपेज. इसमें शुरुआत में कॉल गर्ल और कॉल ब्वाय की दुनिया में आने का स्वागत किया गया है. फिर आगे देश के किसी भी शहर के लिये निर्धारित राशि अदा करके सुविधा लेने की बात कही गई है. संपर्क के लिये बुकिंग का समय सुबह 10 बजे से दोपहर बाद 3 बजे तक का निर्धारित किया गया है तथा रविवार का दिन अवकाश घोषित है. यहां कॉल गर्ल की दर तीन हजार से 25 हजार तथा कॉल ब्वाय की दर 25 से 80 हजार तक बताई गई है. इसके बाद नीचे उन शहरों की सूची दी गई है जहां देह की सुविधा उपलब्ध करा सकते है. इसमें देश के सभी प्रमुख नगर भी शामिल है.वहीं दूसरी ओर कॉल ब्वाय के लिये विज्ञापन भी दिया गया है . साथ ही मोनिका नामक छद्म आईडी द्वारा याहू मैसेन्जर के कामन रूम में बकायदे इस साइट का प्रचार किया जा रहा है.अंत में यह बताया गया है कि इनकी किसी भी सेवा का लाभ लेने के लिये 50 फीसदी राशि अग्रिम तौर पर उनके बैंक अकाउंट में जमा करना पड़ेगा.
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की बात करें तो दर्जनों वेबसाइटें ऐसी हैं, जो भोपालमें कॉलगर्ल पहुंचाने का दावा करती हैं। इंटरनेट की जरा सी जानकारी रखने वाला व्यक्ति ऐसी वेबसाइटों को मात्र एक क्लिक पर ढूंढ सकता है। सिर्फ सर्च इंजन पर अपनी जरूरत लिखकर सर्च करने से ऐसी दर्जनों साइट्स के लिंक मिल जाएंगे। कुछ वेबसाइटों पर लड़कियों की तस्वीरें भी दिखाई गई हैं। वेबसाइटों पर कालेज छात्राएं, मॉडल्स और टीवी व फिल्मों की नायिकाएं तक उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं। कुछेक अपने पास विदेशी कालगर्ल होने का भी दावा करते हैं। धंधा चलाने वाले शातिर संचालकों ने वेबसाइट पर ज्यादा जानकारी नहीं छोड़ी है, जिससे पुलिस के हाथ उन तक पहुंच पाएं। धंधे के संचालकों के मोबाइल फोन इस साइट पर बड़े अक्षरों में कई जगह मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर मोबाइल नंबर दिल्ली के हैं। वेबसाइट पर देश के अन्य शहरों में भी कालगर्ल उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं। इंटरनेट माहिरों के अनुसार भारत में पोर्न साइट पर पाबंदी है। शातिर संचालक वेबसाइट आउटसोर्सिग के जरिए अपनी वेबसाइट विदेशों से बनवा लेते हैं। साइबरफ्रेम साल्युशंस के सीईओ अनूप गुप्ता के अनुसार ऐसे लोग यह वेबसाइट अकसर विदेशी सर्वर पर बनवाते हैं। इन पर भारतीय कानून के तहत रोक लगाना मुश्किल हो जाता है।
देह व्यापार के धंधे में लगे लोगों के मुताबिक जिस तेजी से भोपाल एजुकेशन हब के रूप में उभर कर सामने आ रहा है उसी तेजी से यहां देह व्यापार का कारोबार पनप रहा है। भोपाल के कॉलेजों में पढऩे वाले कई विद्यार्थी अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने लिए देह व्यापार करते हैं. इस तरह से पैसे कमाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है. छोटे छोटे शहरो और कस्बों से आए विद्यार्थी एस्कोर्ट का काम करने के विकल्प को मान लेते हैं या विचार करते हैं. हाई प्रोफाइल सेक्सकर्मी को एस्कोर्ट कहा जाता है.जानकार कहते हैं आधुनिकता की चकाचौध में एक दूसरे की देखा देखी अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए विद्यार्थियों को 'इंटरनेट पर अश्लील फि़ल्मÓ, 'अश्लील बातेंÓ और देह व्यापार जैसा काम करना पड़ता है. सेक्स से जुड़ी बातें हर जगह है. अब देह व्यापार के प्रति मध्यमवर्गीय लोग उदार हो रहे हैं और इसे करियर बनाने के लिए एक अच्छा रास्ता मानते हैं. आचरण संबंधित सारी बातें अब बिल्कुल बदल गई है.
भोपाल के एक प्रसिद्व होटल के मालिक का कहना है कि मेरे ख्याल से यहां विद्यार्थियों की स्थिति काफ़ी खराब है और इन्हें पर्याप्त मदद नहीं मिलती है.देह व्यापार में मिलने वाला अच्छा पैसा और पूरे होने वाले बड़े शौक में अब कॉलेज की लड़कियों की तादात बढ़ती ही जा रही है। पुलिस के अनुसार अपने शौक पूरा करने के लिए बड़े घराने की लड़कियां इस धंधे में सबसे ज्यादा आ रही हैं, खासकर पढ़ाई कर रही लड़कियां मां-बाप से दूर रहकर इस धंधे में जुड़ती हैं। पुलिस के मुताबिक यहां पर प्रतिदिन बड़ी तादात में लड़कियां लाई जाती हैं और हर दिन तकरीबन एक लाख से 80 हजार तक की कमाई की जाती है। यह भी पाया गया कि लड़कियों की सप्लाई दूसरे राज्यों में किया जाता था।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

जब तक आडवाणी रहेंगे भाजपा में दूसरा अटल पैदा नहीं होगा

भारतीय जनता पार्टी में वही होता है जो आडवाणी चाहें। अगर आडवाणी जिसे नहीं चाहे वह गडकरी होता है। यह कहां तक सही है यह तो राम भक्त लालकृष्ण आडवाणी ही बता सकते हैं लेकिन भाजपा का इतिहास और अध्यक्ष नितिन गडकरी की वर्तमान स्थिति तो यही बयां करती है।
संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने साफ़ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आखिऱ में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे. इन सब में गडकरी की उम्र राजनीति में छोटी है, लेकिन संघ गडकरी को सफल होते देखना चाहता है. गडकरी ने संघ को बताया है कि जब भी वह कुछ नया करना चाहते हैं तो ये लोग उनका विरोध करते हैं. संघ और गडकरी के सामने सवाल है कि वे इस स्थिति से कैसे निकलें.संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों को नेतृत्व क्षमता के बारे में सिखाया जाता है, नेतृत्व वही, जिसके पास निर्णय क्षमता हो. लेकिन फिलहाल तो स्वयंसेवक गडकरी में इसका अभाव दिखता है. गडकरी की बड़े नेताओं के बीच संतुलन साधने और पार्टी के सभी गुटों को खुश रखने की रणनीति संगठन पर भारी पड़ रही है. कड़े फैसले लेकर पार्टी को सही दिशा देने की बजाए गडकरी नेताओं के महत्वाकांक्षाओं के खेल में मोहरा बन रहे हैं.

आडवाणी एंड कंपनी ने गडकरी को पूरी तरह से अपने दबाव में ले लिया है और गडकरी बेबस हो उनके फैसलों को मानने भी लगे हैं. संसद सत्र शुरु होने से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भोजन के आमंत्रण पर भाजपा का कोई नेता नहीं जाएगा, यह फैसला लेते वक्त लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से कोई राय मशवरा नहीं लिया. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से गुफ्तगू के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने यह अहम फैसला लिया. भाजपा संसद में जातिगत जनगणना का विरोध नहीं करेगी, यह फैसला लेते हुए भी आडवाणी ने बातचीत तो दूर गडकरी को इसकी जानकारी तक नहीं दी. जब कि न ही आरएसएस और न ही गडकरी इसके पक्ष में थे. जाहिर है ये फैसले पार्टी अध्यक्ष की सहमति से नहीं हुए. पार्टी के संविधान और नियमों के मुताबिक अध्यक्ष का ही निर्णय अंतिम होता है. जबकि संघ चाहता था कि उमा भारती की पार्टी में वापसी हो और संजय जोशी को संगठन में महत्वपूर्ण पद दिया जाए, लेकिन आडवाणी कैंप के विरोध के कारण नितिन गडकरी ऐसा नहीं कर पाए. इसी तरह से संघ जिन्ना के समर्थक जसवंत सिंह की पार्टी में कतई वापसी नहीं चाहता था, लेकिन आडवाणी के दबाव में गडकरी को जसवंत सिंह को पार्टी में वापस लाना पड़ा. यह तो वर्तमान स्थिति है जबकि पूर्व में भी पार्टी में वही हुआ है जो आडवाणी ने चाहा है।
जब भाजपा ने एनडीए का निर्माण किया और लगा कि सरकार बन सकती है, तो सवाल आया कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. जार्ज फर्नांडिस जैसे लोगों का मूड भांप आडवाणी जी ने बयान दिया कि अटल जी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. आडवाणी भी चाहते थे और पार्टी के नेता भी चाहते थे कि आडवाणी प्रधानमंत्री बनें, पर उनका चेहरा कट्टरपंथी का चेहरा था, जिसे भाजपा के अलावा एनडीए में शामिल दूसरे दल किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं करने वाले थे. आडवाणी के हाथ से प्रधानमंत्री पद फिसल कर अटल जी के पास चला गया, क्योंकि वह चेहरा न केवल सार्वजनिक था, बल्कि लोकप्रिय भी था. अटल जी के प्रधानमंत्री बनने के साथ उन्हें ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य ने घेर लिया. शायद यह आडवाणी जी को अच्छा नहीं लगा. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बहुत से विश्वसनीय कार्यकर्ता मानते हैं कि यही वह समय था, जब आडवाणी जी ने अटल जी और पार्टी के साथ संघ से भी बदला लेने की जाने या अनजाने कोशिश शुरू कर दी. अटल जी यदि सरकार आडवाणी जी को चलाने देते तो शायद यह न होता, पर सरकार तो ब्रजेश मिश्र, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य के क़ब्ज़े में चली गई थी.
संघ के समर्पित नेताओं का कहना है कि आडवाणी जी ने गृहमंत्री रहते हुए एनडीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को स्वीकार किया और पार्टी का प्रोग्राम छोड़ दिया. सालों से राम मंदिर बनाने की घोषणा करने वाली पार्टी का आडवाणी जैसा नेता कहने लगा कि जब भाजपा का बहुमत अकेले दम पर होगा, तभी मंदिर बनाया जा सकता है. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी घुट रहे थे, उन्हें लगता था कि सब बनाया उन्होंने है और उन्हें ही मौक़ा नहीं मिला. इसीलिए किसी दूसरे दल ने अपने दल का एजेंडा नहीं छोड़ा, लेकिन भाजपा ने छोड़ दिया, जिसके पीछे केवल आडवाणी का दिमाग़ था. इसमें उन्हें प्रमोद महाजन का साथ मिला. संघ के लोगों का कहना है कि आडवाणी चाहते तो अटल जी लालकिले से घोषणा कर सकते थे कि मैं गठबंधन का प्रधानमंत्री हूं, पर पार्टी अलग है. इससे पार्टी पर लोगों का विश्वास नहीं टूटता और न कार्यकर्ता नाराज़ होता कि भाजपा ने मंदिर मुद्दा तो छोड़ ही दिया है.
आडवाणी जी ने अपनी नई टीम बनाई, जिसके लेफ्टिनेंट अरुण जेटली, अनंत कुमार, वेंकैय्या नायडू, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा और नरेंद्र मोदी थे. अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी रणनीति बनाने लगे और पार्टी के भीतर का सत्ता और वैचारिक समीकरण बदलने लगा. आज संघ के लोग कहते हैं कि पार्टी की दुर्दशा का मुख्य कारण अरुण जेटली हैं, जो विचार को जीवन से अलग मानते हैं. संघ के लोगों को अफसोस है कि एक ओर दीनदयाल उपाध्याय जैसा व्यक्ति उनकी पार्टी बना रहा था, जिसका आचार, विचार और व्यवहार एक था, आज अरुण जेटली पार्टी बना रहे हैं, जिनके आचार, विचार और व्यवहार में कोई समानता नहीं है.
संघ में अपना जीवन देने वाले स्वयं सेवकों का कहना है कि अरुण जेटली की रणनीति के परिणामस्वरूप विचारवान और संघ के प्रति निष्ठावान लोग पार्टी में हाशिये पर चले गए या पार्टी से बाहर जाने के लिए मजबूर हो गए. वहीं पार्टी में जनाधार विहीन, एरिस्ट्रोकेट व पश्चिमी शैली में जीवन जीने वाले नेता स्थापित हो गए. ये ऐसे लोग हैं, जो ऐशोआराम में पल रहे हैं और विचारधारा से दूर हैं. आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की वजह से जो लोग भाजपा के दृश्य से ग़ायब हो गए, उनमें पहला नाम हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का है, जिन्हें भारत के सर्वाधिक ईमानदार मुख्यमंत्रियों में माना जाता है. जम्मू कश्मीर में चमन लाल गुप्त हाशिये पर चले गए हैं. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को पार्टी छोडऩी पड़ी और लालजी टंडन ख़ामोश हो गए हैं. झारखंड में बाबूलाल मरांडी ने पार्टी छोड़ दी और करिया मुंडा ने पार्टी मामलों में रुचि लेनी बंद कर दी है. मध्य प्रदेश में पहले उमा भारती के ज़रिए सुंदरलाल पटवा को किनारे कराया, फिर उमा भारती को ही पार्टी से निकाल दिया. अब शिवराज सिंह चौहान उनके अपने आदमी हैं. महाराष्ट्र में तो सारे ग्रासरूट नेता प्रमोद महाजन के लिए हाशिये पर फेंक दिए गए, केवल गोपीनाथ मुंडे बच गए, क्योंकि वह प्रमोद महाजन के रिश्तेदार थे. गुजरात में पहले शंकर सिंह बाघेला को निकालने के लिए स्थितियां बनाईं. बाद में हीरेन पंड्या का नंबर आया. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत को दिल्ली लाकर वसुंधरा राजे के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया. आंध्र प्रदेश में वेंकैय्या नायडू के लिए पूरी पार्टी की बलि चढ़ा दी गई. आज वसुंधरा राजे, राजनाथ सिंह, वेंकैय्या नायडू, अनंत कुमार इन तीनों के मुख्य हथियार बने हुए हैं.
भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली का डेडली काम्बीनेशन है. लालकृष्ण आडवाणी का मानना था कि यदि उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ा जाएगा तो देश भाजपा को वोट देगा. इस विचार को अरुण जेटली ने अपने तर्कों से पुष्ट कर आडवाणी के मन की आखिऱी हिच दूर कर दी. लेकिन जनता ने आडवाणी के चेहरे को अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे से बेहतर नहीं माना.
नब्बे में जब आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी की जगह लेने के लिए अपने लोगों की टीम बनाई थी, तब इनका दर्जा लेफ्टिनेंट का था. आज जब आडवाणी बूढ़े हो गए हैं तो उनके सारे लेफ्टिनेंट जनरल हो गए हैं और आडवाणी उनकी बात कहने वाले नेता मात्र रह गए हैं. इस तिकड़ी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी के रिश्ते की कडिय़ों को भी प्रभावित किया है.
संघ के लोगों का कहना है कि भाजपा की असली ताक़त वे हैं तथा चुनाव के समय बूथ तक का मैनेजमेंट वे करते हैं. इसीलिए भाजपा की संरचना में संगठन मंत्री का बड़ा महत्व है, जो संघ द्वारा भेजा व्यक्ति होता है. इस पद पर सुंदर सिंह भंडारी, गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी, संजय जोशी जैसे व्यक्ति रह चुके हैं और आज रामलाल संगठन मंत्री हैं. इस पद की हैसियत को बर्बाद करने की कहानी भी दिलचस्प है. आज तो संगठन मंत्री डरा हुआ है, क्योंकि वह अपने पहले के दो संगठन मंत्रियों का हश्र देख चुका है. भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में ढाई करोड़ रुपये की चोरी हुई. इसकी जांच की मांग न भाजपा में किसी ने की और न भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल ने, जो बुनियादी तौर पर संघ के प्रतिनिधि हैं. ऐसा लगता है मानों पूरा तंत्र सडऩे लगा है.गोविंदाचार्य को संघ ने अपना प्रतिनिधि बना भाजपा में संगठन मंत्री के तौर पर भेजा. गोविंदाचार्य के ऊपर संघ को पूरा भरोसा था कि वह भाजपा को भटकने नहीं देंगे. गोविंदाचार्य भाजपा को हमेशा संघ की विचारधारा पर चलने के लिए प्रेरित भी करते थे और दबाव भी डालते थे. मज़बूत होती तिकड़ी को गोविंदाचार्य का तरीक़ा पसंद नहीं आया और उन्होंने अटल जी का वैसे ही इस्तेमाल किया, जैसे बाद में उमा भारती का किया था. गोविंदाचार्य संघ के व्यक्ति थे, लेकिन भाजपा में रहते उनका चेहरा सार्वजनिक हो गया और वह कार्यकर्ताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गए. गोविंदाचार्य को हटाने की रणनीति बनी और उन पर एक महिला राजनेता से नज़दीकी का आरोप लगाया गया. अचानक अख़बारों में गोविंदाचार्य और उस महिला राजनेता के संबंधों की खबरों की बाढ़ आ गई. गोविंदाचार्य इस घटिया राजनैतिक हमले से इतने आहत हो गए कि उन्होंने भाजपा से अपने को दूर कर लिया. यह घटना 1999 में हुई.

संघ ने संजय जोशी को 2001 में भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंत्री बना दिया गया.संजय जोशी लो प्रोफाइल, साधारण रहन-सहन में विश्वास करने वाले, जैसा प्रचारक करते हैं या समाजवादी और साम्यवादी रहते हैं, साध्य के साथ साधन को भी उतना ही महत्व देते हैं, प्रचार से दूर रहने वाले, सबसे मिलने वाले और सबकी सुनने वाले, लॉबी बनाने के खि़लाफ़ तथा ग्रासरूट काम में विश्वास करने वाले व्यक्तिहैं. उन्होंने संगठन मंत्री रहते हुए भाजपा पर संघ के विचारों पर चलने के लिए हमेशा दबाव बनाए रखा. भाजपा कार्यकर्ता अध्यक्ष के यहां कम, संजय जोशी के यहां ज़्यादा जाता था. इसी बीच आडवाणी पाकिस्तान गए और उन्होंने लाहौर में जिन्ना को लेकर मशहूर लाइन लिखी. संघ ने जोशी से कहा कि वह आडवाणी से इस्तीफ़ा ले लें. संजय जोशी ने बिना हिचक आडवाणी से अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया. संजय जोशी ने संघ की बात मान अपने लिए राजनैतिक क़ब्र खोद ली. अचानक भाजपा के मुंबई अधिवेशन में एक सीडी बंटी. इस सीडी में एक व्यक्ति एक महिला के साथ था तथा अफवाह फैली कि यह व्यक्ति भाजपा का संगठन मंत्री संजय जोशी है. संजय जोशी ने भी गोविंदाचार्य की तरह तत्काल अपना त्यागपत्र दे दिया. अब जाकर तथ्य सामने आ रहे हैं और सीडी की सच्चाई भी सामने आ रही है.संघ ने भाजपा का अध्यक्ष नितिन गडकरी को बनवा तो दिया, लेकिन अब उसके सामने साफ हो गया है कि दिल्ली में बैठे अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वेंकैय्या नायडू, जेटली, राजनाथ सिंह और आखिऱ में आडवाणी उन्हें सफल नहीं होने देंगे.

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

खेल नहीं बस हो रहा खिलवाड़

महिला हॉकी खिलाड़ी रंजीता द्वारा टीम के कोच एमके कौशिक पर लगाए यौन शोषण के आरोपों को हॉकी इंडिया ने सही मानते हुए उन पर कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। देश में हॉकी के सबसे बड़े निकाय ने सेक्स स्कैंडल पर रिपोर्ट जारी कर दी है। इसके साथ ही हॉकी इंडिया ने फैसला लिया है कि भविष्य में वो कभी कौशिक को अनुबंधित नहीं करेगी ना ही उनकी सेवाएं लेगी। अभी यह मामला चल ही रहा है कि इसी बीच मैच फिक्सिंग के आरोप में आजीवन प्रतिबंध का सामना कर रहे टीम इंडिया के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा के प्रेम का मामला उछल गया। जिससे अब तो यह भ्रम भी चरमरा कर अपनी अंतिम सांसें ले रहा है कि खेल सिर्फ खेल नहीं एक तरह का खिलवाड़ भी है। चाहे यह खेल क्रिकेट हो या हॉकी, इंडियन प्रीमियर लीग की चौंधियाहट हो या फीफा की जगमगाहट। देश हो या विदेश - जहां खेल है, पैसा है, वहां परोसा जाता है सेक्स।
देश की पहले से चरमराई महिला हॉकी टीम की एक सदस्या ने जब कोच पर यौन शोषण का आरोप लगाया, तब खेल मंत्रालय जैसे सोते से जाग गया। इसके तुरंत बाद यह खबर आई कि जब भारतीय महिला हॉकी टीम चीन और कनाडा के दौरे पर थी, तब टीम का एक अधिकारी अपने कमरे में कार्ल गल्र्स लाता था। हमारे देश में हॉकी के साथ कोई ग्लैमर नहीं जुडा, लेकिन यहां भी खेल की आड़ में देह व्यापार झांकने लगा है।
इस घटना का गौरतलब पहलू यह है कि टी रंजीता के इन आरापों के बाद कई महिला खिलाडिय़ों ने अपने साथ या अन्य महिला खिलाडिय़ों के साथ हुए द्रव्र्यवहार पर खुलकर बोलना शुरू कर दिया है। टीम की पूर्व गोलकीपर और अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हेलन मेरी की प्रतिक्रिया कुछ यों रही- टीम में यह खेल बहुत पहले से चल रहा है। फेडरेशन और मंत्रालय में शिकायत करने पर भी पीडि़तों की ज्यादा सुनवाई नहीं होती। हाकी खिलाड़ी नवनीत भी दो महीने बाद दिल्ली में होने वाले कामनवेल्थ गेम्स में देश का प्रतिनिधित्व कर रही होतीं, अगर उन्होंने दो साल पहले लखनऊ में जूनियर नेशनल कैंप के दौरान राष्ट्रीय गोलकीपिंग कोच ई एडवर्ड्स के कथित दुर्व्यवहार को चुपचाप सहन कर लिया होता। नवनीत का कहना था कि उन्होंने इस मामले की शिकायत राष्ट्रीय जूनियर हाकी के तत्कालीन कोच जीएस भंग्गू से की थी, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। नवनीत की मानें तो उन्हें विकल्प दिया गया था कि समझौता कर लो या फिर हाकी छोड़ दो। नवनीत ने हाकी छोडऩे वाला विकल्प चुना। इसी तरह जून 2009 में आंध्र क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव पर यौन शोषण का आरोप लगा था और इस साल फरवरी में सुमन रावत ने आरोप लगाया कि अंतरराष्ट्रीय बॉक्सर और कोच जगत सिंह बेलाल ने उनके साथ बलात्कार की कोशिश की। बाद में सुमन रावत को टीम से निकाल दिया गया।
यहा टेनिस की उभरती खिलाड़ी रुचिका गिरोत्रा का जिक्र करना जरूरी हो जाता है, जिसका यौन उत्पीडऩ हरियाणा के तत्कालीन डीजीपी राठौर ने किया था। उस समय राठौर हरियाणा टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। रुचिका ने यौन उत्पीडऩ और अपने परिवार को राठौर द्वारा दी जाने वाली मानसिक यातनाओं से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। महिला खिलाडिय़ों द्वारा अपने प्रशिक्षकों के खिलाफ यौन उत्पीडऩ के आरोपों वाले मामलों की सूची बहुत लंबी है, जो इस बात की ओर इशारा करती है कि कहीं दाल में कुछ काला है।
दाल में कुछ काला नहीं रहता तो भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) से कांग्रेस सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन का दिल अपने से आधी उम्र की एक बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा पर क्यो आ गया है। ज्वाला की वजह से अजहर और संगीता बिजलानी की 14 साल पुरानी शादी खतरे में बताई जा रही है। खबर यहां तक है कि एक हफ्ते के भीतर अजहर तलाक के लिए अर्जी देने वाले हैं। ज्वाला गुट्टा भी शादीशुदा हैं। उनकी शादी विजेता चेतन आनंद से हुई है। ज्वाला 26 की है जबकि अजहर 47 के। शादीशुदा अजहर हाल ही में एशियन बैडमिंटन चैंपियनशिप के दौरान दिल्ली में शादीशुदा ज्वाला के साथ कई मैचों के दौरान क्यों घुम रहे थे। इस पूरे मामले पर पुलेला गोपीचंद ने भी कुछ कहने से इनकार कर दिया है। अजहर की पहली शादी नौरीन से हुई थी। शादी के करीब 8 साल बाद अजहर-नौरीन के रिश्ते में खटास आ गई थी जब अजहर संगीता के करीब आ रहे थे। नौरीन से अजहर के दो बेटे हैं-असादुद्दीन और अबासुद्दीन। हालांकि, तलाक के पांच साल बाद नौरीन ने एक कनाडाई बिजनेसमैन से शादी कर ली थी। इस मामले पर जब ज्वाला गुट्टा से पूछा गया तो उन्होंने न तो ख़बर से इनकार ही किया और न ही उसे सही बताया। वहीं, उनके पति चेतन आनंद ने कहा कि मीडिया को किसी की निजी जि़ंदगी में झांकने का हक नहीं है। संगीता बिजलानी की ओर से भी इस मामले पर कोई बयान नहीं आया है।
बैडमिंटन से जुड़े पदाधिकारियों का कहना है कि ज्वाला से नजदीकियों के कारण ही अजहर बैडमिंटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया (बीएआई) में अध्यक्ष का चुनाव लडऩा चाहते थे। उल्लेखनीय है कि अजहर ने अध्यक्ष पद के चुनाव में वीके वर्मा को चुनौती देने का एलान करते हुए सभी को चौंका दिया था। सूत्रों के अनुसार अजहर ने ज्वाला को बीएमडब्ल्यू कार तोहफे में दी है और बैडमिंटन स्टार हैदराबाद की सड़कों पर इसे दौड़ाते हुए सबकी नजरों में आ चुकी हैं। आंध्रप्रदेश बैडमिंटन संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि अजहर जब भी हैदराबाद में होते हैं, तो गोपीचंद एकेडमी के काफी चक्कर लगाते हैं। ज्वाला यहीं प्रैक्टिस करती हैं और उन्हें कई बार अजहर के साथ जाते हुए देखा गया है।
एक सवाल यह भी है कि विभिन्न खेल संघों ने अपने-अपने यहा यौन उत्पीडऩ शिकायत सेल और जाच समितियों का गठन भी किया हुआ है या नहीं? कई महिला खिलाडिय़ों के बयानों से यही गंध मिलती है कि यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने पर आला अधिकारियों का रवैया मामले को दबाने का ही होता है। कई मर्तबा महिला खिलाड़ी ऐसे मुद्दों पर खामोश ही रहती हैं। विरोध न करने की कई वजहें हो सकती हैं।
जब छोटे-छोटे कस्बों की लड़कियां प्रतिकूल माहौल से जद्दोजहद करते हुए खेल के मैदान तक पहुंचने का जज्बा दिखा रही हैं तो ऐसे में सरकार उन्हें भयमुक्त सुरक्षित महौल मुहैया कराने की जवाबदेही से कैसे बच सकती है।
खेल के साथ सेक्स को आईपीएल के मैचों में भी खूब भुनाया गया। वैसे भी आईपीएल खेलों में देश-विदेश की छरहरी बालाएं, जो चियर लीडर्स का काम करती हैं, अपनी आकर्षक मुद्राओं से दर्शकों को भी स्टेडियम आने का आमंत्रण देती हैं। आईपीएल की आलीशान पार्टियां, टीम के मालिकों का रईसाना अंदाज और उनका साथ देने के लिए मौजूद बालाएं। हॉकी के एक अधिकारी की रंगीन रातों के खुलासे के बाद आईपीएल के उन अधिकारियों पर उंगली उठने लगी है, जो ऐसी पार्टियों के कर्ताधर्ता थे। अनुमान के मुताबिक एक माह तक जारी इन खेलों में लगभग ढाई सौ चियर लीडर्स थीं और हजार से ज्यादा यौनकर्मी विभिन्न शहरों में खास मेहमानों का मनोरंजन करने के लिए आमंत्रित की जाती थीं।
ताजा प्रकरण ने एक साथ कई सवालों को जन्म दिया है, जिनके हल उच्च पदों पर आसीन संबंधित अधिकारियों को तलाश करने होंगे। कौशिक ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन क्या उनका इस्तीफा देना ही इस मसले का हल है? क्या इस के सामने आने के बाद हम अपने परिवार की किसी लड़की को खेलों की ओर प्रोत्साहित करने का विचार करेंगे? क्या आप मानते हैं कि इस तरह की घटनाएं खेल की दुनिया में आम बात हैं? क्या विदेश दौरों के दौरान पुरुष अधिकारियों के साथ पत्नी का जाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए? क्या हॉकी की दुर्दशा के लिए यही सब कारण जिम्मेदार हैं? क्या सिर्फ कोच का बदला जाना इस समस्या का हल है?

भगवान बने हैवान

मध्यप्रदेश में कुछ स्वार्थ लोलुप डॉक्टरों द्वारा क्लीनिकल ट्रायल के नाम पर 30 दिन के बच्चे से लेकर 55 साल के प्रौढ़ पर देशी और विदेशी दवाओं का अवैधानिक तरीके से परीक्षण धड़ल्ले से किया जा रहा है। पिछले 15 वर्षों में डॉक्टरों ने इस गोरख धंधे से करोड़ों रुपए की संपत्ति अर्जित कर ली और बड़े-बड़े अस्पताल खोल लिए। यह सभी डॉक्टर प्रदेश के नामी गिरामी डॉक्टरों में गिने जाते हैं। मप्र की औद्योगिक राजधानी इंदौर में यह काम धड़ल्ले से चल रहा है। यहां के डॉक्टरों ने भी स्थानीय समाचार पत्रों में दिए अपने वक्तव्य में कहा है कि इस कार्य से उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए हैं, पर मामले का खुलासा होने पर ऐसा पता चला है कि कई छोटे बच्चे और उम्रदराज लोगों की जाने इस क्लीनिकल ट्रायल के दौरान जा चुकी है। जब इन डॉक्टरों से इस संबंध में बात की गई तो उन्होंने कहा कि हम मरीजों से लिखित अनुमति लेने के साथ ही उनका बीमा भी कराते हैं। पर जब बीमा कंपनियों से इस संदर्भ में बात की गई तो उन्होंने कहा कि इस तरीके का बीमा आज तक हमारी कंपनियों में नहीं हुआ। क्लीनिकल ट्रायल के लिए डॉक्टरों द्वारा अनपढ़ या कम पढ़े मरीजों को अंग्रेजी का फार्म देकर उनसे अंगूठा या हस्ताक्षर कराकर (सहमति पत्र) की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। जबकि कायदा यह है कि उस सहमति पत्र की एक कॉपी मरीज के पास भी होनी चाहिए। इस पूरे मामले में जहां केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलामनबी आजाद ने जांच के आदेश दे दिए हैं वहीं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच करने को कहा है। वहीं प्रदेश के स्वास्थ्य राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया ने कहा है कि एमसीआई के कानून के अनुसार यह ट्रायल चल रहा है तो हमें कोई आपत्ति नहीं। इस वक्तव्य से पता चलता है कि श्री हार्डिया को क्लीनिकल ट्रायल और उससे जुड़ी कानूनी जटिलता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। सच्चाई यह है कि एमसीआई को देश और प्रदेश में जारी इस तरह की दवा परीक्षण गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है।
वैसे तो देश के हर राज्य में क्लीनिकल ट्रायल के नाम पर आदिवासी और गरीब लोगों पर विदेशी दवाओं का परीक्षण धड़ल्ले से चल रहा है, लेकिन मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में उजागर हुआ है। वह भी उस मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जो मध्यप्रदेश को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर रहा है। शिवराज सिंह चौहान ने जब से मुख्यमंत्री का पदभार संभाला है तभी से उनकी प्राथमिकता में जनस्वास्थ्य रहा है। इसके लिए हर साल प्रदेश के कुल बजट में से 900 करोड़ रुपए स्वास्थ्य विभाग को आवंटित किया जाता है ताकि प्रदेश के दूर-दराज के इलाके तक हर एक व्यक्ति को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें। वहीं दूसरी तरफ इंदौर स्थित प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी मेडिकल कॉलेज में सरकारी सुविधा प्राप्त डॉक्टरों द्वारा शासन-प्रशासन और लोगों को अंधेरे में रखकर विदेशी दवाईयों के परीक्षण किए जाने का सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया हैै। हालांकि क्लीनिकल ट्रायल करने वाले डॉक्टर इसको जायज ठहराते हैं लेकिन ऐसे ही डाक्टरों की मनमानी का देश में हर साल हजारों लोग शिकार हो जाते हैं। कुछ मौत के मुंह में समा जाते हैं तो कुछ जीवनभर के लिए गंभीर बीमारी या अपंगता के शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के तहत मप्र में हर साल तकरीबन 20,000 लोगों पर विभिन्न प्रकार की दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है जिसमें से करीब 7500 लोग इसके विपरीत प्रभाव के शिकार हो रहे हैं और हजार के करीब तो मौत के मुंह में समा जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए डॉक्टरों ने किस तरह लोगों को गिनीपिग यानी परीक्षण की वस्तु या फिर यूं कहे कि बलि का बकरा बनाया है। जून 2006 से मार्च 2008 तक देश के सबसे बड़े चिकित्सकीय संस्थान एम्स में ऐसे ही एक ट्रायल के दौरान 48 बच्चों की मौत का मामला सामने आया था। जिसके बाद से ही स्वास्थ्य मंत्रालय ने कानूनों को और कड़े करने का निर्णय लिया था, लेकिन आज तक सब कुछ निर्बाध रूप से चल रहा है। जबकि आंध्र प्रदेश में ड्रग ट्रायल के दौरान छह बच्चों की मौत के बाद वहां ट्रायल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
किसी दवा या टीके को बाजार में उतारने से पहले उसके प्रभाव को पहले किसी जीव और बाद में मरीज पर प्रयोग करके देखना ड्रग ट्रायल है। इसके विपरीत प्रभाव से मरीज की जान का खतरा रहता है। लेकिन डाक्टरी की डिग्री मिलने के बाद से ही करोड़पति-अरबपति बनने का ख्वाब संजोए डाक्टर अनौतिक रूप से ऐसे कार्यों में जुट जाते हैं। हालांकि प्रदेश में यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भोपाल में गैस त्रासदी दौरान भी मरीजों पर कुछ दवाओं का परीक्षण किया गया था। गैस पीडि़तों को गिनी पिग बनाने का खुलासा गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार ने भी किया। उन्होंने बताया कि 24 अगस्त 2008 को भोपाल मेमोरियल हास्पिटल के निदेशक ने चार विभागों को पत्र लिखकर निर्देश दिए थे कि गैस पीडि़तों व अन्य मरीजों पर ट्रायल ड्रग का उपयोग बंद कर दिया जाए।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विकसित दवाओं का धोखे से परीक्षण करने के दौरान प्रदेश में एक महिला मरीज की जान जा चुकी है। जबलपुर के कैंसर अस्पताल में इस मरीज का उपचार चल रहा था। उधर, इंदौर के बाद भोपाल और ग्वालियर के सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में भी ड्रग ट्रायल की अनियमितताएं सामने आई हैं। जबलपुर में अगस्त 2008 में कैंसर रोगियों पर ड्रग ट्रायल शुरू हुआ था। रेडियोथेरेपी की प्रोफेसर डॉ. पुष्पा किरार और डॉ. अमित जोतवानी ने पेट के कैंसर (कार्टिनोमा स्टमक) के चार रोगियों पर दवा का प्रयोग शुरू किया था। चूंकि यह ट्रायल प्लेसिबो (इलाज के बीच में दवा बंद कर दूसरे मरीजों से तुलना करना) था, इसलिए एक महिला रोगी पर सारी दवाइयां बंद कर दी गई। इसी दौरान पीडि़त की मौत हो गई। गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल के सर्जरी एचओडी डॉ. एमसी सोनगरा और डॉ. नितिन वर्मा ने 08 में मूत्र रोग पीडित 40 लोगों पर कैडिला कंपनी की दवा का प्रयोग किया। उन्होंने अहमदाबाद की निजी एथिक्स कमेटी से मंजूरी ली। गाइडलाइन के मुताबिक यदि सरकारी कॉलेज में एथिक्स कमेटी हो, तो बाहर की कमेटी से अनुमति नहीं ली जा सकती है। वर्ष 2005 में ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट संशोधन के मुताबिक ट्रायल को मंजूरी देने वाली एथिक्स कमेटी में एक आम आदमी समेत पांच बाहरी व्यक्ति होना आवश्यक है। ग्वालियर के गजरा राजा मेडिकल कॉलेज में बनी कमेटी में दो लोग बाहरी हैं और इनमें भी आम आदमी नहीं है। यहां न्यूरो सर्जरी के डॉ. आयंगर, स्त्री रोग के डॉ. वी. अग्रवाल, मेडिसिन के डॉ. नवनीत अग्रवाल, धर्र्मेद्र तिवारी, चर्मरोग के डॉ. पीके सारस्वत और आर्थोपेडिक्स के डॉ. सिकरवार ने दस कंपनियों के ट्रायल किए गए। इसमें करीब 3500 रोगियों को चुना गया।
लेकिन इंदौर में तो डॉक्टरों ने हद ही कर दी। यहां के एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में आने वाले मरीज यहां के डॉक्टरों की नजर में चूहे से ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं। देशी-विदेशी दवा कंपनियों में निर्माणाधीन दवा और टीके मरीजों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं। पांच वर्ष में ही छह डॉक्टरों ने ड्रग ट्रायल के नाम पर 1170 बच्चों समेत 1521 मरीजों पर प्रयोग करके दो करोड़ का कारोबार किया। सूत्रों के मुताबिक, कई ऐसी दवाओं के प्रयोग भी हो रहे हैं जिन्हें भारत सरकार से अनुमति नहीं है। वैसे तो निगरानी के लिए इथिकल कमेटी है, पर उसे दवाओं व कंपनियां के नाम की ही जानकारी दी जाती है। मरीज, राशि और हिसाब की जानकारी उसे कम ही होती है। मेडिकल कॉलेज ने राज्य सरकार को पूरी तरह अंधेरे में रखा है। सरकार को यह पता नहीं है कि उसके अस्पतालों में मरीजों पर प्रयोग के नाम डॉक्टर क्या कर रहे हैं, कितना कमा रहे हैं। यही नहीं निर्माणाधीन केमिकल फार्मूले (दवा) के मरीजों पर प्रयोग के लिए एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े तीन अस्पतालों में ऐसे दफ्तर खुले हैं, जो ड्रग ट्रायल के केंद्र हैं। इनमें करीब तीन दर्जन लोग काम करते हैं, जिन्हें ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टर ही तनख्वाह देते हैं। इन दफ्तरों में कम्प्यूटर, स्केनर, प्रिंटर के साथ ही फैक्स और अलग से लैंड लाइन फोन भी लगे हैं। इस सब कुछ के लिए किसी से भी इजाजत नहीं ली गई।
क्लीनिकल ट्रायल में विवाद का मुद्दा रहता है कि अधिकांश मरीज गरीब और अशिक्षित होते हैं और डॉक्टर्स अंग्रेजी के कंसर्न फार्म पर साइन लेते हैं। हालांकि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में डॉक्टरों ने हिंदी का सहमति पत्र दिया है। कई मरीजों को पता ही नहीं होता कि वे किसी शोध का हिस्सा है या ऐसी दवा ले रहे हैं जो ड्रग कंट्रोलर द्वारा इंडियन मार्केट में बेचने की अनुमति नहीं है। प्रदेश की औद्योगिक राजधानी में ड्रग ट्रायल सरकारी मेडिकल कॉलेज ही नहीं, प्राइवेट संस्थाओं में भी किए जा रहे हैं। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल रिसर्च के क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया की आधिकारिक वेबसाइट पर इंदौर शहर के 20 डॉक्टरों के नाम हैं जिनमें डॉ. राकेश तारन, पुष्पा वर्मा, अनिल भराणी, सुनील एम. जैन, हेमंत जैन, गोविंद मालपानी, अजय चौहान, सलिल भार्गव, राजेश जैन, प्रदीप भार्गव, गजेन्द्र भंडारी, अभय पालीवाल, उज्ज्वल सरदेसाई, रामगुलाम राजदान, अशोक वाजपेयी, प्रदीप मेहता, अतुल शेंडे, आरती कौल, एस.जेड. जाफरी, डॉ. राजेन्द्र मेहता हैं। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग और मेडिसिन विभाग में पांच साल में 40 क्लीनिकल ड्रग ट्रायल किए गए हैं। हालांकि इनमें से आठ-नौ ही इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च में पंजीबद्ध है। अब कॉलेज प्रशासन यह पता लगा रहा है डॉक्टरों ने इन ट्रायल्स का पंजीयन करवाया या नहीं? सरकारी डॉक्टरों के प्राइवेट अस्पतालों में नियमित जाने पर पाबंदी लगा रखी है। आकस्मिक स्थिति में भी डीन की अनुमति जरूरी है। इसको ठेंगा दिखाते हुए डॉक्टर प्राइवेट अस्पतालों में ड्रग ट्रायल भी कर रहे हैं। कई ने तो क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर प्राइवेट अस्पतालों के नाम के साथ खुद का रजिस्ट्रेशन करवा रखा है। इस पर कॉलेज प्रशासन मौन है। वहीं एमवाय अस्पताल अधीक्षक डॉ. सलिल भार्गव द्वारा ज्ञानपुष्प रिसर्च सेंटर में खड़ा किया गया करोड़ों का ड्रग ट्रायल के कारोबार की जांच भोपाल के अधिकारी करेंगे। एमजीएम मेडिकल कॉलेज के लचर रवैये को देखते हुए यह फैसला किया गया है। मनोरोग विभाग के डॉ. रामगुलाम राजदान, डॉ. अभय पालीवाल, डॉ. उज्जवल सरदेसाई और मेडिसीन के डॉ. अतुल शेंडे ने भी डॉ. भार्गव की तर्ज पर निजी अस्पतालों में जाकर ट्रायल के गोरखधंधे में व्यारे-न्यारे किए हैं।
मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों में से कुछ ने तो अस्पताल में ही ट्रायल किए और कॉलेज की एथिक्स कमेटी से इसकी बाकायदा अनुमति ली, लेकिन कुछ डॉक्टर्स ऐसे भी थे जिन्होंने प्राइवेट अस्पताल या क्लिनिक पर ट्रायल किए हैं। डॉक्टरों ने दवा का परीक्षण एमवायएच में न करते हुए बाहर किया ताकि किसी को पता न चले। शहर में मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर्स ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में प्राइवेट डॉक्टर्स भी मरीजों पर शोध के नाम पर ऐसी दवा का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ने भारतीय बाजार में बेचने की अनुमति नहीं दी है। अगर डीजीसीआई इन दवाओं को बेचने की अनुमति नहीं देता तो फिर इनका परीक्षण यहां के मरीजों पर क्यों किया जा रहा है?
जानकारी के अनुसार डॉक्टर्स जो भी शोध करते हैं तो उन्हें एथिक्स कमेटी की मीटिंग में मरीजों पर प्रयोग की गई दवा और उसके असर के बारे में भी बताना पड़ता है। कमेटी के सदस्यों को सारी जानकारी होना चाहिए। मीटिंग के मिनट्स में भी इसका जिक्र होता है। पिछले तीन सालों की बात करें तो स्वास्थ्य मंत्रालय के ड्रग डिवीजन ने करीब 689 ड्रग्स के क्लिनिकल ट्रायल को एनओसी दी है।
किसी भी दवा का ट्रायल जब शुरू किया जाता है तो देशभर के कई केंद्रों पर इनका परीक्षण करवाया जाता है। पर प्रदेश में भी न केवल सरकारी स्तर पर बल्कि प्राइवेट अस्पतालों और डॉक्टरों द्वारा धड़ल्ले से ट्रायल किए जा रहे हैं। इन पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मेडिकल कॉलेज की अलग एथिक्स कमेटी है, वहीं प्राइवेट अस्पतालों ने अलग कमेटी बनाई है। जो डॉक्टर्स किसी अस्पताल में नहीं जाते हैं, उन्होंने इसके लिए अलग एथिक्स कमेटी गठित की है। एथिक्स कमिटी के फार्मेशन व रजिस्ट्रेशन को लेकर क्या नियम है, ये किसी को भी नहीं पता। राज्य के स्वास्थ्य विभाग को भी इसकी जानकारी नहीं है। एमजीएम मेडिकल कॉलेज में क्लिनिकल ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टरों ने जो जवाब भेजा है, वह चौंकाने वाला है। डॉक्टरों ने कहा है औषधि अनुसंधान पढ़ाई का हिस्सा है, जबकि मेडिकल कॉलेज में ट्रायल किए जा रहे हैं। अनुसंधान और ट्रायल में फर्क होता है। जानकारों के मुताबिक मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के पोस्ट ग्रेजुएट रेगुलेशन में इस बात का उल्लेख नहीं है कि ड्रग ट्रायल पढ़ाई का हिस्सा है। अगर ये एकेडमिक विषय है तो प्रदेश के अन्य चार मेडिकल कॉलेजों में यह ड्रग ट्रायल क्यों नहीं किए जा रहे? सूत्रों के अनुसार कुछ साल पहले फिजियोलॉजी विभागाध्यक्ष ने छात्रों द्वारा शोध के नाम पर दिए गए ड्रग ट्रायल को लेने से मना कर दिया था। अनुसंधान किसी बीमारी या अणु पर एकत्रित की गई जानकारी होती है। इसके लिए डाटा इक_ा किए जाते हैं जबकि ट्रायल का सीधा अर्थ है परीक्षण करना। विदेशों में शोध के बाद बनाई गई दवाइयों का परीक्षण शहर में धड़ल्ले से किया जा रहा है। एमजीएम मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पतालों में पांच वर्ष से जारी ड्रग ट्रायल की पूरी जानकारी 500 से अधिक पन्नों में पूरी हुई। यह जानकारी भोपाल भेजी गई है, जिसे विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा। बरसों से एमजीएम मेडिकल कॉलेज में ड्रग ट्रायल हो रहा है और सरकार को इसकी रत्तीभर भी जानकारी नहीं थी। हालांकि प्रदेशभर में डॉक्टरों के बीच इस बात को लेकर चर्चा थी। सूत्र बताते हैं कि इस गोरखधंधे की पोल उस समय खुली जब कुछ मरीजों ने अपने ऊपर की गई दवाओं के परीक्षण की बात कुछ सहृदयी डॉक्टरों से की। बात निकली तो धीरे-धीरे आगे बढ़ी और शिकायत पहुंच गई रतलाम के विधायक पारस सखलेचा और सरदारपुर के विधायक प्रताप ग्रेवाल के पास। दोनों विधायकों ने ड्रग ट्रायल का मामले को गंभीरता से लेते हुए विधानसभा में सवाल पूछा तो मामले में लिप्त सभी डॉक्टरों के कान खड़े हो गए। सूत्रों की माने तो विधानसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में कॉलेज ने जानकारी भेजी कि शिशु रोग और मेडिसिन विभाग में 20-20 ट्रायल हुए हैं। इनमें कॉलेज से संबद्ध चाचा नेहरू अस्पताल में तो सारे ट्रायल डॉ. हेमंत जैन के नाम पर हैं। वे ही सारे ट्रायल के प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर रहे, वहीं मेडिसिन में डॉ. अशोक वाजपेयी, डॉ. सलील भार्गव, डॉ. संजय अवासिया, डॉ. अनिल भराणी आदि ने ट्रायल किए। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े सूत्रों की माने तो भारत में अधिकतर उन्ही विदेशी दवाओं का ट्रायल होता है जिन्हें किसी अन्य देश ने ट्रायल करने की अनुमति नहीं मिल पाती है। यही कारण है कि क्लीनिकल ट्रायल या क्लीनिकल रिसर्च (चिकित्सीय अनुसंधान) कारोबार में भारत अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वी चीन से भी आगे बढ़ गया है। देश की लचर स्वास्थ्य प्रणाली और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते आउटसोर्स किए गए चिकित्सकीय परीक्षणों का बाजार आज 2 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। गौरतलब है कि आम हिंदुस्तानी का बड़ी-बड़ी कंपनियों की दवाइयों के लिए गिनीपिग बनने का सिलसिला नया नहीं है।
गौरतलब है कि स्वाथ्य क्षेत्र में कोई नई दवा लोगों के लिए कितनी सुरक्षित है और कितनी प्रभावी है, इसके आंकड़े हासिल करने के लिए क्लीनिकल ट्रायल किया जाता है। किसी देश में यह परीक्षण करने के लिए पहले वहां स्वास्थ्य क्षेत्र की नियामक संस्था या सदाचार समिति से मंजूरी लेनी पड़ती है। भारत में कोई जब किसी दवा का क्लीनिकल ट्रायल करना चाहता है तो उसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद से जुड़ी संस्था नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल स्टेटिस्टिक्स में इसकी रजिस्ट्री करवानी पड़ती है। उसे किसी मरीज पर इस दवा के परीक्षण से पहले डब्ल्यूएचओ के आईसीटीआरपी के मानक के अनुसार कई तरह की जानकारियां देनी पड़ती हैं। इसके साथ ही उसे भारतीय संदर्भ के लिए प्रासंगिक कई जानकारियां भी देनी होती हैं जैसे सदाचार समिति से मंजूरी मिली है या नहीं, डीसीजीआई से मंजूरी मिली है या नहीं आदि। देश में क्लीनिकल ट्रायल का कारोबार तेजी से बढऩे के बावजूद उसका फायदा घरेलू दवा कंपनियां नहीं उठा पा रही हैं। इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है क्लीनिकल ट्रायल के वास्ते ली जाने वाले फीस के लिए कोई मानक का न होना। इस वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के योग्य डॉक्टरों को भारी-भरकम राशि देकर अपनी ओर खींचने में सफल हो जाती हैं जिसका सीधा असर देश में दवा उद्योग के रिसर्च कार्ये पर पड़ रहा है।
विडंबना यह है कि डाक्टरों को दी जाने वाली फीस पर सरकारी नियंत्रण का कोई इंतजाम नहीं है और न ही कोई योजना है। इसी वजह से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां योग्य डाक्टरों को काफी अधिक फीस दे रही हैं और वे छोटी कंपनियों की पहुंच से बाहर हो रहे हैं। मेट्रो शहरों में बड़े डाक्टर क्लीनिकल ट्रायल के वास्ते मरीज को रजिस्टर कराने के लिए दो लाख रुपये प्रति मरीज ले रहे हैं। ऐसे में छोटी कंपनियां बड़े शहरों को छोड़ छोटे शहरों में कम पैसों पर डाक्टरों से क्लीनिकल ट्रायल करवा रही हैं। भारत के दवा महानियंत्रक (डीसीजीआई) के सूत्रों ने बताया कि सरकार क्लीनिकल ट्रायल करने के तरीके पर पूरी नजर रख रही है। लेकिन इसके लिए डाक्टर से तय की जाने वाली फीस पर नियंत्रण करने की योजना पर सरकार अभी कुछ नहीं सोच रही है।
उनका कहना है कि अधिकतर नए मॉलिक्यूल्स बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ही तैयार किए जाते हैं, उनकी लागत भी काफी आती है और ट्रायल के लिए डाक्टर को ये कंपनियां फीस भी अधिक देती हैं। डीसीजीआई का मानना है कि क्लीनिकल ट्रायल के लिए फीस लेना-देना डाक्टर और कंपनी के बीच का मामला है। हालांकि, उनका कहना है कि इसके लिए कोई नियामक बनाने के बजाय डाक्टरों को ही तय करना होगा कि कितना पैसा जायज है। सरकारी संस्थाओं में क्लीनिकल ट्रायल करवाने के लिए काफी मानकों को पूरा करना होता है, इसलिए कंपनियां क्लीनिकल ट्रायल के लिए प्राइवेट डाक्टरों और कॉरपोरेट अस्पतालों को ही अहमियत देती हैं। लेकिन इंदौर में डाक्टरों ने इसके विपरीत कार्य किया है। उधर इस मामले में सीटीआरआई (क्लीनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया) की संचालक आभा अग्रवाल का कहना है कि अब क्लीनिकल ट्रायल का रजिस्ट्रेशन सीटीआरआई में होने लगा है। अभी तक हमारे यहां करीब 1152 ट्रायल रजिस्टर्ड हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या राज्यवार ट्रायल का विवरण भी आपके पास हैं तो उन्होंने कहा कि इस विभाग की अभी-अभी स्थापना हुई है इसलिए हमारे पास अभी पूरा सेटअप नहीं है। सीटीआरआई की संचालक के इस कथन से ही अंदाज लगाया जा सकता है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय लोगो के स्वास्थ्य के लिए कितना तत्पर है?
उल्लेखनीय है कि क्लीनिकल ट्रायल मामले में बॉयोमेडिकल रिसर्च ऑन ह्यïयूमन सब्जेक्ट (रेगुलेशन एंड प्रमोशन) बिल 2006 में तैयार किया था। जिसको सरकार ने स्वीकृत भी कर लिया था लेकिन वह पिछले 4 सालों से लटका हुआ था, लेकिन इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के महानिदेशक डॉ. व्हीएम कचोट ने इसे गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय के पास फाइनल टच के लिए भेजा। यह बिल संशोधित होकर संसद के इसी सत्र में पटल पर रखा जाएगा। ताकि इस बिल में कानूनी खामियों को दूर किया जा सके।